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महापुराणम्
सुकेतोश्चाखिले तस्मिन्सत्यभूते' मुनीश्वरम् । ताः सर्वाः परितोषेण गताः समभिवन्द्य तम् ॥३६४। श्रावामपि तदा वन्दनाय तत्र गताविदम् । श्रुत्वा दृष्ट्वा गतौ प्रीतिपरीत हृदयौ दिवम् ॥ ३६५॥ इत्यात्मीयभवावलीमनुगतैर्मान्य मनोरञ्जनैः
स्पष्टैरस्खलितं : "कलैरविरलंरव्याकुलैर्जल्पितैः । श्रात्मोपात्तशुभाशुभोदयवशोद्भूतोच्च नीच स्थितिम् '
संसर्पदशनांशु भूषितसभासभ्यान' सावभ्यधात् ' ॥ ३६६ ॥ श्रुत्वा तां हृदयप्रियोक्तिमतुषत्कान्तो' रतान्ते यया
संसच्च" व्यकसत्तरां शरदि वा लक्ष्मीः सरःसंश्रया । कान्तानां वदनेन्दुकान्तिरगलत्तद्वाग्दिनेशोद्गतेः १२
प्रस्थान कृतमत्सरोऽसुखक रस्त्या" ज्यस्ततोऽसौ" बुधैः ॥ ३६७॥ कान्तोऽभूद् रतिषेणया वणिगसौ पूर्व सुकान्तस्ततः
सञ्जातो रतिवेणया रतिवरो गेहे कपोतो विशाम्" ।
सुकेतुका चरित्र सुना और सबके सत्य सिद्ध होनेपर बड़े संतोषके साथ मुनिराजकी वन्दना कर अपने अपने स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया ।। ३६३ - ३६४ ।। उस समय हम दोनों भी मुनिराज की वन्दना करनेके लिये वहां गये और यह सब देख सुनकर प्रसन्नचित्त होते हुए स्वर्ग चले गये थे ॥ ३६५॥
इस प्रकार अपने द्वारा उपार्जन किये हुए शुभ अशुभ कर्मोंके उदयवश जिसे ऊंची नीची अवस्था प्राप्त हुई है और जिसने अपने दांतोंकी फैलती हुई किरणोंसे समस्त सभाको सुशोभित कर दिया है ऐसी सुलोचनाने सब सभासदोंको क्रमबद्ध मान्य, मनोहर, स्पष्ट, अस्खलित, मधुर, अविरल और आकुलता रहित वचनों द्वारा अपने पूर्वभवकी परम्परा कह सुनाई
॥३६६॥
हृदयको प्रिय लगनेवाले सुलोचनाके वचन सुनकर जयकुमार उस प्रकार संतुष्ट हुए जिस प्रकार कि संभोगके बादमें सन्तुष्ट होते । वह सभा उस तरह विकसित हो उठी जिस तरह की शरद् ऋतु में सरोवरकी शोभा विकसित हो उठती है । और सुलोचनाके वचनरूपी सूर्यके . उदय होनेसे अन्य स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रमाओंकी कान्ति नष्ट हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि अयोग्य स्थानपर की हुई ईर्ष्या दुःख करनेवाली होती है इसलिये विद्वानोंको ऐसी ईर्ष्या अवश्य ही छोड़ देनी चाहिये || ३६७ || सुलोचनाने जयकुमारसे कहा कि मैं पहले रतिवेगा थी और आप मेरे ही साथ मेरे पति सुकान्त वैश्य हुए, फिर में सेठ के घर रतिषेणा कबूतरी हुई और आप मेरे ही साथ रतिवर नामक कबूतर हुए, फिर मैं प्रभावती विद्याधरी हुई और आप मेरे ही साथ हिरण्यवर्मा विद्यावर हुए उसके बाद मैं स्वर्ग में महादेवी हुई और आप मेरे ही साथ अतिशय
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१ मृणालवतीपुरपतेः सुकेतोरपि चेष्टितं मुनेः सकाशाच्च्युतमिति सम्बन्धः । एतत् कथात्रयं ग्रन्थान्तरे द्रष्टव्यम् । २ सत्यीभूते ल०, प०, इ०, स० । ३ प्रभावतीचरी हिरण्यवमंचरसुरदम्पती । ४ सुन्दरैः । ५ सम्पूर्णैः । ६ स्थितिः ल० । ७ सुलोचना । ५ उवाच । ६ जयः । ११ जयस्य श्रीमतीशिवशङ्करादियोषिताम् । १२ सुलोचनावचनादित्योदये सति । १४ मत्सरः । १५ वैश्यानाम् ।
१० सभा च । १३ दुःखकरः ।
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