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________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व २२६ निःसत्य नाभिवल्मीकात् कामकृष्णभुजङगमः। रोमावलीछलेनास्या ययौ कुचकरण्डकौ ॥५॥) निर्मोकमिव कामाहेः दधानोद्धं स्तनांशुकम् । भुजगीमिव तद्धृत्यै सै कामेकावलीमधात् ॥६६॥ बभ्रे हारलतां कण्ठलग्नां सा नाभिलम्बिनीम् । मन्त्ररक्षामिवानङगग्रथितां कामदीपिनीम् ॥१७॥ हाराकान्तस्तनाभोगा सा स्म धत्ते परां श्रियम् । सीतेव यमकाद्रिस्पृक्प्रवाहा सरिदुत्तमा ॥६॥ बाहू तस्या जितानङगपाशौ लक्ष्मीमुदूहतुः । कामकल्पद्रुमस्येव प्ररोहौ दीप्तभूषणौ ॥६६॥ रेजे करतल तस्याः सूक्ष्मरेखाभिराततम् । जयरेखा इवाबिभदन्यस्त्रीनिर्जयाजिताः ॥१०॥ मुखमुद्भ, तनूदर्याः तरलापाडगमाबभौ । सशरं समहेष्वासं 'जयागारमिवातनोः ॥१०॥ वक्रमस्याः शशाङाकस्य कान्ति जित्वा स्वशोभया । दधे नु० भ पताकाऊकं कर्णाभ्यां जयपत्रकम् ॥१०२॥ हेमपत्राङकितौ तन्व्याः१२ कगौ लीलामवापतुः । स्वर्वनिर्जयायेव कृतपत्रावलम्बनौ ॥१०३॥ कपोलावुज्ज्वलौ तस्या दधतुर्दपर्णश्रियम् । द्रष्टकामस्य कामस्य स्वा दशा दशधा स्थिताः ॥१०४॥ "मध्येचारधीराक्ष्या नासिकाभान्मखोन्मखी५ । तदामोदमिवाघात कृतयत्ना कुतूहलात् ॥१०॥ कृत्वा श्रोतृपदे६ कणौ तन्नेत्र बिभमैमिथः । कृतस्पर्ध इवाभातां पुष्पबाणे सभापतौ ॥१०६॥ दरवाजे के बन्धन हैं ऐसे उसके नितम्बोंपर जा पहंचा हो ॥९४॥ रोमावलीके छलसे कामदेवरूपी काला सर्प उसकी नाभिरूपी बामीसे निकलकर उसके स्तनरूपी पिटारेके समीप जा पहंचा था ।।९५।। वह सभद्रा कामरूपी सर्पकी कांचलीके समान सन्दर स्तनपरका वस्त्र (चोली) धारण करती थी और उस कामरूप सर्पको सन्तुष्ट करने के लिये सर्पिणीके समान श्रेष्ठ एकावली हारको धारण करती थी ।।९६॥ वह कण्ठ में पड़ी हुई, नाभि तक लटकती हुई और कामको उद्दीपित करनेवाली जिस हाररूपी लताको धारण कर रही थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवके द्वारा गूंथा हुआ और मन्त्रोंसे मंत्रित हुआ रक्षाका डोरा ही हो ॥९७।। जिसके स्तनोंका मध्यभाग हारसे व्याप्त हो रहा है ऐसी वह सुभद्रा इस प्रकारकी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही थी मानो जिसका प्रवाह दोनों ओरके यमक पर्वतोंको स्पर्श कर रहा है ऐसी उत्तम सीता नदी ही हो ॥९८॥ कामदेवके पाशको जीतनेवाली तथा देदीप्यमान आभूषणोंसे सुशोभित उसकी दोनों भुजाएं ऐसी शोभा धारण कर रही थीं मानो कामरूपी कल्पवृक्षके दो अंकूरे ही हों ॥९९।। सूक्ष्म रेखाओंसे व्याप्त हुआ उसका करतल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अन्य स्त्रियोंके पराजयसे उत्पन्न हुई विजयकी रेखाएं ही धारण कर रहा हो ॥१००। जिसकी भौंहें ऊपरको उठी हई हैं और जिसमें चंचल कटाक्ष हो रहे है ऐसा उस कृशोदरीका मुख ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाण और महाधनुषसे सहित कामदेवकी आयुधशाला ही हो ॥१०१।। उसका मुख अपनी शोभाके द्वारा चन्द्रमाकी कान्तिको जीतकर क्या कानोंके बहानेले भौंहरूपी पताकाके चिह्न सहित विजयपत्र (जीतका प्रमाणपत्र) ही धारण कर रहा था ।।१०२।। सोनेके पत्रोंसे चिह्नित उसके दोनों कान ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो उन्होंने देवांगनाओंको जीतने के लिये कागज-पत्र ही ले रक्खे हों ॥१०३।। उसके दोनों उज्ज्वल कपोल ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी दश प्रकारकी अवस्थाओं को देखने की इच्छा करनेवाले कामदेवके दर्पणकी शोभा ही धारण कर रहे हों ।।१०४॥ उस : चञ्चल लोचनवाली सुभद्राकी नाक आँखोंके बीचमें मुंहकी ओर झुकी हुई थी और उससे १-करण्डकम् द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० । २ प्रशस्तम् । ३ कामाहेः सन्तोषाय । ४ मुख्याम् । ५ सीतानदी। ६ ददाते स्म । ७ महाचापसहितम् । ८ शस्त्रशालाम् । ६ अनङगस्य । १० इव । ११ कर्णपत्र । १२ तस्याः ल०, द०। १३ आत्मीयाः । १४ चक्षुषोर्मध्ये। १५ मुखस्याभिमुखी। १६ श्रोतृजनस्थाने । १७ कामे सभापतौ सति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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