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महापुराणम् उत्फुल्लमल्लिकामोदवाहिभिर्गन्ध'बाहिभिः। स सायंप्रातिभेंज धुति रतिसुखाहरैः ॥१२॥ उत्फुल्लपाटलोद्गन्धि मल्लिकामालभारिणीम् । उपगृह्य प्रियां प्रेम्णा नैदाघी सोऽनयन्निशाम् ॥१३०॥ सा घनस्तनितव्याजात् जितेव मनोभुवा । भुजोपपीडमाश्लिष्य शिश्य पत्या तपात्यये ॥१३॥ नवाम्बुकलुषाः परा ध्वनिरुन्मदके किनाम् । कदम्बामोदिनो वाताः कामिनां धुतयेऽभवन् ॥१३२॥ प्रारूढकालिकां पश्यन् बलाकामालभारिणीम् । घनाली पथिकः साश्रुः दिशो मेनेन्धकारिताः॥१३३॥ धारारज्जुभिरानद्धा वागुरेव प्रसारिता । रोधाय पथिकैणानां लुब्धकेनेव हृद्भवा ॥१३४॥ कृतावधिः प्रियो नागाद् अगाच्च जलदागमः । इत्यु दीक्ष्य घनात् काचिद् हृदि शून्याऽभवत् सती ॥१३५॥ विभिन्दन् केतकोसूचीः तत्पांसूनाकिरन्मरुत् । पान्थानां दृष्टिरोधाय धूलिक्षेपमिवाकरोत् ॥१३६॥ इत्यभर्णतमे तस्मिन् काले जलदमालिनि । स वासभवने रम्ये प्रियामरमयन्मुहुः ॥१३७॥ आकृष्टनिचुलामोदं तद्वक्त्रामोदमाहरन् । तस्याः स्तनतटोत्सङगे सोऽनषीद् वाषिकी निशाम् ॥१३॥ स रेमे शरदारम्भे विहरन् कान्तया समम् । वनेष्वभिनवोद्भिन्नसप्तच्छदसुगन्धिषु ॥१३॥
नहीं हो सकती ऐसी उस सुभद्राको महाराज भरत अपने शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न हुए सुखरूपी जलसे शान्त करते थे ॥१२८॥ खिली हुई मालतीकी सुगंधको धारण करनेवाले तथा रतिसमयमें सुख पहुंचानेवाले सायंकाल और प्रातःकालकी वायुके द्वारा चक्रवर्ती भरत बहुत ही अधिक संतोष प्राप्त करते थे ॥१२९॥ फूले हुए गुलाबकी सुगन्धयुक्त मालतीकी मालाओंको धारण करनेवाली उस सुभद्राको आलिंगन कर महाराज भरत बड़े प्रेमसे ग्रीष्मकालकी रात व्यतीत करते थे ॥१३०॥ वर्षाऋतुमें मेघोंकी गर्जनाके बहानेसे मानो कामदेवने जिसे घुड़की दिखाकर भयभीत किया है ऐसी वह सुभद्रा भुजाओंसे आलिंगनकर पतिके साथ शयन करती थी ॥१३१॥ उस वर्षाऋतुमें नये जलसे मलिन हुए नदियोंके प्रवाह, उन्मत्त मयूरों के शब्द और कदंबके फूलोंकी सुगन्धिसे युक्त वायु ये सब कामी लोगोंके संतोषके लिये थे ॥१३२।। जिसपर कालिमा छाई हुई है और जो बगुलाओंकी पंक्तिको धारण कर रही है ऐसी मेघमालाको देखते हुए पथिक आंसू डालते हुए दिशाओंको अन्धकारपूर्ण मानते थे ।।१३३॥ उस वर्षाऋतुमें जो जलकी धाराएं पड़ती थीं उनसे रस्सियोंके समान व्याप्त हुई यह पृथिवी ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवरूपी शिकारीने पथिकरूपी हिरणोंको रोकने के लिये जाल ही फैलाया हो ॥१३४॥ जो आनेकी अवधि करके गया था ऐसा पति अब तक नहीं आया और यह वर्षा ऋतु आ गई इस प्रकार बादलोंको देखकर कोई पतिव्रता स्त्री अपने हृदयमें शून्य हो रही थी अर्थात् चिन्तासे उसकी विचारशक्ति नष्ट हो गई थी।।१३५॥केतकीकी बौंडियोंको भेदन करता हुआ और उनकी धूल को चारों ओर बिखेरता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता था मानो पथिकोंकी दृष्टि रोकने के लिये धूलि ही उड़ा रहा हो ॥१३६। इस प्रकार उस वर्षाकालमें जब बादलों के समूह अत्यन्त निकट आ जाते थे तब चक्रवर्ती भरत अपने मनोहर महलमें प्रिया सुभद्राको बार बार प्रसन्न करता था-उसके साथ क्रीड़ा करता था ।।१३७।। जिसने पानी में उत्पन्न होनेवाले बेंतकी सुगन्धि खींच ली है ऐसे उस सभद्राके मुखकी सुगन्धको ग्रहण करता हुआ चक्रवर्ती उसके स्तनतट के समीप ही वर्षाऋतुकी रात्रि व्यतीत करता था ॥१३८॥ शरदऋतु
' १ पवनैः । २ सन्ध्याकालप्रभातकालभेदैः । ३ रतिसुखकरैरित्यर्थः । ४ बिभतीम् । ५ आलिंग्य ।
उपगुह्य ब०, ५०, द० । उपगृह्य अ०, ल०, स० । ६ निदाघसम्बन्धिनीम् । ७ भजाभ्यां पीडयित्वा । १८ वर्षाकाले । । सन्तोषाय । १० मगबन्धिनी। ११ पान्थमगारगाम् । १२ आलोक्य । १३ घनानन्तस्तेपे प्रोषितभर्तृ का द० । १४ अग्नान् । १५ हिज्जुल । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । १६ वर्षाकालसम्बन्धिनीम् ।
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