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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
उत्थितः पिलकोऽस्माकं विधर्गण्डस्य वोपरि।का जीविकेति निविण्णाः प्रायः "प्रोषितयोषितः २८४ लब्धचन्द्रबलस्योच्च: स्मरस्य परितोषिणः । अट्टहास इवाशेषं साक्रश्चन्द्रातपोऽतत ॥२८॥ रूढो रागाङकुरश्चित्ते प्रम्लानो भान भानुभिः। तदा चन्द्रिकया "प्राच्यवृष्टयेवावर्द्धताङगिनाम् ॥२८६॥ 'खण्डितानां तथा तापो नाभूद् भास्कररश्मिभिः। यथांशुभिस्तुषारांशोविचित्रा द्रव्यशक्तयः ॥२७॥ खण्डनादेव० कान्तानां ज्वलितो मदनानलः । जाज्वलीत्ययमेतेने "त्यत्यजन्मधु"काश्चन ॥२८॥ वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना। कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरतिपायिताः२६ ॥२८॥ प्रेम नः" कृत्रिमतत् किमनेनेति' काश्चन । दूरादेवात्यजन् स्निग्धाःश्राविका वाऽऽसवादिकम् ॥२६॥ मधु द्विगुणितस्वादु० पीतं कान्तकरापितम्। कान्ताभिः २कामदुर्वारमातङगमदवर्द्धनम् ॥२६॥ इत्याविर्भावितानगरसास्ताः प्रियसङगमात् । प्रीति वाग्गोचरातीतां स्वीचक्रुर्वकवीक्षणाः ॥२६२॥
को हर्षसे प्रसन्न ही कर रहे हों। विशेष-इस श्लोकमें सरसी शब्दके स्त्रीलिङ्ग होने तथा कर शब्दके श्लिष्ट हो जानेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जिस प्रकार स्त्रियां अपने पतियोंके हाथका स्पर्श पाकर प्रसन्न हुए नेत्रोंसे उन्हें हर्षपूर्वक आनंदित करती हैं उसी प्रकार सरसियां भी चन्द्रमाके कर अर्थात् किरणोंका स्पर्श पाकर प्रफुल्लित हुए कुमुदरूपी नेत्रोंसे उसे हर्षपूर्वक आनन्दित कर रही थीं ॥२८३॥ प्रायः विरहिणी स्त्रियां यह सोच-सोचकर विरक्त हो रही थीं कि यह चन्द्रमा हमारे गालपर फोड़ेके समान उठा है अर्थात् फोड़ेके समान दुःख देनेवाला है इसलिये अब जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥२८४॥ जिसे चन्द्रमाका बल प्राप्त हुआ है और इसीलिये जो जोरसे संतोष मना रहा है ऐसे कामदेवके अद्रहासके समान चन्द्रमाका गाढ प्रकाश सब ओर फैल गया था ॥२८५॥ मनुष्योंके हृदयमें उत्पन्न हुआ जो रागका अंकूरा सूर्यकी किरणोंसे मुरझा गया था वह भारी अथवा पूर्व दिशासे आनेवाली वर्षाके समान फैली हुई चाँदनीसे उस समय खूब बढ़ने लगा था ॥२८६॥ खण्डिता स्त्रियोंको सूर्यकी किरणोंसे वैसा संताप नहीं हुआ था जैसा कि चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थों की शक्तियां विचित्र प्रकारकी होती हैं ॥२८७॥ प्रिय पतिके विरहसे ही जो कामरूपी अग्नि जल रही थी वह इस मद्यसे ही जल रही है ऐसा समझकर कितनी ही विरहिणी स्त्रियोंने मद्य पीना छोड़ा दिया था ॥२८८॥ मद्यके सिवाय व्यर्थके अभिमानको नष्ट करनेवाला और कोई पदार्थ नहीं है यही सोचकर कितनी ही कलहान्तरिता स्त्रियोंको उनकी सखियोंने खूब मद्य पिलाया था ॥२८९॥ हमारा यह प्रेम बनावटी नहीं है इसलिये इस मद्यके पीनेसे क्या होगा? यही समझकर कितनी ही प्रेमिकाओंने श्राविकाओंके समान मद्य आदिको दूर से ही छोड़ दिया था ॥२९०।। कितनी ही स्त्रियां कामदेवरूपी दुनिवार हाथीके मदको बढ़ानेवाले स्वादिष्ट मद्यको पतिके हाथसे दिया जानेके कारण दूना पी गई थीं ॥२९१।। इस प्रकार जिनके कामका रस प्रकट हुआ है और जिनकी दृष्टि कुछ-कुछ तिरछी हो रही है ऐसी स्त्रियाँ
१ पिटको ल०, अ०, इ०, स०, प० । पिटक: स्फोटकः । 'विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभि धानात् । २ गलगण्डस्य। 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । ३ जीवितम् । ४ उद्वेगपराः । दुःखे तत्पराः इत्यर्थः । ५ विमुक्तभर्त काः स्त्रियः । ६ व्याप्नोति स्म। ७ प्रथमवृष्टया । ८ विरहिणीनां योषिताम् । ६ चन्द्रस्य । १० वियोगात् । ११ प्रियतमानां पुंसाम । १२ भृशं ज्वलति। १३ दावाग्निः । १४ मध्येन । १५ मद्यम् । १६ मद्यपानं कारिताः । १७ अस्माकम् । १८ मध्येन । १६ मद्यादिकम् । २० त्रिगुणितं स्वादु इत्यपि पाठः । २१ प्रियतमकरेण दत्तम् । २२ कामदुःपूरः-ट० । पूरयितुमशक्यः। २३ वामलोकनाः।
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