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अष्टत्रिंशत्तम पर्व
ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानाद् इष्टा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिके कुले कन्याम् उचितां परिणेष्यतः॥१२७॥ सिद्धार्चनविधि सम्यक् निर्वयं द्विजसत्तमाः । कृतान्नित्रयसम्पूजाः कुर्युस्तत्साक्षिता क्रियाम् ॥१२८॥ पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या. कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ॥१२६॥ वेद्यां "प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमर्थककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रसज्य विनिवेशनम् ॥१३०॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरम् । पासप्ताहं चरेद् ब्रह्मवतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥१३१॥ क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमि तीर्थभूमीविहृत्य च । स्वगृहं प्रविशेद् भूत्या परया तद्वधूवरम् ॥१३२॥ विमुक्तकङकणं पश्चात् स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य यथाकालं भोगाडगैरुपलालितम् ॥१३३॥ सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥१३४॥
इति विवाहक्रिया। एवं कृतविवाहस्य गार्हस्थ्यमनु तिष्ठतः । स्वधर्मानतिवृत्त्यर्थं वर्णलाभमथो ब्रुवे ॥१३॥ 'ऊढभार्योऽप्ययं तावद् अस्वतन्त्रो गरोगहे। ततः स्वातन्त्र्यसिद्धयर्थ वर्णलाभोऽस्य वणितः॥१३६॥ गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः । पृथक्कृतालयस्यास्य वृत्तिर्वर्णाप्तिरिष्यते ॥१३७॥
तदापि पूर्ववत्सिद्धप्रतिमानर्चमग्रतः । कृत्वाऽस्योपासकान् मुख्यान् साक्षीकृत्यायेद् धनम् ॥१३॥ जब तक उसके आगेकी क्रिया नहीं होती तब तक वह काम परित्यागरूप ब्रह्मवतका पालन करता रहता है ।।१२६।। यह सोलहवीं व्रतावतरण क्रिया है।
तदनन्तर विवाहके योग्य कुलमें उत्पन्न हुई कन्याके साथ जो विवाह करना चाहता है ऐसे उस पुरुषकी गुरुकी आज्ञासे वैवाहिकी क्रिया की जाती है ।।१२७।। उत्तम द्विजोंको चाहिये कि वे सबसे पहले अच्छी तरह सिद्ध भगवान्की पूजा करें और फिर तीनों अग्नियोंकी पूजा कर उनकी साक्षीपूर्वक उस वैवाहिकी (विवाह सम्बन्धी) क्रियाको करें ।।१२८॥ किसी पवित्र स्थानमें बड़ी विभूतिके साथ सिद्ध भगवान्की प्रतिमाके सामने वधू-वरका विवाहोत्सव करना चाहिये ॥१२९॥ वेदीमें जो तीन, दो अथवा एक अग्नि उत्पन्न की थी उसकी प्रदक्षिणाएं देकर वधू-वरको समीप ही बैठना चाहिये ॥१३०॥ विवाहकी दीक्षामें नियुक्त हुए वधू और वरको देव और अग्निकी साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये ॥१३१॥ फिर अपने योग्य किसी देशमें भूमण कर अथवा तीर्थभूमिमें विहारकर वर और वधू बड़ी विभूतिके साथ अपने घरमें प्रवेश करें ॥१३२।। तदनन्तर जिनका कंकण छोड़ दिया है, ऐसे वर और वधू अपने घरमें समयानसार भोगोपभोगके साधनोंसे सशोभित शय्यापर शयन कर केवल संतान उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऋतुकालमें ही परस्पर काम-सेवन करें। काम-सेवनका यह क्रम काल तथा शक्ति की अपेक्षा रखता है इसलिये शक्तिहीन पुरुषोंके लिये इससे विपरीत क्रम समझना चाहिये अर्थात् उन्हें ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिये ॥१३३-१३४॥ यह सत्रहवीं विवाह-क्रिया है।
__ इस प्रकार जिसका विवाह किया जा चुका है और जो गार्हस्थ्यधर्मका पालन कर रहा है ऐसा पुरुष अपने धर्मका उल्लंघन न करे इसलिये उसके अर्थ वर्णलाभ क्रियाको कहते हैं ॥१३५॥ यद्यपि उसका विवाह हो चुका है तथापि वह जबतक पिताके घर रहता है तबतक अस्वतन्त्र ही है इसलिये उसको स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये यह वर्णलाभकी क्रिया कही गई है ॥१३६॥ पिताकी आज्ञासे जिसे धनधान्य आदि सम्पदाएं प्राप्त हो चुकी हैं और मकान भी जिसे अलग मिल चुका है ऐसे पुरुषकी स्वतन्त्र आजीविका करने लगनेको वर्णलाभ कहते हैं ॥१३७॥ इस क्रियाके समय
१ पितुरनुमतात् । २ विवाहोचिते। ३ साक्षि तां ल०। ४ पवित्रप्रदेशे। ५ संस्कृतम् । ६ सप्तदिवसपर्यन्तम् । ७ सन्तानार्थम् ऋतुकाले कामसेवाक्रमः । ८-मतो ल० । ६ विवाहित । १० आदौ। ११ कृत्वान्योप-ल० ।
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