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महापुराणम्
दधानः स्कन्ध'पर्यन्तलम्बिनीः केशवल्लरीः। सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ॥१०॥ माधवीलतया गाढम् उपगढः प्रफुल्लया। शाखाबाहभिरावेष्टय सवीच्येव सहासया ॥११०॥ विद्याधरी करालून पल्लवा सा किलाशुषत् । पादयोः कामिनीवास्य "सामि नमाऽनुनेष्यती ॥११॥ रेजे स तदवस्थोऽपि तपो दुश्चरमाचरन् । कामोव मुक्तिकामिन्यां स्पृहयालुः कृशीभवन् ॥११२॥ तपस्तनूनपात्ताप सन्तप्तस्यास्य केवलम् । शरीरमशषन्नोवंशोषं० कर्माप्यशर्मदम् ॥११३॥ तीनं तपस्यतोऽप्यस्य नासीत् काश्चिदुपप्लवः । अचिन्त्यं महतां धैर्यम् येना यान्ति न विक्रियाम् ॥११४॥ सर्वसहः१२ २३क्षमाभारं प्रशान्तः शीतलं जलम् । निःसङगः पवनं दीप्तः स जिगाय हुताशनम् ॥११॥ क्षुध पिपासां शीतोष्णं सदंशमशकद्वयम् । मार्गाच्यवनसंसिद्धय द्वन्द्वानि सहते स्म सः ॥११६।। स नाग्न्यं परमं बिभन्नाभेदीन्द्रियधूर्तकः । ब्रह्मचर्यस्य "सा "गुप्तिः नाग्न्यं नाम परं तपः ॥११७॥ रति चारितमप्येष द्वितयं स्म तितिक्षते । न रत्यरतिबाधा हि विषयानभिषङगिणः ॥११८॥
हो रहे थे मानो उनके चरणोंके समीप विषके अंकूरे ही लग रहे हों ॥१०८॥ कन्धों पर्यन्त लटकती हई केशरूपी लताओंको धारण करनेवाले वे बाहबली मनिराज अनेक काले सोके समहको धारण करनेवाले हरिचन्दन वृक्षका अनुकरण कर रहे थे ॥१०९।। फूली हुई वासंतीलता अपनी शाखारूपी भुजाओंके द्वारा उनका गाढ आलिंगन कर रही थी और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हार लिये हए कोई सखी ही अपनी भजाओंसे उनका आलिंगन कर रही हो ।।११०॥ जिसके कोमल पत्ते विद्याधरियोंने अपने हायसे तोड़ लिये हैं ऐसी वह वासन्ती लता उनके चरणोंपर पड़कर सूख गई थी और ऐसी मालूम होती थी मानो कुछ नम होकर अनुनय करती हुई कोई स्त्री ही पैरोंपर पड़ी हो ॥१११।। ऐसी अवस्था होने पर भी वे कठिन तपश्चरण करते थे जिससे उनका शरीर कृश हो गया था और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो मक्तिरूपी स्त्रीकी इच्छा करता हुआ कोई कामी ही हो ॥११२॥ तपरूपी अग्निके संतापसे संतप्त हए बाहबलीका केवल शरीर ही खड़े-खड़े नहीं सख गया था किन्तु दुःख देने वाले कर्म भी सख गये थे अर्थात् नष्ट हो गये थे ॥११३।। तीव्र तपस्या करते हुए बाहुबलीके कभी कोई उपद्रव नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि बड़े पुरुषोंका धैर्य अचिन्त्य होता है जिससे कि वे कभी विकारको प्राप्त नहीं होते ॥११४॥ वे सब बाधाओंको सहन कर लेते थे, अत्यन्त शान्त थे, परिग्रह रहित थे और अतिशय देदीप्यमान थे इसलिये उन्होंने अपने गुणोंरो पृथ्वी, जल, वायु और
ग्निको जीत लिया था ॥११५॥ वे मार्गसे च्यत न होने के लिये भख, प्यास, शीत, गर्मी तथा डांस मच्छर आदि परीषहोंके दुःख सहन करते थे ॥११६॥ उत्कृष्ट नाग्न्य व्रतको धारण करते हुए बाहुबली इन्द्रियरूपी धूर्तों के द्वारा नहीं भेदन किये जा सके थे। ब्रह्मचर्य की उत्कृष्ट रूपसे रक्षा करना ही नाग्न्य व्रत है और यही उत्तम तप है । भावार्थ-वे यद्यपि नग्न रहते थे तथापि इन्द्रियरूप धूर्त उन्हें विकृत नहीं कर सके थे ॥११७॥ वे रति और अरति इन दोनों परिषहोंको भी सहन करते थे अर्थात् रागके कारण उपस्थित होनेपर किसीसे राग नहीं करते थे और द्वेष के कारण उपस्थित होने पर किसीसे देश नहीं करते थे सो ठीक ही है क्योंकि विषयों
१ भुजशिखर । २ अनुकरोति स्म। ३ आलिङ्गितः । ४ सख्या। ५ सहारया अ०, स., इ०, ल०। ६ छेदित । ७ ईषद् । ८ अनुनयं कुर्वती। अग्नि । १० '
ऊ र्ध्वात् पुः शुषः' इति णम् प्रत्ययान्तः । ऊर्श्वभूतं शरीरमित्यर्थः । ११ धैयरेण । १२ सकलपरीषहोपसर्ग सहमानः । १३ भूभारमित्यर्थः। १४ तपोविशेषेण दीप्तः । १५ परीषहान् । १६ नग्नत्वम् । १७ प्रसिद्धा । १८ रक्षा । १६ सहते स्म । २० विषयवाञ्छारहितस्य ।
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