________________
४४०
महापुराणम्
उत्पत्ति भूता पत्युर्धरण्यां वधिता सती । वाधिरेव पतिस्तस्माद् एषाऽभूत् पापनाशिनी ॥१६६॥ धवला धामिर्मान्या सतीनामुपमानताम् । गता कवीश्वरैः सर्वैः स्तूयते देवतेति च ॥१६७॥ गणिनश्चेन्न के 'नाधाः संस्तुवन्ति गणप्रियाः। 'इति गङगागतः श्रव्यः अन्यश्चातिमनोहरैः ॥१६॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणः करुजाङगलम् । प्राप्य तद्वर्णनाव्याजान्मोदयन काशिपात्मजाम् ॥१६॥ "प्राप्तजानपदानीतफलपुष्पादिभिश्च सः। विकसन्नीलनौरेजसरोजातिविराजितः ॥१७०॥ प्रत्येत्येव प्रपश्यन्ती सरोनेत्रर्वधूवरम् । 'सद्वप्रजघनाभोगां वापीकूपोरुनाभिकाम् ॥१७१॥ परीतजातरूपोच्चप्राकारकटिसूत्रिकाम् । अलङकृतमहावीथिविलसद्बाहुबल्लरोम् ॥१७२॥ सौधोत्तुङगकुचां भास्वद्गोपुराननशोभिनीम् । कुडकुमागुरुकर्पूरकर्दमाद्रितगात्रिकाम् ॥१७३॥ नानाप्रसवसन्दृब्धमालाधमिल्लधारिणीम् । तोरणाबद्धरत्नादिमालालकृतविग्रहाम् ॥१७४॥ पाहयन्तीमिवोधिः पतत्केत्वग्रहस्तकः । द्वारासंवृतिविश्रम्भनेत्रां० सवासान्तरुत्सुकाम् ॥१७॥ पुरोहितः पुरन्धोभिमन्त्रिभिर्वैश्यविश्रुतैः ।दत्तशेषः पुरः स्थित्वा साशीर्वादः समुत्सुः ॥१७६॥
इच्छा नहीं होती है, उत्तम पुरुषोंकी इच्छाएं नीच पदार्थोंपर नहीं होती हैं, यह नदी समद्रमें जाकर समुद्ररूप ही हो गई हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्रेम ऐसा ही होता है, इसके समागमसे ही समुद्रका लावण्य (सौन्दर्य अथवा खारापन) सदा सफल होता है ॥१६५॥ इस गंगा नदीकी उत्पत्ति पर्वतोंके पति-हिमवान् पर्वतसे है, पृथिवीपर यह बढ़ी है और समुद्र ही इसका पति है इसलिये ही यह संसारमें पापोंका नाश करनेवाली हुई है ॥१६६॥ यह सफेद है, धर्मात्मा लोगोंके द्वारा मान्य है, सतियोंको इसकी उपमा दी जाती है और सब कवीश्वर यदि गुगीजनोंकी स्तुति न करें तो फिर कौन किसकी स्तुति करेगा ? इस प्रकार सुननेके योग्य गङ्गा सम्बन्धी तथा अन्य अत्यन्त मनोहर कथाओं द्वारा मार्ग तय किया। ॥१६७-१६८॥ तदनन्तर कुछ ही पड़ावों द्वारा कुरुजांगल देश पहुंचकर उसके वर्णनके बहानेसे सुलोचनाको आनन्दित करते हए जयकुमारने अपनी उस हस्तिनागपूरी नामकी राजधानीमें प्रवेश किया जो कि देशके प्रधान प्रधान पुरुषों द्वारा लाये हुए फल पुष्प आदिकी भेंट तथा खिले हुए नील कमल और सफेद कमलोंसे अत्यन्त सुशोभित सरोवररूपी नेत्रोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे आकर वधू वरको देख ही रही हो। उत्तम धूलीसाल ही जिसका विस्तृत जघन प्रदेश था, बावड़ी और कुएं ही जिसकी विशाल नाभि थी, चारों ओर खड़ा हुआ सुवर्णका ऊंचा परकोटा ही जिसकी करधनी थी, सजी हुई बड़ी बड़ी गलियां ही जिसकी सुशोभित बाहुलताएं थीं, राजभवन ही जिसके ऊंचे कुच थे, देदीप्यमान गोपुररूपी मुखसे जो सुशोभित हो रही थी, केशर, अगुरु और कपूरके विलेपनसे जिसका शरीर गीला हो रहा था, जो अनेक प्रकारके फूलोंसे गुंथी हुई मालारूपी केशपाशको धारण कर रही थी, तोरणों में बांधी गई रत्न आदिकी मालाओंसे जिसका शरीर सुशोभित हो रहा था, जो ऊपर नीचे उड़ती हुई पताकाओंके अग्रभागरूपी हाथोंसे बुलाती हुई सी जान पड़ती थी, खुले हुए दरवाजे ही जिसके विश्वासपूर्ण नेत्र थे, जो घरघर होनेवाले उत्सवोंसे उत्कण्ठित सी जान पड़ती थी और इस प्रकार जो दूसरी सुलोचनाके समान सुशोभित हो रही थी। महाराजके दर्शन करने के लिये उत्कण्ठित हो आशीर्वाद देने
१हिमवदगिरेः। २ प्रशस्ता। ३ गुणवज्जनान् । ४ अनन्धाः । कान्वा अ०, प०, इ०, स०, ल०। ५ इति गङ्गागतरित्यनेन सह कमनीयरतिप्रीतिमालापैरिति सम्बन्धः । ६ सुलोचनाम् । ७ सम्प्राप्तजनपदजनानीत। ८ अभिमुखमागत्य । ६ प्रशस्तधूलिकुट्टिमघनविस्ताराम् । १० कवाटपिधानरहितद्वारनयनामित्यर्थः । ११ गृहमध्ये सोत्सवाम । १२ कुटुम्बिनीभिः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org