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________________ २२५ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व इत्यनङगमयों सृष्टि तन्वानाः स्वागसडिगनीम् । मनोऽस्य जगहः कान्ताः कान्तः स्वैःकामचेष्टितैः तासां मकरस्पर्शः प्रेमस्निग्धश्च वीक्षितः । महती धु तिरस्यासीज्जल्पितरपि मन्मनैः ॥ ५० ॥ स्मितेष्वासां दरोभिन्नो हसितेषु विकस्वरः । फलितः परिरम्भेषु रसिकोऽभूद्रतद्रुमः ॥ ५१ ॥ (भ्रूक्षेपयन्त्रपाषाणैः दृक्क्षेपक्षेपणीकृतः। 'बहुदुर्गरणस्तासां स्मरोऽभूत् सकचग्रहः ॥ ५२ ॥ खरः प्रणयगर्भेषु कोरेष्वनुनये मदुः। स्तब्धो व्यलोकमानेषु मुन्धः प्रणयकतवे ॥ ५३॥ निर्दयः परिरम्भेष सान ज्ञानो मुखार्पण। प्रतिपत्तिषु सम्मूढः पटुः करणचेष्टिते ॥ ५४ ॥ संकल्पेष्वाहितोत्कर्षो मन्दः "प्रत्यग्रसङगम। प्रारम्भ रसिको दीप्तः प्रान्त करुणकातरः ॥ ५५ ॥ इत्युच्चावचतां भेजे तासां दीप्तः स मन्मथः। प्रायो भिन्नरसः कामः कामिनां हृदयङगमः ॥ ५६ ॥ प्रकाममधुरानित्यं कामान् कामातिरेकिणः। स ताभिनिविशन् रेमे ११वपुष्मानिव मन्मथः ॥ ५७ ॥ ताश्च तच्चित्तहारिण्यः तरुण्यः प्रणयोद्धराः। बभूवुःप्राप्तसाम्राज्या इव "रत्युत्सवश्रियः ॥ ५८ ॥ इकटठे हए आगक सन्दर बाल कामदेवरूपी काले सर्पके बच्चोंके समान जान पड़ते थे तथा कुछ कुछ टेढ़ी हुई केशरूपी लताएँ कामदेवके जालके समान जान पड़ती थीं ॥४८॥ इस प्रकार अपने शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली काममयी रचनाको प्रकट करती हुई वे रानियाँ अपनी सुन्दर कामकी चेष्टाओं से महाराज भरतका मन हरण करती थीं ॥४९।। उनके कोमल हाथोंक स्पर्शसे, प्रेमपूर्ण सरस अवलोकनसे, और अव्यक्त मधुर शब्दोंसे इसे बहुत ही संतोष होता था ॥५०॥ रससे भरा हुआ सुरतरूपी वृक्ष इन रानियोंके मन्द मन्द हँसनेपर कुछ खिल जाता था, जोरसे हँसनेपर पूर्णरूपसे खिल जाता था और आलिंगन करनपर फलोंसे युक्त हो जाता था ॥५१॥ भौंहोंके चलाने रूप यन्त्रोंसे फेंके हुए पत्थरोंके द्वारा तथा दृष्टियोंके फेंकनेरू पी यन्त्र विशेषों (गुथनों) के द्वारा उन स्त्रियोंका बहुत प्रकारका किलेबन्दीका युद्ध होता था और कामदेव उसमें सबकी चोटी पकड़नेवाला था। भावार्थ-कामदेव उन स्त्रियोंसे अनेक प्रकारकी चेष्टा कराता था ॥५२।। कामदेव इनके प्रेमपूर्ण क्रोधके समय कठोर हो जाता था, अनुनय करने अर्थात् पतिके द्वारा मनाये जानेपर कोमल हो जाता था, झूठा अभिमान करनेपर उद्दण्ड हो जाता था, प्रेमपूर्ण कपट करते समय भोला या अनजान हो जाता था, आलिंगनके समय निर्दय हो जाता था, चुम्बनके लिये मुख प्रदान करते समय आज्ञा देनेवाला हो जाता है, स्वीकार करते समय विचार मढ़ हो जाता है, हाव-भाव आदि चेष्टाओंके समय अत्यन्त चतुर हो जाता है, संकल्प करते समय उत्कर्षको धारण करने वाला हो जाता है, नवीन समागमके समय लज्जासे कुछ मन्द हो जाता है, संभोग प्रारम्भ करते समय अत्यन्त रसिक हो जाता था और संभोगके अन्त में करुणासे कातर हो जाता था। इस प्रकार उन रानियोंका अत्यन्त प्रज्वलित हुआ कामदेव ऊंची-नीची अवस्थाको प्राप्त होता था अर्थात घटता-बढ़ता रहता था सो ठीक ही है जो काम प्रायः भिन्न भिन्न रसोंसे भरा रहता है वही कामी पुरुषोंको सुन्दर मालूम होता है ॥५३-५६।। इस प्रकार वह चक्रवर्ती उन रानियोंके साथ अत्यन्त मधुर तथा इच्छाओंसे भी अधिक भोगोंको भोगता हुआ शरीरधारी कामदेवके समान क्रीड़ा करता था ॥५७।। भरतके चित्तको हरण करनेवाली और प्रेमसे भरी हुई वे तरुण स्त्रियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो सामाज्यको प्राप्त हुई रत्युत्सवरूपी लक्ष्मी ही हों ॥५८।। १ भरतस्य । २ अव्यक्तैः । ३ ईषद्विकसित । ४ फलिनः ल । ५ आलिङगनेषु । ६ दुर्गयुद्धसदृशः । ७ नव । ८ करुणरसातुरः । नानालंकारताम् । १० मनोरथवृद्धि करान् । ११ मूर्तिमान् । १२ रत्युत्सबे थियः ल० । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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