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82 Mahapuraanam The enemies, abandoned by their armies and stripped of their possessions, truly became enemies (without allies). ||6|| The kings, constantly enjoying the fruits of victory, were strangely reduced to poverty, even in the face of their enemy's anger. ||10|| His concern for peace and war was only in the science of language, not in relation to his enemies. Where is there peace for him who has destroyed all his enemies? Where is there war? ||11|| Thus, even though there was no enemy worthy of being conquered, he, who was eager for conquest, merely went around his own territory under the guise of conquest. ||12|| His soldiers, on the other side of the ocean, where the shade of the palm trees and groves of coconut trees spread, ||13|| The juice of the young coconuts flowed down, and the soldiers of Bharat rested in the shade of the trees by the lakes. ||14||
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________________ ૮૨ महापुराणम् दूरमुत्सारिताः सैन्यैः परित्यक्तपरिच्छदाः । विपक्षाः सत्यमेवास्य विपक्षत्वमुपाययुः ॥६॥ आक्रान्त भूभृतो नित्यं भुञ्जानाः फलसम्पदम् । कुपतित्वं ययुश्चित्रं कोपेऽप्यस्य विरोधिनः ॥ १०॥ सन्धिविग्रहचिन्तास्य' पदविद्यास्व'भूत् परम् । धूतया तव्यपक्षस्य क्वं सन्धानं क्व विग्रहः ॥११॥ इत्यजेतव्यपक्षोऽपि यदयं दिग्जयोद्यतः । तन्नूनं 'भुक्तिमात्मीयां तद्व्याजेन परीयिवान् ॥१२॥ कान्ताः सैनिकैरस्य विभोः पारेऽर्णव ११ भुवः । पूगद्रुमकृतच्छाया नालिकेरवनंस्तताः ॥ १३ ॥ निपपेर नालिकेराणां तरुणानां स्रुतो रसः । सरस्तीरतरुच्छाया विश्रान्तैरस्य सैनिकैः ॥ १४ ॥ पैने थे, जिस प्रकार योद्धा सपक्ष अर्थात् सहायकों से सहित थे उसी प्रकार बाण भी सपक्ष अर्थात् पंखों से सहित थे, और जिस प्रकार योद्धा दूर तक गमन करनेवाले थे उसी प्रकार बाण भी दुर तक गमन करनेवाले थे, इस प्रकार वे दोनों साथ साथ ही विजयके अंग हो रहे थे ||८|| भरत के विपक्ष ( विरुद्धः पक्षो येषां ते विपक्षाः ) अर्थात् शत्रुओंको उनकी सेनाने दूर भगा दिया था और उनके छत्र चमर आदि सब सामग्री भी छीन ली थी इसलिये वे सचमुच ही विपक्षपनेको ( विगतः पक्षो येषां ते विपक्षास्तेषां भावस्तत्त्वम् ) प्राप्त हो गये थे अर्थात् सहायरहित हो गये थे || ९ || यह एक आश्चर्यकी बात थी कि भरतके विरोधी राजा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर तथा उनके क्रोधित होनेपर भी अनेक प्रकारको फल-संपदाओंका उपभोग करते हुए कुपतित्व अर्थात् पृथिवीके स्वामीपनेको प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ - इस श्लोक में श्लेषमूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिये पहले तो विरोध मालूम होता है वादमें उसका परिहार हो जाता है | श्लोकका जो अर्थ ऊपर लिखा गया है उससे विरोध स्पष्ट ही झलक रहा है। क्योंकि भरतके क्रोधित होनेपर और उनकी सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर कोई भी शत्रु सुखी नहीं रह सकता था परन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थ बदल देनेसे उस विरोधका परिहार हो जाता है-भरत के विरोधी राज लोग, उनके कुपित होने तथा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर अपनी राजधानी छोड़कर जंगलों में भाग जाते थे, वहाँ फल खाकर ही अपना निर्वाह करते थे और इस प्रकार कु-पतित्व अर्थात् कुत्सित राजवृत्ति ( दरिद्रता ) को प्राप्त हो रहे थे ।।१०।। उस भरतको सन्धि (स्वर अथवा व्यंजनोंको मिलाना) और विग्रह (व्युत्पत्ति ) की चिन्ता केवल व्याकरण शास्त्रमें ही हुई थी अन्य शत्रुओंके विषयमें नहीं हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिसने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया है उसे कहां सन्धि ( अपना पक्ष निर्बल होनेपर बलवान् शत्रुके साथ मेल करना) करनी पड़ती है ? और कहां विग्रह (युद्ध) करना पड़ता है ? अर्थात् कहीं नहीं ||११|| इस प्रकार भरतके यद्यपि जीतने योग्य कोई शत्रु नहीं था तथापि वे जो दिग्विजय करनेके लिये उद्यत हुए थे सो केवल दिग्विजयके छलसे अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्र में चक्कर लगा आये थे- घूम आये थे || १२ || महाराज भरतके सैनिकोंने, जहां सुपारीके वृक्षोंके द्वारा छाया की गई है और जो नारियलके वनोंसे व्याप्त हो रही है ऐसे समुद्र के किनारेकी भूमि पर आक्रमण किया था ||१३|| सरोवरोंके किनारे के वृक्षोंकी छायामें विश्राम करनेवाले भरतके सैनिकोंने नारियलके तरुण अर्थात् बड़े बड़े वृक्षों फलसम्पदम्, १ सहायपुरुषरहितत्वम् । २ आक्रान्ता भूभृतो ल० । भूभृतः राजानः पर्वताश्च । ३ अभीष्टवनस्पतिफलसम्पदं च । ४ भूपतित्वं कुत्सितपतित्वं च । ५ संधानयुद्धचिन्ता च । ६ शब्दशास्त्रेषु । ७ निरस्तत्रुपक्षस्य | पालनक्षेत्रम् । ६ दिग्विजयछद्मना । १० प्रदक्षिणीकृतवान् । ११ समुद्रतीरम् । 'पारे मध्येऽन्यः षष्ठ्या' । १२ पानं क्रियते स्म । १३ निसृतः । Jain Education International ご For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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