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________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व क्वचिच्छ कमुखाकृष्टकणाः' कणिशमञ्जरीः । शालिवप्रेषु सोऽपश्यद् विर्भुक्ता इव स्त्रियः ॥३१॥ सुगन्धिकलमामोदसंवादिश्वसि तानिलः । वासयन्तीदिशः शालिकणिशैरवतंसिताः ॥३२॥ पीनस्तनतटोत्सङगगलधर्माम्बु बिन्दुभिः । मुक्तालडकारजां लक्ष्मी घटयन्तीनिजोरसि ॥३३॥ सरजोऽब्जरजःकीर्णसीमन्तरुचिरैः कचैः। 'चडामाबध्नतीः स्वरग्रन्थितोत्पलदामकः ॥३४॥ दधतीरातपक्लान्तमुखपर्यन्तसङगिनीः । लावण्यस्येव कणिकाः श्रमघम्बुिविपुषः ॥३५॥ शुकान शुकच्छदच्छायः रुचिराडगीस्तनांशुकैः। छोत्कुर्वतीः कलक्वाणं सोऽपश्यच्छालिगोपिकाः ॥३६॥ भमद्य कुटीयन्त्रचीत्कारैरिक्षवाटकान् । फुत्कुर्वत इवादाक्षीद् प्रतिपीडाभयेन सः ॥३७॥ उपक्षेत्रं च गोधेन : महोधोभरमन्थराः । वात्सकेनोत्सुकाः स्तन्यं क्षरतोनिचचाय सः ॥३८॥ इति रम्यान पुरस्यास्य सीमान्तान् स विलोकयन् । मेने कृतार्थमात्मानं लब्धतद्दर्शनोत्सवम् ॥३६॥ उपशल्यभुवः१२ कुल्याप्रणालीप्रसृतोदकाः । शालीक्षुजीरकक्षेत्रः वृतास्तस्य३ मनोहरन् ॥४०॥ वापोकूपतडागश्च सारामरम्बुजाकरैः । पुरस्यास्य बहिर्देशाः तेनादृश्यन्तं हारिणः ॥४॥ पुरगोपुरमुल्लङघय स निचायन वणिकपथान । लत्र "पूगीकृतान् मेने रत्नराशीन्निधोनिव ॥४२॥ है ऐसे कुटम्ब सहित किसानों के द्वारा प्रशंसनीय, खेत काटने के संघर्षके लिये बजती हुई तुरईके शब्दोंको भी वह दूत सुन रहा था ।।३०। कहीं धानके खेतोंमें वह दूत जिनके कुछ दाने तोताओं ने अपने मखसे खींच लिये हैं ऐसी बालोंके समूह इस प्रकार देखता था मानो विट पुरुषोंके द्वारा भोगी हुई स्त्रियां ही हों ॥३१॥ जो सुगन्धित धानकी सुगन्धिके समान सुवासित अपनी श्वासकी वायुसे दशों दिशाओंको सुगन्धित कर रही थीं, जिन्होंने धानकी वालोंसे अपने कानों के आभूषण बनाये थे, जो अपने वक्षःस्थलपर स्थूल स्तनतटके समीपमें गिरती हुई पसीने की बूंदोंसे मोतियोंके अलंकारसे उत्पन्न होनेवाली शोभाको धारण कर रही थीं, जो परागसहित कमलोंकी रजसे भरे हुए माँगसे सुन्दर तथा अच्छी तरह गुथी हुई नीलकमलोंकी मालाओंसे सुशोभित केशोसे चोटियाँ बाँधे हुई थीं, जो वापसे दुःखी हुए मुखपर लगी हुई सौन्दर्यके छोटे छोटे टुकड़ों के समान पसीने की बूंदों को धारण कर रही थीं, जिनके शरीर तोतेके पंखोंके समान कान्ति बाली-हरी हरी चोलियोंसे सुशोभित हो रहे थे, और जो मनोहर शब्द करती हुई छो छो करके तोतोंको उड़ा रही थी ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ उस दूतने देखीं ।।३२-३६।। जो चलते हुए कोल्हुओंके चीत्कार शब्दों के बहाने अत्यन्त पीड़ासे मानो रो ही रहे थे ऐसे ईखके खेत उस दूतने देखे ॥३७।। खेतोंके समीप ही, बड़े भारी स्तनके भारसे जो धीरे धीरे चल रही है, जो बछड़ों के समूहमे उत्कण्ठित हो रही हैं और जो दूध झरा रही है ऐसी नवीन प्रसूता गायें भी उसने देखी ।।३८।। इस प्रकार इस नगरके मनोहर सीमाप्रदेशों को देखता हुआ और उन्हें देखकर आनन्द प्राप्त करता हुआ वह दुत अपने आपको कृतार्थ मानने लगा ॥३९॥ जिनके चारों ओर नहरकी नालियोंसे पानी फैला हुआ है और जो धान ईख और जीरे के खेतोंसे घिरी हुई है ऐसी उस नगरके बाहरकी पृथिवियां उस दूतका मन हरण कर रही थीं ।।४०।। बावड़ी, कुएं, तालाब, बगीचे और कमलोंके समूहोंसे उस नगरके बाहरके प्रदेश उस दूतको वहत ही मनोहर दिखाई दे रहे थे ॥४१॥ नगरके गोपुरद्वारको १ धान्यांशाः । २ केदारेषु । ३ परिस्पधि । ४ उच्छवास । ५ शिखाम् । 'शिखा चूडा केशपाशः' इत्यभिधानात् । ६ इच्छयन्त्रगृह । ७ क्षेत्रसमीपे । ८ गोनवसूतिकाः । 'धेनुः स्यान्नवप्रसूतिका' इत्यभिधानात्। महापीनभारमन्दगमनाः । १० क्षीरम् । ११ ददर्श । 'चाया पूजानिशामनयोः' । १२ ग्रामानामः । 'ग्रामान्तमपशल्यं स्याद्' इत्यभिधानात् । १३ दुतस्य । १४ बन्दीकृतान् । 'पूगः मकवृन्दपोः' इत्यभिधानात् । पुजीतानित्यर्थ पुजीकृतान् ल । पुगतान अ०, प०, स०, इ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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