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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
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विषयीकृत्य सर्वेषाम् इन्द्रियाणां परस्परम् । परामवापतुः प्रीति दम्पती तौ पृथक् पृथक् ॥८६॥ प्रत्यासङगात् क्रममा हिकरणस्तावपितौ । अनिन्दतामशेषककरणाकारिणं' विधिम् ।।801. अन्योन्यविषयं सौख्यं त्यक्त्वाऽशेषान्यगोचरम् । स्तोकेन सुखमप्राप्तं प्रापतुः 'परमात्मनः ॥६॥ सम्प्राप्तभावपर्यन्तौ विदतुर्न' स्वयं च तौ । मुक्त्वैकं शेष सहैवोद्यत्स्वक्रियोद्रेकसम्भवम् ॥२॥ रतावसाने निःशक्त्योढौत्सुक्यात् प्रपश्यतोः" । तयोरन्योन्यमाभातां५ नेत्रयोरिव पुत्रिके ॥३॥ अवापि या तया प्रीतिस्तस्मात्तेन च या ततः" । "तयोरन्योन्यमेवासीद् उपमानोपमेयता ॥१४॥ भुक्तमात्मम्भरित्वेन" यत्सुखं परमात्मना । ततोऽप्यधिकमासीद्वार संविभागेऽपि तत्तयोः ॥ ॥ इत्यन्योन्यसमुभूतप्रीतिस्फीतामृताम्भसि । कामाम्भोधौ निमग्नौ तौ स्वरं चिक्रीडतुश्चिरम् ॥६६॥
तदा स्वमन्त्रिप्र हितगूढपत्रार्थचोदितः । जयो जिगमिषुस्तूर्ण२५ स्वस्थानीय धियो वशः ॥१७॥ वे दोनों दम्पती परस्पर पृथक् पृथक् सब इन्द्रियोंके विषयोंका सेवनकर परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥८९॥ अत्यन्त आसक्तिके कारण, क्रम क्रमसे एक एक विषयको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंसे वे संतुष्ट नहीं होते थे इसलिये सब इन्द्रियोंको एक इन्द्रियरूप न करनेवाले विधाताकी वे निन्दा करते रहते थे। भावार्थ-उन दोनोंकी विषयासक्ति इतनी बढ़ी हुई थी कि वे एक साथ ही सब इन्द्रियोंके विषय ग्रहण करना चाहते थे परन्तु इन्द्रियां अपने प्राकृतिक नियम के अनुसार एक समयमें एक ही विषयको ग्रहण कर पाती थी अतः वे असंतुष्ट होकर सब इन्द्रियों को एक इन्द्रियरूप न बनानेवाले नामकर्मरूपी ब्रह्माकी सदा निन्दा करते रहते थे ॥९॥ उन दोनोंने सब साधारण लोगोंको मिलनेवाला परस्परका सुख छोड़कर आत्माका वह उत्कृष्ट सुख प्राप्त किया था जो कि अन्य छोटे-छोटे लोगोंको दुष्प्राप्य था ॥९१।। जिनके भावोंका अन्त आ चुका है ऐसे वे दोनों ही एक साथ उत्पन्न हुई अपनी क्रियाओंके उद्रेकसे उत्पन्न होनेवाले एक सुखको छोड़कर और कुछ नहीं जानते थे ॥९२॥ संभोग क्रीड़ाके अन्तमें अशक्त हुए तथा गाढ उत्कंठाके कारण परस्पर एक दुसरेको देखते हए उनके नेत्रोंकी पुतलियां एक दुसरेके नेत्रोंकी पुतलियोंके समान ही सुशोभित हो रही थीं। (यहां अनन्वयालंकार होनेसे उपमेय ही उपमान हो गया है) ॥९३।। सुलोचनाने जयकुमारसे जो सुख प्राप्त किया था और जयकुमारने सुलोचनासे जो सुख पाया था उन दोनोंका उपमानोपमेय भाव परस्पर-उन्हीं दोनोंमें था ॥९४॥ परमात्माने सबके स्वामी होकर जिस सुखका अनुभव किया था उन दोनोंका वह सुख परस्परमें विभक्त होनेपर भी उससे कहीं अधिक था। भावार्थ-यद्यपि उन दोनोंका सुख एक दूसरेके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण परस्परमें विभक्त था, तथापि परिमाणकी अपेक्षा परमात्माके पूर्ण सुखसे भी कहीं अधिक था। (यहां ऐसा अतिशयोक्ति अलंकारसे कहा गया है वास्तवमें तो वह परमात्माके सुखका अनन्तवां भाग भी नहीं था) ॥९५।। इस प्रकार परस्परमें उत्पन्न होनेवाले प्रेमामृतरूपी जलसे भरे हुए कामरूप समुद्र में डूबकर वे दोनों चिरकालतक इच्छानुसार क्रीड़ा करते रहे ॥९६॥ उसी समय एक दिन जो अपने मंत्रीके द्वारा
१ अत्यासक्तितः । २ क्रमवृत्त्या पदार्थग्राहीन्द्रियैः ।। ३ निन्दा चक्रतुः । ४ सकलेन्द्रियविषयाणामेकमेवेन्द्रियमकुर्वन्तम् । ५ सामान्यपुरुषेण । ६ उत्तमम्। ७ स्वस्य। परमात्मनः परमपुरुषस्येति ध्वनिः । ८ लीला। ६ बुबुधाते। १० आत्मनौ। ११ सुखम् । १२ सहैव प्रादुर्भवन्निजचुम्बनादिसमुत्कटसम्भूतम् । १३ सुरतक्रीडावसाने। १४ परस्परमालोकमानयोः सतोः । १५ व्यराजताम् । १६ जयकुमारात् । १७ सुलोचनायाः। १८ प्रीत्योः । १६ स्वोदरपूरकत्वेन । 'उभावात्मम्भरिः स्वोदरपूरके' इत्यभिधानात् । २० परमात्मसुखात् । २१ वा अवधारेण । २२ विभजने । २३ सुखम् । २४ प्रेषित। २५ शीघ्रम् । २६ स्वां पुरीम् । स्वं स्था-ल ।
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