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________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३७३ आकृष्ट दिग्गजालीनि' बकुलानि वन वने। हानौ गुणाधिकान्यासंस्तुलितानि कुलोद्गतः ॥ कीडनासक्तकान्ताभिर्बाध्यमानाः सगीतिभिः । आन्दोलाः स्तम्भसम्भूतैः समाक्रोशशिव स्वनः ।।२२३॥ सुन्दरेष्वपि कुन्देष मधुपा मन्दतृप्तयः। माधवीमधुपानेन मुदा मधुरमारुवन् ॥२२४॥ भवेदन्यत्र'कामस्य रूपवित्तादि साधनम् । कालैकसाधनः सोऽस्मिन्ना वनस्पति जम्भते ॥२२५॥ नरविद्यापराधीशान् गत्वा "तत्कालसाधनात् । दूताः स्वयंवरालापं सर्वास्तान् समबोधयन् ॥२२६॥ ततो नानानकध्वानप्रोत्कर्णीकृतदिग्द्विपाः । निजाङगनाननाम्भोजपरिम्लानिविधायिनः ॥२२७॥ "वियद्विभतिमाकम्य विमानैर्गतमानकैः । सद्यो विद्याधराधीशा द्योतमानदिगाननाः ॥२२॥ सुलोचनाभिधाकृष्टि विद्याकृष्टाः समापतन् । कामिनां न पराकृष्टि विद्यागक्त्वेप्सितस्त्रियः ॥ होने के कारण ही मानो जड़, स्कन्ध, मध्यभाग और ऊपर-सभी जगह सुगन्धित फूल धारण किये थे ॥२२१।। जिन्होंने दिग्गजोंके भ्रमरोंको भी अपनी ओर खींच लिया है और जो उच्चकुलमें उत्पन्न हुए बड़े पुरुषोंके समान हैं ऐसे मौलश्रीके वृक्ष प्रत्येक वनमें अपनी हानि होनेपर भी गुणोकी अधिकता हो धारण कर रहे थे । भावार्थ-जिस प्रकार कुलीन मनुष्य हानि होनेपर भी अपना गुण नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार मौलश्रीके वक्ष भी भ्रमरों द्वारा रसका पान किया जाना रूप हानिके होनेपर भी अपना सुगन्धिरूप गुण नहीं छोड़ रहे थे ॥२२२॥ जो गीत गा रही हैं तथा खेलने में लगी हुई हैं ऐसी सुन्दर स्त्रियां जो झूला झूल रहीं थीं और उनके झूलने से जो उनके खंभोंसे चूं चूं शब्द हो रहा था उनसे वे झूले ऐसे जान पड़ते थे मानो उन स्त्रियोंके द्वारा पीड़ित होकर ही चिल्ला रहे हों ॥२२३॥ जिन्हें कुन्दके सुन्दर फलोंपर अच्छी तृप्ति नहीं हुई है ऐसे भ्रमर माधवी (मधुकामिनी) लताका रस पीकर आनन्दसे मधुर शब्द कर रहे थे ॥२२४॥ वसन्तको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें अच्छा रूप होना आदि भी कामदेवके साधन हो सकते हैं परन्तु इस वसन्तऋतुमें एक समय ही जिसका साधन है ऐसा यह काम वनस्पतियों तक फैल जाता है। भावार्थ-अन्य ऋतुओंमें सौन्दर्य आदिसे भी कामकी उदभति हो सकती है परन्तु बसन्तऋतुमें कामकी उद्भतिका कारण समय ही है । उस समय सौन्दर्य आदिका अभाव होनेपर भी केवल समयकी उत्तेजनासे कामकी उद्भति देखी जाती है और उसका क्षेत्र केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रहता किन्तु वनस्पतियों तकमें फैल जाता है ॥२२५॥ उस वसन्तऋतुकी सहायतासे उन दूतोंने भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके पास जाकर उन सबको स्वयंवरके समाचार बतलाये ॥२२६॥ तदनन्तर अनेक नगाड़ोंके शब्दोंसे दिग्गजोंके कान खड़े करनेवाले अपनी स्त्रियोंके मुखरूपी कमलोंको म्लान करनेवाले, सब दिशाओंके मुखको प्रकाशित करनेवाले और सुलोचना इस नामरूपी आकर्षिणी विद्यासे आकर्षित हुए अनेक विद्याधरोंके अधिपति अपने अनेक विमानों से आकाशके विस्तारको कम करते हुए बहुत शीघ्र आ पहुंचे सो ठीक ही है क्योंकि कामी लोगों को अपनी अभीष्ट स्त्रियोंको छोड़कर और कोई उत्तम आकर्षिणी विद्या नहीं है ॥२२७-२२९।। १ आकृष्टा दिग्गजगण्डवर्त्यलयो यस्तानि । २ पुष्पामोदत्यागे सति । ३ गन्धगणाधिकानि । उपकारादिगुणाधिकानि । ४ सदशीकृतानि । ५ विशुद्धवंशोद्भूतैः । ६ आक्रोशं चक्रिरे । ७ ध्वनन्ति स्म। ८ अन्यस्मिन् काले। ६ स्त्रीपुंसां रूपधनभूषणादि । १० काल एक एव साधनं यस्य सः । ११ वसन्तकाले । १२ बनस्पतिपर्यन्तम् । १३ वर्धते। १४ वसन्तकाल।, १५ आकाशविस्तृतिम् । १६ अपरिच्छिन्नप्रमाणकैः । अपरिमितरित्यर्थः । -ततमानकैः ल०, म०। १७ सुलोचनानामैव आकर्षणविद्या तया आकृष्टा आकर्षिता । १८ आगच्छन्ति स्म। १६ आकर्षरगविद्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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