SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## The Twenty-Fifth Chapter **101.** The banks of the rivers, adorned with creepers that had shed their blossoms, were filled with the waves of water, like the breaths of a sleeping giant. **102.** The king, filled with delight, beheld the beautiful creeper-arbors, their beds strewn with fallen flowers. **103.** He saw Kinnaras, adorned with their own glory, seated on moonstone slabs within the creeper-arbors. **104.** Seeing the swarms of bees lost in the blossoms of the creepers, he remembered his beloved women, their hair loose and flowing. **105.** The trees along the path, their branches swaying in the wind, seemed to shower flowers upon the king's head, as if in love. **106.** He saw the trees along the path, their shade, their fruits, their height, and their abundance, all worthy of kings, as if they were imitating the kings themselves. **107.** He saw the banks of the lakes, covered with the pollen of lotuses, making the travelers wonder if they were covered in gold dust. **108.** Seeing the Cakravaka bird, weeping in the night-like sky, filled with dust from the army, the king felt compassion for her. **109.** He saw herds of cows grazing in the forest pastures, their milk flowing like clouds, soaking the surrounding land. **110.** He saw the lotus flowers, their fragrance filling the air, their stalks like the arms of a dancer, their petals like the banners of victory.
Page Text
________________ पड्विंशतितमं पर्व 'रोधोलता शिखोत्सृष्टपुष्पप्रकटशोभिनीः । सरितीरभुवोऽदर्शज्जलोच्छ्वासतरडिङ् गताः ॥१०१॥ लतालयेषु रम्येषु रतिरस्य प्रपश्यतः । स्वयं गलत्प्रसूनौघर चितप्रस्तरेष्वभूत् ॥१०२॥ क्वचिल्लतागृहान्तःस्थ चन्द्रकान्त शिलाश्रितान् । स्वयशोगान संसक्तान् किन्नरान् प्रभुरैक्षत ॥१०३॥ चिल्लताः प्रसूनेषु विलीनमधुपावलीः । विलोक्य स्रस्तकेशीनां सस्मार प्रिययोषिताम् ॥ १०४ ॥ सुमनो वर्षमानः प्रीत्येवास्याधिमूर्धजम् । पवनाभूतशाखानाः प्रफुल्ला मार्गशाखिनः ॥ १०५॥ सच्छायान् सकलान् तुङगान् सर्वसम्भोग्यसम्पदः । मार्गद्रुमान् समद्राक्षीत् स नृपाननुकुर्वतः ॥ १०६ ॥ सरस्तीरभुवोऽपश्यत् सरोजरजसा तताः । सुवर्णकुट्टिमाशङकामध्वन्यहृदि तन्वतीः ॥१०७॥ बलरेणुभिरारुद्धे दोषांमन्ये' नभस्यसौ । करुणं स्वतीं वीक्षाञ्चक्रे चक्राह्वकामिनीम् ॥१०८॥ गवां गणानथापश्यद्गोष्पदारण्य चारिणः । क्षीरमेघानिवाजसं क्षरत्क्षीरप्लुतान्तिकान् ॥ १०६ ॥ सौरभेयान् स शूङ्गाग्रसमुत्वातस्थलाम्बुजान् । मृणालानि यशांसीव किरतोऽपश्यदुन्मदान् ॥ ११०॥ सारस आदि पक्षियोंसे मनोहर हैं, और जो विछी हुई शय्याओंके समान जान पड़ते हैं ऐसे नदी - किनारे के प्रदेशोंपर महाराज भरतको भारी संतोष हुआ ॥ १००॥ जो किनारेपर लगी हुई लताओं के अग्रभागसे गिरे हुए फूलों के समूहसे सुशोभित हो रही हैं और जो जलके प्रवाह से उठी हुई लहरों से व्याप्त हैं ऐसी नदियोंके किनारे की भूमि भी भरतेश्वरने बड़े प्रेमसे देखी थी ।। १०१ ।। जिनमें अपने आप गिरे हुए फूलों के समूहसे शय्याएं बनी हुई हैं ऐसे रमणीय लतागृहों को देखते हुए भरतको उनमें भारी प्रीति उत्पन्न हुई थी ॥ १०२॥ उन भरत महाराज ने कहीं कहीं पर लतागृहों के भीतर पड़ी हुई चन्द्रकान्ति मणिकी शिलाओंपर बैठे हुए और अपना यशगान करनेमें लगे हुए किन्नरों को देखा था ॥ १०३ || कहीं कहीं पर लताओंके फूलोंपर बैठे हुए भूमरों के समूहों को देखकर जिनकी चोटियां ढीली होकर नीचे की ओर लटक रही हैं ऐसी प्रिय स्त्रियों का स्मरण करता था || १०४ || जिनकी शाखाओंके अग्रभाग वायुसे हिल रहे हैं ऐसे फूले हुए मार्ग के वृक्ष मानो बड़े प्रेमसे ही भरत महाराजके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ॥१०५॥ वह भरत मार्ग के दोनों ओर लगे हुए जिन वृक्षोंको देखते जाते थे वे वृक्ष राजाओं का अनुकरण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् उत्तम छांहरीसे सहित थे, जिस प्रकार राजा सफल अर्थात् अनेक प्रकारकी आयसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष सफल अर्थात् अनेक प्रकार के फलों से सहित थे, जिस प्रकार राजा तुङ्ग अर्थात् उदार प्रकृतिके होते हैं उसी प्रकार वृक्ष भी 'तुङ्ग अर्थात् ऊंचे थे और जिस प्रकार राजाओं की सम्पदाएं सबके उपभोगमें आती हैं उसी प्रकार उन वृक्षोंकी फल पुष्प पल्लव आदि सम्पदाएं भी सबके उपभोग में आती थीं ॥ १०६ जो सरोवरोंके किनारेकी भूमियां कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रही थीं और इसीलिये जो पथिकों के हृदयमें क्या यह सुवर्णकी धूलियोंसे व्याप्त हैं, इस प्रकार शंका कर रहीं थीं; उन्हें भी महाराज भरत देखते जाते थे || १०७ ॥ सेनाकी धूलिसे भरे हुए और इसीलिये रात्रि के समान जान पड़नेवाले आकाशमें रात्रि समझ कर रोती हुई चकवीको देखकर महाराज भरतके हृदय में बड़ी दया उत्पन्न हो रही थी || १०८ || कुछ आगे चलकर उन्होंने जंगलोंकी गोचर भूमि में चरते हुए गायों के समूह देखे, वे गायों के समूह दूधके मेघोंके समान निरन्तर झरते हुए दूधसे अपनी समीपवर्ती भूमिको तर कर रहे थे ||१०९ || जिन्होंने अपने सींगोंके १ तटलता । "कूलं रोधश्च तीरश्च तटं त्रिषु इत्यभिधानात् । २ केशेषु । ३ रजसा-ल० । ४ आत्मानं दोषां रात्रिं मन्यत इति । ५ क्रियाविशेषणानां नपुंसकत्वं द्वितीया वक्तव्या । ६ आलुलोके । ७ गोगम्यवन | Jain Education International ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy