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## Chapter Thirty-Five 181. The application of these means (Sāma, Dāna, Danda, Bheda) to the appropriate person is the key to success, while their misapplication leads to defeat. **10.** Sāma (conciliation) alone is not considered effective in pacifying a powerful person. Even if he is friendly, if he is inflamed with anger, using Sāma with him is like pouring water on hot ghee. **101.** Similarly, I consider it futile to offer something to a very powerful person. How can a blazing fire be extinguished by offering thousands of fuel sticks? **102.** Just as heated iron does not become soft, a powerful person does not become soft by being subjected to hardship. Therefore, using Danda (punishment) on him is pointless. Danda can only be used on an elephant that can be captured by persuasion and caressing, not on a lion. **103.** Therefore, those who misapply these means (Sāma, Dāna, Danda, Bheda) and are ignorant of their application, like you, suffer due to their lack of knowledge in using these four means.
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________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १८१ यथा' विषयमेवैषाम् उपायानां नियोजनम । सिद्धयङगं तद्विपर्यासः फलिष्यति पराभयम् ॥ नेकान्तशमनं साम समाम्नातं सहोष्मणि । स्निग्धेऽपि हि जने तप्ते सपिषीवाम्बुसेचनम् ॥१०॥ उपप्रदानमप्येवं प्रायं मन्ये महौजसि । “समित्सहस्रदानेऽपि वीप्तस्याग्नेः कुतः शमः ॥१०१॥ लोहस्येवोपतप्तस्य मृदुता न मनस्विनः । दण्डोऽप्यनुनयग्राह्ये सामजे न मृगद्विषि ॥१०२॥ ततो व्यत्यासयन्ने नानुपायाननु पायवित् । स्वयं प्रयोगवगुण्यात् सीदत्येव न मादृशः ॥१०३॥ में पहले कुछ देनेके विधानके साथ सामका प्रयोग किया जावे और बादमें भेद तथा दण्ड उपाय कामम लाये जावें तो उनके द्वारा पहले प्रयोगमें लाया हुआ साम उपाय बाधित हो जाता है । भावार्थ-यदि न्यायवान् विरोधोके लिये पहले कुछ देनेका प्रलोभन देकर साम अर्थात् शान्ति का प्रयोग किया जावे और बादमें उसीके लिये भेद तथा दण्डकी धमकी दी जावे तो ऐसा करने से उसका पहले प्रयोग किया हआ साम उपाय व्यर्थ हो जाता है क्योंकि न्यायवान विरोधी उसकी कटनीतिको सहज ही समझ जाता है ।।९८॥ साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों उपायोंका यथायोग्य स्थानमें नियोग करना कार्य सिद्धिका कारण है और विपरीत नियोग करना पराभवका कारण है। भावार्थ-जो जिसके योग्य है उसके साथ वही उपाय काममें लानेसे सफलता प्राप्त होती है और विरुद्ध उपाय काममें लानेसे तिरस्कार प्राप्त होता हे ॥९९।। प्रतापशाली पुरुषके साथ साम अर्थात् शान्तिका प्रयोग करना एकान्तरूपसे शान्ति रनेवाला नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रतापशाली मनष्य स्निग्ध अर्थात स्नेही होनेपर भी यदि कोधसे उत्तप्त हो जावे तो उसके साथ शान्तिका प्रयोग करना स्निग्ध अर्थात् चिकने किन्तु गर्म घीमें पानी सींचनेके समान है। भावार्थ-जिस प्रकार गर्म घीमें पानी डालनेसे वह शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक चटपटाने लगता है उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य शान्तिके व्यवहारसे शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक बड़बड़ाने लगता है ॥१००।। इसी प्रकार अतिशय प्रतापशाली पुरुषको कुछ देनेका विधान करना भी मैं निःसार समझता हूँ क्योंकि हजारों समिधाएँ (लकड़ियां) देनेपर भी प्रज्वलित अग्नि कैसे शान्त हो सकती है । ।।१०१।। जिस प्रकार लोहा तपानेसे नर्म नहीं होता उसी प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट देनेसे नहीं होता इसलिय उसके साथ दण्डका प्रयोग करना निरर्थक है क्योंकि अनुनय विनय कर पकडने योग्य हाथीपर ही दण्ड चल सकता है सिंहपर नहीं। विशेष-लोहा गर्म अवस्था में नर्म हो जाता है इसलिये यहाँ लोहाका उदाहरण व्यतिरेकरूपसे मानकर ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है कि जिस प्रकार तपा हुआ लोहा नर्म हो जाता है उस प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट में पड़कर नर्म नहीं होता इसलिये उसपर दण्डका प्रयोग करना व्यर्थ है । अरे, दण्ड भी प्रेम पुचकार कर पकड़ने योग्य हाथीपर ही चल सकता है न कि सिंहपर भी ।।१०२।। इसलिये इन साम दान आदि उपायोंका विपरीत प्रयोग करनेवाले और इसलिये ही उपाय न जाननेवाले आप जैसे लोग इन चारों उपायोंके प्रयोगका ज्ञान न होनेसे स्वयं दुःखी होते हैं ॥१०३॥ १ सामभेदादियोग्यपुरुषमनतिक्रम्य । २ वचननियोजनम् । ३ सप्रतापे । ४ एतत्सदृशम् । ५ इन्धनसमूह। ६ उपतप्तस्य लोहस्य यथा मृदुतास्ति तथा उपतप्तस्य मनस्विनो मृदुता नास्तीत्यर्थः। ७ सिंहे। ८ वैपरीत्येन योजयन् । -नेतानु--ल०, द०, अ०, ५०, स०। समाधीन् । १० भवादृशः द०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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