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364 Mahapuraanam, in that dynasty, the king, the most prominent of the lineage, had a thousand sons, who were like the rays of the sun, illuminating all directions with their brilliance. ||133|| He was surrounded by them, like Indra surrounded by the Saamanika Devas, with names like Hemaangada, Suketoshri, and Sukanta. ||134|| Just as the Ganga and Sindhu rivers flow from the Himalayas and the Padma lake, so too, from the king Akampan and queen Suprabha, were born two daughters, Sulochana and Lakshmimati, with excellent qualities. ||135|| Sulochana, like Lakshmi herself, was a delight to all, and her artistic qualities shone like the moon. ||136|| Sumitra, like the night of the bright fortnight, nurtured the beautiful qualities of Sulochana, like the lines of the moon. ||137|| Raga, the color, took refuge in the lotus feet of Sulochana, and became Ragi, the one who is filled with Raga. For who would not be filled with Raga when they find refuge in their rightful place? ||138|| It is amazing that the moonlight from her nail-like moons, constantly nurtured all the Kuvalayas, the lotus flowers, and the joy of the world. ||139|| Her toes, with their nail-like rays, were so beautiful, as if they were created by Kamadeva himself, to represent his ten arrows. ||140|| Jay, who was worshipped by all, was also born to them. What is the glory of the lotus flower compared to the glory of Sulochana, who was born from the lotus feet? ||141||
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________________ ३६४ महापुराणम् तस्यां तन्नाथवंशाग्रगण्यस्यवांशवो रवः। प्राच्यां दीप्त्याप्तदिक्चक्राः सहस्रमभवन् सुताः ॥१३३॥ हेमाङगदस केतुश्रीसुकान्ताद्याह्वयः स तैः। वेष्टितः संव्यदीपिष्ट शक्रः सामानिकरिव ॥१३४॥ हिमवत्पद्मयोर्गडल्गासिन्धू इव ततस्तयोः । सुते सुलोचनालक्ष्मीमती चास्तां सुलक्षणे ॥१३५॥ सुलोचनाऽसौ बालेव लक्ष्मीः सर्वमनोरमा । कलागुणरभासिष्ट चन्द्रिकेव प्रद्धिता ॥१३६॥ सुमत्याख्याऽमलाः शुक्लनिशेवावर्द्धयत् कलाः । धात्री शशाङकरेखायास्तस्याः सातिमनोहराः ॥१३७॥ अभूद् रागी स्वयं रागस्त क्रमाब्जं समाश्रितः। रागाय कस्य वा न स्यात् स्वोचितस्थानसंश्रयः॥१३८॥ नखेन्दुचन्द्रिका तस्याः शश्वत्कुवलयं किल । विश्वमालादय च्चित्रम् अनुत्या क्रमाब्जयोः ॥१३६॥ रेजुरडागलयस्तस्याः क्रमयो खरोचिषा । इयन्त इति मद्वेगाः स्मरेणेव निवेशिताः ॥१४०॥ नताशेषो जयः स्नेहाद' अमंसीत्ते ततस्तयोः।या श्रीः क्रमाब्जयोस्तस्याः सा किमस्ति सरोरुहे ॥१४१॥ होती हैं उसी प्रकार उत्तम पुत्र उत्पन्न करनेवाली स्त्रियाँ भी प्रिय होती हैं ॥१३२॥ जिस प्रकार पूर्व दिशासे अपनी कान्तिके द्वारा समस्त दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली सूर्य की किरणें उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार उस सुप्रभादेवीसे नाथवंशके अग्रगण्य राजा अकम्पनके अपनी दीप्ति अथवा तेजके द्वारा दिशाओंको वश करनेवाले हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥१३३॥ हेमाङ्गद, सुकेतुश्री और सुकान्त आदि उन पुत्रोंसे घिरा हुआ वह राजा ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि सामानिक देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है ।।१३४। जिस प्रकार हिमवान् पर्वत और पद्म नामकी सरसीसे गङ्गा और सिन्धु ये दो नदियां निकलती हैं उसी प्रकार राजा अकम्पन और रानी सुप्रभाके सुलोचना तथा लक्ष्मीमती ये उत्तम लक्षणोंवाली कन्याएं उत्पन्न हुई थीं ॥१३५॥ वह बालिका सुलोचना लक्ष्मीके समान सबके मनको आनन्दित करनेवाली थी और अपने कलारूपी गुणोंके द्वारा चांदनीके समान वृद्धिको प्राप्त होती हुई सुशोभित हो रही थी ॥१३६॥ जिस प्रकार शुक्ल पक्षकी रात्रि चन्द्रमाकी रेखाओंकी अत्यन्त मनोहर कलाओंको बढ़ाती है उसी प्रकार सुमित्रा नामकी धाय उस सुलोचनाकी अतिशय मनोहर कलाओंको बढ़ाती थी-उसके शरीरका लालन पालन करती थी ॥१३७॥ राग अर्थात लालिमा उस सुलोचनाके चरण-कमलोंका आश्रय पाकर स्वयं रागी अर्थात् राग करनेवाला अथवा लाल गुणसे युक्त हो गया थो सो ठीक ही है क्योंकि अपने योग्य स्थानका आश्रय किसके रागके लिये नहीं होता ? ॥१३८॥ आश्चर्य है कि उसके नखरूपी चन्द्रमाकी चांदनी दोनों चरणकमलोंके अनुकूल रहकर भी समस्त कुवलय अर्थात् कुमुदिनियोंको अथवा पृथ्वीमण्डल के आनन्दको निरन्तर विकसित करती रहती थी। भावार्थ-चांदनी कभी कमलोंके अनुकूल नहीं रहती, वह उन्हें निमीलित कर देती है परन्तु सुलोचनाके नखरूपी चन्द्रमाकी चांदनी रणकमलोंके अनकल रहकर भी कुवलय-नीलकमल (पक्षमें महीमण्डल) को विकसित करती थी यह आश्चर्यकी बात थी ॥१३९॥ उसके दोनों पैरोंकी अंगुलियां नखोंकी किरणोंसे ऐसी अच्छी जान पड़ती थीं मानो मेरे वेग इतने ही हैं यही समझकर कामदेवने ही रथापन की हों। भावार्थ-*अभिलाषा चिन्ता आदि कामके दश वेग हैं और दोनों पैरोंकी अंगुलियां भी दश हैं इसलिये वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो कामदेवने अपने वेगोंकी संख्या बतलाने के लिये ही उन्हें स्थापित किया हो ॥१४०॥ जिसे सब लोग नमस्कार करते हैं ऐसा जयकुमार भी जिन्हें १ तेजसा । २ अकम्पनसुप्रभयोः । ३ अरुणगुणः। ४ सुलोचनाचरण । ५ मोदति स्म । ६ अनुकूलवृत्त्या । ७ मम सदृशावस्थाः । ८ जयकुमारः। ६ नमस्करोति स्म। १० क्रमाब्जे । * "अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंप्रलापाश्च। उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मतिरिति दशात्र कामदशाः ॥"-साहित्यदपणे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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