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सप्तविंशतितमं पर्व मन्दारवनवीथीनां सान्द्रच्छायाः समाश्रिताः । चन्द्रकान्तशिलास्वेते रंरम्यन्ते नभःसदः ॥३४॥ अहो तटवनस्यास्य रामणीयकमद्भुतम् । 'अवधूतमिजावासा परिरंसन्तेऽत्र यत्सुराः ॥३॥ मनोभवनिवेशस्य लक्ष्मीरत्र वितन्यते । सुरदम्पतिभिः स्वरम् प्रारब्धरतिविभूमैः ॥३६॥ इयं निषुबनासक्ताः' सुरस्त्रीरतिकोमलाः । हसतीव तरङगोत्थः शीकरैरमरापगा ॥३७॥ इतः किन्नरसङगीतम् इतः सिद्धोपवीणितम् । इतो विद्याधरोनृत्तम् इतस्तद्गतिविभूमः ॥३८॥ नृत्तमप्सरसां पश्यन् शृण्वंस्तद्गीतनिःस्वनम् । वाजिवक्त्रोऽयमुद्ग्रीवः सममास्ते स्वकान्तया ॥३६॥ "निष्पर्यायं बनेऽमुष्मिन् ऋतुवर्गो विवर्धते । परस्परमिव द्रष्टुम् उत्सुकायितमानसः ॥४०॥ अशोकतारत्रायं तनुते पुष्पमञ्जरीम् । लाक्षारक्तः खगस्त्रीणां चरणरभिताडितः ॥४१॥ 'स्कोकिलकलालापमुखरीकृतदिङमुखः । चूतोऽयं मजरीपत्ते मदनस्येव तीरिकाः॥४२॥ चम्पका विकसन्तोऽत्र० कुसुमतौ वितन्वति । प्रदीपानिव पुष्पौघान् दधतीमे मनोभुवः ॥४३॥ सहकारेष्वमी मत्ता विरुवन्ति' मधुव्रताः। विजिगीषोरनडागस्य काहला इव पूरिताः ॥४४॥
कोकिलानकनिःस्वानः अलिज्यारवजम्भितैः । अभिषेण यतीवात्र मनोभूर्भुवनत्रयम् ॥४॥ है और जो देवोंके द्वारा अधिष्ठित है अर्थात् जहां देव लोग आकर क्रीड़ा करते हैं ऐसा यह वन फूलोंके बिछौनोंसे सुशोभित इन लतागृहोंसे अतिशय सुशोभित हो रहा है ॥३१।। इधर मन्दार वृक्षोंकी वन-पंक्तियोंकी घनी छाया में बैठे हुए ये देव लोग चन्द्रकान्त मणियोंकी शिलापर बार-बार क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३४॥ अहा, इस किनारेके वनकी सुन्दरता केसी आश्चर्यजनक है कि देव लोग भी अपने अपने निवासस्थान छोड़कर यहां क्रीड़ा करते हैं ॥३५।। जिन्होंने अपनी इच्छानुसार रति-क्रीड़ा प्रारम्भ की है ऐसे देव देवांगनाओंके द्वारा यहां कामदेवके घरकी शोभा बढ़ाई जा रही है। भावार्थ देव देवांगनाओंकी स्वच्छंद रतिक्रीडाको देखकर मालूम होता है कि मानो यह कामदेवके रहनेका घर ही हो ॥३६॥ यह गङ्गा अपनी तरंगोंसे उठी हुई जलकी बूंदोंसे ऐसी जान पड़ती है मानो संभोग करने में असमर्थ होकर दीनता भरे अस्पष्ट शब्द करनेवाली देवांगनाओंकी हंसी ही कर रही हो ॥३७॥ इधर किन्नरोंका संगीत हो रहा है, इधर सिद्ध लोग वीणा बजा रहे हैं, इधर विद्याधरियां नृत्य कर रही हैं और इधर कुछ विद्याधरियां विलासपूर्वक टहल रही हैं ॥३८।। इधर यह किन्नर अपनी कान्ता के साथ साथ अप्सराओंका नृत्य देखता हुआ, और उनके संगीत शब्दोंको सुनता हुआ सुखसे गला ऊंचा कर बैठा है ॥३९॥ परस्परमें एक दूसरेको देखनेके लिये जिसका मन उत्कण्ठित हो रहा है ऐसा ऋतुओंका समूह इस वनमें एक साथ इकट्ठा होता हआ बढ़ रहा है ॥४०॥ लाखसे रंगे हुए विद्याधरियोंके चरणोंसे ताड़ित हुआ यह अशोक वृक्ष इस वनमें पुष्प-मंजरियों को धारण कर रहा है ॥४१॥ कोकिलोंके आलापसे जिसने समस्त दिशाओंको वाचालित कर दिया है ऐसा यह आमवृक्ष कामदेवकी आंखोंकी पुतलियोंके समान पुष्प-मंजरियोको धारण कर रहा है ॥४२॥ वसन्तऋतुके फैलनेपर इस वनमें जो चम्पक जातिके वृक्ष विकसित हो रहे हैं और फूलोंके समूह धारण कर रहे हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामदेवके दीपक ही धारण कर रहे हों ।।४३।। इधर ये मदोन्मत्त भूमर आम् वृक्षोंपर ऐसा शब्द कर रहे हैं मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवरूपी राजाके बाजे ही बज रहे हों ॥४४॥ कोयलों
१ अवज्ञात । २ रन्तुमिच्छन्ति । ३ यस्मात् कारणात् । ४ शक्ताः ल०, इ० । ५ रतिकाहलाः ल०, द०, इ० । ६ नृत्यम् अ०, इ० । ७ युगपत् । निष्पर्यायो प०, ल०, द०, अ०, स०। ८ पुंस्कोकिलानामालापः ल०। । बाणाः। तारकाः ल०। १० विकसन्त्यत्र ल०, द०, इ०, अ०, ५०, स० । ११ वसन्तकाले। १२ विस्तृते सति । अविवक्षित कर्मकोऽकर्मक इत्यकर्मकत्वमत्र । १३ दधतोऽमी ल०, द०, इ०, अ०, प०, स० । १४ ध्वनन्ति । १५ सेनया अभियाति । णिज्बहुलं कृञादिषु णिज् ।
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