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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
उज्जगार' ज्वलत्स्थूलविस्फुलिङगोपमा गिरः। अर्ककोतिद्विषोऽशेषान दिधक्षुरिव वाचया ॥११॥ मामधिक्षिप्य कन्येयं येन दत्ता दुरात्मना । तेन प्रागेव मूढेन दत्तः स्वस्मै जलाञ्जलिः ॥१२॥ अतिक्रान्ते रथे "तस्मिन प्रोत्थितः क्रोधपावकः । तदैव किन्नु को दाहय इत्यजानन्नहं स्थितः ॥१३॥ 'नाम्नातिसन्धि तो मूढो मन्यते स्वमकम्पनम् । 'क्रुद्ध मयि न वेत्तीति कम्पते सधरा धरा ॥१४॥ मत्खड्गवारिवाराशि'रास्तां तावदगोचरः । संहरन्त्यखिलान् शत्रून् बलवेलवर हेलया ॥१॥ प्ररूढशुष्कनायेन्दुदुवंशविपुलाटवी । मत्क्रोधप्रस्फुरद्वह्निभस्मिताऽस्मिन्न' रोक्ष्यति ॥१६॥ वीरपट्टस्तदा सोढो भवो भर्तुर्भयान्मया। कथमद्य "सहे मालां सर्वसौभाग्यलोपिनीम् ॥१७॥ "मद्यशः कुसुमाम्लानमालेवास्त्वायुगावधि । जयलक्ष्म्या सहायतां हरयं जयवक्षसः ॥१८॥ जलदान पेलवान जित्वा मरुन्मात्रविलायिनः२२ । अद्य पश्यामि दृप्तस्य जयस्य जयमाहवे ॥१६॥ इति निभिन्नमर्यादः कार्याकार्यविमूढधीः । अनिवार्यो विनिजित्य कालान्तजलधिध्वनिम् ॥२०॥
अनलस्यानिलो वाऽस्य "साहाय्यमगमस्तदा । केऽपि पापक्रियारम्भे सुलभाः सामवायिकाः२५ ॥२१॥ जो लाल लाल हो रहा है, जिसके नेत्ररूपी अंगारे घूम रहे हैं, और क्रोधसे जो अग्निकुमार देवों के समान जान पड़ता है ऐसा वह अर्ककीर्ति अपने वचनोंसे ही समस्त शत्रुओंको जलानेकी इच्छा करता हुआ ही मानो जलते हुए बड़े बड़े फुलिंगोंके समान वचन उगलने लगा ॥१०-११॥ वह बोला जिस दुष्टने मेरा अपमान कर यह कन्या दी है उस मूर्खने अपने लिये पहले ही जलांजलि दे रखी है ॥१२॥ उस समय कन्याका रथ आगे निकलते ही मेरी क्रोधरूपी अग्नि भड़क उठी थी परन्तु जलने योग्य कौन है ? यह नहीं जानता हुआ मैं चुप बैठा रहा था ॥१३॥ केवल नामसे ठगाया हुआ वह मूर्ख अपने आपको अकम्पन मानता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि मेरे कुपित होनेपर पर्वतों सहित पृथिवी भी कँपने लगती है ॥१४॥ मेरी तलवाररूपी जलकी धाराका विषय तो दूर ही रहे मेरी सेनारूपी लहर ही समस्त शत्रुओंको अनायास ही नष्ट कर देती है ॥१५॥बहुत बढ़े और सूखे हुए नाथवंश तथा चन्द्रवंशरूपी दुष्ट बांसोकी बड़ी भारी अटवी मेरे क्रोधरूपी प्रज्वलित अग्निसे भस्म हो जायगी और फिर इस संसारमें कभी नहीं उग सकेगी ॥१६॥ उस समय पृथिवीके अधिपति चक्रवर्ती महाराजने जयकुमार को जो वीरपट्ट बांधा था उसे तो मैंने उनके डरसे सह लिया था परन्तु आज अपने सब सौभाग्यको नष्ट करनेवाली इस वरमालाको कैसे सह सकता हूँ ? ॥१७॥ मेरे यशरूपी फूलोंकी अम्लान माला ही इस युगके अन्ततक विद्यमान रहे। इस मालाको तो मैं जयलक्ष्मीके साथ साथ जयकुमारके वक्षःस्थलसे आज ही हरण किये लेता हूँ ॥१८॥ केवल वायुमात्रसे विलीन हो जानेवाले कोमल मेघोंको जीतकर अहंकारको प्राप्त हुए जयकुमारकी जीत आज मैं युद्धमें देखूगा ।।१९।। इस प्रकार जिसने मर्यादा तोड़ दी है, कार्य अकार्यके करने में जिसकी बुद्धि विचाररहित हो रही है और जो किसीसे निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्ककीर्तिने उस समय अपने शब्दोंसे प्रलयकालके समुद्रकी गर्जनाको भी जीत लिया था और जिस प्रकार अग्नि को भड़काने के लिये वाय सहायक होता है उसी प्रकार उसका क्रोध भड़काने के लिये कितने
१ उवाच । २ दग्धुमिच्छुः । ३ तिरस्कृत्य । ४ मामुल्लङघ्यगते । ५ कन्यारूढस्यन्दने । ६ अकम्पन इति नाम्ना । ७ वञ्चितः । ८ क्रुधे ल०।६ पर्वतसहिता भूमिः । महीधेशिखरिक्ष्माभूदहार्यधरपर्वताः' इत्यभिधानात् । १० अस्मदायुधधाराजल । ११ वारिधारासि प०, ल०। १२ सेनाबेला। १३ प्रवृद्धनिस्सारदुष्टनाथवंशसोमवंशविशालविपिन इत्यर्थः । १४ अस्मिन् लोके । १५ न जनिष्यते । १६ चक्रिणः । १७ सहामि । १८ अस्मत्कीतिः। १९ मालाम् । २० स्वीकुर्याम् । २१ मृदून् । २२ विनाशिनः । २३ इति उज्जगारेति सम्बन्धः । २४ सहायता,। २५ समवायं सहायता प्राप्ताः ।
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