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174 The envoy, who was neither too young nor too old, mounted a suitable chariot and set out for Bahubali's abode, adorned in a humble attire. ||22|| He was accompanied by a loyal servant, who carried all the necessary provisions for the journey, and who was as dear to him as his own self. ||22|| As he journeyed, the envoy thought to himself, "If he speaks favorably, I will respond in kind without boasting. But if he speaks of war, I will strive to prevent it." ||23|| "If he desires a treaty or a gift, I am in agreement. But if he seeks to conquer the emperor, I will fight back with all my might." ||24|| The envoy constantly weighed the advantages and disadvantages of both sides, keeping his own counsel hidden, for he knew that his plans could be revealed by other ministers. ||25|| Fearing betrayal, he slept alone in a secluded spot during his journey, carefully observing the terrain suitable for battle and retreat. ||26|| (He traversed many lands, rivers, and borders, finally reaching Bahubali's city of Podanpur.) ||27|| As he approached the city, he beheld the beautiful, fertile land, with its fields of ripe rice, and his heart filled with joy. ||28|| Seeing the abundant rice stalks, guarded with great care by the farmers, the envoy considered the people to be very self-interested. ||29|| He saw the farmers dancing with joy, their sickles raised high, ready to harvest the crops.
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________________ १७४ महापुराणम् उचितं य ग्यमारूढो वयसा नातिकर्कशः। अनु द्धतेन वेषेण प्रतस्थे स तदन्तिकम् ॥२२॥ आत्मनेव द्वितीयेन स्निग्धनानुगतो द्रुतम्। निजानु जीविलोकेन' हस्तशम्बल वाहिना ॥२२॥ सोऽन्वीपं वक्ति चेदेवम् अहं ब्रूयामकत्थनः । विगृह्य यदि स ब्रूयाद् विरहं विग्रहे घटे ॥२३॥ सन्धि च पणबन्धं च कुर्यात् सोऽन्तरमेव नः। विक्रम्य क्षिप्रमेष्यामि विजिगीषावसडागते१३ ॥२४॥ गुणयन्निति सम्पत्तिविपत्ती स्वा-यपक्षयोः । स्वयं निगूढमत्रत्वाद् अनि टोऽन्यमन्त्रिभिः ॥२५॥ मन्त्रभेदभयाद् गूढं स्वपन्नेकः" प्रयाणके । युद्धापसारभूमीश्च५ स पश्यन् दूरमत्यगात् ॥२६॥ ( क्रमेण देशान् सिन्धंश्च देशसन्धींश्च सोऽतियन् । प्रापत् साख्यातरात्रैस्तत् पुरं पोदन साह्वयम् ॥२७॥) बहिःपुरमथासाद्य रम्याः सस्यवतीर्भुवः। पक्वशालिवनोद्देशान् स पश्यन् प्राप नन्दथुम् ॥२८॥ पश्यन् स्तम्बकरिस्तम्बान प्रभूतफल शालिनः । कृतरक्षान् जनैर्यत्नात् स मेने स्वाथिनं जनम् ॥२६॥ सकटुम्बिभि"रुद्दात्रै:२५ न त्यद्भिरभिनन्दितान । केदारलाव सङ्घर्षतू घोषान्यशामयत्॥३०॥ दूतको बाहुबलीके समीप भेजा। - भावार्थ-जिस दूतके ऊपर कार्य सिद्ध करनेका सब भार सौंप दिया जाता है वह निःसृष्टार्थ दूत कहलाता है। यह दूत स्वामीके उद्देश्यको रक्षा करता हुआ प्रसङ्गानुसार कार्य करता है । चक्रवर्ती भरतने ऐसा ही दूत बाहुबलीके पास भेजा था ॥२०॥ जो उमरमें न तो बहुत छोटा था और न बहुत बड़ा ही था ऐसा वह दूत अपने योग्य रथ पर सवार होकर नमताके वेषसे बाहबलीके समीप चला ॥२१॥ जिसने माग में काम आनेवाली भोजन आदिकी समस्त सामग्री अपने साथ ले रखी है और जो प्रेम करनेवाला है ऐसे अपने ही समान एक सेवकसे अनुगत होकर वह दूत बहाँसे शीघ्र ही चला ॥२२॥ वह दुत मार्गमें विचार करता जाता था कि यदि वह अनुकल बोलेगा तो मैं भी अपनी प्रशंसा किये बिना ही अनुकूल बोलूंगा और यदि वह विरुद्ध होकर युद्धकी बात करेगा तो मैं युद्ध नहीं होने के लिये उद्योग करूँगा ॥२३॥ यदि वह सन्धि अथवा पणबन्ध (कुछ भेंट देना आदि) करना चाहेगा तो मेरा यह अन्तरङ्ग ही है अर्थात् मैं भी यही चाहता हूँ, इसके सिवाय यदि वह चक्रवर्तीको जीतनेकी इच्छा करेगा तो मैं भी कुछ पराक्रम दिखाकर शीघ वापिस लौट आऊँगा ॥२८॥ इस प्रकार जो अपने पक्षकी सम्पत्ति और दूसरेके पक्षको विपत्तिका विचार करता जाता था, जो अपने मन्त्रको छिपाकर रखनेसे दूसरे मन्त्रियोंके द्वारा कभी फोड़ा नहीं जा सकता था और जो मन्त्रभेदके डरसे पड़ावपर किसी एकान्त स्थानमें गप्त रीतिसे शयन करता था ऐसा कह दूत युद्ध करने तथा उससे निकलनेकी भूमियोंको देखता हुआ वहुत दूर निकल गया ॥२५-२६।। क्रम क्रमसे अनेक देश, नदी और देशोंकी सीमाओंका उल्लंघन करता हुआ वह दूत बाहुबली के पोदनपुर नामक नगरमें जा पहुँचा ॥२७॥ नगरके बाहर धानोंसे युक्त मनोहर पृथिवी को पाकर और पके हुए चावलोंके खेतोंको देखता हुआ वह दूत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुआ था ॥२८॥ जो वहतसे फलोंसे शोभायमान हैं और किसानोंके द्वारा बडे यत्नसे जिनकी रक्षा की जा रही है ऐसे धानके गुच्छोंको देखते हुए दूतने मनुष्योंको बड़ा स्वार्थी समझा था ॥२९॥ जो खेतोंको देखकर आनन्दसे नाच रहे हैं और खेत काटने के लिये जिन्होंने हँसिया ऊँचे उठा रखे १ वाहनम् । 'सर्वं स्याद् वाहनं धानं युग्यं पत्र च धोरणम्' इत्यभिधानात् । २ अनुचरजनन । ३ पाथेय । ४ अनुकूलम् । ५ अनकूलवृत्त्या । ६ अश्लाघमानः ।--मरच्छनः ल०। ७ कलहं कृत्वा । ८ नाशम् । १ करोमि । १० निष्कग्रन्थिम् । प्राभूतमित्यर्थः । ११ विक्रम कृत्वा । १२ आगन्द्रामि । १३ सन्धि न गते सति । १४ शयान:। १५ युद्धापसारणयोग्यभूमिः । १६-मभ्यगात् ल., प., अ०, स०। १७ नदीः । १८ देशसीम्नः। १६ अतीत्य गच्छन् । २० आनन्दम् । २१ व्रीहिगुच्छान् । 'धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः स्तम्वो गुच्छस्तृणादितः ।' इत्यभिधानात् । २२ बहल । २३ निजप्रयोजनवन्तम् । २४ कृषीवलैः २५ उद्गतलवित्रः। २६ छेदन। २७ सम्मर्द। २८ अशुणोत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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