SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## The Fortieth Chapter **403** The fire in the battlefield, ignited by sparks from the clash of swords, blazed fiercely amidst the terrifying shower of arrows. (166) The horses, terrified by the whip's lash, were running ahead of the arrows. It is only right, for the valiant may die, but they cannot bear defeat. (167) Bound by anger, they stood facing each other on their hind legs. Many horses, as if protecting their masters, fought fiercely for a long time. (168) The sky, adorned with fluttering, blood-stained banners, resembled a tree adorned with fresh leaves. (169) Some horses, their backs bare, ran aimlessly, as if searching for their masters' heads, scattered far and wide by the blows of the swords. (170) No one killed the horses, considering them as hornless animals. But, enraged, they attacked each other with their teeth and hooves. (171) Many warriors, with only the bamboo handle remaining of their swords, fought fiercely with those iron rods, as if they were whole. (172) Though blinded by the blow to his head, one warrior, seeing the neck connected to the head by the veins, continued to fight. (173) Having repelled the horses, he fought valiantly with his Kapishirshak bow, doubling the intensity of the battle. (174) Then, Jayakumar, with his sword in hand, appeared like Yama himself, riding a lion-like horse, his anger blazing, accompanied by his younger brothers. (175) Seeing Jayakumar, terrifying like the fire of the final age, riding his horse, the enemy's horses, like waves, retreated into their ocean of soldiers. (176)
Page Text
________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४०३ प्रसिसंघट्टनिष्ठ्यूतविस्फुलिङगो रणेऽनलः । भीषण शरसङ्घाते व्यदीपिष्ट' धराचिते ॥ १६६॥ वाजिनः प्राक्कशाघाताद् श्रधावन्ताभिसायकम् । प्रियन्ते न सहन्ते हि परिभूर्ति सतेजसः ॥१६७॥ स्थिताः पश्चिमपादाभ्यां बद्धामर्षाः परस्परम् । पति केचिदिवावन्तो' 'युध्यन्ते स्म चिरं हयाः ॥ १६८ ॥ सनतास सम्पुक्तलसल्लोलासिपत्रकैः । नभस्तरुरभाद् भूयस्तदा पल्लवितो यथा ॥ १६६ ॥ पतितान्यसि निर्घातात् सुदूरं स्वामिनां क्वचित् । शून्यासनाः ' शिरांस्य च्चैः अन्वेष्टुं वा भ्रमन्हयाः ॥ १७० ॥ पशून् विशुजगान्मत्वाऽश्वान् कृपया कोऽपि नावधीत्' । ते "स्वदन्तखुरंरेव क्रुद्धाः प्राध्नन् " परस्परम् ॥ वंशमात्रावशिष्टा : " मण्डलाग्रेश्चिरं क्रुधा । लोहदण्डैरिवाखण्डैः धीरा युयुधिरे धुरि ॥ १७२ ॥ शिरः "प्रहरणे नान्योऽपश्यसान्ध्यं प्रकुर्वता । सर्वरोगसिराविद्धो" दृष्ट्वा" पश्चादयुद्ध” सः ॥ १७३॥ हयान् प्रतिष्कशीकृत्य " धनुस्तत्कपिशीर्षकम् । श्रयुध्यत पुनः सुष्ठु तदा द्विगुणयद्रणम् ॥ १७४॥ जयोऽयात् सानुजस्तावदाविष्कृत्य यमाकृतिः । कण्ठीरवमिवारुह्य यमस्युद्यतः २ क्रुधा ॥ १७५ ॥ वाहयन्तं तमालोक्य कल्पान्तज्वालिभीषणम्" । विवेश २५ विद्विश्वाली वेलेव स्वबलाम्बुधि ॥ से भयंकर हो रहा था ॥ १६५ ॥ उस युद्धमें पृथिवीपर जो भयंकर बाणोंका समूह पड़ा हुआ था उसमें तलवारोंकी परस्परकी चोटसे निकले हुए फुलिंगोंसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी ॥ १६६ ॥ घोड़े कोड़ोंकी चोटके पहले ही बाणों के सामने दौड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुष मर जाते हैं परन्तु पराभव सहन नहीं करते ।। १६७ ॥ परस्पर एक दूसरेपर क्रोधित हो पिछले पैरोंसे खड़े हुए कितने ही घोड़े चिरकालतक इस प्रकार युद्ध कर रहे थे मानो अपने स्वामीकी रक्षा ही कर रहे हों ।। १६८ ।। उस समय ऊपर उठाई हुई और रुधिरसे रंगी हुई तलवाररूपी चंचल पत्तों से आकाशरूपी वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसपर फिरसे नवीन पत्ते निकल आये हों ।। १६९ ।। कहीं पर खाली पीठ लिये हुए घोड़े इस प्रकार दौड़ रह थे मानो तलवारकी चोटसे बहुत दूर पड़े हुए अपने स्वामियोंके शिर ही खोज रहे हों ॥ १७० ॥ घोड़ों को बिना सींगके पशु मानकर दयासे कोई नहीं मारता था परन्तु वे क्रोधित होकर दांत और खुरोंसे एक दूसरको मारते थे ॥ १७१ ॥ उस युद्ध में कितने ही योद्धा क्रोधित होकर अखण्ड लोहे के डंडे के समान जिनमें बांसमात्र ही शेष रह गया है ऐसी तलवारोंसे चिरकाल तक युद्ध करते रहे थे ।।१७२।। अन्य कोई योद्धा, अन्धा करनेवाली शिरकी चोटसे यद्यपि कुछ देख नहीं सक रहा था तथापि गलेकी पीछेको नसोंसे शिरको जुड़ा हुआ देखकर वह फिर भी युद्ध कर रहा था ।।१७३।। उस समय कितने ही योद्धा अपने कपिशीर्षक नामक धनुषसे घोड़ोंको तर युद्धको द्विगुणित करते हुए अच्छी तरह लड़ रहे थे ॥ १७४॥ इतनेमें ही तलवार हाथ में लिये हुए जयकुमार अपने छोटे भाइयोंके साथ साथ यमराज सरीखा आकार प्रकट कर और सिंहके समान घोड़ेपर सवार होकर क्रोधसे आगे बढ़ा ॥ १७५ ॥ कल्पान्त कालकी अग्नि के समान भयंकर जयकुमारको घोड़े पर सवार हुआ देखकर शत्रुके घोड़ोंकी पंक्ति लहर के समान अपने सेनारूपी समुद्र में जा घुसी ॥ १७६ ॥ जिनपर पताकाएं नृत्य कर रही हैं और १ ज्वलति स्म । २ भूमावुपचिते । ३ आयुधस्याभिमुखम् । ४ बद्धक्रुधः । ५ रक्षन्तः । ६ युद्धन्ते ल० । ७ -तास्त्रस - ल० । ८ स्वामिरहितपृष्ठाः । न हन्ति स्म । १० ते च दत्त-ल० । ११ घ्नन्ति स्म । १२ वेणुमात्रावशिष्टस्वरूपैः । १३ कौक्षेयकैः । 'कौक्षेयको मण्डलाग्रः करवालः कृपाणवत्' इत्यभिधानात् । १४ मस्तकघातेन । १५ किञ्चिदपि नालोकयन् । १६ गलस्य पश्चिमसिरान्तितः । १७ गलपश्चिमभागं करस्पर्शेनालोक्य । १८ युयुधे । १६ सहायीकृत्य । 'प्रतिष्कशः सहाये स्याद् वार्ताहरपरागयोः' इत्यभिधानात् । २० चापविशेषः । धन्विन इत्यर्थः । २१ यमाकृतिम् ल० । २२ उद्यतासिः सन् । २३ अश्वमारोहयन्तम् । २४ प्रलयाग्निवदभयङ्करम् । २५ शत्रुवाजिसमूहः । २६ स्वसैन्यसागरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy