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The Thirty-Fourth Chapter 371 He informed his eldest son, Suprabhadevi and Hemaangad, of the news and discussed it with the elders of the family and the members of his clan. 200-201 || He sent messengers to many kings, some with Nisrishtaarth (self-determined purpose), some with Mithaartha (limited purpose), and some with letters enclosed in gifts. Thus, he honored and respected them with gifts and informed them of the purpose of the Swayamvara, sending messengers in all directions to invite the kings. 202-203 || Upon hearing this news, the god, Vichitraangad, who had been the brother of King Akampan in a previous life, arrived from the Saudharma heaven. He saw King Akampan and said, "I have come to witness the Swayamvara of the virtuous Sulochana." 204-205 || As instructed by the king, he built a palace called Sarvatobhadra in a peaceful, excellent, suitable, and beautiful place to the north of the Brahma-sthana, near the city. The palace faced east, was filled with auspicious materials, had a wedding pavilion, and was multi-storied. 206-207 || The palace was surrounded by various streets, forts, and houses for beautification. It was radiant and made of jewels and gold. Thus, the wise god, following the proper procedures, built the palace and constructed a grand Swayamvara pavilion around it. The pavilion was pure, large, with its land divided into different sections, square, with four doors, adorned with forts and gateways, decorated with rows of flags attached to jeweled arches, and adorned with shining golden pots on the tops of its radiant peaks. 208-211 ||
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________________ त्रिचत्वारिंशतमं पर्व ३७१ निवेध 'सुप्रभायाश्च हृष्टो हेमाङ्गदस्य च । वृद्धैः कुलत्रमायातैः श्रालोच्य च सनाभिभिः ॥ २०१ ॥ अत्रैषां निसृष्टार्थान्" मितार्थानपरान् प्रति । परेषां 'प्राभूतान्तः स्थपत्रान् शासनहारिणः ॥ २०२॥ स दानमान: सम्पूज्य निवेद्येतत्प्रयोजनम्' । समानेतुं महीपालान् सर्व विक्कं समादिशत् ॥ २०३॥ ज्ञात्वा तदाशु तद्बन्धुविचित्राङगदसंज्ञकः । सौधर्मकल्पादागत्य देवोऽवधिविलोचनः ॥ २०४ ॥ प्रकम्पनमहाराजम श्रालोक्य वयमागताः । सुलोचनायाः पुण्याया: स्वयंवरमवेक्षितुम् ॥ २०५ ॥ इत्युक्त्वोपपुरे योग्ये रम्य राजाभिसम्मतः । ब्रह्मस्थानोत्तरे भागे प्रधीरे" वरवास्तुनि " ॥ २०६ ॥ प्रामुखं सर्वतोभद्रं मङगलद्रव्यसम्भूतम् । विवाहमण्डपोपेतं प्रासादं बहुभूमिकम् " ॥२०७॥ चित्रप्रतो" लोप्राकारपरिकर्मगृहावृतम् " । भास्वरं मणिभर्माभ्यां विधाय विधिवत् सुधीः ॥ २०८ ॥ तं परीत्य विशुद्धोरु सुविभक्तमहीतलम् । चतुरस्त्रं चतुर्द्वारशालगोपुरसंयुतम् ॥२०६॥ रत्न तोरणसकीर्ण केतुमालाविलासितम् । हटत्कूटाग्रनिर्मासि भर्मकुम्भाभिशोभितम् ॥२१०॥ स्थूलनीलोत्पलाबद्धस्फुरद्दीप्तिधरातलम् । विचित्रनेत्र विस्तीर्णवितानातिविराजितम् ॥२११ ॥ कार्य करनेमें जुट गया । उसने सबसे पहले घर जाकर ऊपर लिखे हुए समाचार सुप्रभादेवी और हेमांगद नामके ज्येष्ठ पुत्रको कह सुनाये तथा कुलपरम्परासे आये हुए वृद्ध पुरुषों और सगोत्री बन्धुओंके साथ पूर्वापर विचार किया |२०० - २०१|| कितने ही राजाओंके पास निसृष्टार्थ अर्थात् स्वयं विचारकर कार्य करनेवाले दूत भेजे, कितनों हीके पास मितार्थ अर्थात् कहे हुए परिमित समाचार सुनानेवाले दूत भेजे और कितनों हीके पास उपहारके भीतर रखे हुए पत्रको ले जानेवाले दूत भेजे । इस प्रकार दान और सन्मानके द्वारा पूजित कर तथा स्वयंवर का प्रयोजन बतलाकर राजाने भूपालोंको बुलानेके लिये सभी दिशाओं में अपने दूत भेजे ॥। २०२ - २०३ ।। यह सब समाचार जानकर अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाला विचित्रांगद नामका देव जो कि पूर्वभवमें राजा अकम्पनका भाई था सौधर्म स्वर्ग से आया और अकम्पन महाराजके दर्शन कर कहने लगा कि मैं पुण्यवती सुलोचनाका स्वयंवर देखनेके लिये आया हूँ ।।२०४ - २०५ ॥ ऐसा कहकर उसने राजाकी आज्ञानुसार नगरके समीप ब्रह्मस्थान से उत्तरदिशाकी ओर अत्यन्त शान्त, उत्कृष्ट, योग्य और रमणीय स्थानमें एक सर्वतोभद्र नाम का राजभवन बनाया जिसका मुख पूर्व दिशाकी ओर था, जो मङ्गलद्रव्योंसे भरा हुआ था, विवाहमण्डपसे सहित था तथा कई खण्डका था ।। २०६ - २०७ ।। वह राजभवन अनेक प्रकार की गलियों, कोटों तथा शृङ्गार करनेके घरोंसे घिरा हुआ था, देदीप्यमान था और मणियों तथा सुवर्ण से बना हुआ था। इस प्रकार उस बुद्धिमान् देवने विधिपूर्वक राजभवनकी रचना कर उसके चारों ओर स्वयंवरका महाभवन बनाया था जो कि विशुद्ध था, बड़ा था, जिसका पृथ्वीभाग अलग अलग विभागों में विभक्त था, जो चौकोर था, जिसमें चार दरवाजे थे, जो कोट तथा गोपुरद्वारोंसे सुशोभित था, रत्नोंके तोरणोंसे मिली हुई पताकाओं की पंक्तियोंसे शोभायमान हो रहा था, देदीप्यमान शिखरोंके अग्रभागपर चमकते हुए सुवर्णके कलशोंसे अलंकृत १ सुप्रजायाश्च अ०, प० । २ निजज्येष्ठपुत्रस्य । ३ केषाञ्चिन्नृपाणाम् । ४ स्वयमेव विचारितकार्यान् । ५ परिमितकार्यार्थान् । ६ उपायन । ७ वचोहरान् । - पत्रशासन-ल० । ८ स्वयंवरकार्यम् । ६ स्वयंवर - दिशाम् । १० अकम्पनस्य मित्रम् । ११ पवित्रायाः । १२ पुरसमीपे । १३ पदविन्यासान्निश्चितमध्यभागस्योत्तरे । १४ अतिगम्भीरे । १५ वरवास्तुदेशे । 'वेश्म भूर्वास्तुरस्त्रियाम् इत्यभिधानात् । १६ – भूमिपम् ल०, म० । १७ गोपुररथ्या वा । १८ शृंगारगृह । १६ 'भर्मं रुक्मं हाटकं शातकुम्भम्' इत्यभिधानपाठाददन्तः । २० सर्वतोभद्रं परिवेष्ट्य । २१ द्वारं शाल-ल०, म० अ०, प०, स०, इ० । २२ कनककलश । २३ वस्त्रविशेष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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