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## 366 ## Mahapuraanam **152.** Her teeth were close-set, flawless, white, even, smooth, beautiful, and radiant. How else could her mouth contain them? **153.** Why was her nose made so high, enjoying the fragrance of her mouth? If it were not excellent, how could it stay in the middle of her face? **154.** Her eyes, like the arrows of Arjuna, reached the edge of her ears. They had conquered both the red lotus and the blue lotus. What reproach could be made against the Soma dynasty, or against Jayakumar, in the face of this? **155.** Her ears were the most virtuous of all ears, for they were already the recipients of her beloved Jayakumar's loving words and songs. **156.** I believe that Kamadeva, considering Jayakumar invincible by his own form, conquered him with the bow of her eyebrows and the arrows of her glances. **157.** Not only was Kamadeva her servant, but the valiant Jayakumar himself was her servant. How could her forehead, the abode of beauty, not be elevated and excellent? **158.** Her soft, fine, smooth, black, and slightly curled hair appeared to lustful men like the young of black snakes. **159.** Her front was adorned with her eyes and other features, and her back shone like a beautiful object. **160.** The atoms that the Creator used to make her body were, in reality, just like the remnants of the Pranava mantra, like blades of grass.
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________________ ३६६ महापुराणम् चिताः सिताः समाः स्निग्धा दन्ताः कान्ताः प्रभान्विताः । श्रन्तः करोति तद्वक्त्रं तानेव कथमन्यथा ॥ १५२ ॥ कुतः कृता समुत्तुङगा स्वादमानास्यसौरभम् । मध्येववत्रं किमध्यास्ते न सती यदि नासिका ।। १५३ ।। कर्णान्तगामिनी नेत्रे वृद्धे' नरशरोपमे । सोमवंश्यस्य कः क्षेपः पद्मोत्पलजये तयोः ॥ १५४ ॥ तत्कर्णावेव कर्णेषु कृतपुण्यौ प्रियाज्ञया । तत्प्रेमालापगीतानां" पात्रं प्रागेव तौ यतः ॥ १५५ ॥ तद्भू शरासनः ३ कामस्तत्कटाक्षशरावलिः १४ । स्वरूपेणाजितं मत्वा जयं मन्ये व्यजेष्ट सः ॥ १५६ ॥ तस्या लालाटिको नैकः कामो वीराग्रणीः स्वयम् । जयोऽपि नोन्नतिः कस्माल्ललाटस्य श्रितश्रियः ॥ १५७॥ मृदवस्तनवः स्निग्धाः कृष्णास्तस्याः सकुञ्चिताः । कामिनां केवलं कालबालव्यालाः " शिरोरुहाः ।। १५८॥ भाति तस्याः पुरोभागो भूषितो नयनादिभिः । सुरूप" इव पाश्चात्यो" बाभाति स्वयमेव सः ।। १५ ।। ये तस्यास्तनुनिर्माण वेधसा साधनीकृता: । २२ प्रणवस्तृणवच्छेषास्त एव परमाणवः २ ॥१६०॥ इनका वर्ण है, न आकार है और न रस ही है इसलिये ही उसके ओठोंको इनमें से किसीकी भी उपमा नहीं दी जा सकती थी ॥ १५१ ॥ अवश्य ही उसके दांत एक दूसरे से मिले हुए थेछिद्ररहित थे, सफेद थे, समान थे, चिकने थे, सुन्दर थे, और चमकीले थे, यदि ऐसा न होता तो सुलोचनाका मुख उन्हें भीतर ही क्यों करता ? ॥ १५२ ॥ मुखकी सुगन्धिका स्वाद लेती हुई उसकी नाक यदि इतनी अच्छी नहीं होती तो वह इतनी ऊंची क्यों बनाई जाती ? तथा मुखके बीच में कैसे ठहर सकती ? ।। १५३ ।। अर्जनके बाणके समान कर्णके ( राजा कर्ण अथवा कानके) समीप तक जानेवाले उसके दोनों नेत्र अत्यन्त विशाल थे, उन्होंने लाल कमल और नीलकमल दोनोंको जीत लिया था फिर भला सोमवंश अर्थात् चन्द्रमापर कौनसा आक्षेप बाकी रह गया था अथवा सोमवंश अर्थात् जयकुमारपर कौन सा क्षेप अर्थात् कटाक्ष करना बाकी रह गया था ? ।। १५४ ।। उसके कान ही सब कानों में अधिक पुण्यवान् थे क्योंकि वे पहले से ही अपने प्रिय-जयकुमारकी आज्ञासे उनके प्रेमसंभाषण और गीतोंके पात्र हो गये थे ।। १५५ ।। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि कामदेवने जयकुमारको अपने रूपसे अजेय मानकर सुलोचनाकी भौंहरूपी धनुष और उसीके कटाक्षरूपी बाणोंके समूहसे ही उसे जीता था ।। १५६।। उस सुलोचनाका सेवक अकेला कामदेव ही नहीं था किन्तु वीरशिरोमणि जयकुमार भी स्वयं उसका सेवक था, फिर भला शोभाको धारण करनेवाले उसके ललाटकी उन्नति - उच्चता अथवा उत्तमता क्यों न होती ? ॥ १५७॥ कोमल, बारीक, चिकने, काले और कुछ कुछ टेढ़े उसके शिरके बाल कामी पुरुषोंको केवल काले सांपों के बच्चोंके समान जान पड़ते थे ।। १५८।। उस सुलोचनाका आगे का भाग नेत्र आदिसे विभूषित होकर सुशोभित हो रहा था और पिछला भाग किसी सुन्दर वस्तुके समान अपने आप ही सुशोभित हो रहा था ।। १५९ ।। विधाताने उसका शरीर बनाने में जिन अणुओंको साधन बनाया था यथार्थ में वे ही अणु परमाणु अर्थात् १ निश्छिद्रा इत्यर्थः । २ उक्तगुणा न सन्ति चेत् । ३ किन्निमित्तं निर्मिता इत्येवं पृच्छति । ४ यदि सती प्रशस्ता नासिका न स्यात् तर्हि मध्येवक्त्रं मुखमध्ये किं वस्तु अध्यास्ते । नासिकां मुक्त्वा न किमपि अधिवसितुं योग्यमित्यर्थः । ५ ध्वनौ कर्णराजस्य विनाशे वर्तमाने । ६ वृद्धे किं न भवतः, भवत एव । ७ - वंशस्य ल०, म०, अ० । जयकुमारस्य । ध्वनी अर्जुनस्य । ८ तिरस्कारः । ६ नेत्रयोः । १० जयकुमारप्रसिद्ध्या । ११ -लापनीतानां अ० म०, ल० । १२ भाजनम् । १३ तस्या भ्रुवावेव शरासनं यस्य । १४ -टाक्षाशुगावलिः ल० । बारणसमूहः । १५ आत्मीयस्वरूपेण । १६ भावदर्शी 'लालाटिक: प्रभोर्भावदर्शी कार्याक्षमश्च यः ।' इत्यभिधानात् । न सेवको भवति चेत् । सेवकः । १७ कृष्णबालभुजङ्गाः । १८ मनोज्ञपदार्थ इव । १६ पृष्ठभावः । २० उपादानकारणीकृताः । २१ व्यर्था इत्यर्थः । २२ उत्कृष्टारणवः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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