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## Forty-fourth Chapter 397 Those archers, with quivers strapped to both sides, were leaping and bounding, having conquered fatigue, and were adorned like birds in the sky. || 116 || The arrows were like good ministers, for just as good ministers are straightforward, so too were the arrows straight. Just as good ministers are farsighted, so too were the arrows farsighted, reaching their targets from afar. Just as good ministers are quick to accomplish tasks, so too were the arrows quick, swiftly killing the enemy. And just as good ministers follow the path of scripture, so too did the arrows follow the path of archery scripture. || 120 || Those arrows, drinkers of flesh and blood, feathered, far-reaching, and sharp-mouthed, flew like birds, falling upon their targets. || 121 || Just as purity, attained through righteous Dharma, residing in the heart, leads men to liberation, so too did the arrows, propelled by righteous Dharma (the bow), piercing the hearts of valiant men, lead them to the afterlife. || 122 || Just as a courtesan, possessing the *raktasambandhi* (blood-connection) and captivating men, blinds them with her mere touch, so too did the arrows, possessing the *raktasambandhi* (blood-connection) and piercing the heart, swiftly blind men with their touch, killing them. || 123 || Just as a heavy downpour and a gathering of darkness overwhelm the sky, so too did the arrows, like a swarm of vultures, overwhelm the enemy, who was subdued like a captive. || 124 ||
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________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ३९७ उभयोः पार्श्वयोर्बध्वा बाणधी कृतवल्गनाः । धन्विनः खेचराकारा रेजुराजी' जितश्रमाः ॥ ११६ ॥ ऋजुत्वाद् दूरदशित्वात् सद्यः कार्यप्रसाधनात् । शास्त्रमार्गानुसारित्वात् " शराः सुसचिवः समाः । १२० । कव्यास्त्रपायिनः ' पत्रवाहिनों दूरपातिनः । लक्ष्येषूड्डीय तीक्ष्णास्याः खगाः पेतुः खगोपभाः " ॥ १२१ ॥ धर्मेण तेन रिता हृदयं गता । शूरान् "शुद्धिरिवानंषीद्" गति पत्रिपरम्परा" ।। १२२ ॥ पुंसां संस्पर्शमात्रेण हृद्गता रक्तवाहिनी" । क्षिप्रं न्यमीलयत्रे वेश्येव विशिखावली " ॥ १२३॥ त्यक्त्वेशं खेचरालातिवृष्टी" गृद्धतमस्ततौ । परोऽन्विष्य शरावल्या जारयेव वशीकृतः ॥ १२४ ॥ करते हुए पीछेसे भीतर घूस जाते थे ।। ११८ ।। जो दोनों बगलोंमें तरकस बांधकर उछल कूद कर रहे हैं तथा जिन्होंने परिश्रमको जीत लिया है ऐसे धनुषधारी लोग उस युद्ध में पक्षियों के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ११९ ।। और वाण अच्छे मंत्रियोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे मंत्री ऋजु अर्थात् सरल ( मायाचार रहित ) होते हैं उसी प्रकार बाण भी सरल अर्थात् सीधे थे, जिस प्रकार अच्छे मंत्री दूरदर्शी होते हैं अर्थात् दूरतककी बातको सोचते हैं उसी प्रकार बाण भी दूरदर्शी थे अर्थात् दूरतक जाकर लक्ष्यभेदन करते थे, जिस प्रकार अच्छे मंत्री शीघ्र ही कार्य सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार बाण भी शीघ्र करनेवाले थे अर्थात् जल्दी से शत्रुको मारनेवाले थे और जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शास्त्रमार्ग अर्थात् नीतिशास्त्र के अनुसार चलते हैं उसी प्रकार बाण भी शास्त्रमार्ग अर्थात् धनुषशास्त्र के अनुसार चलते थे । ॥ १२० ॥ मांस और खूनको पीनेवाले, पंख धारण करनेवाले, दूरतक जाकर पड़नेवाले और पैने मुखवाले वे बाण पक्षियोंके समान उड़कर अपने निशानोंपर जाकर पड़ते थे । भावार्थवे बाण पक्षियोंके समान मालूम होते थे, क्योंकि जिस प्रकार पक्षी मांस और खून पीते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंका मांस और खून पीते थे, जिस प्रकार पक्षियोंके पंख लगे होते हैं उसी प्रकार बाणोंके भी पंख लगे थे, जिस प्रकार पक्षी दूर जाकर पड़ते हैं उसी प्रकार बाण भी दूर जाकर पड़ते थे और जिस प्रकार पक्षियोंका मुख तीक्ष्ण होता है उसी प्रकार बाणोंका मुख (अग्रभाग ) भी तीक्ष्ण था । इस प्रकार पक्षियोंकी समानता धारण करनेवाले बाण उड़ उड़कर अपने निशानों पर पड़ रहे थे ।। १२१ ॥ जिस प्रकार गुणयुक्त धर्मके द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें प्राप्त हुई विशुद्धि पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करा देती है उसी प्रकार गुणयुक्त ( डोरी सहित ) धर्म (धनुष) के द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें चुभी हुई बाणोंकी पंक्ति शूरवीर पुरुषोंको परलोक पहुंचा रही थी || १२२ || जिस प्रकार हृदयमें प्राप्त हुई और #रक्तवाहिनी अर्थात् अनुराग धारण करनेवाली अथवा रागी पुरुषोंको वश करनेवाली वेश्या स्पर्शमात्र से ही पुरुषों के नेत्र बन्द कर देती है उसी प्रकार हृदयमें लगी हुई और खतवाहिनी अर्थात् रुधिर को बहाने वाली बाणोंकी पंक्ति स्पर्शमात्रसे शीघ्र ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती थी उन्हें मार डालती थी ।। १२३ ।। जिस प्रकार बहुत वर्षा होने और अन्धकारका समूह छा जानेपर ६ निजशरीरपार्श्वयोः । २ इषुधी द्वौ । ३ पक्षे सदृशाः । ४ युद्धे । प्रयोक्तृमार्गशरणत्वात् । ६ बारणाः । ७ मन्त्रिभिः । ८ क्रव्यासृक्पायिनः ट० । पत्रैर्वहन्ति गच्छन्तीति पत्रवाहिनः । १० वारणाः । १२ धनुषा । १३ ज्यासहितेन । अतिशययुक्तेन च । स्म । १६ शरसन्ततिः । १७ रक्तं प्रापयन्ती । आत्मन्यनुरक्तं नगरात् समायातटिप्पणपुस्तकात् टिप्परणसमुद्धारः २० दाक्षाय्यतमसमूहे । 'आतापिचिल्लौ दाक्षाय्यगृद्धी' इत्यभिधानात् । Jain Education International ५ चापशास्त्रोक्त क्रमेण । आममांसरक्तभोजिनः । 'शरार्कविहगाः खगाः । ११ पक्षिसदृशाः । १४ विशुद्धिपरिणाम इव । १५ आनयति प्रापयन्ती च । १८ इतोऽग्रे पुनः 'आरा' क्रियते । १६ उपरिस्थितखेचररुधिरवर्षे । * भावे वतः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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