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## Thirty-ninth Chapter The horses, with their bridles and other equipment removed, were sniffing the ground with their quivering nostrils, eager to roll. || 112 || Covered in dense pollen of lotuses, the horses were shaking their bodies gently near the lakes, trying to rid themselves of the dust. || 113 || The wind, carrying a mass of lotus pollen, created a beautiful canopy in the sky, as if a grand pavilion had been erected for the horses. || 114 || The great horses, disgusted by the dusty earth, rose quickly and plunged into the waters of the lakes. || 115 || The horses, covered in lotus pollen, entered the water, their bodies washed clean. Yet, they still retained the beauty of their adornment, thanks to the pollen clinging to their coats. || 116 || The horses, their fatigue gone after bathing in the lakes and drinking their fill, stood under the large pavilions, their eyes half-closed. || 117 || The camps of King Bharata's elephants were appropriately located in groves of coconut and palm trees, their tall bodies a sight to behold. || 118 || The forest floor, uneven due to the fallen coconuts, was cleared to make way for the elephants. || 119 || The mahouts, seeing the elephants thirsty and exhausted, their trunks spraying water, led them to the lakes to quench their thirst. || 120 || The mahouts led the elephants, their slow pace revealing their fatigue, to the lakes for a bath. || 121 ||
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________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व श्रवतारित पर्याण' मुखभाण्डाद्युपस्कराः । स्फुरत्प्रोथैर्मुखैरश्वाः क्ष्मां जघ विविवृत्सवः ॥ ११२ ॥ सान्द्रपद्मरजःकीर्णाः" सरसामन्तिकस्थले । मन्दं 'दुधुवुरङ्गानि वाहाः कृतविवर्तनाः ॥ ११३॥ विबभावम्बरे कञ्जरञ्जःपुञ्जोऽनिलोद्धृतः । प्रयत्नरचितोऽश्वानामिवोच्चैः पटमण्डपः ॥११४॥ रजस्वला महीं स्पृष्ट्वा जुगुप्सव इवोत्थिताः । द्रुतं विविशुरम्भांसि सरसीनां महाहयाः ॥ ११५ ॥ वारि" वारिज किञ्जल्कततान्यश्वा विगहिताः । धौतमप्यङ्गरागं स्वं भेजुरम्भोजरेणुभिः ॥ ११६॥ सरोवगाह निर्वृतश्रमाः पीताम्भसो हयाः । श्रामीलिताक्षमध्यूषुः विततान् पटमण्डपान् ॥११७॥ नालिकेरमेष्वासीद् उचितो "वर्ष्मशालिनः । निवेशो हास्तिकस्यास्य विभोस्तालीवनेषु च ॥ ११८ ॥ प्रपतन्नालिकेरौवस्थपुटा वनभूमयः । हस्तिनां स्थानतामीयुः तैरेवर प्रान्तसारितैः ॥ ११६॥ द्विपानुदन्यतः स्तोत्रं वमयुव्यञ्जित " श्रमान् । निन्युर्जलोपयोगाय सरांस्यभिनिषादिनः ॥१२०॥ नीचैर्गतेन सुव्यक्तमार्ग सञ्जनितश्रमान् । गजानाधोरणा निन्युः सरसीरवगाहने" ॥१२१॥ अंकुरोंसे सुन्दर, चक्रवर्ती के घोड़ोंकी घुड़सालें थीं ।। १११॥ जिनपरसे पलान और लगाम आदि सामग्री उतार ली गई है ऐसे घोड़े जमीनपर लोटनेकी इच्छा करते हुए, जिनमें नाकके नयने हिल रहे हैं ऐसे मुखोंसे जमीनको सूंघ रहे थे ।। ११२ ।। कमलोंकी सान्द्र परागसे भरे हुए, तालाव के समीपवर्ती प्रदेशपर लोटकर वे घोड़े धूलि झाड़नेके लिये धीरे धीरे अपने शरीर हिला रहे थे ॥ ११३ ॥ जो कमलोंकी परागका समूह वायुसे उड़कर आकाशमें छा गया था वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो घोड़ोंके लिये बहुत ऊंचा कपड़े का मण्डप ही बनाया गया हो ॥। ११४ || बड़े बड़े घोड़े पृथिवीको रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त ( पक्ष में रजोधर्म से युक्त) देखकर ग्लानि करते हुए से उठे और शीघ्र ही सरोवरोंके जलमें घुस गये ।। ११५॥ कमलकी केशरसे भरे हुए जलमें प्रविष्ट हुए घोड़ोंका अंगराग (शोभाके लिये शरीरपर लगाया हुआ एक प्रकारका लेप ) यद्यपि धुल गया था तथापि उन्होंने कमलोंके परागसे अपने उस अंगरागको पुनः कर प्राप्त लिया था । भावार्थ-कमलोंकी केशरसे भरे हुए पानी में स्नान करनेसे उनके शरीरपर जो कमलोंकी केशरके छोटे छोटे कण लग गये थे उनसे अंगराग की कमी नहीं मालूम होती थी ॥ ११६ ॥ सरोवरोंमें घुसकर स्नान करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है और जिन्होंने इच्छानुसार जल पी लिया है ऐसे घोड़े कपड़ेके बड़े बड़े मंडपों में कुछ कुछ नेत्र बन्द किये हुए खड़े थे ।। ११७॥ ऊंचे ऊंचे शरीरोंसे सुशोभित होनेवाले, महाराज भरत के हाथियों के डेरे नारियल और ताड़ वृक्षके वनों में बनाये गये थे जो कि सर्वथा उचित थे ।।११८।। जो वनकी भूमि ऊपरसे पड़ते हुए नारियलोंके समूहसे ऊंची नीची हो रही थी वही नारियलोंके एक ओर हटा देनेसे हाथियोंके योग्य स्थान बन गई थी ।। ११९ ।। जिन्हें बहुत प्यास लगी है तथा जो वमथु अर्थात् सूंड़से निकाले हुए जलके छींटोंसे अपना परिश्रम प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग पानी पिलानेके लिये तालाबोंपर ले गये थे ॥ १२०॥ जो धीरे धीरे चलनेसे मार्ग में उत्पन्न हुए परिश्रमको प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत १ पल्ययनखलीनादिपरिकराः । २ आघापयन्ति स्म । ३ विवर्तयितुमिच्छ्वः । ४ - कीर्णे ल० । ५ कम्पयन्ति स्म । ६ - निलोद्भुतः ल० 1. ७ अयं नु ल । ८ कुसुमरजोवतीम्, ऋतुमतीमिति ध्वनिः । है दृष्ट्वा ल० द० १० जलानीत्यर्थः । ११ प्रमाणम् । 'वर्ष्म देहप्रमाणयोः' इत्यभिधानात् । १२ गजैरेव । १३ स्वकरैर्भीत्याकारेण पर्यन्तप्रसारितः । १४ तृषितान् । 'उदन्या तु पिपासा तृट्' इत्यभिधानात् । १५. करशीकरप्रकटित । 'वमथुः करशीकरः' इत्यभिधानात् । १६ हस्त्यारोहाः । 'हत्यारोहो निषादिनः' इत्यमरः । अगमनेनेत्यर्थः । 'अल्प नीचैर्मह्त्युच्चैः १७ मन्दगमनेन । स्खलद्गमनेन वा । १८ अवगाह्नार्थम् । १० ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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