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महापुराणम् निजागमनवृत्तान्तकथनावसरे परा । विद्युद्धगाभिधा विद्याधरी तत्र समागता ॥२७॥ पापिनाऽशनिवेगेन हन्तुमेन' प्रयोजिता । समीक्य मदनाकान्ताऽभूच्चित्राश्चित्सवृत्तयः ॥२८॥ सूनुः स्तनितवेगस्य राज्ञो राजपुरेशितुः । खगेशोऽशनिवेगाख्यो 'ज्योतिर्वेगास्यमातकः ॥२६॥ त्वमत्र तेन सौहार्दाद् आनीतः स ममाग्रजः । विद्युद्वेगाह्वयाऽहं च प्रेषिता ते स मैथुनः ॥३०॥ रत्नावर्तगिरि याहि स्थितस्तत्रेति सादरम् । भवत्समीपं प्राप्तवमिति रक्तविचेष्टितम् ॥३१॥ दर्शयन्ती समीपस्थं यावत् सौधगृहान्तरम् । इत्युक्त्वाऽनभिलाषं च ज्ञात्वा तस्य महात्मनः ॥३२॥ तत्रैव विद्यया सौधरोहं निर्माप्य निस्त्रपा । स्थिता तद्राजकन्याभिः सह का कामिनां पा ॥३३॥ एत्यानडापताकाऽस्यास्त सखोत्थमवोचत । त्वरिपतुर्गुणपालस्य सन्निधाने जिनेशितुः ॥३४॥ "ज्योतिर्वेगागरुं प्रीत्या कबेरश्रीः समादिशत । निजजामातरं क्वापि श्रीपालस्वामिनं मम ॥३५॥ स्वयं स्तनितवेगोऽसौ सुतमन्षयेदिति । प्रतिपन्नः स तत्प्रोक्तं भवन्तं मैथुनस्तव ॥३६॥ पानीतवानिहेत्येतद् अवबुध्यात्मनो द्विषम् । पति मत्वोत्तरश्रेणेः पाशडाक्यानलवेगकम् ॥३७॥ स्वयं तदा समालोच्य निवार्य खचराधिपम् । उदीर्यान्वेषणोपायं त्वत्स्नेहाहितचेतसः ॥३८॥
आनीयतां प्रयत्नेन कुमार इति बान्धवाः। आवां प्रियसकाशं ते प्राहेषुस्त दिहागते ॥३६॥ सुनकर कुमारको उनपर दया आई और वह भी अपने आनेका वृतान्त कहनेके लिये उद्यत हुआ। वह जिस समय अपने आनेका समाचार कह रहा था उसी समय विद्युद्वेगा नामकी एक दूसरी विद्याधरी वहां आई। पापी अशनिवेगने कुमारको मारनेके लिये इसे भेजा था परन्तु वह कुमारको देखकर कामसे पीड़ित हो गई सो ठीक ही है क्योंकि चित्तकी वृत्ति विचित्र होती है ॥१७-२८॥ वह कहने लगी कि अशनिवेग नामका विद्याधर राजपुरके स्वामी राजा स्तनितवेगका पुत्र है, उसकी माताका नाम ज्योतिर्वेगा है ॥२९॥ वह अशनिवेग मित्रताके
रण आपको यहां लाया है. वह मेरा बड़ा भाई है, मेरा नाम विद्यद्वेगा है और उसीने मझे आपके पास भेजा है, अब वह आपका साला होता है ॥३०॥ उसने मुझसे कहा था कि तू रत्नावर्त पर्वतपर जा, वे वहां विराजमान हैं इसलिये ही मैं आदर सहित आपके पास आई हूं' ऐसा कहकर उसने रागपूर्ण चेष्टाएं दिखलाई और कहा कि यह समीप ही चूनेका बना हुआ पक्का मकान है परन्तु इतना कहनेपर भी जब उसने उन महात्माकी इच्छा नहीं देखी तब वहींपर विद्याके द्वारा मकान बना लिया और निर्लज्ज होकर उन्हीं राजकन्याओंके साथ बैठ गई सो ठीक ही है क्योंकि कामी पुरुषोंको लज्जा कहांसे हो सकती है ? ॥३१-३३।। इतने में विद्युद्वेगा की सखी अनंगपताका आकर कुमारसे इस प्रकार कहने लगी कि 'आपकी माता कुबेरश्री आपके पिता श्रीगुणपाल जिनेन्द्रके समीप गई हुई थी वहां उसने बड़े प्रेमसे ज्योतिर्वेगाके पितासे कहा कि मेरा पुत्र श्रीपाल कहीं गया है उसे ले आओ। ज्योतिर्वेगाके पिताने अपने जामाता स्तनितवेगसे कहा कि मेरे स्वामी श्रीपाल कहीं गये हैं उन्हें ले आओ। स्तनितवेगने स्वयं अपने पुत्र अशनिवेगको भेजा, पिताके कहनेसे ही अशनिवेग आपको यहां लाया है, वह आपका साला है। उत्तरश्रेणीका राजा अनलवेग इनका शत्रु है उसकी आशंका कर तुम्हारे स्नेहसे जिनका चित्त भर रहा है ऐसे सब भाईबन्धओंने स्वयं विचार कर आपके खोजनेका उपाय बतलाया और कहा कि कुमारको बड़े प्रयत्नसे यहां लाया जाय । वे सब विद्याधरोंके अधिपति अनलवेगको रोकनेके लिये गये हैं और हम दोनोंको आपके पास भेजा है। यहां आनेपर यह विद्युद्वेगा
१ श्रीपालम् । २ पुरेशिनः अ०, प०, स०, ल० । ३ ज्योतिर्वेगाख्या माता यस्यासौ। ४ विद्युद्वेगायाः । ५ श्रीपालम् । ६ जिनेशिनः ल०, प० । ७ अशनिवेगस्य मातुर्योतिर्वेगायाः पितरम् । कुबेरश्री: समादिशदिति सम्बन्धः । ८ स्तनितवेगजामातरम् । ज्योतिर्वेगापिता । १० अशनिवेगम् ।११ तत्कारणात ।
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