SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० महापुराणम् खमुन्मणिति रीटांशुरचितेन्द्रशरासनम् । क्षणेनोल्लधय सम्प्रापत् तं देशं यत्र चक्रभृत् ॥ १५८ ॥ पुरोधाय शरं रत्नपटले सुनिवेशितम् । मागधः प्रभुमानंसीद प्रायं स्वीकुरु मामिति ॥ १५६ ॥ चकोत्पत्तिक्षणे भद्र यन्नायामोऽनभिज्ञकाः । महान्तमपराधं नः त्वं क्षमस्वार्थितो मुहुः ॥ १६० ॥ युष्मत्पादरजःस्पर्शाद् वाधिरेव न केवलम् । पूता वयमपि श्रीमन् त्वत्पादाम्बुजसेवया ॥ १६१॥ रत्नान्यमुन्यनर्घाणि स्वर्गेऽप्यसुलभानि च । श्रधो निधीनामाधातुं सोपयोगानि सन्तु ते ॥ १६२ ॥ हारोऽयमतिरोचिष्णुः प्रवाराहं 'रशुक्तिजैः । श्रवेणुद्विपसम्भूतैः दुब्धो मुक्ताफलैर्युजैः ॥१६३॥ तव वक्षःस्थलाश्लेषा'द् उपेया दुपहारताम् । स्फुरन्ती" कुण्डले चामू कर्णासङ्गात् पवित्रताम् ॥१६४॥ इत्यस्मं कुण्डल दिव्य हारं च विततार सः । त्रैलोक्यसारसन्दोहमिवैकध्यमुपागतम् ॥१६५॥ रत्नश्चाभ्यच्यं रत्नेशं मागधः प्रीतमानसः । प्रभोरवाप्तसत्कारः तन्मतात् स्वमगात् पदम् ॥१६६॥ अथ तत्रस्थ एवाब्धिं सान्तद्वपं विलोकयन् । प्रभुविसिस्मये किञ्चिद् बह्वाश्चर्यो हि वारिधिः ॥ १६७॥ ततः कुतुहलाद् वाधिं पश्यन्तं धूर्गतः " पतिम् । तमित्युवाच दन्तांशुसुमनोमञ्जरी: किरन् ॥ १६८ ॥ पृथ्वीवृत्तम् अयं जलधिरुच्चलत्तरलवीचिबाहूद्ध तस्फुरन्मणिगणार्चनो ध्वनदसङ्खचशङ्खाकुलः । तवार्धमिव संविधित्सुरन वेलमुच्चैर्नदन् मरुद्भुतजलानको दिशतु शश्वदानन्दथुम्१५ ॥१६६॥ जा रहे थे ।।१५७।। देदीप्यमान मणियोंसे जड़े हुए मुकुटकी किरणोंसे जिसमें इन्द्रधनुष बन रहा है ऐसे आकाशको क्षण भरमें उल्लंघन कर वह मागध देव जहां चक्रवर्ती था उस स्थान पर जा पहुंचा ।। १५८।। रत्नके पिटारेमें रक्खे हुए बाणको सामने रखकर मागध देवने भरत के लिये नमस्कार किया और कहा कि हे आर्य, मुझे स्वीकार कीजिये अपना ही समझिये ।। १५९ ।। हे भद्र, हम अज्ञानी लोग चक्र उत्पन्न होनेके समय ही नहीं आये सो आप हमारे इस भारी अपराधको क्षमा कर दीजिये, हम बार बार प्रार्थना करते हैं ।। १६० ।। हे श्रीमन्, आपके चरणों की धूलिके स्पर्शसे केवल यह समुद्र ही पवित्र नहीं हुआ है किन्तु आपके चरणकमलोंकी सेवा करने से हम लोग भी पवित्र हो गये हैं ।। १६१ ।। हे प्रभो, यद्यपि ये रत्न अमूल्य हैं और स्वर्गमें भी दुर्लभ हैं तथापि आपकी निधियों के नीचे रखनेके काम आवें ।। १६२ ॥ | यह अतिशय देदीप्यमान तथा सूअर, सीप, बांस और हाथी में उत्पन्न न होनेवाले दिव्य मोतियोंसे गुथा हुआ हार आपके वक्षःस्थलके आलिंगनसे पूज्यताको प्राप्त हो तथा ये देदीप्यमान- चमकते हुए दोनों कुण्डल आपके कानोंकी संगतिसे पवित्रताको प्राप्त हों ।। १६३ - १६४ ।। इस प्रकार उस मागध देवने एकरूपताको प्राप्त हुए तीनों लोकोंकी सार वस्तुओंके समुदायके समान सुशोभित होनेवाला हार और दोनों दिव्य कुण्डल भरतके लिये समर्पित किये ॥ १६५ ॥ तदनन्तर जिसका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है ऐसे मागध देवने अनेक प्रकारके रत्नोंसे रत्नों के स्वामी भरत चक्रवर्ती की पूजा की और फिर उनसे आदर-सत्कार पाकर उन्हींकी संगतिसे वह अपने स्थानपर चला गया ।।१६६।। अथानन्तर - वहां खड़े रहकर ही अन्तद्वीपों सहित समुद्रको देखते हुए महाराज भरतको कुछ आश्चर्य हुआ सो ठीक ही है क्योंकि वह लवणसमुद्र अनेक आश्चर्योंसे सहित था ।। १६७।। तदनन्तर दांतोंकी किरणेंरूपी पुष्पमंजरीको बिखेरता हुआ सारथि कौतूहल से समुद्रको देखने वाले भरतसे इस प्रकार कहने लगा ॥ १६८ ॥ कि, उछलती हुई चंचल लहरें १ अग्रे कृत्वा । २ नमस्करोति स्म । ३ आगताः । ४ प्रार्थितः । ५ निधिं प्रयत्नेन स्थापयितुमधः शिलाकतु सप्रयोजनानि भवन्त्विति भावः । ६ न सूकरजैः । ७ इक्षुजैः । ८ सङ्गात् । ६ उपगच्छत् । १० पूज्यताम् । ११ स्फुरती कुण्डले चेमे ल० । १२ एकप्रकारम् । १३ विस्मितवान् । १४ यानमुखं गतः । सारथिरित्यर्थः । १५ आनन्दम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy