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Chapter Thirty-Four O Chakradhara, you must act swiftly in this matter. A wise person does not neglect even a small amount of debt, wound, fire, or enemy. ||46|| O King, let this earth be ruled by you alone, and not by your brothers, for it will be in a state of disarray with many kings. ||47|| O Lord, the word "king" is not fitting for anyone else while you are king. How can a deer claim the title of "lion" while a lion is present? ||48|| O Lord, let your brothers follow you, free from envy. It is the scriptural duty of younger brothers to follow their elder brother, who is the chief in this time. ||49|| Send your messengers to them, and speak to them with reason. If they do not obey your commands, then engage in conflict and speak to them differently. ||50|| If anyone, puffed up with false pride, does not submit to you, then alas, he will destroy himself and his kingdom. ||51|| Kingdom and noble wives are not ordinary things. They are meant to be enjoyed by one man. The man who enjoys them with others is no better than an animal. ||52|| What is the point of saying more? Either they should come and bow to you, or they should seek refuge in the Jina, the protector of the world. ||53|| There is no third path for them. These are the only two options: either they enter your camp, or they enter the forest with the deer. ||54|| Those who do not follow you will burn their own families like embers. Those who follow you will find true happiness. ||55|| They have decided that they will not bow to anyone. ||45||
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________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व तदत्र' प्रतिकर्त्तव्यम् श्राशु चक्रधर त्वया । ऋणव्रणाग्निशत्रूणां शेषं नोपेक्षते कृती ॥४६॥ राजन् राजन्वती भूयात् त्वयैवेयं वसुन्धरा । माभूद्राजवती तेषां भूम्ना द्वैराजदुः स्थिता ॥४७॥ त्वयि राजनि राजोक्तिर्देव नान्यत्र राजते । सिंहे स्थिते मृगेन्द्रोक्ति हरिणा बिभृयुः कथम् ॥४८॥ देव त्वामनुवर्तन्तां भ्रातरो धूतमत्सराः । ज्येष्ठस्य कालमुख्यस्य शास्त्रोक्तमनुवर्तनम् ॥४६॥ तच्छासनहरा " गत्वा सोपायमुपजप्य तान् । त्वदाज्ञानुवशान् कुर्युर्विगृह्य' ब्रूयुरन्यथा ॥ ५०॥ मिथ्यादोद्धतः कोऽपि नोपेयाद्यदि ते वशम् । स नाशयेद्वतात्मानम् श्रात्मगृह्यं च राजकम् ॥५१॥ राज्यं कुलकलत्रं च नेष्टं साधारणं' द्वयम् । भुक्ते सार्द्धं परैर्यस्तम्न्न' नरः पशुरेव सः ॥५२॥ किमत्र बहुनोक्तेन त्वामेत्य प्रणमन्तु ते । यान्तु वा शरणं देवं त्रातारं जगतां जिनम् ॥ ५३ ॥ न तृतीया गतिस्तेषामेवैषां " द्वितयी गतिः " । प्रविशन्तु त्वदास्थानं वनं वामी मृगैः समम् ॥५४॥ स्वकुलान्युल्सुकानीवर दहन्त्यननुवर्तनैः । अनुवर्तीनि तान्येव नेत्रस्यानन्दथुः परम् १३ ॥ ५५॥ किसीको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा वे निश्चय कर बैठे हैं ||४५ ॥ इसलिये हे चक्रधर, आपको इस विषय में शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिये क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रुके बाकी रहे हुए थोड़े भी अंशकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥ ४६ ॥ | हे राजन्, यह पृथिवी केवल आपके द्वारा ही राजन्वती अर्थात् उत्तम राजासे पालन की जानेवाली हो, आपके भाइयों के अधिक होने से अनेक राजाओंके सम्बन्धसे जिसकी स्थिति बिगड़ गई है ऐसी होकर राजवती अर्थात् अनेक साधारण राजाओंसे पालन की जानेवाली न हो । भावार्थ - जिस पृथिवीका शासक उत्तम हो वह राजन्वती कहलाती है और जिसका शासक अच्छा न हो, नाम मात्रका ही हो वह राजवती कहलाती है । पृथिवीपर अनेक राजाओंका राज्य होने से उसकी स्थिति छिन्न भिन्न हो जाती है इसलिये एक आप ही इस रत्नमयी वसुंधराके शासक हों, आपके अनेक भाइयों में यह विभक्त न होने पावे ॥४७॥ हे देव, आपके राजा रहते हुए राजा यह शब्द किसी दूसरी जगह सुशोभित नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि सिंहके रहते हुए हरिण मृगेन्द्र शब्दको किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥४८ ।। हे देव, आपके भाई ईर्ष्या छोड़कर आपके अनुकल रहें क्योंकि आप उन सबमें बड़े हैं और इस कालमें मुख्य हैं इसलिये उनका आपके अनुकूल रहना शास्त्रमें कहा हुआ है ||४९ || आपके दूत जावें और युक्तिके साथ बातचीत कर उन्हें आपके आज्ञाकारी बनावें, यदि वे इस प्रकार आज्ञाकारी न हों तो विग्रह कर ( बिगड़कर ) अन्य प्रकार भी बातचीत करें ||५० ॥ मिथ्या अभिमानसे उद्धत होकर यदि कोई आपके वश नहीं होगा तो खेद है कि वह अपने आपको तथा अपने आधीन रहनेवाले राजाओंके समूहका नाश करावेगा ॥ ५१ ॥ राज्य और कुलवती स्त्रियाँ ये दोनों ही पदार्थ साधारण नहीं हैं, इनका उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है। जो पुरुष इन दोनोंका अन्य पुरुषोंके साथ उपभोग करता है वह पशु ही है ||५२ ।। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है या तो वे आकर आपको प्रणाम करें या जगत्की रक्षा करनेवाले जिनेन्द्रदेवकी शरणको प्राप्त हों ॥। ५३|| आपके उन भाइयों की तीसरी गति नहीं है, इनके ये ही दो मार्ग हैं कि या तो वे आपके शिबिर में प्रवेश करें या मृगों के साथ वन में प्रवेश करें ।। ५४ ।। सजातीय लोग परस्परके विरुद्ध आचरणसे अंगारेके समान १ कारणात् । २ कुत्सितराजवती । 'सुराशि देश राजन्वान् स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान्' इत्यभिधानात् । ३ द्वयो राज्ञो राज्येन दुःस्थिताः । ४ त्वच्छाशन - द०, ल० । दूताः । ५ उक्त्वा । ६ विवाद कृत्वा । ७ आत्मना स्वीकरणीयम् । ८ सर्वेषामनुभवनीयम् । १०- मेषैषां ल० । ११ उपायः । १२ स्वगोत्राणि । भ्रातरः इत्यर्थः । अ०, इ०, स० । द्वयम् । १३ परः तव Jain Education International १५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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