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162 Having heard the supreme words of the Lord, they were filled with dispassion. Embracing the great renunciation, they departed from their homes to the forest. ||12|| Having received the initiation given by the Lord himself, like a new bride, they, the young kings, were like new grooms. ||126|| They received the hand of that initiation, which, like a princess, came to them with great love, holding the hair. ||127|| Embracing intense austerity, they shone like the sun in summer, their brilliance eclipsing the world. ||128|| Through intense austerities, they made their bodies thin, their austerity-virtue shining like a carved austerity-wealth. ||129|| Standing in the Samayika conduct, as specified in the Jina-kalpa, they practiced intense austerity, enhanced by purity of knowledge. ||130|| Having attained the highest peak of dispassion, they, the lords of the age, renounced the wealth of the kingdom, desiring only the wealth of austerity. ||131|| Embraced by the wealth of austerity, they yearned for the wealth of liberation, engrossed in the wealth of knowledge, they forgot the wealth of the kingdom. ||132|| Having studied the twelve-limbed Shruta-skandha, these great intellects adorned their souls with the excellent practice of austerity. ||133|| Understanding that restraint of the mind comes from study, and that restraint of the senses comes from restraint of the mind, these wise ones applied their intellect to study. ||134|| Through the Acharya-anga, they understood perfectly the good conduct, and they conquered the impurity of conduct. ||135||
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________________ १६२ महापुराणम् इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यं परं निर्वेदमागताः। महाप्रावाज्यमास्थाय' निष्क्रान्तास्ते गृहाद्वनम् ॥१२॥ निद्दिष्ट गुरुणा साक्षादीक्षा नववधूमिव । नवा इव वराः प्राप्य रेजुस्ते युवपार्थिवाः ॥१२६॥ या कचग्रहपूर्वेण प्रणयेनाति भूमिगा । तया पाणिगृहीत्येव दीक्षया ते धृति दधुः ॥१२७॥ तपस्तीवमथासाद्य ते चकासुन पर्षयः । स्वतेजोरुद्धविश्वाशा ग्रीष्ममा शवो यथा ॥१२८॥ तेऽतितीवैस्तपोयोगैस्तनभूतां तन दधुः। तपोलक्ष्म्या समुत्कीर्णामिव दीप्तां तपोगुणः ॥१२६।। स्थिताः सामयिके वृत्ते जिनकल्पविशेषिते । ते तेपिरे तपस्तीवं ज्ञानशुद्धयुपबहितम् ॥१३०॥ वैराग्यस्य परां० कोटीम् आरूढास्ते युगेश्वराः । स्वसाच्चक्रुस्तपोलक्ष्मी राज्यलक्ष्म्यामनुत्सुकाः ॥१३१॥ तपोलक्ष्म्या परिष्वक्ता मुक्तिलक्ष्म्यां कृतस्पृहाः। ज्ञानसंपत्प्रसक्तास्ते राजलक्ष्मी विसस्मरः ॥१३२॥ द्वादशाङगश्रुतस्कन्धमधीत्यते महाधियः । तपो भावनयात्मानमलञ्चक्रुः प्रकृष्टया ॥१३३॥ स्वाध्यायेन मनोरोधस्ततोऽक्षाणां विनिर्जयः । इत्याकलय्य ते धीराः स्वाध्यायधियमादधुः ॥१३४॥ प्राचाराङगेन निःशेषं साध्वाचारमवेदिषुः । चर्याशुद्धिमतो३ रेजुः अतिक्रम"विजिताम् ॥१३॥ है, और यह दया ही प्राणप्यारी स्त्री है इस प्रकार जिसकी सब सामग्री प्रशंसनीय है ऐसा यह तपरूपी राज्य ही उत्कृष्ट राज्य है ।।१२४। इस प्रकार भगवानके वचन सनकर बे सव राजकुमार परम वैराग्यको प्रा त हुए और महादीक्षा धारण कर घरसे वनके लिये निकल पड़े ॥१२५।। -साक्षात् भगवान् वृषभदेवके द्वारा दी हुई दीक्षाको नई स्त्रीके समान पाकर वे तरुण राजकुमार नये वरके समान बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।।१२६॥ उनकी वह दीक्षा किसी राजकन्याके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार राजकन्या कचग्रह अर्थात केश पकडकर वडे प्रणय अर्थात प्रेमसे समीप आती है उसी प्रकार वह दीक्षा भी कचग्रह अर्थात् केश लोंचकर बड़े प्रणय अर्थात् शुद्ध नयोंसे उनके समीप आई हुई थी इस प्रकार राजकन्याके समान सुशोभित होनेवाली दीक्षाके दोनों हाथ पाकर (पक्षमें पाणिग्रहण संस्कार कर) वे राजकुमार अन्तःकरणमें सुखको प्राप्त हुए थे ।।१२७।। अथानन्तर जिन्होंने अपने तेजसे समस्त दिशाओंको रोक लिया है ऐसे वे राजर्षि तीव्र तपश्चरण धारण कर ग्रीष्म ऋतुके सूर्यको किरणोंके समान अतिशय देदीप्यमान हो रहे थे ।।१२८।। वे राजपि जिस शरीरको धारण किये हए थे वह तीव्र तपश्चरणसे कृश हानेपर भी तपक गणोस अत्यन्त देदीप्यमान होरहा था और ऐसा मालूम होता था मानो तपरूपी लक्ष्मीके द्वारा उकेरा ही गया हो ।।१२९।। वे लोग जिनकल्प नामके सामायिक चारित्रमें स्थित हए और ज्ञानकी विद्धिसे बढा हुआ तीव्र तपश्चरण करने लगे ॥१३०॥ वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्त हा उन तरुण राजर्षियों ने राज्यलक्ष्मीसे इच्छा छोड़कर तपरूपी लक्ष्मीको अपने वश किया था ।।१३१।। वे राजकुमार तपरूपी लक्ष्मी के द्वारा आलिङ्गित हो रहे थे, मुक्तिरूपी लक्ष्मीमें उनकी इच्छा लग रही थी और ज्ञानरूपी संपदाम आसक्त हो रहे थे। इस प्रकार के राज्यलक्ष्मीको धिलकुल ही भूल गये थे ।। १३२।। उन महाबुद्धिमानोंने द्वादशाङ्गरूप श्रुतस्कन्धका अध्ययन कर तपकी उत्कृष्ट भावनासे अपने आत्माको अलंकृत किया था ।।१३३।। स्वाध्याय करनेसे मन का निरोध होता है और मनका निरोध होनेसे इन्द्रियोंका निग्रह होता है यही समझकर उन धीरवीर मुनियोंने स्वाध्यायमें अपनी बुद्धि लगाई थी ।।१३४॥ उन्होंने आचारांगके १ आथित्य । २ वनं प्रति गृहान्निष्क्रान्ताः-निर्गताः। ३ प्रकृप्टनयेन स्नेहेन । ४ सीमातिकान्ता। ५ तस्याः पाणिद्वयीं प्राप्य सुखमन्तरुपागता: प०, ल। पत्नी । ६ सन्तोषम् । ७ सकलदियः । ८ ग्रीष्मकालं प्राप्य । ६ चारित्र। १० काष्ठा-म०, अ०, प०, द०, स०, इ०, ल० । ११ आलिदिगताः । १२ चारित्रगुद्धिम्। १३ आचाराङगपरिज्ञानात् । १४ अतीनार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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