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182 Even though the Mahapurana is difficult to understand, it is still possible to achieve it. However, you are clearly being foolish by getting carried away. ||104|| Just because he is older, the king of the Bharatas is not worthy of praise. Even an old elephant cannot match a lion cub. ||105|| Love and respect are possible only among those who are closely related. If there is conflict among them, both are destroyed. ||106|| It is good to bow to an elder at other times, but what is the point of bowing to someone who has placed a sword on your head? ||107|| Messenger, our minds are not swayed by your boasting. There is only one sun that shines brightly. Is there anything brighter than that? ||108|| The Adi Brahma has given the title of "King" to both me and Bharata. But today, Bharata has become "King of Kings," which is as meaningless as a swollen throat. ||109|| Even if Bharata, who has gained immense wealth through jewels, wants to be "King of Kings," we will remain steadfast in our righteous kingdom as Kings. ||110|| Bharata wants to give us a piece of land by deceiving us like children, and then make us bow to him. But the land he gives is as insignificant as a piece of clay. ||111|| For those with a strong mind, the fruit of their own efforts is praiseworthy. The wealth of the four oceans gained through the gestures of another is not worth anything. ||112||
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________________ १८२ महापुराणम् साम्नाऽपि दुष्करं साध्या बयमित्युपसंहृते । तत्रोत्सेकं प्रयुञ्जानो व्यक्तं मुग्धायते भवान् ॥१०४॥ वयसाधिक इत्येव न श्लाघ्यो भरताधिपः । जरनपि गजः कक्षा गाहते कि हरेः शिशोः ॥१०॥ प्रणयः'प्रश्रयश्चेति सङगतेष सनाभिषु । तेष्वेवासङगतेष्वङग तवयस्य हता गतिः ॥१०६॥ ज्येष्ठः प्रणम्य इत्येतत्काममस्त्वन्यदा सदा । मुारोपितखड्गस्य प्रणाम इति कः क्रमः ॥१०७॥ दूत नों दूयते चित्तम् अन्योत्सेकानुवर्णनैः। तेजस्वी भान रेवैकः किमन्योऽप्यस्त्यतः परम् ॥१०॥ राजोक्तिर्मयि तस्मिश्च संविभक्ताऽदिवेधसा३ । राजराजः स इत्यद्य "स्फोटो गण्डस्य मूर्धनि ॥१०॥ कामं स राजराजोऽस्तु" रत्नर्यातोऽतिग ध्नुताम् । वयं राजा न इत्येव सौराज्ये स्वे° व्यवस्थिताः।११०॥ बालानिव श्छलादस्मान् पाहूय प्रणमय्य च । पिण्डीखण्ड" इवाभाति महीखण्डस्तदर्पितः५॥११॥ स्वदो मफलं इलाध्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम् । नचातुरन्तमप्यश्यं पर लतिकाफलम् ॥११२॥ हे दूत, हम लोग शान्तिसे भी वश नहीं किये जा सकते यह निश्चय होनेपर भी आप हमारे साथ अहंकारका प्रयोग कर रहे हैं, इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आप मूर्ख हैं ॥१०॥ भरतश्वर उमरम बड़े हैं इतने ही से वे प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकत क्योकि हाथी बूढ़ा हानपर भी क्या सिंहके बच्चेकी बराबरी कर सकता है ? ।।१०५।। हे दूत, प्रेम और विनय ये दोनों परस्पर मिले हुए कुटुम्बी लोगोंमें ही संभव हो सकते हैं, यदि उन्हीं कुटुम्बियोंमें विरोध हो जावे तो उन दोनों हीकी गति नष्ट हो जाती है। भावार्थ-जब तक कुटुम्बियोंमें परस्पर मेल रहता है तब तक प्रेम और विनय दोनों ही रहते हैं और ज्योंही उनमें परस्पर विरोध हुआ त्यों ही दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥१०६॥ बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है यह बात अन्य समयमें अच्छी तरह हमेशा हो सकती है परन्तु जिसने मस्तकपर तलवार रख छोड़ी है उराको प्रणाम करना यह कौन-सी रीति है ? ॥१०७॥ हे दूत, दूसरे के अहंकारके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे हमारा चित्त दुःखी होता है, क्योंकि संसारमें एक सूर्य ही तेजस्वी है। क्या उससे अधिक और भी कोई तेजस्वी है ।।१०८॥ आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने 'राजा' यह शब्द मेरे लिये और भरतके लिय-दोनोक लिय दिया है, परन्तु आज भरत 'राजराज' हो गया है सोयह कपोल के ऊपर उठे हए गमडे के समान व्यर्थ है ॥१०९।। अथवा रत्नोंके द्वारा अत्यन्त लोभको प्राप्त हआ वह भरत अपने इच्छानुसार भले ही 'राजराज' रहा आवे, हम अपने धर्मराज्यमें स्थिर रहकर राजा ही बने रहेंगे ।।११०॥ वह भरत बालकोंके समान छलसे हम लोगोंको बुलाकर और प्रणाम कराकर कुछ पृथिवी देना चाहता है तो उसका दिया हुआ पृथिवीका टुकड़ा खलीके टकडेके समान तुच्छ मालम होता है ॥११तेजस्वी मनष्योंके लिये जो क कछ थोड़ाबहुत अपनी भुजारूपी वृक्षका फल प्राप्त होता है वही प्रशंसनीय है, उनके लिये दूसरेकी भौंहरूपी लताका फल अर्थात् भौंहके इशारेसे प्राप्त हुआ चार समुद्रपर्यन्त पृथिवीका ऐश्वर्य भी १ विरतिं गते सति । २ तत्र तूष्णी स्थिते पुंसि । उत्सेकं साहसम्, गर्वमित्यर्थः । ३ समानताम् । ४ प्राप्नोति। ५ स्नेहः । ६ विनयः । ७ भोः । ८ प्रणयप्रश्रयस्य । ६ अस्माकम् । १० वर्तनैः ल०, द०, अ०, ५०, स०। ११ भानोः सकाशादन्यः । १२ भरते । १३ आदिब्रह्मणा । १४ भरतेश्वरपक्ष राज्ञां प्रभूणां राजा राजराजः, राज्ञां यक्षाणां राजा राजराजः लोजित इति ध्वनिः । भुजबलिपक्ष तिस्रः शक्तयः षड्गुणाः चतुरोपायाः सप्ताङगराज्यानि एतंर्गुणं राजन्त इति राजानः । १५ पिट कः । विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभिधानात् । १६ गलगण्डस्य। 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । १७ उपरीत्यर्थः । १८ कुबेर इति ध्वनिः । १६ सुराज्यव्यापारे। २० आत्मीये । २१ बलादिव द० । २२ व्याजात् । २३ नमस्कारयित्वा । २४ पिण्याकशकलः । २५ भरतेन दत्तः । २६ चत्वारो दिगन्तो यस्य तत् । २७ प्रभुत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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