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30 Mahapuraanam The king saw many tents outside the camp, where things like horse-trappings were hung on the tips of branches. || 134 || Seeing these special things, like the tents outside, the king went to the great gate of the camp. || 135 || Passing through the gate, he went a little distance with his army and reached the market, which resounded like the great ocean. || 136 || The market was beautifully decorated with arches and colorful flags. The merchants were standing there, holding precious jewels. || 137 || Seeing the piles of jewels in every shop, the king thought that the number of treasures was only known by fame. || 138 || The market, filled with pearls and shining jewels, was crowded with people. Chariots crossed it like ships on a sea. || 139 || The royal road, with its waves of moving horses, shining swords like fish, and large elephants like crocodiles, resembled the beauty of the ocean. || 140 || The market road was surrounded by princes on all sides, making it truly a royal path. || 141 || Then, there were arches shining with jewels, and the outer beauty of the camp was enhanced by the surrounding chariots. || 142 || The camp was filled with horses, making it difficult to enter, and it was adorned with a large army of elephants, young elephants, and female elephants. Sometimes, the camp was shaded by a canopy of umbrellas, and sometimes it was arranged in a circle by the chiefs. || 144 ||
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________________ ३० महापुराणम् तरुशाखाग्रसंसक्तपर्याणादि' परिच्छदान् । स्कन्धावारात् बहिः कांश्चिद् श्रावासान् प्रभुरंक्षत ॥ १३४ ॥ बहिनिवेशमित्यादीन् विशेषान् स विलोकयन् । प्रवेशे शिबिरस्यास्य महाद्वारमयासदत् ॥१३५॥ तदतीत्य समं सैन्यैः संगच्छन् किञ्चिदन्तरम् । महाब्धिसमनिर्घोषमाससाद वणिक्पथम् ॥१३६॥ कृतोपशोभमाबद्धतोरणं चित्रकेतनम् । वणिग्भिरूढ रत्नाधं स जगाहे वणिक्पथम् ॥ १३७॥ प्रत्यापणमसौ तत्र रत्नराशीनिधीनिव । पश्यन् मेने निधीयत्तां प्रसिद्धचैव तथास्थिताम् ॥१३८॥ समौक्तिकं स्फुरद्रत्नं जनतोत्कलिकाकुलम् । रथा वणिक्पथाम्भोधि पोता इव ललङघिरे ॥ १३६॥ चलवश्वीयकल्लोलः स्फुरनिस्त्रिशरोहितः । राजमार्गोऽम्बुधेर्लीलां महेभमकरंरधात् ॥१४०॥ राजन्यकेन संरुद्धः समन्तादानू पालयम् । तदासौ विपणीमार्गः सत्यं राजपथोऽभवत् ॥ १४१ ॥ ततः पर्यन्तविन्यस्त रत्नभासुरतोरणम् । रथकटया परिक्षेपकृतबाह्यपरिच्छदम् ॥ १४२ ॥ श्रारुध्यमानमश्वीयैः हास्तिकेनातिदुर्गमम् । बहुनागवनं " जुष्ट" कलभैश्च करेणुभिः ॥ १४३ ॥ छत्रषण्डकृतच्छायं महोद्यानमिव क्वचित् । क्वचित्सामन्तमण्डल्या रचितास्थानमण्डलम् ॥ १४४॥ बाड़ियां बनाई गई थीं उन्हें देखकर महाराज भरतने अपने निष्कण्टक राज्यमें ये ही कांटे हैं ऐसा माना था । भावार्थ - भरतके राज्य में बाड़ीके कांटे छोड़कर और कोई कांटे अर्थात् शत्रु नहीं थे ।।१३३ || जहांपर वृक्षोंकी डालियोंके अग्र भागपर घोड़ोंके पलान आदि अनेक वस्तुएं टंगी हुई हैं और जो शिबिरके बाहिर बने हुए हैं ऐसे कितने ही डेरे महाराज भरतने देखे ।।१३४।। इस प्रकार शिबिर के बाहर बनी हुई अनेक प्रकारकी विशेष वस्तुओंको देखते हुए महाराज शिबिरमें प्रवेश करनेके लिये उसके बड़े दरवाजेपर जा पहुंचे ॥ १३५ ॥ बड़े दरवाजेको उल्लंघन कर सैनिकों के साथ कुछ दूर और गये तथा जिसमें समुद्रके समान गंभीर शब्द हो रहे हैं ऐसे बाजारमें वे जा पहुंचे ।। १३६ ।। जिसकी बहुत अच्छी सजावट की गई है जिसमें तोरण बंधे हुए हैं, अनेक प्रकारकी ध्वजाएं फहरा रही हैं और व्यापारी लोग जिसमें रत्नों का अर्थ लेकर खड़े हैं ऐसे उस बाजार में महाराजने प्रवेश किया || १३७ ।। वहां पर प्रत्येक दुकान पर निधियों के समान रत्नोंकी राशि देखते हुए महाराज भरतने माना था कि निधियों की संख्या प्रसिद्धि मात्र से ही निश्चित की गई है । भावार्थ - प्रत्येक दूकानपर रत्नोंकी राशियां देखकर उन्होंने इस बातका निश्चय किया था कि निधियोंकी संख्या नौ है यह प्रसिद्धि मात्र है, वास्तव में वे असंख्यात हैं ।। १३८।। जो मोतियोंसे सहित है, जिसमें अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं और जो मनुष्यों के समूहरूपी लहरोंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे उस बाजाररूपी समुद्र को रथोंने जहाजके समान पार किया था ।। १३९ ।। उस समय वह राजमार्ग चलते हुए घोड़ों के समुदायरूपी लहरोंसे, चमकती हुई तलवाररूपी मछलियोंसे और बड़े बड़े हाथीरूपी मगरों से ठीक समुद्रकी शोभा धारण कर रहा था ।। १४० ।। उस समय वह बाजारका रास्ता महाराज के तम्बू तक चारों ओरसे अनेक राजकुमारोंसे भरा हुआ था इसलिये वास्तवमें राजमार्ग हो रहा था ।।१४१।। तदनन्तर जिसके समीप ही रत्नोंके देदीप्यमान तोरण लग रहे हैं, घेरकर रक्खे हुए रथों के समूहसे जिसकी बाहरकी शोभा बढ़ रही है - जो घोड़ों के समूहसे भरा हुआ है, हाथियों के समूहसे जिसके भीतर जाना कठिन है, जो हाथियोंकी बड़ी भारी सेनासे सुशोभित है, हाथियों के बच्चे और हथिनियोंसे भी भरा हुआ है । अनेक छत्रोंके समूहकी छाया होनेसे १ पल्ययनादिपरिकरान् । २ शिखरात् । ३ कटकाद् बहिः । ४ धृतरत्नार्धम् । ५ प्रमाणम् । ६ नवनिधिरूपेण स्थिताम् । तथास्थितान् ल० । ७ तरंगाकुलम् । ८ मत्स्यविशेषैः । ६ रथसमूहपरिवेष्टेन कृतबाह्यपरिकरम् । १० ईषदसमाप्तनागवनम् । नागवनसदृशमिति यावत् । ११ सेवितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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