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## Chapter Thirty-One The nations, their boundaries, and their kings were born to serve the Lord Bharata, and he, in turn, bestowed upon them many fruits. ||73|| He subdued the kings who lived beyond the sea, and those who lived on islands in the sea. He captured the elephants born in the forests and nurtured them. ||74|| He obtained from them various precious jewels as he desired, and, satisfied, he reinstated them in their places by his command. ||75|| The great fortresses on the mountains and those built underground were all subdued by his army. What is impossible for the great? ||76|| Thus, having conquered all the kings of the east, he set out from the middle of the earth towards the south, desiring to conquer the kings of the south. ||77|| Wherever the victorious Bharata's army, led by excellent commanders, went, the kings and their vassals bowed down and paid homage. ||78|| In the south, he conquered the kings of Trilinga, Audra, Kachchha, Prātar, Kerala, Chera, and Punnaga. ||79|| He also subdued the kings of Kuṭa, Olika, Mahiṣa, Kamekura, Pāṇḍya, and Antarapāṇḍya by his might. ||80|| Having quickly conquered all these kings, he made them bow down at his feet, and, taking their precious jewels, he attained supreme joy. ||81|| The commander-in-chief, carrying out the emperor's command, also roamed through many mountains, rivers, and countries near the Kalinga forest. ||82|| He, along with his armies, reached the great rivers of Taila, Ikshumati, Nakarava, Vanga, and Śvasana. ||83||
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________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व राष्ट्राच्यवधयस्तेषां राष्ट्रीयाश्च महीभुजः । फलाय जज्ञिरे भर्तुः योजिताश्चामना फलैः ॥७३॥ अपानवारपारीणान् द्वैप्यानप्यु पसागरे । बली बलैरवष्टभ्य प्रापोपवनजान् गजान् ॥७४॥ रत्नान्यपि विचित्राणि तेभ्यो लब्ध्वा यथेप्सितम् । तानेवास्थापयत्तत्र सन्तुष्टः प्रभुराज्ञया ॥७॥ महान्ति गिरिदुर्गाणि निम्नदुर्गाणि च प्रभोः । सिद्धानि बलरुद्धानि किमसाध्यं महीयसाम् ॥७६॥ इत्थं स पृथिवीमध्यान् पौरस्त्यान्निर्जयन्नुपान् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां दाक्षिणात्यजिगीषया ॥७७॥ यतो यतो बलं जिष्णोः प्रचलत्युद्घनायकम् । ततस्ततः स्म सामन्ता नमन्त्यानसमौलयः ॥७॥ त्रिकलिडागाधिपानीद्रान कच्छान्धविषयाधिपान् । प्रातरान् केरलांश्चोलान् पुन्नागांश्च व्यजेष्ट सः॥७॥ कडुम्बानोलिकांश्चैव स माहिषकमेकुरान् । पाण्ड्यानन्तरपाण्डयांश्च दण्डेन वशमानयत् ॥८॥ नपानेतान् विजित्याशु प्रणमय्य स्वपादयोः । हत्वा तत्साररत्नानि प्रभुः प्रापत् परां मुदम् ॥५॥ सेनानीरपि बभ्रामविभोराज्ञां समुद्वहन् । गिरीन् ससरितो देशान् कालिङगकवनाश्रितान् ॥१२॥ स साधनः समं भेजे तैलाभिक्षुमतीमपि । नदी नरवां वडगा श्वसनां च महानदीम् ॥३॥ तैरने योग्य हो गई थी। इसी प्रकार जो पर्वत दुरारोह अर्थात् कठिनाईस चढने योग्य थे वे ही पर्वत सैनिकों के द्वारा शिखरोंके चूर्ण हो जानेसे स्वारोह अर्थात् सुखपूर्वक चढ़ने योग्य हो गये थे ।७२॥ देश, उनकी सीमाएं और देशोंके राजा लोग सम्राट भरतेश्वरको फल प्रदान करने के लिये ही उत्पन्न हुए थे तथा बदलेमें भरतने भी उन्हें अनेक फलोंसे युक्त किया था। भावार्थ-- सम्राट् भरत जहां जहां जाते थे वहां वहांके लोग उन्हें अनेक प्रकारके उपहार दिया करते थे और भरत भी उनके लिये अनेक प्रकारकी सुविधाएं प्रदान करते थे ॥७३॥ जो राजा लोग उपसमुद्रके उस पार रहते थे अथवा उप-समुद्रके भीतर द्वीपोंमें रहते थे उन सबको बलवान न संनाक द्वारा अपने वश किया था तथा वनम उत्पन्न होनेवाले हाथियोकी पकड़ पकड़कर उनका पोषण किया था ।।७४॥ महाराज भरतने उन राजाओंसे अपने इच्छानुसार अनेक प्रकारके रत्न लेकर संतुष्ट हो अपनी आज्ञासे उनके स्थानोंपर उन्हींको फिरसे विराजमान किया था ।।७५।। जो बड़े बड़े किले पहाड़ोंके ऊपर थे और जो जमीनके नीचे बने हुए थे वे सब सेनाके द्वारा धिरकर भरतके वशीभूत हो गये थे, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंको क्या असाध्य है ? ॥७६।। इस प्रकार भरतने पूर्व दिशाके समस्त राजाओंको जीतकर दक्षिण दिशाके राजाओंको जीतनेकी इच्छासे उस पृथिवीके मध्यभागसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान किया ॥७७।। उत्कृष्ट सेनापति सहित विजयी भरतकी सेना जहां जहां जाती थी वहां वहां के राजा लोग सामन्तों सहित मरतक झुका झुकाकर उन्हें नमस्कार करते थे ।।७८॥ दक्षिणमें भरतने त्रिलिंग, औद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर और पुन्नाग देशोंके सब राजाओंको जीता था ।।७९।। तथा कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पाण्ड्य और अन्तरपाण्ड्य देशके राजाओं ण्ड रत्नके द्वारा अपने वशीभूत किया था ।।८०।। सम्राट् भरतने इन सब राजाओंको शीघ ही जीतकर उनसे अपने चरणोंमें प्रणाम कराया और उनके सारभत रत्न लेकर परम आनन्द प्राप्त किया ॥८॥ चक्रवर्तीकी आज्ञा धारण करता हआ सेनापति भी कालिंगक वनके समीपवर्ती अनेक पहाड़ों, नदियों तथा देशोंमें घूमा था ॥८२॥ वह अपनी सेनाओंके साथ साथ तैला, इक्षुमती, नकरवा, वंगा और श्वसना आदि महानदियोंको प्राप्त हुआ था १ सेनान्या । २ उभयतीर भवान् । 'पारावारपरेभ्यः इति खः' इति प्रागजितीयेऽर्थे खः । 'पारावारे परे तीरे' इत्यमरः । ३ द्वीपे जातान्। ४ घाटीं कृत्वा । ५ पुपोष वनजान् ल०, द०, ३०, अ० । ६ पूर्व दिग्भवान् । ७ दक्षिणदिशि जाता। ८ चेरान् ल०, द० । ६ बलेन । १० प्रभो-ल० । ११ कलिङगदेशसम्बन्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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