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महापुराणम् परोषहजयादस्य विपुला निर्जराऽभवत् । कर्मणां निर्जरोपायः परीषहजयः परः ॥१२८॥ क्रोधं तितिक्षया' मानम् उत्सेक परिवर्जनैः । मायामजुतया लोभं सन्तोषेण जिगाय सः ॥१२६॥ पञ्चेन्द्रियाण्यनायासात् सोऽजयज्जितमन्मथः । विषयेन्धनदीप्तस्य कामाग्नेः शमनं तपः ॥१३०॥ आहारभयसंज्ञे च समैथुनपरिग्रहे। अनङगविजयादेताः संज्ञाः क्षपयतिस्म सः ॥१३॥ इत्यन्तरङगशत्रूणां स भजन प्रसरं मुहुः । जयति स्माऽऽत्मनाऽऽत्मानम् प्रात्मविद् विदिताखिलः ॥१३२॥ व्रतं च समितीः सर्वाः सम्यगिन्द्रियरोधनम्। अचेलतां च केशानां प्रतिलञ्चनसङग रम् ॥१३३॥ आवश्यकेष्वसम्बाधम् अस्नानं क्षितिशायिताम् । अदन्तधावनं स्थित्वा भुक्ति भक्तं च नासकृत् ॥१३४॥ प्राहर्मूलगुणानेतान् तथोत्तरगुणा: पर। तेषा माराधने यत्नं सोऽतनिष्टातनमनिः १३५ १°एतेष्वहापयन्' काञ्चिद् व्रतशुद्धि परां श्रितः। सोऽदीपि किरण स्वानिव दीप्तैस्तपोऽशभिः ॥१३६॥ गौरवैस्त्रिभिरुन्मुक्तः परां निःशल्यतां गतः । धमर्दशभिरारुढदाढ्योऽभून्मुक्तिवर्त्मनि ॥१३७॥
गुप्तित्रयमयी गुप्ति श्रितो ज्ञानासिभासुरः। संवमितः समितिभिः स भेजे विजिगीषुताम् ॥१३८॥ इस प्रकार परिषहोंके जीतनेसे उनके बहुत बड़ी कर्मोकी निर्जरा हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि परिषहोंको जीतना ही कर्मोंकी निर्जरा करनेका श्रेष्ठ उपाय है ।।१२८।। उन्होंने क्षमासे क्रोध को, अहंकारके त्यागसे मानको, सरलतास मायाको और संतोषसे लोभको जीता था ॥१२९॥ काम देवको जीतने वाले उन मुनिराजने पांच इन्द्रियोंको अनायास ही जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि विषयरूपी ईधन जलती हुई कामरूपी अग्निको शमन करनेवाला तपश्चरण ही है । भावार्थ-इन्द्रियोंको वश करना तप है और यह तभी हो सकता है जब कामरूपी अग्निको जीत लिया जावे ॥१३०॥ उन्होंने कामको जीत लेनेस आहार, भय, मैथुन
और परिग्रह इन संज्ञाओं को नष्ट किया था ॥१३१॥ इस प्रकार अन्तरङ्ग शत्रुओंके प्रसारको बार बार नष्ट करते हुए उन आत्मज्ञानी तथा समस्त पदार्थोको जानने वाले मुनिराजने अपने आत्माके द्वारा ही अपने आत्माको जीत लिया था ।।१३२॥ पांच महावत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियदमन, वस्त्र परित्याग, केशोंका लोंच करना, छह आवश्यकोंम कभी बाधा नहीं होना, स्नान नहीं करना, पृथिवीपर सोना, दांतोन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिनमें एक बार आहार लेना, इन्हें अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं इनके सिवाय चौरासी लाख उत्तर गुण भी हैं, वे महाम नि उन सबके पालन करने में प्रयत्न करते थे ॥१३३-१३५।। इनमें कुछ भी नहीं छोड़ते हुए अर्थात् सबका पूर्ण रीतिसे पालन करते हुए वे मुनिराज व्रतोंकी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुए थे तथा जिस प्रकार देदीप्यमान किरणोंसे सूर्य प्रकाशमान होता है उसी प्रकार वे भी तपकी देदीप्यमान किरणोंसे प्रकाशमान हो रहे थे ॥१३६॥ वे रसगौरव, शब्द गौरव, और ऋद्धिगौरव इन तीनोंसे रहित थे, अत्यन्त निःशल्य थे और दशधर्मोके द्वारा उन्हें मोक्ष मार्गमें अत्यन्त दृढ़ता प्राप्त हो गई थी॥१३७।। वे मुनिराज किसी विजिगीषु अर्थात् शत्रुओंको जीतने की इच्छा करनेवाले राजाके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार विजिगीष राजा किसी दुर्ग आदि सुरक्षित स्थानका आश्रय लेता है, तलवारसे देदीप्यमान होता है
और कवच पहने रहता है उसी प्रकार उन मनिराजने भी तीन गप्तियोंरूपी दुर्गोका आश्रय ले रक्खा था, वे भी ज्ञानरूपी तलवारसे देदीप्यमान हो रहे थे और पांच समितियांरूप कवच पहिन रक्खा था। भावार्थ-यथार्थमें वे कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते थे
१क्षमया । २ गर्व । ३ त०, व०, अ०, स०, इ०, ५०, द० पुस्तकसम्मतोऽयं क्रमः । ल. पुस्तके १२६-१३० श्लोकयोर्व्यतिक्रमोऽस्ति। ४ समहम् । ५ ज्ञातसकलपदार्थः । ६ प्रतिज्ञाम् । ७ एकभुक्तमित्यर्थः । ८ मूलोत्तरगुरणानाम्। महान् । १० प्रोक्तगगणेष । ११ हानिमकुर्वन् । १२ उत्तमक्षमादिभिः । १३ रक्षाम् । १४ कवचितः ।
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