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महापुराणम् सुराष्ट्रषर्जयन्ताद्रिम् अद्रिराजमिवोच्छितम् । ययौ प्रदक्षिणीकृत्य भावितीर्थमनुस्मरन् ॥१०२॥ क्षौमांशुकदुकूलश्च चीनपट्टाम्बरैरपि । पटीभेदैश्च' देशेशा ददृशुस्तमुपायनैः ॥१०॥ कांश्चित् सम्मानदानाभ्यां कांश्चिद्विरम्भभाषितः । प्रसन्नीक्षितैः कांश्चिद् भुपान्विभररञ्जयत् ॥१०४॥ गजप्रवे कैर्जात्यश्वै रत्नैरपि पृथग्विधः । तमानचुन पास्तुष्टाः स्वराष्ट्रोपगतं प्रभुम् ॥१०॥ तरस्विभिर्वपुर्मेधावयःसत्त्वगुणान्वितैः । तुरङगमैस्तुरुष्का द्यैः विभुमाराधयन् परे ॥१०६॥ केचित्काम्बोजबालीकतैतिलारट्टसैन्धवैः । वानायुकैः सगान्धारः वापये रपि वाजिभिः ॥१०७॥ कुलोपकुलसम्भूतैः नानादिग्देशचारिभिः । प्राजानेयः समग्राङगैः प्रभुमैक्षन्त पार्थिवाः ॥१०॥ प्रतिप्रयाणमित्यस्य रत्नलाभो न केवलम् । यशोलाभश्च दुःसाध्यान् बलात् साधयतो नपान् ॥१०॥ जलस्थलपथान् विष्वग् आरुध्य जयसाधनैः । प्रत्यन्तपालभूपालान् अजयत्तच्च मूपतिः ॥११०॥ विलडध्य विविधान् देशान् अरण्यानीः सरिगिरीन् । तत्र तत्र विभोराज्ञां सेनानीराश्वशुश्रुवत् ॥११॥ प्राच्यानिव स भूपालान् प्रतीच्यानप्यनुक्रमात् । श्रावयन् हृततन्मानधनः प्रापापराम्बुधिम् ॥११२॥
से सेवा कराते हुए अथवा उनसे प्रीतिपूर्वक साक्षात्कार (मुलाकात) करते हुए चक्रवर्ती भरत गिरनार पर्वतके मनोहर प्रदेशोंमें जा पहुंचे ।।१०१॥ भविष्यत् कालमें होनेवाले तीर्थ कर नेमिनाथका स्मरण करते हए वे चक्रवर्ती सोरठ देशमें समेरु पर्वतके समान ऊंचे गिरनार पर्वतकी प्रदक्षिणा कर आगे बढ़े ॥१०२।। उन उन देशोंके राजाओंने उत्तम उत्तम रेशमी वस्त्र, चायना सिल्क तथा और भी अनेक प्रकारके अच्छे अच्छे वस्त्र भेंट देकर महाराज भरत के दर्शन किये ॥१०३॥ भरतने कितने ही राजाओंको सन्मान तथा दानसे, कितने ही राजाओं को विश्वास तथा स्नेहपूर्ण बातचीतसे और कितने ही राजाओंको प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे अनुरक्त किया था ।।१०४॥ कितने ही राजाओंने संतुष्ट होकर उत्तम हाथों, कुलीन घोड़े और अनेक प्रकारके रत्नोंसे अपने देशमें आये हुए महाराज भरतकी पूजा की थी--।।१०५।। अन्य कितने ही राजाओंने वेगसे चलनेवाले, तथा शरीर, बद्धि, अवस्था और बल आदि गणोंसे सहित तुरुष्क आदि देशोंमें उत्पन्न हुए घोड़ोंके द्वारा भरतकी सेवा की थी ॥१०६॥ कितने ही राजाओंने उसी देशके घोड़े घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, तथा एक देशके घोड़े और अन्य देशकी घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, नाना दिशाओं और देशोंमें संचार करनेवाले, कुलीन और पूर्ण अंगोंपाङ्ग धारण करनेवाले, काम्बोज, वाल्हीक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, वानायुज, गान्धार और बाण देशमें उत्पन्न हुए घोड़े भेंट कर महाराजके दर्शन किये थे ॥१०७-१०८॥ इस प्रकार भरत को प्रत्येक पड़ावपर केवल रत्नोंकी ही प्राप्ति नहीं हुई थी किन्तु अपने पराक्रमसे बड़े बड़े दुःसाध्य (कठिनाइयोंसे जीत जाने योग्य) राजाओको जीत लेनेसे यशकी भी प्राप्ति हुई थी ।।१०९।। भरतके सेनापतिने अपनो विजयी सेनाओंके द्वारा चारों ओरसे जल तथा स्थलके मार्ग रोककर पहाड़ी राजाओंको जीता ।।११०॥ सेनापतिने अनेक प्रकारके देश, बड़े बड़े जंगल, नदियां और पर्वत उल्लंघन कर सब जगह शीघ्र ही सम्राट् भरतकी आज्ञा स्थापित की ॥१११॥ इस प्रकार चक्रवर्ती क्रम क्रमसे पूर्व दिशाके राजाओंके समान पश्चिम दिशाके राजाओंको भी वश करता हुआ तथा उनके अभिमान और धनका हरण करता हुआ पश्चिम समुद्रकी ओर
१ सूत्रवस्त्रद्वयं पटी। २ स्नेह । ३ श्रेष्ठः। ४ नानाविधैः । ५ तुरुष्कदेशजात्याद्यैः । ६ तैतिल-आरटसिन्धुदेशजैः । ७ वानायुदेशे जातः । ८ वापिदेशभवः, पाणेयः द०, वाणये ल० । है कुलीनः । 'आजानेयाः कुलीनाः स्युः' इत्यभिधानात्, जात्यश्वरित्यर्थः। १० प्रभो- ल० । ११ श्रावयति स्म ।
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