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________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २४५ तास्तु कर्जन्वया ज्ञेया याः प्राप्याः पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥६६॥ सज्जातिः सद्गृहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । सामाज्यं परमार्हन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥६७॥ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगत्त्रये । अर्हद्वागमृतास्वादात् प्रतिलभ्याति देहिनाम् ॥६॥ क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो बहुभेदो महर्षिभिः । सडाक्षेपतस्तु तल्लक्ष्म वक्ष्ये सञ्चय' विस्तरम् ॥६ही प्राधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वकः । पत्नीमतुमतों स्नातां पुरस्कृत्याहदिज्यया ॥७॥ "तत्रार्चनाविधौ चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम । जिना मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः ॥७१॥ त्रयोऽग्नयोर्हदगणभृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ । ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धाविद्युपाश्रयाः ॥७२॥ 'तेष्वर्हदिज्याशेषांशः पाहुतिर्मन्त्रविका । विधेया शुचिभिव्यः पुस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यया ॥७३॥ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यन्तेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविभागतः ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनः । अव्यामोहादतस्तज्जः प्रयोज्यास्त उपासकैः ॥७॥ गर्भाधानक्रियामेनां प्रयुज्यादौ यथाविधि । सन्तानार्थ विना रागाद् दम्पतिभ्यां न्यवेयताम् ॥७६॥ इति गर्भाधानम् । इन कही हुई आठ क्रियाओंके साथ उपनीति नामकी चौदहवीं क्रियासे तिरपनवीं निर्वाण (अग्रनिवति) क्रिया तककी चालीस क्रियाएं मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएं का हैं ।।६४-६५॥ कन्वय क्रियाएं वे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं और जो समीचीन मार्गकी आराधना करनेके फल स्वरूप प्रवृत्त होती हैं ॥६६॥ १ सज्जाति, २ सद्गृहित्व, ३ पारिवाज्य, ४ सुरेन्द्रता, ५ सामाज्य, ६ परमार्हन्त्य और ७ परमनिवणि ये सात स्थान तीनों लोकोंमें उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अर्हन्त भगवान्के वचनरूपी अमृत के आस्वादनसे जीवोंको प्राप्त हो सकते हैं ॥६७-६८॥ महर्षियोंने इन क्रियाओंका समूह अनेक प्रकारका माना अनेक प्रकारसे क्रियाओंका वर्णन किया है परन्तु मैं यहां विस्तार छोड़कर संक्षेपसे ही उनके लक्षण कहता हूँ ॥६९॥ चतुर्थ स्नानके द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नी को आगे कर गर्भाधानके पहले अहेन्तदेवको पूजाक द्वारा मंत्रपूर्वक जो संस्कार किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं ॥७०। इस आधान क्रियाकी पूजामें जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाके दाहिनी ओर तीन चक्र, बांई ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करे।।७।। अर्हन्त भगवान् (तीर्थ कर) के निर्वाणके समय, गणधरदेवोंके निर्वाणके समय और सामान्य केवलियोंके निर्वाणके समय जिन अग्नियोंमें होम किया गया था ऐसी तीन प्रकारकी पवित्र अग्नियां सिद्ध प्रतिमाकी वेदीके समीप ही तैयार करनी चाहिये ॥७२॥प्रथम ही अर्हन्त देवकी पूजा कर चुकनेके बाद शेष बचे हुए पवित्र द्रव्यसे पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छा कर मंत्रपूर्वक उन तीन अग्नियोंमें आहुति करनी चाहिये ॥७३॥ उन आहुतियोंके मंत्र आगेके पर्वमें शास्त्रानुसार कहे जावेंगे। वे पीठिका मंत्र, जातिमंत्र आदिके भेदसे सात प्रकारके हैं ॥७४॥ श्रीजिनेन्द्रदेवने इन्हीं मंत्रोंका प्रयोग समस्त क्रियाओंमें बतलाया है इसलिये उस विषयके जानकार श्रावकोंको व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मंत्रोंका प्रयोग करना चाहिये ॥७५।। इस प्रकार कही हुई इस गर्भाधानकी क्रियाको पहले विधिपूर्वक करके फिर स्त्री-पुरुष दोनों को विषयानरागके बिना केवल सन्तानके लिये समागम करना चाहिये ॥७६॥ इस प्रकार यह गर्भाधान क्रियाकी विधि समाप्त हुई। १ प्रवर्तिताः । २ क्रियालक्षणम् । ३ वर्जयित्वा । ४ तत्र आदानक्रियायाम् । तत्रार्चन विधौ ल०। ५ जिनविम्वस्य समन्ततः । ६ संस्कार्याः । ७ सिद्धप्रतिमाश्रिततिर्यग्वेदिसमीपाश्रिताः । ८ अग्निष । वाञ्छया। १० सर्गे। ११ मन्त्राणाम्। १२ मन्त्राः । १३ विधीयताम् ल० । व्यवीयताम् द० । अभिगम्यताम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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