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________________ ४४४ महापुराणम् हरन करिकराकारकरालिङगनसङगतः । 'तगात्रपिकान्त:स्थं रसं "स्पनिवेविनम् ॥२०॥ तबिम्बाधरसम्भावितामृतास्वादनोत्सुकः। तद्वक्त्रावारिजामोदान्मोवमानोऽनिशं भृशम् ॥२१॥ 'अत्रव न पुनर्वेति मम वामासमागमः । “स सुलोचनया स्वानि चक्षुरादीन्यतर्पयत् ॥२११॥ 'प्रमाणकालभावेभ्यो यद्रतेः समता तयोः । ततः सम्भोगशृङगारावारापारान्तगौ हि तौ ॥२१२॥ १ प्रतिपरिणतरत्या लोपितालेपनादिः१ स सकलकरणानां गोचरीभूय तस्याः । हितपरविषयाणां सापि५ "तस्यैवमेतौ समरतिकृतसाराण्यन्वभूतां सुखानि ॥२१३॥ मनसि मनसिजस्यावापि सौख्यं न ताभ्यां पृथगनु गतभावः८ सङगताभ्यां नितान्तम् । करणमुखसुखेस्तैस्तन्मनः प्रीतिमापत् भवति परमुखं च क्वापि सौख्यं सुतृप्त्य ॥२१४॥ शिशिरसुरभिमन्दोच्छ्वासजः स्वः समीर समदुमबरवचोभिः स्वादनीयप्रदेशः। ललिततनुलताभ्यां मार्दवैकाकराभ्याम् अखिलमनयता तौ सौख्यमात्मेन्द्रियाणि ॥२१॥ चन्द्रमासे झरते हुए अमृतको पीता था, सुलोचनाके वचन और गीतरूपी रसायनको अपने कानरूपी पात्रोंसे भरता था, हाथी की सूंडके समान आकारवाले हाथोंके आलिंगनसे युक्त हो स्पर्शन इन्द्रियसे जानने योग्य उसके शरीररूपी कुइँयाके भीतर रहनेवाले रसको ग्रहण करता था, बिम्बी फलके समान सुशोभित उसके ओठों में रहनेवाले अमृतका आस्वाद लेने में सदा उत्सुक रहता था, उसके मुखरूपी कमलकी सुगन्धिसे रातदिन अत्यन्त हर्षित होता रहता था और 'स्त्री समागम मुझे इसी भवमें है अन्यभवमें नहीं है, ऐसा मानकर ही मानो सुलोचना के द्वारा अपनी चक्षु आदि इन्द्रियोंको संतुष्ट करता रहता था ।।२०७-२११।। चूंकि प्रमाण, काल और भावसे इन दोनोंके प्रेममें समानता थी इसलिये ही वे दोनों संभोग शृङ्गाररूपी समुद्र के अन्त तक पहुंच गये थे ॥२१२॥ खूब बढ़े हुए प्रेमसे जिसने विलेपन आदि छोड़ दिया है ऐसा वह जयकुमार सुलोचनाकी सब इन्द्रियोका विषय रहता था और सलोचना भी जयकुमारके हित करनेवाले विषयोंमें तत्पर रहती थी, इस प्रकार ये दोनों ही समान प्रीति करना ही जिनका सारभाग है ऐसे सुखोंका उपभोग करते थे ॥२१३॥ पृथक् पृथक् उत्पन्न हुए परिणामोंसे खूब मिले हुए उन दोनोंने अपने मनमें कामदेवका सुख नहीं पाया था किन्तु इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए उन उन सुखोंसे उनके मन प्रीतिको अवश्य प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि दूसरेके द्वारा उत्पन्न हुआ सुख क्या कहीं उत्तम तृप्तिके लिये हो सकता है ? ॥२१४।। अपने श्वासोच्छ्वाससे उत्पन्न हुए शीतल सुगन्धित और मन्द पवनसे, कोमल और मधुर वचनोंसे, स्वाद १ स्वीकुर्वन् । २ आलिङगने हृदयङगमः 'सङगतं हृदयङगमम्'. इत्यभिधानात् । ३ सुलोचनाशरीररसकपमध्यस्थित। ४ स्पर्शजनकम् । ५ इह जन्मन्येव । ६ उत्तरभवे नास्तीति वा । ७ स्त्रीसङगः । 'प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा' इत्यभिधानात् । ८ विजयः । ६ योनिपुष्पादिप्रमाणात् समरतिप्रभृतिकालात् अन्योन्यानुरागादिभावाच्च । १० अतीवप्रवृद्ध। ११ लुप्तश्रीखण्डकुङकुमचर्चामाल्याभरणादिः। १२ समस्तेन्द्रियाणाम् । १३ विषयीभूत्वा । १४ हितस्रक्चन्दनादिविषयाणाम् । १५ सुलोचनापि । १६ जयस्य। १७ न प्राप्यते स्म । १८ पदार्थैः । १६ इन्द्रियोपायजनितसुखैः। २० परम् अन्यवस्तु मुखं द्वारमुपायो यस्य तत् । परमुखं क्वापि भवति न कुत्रापीत्यर्थः । २१ आस्वादितुं योग्याधरादिप्रदेशैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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