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________________ १९० महापुराणम् .. भिषजेव करें: स्पृष्टा दिशस्तिमिरभेदिभिः । शनैर्दृश इवालोकम् आतेनुः शिशिरत्विषा ॥ १८१ ॥ इति प्रदोषसमये जाते प्रस्पष्टतारके । सौधोत्सङ्गभुवो भेजुः पुरन्धयः सह कामिभिः ।। १८२ ॥ चन्दनद्रवसिक्ताग्यः त्रग्विण्यः सावतंसिकाः । लसदाभरणा रेजुस्तन्व्यः कल्पलता इव ॥ १८३॥ इन्दुपादः समुत्कर्षम् श्रगान्मकरकेतनः । तदोदन्वानिवोद्वेलो मनोवृत्तिषु कामिनाम् ॥ १८४ ॥ रमणा' रमणीयाश्च चन्द्रपादाः सचन्दनाः । मदांश्च मदनारम्भम् श्रातन्वन् रमणीजने ॥ १८५ ॥ शशाङ्ककरजैत्रास्त्रेः तर्जयन्निखिलं जगत् । नृपवल्लभिकावासान्मनोभूरभ्यषेणयन् ॥१८६॥ नास्वादि मदिरा स्वैरं नाज न करेsपिता । केवलं मदनावेशात्तरुण्यो भेजुरुत्कताम् ॥ १८७॥ उत्सङ्गसङगिनी भर्तुः काचिन्मदविघूर्णिता । कामिनी मोहनास्त्रेण बतानङ्गेन तर्जिता ॥ १८८ ॥ सखीवचनमुल्लङध्य भक्त्वा मानं निरर्गला' । प्रयान्ती रमणावासं काप्यनङ्गेन धीरिता ॥ १८६॥ शंफलीवचनैर्दूना काचित् पर्यश्रुलोचना । चक्रा ह्वेव भृशं तेपे नायाति प्राणवल्लभे ॥ १६०॥ शून्यगानस्वनं: ' स्त्रीणाम् अलिज्याकल झङ्कृतैः । पूर्व रङ्गमिवानङगो रचयामास कामिनाम् ॥ १६९॥ भी कठिन है ।। १८० ।। जिस प्रकार वैद्यके द्वारा तिभिर रोगको नष्ट करनेवाले हाथोंसे स्पर्श की हुई आंखें धीरे धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगती है उसी प्रकार चन्द्रमाके द्वारा अन्धकारको नष्ट करनेवाली किरणोंसे स्पर्श की हुई दिशाएँ धीरे धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगी थीं ॥। १८१ ॥ इस प्रकार जिसमें तारागण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ऐसा सायंकालका समय होनेपर सब स्त्रियां अपने अपने पतियों के साथ महलोंकी छतोंपर जा पहुँचीं ।। १८२ ॥ जिनके समस्त शरीरपर घिसे हुए चन्दनका लेप लगा हुआ है, जो मालाएँ धारण किये हुई हैं, कानों में आभूषण पहने हैं और जिनके समस्त आभरण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी वे स्त्रियां कल्पलताओं के समान सुशोभित हो रही थीं ॥ १८३॥ | उस समय चन्द्रमाकी किरणोंसे जिस प्रकार समुद्र लहराता हुआ वृद्धिको प्राप्त होने लगता है उसी प्रकार कामी मनुष्यों के मनमें काम उद्वेलित होता हुआ बढ़ रहा था ।। १८४ ।। सुन्दर पति चन्द्रमाकी किरणें और चन्दन सहित मद ये सब मिलकर स्त्रियों में कामकी उत्पत्ति कर रहे थे ।। १८५ ॥ चन्द्रमाकी किरणेंरूपी विजयी शस्त्रोंके द्वारा समस्त जगत्को तिरस्कृत करता हुआ कामदेव राजाकी स्त्रियोंके निवासस्थानमें भी सेना सहित जा पहुँचा था ।। १८६ ॥ तरुण स्त्रियोंने न तो मदिराका स्वाद लिया, न इच्छा नुसार उसे सूंघा और न हाथमें ही लिया, केवल कामदेवके आवेशसे ही उत्कण्ठाको प्राप्त हो गई, अर्थात् कामसे विह्वल हो उठीं ॥ १८७॥ पतिकी गोद में बैठी हुई और मदसे झूमती हुई कोई स्त्री कामदेवके द्वारा मोहन अस्त्रसे ताड़ित की गई थी ।। १८८।। कामदेव से प्रेरित हुई कोई स्त्री सखीके वचन उल्लंघन कर तथा मान छोड़कर स्वतंत्र हो अपने पतिके निवासस्थान को जा रही थी ।। १८९ ।। कोई स्त्री पतिके न आनेपर वापिस लौटी हुई दूतीके वचनोंसे दुखी होकर आंखों से आंसू छोड़ रही थी और चकवीके समान अत्यन्त विह्वल हो रही थी - तड़प रही थी ॥ १९०॥ शून्य हृदयसे गाये हुए स्त्रियोंके सुन्दर गीतोंसे तथा भ्रमरपंक्तिके मनोहर भंकारोंसे कामदेव कामी पुरुषोंके लिये पूर्व रङ्ग अर्थात् नाटकके प्रारम्भमें होनेवाला एक अंग विशेष ही मानो बना रहा था । भावार्थ-उस समय स्त्रियां पतियोंकी प्राप्तिके लिये बेसुध होकर गा रही थीं और उड़ते हुए भूमरोंकी गुंजार फैल रही थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवरूपी नट कामक्रीड़ारूप नाटकके पहले होनेवाले संगीत विशेष ही दिखला रहा हो । नाटकके पहले जो मंगल-संगीत होता है उसे पूर्व रङ्ग कहते हैं ॥। १९१॥ १ मालभारिणः । २ प्रियतमाः । ३ मदाश्च ल० । ६ प्रतिबन्धरहिता । ७ धैर्य नीता । ८ चित्तसंमोहन हेतुगीतविशेषः । & कलध्वनिभेदः । Jain Education International सेनया सहाभ्यगमयन् । ५ उत्कण्टताम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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