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पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व विन्ध्यश्रीस्तां पिता तस्याः शिक्षितुं सकलान् गुणान् । मया सह मयि स्नेहान्महीशस्य समर्पयत् ॥१५४॥ वसन्ततिलकोद्याने क्रीडन्ती सकदा दिवा। दष्टा तत्र मया दत्तनमस्कारपदान्यलम् ॥१५॥ भावयन्तो मृतात्रेयं भूत्वायात् स्नेहिनी मयि । इत्यब्रवीदसौ सोऽपि ज्ञात्वा सन्तुष्टचेतसा ॥१५६॥ तत्कालोचितसामोक्त्या गडगादेवी विसर्य ताम् । सबलाक प्रकुर्वन्तं स्वं चलत्केतुमालया ॥१५७॥ स्वावासं सम्प्रविश्योच्चैः सप्रियः सहबन्धुभिः । सस्नेहं राजराजोक्तम् उक्त्वा तत्प्रहितं' स्वयम् ॥१५८॥ पृथक्पृथक् 'प्रदायातिनु दमासाद्य वल्लभाम् । नीत्वा एतत्रैव तां रात्रि प्रातरुत्थाय भानु वत् ॥१५॥ विधातुमा रक्तानां भुक्तिमुद्योतिताखिलः । अनुगडगं प्रयान प्रेम्णा कामिन्याः कुरुवल्लभः ॥१६॥ कमनीयरतिप्रीतिम् पालाप रतनोत्तराम् । जाहनवी दर्शितावर्तनाभिः कूलनितम्बिका ॥१६१॥ "चटुलोज्ज्वलपाठीनलोचना रमणोन्मुखी । तरङगबाहुभिर्गाढमालिङ्गनसमुत्सुका ॥१६२॥ स्वभावसुभगा दृष्टहृदया स्वच्छतागुणात् । तटद्वयवनोत्फुल्लसुमनोमालभारिणी ॥१६३॥ "प्रतिवद्धरसा वेगं सन्धर्तुमसहा द्रुतम् । पश्य कान्ते प्रियं याति स्वानुरूपं पयोनिधिम् ॥१६४॥ रतेः कामाद् विना नेच्छा न नीचेवृत्तमस्पहा । सङगमे रतन्मयी जाता प्रेम नामेदशं मतम् ॥
साफल्यमेतयार नित्यम् एति लावण्यमम्बुधेः ॥१६॥ राजा रहता था। उसकी स्त्रीका नाम प्रियङगुश्री था। उन दोनोंके विन्ध्यश्री नामकी पुत्री थी। उसके पिताने मुझपर प्रेम होनेसे मेरे साथ सब गुण सीखने के लिये उसे महाराज अकंपनको सौंप दिया ॥१५३-१५४॥ वह विन्ध्यश्री किसी एक दिन उपवनमें क्रीड़ा कर रही थी, वहींपर उसे किसी सांपने काट लिया जिससे मेरे द्वारा दिये हुए पंच नमस्कार मन्त्रका चिन्तवन करती हुई मरकर यह देवी हुई है और मुझपर स्नेह होनेके कारण यहां आई है यह जानकर जयकुमारने संतुष्टचित्त हो शान्तिमय वचन कहकर गंगादेवीको विदा किया। तदनन्तर अपनी प्रिया सुलोचना और इष्ट-बन्धुओंके साथ साथ, फहराती हुई पताकाओंके द्वारा अपने आपको बगुलाओंसे सहित करते हुएके समान जान पड़नेवाले अपने ऊंचे डेरेमें प्रवेश किया। बड़े स्नेहसे महाराज भरतके कहे वचन सबको सुनाये, उनकी दी हुई भेंट सबको अलग अलग दी। सुलोचनाको अत्यन्त प्रसन्न किया, वह रात्रि वहीं बिताई और सबेरा होते ही उठकर अपने में अनुराग रखनेवाले लोगोंके भोजनके लिये सूर्य के समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह कुरुवंशियोंका प्यारा जयकुमार सुलोचनाके प्रेमसे गंगा नदीके किनारे किनारे चलने लगा ॥१५५-१६०॥ वह जाते समय मनोहर वचनोंसे सुलोचनाको बहुत ही संतुष्ट करता जाता था। वह कहता था कि हे प्रिये, देखो यह गंगा नदी अपने अनुरूप समुद्ररूपी पतिके पास बडी शीघ्रतासे जा रही है, यह अपनी नाभिरूपी भौंर दिखला रही है, दोनों किनारे ही इसके नितम्ब है, चंचल और उज्वल मछलियां ही नेत्र हैं, यह कीड़ा अथवा पतिके लिये सन्मुख है, तरंगरूपी भुजाओंके द्वारा गाढ आलिंगनके लिये उत्कण्ठित सी जान पड़ती है,स्वभावसे सुन्दर है, अपने स्वच्छतारूपी गुणोंसे सबका हृदय हरनेवाली है, दोनों किनारोंपर वनके फूले हुए पुष्पोंकी माला धारण कर रही है, इसका रस अथवा पानी सब ओरसे बढ़ रहा है और अपना वेग नहीं संभाल सक रही है ॥१६१-१६४॥ सो ठीक ही है क्योंकि कामदेवके बिना रतिकी
१ अकम्पनस्य। २ विन्ध्यश्रीः । ३ आगच्छति स्म। ४ सुलोचना। ५ विसकण्ठिकासहितम् । 'बलाका विसकण्ठिका' इत्यभिधानात् । ६ चक्रिणा प्रोक्तम् । ७ भणित्वा । ८ चक्रिप्रेषितम् । ६ दत्त्वा । १० प्रापय्य । ११ स्कन्धावारे। १२ कर्तुम। १३ असिमष्यादिव्यापारविभवजम् । १४ प्रकाशितसकललोक. । १५ जयः । १६ गङगा। 'गङगाविष्णुपदी जह्न तनया सुरनिम्नगा' इत्यभिधानात् । १७ चञ्चल । १८ समुद्रेण सह रतिक्रीडोन्मुखी। निजपतिसमुद्राभिमुखी वा। १६ अभिवृद्ध-ल० । २० जलस्यासमन्ताद् वेगम् । रागोद्रेकं च । २१ समुद्रस्वरूपा। २२ गङ्गया। षट्पादोऽयं श्लोकश्चिन्त्यः ।
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