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380 Mahapuraanam Whether a man becomes wealthy by collecting taxes from the earth or not, if he receives the hand of this Sulochana, Lakshmi is considered to be in his hands. 265 The saltiness (lavanya) in men is in the ocean, and the beauty (lavanya) in women is in this Sulochana. This is why all the rivers have reached the ocean, and all the kings have come near her. 266 Even after being consumed by the eyes of everyone, her beauty (lavanya) continues to grow. But the ocean has been abandoned by Lakshmi, so how can it possess it? 267 The ocean boasts of its wealth of jewels in vain, for it is only adorned by the kings Akampan and Rani Suprabha, who possess this jewel-like daughter. 268 1. Lakshmi's. 2. Sulochana's. 3. In men. 4. Full. 5. Because of which. 6. That ocean. This Sulochana. 7. Beauty (lavanya). 8. Of whom. 9. Akampan and Suprabha. 10. Wealth of jewels.
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________________ ३८० महापुराणम् करग्रहेण लक्ष्मीवान स्यान्न वा वारिधर्भुवः । 'पस्या करग्रहो यस्य तस्य लक्ष्मीः करे स्थिता ।२६५॥ लावण्यमम्बुधौ पुंस स्त्रीवस्यामेव सम्भूतम् । यत्प्राप्ताः सरितः सर्वास्तमेतां सर्वपार्थिवाः॥२६६।। समस्तनेत्रसम्पीतमप्यस्या वर्धतेतराम । लावण्यमम्बुधिस्त्यक्तः श्रिया वहतु "तत्कथा ॥२६७॥ रत्नाकरत्वदुर्गर्वम् अम्बधिः श्रयते वृथा। कन्यारत्नमिदं यत्र तयोरेतद० विराजते ॥२६॥ प्रसिद्ध लक्ष्मी सबके द्वारा उपभोग करने योग्य है और रति शरीररहित कामदेवके द्वारा भोगी जाती है परन्तु यह सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय अर्थात् विजय अथवा जयकुमारको प्राप्त होगी। भावार्थ-संसारमें दो ही प्रसिद्ध स्त्रियां हैं एक लक्ष्मी और दूसरी रति । इनमेंसे लक्ष्मी तो सर्वपुरुषोंके द्वारा उपभोग योग्य होनेके कारण पुंश्चलीके समान निन्द्य है और रति शरीररहित पिशाच (पक्षमें कामदेव) के द्वारा उपभोग योग्य होनेसे दूषित है परन्तु यह सुलोचना अपनी शोभासे कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय-जीत (पक्षमें जयकुमार) को प्राप्त होगी अर्थात् यह सुलोचना लक्ष्मी और रतिसे भी श्रेष्ठ है ॥२९४॥ समुद्रपर्यन्त इस पृथिवीका करग्रह अर्थात् टैक्स वसूल करनेसे कोई पुरुष लक्ष्मीवान् हो अथवा नहीं भी हो परन्तु जिसके इस सुलोचनाका करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण होगा लक्ष्मी उसके हाथमें ही स्थित समझनी चाहिये ।।२९५।। पुरुषोंमें लावण्य (खारापन) समुद्र में है और स्त्रियोंमें लावण्य (सौन्दर्य) इसी सुलोचनामें भरा हुआ है यही कारण है कि सब नदियां समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग इसके समीप आ पहुंचे हैं। भावार्थ-लावण्य शब्दके दो अर्थ हैं-एक खारापन और दूसरा सौन्दर्य । यहां कविने दोनोंमें शाब्दिक अभेद मानकर निरूपण किया है। श्लोकका भाव यह है-लावण्य पुरुषोंमें भी होता है और स्त्रियों में भी परन्तु उसके स्थान दोनोंमें नियत है । पुरुषका लावण्य समुद्र में नियत है और स्त्रीका लावण्य सुलोचनामें । पुरुषके लावण्यके प्रति स्त्रियोंका आकर्षण रहता है और स्त्रियोंके लावण्यके प्रति पुरुषका आकर्षण रहता है । यही कारण है कि नदीरूपी स्त्रियां आकर्षित होकर समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग (पुरुष) सुलोचनाके प्रति आकर्षित होकर उसके समीप आ पहुंचे हैं ॥२९६॥ इसका लावण्य सबके नेत्रोंके द्वारा पिया जानेपर भी बढ़ता ही जाता है परन्तु समुद्रको तो लक्ष्मीने छोड़ दिया है इसलिये वह उसे कैसे धारण कर सकता है ? भावार्थ-ऊपरके श्लोकमें लावण्यके दो स्थान बतलाये थे-एक समुद्र और दूसरा सुलोचना । परन्तु यहां लावण्य शब्दका केवल सौन्दर्य अर्थ हृदयमें रखकर कवि समुद्र में उसका अभाव बतला रहे हैं। यहां कवि लावण्य उस पदार्थको कह रहे हैं जिसकी निरन्तर वृद्धि ही होती रहे और जिसे देखकर दर्शक उसे कभी छोड़ना न चाहे । कविका मनोगत लावण्य सुलोचनामें ही था क्योंकि उसे देखकर नेत्र कभी उसे छोड़ना नहीं चाहते थे और निरन्तर उसकी वृद्धि होती रहती थी। समुद्र में लावण्यका होना कविको इष्ट नहीं है क्योंकि उसे लक्ष्मीने छोड़ दिया है यदि उसमें वास्तवमें लावण्य होता तो उसे लक्ष्मी क्यों छोड़ती ? (लक्ष्मी द्वारा समुद्रका छोड़ा जाना कवि सम्प्रदायमें प्रसिद्ध है।) ॥२९७।। समुद्र अपने रत्नाकरपनेका खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न हैं उन्हीं राजा अकंपन और रानी सुप्रभाके यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है ।।२९८।। १ लक्ष्म्याः । २ सुलोचनायाः । ३ पुरुषेषु। ४ परिपूर्णम् । ५ यत् कारणात् । ६ तं समुद्रम् । एताम् सुलोचनाम् । ७ लावण्यम् । ८ ययोः । ९ अकम्पनसुप्रभयोः । १० रत्नाकरत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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