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________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १६१ 'गोत्रस्खलनसंवृद्ध मन्युमन्यामनन्यजः । नोपैक्षिष्ट प्रियोत्सङ्गम् अनयन्नवसङगताम् ॥१२॥ नेन्दुपादति लेभे नोशारेन' जलाया । खण्डिता मानिनी काचिद् अन्तस्ता बलीयसि ॥१६३॥ काचिदुत्तापिभिर्बाणः तापिताऽपि मनोभुवा । नितम्बिनी प्रतीकारं नैच्छद्धर्यावलम्बिनी ॥१६४॥ अनुरक्ततया दूरं नोतया प्रणयोचिताम् । भूमि यूनाऽन्यया सोढः सन्देशः परुषाक्षरः ॥१६॥ प्रालि त्वं नालिकर ब्रूहि गतः किन्नु विलक्षताम् । प्रियानामाक्षरः क्षीणैः मोहान्मप्यवतारितैः ।१६६। यथा तव हृतं चेतः तया लज्जाऽप्यहारि किम् । येन निस्त्रपर" भयोऽपि प्रणयोऽस्मासु तन्यते ॥१७॥ सैवानुवर्तनीया ते सुभगं मन्यमानिनी। अस्याने योजिता प्रीतिः जायतेऽनुशयाय ते ॥१८॥ इति प्राणप्रियां काञ्चित् सन्दिशन्ती" सखोजने । युवा सादरमभ्येत्य नानुनिन्येन मानिनीम् ॥१६॥ चन्द्रपादास्तपन्तीव चन्दन दहतीव माम् । सन्धुक्ष्यत इवाऽमीभिः कामाग्निर्व्यजनानिलः ॥२०॥ गोत्रस्खलन अर्थात भलसे किसी दुसरी स्त्रीका नाम ले देनेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा है ऐसी किसी अन्य नवीन ब्याही हुई स्त्रीकी भी कामदेवने उपेक्षा नहीं की थी किन्तु उसे भी पतिके समीप पहुँचा दिया था। भावार्थ-प्रौढ़ा स्त्रियों की अपेक्षा नवोढ़ा स्त्रियोंमें अधिक मान और लज्जा रहा करती है परन्तु उस चन्द्रोदयके समय वे भी कामसे उन्मत्त हो सब मान और लज्जा भूलकर पतियोंके पास जा पहुंची थीं ॥१९२॥ जिस किसी स्त्रीका पति वचन देकर भी अन्य स्त्रीके पास चला गया था ऐसी अभिमानिनी खण्डिता स्त्रीके मनका संताप इतना अधिक बढ़ गया था कि उसे न तो चन्द्रमाकी किरणोंसे संतोष मिलता था, न उशीर (खस) से और न पंखेसे ही ॥१९३॥ धीरज धारण करनेवाली कोई स्त्री कामदेवके द्वारा अत्यन्त पीड़ा देनेवाले बाणोंसे दुखी होकर भी उसका प्रतीकार नहीं करना चाहती थी। भावार्थअपने धैर्यगुणसे कामपीड़ाको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९४॥ कोई तरुण पुरुष प्रेमसे भरी हुई अपनी अन्य स्त्रीको प्रेम करने योग्य किसी दूर स्थानमें ले गया था, वहां वह उसके कठोर अक्षरोंसे भरे हए संदेशको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९५॥ कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि हे सखि, सच कह कि क्या वह भूमसे मेरे विषयमें कहे हुए और अत्यन्त क्षीण अपनी प्रियाक नामके अक्षरोंसे कुछ चकित हुआ था ? ॥१९६॥ कोई स्त्री अपने अपराधी पतिसे कह रही थी कि हे निर्लज्ज, जिसने तेरा चित्त हरण किया है क्या उसने तेरी लज्जा भी छीन ली है ? क्योंकि तू फिर भी मुझपर प्रेम करना चाहता है ।।१९७।। कोई स्त्री पतिको ताना दे रही थी कि आप अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझते हैं इसलिये जाइये उसी मान करनेवाली स्त्रीकी सेवा कीजिये क्योंकि अयोग्य स्थानमें की गई प्रीति आपके संतापके लिये ही होगी। भावार्थ-मुझसे प्रेम करनेपर आपको संताप होगा इसलिये अपनी उसी प्रेयसीके पास जाइये ।।१९८।। इस प्रकार सखियोंके लिये संदेश देती हुई किसी अहंकार करनेवाली प्यारी स्त्रीको उसका तरुण पति आकर बड़े आदरके साथ नहीं मना रहा था क्या? अर्थात् अवश्य ही मना रहा था ।।१९९।। कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि ये चन्द्रमा की किरण मुझे संताप दे रही है, यह चन्दन जला सा रहा है और यह पंखोंकी हवा मेरी कामाग्नि १ नामस्खलन । २ प्रवद्वक्रोधाम् । ३ कामः । ४ नववधूमित्यर्थः । ५ लामज्जकैः । 'मूलेऽस्योशीरमस्त्रियाम्' । 'अभयं नलदं सेव्यममृणाल जलाशयम् । लामज्जकं लघुलयमवदाहेष्टकापथे।" इत्यभिधानात् । ६ व्यजनेन । ७ वियुक्ता । ८ संधानम् (शय्यागृहम्) । ६ वाचिकम् । १० भो सखि । ११ अनृतम् । १२ विस्मयान्विताम् । १३ दिव्यः । १४ निर्लज्ज । १५ अहं सुभगेति मन्यमाना गमा। १६ पश्चात्तापाय । १७ तव । १८ सजल्पन्तीम् । वचनं प्रेषयन्तीम् । १६-न्येऽथ ल०, द० । अनुनय नाकरोदिति न । (अपि तु करोत्येव) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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