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412 Mahapuraanam Thinking of his own fame or the fame of the sun, the sun, filled with anger, set, delaying the victory of Jayakumar. ||261|| Even though the sun's light is clear and he is virtuous, he still sets. Who, relying on the west, or on alcohol, does not fall? ||262|| From sunrise, his radiance spreads throughout the world, and he is powerful. But even he, the sun, was destroyed in a single day. Who else, with intense rays, can remain in the world? ||263|| The lotus-eyed birds, not wanting to see the sun, devoid of radiance, closed their eyes in sorrow, as if they were hiding from the heat. ||264|| The birds entered their own nests, as if they were unable to see the celestial beings who had fallen from the sky due to the sharp blow of Jayakumar's sword. ||265|| The sun has extraordinary power, extraordinary radiance, and is worshipped by all in an extraordinary way. Yet, he falls every day. This shows that cruel fate is not subject to reason. ||266|| The group of wise men said, "When the sun, who is the simile for the fame of the sun, has set, what is the fate of the one being compared?" ||267||
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________________ ४१२ महापुराणम् अर्क कीर्ति स्वकीर्ति' वा मत्वा रोषेण भास्करः । श्रस्तं 'जयजयस्यायात् कुर्वन् कालविलम्बनम् ॥२६१॥ 'स्टालोकोऽपि सद्वृत्तोऽप्यगादस्तमहर्पतिः । श्राश्रित्य वारुणीं रक्तः' को न गच्छत्यधोगतिम् ॥ उदये वतिच्छायो" व्याप्य विश्वं प्रतापवान् । "दिनेनेनोऽप्यनश्यत्" कस्तिष्ठे तीव्रकरः परः ॥ २६३ ॥ इनं स्वच्छानि विच्छायं" तापहारीणि वा भृशम् । द्रष्टुं सरांस्य निच्छन्ति" कजाक्षीणि शुचा "स्यधुः "जयनिस्त्रिशनिस्त्रिशनिपातपतितान् खगान् । " प्राविशन्निजनीडानि" वीक्षितुं विक्षमाः खगाः ० २६५ स प्रतापः प्रभा साऽस्य सा हि सर्वेकपूज्यता । पातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधि ः ३ ॥२६६॥ कीय मानतां यातो यातोऽर्कश्चेदद् श्यताम् । उपमेयस्य का वार्तेत्यवादीद्विदुषां गणः ॥ २६७॥ सूर्य मानो जयकुमारके तेजको न सह सकने के कारण ही कातर हो अपने करों-किरणोंसे (हाथों से) अस्ताचलको पकड़कर नीचे गिर पड़ा ।। २५८ - २६० ।। वह सूर्य अर्ककीर्तिको अपनी कीर्ति मानकर क्रोध से जयकुमारके जीत में विलम्ब करता हुआ अस्त हो गया || २६१ ॥ जिसका आलोक प्रकाश (ज्ञान) स्पष्ट है और जो सद्वृत्त - गोल ( सदाचारी) है ऐसे सूर्यको भी अस्त होना पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा अथवा मद्यका सेवन करनेवाला ऐसा कौन है जो नीचेको न जाता हो-अस्त न होता हो- नरक न जाता हो । भावार्थ - जिस प्रकार मद्य पीनेवाला ज्ञानी और सदाचारी होकर भी नीच गतिको जाता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रकाशमान और गोल होकर भी पश्चिम दिशामें जाकर अस्त हो जाता है ॥२६२॥ उदय कालसे लेकर निरन्तर जिसकी कान्ति बढ़ती रहती है और जो संसारमें व्याप्त होकर तपता रहता है ऐसा तीव्रकर अर्थात् तीव्र किरणोंवाला सूर्य भी जब एक ही दिनमें नष्ट हो गया तब फिर भला तीव्रकर अर्थात् अधिक टैक्स लगानेवाला और संताप देनेवाला अन्य कौन है जो संसारमें ठहर सके ॥ २६३ ॥ संतापको दूर करनेवाले स्वच्छ सरोवर अतिशय कान्तिरहित सूर्य को देखना नहीं चाहते थे इसलिये ही मानो उन्होंने शोकसे अपने कमलरूपी नेत्र बन्द कर लिये थे || २६४ || सब पक्षी अपने- अपने घोंसलोंमें इस प्रकार चले गये थे मानो वे जयकुमार की तीक्ष्ण तलवारकी चोटसे गिरे हुए विद्याधरोंको देखनेके लिये समर्थ नहीं हो सके हों ॥ २६५ ॥ सूर्यका असाधारण प्रताप है, असाधारण कान्ति है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते हैं फिर भी प्रतिदिन उसका पतन हो जाता है इससे जान पड़ता है कि निष्ठुर दैव तर्कका विषय नहीं है । भावार्थ- ऐसा क्यों करता है इस प्रकारका प्रश्न दैवके विषय में नहीं हो सकता है ।। २६६ ।। उस समय विद्वानों का समूह ऐसा कह रहा था कि जब अकीर्ति के साथ उपमानताको प्राप्त हुआ सूर्य भी अदृश्य हो गया तब उपमेयकी क्या बात है ? भावार्थ - अर्ककीर्ति के लिये सूर्यकी उपमा दी जाती है परन्तु जब सूर्य ही अस्त हो गया तब अर्ककीर्तिकी तो बात ही १ निजनामधेयमिव । २ पीडया । ३ जयकुमारस्य । ४ व्यक्तोद्योतोऽपि । व्यक्तदर्शनोऽपीति ध्वनिः । 'आलोको दर्शनोद्योतौ' इत्यभिधानात् । ५ सद्वर्तुलमण्डलेऽपीति । सच्चारित्रोऽपीति ध्वनिः । ६ रविः । ७ पश्चिमाशाम् । मद्यमिति ध्वनिः । ८ अरुण: अनुरक्तश्च । ६ उद्गमे अभ्युदये च । १० कान्तिः पक्षे उत्कोचः । "छाया स्यादातपाभावे प्रतिविम्बार्कयोषितोः । पालनोत्कोचयोः कान्तिसच्छोभापंक्तिषु स्मृता" इत्यभिधानात् । ११ दिवसेन च । इनः सूर्यः प्रभुश्च । 'इनः सूर्ये प्रभौ' इत्यभिधानात् । १२ अदृश्योऽभूत् । १३ सूर्यम् । १४ विगतकान्तिम् । १६ दधति स्म । १७ जयकुमारस्य निशितास्त्रघातेन पतितान् । १६ आत्मीयकुलायान् । 'कुलायो नीडमस्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । २० पक्षिणः । २२ क्रूरः । २३ नियतिः कर्म च । १५ अनिच्छूनि । १५ प्रविष्टाः । २१ पतनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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