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महापुराणम् प्रभत कान्तिश्चकोराक्ष्या ललाट लुलितालके ।हेमपट्टान्तसंलग्ननीलोत्पलविडम्बिनी ॥१०७॥ तस्या विनीलविसस्तकबरीबन्धबन्धुरम् । केशपाशमनङगस्य मन्ये पाशं प्रसारितम् ॥१०॥ इत्यस्या रूपमुद्भूतसौष्ठवं त्रिजगज्जयि । मत्वाऽनङगस्तदडगेषु सन्निधानं व्यधात ध्रवम् ॥१०॥ तपालोकनोच्चक्षुः तद्गात्रस्पर्शनोत्सुकः । तन्मुखामोदमाजिघन् रसयंश्चासकृन्मुखम् ॥११०॥ तदायकलनिक्वाणश्रुतिसंसक्तकर्णकः । तद्गात्रविपुलारामे स रेमे सुखनिर्वृतः ॥११॥ पञ्च बाणाननङ गस्य वदन्त्येतान कुण्ठितान् । पुष्पेषुसंकथालोक प्रसिद्ध्यैव गता प्रथाम् ॥११२॥ धनुर्लतां मनोजस्य प्राहुः पुष्पमधीं जडाः । सुकुभारतरं स्त्रैणं वपुरेवातनोर्धनुः ॥११३॥ पञ्च बाणाननङगस्य नियच्छन्ति कुतो' जडाः । यदेव कामिनां हारि तदस्त्रं कामदीपनम् ॥११४॥ स्मितमालोकितं हासो जल्पितं मदमन्मनम् । कामाङगमिदमेवान्यत् कैतवं तस्य पोषकम् ॥११॥ प्रारूढयौवनोष्माणौ स्तनावस्या हिमागमे । रोम्णां हृषितमस्याडगे शिशिरोत्थं विनिन्यतुः११ ॥११६॥
हिमानिलैः कुचोत्कम्पम् आहितंर सा हृतक्लमैः । प्रेयस्करतलस्पर्शः अपनिन्ये ऽङकशायिनी ॥११७॥ वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कौतूहलसे मुंहका सुगन्ध सूंघने के लिये प्रयत्न ही कर रही हो ॥१०५।। उसके दोनों नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कामदेवके सभापति रहते हुए कानोंको साक्षी बनाकर परस्परमें हाव-भावके द्वारा स्पर्धा ही कर रहे हों ॥१०६॥ जिसपर काली काली अलकें बिखर रही हैं ऐसे चकोरके समान नेत्रवाली उस सुभद्राके ललाटपर जो कान्ति थी वह सुवर्णके पटियेपर लटकती हुई नीलकमलको मालाके समान बहुत ही सुन्दर जान पड़ती थी ॥१०७॥ अत्यन्त काले और नीचेकी ओर लटकते हुए कबरीके बन्धनसे सुशोभित उसके केशपाश ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो फैला हुआ कामदेवका पाश ही हो ॥१०८। इस प्रकार जिसकी उत्तमता प्रकट है ऐसे उस सुभद्राके रूपको तीनों जगत्का जीतनेवाला जानकर ही मानो कामदेवने उसके प्रत्येक अंगोंमें अपना निवासस्थान बनाया था ॥१०९॥ उसका रूप देखने के लिये जो सदा चक्षुओंको ऊपर उठाये रहता है, उसके शरीरका स्पर्श करनेके लिये जो सदा उत्कण्ठित बना रहता है, जो बार बार उसके मुखकी सुगन्ध सूंघा करता है, बार बार उसके मखका स्वाद लिया करता है और उसके संगीतक सन्दर शब्दोंके सननमें जिसके कान सदा तल्लीन रहते हैं ऐसा वह चक्रवर्ती उस सुभद्राके शरीररूपी बड़े बगीचे में सुखसे सन्तुष्ट होकर क्रीड़ा किया करता था ॥११०-१११॥ कविलोग, जिनका कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता ऐसा सुभद्राका रूप, कोमल स्पर्श, मुखकी सुगन्ध, ओठोंका रस और संगीतमय सुन्दर शब्द इन पाँचको ही कामदेवके पाँच बाण बतलाते हैं। लोकमें जो कामदेवके पांचो बाणोंकी चर्चा है वह रूढ़ि मात्रसे ही प्रसिद्ध हो गई है ॥११२॥ मूर्ख लोग कहते हैं कि कामदेवका धनुष फूलोंका है परन्तु वास्तव में स्त्रियोंका अत्यन्त कोमल शरीर ही उसका धनुष है ।।११३।। न जाने क्यों मूर्ख लोग कामदेवको पांच बाण ही प्रदान करते हैं अर्थात् उसके पांच बाण बतलाते हैं क्योंकि जो कुछ भी कामीलोगोंके चित्तको हरण करनेवाला है वह सभी कामको उत्तेजित करनेवाला कामदेवका बाण है । भावार्थ-कामदेवके अनेक बाण है ।।११४।। स्त्रियोंका मन्द हास्य, तिरछी चितवन, जोरसे हंसना और कामके आवेशसे अस्पष्ट बोलना यही सब कामदेवके अङ्ग हैं इनके सिवाय जो उनका कपट है वह इन्हीं सबका पोषण करने वाला है ॥११५॥ जो जवानीके कारण गर्म हो रहे हैं ऐसे सुभद्राके दोनों स्तन हेमन्त ऋतुमें ठण्डसे उठे हुए भरत के शरीर के रोमांचोंको दूर करते थे ॥११६॥ गोदमें शयन करने वाली सुभद्रा शीतलवायुके
१ गलित। २ सुखतृप्तः। ३ तद्रूपादीन् । ४ अमन्दान् । ५ स्त्रिया इदम् । ६ नियमयन्ति । ७ किं कारणम् । ८ मदेनाव्यक्तभाषिणम् । कामस्य । १० रोमाञ्चम् । 'रोमाञ्चो रोमहर्षणम्' इत्यभिधानात् । ११ नाशं चरित्यर्थः । १२ कृतम् । १३ प्रियतत्महस्ततल । १४ अपहरति स्म।
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