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________________ चतुश्चत्वारिंशत्चमं पर्व अथ दुर्मषणो नाम दुष्टस्तस्या'सहिष्णुकः । सर्वानुद्दीपयन् पापी सोऽर्ककीर्त्यनुजीवकः ॥१॥ अकम्पनः खलः क्षद्रो वथैश्वर्यमदोद्धतः। मृषा युष्मान् समाहूय श्लाघमानः स्वसम्पदम् ॥२॥ पूर्वमेव समालोच्य मालामासञ्जयज्जये। पराभूति विधित्सुर्वः स्थायिनीमायुगान्तरम् ॥३॥ इति ब्राणः सम्प्राप्य सवीर्ष चक्रिणः सुतम् । इह षट्खण्डरत्नानां स्वामिनी त्वं पिता च ते ॥४॥ रत्नं रत्नेषु कन्यैव तत्राप्येषेव' कन्यका। तां त्वां स्वगहमानीय दौष्टचं पश्यास्य दुर्मतेः॥५॥ जयो नामात्र कस्तस्मै दत्तवान् मृत्युचोदितः। तेनागतोऽस्मि दौर्व त्यं तदेतत् सोढुमक्षमः ॥६॥ 'प्राकृतोऽपि न सोढव्यःप्राकृतरपि' किं पुनः । त्वादशः स्त्रीसमुद्भुतो मानभडगो मनस्विभिः ॥७॥ "तदादिशदिशाम्यस्म पदं वैवस्वतास्पदम् । दिशाम्यादेशमात्रेण समालां तेऽपि कन्यकाम् ॥८॥ इत्यसाध्वीं५ क्रुधं भर्तुः स्ववाचैवासृजत् खलः। सदसत्कार्यनिर्वत्तो शक्तिः सदसतोः समा ॥६॥ तद्वचःपवन"प्रौढक्रोधधूमध्वजारुणः । भ्रमद्विलोचनाडगारः ०क्रुद्धाग्निसुरसन्निभः ॥१०॥ __ अथानन्तर-दुर्मर्षण नामका एक दुष्ट पुरुष राजकुमार अर्ककीतिका सेवक था वह जयकुमारके उस वैभवको नहीं सहन कर सका इसलिये उस पापीने सब राजाओंको इस प्रकार उत्तेजित किया। वह कहने लगा कि अकम्पन दृष्ट है, नीच है, झठमठके ऐश्वर्षके मदर हो रहा है, अपनी सम्पदाओंकी प्रशंसा करते हुए उसने व्यर्थ ही आप लोगोंको बुलाया है । वह तुम लोगोंका दूसरे युगतक स्थिर रहनेवाला अपमान करना चाहता है इसीलिये उसने पहलेसे सोच विचारकर जयकुमारके गले में माला डलवाई है, इस प्रकार कहता हुआ वह दुर्मर्षण लज्जित हुए चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिके पास आया और कहने लगा कि इन छहों खण्डोंमें उत्पन्न हुए रत्नोंके दो ही स्वामी हैं एक तू और दूसरा तेरा पिता ॥१-४॥ रत्नोंमें कन्या ही रत्न है और कन्याओंमें भी यह सुलोचना ही उत्तम रत्न है इसलिये ही अकम्पनने तुझे अपने घर बुलाकर तेरा तिरस्कार किया है, जरा इस दुष्टकी दुष्टताको तो देखो ॥५।। भला, जयकुमार है कौन ? जिसके लिये मृत्यसे प्रेरित हुए अकम्पनने अपनी पुत्री दी है। मैं यह दुराचार सहन करनेसे लिये असमर्थ हूँ इसलिये ही आपके पास आया हूं ॥६॥ जब कि नीच लोग भी छोटे छोटे मानभङ्गको नहीं सहन कर पाते हैं तब भला आप जैसे तेजस्वी पुरुष स्त्रीसे उत्पन्न हुआ मानभंग कैसे सहन कर सकेंगे? ॥७॥ इसलिये मुझे आज्ञा दीजिये मैं आपकी आज्ञामात्रसे ही इस अकम्पनको यमराजका स्थान दे सकता हूँ और माला सहित वह कन्या आपके लिये दे सकता हूँ ॥८॥ इस प्रकार उस दुष्टने अपने वचनोंसे ही अपने स्वामीको दुष्ट क्रोध उत्पन्न करा दिया सो ठीक ही है क्योंकि अच्छा और बुरा कार्य करने के लिये सज्जन तथा दुर्जनों की एक सी शक्ति रहती है ॥९॥ उस दुर्मर्षणके वचनरूपी वायुसे बढ़ी हुई क्रोधरूपी अग्निसे १ तमसहमाणः । २ कोपाग्नि प्रज्वलयन् । ३ परिभूतिम् । ४ कन्यारत्नेष्वपि । ५ तत्त्वा अ०, १०, स०, इ०, ल०, म०। ६ दुष्टत्वम् । ७ तेन कारणेन । ८ प्रकृते भवः पराभवोऽपि ।' अथवा तुच्छकार्यमपि । ६ नीचैरपि । नष्टान्वयप्रभवैरित्यर्थः । १० तत् कारणात् । ११ आदेशं देहि । १२ ददामि। १३ यमपुरम् । 'कालो दण्डधरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः' इत्यभिधानात्। १४ निरूपणमात्रेण । १५ अशुभाम् । १६ निष्पत्तौ । १७ सज्जनदुर्जनयोः। १८ प्रवृद्ध । 'प्रवृद्धं प्रौढमेधितमित्यभिधानात्। १६ अग्निः । ३० कुपिताग्निकुमारसदृशः । क्रुधा-ल०, म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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