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400 Mahapuraanam With radiant fruits, well-proven, well-conceived. A victory over the world, overcoming opposition. ||13|| Like a debater, with victory, quickly seeking fame. The opponent is countered, the weapon is the desire to conquer with scripture. ||140|| The birds, against the birds, were launched, piercing the sky, they went. They did not return, until they were considered to have fallen in fear. ||141|| With extremely sharp vision, fearsome to behold, blazing on all sides. The arrows, released by the birds, fell like a shower of rain. ||142|| Covered by the shower of arrows, darkened by the wings of the vultures. The warriors, unseen, were struck by the falling mudgars, the sky was pierced by the sky. ||143|| The fierce, the death of the branch, the branch, the fall, the death. In this age, what will be auspicious, by those who have diminished the radiance of the sun? ||144|| Not to go far, but to fall with force, the celestial beings. The birds, pulling the arrows to their ears, released them, killing the bipeds. ||145|| With their faces down, released by the birds, from drinking blood, from eating flesh. The sinful ones, with their boldness, would go to hell, or below the earth. ||146||
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________________ ४०० महापुराणम् प्रस्फुरदभिः फलोपेतः सप्रमाणैः सकल्पितः। विरोधोभाविना विश्वगोचरविजयावहः ॥१३॥ वादिनेव जयेनोच्चैः कीति क्षिप्रं जिघृक्षणा । प्रतिपक्षः प्रतिक्षिप्तः शस्त्रः शास्त्रजिगीषणा ॥१४०॥ खगाः खगान्प्रति प्रास्ताः' प्रोभिद्य गगनं गताः । निवर्तन्ते न यावत्ते ते भियवापतन्मताः ॥१४१॥ सुतीक्ष्णा वीक्षणाभीलाः प्रज्वलन्तः समन्ततः । मुद्धस्वशनिवत्पेतुः खाद् विमुक्ताः खगैः शराः ॥१४२॥ शरसघातसञ्छन्नान् गधपक्षान्धकारितान् । अदृष्टमुद्गरापातं' नभोगा नभसो व्यधुः ॥१४३॥ चण्डेर काण्डमृत्युश्च "काण्डैरापाद्यतादिमे । युगेऽस्मिन् कि किमस्तांशुभासिभि शुभ भवेत् ॥१४४॥ दूरपाताय नो३ किन्तु वृढपाताय खेचरः। खगाः कर्णान्तमाकृष्य मुक्ता "हन्यु द्विपादिकान् ॥१४॥ अधोमुखाः खगैर्मुक्ता रक्तपानात् पलाशनात् । पुषत्काः साहसो वेयुर्नरकं वाऽवनेरधः१८ ॥१४६॥ पड़ता था मानो वे बाण कपट युद्ध कर रहे हों क्योंकि जिस प्रकार व.पट यद्ध करनेवाले पत्रवंत अर्थात् सवारी सहित और प्रतापसे उग्र होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पत्रवंत अर्थात् पंखों सहित और अधिक संतापसे उग्र थे, जिस प्रकार कपट युद्ध करनेवाले युद्ध में शीघ्र जाते हैं और सबसे आगे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी युद्धमें शीघ्र जा रहे थे और सबसे आगे थे तथा कपट युद्ध करनेवाले जिस प्रकार बिना जाने सहसा आ पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी बिना जाने सहसा आ पड़ते थे ॥१३८॥ जिस प्रकार विजयके द्वारा उत्तम कीर्तिको शीघ्र प्राप्त करनेवाला और जीतनेकी इच्छा रखनेवाला वादी प्रकाशमान, अज्ञाननाशादि फलोंसे युक्त, उत्तम प्रमाणोस सहित, अच्छी तरह रचना किये हुए, संसारम प्रसिद्ध और विजय प्राप्त कराने वाले शास्त्रोंसे विरोधी प्रतिवादीको हराता है उसी प्रकार विजयके द्वारा शीघ्र ही उत्तम कीर्ति सम्पादन करने वाले, जीतनेकी इच्छा रखनेवाले तथा विरोधी प्रकट करनेवाले जयकुमारने देदीप्यमान, नुकीले, प्रमाणसे बने हुए, अच्छी तरह चलाये हुए, संसारमें प्रसिद्ध और विजय प्राप्त कराने वाले शस्त्रोंसे शत्रुओंकी सेना पीछे हटा दी थी ।।१३९-१४०॥ जयकुमार ने विद्याधरों के प्रति जो बाण चलाये थे वे आकाशको भेदनकर आगे चले गये थे और वहांसे वे जबतक लौटे भी नहीं थे तबतक वे विद्याधर मानो भयसे ही डरकर गिर पड़े थे ॥१४१॥ जो अत्यन्त तीक्ष्ण हैं, देखने में भयंकर हैं, और चारों ओरसे जल रहे हैं ऐसे विद्याधरोंके द्वारा आकाशसे छोड़े हुए वाण योद्धाओंके मस्तकोंपर वनके समान पड़ रहे थे ।।१४२॥ जो बाणों के समूहसे ढक गये हैं, गोधके पंखोंसे अन्धकारमय हो रहे हैं और जिन्हें मुद्गरोंके आघात तक दिखाई नहीं पड़ते हैं ऐसे योद्धाओंको विद्याधर लोग आकाशसे घायल कर रहे थे ॥१४३।। इस युगमें उन तीक्ष्ण बाणोंने सबसे पहले अकालमृत्यु उत्पन्न की थी सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने सूर्यका प्रताप भी कम दिया है ऐसे लोगोंसे क्या क्या अशुभ काम नहीं होते हैं ? ॥१४४॥ दूर जानेके लिये नहीं किन्तु मजबूतीके साथ पड़नेके लिये विद्याधरोंने जो वाण कानतक खींचकर छोड़े थे उन्होंने बहुतसे हाथी आदिको मार डाला था ॥१४५॥ जिस प्रकार रक्त पीने और मांस खानेसे पापी जीव नीचा मुखकर नरकमें जाते हैं उसी प्रकार विद्याधरों १ निराकृतः । २ बाणाः। ३ विद्याधरान् । ४ मुक्ताः । ५ विद्याधराः । ६ दर्शने भयावहाः । ७ मुद्गराघातान् ल०, म०। ८ गगनमाश्रित्य । ६ अकाल। १० वाणः । ११ उत्पादित। १२ अस्त्राशुगाशिभिः इति पाठे अस्त्राण्येवाशुगाशिनः पवनाशनाः तैः सरित्यर्थः । 'आशुगो वायुविशिखौं' इत्यभिधानात् । १३ न। १४ घ्नन्ति स्म । १५ मांसाशनात् । १६ सपापाः । १७ वा इव । ईयुः गच्छन्ति स्म। १८ भूमेरधः स्थितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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