________________
४७२
महापुराणम् प्रारक्षिणों निगृह्णीयुर्वत्तं विमतये धनम् । इत्यब्रवीत् स सोऽप्याह गृहीतं न मयेति तत् ॥२६॥ विमतेरेव तद्गेहे दृष्ट्वीपायेन केनचित् । दण्डकारणिकः प्रोक्तं मृत्स्ना पात्रीत्रयोन्मितम् ॥२६२।। शकृतो भक्षणं मल्लैस्त्रिशन्मुष्ट्यभिताडनम् । सर्वस्वहरणं चैतत्त्रयं जीवितवाञ्छया ॥२६३॥ ‘स सर्वमनुभूयायात् प्राणान्ते नारकी गतिम् । विद्युच्चोरस्त्वया हन्यतामित्यारक्षको नुपात् ॥२६४॥ लब्धादेशोऽप्यहं हन्मि नैनं हिंसादिवर्जनम् । प्रतिज्ञातं मया साधोरित्याज्ञा नाकरोदसौ ॥२६॥ गहीतोत्कोच' इत्येष' चोरारक्षकयोपः। शृङखलाबन्धन रुष्ट्वा कारयामास निघृणम्॥२६६॥ त्वयाऽहं हेतुना केन हतोनेत्यनुयुक्तवान् । प्रतुष्टयारक्षकं चोरः सोऽप्येवं प्रत्यपादयत् ॥२६७॥ एतत्पुरममुष्यैव राज्ञः पितरि रक्षति । गुणपाल महाश्रेष्ठी कुबेरप्रियसंज्ञया ॥२६॥ अत्रैव नाटकाचार्यतनूजा नाट्यमालिका।"प्रास्थायिकायां भावेनं स्थायिनानृत्यदुद्रसम् ॥२६॥ तदालोक्य महीपालो बहुबिस्मयमागमत । गणिकोत्पलमालाख्यत् किमत्राश्चर्यमीश्वर ॥३००॥ श्रेष्ठिनोऽस्य "मियोऽन्येद्य:प्रतिमायोगधारिणः । सोपवासस्य पूज्यस्य गत्वा चालयितुं मनः ॥३०॥ नाशक तदिहाश्चर्यमित्याख्यद् भूभुजापि सा । गुणप्रिय वृणीष्वेति प्रोक्ता शीलाभिभरक्षणम् ॥३०२॥
अभीष्टं मम देहीति तद्दत्तं व्रतमग्रहीत् । अन्यदा तद्गृहं सर्वरक्षिताख्यः समागमत् ॥३०३॥ कहा कि मैंने बाकीका धन विमतिके लिये दे दिया है। जब विमतिसे पूछा गया तब उसने कह दिया कि मैंने नहीं लिया है, इसके बाद कोतवालने वह धन किसी उपायसे विमतिके घर ही देख लिया, उसे दण्ड देना निश्चित हआ, दण्ड देनेवालोंने कहा कि या तो मिट्टीकी तीन थाली भरकर विष्ठा खाओ, या मल्लोंके तीस मक्कोंकी चोट सहो या अपना सब धन दो। जीवित रहनेकी इच्छासे उसने पूर्वोक्त तीनों दण्ड सहे और अन्तमें मरकर नरक गतिको प्राप्त हुआ। राजाने एक चाण्डालको आज्ञा दी कि तू विद्युच्चोरको मार डाल, परन्तु आज्ञा पाकर भी उसने कहा कि मैं इसे नहीं मार सकता क्योंकि मैंने एक मुनिसे हिंसादि छोड़नेकी प्रतिज्ञा ले रखी है ऐसा कहकर उसने जब राजाकी आज्ञा नहीं मानी तब राजाने कहा कि इसने कुछ घूस खा ली है इसलिये उसने क्रोधित होकर चोर और चाण्डाल दोनोंको निर्दयतापूर्वक सांकलसे बंधवा दिया ॥२८९-२९६॥ चोरने संतुष्ट होकर चाण्डालसे पछा कि तने
तने किस कारणसे मुझे नहीं मारा तब चाण्डाल इस प्रकार कहने लगा कि ॥२९७।। पहले इस नगरकी रक्षा इसी राजाके पिता गुणपाल करते थे और उनके पास कुबेरप्रिय नामका एक बड़ा सेठ रहता था ॥२९८।। इसी नगरीमें नाट्यमालिका नामकी नाटकाचार्यकी एक पुत्री थी एक दिन उसने राजसभामें रति आदि स्थायी भावों द्वारा शृङ्गारादि रस प्रकट करते हुए नृत्य किया ॥२९९॥ वह नृत्य देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उत्पलमाला नामकी वेश्या बोली कि हे देव, इसमें क्या आश्चर्य है ? एक दिन अत्यन्त शान्त और पूज्य कुबेरप्रिय सेठने उपवासके दिन प्रतिमा योग धारण किया था, उस दिन मैं उनका मन विचलित करने के लिये गई थी परन्तु उसमें समर्थ नहीं हो सकी। इस संसारमें यही बड़े आश्चर्यकी बात है। यह सुनकर राजाने कहा कि ''हे गुणप्रिये ! तुझे गुण बहुत प्यारे लगते हैं इसलिये जो इच्छा हो सो मांग।" तव उसने कहा कि मुझे शीलव्रतको रक्षा करना इष्ट है यही वर दीजिए राजाने वह वर उसे
१ तलवराः। २ निग्रहं कुर्युः । ३ विमतिनामधेयाय । ४ चोरः । विमतिरपि । ५ धनम् । ६ कारण: 'पुरोहितादिधर्मकारिभिरित्यर्थः । ७ गूथस्य । 'उच्चारावस्करौ शमलं शकृत् । पुरी उत्कोच गूथवर्चस्वमस्त्री विष्ठाविशौ स्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । ८ विमतिः । ६ न वधं करोमि । १० 'लञ्च उत्कोच आमिषः, इत्यभिधानात् । ११ तलवरः । १२ निष्कृपं यथा भवति तथा । १३ प्रतुष्या अ०, स०, इ०, प० । १४ आस्थाने । १५ थेष्ठिनः शमितोऽन्येद्युः ल०, अ०, प०, इ०, स० । १६ नरामर्थोऽभवमहम्। १७ वाञ्छितं प्रार्थय। १८ उत्पलमालागृहम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org