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________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व कलशर्मुखविन्यस्तविलसत्पल्लवाधरः। अभिषिच्य विशुद्धाम्बुपूर्णः स्वर्णमयः शनैः ॥२६२॥ कृतमङगलनेपथ्यां नीत्वा नित्यमनोहरमा पूजयित्वाहतो भक्त्या सर्वकल्याणकारिणः ॥२६३॥ सिद्धशेषां समादाय क्षिप्त्वा शिरसि साशिषम् । स्थिताःप्रतीक्ष्य सल्लग्नं "तत्रावृत्याहितादरम् ॥२६४॥ इतो महीशसन्देशान् नरखेचरनायकाः । श्वास्ते प्रसाधितान् कृत्वा प्रसाधनविदस्तदा ॥२६॥ निजोचितासनारूढाः प्ररूढ श्रीसमुज्जवलाः। चलच्चामरसम्पत्त्या कान्त्या चामरसन्निभाः ॥२६६।। कुमार्या निजितः कामःप्राक् स्वमेव विकृत्य किम् । समागॅस्त पुनर्जेतुमिति शङकाविधायिनः ॥ कञ्चिदेकर वणीते साविति ज्ञात्वाऽप्यस्यवः । जेतुं सर्वेऽपि तां तस्थुः८ प्राशा हि महती नुणाम् ॥ केरलीकठिनोत्तुङगकुचकोटिविलङघन । श्रमापानीतसामर्थ्यात् परिक्षीणपरिक्रमम् ॥२६॥ माद्यन्मलयमातकटकण्डविनोदनात् । क्षतचन्दननिष्यन्दसान्द्रसौगन्ध्यबन्धुरम् ॥२७०॥ कावेरीवारिजास्वावप्रहृष्टाण्डजनिर्भर-। क्रीडोच्छलज्जलस्थूलकणमुक्तातिभूषणम् ॥२७१॥ वक्षिणानिलमापल्ल"कोत्कटानलदीपनम् । कोकिलालिकलालापर्वाचालमनुकलयन् ॥२७२३॥ विवाहोत्सव मण्डपमें बड़े हर्षके साथ महारानी सुप्रभाकी आज्ञासे आई और पूर्व दिशाकी ओर मखकर सखपूर्वक सोनेके पाटपर बिठा दिया। तदनन्तर मखपर रखे हए शोभायमान पल्लवों को धारण करनेवाले तथा विशुद्ध जलसे भरे हुए सुवर्णमय शुभ कलशोंसे उसका अभिषेक किया। फिर माङ्गलिक वस्त्राभूषणोंको धारण करनेवाली कन्याको नित्यमनोहर नामक चैत्यालयमें ले जाकर वहां उससे सबका कल्याण करनेवाले श्री अर्हन्तदेवकी पूजा कराई। उसके बाद सिद्ध शेषाक्षत लेकर आशीर्वादपूर्वक उसके शिरपर रक्खे और इतना सब कर चुकने के बाद वे स्त्रियां उसका आदर सत्कार करती हुई शुभ लग्नकी प्रतीक्षामें उसे घेरकर वहीं ठहर गई ॥२५८-२६४॥ इधर महाराज अकम्पनके संदेशसे, सजावटको जाननेवाले वे सब भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति अपने आपको सजाकर अपने अपने योग्य आसनों पर जा बैठे। वे प्रकृष्ट शोभासे उज्ज्वल थे, ढलते हए चमरोंकी संपत्ति और कान्तिसे देवोंके समान जान पड़ते थे और ऐसी शंका उत्पन्न कर रहे थे मानो इस कुमारीने पहले ही कामदेवको जीत लिया था इसलिये वह कामदेव ही अपने बहुतसे रूप धारणकर उसे जीतनेके लिये पुनः आया हो ॥२६५-२६७॥ यह सुलोचना किसी एकको ही स्वीकार करेगी, ऐसा जानकर भी वे सब राजा लोग अहंकार करते हुए उसे जीतने के लिये वहां बैठे थे सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्योंकी आशा बहुत ही बड़ी होती है ॥२६८॥ जो स्त्रियोंके मद्यके कुरलों तथा नूपुरोंकी झनकारसे सुशोभित बायें पैरोंके द्वारा वृक्षोंको भी कामी बना रहा है, जो बांयें हाथमें फूलोंका धनुष धारण कर दूसरे हाथसे आमकी मंजरीको खूब फिरा रहा है, जिसका पराक्रम प्रसिद्ध है और जिसने वसन्त ऋतुरूपी सेवकके द्वारा फूलरूपी समस्त शस्त्र बुला लिये हैं, ऐसा कामदेव, केरल देशकी स्त्रियोंके कठिन और ऊंचे करोड़ों कुचोंको उल्लंघन करनेसे उत्पन्न हुई थकावटके कारण जिसकी घूमने की शक्ति क्षीण हो गई है अर्थात् जो धीरे धीरे चल रहा है, मलय पर्वतके १ शुभैः अ०, प०, स०, म०, ल०, इ० । २ नित्यमनोहरनाम चैत्यालयम् । ३ -शेषं ल० । ४ प्रतीक्षा कृत्वा । ५ चैत्यालये। ६ कृतादरं यथा भवति तथा । ७ अकम्पनवाचिकात् । ८ अलङकृतान् । ६ प्रसिद्ध । १० आत्मानम् । ११ राजकुमाररूपेण वैकुर्वाणं कृत्वा । १२ सङगतवान् । १३ सुलोचनां जेतुम् । १४ प्रेक्षकाणां शङकां कुर्वाणाः। १५ अनिर्दिष्टं कञ्चिदेकं पुरुषम् । १६ स्वीकरोति । १७ अहंकारवन्तः । 'अहंकारवानहंयुः' इत्यभिधानात् । १८ निजोचितासनारूढाः सन्तस्तस्थुरिति सम्बन्धः । १६ केरलस्त्री। २० श्रमापनीतसामर्थ्य । २१ लङघनाज्जातश्रमेणापसारितसामथुन परिक्षीणगमनम् । २२ मलयाचलोत्पन्नकरिकपोलकण्डूयापनयनात् । २३ द्रवप्रस्रवण। २४ विरहतीव्राग्निसमुत्पादनम् । ४८ -- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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