Book Title: Jain Kumar Sambhavakhyam
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Acharyarakshit Pustakoddhar Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनाय नमः ॥ अनन्तलब्धिनिधानाय श्री गौतमस्वामी गुरुभ्यो नमः ।। अंचलगच्छस्थापक आर्थरक्षित गुरुभ्यो नमः श्रीमज्जयशेखर सूरिविरचितम् श्री जैनकुमारसंभवाख्य महाकाव्यम्--टीकासहितं च ॥ - प्रशाशयित्रि :जामनगर श्री आचार्यरक्षित पुस्तकोद्धार संस्था. : मुद्रिता : जामनगर श्री जैनभास्करोदय मुद्रणालये जेसंगलाल हीरालालेन मुद्रयित्वा. भूल्यम् ४-०-० ibor Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनभास्करोदय मुद्रणालय आशापुरा रोड-जामनगर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुज्ञ महाशय! आ "जैनकुमार संभव" नामर्नु अति अद्भुत तथा काव्य चमत्कृतिवालं अने साहित्यरसथी भरेल रमणिक काव्य छे. आ काव्यना का अंचलग दिनमणि कवि चक्रपक्रधर पूज्य आचार्य श्रीमज्जयशेखरसूरि छे. प्रस्तुत फविश्वर अंचलगन्छनी ५६ में पाटे थयेला पूज्य भटारक श्री महेंद्र प्रभसरिजीना शिष्य इता. तेओश्रीनी साहित्यसेवा अनुपम छे. तेओए रवेला उपदेशचिंतामणि, प्रबोधचिंतामणि, धमिल चरित्र आदि ग्रंथो तेमनी अद्भुत कवित्वशक्ति अने महा विद्वता प्रगट करे छे, आचार्य महाराज विक्रम संवत् १४३६ मां विद्यमान हता. आ कविश्वरने सरस्वती देवीए वरदान आयु हेतुं, एम तेमना “ वाणीदत्तवरश्चिरं " इत्यादि काव्यश्री खुल्लु जणाइ आवे छे. जेम प्रखर महाकवि श्री कालीदासे कुमारसंभव नामर्नु काव्य रचेल छे तेम आ कविश्वरे जैनकुमार संभव काव्य रची साहित्यनी अपूर्व सेवा बजावी छे. । प्रथम आ ग्रंथ मूळ श्लोक अने तेनो गुजराती अनुवाद जामनगर निवासी पंडित हीरालाल हंसराज पासे करावी संवत् १९५७ मां श्रावक भीमसी माणेके प्रसिद्ध करेल हतो. त्यारपछी ग्रंथावली विगेरेमा तपास करता मा ग्रंथ उपर आशरे ८०० श्लोकनी टीका उपरोक्त कविश्वरेज करेल छे परंतु प्रति कोइपण जग्याए उपलब्ध थती होती त्यारबाद एक प्रति सुरत आनंदपुर पुस्तकालय मारफत मळतां तेनी प्रेसकोपी पं० मणिशंकर छानलाल पासे करावी एटलंज नहिं पण सिद्ध हेमना व्याकरणना शब्दो केटमां आपी वधु स्पष्ट करेल छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रंथ अगीयार साँथी विभूषित थयेल छे आ काव्यमा रुषभदेव अने भरतकुमारचं वर्णन आपेल छे, पळी लौकिक विवाह विधि वगेरेनुं वर्णन आपीने कविश्वरे (पोताना) समयमां पण चालता लौकिक रीवाजोथी आपणने पाकेफ करी आपणापर मोटा उपकार करेल छे. आ ग्रंथ प्रसिहमा लावा माटे पूज्यपाद पंन्यासजी महाराजश्री दानसागरजी महाराज तथा तेमना शिष्य नेमसागरजी महाराजे सतत् प्रयत्न करेल छे. ग्रंथमा प्रेसदोष अथवा बीजी अशुद्धिओ माटे क्षन्तव्य गणी सूचना करवा नम्र विनंति छे. ॐ शांतिः शांतिः लो० संवत् २००० वसंत पंचमी. बालुभाइ हीरालाल, आ प्रति आनंद पुस्तकालय तरफथी मळतां तेमनो उपकार मानवामा भावे छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पंक्ति: : अशुद्ध 9 ४ श्रीमद् ५ , २ ス २ " " ०८ ५ " ५ ६ >> ७ "" V " 29 " ९ "" ९ "" १० 31 33 " "" ૨૩ १७ ८ ९ दिग्मण्डले दिझण्डले १६ पूजात्सव पूजोत्सव १६ भदष्ट अद्दष्ट २३ सुम्दर सुन्दर १८ मेध मेघ २ कर्मणाः कर्मणोः ક્ प्रत्ययाश्च प्रत्ययश्व ५ सिद्धि सिद्धि १११ 101 प्रतिममा प्रतिमना गुपी (गुपी धातो धातो. (४-४-२९ शिति शिति ( ३-४-७० ) तनस्ये तन. क्ये १४ २४ " ? ज्ञेयः । " २ स्फुलिगै १४ प्रत्याहा प्रत्याहार सारदा शारदा विवृत्ति- विवृति सारखा शारदा मिच्छून शुद्धिपत्रकम् । २ श्रिय १० याश्चाया ૧૧ १४ २४ शुद्ध श्रीमद टयणू २३ (४-२-६७) ज्ञेय: ) स्फुलिङ्ग: मिच्छून् भ्रिय याच्जाया दण् ३३ २-१-१०९-२-१-१०९ पृष्४ पंक्ति: अशुद्ध ,, २ तनुज ८ नावे, भावे, ५-१-१३६ १५ दिच्छू. ૧૬ उहिते ३३ ,, ૧૨ ૧૩ " १४ 33 १५ ૧૬ १७ "" १८ १९ در 35 " "" २१ ܕܕ 37 २० २२ १६ " २७ ૧૪ २३ २५ २५ " ७ उपविश्य इन्दो तन्दा ९ दष्टवा ९ श्रतो ሪ मिर्व्यथ. ४ लिपु धुलिपु किशळ्यः किसलयः १७ ૧૮ ४ ७ १० "" २६ ७ २० २८ "" १३ तत्वे २१ एतै ८ शुद्ध तनूज सुष्टु सुष्ठु पदार्थे दृष्टि पदार्थे दृष्टिः र्यस्य यस्य त पुतेः औचिती औचिती चन्द्रश्चरण चन्द्रचरण नाम्न नाम्नः प्रमान्वु प्रभाम्बु १ समाहारेच समाहारे शेषः विशेष. सटक् सद्दकू कोदशो कीशो ५ उदक उदकस्य १२ मृदु २२ नस्या दिच्छुः સાંવતે उपवेश्य इन्द्रो तन्द्रा हा श्रतो मित्यर्थः मूहु तस्या Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्४ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३० १७ दारिद्र दारिद्य । ४९ ७ लक्षणा: लक्षण: ७ गहोज महाजः | ५० ७ च । च ३-१-२२ ,, १० छलात् छलात् | ५१ १ हस्वः स्वः४-१-३९ ३३ १५ स्वनादेडीः स्वस्रादेडीः ३ औः औ.(४-२-१२. " २२ र सः र. सः ५२ ५ भजन अञ्जन ३५ १७ इ सू ड इ. सू. डः | ५४ ४ आवश्यत् भावयत् ३७ २१ भुभार भूभार १६ भणे ये कण अणेनेयेकण ३८ १३ च च.३-२.१११ (२-४-२०) १४ स्वतल त्वतल 3-1-५५ ७ वारीणि वारि ७ षष्टीन्द्रे षष्टीन्द्र , १८ श्रमत्य श्रमस्य , १७ ते ते ते तैः " २० पुसीति पुसीति , २० या यो । (४-३-९५) १४ याद्वेद यावद्वेद ५६ २ रतामा स्तासां २३ अपु० तु अपुछ तु , १३ सित्यन०यय खित्यनव्यय ५१ १५ ध्यैधातो ध्येधातो (३-१-१११) १२ १८ ७७ ॥१॥ ७७ ॥ १ ॥ ५७ १ पकारः यकार: सूरिश्री श्लोक - , ५ परोक्षा परोक्षा ४-१-१ , २० सभव संभवमहाकाव्ये ५८ ९ धनः वनः ,,, रो उपाध्याय रोमहोपाध्याय ५९ ३ घन घनः ४३ ६ रिन्द्रिस्य रिन्द्रस्य ५९ १३ कि १५ लेन छलन , २२ मि. म् इ.६-३-१६० २३ य-म यन्म ६ स्वरादेः स्वरादे:२-१-११४ ३ दौषधि यदौषधी , २० भ्रस्यति अश्यति ,, रदित रर्दित ४५ १ धेनुज धेनुज ( , ७ देडी दे : ४६ ५ यशा यशो ,, १३ द्वया या ४७ ६ मयोगे संयोगे , १७ मम्धकारं मन्धकार ४८ १ तैदेवः तदेवैः ६३ ३ ठादि ऊर्यादि, ११ समुदय समुदाय । ,, २१ अणेभेये अणे ये२४२० , १८ स्वार्थे स्वार्थे ६४ १० भ्यादिभ्यो झ्यादिभ्यो कि m Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० (३) पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध । , २० वसू वम् ५ वेश्यतु वेष्यति , २३ स्थाप स्या , १३ मधे भरे ६५ ३ मृष्य वृष्य र १८ पुष्य पुष्प ,, ११ जातीय जातीय , २३ वात् वाक् १६ गुजा गुञ्जा जननाय जननाप १० खडी च खड्डौ च धैर्य धैर्य ५-१-१४६ १४ स्त्रयः खियः । , १२ नगरासू नगरीपू " , तेषां तेषां , १३ मन सन्न। १७ कोदृकुट्टने कोहकहने ९ मन्दरा मन्दारा प्रोढानि प्रौढानि १७ ९ सूबन स्रवत् ५ ददित ददितुं " , मधुर्म मधुम मधुम ७ लिलत ललित , १४ किं कि० , २० जनेह: जनेर्ड , २० छत्र छत्र , २१ हलधूम धूम , २१ कि कि० ७६ २ तल तल ६९ १ रिद्र. रिन्द्रः ,, ,, तहनः नतः १० स्सस्त समस्त ,, २२ पीक प्रीक २४ धाय धान्य ७७ १९ उनता जनता पारग पारग ७८ १४ प्रत्वयः प्रत्ययः , १० कौकत् कोःकत् । , १५ दिशितः दीशितुः , १६ मन मनः , १८ पाप पापं , २१ श्चादि श्वादि २१ शचीशच शचीश ७१ ९ शीड शीह। " , संपद् संपद १४ इ म. इंसू " २३ नानां नाणां २० हेना य हे नाथ ८० ४ यताः यत्ताः ७२ १८ धारयति धारयति ८० ११ संचिद ७२ १० सुत्रणां सुत्रणां । , १६ धान्तो घान्तो २२ सूत्रणा , १९ धना , २३ भावे भवे । लक्षणा लक्षणः ७३ २ पूर्वता कुर्वता " , निर संविद् યુના लिए Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ૧ "" 36 , ८२ " "" " ८३ 37 ८४ " " " ८४ "" 36 " ܐ 27 "" ८६ "} " 37 पंक्ति अशुद्ध कात را 3 Cu अमि ૧૩ १५ धतोः २६ सर्गातु ខ मपि ५ यथाई १३ 33 ८५ ३ हवाचाम. ४ स्वरादे ७ गोचर धान्तो आहवया क्वं ऽयमाद्यो शुद्ध कात् अभि २ प्रासाद ॥१॥ ॥ २ ॥ धातोः सर्गात् तृतीय सर्गः । ચ यथार्ह द्वितीयो १९ ऽस्यघ. १९ तथोदशि प्रसाद इर्तु सर्गः 3 ૨૧ ચત્તુ ૧ सर्ग २ मोडतो मोऽन्तो 2 वेश्यतित्तु } मस्यौ | वेष्यति तु ८ वर्त्तते वर्त्तते ९ इन्टोचन्द्रो इन्दो हस्य व तथोर्व. ( ४ ) ह्वावामः स्वरादे गोचरः वान्तो आह्रा 审 ८ १५ ૧૮ ૧ स्वशात्तया स्वशक्त्या ९ शप्तया शक्त्या १३ गृहणन्ति गृहन्ति १५ रचितु रक्षित १९. त्रिशब्दात् द्विशात् पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध सर्ग २ सर्ग ३ ८७ , ४ राधारि ५ गृह्यति ९ ५ " 1. "" ८८ "" "" ८८ ૧૬ रष्ट " ८९ ९० "" ९१ "" 19 " 29 " ९२ " >> "" " ܝܕ ८३ ९३ ९४ "" ९५ در "" पूर्वक जीविता भित्र मित्र १० १५ सदूधातोः सदुधातोः लिवा २० यत्तेतां नोह. २३ ५ उच्छलमरभि उच्छल दुभ्रमरमि મહુ ५ तीति राधारे गृह्यते ૧૭ न वा १९ क्विं प्रपूर्वक जीवितानि ४ धेनुस्या ५ गतौ ૧૨ कौशा रष्ट लिता यतेतां मोहः बहू स्तीति वा क्विप् धेनुष्या गतो कोशा "" ,, १६ ट्र्यापारयति यापारवतिः निर् २.२ निर १२. ण्यणे ण्यणो २४ सन्यश्च सन्यश्व " 19 यायावर. ययावरः, ५-२-८२ इति २४ अनुपक्क लोक. अनुषक्तलोक २ स्थित्ति ९ लस ૧૦ स्थिति. लम् ३-१-५८ ७-१-५८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १६.४ न्यायोऽवत्र न्यायोऽत्र १०५ २१ मूद् मृद् , ,. ५-३-९१ द्वारादेः ७-४- १०६ ५ रत्नां . रस्नानां ६ दौवारिक इति सिद्धम् । ८ ताती तीत , ९ स्त्रियांक्तिरित्यारम्यस्त्रियांभा- , १० संयुक्तानि संयुक्तानि वेक्तिरित्यस्य स्थाने, तन ८ मञ्जमों मझेनौ नियुफे इत्यारम्भ भौकारः भन्न् भन्न इति पाठः ज्ञेयः । । चन्द्रन चन्दन , १९ तत्र नियुक्त इत्यारम्य-औकारः સપ स इत्यन्तपाठव स्थाने नवमप- , २२ पुण्य पुष्प हिक्तपाठः ज्ञेयः। १०८ , पूर्व पूर्वकपा ૨૭ ૧૨ નિવૃત નિવૃત ' , ४ हस्त्यु हरत्युत् " , भावो भावः । __" ५ प्रागतत्त्वे प्रागतत्तत्व ९८ ३ शस्त्रा शत्रा , १३ परारे त्नः परारेः त्नः ६ उर्मि अमि , २४ बुदया बुद्धया । ३ र लकार: रस्थलकारः १०९ १ काश्मिरं काश्मिरे १०० १ च्यर्थे व्यर्थे ,, ९ लक्ष्ये लक्षे , ३ इच्या ईच्चा १० , गृहणाति गृहाति , २। यैकथि यकार्थि , २ भन्विष्यति अन्विष्यसि ,, २४ सहूत मुह , ५ मुञ्चति मुञ्चसि १०. . हल्लेखा हल्लेखित ,, ७ द्ववादि द्वयादि , २६ मिनी मिनो ,, १० पश्यसि पश्यति १०२ , वा वा १२ , चुम्ब ८ श्वादि १४ ३ यत्मात् । यस्मात् ०३ १६ वेलं प्राप वेलमा कुम्म ,, २४ दिव न दिवं , १० १०४ ५ ताश्वताः ताश्चताः ११५ ६ धारा पूरा ,, १८ ऋत्रिमः कृत्रिमः ११६ १० देडी। देसः १०५ ३ किन कित्। ,, १२ ज्यां डयां , ६ एप एष ११७ ५ शब्दाशब्दात् , १८ तस्व , ध्यन्त अन्त्य चुम्ब श्रवादि " " कुम ६श तस्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" पृष्ठ पंक्ति: अशुद्ध शुद्ध ११८ 8 सिम्नि सीनि स्वरादेलोपः स्वरादेलुक् २२ रोहता रहता १ करणमूले करमूले ४ भन्योः भटयोः धाधातोः कः दाधातोः किः व्यरचीति d त्रभुवनेति त्रिभुवनेति و ११९ "" ૧૧૨ 33 "" "" १५ इह २४ त्रिभुवन 19 ૧૨૦ ૧૬ તદ્દો ૧૨૧ ૧ जन 27 " "" " " 33 " १२३ २ हय 39 در ૧૨૪ ७ 35 ૧૨ १२५ ५ वृत्य १८ कादि २१ रचितस्य २२ काव्यस्य " मरवांश ૧૦ मिश्रित ૧૬ कलकलः ३ १७ कुर्वतो "" १२७ २० स्वां १२९ ७ અતિજ્ઞ d ત્રિમુવન તચો S जन ८ निष्चि २२ सादीनां सादिनां ३ रत्वं રેવ ૨૨ રતહેવ स्तदेव १२६ १९ पाणिस्राः पाणिर्हस्तः कुर्वती तां उद्धृत्य लादि रचिते काव्ये छ्य मखांश मिश्रितः कलकलः (गोत्रजं ) निश्छि (६) भनेन ૧૪ डिव्यन्त दिव्यस्य पृष्ठ पंक्ति: १२९ १६ दीर्घश्चि "" १३० "" " >> ૧૨૧ 29 99 ૧૨૨ ,, " - " "" ७ २० दूनत द्वान्त मूर्ध्नि भूनि भविष्यर्थे भविष्यदर्थे १२ ૧૩ २२ "" ५ १. गुळ ४ २० २३ २४ "" १३३ ४ अशुद्ध शुद्ध ५ ३ मोधा ४ ૧૧ "" ૧૨૪ ૧૭ १३५ २३ २४ " ૧૨૭ ૧૮ मूर्ध्नि वारिणां गुण गांगागाः गाङ्गाः वीचयः मोवा स्वभावतः त्वरी कलङ्कः तत् दुष्ट्या मुकुट कलू पीचयः दीर्घदिच्च " २३ भ्रभु १३८ १२ ऐगवणः १३९ ७ इषद १४० २० छद्म ૧૪૧ ૧ व्रवॄः मूर्ध्नि वारिणो वभावतः વાર कलक : तत दृशा मुकुटः कुलू समुज्वला समुज्ज्वका तत् तत् परिष्कृता परिष्कृत मति मिति "" १४२ १६ सरि अमू ऐरावण: ફેબ્રુવ च्छ ववृः १४ विरक्तिसायम् विरक्ति संशयम् १५ मिमान भिमान सरी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કો पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १४२ २३ यासा यासां १५० १५ गर्जितो गर्जितोजितो १४३ २२ किं किं कि ,, २२ यड् यह " , रूढी १५. ४ बहिं बहि १४४ ९ भरक मरक ६ ५-२-४ ५-२-३ , १० , " ९ सन्यस्व सन्यश्व , १५ अभूत्यु अभूत्पु , २० मान मानः ,, ૧૨ તપો તો , २१ मुखित मुषितं , ૨૨ શ્રવણ શ્રવણ , २२ भाप d २५ हस्तरत हस्तस्त , २४ तिस्थे तिसार ૧૪૩ તદિષ્ણુતા સહિષ્ણુતા १५२ १ मुखित मुषित , ११ घुसञ्चये घुसमुच्चये लक्षणया ,, १३ तेषा तेषां , २५ निघेहि निधेहि १४६ ११ पुजः पुनः १५४ १६ युगं , २१ पुरी पुरो- १५५ १६ विनचि व्यनज्मि १४७ ४ मम्मुहत् अमूमुहत् ,, १७ तय। तया , ६ प्रसिद्धः प्रसिद्ध , १९ २५ । ५। , १६ गमद् गमृद् ,, २. युतं च्युत १४८ ६ पटपना षट्पदा १५६ ४ पूर्वापरा इत्यारस्य। , ७ कल्पास्य कल्याणस्य पुरभादेश इत्यन्तं , १८ पश्यम् वश्यधर्म्यम् । , १२ च्छ्वासत् च्वसत् , १९ जवणे अवणे , २३ इन्छया इच्छया ३ ४-२-८ ४-२-४८ १५७ ६ - विहिताम्रहः विहितामा " ६ तनूमन्तः तनूमन्त.. १५८ ६ च तया , १८ देब्णिति देब्णिति , ९ भतुर्वि भक्त वि , , आवि भादि । , २० संघौ सन्धौ ६ संहवा संहतो , २२ पात्रं पानं , १२ क्षुब्धः क्षुब्ध ૧૫૨ ર ય ત્ય " , फाण फाट ,, १० जैनी जैनी __40 વૃદ્ધ टितम् रिताम् , १३ : निट् । , १६ ७-१-१११ ७-१-११ , १६ लक्षया . . . . . . . . १४९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १५९ १८ श्रुत्सस्य क्रुधूमम्प १६० ५ यच्छीयाञ्चल दुश्चल रचितस्य रचिते काव्ये " काव्यस्य १ ૧૬૧ ૧ कराभ्यं " " "" "" "" ,, १६२ " "" " "" ७ इति ૧૩ चर " १६३ १५ राजते कराभ्यां १ आपपूर्वक अपपूर्वक ७ आप्शब्द माभि वेत्तुं १४ मणि २० घृणयो ५ सद्धिना "" १६९ ૧૨ " " ૧૬૪ ૧૬ वधूच २३ वंश " ૧૬૩ ૧ उत्पात्य उत्पादय ९ भूधारा: भूधराः "" ૧૬ ३ अन्त्यास्व अन्त्यस्वरारालोदेको स्त अग्ने देहः स्थाने ३ रतं अग्नि "" ૧૬૭ ७ स्थाना ६ १२ देह 11 यस्व "" ૧૬૮ ૨૦ काटयः २४ तैरत ७ क्sिति अप्ाब्द मभि चेतु मणी १९ षद्भि घृणयः सद्भिर्ना नु इति वर राजे वध्वौच वंश यस्य कोट्यः तैस्त (८) क्षिति पद्मि पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ૧૯૭૦ ૩૭ रंग रम्मा ૧૭૧ ૧ नाम्नाः ता+नः ૧૦૨ ૧૧ तयर्थात् क्त्यर्थात् २३ " ૧૦૨ "" 34 " १७४ " १७८ " ૧૧ " ૧૦૬ ૨૧ " ܕ ૧૮૦ " २२ उच्छ्वा ૧ लुटित ५ अठ्ठ २० यस्या. "" १७९ ४ धातो. "" " " " ૧૮ .. ७ "" "" १८० २३ १५ ૧૭ ६ नृपु घीनं ૧૭ ૧૧ ट " "" वीच्यः अनध कलान तेत्रे "" १०१ ५, निधो دو चाटु कृच्छ गततेव युगलं 29 ૧૦૨ ૧૨ ૧૪ २५ असं मुवृतं निमित्त त्याधा ६ ሪ મવ ૧૭ युग्म धिण्ण्य जथो नृपु धीन 23 " वीचय अनघ कला, न મૈત્રે उच्छ्व लुठितं अबद्ध यस्याः धातोरु चटु कृच्छ्र गतमेव વામજ ट: સુવૃત્ત अंस निघो निर्मित 'त्याधाना मत्व युग्म धिष्ण्य अथो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पक्ति अंशु शुद्ध १५ १८३५ः इन्द्रः , , वाक्पतिः वाक्पतिः " . दुष्पावा दुपापा , १ दाम्यूशस् टावश , '१५ मिह मिह १८५ २ बम बम ६ वधूयं मधूय पृ० fo मशु १९१ २२ मेण . , बेणे . १९३ २ भाषा भरला । १९. . रचितस्य गते । , १० काय काम्बे . पचमः सर्ग;' १९६ ५ बातो भातो १९. । मतोमो मतोमों , १५८ २ खनादेही- स्वस्रादेही ८ बार वाद । " १२ दवलपवलं ।' , १८ सनिसान ,, तृतीया' तृतीया । १८५ १८ गपाय मणय १८६ . होपात् दोषात , " पालु वालु सत १८७ १ प्रथम प्रथम टीवात टिस्वात् " १२ दायदा ,, १५ सता . १९ सुश्रुवा सुवा , २३ सनं १८९ १८ भुझे भु " २२ प्राक् प्राक १९० ५ मे मेत्र । १४ धातोश भातोई . , १४ कप्टै कष्ट - माहि माहि १९१ १५ इया क्या , २, बुद्धि बुद्धि १९२ १२ तुप्यति तुष्यति ,, १९ श्रेषण २.८ २ बिग्म विश्व १५ चान्दो चान्द्र २.१ . क्षणचि लक्ष्मणधि .. १ पाप्रित पापित २.२ ११ मोगि भोगि । २०३ . राम · रामा " २०. २४ मगवान् भगवान् , २५ नर्भण. नर्मणः २०५ १० मतिबुद्धि मतिदि ,, २५ कंदर्प कंदर्प. । २०६ ७ 'जत अत . ८ वासि । निवासि , १० तस तस्याः , १९ काम काम २०८ २ . स , २५ . प्रत्ययः . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) राणया क्ल यर पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुभ .. ४ पंणि अनु शुद्ध । २१० नया । २१७ १८ देव देय , ,, ७ वी , २६ मन्दोः सन्नः , 4. नीलि नीलि । , २५ शै-यं शेय , ११ प्रामाति प्राप्नोति । ___ " " टयण टयण १३ कलव २१८ ! मृदुता पुन ३ तत्य तस्स , ९ द्वावामः द्वाचामः ४, उत , ११ स्त स्तं , ८ छाया छाया . २१९१४ भस्य यस्या ,, ११ ते , १७ पुपुपे पुपोष , २३ स्वरं । , २५ चसौ . चासो २१२ ७ पुण्यम पुण्यप्र | २२० १ वहीं वल्ली ,, १८ , वासी श्वासी श्रेणय श्रेणय २१३ २. पराव परावे " ५ पुटयर्थ. पुण्यर्थ ४ जत्म भात्म , जलौघैः जलोवैः , १६ सूर्य . सूर्य । ,, ८ वातो. भातोः . 1, २२ वजन व्यञ्जन २१ पासधाराः नगरधारा: , २२ किरिव " ,' पारीणां पारिणां २१४ ११ रतं . स्त , २४ तस्य खस्य , २५ वर्ण वर्ण , २५ श्यन्त, प्यन्त २१५ २.. अदिताया अद्वितीया , २२१ २ ये पि धनान्यपि २१६ २ स्थग स्वर्ग , ११ साल भास्वा २२३ १५ , माम साप्त । १७ उदञ्चउच्चा भवञ्चचा । २२४ १० वर छवि. ५२ छविः , २२ श्रीकप श्रीमान ૨૨૫ ૫ टित्वात् अणतत्वात् २१७ ९ परि . पारे , ७ विपुलस्यभाव विपुलस्य , १०, निमा निष्प्रा , ११ गाहार. गाहारविहार , १६ अन्त . अन्तः , १२ भितिः भीतिः , १९ डिा , क्रिडां ૨૨૬ ૭ ૧૧૪ ૧૨૦ , ,, प्राभेत प्राग्रेऽन्त , १०. गरम. . , गर्भ , २१ सोम्य - सौरम्य . १८ पछीय . . d घय-त्या घान्त्वा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति अशु शुद्ध . | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध' . ' २२६ १८ गितम्य गविते २३७ २४ " समद्वि समृदि , ९ दाव्यत्य . काय ,en४॥ युस्मान पट-सप्तमः सर्गः । २३९ ५ ना । नपुभक २२७ १२ लसा तासां रला म्ला २२९ १ सर्ग ६ सर्गः ५ , ९ लनेक भने २२९ १८ स्फटि स्फाटिक , , वीनां , कवीनां २३० ८ वासप्य वामत्व , १३ . सावः साधवः , १९ प्रामवती । प्राप्तवती , २६ पृष्ट प्रष्टः २३० २६ हस्ता, हस्त २४० १७ दीव्यत्या दीव्यन्यो । २१ १ सर्गः ६ सर्गः ४ २४१ १३ आधारधार आधारभर 3, १४ 'सस्वीः सखी. १७ - आधार आधार , १५ सुस्वा सुचा ,, २५ रमश्रु । मश्रु " २० एकात्त एमान्ते २४२ ४ धातो भाचे धातोभीवे . (१) सर्गः ६ सर्ग. ७ , २० ए ए( । २४३ स्वना स्वतार । , १ घन व्यण , ,, १० पुप्प पुष्प ., १२ नेत्राणि नेत्राण्येव २११२४ ता ताः ,, २३ उत्सव उस्मनः २४५ १५ दिष्करी विविध , २४ दण्डम, दण्डम , १६ ., २३४ (१) लर्ने. सर्गः ७ २४६ । २ , १५ स्पर्धा सवा , १२ धरः धार २३.५ ४ छोडा वेडा " १२ धर धार , २५ प्रती नति ,, १८ विद विद् २३६ ६ नस्यः तस्यः । २४७ ९ रभम राम , ११ ३॥ ३१॥ युग्मम् । पाप्यमाना प्राप्यमाणा , १७ प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष , १५ विभागिनी. विभागिनी ३७॥ युरमम् । २४८ २१ दिठे .. दिष्ठि , ३ अखक भग्वण्ट , २४ सि विसं , ११ ज । जेचं । २४९ १ दिव्य .. दीव्य ११. रणेन रणेन - ३. दिव्य दील्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति अशुद्ध २४९ ३. निरुद्ध ६ कान्ति ૨૨ काश ܙܕ 31 २५० लिन ५ २५० १७ " >> 34 27 २५४ कास क्लिन श्रीमदीय श्रीमद १८ विरचितस्य विरचिते २५१ ५ સુર ૧૪ शान २५३ 70 देवीः SP ፡ २५५ २५ ૨૧૭ ૧૩ ૧૬ "? ૨૦ ૧૦ मध्प 3. ૨૧૨ ૧ काव्यस्य काब्बे अनुभ, सर्गः । 12 ८ ९ भसो असो .. २५९ २३ विदूरि 33 ૨૨૦ ૧૭ जङ्गस्य ૨૬૧ 3 स्वर्भाग १९ दारयो " १७ डित्वात् यस्या भवन् પાંચમાં ७ २४ माहा प्रकरि धारा دو भट ड. परात् वचनाध्व ७ "" २६३ भुखौ ४ १२ शु निरुद्ध कान्त्या , शब्दात् समापय्य संदर्शना मोघः" यस्या• भवसू पद्मिन भट्टथ दु परात् वचनाव मध्य हित्वात् विदूरी अङ्गस्य स्वर्भोग यो माली प्रकारे ध (१२) समाच्य मुखो संदर्शनया मोषः पृष्ठ पंक्ति २६५ 28 39 " ५ ९ कुतोऽपि कुतोऽपि १६ स्वास्त्र d २३ "> २९८ १९ ܙܙ २६९ 21 २७१ 37 .. "" 19 २७२ १९ ૨૦૩ ૨૦૧ ૨૦૫ ૧૦ २७६ १० १ स्वनि 39 १६ १८ , ૧૮ सुग्न अशुद्ध शुद्ध स्त्रश्नि ७ कुभः ܕܙ ૨૦૦ ५ भक्तस्य १३ दवाति ४ उर्व नित्री निधि તિ मेधि भेधि मस्तान भस्ताघ धाप धाम मदच्छीय मह रचितस्य रचिते काव्यस्य नवम सर्गः । ૧૧ २७७ १४ यण १५ ततरत निदा इयेन २७८ १० तनोति २७९ २ मोधस्य ५ बीरी ९ सभाजन स्वेति पुरेव कुम्भः ७ ततस्त निद्रा सुस्व भक्ताय दधाति जर्दा न्धिी નિધિ दिनं तद्भाचा सभाजन त्यते २४ लक्ष कक्षाणि 22 कुत्सित: ૨૦૧ ९ कुत्सिथः २८२ ७ कायसी कारयति काव्ये ध्यण् बेन તોતિ मोघस्य बिरी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पति अशुद्ध शुद्ध ५४ पंक्ति अशुद्ध शुभ २८२ ८ काश्चित काश्चित् २८९ १९ विलाक विलोक , १२ सुगृहारम्याः सुगृहाख्या: २९० , हदि हरि २५६ प्ररूट भरून ८ न कत " महीरव महिषिरव , दधाति दधाति १९ 'प्रकर्ष प्रकर्ष , १२ जङ जह १० द्वधू धू अञ्जतः अञ्जनः . १२ , " दन्त दन्तः , ११ विया विषा भूधातोः भूधातो१४ परोऽन्य परोन्यः २९१ १ सूधातोः सृधातोः २८५ २४ चिरंतना चिरन्तना , २ महान महान् २८६ ४ दोषभुवा दोषधीभुवा , ५ यस्थे यत्ये , १५ उदया उदयो ,, १० महोक्षो महोक्षो , १७ मण्ल मण्डल ,, २१ जनेने जनेन ,, २१ प्रभुत्व प्रभुत्व च । ,, २२ लक्षवि लक्षयि २३ तिति २९२ १ खत णत. २८७ ५ प्रभु , प्रभु __, ४ वनो यनी , ५ समर्थ समर्थः , ७ र्धन धर्वन , ६ समधि समाधि ,, १९ सप्त , १० गगं रागं ,, २० पशु पशू , 12 ग्त् रत् २९३ ३ यदिवि यदि-इति , १४ भूय भूर्व ६ उत्पति उत्पत्तिः वाल्छयते वाञ्छयते विपरि २८८ १५ तना तनो विशेषणो विशेषणे ,, १९ कृतं. कृत. अभीष्टा अभीष्टा. , २० तदर्घ तदर्ध , १२ गज राज " " गग राग २३ चण्द्र , २३ रत स्त १० सुरमे " , तदर्थ , तदर्ध , १६ सुग , २५ तम तम् " १७ भ्रु भुत्रः २८९ ५ समार ससार ,, २० नोऽस्माम् नोऽस्मान् ce सप्ता Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहा . रेव • • • • . पृष्ठ पक्तिं अशुद्ध शुद्ध २९५ ५ गपी रापी ,, २५ स्पधा स्पर्धा २९६ २० शोभतो शाभनो , २३ तेषु तेषु ४ ता ता ब्रह्म , १२ रंव ,, २२ कुसुन कुमङ्ग २५ त्यः न्य. २९९ १ अरू उरू , २२ ठेयम् प्ठेयसू १०० २ भिसे भिषे ,, ९ घातोः धातो ३०१ १८ जलरय जलस्य संत्यू ,, २१ गर्थि रयिं , २४ कुल कूल ३०२ , " " , , प्रासेन प्राप्तेन " , मोढा प्रौढा ३०५ १८ जाडय જ્ઞાઠ્ય " , जडचं जदत्वं ३०७ १३ सुभे. सुमै. ३०८ " चकारः चकार ३०९ ५ रचितस्य रचिते , कायस्य काय दशम, सर्गः । , १० रन्द मरन्द ३१. ४ जाहय जाध्य पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध , १७ बिभति विभत्ति , २५ निवार वार ३1१ १५ अधश्व अधश्च ३१२ १९ धाम धारा ,, २२ प्रितिभाजिन् प्रीतिभाजी ३१३ १ ईशय ईशस्य , ४ घनाना घनाना ३१४ ५ र्गि निर्ग , ६ स्वसदहः स्तसदेहैः , ७ गित. निर्गतः , १७ चयन ध्यत ३१५ ,, रशि दशि ३१६ २० दुखे दुखे ३१७ २१ गमन गमन ३१८ ११ पुरन्ध्रिमी पुरन्ध्रिमी , १९ हम्य दग्य ३१९ ४ बले बलो ३२० १० सहये सख्येये ३२१ ७ यम व्यम् २२ २४ पूर्वोच-प्र पूर्वोक्तप्र ३२३ ७ सलना ललना ३२४ २ भरत भर ३२५ ३ स्तृत सून्न , ७ निरतर निरन्तर , २५ योपान्यात् योपान्त्यात ३२६ ४ दुःस्तीष दु.स्वीष ,, ५ दुपूर्व दु पूर्व , १४ पीढय पीय ३२७ १९ नपेयाय उपेयाय ,, , युषी युपी ܕܝ ܕܕ संस्थ * • • • • • • • ’ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ૩૨૮ ६ धमति ११ निसृतैः ૨૫ ताथ " ܕ ३२९ ८ "" १३ प्रचुर २२ धन ३३० १२ તિ ३३१ १० तो २४ " "" ૩૩૧ ३ "1 ३३३ १ در 93 "1 ३३४ 29 "" " " 19 ३४० निसृता २५ ९ " "" क्षयस्त्र निर्वात १५ ३३५ १२ अनन्य अन्य ३३६ १३ उदुचरी उदुंबरी २० उद्गाहादौ उहानादौ २४ हैं ३३७ १९ सुरुपा ३३८ 3 सोहद ३३९ १६ सौख २० ?? , पोरुपे 3 खरा पञ्च खरखं व "" د. शुद्ध धर्मात् निःसृतै. तार्थ नि.मृता अचुर घन पटि तो > क्षायित्वं निर्वृति 19 पौरुषे स्वरा पच खरवं र्व र ह सुरूवा सौहृद सौख्य ६ जनिक ११ दोधि ૩૪૧ ૧૦ शूद्रात् ३४३ १३ रचितस्य रचिते १४ काव्यस्य काव्ये " जनिकस्य दीधि शूगत् (१५) पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुभ ३४४ १४ भुरि મૂરિ "" ૧૬ उग्रघात् व्यधात् ३४५ २ गच्छेत गच्छेत् ३४६ १२ चद्दा वबद्धा ૧૬ ३४९ " "3 " "' ३५० १८ टेसू ३५१ ४ अर्तेमु ३५२ " "" ܕ ૧ २ ६ २४ २५ ९ ૨૧ यव "" ३५४ १२ तुर ૨૨ J. " ३५३ " "" २७. १० " ܕ ४ ૧૨ તે ૧૨ १६ सुमङ्गका " इन्द नाकी कं आयतां समू १५ सुनुं २२ पुण्यै ३५७ ८ मध्भे द्वयाख्या ऋशी कर्मण नीच गा असार ૧૦ अपट् ૧૧ मिवजो ૧૭ "" ચમ ३५८ ७ हस्यैव ३५९ १९ निधिपु ३६० २१ विश्वत् " सुमङ्गकार्या યો ष्ठेयस् मुं इन्द्र नालीक न्यायनां दूधाख्या ખ઼ુશી कर्मणा नीचगा असारता यच्चे तुर 7: मू सुनु पुण्यैः मध्ये भयदू मित्रतेजो सरस रथैव નિષિપુ विश्व Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीमदभ्यो नमः॥ ॥ अनन्तलव्धिनिधानेभ्यः श्रीगौतमस्वामिभ्यो नमः ॥ ॥ विधिपक्षगच्छाचार्य श्रीमदायरक्षितगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीस्तभतीर्थे श्रीमद्चला नभोमण्डलमार्तण्डेन संकलविद्वर्गमानसचकोरसुधाकरेण यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहाध्यानधारणासमाध्यात्मकायाङ्ग योगपरिक. लितात्मना निजप्रतिभाधरीकृतामृतानसूरिणा भारतीप्रदत्तवरेण प्रबोधચિંતામણિ, ચિંતા, ધમિસ્ટકુમાર વરિત્રઘનેસઋત્રિप्रणेता मात स्मरणीयनामधेयेन पूज्यपादारविन्दयुगलेनतत्रभवता परमगुरुवर्येण श्रीमजयशेखरहरिणा विरचितं શ્રી जनकपाररामावाख्यपहाकाव्यप तदन्तेवासिश्रीधशिखरोपाध्यायप्रणीत टीकासमलंकृतम् ॥ -MAN. इह खलु तत्र भवन्त सकलकविशिरोमणयः श्रीजयशेखरसूरयः काव्य થરાર્થાત” રૂલ્યાવારિવવનકામાખ્યાત્ વ્યસ્થાને શ્રેયસાધનાનું 'काव्यालापाश्चवर्जयेत्' इत्यस्य निषेधशास्त्रस्यासकाव्यविषयतां च पश्यन्तो जनकुमारसंभवाख्यं महाकाव्यं चिकीर्षवश्चिकीर्षितप्रबन्धनिर्विन समाप्तये वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलं शिप्यशिक्षार्थमाचरन्ति । अस्त्युत्तरस्येति ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः१ ध्यात्वा श्रीसारदादेवीं, नत्वा श्रीसद्गुरूनपि । कुमारसंभवस्येयं, वित्तिलिख्यते मया ॥१॥ यस्मै काव्ययुगप्रदा च वरदा श्रीशारदा देवता, श्रीमज्जैनकुमारसंभवमहाकाव्यादिकर्ता कलौ । सिद्धान्तोदधिचन्द्रमाः सहृदयश्रेणी शिरःशेखरः सोऽयं श्रीजयशेखराख्य मुगुरुजीयाज्जा गन्मङ्गलम् ॥ २ ॥ लौकिककाव्यानुसारेण अस्त्युत्तरस्यां दिशीति सताक्षराणि वर्तन्त इति न ज्ञातव्यं किन्तु श्रीस्तम्भतार्थ श्रीमतञ्चलग छगगनप्रभाकरेग सकलविद्वजनचित्तचकोरनिशाकरेण यमनियमासनप्राणायामाचष्टांगयोगविशिष्टेन समाधिध्यानोपविटेन निजमतिजितसुरसूरिणा परमगुरुणा श्रीजयशेखरसूरिणा चन्द्रमंडलसमुपलराजहंसस्कंधोषितया चंचचलकुण्डलायाभरणविभूपितया भगवत्या श्रीमरित्या वत्स त्वं कविचक्रवत्तित्वं प्राप्य निश्चिन्त इवासीनः किं करोपीति प्रोच्य अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः। निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्याच यस्यामिव यां धनेशः॥१॥ संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अष्टशोकान्यविशन्त लोकाः ॥२॥ एतदाय काययुग्मं दत्वा विहितसुरासुरसे चनश्रीयुगादिदेवसत्कजन्मबालकलियौवन महेन्द्रस्तवन सुनन्दा सुमङ्गलापाणिग्रहण चतुर्दशस्वमदर्शनभरतसमवप्रातवर्णनपुरस्सरं श्रीजैनकुमारसंभवं महाकाव्यं कारितं तथा लौकिककुमारसंभवे कुमारः कार्तिकेय तस्य संभवस्तथान कुमारो भरतस्तस्य संभवो ज्ञेयः । पुत्राश्च सर्व कुमारा उच्यन्तै अत: कुमारसंभव इति नाना महाकाव्यमत्रापि ज्ञायते । तेनादी च्यात्वा श्रीसारददिवामिति प्रारम्भे न दुष्टम् ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः१ ३) अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः । निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्था वयस्यामिव यां धनेशः ॥ १ ॥ (टीका) अस्त्युत्तरस्येति अस्ति विद्यते कासौ की कोगला अयोध्या इति पुगेनगरी अयोध्यायाः शाश्वतत्वेन त्रिकालव्यापकत्वेऽपि वर्तमानकालनिर्देशः अतीतभविष्यतोः कालयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन अवस्तुचात् वर्तमानत्वम् । कास्ति उत्तस्यां निति कौवे ककुभि इह यद्यपि नानादेशनिवेभाजनं जनं प्रतीत्य विवक्षितनगर्यादिक नेयमनं न तागा सड्गतिमड्गति तथापि सकले दिग्मण्डले उत्तरस्या प्रशस्यत्वात् तन्नामोत्कीर्तनं चकार कवि स्वाका-तां दक्षिणदिशमाश्रित्य वा । कथंभूता कोशाला परमर्द्विलोकै परीता परमा ऋद्धिर्धनकनकादिका येषां ते परमर्द्धयस्ते च ते लोकाश्च परमर्द्विलोकास्तैः परीता परिगता अन्पिता इति यावत् । अथ कोगलामेव प्रधानपुरुषः कर्तृत्वेन विशिष्टि । धनेशो धनदः कुवेर इति यावत् उत्तरदिक्पालोयां कोशलां पुरी निवेशयामास स्थापयामास । *पभजन्मत' पूर्वलक्षाणां विशतौ व्यतीतायां एवं हि आगमे श्रूयते यदा किल भगवान् ऋषमस्वाभी अस्या अवसर्पिण्यास्तृतीयारकस्यावसाने विश्वव्यवहारबन्धपेन मुग्धमतीनां प्रजानामखिलन्यायप्रदर्शनाय राज्यभारमड्गीचकार तद। सौधर्मसुरपतिनिर्देशवशंवदो घनदो वर्ण्यमौवर्णप्राकारां अभ्रंलिहस्फुटस्फटिकागार संभवनवनवपूजोत्सवविहारां नवयोजनाविस्तारां द्वादशयोजनायामां सरःसरसीदीर्घिका हवाटिकारामाभिरामां काले भविष्यदयोध्याभिधानां विनीतापुरी निवेशयामास । ततो दूरस्थान............................... इति कालेन सा कोशल अभूत् । एतेन दक्षिणभरता मध्यवर्तित्रिभागरूपस्य कोशलाया स्थानस्य शाश्वतत्व तन्निवेशस्य च गृहप्राकारारामलक्षणस्य धनदकर्तृकत्वमुक्तं भवति । उप्रेक्षते स्वस्या आत्मनः संबन्धिन्याः प्रियाया इटाया. पुरो नगर्याः अलकायाः वयस्यामिव सखीमिव सख्यं हि समानशीलयौरव शोभते इत्यनेन कोशलायाः Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ केनापि रमणीयकगुणेन अलकायाः सादृश्यं मन्यन्ते तेन च कोशलायां इटावां अदृष्टामप्यलका हटामिव मन्यन्ते । अन्योऽपि धनेशोधनवान् स्वस्याः प्रियायाः कान्तायाः पुरोऽग्रे वयस्यां सखी निवेशयति । ननु इदं शास्त्रं नगर सागर शैल ऋतु चन्द्राकदियोद्यान जलकेलि मधुपान सुरतमन्त्र दूतप्रयाण जिनालयाभ्युदयविवाह विप्रलंभ कुमारवर्णनरू५ विशिष्टाष्टादशलक्षणोपेतत्वान्महाकाव्यम् । तत आदी मडगलाभिधानमन्तरेण न श्रोतु: प्रवृत्तिनिमित्तं भवति, नैवम् । अस्य महाकाव्यस्य तत्र तत्राविकारे श्रीऋषभदेवनाममन्त्रपवित्रितस्य सर्वस्यापि मङ्गलमयत्वात् मङ्गलस्यापिमालान्तरकरणे अनवस्थादौत्य्यस्य दुर्निवारत्वात् । नहिप्रकाशमयः प्रदीपः स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्षते ४ कि च-'यदव्यासितमहद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते' इतिवचनाद् वहुभिस्तीर्थहिरव्यासितायाः कोशलाथातीर्थरूपतेव । शास्त्रारंभे च तन्नामग्रहणात् कर्तुः श्रोतुश्च निश्चिन्तो मालाभ्युदयोभवति इति सबै सुस्थम् ॥ १॥ संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झिलान्यप्रमदावलोका, अदष्टशोका न्यविशन्त लोकाः ॥ २ ॥ संपन्नकामा इति यत्र यस्यां नगयों एवंविधा लोका न्यविशन्त धातूनामनेकार्थत्वात् वसन्ति स्म । निविश इति सूत्रेणात्मनेपदम् । यत्र किं लक्षणा लोका: ? संपन्नकामाः संपन्ना कामा अभिलाषामनोरथा येषां ते संपलकामा (२दाऽमूर्छमदःतयोर्दस्य च ॥ ४-२-६९ इति सूत्रेणोक्तस्य नत्वं तद्योग धातोर्दस्य च नत्वम् ॥) तत्कालमेव प्रातमनोवाञ्छितसर्वसुखसंपत्तित्वात् । पुनः किल० नयनाभिरामा नयनानां लोचनानां अभिरामा- मनोज्ञा सर्वांगसुन्दर सौभाग्यासुन्दरल्यात् । पुन: कि ल० सदैव जीवप्रसवा सर्वकालं जीवितावधि जीवन्तः प्रसवाः अपत्यानि येषां ते जीवत्प्रसका पुन किं ल० अवामा न परस्परं प्रतिकूलामिथः सौहार्दपरत्वात् । पुन: किल० उझिता-यप्रमदावलोका. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ ५) ગ્નિતરત્સત્તોડન્યપ્રમવાનાં પરણીળામવજોજો વર્શન ચૈસ્તે જ્ઞાન્ય પરस्त्रीपराङ्मुखत्वेन परनारीसहोदरेति लब्धबिरुदत्वात् । पुनः किं ल० अदृष्टशोकाः न दृष्टः शोको यैस्ते अदृष्टशोका इष्टवत्वादेरवियोगात् ॥ २ ॥ - चन्द्राश्मचश्वत्कपिशीर्षशाली, सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः । यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट - ताटंकलीलामवहत् पृथिव्याः || ३ || ( व्या० ) चन्द्रारमेति यत्र यस्यां नगर्यो सुवर्णशालः स्वर्णप्राकार अभित समंतत: पृथिव्या वसुधायाः मौक्तिकदत्तवेष्टताटंकलीलां मौक्तिकैर्दत्तो वेष्टो यस्मिन् एवंविधो य· ताटंक' कर्णाभरण तस्य लीला मवहत् । किं ल० सुवर्णप्राकारः अभितः ( पर्यः सर्वो भये । ७ । २ । ८३ । इ. सू. अभेस्तसुप्रत्यय - ) समन्ततः चन्द्राश्मचंचकपिशीर्षशाली चन्द्रकान्तसत्कानि चचन्ति प्रसरन्ति कपिशीर्षाणि तै शाली शोभमान । पुनः किं ल० श्रवणोचितश्रीः श्रवणायोचिता योग्या श्री शोभा यस्य स श्रवणो । ताटंकपक्षे श्रवणोचितश्री कर्णस्य योग्या श्रीलक्ष्मी र्यस्य सः ॥ ३॥ नदद्भिरर्हद्भवनेषु नाट्य-क्षणे गभीरध्वनिभिर्मृदंगे । । यत्राऽफलत्केलिकलापिपक्के, विनाऽपि वर्षा घनगर्जिताशा || ४ || (०या०) नदद्भिरिति । यत्र यस्यां नगर्यौ केलिकलापिपंत - क्रीडामयूराणां श्रेणे. वर्षाकालं (विना ते तृतीया च । २ । २ । ११५ इ. सू. विनायोगे वर्षा. इत्यत्र द्वितीया ) विनापि घनगर्जिताशा मेवगर्जारवस्यागा अफलत् । वर्षा शब्दो बहुवचनान्तो ज्ञेय' । यथा प्राणदार प्रमुखा । कै मृदंगे । किं कुर्वद्भि । अर्ह द्भवनेषु सर्वप्रासादेषु नाटयक्षणे नाटकावसरे । नद्रद्भि (शत्रानशा वेष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २७ इ. सू. परस्मैपदात् धातोः वर्तमाने शतृप्रत्ययो ज्ञेयः तेन नदद्भिरिति सिद्धम् ) शब्दायमाने । किं विशिष्टैर्मृद गभीरध्वनिभि गभीरो व्यनिनदो येषां ते गभीरध्वनयस्तै ॥ ४ ॥ हर्षादिवाधः स्थितनायकानां प्राप्य स्थितिं मौलिषु मन्दिराणाम् । यस्यां कणकिकिणिकानुयायि नित्यं पताकाभिरकारि नृत्यम् ॥ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (व्या०) हादिति यस्यां नमी पताकामि नित्यं निरंतरं नृत्यमकारि । (भाव कर्मणाः । ३।४ । ६८ इ. सू. सर्वधातोरचतन्यास्ते परे भावकर्मणोभिचप्रत्ययाश्च तस्य लक) उत्प्रेक्षते हर्षादिव । किं कृत्वा मन्दिराणामावासानां मौलिपुभंगेषु स्थितिं प्राप्य कि विशिष्टानां मन्दिराणां अध:स्थितनायकानां अधः स्थिता नायका. स्वामिनो येषु तेषामत एव हेतो: पताकानामुपरि स्थितत्वहनत्यमिति भावः ॥ किं लक्षणं नृत्य कणकिकिणिकानुयायि शब्दायमानक्षुद्रटिकां धर्धरिकामनुगच्छत् ॥ ५ ॥ तमिस्रपक्षेऽपि तमित्रराशे, रुद्धेऽवकाशे किरणैर्मणीनाम् । यस्थामभूवनिशि लक्ष्मणानां, श्रेयोर्थमेवावसथेषु दीपाः ॥ ६ ॥ (व्या०) तमिस्रति यस्यां पुर्या लक्ष्मणानां लक्ष्मीवतां आवसथे वाचासेषु (लदाया अनः । ७ । २ । ३२ इति सू. लक्ष्मी शब्दादनप्रत्ययोज्ञेयः) निशि रात्रौ दीपा प्रदीपा श्रेयोर्थमेव मंगलार्थमेवाभूवन् । निशि इत्यत्र 'मासनिशासनस्य शसादौ लुग वा' इति सूत्रेणाकारलोप। कस्मिन् सति तमित्रपक्षेऽपि अंधकारपक्षेऽपि तमित्रराशेरंधकारसमूहस्य अवकाश मणीनां किरण रुद्ध सति अत एव दीपानां श्रेयोऽर्थत्वमेव तमसो मणिकिरणैरेव रुद्धत्वादिति भावः ॥६॥ रतलोकसो रुग्निकरण राकी-कृतासु सखिपि शर्वरीषु । सिद्धिं न मन्त्रा इव दुःप्रयुक्ता, यत्राभिलाषा यथुरिस्परीणाम् ॥७॥ (०या०) रत्नोकसामिति । यत्र यस्यां नगर्यामित्वरीणा ( सृजीनाराष्ट्ररप् । ५। २ ७७ । इ. सू. इण् धातोष्टवरपप्रत्ययः च हस्पस्य तः पित्कृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू. त् च अजेयकनलअटिताम् ।२ । ४ । २० । इ. सू. टित्वात् डीप्रत्यये इत्वरी शब्दसिद्धि) मसतीनां अभिलाषा: मनोरथाः सिद्धिं न ययुः न गता । के इव दुःप्रयुक्तामन्त्रा इव मारणादिकर्मव्यापारिता मन्त्रा इव सिद्धिं नयान्ति । कासु सतीषु रत्नौकसां रत्नमयावासानां रुनिकरण कान्तिममूहेन सर्वास्वपि निखिलास्वपि शरीषु रजनीषु राकीकतासु राका पूर्णिमा तत्सदृशासु कृतासु सतीषु । कुलटाचौराणामभिलाषसाधकं तम' एवास्ति तच तत्र नास्तीतिमावः ॥ ७ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (७ यदेमवातायनपतिवामा,-जने विनोदेन बहिः कृतास्थे । योमाधुजोदाहरणं प्रमाण,-विदा भिदामापदभावसिय ॥ ८॥ (न्या०) यश्मेति प्रमाणविदां तार्किकाणां व्योमाम्बुजोदाहरणं व्योम्न आकाशस्याम्बुज कमलं तस्योदाहरणमाकाशकमलप्टान्तः । अभावसिद्धय अभावस्य सिद्विस्तस्यै अभावसिद्धयर्थं प्रयुक्त सत् भिदामापत् (लदिद् धुतादि पुप्यादे परस्मै । ३।४-६४ इ. मू. आप्पातोरचतन्यां टदित्वाद भेदं प्राप। असहस्तु-प्रमाणेन स्थाप्यते सा अभावसिद्धि कथ्यते यथा महीतले घटो नास्ति आकाशे कमलमिव । कस्मिन् सति यद्वेश्भवातायनवार्तवामाजने यस्या नगर्या मानि गृहाणि तेषां वातायनानि गवामा तेषु वर्तत इत्येवंशीलो चामा स्त्री इति जनः तस्मिन् विनोदेन यस्था नगर्या धवल हे गवाक्षवर्तिनि स्त्रीजने अत्र जातावकवचनं । विनोदेन बहिःकृतास्य सति कौतुकेन गवाक्षद्वारात् बहिःकृतमुखे इत्यर्थः । स्त्रीगां मुखान्येव आकाशे कमलानि सत्यानि । अतएवाकाशकमलानामसकल्पनावादिना व्यर्थमजनीति भावः ॥ ८ ॥ युक्तं जनानां हृदि यत्र चित्रं, वितेनिरे वेश्ममु चित्रशालाः । यत्तत्र मुक्ता अपि पन्धमापु, गुण र्वितानेषु तदताय ॥ ९ ॥ - (०या०) युक्तमिति यत्र यस्यां पुयो वेश्मसु आवासेषु चित्रशालाः जनानां लोकानां हदि (दन्तपादनासिकाहदय-वा २ । १ । १११ इ. सू. हृदयस्थ हृदादेश:) चित्रं युक्तं वितनिरे विस्तारयामासुः चित्रशब्देन चित्रकर्म आश्चर्य वा। चित्रशालाचित्रं कुन्ति एतधुक्तं । यस्य यस्तु स्यात् स तदन्येभ्योऽपि दत्ते युक्तमेवैतत् । तत्र तासु चित्रशालासु मुक्ता अपि गुण वितानेषु बंधमापुः प्राप्ताः तमूताय आश्चर्याय जातं किमिति चेत् ये मुक्ताः सिद्धाः स्युः ते गुण सत्त्वरजस्तमोलक्षणे बंध कथमाप्नुवन्ति । अथवा वितानेषु शून्यप्रदेशेषु मुक्त स्थापिता स्युः ते गुणविनयादिमिर्वन्धं कथमापुः प्राप्ताः । अथवा ये मुक्ताश्चौरादयः स्युस्ते गुणैर जुभिश्च कथं बन्धमापुः इत्थं विरोधः । अथ विरोधपरिहारमाह। मुक्ताशब्देन मौक्तिकानि वितानेषु चन्द्रोद्योतेषु गुणस्तंतुभिर्बन्धमापुरितितत्वम् अत्र विरोधालंकारो शेयः ॥ ९॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ प्रभुप्रतापप्रतिमनचौरे, पौरे जने ज्योतिषिक ने यत्र । चौराधिकारः पठितोऽपिसम्यक्, प्रतीयते सानुभवेन वन्ध्यः १०॥ (व्या०) प्रभुप्रतापेति । यत्र यस्यां नगयो ज्योतिषिगणकैश्चौराधिकार: सम्यक् पठितोऽपि न प्रतीयतेस्म (स्भे च वर्तमाना। ५ । २ । १६ । इ. सू. भूतानद्यतने वर्तमाना) न ज्ञायतेस्म । कि भूतश्चौराधिकार अनुभवेन विना वन्थ्यो निष्फल । कोऽपि चौर्य न करोतीति भावः । कस्मिन् सति पौरजने पुरे नगरे भव. संचासौ जनश्च तस्मिन् नागरिकलोके । प्रभुप्रतापप्रतिभन्नचौ रे सति प्रभोः श्रीषभदेवस्य प्रतापात् प्रभावात् प्रतिभशानिरस्ताश्चौरास्तस्क। येन स तस्मिन् ॥ १० ॥ पणायितुं यत्र निरीक्ष्य रत्न, राशिं प्रकाशीकृतमापणेषु । रत्नाकराणां मकराकरत्व-मेवावशिष्टं पुषुधे बुधेन ॥ ११ ॥ (०या०) पणायितुमिति । यत्र यस्यां पुया वुधेन विदुषा रत्नाकराणां समु. द्राणां मकराकरत्वं मकराणां मत्स्यादीनामाकरत्वमेव अवशिष्ट मुध्धृतं बुबुधे ज्ञात मित्यर्थः । किं वा आपणेषुहर५ पणायितुं गुपो-धूप-विच्छि-पणि पनेरायः । ३ । ४-१ इ सू. स्वार्थ पणेराय ) रत्नराशिं मौक्तिकपद्मरागादिनसमूह प्रकाशीकृतं न प्रकाशोऽप्रकाश: अप्रकाश: प्रकाश. कृतस्तं निरोक्ष्य वीक्ष्य । समुद्रस्य रत्नाकरमकराकरौ इति द्वे नानी प्रसिद्ध स्त: । रत्नाकरत्वं पुर्या गृहीतं मकराकरत्वं स्थितमिति भावः ॥ ११ ॥ यच्छीपथे संचरतो जनस, मिथो भुजेष्वंगदघट्टनोत्थैः । न्यतायत व्योमगतः स्फुलिंग, नक्षत्रचित्रं न दिवापि कस्य ॥१२॥ (०या०) यष्ठीपथ इति । यत्र यस्यां पुर्यां व्योमगतैः व्योमनभस्तद्गतास्तरकाशस्थितै स्फुलिग दिवापि दिवसेऽपि कस्य पुरुषस्य नक्षत्रचित्रं नक्षत्राणां चित्रमाश्चर्य नक्षत्रसन्काश्चर्य न व्यतायत विस्तारयामासे अर्थात् सर्वस्यापि । 'तनूयो' विस्तार तन् धातोत्तिनीत' 'अड्धातो' इत्यडागमे-'क्य' शिति' Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यंमहाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ ९) इति क्यप्रत्यये 'तन: क्ये' इति सूत्रेण नकारस्याकारे कृते प्रयोगो ज्ञेयः । कि लक्षणैः स्फुलिगै यच्छीपथे यस्यां नगा श्रीपथो राजमार्गस्तस्मिन् संचरतः संचरतीति संचरन् तस्य गच्छतो जनस्य लोकस्य मिथ परस्परं भुजेषुबाहुषु । अंगदधनोत्थै अंगदानां वाहुरक्षाणां धनं मीलनं ततः समुत्थितैरुत्पन्नैरित्यर्थः।१२ हल्लीसके श्रीजिनवृत्तमान, र्यद्वालिकालिः किल चारणीन् । शुश्रूपमाणानिह निश्चलण्या-लु पदियः सप्तसषिव्यवस्थाम् ॥ १३ ॥ (व्या०) हल्लीसक इति यद्वालिकालि' यस्या नगर्या बालिकानां वालाना मालि श्रेणि. किल इति सत्ये दिव आकाशस्य सप्तपि-लति हवो वा।१।२।२ इ. सू हस्व हस्वस्व हस्वकरणादत्र असन्धिः संख्या समाहारे च द्विगुथानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू संज्ञाविषये कर्मधारयः संज्ञाविषयत्वान्न द्विगु.) व्यवस्थां सप्त च ते ऋषयश्चेति द्विगुसमास. तेषां व्यवस्था मर्वादामलुम्पत् । सप्तभ्योऽप्यधिकतरा मुनयो जाता इत्यर्थः । किं कृत्वा हल्लीसके रासकमध्ये श्रीजिनवृत्तगानः श्रीपभदेवस्य गुणगानरिह आकाशे शुश्रूषमाणान् श्रोतुमिच्छून चारणर्षीन् आकागामिनो मुनीन् निश्चलय्य निश्चलीकृत्य (प्रयोक्त व्यापारे णिग् । ३ । ४ । २० । इ. सू. चल् धातोणिग् । लघोर्यपि । ४ । ३ । ८६ । इ. सू. यपिपरणेरयादेश अनज क्योयप् । ३ । २ । १५४ । इ. सू. पोय५) ॥ १३ ॥ दत्तोदकभ्रान्तिभिरिन्द्र नील-भित्तिप्रभाभिः परिपूर्यमाणाः । आनाभिनीरा अपि केलिवापी, यस्यां जनो मन्दपदं जगाहे ॥१४॥ . (०या०) दत्तोदकेति यस्यां पुर्या जनो लोक केलियापी:-कीडावापी. भन्दपदं मन्दं मन्दं पदन्यासं यथा भवति तथा जगाहे अवगाहयामास । कि लक्षणा वापी: आनामिनीरा अपि नाभिं यावनीर यासां ताः पुनः किं विशिष्टा' इन्द्रनीलभित्तिप्रभाभिः इन्द्रनीलमणीनां भित्तयस्तासां प्रभाभि कान्तिभिः परिपूर्यमाणाः (परिपूर्यन्त इति शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २० । इ. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ सू. कर्मणि आनश् अतो म आने । ४ । ४ । ११४ इ. सू. आनपरे अकारस्य अन्ते मः) सामस्त्येन नियमाणा किं विशिष्टाभिः इन्दनीलभित्तिप्रभाभि दत्तो. दकान्तिभिः दत्ता उदकस्य जलस्य भ्रान्तियभित्ताः ॥ १४ ॥ ययाचिषौ यत्र जने यथेच्छ, कल्पद्रुमाः कल्पितदानवीराः । निवारयन्तिस्म मरुद्विलोल,-प्रवालहस्तैः प्रणयस दैन्यम् ॥१५॥ (व्या०) ययाचिषाविति यत्र यस्यां पुर्यो कल्पद्रुमाः कल्पवृक्षा मरुद्विलोलप्रवालहस्तैः मरुता वायुना विलोलाः चंचलाः प्रवाला किशलयानि एव हस्ताः करास्तैः जने लोके 'तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि हि याचकः' इति न्यायात् प्रणयस्य याश्चाया दैन्यं (वर्णददादिभ्यष्ट्यण च वा ७ । १ । ५९ । इ. सू. दीनात् भावे टयण) दीनस्य भावस्तत् निवारयन्ति स्म । किं विशिष्टे जने यथेच्छ (योग्यतापी सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये । ३।१ । ४० । इ. सू. अर्थानतिवृत्तौ अव्ययीभाव समास) इच्छामनतिक्रम्य यथेच्छया ययाचिषा (सन् भिक्षासंशेर । ५ । २ । २३ इ. सू. शीलादिसदर्थे सन्नन्तादुप्रत्ययः) गृहभूषणादीनि ययाचियो याचितु मिच्छौ कि लक्षणा' कल्पद्रुमाः कल्पितदानवीराः कल्पितस्य वातस्य दाने वीरा समर्थाः ॥ १५ ॥ पूषेव पूर्वाचलमूनि चूक-कुलेन धोरं ध्वनतापि यत्र । नाखंडि पाखंडिजनेन पुण्य-भावः सतां चेतसि भासमानः ॥१६॥ (व्या०) पूपेवेति यत्र यस्यां नगर्या पार डिजनेन कुटिलजनेन सता सत्पुरुषाणां चेतसि मनसि भासमानो दीप्यमान पुण्यमावः नाखडि न खंडयामासे । किं लक्षणेन पाखंडिजनेन घो र रौद्रं ध्वनतापि प्रलपतापि क इव पूषा इय (इन् हन् पूधार्यम् शिस्यो. । १ । ४ । ८७ । इ. सू. सौपरे दीर्घः) सूर्य इव यथा पूपा सूर्यो बोरं ध्वनतापि घूककृलेन कौशिक कुलेन न खंड्यते सूर्यः किं लक्षण पूर्वाचलमूर्ध्नि (ईडौ वा । १।२ । १०९ । इ. सू. हिपरे अनोऽस्यला) पूर्वाचलस्य उज्याचलस्य मूर्ध्नि मस्तके भासमानः प्रकाशमानः ॥ १६ ॥ इति पुरीवर्णनम् ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन कुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (११ ईक्ष्वाकुभूरित्यभिधामधाद्भू र्यदा निवेशात् प्रथमं पुरोऽस्याः । नाभेस्तदा युग्मपतेः प्रपेदे, तनुजभूयं प्रभुरादिदेवः ॥ १७ ॥ ( व्या० ) ईक्ष्वाकुरिति यदा यस्मिन्नवसरे अस्या' पुरो नगर्याः निवेशाद् रचनायाः प्रथमं पूर्वं भू भूमिरीयाकुरित्यभिधां नाम अधातू (पिबैति दाभूस्थ सिचो ३५ परस्मै न चेट् । ४ । ३ । ६६ । इ. सू. परस्मैपदे सिचोल्लुप् न च इट् ) धरतिस्म | तदा तस्मिन्नवसरे आदिदेवः श्री ऋषभप्रमुर्युग्मिपतेर्नाभ युगलस्वामिनो नाभिनृपस्य तनुजभूयं पुत्रभावं प्रपेदे प्रपन्न इत्यर्थ' तनुजभूयमित्यत्र ' हत्याभूयं भावे ' इति सूत्रेण भवतेर्नपुंसकभावे क्यबन्तो भूय इति निपातः ॥ १७ ॥ योगर्भगोऽपि व्यमुचन्न दिव्यं, ज्ञानत्रयं केवलसंविदिच्छुः । विशेषलाभं स्पृहयन्न मूलं, स्वं संकटेऽप्युज्झति धीरबुद्धिः ॥ १८ ॥ ( व्या० ) य इति । यो भगवान् गर्भगोऽपि गर्भस्थोऽपि दिव्यं देवलोकसंबंधि ज्ञानत्रयं ज्ञानानां मतिश्रुतावधीनां त्रयं न व्यमुचत् (ऌदित् घुतादिपुष्यादेः परस्मै । ३ । ४ । ६४ । इ. सू. ऌदित्वात् मुचेरद्यतन्यां अड् प्रत्यय') न मुक्तवान् । किं विशिष्टो भगवान् केवलसंविदिच्छूः (विन्दु इच्छू । ५ । २ । ३४ इ. सू. उप्रत्ययान्तो निपात') केवलज्ञानप्राप्तुकामः । अत्र दृष्टान्तमाह धीरबुद्धिः धीरावुद्धिर्यस्य सः पुमान् विशेषस्याधिकस्य लाभ प्राप्तिस्तं स्पृहयतीति स्पृहयन् इच्छन् संकटेऽपि आपद्यपि मूलं स्वं मूलधनं नोज्झति न त्यजति ॥ १८ ॥ यत्रोदरस्थे मरुदेव्यदीव्यत् पुण्येति साध्वीति न कस्य चित्ते । श्रीधानि सन्मौलिनिवासयोग्य, महामणौ रलखनिः क्षमेव ॥ १९ ॥ ( व्या० ) यत्रेति यत्र यस्मिन् भगवति उदरस्थे ( स्थापास्त्रात्रः कः । ५ । १ । १४२ इ. सू. स्थाधातो. क प्रत्ययः) सति मरुदेवी पुण्या पवित्रा इति निष्पापत्वात् साध्वी (स्वरादुतो गुणादखणे । २ । ४ । ३५ । इ. सू. गुणक चाचिसाधुशब्दात् डीप्रत्ययः) सती इति शीलनिर्मलत्वात् कस्य चित्ते मनसि न Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ अदीव्यत् न दिदी अपितु सर्वस्य चित्ते दिदीपे इति भाव । काइव रत्नखनिः रत्नानां खनिः क्षमा भमिरिव यथा रत्नखनिः पृथिवी महामणौ उदरस्थे मम्यस्थिते सति कस्य चित्त न दीव्यति तद्वत् । कि विशिष्टे भगवति श्रीधान्नि श्रियः शोभाया. धाम्नि गृहे । पुनः किं विशिष्टे भगवति सन्मौलिनिवासयोग्य सता साधूनां मौली शीर्षे निवासस्य योन्ये । मणिपक्षे श्रीधाम्नि श्रियो लम्या धाम्नि गृहे । पुनः किं० मणौ सन्मौलिनिवासयोग्य प्रशस्यमुकुटनिवासयोग्य इति१९ मध्येऽनिशं निर्भरदुःखपूर्णा-स्ते नारका अप्यदधुः सुखायाम् । यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्त-तमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः ॥ २० ॥ . (व्या०) मध्य इति । यत्र यस्मिन् भगवति उदिते जाते सति नारका अपि सुखायाम् सुखानुभवं अदधुः (वाद्विषातोऽन' पुस् । ४ । २ । ९१ इ. सू शितोऽन. पुस्) धरन्ति स्म सुखायामित्यत्र 'सुखादेरनुभवे' इति सूत्रेण सिद्धिः । किं लक्षणा नारका मध्ये चित्ते अनिशं निरंतर निर्भरदुःखपूर्णाः (रदादऽमूछमद तयोर्दस्य च । ४ । २ । ६९ इ. सू.पूरै धातो. परस्य तस्य तोनः) क्षेत्रजान्योन्यकृत पस्माधार्मिक कृताभिः त्रिविधवेढनाभिरत्यन्तं दुखिताः इत्यर्थः । के ५५ कोकाश्चक्रवाका इव यथा फोकाश्चकवाका स्तिमरुचि तिग्मा एक कान्ति यस्यतस्मिन् भारकरे उदिते सति सुखायां सुखानुभवं दधति । कि लक्षणाः कोका' मध्येनिश (पारे मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठया वा । ३ । १ । ३० । इ. सू. मध्ये निशमित्यत्र अव्ययीभावः ) निशाया रजन्या मध्ये रात्रावित्यर्थः । निर्भरेण दुःखेन पूर्णाः पूरिता किं विशिष्टे भगवति शस्तमहोनिरस्ततमस्ततो રસ્તન પ્રાન્તન મહલા તેના નિરસ્ત નિરોતાં તેમાં પાનાં તતિઃ ળિયેન तस्मिन् । सूर्यपक्षे प्रसस्ततेजसा प्रकाशेन निरस्ता तमसामन्धकाराणां ततिः पंक्तियनतस्मिन् तमोऽन्धकारे पापे च प्रवर्तते ॥ २०॥ निवेश्य यं मूर्धनि मदरस्या-चलेशितु: स्वर्णरुचिं मुरेन्द्राः । प्रातेऽभिषेकावसरे- किरीट-मिवानुवामानारत्नरूपम् ।। २१ ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીૌનમાલમવાળંબદામ રાતમહંતમ . સ ૧ (શરૂ (વ્યા ) નિતિ ! સુરેન્દ્રા સુરાણાં સેવાનામિન્દ્રાઃ સ્વામિન. કમિએજ્ય સંવરે સમયે (યદ્રાવોમાવ સૃક્ષણમ્ ૨ / ૨ા ૨૦૬ / $. . માવળા સપ્તમી) નન્જામિષે સમયે કારે સતિ ચં ચપાવતં મનુવર્ તુવન્તિ સ્મ | કિં વો ભવત્રાનાં સિરીખામીરાતા વામી તથ પર્વતેશ્વરસ્ય મન્વય મેરો “નિ (સાળેિ ૨ / ૨ / ૧ / રૂ. 7. વૈષધિારે સતની) મસ્ત કિરીટમિવ મુવુમિવ સ્વર્ગવપ હવઃ છાન્તિ ર્ત સુવાર્તેિ મેં સ્વામિનું નિવેદ્ય પવિ મવન્ત માનવરત્નરૂપ માનવેષ મનુષ્યવુ રનઉં રત્નપ્રા . અન્યાપિ ન તુ સત્તા પૃથ્વી તસ્ય રિતુઃ પૃથ્વીપતે મૂર્ધનિ મસ્ત મુદો નિવેતે થેવરાત્િ વિમવિપરિણામ: શીદશો મુવુ: સ્વર્ણીન્દ્રઃ પુનર્થ માનવરત્નરૂપ: માયા જ્યાં નવો નૂતનો રત્નપશ્ચય: સમાનઃ | ૨૨ / સુપર્વયુ સ્વા_વધુ તોફા-વિષ્ણુડય સુપર્વન્દ્ર શિર્વાદ્રિવી હરિ મા વંશ -પીસ્વાનોમાંકિતમતિનષ્ટ રશા (વ્યારા) સુર્વસુ તિ ફન્દ્રો મધવા માશુ શીધ્ર ફફ્લાવુનામાંકિત ફફ્લાવુનામાં ગ્રુપસ્તસ્ય નાનાં સમિધાનેન સંવિત વંરામન્વય માતનિષ્ટ વિસ્તારયમાસી હ્માદ્રિવ પક્ષને સ્વસ્થભ: મનુવા સેવાર્તપુ નિનોવધુ સુપર્વ તેવેન્યુ તોષાવિ હર્ષાવિવ વિ કૃત્વા મલ્ય સ્વામિન- શિરાજસ્થ શુદ્ધ હવમમિત્રાઉં વિવિત્વ (બાબુ છે / . ૭. ૬. તૂ, વિદ્ ધાતો.) જ્ઞાવા હિં વિશિષ્ટ રુક્ષુવંદે ઉપર્વળિ શોમનાનિ પણ પ્રન્થયો વચ તમનું શમનર્વિળિ સુપરીન્ટેન તેવો પિ હસ્તે શ્રેષ્ઠ સુક્ષુદ્રોડા શોમનપત્યાત રૂડપિ નિર્માતેતિ મોવ વૃપિ તોષ હૃતિ માવ: રોડ અતીતવર્તમાનૈવ્યતામાવાતાં વરાસ્થાપનાદ્ધિ કાર્ચ રાજ્યોધનમિતિ વા મોરા સ્થાપને પ્રસ્તુતે શુષ્ટિસ્ત સાત ચદષ્ટિ મિક્ષ ક્ષવિષયે સ્વામિનો હાર્ષિ દબ્રોવે પ્રમો રૂિ-મર્મથસિ મ મક્ષને ફતિ . તદનન્તર મન સ્વિકાર બાસારવત્ / મતો દેતોરિ ડ્રદ્યાનુવંરામસ્થાપયત તાંજોડી ક્ષત્રિયા Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ इक्षु भुञ्जते तेन भवन्ति इक्ष्वाकव प्रभोश्च पूर्वजा काश्य मिक्षुरसं पीतवन्तस्ततः काश्यप गोत्र मिझुवंशश्च तदा पानीयवल्लीवद्रसं गलन्ति स्म ॥ २२ ॥ विलोक्य यं पालनके शयाल, यशोऽस्य लोकत्रयपूरकं च । कार्य कलामञ्चति कारणस्ये-त्युक्ति प्रवानिभिरघोषि ॥ २३ ॥ (०या०) विलोक्येति । अनिमिषैर्देवैरित्युक्ति पैव अलीकैव अघोषि । इतीति काउक्तिः कार्य कारणस्य कला मञ्चति-प्राप्नोति । किं कृत्वा यं भगवन्तं पालनके शेत इत्येवंशीलतं शयाल ( शीश्रद्धा-निद्रा-तन्दा-दायिपति-हि-स्पृहेरालुः । ५ । २ । ३७ । इ. सू. शीलादिसदर्थे शी धातोः आलु प्रत्ययः) स्वमशील विलोक्य दृष्ट्वा च अन्यत् अस्य भगवतो यशो लोकानां त्रयस्य (द्वित्रिभ्या मथट् वा । ७।१ । १५२ । इ. सू. अवयवाथै त्रिशब्दात् अयट प्रत्ययः) पूरक (णक तृचौ । ५ । १ । ४८ इ. सू. कतरि णक) तत् विश्वयव्यापकं च विलोक्य । कार्य घट' कारणभूपिंडानुमानेन ५८: स्यात् । अत्र कारण भगवान् यशस्तु कार्यम् । भगवान् पालनके माति यशस्तु लोकत्रयेऽपि न माति अत एव कार्यकारणयोः सादृश्ये मृषात्वमिति भावः ॥२३॥ आशाबरः शान्तविकल्पवीचि,-मना बिना लक्ष्य मचञ्चलाक्षः। बालोऽपि योगस्थितिभूरवश्या, स्वस्यायतौ यः कमनेन मेने ॥२४॥ (०या०) आशाम्बर इति । यो भगवान् कमनेन ( म्यादिभ्यः कतरि । ५ । ३ । १२६ । इ. सू. कर्तरि अनट) कदर्पण आयतौ अत्तरकाले स्वस्यात्मन अवश्यो(दण्डादे यः । ६ । ४ । १७८ । इ. सू. अर्हत्यथै यः)ऽनधीनो भेने मन्यतेस्म । कर्थभूतो भगवान् वालोऽपि शिशुरपि योगस्तस्य योगिनो मर्यादानां भू. स्थानमित्यर्थः पुनः कथंभूतः आशाः दिशः एव अम्बराणि वक्षाणि यस्य सः दिगम्बर इत्यर्थः । पुनश्च कथंभूतः शान्तविकल्पवीचिमनाः (अन्वादेरवस सौ । १। ४ । ९० । इ. सू सौपरे दीर्घः) शाता प्रशान्ताः विकल्पा एव वीचय कल्लोलाः यस्मिन् तत् एवंविधं मनः चेतो यस्य सः । पुनश्च कथंभूत लन्यं विलोकनीयं वस्तु विनापि न चञ्चले अचञ्चले निश्चले Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (१५ अक्षिणी नेत्रे यस्य स निश्चललोचन यो भगवान् एवंविधो विद्यते अतः कमनस्य कामस्य हृदये भगवति अजेयत्वशंका जातेति भावः ॥ २४ ॥ अतित्यपाथीति विनिश्चितोऽपि, काऽमुं पयोऽपीप्यदिति स्वमातुः। चिराय चेतश्चकितं चकार, स्मितेन धौताधरपल्लवो यः ॥ २५ ॥ (व्या०) अस्तन्यपायीति ॥ यो भगवान् अस्तन्यपायी स्तन्यं (दिगादि , देहांशाधः । ६ । ३ । १२४ । इ. मू. भवार्थे य.) दुग्धं पिबति इत्येवंशील: स्तन्यपायी (अजातेः शीले । ५। १। १५४ इ. सू. शोलेऽर्थे णिन् ) स न भक्तीति अस्तन्यपायो इति विनिश्चितोऽपि इति निर्णीतोऽपि स्वस्य आत्मनो माता जननी तस्याः आत्मीयजनन्याश्चतोमनश्चिराय चिरकालं इत्यमुनाप्रकारेण चकित चकार इतीति किं का स्त्री अमुं वालं पयोदग्ध मपीप्यत् (हे पिव: पीप्य्। ४।१। ३३ । इ सू. डे परे अवतन्यां पिच पोप्य्) पाययति स्म । अथ पय पानशंकायां हेतुमाह कि विशिष्टो भगवान् स्मितेन लास्येन धौताधरपल्लव: धौतः अधर एवं पल्लयो यस्य स. प्रक्षालितोष्टपल्लवः सर्वेऽपि तीर्थकृतो बाल्ये मातु. स्तन्यपानं न कुर्वते इति भाव ॥ २५ ॥ अश्रौधदभाद्वहिरुइतन, माता नमाता हृदि संमदेन । परिप्लुताक्षी तनुजं स्वजन्ती, यं तोषष्टेरपि नो विभाय ॥ २६ ॥ (०या०) अश्रौति ॥ माता मरुदेवी यं तनुज पुत्रं स्वजन्ती (३यशवः । २।१।११६ । इ. सू. शवात् अतुरन्तादेश:) आलिंगन कुर्वती सती तोपदृष्टे(पंचम्यपादाने । २ । २ । ६९ । इ. सू. भययोगे पंचमी)रपि संतोष शोऽपि नो बिभाय न विमति स्म । माता कि विशिष्टा संमदेन हर्षेण परि प्लुताक्षो परिप्लुते अक्षिणी लोचने यस्याः मा प्लावितलोचना । कि विशिष्टेन संमदेन हदि मनसि न माता मातीति मान् तेन माता पुन: कि विशिष्टेन अश्रीधदमात् (प्रमृत्यन्यार्थ दिक् शब्द बहि रारादितरैः । २।२ । ७५ । इ. सू. बहियोग पंचमी) अश्रुप्रभावमिषात् बहिनतेन बहिनि सृतेन ॥२६॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬) શ્રીનનમાલક્ષ્મવાર્થેમહાામ્ દીળત્તિમ ંતમ્ | સર્જ: શ્ અન્ય પુરું વળવુંપ્રિયાનં, નિઃવાળું ઢાય મવભ્રમજ્ઞમ્ ! નનથ યદ્દોષતયામિત્રેય, તōશવે યસ્ય વમૂત્ર મૃષા || ૨૭ || (૦) અન્યમિતિ । નનસ્ય રોઋત્યેત્તિ પર્વ સર્વત્ર સંવન્યતે । નનસ્ય છોક્લ્ય યત્ અન્ય ઉર્જા મન્મનવેન માર્ગે સ્વતંત્રિયનું હૃØરામ્યાં યાર્ન રામનું નિારŌ જારં વિના હારથૈ (વર્ણેન્યજ્ઞનાત્ મ્ | | | o | ૨૭ ] રૂ. તૂ. ધ્યગ્ માવે જ્ઞેય:) અવસ્ર વજ્રરહિત માં શરીર ઢોષતયા અમિયેય દૂવેન વારૂં સ્થાત્ તત્ યક્ષ્ય મવતઃ શૈશવે (રૂમ વર્ણાત્ જાવેઃ । ૭ । ? | ૬૧ | હૈં. સૂ. માવેર્થે અણ્) વાળ્યે | भूषा આમરાં વમય નામિલ્યેથ: ૨૭ તૂરાન્ સમાય હોપપીડ, માઇન્મુદ્દા મોહિતનેત્રપન્નઃ । થાન નૈદ વિમોહિતાત્મા, ચં તાતાતેતિ નાદ્ નૉમિઃ ||રા (ન્યા॰) પૂરાતિતિ । નામિ મૈં મવન્ત તૂરાત્ સમાર્ય (યતિ વર્ષે: િિત | ૪ | ૨ | ૭૬ | રૂ. સૂ. ત્રૂત વીર્ઘમવોત્ત્વમ્ | | o ૦૩ રૂ. સૂ. અન્યં નૃત્ વર્ધમ્) આાર્ય હતોષપીડ (પીડòધર્ષતત્સાન્યાઃ ૬ | ૪ | ૭૬ | ૐ. જૂ. વાળમ્ ), દવા દત્યેન ૩૫પીય તાંત સાતત નાવ વાવ | જોદરા માવન્તાનં પુત્રમપિ નામિઃ જીદળૅ સ્નેહવિમોહિતાત્મા સ્નેહેન કેમ્પ વિમોતિ આભા યસ્ય સઃ પુન: જીરાનામ: માથ-વા હર્ષે મીહિતનેત્રપત્ર: મીતેિ નેત્રે વ પન્ને યસ્ય સઃ ॥ ૨૮ ॥ E મારેગ મે સૂમરામયોગ, મૂñ શિરો મા નવશ્રમોમૃત્ તીજ તાતે હ્રતિ કૃત યો, મન્વાં પ્રિવિન્યાસપતું ચાહ ॥ ૨૧ ॥ (ન્યા॰) મારેળેતિ | ચો માવાન્ તાતે પિતર નામૌ હૃત્તિ અાયંતિ સતિ દ્રુત શીઘ્ર મન્દ્રાધિવિન્યાસપૂરું (પાન્તરે રસ ) મન્યું. ખરળન્યાસઁપવું ચા મતિ તથા નવા | તત્ ત્પ્રેક્ષર્તીવ્ર તિારાવિ મે મમ મારેળ મુનાપ્રમો: મુન ટિ પાન્તિ મુના સર્પીતેષાં પ્રમુ સ્વામી તસ્ય શેષના ધિરર્રાનસ્ય મૂમરણે મિથોપિવમારિ શિરો મસ્ત મુખ્ત વા મા મૃત્ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (१७ (अड् धातोरादि स्तिन्यां चामाडा । ४ । ४ । २९ । इ. सू. ह्यस्तन्यां अद्यतन्या क्रियातिपत्तौ धातोरादिरखागम' न तुमाड्यागे तेन अत्र माड् योगे न जात:) मा भवतु ॥ २९ ॥ यः खेलनालिषु धूसरोऽपि, कृताप्लवेभ्योधिकमुद्दिदीपे । तारै रनभैः प्रभयानुभानु, रभ्रानुलिप्तोऽप्यधरीक्रियेत ॥३०॥ (व्या०) य इति । धूलिपु खेलनात् कीडनात् धूसरोऽपि यो भगवान् कृताप्लवेभ्यः कृतमाप्लव स्नान यैस्ते तेभ्यः कृतस्नानेभ्योऽप्यधिक उदिदीपे दीप्यतेस्म । अत्र दृष्टान्त अभ्रानुलिप्त अभैर्मधरनुलित आच्छादितोऽपि भानु: सूर्यः अनरम्ररहितैः तारः प्रभया तेजसा किमघरी क्रियेत तिरस्कियेत अपि तु नैव न क्रियेत ॥ ३० ॥ उद्भूतबालोचितचापलोऽपि, लुलोप यो न प्रमदं जनानाम् । कस्याप्रियः स्यात् पवनेन पारि,-प्लयोऽपि मन्दारतरोः प्रवालः ॥३१॥ (व्या०) उद्भूत इति उद्भूतं प्रकटीभूतं वालस्य शिशोः उचित योग्य चपलस्य भावश्चापलं (युवादे रण । ७ । १ । ६७ । इ. सूत्रेणभावेऽर्थे अण) यस्य सः प्रकटीभूतबालोचित चपलमायोऽपि यो भगवान् जनानां लोकाना प्रमदं (समद अमदौ हर्षे । ५ । ३ । ३३ । इ. सू. हर्षेऽर्थे अलन्त' प्रमदो ज्ञेयः ।) हर्ष न लोप न लुतवान् मन्दारतरोः कल्पवृक्षस्य प्रवाल• किशलय पवनेन वायुना पारिप्लयोऽपि चपलोऽपि सन् कस्य पुंसः अप्रियः स्यात् । अपितु न कस्यापीति ॥ ३१॥ लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषा, लेखाः परेषामसुलभमभम । यं बालहारा इव खेलनौधैः, फटीतटस्थ रमयांबभूवुः ॥ ३२ ॥ (०या०) लसदिति ॥ लेखा देवा यं भगवन्त अभै बालरूपं कटीतटस्थं (स्थापानान कः । ५ १ । १४२। इ. सू. स्थ. कः ।) कटी एव तटस्तस्मिन् तिष्ठति तं रमयांबभूवुः (धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षाया' कृभ्वस्ति चानु. तदन्तम्।।३ । ४ । ४६ । इ. सू: अनेकस्परेभ्यो धातुभ्यः परोक्षाया स्थाने Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ आम् प्रत्ययः तस्माच्च परोक्षान्ताः कृपतयः प्रयुज्यन्ते तेन रमेरपि ज्ञेय.) कोशा लेखा देवा' लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषाः आकृतिश्च वर्णश्च वेषश्च आकृतिवर्णवेषा' लसन्तः विशेषा आकृतिवर्णवेषा येषां ते कोऽर्थ देवानां देहः स्वभावेन केश रोम नख मांस चर्म अस्थि वसा रुधिर मलमूत्र रहित शुभवादियुक्त पुद्गल निष्पन्नतेजोमयस्वरूपत्वात् विशेष. ते देवा वैक्रियरूपं कृत्वा सर्वोत्तमवर्णपादि भगवन्त रमयामासुरिति भाव' की भगवन्तं बालं परेषामन्येषां सामान्यानां पुण्यहीनानां असुलभ दुःप्राप्यं । लेखा के इव बालहारा इव यथानृपबालकीडाकारका बालं कटीस्थं रमयन्ति तद्वत् ॥ ३२॥ रसाल सालं प्रति दृत्तष्टौ. श्रोतुं च सूतानि सतृष्णकर्णे । अनन्यकृत्या अभजनमा, यत्र स्वभक्त्याशुकवित्वमुच्चैः ॥३३॥ (या०) रसालसालमिति ॥ अमत्या देवा. यत्र यस्मिन् भगवतिविषये उचैरत्यर्थ स्वभकया निजसेवया सुकवित्वं शुकपनि पक्षे आशुकवित्व शोध. कवित्व अभजन सेवन्ते स्म । कि लक्षणा अमाः अनन्यकृत्याः न विद्यते अन्यत् कृत्यं कार्य येषां ते । कथंभूते भगवति रसालसालं सहकारवृक्षं प्रति दत्ता दृष्टियन तस्मिन् सति पुनश्च कीडशे भगवति सूतानि (क्तक्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ. सू. क्तपरे वचः यजादिवचे किति । ४।१ । ७९ । इ. सू. वृत् चज कगम् । २ । १ । ८६ । इ. सू. चस्य कः सुः पूजायाम् । ३।१। ४४ । इ. सू. तत्पुरुषः सुष्टु उतानि) अन्येषां सुभाषितानि श्रोतुं सतृष्णाकर्णे तृष्णया सह वर्तेते एवंविधौ कौँ यस्य तस्मिन् सति ॥ ३३ ॥ परार्थदृष्टिं कलहंसकेकि-कोकादिकेलीकरणरकाले। नीत्वाभिमुख्यं सुखतो यमीश, मुधाभिधानं विबुधैन दधे ॥३४॥ (०या०) परार्थष्टिमिति ॥ विबुधैः देव विबुध इत्यभिधानं नाम मुधा वृथा न दधे न धृतम् ॥ विवुधा देवा विद्वांसश्च कथ्यन्ते । हेतुमाह किं कृत्वा यं ईशं स्वामिनं अथवा यमिन संयमिनस्तेषां ईशं भतार सुखत: (अहीयरुहीऽपादाने । ७।२। ८८ । इ. सू. वा तमु प्रत्ययः) सुखादेव आभिमुख्य Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः१ (१९ स्वसांमुख्यं नीत्वा प्राप्य अकोले अप्रस्ताव के करणभते कलहंसकेकि कोकादिकरणैः कलहंसाश्च केकिनश्च मयूग कोकाश्च चक्रवाका. ते आदयो येषां तेषां पक्षिणां केय क्रीडास्तामा करणे विधानै । किं विशिष्टं यं परार्थदृष्टिं परस्मिन् अर्थे घटपटादिपदार्थ दृष्टि इति बालस्वभावात् वस्तुतस्तु परोपकारे दृष्टिः यस्य सः तं परार्थदृष्टि विबुवस्य एतदेवफलं यत् सुखेनैव सर्वकार्यसाधनमिति भावः ३४ कोडीकृतः काञ्चनरुप जनन्या, प्रियंगुकान्त्या धननीलचूलः । यः सप्तवर्षांपगतः सुमेरो, श्रियं ललो नन्दनवेष्टितस्य ॥ ३५॥ (या०) कोडीकृत इति । यो भगवान् सप्तवर्षापगत. सप्तवर्षसंयुक्तसन् सुमेरुपर्वतस्य श्रियं शोभा ललौ (आतो णव औ । ४ । २ । १२० । इ. सू. आकारान्तधातोः णव औः स्यात् तेन ललौ रूपं ज्ञेयम् ) लभते स्म गृहीतवानिति यावत् । किं लक्षणस्य मेरो नन्दनवेष्टितस्य नन्दनेन उद्यानेन परितो पेष्टितस्येत्यर्थः कीदृशो भगवाश्च प्रियंगुवत् कान्ति यस्याः सा तया नीलकान्या जनन्या मात्रा मरुदेव्या कोडोकृत (कृम्वस्तिम्यां कर्मकतम्यां वागतत्तत्वे चिः। ७।२ । १२६ । इ. सू. प्यो कृते ईश्वाववर्णस्याऽनव्ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. सू. अस्य ई वणे अर्याधनुकरणच्चिडाचश्चगतिः । ३।१।२ इ. सू. गतिसंज्ञा गतिवान्यस्तत्पुरुषः । ३।१। ४२ । इ. सू. गतितत्पुरुषः अप्रयोगीत् । १।१ । ३७ । इ. सू. पिलोपः) उत्संगे उपवेशित: पुनश्च की काञ्चनरु काश्चनस्य रुक ३१ रुक् यस्य सः काञ्चनवर्णः । मेरुपक्षे कांचनरुक्कांचनमयः सप्तवर्षांपगत सप्तभिः वर्षे. क्षेत्र भरतारुपगतः तथा 'भरह १ हेमवयंति २ हरिवासंति ३ महाविदेहं ४ । रम्मय ५ मेरुणवयं ६ एरवयं ७ चैप. नामाई ॥ ॥१॥ एते सप्तक्षेत्रैर्युक्त इत्यर्थः ॥ ३५ ॥ पुरा परारोहपरा भवसा,-पश्याः कशाकष्टमदृष्टयन्तः। बधिरेऽनेन बलात्कुरंगा, वोलल: शिशुना तुरङ्गाः ॥ ३६ ॥ (व्या०) पुरेति शिशुना बालेन अनेन भगवता तुरंगाः (नानो गम: खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५ । १ । १३१। इ. सू. खड् प्रत्ययः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦) શ્રીનેનકુમારલક્ષ્મવાર્થમજ્ઞાાત્મ્યમ્ ટીજાસમહંતમ્ ! : શ્ રિવર્ત્યનવ્યો હોમોન્તો વથ | ૐ ।૨। શ્o o । ૩. ૬. રિાંત પરે મોડન્ત:) તુરો વેમેન ઇન્તીતિ તુ અા વાત્ હાર્ વધરે વૈધ્યન્તે મ |વિક્ષાતુર્યા. પુરા પૂર્વ પરારોદ પરામવસ્ય પરેષા મન્યેવાં આરોદ્ઘટન સ વ પરામવસ્તસ્ય ન વા: અવા: અનધીના પુનશ્ચે řિ શ્રૃતવન્તઃ વુાં મૂળ વ યા છેં તનેનચě તાપિ અદપ્રવત' (વંતૂ | | પ્રત્યયઃ) નૅ દવન્ત પુનઃશ્ર્વ વિ o । ૭૪ । . સૂ. મતે તે િ વસ્તુ વેન્ત; ર વ કઇજન્ત' હરિા નવ ર્ધ્વમાપતન્ત: | રૂ૬ || करे करेणुः स्वकरेण मत्तो, वने चरन् येन धृतो बलेन । રોવાળું ચક્ષુરિહાવધાનો, માત્ર પુનાનોઽપ ન મોક્ષમાપ || ૨૭ ।। (ન્યા) જો ફતિ !! રેણુર્દસ્તો પાત્ર નાનોઽવ મોક્ષ જ્ઞ બાપ વિ વિશિષ્ટ: રેણુવનેશ્વરન્ પુનથ જીદક્ ચેના મવા રે ગુંડાનુંકે સ્વરે સ્વચાÆન રોહસ્તપ્તેન નિનTM વર્જીન ધૃત । વ્ ાખ રૂર્ માત રોવાસ્થળ (તૃતીયા તત્કૃતઃ | ૐ | ↑ | ૬૧ | . તૂ. તૃતીયા તપુરુષ:) રોષેળ જોપેનારાં ર નન્નુનેત્ર વધાનો નિવેશયન્ । ત્ર વૃત્ત રે તિ પર્વ દિ જિહ્યતે એ રે અનુ: જો રાઝવેયમા,તંત્ર રે રે અણુ. દૃઢઃ મવાયાત્ ચોળી સ્વરેળ આત્મીયતેઽસા મત્તૉ માની વનેશ્વરનું યોગિનાં પ્રાયો વનપરિસ્થાત્ પુનશ્ચે છૌદક્ વછેન સામર્થ્યન ચા ી સ્તસ્યા રૂંનઃ સ્વામી ઋાતેન ધૃત આદતવૈવત્વાત્યાશ્વિયોનિ વિ વાળ...માતિ રોજળ વજીરાવધાનો નૈજ્ઞાનિત્વાત્ પુનશ્ચ ર્જ્યોિ અશ્વમે ાનમે નૌજીને પૂરજોનમામિ યંત્ર શરીર પુનાનોઽપિ વાપયપ અંત ત્ત્વ ારાન્માક્ષ ત્તિ ન આપપ્રાણ પ્રાયઃ સમ્યવ્શન વિના ન મોક્ષ—તિ બિનવવનાત્ ૨૭, નાપલ્યદાય ભાય સૌથ, સ્વે ચૌત્રને વાસતિ સ્મારહે । સાવિતી ધ્રુવિશેષ નાત, પ્રાશયમાંસ સમુષ્યઃ॥૮॥ ર (વ્યા૦) નાંપત્યજ્ઞતિત્તિ / અથ અનન્તર-સ_મવાનું વૈદે સ્વારી ચૌત્રને યૂનો માવો યૌવનં (યુવાવેરણ્ | ૭ | ? | ૬૭ | રૂ. સૂ.અત્ર મવેડચૈ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. १ (२१ अण ज्ञेयः) वासयति स्म किं कृत्वा बाल्यं बालभावं-अपास्य परित्यज्य किं. लक्षणं वाल्यं (वर्णदृढादिभ्यष्टयण च वा । ७।१ । ५९ । इ. सू. बाल्य चापत्य शब्दसिद्धि) चापल्यकृत् (कि५ । ५। १ । १४८ । इ. सू. नाम्नः परात् धातो. कि प्रत्यय हस्वस्य तः पिकृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू. इस धातो. पित्कृति तः अप्रयोगीत । १।१ । ३७ । इ. सू. क्वि५. इत्संज्ञा तेन चापल्यकृत् सिद्धम् ) चपलस्य भावं करोतीति चापल्यकृत् । तदपि यौबनमपि अमुष्य भगवतो धुम्नं द्रव्यं बलं वा तस्य विशेषदानात् साधो. मत्पुरुषस्य औचिती औचित्यगुणं प्रकाशयामास । 'उपकारकारके प्रत्युपकारः क्रियते इति. सता लक्षण मिति भाव ॥ ३८॥ . अथ भगवतो रूपवर्णनमाह । 'मानवा मौलितो पर्या, देवा श्चरणतः पुनः' । इति न्याये सत्यपि भगवतो मानवत्वेऽपि तीर्थकराणां देवत्वमेव कथ्यते ॥ . तस्थाननेन्दापरि स्थितेऽपि, पादा-जयोः श्रीरभवन हीना। धत्तां स एव प्रभुता मुदीते, द्रुह्यन्ति यसिन मिथोयोऽपि ॥३९॥ (०या०) तस्येति ।। तस्य भगवत आननेन्दी आननं मुखमेव इन्दुश्चन्द्र स्तस्मिन् मुखचन्द्रे उपरि स्थितेऽपि पादाजयो. पादावन-अब्जे कमले तयोः चरणकमलयो' श्रीलक्ष्मी होना न्यूना न अभवत् । स एव पुमान् प्रभुतां: (भावे स्वतल । ७ । १ । ५५ । इ. सू. भावेऽर्थे तल् प्रत्ययः ।) स्वामित्वधत्तां यस्मिन् पुरुषे उदीते सति मिथः परस्परं अस्योऽपि वैरिणोऽपि न द्रुह्यन्ति , द्रोहं न कुर्वन्तीत्यर्थः मुखचन्द्रश्चरणकमले एषां यो विरोध स भगवता भग्न इति भावः ॥ ३९ ॥ दत्तनमद्भिः ककुभामधीशै, धान्द्रैः किरीटै निजराजचिन्हैः । पढ़यां प्रभोरङ्गुलयो दशापि, कान्ता अभूष्यन्त मिपानखानाम् ॥४०॥ (व्या०) दत्तरिति ॥ प्रभोः श्रीपभदेवस्य पद्धयां (न्तपाद नासिका । २।११-१०१ । ई. सू. पाढत्यवापद् ) चरणाभ्यां दशापि अगुलय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨) શ્રીનનવુમારસમ્મત્રાર્થમહાદાવ્યમ્ દીાલમતમ્ ॥ સર્ જાન્તા મનોજ્ઞા નરવાનાં માતા નાન્દ્ગ (તેન નિવ્રુતે હૈં । ૬ । ર્ | ૭o ! ૬. સ. નિવૃતેથૈ અક્ પ્રત્યયોડત્ર જ્ઞેય) ચન્દ્રાન્તરત્નનિર્મિત રીટર્મખિમયમુદ્દે રમૂલ્યન્ત અઋન્નતા । વિવાદે વિરીટ: નર્માણૂ નમનાર વૃગ્નિઃ માં વિજ્ઞાનવીરી સ્વામિમિ નિષ્પાત્ત (વત્। ? | ૪ | {૦ । ૐ { મુ. ધાવને વાસનસ્ય તૌ ઋિતિ ત્ આવેશ ) પુનઃ વિશિષ્ટે ર્નિનરાજ્ઞનિન્જી. નિઝયાત્મન રાષમૃત. અયોપિ યો નહાન્તાનાનં સેવતે સ નિના પાનિ પુરો વૈજ્યંતે || ૨૦ || અન્તઃ સસોળ મૃત્વમાના, પાનિયોર્ધ્વમસ્થિતેન । વિન્ડૉમતાઽાય તટીયગંધા,-નાયેનામનાøમેતત્ ॥ ૪૨ || (ન્યા॰) અન્તરિતિ તીયગંધાના ચેન તત્ત્વ માવત મે તવીયે (તસ્યે દમ્ | 6 { ? | o૦ । હૈં. સૂ, ચ પ્રચય) નતે નધે વ નાછે તયોગ્રંથન ( ૬ ત્રિખ્યામવત્ વૉ । ૭ । ? । ?*? | રૂ. હૂઁ. અયત્) દિન સમર્થ વિદ્ધોમાં જોમદિતત્વ અન્યનાખ્યો વિસદશવં વૈવરીત્ય | સાય ધાર્થત મ તત્—સનાનું સમ્યક્ વ લખેનેં તોયનવાનાૠચેન અન્ત. સસારેખ મેં ચેમારસિંહતેન પુનશ્ર્વ ૦િ મૃત્યુવનાના (માવેત્વતત્ । ૭ । ? | બુધ | ૩. 7. મૉવેડર્બેવ પ્રયઃ 7 મો સઁવણ્ | ૬ | ↑ | ૨૪૬ । રૂ. સૂ. નારૢ પાત્ મણ્ ધાવિદ્ પ્રત્યઃ । અયોûત્ | ? | ? | ૨૭ ] ૬. જૂ. વિશ્ ટોપ ) મૃદુન બુકુમારસ્ય માથું મતિ તેન સૌકુમાર્ચ સેવમાનેન પાનાબ્નયોઃ પા, નરવિત્ર અને મક્કે તયો રણમયો. ર્ધમુર સ્થિતેન તોહતો ચમનારે ચોડત્ર વૈરીાિંત માવ || ૨૬ ॥ પીત્તમનાધૈયમિત વૃષા', શ્રેષુવીરસ પરેડઽવ ર્કાન્ત 7 તીયુમાં વિશા, વૃત્ત નિોયેતિ વુધરા‰ | જીર્ ॥ (૦) ધીમાતિ । વિટાફ તર્તારા તસ્ય માવત' માના સાવ ગોળ નિવો નય ચુંમાં ચુર્ણ વિછોય (અનઞ: નવો ચમ્ । ૐ । ૨ । બ્o o . 7. વાયવ્ ) પ્રખ્ય તે વચમા પ્રાણ અ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहापाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः १ (२३ विचार्यते स्म । कथंभूत तदूस्तूगीरयुगं विशालं च तत् वृत्तं च तत् । इतीति कि धीरांगनाधैर्यभिदे धीराश्चता अनाश्च त्रियस्तासां धैर्यस्य भिदे शीले निश्चलचित्तानां स्त्रीणां धैर्यभेदनाथ पश्चेषुवीरस्य पञ्च उन्मदेन १ मदन २ मोदन ३ तपन ४ शोषण ५ रूपा इको बाणा यस्य स पंचेषुः स चासौ वीरश्च तस्य परेऽपि अन्येऽपि पृषत्का बाणाः सन्तीति बहून् बाणान् विना तूणीरयुग्मं न स्यादिति वितः ।। ४२ ॥ कटीतटीमप्यतिलंध्य धा,-ल्लावण्यपूरः प्रससार तस्य । तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रष्टि,-द्रोण्योऽप्यलं पारमवाप्तुमस्य ॥४३॥ (व्या.) कटीतटीमिति || तस्य भगवतो लावण्यस्य पूरस्तदा प्रससार कि कुर्वन् लावण्यपूर: कटीतटी कटी एवं तटी तामपि अतिलच्यातिक्रम्य धावन् धावतीति धावन् 'लिला' इति सूत्रेण नकारस्य लत्वं जातम् । यथा अनिमिन्द्रष्टिद्रोण्यः अनिमिषाणां देवानां इन्द्राः स्वामिनो देवेन्द्रास्तेषां दृष्टयो । एव द्रोण्यो वेडा नौका इति यावत् अथवा अनिमिषा:-तेषु इन्द्रा. समर्थाः મહાન્તો મત્સ્યાસ્તષ દષ્ટિ ચૅપ તે અનિમિષેન્દ્રદષ્ટયોધીવાસ્તેષાં કોળ્યો વેડી अपि अस्य लावण्यपूरस्य पारमन्त मवाप्तुं (+वा तुमम् भाव । ५। १ । १३ । इ. सू. भावे तुम्) प्राप्तुं नालं न समर्था अभवन् । प्रायः प्रचुरे पयः पूरे बेडानामसमर्थत्वमिति युक्तम् ॥ ४३ ॥ सनाभितामञ्चति नामिरेका, कूपस्य तस्योदरदेशमध्ये । प्रभाधु नेत्राजलिमिः पिपासु, कथं वितृष्णा जनतास्तु तत्र ॥४४॥ (या०) सनाभितामिति तस्य भगवत. उदरदेशमध्ये उदरस्य यः प्रदेशस्तस्य मध्ये एको नाभिः कूपस्य सनामिता सादृश्य मञ्चति प्रामोति तत्र नाभौ जनानां समूह) जनता (आम जन बन्धु गज सहायात् तल् । ६ । २ । २८ । इ. सू. समूहेऽर्थे तल ) जनसमूहः कथं वितृष्णा विगतातृष्णा यस्याः સા તુળારહિતા , મવતુ ગરિ તુ નૈવ મવતુ વિ વર્તુજામાં બનતા નેત્રા एव अञ्जलयस्तैः दृष्टिरूपाञ्जलिभिः प्रमाम्बु प्रभारूपजलं पिपासुः (सन् भिक्षा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ शंसरुः । ५ । २ । ३३ । इ. सू. उ) पातुमिच्छतीति पिपासतीति पिपासुः पातुमिच्छु रित्यर्थः ॥ ४४ ॥ उपधुरः प्रौढ मधः कटी च, न्यूढान्तराभूत्तलिनं विलग्नम् । किं चिन्मयेऽस्मिन्ननु योजकानां, त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय ॥४५॥ (व्या०) उपरीति ॥ अस्मिन् भगवति इति पदं सर्वत्र योन्यते उपरि उरो वक्षः स्थलं प्रौढं अन्यत् अध• कटी च व्यूढा विस्तीर्णा । अन्तराअव्ययः शब्द' मध्ये विलग्नमुदरं तलिनं कृशमभूत् । किमर्थ चिन्मय ज्ञानमयेऽस्मिन् भगवति अनुयोजकानां (णक तृचौ । ५ । १ । ४८ । इ सू. कर्तरि सर्व. स्मात् धातोर्णकः) पृष्छकानां त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय त्रिलोकस्य संस्थानमाकारस्तस्यनिदर्शनाय कोऽर्थः ज्ञानमयो भगवान् सर्वलक्षणोपेतत्वात् जडानां लोकानां वेत्रासमोधरतादित्यादि त्रैलोक्यसंस्थानमदर्शयत् तथापि ते लोका न ज्ञातवन्तः पश्चात्तेषां स्वीयमेव रूपं दर्शयामास भगवानिति तात्पर्यार्थः ॥४५॥ न्यूढेऽस्य वक्षस्यवसत्सदा श्री-वत्सः किमु छअधिया प्रवेष्टम्। . रुद्धः परं बोधिमटेन मध्य, मयूषुषासीद्धहिरङ्ग एक ॥ ४६॥ (व्या) न्यूढ इति ॥ श्रीवत्सो लाञ्छनं कंदर्पो वा अस्य भावतो व्यूढे विशाले वक्षसि हृदये किमु अधिया कपटबुद्धया प्रवेष्टुं सदाजस्र मवसत् । परं केवलं बोधिभटेन सम्यक् तत्वपरिज्ञानरूपसुभटेन रुद्ध सन् बहिरङ्ग एवासीत् । किं कृतवता बोधिभटेन मध्यम-तरा अध्यषुषा उषितेन 'वसं निवासे, अधिपूर्वो वस् अध्युवास इति अध्युषिवान् तेन अन्यूषुषा तत्र बसुकानौ तद्वदिति सूत्रेण वसुप्रत्यये ततो द्वित्वे पस्य संप्रसारणे उत्वेऽधिना सह यः इडागमे । पत्वे अध्यषिवस् इति जातं ततस्तृतीयेकवचने टाप्रत्यये 'क्वस उस्' इति सूत्रेण पस्य अधिकृते अध्यूषुषा इति सिद्धम् ॥ ४६॥ - यत्र त्रिलोकी निहितात्मभारा, शेते सुखं पत्रिणि पत्रिणीव । सोऽमन्मते तद्भुज एवं शेषः, कोऽन्यो जराजिलगतेविशेषः ॥४७॥' Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (२५ ( व्या० ) यत्रेति । यत्र भुजे त्रिलोकी (संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू. असंज्ञायां द्विगु द्विगो समाहारात् । २ । ४ । २२ । इ. सू. स्त्रियांडी) त्रयाणां लोकानां समाहार निहितात्मभारा निहित स्थापित आत्मन भारो यया सा न्यस्तात्मीयभारा सुखं शेते स्वपिति का इव यथा पत्रिणी पक्षिणी पत्रिणि (अतोऽनेकस्वरात् । ७ । २ । ६ । इ. सू. मत्वर्थे इन् प्रत्ययः) वृक्षे सुखं शेते तद्वत् । स तद्भुज एव अस्मन्मते अस्माक मतं तस्मिन् शेष. अस्मदीयमते जिनशासने तस्य भगवत एव भुजरूप शेषनागाधिराजोऽस्तु जराजिह्मगते. (प्रभृत्यन्यार्थदिक्-तरै । २ । २ । ७५ । इ. सू. अन्य योगे पञ्चमी) जरया वृद्धत्वेन जिह्ना गति यस्य तस्मात् अन्यो विशेष क. शेष न कोऽपि ॥ ४७ ॥ पाणे स्तलं कल्पपुलाकि पत्रं, तस्यांगुलीः कामदुधास्तनांश्च । चिन्तामणींस्तस्य नखानमंस्त, दानावदानावसरेऽर्थिसार्थः ॥ ४८ ॥ ( व्या०) पाणेरिति ॥ अर्थिसार्थ अर्थिनां सार्थः याचक समूह स्तस्य માવતો વાવવાર્નીવસરે વાનમેય અવતાનું સમ તત્ત્વ અવસરે તત્ પરં सर्वत्र योज्यते अर्थिसार्थ दानावदानावसरे तस्य भगवत पाणे हस्तस्य तलं પપુજાષિત્ર જપવૃક્ષસવૃં પત્ર ામંત મન્યતે “ હૈં તસ્ય માવત' ચુલી कामदुधास्तनान् कामान् दोग्धि सा कामदुधा (दुहे हुधः । ५ । १ । १४५ । इ. सू. डुथ' । आत् । २ । ४ । १८ । इ. सू. स्त्रियामाप् ) कामधेनु तस्या' स्तनानू अमंस्त च तस्य नखान् चिन्तामणीन् अमंस्त ॥ ४८ ॥ येन त्रिलोकीगतगायनौघं, जिगाय धीरध्वनिरस्य कंठः । क्रमेण तेनैव किमेष रेखा - त्र्यं कृतं साक्षिजनैर्बभार ॥। ४९ ।। (40) येनेति ॥ अस्य भगवत कंडो येन क्रमेण त्रिलोकीगत्तगायनौघं त्रयाणां लोकानां समाहार त्रिलोकी तां गतानि च तानि गायनानि च Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ तेषा मोघस्तं त्रिभुवनस्थानां गायनानां समूहूं जिगाय (द्विर्धातुः परोक्षा प्राप्त स्वरे स्वरविधे. । ४।१।१ । इ. मू. द्विर्भावः जेनि स-परोक्षयोः ॥ ४॥ १ । ३५ । इ. सू. पूर्वात्परस्य जेर्गिः नामिनोऽकलिहले ४।३। ५१ । इ. सू. वृद्धि: एदैतोऽयाय् । १। २ । २३ । ह. सू. आयादेश:) जितवान् । कोश: कंठ धीरध्वनिः धीरोगंभीरो ध्वनि यस्य स. एषः तेनैव ऋगि कि खात्रयं वभार । कि विशिष्टं रखात्रयं साक्षिजनैः कृतं कोऽर्थः त्रिभुबने एतावति स्वामिसदक् धीरध्वनि नास्ति इत्यर्थः ॥ १९ ॥ यजातिवैरं परता तदास्यां-भोजन्मनाऽभजि जगत्समक्षम् । निशारुचिस्तरिकमपत्रापिष्णुः, सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः ॥ ५० ॥ (व्या०) यजातिवरमिति ॥ यत् यस्मात् कारणात् तदात्यांमोजन्मना तस्य भगवतः अस्यं तदेवांभोजन्म तेन तदीयमुखकमलेन अयं विधुश्चन्द्रो जगतः समक्षं (सङ्कटाभ्याम् । ७।३। ८६ । इ. सू. संपूर्वक अक्षि शब्दात् अत् समासान्त) सङ्गतमक्षणासमीपमक्ष्णो विश्वसमक्षं अभजि जीयते स्मेत्यर्थः किं कुर्वता जातिवैरं जातवैर जातिपैर तत् स्मरतीति स्मरत् तेन सोऽयं विधुश्चन्द्रस्तत् तस्मात्कारणात् दिवा दिवसे अप्रकाशः (उष्ट्र मुखादयः । ३ । १।२३ । इ. सू. न पूर्व मस्त्यर्थं पदं समस्यते नत् । ३।२। १२५ ॥ इ. सू. उत्तरपदे न अकार) न विद्यते प्रकाशो (भावाडकोंः । ५। ३ । १८ । इ.सू. भावे घब्) यस्य सः निस्तेजा अप्रकटो वा अभूत् कि लक्षणो विधुः अपत्रविष्णु: भ्राज्यलंका निराकृग भूसहि-इष्णु: । ५। २ । २८ । इ. सू. लादिसदर्थे इष्णुः) लज्जाशील: पुनश्च कीदशो निशारुचिः निशायां रुचिः शान्ति र्यस्य सः । अन्योऽप्यत्र जिष्णु दिवा अप्रकाश: स्यात् तस्य पहि निश्शायां रुचिरभिलाषः स्यात् ॥ ५०। ओष्ठद्वयं पाक्समयेऽवदान-दन्तधुतिप्लावितभेतदीयम् । बभूव दुग्धोदधिवाचिधीत-प्रचालवल्लिप्रतिमल्लितथि ॥५१ ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहापाच्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः १ (२७ (व्या०) ओष्टद्यमिति । एतदीयं (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. ईय प्रत्ययः) एतस्येदं ओष्टयं ओष्ठयो यं दुग्धोदधिवाचिधातप्रलपल्लिप्रतिमलितथि दुग्धानां उदधिः (व्याप्यादाधारे । ५। ३ । ८८ । इ. सू. धा धातो. कि. उदकस्योद: पेषधि वास वाहने । ३।२।१०४ । इ. सू. उदक उद') क्षीरसागरः तस्य वीचय. कल्लोलाः तैः धौताश्चते प्रवालाश्च तेपा पल्लि तस्याः प्रतिमलिता प्रतिमल्लीकृता श्रीः गोभा येन तत् बभूव । कि लक्षण मोटद्वयं बाक्समये वाचः समयोऽवसरस्तस्मिन् वचनावसरे अवेदातदन्तयुतिप्लावितं अवदाताश्चते दन्ताश्च तेषां धुतयः ताभिः प्लावितं उज्वलदन्तसत्ककिरण व्याप्तं ओप्ठयं प्रवालवल्लीसदृशं दन्तधुतयश्च क्षीरसमुद्रकल्लोलसाशा इति भाव ॥५१॥ व्यक्तं द्विपंक्तिभवनादजस्रं, श्रीरक्षणे यामिकतां प्रपन्नाः। द्विजा द्विजेशस्य तदाननस, लक्षशीसमूहं प्रभुदत्तमूदुः॥५२॥ (40) व्यक्तमिति ॥ तदाननस्य तस्य भगवत: आननं मुखं तदाननं सदीयमुख तदेव द्विजेशस्य चन्द्रस्य द्विजा दन्ता लक्ष्मीसमूहं शोभासमूह महु पहन्ति स्म किं विशिष्ट प्रभुदत्तं प्रभुणा मुखेनदत्तस्तं मुखे एव स्थिता दन्ताः शोभा भजन्ते इति किं लक्षणा द्विजा. (कचित् । ५।१।१७१ । इ. सू. जनः ।) व्यक्त प्रकट द्विपंक्ति भवनात् अजसं (यजस हिंसदीपकम्पकमनमोरः । ५। २ । ७९ । इ. सू. न पूर्वक जसु धातो रः प्रत्ययः) निरंतर औरक्षणे शोभा रक्षणे थामिकता मारक्षकता प्रपन्नाः (दाद मर्छमदः यो दस्य च । ४ । २।६९ । इ. सू. तस्य नत्वं तयोगे धातोर्दस्य च नत्वम्) 'दन्नरव मुखस्य शोभा स्यात् । अथ पक्षे द्विजानां ब्राह्मणाना मीश: स्वामी द्विजेशः तस्य द्विजा ब्राह्मणाः स्वामिना दत्तं लमीसमूह वहन्ति स्म । व्य द्विपंक्तिभवनादित्यादि अत्रापि योज्यम्, ।। ५२ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः १ अदा-दुर्दिवमुक्तियुक्त्या, युक्तं तदीया जनतासु जिह्वा । लोला स्वयं स्थैर्यगुणं तु सभ्या,-नभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न ॥५३।। (०या०) अदादिति ।। तदीया तम्य भगवत. इयं तदीया जिह्वा । जनतामु (ग्रामजनबन्युजसहायात्तल् । ६।२ । २८ । इ. स. समहेऽर्थे तल्) जनानां समहास्तासु जनसमहेषु । उक्तियुक्त्या उक्तीनां वचनानां युक्ति श्चातुर्थ तया वचनचातुर्येण मार्दव (वृवर्णालप्वादे. । ७।१। ६९ । इ. सू. भावेऽर्थे अण) सौकुमार्य मदात् कि लक्षणा जिह्वा मृदु कोमला अत एवं हेतो मार्दव मदात् तु पुन स्वयं लोला चपला सती सभ्याम् (तत्र साधौ । ७।१ । १५ । इ सू. साध्वर्थेय प्रत्ययः) सभायां सावरतान् सभाजनान् स्थैर्यगुणं (वर्ण ढादिभ्यष्टयण च वा । ७।१। ५९ । इ. सू. भावेऽर्थे यण) स्थैर्यमेव गुणस्त अभ्यासयन्ती अभ्यास कारयन्ती -कुतुकाय आश्चर्याय कि न स्यात् अपितु स्यात् । कोऽर्थः स्वामिनो निया सर्वेषां स्वान्त स्थैर्यभाव उत्पद्यते इत्यर्थ. ॥ ५३ ॥ आणं जगजीवन हेतु भूत, नासा यदौनत्यपदं दधाति । कर्मारिमाराय तदप्रवीक्षा-दीक्षादिनात्तेन ततो विधाता ।। ५४ ॥ (०या०) प्राणमिति ।। यत् यस्मात् कारणात् नासा नासिका सा कथंभता आन्नत्यपद (वर्णददादिभ्यष्टयण च वा । ७।१।५९ । इ. सू. भावेऽर्थे व्यम्) उच्चताया स्थान । जगजीवनहेतुभूतं जगतोविश्वस्य जीवनाय हेतुभूत प्राणं दधाति धारयति । तत् तस्मात् कारणात् तेन भगवता । कर्मारिमाराय मणि एक अस्य शत्रबस्तेषां माराय विनाशाय । आदीक्षादिनार दीक्षाया प्रतच्याया दिनमह तस्मात् आ दीक्षादिनात् दीक्षादिन मारभ्य । तदप्रवीक्षा तस्था नासिकाया अब्रवीक्षा (टो गुरोर्व्यञ्जनात् । ५ । ३ । १०६ । इ सू भावे अ. आत् । २।४ । १८ । इ. सू. स्त्रियामाप् ) अनिरीक्षणं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (२९ વિધાતા વિલાયતે | જોડાથે સ્વામી નિત નાતાશ્રવત્ તાદબ્રુ મેરત્રિન हनिष्यतीति भावः । लोकेऽपि यो बलवान् स्यात् तस्यैव वीमा शत्रुहननावसरे क्रियते ॥ ५४॥ अयस्करापुल्लसदंशुराशी, पार्श्वद्वयासीनजनेषु तस्य । कली कपोलावकरप्रयत्न-हैमात्मदर्शवमशिश्रियाताम् ॥ ५५ ॥ (न्या०) श्रेयस्कराविति ॥ तस्य भगवत कलौ मनोज्ञौ कपोलौ पार्श्वद्वयासीनजनेषु पार्श्वयोः इयं तस्मिन् आसीनाचते (आसीनः । ४।४।११५ इ. सू. आसीन निपात:) जनाश्च तेषु उभयोः पार्श्वयोः उपविष्टलोकेषु । अकरप्रयत्नहैमात्मदर्शवं हस्तोपक्रमरहितस्वर्णमयदर्पणत्वं अशिश्रियाता (णिश्रीदुसुकमः कतरिडः । ३ । ४ । ५८ । इ. सू. कतरिड । द्वि (तु. परोक्षाडे प्राक्त स्वरे स्वरविधेः । ४ । १।४ । इ. सू. द्विर्भाव । संयोगात् । २ । ११ ५२ । इ. सू. इयादेश) माश्रितवन्तौ कि विशिष्टौ कपोलो श्रेयस्करी (हेतुतच्छोलानुकूले-पदात् । ५।१।१०३ । इ. सू. टः । इत्युक्त कृता । ३।१। ४९ । इ. सू. तत्पुरुषः) अत' कृकमि-यस्य ।२।३ । ५। इ. सू. रस्य सः) पुनश्च कि विशिष्टौ उल्लसदंशुराशी उलसन्तः अंशूनां राशयः समूहा ययोत्तौ उगछत्किरणसमूहो ॥ ५५ ॥ वितेनुषी श्मश्रुवन विहार, दोलारसाय श्रितकर्णपालिः । स्फुरत्प्रभावारि चिरं चिखल, तदाननांभोजनिवासिनी श्रीः ॥५६॥ (व्या०) वितेनुषी इति ॥ तदाननांभोजनिवासिनी (अजाते. शीले । ५। १ । १५४ । इ. सू. शीलेऽर्थे णिन् स्त्रियां नृतोऽत्वत्रादे डा. । २ । ४ । १ । इ. सू. डी:) तस्य भगवत. आननं मुख तदेव अंभोज कमल तस्मिन् निवसति इत्येवं शीला तन्मुखकमलनिवासिनी श्रीलक्ष्मी । स्फुरत् प्रभावारि स्फुरत् चतत् प्रभा कान्तिरेवपाश्चजलं तस्मिन् प्रसरत्प्रभारूपजले Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦) શ્રીનન માનત્તમાષ્યમહાદાન્યન્ ટીજોલમહંતમ્ | સર્ चिरं चिरकालं । चिखेल क्रीडां चकार । वार शब्दो व्यंजनान्तोऽत्र ज्ञेयः । किं विशिष्टा श्रीः स्मश्रुवने कूर्वरूपोद्याने विहारं विचरणं वितेनुपी (तत्र सुकानौ तद्वत् । ५ । २ । २ । इ. सु. परोक्षायां कसु वबस उष् मतौ च । २ । १ । १०५ । इ. सू. अधुटिपरे क्वस उष् अधातूहदितः । २ । ४ । २ । इ. सू. ङीः) कृतवती पुनश्च कीदृशी दोलारसाय दोलाया रसस्तस्मै आन्दोलनरसकृते । श्रितकर्णपालि श्रिता कर्णपालि यया सा ॥ ५६ ॥ पद्मानि जित्वा विहितास्य दृग्भ्यां सदा स्वदासी ननु पद्मवासा | किमन्यथा सावसथानि याति तत्प्रेरिता प्रेमजुषामखेदम् ॥ ५७ ॥ (व्या०) पद्मानीति || अस्य भगवतो दृग्भ्यां नेत्राभ्यां पद्मवासा (उष्ट्र मुखाद्रयः । ३ । १ । २३ । इ. सू. व्यधिकरणबहुव्रीहिः) पद्मकमले वासो निवासो यस्था. सा पद्मवासा कमलनिवासिनी लक्ष्मी ननु निश्चितं सदा (सदाधुनेदानतदानीमेतहिं । ७ । २ । ९६ । इ. सू. सर्वशब्दात् दा प्रत्ययः सर्व शब्दस्य स भाव कालेऽर्थे ) निरन्तरं स्वदासी स्वस्यात्मनो दासी किंकरी विहिता किं कृत्वा पद्मानि कमलानि जित्वा । अन्यथा किं कथं सा पद्मवासा लक्ष्मीः तत्प्रेरिता ताभ्यां दृग्भ्यां नेत्राभ्यां प्रेरिता । प्रेमजुषां स्नेहवतां आवसथानि गृहाणि अखेदं खेदरहितं यथा भवति तथा याति । कोऽर्थः स्वामिदृग्म्यां મનનાનાં વારિદ્રોમાં યાયો નોાં નન્તિ પરે પડે સઁપથ વિનુમન્તાંત 714' || 90 || कृष्णाभ्ररेखाभ्रमतो निभालय, तद्भ्रूयुगं यौवनवतिः । अकारि नृत्यं प्रभदो-गदिष्णु-मनोमयूरै विलसत्कलापैः ॥ ५८ ॥ प्रमदोन्मदिष्णु ( उदपचिपतिपदिमदे | तृतीयस्यपञ्चमे । १ । ३ । १ । इ. सू. प्रमदानां स्त्रीणां उन्मदिष्णूनि उन्मदगीलानि સ્રોળ ( व्या० ) कृष्णास्त्रेति ॥ ५ । २ । २९ । इ. सू. इष्णु उदो दस्य नो वा) मनोमयूरे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहापाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्गः १ (३१ यानि मनासि तान्येव मयूरास्त । पक्षे प्रमदेन हर्पण उन्मदिवो ये मनसो मयूगस्तः । नृत्यं नाट्य मकारि (कृधातो. कर्मणि अद्यतनी) क्रियते स्म । कि कृत्वा तयुगं तस्य भगवतो भ्रुधो युग युगलं कृष्णाम्ररेखानमतः कृष्णा श्यामा या अभ्राणा मेवानां रखा पंक्ति स्तस्याः यो भ्रमो विभ्रमस्तस्मात् कृष्णा: । कि विशिष्टमयूरः यौवनवाहिनत र्यनो भावो यौवनं तदेव बहिस्तेन ततास्त: यौवनरूपवैश्वानरसंतप्तै. पुन किविशिष्ट विलसांकलापै विलसन् कलानामापः प्राप्तिर्येषु ते तैः पक्षे विलसन् कलापः पिच्छसमूहो येषु ते तैः । दावानलसंभवे च पतितत्वं मयूगणामपि स्यात् ।। ५८ ॥ भ्रान्त्वाग्विलेंगेऽस्य शो वशाना, प्रभापयोऽक्षिापयोनिपीय । छायां चिरं भूलतयोरुपाय, भालस्थले संदधुरध्वगत्वम् ।। ५९ ॥ (व्या०) मानवेति । वशानां नारीगां शो दृष्टयः अस्य भगवतः अखिलेसमस्त अङ्गे शरीरे भ्रान्त्वा । (अहन् पञ्चमस्य वि विङति । ४ । १ । १०७ । इ. सू. दीर्घ । न धृवर्गेऽन्त्योs पदान्ते । १ । ३ । ३९ । इ. सू. परस्व:) तत. परं अक्षिप्रपयोः अक्षिणी नेत्रे एवप्रपे तयोः लोचनरूपप्रपयो: प्रभा कान्तिय योजलं प्रभारूपं जलं निपीय पीत्वा । मूलतयोः ध्रुवौ एव लते पल्ली तयो वाल्यो छायां चिरं चिरकाल मुपास्य सेवित्वा । भालस्थले भालं ललाटमेव स्थलं तस्मिन् अवगत्वं (नानो गम' खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५। १ । १३१ । इ. सू. डः । डियन्त्यस्वरादेः । २।१।१५४ । इ. सू. अन्न्यस्वरादे लोप: । नानीनोऽन ह्रः ।२।१ । ९१ । इ. सू. अध्यनो नलोप भावत्वतल । ७ । १ । ५५ । इ. सू. त्व) पथिकवं संदधुः संदधते स्म । अन्या अपि पथिका अंगनानिदेश भ्रा.पा प्रपासु पय: पापा लतयोः सर्ववाल्यो. छाया मुपास्य स्थलमार्गे गमनं कुर्वन्ति ॥ ५९ ॥ अर्ध च पूर्ण च विधु ललाट-मुखच्छलाद्वीक्ष्य तदंगभूती । न के गरिष्ठां जगुरष्टमी च, राकां च.तभाथतया तिथीधु ॥ ६०॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३२) श्री जैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ ( व्या० ) अर्धमिति ॥ के विज्ञा. बुधा पुरुषा अष्टमी च अन्यत् राकापूर्णिमां च तन्नाथतया तौ अर्धपूर्णोवधू चन्द्रौ नाथौ स्वामिनौ ययोस्ते तन्नाथे तयोर्भाव तन्नायता तथा तन्नायतया तिथिषु पंचदशस्वपि गरिष्ठां (गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू । ७ । ३ । ९ इ. सू. इष्ट प्रत्यय प्रकृष्टेऽर्थे प्रियस्थिर स्फिरोवृन्दम् । ७ । ४ । ३८ । इ. सू. गुरो गरादेश 1 ) ज्येष्ठां न जगुः (आत् सन्व्यक्षरस्य । ४ । २ । १ । इ. सू. आः द्विर्धातु परो धेः । ४ १ ॥ १ । इ. सू. द्विर्भाव ह्रस्व । ४ । १ । ३९ । इ. सू. पूर्व ह्रस्वः गहोज: । ४ । १ । ४० । इ. सु. पूर्व गस्य ज इडेत् पुंसि चातो लुक् । ४ । ३ । ९४ । इ. सू. आकारस्य लुक् गैं धातो कर्तरि परोक्षा) न कथयामासुः अपि तु जगुरेव । किं कृत्वा अर्ध विधुं च अन्यत् पूर्ण विधुं चन्द्रं ललाटमुखछलातू तदंगभूतौ तस्य भगवतः अंगभूत अंगतांगतौ वीक्ष्य दृष्ट्वा । कोऽर्थः स्वामिभाल મર્ચન્તન્દ્રસદશું મુલે સંપૂર્ણશ્વન્દ્રમંડલદર્શી નામૂત્ તેન અષ્ટમીવાળમાૌ સર્વतिथिमध्ये गरिष्ठे जाते इति कथ्यते ॥ ६० ॥ द्विष्टोऽपि लोकैरमुना रवमूर्ध्नि, निवेशितः केशकलापरूपः । वर्णोऽवरः श्रीभरमापनाथ, प्रसादसाध्येद्युदये कुलं किम् ॥ ६१ ॥ ( व्या० ) द्विष्ट इति ॥ अवरो वर्ण अप्रशस्यः श्यामवर्णः नीचवर्णो वा श्रीभरं श्रिया शोभाया. भर समूहस्तमाप प्राप । कीदृशो वर्ण लोकैर्जने [र्द्विष्टोऽपि पुनश्च कीदृशः अमुना भगवता । स्वमूर्ध्नि (ईडौ वा । २ । १ । १०९ । इ. सू. अनोडस्य लुगू वा ) आत्मीयमस्तके निवेशित आरोपित 1 पुनः कीदृश' केशकलापरूप केशानां कलापः समूहः स एव रूपं यस्य सः हि निश्चितम् ॥थप्रसादसान्ये (ऋवर्ण व्यञ्जनात् ध्यण् । ५ । १ । १७ । इ. सू. साधू धातो र्घ्यण् ) नाथस्य स्वामिनः प्रसादोऽनुग्रह' तेन साध्यस्तस्मिन् एतादृशि उदये सति कुलं किं वीक्ष्यते । कोऽर्थ नृपो यस्य पुंसः प्रसादाभि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીનેનમાલક્ષ્મવાથંમદ્ાાવ્યમ્ ટીજાલમહંતમ્ ॥ સર્જ્યોઃ ૨ (કુરૂ मुख. स्यात् तस्याकुलीनस्यापि संपदः स्युरिति भावः ॥ ६१ ॥ 'उक्तं च 'सुप्रसन्नवदनस्य भूपते, यंत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः । तत्र तत्र शुचिता कुलीनता, दक्षता सुभगता च गच्छति' ॥ १ ॥ बुद्धा नवश्मश्रुसमाश्रितांक - श्रीकं निशोदीतमदोमुखेन्दुम् । केशौघदंभात् किमु पुष्पतारा, -लंकारहारिण्य भिसारिकाऽभूत् ॥ ६६ ॥ (च्या० ) बुद्ध वेति ॥ निशा रात्रिः केशवदभात् केशानामोघ समूहः तस्य ढंभात् मित्रात् अदोमुखेन्दुम् असौ मुखमेवेन्दुः अदोमुखेन्दुस्तं मुखचन्द्र मुदितं बुद्धचा ज्ञात्वा अभिसारिका (णक तृचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. णक प्रत्ययः । अस्यायत्तत् क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । १११ | इ. सू. इः) भूतू 'अलंकृता या प्रियं याति कथ्यते साभिसारिका' । किं लक्षणमदोमुखेन्दुं नवमश्रसमाश्रितांक श्रीकं नवं नूतनं च तत् श्मश्रु च तेन समाश्रित अंकस्य लाञ्छनस्य श्री. शोभायेनतम् नवीनकूर्चाश्रितलाञ्छन शोभम् । कीदृशी रात्रिः पुष्पतारालंकारहारिणी पुष्पाणि कुसुमानि तानि एव तारा तारकाणि तेषा भलंकार आभूषणं तेनहारिणी ( ग्रहादिभ्यो णिन् । ५ । १ । ५३ । इ. सू. कर्तरि णिन् स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेडी: । २ । ४ । १ । इ. सू. डी. ) मनोहरा । यतः शिरसि पुष्पाणि स्युः रात्रौ च तारकाणि स्युरिति भावः । एतावता मुखं पूर्णचन्द्रसमं केशकलापश्च रात्रिसम इति भाव ॥ ६२ ॥ वर्णेषु वर्णः स पुरस्सरोऽस्तु, योऽजस्त्रमाशिश्रियदंगमस्य । अवेपियच्छायलवेऽपि लब्धे, लोके सुवर्णश्रुतिमाप हेम ।। ६३ ।। (०या०) वर्णेषु इति ॥ स पीतलक्षणो वर्णो वर्णेषु श्वेतरक्तादिषु पुरस्सर : (पुरोऽग्रतोऽप्रेसर्तेः । ५ । १ । १४० । इ. सू. ट' । शषसे शषसं वा । १ । ३ । ६ । इ. सू. वा. र. स.) पुर सरतीति पुरस्सर अग्रेसरोऽस्तु । य. पीतवर्णोऽजस्रं ( स्म्यजस हिंसदीप-रः । ५ । २ । ७९ । इ. सू. नञ् पूर्वज सुधातो. शीलादिसदर्थे रः ) निरन्तरं अस्य भगवत' अङ्गमाशिश्रियत् Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪) શ્રીનેનમાપ્તસ્માલ્યમાાવ્યમ્ ટીજાલમહંતમ્ ॥ સઃ ફ્ आश्रयति स्म | टुवेपृड् केप्टड् गेटड् कड् चल्ने इति धातोर्णिनिप्रत्यये वेपिन् इति स्थात् अत कारणात् अवेपियच्छायलवे न वेपते इत्येवं शील अवेपी तस्मिन् यस्य भगवत छायलवे कान्तिलेशेऽपि लब्धे प्राप्ते सति हेम सुवर्ण लोके लोकमध्ये | सुवर्णश्रुतिं (श्रवादिभ्यः । ५ । ३ । ९२ । इ. सू. स्त्रियांतिः) शोभनोवर्णः यस्य सः सुवर्ण सुवर्ण इति श्रुतिः ख्याति तामाप | भगवान् सुवर्णवर्णशरीरी वर्तते इति भावः ॥ ६३ ॥ द्युम्नं जगत्युपयोगि गुप्तं, यच्छैशवेऽभूत् परमार्थदृष्टेः । तद्यौवनेनोत्सववत् प्रकाश, मकारि माद्यत्प्रमदेन तस्थ ॥ ६४ ॥ ( व्या० ) धुम्न मिति ॥ यत् घुम्नं वलं पक्षे धनं तस्य भगवतः शैशवेવાત્સ્યે गुप्तमभूत् । किं विशिष्टस्य तस्य परमार्थदृष्टेः परमार्थे मोक्षे दृष्टिदर्शनं यस्य तत्य पक्षे परमार्थे प्रकृष्टार्थे द्रव्ये दृष्टि यस्य तस्य किं लक्षण युम्नं जगमृत्युपयोगि जगतो विश्वस्य मृतिः पोपणं तस्मिन् उपयोगि । धनवान् जगतः पोषणं कर्तुं समर्थ' । भगवान् भेरुदंडे पृथ्वीछत्रं कर्तुं समर्थोऽस्ति । तद् द्युम्नं यौवनेन प्रकाश प्रकटमकारिक्रियते स्म । किं चत् उत्सववत् (स्यादेरिवे । ७ । १ । ५२ । इ. सू. सादृश्येऽर्थे वतु प्रत्ययः) यथा उत्सवेन द्युम्नं धनं प्रकाशीक्रियते किं लक्षणेन यौवनेन माद्यत्प्रमदेन माद्यन्त्यः प्रमदाः येन तत् माद्यत्प्रमदतेन उत्सवेन किं लक्षणेन पक्षे माद्यन्तः प्रमदा हर्षादयो येनतेन ॥ ६४ ॥ यूनोऽपि तस्याजनि वश्यमश्व, वारस्य वाजीव सदैव चेतः । सशंकमेवोरसिलोऽप्यनङ्ग, स्तद्गजन्मा तदुपाचरतम् ॥ ६५ ॥ ( व्या० ) यून इति । तस्य भगवतो यूनोऽपि (वन् युवन् भवोनो डी स्वावलुट् स्वरे व उ । २ । १ । १०६ इ. सू. व उ । समानाना तेन दीर्घ ' । १ । २ । १ । इ. स् ढोर्ध 1 ) यौवनारूढस्यापि चेतश्चित्तं सदैव चश्यमवीनमजनि जातं कस्येव अश्वारस्येव (कर्मणो अण् । ५ । १ । ७२ । इ. सू अण् | अश्चं वारयतीति अश्ववारः ) यथा अश्ववारस्य वाजी (अतोऽनेक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (३५ स्चरात् । ७ । २ । ६ । इ. सू. इन् ।) तुरगो वश्यो भवति । तत् तस्मात् कारणात् उरसिलोऽपि (लोमपिच्छादेः लम् । ७ । २ । २८ । इ. सू. उस शब्दात् इल प्रत्यय) बलवानपि अनङ्ग नास्ति अंगं शरीरं यस्य सः कंदर्प तं । भगवन्तं सशंकमेव यथा भवति तथा उपाचरत् सेवते स्म । कि लक्षणोऽनंगः तदंगजन्मा तस्य चित्तस्य अंगजन्मा पुत्र: । कोऽर्थ. यदि पिताश्योभवति तदा पुत्रस्तु अवश्यमेव वश्यो भवेदिति भाव. ॥ ६५ ।। पश्चादमुष्यामरवृन्दमुख्याः , पट्टाभिषेकं प्रथयांबभूवुः, । प्रागेव पृथ्व्या प्रससार दुष्ट,-चेष्टोरगीवज्रमुखः प्रतापः ।। ६६ ।। (व्या०) पश्चादिति ॥ अमरवृन्दमुख्या अमराणा देवानां वृन्दाः समूहाः तेषु मुख्याः सुरेन्द्रा अमुष्य स्वामिनः पट्टाभिपेकं (भावाऽकत्रोंः । ५। ३ । १८ । इ. सू. भावे व । लधोरुपान्त्यस्य । ४ । ३ । ४ । इ. सू. गुणः। केऽनिश्चिजो कगो घिति इ सू. चस्य कः । ४ । १ । १११ । ) राज्याभिषेक पश्चात् प्रथयाबभूवुः विस्तारयामासु. । अमुष्य भगवत' प्रताप (भावाऽकों । ५ । ३ । १८ । इ. सू. भावे धम् । ) पृथिव्यां प्रागेव प्रथममेन प्रससार प्रसरति स्म । कि लक्षण प्रतापः दुष्टचेष्टोरेगीवप्रमुख: दुष्टाना मन्याय. कारिणां चेष्टा सैव उरगी (नाम्नो गम: खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५।१ १३१ । इ. सू. ङ पृषोदरादित्वात् सलोपः । पचायोगादपालकान्तात् । २॥ ४ । ५९ । इ. सू. डीः अस्य ज्यां लुक । २ । ४ । ८६ । इ. सू. अस्य लोपः) सर्पिणो तस्या' वनमुखो गरुडसमानः ॥ ६६ ॥ आनचुरिन्द्रा मकरन्दविन्दु-संदोहवृत्तस्नपनावयत्नम् । मन्दारमाल्य मुकुटाग्रभाग-भ्रष्टनमन्तोनुदिनं यदंनी ॥६७ ॥ __ (न्या०) आनुर्बुरिति ॥ इन्द्र। यदी यस्य स्वामिन अंधी यदधी तौ यदीयपादौ । मन्दारमाल्यैः मन्दारस्य माल्यानि तैः मन्दारकुसुममालाभिः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३६) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ अयत्न (यजिस्वपिरक्षियतिप्रच्छो न । ५ । ३ । ८५ । इ. सू. भावे न:) उपक्रम विनैव आनर्यु (अनातोनश्चान्त दादशौ संयोगस्य । ४ । १ । ६९ । इ. सू. अर्थधातादित्व पूर्वस्यात्वं नागमश्च) पूजयामासुः किं लक्षणौ यंदनी मकरदबिन्दुसंदोहवृत्तस्नपनौ मकरन्दस्य विन्दच. तेषां संदोह' समूहस्तेन वृत्तं निष्पन्न नपनं स्नानं ययोत्तौ तौ मकरन्द बिन्दु समूह जातस्नानौ । कि लक्षणे मन्दारमाल्यैः मुकुटाग्रभागष्ट मुकुटानां किरीटानामग्राणि तेभ्यो भ्रष्टानि पतितानि तैः । किं कुर्वन्त. सुरा अनुदिनं (योग्यता विप्सार्थानतिवृत्ति सादृश्ये । ३ । १।४०। इ. सू. विप्सायां अव्ययीभाव.) निरन्तरं नमन्तः नमता स्वयमेव मालापतने स्नान पूजा च स्यात् अतोऽयत्नमित्युक्तमिति ॥६७|| आमोक्षसौख्यांहतिसंधयास्मि-नात्मातिरेकेऽभ्युदिते पृथिव्याम् । अशिश्रिय दरकन्दराणि, संजातलजा इस कल्पवृक्षाः ॥ ६८॥ (व्या०) आमोक्ष इति । कल्पवृक्षाः मंदरकन्दराणि मंदरस्य मेरोः कन्दराणि गुहा अशिश्रियन् आश्रितवन्तः । कथमिति उत्प्रेअन्ते संतातलज्जा इस संजाता ला येषां ते उत्पन्नलजा इव । क सति अस्मिन् भगवति आमोक्ष सोल्यांहतिसंघया आमोक्षात् इति आमोक्षं मोक्षावधि यत् सौख्यं सुख तस्यां हतिदानं तद्विषये संघा प्रतिज्ञा तया । आत्मातिरके आत्मन' अतिरेकोऽधिफत्तस्मिन् । पृथिव्या मयां । अभ्युदिते सति । कल्पवृक्ष रामभ्योऽप्यधिक दातारं भगवन्तं वाक्य लजया मेरुगुहा श्रितेति भावः ॥ ६८ ॥ खर्गायनः स्वनिपतेः सभाया, माविष्कृते कायमृते तदीये । तत्यानतरप्यति नाकिलोके, सुधा गृहीतारमृते मुधाभूत् ॥ ६९ ।। (व्या०) स्वायनैरिति ॥ सुधा अमृतं ब्रहीतारं ग्राहक तेविना मुधा निकला अभूत् । कस्मिन् सति स्वर्गायन (टनण् । ५ । १ । ६७ । इ. सू. शिपिनि करि टनण) तुंवर नारदाधै गायकैः । स्वर्गिपते (अतोऽनेकस्वरात् Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (३७ ७ । २ । ६ । इ. सू. मत्वर्थे इनू ) स्वर्मिणां देवानां पतिः स्वर्गिपतिस्तस्य इन्द्रस्य सभायां तदीये तस्य स्वामिसत्के कीर्त्यमृते कीर्ति (सातिहेतिपूर्ति जूतिज्ञप्तिकीर्ति । ५ । ३ । ९० । इ. सू. कीर्ति शब्दो निपात्यते ) रेव अमृतं कीर्त्यनृतं तस्मिन् आविष्कृते प्रकटीकृते सति पुनश्च तत्पानतः तस्य कीर्त्यमृतस्य पानतः पानात् नाकि (नकं अकं नविद्यते अकं यस्मिन् स नाक' उष्ट्र मुखादयः । इ. सू. समास नखादय: । ३ । २ । १२९ । इ. सू. नञोSकाराभाव नाकोsम्ति एषा मिति नाकिन अतोऽनेकस्वरात् इति इन्) लोके देवलोके तुष्यति तृप्तिं प्राप्नुवति सति ॥ ६९ ॥ मेरी नमेरुदुतले तदीयं, यशो हयास्यैरुपवीण्यमानम् । श्रोतुं विशालापि सुरैः समेतैः, संकीर्णतां नन्दनभूरलंभि ॥ ७० ॥ 4 ( व्या० ) मेराविति ॥ सुरैर्देवैः विशालापि विस्तीर्णापि नन्दनभू' नन्दनस्य नन्दनवनस्य भूः भूमिः संकीर्णतां (तक्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ. सू. क्तः । ऋल्वादेरेपांतो नोऽप्रः । ४ । २ । ६८ । इ. सू. तस्य नः | ऋतांङ्किति इर् । ४ । ४ । ११६ । इ. सू. इर् रघुवर्णा नोण - रे । २ । ३ । ६३ । इ. सू. 'नस्य ण । भावे त्वतल इ. सू. भावे तलु) अलंभि संकीर्णत्वं प्रापिता । किं लक्षणैः सुरै । तदीयं तस्येदं भगवतो यशः श्रोतुमाकर्णयितुं समेतैमलितैः । कथंभूत यश: मेरौ मेरुपर्वते । नमेरुद्भुतले नमेरुवृक्षस्य तलेउधस्तात् । हयास्यैः हयस्य अश्वस्य आस्यं मुखमिव आस्यं येषां ते तैर्गन्धर्वैः किनरे रुपवीण्यमानं वीणया गीयमानम् ॥ ७० ॥ यशोऽमृतं तस्य निपीय नागां-गनाखकुंडोद्भवमद्भुतेन । शिरो घुनानस्य भुजङ्गमर्तु भुंभार एवाभवदंतरायः ॥ ७१ ॥ (०या० ) यश इति । भुजङ्गमर्तु (नाम्नो गम खड्डौ च । विहायरास्तु चिहः । ५ । ३ । १३१ । इ. सू. खड् प्रत्यय । खित्यनव्ययाऽरुषोर्मोऽन्तो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८) श्रीजैनकुमारसम्भवाध्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ इत्यश्च । ३ । २ । १११ । इ. सू. मोऽन्तः । पश्ययत्नाछेथे । ३ । १। ७६ । इ. सू. षष्ठी तत्पुरुषः भृधातोः णक तृचौ । इ. सू. कतरि तृच् नामिनोगुणोऽविडति । ४ । ३ । १ । इ. सू. गुणः) भुज कुटिलं गच्छन्तीति भुजङ्गाः सपाः तेषां भर्ती स्वामी तस्य शेषनागाधिराजस्य । अद्धतन आश्चर्यण शिरः शोष थुनानस्य धुनतः सतः । भूभार भुव: भार• पृथ्वीभार एव अन्तरायो विनरूपोऽभवत् । किं कृत्वा तस्य स्वामिनो यश एव अमृतं तत् निपीय पित्वा । कोश यशः । नागांगनात्यकुंडोपं नागानां सर्पाणामंगना भारतासामास्यानि मुखानि तान्येव कुंडा तेभ्य उद्भवो यस्य तत् पातालकन्यामुखरूपकुंडोत्पन्नं न च कुंडेयमृत वर्तते इति वचनात् ॥ ७१ ॥ वत्तां यशोऽस्याखिललोलग-सर्वस्वसपिताभिमानम् । भुणेदव्यूढधननिवडू, मपि त्रिलोकाटनलंपट यत् ॥७२॥ (या०) पत्तामिति । अस्य भगवतो यशः अखिललोलगसर्वस्व सर्वकपताभिमान (सात् सहश्च । ५ । १ । १११ । इ. सू. खः खित्यनव्य-च इ. सू. मोऽन्तः भावे त्वतल् इ. सू. तल ) अखिलाश्चते लोलाश्च अखिललोला: समस्तचपलपदार्थाः तेषां यो गस्तिस्य यत् सर्वस्वं तस्य सर्वकषता सर्वङ्कपत्तीति सर्वकपस्तस्य भावः सर्वकषता अखिललोलावस्य सर्वस्वसर्वकषता तस्या अभिमान: अहंकार स्तम् । धत्तां बिभर्तु । कोऽर्थः भगवती हि यशत्रिभुवन सर्व વધપામ્યોડતિવપઝન વિશ્વ વ્યામોતિ વત્ યો મુળરીતા છે गांभीर्य चातुर्य माधुर्यादिभिर्दवरकैः वा निबद्ध बद्धमपि त्रिलोकाटनपटं त्रिलोक अटनं तस्मिन् लंपट विश्वभ्रमणरसिक वर्तते । किं लक्षणे. गुणैः ६६ (बाल, स्थूले ६० । ४ । ४ । ६९ । इ. सू. निपातः) निश्चला. व्यूढा (वह धातो. क्ततपतू इ. सू. क्त: यजादि बचे. किति । ४ । १ । ७९ इ. सू. वृत् । हो बुट् पदान्ते । २ । १ । ८२ । इ. स. हस्य ढः अधश्चतुर्थात्तथोर्थः । २॥ १ । ७० । इ. सु. तन्य ध । तवर्गस्य श्रवर्गष्टवीभ्यां योगे 'चटवर्मो । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (३९ १ । ३ । ६० । इ. मू. धस्य ढ. । दस्तड्ढे । १।३ । ४२ । इ. स. हलुक दीर्घश्च) विशालाः धनाश्च निचिताः तैः ॥ ७२ ॥ स एव देवः स गुरुः स तीर्थ, स मङ्गलं सैप सखा स तातः । स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा,-मासे जनस्तद्गतसर्वकृत्यैः ।। ७३ ॥ (व्या०) स इति । जनैलोकै स एव भगवान् इति अमुना प्रकारेण उपासागास सेव्यते स्म । उपासामास इति क्रियापदं अष्टसु स्थानकेपु संयोज्यते । स एव भगवान् देव इति चतुःषष्टीन्द्र सुरासुरनरप्रभृतिलोकैः सेव्यपादारविन्द:स्वात् स एव भगवान् गुरुरिति लोकानामाचार व्यवहार विधा शिल्प विज्ञानादि प्रकाशकत्वात् । स एव जिनस्तीर्थमिति । 'अगाधे विमले शुद्ध सत्पशीलसमेऽले, स्थातव्यं जंगमेतीर्थ जानार्जवदयापर' इत्यादि तीर्थलक्षणाश्रितत्वात् । स स्वामी मंगलमिति सर्वपापच्छेदकरत्वात् । स एष जिन सखा मित्रमाश्रितजनान लाध्यकर्मोदयकारकत्वात् । स जिन. प्रभु, स्वामी तात: पिता इति भव्यान मन्तरंगशत्रुभ्योरक्षकत्वात् । स भगवान् प्राणितं (क्लीवे क्तः । ५१३ ॥ १२ ॥ इ. सू. अपूर्वक अन् 'धातामवि क्तः) जीचितमिति पुण्यमाजी पुण्यरूपजीवि दायकत्वात् । स जिनः प्रभुः स्वामी इति सकलरीति-नीतिस्थितिभिः प्रजानां पालकत्वात् । कैनः तद्गत सर्वकृत्यः तस्मिन् भगवति गतानि स्थितानि सर्वात कृत्यानि येषां ते ते तद्गतिसर्वकृत्यैः ॥ ७३ ॥ योगीश्वरो भिनभिन्यतनु -मम्यवानुदरकंदरगा यमातुः । पालो युवाप्यनपहायतस यात्र-द्वदं विवेश दयानि यदीक्षकाणाम। (या०) योगीश्वर इति यो भगवान् योगीश्वर. (युजमुजमज-हनः । ५ । २ । ५ । इ. सू. युज् धातोः शीलादि सदर्थ घिनण् । तेऽनिटश्वजी ५.गो चिति । ४ । १ । १११ । इ. स. नस्य ग स्थेशमासपिसकसो वरः । ५ ।।२। ८१ । इ. स. ईश् धातोः शालादिसदर्थे वर: प्रत्ययः । योगिन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलटातम् ॥ सर्गः १ मीश्वर: योगीश्वर. पष्ठ्ययत्नाच्छे । ३ । १ । ७६ । इ. सू. तत्पुरुषः) सन् अभिनवं नवीन अन्यतनुप्रवेश अन्यस्य तनुः रागरं तत्र प्रवेशस्त परकायप्रवेश अभ्यस्तवान् । किं लक्षण. स भगवान् मातुर्जनन्या. उदकंदरगः (नाम्नो गमः खड्डौ । च विहायसस्तु विह. । ५ । १ । १३१ । इ. स. गम् धातोः डः । डित्यन्तस्वरादेः । २ । १ । ११४ । इ. सू. अन्त्यम्बरादेलोपः) उनमेव फन्दरं तत् गछतीति उदरकंदरगः । अन्योऽपि योगी कन्दरम यस्थितः परकाय प्रवेश विधामभ्यस्यति । स जिनोबालोऽपि युवापि सन् तनुं शरीरं अनपहाय अत्यक्त्वा ईसकाणा (गक तृचौ । ५ । १ । ४८ । इ. स. ईश् धातो कतरिणक ) मालोकनपरराणा यत् यस्मात् हृदयानि यावदं यथालाभं । विदेश प्रविष्टवान् । अन्यो योगो निजशरीरं त्यक्त्वा अन्यस्य एकस्य कस्यचित् शरीरं परकायविधया प्रविशति । अयं तु भगवान् शरीरमत्यक्त्वा परेपां शरीरं વિવેકા મતોત્ર સંપૂર્વતાં વોડશે માવાન્ વા યુવાપિ અચેતેષાં हृदयं प्रविष्ट: जिनं विना लोकचित्तमध्ये नान्यो जन• स्थितः इति भावः । पादिमिति 'विंदती लाभे' विद यावत् पूर्व 'यावतो विंद जीव' इति सूत्रेण. णम् यथा यावज्जीव तथा तावदमिति प्रयोगः ॥ ७४ ॥ अप्राप्यकारिनयनं न मृमाह जनःसंपृच्य चेद्भगवतो वपुषा विध्युः। सेवामुपासकदृशस्तदिमा अपीड, दध्युः करायवयवा इव दिव्यभूषाम्॥ । (ब्या०)-अप्राप्यकारीति जैनो (दवता । ६।२ १०१। इ. सू. जिनात देवतार्थेऽण् जिनो देवता अस्य इति जैन:) नयनं लोचन अप्राप्यकारि दूरस्थमेव विषयवाहक मृपा अलोक नाह न जल्पति । जैनानां हि स्पर्शन रसनधाण श्रवणेंद्रियाणि प्राप्पकारीणि स्पृष्टविषयवाहकत्वात् । नयनमनसी तु अप्राप्पकाMિી વદનવસંમતે પૃષ્ટવિષયમાહવાન્ ! “પુઠ અને સદવે પુખવાસરૂં अपुठंतु' इत्यागमवचनात् । अत्रोपपतिमाह चेद् यदि उपासकश: (णकटचा 1५। १ । ४८ । इ. स. उपपूर्वक आस्थातोः कर्तरिणक: भ्यादिभ्यो वा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन कुमारसम्भचाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ (४१ ५ । ३ । ११५ । इ. सू. घ्ग् धातोः किपू.) इह जगति कराद्यवयवा इव दिव्य भूषां (भीषिभूषिचिन्तिभ्यः । ५ । ३ । १०९ । इ. सू. भूष् धातोः भावेऽड् । आत् इ. सू. स्त्रियां आपू ) दध्युः । कोऽर्थ कराद्यवयवा हस्तસીધોવાનિ માવતો વઘુવા સંમ્રજ્ય સેવારોન દ્રિવ્યમૂળમુદ્રા મુતાનિાં दधति न तथा दृश: उपासकदृशो दधति संपृच्य सेवाकरणाभावादिति ॥ ७५ ॥ हृदि ध्याते जातः कुसुमशरजन्मा ज्वरभरः । श्रुते चान्यश्लाघा वचनविरुचित्वं श्रवणयोः ॥ दृशोर्दृष्टे स्पष्टेतरविषयगत्या मलसता । तथापीह स्नेहं दधुरमरवध्वो निरवधिम् ॥ ७६ ॥ ध्यैवातोरात्वं । व्यञ्ज व्यावर्जनात् नत्वाभावः) (मन् वनू कनिप विचू ' (ब्या० ) हृदीति ॥ इह भगवति हृदि (दन्तपाद नासिका हृदय वा । २ । १ । १०१ । इ. सू. हृदयस्य हृत् 1 ) ध्याते (तवतू । इ. सू. ध्यै धातोर्क आत्संध्यक्षरस्य । ४ । २ । १ । इ. सू. नान्तस्थातोऽख्याध्यः । ४ । २ । ७१ । इ. सू. सति कुसुमशरजन्मा कुसुमशरः कामः तस्मात् जन्म क्वचित् । ५ । १ । १४७ । इ. सू. जनू घातो. मन्) यस्य स ज्वरेभर• कामज्वरसमूहो जातः । च अन्यत् इह स्वामिनि श्रुते सति श्रवणयो. कर्णयोः अन्यश्लाघा (केटो गुरो र्व्यञ्जनात् । ५ । ३ । १०५ । इ. सू. लाधू धातोरड् प्रत्ययः आत् इ. सू. आप स्त्रियाम्) वचनविरुचित्वं अन्येषां श्लाघा वचनानि પ્રશંસાવનનાનિ તેષુ વિન્નિત્યં નાત તેવુ અનિરુપના । હૈં. માર્થાત દછે सति शोचनयो. इतरविषयगत्यां इतरे च ते विषयाश्च तेषु गतिर्गमनं तस्यां अन्यत्रावलोकने अलसता स्पष्टा जाता आलस्यं प्रकटं जातं । तथापि अमरवध्व. अमराणां देवानां वचो भार्या देव्य इह भगवति निरवधिं अवधिरहितं स्नेहं दधुर्धरन्ति स्म । यस्मिन् ध्याते ज्वर श्रुतेऽरुचि दृष्टे आलस्यं जायते तत्र स्नेह कथं ध्रियते इति विरोधः ॥ ७६ ॥ नारीणां नयनेषु चापलपरीवादं विनिघ्नन् वपुः । सौन्दर्येण विशेषितेन वयसा बाल्यात्पुरोवर्तिना || Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२) श्रीजेमकुमारसम्मवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १ निर्जतापि मनोभवस्थ जनयंस्तस्यैव वामाकुले | भ्रान्ति कालमसौ निनाय विविधक्रीडारसैः कंचन ॥ ७७ ॥ ( व्या० ) नारीणामिति || असौ भगवान् विविधक्रीडारसैः विविधाश्रताः क्रीडाच तासां रसास्तैः कंचन कालं क्रियन्तं समयं निनायगमयति स्म । कुर्वन् वपुः सौन्दर्येण वपुषः सौन्दर्य तेन शरीरमनोहरवेन निश्रलताकरणात् नारीणां स्त्रीणां नयनेषु नेत्रेषु चापलपरीवादं चपलस्य भावश्चापलं तेन परीवाद: (भावाकर्त्रीः । ५ । ३ । १८ । इ सू. परिपूर्वक द् धातो धञ् । धञ्चुपसर्गस्य बहुलम् । ३ । २ । ८६ । इ. स. परिवाद परि उपसर्गस्य दीर्घ ) तं चपलतया अपवादं विनिन्नन् (शत्रानशा वेष्यतितुसम्यौ | ५ | २ | २० | इ. सू. विनिपूर्वक हुन् धातो. सदर्थे शतृ अनोऽस्य । २ । १ । १०८ । इ. सू. अलुकि हनोह्रोन्न । २ । १ । ११२ । इ. सू. होन । मदित् इ. सू. घुटिपरे नोन्त दीर्घड्याव्-से । इ. सू. सेर्लोप पदस्य । २ । १ । ८९ । इ. सू. संयोगान्तस्य लोपः ) विनाशयन् । कि लक्षणेन वपु सौन्दर्येण बाल्यात् पुरोवर्तिना बाल्यात् अग्रेसरेण वयसा यौवनलक्षणेन विशेषितेन विशेप विशिष्टतां सीतां प्रापितेन । किं कुर्वन् भगवान् मनोभवस्य कामस्य निर्जेतापि वामाकुले स्त्रीवर्गे रूपश्रिया तस्यैव मनोभवस्य भ्रान्ति अयमेव कामदेव इति भ्रान्ति जनयन् उत्पादयन् यो यस्य निर्जेता स्यात् स तस्यैव भ्रान्ति कथमुत्पादयतीति चित्रम् ॥ ७७ ॥ इतिश्रीमद्भञ्चलगच्छे कविचक्रवर्त्तिश्री जयशेखरसूरिविरचित श्रीजैन कुमारसंभवस्य तच्छिष्य श्रीधर्मशेखरो उपाध्यायविरचितटीकायां श्री माणिक्य सुन्दरशोधितायां प्रथमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ १ ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटा कोटीरहीरच्छवि- । धम्मिलादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनी सानुमान् ॥ वाणीदत्तवरचिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते । सगों जैनकुमारसंभवमहाकाव्येऽयमाद्योऽभवत् ॥ १ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहापाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (४३ ॥ अथ द्वितीयः सर्गः प्रारभ्यते ॥ तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं, प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम् । अगायतां तुंपरुनारदौ रदो-च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥१॥ (व्या०) तदेति । तदा तस्मिन्नवसरे । तुम्बरुनारदौ (चार्थे इद' सहोक्तौ । ३ । १ । ११७ । इ. सू. इतरेतर इन्दः ।) तुम्बरुश्च नारदश्व तुम्वरुनारदौ । हरेरिन्द्रिस्य संसदि (कुत् सम्पदादिभ्यः क्वि५ । ५ । ३ । ११४ ।इ सू सम्पूर्वक सद् बातो विवप् ) सभायां । प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य ६५सम्पदं रूपस्य पम्पत् (कुत्सम्पदादिभ्यः क्वि५ । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. सम्पूर्वक पद् धातो स्त्रियां क्विप् ) लक्ष्मीस्ता रूपलक्ष्मीमगायतां गायतः ___ स्म । किं लक्षणां रूपसम्पदं प्रभाजीवनयौवनोदितां प्रभायां (सप्तमी गौण्डायैः । ३ । १ । ८८ । इ. मु. सप्तमीतत्पुरुष ) जीवनं तदेव यौवनं तस्माददितासु-पन्नां । (पञ्चमी भयाथै. । ३ । १ । ७३ । इ. सू. पञ्चमी तत्पुरुषः) कि लक्षणो तुम्वरुनाग्दो रदोलन्मयूखलदर्शिताशयो रदेभ्यो दन्तेभ्यः उच्छलन्तो ये मयूखा. (विशेषणं विशेष्येण–श्च । ३ । १ । ९६ । इ. सू. विशेषण कर्मधारयः) किरणा तेपां छलेन (१४यत्नाच्छेषे । ३ । १ । ७६ । इ. सू. षष्ठीसमास:) मिषेण दर्शित. (कारकं कृता । ३ । १ । ६८ । इ. सू. तृतीया तत्पुरुष) प्रकटित. आशयोऽभिप्रायो याभ्यां (एकार्थं चानेकं च । ३। १ । २२ । इ. सू. तृतीया बहुव्रीहिः) तौ एतावता विशेषणेन विशदमानसी इति भावः ॥ १ ॥ प्रभुः प्रभांभोनिधिरामरी सभा. किमु स्तुमतौ यदि गातुमुधतौ। मणिमहायः शुचिकान्ति काञ्चनं,कला कलादस्य कलापि वर्ण्यताम् ॥ (व्या०) प्रभुरिति । प्रभु श्रीऋषभदेव प्रभांभोनिधिः प्रभाया. कान्तेरंभोनिधिः समुद्रः वर्तते । सभा आमरी (तस्येदमि. सू. अण् अणजेथेकण-म् Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ ----- - --- --- २ । ४ । २० । इ. स. स्त्रियां डी.) अमराणामियमामरी देवसका वर्तते । यदि तो तुम्बरुनारदौ गातु (क्रियायां क्रियार्थायां तुम् णकच भविष्याती। ५। ३ । १३ । इ. सू. भविष्यदर्थे गावातोस्तुम् प्रत्ययः ।) मुवती । वयं किमु स्तुम न किमपि । अत्रार्थे दृष्टान्तमाह मणिमहायों (एकार्थ चाने च इ. स. पहुव्रीहि । जातीयैकार्थेऽवे । ३ । २ । ७० । इ. सू. महत् अनात् डाप्रत्ययः । डित्यन्तस्वरादे इ. स. अत् लोप ) महत् अयं यम्य स बहुमूल्योपतते । काञ्चनं सुवर्ण शुचिकान्ति शुचि: कान्तिर्यस्य तत् निर्मलकान्ति पर्तते । ततः परं कलादस्य कलामादत्ते इति कलाद (ढचाड । ५ । १ । ७८ । इ. सू. आइपूर्वक दाम् धातोर्ड । डित्यन्तस्वरादे. इ. स. आलोप ) सुवर्णकारस्य कला मनोज्ञा कलापि वयताम् ॥ २ ॥ गुणात्यया गेयविधिप्रवीणया, न वीणया गीतमदोन्वगायि न । सरस्वती पाणितलं न मुञ्चती, किमौचितीतश्ववते कदापि सा ॥३॥ (व्या०) गुणान्ययेति । वीणया अदो नारदतुम्बरुसंबंधि गीतं न अन्चगायि न अनुपश्चाद् गीयते स्म । अत्र द्वौ नौ प्रकृतार्थ गमयतः । किं विशिછયા વીળયા ગુમાવ્યા મુસ્તિત્રીમિર્નિતિમિર્વ મધ્યયા સમૃદયા મળ્યા માયિની મુળધુર્યાદ્વિમિ સાચા સ્વાત પુનઃ વુિં વિરિષ્ટી મેયવિધિવીગયા ને (आसयक्षरस्य । ४ । २ । १ । इ, सू. गैधातो आकारः । यएचातः । ५ । १ । २८ । इ. स. य प्रत्यय. आकारस्य च एकार । गानं तस्य विधी प्रपोणया निपुणया सा वीणा औचितीतः औचित्यगुणात् कि कदापि चवते प्रत्यति अपितु नैव । किं कुर्वती वीणा सरस्वतीपाणितलं सरस्वत्या. पाणिहरतस्तस्य तळं सरस्वती हस्ततलं न मुञ्चती । य. सरस्वत्या समीपं न मुञ्चति तस्य विवेकाचा गुणाः स्युः अत्र कि चित्रम् ॥ ३ ॥ निनिन्दुरेकेडमरधेनुजं पयो, मरुद्भुमाणामपरे फलावलिम् । परेऽर्णवालोडनसाधितां सुधां, प्रभोः पिबन्तश्चरितामृतं सुराः ॥४॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (४५ ( व्या० ) निनिन्दुरिति । एके देवा अमरघेनुजं सप्तम्याः । ५ । १ । १६९ । इ. सू. जनेर्ड । ) पय कामधेनु संबंधि दुग्धं निनिन्दुर्निन्दन्ति स्म ।' 'णिदु' कुत्सायामिति धातोः परोक्षाया प्रयोग इयं क्रिया सर्वत्र योज्यते । अपर देवा मरुदहुमाणां मरुतोदेवास्तेषां द्रुमा कल्पवृक्षास्तेषां फलानि तेपा मावलिस्ता निनिन्दु || अपरे सुरा अर्णवालोडनसाधिता अर्णवस्य समुद्रस्या लोडनं मन्थनं तेन साविता तो समुद्रमन्थनप्रकटितां सुधामनृतं निनिंदु । किं कुर्वन्त सुरा प्रभो श्री*पमदेवस्य चरितामृतं चरित्र रूपममृतं पिबन्तः । कोऽर्थ देवानां श्रीयुगादिदेवचरित्रामृतं कामधेनुदग्धकल्पवृक्ष फलसुवानिर्यासादिम्योऽप्यधिकतरं सरसं जातमिति तात्पर्यम् ॥ ४ ॥ श्रवः श्रियं प्रापुरमी प्रभोर्गुणै, वयं वृथा भारकृतः किमास्महे । मुदा शिरः स्वं धुनतां सभासदा, मितीव पेते किल कर्णवेष्टकैः ||५| ( व्या० ) श्रवः श्रियमिति ॥ किल इति सत्ये सभासदां ( किप् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. सद् धातो: कि । ) सभायां सीदन्तीति सभासदस्तेषां सभ्यानां कर्णवेष्टनै कुंडले पेते पतितम् अत्र पतने उत्प्रेक्षते इतीव इति कारणादिव इतीति किं अमी सभासद सभ्या प्रभोर्गुणै श्रव श्रियं कर्णशोभां प्रापु' । वृथा मुधा भारकृतः भारं कुर्वन्तीति भारकृतः (किपू । ५ । १ । १४८ इ. सू. कृ धातो. क्विप् हृस्वस्थत 'पिकृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू त्) मुधा भारकारिणो वयं किमास्महे कथं तिष्ठामः । किं कुर्वतां सभासदां मुढा हर्षेण स्वं शिर स्वीयं मस्तकं । धुनतां कर्णवेष्टकान् पुंनपुंसकयोर्ज्ञेय. || यशोऽमृतौयः प्रससार तन्मुखा तथा प्रभोः पार्षद निर्जरै र्यथा । अयं श्रवः कूपक हृत्सरःस्वमान् दृगध्वनावामि मुदश्रुभतः ।। ६ ।। (व्या०) यशोऽमृतौध इति ॥ तन्मुखात् तयोर्मुखं तन्मुखं तस्मात् तुरुनारद्वयोर्मुखात् प्रभो श्रीमदेवस्य । यशोऽमृतौ यशांसि एव अमृ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ तानि तेषामोधः समूहः । पार्पदनिर्जरैः पर्षद साधव पार्षदा पार्षदाचते निर्जराश्वतैः ४ पर्षद्रोण्यणौ । ७ । १ । १८ । इ. सू. पद शब्दात् अण् विशेषणं विशेष्येण । इ. सू. कर्मधारयः मुदश्रदंमत मुद्र' अश्रूणि तेषां दंभतः हर्षाश्रुमिपात् । गध्वना एव अन्या तेन दृष्टिमार्गेग अवामि वम्यते स्म । किं कुर्वन् यशाऽमृतौघ व कृपकहृत्सर सुश्रवसी कर्णावेच कूपकौ च हृत् एव सग्श्च तेषु कर्णरूपकूपहृदयरूपसरोवरेषु अमान् न मातीति अमान् मातुं न शक्तः ध्रुवं शोध श्रवसोव संगतं प्रवाहवरमन्तिरमस्ति देहिनाम् । श्रुतिं गतो गीतरसो शोदभून, मुदश्रुभाद् सदां किमन्यथा ॥ ( ०या० ) ध्रुवमिति । देहिनां मनुष्याणां । दृशो नेत्रयोः च श्रवसो. कर्णयोः प्रवाहस्यवर्त्म प्रवाह पवनस्य मार्ग तत् की आन्तर अन्तमेवं तत् संगतं मीलितमस्ति । ध्रुवमिति निश्चये । अन्यथा संगताभावे सदां (क्विप् इ. सू. सङ्घातो. क्विप् । उपदान्तेऽनुत् । २ । १ । ११८ । इ. सु. दिवो वस्य उ ) दिवि सीदन्तीति तेषा देवाना श्रुतिं (श्रवादिभ्यः । ५ । ३ । ९२ । इ. सू. श्रुधातो. स्त्रियां क्ति) गत कर्णगत गीतस्य रस गीतरस मुदश्रदे भात् हर्षाश्रुमिषात् । दृशा नेत्रद्वारा कि कथं उदभूत् बहिर्निसृतोऽस्ति ॥ ७ ॥ कथामृतं पीतवतां विभोरभू-द्यथा ऋभ्रूणां श्रवसो भृशं सुखम् । तथा शरर्तिरदोदिदृक्षया, न जन्तुरेकान्तसुखी क्वचिद्भवे ॥ ८ ॥ ( व्या०) कथामृतमिति ॥ विभोः श्रीऋषभदेवस्य कथामृतं कथारूपममृतं पीतवतां (तक्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ. सू. पाधातोः कर्तरि क्तु । ईर्यञ्जनेऽयपि । ४ । ३ । ९७ । इ. सु. ई ) ऋभूणां देवानां श्रवसोः कर्णयोः भृशमत्यन्तं सुखं यथाऽभूत् । तथा दृशोर्नेत्रयोरर्तिः पीडा आसीत् । यथा ऋणा मित्यत्र 'ति ह्रस्वो वा' इति सूत्रेण हस्वाभावो विकल्पेन ज्ञेय । कथं नेत्रयो. पीडाभूत् इति प्रश्न अद्रोदिदृक्षया द्रष्टुमिच्छादिदृक्षा ( तुम्हांदिच्छायां सन्न Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (४७ तत्सनः । ३ । ४ । २१ । इ. सू. हा धातो. सन् । सन्यडश्च । ४ । १ । ३ । इ. सू. द्वित्वम् । सन्यस्य । ४ । १ । ५९ । इ. स. पूर्वाकारस्य इः यजसजमृजराजभाजनजनवपरित्राजः श: प. । २ । १ । ८७ । इति सू. गः प । पढो. कस्ति । २। १ । ६२ । इ. सू. पस्य क । नाभ्यन्तस्थाकवर्गात. पदान्त कृतस्य स शिनान्तरेऽपि ।२। ३ । १५ । इ. स. सस्य पः कप सयोग स । शंसि प्रत्ययात् । ५ । ३ । १०५ । इ. स. स्त्रियामः । आत् । २ । ४ । १८ । इ. सू. आप् ।) अमुष्य दिक्षा अदो दिक्षा तया । जन्तु प्राणी भवे ससारे क्वचित् कुत्रापि एकान्तसुखी नियमेन सुख वान् न भवेत् ॥ ८॥ प्रकृत्य कृत्यान्तरशून्यतां सद-स्थदस्यगीतेन तदा दिवौकसाम् । ध्वनेः खजन्मत्वमसूचित, यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः ॥९॥ (व्या०) प्रकृत्येति । सदसि सभायां अदस्य गीतन अमुयो तुंबरुनारदयो रिदमदन्यं । अदस्यं च तत् गीतं च तेन तदा तस्मिन्नवसरे दिवौकसां देवानां कृत्यान्तर शून्यता अन्यत् कृत्यं कृषिभूजिशसिगुहिदुहिजपो वा । ५ । १। ४२ । इ. सू कृवातोर्वा क्य५ । ह्रस्वस्य तः पित्कृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू. त् ।) कृत्यान्तर कार्यान्तरं तस्मिन् शून्यतां अचेतनत्वं प्रकृत्य प्रारभ्य ध्वने शब्दस्य वजन्याय सूचितं सुष्टु उचितं यथा भवति तथा असूचि कथितं वैशेषिका शब्दं आकाशस्य गुणं कथयन्ति । यो यदुद्भवः यो यस्मादुत्पद्यते स ताभचेष्टित. (तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतः । ७।१।१३८ । इ. सू. चेष्टाशब्दात् इत प्रत्ययः । अवर्णवर्णस्य । ७ । ४ । ६८ । इ. सू. आलोपः) स तत्सदाचेष्टावान् भवति । यदि आकाशं शून्यं कथ्यते तदा तदुद्भवः शब्दोऽपि शून्यताकारी स्थादिति युक्तमेवास्ति ॥ ९ ॥ तदीयगीताहितहत्तया समं, समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितः।। स्वभावनिःस्पन्दनिरीक्षणैः क्षणं, न तत्र चित्रप्रतिमाथित न तैः ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ मर्गः २ __(व्या०) तीयेति । तै देवै अणं ( कालाधवनोाप्तौ । २ । २ । ४२ । इ. सू. व्याप्तौ द्वितीया) न चित्रप्रतिमायितं न किन्तु चित्रलिखितप्रतिमावळाचरितमेव । कीदृशैद वे तदीयगीताहितहत्तया तस्य भावत इदं तदीयं तस्मिन् गीते आहितं धृतं यद् हृद हृदयं तस्य भावस्तत्ता तया काणभूतेन समं समकालं समुझिताशेषकारोरचेष्टितै समुज्झितानि त्यक्तानि अशेषाणि समप्राणि आगेरस्य चेष्टितानि यैस्ते ते । पुन कि विशिष्ट. स्वभावनिस्पन्दनिरीक्षण स्वभावेन प्रकृत्या निस्पन्दानि निश्चलानि निरीक्षणानि येषां ते तै अनिमिय नयना देवा इति वचनात् ॥ १० ॥ विभुं तमद्यापि निशम्य तन्मुखा, दखंड कौमारकमाकरं श्रियाम् । मृतः स कामः किमिति प्रजल्पिते, सुरीसमूहे मुमुचे रतिं रतिः ॥ (व्या०) विभुमिति । सुरीसमूहे सुरोणां समूहस्तस्मिन् देवीसमुदयमध्ये अन्याः सर्वा अपि भगवन्तं निशम्य (प्राक् काले । ५ । ४ । ४७ । इ. सू. निपूर्वक शम् धातो क्वाप्रत्यय. । अनम: वो यप् । ३ । २ । १५४ । इ. स. क्यो यप् ) श्रुत्वा रति प्रीतिं प्राप्ताः रतिस्तु न प्रीता हेतुमाह । स सर्व प्रसिद्ध. कामः किं मृत इति सवै प्रजल्पिते प्रोक्ते सति रतिः कामभार्या रति समाधि मुमुचे । किं कृत्वा तं विभु भगवन्तं अद्यापि तन्मुखात् तयोः तुंबरनायो मुख वठन तम्मात् । अखंडकौमारक (युवादेरण् । ७ । १ । ६७ । इ. सू. भावेऽर्थे कुमार।दाद । वृद्धि स्वरे वादेणिति तहिते । ७ । ४ । १ । इ. सू. आदिस्वरस्य वृद्धि तत स्वार्थ क ) मपरिणीतं श्रुत्वा कि लवणं विभु श्रियां लक्ष्मीणामाकरं (पुनानि घः । ५। ३ । १३० । इ, म. आपूर्वक कृधातो आधारे घः । नामिनो गुणोऽतिति । ४ ३ । १ । इ. सू. गुण) स्थानमिति ॥ ११॥ त्रिलोक भर्तु परमाहतो विद-नथो विवाहावसरं सुरेश्वरः । विमृज्य सभ्यानुपसर्जनीकृता-परक्रिया प्रास्थित बैंक्रियाणभृत् ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन कुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (४९. A ( व्या० ) त्रिलोकेति ॥ अथोअनन्तरं सुरेश्वरः सुराणां देवानामीश्वर इन्द्र. प्रास्थित चचाल स्था धातु प्रपूर्वक 'संविप्रावात्' इति सूत्रेणात्मनेपदम् । 'अद्यतनीत अघातो' रितिसूत्रेण अडागम | 'इश्व स्थादइतिसूत्रेण आकारस्थाने इकारे कृते सिजघतन्यामि सू. सिच् छुट्हस्वाल्लुगनिटस्तथोः इ. सू. ते परे सिचो लुक् प्रास्थित इति रूपं सिद्धम् । किं लक्षण इन्द्र वैक्रियाङ्ग भृत् देवेन्द्रा भववारणीप्रदेहेनैव लोकान्त भ्रमन्ति । परं मानुष्यलोक मागच्छन्तोहि उत्तरवैक्रियरूपं कुर्वन्तीति वैक्रियाङ्गधारी इन्द्रः इत्यर्थः । किं लक्षणा परमार्हत. महाजैनः । पुन किं कुर्वन् त्रिलोकभर्तुः त्रय अवयवा यस्य सः व्यवयव स चासौ लोकोति त्रिलोकः मध्यमपदलोपी कर्मधारयः तस्य भर्ता स्वामी तस्य जिनेन्द्रस्य विवाहावसरं विवाहस्य अवसरः समयस्तं विदन् जानन् । किं कृत्वा सभ्यान् सदस्यान् विसृज्य त्यक्त्वा । पुनः किं विशिष्ट उपसर्जनीकृतापरक्रियः (कृम्वस्तिम्यां कर्मकर्तृम्यां प्रागतत्तत्वे च्चि: । ७ । २ । १२६ । इ. सू. હસનેનશન્દ્રાત્ अभूत तद्भावे च्चि ईश्वाववर्णस्याऽनव्ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. सू. चौपरे अस्य ई: ।) उपसर्जनीकृताः गौणीकृताः निरादरीकृता इति यावत् अपराः अन्या क्रियाः कर्तव्यानि येन सः ॥ १२ ॥ t વલ स्वयंप्रयाणे वद किं प्रयोजनं, समादिशेष्टं तव कर्म कुर्महे । इमाः सुराणामनुगामिनां गिरो, यियासतस्तस्य ययुर्न विभताम् ॥ १३ ( व्या० ) स्वयमिति । अनुगामिनां (अजाते शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. अनुपूर्वक गम् धातो. णिन् प्रत्ययः । गिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. उपान्त्यस्याकारस्य वृद्धि) अनुपश्चाद् गच्छन्तीति अनुगामिन स्तेषां सुराणां देवानां इमा गिर. वाच यियासत याधातो सनिकृते शतृ प्रत्ययः । ) यातु मिच्छतीति यियासति यियासतीति यियासन् तस्य गन्तुमिच्छत तस्य इन्द्रस्य विनतामन्तरायतां न ययु न गच्छन्ति स्म । इमा का हे स्वामिन् वढ स्वयं प्रयाणे किं प्रयोजनं (अनट् । ५ । ३ । १२४ । इ. सू. प्रपूर्वक युज् धातो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧) શ્રીમેનમાસન્મવર્ધમદ્દાવ્યમ્ ટાલમસ્તૃતમ્ લ रन । लयोरुपान्त्यस्य । ४ । ३ । ४ । इ. स. उपास्यस्यगुणः ।) कि कार्य मस्ति । समादिश आदेश देहि वयं त इष्टं कर्म कुर्महे ॥ १३ ॥ वजैः मुराणामनुवबजे ब्रज-नसावनुक्त्वाप्यतिरिकभक्तिभिः । मलाद किमामन्त्रयते बलाहका, स यद् बलाकापटलैः परीयते ॥ १४ (व्या०) जैरिति । असौ इन्द्रः अनुक्यापि वजन अकथयित्वैव गच्छन् सन् सुराणां देवानां नज. समूहै अनुवनजे अनुगम्यते स्म । कि लक्षणैः प्रजः अतिरिक्तमतिभिः अतिरिक्त अधिक। भक्ति येषां ते ते. । (एकार्थ चानकं च । इ. सू. समासः । ) बलाहको (वारीणां वाहको बलाहक. 'पृषोदरादयः' । ३ । २। १५५ । पृषोदरादित्वात् बलाहकशब्दः सिद्ध ।) मेघः बलात् कि बलाकापटलानि आमन्त्रयते (आमन्त्र चुरादिभ्यो णिच् । ३ । ४ । १७ । इ, सू. णिच् कर्तरि वर्तमाना । ) आकारयति अपितु नैव । यत् यस्मात् कारणात् स बलाहको मेव. बलाकानां बकपत्नीनां पटलानि समूहास्तै परीयते (परि इ. कर्मणि परोक्षा । क्यः शिति । ३ । ४ । ७० । इ. सू. क्यः) परिबियते ॥ न चिक्तिशे कापि विभोः प्रयोजनात् , स योजनानामयुतानि लंघयन् । पदे पदे प्रत्युत तद्विवन्दिपा, रसेन कृष्टो गतिलाय दधौ ॥ १५ ॥ (व्या०) न इति । स इन्द्रः क्वापि कस्मिन्नपि स्थाने न चिक्लिो न खेदमाप्तवान् । 'लिश च' उपता इति धातोः कतरि परीक्षा । किं कुर्वन् इन्द्रः વિમો. પ્રયોગનાત્ સ્વામિાર્થાત્ યોગનાના મયુતન રાસન્નાળિ ધયનું ! अयुतानि इति उपलक्षणमात्रमेतत् । यथा योजनानां दशसहस्राणि तथा कापि लक्षं कापि दशलक्षाणि लंधयम् इत्याधपि ज्ञेयम् । पदे पदे (वीप्सायाम् । ७ । ४ । ८० । इ. सू. द्वित्वम्) प्रत्युत इति विशेषत तद्विवन्दिपारसेन तस्य भगवतो विवन्दिषा (शंसि प्रत्ययात् इ. सू वन्दे सन्नन्तात् अप्रत्यय आत् इ. सू. स्त्रियामाप् ।) वन्दितुमिच्छा बन्दनेछ। तस्या रसस्तेन कृष्टः सन् गति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनमारसम्भवास्यमहामाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (५१ लाघवं गतौ गमने लघुत्वं शीव्रत्य दधौ । (धा धातो. द्विधातु रितिसू. द्वित्व । हनः इ. सू. पूर्वस्य हस्वः द्वितीय तुर्ययो. । ४ । १ । ४२ । इ. सू. पूर्वधस्य दः आतो णव औ इ. सू. णव औ. । ऐदौत् सन्ध्यक्षरैः । १ । २ । १२ । इ. सू. औः । ) कोऽर्थः स्वाभिवन्दनोत्कंठा १ चपला २ वेगा ३ जवनतरोभिः ४ चतसृभिगतिभिरिति त्वरित त्वरित चलित. ॥ १५ ॥ शिरांसि मर्पन रुचकादिभूभृतां, तदप्रसिदायतनस्थितार्हतः। विलंबभीमनसैवसोऽनम-नयं न भि- विबुधेशिता यतः ॥१६॥ (च्या०) शिरांसीति । स इन्द्रः रुचकादि भूभृतां रुचक आदौ येषां ते रुचकादय ते चते भूभृत (विप् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. भूधातोः क्विप् । हस्वस्य त पिकृति । इ. सू. तः ।) पर्वताश्चत्तेषां रुचकादि पर्वताना शिरांसि शिरवराणि गच्छन् सर्पन गल्छन् सन् । तदप्रसिद्धायतनस्थिताहतः तेषा मने सिद्धायतनेषु जिनभवनेषु स्थिता ये अर्हन्तन्तान् मनसा एवं अनमत् । कि लक्षण: इन्द्र: विलम्बभीरुः विलंबात् भीर (पञ्चमी भयाथैः । ३ । १ । ७३ ॥ इ. स. भययोगे पश्चमीतत्पुरुषः ।) र्भयवान् यतो यस्मात् कारणात् विबुधे शिता इन्द्रः पक्षे विद्वन्मुख्यः नयं न्यायं न भिन्ते । अन्यथा 'श्रेयो हि प्रतिचनाति पूज्ये पूजाव्यतिक्रम' इति नियमः ॥ १६ ॥ न तस पत्रेऽपि विलोकितेऽधर, धेरै बभूवे कचिदंजनादिभिः। . तदीयमौलौ प्रतिमा अकत्रिमाः, सदासते यजगदेकपालिनाम् ॥१७॥ (व्या०) नेति ॥ तस्य इन्द्रस्य बजे विलोकितेऽपि दृष्टेऽपि सति (यद्भावो भावलक्षणम् । २ । २ । १०६ । इ. स. सप्तमी ।) अञ्जनादिभि धेरै (अच ५। १ । ४९ । इ. सू. कतरि अच् ) पर्वते क्वचिद् अधरै कातरै बभूवे यत् यस्मात् तदीयमौली तेषां पर्वताना मन्तके जगदेकपालिना (महादिभ्यो णिन् । ५ । १ । ५३ । इ. सू. पाल् धातोणिन् ) जिनेन्द्राणामकत्रिम Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ वितस्त्रिमक् तत्कृतम् । ५ । ३ । ८४ । इ. सू. डुकृंग् धातोः त्रिमक् प्रत्यय' आत् । इ. सू. स्त्रियामाप् । ) शाश्वत्यः प्रतिमा सदा निरन्तरं असते तिष्ठन्ति । कोऽर्थः पर्वतानां शत्रुरिन्द्रः वज्रेणपर्वतपक्ष छेदित्वात् अञ्जना चलाद्या गिरयः इन्द्रं दृष्ट्वा मनागपि न क्षुभ्यन्ति स्म स्वशीर्षे शाश्वतजिनप्रतिमानां स्थितत्वात् ॥ १७॥ रुचाज्ञ्जनक्ष्माघरमौलिमूलयां - तरा तमस्यञ्चति सचिभेद्यताम् । निरुद्धचक्षुर्विषयः म चिन्मयीं, चरन् सहस्राभ्यधिकांशं दधौ ॥। १८ (०या०) रुचाञ्जनेति । स इन्द्र चरन् गच्छन् सन् सहस्राम्यधिकां सहस्रेभ्य अधिक तां चिन्मयीं दृशं दधौ धत्ते स्म । कस्मिन् सति अन्तरा चिचाले अञ्जनक्ष्माघरमौलिमूलया (आयुधादिभ्यो वृगोऽदंडादेः । ५ । १ । ९४ । इ. सू. धृग् धातोः अच् प्रत्ययः) अञ्जनाचलपर्वतमस्तके मूलमुत्पत्तिઅન્નનાષહરર્વતમસ્તકે यस्या सा तया एवं विधया रुचा कान्त्या तमसि अन्धकारे सूचिभेद्यतां सूच्या मेचता तां (ऋवर्ण व्यञ्जनाद् ध्यण् । ५ । १ । १७ । इ. सू. भिद् धातो મિત્ ध्यण् । भावे त्वतलू इ. सू. तल् आत् इ. सू. त्रियामापू) अञ्चति गच्छति सति सूचिमिरन्धकारो न भिद्यते तथापि कविवर्मायम् । यतः कविशिक्षायामुक्तम् 'तिमिरस्य तथा मुष्टिग्राह्यत्वं सूचिमेद्यता' मिति || अत एव कारणात् निरुद्ध चक्षुर्विषय: निरुद्ध चक्षुषो विषयो यस्य स निरस्तनेत्रगोचर । कोऽर्थ अञ्जनाचलोऽतीव कृष्णः तेन तत्र अन्वकारं सूचिमेधं वर्तते तत्र इन्द्रः सहस्रनेत्रैरपि न पश्यति पश्चाद् ज्ञानदृशैव अन्तश्चलित ॥ १८ ॥ लतामयागारशया रिरंसया, सुराः सदारा ददृशुस्तमध्वगम् | स तानपश्यन्नतिवेगतखपाजडान चक्रेऽचलमूर्ध्नि चाचलिः || ९ || ( व्या० ) लतामयेति । सदारा (दारै सह वर्तन्ते इति साराः सहस्तेन । ३ । १ । २४ । इ. सू. सह पूर्वपद बहुनीहि । न्यायावायाध्यायोधावसंहाराच्हाराधारद्वारजारम् | ५ | ३ | १३४ । इ. सू. निपात. ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनकुमार नावास्यमहाकाव्यम् - टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (५३ * pr सकलत्राः सुराः देवा; तमिन्द्रं अध्वग मार्गस्थं दगु पश्यन्ति स्म । किं लक्षणाः सुराः, रन्तुमिच्छा रिरंसा तथा रिरंसया क्रीडेच्या लतामयागारश्याः वल्लीमयागारे गृहे शेरते इति । (आधारात् । ५ । १ । १३७ | इ. सू. शीड् धातो अ:) स इन्द्रः तान् सुरानतिवेगतः अपश्यन् अनवलोकयन् त्रपाजडान् त्रपथा जडास्तान् लज्जामूर्खान् न चक्रे । किं लक्षणः इन्द्र अचलमूर्ध्नि पर्वतमस्तके चाचलिः (डौ: सासहि वाहि चाचलि पापति । ५ । २ । ३८ । इ. सू. निपात' ) चलनशीलः चाचलि चाचलिरिति निपातो ज्ञेयः ॥ १९ ॥ I दिवाकरस्योर्ध्वमधश्च रेजिरे, नभोऽजिरे ये प्रखरांशुदंडकाः । अभी महेन्द्रस्य दिवोऽवरोहतः, करावलम्बत्वमिव प्रपेदिरे ॥ २० ॥ 14 1 ' (च्या० ) दिवाकरस्येति || ये दिवाकरस्य दिवाकरोतीति दिवाकरस्तस्य सङ्ख्याऽहर्दिवा-टः । ५ । १ । १०२ । इ. सू. कृग् धातोः टः 1) सूर्यस्य प्रखरांशुदंड्रकाः प्रखराश्चते अंशवः एव दंडकाश्च कठिनकिरणरूपदंडकाः नभोजिरे नभोगणे गगनांगणे उर्थमधरेजिरे (भ्रम(मत्रसफणस्यमस्वनराजभ्राजभ्रासश्लासो वा । ४ । १ । २६ । इ. सू. वा एत्वं ) राजन्ते स्म । ते अमी प्रवरांशुदंडकाः महेन्द्रस्य सौधर्मेन्द्रस्य दिवः आकाशात् अवरोहतः उत्तरत सतः करावलम्बत्वं हस्ताधारत्वमंत्र प्रपेदिरे (अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्येऽतः । ४ । १ । २४ । इ. सू. पद्घातो परोक्षायामेत्वम्) प्रपद्यन्ते स्म । इवशब्दोउत्र शंकायां कोऽर्थ यदा कोडप्रिजन' उर्ध्वभूमितोऽघ उत्तरति तदाबद्धवंशादि अवन्य अधोयाति तथा इन्द्रोऽपि सूर्यकिरणदंडकाधारेण अध उत्तरतिस्मेतिभावः ॥ २० ॥ 1 1 विवाहह त्रिजगत्प्रभो युवा, - मवाप्स्यथः किं न मणिप्रदीपताम् । इति प्रलोभ्याह्वयदिन्दु भास्करौ, कृतातिथेयौ पथि संगतौ हरिः ॥ ( या० ) विवाह इति ॥ हरिरिन्द्र इन्दु भास्करौ (चार्थे द्वन्द्व Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ सहोक्तौ । ३ । १ । ११७ । इ. सू. इतरेतरयोग हुन्छ ) इन्दुश्च भारकरश्चतौ चन्द्रसूर्यौ इति अमुना प्रकारेण प्रलोभ्य (प्राक् काले । ५ । ४ । ४७ । इ. स्. ण्यन्तलोभिधातोः पूर्वकाले क्त्वा प्रत्ययः । अनञः क्त्वो यप् । ३ । २ । १५४ । इ. सू क्त्वो यप् ) लोभयित्वा आह्वयत् आकारयति स्म । इतीति कि युवां त्रिजगत्प्रभोः त्रयाणां जगतां समाहारः त्रिजगत् तस्य प्रभुस्तस्य श्रीमदेवस्य विवाहह विवाहस्य हर्म्य तस्मिन् विवाहमंडपे मणिप्रदीपतां मणिसंबंधिमांगलिकरूपदीपत्वं किं न आप्स्यथः अपि तु प्राप्स्यथएवेत्यर्थः । किं लक्षणौ इन्दुभास्करौ कृतातिथेयौ कृतमातिथेयं प्राचूर्णत्वं याभ्यां तौ पुनः किं विशिष्टौ पथि मार्गे संगतौ मिलितौ ॥ २१ ॥ निमेषविश्लेषिसमग्रहरमये, प्रिये सदा सन्निहितेऽत्र वज्रिणि । क्वचिन्न या मुह्यति सा किमायसी, शचीति तं वीक्ष्य जगुः शशिप्रियाः ॥ ( व्या० ) निमेपेति ॥ शशिप्रिया मशिनचन्द्रस्य (अतोऽनेकस्वरात् । ७ । २ । ६ । इ. सू. इन् ) प्रिया भार्याः रोहिण्यादयस्तमिन्द्रं वीक्ष्य दृष्ट्वा इति जगुः (धातो' कर्तरि परोक्षा) परस्परमिति जल्पन्ति स्म । इतीति किं साशची इन्द्राणी किमायसी (विकारे । ६ । २ । ३० । इ. सू. विकारे अण् । अजेयेकण् इ. सू. स्त्रियांडी ) कि लोहमयी या शची अत्र अस्मिन् प्रिये इन्द्रे भर्तरि सदा निरन्तरं सन्निहिते समीपस्थे सति कचिन्न मुह्यति मूढत्वं न दवाति । कि लक्षणे इन्द्रे वज्रिण वज्रयुक्ते पुनः कि लक्षणे निमेषविश्लेषि (अजाने गीले । ५ । १ । १५४ । इ सु. शीलेऽर्थे णिन् ) समग्रदृग्मये निमेपरहित समस्तलोचने कोऽर्थ रोहिण्याचा स्वभर्तारं सौम्यं सोमं दृष्ट्वा महत्रलोचनैर्विकगलरूपं वज्रयुक्तं इन्द्रं च दृष्ट्रा गया एव सर्वसहत्वं प्रशंसन्ति न्म | ययपि जैनानामिन्द्रस्य शरीर सहस्रलोचनत्वं नोच्यते तथापि काव्यं कानुरोधेनैव स्यादिति ॥ २२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनमारसम्भवाख्यंमहामान्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: २ (५५ विलोचन मुखैवियत्युडू, रधोमुखाधिजलेऽतिनिर्मले। स विप्रकीर्णा अवलोकयन्मणी-रणीयसीमप्यविदन्न मुद्भिदम् ॥२३॥ (व्या०) विलाचनैरिति ॥ स इन्द्रः अणीयसीमपि स्वल्पामपि मुद्भिदं हर्षभेदं न अविदत् नालमत । अणुशब्दात् गुणाझाष्ठेयसू । ७ । ३ । ९ । इ. सू. ईयसु प्रत्यये स्त्रीत्वे अणीयसीति किं कुर्वन् वियति आकाशे ऊमुखैः ऊवं मुखं येषां तानि तैः विलोचनैः नेत्रैः ऊर्च उडूनक्षत्राणि अवलोकयन् पश्यन् अधोमुख विलोचनैः अतिनिर्मले वार्द्धिजले वाः (पारीणि धीयन्ते अस्मिनिति वादि. व्याप्यादाधारे । ५ । ३ । ८८ । इ. सू. धाधातोराधारे किः । इडेत् पुसि चातो लुक् । ४ । ३ । ९४ । इ. सू. आतो लु ।) जलं तस्मिन् समुद्रपानीये विप्रकीर्णाः विक्षिप्ता: मणीः रुचकाक स्फटिक लोहिताक्षमरकत प्रभृति मणिसमूहान् अवलोकचन् उशब्दः स्रोनपुंसकलिङ्गे शेयः । मणिशब्दस्तुपुत्रीलिङ्गे ज्ञेयः ॥ २३ ॥ अविश्रमे पनि तस्य यायिनः, श्रमस्य यः कोऽपिलवोजनिष्ट सः। अनोदि दुग्धोदधिशीकरैस्तटा,-चलखलद्वीचिचयोत्पतिष्णुभिः २४ (या०) अविश्रमे इति ।। अविश्रमे नविद्यते विश्रमो विरामो यस्मिन् तत् तस्मिन् वर्मनि मार्गे यायिनो (महादिभ्यो णिन् । ५ । १ । ५३ । इ. सु. कर्तरि णिन् ) गच्छतस्तस्येन्द्रस्य श्रमस्य खेदस्य यः कोऽपि लवोऽशोऽजनिष्ट जन् धातोः कर्तरि अद्यतनी जातः । स श्रमत्य लव दुग्धोदधिशीकरैः दुग्धानामुदधिः (उदकानि धीयन्ते अस्मिन् इति उदधिः व्याप्यादाधारे । ५ । ३ । ८८ । इ. सू. धाधातो: आधारे कि. इडेत् पुसीति आलक उदकस्योदः पंधिवासवाहने । ३ । २ । १०४ । इ. सू. धौपरे उदकस्य उद आदेशः ।) समुद्रः तस्य शीकरास्तै क्षीरसमुद्रजलकणैः अनोदि । भापकर्मणोः । ३ । ४ । ६८ । इ. सू. नुद् धातो: तेपरे जिन् तलक्च लघोरुपान्त्यस्य । ४ । ३ । १ । इ. सू. उपान्त्य गुणः) लक्षण दुग्धोदधि शीकरैः तटाचलसचि Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ चयोत्पतिष्णुभिः तटेषु ये अचलाः पर्वताः तेषु स्खलन्त्यः आस्फालन्त्यः या चोचयः कल्लोलारतासां चयात् समूहात् उत्पतिष्णवः उत्पतनशीलास्तै । कोऽर्थः इन्द्रस्य साईराजप्रमाणं मार्गमतिक्रम्यागच्छतः सतः यः श्रमो जातः स शीतलैः क्षीरसमुद्रजलकणैः स्फेटितः इति भावः ॥ २४ ॥ प्रभूतभौमोष्मभयंकरः स्फुरन्महाबलेनाज्ञ्जनभञ्जनच्छविः । निजानुजाभेदधियाना घनः पयोधिमध्याभिरय निरेक्ष्यत ॥ २५ ॥ י + (०या० ) प्रभूतेति || अमुना इंन्द्रेण धनो (मूर्तिनिचिताऽश्रेधनः । ५ । ३ । ३७ । इ. सू. हन् धातोः अत्रेऽर्थे अल् प्रत्ययः घनादेशश्च निपात्यते ) मेघः निजानुजा मेदधिया निजस्य स्वीयंस्य अनुजस्य लघुभ्रातुः नारायणस्य अभेदधिया ऐक्यद्रया पयोधिमध्यात् समुद्रमध्यात् निरयन् निर्गच्छन् निरेदयत निरपूर्वक ईक्ष धातोः कर्मणि ह्यस्तनी 'दृष्ट: किं लक्षणो मेघः प्रभूतभौमोष्मभयंकरः प्रभूतस्य भूमिसत्कुबाष्पस्य भयंकर (मेघर्तिभ्याम्यात् खः । ५ । १ । १०६ । इ. सू. भयपूर्वक, कृगू धातोः खः । खित्यनव्यय इति : मोन्तः) पुनः किं विशिष्ट: महाबलेन वायुना स्फुरन् पुनः किं विशिष्टः अञ्जनमञ्जनच्छविः कृष्णकान्तिः । नारायण' किं लक्षणः प्रभवः स्वामिनः तेषु 'उतः प्रसिद्धो यो भौमो भौमासुरस्तस्य ऊष्मा गर्वस्तस्य भयंकरः उच्छेदकरः बलेन शरीरसामर्थ्यन बलदेवेन वा स्फुरन्महा' प्रसरतेजाः शेषं स्पष्टमेव विशेषणैः जलदनारायणयोरखैयं यद्यपि जैने मते समुद्रे नारायणः स्वपिति इति वक्तुं न युक्तं परमत्रापि कविरूढि खं ज्ञेया । यथा श्रीकल्पे लक्ष्मीवर्णनं दिग्गजाभिषेकवर्णनमिति ज्ञेयम् ॥ २५॥ दिवस्पते द्यौरहमस्मि सांप्रतं, न सांप्रतं मोक्तुमुपेत्य मां तव । इति स्वर्णाम्बुदगर्जितेन सा, द्रुतं व्रजन्तं किमु तं व्यजिज्ञपत् ||२६|| ( व्या० ) दिव' इति ॥ सा द्यौ (दिव औः सौ । २ । १ । ११७ । इ. सू. सौंपरे ' दिवो वस्य ओ । इवर्णादेरंस्वरेस्वरे यवरलम् । १ । २ । २१ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम ॥ सर्गः २ (५७ इ. सू. पकारः) राकाशं स्ववर्णाम्बुदगर्जितन स्वस्यवर्णः श्यामतालक्षण जातिविशेषो वा यस्य स स्ववर्णः एवं विधो योऽम्बुदो मेघ तस्य गजितेन गजरिव छले न तमिन्द्रं द्रुतं शीघ्रं व्रजन्तं गच्छन्तं सन्तं किमु इति व्यजिज्ञपत् (गिश्रि द्रुकम: कर्तरि डः । ३ । ४ । ५८ । इ. सू. ज्ञप् धातोः कर्तरि अवतन्यां ड. द्विधातुः परोक्षा इ. सू. द्विर्भाव । असमानलोपे सन्दल्लधुनिडे । ४ । १ । ६३ । इ. सू. डपरे णौ सनवद्भाव ।) विज्ञपयति स्म । विज्ञप्तिरपि । स्वजनेन कार्यते इति व्यङ्गम् । इति इति कि हे दिवस्पते (वाचस्पतिवास्तोप्पति दिवस्पतिदिवोदासम् । ३ । २ । ३६ । इ. सू. दिवस्पति पष्टयलपि सत्वं च निपात्यते) अहं द्यौरस्मि तव सांप्रतमधुना मामुपेत्य ममसमीपमागत्य मोक्तुं न सांप्रतं न युक्तम् । कोऽर्थ द्यो द स्त्रीलिङ्ग स्वर्गाकाशवाची अतो भन्याह । त्वं दिवस्पतिः अहं तु द्यौः एतावता त्वं स्वामी अहं च भार्या अतः कारणात मम समीपमागत्य तब इत्थमेवोपेक्ष्य गन्तुं न युक्तमिति भावः ॥ २६ ॥ पथि प्रथीयस्यपि लंधिते जवा-दवाप स द्वीपमथादिम हरिः। विभाति यो द्वीपसरस्वदुत्करः, परैः परीतः परिवषिचन्द्रवत् ॥२७॥ (व्या०) पथीति ॥ अथानन्तरं स हरि. इन्द्रः जवात् वेगात् प्रथीयस्यपि (गुणागाद्वेष्ठेयसू । ७ । ३ । ९ । इ. सू. पृथु शब्दात् ईयसुः । पृथुमृदुभृशकाढपरिवृदस्य *तो र । ७ । ४ । ३९ । इ. सू. रः त्र्यन्त स्वरादे. । ७ । ४ । ४३ । इ. सू अन्त्यस्योकारस्य लोप) प्रचुरेऽपि पथि मार्गे लंघिते सति आदिमं द्वीपं द्वयन्तरनवर्णोपसर्गादप ईप् । ३ । २ । १०९ इ. सू. द्विशब्दात् उत्तरस्य अप् शब्दस्य ईप्) जम्बूद्वीपं अवाप प्राप यो द्वीप परैरन्यैः द्वीपसरस्वदुरकर द्वीपानां सरस्वतां समुद्राणामुत्कर समूह: परीनो वेष्टितः सन् परिवेषिचन्द्रवत् (स्यादेरिवे । ७ । १ । ५२ । इ. मू. साह येथे वत् ) परिधियुक्त चन्द्रवत् विभाति शोभते इति द्वीपशब्दः पुनपुंसकलिनोज्ञेयः ॥ २७ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ इहापि वर्ष समवाप्य भारत, बमार तं हर्षभरं पुरन्दरः। घनोदयोऽलं धनवमलंघनं, श्रमं शमं प्रापयति स्म योऽमृतम् २८ (०या०) इहापीति । पुरन्दर: (पुरन्दर भगन्दरौ । ५ । १ । ११४ । इ. सू पुरन्दर निपातः ।) पुरः दारयतीति पुरन्दरः इन्द्रः इहापि जम्बूद्वीपमन्येऽपि भारतं वर्ष भरतक्षेत्रं समवाप्य प्राप्य तं हर्षभरं प्रमोदसमुहं वभार धरति स्म । अद्भुतमाश्चर्यमस्ति यो हर्षभरः अलमत्यर्थ धनवमलंघनश्रमं धनानां मेधानां वर्त्म मार्गः धनवर्त्म आकाशं तस्य लंधने यः श्रमः तं शर्म शान्ति प्रापयतिस्म । (स्मे च वर्तमाना । ५। २ । १६ । इ. सू. स्म योगे भूते वर्तमाना) कि विशिष्टो हर्षभरः घनोदयः घनः (मतिनिचिताभ्रे घनः । ५ । ३ । ३७ । इ. सू. मूर्त्यर्थे घनः) प्रचुरः उदयः उत्पत्तिर्यस्य स. । कोऽर्थः अन्यो भारः श्रममुत्पादयति अयं हर्षभरस्तु श्रमं शमयति स्म इत्याश्चर्यम् ॥ २८ ॥ विनीलरोमालियुजो बनीघनो, गभीरनामेबहुनिम्नपल्वलः । बभूव शच्याअपि मध्यदेशतो ऽस्य मध्यदेशः स्फुटमीक्षितोमुदे ।।२९ (व्या०) विनीलेति ॥ यत्र जिनचक्री अर्द्धचक्रामुख्यानां जन्म स्यात् स भरतक्षेत्रसत्को मध्यदे२१. शच्या मध्यदेशतोऽपि इन्द्राण्या उदरप्रदेशादपि अधिकमस्य इन्द्रस्य मुदे (कुरसंपदादिभ्यः किम् । ५ । ३ । ११४ । इ. सु. स्त्रियां भावे क्विपू) हर्षाय बभूव (द्विर्धातु: परोक्षाडे । ४ । १ । १ । इ सू. भूधातोदित्वं द्वितीय तृतीययोः पूर्वी । ४ । १ । ४२ । इ. सू. भूस्याने बू भूस्वपोरदुतौ । ४ । १ । ७० । इ. स. पूर्व बूस्थाने अकारे ब. नामिनोऽकलि. हले । ४ । ३ । ५१ । इ. सू. णवि परे भूधातोकारस्य वृद्धौ बभौ अ इति ओदौतो अव् आव् । १ । २ । २४ । इ. स. आचादेशे वभाव अ भुवोवः परोक्षाचतन्यो. । ४ । २ । ४३ । इ. स. उपान्त्यस्य ऊकारे बभव इति)। हेतुमाह किं विशिष्टो मध्यदेश. स्फुटं प्रकटमीनितो दृष्टः । शचीमध्यदेशस्तु नैवमीक्षितोऽरित अत्तो हर्षे विशेष । कि लक्षणात् शच्यामध्य Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (५९ देशत विनीलरोमालियुज: विनीलाश्चता. रोम्णां आलयश्च तामिथुज्यते तस्मात् कृष्णरोमराजियुक्तात् । किं लक्षणो मध्यदेशः बनीघन महवनं बनी तयाधनो (भर्तिनिचिताऽभ्रे घन । ५ । ३ । ३७ । इ सू. मूर्त्यर्थे धन ।) बहुल । पुनः किं विशिष्टात् शरीरमध्यदेशात् गभीरनामे. गभीरा नाभियस्मिन् सः तस्मात् । कि वि० मध्यदेशः बहुनिम्नपत्वलबहूनि निम्नानि गंभीराणि पल्पलानि अखातसरांसि यस्मिन् सः । यद्यपि देवानां शरीरे नखरोमादीनि न स्युः तथाप्युत्तर वैक्रियगरीर घटन्ते इति बिनीलरोमालियुजोन चर्य मिति ॥ २९ ॥ ददर्श दूगदथ दीर्घदन्तकं, घनालिमाद्यत्कटकान्तमुन्नतम् । प्रलम्बकक्षायितनीरनिर्झर, सुरेश्वरोऽष्टापदमद्रिकुञ्जरम् ॥ ३० ॥ (व्या०) ददशेति ॥ अथानन्तरं सुरेश्वर (सुराग ईश्वरः स्थेशमास पिसकसो वरः । ५ ।२। ८१ । इ. सू. ईश धातोर्वरः प्रत्ययः) इन्द्रः अष्टापदं पर्वतं अद्रिकुञ्जर पर्वतश्रेष्ठं कुजरं हस्तिनं वा दूरात् ददर्श (दृश् धातोः कर्तरि परोक्षा) दृष्टवान् किं लक्षणमष्टापदं दीदन्तकं दोर्घा दन्तकाः बहिनिगताः प्रदेश यस्य तं कुञ्जरपक्षे दीर्थो दन्तौ यस्य स दीर्घदन्तस्त स्वार्थक प्रत्ययः ॥ पुन: कि लक्षणं अष्टापदं धनालिमाद्यत्कटका-तं घनानां मेवानां आलय. पंक्तयः घनालय धनालिभिः भायन्त. स्थूलीभवन्तः कटकानां पर्वतमध्यभागाना अन्ता. यस्य स तं कुञ्जरपक्षे धना बहवोऽलयो भ्रमरा ययोस्ते घनालिनी मावती भदं किरन्ती कटे कपोलौ ताभ्यां कान्त उन्नत उच्चत्तरं प्रलम्बकक्षायितनीरनिझर प्रलम्बकक्षा परत्रा तद्वदाचरितानि नीरस्य निर्झराणि यस्मिन् स तम् ॥ ३० ॥ शिरो ममाहत्प्रतिमानविंशति-श्चतुर्युताध्यासक्तंसयिष्यति । इति प्रमोदानुगुणं कृणध्वज-वजय दंभात्पुलकं वभार यः ॥ ३१ ॥ (०या०) गिर इति । योऽष्टापन. तृणव्वजानां वंशानां व्रजः समूह स्तस्य दंभात् मिपात पुलमं रोमाञ्चं यभार । (धानो कर्तरि परीक्षा) कि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ लक्षणं पुलक इति प्रमोदानुगुणं इति अमुना प्रकारण प्रमोदो (भावाकोः ।। ५ । ३ । १८ । इ. सू प्रपूर्वकमुद् धातो वे ५ ।) हर्षस्तस्य अनुगुणं योग्यं कः प्रमोदः इत्याह चतुभिर्युता युक्ती अर्हतां प्रतिमानानि (अनट् । ५ । ३ । १२४ । इ. सू प्रतिपूर्वक मिमीतेः नपुंसके भावे अनट् प्रत्ययः) बिम्बानि तेषां विशतिः एतावता चतुर्विशतिः मम शिरः मस्तकमध्यास्य आश्रित्य वतसयिष्यति (वावाप्योस्तनिक्रीधामहोपी । ३ । २ । १५६ । इ. सू तन् धातौ परे अव उपसर्गस्य वः) अवतंसयुक्तं मुकुटसंयुक्तं करिष्यति ३१ यदुच्चशृङ्गाग्रजुषोऽपि खेचरी-गृहीतशिम्बाफलपुष्पपल्लवाः । न से हिरे स्वानुपभोगदुर्यशो, द्रुमा मरुत्प्रेरितमौलिधूननैः ॥ ३२ ॥ (व्या०) यदुचेति ॥ द्रुमाः वृक्षा• मरुता वायुना प्रेरिताश्चते मौलयश्च शिरांसि तेषां धूननानि तै पवनप्रेरित शिर: कम्पन मिषेण स्पानुपभोगदुर्यशः स्वस्यात्मनोऽनुपभोगः उपभोगाभावः तस्य दुर्यशः अपकीर्तिः तत् न सेहिरे सहधातोः कर्तरि परोना न सोढवन्तः । किं लक्षणाः द्रुमा यदुचशृंगाजुषोऽपि (विचम् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. जुष् धातोः कतरि विवप् ।) यस्य गिर' उच्चङ्गाणि उन्नतशिखराणि तेषामग्रं जुषन्ते सेवन्ते एवंविधा अपि पुनः किं० खेचरीगृहीतसिम्बाफलपुष्पल्लवाः खेचरीभिः (चरेष्ट । ५ । १ । १३८ इ. सू. चरेष्टः खेचरन्तीति खेचर्थः अद्वयञ्जनात्सप्तम्या बहुलम् । ३ । २ । १८ इ. सं. सप्तम्या अलु५ । अणजेयकण नञ् स्मन् टिताम् । २ । ४ । २० । इस हित्वात् स्त्रियांडी विद्याधरीभिः गृहीताः सिम्बाश्च फलिका फलानि च धुपाणि च पल्लवाच येषां ते ॥ ३२ ॥ निवासभूमीमनवाप्य कन्दरे-ध्वपि स्फुटस्फाटिकभित्तिभानुषु । तले तमस्तिष्ठति यन्महीरुहां, शितिच्छविच्छायनिभानिशात्यये ३३ (व्या०) निवासेनि ॥ तमः अन्धकार निशात्यये प्रभाते 4 महीहां Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. २ (६१ ----- (क्विप् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. रुह् धातोः कर्तरि वि५) यस्य पर्वतस्य महोरहो वृक्षा तेषां तले शितिच्छविच्छायानिभात् शितिः कृष्णा छविः कान्तिर्यस्याः सा एवं विधायाछाया तस्याः निभात् मिषात् तिष्ठति । (स्थाधातोः कर्तरि वर्तमाना) कि कृत्वा कन्दरेष्वपि गुहास्वपि निवासभूमी (व्यञ्जनाद् धञ् ५ । ३ । १३२ । इ. सू. निपूर्वक वस् धातोराधारे धम् निवसति अस्मिन् इति निवामः) वासस्थान अनवाप्य अप्राप्य किं विशिष्टेषु कन्दरेषु स्फुटाः प्रकटी: स्फाटिकभित्तीनां (स्त्रियां तिः । ५ । ३ । ९१ । इ. सू स्त्रियां ति:) भानवः किरणाः येपु तानि तेषु । कोऽर्थ यत्र पर्वते मणिसत्कोद्योताने प्रवेश न लभते पश्चात् छायामिषेण वृक्षाणां तले स्थितमिति भावः ॥ यथा छायाशब्दस्तथा छायादोऽपि वर्तते ॥ ३३ ॥ प्रतिक्षिपं चन्द्रमरीचिरेचिता-मृतांशुकान्तामृतपूरजीवना । वनावली यत्र न जातु शीतगोः, पिधानमैच्छन्मलिनच्छविधनम् ॥ (व्या०) प्रतिक्षिपमिति ॥ यत्र यस्मिन् पर्वते बनानामावली वनपंक्ति र्जातु कदाचित् अपि मलिनप्छविं (मलादीमसश्च । ७ । २ । १४ । इ. सू. मलशब्दात् मत्वर्थे इन प्रत्ययः मलोऽस्ति अस्या इति मलिना) मलिना कृष्णा छवि कान्तिर्यस्य स त धनं मेधं ऐच्छत् इष् धातोः कर्तरि ह्यरतनी न वाञ्छति स्म । किं लक्षणं धनं शीतगो श्चन्द्रस्य पिधानमाच्छादनं ( वावाप्योस्तनिकीधाग्नहोर्वपी । ३ । २ । १५६ । इ. सू. अपेः पि. १) पक्षे शीता शीतला गौर्वाणी यस्य स शीतन ( एकार्थचानेकं च । ३ । १ । २२ । इ. सू. बहुव्रीहिः समास गोश्चान्ते हस्वोऽनंसि समासे यो बहुव्रीहौ । २।४ । ९६ । इ. सू. गोशब्दस्य ह्रस्व ।) तस्य पिधानमपहवकरणात् य एवं विधो मलिनच्छविश्व स्यात् स सर्वस्याप्यनिष्ट एव स्यादिति । अथ मेधं विना वनावली कथं जीविष्यतीत्याह वनावली प्रतिक्षिपं (योग्यताबी सार्थानति वृत्ति सादृश्ये । ३ । १ । ४० । इ. स. वीप्सायामव्ययीभावः ।) क्षिपां क्षिपां प्रतिरात्रि पस्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ मरीचयः कारणाः तैः रेचिताः श्रापिताः ये अमृतांशुकाता: चन्द्रकान्तमणयस्तेभ्यो यः अमृतपूर: स एव जीवनं यस्याः सा ॥ ३४ ॥ यदौषधिभिज्वलिताभिरदितं, तमः सपत्नीभिरवक्ष्य सर्वतः । तमखिनी गच्छति लांछनच्छलात् , कलानिधि किं दथितं स्थितेः कृते (व्या०) यदौषधीभिरिति ॥ तमस्विनी (अस्तपोमायामेधास्त्रजो विन् । ७ । २ । ४७ । इ. सू. तमस् शब्दात् मत्वर्थे चिन् प्रत्ययः । स्त्रियां नृतोऽस्वस्त्रादेडी । २ । ४ । १ । इ. स. डीः) रात्रिः लांछनस्य कलंकस्य छ मिपं तस्मात् किं स्थितेर्मर्यादाया. (स्थो वा । ५ । ३ । ९६ । इ. सू. स्था धातोः स्त्रियां भावे क्ति: ।) कृते मर्यादार्थ कलानां निधित्तं चन्द्रमसं दयित भर्तारं गच्छति । किं कृत्वा ज्वलिताभि दीप्ताभिः सपत्नीभिः (समानः पतिर्योसां ता. सपल्यः सपल्यादौ । २ । ४ । ५० । इ. सू. पतिशब्दात् डी: अन्तस्य न् च । समानस्य धर्मादिषु । ३ । २ । १४९ । इ. सू. समानस्य सः ।) यदौषधीभिः यस्य पर्वतस्यौषध्यस्ताभिः सर्वतः (किमयादिसर्वाधऽवैपुल्य बहो पित् तस् । ७ । २ । ८९ । इ. सू. सशब्दात् तत् अधणतस्वाचाशसः । १ । १ । ३२ । इ. सू. तसन्तत्वात् अव्यय संज्ञा ।) अदितं पीडितं तमः अन्धकार अवेक्ष्य दृष्ट्वा । कोऽर्थः औषधीनां रात्रेश्च चन्द्रः पतिः रात्रेश्च अपत्यमम्धकार ज्वलिताभिरौपधीभि तमः सर्वत पीड्यमानं दृष्ट्वा उपालंभदानाय निजपति कलानिधिं (उपसर्गाद: कि । ५ । ३ । ८७ । इ. सु. निपूर्वकधा धातो. किः । इडेत् पुसि चातो लुक् । ४ । ३ । ९४ । इ. सू. आकारस्य लोपः) गता सा अद्यापि लानछलेन चन्द्रे दृश्यते इति भावः ॥ ३५ ॥ पतन्ति ये वालर प्रो करा, यदुल्लसद्गैरिक धातुसानुषु । क्रियेत तैरेव विमृत्य चापला-दिलाखिला गैरिकरंगिणी न किम् ॥ (व्या०) पतन्तीति ॥ प्रग प्रभाते बालरवेः बालाकस्य ये कराः किरणाः बालसद्गैरिकधातुसानुष यस्य पर्वतस्य उल्लसन्तश्चते गैरिकधातश्च तेषां Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (६३ सानुषु शिखरेषु पतन्ति । तैरेव करैः चापलात् (युवादेरन् । ७ । १ । ६७ । इ. सू. चपलशब्दात् भावेऽर्थे अण् । ) चपलभावात् विसृत्य ( प्राकू काले । ५ । ४ । ४७ | इ. सूचिपूर्वक सुधातोः प्राक् काले क्त्वा उर्यादि अनुकरण चिचडाचश्च गति' । ३ । १ । २ । इ. सू. वेर्गतिसंज्ञा गतिक्कन्यस्तत्पुरुषः । ३ । १ । ४२ । इ. सू. तत्पुरुष ) विस्तारं प्राप्य अखिला समस्ता इला पृथ्वी गैरिकरंगिणी गैरिकरंगभाक् किं न क्रियते अपितु क्रियते एव । कोऽर्थः बाल' प्राय. क्रोडासक्त इति स्थिरभावं त्यक्त्वा बालार्क किरणै' समस्तापि पृथ्वी रक्ताकृतेति भावः ॥ ३६ ॥ यदीयगारुत्मतभित्तिजन्मभिः, करैरेवंच्यन्त तथा हरित्प्रभैः । न चिक्षिपु मुग्धमृगा मुखं कचिद्यथाऽनलीकेषु तृणांकुरेष्वपि ३७ ( व्या० ) यदीयेति || मुग्धमृगाः सरलहरिणाः यदीयगारुत्मतभित्तिजन्मभिः (तस्येदम् । ६ । ३ १६० । यच्छन्दात् इदमर्थे ईय प्रत्ययः) गारुत्मतरत्नानां भित्ते. (स्त्रियांति. । ५ । ३ । ९१ । इ. सू स्त्रियां भावेक्ति: 1 ) यस्य पर्वतस्य (द्विषतुरिति क्षिप् धातोर्द्वित्वं व्यञ्जनस्थानादेर्लुक् । ४ । १ । ४४ । इ सू आदिवर्जव्यञ्जनयोर्लुक् कडचञ् । ४ । १ । ४६ । इ. सू. कस्य चः कर्तरि परोक्षा) चिक्षिपुः न वाह्यन्ति स्म ॥ ३७ ॥ शरभिशोन्मुद्रितसान्द्रकौमुदी - समुन्मदिष्णुस्फटिकांशुडंबरे । निविश्य यन्मूर्द्धनि साधकैरसा - धिकै महोंत हिरण्यदृश्यत ॥ ३८ ॥ ( व्या० ) शरन् इति ॥ शरद: शरत्कालस्य निशा: रजन्यः तासु उन्मुद्विता या सान्द्रा कौमुदी ( तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. कुमुदशब्दात् अणू । अणेञेये इ. सू डी ) चन्द्रज्योत्स्ना तया समुन्मदिष्णवः ( उदः पचिपतिपदिमदेः । ५ । २ । २९ । इ. सू. उत्पूर्वकमद्धातोः इष्णु प्रत्यय ) वर्धनशीला ये स्फटिकमणीनामंशव किरणास्तेषामाडंबरो यस्मिन् तस्मिन् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ यमुनि यस्य गिरमूर्धा शिखर तस्मिन् निविय उपविश्य सेनाधिकास्त: साधकैयोगिभिर्महः अध्यात्मतेजः वहि. अन्तरपि अदृश्यत ४श्यते स्म ॥३८॥ तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छदा, व्यधत्त यत्तारशिला विलासिनाम् । रतिक्षणालम्बितरोषमानिनी, मयग्रहग्रन्थिभिदे सहायताम् ॥ ३९ ॥ व्याख्या तरुक्षरदिति ॥ यत्तारशिला यस्य गिरेः तार शिला रौप्यशिला विलासिनां (वेर्विचकत्यसम्म कपकसलसहनः । ५-२-५९ । इ. सू. विपूर्वकलसधातो. शीलाढिसदथै विनण् प्रत्ययः विलसन्तिीत्येवं गीला विलासिनः) भोगिनां रते भोगस्य क्षणोऽवस: भोगावसर तस्मिन् आलम्बित रोषो याभि__ स्ताः तावता मानिन्यश्च तासां मानिनीनां स्मयग्रहोऽहंकारमह स एव प्रन्थिः तस्याः भिदे (भ्याऽिभ्यो वा । ५-३-११५ । इ, सू. भावे स्त्रियां विवभिद् धातो.) संभोगसमयकृतकोवस्त्रीजनाहकारमहरू पथिभेदजां सहायतां साहाय्य व्यवत्त अकरोत् । कोशी तारशिला तरोवृक्षात् क्षरन्ति यानि सनानि पुष्पाणि तर्मदु: लिट' उत्तरच्छ' उत्तरपटो यस्यां सा । कोऽर्थ पुष्पशय्यातुल्यां शिलां दृष्ट्वा वनितानामभिमानः स्वयमेव विलीन अत शिलया पत्युः साहाय्यं कृतभवेति भावः ॥ ३९ ॥ यदुच्चवृक्षाग्रनिवासिनी फला-वलीमविन्दन्नुपलैः पुलिन्द्रकः । कपीनदास्थानभिवृष्य तान् सुख, समश्नुते तेः प्रतिशस्त्रितांरुपा ।। (व्या०) यदुचेति । पुलिन्द्रक मिल्ल यदुवृक्षाग्रनिवासिनी यस्य गिरे उचाचते वृक्षाच तेषां अग्रे शिखरे निवासिनी (यजनाद धम् । ५ । ३ । १३२ । इ. स. निपूर्वक वसू धातोराधारे व अतोऽनेक स्वरात् । ७ । २ । ६ । इ. सु. मत्वर्थे इन् स्त्रियां नृतोऽस्वस्त्रादे रिति सू. डी: विपूर्वक धा धातो आत्मने पदे कर्तरि ह्यन्तनी) तां फलानामावली फलश्रेणी मविन्दन्। अलममानः अपि मुखं समश्नुते प्राप्नोति कि कृत्वा अद.स्थान् (स्थापपास्तान' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (६५ कः । ५ । १ । १४२ । इ. सू. स्थाधातो. क' । इडेत् पुसिचातो लुक् । ४ । ३ । ९४ । इ सू. आतो लुक् ) अमीषु वृक्षेषु स्थितान् कपीन् वानरान् उपलैः पाषाणै· अभिमृष्य सन्मुखमाहत्य किं लक्षणां तैः कपिभिः रुषा रोषेण प्रतिशस्त्रितां प्रतिशस्त्रीकृतामिति ॥ ४० ॥ इमाः सुवर्णैस्तुलिता इति क्षिपा - मुखे रविःस्वं प्रवसन् वसुन्यधात् । तदीयगुंजासु किमन्यथा हिम-व्यथां हरीणां सहिता हरन्ति ताः ।। ( व्या० ) इमा इति || रवि सूर्य. क्षिपाय | (भिदादयः । ५ । ३ । १०८ । इ. सू. क्षिपा इति अड् प्रत्ययान्तो निपात) निशाया मुखं प्रारंभः तस्मिन् प्रवसन् परद्वीपं गच्छन् स्ववसु आत्मीयं तेजोद्रव्यं वा इति वक्ष्यमाणकारणात् तदीयगुंजासु न्यधात् । सर्वोजन: उत्तमस्यैव हस्ते निजद्रव्यं समर्पयति अत आह इतोति किम् । इमा गुंजा: सुवर्णै: ( तुल्यार्थैस्तृतीयाषष्ठयो । २ । २ ११६ । इ. सू. सुवर्णैरित्यत्र तुल्यार्थयोगे वा तृतीया) काञ्चनैरुत्तमजातीय व तुलिताः सदृशीकृता वा । अथ रवितेजोनिवेशफलमाह । अन्यथा ( प्रकारे था । ७ । २ । १०२ । इ. सू. अन्यशब्दात् था प्रत्यय ) ता गुंजाः सहिता मिलिताः सत्यः हरीणां वानराणां हिमस्य व्यथा (षितोऽड् । ५ । ३ । १०७ इ. सू. व्यथिष् धातोः षित्वात् स्त्रियामड् ) पीडा तां किं हरन्ति कथं हरन्ति । कोऽर्थः सूर्येण संध्यासमये स्वीयं तेजो गुजासु क्षिप्तं तेन हेतुना वानरा एकत्र संमुय गुंजा मिस्तापयन्ति तेषां चेत्थं शीतं यात्येवेति भावः ॥ ४१ ॥ जिनेशितुर्जन्मभुवः समीपगं नगं तमाधाय मुदाहगऽवगम् । स गोत्रपक्षक्षतिजातपातकै, विमुक्तमात्मानममंस्त वासवः ॥ ४२ ॥ ( व्या० ) जिनेशितुरिति ॥ स इन्द्रः गोत्रपक्षक्षति स्त्रियांतिः । ५ । ३ । ९१ । इ. सू. क्षण् धातोः स्त्रियां भावेक्ति यमिरमिनमिगमिति । ४ । २ । ५५ । इ. सू. फौपरे अन्त्य लुक् ) जातपातकैः गोत्राणां पर्वतानां पक्षा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६.) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ स्तेपा भात छेदनं तेन जातानि समुत्पन्नानि यानि पातकानि पापानि तैः आत्मानं निज विमुक्तं रहितममस्त मन्यते स्म । किं कृत्वा जिनेशितः श्रीऋषभ, देवस्य जन्मनो भूस्तस्याः इक्ष्वाकुभमे समोपगं (नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५ । १ । १३१ । इ सू. गम् धातोर्डः ।) समीपस्थितं पूर्ववर्णितं नगं (नाम्नो गम खड्डो च विहायसस्तु विहः । ५ । १ । १३१ । इ. सू. संज्ञायां गम् धातोर्ड प्रत्यये । नञ् । ३।१।५१ । इ. सू. नब् तत्पुरुप नगोऽप्राणिनि वा । ३ । २ । १२७ । इ. सू. नगो वा निपात्यते) अष्टापदपर्वत मुद्रा (कुत् सम्पदादिभ्यः क्विप् । ५ । ३ । ११४ । इ. स. मुद्धातो स्त्रियां विप् ) हेर्पण दृग (भ्यादिभ्यो वा । ५ । ३ । ११५ । इ. सू. स्त्रियां वा विप् ) ध्वगं (नाम्नो गमः खइडौ च । इ. सू. गम् धातोः) दृष्टिमा गोचर आध्याय कृत्वा । कोऽर्थः पुरा पर्वता. पक्षाभ्यामुत्पत्य उत्पत्य एव प्रामनगरासूपरि पतन्त आसन् । इतश्चन्द्रेण वज्रेण पर्वतपक्षाः छिनाः इति लोकरूढिः । इन्द्रो जिनस्य जन्मभूमि प्रत्यासनमष्टापदपर्वतं दृष्ट्वा पर्वतपक्षच्छेदनपातकात् छुटितः । अन्योऽपि महातीर्थ दृष्ट्वा स्वगोत्राणां गोत्रिणा पक्षक्षतिशोछेद. तज्जातपातकै विमुक्त स्यात् यथा पांडवादयः शत्रुञ्जयतीर्थे सिद्धा इति भाव ॥ ४२ ॥ अथ प्रभोजन्मभुवं पुरन्दरो, ऽसरच्छरचन्द्रिकयेव दृष्टया । ययाचिरादुत्कलिकाभिराकुलं, प्रसादमासादयदस्य हृत्सरः॥ ४३ ॥ (व्या०) अथेति । अथानन्तरं पुरन्दरः (पुरन्दर भगन्दरौ । ५ । १ । ११४ । इ सू. निपात) इन्द्रः प्रभोर्जिनस्य जन्मभुवं (भ्यादिभ्यो वा । ५ ३ । ११५ । इ सू. भूधातो. स्त्रियां वा क्वि५) जन्मनो भस्ता असरत् अगमत् । यया जन्मभुवा दृष्टया अस्य इन्द्रस्य हृदेवसर: सर: प्रसादं हृदयरूपसरोवर प्रसाद (भावाकोंः । ५ । ३ । १८ । इ सू. सद् धातोध) निर्मलतां आसादयत् प्राप्नोति स्म । कया इव रचन्द्रिकया यथा २०१ज्योत्स्नया Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाल्यमहाकाव्यम् टीपासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (६७ सरः सरोवर प्रसादमासादयति । किं लक्षणं हृत्सरः चिरात् चिरकालात् उत्कलिकाभिरुत्कंठाभिः पक्षे लहरीभिराकुलं व्याप्तम् ॥ ४३ ॥ स तत्र मन्दारमणीवकस्रवन्-मधुच्छटासौरभभाजने वने । अमुक्तपूर्वाचलहेलिलीलया, निविष्टमष्टापदसिंहविष्टर ॥ ४४ ।। शोरशेषामृतसत्रमंगिना, मनशानाटयोचितमाश्रितं वयः। वयस्यतापनसुपर्वसंगतं, रसंगतं तत्कृतनर्मकर्मसु ॥ ४५ ॥ शिरस्फुरच्छत्रमखंडमंडन-धुमद्वधूधुनितचारुचामरम् । विशारदै वन्दितपादमादरा-दरातिरद्रेजगदीशमैक्षत ॥ ४६॥ त्रिभिविशेषकम् (व्या०) स तत्रेति ॥ स अनेरातिः पर्वतस्यारि इन्द्रतत्रवने जगदीशं श्रीयुगादिनाथमैक्षत पश्यति स्म । कि लक्षणे पने मन्दारमणीवकसवन्मधुच्छटासौरमभाजने मन्दराणां मणीवकानि पुष्पाणि तेभ्यः स्रवन् मधुर्मकरन्दरस: तस्य छटाभि सौरमं सौगन्ध्यं तस्य भाजनं स्थानं तस्मिन् अन्यानि सर्वाणि विशेषणानि जगदीशसाकानि किं विशिष्टं जगदीशं अंगिनां (अतोऽनेकस्वरात् । ७।२।६ इ. सू. अङ्गशब्दात् मत्वर्थे इन् प्रत्ययः ।) प्राणिनां शोः नेत्रयोः अशेषामृत. સત્ર રોષરહિતામૃતસત્રાં પારં નાનાવ્યોતિ મનાય મિસ્ય નાટ્ય તત્ર उचित योग्य कंदर्पसत्कनाटकयोग्यं यौवनमाश्रित पुनः किं वयस्थतापनसुपर्वसंगतं वयस्थतां मित्रत्वमापन्नाः प्राप्ता ये सुपर्वाणो देवास्त. सह संगतो मिलितस्तं तकृतनर्मकर्मसु तैः सुरैः कृतानि चतानि नर्मणा कर्माणि तेषु रसं गतं रसं प्राप्त अमुक्तः पूर्वाचलो येन स चासौ हेलिश्च सूर्य. तस्य लोलया अष्टापदसिंहविष्टरे (युवर्णपदृवशरणसमृद्ग्रहः । ५ । ३ । २८ । इ. सू. विपूर्वक स्तृधातो रल् प्रत्ययः । वे स्त्रः । २ । ३ । २३ । इ. सू. षत्वं ) सुवर्णसिंहासने निवि ष्टमुपविष्टं पुन: कि शिरसि स्फुरत् छत्र यस्य स तं शीर्षप्रसरत्श्वेतातपत्रं पुन: कि अखंडानि. मंडनामि मुकुटकुंडलहाराहारकेयूराधासरणानि यासां Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ ताः ताश्चता धुसदा (क्विप् । ५ । १ । १४८ । इ. सु. सदधातोः क्षिप् । उः पदान्तेऽनूत् । २।१।११८ । इ. सू. दिवावकारस्य उ. दिविसीदन्तीति घुसदः) वध्वश्च ताभिनितानि चारुणि मनोहराणि चामराणि यस्य स तं तथा विशारदेश्चतुरैः आदरात् (पुंनाम्नि घ. । ५ । ३ । १३० ।इ. सू. आइ पूर्वक दृधातोः नामिनो गुणोऽक्डिति । ४ । ३ । १ । इ. सू. गुणः ।) वन्दितौ पादौ यस्य सः तं नमस्कृतचरणम् ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ४४-४५-४६ ॥ कनीनिकादंभमधुव्रतस्पृशा, शां शतविभ्रदिवाम्बुजसजम् । ततत्रिलोकीपतिमेनमश्चितु-रयादुपातिष्ठत निर्जरेश्वरः ।। ४७ ॥ (या०) कनीनिकेति ॥ ततोऽनन्तरं निर्जराणां (प्रात्यवपरिनिरादयो गतकान्तऋष्टालानक्रान्ताधर्थाः प्रथमाद्यन्तैः । ३ । १ । ४७ । इ. सू. कान्ताद्यर्थे पश्चमीतत्पुरुषः जराया. निष्क्रान्ताः निर्जरा.) देवानामीश्वरः (स्थेशमासपिसकसोवर' । ५। २ । ८१ । इ. सू. ई. धातोर्वर प्रत्ययः) स्वामी सुरेश्वरः एनं त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी त्रिलोक्याः पतिस्तं श्रीयुगादीश मञ्चितुं पूजयितुं स्यात् वेगात् उपातिष्ठत (वा लीप्सायाम् । ३ । ३ । ६१ । इ. स. उपपूर्वक स्थाधातो. कतरि आत्मनेपदम् ) आगच्छत । किं लक्षणः इन्द्रः कनीनिकादंभमधुनतस्पृशां कनीनिकानां ताराणां दंभ मिपरतेन मधुनतान् मधुव्रतयन्तीति मधुव्रता (कर्मणोऽण् । ५ । १ । ७२ । इ. सू. व्रतधातोः अण प्रत्ययः इत्युक्त कृता । ३ । १ । ४९ । इ. सू. तत्पुरुषः।) भ्रमरान् स्पृशन्तीति तासां दृशां नेत्राणां शतरम्वुजानां कमलानां नजं मालां बिभ्रदिव धरन्निव । नयनानां कमलोपमा ढोयते अतः सहस्रलोचनत्वात् मूर्तिमती कमलमालां बिभ्राणो भगवन्त पूजयितुमिव हरि. समेत इति भावः ॥ ४७॥ शिर: स्वमिन्दिदरयन् विनम्य तत्-पदाजयुग्मे लसदंगुलीदले। इति स्फुरशक्तिरसोमिनिर्मलं, शचीपतिः स्तोत्रवचः प्रचक्रमे ॥४८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (६९ (व्या०) शिर इति ॥ शचीपति च्या पति रिद्रः इत्यमुना प्रकारे स्फुरश्चासौ भक्तिरसश्च (स्त्रियां क्ति | ५ । ३ । ९१ । इ. सू. भज्यातो स्त्रियां भावे ति ।) तस्योर्मय कल्लोलास्तै निर्मलं स्तोत्रस्य (नीदांव् शस् युयु जास्तु तुद सिसि च मिहपतपानहाट् । ५ । २ । ८८ । इ. सू. स्तुधातो. करणेत्रट् ।) वच तत् स्तुतिवचः प्रचक्रमे प्रारमे । किं कुर्वन् लसदंगुलीदले लसन्तिअंगुलय एव दलानि यस्मिन् तत् तस्मिन् तत्पदाजयुगे तस्य भगवत पदाब्जयोश्चरणकमलयोयुमे विनम्य नत्वा स्वं शिरं मस्तकं इन्दिदरयन भ्रमरपत् कुर्वन् ॥ ४८॥ अथस्तोत्रवचः प्राह महामुनीनामपि गीरगोचरा-खिलस्वरूपास्तसस्तदूषण । जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम-प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव ।। ४९ ॥ (व्या०) महामुनोनामिति ॥ मन्यते त्रिकालावस्थामिति मुनयः महा-तश्चते मुनयश्च (विशेषण विशेष्येणैकार्थ कर्मधारयश्च । ३ । १ । ९६ । इ. सू. विशेषण पूर्व पद कर्मधारय ।) तेषा मपि गिरा वाणीनां अगोचरं अखिल समस्तं स्वरूपं यस्य तस्य संबोधने । हे अस्तसनस्तदूषण अस्तानि अपाकृतानि समस्तानि सर्वाणि दूपणानि येन स तस्य संबोधने । हे आदिदेव । असदविद्य. मानं तमः पापं यस्याः सा असत्तमा प्रकृष्टा अतिशयेन असत्तमाः असत्तमस्तमा अतीव निष्पापा चासौ प्रमा च (उपसर्गा दातः । ५ । ३ । ११० । इ. सू. प्रपूर्वक भाधातो. स्त्रियामड् आत् इ. सू. आप । ) तस्याः प्रभावेण (भावाऽको । ५ । ३ । १८ । इ. सू. प्रपूर्वक भूधातो वे धम् ।) अल्पितमल्पीकृतं भानो स्व. चैभवं प्रभुत्वं येन स तस्य संबोधने एवं विधस्त्वं जय सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व । जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापदृष्टिश्चेत्यर्थः ॥ ४९ ॥ गुणास्तवांकोदधिपारवर्तिनो, मतिःपुनस्तच्छफरीब मामकी। अहो.महाधाष्टर्यमियं यदीहते, जडाशया तत् क्रमणं कदाशया ॥५० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०) श्रीजैनकुमारसम्भवाण्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (व्या०) गुणा इति ॥ हे नाथ तव गुणाः अंकानामुदधिः अंकसमुद्रः तस्य पारवर्तिनः परिवर्तन्त इत्येवंशील: (अजातेः गीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. शोलेऽणिन् ) पारगामिनः वर्तन्ते । पुनः मामकी मम इयं मति तस्य शफरी इव अंकोदधेः मत्सीवद् वर्तते । 'वा युष्मदस्मदोऽओनो युष्माकास्माकं चास्यैकावे तु तवकममकम्' इति सूत्रेण ममकादेशे अहो इत्याश्चर्य महत् च तत् धृष्टस्य भावो धाष्ट्य (पतिराजान्त गुणाराजादिभ्यः कर्मणि च । ७।१ । ६० । इ. स. व्यण) च महाधाट्ये (जातीयैकार्थवः । ३।२। ७० । इ. स. महत् शब्दात् डाः डित्यन्त्यस्वरादेः । २ । १ । ११४ । इ. सू. अत् ल ।) यत् यस्मात् कारणात् इयं मतिः जडः आशयो यस्याः सा मूखोभिप्राया सती तेषां गुणानां क्रमणं तत् कदाशया कुत्सिता आशा (गतिकन्यस्तत्पुरुष. । ३ । १ । ४२ । इ. सू. तत्पुरुषः कोः कत्तत्पुरुषे । ३ । २ । १३० । इ. सू. को कत्) कदाशा तया ईहते वाञ्छति । यदि जल. स्थिता मत्सी जलबहिर्गत वस्तु ग्रहीतु मिच्छति तदा सा मूवति भावः ॥५० मनोऽणु ध न गुणांस्तवाखिला, न तद्धतान्या मलं वचोऽपिमे । स्तुतेवेर मौन मतो न मन्यते, परं रसज्ञेव गुणामृतार्थिनी ॥ ५१ ॥ (०या०) मन इति ॥ हे नाथ मे मम मन तव अखिलान् समस्तान् गुणान् धतु (शक पज्ञा रभ लभ सहाहग्ला घटास्ति समर्थार्थे च तुम् । ५ । ४ । ९० । इ. स. समर्थार्थ अलमुपपदे धृ धातोस्तुम् अस्मिन् श्लोके पर मित्यत्रापि अलमुपपदे तुम्) नालं न 'समर्थम् । कि लक्षणं मन अणु सूक्ष्म तभृतान् तेन मनसा धृतान् गुणान् व मे मम वचोऽपि नालं न शक्तम् । अत• कारणात् स्तुते (श्चादिभ्यः । ५। ३ । ९२ । इ. सू. स्तु धातोः स्त्रियां भावेक्तिः ।) मौनं (यवृवर्णालयादेः । ७ । १ । ६९ । इ. सू. मुनिशब्दात् भावेऽण् अवर्णे वर्णस्य । ७ । ४ । ६८ । इ. सू. इकारस्य लोपः वृद्धिः स्वरे वादे रिति सूत्रेण आदि स्वरवृद्धि: मुने यो मौनं ) वरं भव्यम् । परं सं जानाति इति रसज्ञा (आतो डोऽहवावामः । ५ । १ । ७६ । इ. सू. ज्ञाधा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैमामारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (७१ तोर्डः । इडेत् पुसि चातो लुक । इ. सू. आलोपः) एव जिह्वा एव न मन्यते । कि लक्षणा रसज्ञा गुणामृतार्थिनी गुणा औदार्थज्ञानादय एव अमृत मर्थयतीति वाञ्छतीति गुणा० ॥ ५१ ॥ सुरद्रुमाद्यामुपमा स्मरन्ति यां, जनाः स्तुतौ ते भुवनातिशायिनः । अवमि तां न्यकृतिमेव वस्तुत, स्तथापि भक्तिमुखरीकरोति माम् ५२ (व्या०) सुरद्रुमेति ॥ हे नाथ जनालोकाः ते नव स्तुतौ सुरद्रुमायां सुराणां देवानां द्रुमा वृक्षाः कल्पवृक्षा ते आधा यस्यां सा तामुपमा स्मरन्ति कथयन्ति । कि विशिष्टस्य ते भुवनातिशायिन. भुवनानि अतिशेते इति भुवनातिशायी ( अजाते: गीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. अति पूर्वक शीड्धातोणिन् ) तस्य त्रिभुवनाधिकस्य । अहं तां स्तुति. वस्तुतः परमार्थतः न्य+कृति निन्दाभव अवमि जानामि । तथापि भक्तिमी मुखरीकरोति वाचालं कुरुते न मुखर' अमुखर• अमुखर मुखरं करोतीति ॥ (क्लस्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्वे वि । ७ । २ । १२६ । इ. सू मुखर शब्दात् धिः । ईशवाय वर्णस्याऽन ०ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. स. मुखर शब्दस्य अवर्णस्य ई) ॥ ५२ ॥ अनरूपोऽप्यखिलाङ्गसुन्दरो, रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः । अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह-स्यपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे ॥ ५३॥ (व्या०) अनड्रेति ॥ हे नाथ त्वं अनङ्गरूपोऽपि अखिलांगसुन्दरः सर्वाङ्ग सुन्दरो वतसे योऽनंगरूपः स्यात् स अखिलांगसुन्दर' कथं स्यात् । अत्र विरोधपरिहारमाह अनङ्गरूप कंदर्परूपः कंदर्पवत् रूपं यस्य सः अखिलांग सुन्दर अखिलानि च तानि अंगानि च समस्तांगानि तेषु सुन्दरः । हे नाय त्वं रखे. अदभ्रांशुभरोऽपि सूर्यादधिकतेज. पटलोऽपि तारकोऽसि यो खेः अदभ्रांशुमरः स्यात् स तारक कथ स्यात् अत्र विरोधपरिहारमाह अदभ्रोऽधिक अंशूनां किरणानां भरः समूहो यस्य स तारक' (णक चौ । ५ । १ । १८ । इ. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ७२) श्री जैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ : सू. ण्यन्त तारे अक जेनिटि । ४ । ३ । ८३ । इ. सू. णेर्लोपः । ) तारयसि जीवान् संसार सागरात् इति तारक' । हे नाथ त्वं क्षमादपि पर्वतोऽपि सकू तां सशिखरतां न वहसि य. क्षमात् पर्वतोऽस्ति स सशिखरतां वहति अन विरोधपरिहारमाह क्षमा ( किपू । ५ । १ । १४८ । इ. सु. कर्तरि किप् । ह्रस्वस्य त पित्कृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू तोन्तः । ) गुणं बिमर्तीति क्षमाभृत क्षमा गुणधारकोऽसि सकूटतां सालीकनां सकपटत्वं न वहसि न धारयसि अपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे य अपारिजातः स्यात् स सुरद्रुमवत् कथमाचरति । अत्र विरोधपरिहारमाह अपगतं अरीणां रिपूणां जातं समूहो यस्य सः अपारिजातः । इदं हि पट्खंडमवाप्य भाग्तं, भवन्तमूर्जस्वल मेकदैवतम् । बिभर्ति षट्कोणकयन्त्रसूत्रणां नृणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे ॥ ५४ ॥ " (व्या० ) उदमिति ॥ हे नाथ इदं षट्खंडा यस्मिन् तत् षट्खंडं तत् भारत भरतक्षेत्रं कर्तृपदं । उर्जस्वलं ( उर्जो विन् वलावश्चान्तः । ७ । २ । ५१ । इ. सू उर्ज शब्दात् वल प्रत्ययः उर्ज शब्दस्य उर्जस् ) उर्जा बलमस्यास्तीति तं કન बलवन्तं एव दैवतं भवन्तमवाप्य प्राप्य नृणां मनुष्याणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे स्फुरन्ति च तानि पातकानि च ( णक तृचौ । ५ । १ । ४८ । इ सु. ण्यन्त पात् धातोर्णक प्रत्यय ) पापानि तान्येव भूतास्तेषां निग्रहो निर्धाटनं तस्मिन् पट् कोणकानि यस्मिन् सचासौ यंत्रश्च तस्य सूत्रणां रचनां विभर्ति धारयति ॥ कोऽर्थः भरतक्षेत्रेण परमदैवतं भगवन्तमवाप्य प्राप्य मनुष्याणां लोकानां पापरूपभूतनिग्रहे पटूखंड रूप पट्कोणकयंत्र सूत्रणा समाश्रितेति भावः ॥ ५४ ॥ तपोधनेभ्यश्चरता वनाध्वना, धनस्य भावे भवता धनीयता । अदीयताज्यं यदनेन कौतुकं, तथैव शिवाय वृपो वृषध्वज ।। ५५ ।। ( व्या० ) तपोवनेभ्य इति ॥ हे नाथ भवता त्वया वनस्याध्या वनाव्वा तेन चनाध्वना चनमार्गेण चरता गच्छता धनस्य भावे धनसार्थवाह भवे तपोधने म्य. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (७३ तप-एवं-धनं येषां ते तपोधनास्तेभ्यः (चतुर्थी । २ । २ । ५३ । इ. सू. तपो धनेभ्यः इत्यत्र चतुर्थी ।) यतिभ्यो यदाज्यं वृत मदीयत दीयतेस्म । किं कूर्वता भवता धनीयता (अमान्ययात् क्यन् च | ३ | ४ । २३ । इ. सू. धनशब्दात् इच्छायां क्यनू क्यनि । ४ । ३ । ११२ । इ. सू. क्यनिपरे अस्थाई: शत्रान शाप्यतितु सस्यौ । ५-२-२० । इ. सू. धनीय नामधातोः सदर्थे कर्तरि शतृ प्रत्ययः) धनमिच्छता । अनेन आज्येन हे वृषध्वज वृषः वृषभो लाञ्छनं यस्य स तस्य संबोधने हे वृषध्वज कौतुक्रमाश्चर्य तवैव वृषः वृषभः पुण्यं वा शिवाय (श्विधातोः कर्तरिपरोक्षा) ववृधे । कोऽर्थः पात्रे दत्तेन दानेन धनसार्थवाहेन महत्पुण्यमर्जितम् । उक्तंच 'दानेन धन्यो धनसार्थवाहः कर्मोत्तमं तीर्थंकरस्यनाम, बबंध कर्मक्षयहेतुभूतं दानं हि कल्याणकरं नराणाम् ॥ ५५ ॥ 1 मधे द्वितीये भुवनेश युग्मितां कुरुष्ववाप्ते त्वयि किंकरायितम् ! मनीषितार्थ क्रियया सुरद्रुमै, जितैरिव प्राग् जननापवर्जनेः ॥ ५६ ॥ ( व्या० ) भवे इति || ' मर्तगयाय १ भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोइ ५ वित्तंगा ६ चित्तरसा ७ मुणियंगा ८ गेहागारा ९ अणियणाय १० ॥१॥ सरसमझ १ मणिभाजन २ वा ३ रत्नप्रदीप ४ तेजोमंडल ५ चित्रकारिसुरभिपुष्य ६ विचित्रखाद्यमोज्य ७ मणिभूषण ८ निश्रेणिसोपानकलित विविध धवलगृहादि ९ प्रधानवस्त्राणि १० एतैः पूर्णाये दशविधकल्पवृक्षाः तैः सुरद्रुमैः मनीषितार्थक्रियया मनीषिताश्वते अर्थाश्च तेषां क्रियया वाञ्छितार्थकरणेन हे भुवनेश द्वितीये (द्वेस्तीय । ७ । १ । १६५ । इ. सू. द्विशब्दात् तीय प्रत्ययः) भवे (युवर्ण वृध्वशरण गमृद् ग्रहः । ५ । ३ । २८ । इ. सू. भावे अल् । नामिनो गुणोऽक्ङिति । ४ । ३ । १ । इ. सू. गुणः । ओदौतोडचात् । १ । २ । २४ । इ. सू. अवादेशः ) कुरुषु उत्तरकुरुषु युग्मितां युगलित्व मवाप्ते प्राप्ते सति त्वयि विषये किं करायितं (क्यड् । ३ । ४ । २६ । इ. सू. आचारेऽर्थे किंकरशब्दात् क्यड् क्लोड़े क्तः । ५ । ३ । १२३ । इ. सू भावे नपुंसकेक: 1) किंकरवदाच Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ रितम् । किंलक्षणैः सुरद्रुमैः उत्प्रेक्ष्यते प्राग्जननायवर्जनैः पूर्वजन्मदानैः जितैरिव ॥ सधर्म सौधर्म सुपर्वतां ततो- अधिगत्यनित्यं स्थितिशालिनस्तव । सुरांगना कोटिकटाक्षलक्ष्यता - जुषोऽपि नो धैर्यतनुत्रमनुत् ||५७|| ( व्या० ) सधर्म इति ॥ सधर्म सह धर्मेण वर्तते इति सधर्मस्तत्संबोधने ततः सौधर्म्मसुपर्वतां सौधर्मदेवत्वमधिगत्य (प्राकू काले । ५ । ४ । ४७ । इ. सू अधिपूर्वक गम् धातोः क्त्वा प्रत्ययः । अनञः वो यप् । ३ । २ । १५४ । इ. सू. क्वो यवादेश' । यपि । ४ । २ । ५६ । इ. सू. गमो मस्य लुक् ह्रस्वस्य तः पिष्कृति । ४ । ४ । ११३ । इ. सू. तोडन्तः । ) प्राप्य तव धैर्यतनुत्रं (आतो डोऽह्वावामः | ५ । १ । ७६ । इ. सू. तनुपूर्वक त्राधातोर्ड प्रत्ययः । डित्यन्त्यस्वरादेः । इ. सू. श्राधातो राकार लोपः ।) धैर्यमेवकवचं न अत्रुटत् न त्रुटति स्म । किं विशिष्टस्य तव नित्यं निरंतरं स्थितिर्मर्यादा तथा शालते इति स्थितिशाली (अजाते: शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. शीलेऽर्थे शाल धातोः णिन् प्रत्यय: 1) तस्य मर्यादाशोममानस्य सुराणां देवाना मंगनाः त्रयः तासां कोटय तासां कटाक्षा तेषां लक्ष्यतां वेध्यतां जुषते इति तस्य सेवमानस्यापि ॥ ५७ ॥ 11 " महाचलक्ष्मापभवे यथार्थकीं, चकर्थ बोधकवलान्निजाभिधाम् । अखर्व चावकवचांसि चूर्णय-नयोधनानक्षरको हकुने ॥ ५८ ॥ ( व्या० ) महावल इति ॥ हे नाथ त्वं महाबलदगापभवे ( क्ष्मा पातिती क्ष्माप· आतो डोऽहादाम' । ५ । १ । ७६ । इ. सू. दगापूर्वक पाधातोर्ड प्रत्ययः । द्वित्यन्त्यस्वरादेः इ. सू. पाधातोराकारलोप. ) महाबलाख्यनृपस्य भवे बोषैकवलात बोधस्य प्रबोधस्य एकवलं तस्मात् निजामिधां निजस्य अभिघातां (उपसर्गाद्रा । ५ । ३ । ११० । इ. सू. अभिपूर्वक घाघातोः भावे स्त्रियामडू | आत् । २ । ४ । १८ । इ. सू. स्त्रियामाप् ।) आत्मीयंनाम यथार्थको सत्यार्थी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (७५/ चकर्थ कृतवान् किं कुर्वन् अखाणि प्रोढानि चतानि चार्वाकस्य वासि लामि पूर्णयन् अक्षरकोटकुट्टने मोक्ष दुर्गकुट्टने अयोधनान् व्ययो द्रोः करणे । ५ । ३ । ३८ । इ. स. अयः परात् हन्ते करणे अल् धनादेशश्च ।) लोह मुद्गरान् ॥ द्वितीय कल्प ललितांगतां त्वया, गतेन वध्या विरहे व्यलापि यत् । दरिद्रव्ये ददितं तपः फलं, तदन्यदर्था हि सतां क्रियाखिला ॥५९॥ (410) द्वितीय इति ॥ हे नाथ त्वया द्वितीये कल्पे ईशानदेवलोके लिलत सुन्दर अंग यस्य स ललितांगस्तस्य भावः तां ललितांगार०यदेवत्वं गतेन प्राप्तेन वच्चा विरहे यत् ०यलापि विलाप कृतः । तत् दरिद्रस्य पुत्री दरिद्रपुत्री तस्यै निर्नामिकायै तपस. फलं तपः फल तत् ददितुं दातुं ज्ञेयम् । हि यस्मात् कारणात् सतां साधूनां अखिला समस्ता क्रिया (गः शच वा । ५ । ३ । १०० । इ. सू. कृग् धातोः स्त्रियां भावे शः । रिः शक्या शीर्य । ४ । ३ । ११० । इ. सू. शेपरे कृधातोः रि. संयोगात् । २ । १ । ५२ । इ. सू. इयादेशे आत् । २।४ । १८ । इ. सू. त्रियामापि किया इति) अन्यदर्था अन्येषा मुपकारहेतुर्वर्तते । अत्र 'अषष्ठीतृतीयादन्याहो अर्थे' इति सूत्रेण अन्यदर्था इति सिद्धम् ॥ ५९ ॥ . स वजजयो नृपति भवन भवा,-नवाप हालाहलधूमपायिताम् ॥ यदंगजादंगजतस्ततस्तवा-धुनापि विश्वासबाहिमुख मनः ॥ ६० ।। (व्या०) स इति । हे भगवन् हे नाथ स भवान् वप्रधोपतिर्मवन् सन् यत् अंगजात् (अजातेः पञ्चम्याः । ५ । १ । १७० । इ. सू. अङ्ग पुर्वकजने ड्ः । डिल्यन्त्यखरादे. इ. स. जनधातो रन्त्यस्वरादि लोपः) पुत्रात् हालाहलधूमपायितां धूमं पिबतीति धूमपायो तस्य भावो हलधूमपायिता (अजातः शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. धूमात् परात् पिबते: धातोः शोलेऽर्थणिन् प्रत्ययः । आत. ऐः कृऔ। ४ । ३ । ५३ । इ. स. ऐ: एदेतोऽयाय् । १। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ ↓ २ । २३ । इ. सू आयादेशः भावेत्व त । ७ । १ । ५५ । इ. सू. भावेऽर्थे तल । नाम्नो नोऽनहनः । २ । १ । ९१ । इ. सू. नस्य लुक्) हालाहलस्य धूमपायिता हालाहलधूमपायिता तां विषसत्कधूमपत्वं अवाप प्राप्तः ॥ ततस्तस्मात् कारणात् अधुनापि (सदाऽधुनेदानीं तदानी मेतर्हि । ७ । २ । ९६ । इ. सू. अधुना निपात्यते ॥ ) तव मनः अंगजतः कंदर्पात् विश्वास बहिर्मुखं विश्वासात् बहिर्मुखं यस्य तत् विश्वासरहितं वर्तते । कोऽर्थ :- अंगजशब्देन कंदर्पः पुत्रोऽपि स॒ण्यते । भवता वज्रजंधनृपभवे अंगजान्मरणं प्रापि । पश्चात् तीर्थकृद्भवे भगवन्मनों गजस्य कामस्योपरि विश्वासरहितं जातमिति भावः ॥ ६० ॥ 1 उपास्य युग्मित्वमथाधकल्पग - सुधाशनीभूय भिषग् भवान भूत् मुने: किलासं व्यपनीय यः स्वर्क, कलाविलासं फलितं व्यलोकत || ( व्या० ) उपास्येति । हे नाथ अथ अनन्तरं भवान् युग्मित्वमुपास्यसंसेव्य आधकल्पगसुधाशनी भूय प्रथम देवलोके देवो भूत्वा भिषग् वैथोऽभूत् ] यो भिषण वैद्यो मुने: किलासं कुष्टरोगं व्यपनीय स्फेटयित्वा स्वकं स्वकीय मात्मीयं कलानां विलासस्तं (भावाऽकर्त्रीः । ५ । ३ । १८ । इ. सू. विपूर्वक स् धातोः भावे घञ् ञ्णिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. लस धातो रुपान्त्यस्य अस्य वृद्धिः) फलितं सफलं व्यलोकत अपश्यत् ॥ ६१ ॥ अथे शिवान च्युतनाकिधाम चे-दवातरस्तत्किमिह प्रभोऽथवा । लयं लभन्ते विबुधाहि नाभिधा - गुणेषु यत्ते परमार्थदृष्टयः || ३२ ॥ ( व्या० ) अथेति ॥ अथानंतर हे प्रभो चेत् यदित्वं अच्युतनाकिधाम अच्युताभिधे स्थिता ये नाकिनो देवास्तेषां धाम तत् अच्युतनामानं देवलोकं ईथिवान् (वेयिवदनाश्वदनूचानम् । ५ । २ । ३ । इ. सू. भूतोऽर्थे इ धातोः कर्तरि सुप्रत्ययो निपात्यते इयाय इति ईयिवानू ) गतः । ततस्तस्मात् देवलोका दिह पृथिव्यां किमवातरः अवतीर्ण अथवा विबुधा (नाम्युपान्त्य श्रीक Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (७७ गृज्ञः कः । ५ । १ । ५१ । इ. सू. विपूर्वक वुध् धातोः कतरि कः ।) देवाः विद्वांसो वा अभिधा (उपसर्गादात । ५ । ३ । ११० । इ. सू. अभिपूर्वक धाधातो. स्त्रियां अड् । आत् । २ । ४ । १८ । इ. सू. स्त्रियामाप् । ) नाम तस्या गुणेषु लयं विश्राम न लभन्ते । यत् यस्मात् कारणात् ते विबुधाः परमार्थे तस्वाथै हष्टि येषां ते दीर्घदशिनो वर्तन्ते । कोऽर्थः न विद्यते प्युत प्यवनं यस्मिन् तत् नाकिधाम स्वर्ग गत स कथमत्रावतीर्ण । पर मिन्द्रगोपवत् तन्नाममात्रमेवेतित्वं त्यक्त्तवानिति भावः ॥ ६२ ॥ निरीक्ष्यतां तीर्थतः पितुः श्रियं, न चक्रिसंपद्यपि तोषभीयुषा । तदर्थ भेव प्रयतं ततस्त्वया, त्रपा हि तातोनतया सुखनुषु ॥ ६३ ॥ (या०) निरीक्षेति ॥ हे नाथ ततोऽनंतर त्वया तदर्थमेव तीर्थंकर श्रीनिमित्तमेव प्रयत मुपक्रान्तं किं विशिष्टेन त्वया तीर्थकृत' (तीर्थकरीतीति तीर्थकृत् । कि५ । ५ । १ । १४८ । इ. सू. तीर्थपूर्वक कृ धातोः कि५ । इत्यस्य तः पित्कृति । इ. सू. तोऽन्त.) तीर्थंकरस्य पितु. तां श्रियं लक्ष्मी निरीक्ष्य दृष्ट्वा चक्रिणः (अतोऽनेक स्वरात् । ७ । २ । ६ । इ. सू. चक शब्दात् मत्वर्थे इन् ) संपद् (कुत्सम्पदादिभ्यः । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. संपूर्वकपद् धातोः स्त्रियां भावे कि५ ।) चक्रिसंपद् तस्यां चक्रवर्तिलक्ष्म्यामपि तोष (भावाकोंः । ५ । ३ । १८ । इ. सू. तुष्, धातो वे वञ् । लघोरुपान्यस्य । ४।३ । ४ ।इ.सू उपान्त्यगुणः) हर्ष न ईयुषा न प्राप्तवता । हि निश्चित सुसूनुषु सत्पुत्रेपु तातात् उनता हीनता तथा तातहीनतया त्रपा लज्जा (पितोऽड् ५। ३ । १०७ । इ. सू. त्रपूषु धातो स्त्रियामड् । आत् इ. सू आप ) पर्तते ॥ कोऽर्थः वज्रसेनस्य तीर्थंकरस्य वज्रनाभः पुत्रश्चक्रीजात तेन चक्रित्वं विहाय संयम गृहीत्वा विशतिस्थानकैस्तीर्थकरनामकर्म उपार्जितम् । अतश्चकिलदग्यास्तीर्थंकरलक्ष्मी धिकेति भावः ॥ ६३ ॥ ससीमसार्थ विमान, वासिनः, शिवश्रियः संगमभिच्छतोऽपि ते । अभूद्विलंतस्तदसंस्तुते जने, रिरंसयाकोनदधाति मन्दताम् ॥ ६४ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टोकासमलंकतम् ॥ सर्गः २ (व्या०) स इति ॥ हे नाथ ते तव ससीमासन्न च तत् सर्वार्थविमान च तस्मिन् वसति इति ससीमसर्वार्थ विमानवासी । (अजातेः शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. वस् धातोः शीलेऽथै णिन् ।) तस्य सत: शिवस्य श्रीः तस्याः मोक्षलदम्याः संगमं मीलन मिच्छतोऽपि यद्विलंयोऽभूत् । तत् असंस्तुते अपरिचिते जने रिरसिया (शंसि प्रत्ययात् । ५ । ३ । १०५ । इ. सू. रिंस धातोः स्त्रियामः । आत् । इ. सू. स्त्रियामाप् ) रन्तुमिच्छया मन्दतां जडतां को न दधाति अपि तु सर्वकोऽपि दधात्येव ॥ ६४ ॥ ध्रुवं शिवश्रीस्त्वयि रागिणी यत-स्तटस्थितस्यापि भविष्यदीशितः। असंस्पृशनमारविकारजरजः, स्वसौख्यसर्वस्वमदत्त ते चिरम् ॥६५॥ (व्या०) ध्रुवमिति ॥ हे नाथ ध्रुवं निश्चितं शिवस्य श्रीः शिवश्रीः मोक्षलक्ष्मी: त्वयि रागिणी रागवतो वर्तते । यतो यस्मात् कारणात् ते तव त2स्थितस्यापि आसन्नस्थितस्यापि चिरं चिरकालं स्पसौख्यसर्वस्व मात्मीय सुखसर्वस्व मदत्त । किं लक्षणस्य ते भविष्य (शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ । ५।२।२०। इ. सू. भूधातोः भविष्यदर्थे स्य सहित शत प्रत्ययः विशेषणं विशेष्येणेकार्थ कर्मधारयश्च । ३ । १ । ९६ । इ. सू. विशेषण कर्मधारयसमास:) दिशितु: (तृन् शीलधर्म साधुषु । ५ । २ । २७ । इ. सू. शीलादि सदथै ई२ धातो: तन् ।) भाविभर्तुः किं कुर्वत् स्वसौख्यसर्वस्वं मारस्य कामस्य विकारः तस्मात् जातं तत् विषयविकारज रजः पाप धूलि वा असंस्पृशत् नसंस्पृशतीति ॥६५॥ अवाप्य सर्वार्थविमानमंतिकी-भवत्परब्रमपद दध्वगः । यदागमस्त्वं पुनरत्र तद् ध्रुव, हितेच्छया भारतवर्षदेहिनाम् ॥६६॥ (०या०) अवाप्येति ॥ हे नाथ त्वं सर्वार्थविमानमवाप्य प्राप्य यत्पुनरत्रागमः अनागतः किं विशिष्टत्वं अतिकीभवत् (कृम्वस्तिम्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्वे विः । ७।२। १२६ । इ. स. अन्तिक शब्दात् पिः । ईशवाय Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (७९ वर्णस्याऽनव्ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. स. च्चौपरे अन्तशब्दस्य अकारस्य । इ:) समीपीभवत् परब्रह्मणः पदं यस्य स समीपीभवन्मोक्षपदः तदध्वगः (नानो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५। १ । १३९ । इ. सू. गम् धातोर्डः ।) तस्य मोक्षस्य अध्वानं गछतीति मोक्षपथिकः ततः ध्रुवं निश्चित भारतवर्षस्य भरतक्षेत्रस्य देहिनः प्राणिनस्तेषां भरतक्षेत्रदेहिनां हितस्येच्छा तथा भुक्तिमुक्तिदानार्थ मित्यर्थः त्वं सर्वार्थविमानादेव आसन्नत्वेऽपि मुक्ति न गतः किन्तु लोकहितेच्या एव अत्रावतीर्णः इति भावः ॥ ६६ ॥ तदेव भूयात् प्रमदाफुलं कुलं, मही महीनत्व मुपासिषीष्ट ताम् ।। क्रियाजन स्वस्तुतिवादिन दिनं, तदेव देवाऽजनि यत्र ते जनिः॥ (व्या०) तदेवेति । हे नाथ तदेव फुलं प्रमदेन (संमदप्रमदौ हर्षे । ५ । ३ । ३३ । इ. सू. हर्षेऽर्थे प्रमद शब्दोऽलन्तो निपात्यते ।) हर्षेणाकुळ व्याप्तं भूयात् हीनस्य भावो हीनत्वं न हीनत्व महीनत्वं संपूर्णत्वं कृतपदं तां महोपृथ्वीमुपासिषीष्ट सेविषीष्ट तदेव दिन जन लोकं स्वस्तुतिवादिनं स्वस्थ निजस्य स्तुतिः श्लाघा तां वदतीति तं स्वकीयश्लाघाकार क्रियात् (रिः शक्या शीर्थ । ४ । ३ । ११० । इ. सू. कृ धातो: *कारस्य आशीर्थेपरे रिः ।) तदिनस्य महामहोत्सवमयत्वात् । हे देव हे स्वामिन् यत्र कुले यत्र मयां यत्र दिने तव जनिर्जन्म अजनि (जन् धातोः कर्तरि अद्यतनी । दीप जनबुधिपूरितायियायो वा । ३ । ४ । ६७ । इ. सू जन् धातो चिंच वा तछन् च ।) जातम् ॥ ६७ ॥ अभी धृताः किं पविचवारिजा-सयः शये लक्षणकोश दक्षिणे । शचीशचचयच्युतभूपसंपद्, रत्यया निजोपासकसाधिकर्षिता ॥६॥ (व्या०) अमोति । हे लक्षणकोश लक्षणानां प्रासादपर्वत शुकांकुश पभाभिषेक यव दर्पण चामराणीत्यादि अष्टोत्तरसहताना लक्षणानां कोश: तत्सं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ बोधने हे भांडागार त्वया शचीशः इन्द्र चक्री चक्रवर्ती अच्युतो वासुदेव भूपो राजा तेषां संपदो लक्ष्मीः निजोपासक सात् (तत्राधीने । ७ । २ । १३२ । इ. सू. निजोपासक शब्दात् अधीनेऽर्थे सात् निजस्यात्मनो ये उपासकाः सेवकाः तेषा मधीना स्वकीय सेवकायताः चिकीर्षता (शत्रान शावेष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २० । इ. स. सन्नान्तात् कृ धातोः वर्तमाने श प्रत्ययः) कतुमिछता सता दक्षिणे शये (पुन्नाम्नि घः । ५ । ३ । १३० । इ. स. शीड् धातोघे ।) हस्ते पविचक्र वारिजासया पविश्चवज्रं चक्रं च वारिजश्च शंखः असिश्च खग: अभी कि धृता' त्वया इन्द्रपदवीदानायेत्यादि भाव. ॥ ६८ ॥ सदंभलोभादिभटब्रजस्त्वया, स्वसंविदा मोहमहीपती हते । स्वयं पिलाता घनवारिवारिते, दवे न हि स्थेममृतः स्फुलिंगकाः ॥ (व्या०) सदंभ इति । हे नाथ त्वया स्वस्य संविद (कुत्सम्पदादिभ्यः क्वि५ । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. संपूर्वक विद्धातो. क्विप् ।) ज्ञान तया स्वकीयज्ञानेन मोह एव मह पति भूपस्तस्मिन् मोह भूपे हते सति सदंभलोमादिभटनज: दंभेन मायया सह वर्तन्ते लोभादयश्च भटाश्च सुभटास्तेषां व्रजः) गोचर संचर वह व्रज व्यज खलापण निगम व भग कपाकपनिकषम् । ५ । ३ । १३१ । इ. स. व्रजशब्द धान्तो निपात्यते ।) समूह स्वयमात्मनैव विलाता विलयं यास्यति । 'लाञ्च' विश्लेषणे धातो: विपूर्वस्य 'लोड्लिनोर्वा' इति सूत्रेणात्वम् । हि यस्मात् कारणात् दवे दावानले धनस्य (मूर्ति निचिताने धनः । ५ । ३ । ३७ । इ. सू हन् धातोरल धनादे शश्च) मेवस्य वारिजलं तेन पारिते सति स्फुलिंगका स्थैम (वर्णादिभ्यष्टयण च वा । ७ । १ । ५९ । स्थिर शब्दात् इमन् । प्रियस्थिर स्फिरोरु-द्रम् । ७ । ४ । ३८ । इ. सू. स्थिरस्य इमनिपरे स्थादेशः ।) स्थैर्य विनतीति स्थैर्यधारिणो न वर्तन्ते इति ॥ इधुः सुखव्यासनिरासदा सदा, सदानवान् यस्य दुनोति नाकिनः। स्मगे भवयानमये विभावसा-बसावसारेध्मदशां गमिष्यति ॥७॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીનૈનજી માલક્ષ્મવાત્ર્યંમદ્દાાવ્યમ્ ટીજાલમનૃતમ્ ॥ લોઃ ૨ (૮૨ ( ०या० ) इपुरिति । यस्य स्मरस्य कंदर्पस्य इषुर्वाणः सदा निरंतरं दानवै. 'सह वर्तन्ते इति तान् दानवसहितान नाकः स्वर्गेऽस्ति एषामिति तान् देवान् दुनोति पीडयति । इषु' शब्द स्त्रीलिंगो ज्ञेयः किंलक्षण | इ५. सुखस्य व्यासो विस्तारस्तस्य निरासं (भावाऽकर्त्री' । ५ । ३ । १८ । इ. सू. विपूर्वकात् च निर पूर्वकाल अस्धातोः भावे घञ् । ञ्णिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. वृद्धि 1) निराकरणं ददातिसुख व्यास निरासदा ( आतोडोऽहवा वामः । ५ । १ । ७६ । ड. सू. दाधातो ङः) हे नाथ असौ स्नर काम भवतो ध्यानं तन्मये 'ध्यानं निर्विषयं मन. ' - इत्येवंरूपे ध्यानमये विभावसौ वैश्वानरेऽनले असारं तुच्छं च तत् - इध्म च काष्ठं तस्य दशामवस्थां गमिष्यति यास्यति ॥ ७० ॥ परं नहि त्वत् किमपीह दैवतं तवाभिघातो न परं जपाक्षरम् । न पुण्यराशिस्त्वदुपासनात्पर-स्तवोपलंभान्न परास्ति निर्वृतिः ॥७१॥ ( व्या० ) परमिति ॥ हे नाथ त्वत् परं त्वत् अन्यत् इह जगति किमपि दैवतं नास्ति त्रिभुवनजनपूज्यत्वात् इह जगति तव अभिघातः तव नामतः परं जपाक्षरं नास्ति सर्वोत्कृष्टत्वात् । इह जगति तवउपासनात्सेवनात् (अनटू । ५ । ३ । १२४ । इ. सू. उपपूर्वक आसूघतो० नपुंसके भावे अनट् ) परोऽन्यः पुण्यानां राशि: समूहो नास्ति । तथा च इह जगति तव उपलभात् (भावाड, कर्त्रीः । ५ । ३ । १८ । इ. सू. उपपूर्वक लभ्धातो धन् । लभ. । ४ । ४ । १०३ ।. इ. सू. उपान्त्येनू ) साक्षात्कारात् पराऽन्या निर्वृति मुक्तिर्नास्ति वीत, राग विना नैव मुक्तिरित्यर्थः ॥ ७१ ॥ हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या, -- -3 मम हृदि निवस त्वं नेति नेता नियम्यः । r न विझुरुमयथाहं भाषितुं तद्यथा, 1. मयि कुरुकरुणा खात्मनैव प्रसादम् ॥ ७२ ॥ (याद) तवेति । हे नाथ अहं तव हृदि हृदये निवसामि इत्युक्तिर्जल्पन मी स्वामिनि न योग्य त्वं मम हृदि निवस निवासं कुरु इत्यमुना प्रकारेण नेता स्वामी न नियम्य: (यममद गदोऽनुपसर्गातु । ५ । १ । ३० । Th Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलकतम् ॥ सर्गः २ इ. सू. उपसर्गपूर्वकयम्घातोर्य प्रत्ययोनिषिद्धोऽपि निपूर्वात् भवति) न नियंत्रणीयः । यो नेता स्यात्-असौ पर सेवकादि नियंत्रयति न तु सेवका ने तार नियंत्रयन्ति । अह मुभयथापि द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाषितुं जल्पितुं न समर्थः । तेन तस्मात्कारणात् हे स्वामिन् परदुःखनिवारक करुणाहे कृपायोग्ये मपि स्वात्मनैव स्वयमेव यथाईं यथायोग्य प्रसादं कुरु ॥ ७२ ॥ इति स्तुतिभिरांतरं विनयमानयन् वैबुधे, प्रतीतिविषयंगणेऽनणुधियां धुरीणो हरिः। प्रसन्न नयनेक्षणे भगवता सुधासोदरै, रसियत सुधाशनैरपि च साधुवादोर्मिभिः ॥ ७३ ।। सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि । धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान् ॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते । सगों जैनकुमारसंभवमहाकाव्येऽयमाधोऽभवत् ॥ १ ॥ (या०) इतीति ॥ हरिरिन्द्रः भगवता श्रीधभस्वामिना प्रसन्ननयनेक्षणैः सप्रसादलोचनावलोकनरसियत सिक्तः । सुधाया अमृतस्य सोदराणि तैरमृतसहशैः । च अन्यत् सुधा अमृतमशन येषां तैः देवैरपि साधुवादोर्मिभिः श्लाधारूपकल्लोलेरसियत सिक्तः । किंकुर्वन् हरि इति पूर्वोत्तमुनीनामपि गारगोचरत्यादि चतुर्विशतिकाव्यरूपस्तुतिभि-(श्रवादिभ्यः । ५ । ३ । ९२ । इ. सू. सुधातोः करणे ति स्तूयते आभिरिति स्तुतयः ।) संतरमंतरंग विनयं वैबुधे गणे देवसमूहे प्रतीतिविषयं आनयन्-प्रत्ययगोचरं प्रापयन् पुनः कि० अनणुः गुवा धीर्येषां तेषां गुरुबुद्धीनां धुरीण: (वामाधादेरीनः । ७।१। ४ । इ. सू. વામાદ્રિ પર્વત ધુરરાબ્દાત ન પ્રત્યે વો મવતિ અન્ય સેવાપીછન્તિ તેત્ર केवलधुर शब्दात् ईन प्रत्य यो ज्ञेयः) धुर्यः ॥ ७३ ॥ इतिश्रीमद्भश्चलगच्छे कविपत्तिश्रीजयशेखरसूविरचित श्रीजैनकुमार સંભવમહાશબે તરિઝષ્ય શ્રીધરોલર કોપાધ્યાવવિરવિતા વાં टीकायां श्रीमाणिक्यासुन्दरशोधितायां द्वितीयसर्गव्याचा समाता ॥ २ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (८३ ॥ अथ तृतीयः सर्गः प्रारम्यते ॥ अथ प्रासादाभिमुख त्रिलोका-धिपस्य पश्यन् मुख मुग्रधन्वा । अवाप्तवारोचितरोचितश्रि, वचः पुनः प्रस्तुत वक्तुमेवम् ॥१॥ (व्या०) अथेति ॥ अथानंतर उ धनुर्यस्य स अथवा इन्द्रः (धनुषो धन्वन् । ७ । ३ । १५८ । इ. सू. धनुषो धन्वनादेशः ।) एवं प्रकारेण वचः पुनर्व जाल्पतुं प्रास्तुत प्रारब्धवान् । किं कुर्वन् त्रयः अवयवा यस्य सत्र्यवयवः सचासौ लोकश्च मयूरव्यंसकादिषु पाठात् मध्यमपदलोपी कर्मधारयसमासः त्रिलोकस्य अधिप (उपसर्गा दातोडोऽश्यः । ५ । १ । ५६ । इ. सू. अधिपूर्वक पाधाताई. 1) स्वामी तस्य श्रीआदिदेवस्य प्रभोः मुखं पदनं प्रसादाभिमुख प्रसादस्य ( भावाऽकोंः । ५ । ३ । १८ । इ. सू प्रपूर्वक सद्धातो. र्ध । णिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. उपान्त्यवृद्भिः ।) अभिमुखं प्रसाद फर्तुकाममिव पश्यन् । (शत्रानशविष्यति तु सस्यौ । ५। २ । २० । इ. सू. शधातोर्वर्तमाने शतृ प्रत्ययः । श्रौति कृवु धियु पाघ्राध्मा-सीदम् । ४ । २ । १०८ । इ. सू. ६शधातोः पश्यादेशः ।) कीदृशं वच: अवाप्त: वारी यस्य तत् प्राप्तावस। अत एव उचितं युक्त रोचितारूचि प्राप्ता श्रीः शोभा यस्य तत् ॥१॥ सायं समताभ न वेसि भावां, स्तथाप्यसो त्यां प्रति मे प्रजपः । श्यतु मेधकरमारतक, मुदेण्यतः कालगलाइ धनस्य ॥२॥ (व्या०) स्वयमिति ॥ हे नाथ त्वं स्वयं समतान् सकलान् भावान् न बेसिन नजानासिन अपितु जानास्येव । तथापि असौ त्वां, प्रति मे मम प्रजलम: । ( भावाकाः । ५ । ३ । १८ । इ. सू. प्रपूर्वक जल्पधातो धम् ।) વનસ્ય મેવ મેયં મહતત્વ ને છતુ . મેવું વનોતીતિ મેહં. મેવર્તિ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः २ भया भयात् खः' इति सूत्रेण खप्रत्यये 'खित्यनव्ययारुपो मोऽतो इस्वच' इति सूत्रेण म आगमेकृते मेधंकर इति सिद्धम् । किं करिष्यतो घनस्य कालस्य बलं तस्मात् उदेष्यतीति उदेप्यन् (शत्रान गावश्यति तु सस्पो । ५ । २ । २० । इ.सू. उत्पूर्वकइ धातोभविष्यदस्यसहित शतृ प्रत्ययः)तस्य उदयं प्राप्यतः ।। साधारणस्ते जगतां प्रसादः स्वहेतु मूहे तमहं तु हन्त । हृयो न कस्येन्दुकलाकलापः, स्वात्मार्थमभ्यूहति तं चकोरः ।। ३ ।। (०या०) साधारण इति ॥ हे नाथ ते तव प्रसाद' जगतां विश्वानां साधारणः संशोवतते । तु पुनः अहं हन्त इति वितके त्वत्प्रसादः स्वहेतुमामनिमित्त हे विचारयामि । अत्र दृष्टान्तमाह-इन्दोश्चन्दोश्चन्द्रस्य कलास्तासा कलापः समूहः कस्य न हृध' (हृद्य पद्य तुल्य मल्य पश्य पथ्य वयस्य व्यम् । ७ । १ । ११ । इ. सू. हृदयशब्दात् यः प्रत्यय: हृदयस्य हलासलेखाण्ये। ३ । २ । ९४ । इ. सू. हृदयस्य दादेशः ।) नाभीष्ट अपितु सर्वस्थाभीष्ट स्तथापि चकोरस्तमिन्दुकलाकलापं स्वात्मार्थमभ्यूहति विचारयति ॥ ३ ॥ भवन्तु मुन्धा अपि भक्तिदिग्धा, वाचो विदाधाय्य भवन्मुदे मे। . भरमापि विसापयते जन किं, न स्वर्णसंवर्मित सर्वकायः ॥४॥. (व्या०) भवन्तु ॥ हे विदग्धाम्य विदग्धेषु अग्र्यः तत्संवोधने हे विद्वमुख्य मे मम वाच मुग्धा अपि भवन्मुदे तव हर्षाय भवन्तु । किंलक्षणा पाच: भक्त्या दिग्धा (hthaतू । ५ । १ । ११४ 1. इ. सू. दिह धातोः कर्मणि कः । भ्वाद ददिः । २। १ । ८३ । इ. सू. डस्य घ । अधश्चतुर्थात् तथो दशि २।१ । ७९ । इ.सू. तस्य धकारः । तृतीय स्तुतीय चतुर्थ ।।१ । ३ । ४९ । इ. सू. पूर्व घस्य गः) लिला. भक्तिदिग्धाः । अश्मापि पाषाणोऽपि 'स्वर्णसंवमि तसर्वकार्यः स्वर्णन संवर्मित वेष्टितः सर्वकायो यस्य सः सन् जन लोक किन विस्मपित सविस्मयं कि मकरोति अपितु करोत्येव ॥४ ।। " Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીñનમાલમવાલ્યમહૃાાવ્યમ્ ટીજાલમતમ્ ॥ સર્વાંઃ રૂ (૮૧ जडाशया गा इव गोचरेषु, प्रजानिजाचारपरम्परासु । प्रवर्तयन्नक्षतदंडशाली, भविष्यसि त्वं स्वयमेव गोपः ॥ ५ ॥ ( व्या० ) जडाशया इति ॥ हे नाथ त्वं गोपो ( आतोडोऽहवावाम: । ५ । १ । ७६ । इ. सू. गोपूर्वक पाधातोर्ड । डित्यन्त्यस्वरादे इ. सू आकारस्य लोप: । ) राजा गोपालो वा स्वयमेव भविष्यसि । किं कुर्वन् प्रजा लोकान् निजस्य स्वस्याचारास्तेषां परम्परास्तासु प्रवर्तयन् । का इव गा इव यथा गोपो धेनू' गोचरेषु (गाव. चरन्ति अस्मिन् इति गोचर गोचर संचर वह व्रज - कर्षम् । ५ । ३ । १३१ । इ सू. धान्तो निपातः । ) प्रवर्तयति । किं लक्षणा प्रजाः जड आशयः अभिप्राययासांता : मूर्खाभिप्रयोगा किं लक्षणो गोपः अक्षतदंड. शाली अक्षतश्चासौ दंडश्च सैन्यं पक्षे लकुटो वा तेन शालते इत्येवं शील: अक्षत दण्डशाली (अजाते. शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. अक्षत दण्डशब्दात् शालू धातो. शीलेऽर्थे णिन् । ) ॥ ५ ॥ कलाः समं शिल्पकुलेन देव त्वदेव लब्धप्रभवा जगत्याम् । क्वनो भविष्यत्युपकारशीलाः, शैलात्सरत्ना इव निर्झरिण्यः ॥ ६ ॥ ( व्या० ) कला. इति ॥ हे स्वामिन् कला गीतनृत्यवादित्राहवया द्वासप्रति संख्या कुंमकार १ लोहकार २ चित्रकार ३ वानकार 8 नापित ५ शिल्पानां पञ्चानामपि पृथक् पृथक् विंशति विंशतिभेदा: स्युरेवं शिल्पशतं स्यात् ईदृकू शिल्पकुलेन समं जगत्यां पृथिव्यां वयं कस्मिन् स्थाने उपकारशीलाः उपकार' शीलं स्वभावो यासां ता उपकारस्वभावा न भविष्यन्ति अपि तु सर्वत्र भविष्यन्ति । किं विशिष्टा कला' त्वदेव तव सकाशादेव लब्ध प्रभव उत्पत्ति ચોમિસ્ત!' । । વ સરનાં રત્ન' સહ વર્તન્તુ તિ નિશેરિબ્ધ નવ (અતોડનેस्वरात् । ७ । २ । ६ । इ. सू. निर्झरशब्दात् मत्वर्थे इन् प्रत्ययः । स्त्रियां नृतोऽस्वस्त्रादेर्डी': । इ. सू. डी प्रत्यय 1 ) इव यथा शैलात् पर्वतात् लब्धप्रमवा सरत्नाः नद्यः क्व उपकारशीला न भवन्ति अर्थात् सर्वत्र भवन्त्येव ॥ ६ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ सहश्च । ५-१-१११ । इ. सू. सर्वपूर्वकसहधातो खः । खियनव्ययाऽरुषोर्मोऽन्तोहस्वश्च । ३-२-१११ । इ. सू. मोऽन्तः ।) त्वयि विषये स्वहेती: ( सातिहतिपूतिजतिज्ञप्तिकीर्तिः । ५-३-९४ । इ. सू. हेतिनिपात्यते ।) स्वप्रहरणानि मोधाः निष्फला दृष्ट्वा । कि लक्षणा जगतां विश्वजनानां प्राणान् जीविता हरन्तीति ताः ॥ ११ ॥ मधुर्वयस्थो मदनस्य मूछौं, मत्वा ममत्वाद्विपमा विषण्णः । तनात्यपाचीपवनानखंड-श्रीखंडखंड प्लवनाप्तशैत्यान् ॥ १२ ॥ (०या०) मधुरिति ॥ वयस्यो (वयसातुल्यो वयस्यः । हृधपद्यतुल्यमूल्यपश्यपथ्यवयस्य धेनुष्यागार्हपत्यजन्यधय॑म् । ७-१-११ । इ. सू. यप्रत्ययातो वयस्यो निपात्यते) भित्रं मधुर्वसन्तः मदनस्य ( नन्चादिभ्योऽनः । ५-१-५२ । इ. सू. मद्धातो: अनः मदयतीति मदनः ) कामस्य विषमां મૂછ મવા જ્ઞાત્વી મમત્વાત્ મોહાત અપચા વક્ષિતિરાઃ પવનાનું તોતિ विस्तारयति । किं लक्षणो मधुः विषण्णः (गत्यर्थाऽकर्मक पिबभुजेः ५-१-११ । इ. सू. विपूर्वकसद्धातो. कतरिक्तः । सदोऽप्रते: परोक्षायां वादेः । २-३४४ । इ. सू. वे. परस्य सद्धातोः सस्य प रदाऽभू मदतयोदस्य च । ४-२-६९ । इ. सू. तस्य दस्य च नकार । रष्टवर्णानोण (कपदेऽनन्त्यस्थालचटतवर्गशसान्तरे । २-३-६३ । इ. सू. नस्य णः । तवर्गस्यश्ववर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवौँ। १-३-६० इ. सू. द्वितीयनस्य ण ।) लान: । જીદરાન-પવનાનું સર્વશ્રીલંડવંડણનીતિરીત્યાનું હાનિ મછિનાનિ ૨ તાનિ શ્રીરવંડાનાં વન્દનાનાં રવંડા િવનાનિ જ તેવુ સ્કવન વામન તેન માપ્ત शैत्य यस्तै तान् ॥ १२ ॥ मत्वा मधो मित्रशुचा प्रियस्सा-मनस्यमाक्र.दत यद्वनश्रीः । तदन कि कंजलविजुलाश्रु-कमाः स्फुरत्युल्ललिवालिदभाव ॥१३॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (८९ (व्या०) मवेति । यवनश्री यस्य वनं यदनं तस्यश्री: लक्ष्मीः आनन्दित तारस्वरेण विलला५ । किं कृत्वा प्रियस्य वल्लभस्य मधोवसन्तस्य मित्रस्य शुक् (कुत्सम्पदादिभ्यः किप् । ६-३-११४ इ. स. स्त्रियां भावे क्विप् ) शोकः तया आमनस्यं दुःखं मत्वा ज्ञात्वा तत् तस्मात् कारणात् अत्र अस्यां लोचनश्रियां उललिताश्चते अलयश्च भ्रमरास्तेषा दंभो मिषरतस्मात् उच्छलभूमरभिषात् कि कजलेन अञ्जनेन विजुलानि कलुषितानि चतानि अश्रूणि च तेषां कणा विन्दव स्फुरन्ति प्रसरन्ति ॥ १३ ॥ ये सेवकाश्चास पिकाः स्वभर्तु-दुःखानिनातेऽन्यलभन्तदाहम् । किमन्यथा पल्लवितेऽपि कक्षे, तदंगमंगारसमत्वमेति ॥ १४ ॥ (न्या.) ये इति ॥ च अन्यत् अस्य मधोर्वसन्तस्य सेवका (गकतृचौ। ५-१-४८ । इ. सू. सेव् धातोः कर्तरिणकः ।) ये पिकाः कोकिलावर्तन्ते । तेऽपि स्वमर्तुः वसन्तस्य दुःखाग्निना दाह (भावाऽकाः । ५-३-१८ । इ. सू दधातोमवि घ) मलभन्तप्राप्तवन्तः । अन्यथा (प्रकारे था । ७-२-१०२। इ. स. अन्यशब्दात् प्रकारेथा । अन्येन प्रकारेण इति अन्यथा ) पल्लवितऽपि कक्षे वने तेषां कोकिलानां अंगं शरीरं अंगारस्य समत्वं तत् अंगारसादृश्यं कि कथमेति इण्यातो. कर्तरिवर्तमाना प्राप्नोति ॥ १४ ॥ तनोषि तत्तेषु न कि प्रसादं, न सांयुगीनायदमीत्वयीश। साधन शक्तरवकाशनाशा, श्रीयेत शूररपि तत्र साम ॥ १५॥ . (०या०) तनोषि इति ॥ हे ईश तत् तस्मात कारणात् त्वं तेषु यौवनादिषु प्रसादं कि न तनोषि न करोषि । यत् यस्मात्कारणात् अभी यौवनादयत्वयि सांयुगोना. (संयुगे साधव. सांयुगीना प्रतिजनादे रीनञ् ७-१-२० । इ. स. संयुगशब्दात् साधौ अर्थे ईन) रणे साधवो न वर्तन्ते । यत्र शक्तेः सामर्थ्यस्य अवकाशस्य नाश तत्र सूरै सुभटैरपि साम साम्यगुणः श्रीयेत आश्रीयेत ॥ १५ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ त्वदागमां भोनिधितः स्वशात्तया - Sऽदायोपदेशां बुलवान् गभीरात् । घना विधास्यन्त्यवनीवनीस्थान, विनेयवृक्षानभिवृष्य साधून् ॥ ७ ॥ ( व्या० ) त्वदागमेति ॥ धना लोका मेघा वा गभीरात् त्वदागमांभोनिधितः (उपसर्गा६ः किः । ५ । ३ । ८७ । इ. सू. निपूर्वक धाधातोः क्रिः । इत् पुसि चातोलुक् । ४ । ३ । ९४ । इ. सू. धाधातो राकारलोपः । अहीयरुहोऽपादाने । ७ । २ । ८८ । इ. सू. पञ्चम्यर्थे तसु प्रत्ययः । अघण् तस्वाद्यो. शसः । १ । १ । ३२ । इ. सू. अव्ययसंज्ञा । नाम्न प्रथमैक द्विबहु । २ । २ । ३१ । इ. सू. स्यादि । अव्ययस्य । ३ । २ । ७ । इ. सू. अव्ययात् स्यादेर्लु५ ) त्वदीयागमसमुद्रात् उपदेश एवं अम्बुलवास्तान् स्वशत्तया स्वस्थ शक्तिस्तया स्वसामर्थ्येन आदाय गृहीत्वा विनेयाः शिष्या एव वृक्षास्तरचसानू अभिवृष्य सिकवा साधून निर्ग्रन्थान् मनोज्ञान वा करिष्यन्ति । किं लक्षणान् अवनीवनीस्थान् अवनी पृथ्वी एव वनी महावनं तस्यां तिष्ठन्तीति तान् । मेघा' समुद्रात् जल ग्रहणन्ति इति लोकरूढि ॥ ७ ॥ भवद्वयेऽप्यक्षय सौख्यदाने, यो धर्मचिन्तामणिरस्त्यजिह्नः । प्रमादपाटचरलुंट्यमानं, त्वमेव तं रक्षितु मीशितासे ॥ ८ ॥ ( व्या० ) भवद्वय इति । हे नाथ यो धर्मचिन्तामणिः धर्म एव चिन्तामणि' चिन्तारत्नं भवद्वये भवयोर्जन्मनोर्द्वयं (द्वित्रिभ्या मयट् वा । ७ । १ । १५२ । इ. सू. त्रिशब्दात् वा अयटू 1) तस्मिन् जन्नद्वयेऽपि अक्षयसौख्यदाने નઽસ્ત ક્ષો યસ્ય તત્તત્ત્વ તત્ સૌથ્થું ~ તસ્ય વાન્ તસ્મિન્ અવિનશ્વર सुखप्रदाने अजा सोद्यमोऽस्ति । प्रमाद (भावा । ५ । ३ । १८ । इ. सू. प्रपूर्वक मद् धातोर्घञ् ति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. उपान्य वृद्धिः) एव पाटचर (पाटयन् चरतीति पाटचरः पृषोदरादित्वात् सिद्ध:) चौरस्तेन लुंट्यमानं तं धर्मचिन्तामणिं रक्षितुं पालयितुं त्वमेव ईशिता से समर्थो भविष्यसि ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः २ (८७ - तद्गेहि धर्मद्रुमदोहदस्य, पाणिग्रहस्थापि भवत्वमादिः। न युग्मिभावे तमसीव मनां, महीमुपेक्षस्व जगत्प्रदीप ।। ९ ।। (व्या०) तदिति ॥ हे नाथ तत् तस्मात् कारणात् त्वं पाणिग्रहस्यापि (व्यञ्जनाद्धम् । ५-३-१३२ । इ. सू. पाणिपूर्वक धातोराधरिच पाणिगैह्यति अस्मिन् इति । ) विवाहस्यापि आदिः प्रथमो भव । किविशिष्टस्य पाणिग्रहस्य हिधर्मद्रुमदोहदस्य गेहिन गृहस्थस्य धर्म स एव द्रुमः वृक्षः तस्य दोहदं तस्य वृक्षा यथा दाडिममुख्या. धूमपानादिदोहदेन पूरितेन सश्रीकाः सफला स्यु तथा अत्रापि ज्ञेयम् । हे जगप्रदीप (अच् । ५-१-४९ । इ. सू. पूर्वकदीपधातोरच्) तमसीव अंधकार इव युग्मिभावे युगलिधर्मे मनां श्रुडितां महीं पृथ्वी न उपेक्षस्व मा उपेक्षां कुरु ॥ ९ ॥ वितन्त्रता केलिकुतूहलानि, त्वया कृतार्थीकृतमेव बाल्यम् । विना विवाहेन कृपामपश्य-चवाध न ग्लायति यौवनं किम् ॥११॥ (व्या.) वितन्वतेति ॥ हे नाथ केलिकुतूहलानि केलिश्च जलक्रीडा कुतूहलानि च गीतनृत्यनाटकादीनि कुर्वता त्वया बाल्य (पतिराजा-तगुणाराजादिभ्य कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू. बालशब्दात् भावेऽर्थव्यण) बालrd कृतार्थीकृतमेव सफलीकृतमित्यर्थः । अथ संप्रति यौवनं (युवादेरण । ७-१-६७ इ. सू. युवन् शब्दात् भावेऽर्थेऽण् ) यूनो भावः यौवनं किं न ग्लायति न दूयते अपि तु ग्लायत्येव किं कुर्वत् यौवनं विवाहेन विना तव कृपामपश्यत् ॥१०॥ दृष्ट्वा जगत्प्राणहतोऽपि सर्व-सहे पहेतीस्त्वयि नाथ मोधाः । अनंगतां कामभटोऽस्य मुख्यः, सखा विषादानुगुणां दधाति ॥११॥ (या०) दृष्ट्वेति ॥ हे नाथ काममटोऽपि कंदर्पयोधोऽपि विषादानुणां विषादस्य अनुगुणां योग्यां अनगतां अंगरहितत्वं दधाति कि विशिष्ट कामभटः अस्य यौवनस्य मुख्यः अग्रणी. सखामित्रं किं कृत्वा सर्वसहे. सर्वसहति (सर्वात Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यंमहाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ शठी समेतो दृढसख्यमेतो, तारुण्यमारौ कृतलोकमारो । भेत्तुं यत्तेतां मम जातु चित्त-दुर्ग महात्मन्निति मारा मंसाः ॥१६॥ (या) शठाविति ॥ हे महात्मन् त्वमिति मास्म मंस्था मा जानीहि इतीति किं एतौ तारुण्यमारौ तारुण्यं (पति राजा-तगुणाझराजादिभ्यः कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू. तरुणशब्दात् भावे कर्मणि च व्यण तरुणस्य भावस्तारुण्यम् ।) च मारश्च यौवनकंदो जातु कदाचिदपि मम चित्तमेवदुर्ग( सुगदुर्गमाघार । ५-१-१३२ । इ. सू. दुर्वकगम् धातो राधारे डः । डित्यन्यस्वरादे: इ. सू. टिलोप• दुःखेन गम्यते अस्मिन् इति दुर्गः ।) स्तं भेत्तुं यतेतामुपजामत: । किं लक्षणौ तारुण्यमारौ शठौ धूतौ दृढसख्यं ( सखिणिम् दूतायः । ७-१-६३ । इ. सू. सखिशब्दान् भावे कर्मणि च यः अवर्णवर्णस्य । ७-४-६८ । इ. सू. सखिशब्दस्यकारस्य लोप: ) गाढमैत्र्यं यथा भवति तथा समेतौ मीलितो कृतलोकमारौ कृत' लोकानां मार: संसारम्रमणरूप: याभ्यां तौ ॥ १६ ॥ हृत्वा विवेकांवकबोधमंधी-भूतं जगत्पातयदाधिगते । तावचव ज्ञानविभाकरस्य, तन्वीत तारुण्यतमो न मोहम् ॥ १७॥ (०या०) हवेति ॥ हे नाथ तावत् तारुण्यतम तारुण्यं यौवनमेव तमः अंधकारः यौवनांधकारः तव ज्ञानमेव विमाकर: (संख्याऽहर्दिवा विभानिशाप्रभाभाश्चित्र-ट्टः । ५-१-१०२ । इ. सू. विमापूर्वककृपधातोर्ट: विमा करोतीति विभाकरः ) सूर्यः तस्य ज्ञानरूपसूर्यस्य मोहं ( भावाऽकाः । ५-३-१८ । इ. सू. मुद्धातोः धम् मोहन नोह. ।) न तन्वीत न कुर्वीत । किं कुर्वत् तारUयतमः विवेकांवकयोधं विवेक एव अंबक नेत्रं तस्य वोधं ज्ञानं विवेकलोचनज्ञान हत्या अधीभूतं जगद्विश्वं आधेः ( उपसर्गाद: किः । ५-३-८७ । इ. सू. आपूर्वकधाधातो: कि प्रत्यय इडेत् पुसिचातोलक । ४-३-९४ । इ. सू. धाधातोराकारलोपः । ) असमाधेः गत विवरे पातयत् यथा गाशब्द तथा गतशब्दोऽपि ज्ञेयः ॥ १७ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यमहाकाव्यम् टीकासमकतम् ॥ सर्ग. ३ (९१ ब्रह्मास्त्रभाजः कुसुमास्त्रयोधी, मारोऽपि किं ते घटते विरोधी। । विरोत्स्यते पा खलु तदहुक्त्वा, भोक्ता पलिस्पर्धफलं खयं सः ॥१८॥ (व्या०) ब्रह्मास्त्रेति ॥ हे नाथ मारोऽपि कंपोऽपि ते तव विरोधी (अतोऽनेकस्वरात् । ७-२-६ इ. सू. विरोधादात मत्वर्थे इन् प्रत्ययः विरोघोऽस्यातीति विरोधी । ) शत्रुः कथं घटते अपि तु न घटते । किं विशिष्टस्य तव ब्रह्म ब्रह्मज्ञानं तदेव अस्त्रं शस्त्रं तद् भजतीति तस्य (भजो विण। ५-११४६ । इ. सू. भज्धातोः कतरि विण । मिति । ४-३-५० । इ. सू. उपान्त्यवृद्धि ।) ब्रह्मास्त्रशब्देन अस्खलित शस्त्र मुच्यते । उक्त च 'केनापि रखलयितुं यत्न, शक्यते क्वापि सर्वथा । तद्ब्रह्मास्त्रंपरिज्ञेयं यथा चक्र हि चक्रिण ॥ १ ॥ किं लक्षणो मारः कुसुमं पुप्पं तदेव अस्त्रं तेन युध्यते इति कुसुमात्रयोधी (अजाते शोले । ५-१-१५४ । इ. सू. शीलेऽर्थे युध् धातोः णिन् प्रत्ययः । ) वा अथवा विरोत्स्यते यदि विरोधं करिष्यति तद्वहु उत्पा खलु पूर्यताम् । स मारः बलिस्पर्धफलं बलवता सह स्पर्धायाः फलं स्वयं भोक्तभोक्ष्यति । यथास्पर्धाशब्दः तथा स्पर्धशब्दोऽपि ज्ञेयः ॥ १८ ॥ यया दृशा पश्यसि देव रामा, इमा मनोभूतरवारिधाराः। तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ, नेता किमंभोघरवारिधाराः ॥ १९ ॥ (व्या०) ययेति ॥ हे देव यया घशा (भ्यादिभ्यो न वा ५-३-११५ इ. सू. हशधातोः स्त्रियां भावे क्वि५ ) अभिप्रायरूपया इमा रामा' - स्त्रियःमनसि हृदये भवतीति मनोभू (क्वि५ ५-१-१४८ । इ. सू. भूधातोः क्षिप् । ) कंदपस्तस्य तरवारिः खड्गः तस्य धारास्ता• कंदपखड्गधाराः पश्यसि । तां दृशं पृच्छ एताः त्रियः पृथ्वीधरवंशवृद्धौ पृथ्वीवराणां राज्ञां वंशाः अन्वया । पक्षे पर्वतानां वंशाः तेषां वृद्ध वृद्धयर्थं किं अंभोधरवारिधाराः अंभोधराणां (आयुधादिभ्यो धृगोऽदंडादे: ५-१-९४ । इ. सू. धृग्धातोरच् नामिनोगुणोऽडिति । ४-३-१ इ. सू. अन्त्यकारस्य गुणः । ) वारिणः धाराः मेघजलधारा न पर्तन्ते अपि तु वर्तन्ते ५५ ॥ १९ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨) શ્રૉનનમારસમ્ભવાસ્થ્યમાાવ્યમ્ દીાલમ ંદ્યુતમ્ | સર્ગઃ રૂ નયસ્થ શ્ય મુિ સંત્રસ, શ્રેણં પરું યતિ સર્વમીર कोशातकी कल्पलते लतासु, दृवीं च विश्वं व्यवहारसारम् || २० || (વ્યા૦) નચેતિ !! દે ફેશË સંઢનયસ્ય વક્ષ્ય: (ઘપવતુત્યમૂત્યુનપચ્યવયસ્ય ઘેનુત્યાદિત્યનન્યધમ્યમ્ ૭-૨- રૂ. સૂ. વચગવ્વોયાન્તો નિપાતઃ વા રાતૌ વશ્યઃ । ) સન્ સર્વ જૈળ ( ષષ્ઠા સમૂà । ૬-૨-૧ । રૂ. સૂ. સમૃઘેડથે સ્રોરાન્દ્રાર્ પ્રાવૃતઃ સ્રીપુંસાનન્ સ્રગ્ | ૢ--રૂક્ષ્ । રૂ. સૂ. નઝ્ । વૃદ્ધિ:વરેષ્વારેાિતિતન્દ્રિતે । ૭-૪-? । રૂ. સ. મહિષરય વૃદ્ધિ:) સ્રીતમૂદું નનું ચૈવજ્ઞ વિનુ ધ્યાતિ ર્થે વ્યાયસિ યથા િશવ્વુફ્તા વિમુરાબ્તોઽવ્યક્તિ । નૈામ ? સંપ્રદ ર્ વ્યવહાર મૈં ઋનુસૂત્ર છે. રાજ્ ય સમિત દ્ વભૂતેષુ ૭ સપ્તસુ નયેષુ સંખ્રહનયજ્ઞળમિમસ્તિ । સકૂપતાનતિાન્તે સ્વસ્વમામિનું નાત્ । સવ્વુપતર્યા સર્વ સંપ્શન સોમતઃ IIII ચત્ સર્વો અપિ હ્રિય: પરુત્વાના તિ । ત્યં તાનુ વણીલુ જોશાતળો ૬ પતા હૈં જૌરાાતજી પતે સોટિા૫વજ્યો ના વિશ્વ વ્યવહારસાર (સર્વે: ચિયાધિવમયે । -રૂ-૨૭ રૂ. સૂ. તૃષાતોઃ ર્ ગ્) અથ નાનીર્દિ ‘સાત' પડ્યું સર્વે ત્યાં ધાતવો જ્ઞાનાથી જ્ઞેયાઃ । વં બ્રિયો ટ્વિ શ્રિદ્ધ્વ્યા હ્રાશ્રિત મળ્યાઃ || વ્યવહારનયજ્ઞમિતસ્તિ-વ્યવહારન્તુ તમેવ પ્રતિવસ્તુવ્યવસ્થિતામ્ । તથૈવ દશ્યમાનત્વાચાપતિ વૈદ્દિનઃ || o || ર્ II દિ શારો વાર પ્રદેળ, વિરાવતાં નિવૃતિનાાિય[$ ! મજ્જુ મ્રુતંખ્યવરોધને યા-આપવું ઝુમ્પતિ નામ શ્વેત્ ॥RI (૫૧૦) િિમતિ II હૈ નાથ ત્યું તારામાં નારોમાં બિન્તેન દ્વારપરિઅમે છત્રારે (ન્યાયાવાયાઘ્યાયોદ્યાવસઁહારાવદાર ધારહારનારન્ો ૧-૩-૧૩% રૂ. સ. દ્વારશબ્દો ધનન્તો નિપાતઃ 1) નિવૃત્તિવ (સ્ત્રિયાંત્તિઃ । -રૂ-૧૨। રૂ. સૂ. નિરપૂર્વવૃધાતો: સ્ત્રિયોં મારે િ) નયા (નૈયતીતિ નાયિા ન તુૌ । બ્—–૪૮ | રૂ. સૂ. નોંધાતો: ા પ્રત્યયઃ આત્ । ૨-૭-૨૮ + Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીનેનકુમાલક્ષ્મવાદ્ધ મદાવ્યમ્ દ્રીપાલમઋતમ્ ॥સર્વઃ રૂ (૨૩ इ. सू. आप अस्था यत्तत् क्षिपकादीनाम् । २ - ४ - १११ । इ. सू. अस्य इः । ) तस्याः मुक्तित्रियाः विरागतां नीरोगत्वं किं शंकशे । प्रभुः स्वामी प्रभुतेऽपि प्रचुरेऽपि अवरोधने अन्तःपुरे आगसामपराधानां पदं स्थानं अपराधस्थानं न भवति चेत् यदि क्रमं न लुम्पति । सांप्रतं पाणिग्रहणं कुरु क्रमेण पश्चात्तामपि भजेरिति भावः ॥ २१ ॥ अद्यापि नाथः किमसौ कुमारो, निष्कन्यकं किं परिवर्त्यवन्याम् । भृत्योऽतरंगोऽस्य हरिर्विचेता, यायावरं वेत्ति न यौवनं यः ॥ २२ ॥ इत्थं मिथः पार्षदनिर्जराणां, कथाप्रथाः कर्णकटूनिपीय । तेषां प्रदाने प्रचलोत्तरस्य दरिद्रितोऽहं त्वयि नायकेऽपि ॥ २३ ॥ युग्मम् ॥ ( ०या० ) अद्यापीति । हे नाथ अहं त्वयि नायकेऽपि अधिपतौ सति तेषां सम्यदेवानां प्रबलोत्तरस्य प्रदाने दरिद्रितः दरिद्रो जातः किं कृत्वा इत्थं अमुना प्रकारेण पार्षदाश्वते ( पर्षद साधवः पार्षदाः पर्षदोप्य । ७-१-१८ । इ. सू. साधो अणू वृद्धिः स्वरेष्वादे णिति तद्धिते । ७-४-१ । इ. सू. आदिस्वरवृद्धि: 1) निर्जराश्च ( प्रात्यवपरिनिरादयो गतकान्तकुष्टग्लानकान्ताद्यर्थाः प्रथमाद्यन्तैः । ३-१-४७ | इ. सू. समासः जरायाः निष्क्रान्ताः निर्जराः । पार्षदाचते निर्जराश्च विशेषणं विशेष्यणैकार्थं कर्मधारयश्च । ३-१-९६ । इ. सू. समासः कर्मधारय ' ) तेषां पार्षदनिर्जराणां सम्यदेवानां मिथ' परस्परं कर्णयोः श्रोत्रयोः कटवस्ताः कर्णकटू कथानां (भीषिभूषिचिन्तिपूजिक थिलुम्बि चविस्पृहितोलिदोलिम्यः । ५ -३ - १०९ । इ. सू. कथिधातोः अप्रत्यय आत् इ.सू. आप् ) प्रथाः (पितोऽड् । ५ -३ - १०७ । इ. सू. प्रथधातोः अ आत् इ. सू. आपू ) कथा प्रथास्ताः निपीय पीत्वा इत्थमिति किं अद्यापि असौ नाथः स्वामी किं कुमारः अपरिणीतः किमवन्यां पृथिव्यां निष्कन्यकं कन्यका-नामभावो परिवर्ति । (व्यञ्जनादरेकरवराद् भृशाभीक्ष्ण्ये यड् वा । ३ - ४ - ९ । इ. सू. वृत्धातोर्यङ्प्रत्ययः सन्यश्च । ४-१-३ | इ. सू. द्वित्वं बहुलं लुप् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ९४) श्रीजनकुमारसम्भवास्यंमहाकाव्यम् टीकासमलम् ॥ सर्गः ३ ३-४-१४ । इ. सू. यडोल५ । रिरौ च लुपि ॥४-१-५६ । इ. सू. पूर्वस्य रिः लघोरुपान्त्यस्य । ४-३-४ । इ. सू. उपान्त्यगुणे वरिवति इति धुटो धुटिस्वे वा १-३-४८ इ सू. तलोपे वरिवति इति जातम् ) अस्य भगवतः अन्तरंगः मृत्यः (भृगोऽसंज्ञायाम् । ५-१-४५ । इ. सू. भृगधातोः क्यप् । इस्वस्य तः पित्कृति इ. सू. तोन्तः ।) सेवकः हरिरिन्द्रः किं विचेता: अचेतनो वर्तत यो हरिरस्य स्वामिनी यायावरं गत्वरं यौवनं न वेत्ति न जानाति यायावरः । यातयन्तात् शीलादिसदर्थवर प्रत्ययः इति सूत्रेण ॥ यायावरमिति निपातः ॥ २२ ॥ २३ ॥ युग्मम् ।। वयस्खनंगस्य पयस्य भूते, भूतेश रूपेऽनुपमस्वरूपे । पदींदिरायां कृतमंदिरायां, को नाम कामे विमनास्त्वदन्यः ॥२४॥ (व्या०) वयसीति ।। नाम इति कोमलामंत्रणे हे भूतेश भूतानां प्राणिनां इश: भूतेश: तस्य संवोधने हे भूतेश त्वदन्यः त्वत्त: पर कः पुमान् कामे कंद विमनाः विमुखो वर्तते । क सति पयसि यौवने अनंगस्य कामस्य वयस्य (धपद्यतुल्यमूल्यवश्य । ७-१-११ । इ. सू. यान्तो निपातः) भूते मित्रसदृशे सति पुन: रूपे अनुपम स्वरूपं यस्य तत् तस्मिन् सर्वोत्तमस्वरूपे सति पुन: इंदिरायां लक्ष्म्यां पदि चरणे कृत मन्दिर स्थानं यया सा तस्यां सत्यां त्वचरणयोर्लदगी: वसतीत्यर्थः ॥ २४ ॥ जाने न कि योगसमाधिलीन, विषायते वैषयिकं सुख ते । तथापि संप्रत्यनुषक्तलोक, लोकस्थितिं पालय लोकनाथ ॥ २५ ॥ (व्या०) जाने इति ॥ हे योगसमाधिलीन अहं एवं कि न जाने अपि तु जाने । ते तव वैषयिक विषयनिमित्तं सुख विषायते (क्यङ । ३-४-२६ । इ. सू. विपशब्दात् आचारे क्यड् । इजित: कतरि । ३-३-२२ । इ. सू. क्यडो हित्वात् आत्मनेपदम् ) विषवदाचरति । तथापि संप्रति अधुना हे अनुyth: लोक अनुपात: आश्रित: लोको जनो येन सः तस्य संबोधने लोको विश्व Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंधत्तम् ॥ सर्गः ३ (९५ तस्य नाथस्तस्य संबोधन हे लोकनाथ लोकानां जनानां स्थितिः पाणिग्रहणादिरूपा लोकस्थित्तिः (स्था वा । ५-३-९६ । इ. सू. स्थाःधातो: ति: दोषोमास्थ इ: ४-४-११ । इ. स. स्थाधातोः इः । ) तां मर्यादां पालय ॥ २५ ॥ स्वयेव याऽभूत्सहभूरभूमि-तमोविलासस्य सुमंगलेति । राकेव सा केवलभास्वरस, कलाभृतस्ते भजतां प्रियात्वम् ॥२६॥ (व्या०) त्वयेति ॥ हे नाथ या सुमङ्गला त्वयैव सहभः (सह भवतीति सहभू. क्वि५ । ५-१-१४८ । इ. स. भूधातोः चिप् ) सहजन्मा अभूत् किं विशिष्टा सुमङ्गला तमस पापस्य विलासो (भावाऽकोंः । ५-३-१८ । इ. स. विपूर्वकलसधातीवि धम् ) विस्तारस्तस्य पापविस्तारस्य अभूमिरस्थान निष्पापेत्यर्थः । सा सुमङ्गला ते तव प्रियात्वं कलत्रत्वं भजताम् । किं विशिष्टस्य ते केवलमारपरस्य (स्थेशमासपिसकसो वरः। ५-२-८१ । इ. स. मांसधातोः परप्रत्ययः ) सकलजगदुद्योतकस्य । का इव राका इव पूर्णिमा इव यथा राका पूर्णिमा कलामृतः (कला बिभतीति कलामृत् क्वि । ५-१-१४८ । इ. सू. क्वि५ ) चन्द्रस्य प्रियात्वं भजते सोऽपि भास्वरोभवेत् राकापि तमोविलासस्य अभूमिभवति ॥ २६ ॥ अवीवृधयां दधदकमध्ये, नाभिः सनामिजलधर्महिना। प्रिया सुनन्दापि तवा सा श्री-हरिवारिष्टनिदनस्य ॥२७॥ (व्या०) अवीवृधदिति ॥ हे नाथ नाभियों सुनन्दा अंकस्य मध्यं तस्मिन् अंकमध्ये उत्संगोपरि अवीवत् वर्धयति स्म । किं लक्षणो नाभिः महतो भावो महिमा तेन महिम्ना (पृथ्वादेरिमन् वा ३-१-५८ । इ. स. महत् शब्दात् इमन् प्रत्ययः व्यन्तस्वरादेः । ७-४-४३ । इ. सू. इमनि परे महत् शब्दस्य अत् अंशस्य लोपः) विस्तारेण जलधेः (व्याप्यादाधारे। ५-३-८८ । इ. सू. जलपूर्वकधाधातो: किः इत् पुसिचातो छ । इ. स. धाघातोराकारस्य लोपः ।) समुद्रस्य सनाभिः सहश: । सा सुनन्दा तव प्रिया अस्तु । कस्येव हरेनारायणस्येव यथा हरेः श्रीः लक्ष्मीः प्रिया स्यात् । कि विशिष्टस्य तव हरेश्व Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬) નજુમાવતન્મવાર્થ મહાધ્યમ દીવાલમાંત છે સ રૂ. વરિષ્ટનિકૂવનસ્ય (નન્યાદ્રિોડ -૨૦૧૨ ૬. . વિધાતોઃ અનઃ ) અરિષ્ટ વિન્ન. પક્ષે અરિષ્ટનામાદ્વિત્ય તે નિવૃત વિનાયતીતિ તસ્યા તસ્મિન સમયે નિસ્તીતિ થે તદિરોષ પર માવિનિ મૂવલુપવા મવતિ રૂતિ ચાયોત્રત્ર લે ૨૭ ! ને મે વધુપછાને, નાને વિમાનૈબ્રિટિજી માધ્યમ્ મૂકીઠાંન્તાન્ત-વૌવારિણી ૨૮ | (વ્યારા) જે ઉતિ છે દે નાથ નાને વંચિ રૂમે સુમાત્રાહુનજે તપયજીમાને પરિણયતિ સતિ ત્રિદિવેષ સ્વષ વિમાનઃ સૈન વારિખ (ત્રિયાં જિ: વ–૨–૧૨ . રૂ. ૬. વિધાતોઃ બિયાં માવે nિ: 2) પ્રતીહોરણ રક્ષણીઃ રક્ષતિગૅમળ્યમ્ ! પપૂર્વે મધીતુ યમ: સ્વીકારે, કૃતિ ફળભનેપકી શેઃ વિ. રિર્વિમાનૈ મુવા પી પી મહીતરું તસ્મિન સંસાન્તાઃ તાઃ સાન્તાઃ સર્જત્રાંટ લેવા ચેષાં તૈઃ પીઠસંસાન્તાન્તઃિ ૨૮ વધૌતપૂતતિવારિધી , તે તુરબ્રીનનદર્શા . બહુ હાવળ્યતરાધિ-વોનોતિરિમા | ૨૧ છે. (થા) મધીત ફતિ દે નાથ તસ્મિન્નવસરે સુરાણાં વાનાં ત્રિઃ તાલાં : સમૂઃ તસ્ય દરો દgય તી Uવ રાજ મલ્ય સુરસ્ત્રીનનદરાપર્ય તેવાંનાંદષ્ટહામસ્યા તે તવ દે શારીરે ઝમતુ. શા સમુદ્ર મવતીયાદ વુિં વિશિષ્ટ વેદે મતદૂતવુતિવારિથી મતા પૂતાં જ યુતિઃ (તત્ર નિયુજે ૬–૪–૭૪ રૂ. ૪. દ્વારાષ્નાત્ નિયુક્ત ફુ દ્વારાઃ ૭–૪–ા ૬. સૂ. દ્વારરાવે વIRIત્ મૌજારઃ અનુનાસિ ૨ ઃ રા. ૪-૧૦િ૮સૂ. વિધાતાવરસ્ય ૩ ફુવરફ્લેશ્વર વિઝા ૨–૨–૨૨ ૬. . ફાસ્ય રે ! યુતિરિતિ ) ત૨ વારિધિ (વ્યાવ્યાસ્વાધરિ ! -રૂ-૮૮ 1 $. સૂ. વારિપૂર્વધાતોઃ પ્રિત્યયઃ ફોર્ પુસિ વાત છે Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवायं महा.व्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (९७ । ४ । ३ । ९४ । इ. सू. आकारलोप.) समुद्रस्त्तस्मिन् । कि लक्षणाः सुरस्त्रीजनहाशयः लावण्यतरभंगिखोलनोद्वेलितकेलिरंगाः लावण्यस्य तरंगाः फलोलाः तेषां भंगयो पिच्छित्तयः तासु प्रेखोलनमान्दोलनं तेन उद्वेलिताः लक्षणया वर्द्धिताः केलिरंगा यासां ताः ॥ २९ ॥ श्रीसार्वजन्यास्तव सार्वजन्या, देवा भवन्त: शुभलोभवतः । पुराकृत प्रौढतपः फलानां, विपतिमत्व हदि भावयन्तु ॥ ३० ॥ (व्या०) श्रीसाई ! इति । हे श्रीसाई हे श्रीसर्वज्ञ ! देवाः तव जन्या. (हृद्यपधतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यचर्यम् । ७ । १ । ११ । इ. सू. य प्रत्ययान्तो निपात्यते) जान्ययात्रिका भवन्तः सन्तः पुराकृतप्रौढतप. फलाना पुराकृतानि च तानि प्रौढतपांसि च तेषां फलानि तेषां विपत्रिमत्वं (इवितस्त्रिमा तत्कृतम् । ५ । ३ । ८४ । इ. सू. विपूर्वक पच्धातोखिमक प्रत्यय. विपाकेन निवृतं विपत्रिमं तस्य भावो) प्राप्तपरिपाकावं हदि मनसि भावयन्तु चिन्तयन्तु । मूण अवर्क कने इति धातोः प्रयोग । कि लक्षणाः देवाः सार्वजन्या -सर्वेषु जनेषु साधवः सार्वजन्याः (सर्वजनाण्येन औ। ७-१-१९ इ. सूः साध्वर्थे सर्वजन शब्दात् ण्य प्रत्ययः । वृद्धिः स्वरेवादेणिति तद्धिते । ७ । ४ । १) शुभलोभवन्तः शुभे मंगलादिकार्य लोभसंयुक्ताः ॥ ३०॥ शचीमुखा अप्सरसो रसोर्मि-प्रक्षालनापास्तमलाननु त्वाम् । तदा ददाना धवलान् :सुवाचा-माचार्यकं बिभ्रतु मानवीषु ॥ ३१॥ (०या०) शचीमुखा इति ॥ हे नाथ! तदा तस्मिन्नवसरे शची मुखं प्रधान यासां ता शचीमुखा असरस. इन्द्राणी प्रमुखा देवांगना मानवीषु (मनोरिमाः मान०यस्तासु तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. मनु शब्दात् इदमर्थे अ । अस्वयं भुवोऽव् । ७ । ४ । ७० । इ. सू. उकारस्यावा देशः । अणअयेक नञ् स्तम् रिताम् । २ । ४ । २० । इ. स. डो ।) अवककन मिश्रीकरण इति श्रीमन्तो हेमचन्द्रसूरय , चिन्तन त्याह काश्यपः पुरुषकारे तन्मतानुसारेण इदम् ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮) શ્રીનેનમાલક્ષ્મવાર્થ્ય મહાાવ્યમ્ ટીાલમહંતમ્ " સર્ચ: 3 स्त्रीषु सुवाचां शोभनवाणीनां आचार्यकं आचार्यकर्म विनतु धारयन्तु । किं कुर्वाणा• शचीमुखाः त्वां अनु पश्चात् धवलान् धवलमङ्गलानि ददाना (ददते इति ददाना शस्त्रानिशावेष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २० । इ. सू. दाधातोरानशू हवः शिति । ४-१ - १२ । इ. सू. दाघातोर्द्विर्भावः ह्रस्वः । ४-१-३९ इ. पूर्वस्य इति भागिनि प्रतिपर्यनुभिः 3. A. yatu gta:) calkg sía Hifafa a ulayùgla: 7. 7. fadar 1 सू. द्वितीया । किं लक्षणान् धवलान् रसः शृंगारादिः तस्य उर्मयः कल्लोलाः तैः प्रक्षालनं तेन अपास्तो मलो येषां तान् शृङ्गारादि रसकल्लोलप्रक्षालनेन निरस्तमलान् ॥३१॥ स्वरंगणेऽकारि चिरं स्वरंगा - यो रंभया नृत्यपरिश्रमः प्राक् । अग्रे - भवत्संभविता तदानी - मभ्यासलभ्या फलसिद्धिरस्य ॥ ३२ ॥ ( ०या० ) स्वरिति । रंभया रंभानाम्न्या देवांगनया स्वरंगणे स्वर्गीगणे स्वस्य रंगः स्वरंगस्तस्मात् आत्मीयोल्लासात् यः नृत्यस्य नर्तितुं योग्यं (ऋदुपान्त्यादकृपिचूदृचः । ५ । १ । ४१ । इ. सू. नृत् धातोः क्यप् । ) परिश्रमः प्राक् पूर्वं चिरं चिरकालमकारि कृतः । अस्य श्रमस्य फलस्य सिद्धि: फलसिद्धिः तदानी ( सदाऽधुनेदानतदानीमेतर्हि । ७ । २ । ९६ । इ. सू. तदानीं निपातः ) तस्मिन् पाणिग्रहणक्षणे अग्रेभवत् भवतः अग्रे अभवत् संभविता भविष्यति किं लक्षणा फलसिद्धिः अभ्यासेन लभ्या अभ्यासलभ्या अभ्यासप्राप्या || ३२ ॥ त्वत्तः प्रभोः वासहनात्पलाय्य, रामः श्रितच्चरुनारदादीन् । गुणावलीगानमिषेण देव, तदा तदास्यात्सव संगसीष्ट ॥ ३३ ॥ ( व्या० ) त्वत्तः इति । हे देव रागस्तदा तस्मिन्नवसरे तदास्यात् तेषामास्यं मुखं तस्मात् तुंबरुनारदादीनां मुखात् गुणावलीगानमिषेण गुणानामावल्यः पंक्तयः तासां गानं तस्य मिषेण निमित्तेन तव संगसीष्ट तव संगतो भूयात् । किं विशिष्टो रागः स्वात्सहनात् स्वस्य निजस्य असनः शत्रुस्तस्मात् एवं विधात् प्रभोः समर्थत्वात् ततः पलाय्य ( प्राकू काले । ५ । ४ । ४७ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसागवाय महाकाव्यम् टीकासमलकतम् ॥ सर्गः ३ (९९ इ.सू. परापूर्वक अय् धातोः क्या प्रत्ययः । अनञः कपो यप् । ३-२-१५४ इ. सू. वो यबादेशः । उपसर्गस्यायो । २ । ३ । १०० । इ. सू. अय् धातौ परे परः उपसर्गस्य र लकार ) पलायनं कृत्वा तुरुनारदादीन् श्रितः आश्रित । अत्र शब्दच्छल ज्ञेयम् । रागो द्वेषसहचारी श्रीरागादिर्वा तुंबरुनारदौ यदा त्वदने गोतं गास्यतस्तदा सोऽपि रागस्तव गोचरो भविष्यति विवाहाधुत्सवें परस्पर सानिध्यं ते इति भावः ॥ ३३ ॥ एवं विवाहे तव हेतवः स्यु-रन्येऽपि भावाभुवनप्रसत्तेः। यथोचित तत्प्रविधेहि धीम-नितीरयित्वा विराम वज्री ॥ ३४॥ (व्या०) एवमिति ॥ हे नाथ! एवममुना प्रकारेण अन्येऽपि भाव। विवाहसकाः तव विवाहे भुवनप्रसत्तेः लक्षणया त्रिभुवने प्रसत्ति: सौख्यं तस्याः हेतवः कारणानि स्युः । तत् तस्मात् कारणात् हे धीमन् (तदस्याऽस्त्यस्मिन्निति मतुः । ७ । २ । १ । इ. सू. धीशब्दात् मतुः ।) धारस्ति अस्येति धीमान् तत्संबोधने हे धीमन् यथोचितं यथायोग्यं प्रविधेहि कुरु । पत्री (अतोऽनेक स्वरात् । ७ । २।६। इ. सू. मत्वर्थे वन शब्दात् इन् ।) इन्द्रः इति पूर्वोक्त ईरयित्वा कथयित्वा विरराम निवृत्तः । रम् धातुः विपूर्वक: 'प्याड्परे रम' इति सूत्रेण परस्मैपदी स्यात् अन्यथा तु आत्मनेपदी ज्ञेयः ॥ ३४ ॥ स्वं भोगकथि विपाककाल्यं, जानजोषिष्ठ जिना स जोषम् । अतापिके कर्मणि धीरचित्ताः, प्रायेण नोत्फुल्लमुखी भवन्ति ॥३५॥ __(व्या०) स्वमिति ॥ अथानन्तरं स भगवान् जोष मौनमजोषिष्ठ असेविष्ट किं कुर्वन् भगवान् स्वं भोगकर्म भोगस्य कर्म तत् विपाककाल्यं विपाककालप्राप्तं विपकिकाले साधु तत्र साधौ इति सूत्रेण य प्रत्यये विपाककाल्यमिति स्यात् । तत् कर्भ जानन् । धीर चित्तं येषां ते धीरचित्ताः गंभीर। नरा. अतारिखके परमार्थरहित कर्मणि कार्य प्रायेण न उत्फुलमुखी भवन्ति प्रहसितवदना न भवन्ति उत्फुल्ल मुख येषां ते उत्फुल्लमुखाः न उत्फुल्लमुखाः Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦) શ્રીસૈનકુમાલક્ષ્મવાસ્થ્ય દ્રાવ્યમ્ દીાલમહંતમ્ ॥ સર્જ: રૂ ' અનુત્તુનુરા: અનુભુવા કરવા યથા સંવદ્યમાનાઃ મવન્તીતિ—ર્ચે (નૃસ્તિસ્યાં જર્મઋતુમ્યાં બ્રાહ્મતત્તવેષ્વઃ । ૭ । ર્ । ર્ફ્ । હૈં. સૂ, ખુલ્લુજી શાત્ પ્વિ પ્રત્યય .રૂવાવવળાઽનવ્યયસ્ય | 9 | રૂ! ??? રૂ. સૂ. અસ્ય રૂ: 1) || ૨૦ || : ન્દ્રોડવસાય વ્યવસાયસિદ્ધિ, વĂચિતેમાંવતસ્તુતોષ । મૃત્યો દિ મતુંઃ વ્હિઽ ા∞વેડી, નેનીયસી વાસિદ્ધિમાંત રૂા (ૉ૦) ફન્દ્ર તિન્દ્રઃ તુતોષ હૃષ્ટ: વિં ત્વા માવતૈઃ માવતઃ માનિ માાવતાનિ (તસ્યેવમ્ । ૬-૩-૧૬ | રૂ. સૂ. માવત્ શબ્દાર્ અગ્ | વૃદ્ધિ સ્વરે॰ | રૂતિ સૂત્રે॰ વૃદ્ધિ: !) તૈ· માવસંધિમિ ફંતિસ્થતિઃ સ્વાત્મનો વ્યવસાયસ્ય ઉપમન્ય સિદ્રિતાં ૩૫મસિધ્રૂિમવસાય જ્ઞાત્વા અનિમિનુમતમિતિ ન્યાયાત્ । સ્વામિનસ્તવનુષવેાઁ દત્યર્થ: । િયસ્માર્ વ્હારળાત્ ∞િ કૃતિ સથે મૃત્યુઃ (યોગસંજ્ઞાયામ્ । ૧-૨-‰ય મેં હૈં. સૂ. રૃદ્ જાતો: વયમ્ । ય તઃ પિત્ઝતિ । હૈં. સૂ. đ: I) તેવઃ મસ્તુંઃ સ્વામિનઃ જા મવસર વેત્તીતિ જાળવેતી (નાતેઃ શીઅે ।---o। રૂ. સૂ. ાજીપૂર્વ વિદ્ ધાતો: પિન્ પ્રત્યયઃ ।) અવસરનો નેદ્દીય† (મુળાજ્ઞાવેલ | ૭-રૂ-૧ Tઅન્તિરાત્િઇ પ્રત્યયઃ વાઢાન્તિયો સાધનેવ | ૭ | ૪ | ૨૦ | ૬. સ. અન્તિ શદ્રુ નેવેશ:) પ્રાંસનાં વાનાં હ્ય સિદ્ધિતાં વા હ્રસિદ્ધિમેત્તિ પ્રોત્તિ | સમયે થિત સર્વ જોડપિ મન્યતે તિ માવઃ ॥૨૬॥ i . નન્નાહ નીવા મહાય મંજી, મુહૂર્તનાસભયો મહેન્દ્રઃ । અવસરચો ચડ્ન્તરસ્યા, જૈવેધુ છેવિછુ ખેંચાઇ || ૨૭ || (વ્યા॰) નાòતિ || અચો અનન્તરે મહેન્દ્રો (નાતિવૈર્થિંડવે । ૢ | | | ૩૦ | રૂ. સૂ. મત્શાત્ । પ્રત્યયઃ નિત્યન્યવરાવેઃ રૂ. સ. અન્યવરાવેઉપ્ માંશ્વાસો શ્ત્ર મહેન્દ્રઃ) મન્નુ શીવ્ર વીવાત્ત્વ મહ' વીવાહમદ્સ્તમૈં વીવાદદ્રોÇવાય સાસનેં સત નાદુ હૃèલિપુ (હવયં વિન્તીસિ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१०१ हृल्लेखास्तेषु । ‘हृदयस्य हृत्.लासलेखांण्ये' ३-२-९४ । इ. सू. हृत् आदेशः) उत्कंठायुक्तेषु लेखेषु देवेषु यदन्तरस्था (स्थापनात्रः कः | ५-१-१४२ । इ. सू., अन्तरपूर्वक स्थाधातोः कप्रत्यय इडेतू पुसि चातोल्लुक् इ. सू. स्थाधातोराकार लोपः) यस्य मुहूर्तस्य - अन्तरस्थाः अन्तरालस्थाः कालस्य लेशाः काललेशा' अवत्सरायन्त वर्षवदाचरन्ति स्म | वर्षसदृशाजाता इति भावः ॥ ३७ ॥ वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तुर्यदादिदेश त्रिदशानुभुक्षाः । बुभुक्षिताह्वानसमानमेत दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः ॥ ३८ ॥ - (०या०) वैवाहिके इति ॥ ऋभुक्षा इन्द्रः विश्वभर्तुः स्वामिनो वैवाहिके कर्मणि त्रिदशान् देवान् यत् कार्यमादिदेश आदिष्टवान् । तैः त्रिदशैः देवैः एतत् कार्ये बुभुक्षिताह्वानसमानं बुभुक्षितानां (तदस्य संजातं तारकादिम्य इत' । ७ । १ । १३८ । इ सू. बुभुक्षाशब्दात् इत प्रत्यय अवर्णे वर्णस्य । ७-४-६८ । इ. सू. बुभुक्षाशब्दस्य आकारस्यलोप बुभुक्षासंनाता एषामिति बुभुक्षिताः तेषाम् ।) क्षुधितानां आह्वानस्य समान सदृशममानि वुभुक्षाक्रान्तस्याकारणसदृशं मन्यते । किं विशिष्टैस्तै प्रागपि तन्मनोभि तस्मिन् मनो येषां ते तैः अग्रेऽपि तचित्तै ॥ ३८ ॥ मनोभुवा कल्पनयैव जिष्णोस्तत्र क्षणादाविरभावि शच्या । तभाद्भुतं सा हृदये स्वभर्तुर्नित्यं वसन्ती खलु वेद सर्वम् ||३९|| ( व्या० ) मनोभुवा इति ॥ शच्या इन्द्राण्या तत्र स्थाने जिष्णोः (भुजे ष्णुक् । ५ । २ । ३२ । इ. सू. जिधातो. ष्णुक् प्रत्यय. जयतीत्येवंशील. जिष्णुः तस्य ) इन्द्रस्य मनसि भवतीति मनोभू' ( किपू । ५- १ - १४८ । इ. सू. मनस् पूर्वक भूघातो किपू 1) स्तथा चित्तोत्पन्नया कल्पनाया एव क्षणात् तत्कालमेव आविरमावि प्रकटीबभूवे । तत् न अद्भूतं नाश्चर्यम् । सा शची स्वस्थ भर्ता स्वमर्ता तस्य स्वमर्तुः स्वस्वामिनो हृदये मनसि नित्यं वसन्ती खल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १०२) श्रीजैनकुमारसागपाल्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ निश्चित वेद्र (तिवाणवः परस्मै । ४-२-११७ । इ. सू. विद् धातोः तिन् स्थाने णव् प्रत्ययः ।) जानाति हृदये वसन्ती (यशवः । २ । १ । ११६ । इ. सू. वसन्ती इत्यत्र अतुरन्तादेशः ।) इति लक्षणया शेयम् ॥ ३९ ॥ स्वयं प्रभूपातिपः शचीशः, शची शुचिप्राज्यपरि छदा सः । न्यदिक्षतोपत्करणे कुमार्यों नायर्यों हि नारीवधिकारणीयाः ॥४०॥ (व्या०) स्वयमिति || शचीशः शया ईश. इन्द्रः शचीमिन्द्राणी कुमार्योः सुमंगलासुनन्दयोः उपरकरणे अलंकरणे न्यदिक्षत आदिवान् । कि लक्षण: इन्द्रः स्वयं आत्मना प्रभूपास्तिपरः प्रभोरादिनाथस्य उपास्तिः (श्चादिभ्यः । ५-३-९२ । इ. सू. उपपूर्वक आस्थातो स्त्रियां ति:) सेवा तस्यां पर: तत्पर: स्वामिसेवातत्परः । किं विशिष्ट शची शुचिः प्राध्यः परिष्दः (परितः छाधते अनेन इति परिच्छदः पुनाम्नि घ । ५-३-१३० । इ. सू. परिपूर्वकछादधातोः घः । एकोपसर्गस्य । ४ । २ ,३४ । इ. सू. इवः ।) यस्याः सा शुचिप्राज्यपरिष्दा तां पवित्रप्रभूतपरिवारां हि निश्चितं नार्यः त्रियः नारीषु स्त्रीषु अधिकारणीया. ॥ उर्फ च-सदा प्रमाणं पुरुषा नृपांगणे रणेवाणिज्येषु विचारकर्मसु । विवाहकर्मण्यथ गेहकर्मणि प्रमाणभूमि दधते पुनः स्त्रियः ।। तदाभियोग्या विषुधा वितेनुमणिमय मंडपमिन्द्रवाचा। सं दास्यकर्मापि यशः सुगंधि, पुण्यानुवन्धीत्यनुमोदमानाः ॥४१॥ (०या०) तदेति ॥ तदा तस्मिन्नवसरे आभियोग्या विबुधाः आदेशकारिणोदेवाः इन्द्रस्य पार इन्द्रवार तथा इन्द्रवाचा मणिमयं (अभक्ष्याच्छादने चा मयः । ६ । २ । ४६ । इ. सू. मणिरादात् मयट् प्रत्ययः ।) मंडपं वितेनु: चक्रुः किं कुर्वाणाः विबुधाः स्वं दास्यकम अपि यशः सुगंधि यशसा सुगंधि किंच पुण्य मनुबनातीति पुण्यानुवंधि (अजातेः शीले । ५-१-१५४ इ. सू. शीलेऽथै बन्धधातो: णिन् प्रत्ययः ।) इत्यनुमोदमानाः दासत्वेऽपि प्रभोमंडपकरणेनास्माकं यशः पुण्यं चास्ताति हर्षवन्त इति भावः ॥ ४१ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નાનામવા મદાવ્યમ્ માસમફતમ્ ા ત રૂ (૨૦૨ रहतीः सय जनितैः स्पशक्त्या तले यदीये-त्रिदर्शनिब। रत्नप्रभेत्यांगमिकी निजाख्या-नया पृथिव्या न धृथा प्रपेदे ॥४२॥ (व्या०) रत्नैरिति ॥ अनया साक्षाद् दृश्यमानया पृथिव्या रत्नप्रभा रत्नानां प्रभा यस्याः सा रत्नप्रभा इति आगमिकी आगमसंबंधिनी निजस्य आल्या निजाख्या आत्मीयाभिधानं वृथा न प्रषेदे । क सति यदीये यस्य मंडपस्य इद यदीयं तस्मिन् तले त्रिदशैः देवैः करणभूतैः रत्नैः निबद्ध सति । किं विशिष्टैः रत्नः स्वस्य शक्ति: स्वशक्तित्तया स्वसामर्थ्येन सयन (यजिस्वपिरक्षियतिप्रच्छो नः । ५ । ३ । ८५ । इ. सू. यतिधातोः न प्रत्ययः ।) यत्नेन सह यथा भवति तथा जनिरुत्पादितः ॥ ४२ ॥ वैडूर्यवर्ययुतिभाजि भूमौ वितानलंबी प्रतिविषितांगः । मुक्तागणो वारिधिवारिमध्य-निवासलीला पुनराप यत्र ॥४३॥ (व्या०) वैडूर्य इति ॥ यत्र यस्मिन् मंडपे भुक्तानां गण: मुक्तागण: मौक्तिकसमूहो वारिधेः समुद्रस्य पारीणि जलानि तेषां भव्य तस्मिन् समुद्रजलमध्ये निवासस्थ (व्यञ्जनात् धम् । ५-३-१३२ । इ. सू. निपूर्वक वस् धातोराधारे घ निवसति अस्मिन् इति निवासः तस्य) लीला निवासलीला तां पुनहितीयवल प्राप प्राप्तः । किं लक्षणो मुक्तागण: भुभौ पृथिव्यां प्रतिबिंबितमंग यस्य सः प्रतिबिंबितांगः । किं लक्षणायां भूमौ वैडूर्याणां (डुयः । ६-३-१५८ । इ. सू. विरब्दिात् प्रभवत्यर्थं ज्य प्रत्ययः विदुरात् प्रभवन्ति इति डुयाः) रत्नानां पर्या चासौ धुतिश्च तां भजतीति तस्यां वैडूर्यवधुतिमाजि (भजी विण । ५। १ । १४६ । इ. सू. भज्धातोविण वैड्वर्यधुतिं भजतीति तस्यां) વૈર્યરત્નપ્રધાનશાંતિ મનનરીગામ | વિતાનરુથ્વી વતન્યતે ફતિ વિતાનું तस्मिन् लम्बते इत्येवं शीलः ॥ ४३ ॥ संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्ता रदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः । यद्र प्रभुपादपाता, मुक्तां चिरात दिवं जहास ॥४४॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪) શ્રીનનમાલક્ષ્મવાથૅ મદાાવ્યનું ટીજાલમ ંતનું ॥ લોઃ રૂ । (૦) સંરિીત-હતિ II મૂ: ચૂસ્ય મંડપસ્ય મૂ: યદ્ન ટિાનાં મિત્તયઃ તાંસાં માસઃ તામિઃ ઋટિમાંસમિત્તિત્રમામિઃ રમતમિ: નિર્વ સ્વ જ્ઞદાસ હ્રસિતવતી વિશિષ્ટાયમ્ સંવશિતસ્વસ્તિવાસ્તુમુત્ત્તારદ્વાઃિ (પઢ઼િાંઠપનિજ઼િજિિિનજ઼િમ્યઃ । ૬૦૭/ હૈં. ૩. સૂ. આપૂર્વ વન્ત્યાતો: રૂ પ્રત્યય સાવળીતિ અઃિ) સ્વસ્તિાઃ વા (વર્ષાન્ત અત્ર વાસ્તુ પુશ્રીવહ્નિ વસેર્જિંદા | ૭૭૪ ૫ ૬. રવિ સૂ. વધ્ધાતો તુન્ પ્રત્યયઃ સ fળત્ વા) સ્થાનં યામાં તા• સ્વસ્તિવાસ્તવ તામ્રતા મુńાર્શ્વ તા વરવા તેષામાવત્તિ: સંવારીતા સ્વસ્તિવાસ્તુમુĪરવા:િ થયા ના ઇન્તવરોનેન વિરોષતો હાસ્ય શાયતે। પુન: નૂરમુપાવપાતાં ચતૂર અસજા: પ્રમો: શ્રીઋષ– મત્સ્ય પાપાતઃ પાવન્યાસઃ પાયોક્ષળયો: ન્યાસ: ચત્યાં સા પુનઃ નિં વિશિષ્ટાં વિવું તેન માવતા વિરાત્પરાનુાં અત વ દેતોઃ વિવું પ્રતિ વૃષ્ટિા હાલ તિ માવઃ ॥ ?? || વિશ્વાવિશ્વાસમયીમધ, નીતિ ચંદ્રૌપાધિપુğનાર્ । સત્યેઽય પુષ્પને પતદ્ધિ-ાવિ તેજાબૈર્વિષ્ઠઃ ॥ ૪૬ ॥ (ન્યા॰) વિશ્વામિતિ | રોજમ્યાનાં અમરાળાં ફળ સમૂદાâ રોજમ્નરા: ભ્રમરસમૂહૈ: સત્યેઽપિ વિદ્યમાનેઽપિ પુષ્પાળાં પ્રર્ સમૂહઃ પુષ્પદ્મર: તસ્મિન્ પુષ્પદ્મરે પદ્ધિ સદ્ધિવિશ્વઃ સામ્નિ અવન્વિતઃ ॥ િિ યસ્ય મંદપત્ય સૌાધિ ઋત્રિમ: સ નાસૌ પુષ્પાળાં પુન્ન (પૂતે ફતિ પુન્ન પુનઃ પુન્ TM | ૨૮ । રૂ. ૩. હૂઁ. પૂણ્ ધાૉર્નજ્ પ્રત્યયઃ વૂ ધાતો. પુન્ યાવેશ:)શ્ર તસ્માત્ યદ્ઘોષ ધિપુષ્પપુજ્ઞાત્ વિશ્વમાં સમમાં બૅવિશ્વાસમાઁ (અસ્મિન્ ! ૭ | રૂ | ર્ । હૈં. યૂ. અવિશ્વાસ રાન્દ્રાત્ મયટ્ અળબેયે —મ્ । ૨ । છુ | ગ્॰ | રૂ. સૂ. નૈઃ । અવિશ્વાસોઽત્તિ અસ્વામિતિ) નીતિ અધીત્વ ગમ્યસ્ય ‘વિશ્વાસ‘શ્રિયોમૂ’ મિતિ નીતિઃ || છુ” | નયજ્ઞનો ચેન પુરાવિન્ડોર, વ્યજોપિત થત્ર વિજયમન્તઃ । મમ પુષ્પનાપદેશ, પāારેપુત્રનનેજ યુમ્ II ૪૬ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१०५ ( व्या० ) जगज्जन इति ॥ येन स्मरेपुत्रजेन स्मरस्य कामस्य इषवो (इष्यति गच्छति इति इषुः पृकाहविघृषीषिकुहि- कित् । ७२९ ।. इ. उ. सू. इषत् धातोः किन् उः । ) बाणाः तेषां व्रजः समूहस्तेन पुरापूर्व अखिलोऽपि समस्तोऽपि जगज्जनः जगतो जनः (गच्छति इत्येवंशीलं जगत् । दिद्युदुहत् जगत्जुहूवाक्प्राद्धी - किप् । ५ । २ । ८३ । इ. सू. शोलार्थे किप् निपात्यते ) जगज्जनः व्यलोपि लुप्त । एप जगज्जनस्तं स्मरेपुत्रजं यत्र मंडपे अन्तर्मध्ये विकण (क्तक्तवतू । ५-१-१३४ । इ. सू. विपूर्वक कृधातो. भूते क्त' ल्यादेरेषां तो नोऽप्रः । ४-२-६८ । इ. सू. तो न ऋतांकडतीर् । ४ । ४ । ११६ | इ. सू. ऋकारस्येर् । भ्वादेर्नामिनो दीर्घेोर्वोर्यञ्जने । २ । १ । ६३ । इ. सू. इकारस्य दीर्घत्वं । रघुवर्णाभोण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे । २ । ३ । ६३ । इ. सू. नस्य णत्वम् ) सन्तं पदैर्युक्तं ममर्द । किं लक्षणं स्मरेपुत्रजं पुष्पप्रकरापदेशं पुष्पाणां प्रकरः समूहः अपदेशो मिषं यस्य तं कामस्य बाणा पुष्पाणीति प्रसिद्धिः ॥ ४६ ॥ यत्रादृतस्तंभशिरोविभागा, बभासिरे काञ्चनशालभंज्यः । प्रागेव संन्यस्तवो भविष्य-ज्जनौघसंमर्दभियेव देव्यः ॥ ४७ ॥ ( व्या० ) यत्रेति ॥ यत्रमंडपे काञ्चनस्य सुवर्णस्य शालभंग्य: पुत्तलिकाः काञ्चनशालमंज्यः सुवर्णपुत्रिकाः बभासिरे शोभिता किं लक्षणाः शालमंज्य: આદતÒમશિરોવિમાઃ અદતઃ તેંમન્ય શિરોર્ડ્ઝ તત્ત્વ વિમાઃ યામિસ્તા स्तंभो परिस्थिता उत्प्रेक्ष्यन्ते भविष्यज्जनौघसंमर्दभिया भविष्यन् यः जनानामोघः समूहस्तस्य संमर्द ( संमृगन्ति अस्मिन् इति सम्मर्द । व्यञ्जनाद् घञ् । ५ । ३ १३२ । इ. सू. संपूर्वकमुद्घातो. घञ् । ) तस्माद् (भ्यादिभ्यो वा । ५ । ३ ११५ । इ. सू. भीघातोः स्त्रियां क्विप् । ) भीस्तथा भाविजनसमूह संमर्दभयेन प्रागेव पूर्वमेव संन्यस्तभुवं त्यक्तभुवः देव्य देवांगना इव भुवि संमर्दो भविष्यति ad yqda ciufı: ferar: gla H19' || 80 || Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः३ सुचारुगारत्मततोरणानि, द्वाराणि चत्वारि बभुर्यदने । देवीधुरुद्धायपथासु रोषाद्, भ्रूभंगभाञ्जीव दिशां मुखानि ॥४८॥ (व्या०) सुचारु इति ॥ यदने यस्य मंडपस्य अग्रे चत्वारि द्वाराणि वभुः शोभितानि । किं लक्षणानि द्वाराणि सुचारुगारुमततोरणानि सुचारूणि मनोज्ञानि गारुमतरत्नां तोरणानि येषु तानि । उत्प्रेक्ष्यते देवीषु रुद्धाप्रपथासु (sक्पू: पथ्यपोऽत् । ७ । ३ । ७६ । इ. सू. पथिन् शब्दात् अत् समासान्त: नोऽपदस्य तद्रिते । ७ । ४ । ६१ । इ. सू. इन् लोप:) रुद्रामागासु सतीषु रोषात् भ्रूभंगभाञ्जिभूवोः (भ्राम्यताती भ्रूः स्त्रीलिङ्ग भ्रमिगमितनिभ्योडित् । ८४३ । इ. उ. सू. भ्रभूच्धातो: डित् उप्रत्यय: डियन्त्यस्वरादः इ. सू. अन्त्यस्वरादिलोपः) भंगस्तं भजन्ति उत्पादितम्रकुटिसंयुक्तानि दिशां मुखानि इव ॥ ४८॥ अलंभि यस्योपरि शातकुंभ-कुंभैरनुदिनसरोरुहाभा । नभःसरस्यां चपलैर्वजधैिर्विसारिवैसारिणचारिमा च ॥४९॥ (व्या०) अलंभीति । यस्य मंडपस्य उपरि शातकुंभकुंभैः शातकुंभस्य सुवर्णस्य कुंभास्त. कलश: नभःसरस्यां नमः एव सरसी तस्यां आकाशसरोवरे अनुद्भिनसरोरुहाभा ससि रोहन्तीति सरोरुहाणि अनुद्धिनानि च तानि सरोरुहाणि च तेपामाभा अविकस्वरकमलशोभा अलंभि प्राप्ता । कमलकोशानां कलशानां च सादृश्यं स्यात् । च अन्यत् चपल: ध्वजौघेः ध्वजानामोधास्तैः विसारिवैसारिणचारिमा विसरन्तीति विसारिणः (विपरिप्रात्सतः । ५ । २ । ५५ । इ. सू. विपूर्वकात्सत. । शीलादिसदर्थे घिनण् ।) विसारिणश्च ते पैसारिणाश्च (विसारिणो मत्स्ये । ७। ३ । ५९। इ. सू. मत्स्यार्थात् विसारिशब्दात् स्वार्थेऽण् । विसरन्ति इत्येवंशीलाः पिसारिण विसारिण एक सारिणाः) तेषां चारिमा (पृथ्वादेरिमन् वा । ७ । १ । ५८ । इ. सू. चारुशदात् भावे इमन् । व्यन्तस्वरादेः । ७ । २ । ४३ । इ. सू. चारशब्दे उकारस्य लोपः) मनोज्ञता प्रसरणशीलमत्स्थमनोजता अलंभि प्राता ॥ ४९ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१०७ तथा कथा: पप्रथिरे सुरेभ्यस्त्रिविष्टपे तत्कमनीयतायाः। यथा यथार्थत्वममाजिशोभा भिमानभंगादखिलैर्विमानैः ॥ ५० ॥ - (व्या०) तथेति ॥ त्रिविष्ट त्रिभुवने सुरेभ्यः देवेभ्यः तत्कमनीयतायाः तस्य कमनीयता तस्या. मंडपमनोज्ञत्वस्य तथा कथा (भीषिभूषिचिन्तिपूजिकथिकुम्बि-भ्यः । ५-३-१०९ । इ. सू. कथिधातो वे अड् आत् इ. सू. आम् ) पप्रथिरे विस्तृताः । यथा अखिलः समस्तैर्विमानै शोभाभिमानभंगात् शोभायाः (भिदादयः । ५-३-१०८ । इ. सू. शुभिधातोः संज्ञायां अड्प्रत्ययः गुणश्च ।) अभिमानस्य भंगः तस्मात् यथार्थत्वं सत्यार्थत्वममाजि (भजेभी वा । ४-२-४८ । इ. सू. भज्ज्धातोरुपान्त्यनस्य जो लोप. ।) सेव्यते स्म कोऽर्थः यस्य मंडपस्य शोभया विमानानि निरभिमानानि जातानीति भावः ॥५०॥ श्रीदेवताहैमवतं वितन्द्रा, शच्याज्ञया चन्द नमानिनाय । निनिन्द स स्वं मलयाचलस्तु, द्विजिह्वबन्दीकृतचन्द्रनद्रुः ॥ ५१॥ (व्या) श्रीदेवतेति ॥ श्रीनाम्नादेवता वितन्द्र। विगता तन्द्रा यस्याः सा वितन्द्रा आलस्यरहिता सती हैमवतं (हिमवत इदं हैमवतं तस्येदम् ९-३१६० । इ. स. इदमर्थेऽण् । ) हिमवत्संबंधिनं शच्याज्ञया शच्यादेशेन चन्दनमानिनाय । तु पुन. स. सर्वप्रसिद्धो मलयाचल: स्वमात्मानं निनिन्द निन्दितपान् । किं लक्षणो मलयाचल: द्विजिह्वबंदीकृतचन्दनद्रुः द्वे जिवे येषां ते द्वि जिह्वाः सपा दुर्जना वा तै' बन्दीकृताः चन्दनद्रवः चन्दनवृक्षाः यस्य सः द्विजि० दुर्जनहस्तगतं वस्तु पुण्यावसरे व्ययितुं न शक्यते इति भावः ॥५१॥ उपाहरनन्दनपादपानां, पुष्पोत्करं तत्र दिशा कुमार्यः। शिरखपुष्यप्रकरस्य शेष-वृक्षवृथा वैवधिकी वभवे ॥५२॥ (न्या०) उपाहरनिति ॥ तत्र मंडपे दिशा कुमायः नन्दनपादपानां (पादः पिबन्ति इति पादपाः स्थापास्नात्रः कः । ५-१-१४२ । इ. सू. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८) श्रीजनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ पादपूर्वचरणधातोः कः । इडेत पुसि इत्यालोपः ।) नन्दनवनवृक्षाणां पुप्पोत्कर पुप्पाणामुत्करः समूहस्तमुपाहरन् आनयन्ति स्म । शेपैः पकाशोकपुन्नागप्रियंगुपाटलाप्रभृतिभिवृक्षः शिरस्य पुप्पप्रकरस्य मस्तकसंबंधिपुप्पसमूहस्य वृथा वैचधिकाबभूवे (हस्युसङ्गादेः । ६-४-२३ इ. स. हरत्यर्थे विवधशब्दादिका विविधं हरन्तीतिवैवधिका कृस्वस्तिभ्यां कर्मकर्तभ्यां प्रागतत्त्वे विः । ७ । २ । १२६ । इ. स. वैवविकशब्दात् चिः । ईश्वाववर्णस्याऽनव्ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. स. ई ।) निरर्थक भारवाहकै तम् । अत्र भावे उक्तिजया ॥५२॥ वध्वोरलंकारसह सहर्षा, मणीगणं पूरयति स्म लक्ष्मीः । वारांनिधेस्तद्धनिनश्चिरत्नो, रत्नोच्चयः फल्गुरभूचितोऽपि ॥ ५३॥ (व्या०) वचोरिति ॥ लक्ष्मी सहर्षा हर्षेण सह वर्तते इति सह सति मणीगणं रत्नपुरं पूरयति स्म रत्नसमूहं पूरयति स्म । कि लक्षणं मणीगणं वयोः सुमंगलासुनन्दयोः अलंकारस्य सह अलंकारसमर्थ । तद्भनिन· कृपणस्य वारांनिधेः समुद्रस्य चिरत्न: (चिरपरुत्परारे नः । ६-३-८५ । इ. स. चिरशब्दात् त्नः चिरम्भवः चिरन ।) चिरकाली निश्चितोऽपि संचितोऽपि रत्नोचयः रत्नसमूहः फल: निष्फलोऽभूत् ॥ ५३॥ मंदाकिनी रोधसिरूढ पूर्वा, दूर्वा परार्थाय समानिनाय । पराभिराभिनवरं जिनीवे, पालेयदंतक्रकचार्तिहेतोः॥५४॥ (व्या०) मंदाकिनी इति ॥ मंदाकिनी गंगानदी परार्थाय वरस्य अर्थकते दूर्वाः समानिनाय । किं लक्षणा• दूर्वा रोधसि नटे ठपूर्वाः पूर्व रूढाः पूर्वाः अग्रेप्युद्गताः । पराभिराभिः अन्याभिर्वाभिः न परं केवलं वालेयदंतककवातिहेतोः पालेयानां रासभानां दन्ताः एव कक करपत्रं तस्य अतिः पीडा तस्याः हेतोः तत्पीडानिमित्त जिजीवे ॥ ५४॥ कश्मीरवासा भगवत्यदत्त, काश्मीरमाले यमनाकुलैव । यत्रापि तत्रापि भवन हीदं, मद्देशनाम त्यजतीतिबुद्धया ॥ ५५ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१०९ ( व्या० ) कश्मीरवासा इति ॥ कश्मीर वासः यस्याः सा कश्मीरवासा भगवती सरस्वती आलेप्यमालेपनयोग्यं काश्मीर कुंकुमं इति बुद्धया अनाकुला एव दत्त ददौ । इतीति किं हि निश्चितं इदं काश्मीरं कुंकुमं यत्रापि तत्रापि भवत् विद्यमानं सत् ममदेशस्यनाम तत् मद्देशनाम न त्यजति यत् तत् कुंकुमं काश्मीरमेवोच्यते ॥ ५५ ॥ करोषि तन्वंगि किमंगभंगं, त्वमर्धनिद्राभरबोधितेव । न सांप्रतं संप्रति तेऽलसत्वं, कल्याणि कार्पण्यमिवोत्सवान्तः ||५६ || आलम्बितस्तंभमवस्थितासि, बाले जरार्तेव किमेवमेव । अलक्ष्यमविष्यसि किं सलक्ष्ये, साधोः समाधिस्तिमितेव दृष्टिः ॥ ५७॥ मनोरमे मुञ्चसि किं न लीलामद्याप्यविद्यामिव साधुसंगे । इतस्ततः पश्यसि किं चलाक्षि, निध्यातयूनी पुरि पामरीव ॥ ५८ ॥ भूषां वधव्यां द्रुतमानयध्वं धृत्वा वरार्थ धवलान् ददध्वम् । शच्येरितानामिति निर्जरीणां, कोलाहलस्तत्र बभूव भूयान् ॥ ५९ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ( व्या० ) करोपीति । तत्र तस्मिन् मंडपे निर्जरीणां देवीनां भूयान् बहु' कोलाहलो कोलं वराहं आवहतीति त्रायतीति कोलाहलः बभूव । किं विशिष्टानां निर्जरीणां शच्या इन्द्राण्या इति अमुना प्रकारेण ईरितानां प्रेरितानां इतीति किं हे तन्वंग अंगभंग किं करोषि केव अर्द्धनिद्राभरबोधितेव अर्द्ध निद्राया• अर्द्धनिद्रा तस्या भरेण बोधिता जागरिता अंगभंगमालस्यं करोति हे कल्याणि ते तव अधुना अलसत्वं न सांप्रतं (सम्प्रति युज्यते इति साम्प्रतं । कचित् । ६ । २ १४५ । इ. सू. अणू ।) युक्तं किमिव कार्पण्यमिव यथा उत्सवान्तः उत्सवमध्ये कार्पण्यं (कृपणस्य भाव' कार्पण्यं पतिराजान्त गुणाङ्गराजादिम्य कर्मणि च । ७-१-६० । इ सू. कृपणशब्दात् भावे ट्यणू 1 ) न सांप्रतं युक्तम् ॥ ५६ ॥ हे बाले त्वं आलम्बितश्चासौ स्तंभच आलम्बितस्तंभ तं एवमेव किमवस्थितासि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः३ या बाला स्यात् सावष्टभं नैव गृह्णाति । केव जरातव यथा जरा जरथा पीडिता एवमेव आलम्बितस्तंभ तिष्ठति हे सलक्षे हे सुज्ञाने त्वमलदयं किमविष्यति आलोकयसि केव साधोः दृष्टिरिव यथा साधो. समाधिस्तिमिता समाधिना योगेन स्तिमिता निश्चला दृष्टि: अलक्ष्यमन्पयति ॥ ५७ ॥ हे मनोरमे त्वं अद्यापि लीलां किं न मुञ्चति कामिव अविद्यामिव यथा साधुसंगे कोऽपि अविद्यामज्ञानं न मुश्चति । हे चलाक्षि त्वं (इतोऽतः कुतः । ७ । २ । ९० । इ. सू. इत: तसन्तो निपात्यते) इतस्ततः (किमद्वयादिसायऽवैपुल्यबहोः पित् तस् । ७ । २ । ८९ । इ. स. तत. तसन्तो निपातः ।) किं पश्यसि केव पामरी इव यथा पामरी ग्रामीणा स्त्री पुरि नगरे निध्याताः दृष्टा युवानः तरुणवयसो यया सानिध्यातयूनी इतस्तत: पश्यसि ॥५८॥ हे हले वधव्यां (तस्मै हिते । ७ । १ । ३५ । इ. सू. वधूशब्दात् हितेऽर्थे यः प्रत्यय.) वधूभ्यो हितां भूषां (भीषिभूपिचिन्तिपूजिकचिकुम्बिचर्षि स्मृहिन्यः । ५। ३ । १०९ । इ. सू. भूषिधातो: अड्, आत् इ. सू. आप्) शृंगारादिकां द्रूतं शीघ्र आनयध्वं यूयं परार्थ धृत्वा धवलान् ददध्वम् ॥ ५९ ।। चतुर्भिः कलापकम् ॥ अथालयः शैलिभिदः प्रियायाः, संरकतकामा वसुधकरत्ने । निवेश्य कन्ये कनकस्य पीठे, रत्नासनाख्यां ददुरस्य दक्षाः ॥१०॥ (०या०) अथेति । अथ अनंत शैलभिदः शैलान् भिनत्तीति शैलभित् (क्वि५ । ५ । १ । १४८ । इ. सू. शैलपूर्वकस्य भिधातोः कर्तरि विव५ ।) तस्य शैलभिद इन्द्रस्य प्रियाया भार्याया शच्या आलयः सख्यः संरकर्तु कामो यासां ताः संरकतुकामाः (तुमश्च मन:कामे । ३ । २ । १४० । इ. सू. तुमो मस्य लोपः ।) अलंकार कर्तुमिच्छवः सत्यः कन्ये सुमंगलासुनन्दे कनकस्य पीठे सुवर्णस्यासने निवेश्य उपवेश्य अस्य कनकपीठस्य रत्नासनाख्यां ददुः । कि विशिष्टे कन्ये वसुधैकरत्ने वसुधायां पृथिव्यां एकरलाये । किं विशिष्टाः आलय दक्षाश्चतुरा । यत्र रत्नं स्थाप्यते तदपि रत्नासनं कथ्यते । रत्नप्राये कन्ये तयोरासनभेतत् अतो रत्नासनमिदं वक्तव्यमिति दक्षत्वमिति भावः ॥६०॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१११ उभे प्रभौ स्नेहरसानुविद्धे, स्नेहैः समभ्यज्य च संस्तपथ्य । लावण्यपूण्ये अपि भक्तितस्ता, न स्वश्रमेऽमंसत पौनरुक्त्यम् ॥३१ ॥ ( व्या० ) उभे इति ॥ ता सख्यः भक्तित स्वश्रमे स्वस्य श्रमस्तस्मिन् आत्मीय प्रयासे पौनरुक्त्यं ( पतिराजान्तगुणाङ्ग च । ७ । १ । ६० । इ. सू. पुनरुक्त: भावे ट्यणू) पुनरुक्तदोषं नामंसत न मन्यन्ते स्म । किं कृत्वा उमे कन्ये स्नेहैस्तैलैः समभ्यज्य अभ्यंग्य च अन्यत् संस्नपय्य स्नानं कारयित्वा । किं विशिष्टे कन्ये प्रभौ श्री ऋषभदेवे स्नेह रसानुविद्धे स्नेहस्य रसस्तेन अनुविद्धे प्रेमरसव्याप्ते ते पुन' लावण्यपुण्ये (वर्णदृढादिभ्यष्टयण च वा । ७ । १ । ५९ इ. सू. लवणशब्दात् ट्यण् ) अपि लावण्येन पुण्ये लावण्यपुण्ये ते लावण्यपवित्रे अपि । कोऽर्थः ते कन्ये पूर्वमेव स्नेहरसेन प्रभौ प्रेमरसेन तैलेन वानुविद्धे लावण्येन च पवित्रे वर्तेते पुनरपि तत्करणेन पुनरुक्तत्वं स्यात् परं भक्तिभावात् तनजातमिति भावः ॥ ६१ ॥ वृषातुरेणेव पटेन चान्त - सानीयपानीयलवे जवेन । स्फुरन्मयूखे निभृते क्षणं ते, सुवर्णपुत्रयोः श्रियमन्वभूताम् ॥ ६२ ॥ (०या०) तृषातुरेणेति ॥ ते कन्ये सुमंगलानन्दे क्षणं एकं क्षणं सुवर्णपुत्रयोः सुवर्णस्य पुत्र्य सुवर्णपुत्र्यौ तयोः सुवर्णपुत्रिकयोः श्रियं शोभां अन्वभूताम् । किं विशिष्टे जवेन वेगेन तृषया आतुरस्तेन तृषातुरेणेव पटेन वस्त्रेण चान्तरनानीयपानीयलवे चान्तः ग्रस्तः स्नानीयस्य ( स्नातुं योग्यं स्नानीयं तव्यानीयौ । ५--१-२७ इ. सू. स्नाधातोरनीय: 1) पानीयस्य (पातुं योग्यं पानीयं तव्यानीयौ । ५ । १ । २७ । इ. सू. पिबतेरनीयः ) लवः ययोस्ते पुनः किं० निमृते निश्चले पुनः स्फुरन्मयूखे स्फुरन्तो देदीप्यमानाः मयूखाः किरणाः ययोस्ते ॥ ६२ ॥ सगोत्रयोर्मूर्ध्नि तयोरुदीय, नितम्बचुम्बी चिकुरौघमेघः । वर्षन् गलभीरमिषान्मुखाब्जा - न्यरगेरयच्चित्रमवेक्षकाणाम् ॥ ३३ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः३ (व्या०) सगोत्रयोरिति ॥ चित्रमाश्चर्य चिकुरौघमेधः चिकुराणां केशानाभोघ• कला५: स एव मेधः केशकलापरूपजलद गलन्नीरभिषात् गलत च तत् नीरं च गलनीरं तस्य मिषस्तस्मात् क्षरजलापदेशात् वर्षतीति वर्षन् सन् अवेक्षकाणां अवलोककानां मुखाजानि मुखरूपकमलानि अस्मेरयत् विकाशयति स्म । अन्यान्य जानि वर्षाकाले शटित्वा पतन्ति । परमत्र वैपरीत्यमतत्तचित्रम् । कि कृत्वा तयोः सुमंगलासुनन्दयोः सद्गोत्रयोः सत्प्रधान गोत्रं ययोस्ते सोने तयो पक्षे प्रधानपर्वतयोनि मस्तके उदीय उदयं प्राप्य किं विशिष्टः चिकुरौधोध नितम्वचुम्बी (अनातेः शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. नितम्बपूर्वक चुम्बधातो. शीलादिसदर्थे णिन् प्रत्यय.।) नितम्बः कटीतटं पक्षे कटक तं चुम्वतीति स्पृशतीति भावः ॥ ६३ ॥ धम्मिल्लमलोऽधिगतस्मरास्त्र-मालोऽतरालोल्लसितप्रसूनैः । तन्मौलिवासाद् बलवान कस्य, बलीयसोऽप्येजयति स्म चेतः॥४॥ (व्या०) धम्मिल इति । धम्मिल: बाकेशकलापः एव मल्लः धम्मिल्लमल: कस्य बलीयसोऽपि (गुणाझाष्ठेयसू । ७-३-९ । इ. सू. बलशब्दात् इयसु प्रत्ययः) बलवतः चेतः स्वान्तं न एजयति स्म न कंपयति स्म अपि तु सर्वस्यापि । कि लक्षणो धम्मिलमलः अन्तरालोलसितप्रसूनः अन्तराले मध्ये उल्लसितानि च तानि प्रसूनानि च पुष्पाणि तैः अधिगता प्राप्ता स्मरस्य कामस्य अत्राणां (अस्यते इति असं त्र । इ. उ. सू. असूच् धातोः त्रट ।) शस्त्राणां माला श्रेणीयेन सः अधिगतस्मररास्त्रमालः । तन्मौलिवासात् तयोः कन्ययोः मौलिमस्तक तस्मिन् वासस्तस्मात् बलमस्यास्तीति बलवान् ॥ (तदस्याऽल्यस्मिन्निति मतुः । ७ । २ । १ । इ. सू. वलशदात् अत्यर्थे मतुः । मावर्णा तोपान्तापञ्चमवर्गान् मतोर्मो व. । २।१ । ९४ । इ. सू. मतोर्मस्य वः ।) यतश्चोक-'स्थान प्रधानं न पलं प्रधान, स्थानस्थितो गर्जति कातरोऽपि । हे वासुके वेनि तव प्रमाणं, कंठस्थितो गर्जसि शंकरस्य' ॥१॥ इति स्यानवलं कामस्य पुपवाणत्वात् । प्रातपुप्पैः शस्त्रवलं च ततो धम्मिल्लमल्लः कानकं पभम् इति भावः ॥ ६४ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजनपुमारसम्मपाल्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः3 (११३ सारागरागैः सुरभि सुवर्ण-मेवेतयोः कायमहो विधाय । जहे सुवर्णस्य सुरांगनाभिः, सौगन्ध्यवंध्यत्वकलंकपंकः ।। ६५ ॥ (व्या०) सारांगरागैरिति ॥ सुरांगनाभिः सुराणामंगना. सुरांगना (नोऽङ्गादे । ७ । २ । २९ । इ. सू. अङ्गशब्दात् मत्वर्थे न प्रत्ययः अङ्गं अस्ति आसामिति अङ्गना ।) ताभिः सुरांगनाभि. देवांगनाभिः सुवर्णस्य कनकस्य सौगन्ध्यवन्प्यत्वकलकपच सौगन्थ्येन पन्ध्यत्व रहितत्वं तदेव कलङ्कस्य पङ्कः सौरभ्यरहितत्वरूपकलङ्कपको जहे स्फटितः । किं कृत्वा एतयोः सुमंगला सुनन्दयोः कार्य (चितिदेहावासोपसमाधाने कश्चादे । ५। ३ । ७९ । इ. सू. चिधातो वे धम् आदेश्वस्य कः चीयते इति कायः ।) शरीरं सारागरागैः प्रशस्य विलेपन: अहो इत्याश्चर्य सुरभिं परिमलबहुलं विधाय कृत्वा किं विशिष्ट कार्य सुवर्णमेव गौरवर्णत्वात् ॥ ६५ ॥ तयोः कपोले मकरी फुटांगी-यन्यधूल्या लिलिखुस्त्रिदश्यः । स्मर वधार्य मकरः पूरंधी-स्नेहन धास्तदिहानिनाय ॥ ६६ ॥ (०या०) तयोरिति ॥ त्रिदश्य (तिस्त्र दशः अवस्था. येषां ते त्रिदशाः त्रिदशानां स्त्रियः त्रिदश्यः) देवांगना तयोः कन्ययोः कपोले यत् यस्मात् कारणात् गन्धधूल्या कस्तुर्या स्फुटांगीः प्रकटरूपाः मकरी लिलिखु लिखन्ति स्म तत् तस्मात् कारणात् मकरः पूरंध्रीस्नेहेन कलत्रप्रीत्या धावन् स्वधार्थ स्ववाद्यं स्वामिन स्मरं (स्मरन्ति अनेन इति स्मरः पुनाम्नि घ ।५-३-१३० इ. सू. स्मृधातो धम् ।) कंदर्प इह आनिनाय । कामो मकरध्वज उच्यते । मकरमकरीरनेहेन कामोऽपि तत्रागतः इति भावः ॥ ६६ ॥ बभार मारः फुचकुंभयुग्म, क्रीडन् ध्रुवं कान्तिनदे तदंगे । यत्पत्रवल्ल्यो मृगनामिनीला, निरीक्षितास्तत्परितोऽनुषक्ताः ॥१७॥ (०या०) वभार इति ॥ मारः (मारयतीति मार ) कंदर्प कान्तिनदे प्रभाइदे तदंगे तयो कन्ययो अंगं तदंग तस्मिन् तयोः कन्ययो शरीरे क्रीडन् सन् Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टोकासमलंहतम् ॥ सर्गः३ ध्रुवं निश्चित कुचकुंभयुग्मं कुचौ रतनी एव कुंभी घटी तयोः युग्मं इन्हें बभार धरति स्म अन्योऽपि कुंभाधारण दादिक तरति । तत्र हेतुमाह यत् यत्मात् कारणात् तत् कुभयुग्मं (सर्वामयाभिपरिणा तसा । २ । २ । ३५ । इ. सू. परितः योग तत् इत्यत्र हितीया पर्यभः समिये । ७।२ । ८३ । इ. सू. परे. सर्वार्थे तलु ।) परित समन्ततः अनुपक्ता. लग्ना मृगनामिनीलाः मृगनाभिभि कस्तुरिकाभिः नीलाः नीलवर्णाः पत्रवल्यो निरीक्षिता ॥६७ ॥ तनूस्तदीयाद दृशेऽमरीभिः, संवीतशुभ्रामलमजुवासा । परिस्फुटस्फाटिककोशवासा, हैमीकृपाणीव मनोभवस्य ॥६८ ॥ (व्या०) तरिति ॥ अमगेभिर्देवाशनाभिः तदीया तयोरियं तदीया तन्ः शरीरं ददृशे (दृश्धातोः कर्मणि परोक्षा) दृष्टा । तनुशन्दो देवाचक सीलिङ्गो ज्ञेयः । कन्याद्वये सत्यपि तनूरित्यत्र जातावेकवचनं ज्ञेयम् । किं विशिष्टा तनूः संवीतशुभ्रामलमजुवासा सवीतानि परिहितानि शुभ्राणि उचलानि अमलानि निर्मलानि मञ्जूनि मनोजानि वासांसि वस्त्राणि यया सा संवीन० । उप्रेक्ष्यते परिस्फुटस्फाटिककोवासा परिस्फुटो यो स्फाटिकको। तस्मिन् पासो यस्याः सा प्रकटस्फाटिकमणिमयप्रत्याकारकृतवासा मनोभवस्य कामस्य हेनोविकारो हैमी ( हेमादिभ्योऽञ् । ६ । २ । ४५ । इ. सू. हेमन् शब्दात् विकारे अन् प्रत्ययः ।) सुवर्णमयो कृपाणीव क्षुरिकेव ॥ ६८ ॥ द्वारेण वां चेतसि भर्तुरेष, संश्लेषमाप्स्यामि मुमुक्षितोऽपि । इतीव लाक्षारसरूपधारी, रागस्तयोरंहितलं सिपेवे ॥ ६९ ॥ (व्या०) द्वारेणेति ॥ लाक्षारसरूपधारी लाक्षायाः रस तस्य रूपं धरतीति अलक्तरसरूपधारी (अजाते. गोले । ५-१-१५४ । इ. सू. धृधातोः शीलेऽर्थे खिन् ) राग. (भावाऽको । ५ । ३ । १८ । इ. सू. धातो वे धम्) तयोः कन्ययो अहितलं चरणतलं सिवे सेवते स्म । उत्प्रेक्ष्यते इतोव एषोऽहं वां युवयो रेण भर्तुः श्रीषभदेवस्य चेतसि हृदये संश्लेष संबंध आप्स्यामि प्राप्स्यामि । किं विशिष्टोऽहं मुमुभितोऽपि मोक्तुमिष्टोऽपि ॥ ६९ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (११५ मन्दारमालामकरन्दविन्दु-सन्दोहरोहत्प्रमदाश्रुपूरा । दूरागता शैत्यमृदुत्वसारा, सखीव शिश्लेष तदीयकंठम् ॥ ७० ॥ (व्या०) मन्दारेति ॥ मन्दारमाला मदारपुष्पाणां माला दूरागता दूरादागता सखीव तदीयकंठं तयोः सुमंगलासुनन्दयो। अयं तदीयः स चासौ कंटश्च तदीयकंठस्तं शिले५ आलिंगति स्म । कि लक्षणा मन्दारमाला मकरन्दबिन्दुसन्दोहरोहत्प्रमदाश्रुधारा मकरन्दानां बिन्दवः तेषां सन्दोह समूहः स एव रोहन प्रवर्द्धमान प्रमदाश्रूणां पूरः हर्षाश्रुपूरो यस्याः सा मकरन्द० शैत्यमृदुत्वसारा शैत्यं (जातस्य भाव शैत्यं पतिराजान्त गुणाराजादिभ्यः कर्मणि च । ७ । १ । ६० । इ. सू. गुणवाचकशीतशब्दात् भावे यण) च मृदुत्वं च शैत्यमृदुत्वे ताभ्यां सारा मनोजा ॥ ७० ॥ न्यस्तानि वध्वोदनेऽमरीभि-रामाभरं भेजुरभंगरंगम् ।। उद्वेगयोगेऽपि भुजङ्गवल्ले-देलानि सुस्थानगुणः स कोऽपि ॥ ७१ ॥ (व्या०) न्यस्तानीति ॥ भुजङ्गबल्लेनागवल्ले: दलानि पत्राणि उद्वेगयोगेऽपि उद्वेग: संताप, पक्षे पूगीफलं तस्य योगस्तस्मिन्नपि आभाभरं आभानां भरस्तं शोभासमूहं भेजुः (तृत्रपफलमजाम् । ४ । १ । २५ । इ. सू. भज्धातोः उसि परे एत्वम् न च द्विर्भावः ) भजन्ते स्म । कि विशिष्टमाभाभरं अभंगरंग अभंगो रंग रंग एव वा यस्मिन् तं । स कोऽपि सुस्थानगुणो ज्ञेयः । कि विशिष्टानि दलानि अमरीभिर्देवांगनाभि ववो. कन्ययोदने न्यस्तानि क्षितानि । एक भुजंगवलेलानि द्वितीयमुद्वेगयोगः परमीशेऽपि सति यद् रंगो जातः स . तयोः कन्ययोर्वदनस्थानकगुणो ज्ञेय इति भावः ॥ ७१ ॥ भास्म स्मरान्धं त्वरया पुरान्तः, संचारिचेतः पतदत्र यूनाम् । . इतीव काप्युत्पलकर्णपूरै-स्तत्कर्णकूपौ त्वरित प्यधत्त ॥ ७२ ॥ (व्याः) मास्मेति ॥ कापि देवांगना उत्पलकर्णपूरः उत्पलानि एव कर्णपूरास्तैः कमलरूपकर्णाभूषणैः तत्कणकूपौ तयोः सुमंगलासुनन्दयो। कर्णी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः३ एव कूपौ तौ त्वरितं शीघ्रं व्यधत्त (बावाप्योस्तनिकाधामहोपा । ३-२-१५६ इ सू. अपि स्थाने पिः) आच्छादयति स्म । उप्रेक्ष्यते-इतीव अत्र एतयोः ककूपयोः यूनां यौवनप्राप्तानां चेतः स्वान्तं स्मरान्धं स्मरेण अन्धं कामान्धं सत् मा पतत् स्म (सस्मे ह्यस्तनीच । ५ । ४ । ४० । इ. सू. यस्तनी) मा पततु कि लक्षणं चेतः परया औत्सूक्येन पुरान्तः संचारि (समत्यपाभिव्यभेश्वरः । ५ । २ । ६२ । इ. सू. संपूर्वक चरधातोः गालादिसदथै धिनण् प्रत्ययः ।) पुरं शरीरं पक्षे नगरं तस्यान्तमध्ये संचरणशीलम् ॥ ७२ ॥ भोगीदमीयः किलकेशहस्त-ततान यूनां हदि यं विमोहम् । सोऽनधि चूडामणिनापि तेपा-मथो गतिः केत्यवदन्मधोनी ।। ७३॥ (व्या०) भोगीति ॥ मधोनी (स्त्रियां नृतोऽवत्रादेडीः । २ । ४ । १ । इ. सू. मघवन् शब्दात् स्त्रियां डीः । श्वन् युवन् मघोनो डीस्यायधुट्वरे व उः । २ । १ । १०६ । इ. सू. मघवन्शब्दे वकारस्य ज्या परे उः । अवर्णस्येवर्णादिनदौदरल् । १ । २ । ६ । इ. सू. ओकारे मधोनी ।) इन्द्राणी इत्यवदत् इतीति किं इदमीयः (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. इदमर्थे इदम् शब्दात् दोरीय । ६-३-३२ । इ. सू. ईय प्रत्ययः । त्यदादि। ६-१-७॥ इ. सू. इदम् सदस्य दुसंज्ञकत्वात् ) अनयोस्यमिदमोयः किल इति सत्य केशहस्त: केशानां हस्तः कलाप• केशहत्तः हस्त: पक्ष कलापश्चेति नाममालोti ज्ञेयम् । यूनां हृदि यं विमोहं ततान । किं विशिष्ट केशहस्तः भोगी भोग' कुसुमकस्तूरिकादीनां विद्यते यत्रासौ भोगवान् । पक्षे सर्प स विमोहः चूडा. मणिनापि अवधि पति । तेषां यूनामथो कागतिर्भविष्यति ॥ कोऽर्थः सर्पमणे विषमुत्तरति इति रूढिः तयोः कन्ययोः शीर्ष केशकलापसोपरिचूडामणि दृष्ट्या युवानो विशेषतो व्यामोहिताः ॥ ७३ ॥ हस्ते शिलाकावदने च तिष्ठ-दनिष्ठरं तनयनप्रविष्टम् । विकालं भस्मयति ॥ यूना, को विश्वसत्तापकरप्रवृतेः ॥ ७४ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (११७ ( व्या० ) हस्त इति । कज्जलं धिक् धिग् योगे ( गौणात्समयानिकषाहाधिक अन्तरान्तरेणातियेन तेनै द्वितीया । २ । २ । ३३ । इ. सू. कज्जलमित्यत्र द्वितीया यत् कज्जलं तन्नयनप्रविष्टं सत् तयो कन्ययोः नयनानि तन्नयनानि तन्नयनेषु प्रविष्टं सत् यूनो भस्मयति स्म ( णिज् बहुलं नाम्न कृगादिषु । करोत्सर्थे णिच् । त्र्यन्तस्वरादे' | • ३ । ४ । ४२ । इ. सू भस्म करोति ७ । ४ । ४३ । इ. सू. इति मस्मयति ) अत्र लक्षणा ज्ञेया व्यामोहयति स्मेति भाव । किं विशिष्टं कज्जलं हस्ते च अन्यत् शिलाकावदने शिलाकाया वदनं तस्मिन् तिष्ठत् (शत्रान|| वेष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २० । इ सू. स्थाधातो वर्तमाने शतृ प्रत्ययः श्रौतिकृषु धिवु-दम् । ४ । २ । १०८ । इ. सू. स्थाधातोः तिष्ठा देश :) सत् न निष्ठुरं अनिष्ठुरं कोमलं लक्षणया शांतं वा । तापकरप्रसूते: तापकरः ( हेतु तच्छी लानुकूलेऽशब्दश्लोककलहगाथावर चाटुसूत्र मन्त्रपदात् । ५ । १ । १० 1 इ. सू. तापपूर्वक कृग्धातोः शीलेऽर्थे ट, तापं करोति इत्येवंशील. 1) अग्निः दुर्जनादिर्वा तस्मात् प्रसूतिर्यस्य सः तस्य अग्निदुर्जनादिजातस्य अन्यस्यापि को विश्वसेत् इति अनश्वर प्राणने इति धातोर्नप्रयोग किन्त्वन्यः कोऽपि धातुर्घटते 'न विश्वसेदमित्रस्य मित्रस्यापि न विश्वसेत् इति लोकेऽप्यस्ति । कोऽर्थः कज्जलं पूर्व हस्ते म्रियते ततः शिलाकामुखे स्थाप्यते अस्मिन्नवसरे न कमपि व्यामोहयति किन्तु नयनप्रविष्टमेव अत कज्जलेन विश्वासघातः कृतः । अथ तापकरजातस्य न विश्वसेदिति भावः ॥ ७४ ॥ भस्मन् शब्द। अन्त्यस्वरादेर्लोप शची स्वहस्तेन निवेश्य मौलौ, मौलिं मणीनां किरणैर्जटालम् । तयोर्गुणाधिक्यभवं प्रभुत्वमशेषयोषित्सु ढीचकार ॥ ७५ ॥ ( व्या० ) शचीति । शची इन्द्राणी स्वहस्तेन स्वस्य हस्तः तेन तयो' कन्ययो' मौलौ मस्तके मौलिं मुकुटं निवेश्य अशेषयोषित्सु अशेषाश्च ता योषितश्च तासु सर्वत्रीषु गुणाधिक्यभवं गुणानामौदार्थगांभीर्यादिगुणानामाधिक्यात् भवं प्रभुत्वं दृढीचकार न दृढमदृढं अदृढं दृढं संपद्यमानं यथा चकार इति दृढ़ी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ चकार । किं विशिष्ट मौलिं मणीनां किरणैर्जटालं (कोलाजटाघाटात् क्षेपे । ७। २। २३ । इ. सू. जटाशब्दात् मत्वर्थ ल ।) व्याप्तम् । अत्रापि लक्षणा ज्ञेया ॥ पारे शिरोजतमसामुदियाय भाले, लक्ष्म्या घनावसथतां गमिते तदीये । विक्षिप्तनागजरजोत्रजसांध्यराग-संकीर्णसिम्नि तरणिस्तिलकच्छलेन ॥ (व्या०) पारे इति ॥ तरणिः सूर्य तदीये नयोः कन्ययो इदं तदीयं तस्मिन् भाले शिरोजतमसी शिरसिजाता. शिरोजा. (सप्तम्याः । ५-१-१६९ इ. सू. शिरसि उपपदे जनेई. । डिल्य त्यस्वरादेः इ. सू. अन्त्यस्वरादेलोपः ।) केशाः ते एव तमांसि तेषां केगरूपांधकाराणां पारे उदियाय उदयं प्राप्तः । किं विशिष्टे भाले लक्ष्म्याः श्रिय शोभाया वा घनावसथता दृढ स्थानकता पक्षे धनावसथतामाकाशतां गमिते प्रापिते विक्षिप्तनागजरजोत्रजसांध्यरागसंकीणसीनि विक्षिप्तं विस्तारितं च तत् नागजरजश्च तस्य व्रज समूहः स एव सांध्यराग: तेन संकीर्णा सीमा पर्यन्तदेशो यस्य तस्मिन् तरणि केन उदियाय तिलक लेन तिलकस्यलं तेन ॥ ७६ ॥ यच्चाक्रिकभ्रमिदिनाधिपतापवन्हि-सेवापयोवहन मुख्यमसोढ कष्टम् पुण्येन तेन तदुरोरुहतामवाप्य, कुंभो बभाज मणिहारमयोपहारम् ॥७७॥ (-या०) यत् इति ॥ यत् यस्मात् कारणात् चातिक: कुलाल: तस्य चक्रोपरिभ्रम. चाक्रिकभ्रम दिनाधिपतापः दिनाधिपत्य (अधिकं पातीति अधिपः उपसर्गादातो डोऽश्यः । ५ । १ । ५६ । इ. सू. अधिपूर्वक पाधातोः ।) सूर्यस्य ताप सूर्यकिरणताप' वह्निसेवा वह्नः सेवा पावकावस्थाभवा पयोवहन जलहरणं चाक्रिकश्चि] भ्रमिश्च दिनाधिपतापश्च पहिसेवा च पयोवहनं च तानि मुख्यानि यस्मिन् तत् एवं विधं कष्टमसोढ कहते स्म तेन पुण्येन तदुरोरुहतां तयो. कन्ययोः उरोरोहता तां ततनत्वं प्राप्य मणिहारमयोपहार मणिहारमयमुपहारं पूजां बभाज भजति स्म । 'देहे दुःखं महाफल'मित्यागमः । अत्र वृत्त अनुमानालंकारो ज्ञेय । कुंभेन किमपि पुण्यं कृतं तेन हारादिपूजा प्राप्तेति भावः । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (११९ ये तयोरशुभता करणमूले, काममोहभटयोः कटके ते। अङ्गुलीषु सुषमामददुर्यो, ऊर्मिका ननु भवाम्बुनिधेस्ताः ॥ ७८ ॥ ___ (व्या०) ये इति ॥ ये कटके तयो. कन्ययोः करमूले अशुभतां शोभिते ते काममोहमट्यो कटके सैन्य ज्ञेये। या. ऊर्मिका' मुद्रिका: तयोः कन्ययोः अंगुलीषु सुषमा शोभामदद ददति स्म ननु निश्चितं ताः भवाम्बुनिधे भवः संसारः एव अंबुनिधिः (उपसर्गा. किः । ५ । ३ । ८७ । इ. सू. निपूर्वक धाधातो: कि । इडेत् पुसीति सूत्रेण आकारलोप ।) समुद्रस्तस्य संसारसमुद्रस्थोर्मिका लहों ज्ञेया ॥ ७८ ॥ त्रिभुवनविजिगीषोर्मारभूपस्य वाधा ऽवनिरजनि विशाला तन्नितम्बस्थलीयम् । व्यरचि यदिह काञ्ची किंकिणीभिः प्रवल्ग, चतुरतुरगभूषा घघरीघोपशंका ।। ७९ ॥ (व्या०) व्यरचीति त्रिभुवनेति ॥ इयं तन्नितम्बस्थली तयोः कन्ययोः नितम्बस्थली कटीतटस्थली मारभूपस्य मार कामः एव भूपो नृपस्तस्य कामराजस्य वाह्यावनिः अश्ववाहनिका भूभिः अजान जाता । तत्र हेतुमाह-यत् यस्मात इह कारणात् नितम्बस्थल्यां काश्ची मेखला तस्या किंकिण्यः क्षुद्रटिकाः ताभिः प्रवल्गचतुरतुरंगभूषाघर्घरीघोषशका प्रवल्गन्त: उछलन्त चतुरा ये तुरगाः(नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५-१-१३१ । इ. सू. तुरशब्दपूर्वक गमधातोः ड प्रत्ययः डित्यन्तस्वरादेरिति सूत्रेण अम् लोपः) तेषां भूषा (भीषिभूषिचिन्तिपूजि-भ्यः इ. सू. अड् आत् इ सू. आप्) धर्धरीणां पोषशंका व्यरचि कृता । यत्र अश्वाः वाद्यन्ते तत्र धर्धरीघोषः स्यादेवेति भावः । किं विशिष्टस्य मारभूपस्य त्रिभुवन विजिगीषोः त्रयाणां भुवनानां समाहारत्रिभुवन (संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू. समास ) विजेतुमिच्छतीति विजिगीषति विजिगीषतीति विजिगीषु: त्रिभुवनस्य विजिगीषुः तस्य त्रिभुवनजेतुमिच्छोः ॥ ७९ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ नखजितमणिजालौ स्वश्रियापास्तपद्मौ गतिविधुरितहसौ मार्दवातिप्रचालौ । तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंही सपदिदधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम् ।। ८ ।। (व्या०) नखजित इति ॥ इह देवी साक्षीकृत्य (साक्षाद् द्रष्टा । ७ । १ । १९७ । इ. सू. साक्षात् शब्दात् दृष्टरि अर्थे इन् प्रत्ययः प्रायोऽव्ययस्य । ७ । ४ । ६५ । इ. सू. अन्त्यस्वरादेलोपः कृम्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां-च्चिः । ७ । २ । १२६ । इ. स. साक्षिशब्दात् वि. नानो नोऽनह: । २-१-९१ इ. सू. न लोपः दीर्घश्चियड्यकेषु च । ४ । ३ । १०८ । इ. सू. इकारस्य दोधत्वं । उधिनुकरणविडाचश्च गतिः । ३ । १ । २ । इ. स. गतिसंज्ञा गतिकन्यतत्पुरुषः । ६ । १ । ४२ । इ. सू. समासः । अनञः क्त्वो य५ । ३ । २ । १५४ । इ. सू. यबादेशः ) तदही तयोः कन्ययोः अही कमी सपदि झटिति यत् तुलाकोटिवृत्तां तुलाकोटिश-देन पुरं पक्षे तुला उपमा तस्याः कोटिः अग्रभागः तस्मात् वृत्तां निष्पना आमां शोमां दधतुः तत् उचितं योग्यमतानि सर्वाणि तदहयोविशेषणानि । कि विशिष्टौ तदही नखजितमणिजालौ नः जितानि मणिजालानि याभ्यां तौ नखकिरणजितमणिसमूहौ । पश्रिया स्वस्य निजस्य श्रीः शोभा तया अपास्तपनो अपास्तानि पानि याभ्यां तौ स्वशोभया निराकृत कमलौ । गतिविधुरितहसौ गत्या विधुरिताः लक्षणया जिताः हंसा याभ्यां तौ । मार्दवातिप्रवालौ माईवेन सौकुमार्येण अतिक्रान्ता प्रबाला नवांकुरा याभ्यां तौ अत एव जितसर्वोपमानत्वात् तुलाकोटित्वमिति भावः ॥८॥ एवं स्नातविलिप्तभूषिततनू उध्दत्य कन्ये उभे __ मध्ये मातृगृहं निवेश्य दिविषद्योषा अदोषासने । गायन्त्यो धवलेषु तद्गुणगणं तद्वक्रवीक्षोत्सव च्छेदानाकुलनिनिमेषनयनास्तस्थुः परन्त्यो वरम् ॥८॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ३ (१२१ ( व्या० ) एवमिति । दिविपयोपा दिवि आकाशे सोदन्ति गच्छन्तीति दिविपदो ( किप् । ५ । १ । १४८ । इ सू. दिव् उपपदे सङ्घातो. क्विप् । अद् व्यञ्जनात् सप्तम्या बहुलम् | ३ | २ | १८ | इ. सू. सप्तम्या अलुप् ।) देवास्तेषां योषा स्त्रिय. देवांगना वरं स्मरन्त्य सत्य तस्थु किं कृत्वा उभे सुमंगलासुनन्दे कन्ये उद्धृत्य स्नानस्थानात् उत्पाट्य मध्ये मातृगृहं (पारे मध्येऽग्रेऽन्त' पष्ट्या वा । ३ । १ । ३० । इ. नू अव्ययीभाव समास ) मातृगृहस्य मध्ये मध्ये मातृगृहं अदोपासने अदोषं च तत् आसनं च अद्रोपासनं तस्मिन् निर्दोपासने निवेश्य उपवेश्य । किं विशिष्टे कन्ये एवममुना पूर्वोक्तप्रकारेण स्नातविलिप्तभूषिततनू (आदौ ) खाता ( पचात् ) विलिप्ता (पूर्व कालैक सर्वजरत् पु-म् । ३-१-९७ इ. सू. समासः ) भूषिता अलंकृता च तनू शरीरं ययोस्ते ते | अत्र असन्धिः । किं कुर्वन्स्य दिविषयोपाः धवलेषु तद्गुणगणं तयोः कन्ययोगुणास्तेषां गणस्तं गुणसमूहं गायन्न्य' । पुन कि वि० तद्वक्त्रवीक्षोत्सवच्छेदानाकुलनिर्निमेषनयनाः तयो कन्ययो वक्त्रस्य वदनस्य वीक्षा अवलोकनं सा एवं उत्सवः तस्य छेदे छेदविषये अनाकुले अभ्याकुले निर्निमेषे निमेषरहिते नयने लोचने यासां ताः । मेषोन्मेषकारिणां जनानां वीक्षोत्सवच्छेद' स्यात् परं तासां स्वभावनिर्निमेषत्वात् नेत्रयोरनाकुल्त्वमिति भाव: ॥ ८१ ॥ 1 सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि- । र्श्वम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनी मानुमान् ॥ वाणीदत्तवरश्विरं विजयते तेन स्वय निर्मिते । सर्गों जैनकुमारसंभवमहाकाव्ये तृतीयोऽभवत् ॥ ३॥ इतिश्रीमदच्छीयश्ञ्चलगच्छे कवि चक्रवर्त्तिश्रीजय शेखरसूरिविरचितस्य श्रीजेनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्य श्री धर्मशेखर महोपाध्यायविरचिताया टीकायां श्रीमाणिक्य सुन्दरशोधिताया तृतीयसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ३ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थसर्गः प्रारभ्यते । अधात्र पाणिग्रहणक्षणे प्रति-क्षणं समेते सुरमंडलेऽखिले । इलातलस्यातिथितामिवागता-ममस्त सौधर्मदिवं दिवःपतिः ॥१॥ (व्या०) अथेति ॥ अथानन्तरं दिव:पति: इन्द्रः सौधर्मदिवं इलातलस्य इलायाः तलं तस्य पृथ्वीतलस्य अतिथितां प्राघूर्णतामिवागतामस्त मन्यते स्म । क सति अत्र अस्मिन् पाणिग्रहणक्षणे पाणिग्रहणस्थ क्षणः तस्मिन् विवाहावसरे अखिले समग्रे सुरमंडले सुगणां मंडलं तस्मिन् देवसमूहे क्षणं क्षणं प्रति (योग्यता वीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये । ३-१-४० । इ. सू. वीप्सायां समासः । क्षणं क्षणं इति प्रति अगम् । ) समेत समागते सति ॥ १ ॥ नवापि वैमानिकनाकिनायका, अधस्त्यलोकाधिभुवश्व विशिनः । शशी रविय॑न्तरवासिवासबा, द्विकाधिकात्रिंशदुपागमनिह ॥ २ ॥ (व्या०) नवापि । एकस्य पूर्वमागतत्वात् शेपे नवापि वैमानिकनाकि नायका वैमानिकानां (चरति । ६ । ४ । ११ । इ सू. विमानशब्दात् चरति अर्थ इकण प्रत्यय विमानै परन्ति इति वैमानिकाः ।) नाकिनां देवानां नायकाः (णक तृचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. नीधातोः कर्तरि णक: नामिनोऽकलिहले । ४ । ३ । ५१ । इ. सू. ईकारस्य वृद्धि एदेतोऽयाय । १-२-२३ । 5. सू. आयादेशे नयन्तीति नायकाः) इन्द्राः च अन्यत् विशिनः विंशतिर्मानमेवामिति विभिन डिन् इति सूत्रेण डिन् प्रत्ययः इनश्च विशतेस्तेर्डिनि इति सूत्रेण तिलोप डित्यन्तस्वरादेरन्त्यस्वरलोपे विशिन इति विंशतिसंख्या अधस्यलोकाधिभुव अधो भवा अवस्त्या. ते च ते लोकाश्च अधस्त्यलोकाः तपामधिभु स्वामिन पाताललोकम्बामिन शशी चन्द्र: रविः सूर्य व्यन्तरवासिनां वासवा व्यनरवासिवानवा व्यन्तरेता द्विकाधिका द्विकेन अधिका त्रिंशत् द्वात्रिंशत् इद मंडपे उपागनन् आगताः ॥ २ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाख्यं महापाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१२३ तदा दालोडनशाखिदोलन-प्रिया खालोकमुखोमखांशिनाम् । रसः प्रयाणस्य रसेन हस्तिनः, पदेन पादान्तरवद्वयलुप्यत ॥ ३ ॥ (न्या०) तदेति ॥ तदा तस्मिन्नवसरे मरवाशिनां देवानां हदे जलाशये आलोडनमवगाहनं हृदालोडनं हुदावगाहनं शाखिनो वृक्षास्तेषु दोल्न खणं गाखिदोलनं प्रियाया मुख तस्य आलोकः प्रियामुखालोकः एते प्रमुखा. मुख प्रधानं यस्य स रस. प्रयाणस्य रसेन व्य यत लुप्त । किं वत् पादान्तरवत् यथा हस्तिनः पदेन द्विपदचतुप्पदादीनां पादान्तरं लुप्यते 'सर्वेपदा हस्तिपदे अविष्टाः' इति न्यायात् ॥ ३ ॥ विनिर्यतां स्वस्वदिवो दिवौकसां, स कोऽपि घोषः सुहृदादिहूतिभूः। अभूद्विहायस्यपि यत्र गोत्र, विमिश्रित का प्रविभक्तुमीश्वरः ॥४॥ (व्या०) विनिर्यतामिति ॥ स्वस्वदिवः स्वस्य स्वस्य स्वर्गात् विनियंतां निर्गच्छता दिवौकसां चोरोको येषां ते दिवौकसो देवास्तेषां सुहृदादीनां (शोभन हृदयं येषां ते सुहृदो मित्राणि सुहृद् दुर्हन् मित्रामित्रे । ७ । ३ । १५७ । इ सू. मित्रेऽर्थसुपूर्वक हृदयस्य दादेशो निपात्यते सुहृद आदौ येषां ते सुदादयस्तेषां एकार्थ चानेकं च । ३ । १ । २२ । इ. सृ. बहुव्रीहिः) मित्रादीनां हूतिराकारणं तस्या भवतीति सुहृदादिहूतिभूः स कोऽपि घोषः कलकल• गोकुलं चा अभूत् । यत्र घोषे गोत्रज वाणीसमूहं धेनुसमूह वा विमिश्रितं एकीभूतं सत् विहायस्यपि आकाशेऽपि प्रविभक्तुं पृथक् कर्तुं क ईश्वर' समर्थः स्यात् अपि तु न कोऽपि ॥ ४ ॥ अमीषु नीरंध्रचरेषु कस्यचि-निरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम् । इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्पितम् ।। (व्या०) अमीष्विति ।। अन्यवाहनं अन्यस्य देवस्य वाहनं (करणाधारे । ५ । ३ । १२९ । इ. सू. पहधातोः करणे अनट् उह्यते अनेन इति वहनं ततः प्रज्ञादिभ्योऽण् । ७ ।.२ । १६५ । इ. सू. स्वार्थे अण् वहनमेव Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ वाहनम् ।) इभो हस्ती कस्यचिद्देवस्य युग्यं (वहतिरथयुगप्रासङ्गात् । ७-१-२ इ. सू. युगशब्दात् वहति अर्थ य प्रत्ययः युगं वहतीति युग्य ) यानभूतं हरि सिंहं निरीक्ष्य दृष्ट्वा भीतोऽपि पलायितुं (क्रियायां कियार्थायां तुम् णक च भविष्यन्ती । ५ । ३ । १३ । इ. सू. परापूर्वक अयधातो. तुम् प्रत्ययः । स्ताशितोऽत्रोणादेरिट । ४ । ४ । ३२ । इ. सू. तुमः इट् । ) नाशकत्. न त । सोऽपि सिंहोऽपि प्रकोपनः ईर्ष्यालु सन् । तमिभं हस्तिनं धर्षितुं नायकत् । केषु सत्सु अमीषु देवेषु नीरंध्रचरेषु नीरंध्रे यथा भवति तथा चरन्ति तेषु निधि चल्त्सु । पतितोऽपि तिलो यत्र नाघो याति तन्नोरंध्रमुच्यते ॥५॥ महातनुः स्थूलशिरा विलोहिते क्षणः परस्यासनकासरः पुरः । पलाययन् वाहनवाजिनो व्यधा-तुरंगिणां प्राजनविश्रमं क्षणम् ॥६॥ (व्या०) महातनुरिति ॥ परस्यान्यदेवस्य आसनकासरः (करणाधारे । ५ । ३ । १२९ । इ. सू. आस्धातो: आधारे अनः आस्थते अस्मिन् इति आसनम् ।) आसनसाक• कासर महिष तुरंगिणामश्ववाराणां क्षणं प्रोजनविश्रम प्राजनस्य विश्रमस्तं तर्जनकविश्रमं व्यधात् । किं लक्षणः कासरः महातनु: (एकार्थ चानेकं च ३ । १।२२। इ. सू. बहुव्रीहिसमासः जातीयैकार्थच्चेः । ३ । २ । ७० । इ. स. महतः डा, डित्यन्तस्वरादे: इ. स. अन्त्यस्वरादेलोप:) महती तनुः शरीरं यस्य सः स्थूलशिरा स्थूल शिरो मस्तकं यस्य सः बृहन्मस्तकः विलोहितक्षण: विलोहिते ईक्षणे नेत्रे यस्य सः आरतलोचनः किं कुर्वन् कासरः वाहनवाजिनः वाहनीभूतान् वाजिनस्तुरंगान् पलाययन् पलायनं कारयन् । पूर्ववृत्ते नीरंध्रचरत्वं प्रोक्तम् अत्र पलायनं प्रोक्तम् । इत्थं वचनविरोधः स्यात् परन्तु मार्गे चलता कापि संकीर्णता क्यापि असंकीर्णता भवति ततो न विरोधः ॥६॥ प्रभोर्विवाहाय स्याधियासतां, वितेनिरे प्रत्युत सादीनां श्रमम् ।। नभोनदीतीरतणार्पितानना, कशाप्रहारैः पथि यानवाजिनः ।। ७॥ (०या०) प्रभोरिति । यानवाजिनः (यान्ति अनेन इति यानं करणाधारे ५ । ३ । १२९ । इ. सू याघातो. करणे अनट ) यानीभूततुरगा• पथि मार्ग Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१२५ कशाप्रहारै कशानां प्रहारास्तै प्रत्युत विशेषात् सादिनामश्ववाराणां श्रमं वितेनिरे (अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्येऽत । ४-१-२४ । इ सू परोक्षायां तन्धातोरत्वं न च द्वित्वम् ) ददु । कि कुर्वतां सादिनां प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य विवाहाय रयात् वेगात यियासतां गन्तुमिच्छताम् । किं लक्षणा वाजिन नभोनढीतीरतृणार्पितानना. नभयो नदी आकाशगङ्गा तस्या तोरे तटे यानि तृणानि तेषु अर्पित क्षिप्तं आननं मुखं यैस्ते । आकाशगङ्गाया तीरे तृणानि कथमुद्छन्तीति केनापि पृष्टे प्रत्युत्तरमिदम् याशी आकाशगङ्गा तादृशानि तृणान्यपि ज्ञेयानि । परं लोके वढयैव ज्ञेयम् । उक्तं च कविशिक्षायां 'जालभाचं नभोनव्यमंभोजाचं नदीष्वपि' इति अग्रतोऽपि व्यावर्णन न दोषाय ॥ ७ ॥ मिथो निरुच्छ्वासविहारिणां सुधा-भुजां भुजालंकृतिघट्टनात्तदा । मणिव्रजो यत्र पपात ते पयः, क्षितिश्च रत्नाकरखानितां गते ॥८॥ (व्या०) मिथ इति ॥ तदा तस्मिन्नवसरे मिथ परस्परं निरुवास. विहारिणां (अजाते. शोले । ५ । १ । १५४ । इ. सू चिपूर्वकहधातोः शीलादि सदर्थे णिन् ) निरुच्छ्वासं उच्छ्वासं विनापि यथा भवति तथा विहरन्ति इत्येवंगोलास्तेषां सुधाभुजां (किम् । ५-१-१४८ । इ सू सुधानामपूर्वकभुज्धातो. कर्तरि किम् ) सुधां भुञ्जते इति सुधाभुजस्तेषां देवानां भुजालंकृतिघटनात् भुजानां अलंकृतिगभूषणं तस्याः वनं तस्मात् भुजांगदधर्षणात् यत्र स्थाने मणिवज मणीनां रत्नानां व्रज समूह पपात । तत्र स्थाने ते पयः पानीयं भितिश्च पृथ्वी च रत्नाकरखानितां रत्नाकर (पुन्नानि घ । ५ । ३ । १३० । इ. सू आड्पूर्वककृधातो संजाया घ आकुर्वन्ति अस्मिन्निति आकर रत्नानामाकर) समुद्र रत्नखानिश्च तद्भाव गते । अत्रापि अनुमानालंकारो ज्ञेयः ॥ भवेत् प्रयाणे भुवि विघ्नन्मृगी-दृशां नितम्बस्तनभारगौरवम् । - अधोऽवतारे तु सुपर्वयौवतै-तिदेव माहायककारि चिन्तितम् ।। ९ ।। (व्याः) भवेदिति ॥ मृगीशा स्त्रीयां नितम्बस्तनभारगौरवं नितम्वश्व Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ कटीपश्चाद्भागः स्तनौ च एषां समाहार नितम्बस्तनं ( प्राणितुर्याङ्गाणाम् । ३ । १ । १३७ । इ. सू. समाहार द्वन्द्व | ) प्राण्यं गत्वादेकवद्भाव तस्य भारः तस्य गौरवं प्रयाणे मार्गे भुवि पृथ्यां विघ्नकृत् विघ्नं करोतीति भवेत् । तु पुनः सुपर्वयौवतै युवतीनां समूहा यौवतानि (१४चाः समूहे । ६-२-९ । इ. सू. समूहे ऽर्थे युवतिशब्दात् अण् ) सुपर्वणां यौवतानि तै देवयुवतीसमृहैः अत्रोऽवतारे अध पतने । तदेव नितम्बादिगौरवं साहायक कारि साहायकं करोतीति साहाय्यकारि चिन्तितम् ॥ ९ ॥ उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा, श्रमाकुलाकाचिदुदंचिकंचुका । वृपस्य या चाटुशतानि तन्वती, जगाम तस्यैव गतस्य विन्नताम् ॥ १० ॥ , 1 ( व्या० ) उपात्तेति । काचिद् देववल्लमा देवांगना श्रमाकुला श्रमेण आकुला त्रिदशेन देवेन उपात्तपाणि उपात्त गृहीतः पाणिर्हस्तो यस्याः स गृहीतहस्ता सती तस्यैव त्रिदशस्य गतस्य (क्लीवे क्त । ५ । ३ । १२३ । इ. सू. गम् धातोर्भावे नपुंसके क्त गम्यते इति गतम् ।) गमनस्य विन्नतां (विहन्यते अनेन इति विघ्नः । स्थादिभ्यः क. । ५ । ३ । ८२ । इ. सू. विपूर्वकहनुधातोः क अनोऽस्य । २ । १ । १०८ । इ. सू. अनोऽस्य लुक् । हनो ह्रोन्न. । २ । १ । ११२ । इ. सू ने कृते । विघ्न' । भावे त्वतलू । ७। १ । ५५ । इ. सू. विघ्न शब्दात् भावेऽर्थे तल् ) जगाम । किं कुर्वतो सती वृषस्यया (अमान्ययात् क्यन् च । ३ । ४ । २३ । इ. सू. वृषशब्दात् इच्छार्थे क्यत् प्रत्यय वृषाश्वान्मैथुनेस्सोऽन्तः । ४ । ३ । ११४ । इ. सू. वृषशब्दात् सोऽन्तः । शंसि प्रत्ययात् । ५ । ३ । १०५ । इ. सू. वृषस्यधातोः अप्रत्ययः लुगस्यादेत्यपदे । २ । १ । ११३ । इ. सु अकारलोप । आत् । २ । ४ । १८ । इ. सू. आप् । मैथुनार्थं वृषेच्छा वृषस्या 1 ) मैथुनेच्छ्या चाटुशतानि तन्वती पुन उदचिकंचुका उच्छसत् कञ्चुका ॥ १० ॥ पुरस्सरीभूय मनाक् प्रमादिनं, क्वचित् कृषन्तीष्वमरीषु बल्लभम् । विशा वशाः स्युः पथि पादशृंखला, इति श्रुति केsपि वृथैव मेनिरे ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भवाय महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१२७ (व्या०) पुरस्सरीभूयेति ॥ केऽपि देवाः इति श्रुतिं वृथैव मेनिरे । इतीतिकिं वशा. स्त्रियः पथि मार्गे विगां पुरुषाणां पादखला. पादवन्धनानि स्युः फासु सतीषु अमरीषु देवीषु मनाक् स्तोकं प्रमादिनं वल्लभं भर्तार पुरस्सरीमय (पुगेऽप्रतोऽग्रे सते: । ५ । १ । १४१ । इ. सू. पुरस्पूर्वक सृधातो. टात्ययः अगओयेकनबनन्टिताम् । २ । ४ । २० । इ. सू. डी पुर: सरन्ति इति पुर सर्य) अग्रे भूत्वा कृपन्तीषु बलादाकर्षन्तीषु सतीषु ॥ ११ ॥ दिवो भुवश्चान्तग्लंगतागते-रवाहि योऽध्या त्रिदशैरनेकशः। धुदंडकत्वेन स एव विश्रुतः, प्रपद्यतेऽधापि नभोऽधिसेतुताम् ॥१२॥ (40) दिव इति ॥ त्रिदशैर्देवैः दिव स्वर्गस्य भुवश्च पृथिव्याश्च अन्तमध्ये अलमत्यर्थ गतागत गतानि च आगतानि च तै गमनागमनै योऽध्या मार्गोऽनेका ( संख्यैकार्थानाप्सायां शस् । ७ । २ । १५१ । इ. सू. वीप्सार्थात् अनेकान्दात् गस् प्रत्यय ) अनेकवारान् अवाहि वाहित स एवं अभ्या मार्ग द्युदंडकत्वेन विश्रुत. विख्यात सन् अद्यापि नभोऽब्धिसेतुतां नमः आकाशमेव अब्धि (आपः धीयन्ते अस्मिन् इति अब्धि , व्याप्यादाधारे । ५। ३। ८८ । इ सू. अप्पूर्वकधाधातो. कि । इडेत् पुसि चातो लक। इ सू. आलोपः) समुद्र तस्य सेतुतां आकाशसमुद्रसेतुबंधत्वं प्रपद्यते ॥ १२ ॥ जनिर्जिनस्याजनि यत्र सा मही, महीयसी नः प्रतिभाति देवता । इतीव देवा भुवमागता अपि, क्रमैन संपस्पृशुरेव तां निजैः ॥१३॥ (व्या०) जनिरिति ॥ देवा भुवं पृथ्वोमागता अपि निजै. क्रमे पदे: स्वां भुवं न संपस्पृशुरेव नैव स्पृष्टवन्तः । उत्प्रेक्षते इतीव इतीति किं यत्र यस्यां पृथिव्यां जिनस्य श्रीऋषभदेवस्य । जनिः (पदिपठिपचिस्थलिहलिकलिबलि-भ्य. । ६०७ । इ. उ. स. जन्धातोरिप्रत्ययः ।) जन्म अजनि जाता । सा महो पृथ्वी नोऽस्माकं महीयसी (गुणागाद्वष्ठेयसू । ७ । ३ । ९ । इ. सू महाशब्दात् ईयसुः । त्र्य-तस्परादेः । ७ । ४ । ४३ । इ. सू. महत्शद Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम टीकासमलटतम ॥ सर्गः ४ स्य अन्त्यस्वरादेलोपः ।) अत्यंत महती देवता प्रतिभाति देवतावन्मान्या देवता च कथं चरणैः स्पृश्या इति ॥ १३ ॥ मुहूर्तमासीदति किं विडोजसां, प्रमादितत्युगिरि नाकिमंडले । विमानमानज तमंज पावरं, वरेण्यतैलैः प्रथमः पुरन्दरः ॥ १४ ॥ (व्या०) मुहूर्तमिति ।। प्रथम पुरन्दर (पुरन्दरमगन्दगे । ५ । १ । ११४ । इ. स. निपात्यते) पुर. शत्रुपुगणि दाय्यतीति पुरन्दर इन्द्र चण्यनैलै वरेण्यानि (वृड एण्यः । ३८२ । इ. उ. सू. पृड्धातो एण्यप्रत्ययः) च तानि तैलानि च तैः प्रशस्य तैलेस्तं वरं श्रीऋपमं अंजसा सामन्येन विमानं निरहंकार यथा भवति तथा आनज अभ्यनक्ति स्म । क सति नाकिमंडले नाकिनां मंडलं तस्मिन् देवसमूहे इति उनिगरि उद्तवाचि सति इतीति किं मुहूर्तमासीदति आसन्न भवति । बिडौजसामिद्राणां किं प्रमादिता प्रमादकारिता ॥ १४ ॥ तनूस्तदीया पटवासकैरभा-द्विशेषतः शोषिततैलतांडवा । अकृत्रिमज्योतिरमित्रमत्र न, स्निहिक्रिया स्वाद् बहिरंगगापि किम् ॥ (व्या०) तनूरिति ॥ तदीया तस्य इयं तनू स्वामिनः शरीरं पटवासकै पिष्टात शोषिततैलतांडवा सती शोषित तैलस्य तांडवं नृत्यं यस्यां सा एवंविधा सती विशेषतः (अहीयरहोऽपादाने | ७ । २ । ८८ । इ. स. पश्चम्यर्थे विशेषशब्दात् तसुप्रत्ययः ।) अभात् दिदीपे । अत्र (ककुत्रानेह । ७ । २ । ९३ । इ स. अत्र इति निपात्यते) अस्मिन् भगवति बहिरंगगापि (नानो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विह । ५। १ । १३१ । इ. स. बहिरंगशब्दपूर्वक गम्धातोर्ड प्रत्ययः ।) बाह्यशरीरस्थापि निहिक्रिया (कृग श च वा। ५ । ३ । १०० । इ. स. कृधातो. भावे शप्रत्यये । रि क्याशीय । ४ । ३ । ११० । इ. सू कारस्य रि । धातोरिवोवर्णस्येयुव् स्वरे प्रत्यये । इ. सू. इयादेशः, आत् इ. सू आप् ।) किं अकृत्रिम-(ड्वितस्त्रिमा तत्कृतम् । ५ । ३ ८४ । इ. सू. कृधातो. तेन कृतमित्यर्थे त्रिमा प्रत्ययः ।) ज्योतिषः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवायं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१२९ अकृत्रिमं ज्योतिः यस्य सः तस्य सूर्यस्य अमित्रं विरोधिनी न स्यात् अपि तु स्यादेव कोऽर्थः भगवत शरीरे यत् मुख्यं तेज ततैलाभ्यंगेन आवृतमभूत् । पिष्टातस्तले गोषित तत् प्रकटं ज्ञातमिति भावः ॥ १५ ॥ जलानि यां स्नानविधी प्रपेदिरे, पवित्रतां तद्विशदांगसंगतः । तयैव तैरादरसंगृहीतया-धुनापि विश्वं पवितुं प्रभूयते ॥ १६ ॥ (व्या०) जलानीतिः ॥ जलानि पानीयानि स्नानविधौ स्नानस्य विधिः (विधीयते अनिन इति विधि उपसर्गात् दः किः । ५ । ३ । ८७ । इ. सू. विपूर्वकधाधातो किः । इडेत् पुसि चातोक् इ. सू. आकारलोपः ) तस्मिन् स्नाने कार्यमाणे तद्विशदांगसंगतः तस्य भगवतो विशदं निर्मलं यदंग तस्य संगत• भगवनिर्मलांगसंसर्गात् पवित्रता प्रपेदिरे प्रपन्नानि । आदरसंगृहीतया आदरेण (युवर्णवशरणगमृद्ग्रह । ५-३-२८ । इ. सू. आपूर्वक वातोः अल् प्रत्ययः । नामिनोगुणोऽकिति । ४ । ३ । १ । इ सू. गुणे आदरः ।) संगृहीतया तयैव पवित्रतया तेजलैरधुनापि विश्वं जगत् पवितुं पवित्रीकर्तु प्रभूयते (शसस्वयंविप्रागुवोडुः । ५।२। ८४ । इ. सू. अपूर्वकभूधातोःडुः डित्यन्तस्वरादे । २-१-११४ । इ. सू. अन्त्यस्वरादेलोप: क्यड् । ३-४-२६ । इ. सू प्रभुशब्दात् आचारेऽथैक्यड दीर्घश्चियड्यथेषु च । ४ । ३ । १०८ । इ. सू. दीर्घः । इडितः कर्तरि । ३ । ३ । २२ । इ. सू. क्यडोडित्वात् आत्मनेपदम् । प्रभुरिव आचरति इति प्रभयते) समर्थायते ॥ १६ ॥ मुवस्त्रशान्तोदकलेपभासुरः, समंततः संगतदिव्यचन्दनः । घनात्ययोदगतजलंमरुद्रेिः , सिताम्रलिप्तं कटकं व्यजेष्ट सः ॥१७॥ (व्या०) सुवस्त्रेति ॥ स भगवान् मरुद्रेि मेरुपर्वतस्य सिताम्रलिप्त सितानि च तानि अभ्राणि च तैलिप्त श्वेताम्रलिप्तं शररकाले मेघानां श्वेतत्वात् कटक शिखरं व्यजेष्ट जितवान् । विपूर्वकाजधातोः 'परावेजेः' इति सूत्रेणा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०) श्रीजैनकुमारसम्भवाण्यं माकाव्यम् टीपासमशतम् ॥ सर्गः ४ त्मनेपदम् । किं विशिष्टः सः, सुवस्त्रशान्तोदकले पभासुर: शोभनं वस्त्रं सुवस्त्रं (सुः पूजायाम् । ३ । १ । ४४ । इ. सू. तत्पुरुषसमासः) तेन शान्तो य उदकस्य जलस्य लेपस्तेन भासुरो (भजि भासिमिदोवुरः । ५-२-७४ । इ. सू. भासूधातो: शीलादिसदर्थे धुरप्रत्ययः ।) देदीप्यमानः । समंतत. सर्वतः संगतं मिलितं दिव्यचन्दन गोशीर्षचन्दनं यस्य सः । किं विशिष्टं मेरोः कटकं घनाव्ययोद्वान्तजलं घनात्यये शरत्काले उद्दान्तं शुप्कं जलं यस्य तत् ॥ १७ ॥ अमुं पृथिव्यामुदितंसुरद्रुमं, निरीक्ष्यहृन्मूनि सुमांचितंसुराः। जगत्प्रियं पुत्रफलोदयं वयः, क्रमादवोचभचिरेण भाविनम् ॥ १७॥ (व्या०) अमुमिति ।। सुराः देवाः अमुं भगवन्तं पृथिव्यां उदितं सुरद्रुमं कल्पवृक्षं निरीक्ष्य दृष्ट्वा वय.क्रमात् वयसः क्रमः तस्मात् पट्लक्षपूर्वानन्तरं अचिरेण स्तोककालेन भाविनं (वस्यति गम्यादि ।५ । ३ । १ । इ. सू. भूधातोर्भविष्यथै णिन् ।) भविष्यन्तं पुत्रफलोदयं पुत्र एव फलस्य उदयो यस्य तं अबोचन् । किं लक्षणममुं हृन्मूर्ति हृदयं च मूर्धा च एतयोः समाहार हन्मूर्ध तस्मिन् हृदये मस्तके सुमांचितं सुमैः (कारकं कृता । ३ । १ । ६८ । इ. सू. तृतीया तत्पुरुषः । ) मंदारहरिचन्दनपारिजातादिकुसुमैः अंचितं पूजितं हन्मुनि इति 'प्राणितूर्योगाणां' इति सूत्रेण एकत्वं ज्ञेयम् । अत्र जगत्प्रियं जगतः प्रियस्त विश्वाभीष्टम् ॥ १८ ॥ अदाकचश्वोतनवारिविपुषो, निपीययैश्वातकितं तदामरैः । सतः परं तेषु गतं सुधावधि, पविकक्रियामेव ययौ रसान्तरम् ॥१९॥ (व्या०) मद इति । तदा तस्मिन्नवसरे यैरमर देवैः अद: कचश्चोतनवारिविध्रुषः अमुष्य भगवतः कचा:केशाः तेषां श्चोतनं क्षरणं तस्मिन् वारिणो विग्रुषः जलबिन्दून् निपीय पीत्वा चातकित पप्पीहवदाचरितम् । ततपरं तेषु अमरेषु सुधावधि अमृतावधि रसान्तरमपरोरस' स्वकीयां धिक्कक्रियां निन्दामेव ययो प्राप ॥ १९ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः ४ (१३१ महेशितुः सद्गुणशालिनो ष-ध्वजस्य मौलिस्थितितोऽधिकं बभुः । अमुष्य सर्वांगमुपेत्य संगम, विशुद्धवस्त्रच्छलगावीचयः ॥ २० ॥ (व्या०) महेशितुः ।। विशुद्रवस्त्रच्छलगाझवीचयः विशुद्धं निर्मल च तत् वस्त्रं च तस्यच्छलेन गंगाया इमे गांगागाः (तस्येदम् । ६-३-१६० । इ. सू. गङ्गादात् अण) च ता पीचयश्च कल्लोलाः अमुष्य भगवत सर्वाग संगम उपत्य प्राप्य मौलिस्थितितः मौलौ स्थितितः मस्तकस्थिते. अधिकं बभु. शोभिता । कि लक्षणस्य भगवत· महेशितु महांश्चासौ ईशिता च महेशिता तस्य । (विशेषणं विशेष्यणैकार्थ कर्मधारयश्च । ३ । १ । ९६ । इ सू. कर्मधारयसमासः) सद्गणशालिनः सतां गणा समूहा तैः शालते सद्गणशाली (अजाते शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. शोलेऽर्थे शालधातोः णिन् प्रत्ययः ।) तस्य ५ध्वजस्य (उष्टमुखादयः । ३-१-२३ । इ. सू व्यधिकरणबहुव्रीहि वृषोध्वजे यस्य सः वृषध्वज ।) वृधलाञ्छनस्य पक्षे महेशितु ईश्वरस्य सद्गणशालिनः सन्तोविधमाना नन्ति चन्दिप्रमुखारणास्तै. शालिनः ईश्वरपणाश्चामी । तद्यथा'महाकाल, पुनर्वाणो बनबाहु वृषाणकः वीरभद्रस्तु धीराजोहेरकस्तु कृतालकः ॥१॥ अथ चंडोमहाचंड: कुशीडीककणप्रियः । मजनोऽमजनो छागः छागमोधो महानसः ॥ २ ॥ महाकालकामपालौ संतापनविलेपनौ। महाकपोल: येलोज: शंखर्णश्च शस्तपः ॥ ३ ॥ उक्कामालीमहाजंभ. श्वेतपादः खरांडकः गोपालीप्रामणीटाकर्णकर्णकराध्वमौ ॥ ४ ॥ एभिर्गण. शोभमानस्य ईश्वरस्थ शिरसि गङ्गाकल्लोलाः स्युः । अत्र तु सर्वांगे वस्त्र लगङ्गाकल्लोला अभूपन्निति विशेषः ॥ कचान् विभोर्वासयितुं सुगंधयः, प्रयेतिरे ये जलकेतकादयः । अमीषु ते प्रत्युत सौरभश्रियं, न्यधुर्नमोघा महतां हि सङ्गतिः॥२१॥ (व्या०) कचानिति ॥ जलशब्देन पालकः केतकादयश्च ये सुगंधयः शोभनोगन्धो येषां ते सुगन्धयः (सुपूत्युत्सुर मेधादिद्गुणे । ७-३-१४४ । इ. स. सुपूर्वकग-धशब्दात् इत् ।) पदार्थाः विभोः स्वामिनः कचान् केशान् Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ वासयितुं प्रयेतिरे उपक्रान्ताः । ते कचा. अमीषु जलकेतकादिषु प्रत्युत विशेषतः सौरभश्रियं सौरभस्य श्रीस्तां न्यधुः (कर्तरि अद्यतनी ।) निक्षिप्तवन्त । हि निश्चित महतां महापुरुषाणां संगतिः मोधानिष्फला न वर्तते । भगवतो देहस्य जन्मप्रभृति स्वभावतः सुगंधत्वात् केशादिवासनं देवैव्यवहारार्थमेव कृतम् ॥ २१ ॥ पिनद्धकोटीरकुटीरहीरक-प्रभास्य मौलेरुपरि प्रसृत्वरि । प्रतापमेदस्त्रिमदां विवस्वतो--ऽभिषेणयन्तीवकरावली बभौ ॥२२॥ (व्या०) पिनद्रेति । पिनद्धो (वावाप्योस्तनिक्रोधाग्नहोर्वपी । ३-२ १५६ । इ. सू. अपि स्थाने पिः) बद्धः कोटीरोमुकुटः स एव कुटीरं स्थान तस्मिन् ये हीरकास्तेषां प्रभा । अस्य भगवतो मौलेमस्तकस्य उपरि प्रसृत्वरी (सृजीन राष्ट्रप् । ५ । २ । ७७ । इ. सू. प्रपूर्वकसूधातोः ट्वरप् । हस्तस्य तः पित्कृति इ. सू. तोन्तः । अणयेकण्ननटिताम् । २ । ४ । २० । इ. सू. प्रसत्वरशदात् की ।) प्रसरणशीला सती बभौ शोभिता । किं कुर्वती उप्रेक्ष्यते । प्रतापमेदस्विमदा प्रतापेनमेदस्वीमदो यस्याः सा तां प्रतापस्थूलमदा विवस्तः सूर्यस्य करावली कराणामावली ता किरणश्रेणिं अभिषेणयन्ती इव सेनया भभि सन्मुख यान्तीव ॥ २२ ॥ सनिष्कलंकानुचरः प्रभार्णवं, विगाह्य नावेव दृशा तदाननम् । शिरःपदं पुण्यजनोचितं जनो, ददर्श दूरान्मुकुट त्रिकूटवत् ॥ २३ ॥ (या०) स इति ॥ जनोलोकः त्रिकूटवत् शिखरत्रययुक्तं पक्षे त्रिकूटनामा पर्वतस्तद्वत् त्रीणि कूटानि शिखराणि यस्य स तमिव मुकुटं दूरात् ददर्श । किं विशिष्टोजन. स निष्कलंकानुचरः निर्गतः फलकः येभ्यस्तै निष्कलंका. ते च ते अनुचराश्च निष्कलंकानुचराः निर्दोषानुचरास्त. सहवर्तते इति सनिकलंकानुचर: पक्षे निष्कं सुवर्ण तेन सह वर्तते यथा यां तां लंकामनुचरतीति । किं कृत्वा प्रभार्णवं प्रभाया. अर्णवं समुद्रं तदाननं तस्य भगवत· आननं मुखं तत नावा इव बेडिकया इस दशा दष्टया विगाह्य किं विशिष्टं मुकुट शिरःपदं शिरसि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१३३ मस्तकेपदं स्थानं यस्य तं पुन: पुण्यजनोचितं पुण्या पवित्राः ये जनास्तेषामुचितं योन्य पक्षे पुण्यजना राक्षसास्तेषामुचितं योग्यम् । यथा प्रबाहणिको लोको लंकासमीपे त्रिकूट पर्वतं पश्यति तथा भगवतः शिरसि मुकुटं दृष्टवान् । अत्र मुकुटः त्रिकूटयो. साम्यं मुकुटश दो नपुंसकेऽप्यस्ति ॥ २३ ॥ ललाटपट्टेऽस्य पृथौ ललाटिका-निविष्टमुक्तामिषतोऽक्षराणि किम् । पतिवरे पाठयितुं रतिश्रुति, लिलेख लेखप्रभुपंडितः स्वयम् ॥ २४ ॥ (व्या०) ललाट इति ॥ लेखप्रभुपंडित. लेखाः देवाः तेषां प्रभुः स्वामी इन्द्रः स एव पंडित' इन्द्रः । पक्षे लिखन लेख तद्विषये प्रभुः समर्थः एवंविधपंडितः पृथौ पिरतीणे ललाटपट्टे भाले ललाटिकानिविष्टमुक्तामिषतः ललाटिका (कर्णललाटात् कन् । ६ । ३ । ४१ । इ, सू ललाटशब्दात् भवाथै कल् । अस्या यत्तत् क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । १११ । इ. सू. अस्य इ: । ललाटे भवति ललाटिका) ललाटाभरणं तस्यां निविष्टा स्थापिताः मुक्ता मौक्तिकानि तासां मिपात् स्वयं कि अक्षराणि लिलेख । अन्योऽपि पंडित: पट्टके लिखित्वा । पाठयति किं कर्तुं पतिवरे (भृवृजितृतपदमेश्च नाम्नि । ५-१-११२ । इ. सू. पतिकर्मपूर्वकवृधातोः खप्रत्ययः खित्यनव्ययाऽरुषोर्मोऽन्तोह्रस्वश्च । ३ । २ । १११ । इ. सू मोन्तः पतिं वृणीतः इति पतिवरे । ) सुमंगलासुनन्द रतिश्रुति पाठयितुम् ॥ २४ ॥ उदित्वरं कुंडलकैतवादवि-द्वयं विदित्वा परितस्तदाननम् । क्षतेक्षिते श्रीरिह वषिणामपी-त्यजन्यजन्य विबुधैः फलंजगे ॥२५॥ (व्या०) उदित्वरमिति ॥ विबुधैर्दा तदाननं तस्य भगवत् आननं मुख परितः कुंडलकतवात् कुंडलयोः फैतवं तस्मात् कुंडलमिषात् उदित्वरं (सृजीनशष्ट्वरप् । ५ । २ । ७७ । इ. सू. उत्पूर्वकइधातोः ट्वरप् प्रत्यय हस्वस्य तः पिकृति इ. सू त । उदेति इत्येवंशीलं उदित्वरम् ) उदयनशीलं रविद्वयं सूर्यद्वयं विदित्वा ज्ञात्वा इति अजन्यजन्यं अजन्येन उत्पातेन जन्यं जनितं - -- Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ४ फलं जने लोके उक्त कथितम् । इतीति किं इहलोके रविद्वये सूर्यद्विके ईक्षिते दृष्टे सति वज्रिणामपि इन्द्राणामपि श्री : लक्ष्मीः क्षता क्षयगता । सूर्यवये चन्द्रद्वये दृष्टे राज्ञां नृपाणामुत्पातः स्यादितिभावः ॥ २५ ॥ उदारमुक्तास्पद मुल्लसद्गुणा, समुज्ज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् । तदा तदीये हृदि वासमासदद्, व्रतेऽक्षरश्रीरिव हारवल्लरी ॥ २६ ॥ ( व्या० ) उदार इति ॥ तदा तस्मिन्नवसरे हारवल्लरी तदीये तस्य भगवत इदं तस्मिन् हृदि हृदये वासमासदत् प्राप्ता । केव अक्षरश्रीरिव मोक्षलक्ष्मीरिव । यथा अक्षरश्रीः व्रते दीक्षायां सत्यां तदीये हृदि वासमासादयति । सिद्धिमिच्छन्ति योगिनः इति भाव. । किं विशिष्टा हारवल्लरी उदारमुक्तास्पदं उदाराश्च ताः मुक्ताश्च मौक्तिकानि तासामास्पदं स्थानं उल्लसद् गुणा उल्लसन् गुणो दवरको यस्या' सा समुज्ज्वला निर्मला परं प्रकृष्टं ज्योति' तेज उपेयुषी (वेयिचंदनाश्वदनूचानम् । ५ । २ । ३ । इ. सू. उपपूर्वक इधातोः परोक्षाविषये कसु प्रत्ययः । अधातूदित । २ । ४ । २ । इ सू डी । कलुष्मतौ च । २ । १ । १०५ । इ. सू. कस उष् । उपेयाय इति उपेयुषी ) प्राप्ता । अक्ष- रश्रीः किं लक्षणात् उई आरोगमनं येषां ते उदाराः सिद्धाः उदाराश्च ते मुक्ताश्च सिद्धाः तेषामास्पदं स्थानं । उल्लसन्तः गुणा ज्ञानदर्शनादयो यस्यां सा । परंज्योतिः परब्रह्मसत्कं तेजः प्राप्ता समुज्वला च ॥ २६ ॥ जगत्त्रयीरक्षणदीक्षितौ क्षितौ, भुजौ तदीयाविति न नेष्यते । अवाप हेमा पटुसंज्ञमप्यहो, यदंगदत्वं तदुपासनाफलम् ॥ २७ ॥ ( व्या० ) जगदिति ॥ केन पुंसा इति न इष्यते न मन्यते अपि सर्वेणापि इतीति किं क्षितौ पृथिव्यां तदीयौ तस्य भगवतः इमौ भुजौ हस्तौ जगत्त्रयीरक्षणदीक्षितौ जगतां त्रयी तस्या रक्षणं तस्मिन् दीक्षितौ (तदस्य सज्जातं तारकादिभ्य इतृ. । ७ । १ । १३८ । इ. सू. दीक्षा शब्दात् संजातेऽर्थे इतप्रत्यय अवर्णेवर्णस्य । ७ । ४ । ६८ । इ. सू. आलोपः 1) लक्षणया रक्ष Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१३५ णाय समर्थौ वर्तेते हेतुमाह यत् यस्मात् कारणात् हेम सुवर्ण अपटुसंज्ञमपि अहो इत्याश्चर्ये अंगदत्वं वाहुरक्षत्वं पक्षे देहदाहकत्वमवाप । किं विशिष्टं अंगदत्व तदुपासनाफलं तयोः भुजयो. उपासनायाः ( णिवेत्त्यासश्रन्थघवन्देरनः । ५ । ३ । १११ । इ. स. उपपूर्वक आस्धातोः स्त्रियां भावे अनः । आत् इ. सू आप् ) सेवाया फलम् ॥ २७ ॥ - , प्रकोष्ठकंद कटकेन वेष्टितं विधाय मन्येऽस्य ररक्ष वासवः । स पञ्चशाखोऽमरभूरुहो यदु- वस्त्रिलोकी मदरिद्रितुं क्षमः ॥ २८ ॥ ( ०या० ) प्रकोष्ठ इति ॥ अहं एव मन्ये वासव ( वसति स्वर्गे इति वासवः मणिवसेर्णित् । ५१६ । इ. उ. सू. वसूधातोर्णित् अवः । ति । ४ । ३ । ५० । इ. सृ. उपान्त्यवृद्धि:) पंच अंगुलयः शाखाः यस्य सः । पक्षे स पंचशाख पंचशाखासहित अमर मूरुहः कल्पवृक्ष अमराणां देवानां भूरुहो वृक्ष त्रिलोकीं त्रयाणां लोकानां समाहार · त्रिलोकी (संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाग्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू. समाहार द्विगु द्विगोः समा हारात् । २-४-२२ । इ. सू. स्त्रियां डी) तां त्रिभुवनमदरिद्रितुमदरिद्रीकर्तुं समर्थो वर्तते । यस्मात् कंदात् एवंविधः कल्पद्रुमः स्यात् स कथं न रक्ष्यते इति भाव ॥ २८ ॥ तलं करस्यास्य परं परिष्कृता - खिलांगसाघोर्यदभूद भूषितम् । अवैमि देव्या वसनाय तच्छ्रियो, रतिं न भृम्ना भुवि यन्ति देवताः ॥ ( व्या० ) तलमिति ॥ यत् यस्मात् कारणात् अस्य भगवतः करस्य ( कार्यते अनेन इति करः पुन्नानि घः । ५ । ३ । १३० । इस संज्ञायां करणे घः ।) हस्तस्य तलं परं केवलं अभूषितमनलंकृतं पक्षे न भुवि उषितं अभूषितमभूत् । किं विशि० भगवत' परिष्कृताखिलांगसाधोः परिष्कृतेन अलंकृतेन अखिलेन समस्तेन अंगेन शरीरेण साधुः मनोज्ञस्तस्य अखिलं च तत् अंगं च अखिलांगं परिष्कृताखिलांगं परिष्कृताखिलांगेन साधुस्तस्य । तस्य श्रीः Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६) श्रीजैनकुमारसम्भवायं महाकाव्यम् टीकासमलंतम् ॥ सर्गः ४ तस्याः देव्याः वसनाय अवैमि जानामि । देवता: (देवात् तल । ७-२-१६२ इ. सू. देवशब्दात् स्वाथै तल देवा एव देवताः) भुवि पृथिव्यां भूना बाहुल्येन रति (स्त्रियां तिः । ५ । ३ । ९१ । इ. सू. रम्घातो वे स्त्रियां तिः । यमिरमिन मिगमिहनिमनिवनतितनादेई विडति । ४ । २ । ५५ । इ. स. रम्धातोर्मकारस्य लोपः) प्रीतिं न यन्ति नाप्नुवन्ति । एतावता लक्ष्मीः प्रभोः करतले वसतीति भावः ॥ २९ ॥ सुवर्णमुक्तामणिभासि वासवै-न्यवेशि तस्यापधनेषु येषु यत् । तदीयमुख्यातिभंगभीषणं, विभूषणं तैस्तदमानि दूषणम् ॥ ३०॥ _(व्या०) सुवर्णति । वासवैरिन्द्रः तस्य भगवतो येषु अपधनेषु (अप हन्यते अनेन इति अपघनः निधोद्धसद्धोद्धनाऽपधनोपनं निमितप्रशस्तगणाऽत्याधानाङ्गाऽऽसनम् । ५ । ३ । ३६ । इ. स. अलन्तो निपात्यते) अवयवेषु यत् सुवर्णमुक्तामणिमासि (अजातेः शीले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. भास्थातो. शीलेऽर्थे णिन् ) सुवर्णानि च मुक्ताश्च मणयश्च तैर्भासते इत्येवं शीलं देदीप्यमानं भूषणं न्यवेशि निवेशितम् । तैसिवैः तदीयमुख्यातिभंगभीषणं तस्य प्रभोः इयं तदीया चासौ मुख्यधुतिश्च तस्याः भंगेन भीषणं रौद्रं तत् विभूषणं (विभूयते अनेन इति विभूषणं करणाधारे । ५ । ३ । १२९ । इ. सू. करणे अनट) दूषणममानि येषु प्रभोः अवयवेषु भूषणं निवेश्यते तेन भूषणेन तेषाम पयपानां काचिनिरुपमा कान्तिराछायते ततो भूषगानां दूषगत्वमितिभावः ।। यथा भ्रमयः कमले विकस्वरे, यथा विहंग्यः फलिते महीरहे । उपयुपर्यात्तविभूषणे विभौ, तथा निपेतुस्निदशांगनादृशः ॥ ३१ ॥ ___ (व्या०) यथेति । त्रिदशांगनादश• त्रिदशानां देवानां अंगनाः स्त्रियः तासां दृशः देवांगनाइयः आत्तविभूमणे आत्तानि गृहोतानि विभषणानि अलंकरणानि येन तस्मिन् गृहीतभूषणे विभौ स्वामिनि उपरि उपरि तथा निपेतु पतिताः यया भ्रम? विकस्वरे (स्येश भासपिसकसोबरः । ५ । २ । ८१ । इ. सू. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीफसमलंकृतम् ॥ सगः ४ (१३७ विपूर्वककस्धातो. । शीलेऽर्थे वर ) कमले यथा विहंग्य : (नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५- १ - १३१ । इ. सू. गधातो: खड् विहायसस्तु विहः डित्यन्त्यस्वरादेः इ. सू. अम्लोप: । धवाद्योगादपालकान्तात् । २ । ४ । ५९ । इ. सू. पुंयोगात् स्त्रियां डी विहायसा गच्छन्तीति विहङ्गा : विहङ्गानां भार्याः विहङ्गय' पक्षिण्य' फलिते महीरुहे वृक्षे निपतन्ति । पूर्ववृत्ते भूषणानां दूषणत्वमारोपितम् अत्र तु भूषणकृता शोभा आरोपिता । परं विचित्रा कविव्यावर्णना । यथा भक्तामरस्तवे 'वक्त्रं कते' इति वृत्ते चन्द्रबिंबस्य निन्दाकृता । 'नित्योदयम्' इति वृत्ते पुनरपि चन्द बिम्बोपमा आरोपिता ॥ ३१ ॥ हिरण्यमुक्तामणिभिर्निजश्रिय - चिराच्चितायाः फलिनत्वमाप्यत । अलंकृते नेतार नाकिनां करैः, प्रसाधनाकर्मणि कौशलस्य च ॥ ३२ ॥ (०या० ) हिरण्येति ॥ नेतरि ( णकतृचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. नीधातो. कर्तरि तृच् प्रत्ययः, नामिनो गुणोऽक्ङिति । ४ । ३ । १ । इ. सू. गुणः ) स्वामिनि अलंकृते सति हिरण्यमुक्तामणिभिः हिरण्यानि सुवर्णानि मुक्ताश्च मणयश्च (चार्थे द्वन्द्व सहोकौ । ३ । १ । ११७ | इ. सू. इतरेतरद्वन्द्व) तै चिरात् चितायाः संचितायाः निजस्य श्रीः तस्याः निजश्रियः फलिनत्वं सफलव्वमाप्यत प्राप्तम् । यद्गृहे सुवर्णमुक्तामणयः स्यु' तत्रैव लक्ष्मीर्वसतीति प्रसिद्धि तेषु एव लक्ष्मीवास इति भाव: । च अन्यत् नाकिनां नाकोऽस्ति एषामिति तेषां 'नखादयः' इति सूत्रेण नाक इत्यत्र नकारो निपात्यते नखादित्वात्, नाकिनां देवानां करैर्हस्तैः प्रसाधनाकर्मणि प्रसाधनायाः (णिवेच्या सश्रन्थ वन्दे - रन' । ५ । ३ । १११ । इ. सू. साधि धातोरन' आत् इ सू. आप् ) कर्म तस्मिन् मंडनविधौ कौशलस्य ( युवादेरण । ७ । १ । ६७ । इ. सू. कुशल शब्दात् भावे अणू कुशलस्य भावः कौशलम् ) फलिनत्वं फलवत्त्वं प्राप्तम् ॥३२॥ अथानयत्तस्थ पुरः पुरन्दरः, कृताचलेन्द्र भ्रममभ्रमुपतिम् । व्यसिस्मयद्यत्कटकान्मदाम्बुभिः क्षरद्धिराद्धजवा यमी न कम् ३३ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीफसमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ ( व्या० ) अथेति । अथानन्तरं पुरन्दरः ( पुरन्दर भगन्दरौ । ५ । १ । ११४ । इ. सू. खान्तो निपातः । ) इन्द्रः तस्य भगवतः पुरः अग्रे अमूपतिं अभ्रवाः पतिस्तं ऐरावणं हस्तिनमानयत् । किं विशिष्टं अभ्रभूपतिं कृताचलेन्द्रभ्रमं कृत' अचलेन्द्रस्य हिमाचलस्य भ्रमो येन स कृताचलेन्द्रभ्रमस्तं श्वेतवर्णत्वात् । यमी यमुनानदी कं पुरुषं न व्यसिस्मयत् कं न विस्मापयति स्म अपि तु सर्वमेव । किं विशिष्टा यमी यत्कटकात् यस्य कटकं यत्कटकं तस्मात् यत्कपोलात् । पक्षे कटकात् पर्वतमध्यप्रदेशात् क्षरद्भिः मदाम्बुभिः मदस्य अम्बूनि तैः मदजलैः आ सामस्त्येन बद्ध' जवो यया सा आबद्धजवा । हिमवतो गंगा प्रभवति न तु यमुना इत्याश्चर्यम् ॥ ३३ ॥ अगुप्तसप्तांगतया प्रतिष्ठित - स्तरोनिधिर्दानविधिस्फुरत्करः । प्रगूढचारः सकलेभराजतां, दधौ य आत्मन्यपरापराजिताम् ॥३४॥ · ( व्या० ) अगुप्तेति । य ऐरावण' आत्मनि विषये अपरापराजितां अपरे अन्यैः अपराजितां अनर्जितां सकलेभराजतां सकलाश्च ते इभाश्च सकलेमा तेषु राजतां समस्तहस्तिराजत्वं दधौ । किं लक्षणो राजा च अगुप्तसप्तांगतथा अगुप्तानि प्रकटानि शुंडा पुच्छं मेढं पादाश्च सप्तांगानि पक्षे स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्ग - लानि चेति सप्तराज्यागानि तद्भावेन प्रतिष्ठितः । पुन: तरोनिधिः तरस: निधिः तरोनिधिः तरो वेग' पक्षे बलं । पुनः किं वि० दानविधिस्फुरत्करः दानं मदजलं तस्य विधौ स्फुरन् करः शुंडादंडो यस्य सः पक्षे दानं वितरणं तस्य विधौ स्फुरन् करो हस्तो यस्य सः । पुनः किं वि० प्रगूढचार प्रगूढ: चारो गतिर्यस्य सः पक्षे प्रगूढा' चारा चरपुरुषा यस्य स ॥ ३४ ॥ क्रमोन्नतस्तंभचतुष्टयांचितः, शुभंयुकुंभद्वितयं वहन् पुरः । गवाक्षकल्पश्रुतिरग्र्यदन्तको, जगाम यो जंगमसौधतां श्रिया ||३५|| ( व्या० ) क्रमोन्न इति । य ऐरावणः श्रिया लदग्या जंगमसौधतां जंगमं च तत् सौधं च जंगमसौधं तस्य भावो जगमसोघता तां चलदावासत्वं जगाम । किं विशिष्ट ऐरावणः सौधं च क्रमोन्नतस्तंभचतुष्टयांचितः क्रमाश्चरणाः एव Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्गः ४ (१३९ उन्नताश्च ते स्तंभाश्च क्रमोन्नतस्तंभास्तेषां चतुष्टयन अंचितो युक्तः । किं कुर्वन् । पुरोऽग्रे शुभंयुकुंभद्वितयं शुभंयु (हिंशुममो युस् । ७।२।१७। इ. सू. शुभम् अव्ययात् युस् प्रत्ययः ।) शुभसंयुक्तं च तत् कुंभयोतिय कुंमस्थलद्वितयं वहन् । जापाक्षकल्पश्रुतिः इधदसमाप्तौ गवाक्षौ इति गवाक्षकल्पे गवाक्ष-(गोर्नान्यवोऽक्षे। १-२-२८ । इ सू. गोशब्दस्य ओकारस्य अक्षे परे अव इत्यादेशे गवाक्षः ।) कल्पे (अतमबादेरीषदसमाप्ते कल्पप् देश्यप् देशीयर् । ७ । ३ । ११ । इ. सू. गवाक्षादात् इषदसमाप्तेऽर्थे कल्पप् प्रत्ययः) श्रुती कर्णौ यस्य सः गवाक्षसदृशकर्णः । अग्र्यदन्तकः अया. दंता एव दन्तका यस्य सः । सौधमपि कमेण उन्नत चतुष्टयांचितं स्यात् । पुरः कुंभद्वितयं कलशद्वितयं वहति च गवाक्षयुक्तं स्यात् । अग्र्याः प्रधाना दंतका घोटकाकारकाष्टानि यस्मिन् तत् एवंविधं च स्यात् । एवं हस्तिसौधयोः सादृश्यं ज्ञेयम् ॥ ३५ ॥ वृषध्वजेशानविभोः पविश्यते, सदासनं किं मम नो मनागपि । चटूक्तिमाद्यस्य हरेः प्रमाणय-निवेति तं वारणमारुरोह सः ॥३६॥ (40) वृषध्वजेति ॥ स भगवान् वारणं गजं आरुरोह चटितः किं कुर्वन् उत्प्रेक्ष्यते आधस्य हरे. सौधर्मेन्द्रस्य इति चटूति चाटुवचनं प्रमाणयन् इव प्रमाणं कुर्वन् इव । इतीति किं हे वृषध्वन वृषलांछन क्या ईशानविभोः ईशानस्य विभु. स्वामी तस्य ईशानेन्द्रस्य आसनं सदा निरंतरं पवित्र्यते पवित्री क्रियते । ममासनं मनागपि स्तोकमपि कि नो पवियते । ईशानेन्द्रस्य वाहन वृषभ भगवानपि वृषव्व(ज) इति भाव ॥ ३६॥ शरधनः काश्चनदंड पांडुरा-तपत्रदंभाचडिता कृताश्रयः । जनरदातेति जुगुप्सितो जिनं, न्यषेवताध्येतुमदारतामिव ॥ ३७॥ (०या०) शरद्धन इति ॥ काश्चनदंडपांडरातपत्रदभात् काश्चनस्य दंडो यस्य तत् काश्चनदंड एवंविधं पांडुरं च तत् आतपत्रं (आतपात् त्रायते इति आतपत्रं स्थापानात्रः कः । ५-१-१४२ । इ. स. आतपपूर्वकनाधातोः कः) च श्वेतच्छनं तस्य दंभात् मिषातू तडिता विधुता कृताश्रयः कृतः आश्रयो यस्य सः Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ सन् शरधनः (मूर्तिनिचिताभ्रे घनः । ५ । ३ । ३७ । इ. सू. हन्धातोः अल् प्रत्ययः धनादेशश्च निपात्यते) शरदः घन शकालमेघो यं भगवन्तं न्यवेवत सेवते स्म । सुवर्णदंडो विद्युत्सदृशः छत्रं च मेघसघशमिति । किं कर्तुं उत्प्रेक्ष्यते उदार्यतां उदार्यगुणमध्येतु शिक्षितुमिव । कि लक्षणः शरद्घनः जनलोकः अदाता न दाता अदाता कृपण इति जुगुप्सितो निन्दितो गर्हितः । 'गर्जति शरदि न वर्षति' इति वाक्यात् ॥ ३७॥ विहाय नूनं शशिनं कलंकिन, प्रकीर्णकछमधरः करोत्करः। शुचि बभाजोभयतस्तदाननं, विधुं विधाय प्रणति मुहुर्मुहुः ॥३८ ।। (व्या०) विहायेति ॥ नूनं निश्चित कलंकिन (अतोऽनेकरवरात् । ७ । २। ६ । इ. सू. कलङ्कशब्दात् मत्वर्थ इन्) कलकोऽस्यास्तीति कलकी तं कलंकयुक्त शशिनं चन्द्रं विहाय त्यक्त्वा करोत्कर: कराणां किरणानामुत्करः समूह किरणसमूहः मुहुर्मुहुः वारंवार उभयत: (किमयादिसधिवैपुल्यबहोः पित् तस् । ७ । २ । ८९ । इ. सू. उभयशदात् पञ्चभ्यर्थे तस्) द्वयोः पाययोः प्रणति (स्त्रियां क्तिः । ५ । ३ । ९१ । इ. सू. प्रपूर्वकनम्धातो वे स्त्रियां तिः । यमिरमिनमिगमिहनिमनिवनतितनादेधु विक्ति । ४-२-५५ इ. सू. अनुनासिकलोपः । अदुरुपसर्गा-तरोणहिनुमीनाने । २ । ३ । ७७ । इ. सू. प्रपूर्वकनम्धातोकारस्य णत्वम्) प्रणाम विधाय कृत्वा शुचिं पवित्रं तदाननं तस्य भगवतः आननं वदनं विधुं चन्द्रं भगवन्मुखचन्द्र बभाज सेवते स्म । कि विशिष्टः करोत्कर' प्रकीर्णक अवरः प्रकीर्णकयोः चामरयोः छगं मिष धरतीति प्रकीर्णक अधर ॥ ३८ ॥ विमुक्तवैरा मृदुतिग्मताजुषः, सुरासुराः स्त्रोचितचिन्हमासुराः । प्रभु परीयुः शशिभास्वतोरिवां-शवो दिवो गोत्रमुदारनन्दनम् ॥३९॥ (च्या०) विमुक्तरा इति ॥ सुरासुरा सुराश्च असुराश्च सुरासुरा. (चार्थे इन्द्र सहोतो । ३ । १ । ११७ । इ. सू इतरेतरद्वन्द) देवदानवाः प्रभु (सम्वविप्राद् भुवो डुः । ५ । २ । ८४ । इ. सू. प्रभूर्वकभूधातोः डुः ।) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१४१ स्वामिन परीयु परिवनुः । किं लक्षणा सुरासुरा विमुक्तवैराः विमुक्तं वैरं यैस्ते परस्परं प्रीतिभाज: । मृदुतिग्मता जुष मृदु च तिग्मता च मृदुतिग्मते ते जुषन्ते सेवन्ते इति मृदुतिग्मताजुप सौकुमार्यतत्रत्वसेविन: । स्वोचितचिन्हमासुराः स्वस्य आत्मन' उचितानि योग्यानि च तानि चिह्नानि च 'चूडामणि फणिगरुडे वज्जे तह कलस सीह अस्सेय ' इत्यादि चिह्नानि लाञ्छनानि तैर्भासुराः (भञ्ज भासिमिदोधुरः | ५ | २ । ७ । इ सू भासूघातो. शीलादिसदर्थे धुरप्रत्यय) देदीप्यमाना । केइ गणिभास्वतो. शशी च भास्वांश्च शशिभास्वन्तौ (तदस्थास्त्यस्मिन्निति मतु' । ७ । २ । १ । इ. सू. भास् गब्दात् अस्त्यर्थे मतु' भावर्णान्तोपान्तापञ्चमवर्गान् मतोर्मोव । २ । १ । ९४ । इ. सू. भास्शब्दात् मतोर्मस्य वः ।) तयोः चन्द्रसूर्ययोः अंशव' किरणाः इव । शशिभास्वतोः किरणाः दिवो गोत्रं मेरुपर्वतं परियन्ति परिवृण्वन्ति किं विशिष्टं प्रभुं मेरुं च उदारनन्दनं उदारं नन्दनं समृद्धिकरं च मेरुपक्षे उदारं नंदनं वनं यस्य सः तं । शशिभास्वतोः कराअपि मृदुतिग्मताजुषो भवन्ति ॥ ३९ ॥ प्रभुः प्रतस्थेऽथ बुधे स्वधैर्यता, समेधयन् रक्तिविरक्तिसंशयम् । न मारतारुण्य विभुत्वयोगजा - मिमानघोरासवचूर्णिते क्षणः ॥ ४० ॥ ( व्या० ) प्रभुरिति ॥ अथानंतर प्रभु श्री ऋषभदेव प्रतस्थे परिजेतुं ' चलित' किं कुर्वन् प्रभु. बुधे विदुषि स्वधैर्यंत स्वस्य धैर्यत आत्मीयधोरत्वात् रक्तिविरक्तिसंशयं रक्तिश्व विरक्तिश्व रक्तिविरक्ती तयोः पुन्नानि घः । ५ -३ - १३० इ. सू. संपूर्वकशीधातो. आधारे घः समन्तः शेते आत्मा अस्मिन् इति संग | (नामिनो गुणोऽति । ४-३ - १ । इ. सू. गुण' । एदैतोऽयाय् । १-२-२३ 'इ. सू. अयादेश: 1 ) रागवैराग्यसंदेहं समेधयन् (प्रयोक्तृव्यापारे णिम् । ३ । ४ । २० । इ. सू. संपूर्वकध्धातो प्रयोक्तव्यापारे णिग् शत्रानशावेिष्यति तु सस्यौ । ५ । २ । २० । इ. सू. शतृप्रत्यय . ) सामस्त्येन वर्द्धयन् । पुनश्च नमारतारुण्यविभुत्वयोगजाभिमानघोरासव घूर्णितेक्षण मारश्च तारुण्य च (पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिम्य: कर्मणि च । ७ । १ । ६० । इ. सू. तरुणशब्दात् "/ , Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२) श्रीजैनकुमारसम्भवात्यं महाकाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्गः४ व्य तरुणस्य भावः तारुण्यम् ) विभुत्वं च प्रभुता मारतारुण्यविभुत्वानि तेषां योगात् जातः उत्पन्नः स चासौ अभिमानश्च स एव धोरः आसवः मदिरा तेन चूर्णिते चपले ईक्षणे नेत्रे यस्य सः स नभवतीति न चूर्णितलोचन इत्यर्थः ॥४०॥ अभाति लावण्यभरे स्वभावतोऽप्यनुष्यदेहे किमुतोत्सवे तदा । स्थितानुपृष्ठं लवणं सुरांगनो-चितं समुत्तारयति स काचन ॥ ४१ ॥ (व्या०) अमातीति ॥ काचन सुरांगना अनुपृष्ठं पृष्ठस्य पश्चात् अनुपृष्ठं पश्चादर्थे विभक्तिसमीपतिसूत्रेण अव्ययी भावः समासः भगवतोऽनुपश्चात् स्थिता सती लवणमुचितं योग्यं समुत्तास्यति स्म । (स्मेचवर्तमाना । ५ । २ । १६ । इ. सू. स्मयोगे भूते वर्तमाना) क सति अमुष्य भगवतोदेहे स्वभावतोऽपि (अहीयरुहोऽपादाने । ७।२ । ८८ । इ. सू. स्वभावशब्दात् पञ्चम्यर्थे तस्) स्वभावादपि लावण्यभरे लावण्यस्य भर समूहः लावण्यभरस्तस्मिन् अमाति सति नमातीति अमान् तस्मिन् । तदा उत्सवे किमुत किमुच्यते ॥ ४१ ॥ वरस्य दृष्टान्तयुतं पुरस्सरी, सुरीषु यं यं धवलै गुणं जगौ । न तत्र तत्र स्वमवेत्य किं शची, शुशोच हीनोपमयापराधिनम् ॥४२॥ (व्या०) वरस्येति ॥ शची इन्द्राणी सुरीषु देवीषु पुरस्सरी पुरः सरति इति पुरस्सरि (पुरोऽप्रतोऽग्रेसतः । ५ । १ । १४० । इ. सू. पुरः पूर्वक सरते: टः । अणजेयेकण न नटिताम् । २।४ । २० । इ. सू. त्रियां डोः।) अग्रेसरी सती वरस्य श्रीऋषभदेवस्य धवले: धवलमङ्गलः कल्पद्रुमकामधेनुचिन्तामणिकामकुंभप्रतिष्टान्तयुतं दृष्टान्ततः तं यं यं औदार्यधैर्यगांभीर्यमाधुर्यादिगुणं जगी गायति स्म । तत्र तत्र हीनोपमया होना चासौ उपमा च तया स्वं अपराधिनं अवेत्य ज्ञात्वा किं न शुशोच अपि तु शुशोच शोचति स्म ॥४२॥ फलानि यासामशनं शुभूहां, सुधारस पानविधिस्तदुवैः । उलूलगानः प्रमदः सुधाभुजा, भुजान्तरीयोऽपि मुमूर्छ कौतुकम् ॥४३॥ (न्या०) फलानीति ॥ यासां देवांगनानां घुभूरुहाणां दिवः भूरुहाः तेषां कल्पवृक्षाणां फलानि अशनं भोजनं वर्तते । यासां सुधारसः अमृतरस: Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१४३ पानविधि स्यात् । तदुद्भवः ताभ्यो देवांगनाभ्यः उद्भवानि जातानि तदुद्भवानितैः देवांगनाजातैः उदलगानै धवलगानैः सुधाभुजां (कि५ । ५ । १ । १४८ । इ. सू. सुधापूर्वक ज्धातोः विप् ।) भुजान्तरं हृदयं तत्र भवः भुजा-तरीय (भवे । ६ । ३ । १२३ । इ. सू. भुजा-तरशदात् भवेऽर्थे ईयः) हृदयसंबंधी अपि प्रमदो हर्षों (संमदप्रमदौ हर्षे । ५ । ३ । ३३ । इ. सू. अलन्तो निपातः) मुमूछमूर्छा प्राप । तत् कौतुकं ज्ञेयम् । भुजान्तरं हृदयं इदं वयते । तनात अमदोऽपि दृढवस्तु हस्य च मूछी कथमिति अर्थशद्रोद्योतयति । कोऽर्थः अमृतरसभोजिनीभ्यः अमृतरसपायिनीभ्यो देवांगनाभ्यो जाता धवला अपि अमृतमयाः स्युः । सुधाभोजिनां अमृतभोजिना प्रमदोऽपि मूछा कथमानोति । परमे च विधौ सत्यपि धवलय प्रमदो हर्षों मुमई तत् कौतुकं ज्ञेयम् । पक्षे मुमूर्छ वृद्धि प्राप्त इति भावः । देवानां फलाशनं अमृतपानं देवानामपि सुधाभोजित्वं लोकसन्या ज्ञेयम् । अन्यथा कालिकाहारस्य निषिद्धत्वात् ॥ ४३ ॥ हरौ पदातित्वमिते जगत्रयी-पतौ सितेभोपगते सुरः क्षणम् । किमेष एव शुसदीशितेत्यहो, वितर्कितं च क्षमितं च तत्क्षणम् ॥४४॥ (व्या०) हराविति ॥ हरौ इन्द्रे पदातित्वं (पादाभ्यामततीतिपदातिः पदार्भावः पदातित्वं । पादाचत्यजिभ्यामित्युणादि सू० ६२० । पादपूर्वक अत् धातोः णिदिः । पदः पादस्याज्यातिगोपहते । ३ । २।९५ । इ. सू. पादस्यपदादेशः ।) पादाभ्यामतति गछतीति पदातिः तस्य भावः पदातित्व पादचारित्वं इते गते प्राप्ते सति जगत्त्रयोपतो जगतात्रयी जगत्रयी तस्याः पतिः स्वामी तस्मिन् श्रीमदेव सितेभोपगते सितश्चासौ इभश्च सितेभः तं उपगतः सितभोपगतः तस्मिन् ऐरावणाधिरः सति सुरैः देवैः अहोइत्याश्चय क्षणं इति तर्कित ईशं विचारितम् । इतीति कि कि एष एव ऐरावणाधिरूढी घुसदाशिता इन्द्रः पुनश्च तत्क्षणं क्षमित क्षाभ्यते स्म । कोऽर्थ इन्द्रः स्वलोकस्यस्वामी श्री*पभदेवस्तु त्रिलोकाधिपतो इन्द्रनाति ज्ञात्वा देवः क्षामितमितिभावः ॥ ४४ ॥ , समप्रवम्विमवयस्मरः स्मर-ध्वजवजस्यध्वनिरंपराध्वनि। , अवासमूळ स्वयमातु मूछित, यमः किमुनीपयितुं प्रभो मरम् ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (०या०) समग्रेति ॥ लालनालतांतिफूलपडह इति । लोकोक्तपञ्चशब्दरूपस्य स्मरध्वजवजस्य स्मरथ्वजानां वादित्राणां व्रजः समूह: तस्य वादित्रसमूहस्य ध्वनिः शब्दः अम्बराध्वनि अम्बरस्य अध्वा तस्मिन् आकाशमार्गे स्वयं अवातमन्छ: अवामा प्राप्ता मूछना येन सः सन् प्रभौ श्रीऋषभदेवे मूर्छित कंदर्प उत्प्राबल्येन जीवयितुं कि क्षमः समर्थोऽस्तु अपि तु नैव । स्वयं प्राप्तमूछ कथमन्यं मूर्छित जीवयितुं समर्थ स्यात् । परं वादिनविशेषणे माशब्देन वृद्रिया। मूर्छित अचेतनं प्राप्तमिति एतावता वाघरवं श्रुत्वा भगवतो हृदि कामो नोत्पन्न इति भावः । किं लक्षणो ध्वनिः समनवाग्वैभववस्मरः वाचां वैभवः वाग्वैभवः सर्वश्चासौ 'वाग्वैभवश्च समजवावभवः तस्य धस्मरः (सधस्यदोभरक । ५। २ । ७३ । इ. सू. घस्धातोभरक) सर्ववचनविलासभक्षकः स्मरध्वजनजः स्मरस्य ध्वजाश्चिह्नानि वा तेषां व्रजः समूहः स्मरं जीवयितुमुपक्रमते परं स एव प्राप्तम ऽभूत् ततो मूर्छित स्मरं कथं जीवयितुं क्षमः स्यादिति व्यंग्यम् ॥ ४५ ॥ . • सुपर्वगंधर्षगणाद्गुणावली, पिबनिजामेव न सोऽतुपत्तराम् । अभूत्युनन्यङ्मुख एव दोष्मतां, नपा स्वकोशे परहस्तगे न किम् ।। (व्या०) सुपर्व इति ॥ स भगवान् सुपर्वगंधर्वगणात् सुपर्वाणश्चगंधर्वाश्च सुपर्वगंधर्वाः तेषां गण समूहस्तस्मात् देवगन्धर्वसमूहात् निजी एव स्वीयां गुणावली गुणानामावली तामात्मीयामेव गुणश्रेणि पिबन् सन् न अतुषत्तराम (किन्न्याधेऽध्ययादसावे तपोरन्तस्याम् । ७ । ३ । ८ । इ. स. अतुपत् क्रिया पदात् तरप् । ततः तस्य: आमि अतुषत्तराम् वत्तस्याम् । १ । १ । ३४ । इ. स्. अतुषत्तराभित्यस्य अव्ययसंज्ञा ।) न अतिशयेन संतुष्टः । पिबन्निति अत्यादरात् श्रवणपानमुच्यते । पुनः परं न्यग्मुख एव अधोमुखएव अभूत् । दोष्मतां बलवता स्वकोशे स्वस्य कोशस्तस्मिन् आत्मीयमांडागारे परहस्तगे (नाम्नोगमः खड्डा च विहायसस्तुविहः । ५ । १।१३१ । इ. सू. गम्धातोः डः । डित्यन्त्यस्परादे इति अन्त्यस्वरादिलोपः ।) परस्यहस्तः परहस्तरतं गच्छतीति तस्मिन् अन्यहस्तगते सति किं त्रपा (पितोऽड् । ५ । ३ । १०७। इ. सू. त्रप्धातो: अड् आत् इ. सू. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१४५ स्त्रियां आपि त्रपा इति) लज्| न अपि तु स्यादेव । स्वकीयाः सारभूताः गुणाः यदि परहस्तगताः स्युः तदा कथं त्रपा न स्यादिति कर्भावः ॥ ४६ ।। मुदश्रुधारानिकरैर्घनायिते, धुसञ्चये कांचनरोचिरुवंशी । प्रणीतनृत्याकरणैरपप्रथ-तडिल्लताविभ्रममभ्रमंडले ॥ ४७ ॥ (व्या०) मुदश्रु इति । कांचनरोचि कांचनस्य रोचिरिब रोचिर्यस्था सा कांचनरोचि स्वर्णरुक । उर्वशी देवनर्तकी अभ्रमंडले अभ्राणां मंडलं तस्मिन् आकाशमंडले तडिल्लताविभ्रमं तडित् एव लता तडिलता तस्या विभ्रमस्तं विधुहल्लीनमं अपप्रथत् विस्तारयति स्म । किं लक्षणा उर्वशी करणैः प्रणीतनृत्या प्रणीतं रचितं नृत्यं (दुपान्त्यादपिचूदृचः । ५ । १ । ४१.। इ सू क्यपि नर्तितुं योग्यं नृत्य) नाटकं यया सा कृतनाटका । क सति अभ्रमंडले आकाशे धुसच्चये (किप। ५ । १ । १४८ । इ. सू. दिवशब्दे उपपदे सद्धातोः किम् ) दिवि सीदन्तीति द्युसदो देवान्तेषां चय समूहस्तस्मिन् देवसमूहे मुदश्रुधारानिकरै मुदो हर्षस्य अश्रूणि तेषा धारास्तासां निकरा. समूहा. हर्षाश्रुजलधारासमूहः धनायिते मेधवाचरिते सति ॥ ४७ ॥ विलग्नदेशस्तनुरुन्नतस्तन-द्वयातिभारव्यथितोऽस्य भाजि मा । घनांगहारोघविघूर्णितं वपु, विलोक्य रांभं त्रिशा इदं जगुः ॥४८॥ . (या०) विलनदेश इति ॥ त्रिदशा देवा (भं (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ सू रंभाप्दात् इदमर्थेऽण् । ) रंभाया इदं रामं तत् वपु शरीरं घनांगहारोचविधूर्णितं धनैर्बहुभि अंगहाराणा अंगविक्षेपाणां ओधै समहर्विघणितं भ्रामितं विलोक्य दृष्ट्वा इदं जगु । इढमिति किं अस्य वपुषो विलनदेश उदरप्रदेश तनु कृ२सन् उन्नतस्तनद्वयातिभारव्यथित स्तनयोईयं युगलं स्तनयं उन्नतं च तत् स्तनद्वयं च तस्यातिभारेण व्यथित उच्चस्तनयुग्मातिभारपीडितः मा भाजि मा भज्यताम् ॥ ४८ ॥ प्रकाशमुक्तास्त्रगसंकुचस्तन-द्वय घृताच्यानटने निरीक्ष्य कः । कृती न कुंभावतिगूढमौक्तिका-वभर्सयां भनिशुंभिकुभिनः ॥४९॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः ४ .. (व्या०) प्रकाशइति ॥ कः कृती कृतमनेनेति कृती (इष्टादेः । ७११ १६८ । इ. सू. कृतशब्दात् कर्तरि इनि) कुशल: वृताच्यादेवनर्तक्या नटने नृत्ये प्रकाशमुक्तात्र गसकुचत् मुक्तानां सज: मुक्तास्त्रज. प्रकाशाचताः मुक्तास्रजश्च ताभिरसंकुचत् प्रकटमुक्तामणिमालाभिरसंकुचत् । स्तनयोईयं युग्मं स्तनयुग्मं निरोक्ष्य दृष्ट्वा । जंभनिशुंभी इन्द्रस्तस्यकुंभिनो (अतोऽनकस्वरात । ७।२।६। इ. सू. कुंभगन्दात मत्वर्थे इन् । ) हरितन अतिगूढानि मौक्तिकानि ययोस्तौ तौ कुंभौ न अमर्सयत् न निन्दति स्म अपितु सर्व कोऽपि ॥ ४९ ॥ तिलोत्तमा निर्जरपुंजरंजनार्थिनी कलाकेलीगृहं ननर्त यत् । सुरैस्तदंगद्युतिरुद्धदृष्टिभिः, प्रभूवभूवे तदवेक्षणेऽपि न ॥ ५० ॥ (व्या०) तिलोत्तमेति ॥ तिलोत्तमा यत् ननर्त यत् नृत्यं चकार किं लक्षणा तिलोत्तमा निर्जरपुंजरंजनार्थिनी निर्जराणा देवानां पुज. समूह तस्य रंजने अर्थिनी कलानां केलीगृहं कलालीगृहं क्रीडास्थानं अत्र रूपकात् गृहशब्दस्य न स्त्रीत्वं । तदंगधुतिरुद्रदृष्टिभिः तस्यास्तिलोत्तमाया• अंगद्युति अंगकान्तिः तया रुद्रा घटयो लोचनानि येषां ते तैः सुरद वै. तदवेक्षणेऽपि तस्य नृत्यस्य अवेक्षणमालोकन तस्मिन्नपि न प्रभूबभूवे (कृस्वस्तिभ्यांकर्मकर्तभ्यांप्रागतत्तत्वे चि । ७ । २ । १२६ । इ. सू. भूधातुयोगे प्रभुशब्दात् प्रागभूत तद्भावे च्चिः । दीर्घश्वयङ्यक्येषु च । ४ । ३ । १०८ । इ. सू. प्वोपरे प्रभु. शब्दस्योकारस्य दीर्घ. 1) न समर्थीभूयते स्म ॥ ५० ॥ अचालिपुः केऽपि पदातयः प्रभोः, पुरो विकोशीकृतशस्त्रपाणयः । अमूमुहत्कि विवुधानपि भ्रमः, सजन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भवः ॥५१॥ (व्या०) अचालिपुरिति ॥ केऽपि देवाः प्रभो स्वामिनः पुरोऽग्रे अचालिपुश्चलिताः किं लक्षणा सुराः विकोशीकृतशत्रपणियः विगतः कोशो येषां तानि विकोशानि न विकोशानि अविकोशानि अविकोशानि विकोशानि यथा संपद्यमानानि इति विकोशीकृतानि तानि चतानि शस्त्राणि च पाणौ येषां ते ('मुखादयः' । ३ । १ । २३ । इ. सू. व्यधिकरणबहुव्रीहि:) प्रत्याकार Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सगः ४ (१४७ रहितशस्त्रहस्ताः । स सर्वप्रसिद्धो जन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भव (अभिधीयते अनया इति अभिश्रा उपसर्गादातः । ५ । ३ । ११० । दृ सू अभिपूर्वकधाधातोः भावाकर्त्रीरड् । 'आत्' इ सू. आप् ) विवाहयात्रोत्पन्न पक्षे संग्रामयात्रोत्पन्नो भ्रम कि विबुधान् देवान् विदुषोऽपिवा किं अमृमुहत् मोहयति स्म । किमिति संगये ॥ ५१ ॥ प्रसिद्धः एकः किल मंगलाख्यया, ग्रहाः परेऽष्टावपि मंगलाय ते । इतीरयन्तीव सुरैः करे धृता, पुरोगतामस्य गताष्टमंगली ॥ ५२ ॥ ( व्या० ) प्रसिद्ध इति ॥ सुरेंदेवे करे धृता दप्पण १ भद्दासण २ चंद्रमाण ३ वरकलस ४ मच्छ ५ सिरिवछ ६ सच्छिय ७ नंदावत्ता ८ कहिया अमंगलगा' एवंविधा आगमोक्ता अष्टमंगली अस्य भगवत पुरोगतामग्रेसरत्वं गताप्राप्ता । उत्प्रेक्ष्यते - इतीरयन्ती ईदृक् कथयन्तीव । इतीति किं किल इति सत्ये मङ्गलाख्यया एकोग्रह. प्रसिद्धो वर्तते परे आदित्याद्या अष्टावपि (वाष्टन आः स्यादौ १ । ४ । ५२ । इ. सू अष्ट शब्दस्य जसि परे आत्वं अष्टा जस् । अष्ट और्जस् शसोः । १ । ४ । ५३ । इ. सू जस औत्वे दौत् सन्ध्यक्षरै । १ । २ । १२ इ. सू औत्वे अष्टौ ) ग्रहास्ते ( युवर्णवृध्वशरणगमद्यह । ५ । ३ । २८ । इ. सू. धातोर्भावाकरल ग्रह : ) तव मंगलाय भवन्तु ॥ ५२ ॥ प्रबुद्धपद्मा न न नादिषट्पदा, उदारवृत्ताः सुरसार्थतोषिणः । पुरोऽस्य कल्याणगिरि स्थिता स्तुति - व्रतादधुनकतटाकसौहृदम् । ५३| ( व्या० ) प्रबुद्ध इति ॥ स्तुतिव्रता भट्ट । अस्य जिनस्य पुरोऽग्रे नाकतटाकसौहृदं नाकस्य तटाकानि सरोवराणि तेषां सौहृदं (शोभनं हृदयं यस्य सः सुहृत् सुहृद् दुर्हृन् मित्रामित्रे । ७ । ३ । १५७ । इ. सू. बहुव्रीहौ सुहृत् सुहृदः कर्म सौहृदं युवादेरण् । ७ । १ । ६७ । इ. सू. कर्मणि अणू 1 ) सादृश्यं तत्स्वर्ग - सत्कसरोवरसादृश्यं दधुर्धरन्ति स्म । किं लक्षणाः स्तुतित्रताः प्रबुद्धपद्मानननादिषट्पदाः प्रबुद्धेषु पद्मवत् आननेषु वदनेषु नदन्ति इत्येवं शीलाः शब्दायमानाः षट्पदाः छंदोविशेषा येषां ते । उदारवृत्ताः उदाराणि वृत्तानि कवित्वानि येषां Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ ते । सुरसार्थतोषिण शोभनोरसो येषां ते सुरसाः ते च ते अर्थाच सुरसार्थास्तैः तोषयन्ति हर्षयन्तीत्येवं शीलाः कल्याणगिरि कन्यागा चासौ गीश्च तस्यां शुभवाण्यां स्थिता । अथ नाकतटाकानां विशेषणानि किं लक्षणा नाकतटाकाः प्रबुद्धपद्मा: प्रबुद्धानि विकसितानि पद्मानि कमलानि येषु ते विकसितकमला न ननादिषट्पदानादिन घट्पदा भ्रमरायेषु ते एवं विधा न इति न अपि तु नादिपट्पदा गुंजमरा ' द्वौ नञौ प्रकृत्यर्थ गमयतः' इति नियमात् उदारवृताच वृत्ताकाराः । सुराणां देवानां सार्थाः समूहास्तान् तोषयन्तीयेवंशीलाः कल्यास्य सुवर्णस्य गिरि पर्वतस्तस्मिन् मेरुपर्वते स्थिताः ॥ ५३ ॥ अभर्मभृत्यश्चलितेऽर्हति प्रभाः, प्रभाकरः स्वा विनियुक्तवांस्तथा । यथा वृथाभावमवापनोदिवा, न तापमापत्सत जान्यिका अपि ॥ ५४ ॥ ( व्या० ) अभर्म इति । प्रभाकरः (संख्याऽह दिवाविभानिशाप्रभा-ट्टः । ५ । १ । १०२ । इ. सू. प्रभापूर्वक कृग्धातोः टः प्रभां करोतीति प्रभाकरः । ) सूर्य अर्हति श्री ऋषभदेवे चलिते सति वा आत्मीयाः प्रभा तथा विनियुक्तवान् व्यापारितवान् । किं लक्षण: प्रभाकर अभर्मभृत्य अभर्मणा ( म्रियते अनेनेति भर्म । मनू इ. उ. सू. भृधातोः मन् । न भर्म अभर्म 1 ) भृत्य (भृगोऽसंज्ञायाम् । ५ । १ । ४५ । इ. सू. भृधातो. असंज्ञायां क्यप् । ह्रस्वस्य त' पिकृति | इ. सू. तोन्त । ) ग्रासं विना सेवक । यथा दिवा दिनं वृथाभावं न अवाप न प्राप | जान्यिका (हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यम् । ७ । १ । ११ । इ. सू. जन्यशब्दो निपात्यते । विनयादिभ्यः । ७ । २ । १६९ । इ. सू. स्वार्थे इक । जवर्णे इकण् वर्णस्य । ७ । ४ । ६८ । इ. सू. अलोपः जन्या एव जान्यिका) अपि तापं न आपत्सत न प्राप्तवन्तः ॥ ५४ ॥ तथा प्रसन्नत्वमभाजिमार्गगे, जगत्रयत्रातरि मातरिश्वना । यथा दृगांध्यं न रजस्तनूमतां, चकार धर्मास्तु च चिक्लिदं वपुः || ( व्या० ) तथेति ॥ मातरिश्वना (श्वन् मातरिश्वन् ति । ९०२ । इ. उ. मू अन् प्रत्ययान्तो मातरिश्वन् शब्दो निपात्यते । मातरि आकाशेश्वयति गच्छ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१४९ तीतिमातरिश्वा । तत्पुरुषे कृति । ३ । २ । २० । इ. सू. सप्तम्या अलुप् 1) वायुना जगत्त्रयत्रातरि जगतां त्रयस्य त्रातरि जगत्त्रयरक्षके मार्गगे मार्ग गच्छतीति मार्गगस्तस्मिन् सति तथा प्रसन्नत्वं निर्मलत्वमभाजि । (भञ्जेऔँवा । ४-२-८ । इ. सू. भञ्ज्धातोः उपान्त्यस्यलोपे । ञ्णिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. ७५/न्दयस्य अस्य वृद्धि.) यथा रजोधूलिस्तनूमतां (सदस्याऽस्त्यस्मिन्निति मतुः । ७ । २ । १ । इ. सू. तनूशब्दात् मतुप्रत्यय तनुरस्ति एषामिति तनूमन्तः ) प्राणिनां गांध्यं शांध्यं (म्यादिभ्योवा । ५ । ३ । ११५ । इ. सु. ६शू धातोः स्त्रियां किप् । ) न चकार । च अन्यत् धर्माम्बु घर्मस्य अम्बु जलं वपुः शरीरं चिह्निदं पिच्छिलं न चकार ॥ ५५ ॥ 1 1 क्वचिन्निषिक्ता द्विरदैर्मदाम्बुभिः, क्वचित्खुरैरुद्धत रेणुर्वताम् । घुसत्किटैः कचिदापिता मह - स्तमश्च नीलाल पवारणैः कचित् ॥ क्वचित्खगानां न पदापि संगता, कचिद्रथैः क्षुण्णतलारि धारया । समाशया स्वक्षितिरक्षतं जगौ, जगत्सुमाध्यस्थ्यगुणं जगत्प्रभोः ॥ " ( ०या० ) कचिदिति ॥ क्षितिः पृथ्वी जगत्सु स्वर्गपातालेषु मध्ये स्थितत्वात् माध्यस्थ्यगुणं (मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः मध्यस्थस्य भावो माध्यस्थ्यं माध्यस्थ्यमेवगुणः । स्थांपास्नात्रः क' । ५ । १ । १४२ । इ. सू. मध्यपूर्वकस्थाधातोः क प्रत्ययः पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च । ७ । १ । ६० । इ. सू. ¿qul I als: captate Buifa afsa 10-8-2 15. H. anlatacala:) पक्षे साम्यरूपमाध्यस्थ्यगुणं स्वमात्मीयं जगत्प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य जगतां प्रभु. तस्य अक्षतं जगौ कथितवती । किं लक्षणा क्षितिः कचिद् द्विरदै छौर दौ दन्तौ येषां ते तै' गजै' मदाम्बुभिर्मदस्य अम्बूनि जलानि तै भेदजलै निषिक्ता सिक्ता । कचिदर्वतां तुरंगाणां खुरै उद्धतरेणु' उद्धतारेणवो यस्या: सा उत्पाटितरजा' । विद्युत्किटैः सदां देवाना किरीटमुकुटै महस्तेज आपिता प्रापिता । च अन्यत् क्वचित् नीलातपवारणे' नीलानि च तानि आतपवारणानि च तैः कृष्णच्छत्रैस्तम' अन्धकारं प्रापिता ॥ ५६ ॥ क्वचित् खगानां (नाम्नो गम· Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकसिमलंकृतम् ।। सर्गः ४ हेतुमाह-वस्थगतो आत्मनो गतीकला गुरु: कलाचार्यः । ऐरावणेन प्रभोः पार्श्व गतिकला शिक्षिता । अत प्रभुस्तस्य कलागुरु । मुखश्रीमुखितेन्दुमंडल: मुखस्य श्रीः तया मुखितं लक्षणया जितं इन्दोश्चन्द्रस्य मंडलं येन सः । दुरापदर्शनः दुःखेन आप्यते इति दुरापं दुर्लभं दर्शनं यस्य सः ॥ ६१ ।। अथावतीर्येभविभोः ससंभ्रम, प्रदत्तबाहुः पविपाणिना प्रभुः । मुहूर्त मालंय तमेव तस्थिवान्, श्रियः स्थिरस्वति वचः सरभिव ।६२। (व्या०) अथेति ॥ अथानन्तरं प्रभुः श्रीऋषभदेवः पविपाणिना पविर्वनं पाणौ हस्ते यस्य स तेन इन्द्रेण प्रदत्तबाहुः प्रदत्त: बाहुर्यस्य सः सन् इभानां करिणां विभुः स्वामी तस्मात् ऐरावणात् अवतीर्य तमेव इन्द्रमालव्य मुहूर्त तस्थिवान् (तत्र पसुकानौ तद्वत् । ५ । २ । २। इ. सू. स्थाधातोः परोक्ष क्वसुः तस्थौ इति तस्थिवान् ) स्थितः । उप्रेक्ष्यते-इति वचः स्मरन्निव इतीति कि स्थिरस्थ श्रियः स्युरिति ॥ ६२ ॥ न दिव्ययाऽरजि स रंभया प्रभु, हरेनटः शिक्षितनृत्यया तथा । नमस्खता नर्तितयानतोरण-स्थया यथाऽण्यनिवासया तथा ॥६३॥ (व्या०) नेति ॥ स प्रमुर्दियया देवलोकसत्कया रंभया तथा न अरञ्जि। कि लक्षया रंभया हरेरिन्द्रस्य नटैः शिक्षितनृत्यया शिक्षितं नृत्यं यस्याः सा । वमा नभस्वता (तदस्याऽस्त्यस्मिन्नितिमतुः । ७-२-१। इ. स. नमस् शब्दात् मतुः । मावा-तोपान्तापञ्चमवर्गान् मतोर्मोव, । २-१-९४ । इ. सू. मताभस्व वः । नभः अस्थास्तीति न भस्वान्) वायुना नर्तितया अग्रतोरणस्थया (स्थापामात्र कः । ५।१।१४२ । इ. स. अनतोरणशब्दात् स्थाधातोः कः । सहस्तेन । ३-१-२४ । इ. सू. सहपूर्वपदबहुव्रीहिः) तोरणस्य अगं अग्रतोरणं तत्र तिष्ठति तया अरण्यनिवासया अरण्ये पने निवासो यस्याः सा तया रंभया कदल्या अरजि ॥ ६३ ॥ समानय स्थालमुरुस्तनस्थले, निधेहि दूर्वां दधि चात्र चित्रिणि । सुलोचने संचिनु चन्द्रनद्रवं शराबयुग्मं घर बुद्धिबंधुरे ॥ ६४ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भवाल्यं महाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्गः ४ (१५३ गृहाण मंथं गतिमंथर युगं, जगज नेष्टे मुशलं च पेशले।। क्षणः समासीदति लमलक्षणः, कियश्चिरं द्वारि वरोऽवतिष्ठताम् ।६५॥ इहोप्रशस्त्रे कुसुमबजे निजे, जनोष्मणा म्लानिमुपागते हलाः। महाबलेनापि मनोभुवा भवां-तकोऽत्रदेवे प्रभविष्यते कथम् ॥६६॥ धनत्वमापद्य मरुनचन्दन-द्रवस्य मुष्णाति किभेष सौरभम् । उलूलपूर्वाय परार्घकर्मणे, विमुच्यतां तस्करकंठकुंठताम् ॥ ६७ ।। इतीरयन्तीवितरेतरांद्युस-द्वधूषु काचित्करपाटवांचिता । विलोलकौसुंभनिचोलशालिनी, प्रभातसंध्येव समग्रकर्मणाम् ॥ ६९ ॥ मणिमयस्थालभृतार्घसाधना, वशोचिताया न वशंवदा हियः। वराभिमुख्यं भजति स्म सस्मया, न कोऽथवास्वेवसरे प्रभूयते ॥६९॥ षड्भिः कुलकम् ॥ (०या०) समानयेति । काचित् स्त्री सस्मया स्मयेन सहवर्तते इतिसस्मया (सहस्तेन । ३ । १ । २४ । इ. सू. सहपूर्वपद बहुव्रीहिः । ) सगर्वा सती वराभिमुख्यं वरस्याभिमुख्य तत् परस्य सन्मुखत्वं भजतिस्म सेवते स्म । अथवा स्वे आत्मीये अवसरे को न प्रभूयते समर्थो न भवति अपि तु सर्वः कोऽपि भवतीत्यर्थः । किं लक्षणा स्त्री करपाटवाश्चिता करयोः पाटवेन अश्चिता हस्तलाधवेन युक्ता । विलोलकोसुंभनिचोलशालिनी विलोलेन चंचलेन कौसुभेन (रागाहोरक्ते । ६ । २ । १ । इ. स. कुसुम्भशब्दात् रक्तेऽर्थे अण् प्रत्ययः । वृद्धि स्वरे वादेणिति तद्भिते । ७ । ४ । १ । इ. सू. आधस्वरस्यवृद्धि ।) निचोलेन प्रच्छदपटेन शालते इति शालिनी शोभमाना । उत्प्रेक्ष्यते समप्रकर्मणां समत्राणि च तानि कर्माणि च तेषां प्रभातसंध्या इव प्रभातस्य संख्या इव । कि विशिष्टा स्त्री मणिमयस्थालधृतार्थसाधना मणीमयं च तत् स्थालं च तस्मिन् धृतानि अर्धस्य साधनानि यया सा । प्रशोचितायाः वशाया. स्त्रिया संचिता योग्या तस्या स्त्रीयोग्याया: हियः लजाया. न वशंवदा न-वश्या वशं पदतीति परावद।। (प्रियपशाद: ५।१ । १०७ । इ. सू. पशपूर्वक पद्धातोः खप्रत्ययः । खित्य Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०) श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः४। खड्डौ च विहायसस्तुविहः । ५।१।१३९ । इ. सू. गम्धातोर्डः । डित्यत्यस्वरादे: इ. सू. अन्त्यस्वरादेलोपः ।) विद्याधराणां पदापि चरणेनापि न संगता न मिलिता । क्वचिद् रथैः अरिधारया वक्रधारया क्षुण्णं तलं यस्याः सा क्षुण्णतला । समाश्या समः आशयः अभिप्रायो यस्याः सा समाभिप्राया ॥५७॥ कृपापयःपुष्करिणीं शंन्यधा-दसौ स्वभावादपि यत्र नाकिनि । सबाढ मौष्मायत देवसंहतो, मयि प्रसादाधिकता प्रभोरिति ॥५८|| (व्या०) कृपेति ॥ असौ भगवान् यत्र नाकिनि यस्मिन् देवे स्वभावादपि कृपापयः पुष्करिणी कृपा एव पयः कृपापयः तदेव पुष्करिणी तां कृपाजलवाों शं न्यधात् । स देवो देवसंहतौ देवानां संहतिस्तस्यां (स्त्रियां तिः।५-३-९१. इ. सू. संपूर्वकहन्धातोः ति: यमिरमिन मिमिहनिमनिवनतितनादेधुटि डिति । ४ । २ । ५५ । इ. सू. अनुनासिकलोपः) देवसमूहे इति अमुना प्रकारेण वाद (क्षुब्धः विरिब्ध स्वान्तध्वान्तलनम्लिष्टफाएबाद परिवढं। ४ । ४ १७० । इ. सू. भृशेऽथै बादशशब्दोऽनिटः क्तान्तो निपात्यते । औष्मायत गमवत्त । प्रभोः स्वामिनो मयि विषये प्रसादाधिकता प्रसादस्थ अधिकता वर्तते ॥ ५८ ॥ विचित्र वाघध्वनिगर्जितो, यथायथासीददसौ गुणधनः । तथा तथा नंदवने सुमंगला-सुनन्दयोर दसखायित हुदा ॥ ५९॥ (व्या०) विचित्रेति । असौ भगवान् विचित्रवाधवानगनितोर्जितः विचित्राश्वते वाचानां ध्वनयश्च ते एव गजितानि तैः अर्जितः बलवान् सन् यथा यथा आसीत् आसन्न आगतः । कि विशिष्टोऽसौ गुणैर्धनः बहुल: मेधोवा । तथा तथा सुमंगलासुनन्दयोः सुमंगला च सुनन्दा च तयोहदा आनन्दवने अन्दसखायितं (अन्दानां सखा भन्दसखः । क्यङ् । ३ । ४ । २६ । इ. सू. अब्दसखशब्दात् क्यड् प्रत्ययः । दीर्घभित्र य ड् य क्येषु च । ४-३-१०८ इ. सू. दीर्घ अब्दसखाय इति नामधातुः । तवतू । ५। १ । १७४ । इ. सू. अब्दसखाय धातोर्भाव क्तः ।) ताधशितोऽत्रोणादे रिट् । ४।४।३२ । इ. सू. इडागमे अतः । ४ । ३ । ८२ । इ. सू अब्दसखायधातोः अकारस्थलोपे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१५१ अब्दसखायितमिति सिद्धम् अब्दसख इत्यत्र तत्पुरुषसमासत्वात् राजन् सखेः 1 ७ । ३ । १०६ । इ. सू. अट् समासान्तः) अन्दसखो मयूरस्तद्वदाचरितम् ५९ तदाऽन्यबालावदुपेयिवत्प्रभो - र्दिदृक्षयोत्पिंजल चित्तयोस्तयोः । शची नियुक्तखसखीनियंत्रणा, बहिर्विहारेऽभवद्गलायसी ॥ ६० ॥ ( व्या० ) तदेति ॥ तदा तस्मिन्नवसरे तयोः सुमंगलासुनंदयो अन्यबालावत् उपेयिवत्प्रभो (वेयिवदनाश्वदनूचानम् । ५ । २ । ४ । इ. सू. इथिवस् इति कर्तरि निपात्यते ।) उपेयिवांश्चासौ प्रभुश्च तस्य आगतस्य स्वामिनो दिदृक्षया (तुमर्हादिच्छायां सन्नतत्सनः । ३ । ४ । २१ । इ. सू. दृश्यातोः सन् प्रत्ययः सन्यऽस्व । ४ । १ । ३ । इ. सू. द्वित्वे शू स । सन्यस्य । ४ । १ । ५९ इ. सू. सनिपरे पूर्वस्य अकारस्य इकारे दिशू स । यजसृजमृजराजम्राजभ्रस्मव्रश्च परित्राजः शः षः । २ । १ । ८७ । इ. सू. शस्यषत्वे । षढोः कस्सि । २ । १ । ६२ । इ. सू. षस्थकत्वे दिकू स । नाम्यन्तस्था । कवर्गात् पदान्तः कृतस्य सः शिडूनान्तरेऽपि । २ । ३ । १५ । इ. सू. सन. सस्य षत्वे कपयोः क्षे कृते दिदृक्षू इति जाते क्रियार्थों धातुः इ. सू. दिदृक्ष इत्यस्य धातुसंज्ञा । शंसि प्रत्ययात् । ५ । ३ । १०५ । इ. सू. अप्रत्यये आत् इ. सू. आपिकृते દિક્ષા ત્તિ સિન્નમ્ ।) હ્યુમિયા ડમ્પિંગવિત્તયો: ત્પિન વિત્ત થયોતે तयो. आकुलमनसोः सत्योः बहिर्विहारे बहिर्निसरणेः शची नियुक्तस्वसखीनियंत्रणा शच्या इन्द्राण्या नियुक्ताः मुक्ताः याः स्वसख्यस्तासां नियंत्रणा आयसी लोहमयी अर्गला अभवत् ॥ ६० ॥ कलागुरुः स्वस्थ गतौ यथाशयं, समुद्धमान पुरुहूतदन्तिना । मुखं मुखश्रीमुखितेन्दुमंडलः, स मंडपस्थाप दुरापदर्शनः ॥ ६१ ॥ ( ०या० ) कलागुरुरिति ॥ स भगवान् मंडपस्य मुखं आप आप आप । किं विशिष्टो भगवान् पुरुहूतदन्तिना पुरुहूतस्य इन्द्रस्य दन्ती हस्ती तेन ऐरावणेन હસ્તિના વધારાય આરાયમર્મિકાયમનતિન્ય ચાશય (યોગ્યતાનીપ્લાઐનતિયે । ३ । १ । ४० । इ. सू. अव्ययीभावः) यथाभिप्रायं समुद्यमानो धार्यमाणः Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ । नव्ययाऽरुषोर्मोऽ-तो हस्वश्च । ३ । २।१११ । इ. सू. पशशब्दस्यमोऽन्तः) कासु सतीषु धुसद्धूषु द्युसदां वध्वः तासु देवाङ्गनासु इतरेतरां (परस्पराऽन्योन्ये तरे तरस्याम् स्यादेर्वा पुंसि । ३ । २ । १ । इ. सू. इतरेतरशदात् स्यादे वाम् ।) परस्परं इति ईरयन्तीषु कथयन्तीषु सतीषु । इतीति किं हे उरुस्तनस्थले उरुणी गुरुणी स्तनस्यले यस्याः सा उरुस्तनस्थला तस्याः संबोधनं क्रियते त्वं स्थालं समानय । हे चित्रिणि चक्रदत्तत्वात् स्तनयो समत्वात् मधुगंधत्वात् चक्रकेशत्वात् चित्रिणि उच्यते चित्रिणी आश्चर्यकारिणी च तस्याः संबोधन हे चित्रिणि अत्र स्थाले दूर्वा च अन्यद् दधि निधेहि निवेशय । हे सुलोचने शोभनानि लोचनानि यस्याः सा तस्याः संबोधनं हे सुलोचने त्वं चन्दनद्रवं चन्दनस्य द्रवस्त संचिनु संचितं कुरु । हे बुद्धिबंधुरे (पाश्यसिवासिमसिमथ्युन्दिमन्दिचतिरः । इ. उ. सू. बन्धधातो उर । बध्नाति मनः इति बन्धुरा ।) बुद्धया बन्धुरा मनोज्ञा तस्याः संबोधनं त्वं शरावयोः युग्मं शरावयुग्मं तत् धर । हे गतिमन्थरे (च्छिचटिवटिकुटिकठिवठि-र । इ. उ. सू. मन्थधातो: अर प्रत्ययः । मनातिपादौ इति मन्थरा । ) गत्यामन्थरा अलसा तस्याः संबोधनं त्वं मन्थं मन्थानकं गृहाण । हे जगजनेष्टे जगतो विश्वस्य जनाना मिष्टा अभीष्टा तस्याः संबोधनं त्वं युगं गृहाण हे पेशले मनोज्ञे त्वं मुशलं गृहाण । लग्नलक्षणः लानं लक्षणं यस्य स. क्षण कोलविशेष: समासीदति आसनः स्यात् । परो द्वारि कियचिरं कियाकालं अवतिष्ठताम् । (संविधावात् । ३ । ३ । ६३ । इ. सू. अवउपसर्गात् । परस्यस्थाधातोरात्मनेपदम् ) अवयोगादात्मनेपदमत्र ज्ञेयम् । हे हलाः हे सख्यः इह जगति निजे आत्मीये उप्रशस्त्र उकटायुधे कुसुमनजे कुसुमाना जस्तस्मिन् पुष्पसमूहे जनोमणा जनानामुमा तेन लोकवायण ग्लानि (लाहायः । ५।३ । ११८ । इ. सू. ग्लानिरित्यपि केचिदिच्छन्ति ।) शो५ मुपागते सति प्राप्ते सति महाबलेनापि महत् बलं यस्य स तेन मनोभुवा कामेन अत्र देवे कथं प्रभविष्यते कथं समर्थीभविष्यते । कि विशिष्टे अत्र भवान्तके भवः संसारो महेशो वा तस्य अन्तके यमप्राये भवे कामो जितः भवस्यापि जेता अयं कामेन कथं जेष्यते इति व्यंग्यम् । ५५ मरुत् पवनश्चन्दनद्रवस्य घनत्व Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाव्यम् टीपासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१५५ ६ढत्वमापाद्य सौरभं परिमलं कि न मुष्णाति अपितु मुष्णात्येव । तस्मात् कारणात् उलपूर्वाय धवलध्वनिपूर्वकीय परार्धकर्मणे वरस्य अर्घकर्मणे । करकंठकुंठतां करौ च कंठश्च एषां समाहार. करकंठं (प्राणितुर्याङ्गाणाम् । ३ । १ । १३७ । इ. सू. करकंठशब्दस्य प्राण्यङ्गत्वात् एकवद्भाव ।) तस्य कुंठता जिल्लता विभुच्यताम् ॥ षड्भिः कुलकम् ॥ ६४ । ६५। ६६ । ६७ । ६८।६९ ॥ जगद्वरेऽत्रार्घमुपाहरद्वरे, यथेक्षिता सा हरिणा सकौतुकम्। त्रियोंऽतिकस्था धवलैस्तथा जगुः, कचिद्भवद्विस्मृतिशंकया किमु ॥ (व्या०) जगरे इति ॥ सा देवांगना जगरे जगति वास्तस्मिन् विश्व प्रशस्य अत्र परे यथा अर्धमुपाहरत् अढौकयत् । कि विशिष्टा सा हरिणा इन्द्रेण स कौतुक (कौतुकेन सह यथास्यात्तथा सकौतुकं । क्रिया विशेषणात् । २ । २ ४१ । इ. सू. सकौतुक मित्यत्र द्वितीया ।) मीक्षिता । अन्तिकस्थाः समीपस्थाः स्त्रियो धवलस्तथा जगुर्गायन्ति स्म । किमु इति संशये कचिद् भवद्विस्मृतिशंकया भवन्ती चासौ विस्मृतिश्च तस्या. शङ्कया जगुः (गैधातोः कर्तरि परोक्षा) ॥७॥ स पस्पृशे धपि दुर्लभे पर-स्त्रिया तयाछेकधिया कृतस्मितम् ।। __ अमुं कथंचिदधिबिन्दुमत-श्युतं विनच्मीति गृहीतदं भया ॥७॥ (व्या०) स इति ॥छेकधिया छेकाधीर्यस्याः सा तया चतुरबुद्धया तया देवाङ्गनया कृतस्मितं यथा भवति तथा स भगवान् हृद्याप पस्पृशे स्पृष्टः । किं लक्षणे हृदि दुर्लभे (दुःस्वीषतः कृछा कृष्छार्थात् खल् । २५ । ३ । १३९ । इ. सू. दुःपूर्वक लभूधातोः खल् प्रत्ययः) दुःखेन लभ्यते इति तस्मिन् परत्रिम . બત શબ્યુત મથું ગિજું ઘોવિન્d wથંનિત્ વિનમિ પૃથ રોમિ તિ गृहीतदंभया ॥ ७१ ॥ अपि प्रवृत्ताविधिर्वधूद्वयी-दिक्षया नोदमनायत प्रभुः। समाधिनिधौतधियां न त, पभावभेद विषयाः प्रभुणः॥७२॥ (व्या०) अपीति ॥ प्रभुः स्वामी प्रवृत्ताविधिः अपि प्रवृत्त: अधविधि यस्य सः वधूद्वयादिक्षया वयोः सुमंगलासुनन्दयो टुमिच्छा तया विलोकनेछया Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमतम् ॥ सर्गः ४ नोदमनायत (च्यथै मृशादे: स्तोः । ३ । ४ । २९ । इ. सू. उन्मनस् शब्दात् व्यर्थे वाक्य सलोपथ) उत्सुको नाभवत् । समाधिनिधौंतधियां समाधिना संतोषादिसमाधिना निध/ता धीबुंद्रियेषां ते तेषां तादृशां पुरुषाणां स्वभावभेद स्वभावस्य प्रकृतभेदस्तस्मिन् विषया. प्रभूष्णवः (पूर्वावराधरेभ्योऽसऽस्तातो पुरवधश्चैषाम् । ७ । २ । ११५ । इ. सु. दिवाचिपूर्वशब्दात् अस् प्रत्ययः । पूर्वशब्दस्य च पुर् आदेशः ।) प्रभवन्ति इत्येवंशीला. समर्थाः न स्युः ॥७२॥ तदीयलावण्यरुचोरिवेयया, शरावयुग्मंलवणाग्निगर्भितम् । पुसे विमुक्तं सुशाम्रदिष्ट सोऽनलोच्छसत्पर्पटलीलयांहिणा ॥ ७३॥ (व्या०) तदीयेति । स भगवान् सुदृशा स्त्रिया पुरोऽग्रे (पूर्वावराधरेभ्यो. ऽसऽस्तातौ पुरवधश्चैषाम् ।७।२ । ११५ । इ. सू. दिग्वाचिपूर्वशब्दात् अस् प्रत्ययः । पूर्वशब्दस्य च पुर् आदेशः ।) विमुक्तं शरावयुग्मं शरावयो युग्मं शरावसंपुटं अनलोच्छासत्पर्पटलीलया अनलेन वैश्वानरेण उसन् यः पर्यटस्तस्य लीला तया अहिगा चरणेन अभ्रदिष्ट मुक्तिवान् । किं विशिष्टं शरावयुग्म उप्रेक्ष्यते तदीयलावण्यरुचोः लावण्यं च रुक् च लावण्यरुचौ तस्य भगवतो लावण्यरुची तयोः लावण्यकान्त्यो ईर्थया इव क्रोधेन इव लवणाग्निगर्भित लवणं च अग्निश्च लवणामी ताभ्यां गर्मित सहितम् ॥ ७३ ॥ प्रगृह्य कौसुभसिचा गलेऽवला, बलात्कृषन्त्यनमनष्ट मंडपम् । अवाप्तवारा प्रकृतियथेच्छया, भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम् ॥ ७४ ॥ (व्या०) प्रगृह्य इति ॥ अबला स्त्री एनं भगवन्तं कौसुंभसिचा (रागाहो रफे।६।२।१। इ. सू. कुसुंभशब्दात् रक्तेऽथै अण् कुसुंभेनरयन कौसुभम् ।) વધુંમન્નબ માટે પ્રકૃધ્ધ મવઝા કન્તી મંડપ મઔષ્ટ વીતવતી Éિ અક્ષણ સ્ત્રી अवाप्तवारा अवाप्त: वारो यया सा प्राप्तावसरा । केव प्रकृतिरिय यथार्थ इव यथा पापप्रकृतिः कम्मरूपा अवाप्तवारा प्राप्तावसरा सती वेतनमात्मानं इन्छया भवार्णव संसारसमुद्रं नयति । कि लक्षणभेन भगवन्त आत्मानं च अधीश्वरमपि (स्थेशभासपिसकसीवरः । ५-२-८१ । इ. सू. ईशधातोः शीलादिसदथै वरप्रत्ययः) अधिकसमर्थमपि ॥ ७४ ॥ प्रगृह्य कौवा गर्मित सहितान इव लवपाल Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ४ (१५७ शतमखस्त मखंडितपौरुषं, सपदि मातगृहे विहिताग्रहः । अभिनिषण्णवरेन्दुमुखीद्वयं, जिनवरं नवरंगभृदासयत् ।। ७२ ।। (व्या०) शतमखेति ॥ नवरंगमृत् (किम् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. नवरङ्गापूर्वकभृधातो कर्तरि विवप् । हस्वस्य त· पित्कृति । इ सू. त ) नवश्वासौ रंगश्च तं बिभर्तीति नवीनहर्षरूपरंगभृत् शतमखः शतं मखा यज्ञा यस्य स इन्द्र विहिताम्रहः विहित आग्रहो येन स. कृताग्रह सन् तं जिनवरं सपदि शीघ्रं मातृहे निषण्णवरेन्दुमुखीद्वयं इन्दुवन्मुख ययोस्ते इन्दुमुख्यौ तयोर्द्वयं वरं च तत् इन्दुमुखीद्वयं च निषण्णं च तत् परेन्दुमुखीद्वयं च प्राग्निविष्टवधूयं अभि संमुख आसयत् उपवेशयति स्म । (लक्षणवीस्थत्यम्भूतेष्वभिना । २-२-३६ इ. सू. निषण्णवरेन्दुमुखीद्वयमित्यत्र अभियोगे द्वितीया ।) अभियोगे द्वितीया । किं लक्षणं भगवन्तं अखंडित पौरुष न खंडितं पोरुष यस्य स तं अखंडितपराक्रमम् ॥ ७५ ॥ दृष्ट्वाऽऽयान्तं नोदतिष्ठाव नाथ, नाथ स्वासाविष्कृतिः संगता नौ । ध्यात्वेतीव स्वामिनोऽभ्यर्णभावे, ते नीरंगीगोपितास्ये अभूताम् ।। (व्या०) दृष्ट्वेति ॥ अथानन्तरं ते सुमंगलासुनन्द स्वामिनोऽभ्यभावे (क्तत्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ. सू. अभिपूर्वक अर्दधातो वे क्तः । अवि. दूरे अमेः । ४ । ४ । ६४ । इ. सू. इडभाव । दादपूछमद तयोर्दस्य च । ४ । २ । ६९ । इ. सू. तस्य न रषवर्णानोण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटत वर्गशसान्तरे । २ । ३ । ६३ । इ. सू. नस्य ण धातोर्दस्य च) सामीप्ये नीरंगीगोपितास्ये नी रंग्या गोपितमाच्छादितमास्यं वदनं याभ्यां ते अभूताम् । कि कृत्वा उश्यते-इति ध्यात्वाइव इतीति किं आवा नाथं स्वामिनमायान्तं दृष्ट्या नोदतिष्ठाव जोत्थिते । नौ आयो स्वास्याविष्कृतिः स्वस्यात्मीयस्य आस्यस्य मुखस्य आविष्कृतिः- प्रकटीकरण नि संगता न युता ॥ ॥ ७६ ॥ . ., लावण्यवारिसरसोदयितादमुष्मात; पातुं प्रकाशमानलंनयनद्वय नौ । पानेन तिरिह चौरिकयानक्राचि-देव मिथोऽकथयतामपृथुस्वरं ते॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ ( व्या० ) लावण्य इति ॥ ते कन्ये अपृथुस्वरं मन्दस्वरं यथा भवति तथा मिथः परस्परमेवं अकथयताम् । एवमिति किं अमुष्मात् दयितात् भर्तुः सरसः सरोवरात् लावण्यवारि लावण्यमेव वारि जलं प्रकाशं प्रकटं पातुं नौ आवयोर्नयनद्वयं नयनयोर्द्वयं लोचनयुगलं समर्थ न । इह चौरिकया (चोरादेः । ७ । १ । ७३ । इ. सू. चोरशब्दात् भावे अकञ् चोरस्य भावः चौरिका । अस्यायत्तत् क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । १११ । इ. सू. अस्य इ: ।) च पानेन काचित् तृप्तिर्न ॥ ७७ ॥ शैशवावधि वधूद्वयदृष्टयो -- श्वापलं यदभवद्दुरपोहम् । तत्समग्रमुपभर्तुर्विलिल्ये, अध्यापकान्तिक इवान्तिषदीयम् ॥ ७८ ॥ : ( व्या० ) शैव इति || वधूवयदृष्ट्यो वध्वोर्द्वयस्य दृष्टट्योः शैशवावधि (वर्णावादेः । ७ । १ । ६९ । इ. सू. शिशुशब्दात् भावे कर्मणि च અણ્ शिशोर्भाव: शैशवं ) बाल्यादारम्य यत् चापलं दुरपोहं दुस्त्यजं अभवत् तत् चापलं ( चपलस्य भावः चापलं युवादेरणू । ७ । १ । ६७ । इ. सू. चपलशब्दात् भावे कर्मणि अण् । ) समग्रं उपभतृ भर्तुः समीपे विलिल्ये विलयं गतम् । किमिव आन्तिषदीयं चापलमिव यथा छात्रसत्कं चापलं अध्यापकान्तिके अध्यापकस्य अन्तिकं तस्मिन् उपाध्यायसमीपे विलयं याति ॥ ७८ ॥ तारुण्येन प्रतिपतिमुखं प्रेरितोन्मादभाजा; बाल्येनेषत्परिचयजुषा जिल्ह्यातां नीयमाना । दृष्टिर्वयोः समजनितरामे हिरेयाहिरातः, श्रान्तेः पात्रं न हि सुखकरः सीमसंघौ निवासः ॥ ७९ ॥ ( व्या० ) तारुण्येन इति ॥ वयोर्दृष्टि एहिरेयाहिरात: आगमनतः श्रान्ते. श्रमस्य पात्रं स्थानं समजनितराम् । किंलक्षणा दृष्टिः उन्मादभाजा ( भजो विणू । ५ । १ । १४६ । इ. सू. उन्मादपूर्वकभज् धातोः विण् । ञ्णिति । ४ । ३ । ५० । इ. सू. उपान्त्य अकारस्य वृद्धि ) उन्मादं भजतीति तेन Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ४ (१५९ तारुण्येन ( पतिराजान्त गुणाझ राजादिभ्यः कर्मणि च । ७ । १ । ६० । इ. सू तरुणशब्दात् भावे कर्मणि टयण ) यौवनेन पतिमुख पत्युमुख तत् प्रति प्रेरिता । ईषत्परिचयजुषा ईषत् परिचयः (ईपद्गुणवचनैः । ३ । १ । ६४ । इ. सू. समास. । ) ईषत् परिचयस्तंजुषतीति (किम् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. ईषत् परिचयपूर्वकजुष्धातो. कर्तरि किप् । ) तेन बाल्येन जिह्मतां मन्दतां नीयमाना । हेतुमाह-हि यस्मात् कारणात् सीमसंधौ सीनः संधिस्तस्मिन् निवासः सुखकरो न स्यात् सुखकरोतीति सुखकर: ( हेतुत छीलानुकूलेऽशब्दश्लोक कलह गाथा वैरचाटु सूत्र मन्त्र पदात् । ५ । १।१०३ । इ. सू. सुखपूर्वक कृधातोः शीलेऽर्थे टः ।) ॥ ७९ ॥ जैनी सेवां यो निर्भरं निर्मिभीते, भोगायोगाद्वा तस्य वश्यैव सिद्धिः। हस्तालेपे त्वक्तं सिषेवे ययोःश्री-वृक्षोऽभूदेकोऽन्यस्तयोः किंशभीन।। __ (व्या०) जैनी सेवां इति । यः पुमान् जैनी जिनस्येयं तां जिनसका (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. जिनशब्दात् इदमथै अण् । अणञयेकण न नमटितम् । २ । ४ । २० । इ. सू. जैनशदात् स्त्रियां डीः ।) सेवा निर्भरं यथा भवति तथा निर्मिभीते करोति । तस्य पुंसः भोगात् वा योगात् सिद्रिवत्यैव (धपद्यतुल्यमूल्य वश्य पथ्यवयस्य-म् । ७ । १ । १११ । इ. सू. या-तो पश्यशब्दोनिपात्यते वशं गता श्या) स्यात् । ययोवृक्षयोः त्वक (कुत् सम्यदादिभ्यः किम् । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. स्वच् धातो: स्त्रियां किपि त्वक् ।), हस्तालेपे हस्तस्य आलेपः तस्मिन् तं जिनं सिरे सेवते स्म तयोर्मध्ये एको वृक्षः श्रीवृक्षोऽभूत श्रियोलभ्या वृक्षः पक्षे पिप्पल: अन्यो वृक्ष किं शमी न अभूत अपितु अभृत् । एतावता श्रीवृक्षो भोगी शेय. यस्य हेश्री स एव भोगी इति न्यायात् शमी च शमवान् योगी ज्ञेयः । एवं जिनसेवातो भोगात् योगाच तयो. सिद्धिजातेति भावः ॥ श्रीवृक्षः कुंजराशन इत्यादि पिपलनामानि । शमी शमयते पापमित्यादि लोकाअपि वदन्ति ॥ ८० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ४ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान् । पाणीदत्तपरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसंभवमहाकाव्ये चतुर्थोऽभवत् ॥ ४ ॥ इतिश्रीमदच्छीयश्चलाछेकविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमार संभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरमहोपाध्यायविरचितायां टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरशोधितायां चतुर्थसर्गव्याख्या . समाप्ता ॥ ४ ॥ ॥oot For F Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ पत्रिणा द्रुतमयोजि कराभ्यं, कन्ययोरथ कर: करुणाब्धेः। तस हृत्कलयितु सकलाङ्गा-लिंगनेऽपि किलकौतु किनेव ॥ १॥ (व्या०) वज्रिणा इति ॥ अथानन्तरं वज्रिणा (अतोऽनेकरवरात् । ७ २ । ६ । इ. सू. मत्वर्थे वज्रशदात् इन् वज्रोस्यास्तीति वज्रो।) इन्द्रेण करुणाधे करुणायाः अधि (उपसर्गाद: किः । ५ । ३ । ८७ । इ. सू. आप्पूर्वक धाधातो: किः । इडेत् पुंसि चातो एक इ. सू. आकारलोप• धुटस्तृतीयः । २ । १ । ७६ । इ. सू आप् शब्दस्यपकारस्य तृतीयो ब. आपो धीयन्तेऽस्मिन्निति अब्धिः ।) तस्य परदुःखनिरासनी भवेत् करुणा तस्याः समुद्रस्य भगवतः करो हस्त: कन्ययो. सुमंगलासुनन्दयोः कराभ्यां सह द्रुतं शीघ्रमयोजि योज्यते स्म । कि लक्षणेन वज्रिणा उप्रेक्ष्यते-सकलांगालिंगनेऽपि सकलं च तत् अंग च सकलाङ्गं तस्य आलिंगनं तस्मिन् सत्यपि तस्य भगवतो हृत् हृदयं कलयितुं कौतुकिनेच कौतुकमस्यास्तीति तेन ॥ १ ॥ धावता माभिमुखं समवेत्तुं, तत्करस्य च वधूकरयोश्च ।। अंगुलीयकमणिघृणिजालैः, प्रष्ठपत्तितुलया मिमिले प्राक् ॥ २॥ ___(०या०) धावतामिति । तत्करस्य तस्य स्वामिन. करो हस्तस्तस्य स्वामिकरस्य च वधूकरयो वयो करौ तयोः अभिमुखं सन्मुख समवेतुं मिलितुं धावतां सतां प्राक् पूर्व अंगुलीयकमणीघृणिजालैः अंगुलीयकस्य (जिह्वामूलाड्गु • लेक्चे य । ६ । ३ । १२७ । इ. सू. अड्गुलिशब्दात् भवे ईय. अड्गुल्यां भवानि अड्गुलीयकानि । स्वार्थेके अड्गुलीयकं) मुद्रिकाया मणयो रत्नानि तेषां घृणयो किरणास्तेषां जालानि समूहास्तै किरणसमूहै. प्रष्टपत्तितुलया (प्रष्टोऽग्रगे २ । ३ । ३२ । इ. सू. प्रपूर्वक स्थाधातो सस्य धत्वं । ) ४श्चासौ पत्तिश्च तस्य तुलया अग्रेसरपदातिसदृशतया मिमिले मिलितम् ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ वामनामनि करे स्फुरणं यत् , कन्ययोः शुभनिमित्त मुदीये । तत्फलं प्रभुकरग्रहमाप-दक्षिणः क्षणफलः कनु वामः ॥३॥ (व्या०) वामनामनि इति ॥ कन्ययो. वामनामनि वामो नाम यस्य स । तस्मिन् करे हस्ते स्फुरणं यत् शुभनिमित्त दीये उदितम् 'अङ्ग विस्फुरणं नृणां, दक्षिणं सर्वकामदम् । तदेव शस्यते सद्भिनारोणामप्रदक्षिणम्, इति निमित्तशास्त्रात् । दक्षिणः करोहरतः तत्फलं तस्य शुभनिमित्तस्य फलं तत् प्रभुकरग्रह प्रभोः स्वामिनः करोहस्तस्तस्यग्रहं स्वामिपाणिग्रहणं आपत् प्राप्तः । इति वितर्क वाम. क्षणफल. उत्सवफल• क वर्तते । वामो वामोहस्तः प्रतिकूलो वा यः प्रतिकूल: स्यात् स उत्सवफलं क प्राप्नोति अपि तु न कापीत्यर्थः ॥ ३ ॥ उत्तराधरतयादधदास्थां, तत्करेवरकरः स्फुटमूचे । अव्यवस्थमघरोत्तरभावं, योग्यभाजि पुरुषे प्रकृतौ च ॥ ४॥ (व्या०) व्यवस्था उत्तरेति ॥ चरकर' वरस्य करो हस्तः स्वामिहस्त तत्करे तयोः सुमंगलासुनन्दयो. कर तस्मिन् उत्तराधरतया आस्थां (उपसर्गादातः ५ । ३ । ११० । इ. सू. आपूर्वक स्थाधातो अड् । आत् इ. सू. अआप् । ) अवस्थितिं दधत् सन् अधरोत्तरभावं अध स्थोपरिस्थतया अवस्थानं पुरुषे आत्मनि च अन्यत् प्रकृतौ कर्मणि योगभाजि सति सत्यां च अव्यवस्थं व्यवस्थारहित स्फुटं प्रकटभूचे वक्ति स्म । 'कत्थइ जोवो बलिओ कत्थवि कम्माई हुंति वलियाइ' । इत्याचागमवचनात् ॥ ४ ॥ तत्करे करशयेऽजनिजन्योः, संचरे सपदि सात्विकभावः। . सात्विको हि भगवानिजभावं, स्वेषु संक्रमयतेऽत्र न चित्रम् ॥ ५ ॥ (व्या०) तत्कर इति ॥ जन्योर्वध्वोः संचरे (गोचर संचरवहनज-म् । ५ । ३ । १३१ । इ. सू पुनाम्निधान्तोनिपातः । संचरति अनेनेति संचर:) गरीरे सपदि शीघ्रं तत्कालं सात्विकभावै रजनि जातम् । सात्विकभावाश्चामी स्तंभ १ स्वेदो २ ऽथरोमाञ्च ३ स्वरभेदश्च ४ वेपथुः ५ ॥ वैवर्ण्य ६ रोदनं ७ चैवा वेष्टातेत्यष्ट सात्विका' ॥ १ ॥ कसति तत्करे तस्य स्वामिन करस्त Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१६३ करस्तस्मिन् करशये करशते इति करशस्तस्मिन् हस्तस्थिते सति हि निश्चित सात्विको भगवान् निजभाव निजाय भावन्तं स्वेषु आत्मीयेषु संक्रमयते । अत्र न चित्रं न आश्चर्यम् । सावेन धैर्येण चरतीति सात्विकः । (चरति । ६-४-११ । इ सू सत्त्वशब्दात् चरत्यर्थे इकण् ।) पक्षे सात्त्विका भावाः पूर्वोक्ताः । सात्विकोहि सात्त्विकं भाव मन्यत्र संक्रमयतीति अत्र किं चित्रम् । शब्दप्छलमत्र ज्ञेयम् ॥५॥ बाल्ययौवनवयो वियदन्त-वर्तिनं जगदिनं परितस्ते । रेजतु गतघनेऽहनि पूर्वा-पश्चिमे इव करोपगृहीते ॥६॥ (व्या०) बाल्येति ॥ ते कन्ये करोपगृहीते करेण पाणिना उपगृहीते गृहीतहस्ते जगदिनं (सौभयाभि परिणा तसा । २ । २ । ३५ । इ. सू. परितो योग जगदिनमित्यत्र द्वितीया) जगतामिन स्वामी तं जगन्नाथं परितो रेजतु शोभिते । किं लक्षणं जगदिनं वाल्ययोवनवयोवियदन्तवर्तिन (प्रहादिभ्यो णिन् । ५ । १ । ५३ । इ. सू वृत् धातोर्णिन् ।) बाल्यं च यौवनं च वयः एव वियत् आकाशं तन्मध्ये वर्तते तं । के इव पूर्वापश्चिमे इव पूर्वा च पश्चिमा च पूर्वापश्चिमे यथा पूर्वापश्चिमे दिशौ करोपगृहीते किरणोपगृहीते गधिने गताः धना यस्मिन् तत् तस्मिन् निरभ्रे अहनि दिवसे इनं सूर्य परितो राजते ॥ ६ ॥ पाणिपीडनरतोऽपि न पाणी-बालयोः समृदुलावपिपीडित् ।। कोऽथवा जगदलक्ष्य गुणस्या-मुष्य वृत्तमवबोधुमधीष्टे ॥ ७॥ (०या०) पाणिपीडनेति ॥ स भगवान् पाणिपीडनस्तोऽपि पाणिपीडन पाणे पीडनं पाणिग्रहणं तस्मिन् रत: आसक्तः अपि बालयोः सुमंगलासुनन्दयोः मृदुलौ सुकोमलो पाणी हस्तौ न अपिपीडत् न पीडितवान् । अथवा कः पुमान् जगदलक्ष्यगुणस्य जगतां अलक्ष्या (यए चात । ५-१-२८ । इ सू. लक्षधातोः , यः लक्षितुं योग्याः लक्ष्या') गुणा यस्य स जगदलक्ष्यस्वरूपस्य अमुष्य भगवतो वृत्तं चरित्रं अवबोधुं ज्ञातुं अधीष्टे समर्थो भवति अपि तु न कोऽपि ॥ ७ ॥ तत्यजुन समयागततारा-मेलपर्वणि वरस्य तयोश्च । धीरतां च चलतां न दृशः स्वां, देहिनां हि सहजं दुरपोहम् ॥ ८॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (व्या०) तत्यजुरिति । परस्य श्रीपभस्य च तयोर्वयोः दृशोदृष्टयः स्वामात्मीयां धीरतां च चलतां समयागतताराभेलपर्वणि समये अवसरे आगतं यत् ताराणां मलनं कनीनिकामेलनं तस्य पर्व उत्सवस्तस्मिन् न तत्यजुः । हि निश्चित देहिनां प्राणिनां सहजं (कचित् । ५ । १ । १७१ । इ. सू. जनधातोर्डः । सहजातं सहजम् ) दुरपोहं (दुःस्वीपत: कृप्छाकृार्थात् खल् । ५-३-१३९ इ सू कृच्छ्रार्थ दु पूर्वक अपपूर्वक ऊहधातोः खल) दुस्त्यजम् ॥ ८ ॥ स्वर्वधूविहितकौतुकगानो-पज्ञमस्य वपुषि स्तिमितत्वम् ।। योगसिद्धिभवमेवमधोना-शंकि वेद चरितं महतां कः ॥ ९॥ (व्या०) स्वर्वधू इति । मघोना इन्द्रेण अस्य भगवतो वपुपि शरीरे स्तिमितत्वं निश्चलत्वं योगसिद्धिभवमेव योगसिद्धः समुत्पन्नमेव आशंकि शकितम् । कि लक्षणं स्तिमितत्वं स्वर्वधूविहितगानोपचं स्वर्वधूभिर्विहितं कृतं यत् कौतुकगानं तेन उपझं प्रणीतं महतां चरितं को वेद को जानाति अपि तु न कोऽपि ॥ बद्धवान् वरवधूसियाना-मंचलान स्वयमथाशु शचीशः। एवमस्तु भवतामपि हार्द ग्रन्थिरश्लथ इति प्रथितोक्तिः ॥१०॥ (व्या०) बद्धवान् । अथानन्तरं शचीशः इन्द्रः वरवधूसिचयानां वरश्च वधू च वरवध्वः तासां सिंचयानि वस्त्राणि तेषां अञ्चलान् आशु शीव स्वयं बद्धवान् । किं लक्षण इन्द्र इति प्रथितोक्ति' इति अमुना प्रकारेण प्रथिता विस्तारिता उक्तिर्वचनं येन स । इति किं एवममुना प्रकारेण भवतामपि हार्दप्रन्थिः हादस्य (पुरुषहृदयादसमासे । ७ । १ । ७० । इ. सू. हृदयस्य हद् आदेश । वृद्धिः स्वरेवादे णिति तद्धिते । ७-४-१ । इ. सू. आदि स्वरवृद्धि हृदयस्यभावो हादें) स्नेहस्य ग्रन्थिः अश्लथः न श्लथ अश्लथ ढोऽस्तु ॥१०॥ एणद्वयमुदस्य मधोनी, पासवश्च वरमद्धतरूपम् । वेदिका मनयता हरिदुच्च-शसंकलितकाञ्चनकुंभाम् ॥११॥ (व्या०) एणम् इति ॥ मधोनी इन्द्राणी एणद्वयं शोनत्रयोदय युगलं एणस्य मृगस्य इन्द्रयमिव द्वयं अस्य तत् ववोर्द्वयं वधूयं कन्यायुग्म Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१६५ तत् च पुनर्वासव इन्द्रः अद्भुतरूपं अद्भुतं रूपं यस्य स तं वरं उदस्य उत्पात्य वेदिकां चतुरिकामनयतां गृहीतवन्तौ । किं लक्षणां वेदिकां हरिदुच्चैर्वशसंकलितकाचनकुंभां हरितो नोलाः एतावता आर्द्राचि उच्च उच्चाः ते च ते बंगाश्च तै संकलितायुक्ता काञ्चनस्य कुंभाः कला यस्यां सा ताम् ॥ ११ ॥ कोऽपि भूधरविरोधिपुरोधा - स्तत्र नूतनमजिज्वलदग्निम् । यः समः सकलजंतुषु योग्यः, स प्रदक्षिणयितुं न हि नेतुः ||१२|| ( व्या० ) क इति । कोऽपि भूधरविरोविपुरोवा भूधरा (आयुधाऽऽदिभ्यो धृगोऽदण्डादे. । ५ । १ । ९४ । इ सू भृशव्दपूर्वकधृग्वातो अच्प्रत्ययः भुवं धरन्तिीति भूधार । ) पर्वता स्तेषां विरोधी ( समनुवाद्र्ध । ५ । २ । ६३ । इ. सू. विपूर्वकरुधूधातोः शीलादिसदर्थे घिनण् प्रत्ययः) शत्रु · इन्द्रः स एव पुरोधा (पुरोधीयते इति पुरोधा वय पय पुरोरेतोभ्यो धाग । ९७४ । इ. उ. सू. पुरस् पूर्वक धाधातो अस् प्रत्यय 1 ) पुरोहित' तत्र तस्यां वेद्यां नूतनं नवीनमग्निं मजिज्वलत् ज्वालयति स्म । योऽग्नि सकलजंतुषु सकलाश्च ते जंतवश्च सर्वप्राणिनस्तेषु समः सदृशोऽस्ति सोऽग्नि नेतु स्वामिन' प्रदक्षिणयितुं प्रदक्षिणां कारयितुं योग्यो नास्ति ॥ १२ ॥ मंत्रपूतहविषः परिषेका-दुत्तरोत्तरशिखः स बभासे । सूचयन् परमहः पदमस्मै, यावदायुरधिकाधिक दीप्तिम् ॥ १३ ॥ ( व्या० ) मंत्रपूत इति । सोऽग्नि मंत्र तहविष मत्रेग पूतस्य पवित्रस्य हविषो होतव्यद्रव्यस्य परिषेकात् सेचनान् उत्तरोत्तरभिग्व उत्तरा उत्तरा शिखा यस्य स अधिकाधिकशिख सन् बभासे दीप्यते स्म । किं कुर्वन् आमै भगवते यावदायु ( यावदियवे । ३ । १ । ३१ । इस अव्ययी भाव । ) आयुयवत् अधिकाधिकीर्ति सूचयन् कथयन् । किं विशिष्टोऽग्नि परम पद परं च तत् मह' उत्कृष्टतेजः तस्य पदं स्थानम् ॥ १३ ॥ हेनि धाम मदुपाधि कथं ते, मां विना वपुरदीप्यत हैमम् | प्रष्टुमेवमनलः किमु धूमं, स्वांगजं प्रभुमभिप्रजिघाय ॥ १४ ॥ 1 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६) श्रीजैनकुमारसमाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (व्या०) हेम्नि इति ॥ अनलो वैश्वानरः स्वांगजं स्वस्य अंगजः (अजातेः पञ्चम्याः । ५ । १ । १७० । इ. सू. अङ्गपूर्वक जनधातोर्डः । डिल्यन्त्यस्वरादेः इ. सू अन्त्यास्वरादेलोप• अङ्गात् जातः अङ्गजः । ) पुत्ररतं आत्मीयपुत्रं धूमं प्रभु (लक्षणवीप्स्येत्थम्भूतेष्वभिना । २ । २ । ३६ । इ. सू. प्रभुमित्यत्र अभियोगेद्वितीया) अभि स्वामिसंमुखं किमु एवं प्रष्टुं प्रजिधाय प्रहिणोतिस्म । एकमिति किं हे स्वामिन् हेग्नि सुवर्णे धाम तेजो मदुपाधि मन्निमित्तं वर्तते । मां (विना ते तृतीया च । २ । २ । ११५ । इ. सू. मामित्यत्र विनायोगे द्वितीया) विना ते तव वधु हैमं सुवर्णमयं शरीरं कथमदीप्यत ॥ १४ ॥ सोऽभितः प्रसृतधूमसमूहा-श्लिष्टकाञ्चनसमद्युतिदेहः । स्वां सखीमकृत सौरभलुभ्य-भृगसंगमितचम्पकमालाम् ॥ १५॥ (व्या०) स इति । स भगवान् अभित समंततः प्रसृतधूमसमूहाश्लिष्ट कांचनसमद्युतिदेह. प्रसतेन धूमानां समूहेन आश्लिष्ट आलिंगित काञ्चनस्य समा द्युतिर्यस्य देहो यस्य स. एवंविधः सन् सौरभलभ्यद्भगसंगमितचम्पकमालां सौरभेग (प्रज्ञादिभ्योऽण् । ७ । १६५ । इ. सू. सुरभिशब्दात् स्वार्थेऽण् ।) परिमलेन लुभ्यन्तश्चते भंगाश्च ते. संगमिता मेलिता चम्पकपुष्पाणां माला तां स्वां सखीमकृत । एतावता गौरवर्णत्वात् चम्पकमालासहशो भगवतो देहः तत्र लमो धूमश्च भ्रमरसहसदृश । एवं भगवतोदेहत्य चम्पकपुष्पमालायाश्च सरवीत्वं सादृश्यं ज्ञेयमितिभाव ॥ १५ ॥ धृभराशिरसितोऽपि चिरंथ्यो, लौहितत्वमतनोनयनानाम् । चूर्णकश्च धवलोऽपि रदानां, रागमेधयति रागिषु सर्वम् ॥ १६ ॥ (व्या०) धूमरा चिरिति ॥ असितोऽपि कृष्णोऽपि धूमराशि. धमानां राशि समूहः चिरंट्यो (टिण्टश्चर् च वा । १५० । इ. उ. सू. चिरर्धातो. इण्ट प्रत्ययः ।) वधूट्योनयनानां सोचनानां लोहितत्वं आरतवमतनोत् तनोति स्म । च पुनर्धवलोऽपि चूर्णको रवानां दन्तानां लोहितत्वमारतत्वमतनोत् कृतवान् । रागिषु रागवत्सु सर्व वस्तु रागमेधयति पयति ॥ १६ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ५ (१६७ पद्मिनी समवलम्बितहस्तो, बभ्रुमभ्रमददभ्रतरार्चिः । स प्रदक्षिणतया परितोऽग्निं तं शुचि विबुधवल्लभ गोत्रम् ॥ १७ ॥ , ( व्या० ) पद्मिनी इति ॥ स भगवान् पद्मिनीसमवलम्बितहस्तः पद्मिनीलक्षणाभ्यां पद्मिनीभ्यां सुमंगला सुनन्दाभ्यां समवलंबितो ( कारकं कृता । ३ । १ । ६८ । इ. सू. तृतीयातत्पुरुष । हस्तो यस्य स सन् बभ्रु पीतवर्ण अग्निं ( सर्वोभयाभिपरिणा तसा । २ । २ । ३५ । इ. सू. परितोयोगे अग्निमित्यत्र द्वितीया । ) प्ररित प्रदक्षिणतया अभ्रमत् इति । 'भ्रभूच् अनवस्थाना ने' इति दिवादिधातुः परं - 'भ्रमक्कमक्रमत्रसि त्रुटिलपि यसि संयसे व' इति सूत्रेण विकपत्वात् दिवादे श्यो न भवति । अत्र किं लक्षणो भगवान् अदम्रतराचिः अदम्रतरं बहुतरं अर्चिः तेजो यस्य स । शुचिं पवित्रं किं विशिष्टं अग्निं विवुधवलभगोत्रं विबुधानां देवानां वल्लभं प्रियं गोत्रं नाम यस्य स तं अग्निमुखा वै देवा इति वचनात् । द्वितीयेऽर्थे शुचि सूर्य. विबुधानां देवानां वल्लभं गोत्रं पर्वतं मेरुं प्रदक्षिणतया भ्रमति । किं विशिष्टः सूर्य पद्मिनीभि कमलिनीभि: समबलंबिताः हस्ताः करा यस्य सः । शेषं पूर्ववत् ॥ १७ ॥ यत्तदा भ्रमिरतः परितोऽग्निं, मङ्गलाष्टकरुचिर्विभुरासीत् । कुर्वतेऽस्य पुरतंः किमजस्रं, मङ्गलाष्टकमतो मतिमन्तः ॥ १८ ॥ ( व्या० ) यदिति ॥ विभुः (शंसं स्वयं विप्राद् भुवोडुः । ५ । २ ८४ । इ. सू. विपूर्वक भूधातोः डु प्रत्ययः) स्वामी तदा ( किंयत्तत्सर्वेकान्यत्काले दा । ७ । २ । ९५ । इ. सू. कालेऽर्थे तत् शब्दात् दा प्रत्ययः) तस्मिन्नवसरे अग्नि( सर्वोभयाभिपरिणा तसा । २ । २ । ३५ । इ. सू. परितो योगे अग्निमित्यत्र द्वितीया ) मनलं परितः समन्तात् भ्रमिभ्रमणं तस्यां रतः आसक्त' सन् यत् मङ्गलाष्टक रुचिरासीत् । अतः कारणात् मतिरस्ति एपामिति मतिमन्तो विद्वांस अस्य भगवत पुरोऽग्रे क्रिमजस्रं (स्वग्यजस हिंसदीपकम्पकमनमोर । ५ । २ । ७९ । इ. सू शोलादि सदर्थे नञ्पूर्वकजस्धातोः प्रत्य) निरन्तरं मङ्गलाष्टकं कुर्वते ॥ १८ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलकृतम् ॥ सर्गः ५ । श्यालकप्रतिकृतिः प्रभुपादां-गष्ठमिष्ट विभवेन्छुरगृह्णात् । पूर्णमेष तमितोऽस्य निरूचे, श्रीगृहांघ्रिकमलाग्रदलत्वम् ॥ १९ ॥ (व्या०) झ्यालक इति । शालकप्रतिकृति शालकवत् प्रतिकृतिर्यस्य सः शालकसदृशः पुमान् इष्टमभोटं विभवं द्रव्यमिच्छतीति इष्टविभवेन्छु (विन्दिप्छू। ५ । २ । ३४ । इ. सू. शीलादिसदर्थे इप्धातोः इच्छुरितिनिपातः ।) सन् प्रभुपादांगुष्टं प्रभोः पादस्य अंगुष्ट-(अङ्गौ शरीरावयवे तिष्टतीति अड्गुष्ठः । स्थापानात्रः कः । ५ । १ । १४२ । इ. सू. अगुपूर्वकस्थाधातो. कप्रत्ययः । इडेतपुसि इ. सू. आलोपः गोऽम्बाऽऽम्बसल्यापद्वित्रि भूम्यग्निशेकुशड्कु कड्गु-स्य । २ । ३ । ३० । इ. स. पत्वम् ) स्तं स्वामिचरणांगुष्ठं अहणात् गृहीतवान् । एप शालकप्रतिकृतिः पूर्ण संपूर्ण तं विभवं इतः प्राप्त. सन् अस्य प्रभुपादांगुष्ठस्य श्रीगृहांघ्रिकमलाबदलत्वं श्रिया लक्ष्म्या 'गृह यत् अम्रिकमल चरणकमलं तस्य अग्रदल निरूचे निश्चितमूचे । कोऽर्थः स्वामिसत्कचरणकमले निश्चितं लक्ष्मीर्वसति । य एकोऽपि एकचित्तः सन् तत् सेवते सलक्ष्मीमवश्यं प्राप्नोत्येव ॥ १९ ॥ पाणिमोचनविधावथ सार्ध-द्वादशास्स पुरतोऽर्जुनकोटीः । वासवः समकिरत् कियदतत् , तस यः करवसच्छतकोटिः ॥२०॥ (व्या०) पाणिमोचन इति ॥ अथानन्तरं बासव' इन्द्र. पाणिमोचनविधौ पाणिमोचनं उदाहस्तस्य विधौ अस्य भगवत पुरतो-(आधादिभ्य । ७ । २ । ८४ । इ स तसुः ।) ऽ द्वादश द्वाभ्यामधिका दश संख्याका अर्जुनस्य सुवर्णस्य काट रस्ता सुवर्णकोटी समकिरत् । तस्य वासवस्य एतत् द्वादशसं. ख्याकं कियत् वर्तते । यो पासव' करवसच्छतकोटि करे हस्ते वसन्ती शतसंख्या कोटिः वा शतकोटिर्वत्रं यस्य सः ईन वर्तते ॥ २० ॥ रोहणाद्रिविलवासितयान्योपक्रियाव्रतमहारि पुरा यैः । तैस्तदा गिरिभिदास वितीर्णैः, स्वीयसृष्टिफलमाप्यत रत्नैः ॥२१॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१६९ (व्या०) रोहणाद्रिरिति ॥ यः रत्न पुरा पूर्व रोहणादिबिलवासितया रोहण इति अद्रि पर्वतस्तस्य विलं गुहा तस्मिन् वासितया रोहणाचलसत्कगहरवासिवन अन्योपक्रियानतं अन्येषां उपक्रियाया व्रतं परोपकारकरणवतं अहारि । तदा तस्मिन्नवसरे तै. रत्नै गिरिभिदा ( गिरीन् भिनत्तीति गिरिभिद् किम् । ५ । १ । १४८ । इ सू. गिरिपूर्वकभिद्धातो कतरि क्विप् । ) इन्द्रेण अस्य भगपतो वितीर्णे (क्तक्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ सू. विपूर्वकतृधातो कर्मणि क्त । तां विडतीर । ४ । ४ । ११५ । इ. सू ऋकारस्य इभ्वादेर्नामिनो दीवाव्यञ्जने । २ । १ । ६३ । इ सू. इकारस्य दीर्घत्वं । ल्वादेरे पांतोनोऽप्रः । ४ । २ । ६८ । इ. सू तस्य तस्य नत्वं । रघुवर्णान्नोण एक• पदेऽनन्त्यस्याल चटतवर्गशसान्तरे । २ । ३ । ६३ । इ. सू. नस्य णत्वम् ।) दत्तः सद्भि स्वीयसृष्टिफलमाप्यत प्राप्यते स्म ॥ २१ ॥ याः पुरो मघवतास्य विमुक्ता, स्ता वदामि विशदा सुवि मुक्ताः । क्षारपङ्कवसनादितरासां, क्षीण एव खलु शुक्तिमगर्वः ॥ २२ ॥ (व्या०) याः इति ॥ मधवता ( मध· देवसमा सौख्यं वा अस्थास्तीति मधवान् । तदस्याऽस्त्यस्मिन्निति मतुः । ७ । २ । १ । इ सू. मधदात् मतुः । मावर्णान्तोपान्त-वः । २ । १ । ९४ । इ. सू. मतोर्मस्य वः ) इन्द्रेण अस्य भगवतः पुरोऽग्रे या मुक्ता विमुक्ताः । अहं भुवि पृथिव्यां ता मुक्ता मौक्ति. कानि विशदा उज्ज्वला वदामि ॥ तद्यथा-तारवृत्तगुरुस्निग्धं कोमलं निर्मलं तथा, पद्भिर्गुणैः समायुक्तं मौक्तिक गुणवत् स्मृतम् ॥ १ ॥ ईग्गुणयुक्ता दोषमुक्ता मुक्ता विशदा उच्यते ॥ इतरासां मुक्तानां क्षारपङ्कवसनात् क्षारश्च पङ्कश्च तयोर्वसनात् ॥ खट निश्चितं शुक्तिमगर्व-धवलतागुण क्षीण एव ॥ २२ ॥ दीपिकाः सदसि यन्मणिजालैः, क्रोधिताः स्वमहमा परिभ्य । कुत्फलं शलभकेषु वितेनु-स्ता अढौकयदमुष्य स भूषाः ॥ २३ ॥ (०या०) दीपिका इति । स इन्द्र अमुष्य भगवतो हाराहारकटककेयूर. नक्षत्रमालाधास्ता भूषा ( भौषिभूषिचिन्ति-भ्य. । ५ । ३ । १०९ । इ. सू Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ भूषिधातोर्भावाकोरड्आत् इ सू. आप ) आभरणान्यढोकयत् दौकितवान् । सदसि सभायां दीपिकाः (दीपयन्तीति दीपिकाः णकतचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. दीपधातोः कर्तरि णकप्रत्ययः । अस्या यत्तत् क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । ११ । इ. सू. अकारस्यइकार ।) यन्मणिजालैः यासां भूपाणां मणयो रत्नानि तेषां जालानि समूहारत भूषणसत्कमणिकिरणसमूहै । स्वमहसा स्वस्यात्मनो महस्तेजस्तेन आत्मीयतेजसा परिमय पराभवस्थानं कृत्वा क्रोधिता (क्रोधः संजातः आसामिति कोधिता. तदस्य संजातं तारकादिभ्यः इत· । ७ । १ । १३८ । इ. सू. क्रोधशब्दात् इत ) ईर्ष्या प्रापिता. सत्यः क्रुध (क्रुत्संपदादिभ्यः किम् । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. क्रुध्वातो स्त्रियां भावे किप् ) फलं क्रुत्फलं तत् शलभकेषु पतंगेषु वितेनुश्चक्रुः ॥ २३ ॥ श्लक्ष्णशुभ्रमृदुरादित रंभा, स्तंभभंगभवतंतुसमूहः। यद्गुणोपमितिलेशमृभुक्षा-स्तानि तस्य सिचयान्युपनिन्ये ॥ २४ ॥ (व्या०) श्लक्ष्ण इति । मुमा इन्द्रः तानि सिचयानि वानांशुकपट्टांशुक गोर्जनेर्मनीलनेत्र होरागर इव इरागरजादरमेघाडंबरप्रभृतिवस्त्राणि तस्य स्वामिन उपनिन्ये ढोकयामास । सिचयशब्दः पुनपुंसकलिंगो ज्ञेयः । शुभ्रश्वासी मृदुश्च शुम्रमृदु श्लक्ष्णश्चासौ शुभ्रमृदुश्च लक्षणशुभ्रमृदु सूक्ष्मधवलसुकुमाल: रंभस्तंभभंगभवतंतुसमूह: रंभाया कदल्याः स्तंभः तस्य भंगस्तस्माद् भवरतंतूनां समूह यद्गुणोप मितिलेशं येषां वस्त्राणां गुणास्तेषामुपतितेलेश मादित गृहणातिस्म ॥ २४ ॥ यन्मरीचिनिकरे ननु विष्वक्-द्रीचिवीचिसदृशेजलराशेः। पोततिस्मसुयुवापि निविष्टो, रत्नविष्टरमदात् स तमरगै ॥ २५ ॥ (व्या०) यन्मरीचि इति ॥ स इन्द: अस्मै भगवते तं रत्नविष्टर स्नैः निर्मितं विष्टरं रत्नमयसिंहासनमदात् दत्तवान् । स भगवान् युवापि तरुणोऽपि यत्र रत्नसिंहासने निविष्ट उपविष्टः सन् यन्मरीचिनिकरे यस्य सिंहासनस्य मरीचय किरणाः तेषां निकर समूहस्तस्मिन् पोतति (कर्तुः कि५ गल्भक्लीबहोडात्तु Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१७१ डित् । ३ । ४ । २५ । इ. सू. पोतनानाः आचारे किम् ।) स्म पोतो बालः प्रवहणं वा तद्वदाचरतिस्म । किंविशिष्टे यन्मरीचिनिकरे ननु निश्चित विष्वद्रीचि विश्व समंततः अञ्चतीति विश्वयड् तस्मिन् समंततः प्रसत्वरे 'सादि विष्वग् देवा' इति सूत्रेण विष्वद्रोचिरूपनिष्पत्तिः । पुन: जलानांराशि तस्य जलगशे. समुद्रस्य । वोचिसदृशे वीचीनां सदृशस्तस्मिन् कल्लोलसदृशे ॥ २५ ॥ छत्रमत्रुटितचारिम चोक्षे, चामर शयनमुच्चविशालम् । यन्मनोऽभिमतमन्यदपीन्द्रा-द्वस्तु स स्तुतिपदं तदवाप ॥ २६ ॥ (व्या०) छत्रमिति । अत्रुटितचारिम न त्रुटिलं अत्रुटितं अत्रुटितमच्छिन्न चारिम (पृथ्वादेस्मिन् वा । ७ । १ । ५८ । इ. सू चारुशब्दात् भावे वा इमन् । व्यन्तस्वरादे. । ७ । ४ । ४३ । इ. सू अन्त्यस्वरलोपः) रमणीयत्वं यस्य तत् छत्रं चोक्षे पवित्रे चामरे उच्चविशालं उच्चं च तत् विशालं च शयनं अन्यद(पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः । १ । ४ । ५८ । इ. सू अन्यशब्दात् सेर्दै ।) पि यद्वस्तु मनोभिमतं मनस. अभिमतं मनोहारि तद्वस्तु स भगवान् इन्द्रात् अवाप प्राप । किं विशिष्ट वस्तु स्तुतिपदं स्तुते श्लाघाया पदं स्थानम् ॥२६॥ नायक स्त्रिभुवनस्य न चार्थी, दायकश्च कथमस्य दिवीशः । किंतु वाहितमुवाच विवाह-प्रांतरं तनुभृतामयमेव ॥ २७ ॥ (व्या०) नायक इति । त्रयाणां भुवनानां समाहारः त्रिभुवनं ( संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू समाहारद्विगुः ।) तस्य नायकः (णकचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. नीधातोः कर्तरि णक प्रत्ययः । नामिनोऽकलिहले । ४ । ३ । ५१ । इ. सू. वृद्धि । एदैतोऽयाय् । १ । २ । २३ । इ. सू. आयादेशः । ) स्वामी अर्थी याचको न स्यात् । च अन्यत् दिवीश इन्द्रः अस्य भगवतो दायको दाता कथंस्यात् । किन्तु अयं भगवान् तनुभृतां तनुं शरीरं विनंतीति तनुभृतस्तेषां देहिनां विवाहप्रांतरं विवाहस्य दूरशून्यस्य प्रांतरं मागै एवममुना प्रकारेण वाहितमुवाच उक्तवान् ॥ २७ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२) श्रीजैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ५ वल्भनावसरपाणिगृहीती - वक्त्रसंगमितपाणिरराजत् । जातयत्न इव जातिविरोधं, सोमतामरसयोः स निहन्तुम् ॥ २८ ॥ ( ०या० ) वल्भनावसर इति ॥ स भगवान् चल्मनावसरपाणिगृहीतीव संगमितपाणिः वल्भनस्य भोजनस्य अवसरे पाणिगृहीत्योः ( पाणिगृहीतीति । २ । ४ । ५२ । इ. सू. ऊडायां स्त्रियां पाणिगृहीती शब्दोडयन्तोनिपात्यते । पाणि गृहीतो ययोस्ते पाणिगृहीत्यौ । ) पल्यो वक्त्रे मुखे संगमितो मेलितः पाणिर्हस्तो येन स एवंविध - सन् अराजत् शोभितः । उत्प्रेक्षते - सोमव तामरसं च सोमतामरसे तयो' सोमतामरसयोः चन्द्रकमलयो जातिविरोधं जात्याविरोधस्तं निहंतुं विनाशयितुं जातयत्न इव जातः यत्नो यस्य सः कृतोपक्रम व एतावता पत्न्योः मुखं चन्द्र प्रभोस्त कमलमितिभावः ॥ २८ ॥ भक्ष्य मातुरमे पतिपाणि-स्पर्शपोषितरसं मुदिते यत् । तज्जनेन युवतीजनवृत्तेः पुंस्थवस्थितिरिति प्रतिपेदे ॥ २९ ॥ · ( व्या० ) भक्ष्यमिति ॥ इमे सुमंगला सुनन्दे मुदिते हर्षिते सत्यौ पतिपाणिस्पर्शपोषितरसं पत्युः पाणिः हस्तस्तस्य स्पर्शेन पोषितो रस स्वादो यस्यतत् भक्ष्यं ( भक्षयितुं योग्यं । ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद्व्यण् । ५ । १ । १७ । इ. सू. भक्षणू धातोर्घ्यण् । ) आदतु भुंजाते स्म । तत् तस्मात् कारणात् जनेन लोके इति प्रतिपेदे प्रतिपन्नमादृतम् । इतीतिकि युवती ( योः कित् । ६५८ । इ. स. युकूमिश्रणेधातो कित् अतिप्रत्ययः । धातोरिवर्णवर्णस्ये युव स्वरे प्रत्यये । २ । १ । ५० । इ. सू. उवादेश: । इतोऽत्तयर्थात् । २ । ४ । ३२ । ई सू. युवतिशब्दात् स्त्रियां ङी ) जनवृत्तेः खीजनस्य वृत्ते' निर्वाहस्य पुंसि पुरुषे अवस्थितिः अवस्थानं ज्ञेयम् । स्त्रीणां पुरुषा निर्वाह इति भाव ॥ २९ ॥ पाणिना प्रभुरथ प्रणयिन्यो- यत्तदा किमपि भक्ष्यमभुंक्त । प्राभवेऽपि नृपु योषिदधीनं, भोजनं तदिति को न जगाद ॥ ३० ॥ ( व्या० ) पाणिना इति । अथानंतरं प्रभु प्रणयिन्यो पल्यो पाणिना हस्तेन तदा तस्मिन्नवसरे यत् किमपि भव्यं अभुंक्त तत् तस्मात् कारणात् इति Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१७३ को न जगाद अपि तु सर्वः कोऽपि जगाद । इतीति किं तृषु पुरुषेषु प्राभवेऽपि (प्रभोर्भाव प्राभवं । वृवर्णालयाद । ७ । १ । ६९ । इ. सू. प्रभुशब्दात् भावे अण) प्रभुत्वेऽपि सति भोजनं योषिदधीनं योषितामधान स्त्रीणामघोनमायत्तं ज्ञेयम् ॥ ३० ॥ वासवोऽथ वसनांचलमोक्षं, निर्ममे विधिवदीशवधूनाम् । विश्वरक्षणपरस्य पुरोऽस्या-ऽचेतनेष्वपि चिरं नहि बंधः ।। ३१ ॥ (व्या०) वासव' इति । अथानंतरं वासव (वसति स्वर्गे इति वासवः । मणिवसेर्णित् । ५१६ । इ. उ सू. वस् धातोर्णित् अब प्रत्ययः । णिति । ४-३-५० । इ. सू. उपान्त्यस्य अस्य वृद्धिः) इन्द्र. ईशवधूनां ईशश्च वध्वः च ईशवध्वस्तासां विधिवत् (तस्या, क्रियायां वत् । ७ । १ । ५१ । इ. सू. विधिशब्दात् अहेऽर्थे वत् प्रत्ययः) लोकोक्तप्रकारेण वसनांचलमोक्ष वसनयोत्रियो अंचले अन्तौ तयोर्मोक्षं निर्भमे कृतवान् । विश्वरक्षणपरस्य विश्वस्थ जगतो रक्षणे परस्य अस्य भगवतः पुगेऽने अचेतनेष्वपि बंधश्चिरं नहि स्यात् । अजीवाणारंभ इत्यागमेऽपि वचनम् ॥ ३१ ॥ ॐठपद्विधुमुखेन्दुनिरीक्षा-मेदुरप्रमदवारिधिवीच्यः । नाकिनां हृदयरोधसि लग्ना-स्तेनिरे तुमुलमम्बरपूरम् ।। ३२ ॥ (व्या०) ॐवदिति ॥ ॐवान् परिणीतप्रभुस्तस्य मुखं पदनमेवइन्दुश्चन्द्र तस्य निरीक्षा निरीक्षणं दर्शनं तस्मात् मेदुरा (भञ्जिभासिमिदो धुर । ५ । २ ७४ । इ. सू. मिद्धातो. शीलादिसदथें घुग्प्रत्यय । लघो रुपान्त्यस्य । ४ । ३ ४ । इ सू. उपान्त्यस्वरगुण) पुष्टा ये प्रमदो हर्ष स एव वारिधिः समुद्रस्तस्य वीच्यः कल्लोलाः । नाकिनां देवानां हृदयरोधसि हृदयमेव रोधस्तदं तस्मिन् लग्ना. सत्य अम्बरपूर अम्बरस्य पूरं आकाशपूरणसमर्थ तुमुलं कोलाहलं तेनिरे कुर्वन्ति स्म ॥ ३२॥ यन्ननते मघवानघबाक्त्वं, नात्र शंभुभरतौ विभृतः स्मः । तद्विवाहविधिसिद्धनिजेच्छा-भूरभूव प्रमद एव गुरुस्तु ॥ ३३ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (व्या०) यदिति ॥ मघवा (वन् मातरिश्वन् मूर्धन् लोहन् अर्थमन् विश्व-सन् परिज्वन् महनहन् मधवनवनिति । ९०२ । इ. उ. पू. अन् प्रत्ययान्तो मघवन्शब्दो निपात्यते मङ्घते इति मववा) इन्द्रो यत् ननत नृत्यं चकार । अत्र नृत्ये शंभुभरतौ शंभुश्च महादेवो महानत्वात् भरतश्च भरतशास्त्रकर्ता अनधवाक्त्वं अनधा (उष्ट मुखादयः । ३ । १ । २३ । इ. भू. समासः । अन् स्वरे । ३ । २ । १२९ । इ. सू. नञः अन् । न विद्यते अध यस्यां सा अनघा ।) निर्दूषणा या वाक् वाणी तस्या भावः अनधवाक्य एतापता उपदेशकत्वं न विमृत' स्मः । तु पुन: तद्विवाहविधिसिद्धनिजेप्छाभू तस्य स्वामिनो विवाहस्यविधिः तस्मात् सिद्धा निप्पन्ना या निजस्य इच्छा तस्या भवतीति उत्पन्न प्रमदो हर्ष (संमद प्रमदी हर्षे । ५ । ३ । ३३ । इ. सू. अलन्तः प्रमदशब्दः) एव गुरुरभूत् गुरुराचार्य. प्रौढो वा । गुरुहीना नृत्यादिकलान स्यात् ।। नृत्यतोऽस्य करयुग्ममलासी-न्मुक्तिमेवमुपरोद्धमिवोर्ध्वम् । नात्र नेतरि विरक्तिवयस्यां, संप्रति प्रहिणुया वरणाय ॥ ३४ ॥ (०या०) नृत्यतः इति ॥ अस्य इन्द्रस्य नृत्यतीति नृत्यन् तस्य सतः करयोहस्तयोयुग्मं द्वन्द्वं करयुग्मं अर्धमलासीत् अवमुष्ठलति स्म । मुक्ति उपरोधुमिव । एवमिति किम् । अत्र अस्मिन् नेतरि स्वामिनि संप्रत्यधुना विरक्तिवयस्यां विरतराग्यस्य वयस्यां (हचपचतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुप्यागार्हपत्यजन्यधय॑म् । ७ । १ । ११ । इ. सू. वयस्यशब्दो यान्तो निपात्यते आत् इ. सू आप वयसा तुल्या वयस्था ।) सखों वरणाय न प्रहिणुयाः नैव प्रेषये ॥ ३४ ॥ अंगहारभरभंगुरहार सस्तमौक्तिकमिषामृतबिन्दून् । अप्सरः सरसगानसमाने, नतेनेऽतत शचीप्रमदाब्धिः ॥ ३५ ॥ (व्या०) अंगहार इति ॥ शचोप्रमदाधिः शच्या इन्द्राण्याः प्रमदो हर्ष. स एव अधिः समुद्रः । अप्सर: सरसगानसमाने अप्सरसा रसेन सह वर्तते इति सरसं यत् गानं (अनट् । ५ । ३ । १२४ । इ. सू. गैधातो. भावे अनट Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महापाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१७५ गीयते इति गानं) तस्य समानं सदृशं तस्मिन् नर्तने नृत्ये सति । अंगहारभरभंगुरहारतरतमौक्तिकमिपामृतबिंदून् अंगहारस्य अंगविक्षेपस्य भरः समूहस्तेन भंगुरत्रुटितोयो (भलिभासिमिदोधुरः । ५ । २ । ७४ । इ. सू. भञ्चातो. घुर भव्यते इत्येवं शोलं भड्गुरं ।) हारस्तस्मात् सस्तानि यानि मौक्तिकानि तेषां मिषेण अमृतस्य विन्दवरतान् अतत विस्तारयति स्म ॥ ३५ ॥ गेय सारधवला प्रमदौथैः, क्लीवदुर्वहकरग्रहचिह्नः। सोऽभ्यगागृहमथो परदेशा-भृमिपाल इव लब्धमहेलः ॥ ३६॥ (व्या०) गेयसार इति ॥ अथो अथानन्तरं स भगवान् गृहमभ्यगात् गृहं प्रतिययौ । किंविशिष्टो भगवान् प्रमदौघैः प्रमदानां स्त्रीणां ओघाः समूहास्तैः गेयसारधवल. गेयाः (आत्सन्ध्यक्षरस्य । ४ । १ । २ । इ. सू. गैधातोरात्वं यएचातः । ५। १ । २८ । इ. सू. गाधातोर्यप्रत्ययः आकारस्य एकारश्च गातुं योग्या. गेयाः ।) सारधवला यस्य सः पुन: किं० क्लीबैः पढदुहं करमहचिह्न पाणिग्रहणचिह्न यस्य स क्लीबैः कातरैर्दुहं करमहत्य सर्वदेशदंडग्रहणस्य चिह्न यस्य सः पुनः किं० लब्धा महती इला पृथिवी इडा स्तुति येन स. लब्धमहेल. (पुम्वत्कर्मधारय । ३-२-५७ । इ. सू. महतीशब्दस्य पुम्वद्भाव जातीयैकार्थेऽच्चे: । ३ । २ । ७० । इ. सू. डाः सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् । ३ । १ । १०७ । इ. सू. समासः ।) डलयोरैक्यम् ॥ भूमिं पालयतीति भूमिपालो (कर्मणोऽण् । ५ । १ । ७२ । इ. सू. भूमिपूर्वकपालधातोः अण् प्रत्ययः । अत्युक्तं कृता । ३ । १ । ४९ । इ. सू. समासः) यथा परदेशात् अन्यदेशात् स्वगृहं अभ्येति तत् ॥ ३६ ॥ स्वामिनः पथि यतः पुरतो य-स्तूरपूरनिनदः प्रससार ।। स स्वमन्दिरगतासु बभारा-कृष्टिमंत्रतुलना ललनासु ॥ ३७॥ (व्या०) स्वामिन इति ॥ स्वामिनः श्रीषभदेवस्य पथि मागे यत:गच्छतः सतो य स्तत १ वितत २ धन ३ शुपिराणां च तूराणां पूरस्थनिनदो ध्वनिः प्रससार । स तूरपूरनिनदः स्वस्य मन्दिराणि गृहाणि तानि गताः प्रासा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः ५ स्तासु आत्मीयावासस्थितासु ललनासु स्त्रीषु आकृष्टिमंत्रतुलनां आकृप्टेराकर्पणस्य यो मंत्रतिस्य तुलनां (णिवेत्यासश्रन्थधव-देरनः । ५ । ३ । १११ । इ. सू. तुलधातो. अनप्रत्ययः । आत् इ. सू. स्त्रियामाप् ।) समतां वभार । कोऽर्थ. तूरपूरनिनदेन (नेनंदगदपठस्वनक्कण । ५ । ३ । २६ । इ. सू. निपूर्वकनदधातो. भावाकोंर्वाल ।) स्वामिनं नवपरिणीतं सवधूकमागच्छन्तं श्रुत्वा स्त्रियः स्वव्यापार विमुच्य गता विलोकनायेति भावः ॥ ३७॥ पंक्तिमौतिकनिवेशनिमित्तं, स्वक्रमांगुलिकया धृतसूत्राम् । हारयष्टिमवधूयदधावे, वीरुधं करिवधूरिव काचित् ॥ ३८ ॥ (व्या०) पंक्ति इति ॥ काचित् स्त्री हारयष्टिं अवधूय अवगणय्य दधावे धाविता । केव करिवधूरिव करिणोवधः यथा करिवधूहस्तिनी वीरुधं वल्ली अवघय धावति । कि वि० हास्यष्टिं पंक्तिमौक्तिकनिवेशनिमित्तं पंक्त्या मौक्तिकानां निवेशन स्थापनं तन्निमितं स्वस्य क्रम पादस्तस्य अंगुलिका तथा आत्मीयचरणांगुलिकया धृतं सूत्रं यस्था सा तां धृतसूत्राम् ॥ ३८ ॥ कापि नार्धयमितश्लथनीवी, प्रक्षरन्निवसनापि ललाजे । नायकानननिवेशितनेत्रे, जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥ ३९ ॥ (व्या०) कापि । कापि स्त्री अर्धयमितश्लथनीवीप्रक्षरन्निवसना अर्धयमिता अर्धनिबद्ध। अत एव श्लथा या नीवी मेखला तस्याः प्रक्षरत् पतत् निवसनं वस्त्र यस्याः सा अपि सती न ललाजे न लज्जता । लजाया अभावे हेतुमाह किलक्षणा काचित् जन्यलोकनिकरे लोकानां निकर. समूह: जन्यो यो लोकनिकरस्तस्मिन् समेता आगता नायकस्य स्वामिन आननं वदनं तस्मिन् निवेशित नेत्रे येन स तस्मिन् ॥ ३९ ॥ तत्समिन्निशमनोच्चासितान्या, कंचुकत्रुटिपटूकृतवक्षाः । यौवनोत्कटकटाक्षितकुंतः, पाटितापिमुभटीव पुरोऽभूत् ॥४०॥ (०या०) तदिति ॥ अन्या स्त्री यौवनोत्कटकटाक्षितकुंत यूनो भावो यौवनं तारुण्यं तेन उत्कटा ये तरुणपुरुषास्तेषां ये कटाक्षिता ) सङ्कटाभ्याम् । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१७७ ७ । ३ । ८६ । इ. सू. कटपूर्वक अक्षिशब्दात् अ । तदस्य संजातं) ते एव' कुंता मल्लास्तैः पाटितापि विदारितापि सुभटीव पुरोऽग्रे अभूत् । किं लक्षणा अन्या तस्य भगवत. समित् (कुत्सम्पदादिम्य: क्किपू । ५ । ३ । ११४ । इ. सू. संपूर्वक इण्घातो. किप् । हस्वस्य त इ. सू. तोन्त संयन्ति अत्र इति समित् । ) सभासंग्रामो वा तस्य निगमनेन निरीक्षणेन उच्छसिता तत्समिनिशमनोच्छु सिता । कंचुकचुटिपटूकृतवक्षा कंचुक. कंचुलिका तस्य जुन्या नोटनेन पट्ट्कृतं वनो हृदयं यस्याः सा ॥ ४० ॥ तूर्णिमूढहमपास्य रुदन्तं, पोतमोतुमधिरोप्य क्टीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम् ॥४१॥ ( व्या० ) तूर्णि इति ॥ कापि स्त्री जन्यजनैर्लोकः स्वं हस्यमानमपि नहि जज्ञे नहि ज्ञातवती । किं कृतवती पोतं बालं रुदन्तं अपास्य त्यक्त्वा ओं विडालं कटोरे (कृपूपूग्मञ्जिकुटिकटि - र. । ४१८ । इ उ सू. कटेधातो: હૃદૃરું ईर: ) कटीतटे अधिरोप्य धावितवती (तक्तवतू । ५ । १ । १७४ । इ. सू. धावूयातोः भूते क्तवतुः । स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट् । ४ । ४ । ३२ । इ सू. इट् । अधातूदृदितः । २ । ४ । २ । इ सु धावितवत् शब्दात् स्त्रियां डी) कि लक्षणा स्त्री तूर्णिमूढदृक् तूर्ण्या (कावावीत्री श्रिश्रुक्षुज्वरितरि - णिः । ६३४ । इ. उ. सू. तूरिधातोर्णि) औत्सुक्येन मूढा दृष्टिर्यस्याः सा ॥ ४१ ॥ कज्जलं नखशिखासुं निवेश्या-लंक्कमक्षणि च वीक्षणलोला । कठिका पदि पदांगदमुचः, कंठपीठलुठितं रचयन्ती ॥ ४२ ॥ मज्जनात्परमसंयतकेशी, वैपरीत्य विधृतांशुकयुग्मा | काचिदागतवती ग्रहिलेव, त्रासहेतुरजनिष्ट जनानाम् ॥ ४३ ॥ युग्मम् ॥ " ( व्या० ) कज्जलमिति । काचित् स्त्री ग्रहिला इव आगतवती आयाता सती जनानां लोकानां त्रासहेतु त्रासस्य हेतु अजनिष्ट जाता । किं लक्षणा स्त्री वीक्षणलोला वीक्षणे लोला विलोकनचपला । किं कुर्वती कजलं नखशिखासु नखानां शिखास्तासु निवेश्य च पुन अलतं अक्षणि लोचने निवेश्य कंठिकां Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः५॥ कंठाभरणं पदि चरणे निवेश्य पदांगद नू पुरं उच्चैः कंठ एव पीठं तस्मिन् लुटितं कंठपीठठित रचयन्ती । पुनः किंलक्षणा स्त्री मन्जनात् स्नानात परं अनंतर असंयतकेशी (असहनविधमानपूर्वपदात् स्वाङ्गादकोडादिभ्यः । २-४-३८ । इ. सू. स्वागवाचिकेशशब्दात् वा डीः ।) न संयताः असंयताः केशा यया सा अबकुन्तला । वैपरीत्यविधृतांशुकयुग्मा परिधानवस्त्रं शीर्षे शीर्षवस्त्र परिधाने एवं वैपरीत्येन धृतं अशुंकयोर्वस्त्रयोयुग्मं यया सा ॥ ४२-४३ ॥ युग्मम् ॥ यौवतेन जविना वरवीक्षा-धाविना विधुरितप्रसरान्या । पत्युरिष्टमपि मन्दितचारं, स्वं निनिन्द जघनस्तनभारम् ॥ ४४ ॥ (०या०) यौवतेन इति ॥ अन्या स्त्री पत्युरिष्टमपि भर्तुरभीष्टमपि मन्दितचार मन्दितः चारो गमनं येन त मन्दीकृतगमनं स्वं आत्मीयं जघनस्तनभारं जधनं च स्तनौ च एषां समाहारस्तस्य भारस्तं निनिन्द । किलक्षणा अन्या जवोऽस्यास्तीति जवि तेन वेगवता यौवतेन (षष्ठयाः समूहे । ६ । २ । ९ । इ. सू. युवतिशब्दात् समूहेऽर्थे अण् । वृद्धिः स्वरेष्वादेणिनि तद्धिते । ७ । ४ । १ । इ. सू. आदिस्वरवृद्भिः ।) युवतीनां समूहस्तेन विधुरित प्रसरो यस्याः सामन्दीकृतत्वरितगमना। किंलक्षणेन यौवतेन वरस्य वीक्षा प्रेक्षणं तदर्थ धावतीति तेन ॥ ४४ ॥ निनिमेषनयनां नखचर्या-ऽस्पृष्ठभूमिमपरामिह दृष्ट्वा । को नु देव्यजनि पश्यत देव-ध्यानतोद्रुतमसावितिनोचे ॥४५॥ (व्या०) निर्निमेषनयनामिति । इह समुदाये अपरां त्रियं निनिभेषनयनां निनिमय नयने यस्या. सा तां निमेषरहितलोचना नखानां चर्यया (समजनिपनिषद् शीमुग्विदिचरिमनी णः । ५ । ३ । ९९ । इ. सू. चातो वे क्यप् चरणं चर्या । ) अस्पृष्टा भूमिर्यया सा तां दृष्ट्वा कः पुमान् इति न ऊचे । इतीति कि भो भो जना पश्यत असौ स्त्री नु इति वितर्के देवस्य प्रभोर्ध्यानात् इति देवघ्यानतः द्रुतं शीघ्र देवी अजनि । यतो देवतापि निनिमपनयना अस्पृष्ट. भूमिश्वस्यात् । 'चतुरंगुलेण भृमि न छिवंति सुरा जिणाविति' इति वचनात् ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भवायं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१७९ प्रागपि प्रभुरभद्रमणीयः, काधिकास्यविदधे विबुधैः श्रीः यत्त एव परियंत्यमुमन्या, तदिक्षुरितिसेव्यमुवा च ॥४६॥ (व्या०) प्रागिति । अन्या स्त्रो तस्य स्वामिनो द्रष्टु मिल्छुः दिक्षुः (सन् भिक्षासेरु. । ५ । २ । ३३ । इ. सू. सन्नन्तात् दिदृक्षधातोः प्रत्ययः) तं भगवन्तं द्रष्टु मिच्छुः सती इति अमुना प्रकारेण सेप्य ईO सहितं यथा भवति तथा उवाच । इतीति किं प्रभुः स्वामी प्रागपि अग्रेऽपि रमणीयोऽभत् । (प्रवचनीयादयः । ५। १ । ८ । इ. सू रम्धातो कतरि अनीयः ।) विबुधैर्दवरस्य भगवत. का अधिका श्री शोभा कृता । यत् यस्मात् कारणात् ते . एव देवा एवं अमुं भगवन्तं परियंति परिवृण्वन्ति ॥ ४६ ॥ मुश्च वर्मसखि पृष्टगतापि, त्वं निभालयसि नाथमकृच्छम् । इत्युपात्तचटुवाक् पुरतोऽभूत, कापिखर्वत्रपुरुचतरांग्याः ॥ ४७॥ (व्या०) मुञ्च इति । कापि खर्व हस्वं वपुः शरीरं यस्याः सा वामनगरीरा स्त्री । उच्चतरं अंग यस्याः सा तस्या उच्चस्तराङ्गायाः) नासिकोदरौष्ठजलादन्तकर्णशङ्गाङ्गगात्रकण्ठात् । २ । ४ । ३९ । इ. सू. अङ्गशब्दात् स्त्रियां डी:) स्त्रियाः इति अभुना प्रकारेण उपात्तचटुवाक् उपात्ता गृहीता चाटुवाक् यया सा गृहीतचाटुवचनासती पुरतोऽग्रेअभूत् इतीति किं हे सखि त्वं वर्म मार्ग मुश्च । त्वं पृष्ठंगता पृष्ठातापि पृष्टस्थितापि सती नाथं स्वामिन अकृळू सुखेन निभालयसि विलोकयसि ॥ ४७ ॥ एवम तरसोंभितनारी-नेत्रनीलनलिनांचितकायः । तासु कांचनमुदं प्रददानः, स्वालयाप्रमगमजगदीशः ॥४८॥ (व्या०) एवमिति । जगदीशः जगतामीशी जगन्नाथः स्पालयानं स्वस्थ आलयस्य अग्रं स्वीयावासद्वार अगमत् । किलक्षणो जगदीशः एवं पूर्वोक्त प्रकारेण अद्भुतरसोंभितनारीनेत्रनीलनलिनांचितकायः अद्भुतश्चासौ रसश्च तेन उंभिताः पूरिता ताश्वता: नार्यश्च तासां नारीणां नेत्राणि नीलानि नलिनानि कमलानि तैः कमलैः अंचितः पूजितः कायो देहो यस्य सः । तासु नारीषु कांचन अपूर्वी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्ग: ५ मुदं हर्ष प्रदत्ते इति प्रददान• पक्षे कांचनं सुवर्ण प्रभुपूजायाः फलं देवचणेण रज्झं इति वचनात् ॥ ४८ ॥ हस्तिनो हसितमेरुमहिम्नो, गांगपूरवदथावरतरन्तम् । वासवः शमितपातकतापं, तं दधौ घुगतमेव बलोग्रः॥४९॥ (व्या०) हस्तिन इति । अथानन्तरं वास इन्द्रः तं भगवन्तं हस्तिन ऐरावणात् अवतरतीति अवतरन् तं धुगततेव दिवंगतः तं आकाशस्थमेव दधौ धृतवान् । किं वि० इन्द्र. बलेन उप्र: बलोग्रः उत्कटः । अथवा उप्र. ईश्वरः । यथा उस ईश्वरः मेरो मेरुपर्वतात् अवतरन्तं गांगपूर (गङ्गायाः इदं गाङ्गं तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. गङ्गाशब्दात् इदमर्थे अण् । स्यादेरिवे ७ । १ । ५२ । इ. सू. गागपूर शब्दात् सारयेऽर्थे वत् गागपूरिमिव गाङ्गपूरवत् । ) गंगायाः पूरं धुगतमेव दधौ । किविशिष्टात् हस्तिनः हसित: मेरोमहिमा येन स तस्मात् हसितमेरुमहिम्नः कीदृशं भगवन्तं शमितः पातकानां तापो येन तं शमितपातकतापम् ॥ ४९ ॥ हेमकान्ति हरिणा हरिणाक्षी-यामलं पुनरदीयत शन्यै । पाणिभूषणतण क्षणमस्या-स्तत् मुवृत्तमभजलवाभाम् ॥ ५० ॥ (०या०) हेमकान्ति ॥ हरिणा इन्द्रेण हेम सुवर्ण तद्वत् कान्तिर्यस्य तत् हेमकान्ति हरिणाक्षीयुगलं हरिणस्य मृगस्य अक्षिणी एव अक्षिणी ययोस्ते हरिणाल्यौ (उमुखादयः । ३ । १ । २३ । इ. सू. व्यधिकरणबहुव्रीहिः । सक्थ्यदा स्वाङ्गे । ७-३-१२६ । इ. सू. ट समासान्त । अणयेकण-म् २। ४ । २० । इ. सू. खियां डी. 1) तयोर्यामलं युगलं तत् हरिणामीयामलं वधूयुगलं पुनः शच्यै इन्द्राण्य अदीयत दत्तम् । तत् हरिणाक्षीयामलं क्षणं अस्या. शच्या पाण्योभषणता तया हस्ताभरणत्वेन वलययोराभां वलयामां कंकणशोभामभजत् किलणं हरिणाक्षीयामलं मुवृत्त शोभनवृत्तं चरित्रं यस्य तत् सुष्टु वृत्त वृत्ताकारम् ॥ ५० ॥ असंदेशमनयन्नयशाली, तं हरिः स्वमथ शच्यपि वध्वौ । शक्तिमत्त्वमखिलापधनेभ्यो, विश्रुतं किमुपरीक्षितुमस्य ॥५१॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग ५ (१८१ ( व्या० ) असदेशमिति । अथानंतरं नयशाली नयेन शानते इति नयशाली हरिरिन्द्रस्तं भगवन्तं स्वमात्मोयं अमस्य देशस्तं रकंधप्रदेशं अनयत् । शच्यपि इन्द्राणी अपि वव्यौ सुमंगलानन्दे स्वं असदेशमनयत् । क्रिकर्तु अस्य अंसदेशस्य अखिलाने अपघनाथ ( निधो सोनाऽपघनोपनं निमित्त प्रशस्तगगाऽसाधाङ्ग ISSसन्नम् । ५ । ३ । ३६ । इ. सू. अपपूर्वक हन्धातो. अपघननिपातः ) तेभ्यः समस्तावयवेभ्यो विश्रुतं विख्यातं शक्तिरस्यास्तीतिशक्तिमत् तस्य भावः शक्तिमत्वं शक्तियुक्ततां किमु परीक्षितुम् ॥ ५१ ॥ विश्वविश्वविभुना परिणद्वै - कांसभूरपि विभुः स ऋभूणाम् । संगतांसयुगलामवलाभ्यां न स्वतः प्रणयिनीं बहु मेने ॥ ५२ ॥ 5 ( व्या० ) विश्व इति । ऋभ्रूणां देवाना विभु स्वामी स इन्द्र विश्वविश्वविभुना विश्वं च तत् विश्वं च तस्य विभु स्वामी तेन समग्रविश्वाधिपेन परिणद्वैकांस भूरपि परिणा व्याप्ता एकस्यांसस्य भूः स्थानं यस्य स सन् उम्राभ्यां सुमंगला सुनन्दाभ्यां अचलाभ्यां संगतांसयुगलां संगतं मिलितं अंसयोर्युगलं यस्याः सातां मिलितस्कंधयुगलां अपि प्रगयिनों इन्द्राणी रवत आत्मनो न बहु मेने । कोऽर्थः इन्द्रेण भगवान् एकस्मिन् स्कंधे आरोपितः इन्द्राण्या उभयो स्कंघयोर्वधूयुग्भमारोपितम् । तेनात्मानं न्यूनत्वेन न मेने । भगवानेकोऽपि गुरु वध्र्वौ तु अबले इति भाव ॥ ५२ ॥ 1 तत्र तौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ, तंच तेच परितोषयतः स्म । क्ष्मां तदह्निकमलस्पृहयालु, प्रक्षरत्सुमचयैः सुखयन्तौ ॥ ५३ ॥ ( व्या० ) तत्र इति । तत्र तस्मिन्नवसरे तौ शचीन्द्रौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ प्रमदेन हर्षेण निर्मित नृत्यं (ऋदुपान्त्याकृपिचूडच' । ५ । १ । ४१ । इ सू नृत्धातो. क्यप् । ) याभ्यां तौ तं च भगवन्तं ते च वब्वौ परितोषयत स्म । किंकुर्वन्तौ तौ शचीन्द्रो तद्दिकमलस्पृहयालुं तस्य भगवतः अंही चरणौ एव कमले तयो' स्पृहयालु (शीश्रद्वानिद्रातन्द्रादयिपतिगृहिस्पृहेरालुं । ५ । २ । ३७ । इ. सू. स्पृहिधातोराल 1) स्पृहणगीलां क्ष्मां पृथ्वीं प्रक्षरन्तश्चते सुमानां पुष्पाणां चयाश्वतैः पतद्भि पुष्पसमृहै सुखयन्तौ सुखं कुर्वन्तौ ॥ ५३ ॥ : Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम सर्गः५॥ अप्सरोभिरिति कौतुकगाने, ऽप्यस्य न स्मरवशत्वमभाणि । मास्म लजिततरस्तरुणीना-मिष्टमेष कषदेकभटस्तम् ॥ ५४॥ (व्या०) अप्सरोभिरिति । अप्सरोभिर्देवांगनाभिः (आप्यन्ते पुण्यैरितिअसरस आपोऽपाप्ताप्सगजाश्च । ९६४ । इ. उ. सू. आप्लंट व्याप्तो इति धातोः अस् प्रत्ययः आप्वातो असर आदेशः ।)इत्यस्मात्कारणात् कौतुकेन गानं तस्मिन् कौतुकगाने कौतुकेनगीतगानमध्येऽपि अस्य भगवतः स्मरवशत्वं स्मरस्य कामस्थ पशवमधीनत्वं न अमाणि न भणितम् । इतीति किं एकश्चासौ भटश्च एकभटः एष भगवान् लजिततर लजितः सन् तरुणीनां स्त्रीणां इष्टं तं स्मरं कंदप्पै मा स्म कषत् (सस्मे ह्यस्तनी च । ५ । ४ । ४० । इ. सू. स्मयु माडि उपपदे कधातोः ह्यस्तनी। अड्धातोरादिस्तिन्यां च माडा । ४ । ४ । २९ । इ. सू. माड्योगे अडभाव ) मास्भ हिंसीत् ॥ ५४ ॥ नेत्रमंडलगलज्जलधारा-धिष्ण्यबंधुरिमधूर्वहदेहः । तं शतक्रतुरथोकृतकृत्यः, स्वर्यि यामुरभिवन्ध जगाद ॥ ५५ ॥ (व्या०) नेत्र इति । जथो अथानंतर शतं कतबो यस्य स शतक्रतु: इन्द्र कृतानि कृत्यानि येन स कृतकृत्यः निष्पादितसर्वकार्य सन् स्वर्यियासुः) (सन् भिक्षासंशेरु । ५-२-३३ । इ. सू. सन्नन्तात् यियास्धातोः उप्रत्ययः।) स्वः स्वर्ग यातुमिच्छु स्वर्गगमनेच्छुः तं भगवन्तमभिवंय जगाद स्थाने मुक्या इत्यूचिवान् । किंलक्षण इन्द नेत्रयोमंडलं तस्मात् गलत् यत् जलं तस्य धारायाः धियं (धृष्णुवन्ति अस्मिन् विष्ण्यं । शिक्या स्यात्या । ३६४ । इ उ. सू. यप्रत्ययान्तोनिपातः) गृहं धारागृह तस्य बंधुरिमा मनोजत्वं तस्य धूर्वहो भारवाहो देह शरीर यस्य स नेत्रमंडलालजलधाराधिप्ण्यवंधुरिमधूहदेहः ॥ ५५ ॥ रूपसिद्धिमपिवर्णयितुं ते, लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः । यच्चतुष्ककलनापि दुरापा, तद्धितप्रकरणं मनुते कः॥५६॥ (व्या०) रूपसिद्धि मिति । हे लक्षणाकर भंगारचामरयुगध्वजयुग्मशंख मंजीर नीधिस रेत् पुष्करिण्य इत्यायष्टोत्तरसहनलक्षणानामाकरो यः पक्षे लक्षणानां Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१८३ व्याकरणानां आकरस्तस्य संबोधनं । वाक्यतिः बृहस्पतिः ते तव रूपसिद्धिमपि रूपं शरीरस्य तस्य सिद्धि: पक्षेरूपसिद्धिः शब्दसिद्धिस्तामपि वर्णयितुं न ईश. न समर्थः । यच्चतुष्ककलनापि यस्य भगवतः चतुष्कावसरः सभावसर तस्य कलनापि दुरापा दु खेन आप्यते इति दुरापा (दुःस्वीपतः कृष्छाकृच्छ्रार्थात रूलू ५ । ३ । १३९ । इ. सू. दु पूर्वकआपधातो. खल । आत् इ. सू. आप् ।) दुःप्राया वर्तते । तद्धितप्रकरणं तस्य भगवतो हितप्रकरणं तदा को मनुते जानाति अपि न कोऽपि यस्य चतुष्के सभायामपि गन्तुं न शक्यते तस्य हितप्रकरणं हितचिन्ता कथं क्रियते । द्वितीयेऽर्थे तस्य लक्षणाकरस्य तद्वितप्रकरणं तद्धितवृत्ति को मनुते यस्य चतुष्कस्य आधवृत्ते. कलनापि दुगपा दुपाया अस्तीति ।। यन्महः ममुपजीव्य जडोऽपि, स्यात् कलाभूदिति विश्रुतिपात्रम् । यन्नये विनयनं तव तस्य, द्योतनं द्युतिपतेस्तदधीश ।। ५७ ॥ (व्या०) यन्महः इति । हे नाथ यस्य तब मह' यन्महस्तत् समुपजीव्य जडोऽपि मुखोऽपि कलामृत् कला बिभर्तीति विश्रुतिपात्रं विश्रुतेः पात्रं (नीदाम्ब सयुयुज्स्तुतुदसिसिभिहपतपानहस्त्रट । ५ । २ । ८८ । इ. सू पाधातो जद पिबन्ति अनेनेति पात्रम् ।) स्थानं कलावान् इति विश्रुतिपात्रं ख्यातिस्थान स्यात् । पक्षे यन्मह' यस्य द्युतिपते. सूर्यस्य महस्तेजः समुपजीव्य जडोऽपि चन्द्र कलाभृत् स्यात् । अमावास्यायां सूर्याचन्द्रमसौ संगतौ स्याताम् । ततश्चन्द्रः सूर्यात्तेजः प्राप्य प्रतिपदि गोभिर्विलोक्यः स्यात् द्वितीयायां मानुषैः । एवं कलाधर इति प्रसिद्धः स्यात् तस्य तब नये न्यायविषये यद् विनयनं शिक्षणं हे अधोश तत् द्युतिपतेः सूर्यस्य द्योतनं प्रकाशन वर्तते ॥ ५७ ॥ चचिम किचन पुनः प्रभुभक्त्या, ये इमे ऋजुमती कुलकन्ये । आदृते भगवता सुविनीते, प्रेम जातु न तयोः श्लथनीयम् ॥ ५८ ॥ (व्या०) वच्मि इति । हे नाथ अहं पुन: किंचन प्रभोभक्तिस्तया प्रभुभक्त्या वच्मि वदामि । ये इमे ऋजुमनी विचक्षणे सुविनीते कुलकन्ये सुमंगलासुनन्दे भगवता (तदस्याऽस्यस्मिन्निति मतुः । ७-२-१ । इ. सू. भगशब्दात Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ भतुः । मावर्णान्तोपान्तापञ्चमवर्गान् मतोर्मों वः । २ । १ । ९४ । इ. सू. मतोमस्य व. भगमैश्वयभस्याम्तीति भगवान् ।) आते स्तः । अतोहेतोस्तयोः कन्ययोरुपरि प्रेम स्नेहो जातु कदाचिदपि नश्लथनीयं (तव्यानीयौ । ५-१-२७ इ. मू. श्लथ्वातोः अनीय ।) न न्यून कार्य भवतेति शेषः ॥ ५८ ॥ यः परोऽपि विभुमाश्रयतेऽसौ, तस्य पुण्यमनसः खलु पाल्यः । किं पुनः कुलवधूरवधूय, प्रेम पैतृकमुपान्तमुपेता ॥ ५९ ॥ (व्या०) यः इति । हे नाथ यः परोऽपि अन्योऽपि विभुं स्वामिन आश्रयते । खलु निश्चितं असौ पुमान् पुण्यं मनो यस्य सः पुण्यमना: तस्य विभोः स्वामिनः पाल्यः रक्षणीय. स्यादिति । किंपुनः कुलवधूः कुलवधूनां किमुच्यते । या कुलवधू पैतृकं पितुरिदं तत् पितृसंबंधि प्रेम स्नेहमवधूय त्यक्त्वा उपांतं. स्वामिसमीपं उपेता समेता ॥ ५९ ॥ ये द्विपत्सु सहना इह गेहे-नर्दिनः प्रणयिनी प्रति चंडाः । ते भवन्तु पुरुषाश्चरितार्थाः, श्मश्रुणैव न तु पौरुषभग्या ॥६० ॥ (व्या०) ये इति । हे नाथ ये पुरुषाः इह जगति द्विषत्सु वैरिषु सहन्ते इति सहना भमापरा वर्तन्ते । किंलक्षणा ये गेहे नर्दन्तीति गेहेनर्दिनः पात्रेसमितत्यादयः । ३ । १ । ९१ । इ. सू. सप्तम्या अलुक्) गेहे शूगः । पुनः किंलक्षणाः प्रगयिनी कलत्रं प्रति चंडारौद्रा सन्तोति शेषः । ते पुरुषाः २मश्रणय (श्मनि मुखैकदेशे शेते इति श्मश्रु । श्मनः शीडोडित् । ८१० । इ. उ सू श्मन्पूर्वकशीड्धातोः रुप्रत्यय ) कूपनैव चरितोऽर्थो येषां ते चरितार्था. सत्यार्था भवन्तु सन्तु न तु पौरुषभन्या पुरुपस्येदं कर्म पौरुपं तस्य भंगिः व्युत्पत्तिस्तया न तु. पराकमव्युत्पत्या । उक्तं च-'पात्रे त्यागी गुणेरागी, भोगी परिजन. सह । शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा, पुरुप. पञ्चलक्षणः ॥ १॥ इति पुरुपलक्षणहीनत्वात्तेपाम् ॥ ६० ॥ अन्तरेण पुरुष नहि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि ।। ६१ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाव्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ५ (१८५ ( ०या० ) अन्तरेणेति । हे नाथ नारी स्त्री पुरुषं ( गौणात् समयानिकषाहाधिगन्तरान्तरेणातियेन तेनैद्वितीया । २-२ - ३३ । इ. सू अन्तरेण योगे पुरुषमित्यत्रद्वितीयाः । ) अन्तरेण विना न विभाति न शोभते । पुरुषोऽपि तां नारों विना (विना ते च तृतीया । २-२ - ११५ । इ. सू. विनायोगे नारीमित्यत्रद्वितीया । ) न विभाति न शोभते अत्र दृष्टान्तमाह शाखा पादपेन वृक्षेण रुचि शोभां अञ्चति प्राप्नोति । सोऽपि पादपोऽपि पादपो वृक्षः शाखयैव सकल. संपूर्णो वर्तते संपूर्णशोभां प्राप्नोति ॥ ६१ ॥ मुक्तिरिच्छति यदुज्झितदारं, स्त्री स्त्रियं नहि सहेत स हेतुः । कामयन्त इतरे तु महेला - युक्तमेव पुरुषं पुरुषार्थाः ॥ ६२ ॥ ( व्या० ) मुक्तिरिति । मुक्तिर्मोअरूप पदार्थः यत् यस्मात्कारणात् उज्झिताः द्वारा येन स तमुज्झितदार व्यक्तकलत्रं ' दाराः पुसि च भूनि च ' इत्यमरः । इच्छति । स हेतुरयं ज्ञेय स्त्री नारी स्त्रियमन्यां नारों नहि सहेत । इतरे धर्मार्थकामा · पुरुषार्था. • महेलयायुक्तस्तं महेलायुक्तमेव स्त्रीसहितमेव पुरुषं कामयन्ते इच्छन्ति ॥ ६२ ॥ योषितां रतिरलं न दुकूले, नापि हेम्नि न च सन्मणिजाले । अन्तरंग इह यः पतिरंगः, सोऽदसीयहृदि निश्चलकोश: ।। ६३ ।। ( व्या० ) योषितामिति ॥ हे नाथ योषितां स्त्रीणां अलं अत्यर्थ दुकूले पट्टकूले न रति । नापि हेम्नि सुवर्णे च पुन सन्मणिजाले सन्तश्चते गणयश्च सन्मणयस्तेषां जालं तस्मिन् प्रशस्यमणिसमूहे न रतिः । इह जगति अन्तरंगो यः पतिरंग· पत्युः रंग स पतिरंग अदसीयहृदि अमूषां (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. इदमर्थे दोरीय' । ६ । ३ । ३२ । इ. सू. ई. । ) इदं हृदयं तस्मिन् निश्चिलको भांडागारः ॥ ६३ ॥ स्पष्टनैकगुणमुज्झति नैका - दीनवाज्जनमदीनमनस्कः | चंचलापि किमनल्पगुणाढ्या, धीयते न कुलमूर्ध्नि पताका ॥ ६४ ॥ ( व्या० ) स्पष्ट इति । हे नाथ न दीनं अदीनं मनो यस्य स अदीनमनस्कः उदारहृदयः एकादीनवात् एकश्चासौ आदीनवच ढोप' तस्मात् एक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्ग: ५ ॥ दोपात् स्पष्टनैकगुणं स्पष्टाः प्रकटाः नैके अनेके गुणा यस्य तं प्रकटानेकगुणं जनं न उति न त्यजति । अनल्पगुणान्या न अल्पा: अनल्पा बहव ते च ते गुणाश्च विनयादिगुणा तन्तवो वा तैराढ्या समृद्रा चंचलापि पताका कुलमूर्ध्नि कुलमावास गोत्रं वा तस्य मृर्ध्नि मस्तके न धीयते किं अपितु धोयते ॥ ६४ ॥ ist रनयोरनयोsपि, स्वामिना समुचितो ननु सोढुम् । कारिकामु सिकताधिकतायाः, किं प्रकुप्यति नदीषु नदीशः ||६५ || 1 ( व्या० ) मौग्ध्य इति ॥ हे नाथ अनयोर्वध्वोः अनयोऽपि अन्यायोऽपि स्वामिनो ननु निश्चितं सोढुं समुचितो योग्य । किं विशिष्टोऽनयः मोग्ध्यहेतुः मुग्धस्य भावो मौग्ध्यं मुग्धत्वं तदेव हेतु कारणं यस्य सः । नदीनां ईशः नदीश समुद्र कि नदीपु प्रकुप्यति कोपं कुरुते अपि तु नैव । किं लक्षणासु नदीषु सिकतानां पालुकानां अधिकता आधिक्यं तस्या: कारिकासु (णकतृचौ । ५ । १ । ४८ । इ. सू. कृघातो. कर्तरिणकः आत् इ सू आप् । अस्यायतत्क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । १११ । इ. सू. अस्य इकार ) कुर्वन्तीतिकारिकास्तासु कुर्वाणासु ॥ ६५ ॥ मन्तुमन्तमपि भावविशुद्धं, शुद्धमेव गणयन्ति गुणज्ञाः । मान्य एव शुचिरन्तरिहेम्ब - स्त्रैणकंठरसिकोऽपि हि हारः ॥ ६६ ॥ ( व्या० ) मन्तुमन्तमिति । हे नाथ गुणज्ञाः (आतोडोsह्वावाम । ५ । १ । ७७ । इ. सू. गुणपूर्वकज्ञाघातोर्ड प्रत्ययः । डित्यन्त्य इ. सू.. अन्त्य - स्वरलोप | ) गुणान् जानन्ति इति गुणज्ञा पुरुषा मन्तुमन्तमपि मन्तुरपरा - धोऽस्यास्तीति (कृतिक्रम्य मिगमितनिर्मानजन्यसिमसि - तुन् । ७७३ । इ. उ. सू. मन्धातो तुन् प्रत्यय 1 ) मन्तुमान् तं अपराधिनमपि पुरुपं भावेन विशुद्धः भावविशुद्धरतं शुद्धमेव गणयन्ति । इहैप दृष्टान्त हि नथितं इभ्यस्त्रैणकंटरसिकोऽपि स्त्रीगां समूह खेणं (प४या समूहे । ६ । २ । ९ । इ. सू. समूहेऽर्थे स्त्रीशब्दात् । प्राग्वतः स्त्रीपुंसान्नञ् नञ् । ६ । १ । २५ । इ. सू. नव् प्रत्ययः । ) इभ्या धनवन्तः तेपां स्त्रैण स्त्रीसमूह' तस्य कंठे रसिकोऽपि कंटासक्तोऽपि हार. अन्तर्मन्ये शुचि सन् मान्य एव ॥ ६६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ५ (१८७ त्वं परां नृषु यथांचसि कोर्टि, स्त्रीनिमे अपि तथा प्रथिते तत् । . प्रेम्णि वीक्ष्य घनतां जनता वः, स्थैर्य मावहतु दंपतिधर्मे ॥ ६७ ॥ (व्या०) त्वमिति । हे नाथ त्वं नृषु पुरुषेषु यथा परां कोर्टी अग्रविभागं अञ्चसि प्राप्नोपि । तथा इमे अपि सुमंगलासुनन्दे स्त्रीपु प्रथिते विख्याते तत् तम्मात् कारणात् जनता ( ग्रामजनबन्धुगजसहायात्तल् । ६ । २ । २८ । ई. सू. जनादात् समहेऽर्थे तल । ) जनानां समूहो वो युष्माकं प्रेमिण नेहे धनतां दृढतां वोक्ष्य दम्पतिधर्मे जाया च पतिश्च दंपती (राजदन्तादिषु । ३ । १ । १४९ । इ. सू. दम्पतीशब्दो निपात्यते) तयोर्धर्मस्तस्मिन् स्थैर्य स्थिरत्वमावहतु ॥ ६७ ॥ प्राप्तकालमिति वाक्यमुदित्वा, मोदभाजि विरते सुरराजे । आलपत् कुलवधूसमयज्ञा शच्यपि प्रथमनाथनवोढे ॥ ६८ ॥ (व्या०) प्राप्तकालमिति । कुलवधूसमयज्ञा कुलवधूनां समया आचारास्तान् जानातीति शच्यपि इन्द्राणी अपि प्रथभनाथनवोढे प्रथमश्चासौ नाथश्च प्रथमनाथः श्रीआदिदेव तस्य नबोढे कलने ते सुमंगलासुनन्दे अलपत् उवाच । क सति प्राप्तकालं प्राप्ताबसरं इति पूर्वोक्तं वाक्यं उदित्या कथयित्वा मोदभाजि मोदं हर्षे भजतीति तस्मिन् सुरराजे सुराणां देवानां राजा सुरराजस्तस्मिन् इन्द्रे विरते निवृते सति ॥ ६८ ॥ यस्य दास्थमपि दुर्लभमन्यै-स्तत्प्रिये बत युवां यदभूतम् । भाग्यमेतदलमत्र भवत्योः, का प्रवक्तुमलमत्रभवत्योः ॥ ६९ ॥ (०या०) यस्येति । हे कुलीने यस्य भगवतो दास्यमपि अयैर्दुभं दुःखेन लभ्यते इति दुर्लभं वर्तते । बत इति वितर्के यत् यस्मात् युवां तत्प्रिये तस्य स्वामिनः प्रिये तत्प्रिये दयिते अभूतं जाते । एतत् अलं अत्यर्थ अत्रभवत्यो. पूज्ययो भवत्योयुयोर्भाग्यमत्र जगति कः पुमान् प्रवक्तुं हर्षेण जल्पितुं अलं समर्थों भवेत् अपितु न कोऽपि ॥ ६९ ॥ देवदेवदि ये निविशेथे, ते युवां न भवथोऽन्यविनेये । स्वान्तमेव मम धृष्टधुरीणं, यच्छिशिक्षयिषु वामपि कामम् ॥ ७० ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮) નેનકુમારસમ્ભવાર્થ માન્યમ દીવાલમર્હતમ ll : ૧ (व्या०) देवदेव इति । हेसुमंगलासुनन्दे युवां ये देवदेवदि देवानां देवस्य हृदयं तस्मिन् श्रीयुगादीशस्य हृदि निविशेथे वसथः । ते युवां अन्यविनेये अन्यस्य विनेये अन्यशिक्षणोये न भवथ. । मम स्वातमेव चित्तं धृष्टेषु धुरीणं धृष्टधुरीणं वर्तते । यत् स्यान्तं (क्षुब्धविरिब्धस्वान्तलग्न-भौ । ४ । ४ । ७० ।। इ. सू स्वान्तं निपात्यते ।) वामपिं युवां द्वेअपि कामं अत्यर्थ शिक्षयितुमिच्छुशिशिक्षाथिषु वर्तते ॥ ७० ॥ श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः । दानमर्थिषु करे रमणीना-मेष भूषणविधिर्विधिदत्तः ॥ ७१ ॥ (व्या०) श्रोत्रयोरिति । रमणीनां (रम्यादिभ्यः कर्तरि । ५--३-१२६ इ. सू. रम्धातोः कर्तरि अनट् टोत्वात् डीः ।) स्त्रीणां एष भूषणविधिः भूषणानां विधिः विधिदत्तो वर्तते । विधिना विधात्रा दत्तो विधिदत्त: । (दत् । ४ । ४। १० । इ. सू. तादौ किति दासज्ञ कस्य दत् आदेश) एष कः श्रोत्रयोः (हुयामाश्रुवासभसिगुविपचि-स्त्रः । ४५१ । इ. उ. सू. श्रुधातोः प्रत्ययः । श्रूयते अनेनेति श्रोत्रम् ।) कर्णयोः गुरूणां गिरः तासां गुरुसत्कवाणीनां श्रुतिः श्रवणम् । आस्ये मुखे सूनृतं (सुष्टु नृत्यति सतामनोऽनेनेति सूनृतं स्थादिभ्यः कः । ५ । ३ । ८२ । इ. सू. सुपूर्वकनृत्धातोः कः । पञ्युपसर्गत्य । ३ । २ ८६ । इ सू. अघञि अपि सु उपसर्गस्य दीर्धता) सत्यं वचः पुनर्हदि मनसि पतिभक्ति पत्युः स्वामिनोभक्ति करे हस्ते अर्थिषु याचकेषु दानम् ॥ ७१ ।। सुभ्रुवा सहजासिद्धमपास्यं, चापलं प्रसवसद्म विपत्तेः । येन कूलकठिनाश्मनिमाता-द्वीचयोंधिभुवोऽपि विशीर्णाः ॥७२॥ (०या०) सुभ्रुवा इति । सुझवां शोभने भ्रुवौ यासां तास्तासां स्त्रीणां चपलस्य भावश्चापलं चपलवं सहजसिद्ध स्वभावसिद्धं त्या योग्य त्याज्यं त्यजन योग्यं वर्तते । किंलक्षणं चापलं विपत्ते विनाशस्य प्रसवस्य जन्मनः समं गृह जन्मस्थानमन्तीतिशेषः । येन चापलेन कुलकठिनाश्मनिपातात् कूलं नटं तस्मिन् ये कटिनाचते अमानश्च पाषाणाः तेषु निपातः पतनं तस्मात् पतनात् अम्बुधि Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ५ (१८९ भुवोऽपि अम्बूनि धीयन्ते अस्मिन्निति अम्बुधि समुद्र तस्मात् भवन्तीति समुद्रजाता अपि वीचय कल्लोला विशीर्णा भग्ना ॥ ७२ ॥ चापलेऽपि कूल मूर्ध्नि पताका, तिष्ठतीतिहृदि मास निघत्तम् । आप सापि वसतिं जनवाह्यां, दंडसंघटनया दृढबद्धा || ७३ ॥ 1 ( व्या० ) चापल इति । हे कुलीन युवा हृदि हृदये इति मास्म निघत्तं चित्त इति न चिन्तनीयम् । इतीति कि पताका चापलेऽपि चपल्लवेऽपि सति कुलं गृहं गोत्रं वा तस्य मूर्ध्नि मस्तके तिष्टति । सापि पताकापि दंडसंघटनया दंडस्य संघटना तया दृढवद्वासती जनेभ्यो वह्यां तां वसतिं ( वसन्ति अस्या - मिति वसति । खल्यमिरमि वहिवस्यर्तेरति । ६५३ | इ सू वस्घातो अतिप्रत्यय - 1 ) वासं प्राप ॥ ७३ ॥ अस्ति संवननमात्मवशं चे- दौचितीपरिचिता पतिभक्तिः । मूलमंत्रमणिभिर्मृगनेत्रा - स्तद् भ्रमन्ति किमु विभ्रममाजः ॥ ७४ ॥ ( व्या० ) अस्तीति । हे कुलीने स्त्रीणां चेत् यदि औचित्या परिचिता औचितिगुणयुक्ता पत्युक्तिः पतिभक्ति' आत्मनो वशमधीनमात्मवशं संवननं वशीकरणमस्ति । तत् तस्मात् कारणात् मृगस्य नेत्रे इव नेत्रे यासां ताः स्त्रिय मूलमंत्राश्च मणयश्च तैः किमु किमर्थ विभ्रमं (भजोविण । ५ । १ । १४६ । इ. सू. विभ्रमपूर्वकभज्धातोर्विण् | भजन्तीति भ्रमन्ति ॥ ७४ ॥ भोजिते प्रियतमेऽहनि भुङ्के, या च तत्र शयिते निशि शेते । प्रातरुज्झति ततः शयनं प्राक्, सैव तस्य सुतनुः सतनुः श्रीः ॥७५॥ I ( व्या० ) भोजित इति । यात्री प्रियतमे भर्तरि अहनि दिवसे भोजिते सति भुंक्ते । च पुनः या स्त्री तत्र प्रियतमे निशि रात्रौ शयिते सति शेते । प्रातः प्रभाते ततः प्रियतमात् प्राक् पूर्वं शयनमुञ्झति व्यजति । प्रियतमस्य भर्तु सेव सुतनुः शोभना तनुर्यस्याः सा स्त्री सतनु तन्वा सह वर्तते इति सतनुः मूर्तिमती श्रीलक्ष्मीः स्यात् । उक्तं च- 'अनुकूला सदा तुष्टा दक्षा साध्वी विचक्षणा । एभि पंचगुणैर्युक्ता श्रीरिव श्री न संशय ॥ ७५ ॥ + 7 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्ग: ५ ॥ नेत्रपझमिह भीलति यस्था, वीक्षिते परपुमाननचन्द्रे । श्रीगृहं सृजति पंकजिनीव, तामिनः स्वकरसंगमबुद्धाम् ॥ ७६॥ ___ (व्या०) नेत्रपभामिति ॥ यस्या स्त्रिय: नेत्रपमं नेत्र-(नीदाम्बशस्युयुजस्तुतुदसिसिचमिह पतपानहस्त्रट् । ५ । ३ । ८८ । इ सू. नो धातो करणेत्रट् ।) मे पद्म परपुमाननचन्द्रे परपुंसः आननं परपुमाननं तदेवचन्द्रस्तस्मिन् परपुरुपमुखचन्द्रे वीक्षिते सति दृष्टे सति मोलति संकुचति । इनो (एतीति इनः । जीणशीढीबुध्यविमीभ्यः कित् । २६१ । इ. उ. सू. इंणक धातो. कित् नः ।) भर्ता सूर्यो वा स्वकरसंगमबुद्धां स्वस्थ करो हस्त: किरणो वा तस्य संगमेन बुद्धा तां आत्मीयकरस्पर्शन विकसितां तां स्त्रियं पंकजिनी इव कमलिनीवत् श्रीगृहं सजति आत्मीयगृहसत्कसर्वलक्ष्मीस्थानं करोतीति भावः ॥ ७६ ॥ - भास तप्यत तपः परितक्षीन् , मा तनूमतनुभिवेतकष्टः। इष्टसिद्धिमिह विन्दति योषि-चेन लुम्पति पतिव्रतमेकम् ॥ ७७॥ (व्या०) मास्म इति ॥ तपो मास्म तप्यत (सस्मे ह्यरतनी च । ५। ४ । ४० । इ. सू. तप्धातो यस्तनी अधातोरादिस्तिन्यां-डा । ४ । ४ । २९ । इ. सू. अडभावः) । तनं शरीरं अतनुभिः न तनूनि अतनूनि तैर्बहुभिः प्रतस्य कष्टानि तैतकप्टैर्मा परितक्षीत् ( मायद्यतनो । ५ । ४ । ३९ । इ. सू. मसहितमांडि उपपदे अद्यतनी । अड्धातोरादि स्तिन्यां-डा । ४ । ४ । २९ । इ. सू. अडभावः ) मा कृशां कार्षीत् । योषित् स्त्री इह जगति चेत्यदि एक पतितं शीलं न लुम्पति (तुदादेः शः । ३ । ४ । ८१ । इ. सू.. मुलती मोक्षणे धातोः शः मुचादितृफफगुफराभोभः शे । ४ । ४ । ९९ । इ. सू. शेपरे नोन्त ।) तदा इष्टसिद्धि विन्दति लभते ॥ ७७ ॥ उग्रदृहमभंगमयत्न-प्राप्यमाभरणमस्ति न शीलम् । चेनदा वहति काञ्चनरत्न-वविधं मृदुपलैमहिला किम् ।। ७८ ।। (व्या०) उग्र इति । स्त्रीणां चेत् यदि अदुहं उझै उत्कटै? खेन ग्राह्यं. अमंगं न विद्यते भंगो यस्य तत् अयत्नप्राप्यं न यत्नः अयत्न. अयत्नेन प्राप्यं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ५ (१९१ शीलमाभरणं नास्ति । तदा महिला (कल्यनिमहि - लः । ४८१ । इ. उ. सू. महधातो: इल. । आत् इ. सू. आप् मह्यते पूज्यते इति महिला 1) स्त्री मृदुपलै - मृत् च मृत्तिका उपलाश्च पाषाणास्तैः काञ्चनरत्नै कांचनं च रत्नानि च ते वीवधं (भावाकर्त्रेः । ५ । ३ । १८ । इ. सू. विपूर्वकवध्घातो. भावेधञ् । न जन वधः । ४ । ३ । ५४ । इ. सू. वधूधातोर्वृद्र्यभावः । घञ्युपसर्गय चहुलम् | ३ । २ । ८६ । इ. सू. उपसर्गस्य दीर्घ । विवध्यते इति । वीवधः 1) भारं किं कथं वहति ॥ ७८ ॥ मजितोऽपि घनकज्जलपङ्के, शुभ्र एव परिशीलितशीलः । स्वर्धुनीसलिलधौतशरीरोऽप्युच्यते शुचिरुचिर्न कुशीलः ॥ ७९ ॥ | ( व्या० ) मज्जित इति । परिशीलितं पालितं शीलं येन सः परिशोलित - शील: पालितशीलः पुमान् घनकज्जलपङ्के धनं च तत् कज्जलं च तदेव पस्तस्मिन् निचितकज्जलकद्दमे मज्जितोऽपि ब्रुडितोऽपि शुभ्र एव उज्ज्वल एव । कुशीलः कुत्सितं निन्दितं शोलं यस्य स पुमान् स्वर्धुनीसलिलधौतशरीर स्वर्धुनी (धुनातिततरून् इति धुनी । धूशाशीको हस्वश्च । ६७८ । इ उ सू. धूधातोः नि धातोश्च ह्रस्वः ततो ऽयां धुनी । ) गङ्गा तस्याः सलिलं जलं तेन धौतं क्षालित शरीरंयेन स गंगाजलक्षालितदेहोऽपि शुचिः पवित्रा रुचिः कान्ति यस्य स शुचिरुचिर्नोच्यते ॥ ७९ ॥ कष्टकर्म नहि निष्फलमेत- चेतनावदुदितं न वचो यत् । शीलशैलशिखरादवपातः, पातकापयशसोर्वनितानाम् ॥ ८० ॥ ( व्या० ) कष्टकर्म इति । कष्टं च तत् कर्म च कष्टकर्म कृतं सत् निष्फ लं निर्गतं फलं यस्य तत् नहि स्यात् । एतत् वच' चेतनावदुदितं चेतना बुद्धिरस्यास्तीति चेतनावान् चेतनावता सचेतनेन उदितं कथितं न नास्ति । यत् यस्मात् कारणात् वनितानां खोगां शीलशैलशिखरादवपात' शीलमेव शैल पर्वतरतस्य शिखरं तस्मात् अवपातः पतनं पातका पयशसो स स्यात् कोऽर्थ - ये केचन भृगुपासादि कष्टकर्म कृत्वा भवान्तरे राज्यादिसुखं वाञ्छन्ति एतत् मिथ्या Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम टोकासमलकतम ।। सर्ग:५ कथमिति चेत् शीलरूपपर्वतात् पवनत स्त्रीणा पापापयशोदु खादीन्येव म्युनतु लुखमिति भाव ॥ ८० ॥ या प्रभूप्णुरपि भर्तरि दासी-भावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपङ्ककलुषा नृपु शेपा, योपितः क्षतजशोपजलूकाः ।। ८१ ।। (व्या०) या इति । या स्त्री प्रभूणुः (भूजे एणुक । ५ । २ । ३० ।। ई, मृ. प्रपूर्वकभूधातोः शीलादि सढर्थ एणुक प्रत्ययः ।) अपि समर्थापि सती भर्तरि प्रियतमे दासीभावं दास्या भावस्त आवहति । खल निश्चितं सा कान्ता पत्नी ज्ञेया । शेपा योपितः कोपपङ्ककटपा. कोप एव पक कर्दमन्तेन कल्लुपा सत्यो तृपु पुरुषेषु क्षतजं रुधिरं तस्य गोपाय जका (मृमन्यञ्जिजलि-कः । ५८ । इ. उ. सू. जल्बातोः ऊक प्रत्यय जलतिहन्ति इति जटका) ज्ञेया. ।। ८१ ॥ रोषिताऽवगणिता निहताऽपि, प्रेमनेतरि न मुञ्चनि कुल्या । मेघ एव परितुप्यति धारा-दंडधोरणिहतापि मुजातिः ।। ८२ ॥ (व्या०) रोषिता इति । कुल्या ( भवे । ६ । ३ । १२३ । इ. सू. कुलशब्दात्मवेऽर्थे यः । आत् इति सूत्रेण आप् । ) कुलीना स्त्री रोपिता अवगणिता निहतापि नेतरि स्वामिनि प्रेम स्नेहं न मुञ्चति । यथा सुजातिः शोभन जातिमालती कुलीना वा धारादंडयोरणिहतापि धारा एव दंडानां धोरणि. मेघसकधारादंडश्रेणिः तया हता अपि सती मेधे एव परितुष्यति ।। ८२ ॥ तधुवामपि तथा प्रयतेथां, स्त्रमभूषणगुणार्जनहेतोः । येन वां प्रति दधाति समस्तः, स्त्रीगणो गुणविधी गुरुबुद्धिम् ॥८३।। ' (व्या०) तदिति ॥ हे कुलीने तत तस्मात कारणात् युवामपि भवत्याफि स्त्रे गभूषणगुणार्जनहेतोः स्त्रोणा समूह स्त्रेणं तस्य भूषणानि ये गुणास्तेषामजनहेतो स्त्रीसमूहयोग्यालंकारगुणोपार्जननिमित्त तथा प्रयतेथा उपक्रम कुर्वाथाम् । येन कारणेन समस्तः सकल स्त्रीणां गण. स्त्रीगणः स्त्रीसमूहो वां युवयो. गुणविधौ गुणानां विधिस्तस्मिन् गुरुबुद्धिं गुरोर्बुद्धिस्ता प्रतिदधाति धरति ॥८३॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलकतम् ॥ सर्ग. ५ (१९३ बुद्धिं शुद्धामिति मतिमतामुत्तमेभ्यः शचीन्द्रौ, भत्तयावेशाद्विशदहृदयौ प्राभृतीकृत्य तेभ्यः॥ खागस्त्यागं चरणलुठनैः क्लप्तवन्तौ दिवं तो, द्राग भेजाते चिरविरहतोऽत्याकुलस्थानपालाम् ।। ८४ ॥ (व्या०) बुद्धिमिति । तौ शचीन्द्रौ शची च इन्द्रश्च मतिमतां मतिरस्ति एपामिति मतिमन्तस्तेपा बुद्धिमतां उत्तमभ्यस्तेभ्यो वधूवरेभ्य इति पूर्वोक्तां शुद्धां बुद्धिं भक्तेरावेशस्तस्मात् भक्त्यावेगात् न प्राभृतं अप्रामृतं प्राभृतं कृत्वेति प्रामृतीकृत्योपदीकृत्य द्राक् शोघ्र दिवं भेजाते स्वर्लोक गतौ । किंलक्षणौ शचीन्द्रौ विशदं हृदयं ययोस्तौ विशदहृदयौ निर्मलमानसौ । स्वस्य आग• अपराधस्तस्य त्यागस्त आत्मीयापराधपरिहारं चरणेषु पादेषु लुटनैः चरणनमस्कारैः क्लुप्तवन्तौ । किलक्षणां दिवं चिरविरहतः दीर्धकालविरहात् अत्याकुलाः स्थानपालाः यस्यां सा ताम् ॥ ८४ ॥ अन्येऽपीन्द्राः सकलभगवत्कार्यभारे धुरीणं, सौधर्मस्याधिपतिमधरमप्युत्तरं भावयन्तः । धन्यमन्यास्त्रिभुवनगुरोर्दर्शनादेव देवैः, साकं नाकं निजनिजमयुनिर्भरानन्दपूर्णाः ॥ ८५ ॥ इतिश्रीसूरीश्वरश्रीजयशेखरसूरिविरचिते श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्ये पञ्चमः सर्गः (व्या०) अन्य इति । अन्येऽपि इन्द्राः ईशानेन्द्राद्या निर्भरानन्दपूर्णा निर्भरानन्देन अतिशयानन्देन पूर्णा सन्त देवै साकं सार्द्ध निजं निजं नाकं आत्मीयात्मीयं चलाक अयुगता. किंकुर्वन्त सकलभगवत्कार्यभारे सकलानि समप्राणि च तानि भगवत' कार्याणि तेषां भारस्तस्मिन् धुरोणं (धुरं वहति इति धुरीणः । वामाचादेरीनः । ७ । १ । ४ । इ. सू. केवल धुरशब्दादपि ईनप्रत्ययो भवति इति पंक्ति. 1) धुर्य सौधर्मस्य अधिपतिं सौधर्मेन्द्रं अधरमपि अधस्तनमपि उत्तरं उत्कृष्टं भावयन्तः । किलक्षणा इन्द्रा त्रयाणां भुवनानां समाहार. त्रिभुवनं Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ५ तस्य गुरुस्तस्य दर्शनादेव धन्यंमन्या (कर्तुः खश् । ५ । १ । ११७ । इ. सू. धन्यपूर्वकमन्धातोः खश | शिवात् दिवादेः श्यः । ३ । ४ । ७२ । इ. सू. इय' खित्वात् खित्यनव्ययारुपोर्मोऽन्तो स्वश्च । ३ । २ । १११ । इ. सू. मोऽन्त' । आत्मानं धन्यं मन्यन्ते इति धन्यं भन्या ) आत्मानं धन्यं मन्यमानाः ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीर हीरच्छवि-, मिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनी सानुमान् । वाणीदत्तवरश्विरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसंभव महाकाव्ये ऽभवत् पञ्चमः ॥ ५ ॥ इतिश्रीमदच्छीयश्चलगच्छे कवि चक्रवर्त्तिश्री जयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्य श्रीधर्मशेखर महोपाध्यायविरचितायां टीकायां श्री माणिक्य सुन्दरशोधितायां पञ्चमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ५ ॥ VACA Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ षष्टः सर्गः प्रारभ्यते। -- - अथाश्रयं स्वं सपरिच्छदेषु, सर्वेषु यातेषु नरामरेषु । नाथं नवोढं रजनिर्विविक्त इवेक्षितुं राजवधूरुपागात् ॥ १ ॥ (व्या०) अथेति ॥ अथानन्तरं रजनिः राजवधू राज्ञ चन्द्रस्य पक्ष राज्ञो नृपस्य वधू राजवधू नवोढं नवपरिणीतं नाथं विविक्ते एकान्ते ईक्षितुमिव उपागात् (इगिकोई । ४ । ४ । २३ । इ. सू. अद्यतन्यां इण् धातोर्गा । पिबति दाभूस्थ सिचो लप् परस्मै न चेट । ४ । ३ । ६६ । इ. सू. सिचो लुप् इण्यातो कर्तरि अद्यतनी 1) समेता । केपु सत्सु सपरिच्छदेषु परिच्छदेन सह वर्तन्ते इति सपरिच्छदास्तेषु सपरिवारेषु सर्वेषु नराश्च अमगश्च नरामरास्तषु मनुष्यदेवेषु स्वमाश्रयं आत्मीयं गृहं यातेपु गतेपु सम्मु ॥ १ ॥ निशा निशाभंगविशेषकान्ति-कान्तायुतस्यास्य वपुर्विलोक्य । स्थाने तमाश्यामिकया निरुद्धं, दधौ मुखं लब्धनवोदयापि ॥२॥ (व्या०) निशा इति । निशा रात्रि लब्ध नवोदयापि नवश्चासौ उदयश्च नवोदयः लब्धो नवोदयो यया सा सती कान्ताभ्यां युत तस्य कलत्रयुतस्य अस्य भगवतो वपुः शरीरं विलोक्य दृष्ट्वा तमसः श्यामिका तया तम. श्यामिकया अंधकारकालिन्ना निरुद्धं व्याप्तं मुख दधौ बभार । किंविशिष्टं वपुः निशाभंगविशेषकान्ति निशा हरिद्रा तस्या भंगः छेद तहत् विशेषा कान्तिर्यस्य तत् । पक्षे निशाया रात्रे. भंगे सति विशेषकान्ति । अत्र शब्दलं ज्ञेयम् ॥ २ ॥ अभुक्त भृतेशतनोविभूति, भौती तमोभिः स्फुटतारकौघा । विभिन्नकालच्छविदन्तिदैत्य-चर्मावृतेर्भूरिनरास्थिभाजः ॥ ३ ॥ (व्या०) अभुक्त इति । भौती रात्रिः भूतेशतनोः भूतानां ईश स्वामी शिवरतस्य तनुः शरीरं तस्याः ईश्वरस्य.मूर्तेर्विभृति अभुक्त सेवते स्म । किं विशष्टा रात्रिः तमोभिरंधकारैरुपलक्षिता हेतुककरणेत्थंभूतलक्षणे' इति सूत्रेण इत्थं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६ ॥ भूतलक्षणे तृतीया पुन: किंवि० स्फुटाः प्रकटाः तारकाणां ओधा समूहा यस्यां सा प्रकटतारासमूहा । किंविशिष्टायास्तनोः विभिन्न कालच्छविदन्तिदैत्यचर्मावृतेः विशेषेण भिन्ना कालच्छविः कृष्णकान्तिर्यस्य स एतादृशो यो दन्तिदैत्यो गजासुरत्तस्य चम्म कृत्ति तदेव आवृति. आवरणं यस्था सा तस्याः । भूरिनरास्थिभाज (भजो विण । ५ । १ । १४६ । इ. सू. भजधातोविण् ।) नराणामस्थीनि नगस्थीनि भरीणि च तानि नरास्थीनि च तानि भजतीति तस्या कोऽर्थ रात्रः अन्धकारमेव दैत्यसककृष्णचर्मावृतिः । तारासमूहा मनुष्यास्थीनि । अत: कारणात् ईश्वरतनोरूपमानं रात्रेरितिभावः ॥ ३ ॥ न्यास्थन्निशा तस्कर पुंश्चलीनां, नेत्रेषु लोकाक्षिमहांसि हत्वा । सूरे गते दुःसहमंडलाये, तमस्विनां हि फलिता कदाशा ॥४॥ (व्या०) न्यास्थत् इति ॥ निशारात्रिः लोकाभिमहांसि लोकानां अक्षीणि लोचनानि तेषां महांसि तेजांसि हत्वा तस्कराश्च (किंयत्तबहोरः । ५-१-१०१ इ. सू. तद्शदपूर्वक कृधातोर । वर्चस्कादिवरकरादयः । ३ । २ । ४८ । इ.. सू. चौर्येऽर्थे तत् शब्दस्य तकारस्य सकारे तस्कर: तस्करोतीति तस्कर.) पुंश्चल्यश्च तासां चौरस्वैरिणीनां नेत्रेषु न्यास्थत् (शास्त्य सूवक्तिख्यातेरड् । ३ । ४ ६० । इ. सू. अवतन्यांकर्तरि असूधातोः अड्प्रत्यय । श्वयत्यसूवचपतः श्वास्थवोचपप्तम् । ४ । ३ । १०३ । इ. सू. अद्यतन्यां कर्तरि अडि परे असूधातोः अस्थादेशः।) अस्यति स्म । कसति दु सहमंडलाये दु खेन सह्यते इति दुःसहं मंडलस्य अग्रं मंडलानं खड्गो वा यस्य स तस्मिन् सूरे सूर्य सुभटे च गते सति तमस्विनां (अस्तपोमाया धास्रजो विन् । ७ । २ । ४७ । इ. सू. तमस् शब्दात मत्वर्थे विन्प्रत्यय ।) अन्धकार चारिणां पापिनां हि इति खेदे कदाशा (कोः कत्तत्पुरुपे । ३ । २ । १३० । इ. सू. को कदादेश ।) कुत्सिता आशा कदा२।। फलिता ॥ ४ ॥ कालीयमालीय गिरेगुंहासु, भास्वद्भयेनाहि निशा तदस्ते । भूबद्धखेलाखिलवस्तु काली-चकार कालेन विना क शक्तिः ॥५॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ६ (१९७ (व्या०) काली इति । इयं काली कृष्णा निशा रात्रि अह्नि दिवसे भास्वतः सूर्याद् भयं भी तस्तेन गिरे. पर्वतस्य गुहासु कंदरासु आलोय निलीय तदस्ते तस्य भानोरस्तः तस्मिन् सति भूखेला भुवि वसुधायां बद्र। कृता खेला क्रीडा यया सा सती अखिलवस्तु सकलपदार्थ कालोचकार न कालमकालं अकालं कालं चकार इति कालोचकार । कालेन समयेन विना क शक्तिरस्ति कापि नास्तीत्यर्थ ॥ कुमुद्वतीं चाकृत रोहिणीं च, प्रिये निशां वीक्ष्य शितिं सितांशुः । श्रियं च तेजश्व तयोर्ददाना, साधत्त साधु क्षणदेति नाम ॥ ६ ॥ (व्या०) कुमुतामिति । सितांशुः सिताः श्वेताः अंशवः किरणा यस्य स चन्द्रः शितिं कृष्णां निशां रजनीं वीक्ष्य दृष्ट्वा कुमुद्वती (तदस्याऽस्यस्मिन्निति मतुः । ७ । २ । १ । इ. सू. कुमुदशदात् मतुः । मावर्णान्तोपान्ता पञ्चमवर्गान् मतोमोवः । २ । १ । ९४ । इ. सू. मतोर्मस्य वः । अधातूददितः । २। ४ । २ । इ. सू. उदितत्वात् डीः ।) कुमुदिनी रोहिणी च द्वे प्रिये अकृत कृतवान् । सा निशा तयोः कुमुदतीरोहिण्यो श्रियं शोभां च अन्यत् तेजो ददाना सती क्षणदा क्षणं उत्सवं ददातीति क्षणदा पक्षे रात्रिरिति नाम साधु युक्तमत्त धरति स्म ॥ ६ ॥ हरिद्रयेयं यदभिन्न नामा, बभूव गौर्येव निशा ततः प्राक् । सन्तापयन्ती तु सतीरनाथा-स्तच्छापदग्धाजनि कालकाया ॥ ७॥ (व्या०) हरिद्रयेति । यत् यस्मात् कारणात् इयं निशा रात्रि हरिद्रया सह अभिन्न नाम यस्याः सा अभिननामा सदृशनामा वर्तते । यतो नाममालायां हरिद्रा कांचनी पीता निशाल्या वरवर्णिनी इत्यादि । तत् तस्मात् कारणात् प्राक् पूर्व गौर्यैव गौरवर्णा बभूव इति ज्ञायते । तु पुनः अनाथा न विद्यते नाथो यासा ताः सती: संतापयतीति संतापयन्ती सती तासां शापेन दग्धा तच्छापदग्धा कालकाया कृष्णदेहा अजानि जाता ॥ ७ ॥ कि योगिनीयं धृतनीलकंथा, तमस्विनी तारकशंखभूषा । वर्णव्यवस्थामवधूय सर्वा-मभेदवादं जगतस्ततान ।। ८ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ ( व्या० ) किमिति । इयं तमस्विनी (अस्तपोमायामेधास्रजो विन् । ७ । २ । ४७ । इ. सू. तमस् शब्दात् मत्वर्थे विन् । स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेडी । २ । ४ । १ । इ. सू डी: ) रजनिः किं योगिनी वर्तते किंलक्षणा तमस्विनी धृतनीलकंथा धृता नीला कंथा यया सा पुनः किंवि० तारकशंखभूपा तारका (तारकावर्णकाऽष्टक।ज्योतिस्तान्तवपितृदैवत्ये । २-४ -११३ । इ. सू. ज्योतिषि तारकाशब्दे इकाराभावो निपात्यते । ) एव शंखसत्काभरणानि यस्याः सा या जगतो विश्वस्य सर्वं निखिलां वर्णव्यवस्थां वर्णानां ब्राह्मणादीनां श्वेतकृष्णादीनां चा व्यवस्थां मर्यादामवधूय अभेदश्वासौ वादृथ तं एकाकारत्वं विस्तारयामास | तितांसति श्वैत्यमिहेन्दुरस्य, जाया निशा दित्सति कालिमानम् । अहो कलत्रं हृदयानुयायि, कलानिधीनामपि भाग्यलभ्यम् ॥ ९ ॥ ( व्या० ) तितांसति इति ॥ इन्दुन्द्र इह जगति वैत्यं श्वेतस्य भावः तत् 'धवलतां तितांसति (तुमर्हादिच्छायां सन्नतत्सनः । ३ । ४ । २१ । इ. सू. तनू धातोरिच्छार्थे सन् । सन्यङश्च । ४ । १ । ३ । इ. सू. द्वित्वे ततन् सति । सन्यस्य । ४ । १ । ५९ । इ. सू. पूर्वस्थात इकारे तितन् सति । तनो वा । ४ । १ । १०५ । इ. सू. विकल्पेन दीर्घे तितांसति इति । ) तनितुमिच्छति विस्तारयितुमिच्छति । अस्य इन्दोर्जाया निशा कालिमानं कृष्णत्वं दित्सति (दा सति इत्यत्र मिमीमादामित्स्वरस्य । ४ - १ - २० । इ. सू. सादौशनि दाधातोः स्वरस्य इत् न च द्विर्भावः । दित्सति । ) दातुमिव्सति । अहो इति आश्चर्ये अनुयातीति अनुयायि हृदयस्व अनुयायि हृदयानुयायि मनोऽनुकूलं कलत्रं भार्या कलानिधीनामपि कलानां निघयस्तेषां कलावतामपि भाग्यलभ्यं लब्धुं योग्यं भाग्येन लभ्यं स्यात् । यतः 'चन्द्रस्य कलावतोऽपि नि|| प्रियास्ति ॥९॥ दत्त्वा पतङ्गः प्रवसन् वसु स्वं, तमो निरोध्धुं भुवि यान्न्ययुंक्त | तैर्दीपभृत्यैर्निजनाथ नाम विडंविनो-हन्त हताः पतङ्गाः ॥ १० ॥ श्वैत्यं ( व्या० ) दवा । पतङ्गः सूर्यः प्रवसतीति प्रवसन् प्रवासं गच्छन् सन् स्वं वसु द्रव्यं तेजो वा दवा ( दत् । ४ । ४ । १० । इ. सू. कथापरे दाघातोः Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (१९९ दत् ।) तमो निरोधुं अन्धकार स्फेटयितुं यान् दीपभृत्यान् भुवि पृथिव्यां न्ययुक्त व्यापारितवान् । तैदीपभृत्यैः दीपा एव भृत्या किंकरारतैः हन्त इति वितर्के निजनाथनामविडंबिनः निजस्यात्मनो नाथ स्वामी सूर्य सूर्यस्य नाम पतङ्गोऽत्ति शलभस्यापि नाम पतङ्गोऽस्ति पतङ्गः पक्षिसूर्ययोरितिवचनात् अत्र पतङ्गादेन छलनास्ति निजनाथनाम पिडंबयन्ति अनुकुर्वन्ति इति । एवंविधा ये पतङ्गा. शलभा हताः ॥ १० ॥ यत्कोकयुग्मस वियोगवहि-जज्वाल मित्रेऽस्तमिते निशादौ । सोद्योतखद्योतकुलस्फुलिङ्गं, तद्भुमराजिः किमिदं तमिस्रम् ॥ ११ ॥ (व्या०) यत्कोकयुग्मस्य इति ॥ यत् कोकयुग्मस्य कोकयोः चक्रवाकयोः युग्मं मिथुनं तस्य चक्रवाकन्दस्य निशादौ निशाया आदिस्तस्मिन् रजन्यादौ मित्रे सूर्य सुहृदि वा अस्तमिते सति वियोगवह्निः वियोगस्य वह्निः जज्वाल । इदं तमिस्त्रमन्धकार किं धूमराजि. धूमानां राजि न वर्तते । किंलक्षणं तमिल सोद्योतखद्योतकुलस्फुलिंगं खद्योतानां कुलं सोद्योतं च तत् खद्योतकुल च तदेव स्फुलिंगा यस्मिन् तत् ॥ ११ ॥ अवेत्य पाटचरपांमुलानां, तमोबलादुर्ललितानि तानि । प्रभां दिशीन्द्रख तमोऽपनोदा-मदीदृशत् स्वोदय-चिह्न मिन्दुः॥१२॥ (व्या०) अवेत्य इति । इन्दुश्चन्द्रः इन्द्रस्य दिशि पूर्वस्यां दिशि प्रभा कान्ति अदीशत् दार्शतवान् । किविशिष्टां प्रभां तमोपनोदां तमः अन्धकार अपनोदयति स्फोटयति इति तमोऽपनोदा ताम् । स्वोदयचिह्न स्वस्य उदयस्तस्य चिहं आविष्टलिङ्गमेतत् । किंकृत्वा पाटचरपांसुलानां पाटचराश्च (पाटयन्तः चरन्तीति पाटचराः पृषोदरादित्वात् साधु) पांसुलाश्च (पासव' आसां सन्तीति पांसुला.) तासां तस्कराणां असतीनां च तमोबलात् तमसो बलं तस्मात् तानि दुर्ललितानि दुश्चेष्टितानि अवेत्य ज्ञात्वा ॥ १२ ॥ धाभेदमौत्पातिकमानलं वेत्यूह वितन्वत्यसतीसमूहे । उदीतमेवैक्षत चन्द्रबिम्ब, पूर्वायुधेः कोकनदश्रि लोकः ॥ १३ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६ ॥ ___ (व्या०) धामेति । पूर्वायुधे पूर्वश्वासौ अंबुधिश्च तस्मात् पूर्वसमुद्रात् उदीतमेव उदयं प्राप्तं चन्दविग्वं चन्द्रस्य बिग्वं चन्द्रमंडलं तत् लोकः ऐक्षत आलुलोके । किविशिष्टं चन्द्रबिम्बं कोकनद श्रि कोकनदं रक्तोत्पलं तहत् श्री. शोभा यस्य तत् । क सति असतीसमूहे असतीनां समूहस्तस्मिन् इति अहं विचारं वितन्वति वितनोतीति वितन्वन् तस्मिन् कुर्वति सति । इतीति किं इदं औत्पातिकं उत्पात-- कारि वा अथवा आनलं अनलोऽग्निस्त संबंधि धाम तेजो वर्तते ॥ १३ ॥ सुधानिधानं मृगपत्रलेख, शुभ्रांशुकुंभं शिरसा दधाना । कौसुंभवस्त्रायितचान्द्ररागा, प्राची जगन्मंगलदा तदाभूत् ॥ १४ ॥ (व्या०) सुधानिधानमिति । प्राची (अञ्च । २ । ४ । ३ । इ. सू. प्रान् शब्दात् स्त्रियां डीः ।) पूर्वदिक् तदा तस्मिन्नवसरे जगन्मङ्गलंदा मङ्गलं ददातीति मालदा जगतोमङ्गलटा जगन्मङ्गलदा जगतोमङ्गलदायिनी अभूत् । किंकुर्वाणा शुभ्रांशुकुंभ शुभ्रा अंशव किरणा यस्य सः शुभ्रांशुः चन्द्र स एव कुंभ: कलश चन्द्रकलशं शिरसा मस्तकेन दधाना धत्ते इति दधाना शुभ्रांशुशब्देन रौप्यं तस्य कलशं दधाना । कौसुंभवस्त्रायितचा-दरागा कौसुभं (कुसुम्भेन रक्तं कौसुगं रागाह) रक्ते । ६ । २ । १ । इ सू. कुसुम्भशब्दात् रागेऽर्थे अण् । ) च तत् वस्त्रं च कौसुंभवस्त्रं तद्दाचरित: चन्द्रसंबंधिरागो यस्या सा। किलक्षणं शुभ्रांशुकुंभं सुधानिधानं सुधाया. अमृतस्य निधानं अमृतपूर्ण भृगपत्रलेख मृगः पत्रलेखा यस्मिन् स तम् ॥ १४ ॥ सांराविणं राजकरोपनीत-पीयुषपानैर्विहितं चकौरैः।। भास्वद्विरोकापगमाप्तशोकाः, कोकाः क्षतक्षारमिवान्वभूवन् ॥ १५॥ (व्या०) साराविणमिति । चको रैर्विहितं सांराविणं कोलाहलं कोकाश्चनाबाकाः मतक्षारं क्षतेभारस्तं क्षते प्रणे क्षारक्षेपमिव अन्वभूवन् अनुभवन्ति स्म । किंविशिष्टैश्चको रैः राजकरोपनीतपीयूपपानै राजा चन्द्रो नृपो वा तस्य करण हस्तेन किरणों उपनीतं पीयूषस्य पान अमृतपान येषां ते.तैः । किलक्षणा कोका भास्वद्विरोकापगमाप्तगोका भास्वत सूर्यस्य विरोका किरणाः तेषां अपगमे विनाशे आप्त प्राप्त शोकोयैस्ते ॥ १५ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवात्य महाकाव्यम् टीकासमलतम् ॥ सर्ग. ६ (२०१ तमस्सु राज्ञा स्वमयूखदंडै-विखंड्यमानेष्वदयं तमो यत् । तमेवं भेजे शरणं शरण्य, लक्ष्माभिधां किं तदलंभि लोकैः ।। १६॥ __ (व्या०) तमस्सु इति । राज्ञा चन्द्रेण नृपेग वा स्वमयूखदंडै स्वस्थ मयूखा, किरणा. ते एव दंडास्तैः आत्मीयकिरणरूपदडै तमस्सु अंधकारेषु अदयं निर्दयं यथा भवति तथा विखंड्यमानेषु सत्सु यत् तमस्तमेव चन्द्रं शरणं भेजे । किलक्षणं शरणं शरण्यं (तत्र साधौ । ७ । १ । १५ । इ सू. शरणशब्दात् साध्वथै यः ।) शरणे साधु तत् । लोकैरतत् तमोऽधकार लक्ष्माभिधां लक्ष्मणच्चिह्रस्य (लक्ष्यते अनेनेति लक्ष्म । मन् । ९११ । इ. उ. सू लक्षधातोर्मन् प्रत्ययः ।) अभिधा तां लांछनाभिधानं किं न अलम्भि न प्राप्रितं अपितु प्रापितमेव ॥१६॥ अत्रेर्द्विजादुद्भवति स न श्री-तातात्पयोधेर्विधरित्यवैमि । यजातमात्रः प्रतिधिष्ण्यमेषोऽक्षिपत्करं श्रीलवलाभलोभात् ॥१७॥ (या०) अत्रेरिति । एके चन्द्रं अत्रिनेत्रज वदन्ति केचिचतुर्दशरत्नमध्ये समुद्राजातं वदन्ति । परमहं इति अवैमिजानामि इतीति किं विधुः अत्रेर्द्विजात् अत्रिनाम्नो ब्राह्मणात् उद्भवति स्म उत्पन्न । श्रीतातात् श्रियाः तातस्तस्मात् लक्ष्मीपितुः समुद्रात् नोत्पन्न । अत्र हेतुमाह-यत् यस्मात् कारणात् एषविधुश्चंद्रो जातमात्र: सन् श्रीलबलामलोभात् श्रिया लबो लेशस्तस्य लाभः प्राप्ति तस्य लोभ स्मात् प्रतिधिष्ण्यं (योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्य। ३।१ । ४० । इ. सू. वीप्सा) प्रतिनक्षत्रं प्रतिगृहं वा कर हस्तं अक्षिपत् । चन्द्रोढये नक्षत्राणि निस्तेजांसि जातानीति भावः । ब्राह्मणा हि प्रतिहं या कुर्वन्ति तेन कारणेन भिक्षाचरकुलोत्पन्नश्चन्द्र इति ज्ञायते ॥ १७ ॥ अलोपि स्रोऽपि भया पतन्या-प्यहं महोऽवग्रहभिद्रहाणाम् । मथ्येव जन्मोत्तमपूरुषाणां, का योगिभोगिपरा मदिष्टा ॥ १८ ॥ न स्त्री ततः कापि मया समाना, मानास्पदं या बत सा पुरोस्तु । इतीच सल्लक्ष्मलिपीन्दुपत्र-मुच्चैः समुत्तम्भयति स रात्रिः॥ १९ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६॥ (व्या०) अलोपि इति । रात्रिः सह मलिपि सत् विद्यमानं ल। लाञ्छनमेव लिपियस्मिन् तत् सलमलिपि तत् इन्दुपत्रं इन्दुचन्द्र. स एव पत्रं तत् उच्चै उच्चत्तरं समुत्तम्भयति स्म । वादिनो हि उच्चैः पत्रावलम्ब उत्तम्भयन्ति । उक्तं च-त्य बाहू परिरारटोमि, यस्यास्ति शक्तिः स च वावदीतु । मयि स्थिते वादिनि वादिसिंहे नैवाक्षरं वेत्ति महेश्वरोऽपि ॥ १ ॥ इति पत्रावलम्बो पादिनां ज्ञेयः । उप्रेक्षते-इतीव इतीति किं मया आपतन्त्या आपततीति आपतन्ती तया आगच्छन्त्या सूरोऽपि सूर्यः सुभटो वा अलोपि लुप्त । अहं ग्रहाणां महोऽवप्रहभित् महस्तेजः तस्यापग्रहो विनस्त भिनद्मीति महोवनहभित् वर्ते । उत्तमपुरुषाणां उत्तमाश्चते पुरुषाश्च (सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् । ३ । १ । १०७ । इ. सू. कर्मधारयसमासः । ) तेषां तीर्थकचक्रवर्तिबलदेववासुदेवाधुत्तमपुरुषाणां जन्म भय्येव मयि सत्यामेव वर्तते । योगिमोगिषु योगिनश्च भोगिनश्च तेषु का अपरा अन्या मदिष्टाम सकाशात् इष्टा अभीष्टा । कोऽर्थः योगिनो हि रात्रावेव प्रायोध्यानस्तिमितलोचना योगनिद्रामापनाः स्युः । भोगिनोऽपि शब्दरूपरसगन्धस्पर्शएतत्पश्चप्रकारे विषयसुखमनुभवन्ति । त्राविति भावः ॥ १८ ॥ तत् तस्मात् कारणात् कापि स्त्री (स्त्री । ४५० । इ. उ सू. स्स्यायते त्रट डित् स्यायति गर्भोऽस्यामिति स्त्री ।) मया (तुल्यार्थेस्तृतीयापथ्यौ। २ । २ । ११६ । इ. सू. मया इत्यत्र सम्मानयोगे तृतीया ।) समाना तुल्या न वर्तते । या स्त्री मानास्पई मानस्य अहंकारस्य आस्पदं स्थानं अहंकारस्थानं अस्ति सा स्त्री बत इति वित पुरोऽस्तु अग्रे भवतु ॥ १९ ॥ युग्मम् ॥ अदान्मदान्ध्यं तमसामसाध्यं, क्षिपाक्षिपादं प्रति वैरिणां या । तां विन्दुरिन्दुर्दयितां चकार, सारं कलत्रं क्व कलङ्किनो वा ॥२०॥ (०या०) अदात् इति । या क्षिप रात्रिः तमसामन्धकाराणामसाध्यं न साध्यं असाध्यं तत् मदान्ध्यं मदेन आन्व्यं (पतिराजान्तगुणा राजादिभ्यः कर्मणि च । ७।१ । ६० । इ. सू. अन्धशब्दात् व्यण । अन्धस्य भाव आन्थ्यम् ।) मदाव्यं तत् अदात् ददौ । किविशिष्टानां तमसां क्षिपादं क्षिपा रात्रिः दं कलत्रं Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग.६ (२०३ यस्य स तं (भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः । २।२ । ३७ । इ. स. प्रतियोगे क्षिपदमित्यत्र द्वितीया ।) प्रति पक्षे अक्षिणी लोचने पादौ च एषां समाहारस्तत् प्राण्यङ्गत्वात् समाहारद्वन्द्वः तत् प्रति वैरिणां । इन्दुश्चन्द्रो विन्दुर्विद्वानपि (विन्द्विच्छू । ५ । २ । ३४ । इ. सू. शीलादिसदर्थे विन्दर्निपात्यने ।) तां निशा दयितां पत्नी चकार । वा अथवा कलकिन. सारं कलत्रं क वर्तते ॥ २० ॥ विधोरुदीतस्य करेग्वापि, दिनायितं यत्प्रसृतैस्त्रियामा । युवाक्षिभृगस्तदरामि राम-तरङ्गिणीस्मेरमुखाम्बुजेषु ॥ २१ ॥ (व्या०) विधोरिति || त्रियामा त्रयो यामा यस्या सा त्रियामा रात्रिः उदितस्य विधोश्चन्द्रस्य करै किरणैः प्रसूतै सद्भि. यत् दिनायितं दिवसवदाचरितमवापि प्रापि । तत् युवाक्षिमङ्गः यूनां तरुणानां अक्षीणि नेत्राणि एवं मृङ्गाः तैः तरुणलोचनरूपमङ्ग । राभातरङ्गिणीस्मेरमुखाम्बुजेषु रामा. स्त्रियः एप तरङ्गिण्यो नद्यस्तासां स्मराणि (स्म्यजसहिंसदीपकम्पकमनमो र । ५-२-७९ । इ. सू. शीलादिसदर्थे स्मिड्धातो. र प्रत्यय । स्मयन्ते इति स्राणि ।) विकस्वराणि यानि मुखानि एव अभ्युजानि कमलानि तेषु स्त्रीरूपनदोसत्कविकस्वरमुखकमलेषु अरामि रभ्यते स्म ॥ २१ ॥ लोके सितांशोर्गमिते मयूख-दुग्धाब्धिकेलीकुतुकानि देवः । इयेष स स्वापसुखं सरोन-साम्यं सिसत्यापयिषुः किमक्ष्णोः ॥२२॥ (व्या०) लोके इति । स देवः श्रीयुगादीशः स्वापसुख स्वापस्य सुख तत् निद्रासुखं इयेष इच्छति स्म । किलक्षणो भगवान् अक्ष्णोर्लोचनयो. सरोजसाम्यं सरोजानां साम्यं तत् कमलसावं किमु सिसत्यापयिषुः (णिज्बहुलं नान्न. कृगादिषु । ३ । ४ । ४२ । इ. सू. सत्यशब्दात् करोत्यर्थे णिच् । सत्यार्थ वेदस्याः । ३ । ४ । ४४ । इ. सू. णिच् योगे सत्यशब्दस्य आकार अतिरीप्लीहोनायिक्ष्मायानापुः । ४ । ३ । २१ । इ. सू. णोपरे सत्याधातोः पुः । सत्यापि धातो. तुमहादिच्छायां सन्नतत्सनः । ३ । ४ । २१ । इ. सू. इच्छार्थे सन् सन्पडश्चं । ४ । १।३ । इ. सू. द्वित्वे स सत्यापिष इति । सन्यस्य । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥ सर्गः ६ ४ । १ । ५९ । इ. सू. पूर्वन्य अकारस्य इकारे सिसत्यापयिष इति सन् भिक्षाशंसेरु । ५ । २ । ३३ । इ. सू. शोलाढिसदर्थे सिसत्यापयिप धातो. उप्रत्यये सिसत्यापयिषुरिति सिद्वम् । ) सत्यापयितुमिच्छुः । क सति लोके सितांशो. सिता अशवः किरणा यस्य स तस्य चन्द्रस्य मयूखैः किरणैः दुग्धाब्धिकेलीकुतुकानि दुग्धाना होगणामब्धि. समुद्रस्तस्य केल्य क्रीडा तासां कुतुकानितानि क्षीरसमुद्रस-कक्रीडाकौतुकानि प्रापिते सति यथा देवो नारायणः क्षोरसमुद्रे शेते ॥ २२ ॥ तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्ण, समं वधूभ्यां मणिहय॑मीशः । ततो गुरुगन्धि विवेश शास्त्रं, मतिस्मृतिभ्यामिव तत्वकामः ॥२३॥ (व्या०) तदैवेति । ततस्ततोऽनन्तरमीशः श्री+पभो वधूभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां समं मणिहर्म्य मणीनां हर्य तत् मणिसत्कावासं विवेश प्रविष्टः ।। किंलक्षणं मणिहर्म्य तदैव देवैरमरै कृतम् । अग्र्यवर्ण अग्र्यः श्रेष्ठो वर्णो यस्य तत् प्रधानवर्ण । अगुरूदन्धि अगुरुणा नन्धि तत् परिमलबहुलं क इव तत्त्वकाम इव तत्वे कामो यस्य स यथा तत्वकामस्तत्त्वमिछुमतिस्मृतिभ्यां मतिश्च स्मृतिश्च ताभ्यां सह शास्त्रं प्रविशति । किलक्षणं शास्त्रं प्रधानवर्ण प्रशस्याक्षरं अध्याः श्रेष्ठा वर्णा अक्षराणि यस्मिन् तत् । गुरूद्गन्धि गुरुणा, उद्गन्धि उत्प्राबल्येन गन्धि गन्धेन परिमलेन युक्तं गुरुं विना शास्त्रस्य परिमलो न स्यात् ।। विवाहदीक्षाविधिविद्वधूभ्यां, कृत्वा सखीभ्यामिव नर्मकेलीः । निद्रां प्रियीकृत्य स तत्र तल्पे, शिश्य सुख शेष इवामुरारिः ॥२४॥ (व्या०) विवाह इति । स भगवान् तत्र तस्मिन् मणिहार्थे मणिमयावासे तल्पे पत्यके निद्रां प्रियीकृत्य निद्रामेव प्रियामभीष्टां कल वाकृत्वा न प्रिया अप्रिया अत्रियां प्रियां कृ.वा इति प्रियीकृत्य सुख शिरथे सुप्तः । क इव असुरारि रिच यथा असुराणां अरिः असुरारिनारायण शेथे सुख स्वपिति । किविशिष्टो मगवान् विवाहदीक्षाविधिवित् विवाहस्यदीक्षा विवाहसाकदीक्षा तस्या विधिः आचारस्तं वेत्ति इति । किं कृत्वा शिश्ये सखीभ्यामिव वधूभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां नर्भणः केलयस्ता क्रीडाकौतुकानि कृत्वा ॥ २४ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीजैनकुमारसम्भवाल्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२७५ . त्रिरात्रमेवं भगवानतीत्या-निरुद्धपित्रानुपरुद्धचित्तः । ततस्तृतीयेऽपिषुमर्थसारे, प्रावर्तनावक्रमतिः क्रमज्ञः ॥ २५ ॥ (व्या०) त्रिरात्रमिति । भगवान् एवं अमुना प्रकारेण त्रिरात्रं (संख्यासमाहारे च द्विगुचानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९। इ सू संख्यापूर्वकद्विगुः । सङ्ख्यातैकपुण्यवादोर्चाचरात्रेरत् । ७ । ३ । ११९ । इ सू रात्रिशब्दात् अत् प्रत्यय समासान्त I) रात्रित्रय तिसृणां रात्रीणां समाहारस्तत् अतीत्य अतिक्रम्य ततस्ततोऽनतरं तृतीयेऽपि पुमर्थसारे पुमर्येषु सारस्तस्मिन् पुरुषार्थरहस्ये कामाख्ये प्रावर्तत । किंलक्षणो भगवान् अनिरूपित्रा अनिरुद्रस्य पिता तेन कामेन न उपरुद्धं अनुपरुद्धं अनासक्तं चित्तं हृदयं यस्य स अनुपरुद्धचित्तः । अवक्रमतिः न चक्रा अवका सरला मतिबुद्धिर्यस्य सः अकुटिलबुद्वि. । क्रम जानातीति क्रमशः धर्मार्थकामादीनां कमज्ञ ॥ २५ ॥ भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्य-जन्मार्जितं स्वं स विभुर्विबुध्य । मुक्त्येककामोऽप्युचितोपचारै-रभुङ्क्त ताभ्यां विषयानसक्तः ॥२६॥ (व्या०) भोगाई इति । स विभुः अन्यजन्मार्जितं अन्यत् च तत् जन्म च अन्यजन्म अन्यजन्मनि अर्जितं तत् प्राग्जन्मन्युपार्जितं स्वं आत्मीयं भोगाईकर्म भोगाई (अ)ऽच् । ५ । १ । ९१ । इ सू. भोगपूर्वक अर्हथातो अच् प्रत्ययः भोगमहतीति भोगाहम् ।) च तत् कर्म च तत् भोगफलं कर्म ध्रुववेद्य अवश्यभोक्तव्यं विबुध्य ज्ञात्वा मुक्त्येककामोऽपि मुक्तौ एव एक कामोऽभिलाषो यस्य स. सन् उचितोपचारै उचिताश्चते उपचाराश्च तै. शीतग्रीष्मवर्षर्तुयोग्योपहार असक्तोऽनासक्त सन् ताभ्यां सुमागलासुनन्दाभ्यां समं विषयानभुक्त ।। न तस्स दासीकृतवासवोऽपि, मनो मनोयोनिरियेष जेतुम् । विगृह्णने स्वस्य. परस्य मत्वा, ये स्थाम तानाश्रयते जयश्रीः ॥२७॥ (व्या०) न इति । मनोयोनिः मनोयोनिरुत्पत्तिस्थानं यस्य स. कंदर्प. दासीकृतवासवोऽपि न दासा अदासा अदासाः दासाः कृता इति दासीकृताः दासीकता. वासवा इन्द्रा येन सः दासीकृतवासवोऽपि सन् तस्य भगवतो मनो Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६) श्रीजैनकुमारसम्भवायं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६॥ जेतुं न इयेप न वांछितवान् । ये पुरुषाः स्वस्य आत्मीयस्य परस्य स्थान बलं मत्वा ज्ञात्वा विगृहणते विग्रहं कुर्वन्ति जयश्रीः जयस्य श्रीस्तानाश्रयते ॥२७॥ श्रोतांसि पश्चापि न पुष्पचाप-चापल्यमातन्वत तस्य नेतुः । स्वदेहगेहांशनिवासिनां यो, न शासकः सोऽस्तु कथं त्रिलोक्याः ॥ ___ (व्या०) श्रोतांसि इति । तस्य नेचुः स्वामिनः पञ्चापि श्रोतांसि इन्द्रियाणि पुष्पचापचापल्यं पुष्पाणि चापं धनुर्यस्य सः पुष्पचापः कामस्तस्य चापल्य तन् कंदर्पसत्कचपलत्यं न जतन्वत नाकुर्वन् । यः स्वदेहगेहांशवासिनां स्वस्थ देह एव गेहस्यांशः स्वीयदेहरूपगृहकोणः तस्मिन् वसन्तीति वासिनस्तेषां न न शासको न शिक्षकः स त्रिलोक्या. त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी (संख्यासमाहारे च द्विगुश्वानाम्न्ययम् । ३ । १ । ९९ । इ. सू. द्विगुसमासः । द्विगो: समाहारात् । २ । ४ । २२ । इ. सू. स्त्रियां डी ।) तस्या शासक: शिक्षकः कथमस्तु ॥२८॥ या योषिदेनं प्रतिदृष्टिभल्ली-श्विक्षेप बाधाकरकामबुद्धया । तामप्यवैक्षिष्ट दृशा स साम्य-स्पृशैव शक्ती सहना हि सन्तः ॥२९॥ (व्या०) या इति । या योषित् स्त्री तं भगवन्तं प्रति बाधाकर कामवुद्धया बाधां पीडा करोति इत्येवंशीलः स चासो कामः कंदर्पस्तस्य बुद्धिस्तया दृष्टिमल्ली. दृष्टय एव मल्लयस्ताः चिक्षेप । बाथाकर कामवुद्धयेति कामस्तस्या बाधाकरोऽस्ति । भगवन्तं दृष्ट्वा नया चिन्तितम् । एष एव कामरसतोऽहमपि एनं हन्मीति चुन्या दृष्टिभल्लीश्चिक्षेप इति भाव. । स भगवान् तामपि स्त्रियं साम्वं स्पृशतीति साम्यस्क तया साम्यस्पृशैव शा रागरहितशा अबक्षिष्ट व्यलोकयत् । हि निश्चितं सन्तो विद्वांसः भक्तो सत्यां सहनाः सहन्ते इति सहनाः (नन्यादिश्योऽनः । ५ । १ । ५२ । इ. सू. सहधातोः अनप्रत्ययः ।) वर्तन्ते । 'ज्ञाने मौनं क्षमा अक्तौ, त्यागे श्लावाविपर्यय' । इतिन्यायात् ॥ २९ ॥ नासौ विलासोर्मिभिरप्सरोभि-रक्षोभि नाट्यावसरागताभिः । श्रोतःपतेोमनसोऽपि शोषे, प्रभूयते तख किमत्र चित्रम् ॥ ३०॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलं शतम् ॥ सर्ग. ६ (२०७ (व्या०) नासाविति ॥ असौ भगवान् नाट्यावसरागताभिः नाट्यस्य अवसर. समयस्तस्मिन् आगतास्ताभिः अप्सरोभिर्देवांगनाभिः पक्षे अपप्रधान सरोभिः । विलासोर्मिभिः विलासा एक अर्मयः तै विलासरूपैः ऊर्मिभिः कल्लोलै. न अक्षोभि न क्षोभित बिलासो नेत्रजो ज्ञेयः । यो भगवान् श्रोतः पतेः श्रोतसां इन्द्रियाणां पति श्रोत पति तस्य श्रोतःपते. मनसोऽपि समुद्रस्य वा शोषे प्रभूयते (क्यड् । ३ । ४ । २६ । इ. सू. प्रभुशचात् आचारेऽर्थे क्यड् । इडितः कर्तरि । ३ । ३ । २२ । इ. सू. क्यडोडिवादात्मनेपदम् । दीर्घशिव यङ् यक् क्येषु च । ४-३-१०८ । इ. सू. दीर्थ । प्रभुरिव आचरतीति प्रभूयते) समर्थो भवति । तस्य भगवतोऽत्र अप्सरोभिरक्षोभणे किं चित्रं किमाश्चर्यम् ॥ जगे न गेयेष्वपि नाकसद्भिः, सरस्य साराधिकता पुरोऽस । शातं सतां वर्धषितुं विरोध, लोला कथं सौमनसी विलोला ॥३१॥ (व्या०) जग इति । नाका: नाके स्वर्गे सोदन्ति गच्छन्ति इति नाकसदः (नकं अकं दुखं । नविधने अकं दुःख अस्मिन्निति नाकः रवर्ग । पखादयः । ३ । २ । १२८ । इ. सू. नाकशदस्य नखादित्वात् अन्स्परे । ३ । २ । १२९ । इ. सू. अनादेशसभावः । किप् । ५ । १ । १४८ । इ. सू. नाकपूर्वकसद्धातोः कि५ प्रत्ययः ।) तैः देवरस्य भगवतः पुरोऽग्रे गयेष्वपि (आसन्ध्यक्षरस्य । ४ । २ । १ । इ. सू. गैधातोराकार' । यएचातः । ५ । १ २८। इ. सू. यप्रत्ययः च आकारस्व एकारः । गातुं योग्यानि गेयानि ।) गीतेष्वपि स्मरस्य कंदर्पस्य साराधिकता सारस्य बलस्थ अधिकता साराधिकता बलाधिकत्वं न जगे न गीयते स्म । सौमनसी सुमनसा देवानां सतां वा इयं सौमनस्ली लोला जिह्वा सतां साधूनां शान्तमुपशान्तं विरोधं वर्धयितुं कथं विलोला चश्चला स्यात् अपि तु नैव स्यात् ॥ ३१ ॥ अवारि वैराग्निविवर्धनोऽपि, तं नारदो जीप्सुरनन्यजीजः । जीवनसौ जीवममानियोध्य, मां भूरिशस्तोषयितेतिबुद्धया ॥ ३२ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ · ( व्या० ) अवारि । नारदो ( आतोडोऽह्वावाम । ५ । १ । ७६ । इ. सू नारकर्मपूर्वक दोघातो. ड | नारं नरसम्हं द्यति भिन्नत्ति इति नारद । ङस्युक्तं कृता । ३ । १ । ४९ । इ. सू समासः ) वैराग्निविवर्धनोऽपि वैरमेवाग्निस्तस्यविवर्धन (नन्द्यादिभ्योऽन । ५ । १ । ५२ । इ. सू. अन । विवर्धयति इति विवर्धन | ) वैररूपाग्निविवर्धनशीलोऽपि तं भगवन्तं अनन्यजौज अनन्यजस्य कामस्य ओजोबलं तत् ज्ञीवसुर्ज्ञापयितुमिच्छुः सन् इतिबुवया अवारि वारितवान् । इतीति किं असौ कंदर्प कामो जीवन् जीवतीति जीवन् सन् जीवगणान् जीवानां गणास्तान् जीवसमूहान् नियोध्य संग्रामे पातयित्वा मां भूरिशो बहुवारान् तोषयिता हर्ष प्रापयिष्यति । अत्र नारदवर्णनं कविधर्मत्वात् भाविनि भूतवदुपचार इति न्यायाद्वा ॥ ३२ ॥ • आद्यापि या तस्य सुमंगलेति, हेतिः स्मरस्यास्खलिता रराज । रंभाप्यरं भारहिता यदग्रे, रूपं रतेरप्यरतिं तनोति ॥ ३३ ॥ ( व्या० ) आद्या इति । तस्य भगवत आद्या ( दिगादिदेहांशाच । ६ । ३ । १२४ । इ. सू. आदिशब्दस्य दिगादिपाठात् भवेऽर्थे यप्रत्यय आदौ भवा आद्या ।) प्रथमा प्रिया सुमंगला इति रराज शोभिता । किंलक्षणा सुमंगला स्मरस्य कंदर्पस्य अस्खलिता न स्खलिता अस्खलिता हेतिः (सातिहेतियूतिजूतिज्ञप्तिकीर्ति. । ५ । ३ । ९४ । इ. सू. क्त्यन्तो निपात्यते हन्यते अनया इति हेति ।) प्रहरणम् । रंभापि अरं अत्यर्थं यदग्रे यस्था. सुमंगलाया अग्रे तस्मिन् भारहिता प्रभारहिता जाता । यद रतेरपि काममार्याया अपि रूपं अरति असमाधि तनोति करोति ॥ ३३ ॥ यज्ज्वालमालायुजि कांचनेना- हुतिः स्वतन्त्रा विहिता हुताशे । तत्तेन तुष्टेन यदङ्गवर्ण-सवर्णतादायि मनाकिमस्मै ॥ ३४ ॥ ( व्या० ) यदिति । कांचनेन सुवर्णेन हुताशे ( कर्मणोऽणू । ५ । १ । ७२ । इ. सू. हुतपूर्वक अश्वातो: अण् प्रस्यय ।) हुतमश्नातीति हुताशस्तस्मिन्__ वैश्वानर यत् स्वतन्वा स्वस्य तनुः तया स्वतन्चा निजशरीरेण आहुतिर्विहिता Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२०९ (क्तक्तवतू । ५। १ । १७४ । इ सू. विपूर्वक धाधातोः क्त प्रत्ययः धागः । ४ । ४ । १५ । इ सू. धाधातो क्तेपरे हिरादेश ।) कि लक्षणे हुताशे ज्वालानां माला' पक्तय ताभियुज्यते तस्मिन् ज्वालाश्रेणियुक्ते । तत् तस्मात्कारणात् तुष्टेन तेन हुताशेन मनाक स्तोकतरा अस्मै काञ्चनाय यदङ्गवर्णसवर्णता यस्याः सुमंगलाया. अगस्य वर्ण तेन सह सवर्णता साता अदाथि दत्ता ॥ पद्मं न चन्द्र प्रति सप्रसाद, तस्वोदितः सोऽपि ददाति सादम् । यस्था मुखं द्वावपि तावलुप्त, श्रीमान् परस्फातिसह व हन्त ॥३५॥ (व्या०) पद्ममिति । पञ कमलं चन्द्रं प्रति न सप्रसाद प्रसादेन सह वर्तते इति सप्रसादम् सुप्रसन्नं न उदितः उदयं प्राप्तः सोऽपि चन्द्रोऽपि तस्यपभस्य साद खेदं ददाति । यस्या सुमंगलाया मुख कर्तपदं तौ द्वापि पनचन्द्रौ अलुत लुपति स्म । हन्त इति वितर्के श्रीमान् श्रीलक्ष्मीरस्यास्तीति श्रीमान् लक्ष्मीवान् परस्फातिसहः परस्य स्फातिवृद्धिस्तां सहते इति परस्फातिसहः के पर्तते । श्रीलक्ष्मीः शोभा वा सुखे वसतीति श्रीमत्वम् ॥ ३५ ॥ पूर्व रसं नीरसतां च पश्चा-द्विवृण्वतो वृद्धिमतो जलौघैः । जगजने तृप्यति तद्गिरैव-स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेक्षोः ॥ ३६॥ (व्या०) पूर्वमिति । इक्षो. निष्फलजन्मता निष्फलं च तत् जन्म च निष्फलजन्मनो भावः अभवत् स्थाने युक्तम् । किंकुर्वत इक्षो पूर्वप्रथमं रसं पश्चात् नीरसतां नीरसस्य भावस्ता विश्वत: विवृणोतीति विवृण्वन् तस्य प्रकटयत. । जलौघैः जलानां ओघा. समूहा जलौघास्तै. पानीयसमहर्डलयोरैक्यात् जडसमूहै र्वा वृद्धिमत वृद्धिस्यास्नीति वृद्धिमान् तस्य वृद्धियुक्तस्य । क सति तन्दिरा एव तस्याः सुमंगलाया गी तया तन्निरा एव जगजने जगतो. जन स्तस्मिन् लोके तृप्यति तृप्यतीति तृप्यन् तस्मिन् सति तृप्ति प्राप्नुवति सति इत्यर्थः ॥ ३६ ॥ यया स्वशीलेन ससौरभागचा, श्रीखंडमन्तगडुतामनायि । . . देवार्चने स्वं विनियोज्य जात-पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥३७॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०) श्री जैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ ( व्या० ) यया इति । यया सुमंगलया श्रीखंड अन्तर्गतां निरर्थकतां अनायि । किंलक्ष्या सुमंगलया स्वशीलेन स्वस्यशीलं तेन ससौरभाङ्गचा सौरभेन सह वर्तते इति सौरभं (वृवर्णावादेः । ७ । १ । ६९ । इ. सू. सुरभिशदात् भावे अ ) अहं यस्या: सा तथा परिमलसहितशरीरया शीलपरिमलवासितदेहेन चन्दनमधरीकृतमित्यर्थः । पुनः देवार्चने देवानामर्चनं तस्मिन् स्वं विनियोज्य व्यापार्य जातपुण्यं जातं पुण्यं यस्य तत् सत् श्रीखंडं चन्दनं भोगिभि' सर्पे, भोगिभि' पुरुषैर्वा योग माप ॥ ३७ ॥ गरेण गौरीशगलो मृगेण, गौरद्युतिर्नोलिकयाम्बु गाङ्गम् | 1 मलेन वासः कलुषत्वमेति, शीलं तु तस्या न कथंचनापि ॥ ३८ ॥ ( व्या० ) गरेणेति | गौरीगंगल गौर्या, पार्वत्या ईशः स्वामी शिवः तस्य गल: कंठ ईश्वरकंठो गरेण विषेण कलुवत्वं एति प्राप्नाति | गौरद्युति गौरा शुभ्रा द्युतिः क्रान्तिर्यस्य स चन्द्रो मृगेण कलुषत्वमेति । गाङ्गं गङ्गाया इदं अम्बु पानीयं नीलिकया सेवालेन कलुषत्वमेति । वासो वस्त्र मलेन कलुत्वमेति तु पुनस्तस्याः सुमंगलायाः शीलं कथंचनापि कथमपि कलुषत्वं नैति । ईश्वरचन्द्रादिभ्योऽपि निर्मलं शोलमित्यर्थः ॥ ३८ ॥ I उदारवेदिन्युरुमानभित्तौ, सद्वारशोभाकरणोत्तरंगे । उवास वासौकसि वर्ष्मणा या, गुणैस्तु तैस्तैर्हृदि विश्वभर्तुः ॥ ३९ ॥ ( व्या० ) उदार इति । या सुमंगला वर्ष्मणा ( मनू । ९१.१ । इ. सू. सू. वृषू सेचने धातोः मन् प्रत्यय वर्षात मलानिति व 1) शरीरेण वासौकसि वासस्य ओक' तस्मिन् भवने उवास वसति स्म । तु पुनस्तैस्तैर्गुणैः सुरूपा सुभगा सुवेपा सुरतप्रवीणा सुनेत्रा सुखा श्रिया भोगिनी विचक्षणा प्रियभाषिणी प्रसन्नमुखी प्रभृतिगुणैर्विश्वभर्तु श्री ऋषभदेवस्य हृदि उवास । किंलक्षणे वासौकसि विश्वभर्तुर्हृदि वा उदारवेदिनि उदारा वेदा वा वरंडिका यस्मिन् तत् उदारवेदि तस्मिन् उदारखेदिनि पक्षे उत्कृष्टज्ञाने । पुनः उरुमानभित्तौ उरु मानं प्रमाणं यासां ता उरुमाना· गुरुप्रमाणा भित्तयो यस्मिन् तत् तस्मिन् उरुमानभित्तौ पक्षे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२११ उर्वौ मानस्य गर्वस्थ भित्तिः क्षयो यस्मात् तस्मिन् उरुमानभित्तौ । अत्र 'वान्यतः पुमांष्टादौ स्वरे' इति पुल्लिंगात् नागमाभाव सद्द्वारशोभाकरणोत्तरंगे सत् च तत् द्वारं च तत्य शोभाया. करण उत्तरंगो यस्मिन् तत् तस्मिन् । पक्षे सतां वारस्य समूहस्य सत् प्रशस्यहारस्य वा शोभाया करणे करणेन वा उतरङ्गे उत्कल्लोले || चनागमप्रीणितसत्कदम्बा, सारस्वतं सा रसमुद्भिरन्ती । रजोव्रजं मंजुलतोपनीत - छाया प्नती प्रावृषमन्त्रकार्षीत् ॥ ४० ॥ ( ०या० ) घनागमेति । सा देवी सुमङ्गला प्रावृषं श्रावण भाद्रपदजातं वर्षाऋतुमन्वकार्षीत् अनुचकार । किंविशिष्टा सुमङ्गला च किंविशिष्टां प्रावृषं घनागमप्रीणितसत्कदम्बा घनाश्च ते आगमाश्च शास्त्राणि तै प्रीणिताः सतां कदम्बाः समूहा यया सा घनागमप्रीणितसत्कदम्बा । वर्षापक्षे अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम घनागमप्रीणितसत्कदम्यां घनानां मेघानां आगमेन प्रीणिता सन्तः प्रधानाः कदुम्बाः कदम्बवृक्ष यया सा ताम् । सारस्वतं ( तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ. सू. इदमर्थे प्रागूजितादण् । ६-१-१३ । इ. सू. सरस्वतीशब्दादण् । ) सरस्वत्या अयं तं रसं सरस्वती सत्करसं सारं उदगिरन्ती प्रकटयन्ती । पक्षे सरस्वतीरसं सरस्वती नदी जलमुद्गिरन्तीं । रजोवजं रजसां व्रजस्तं पापव्रजं प्रती क्षयं नयन्ती पक्षे रजोनजं रेणुसमूहं क्षयं नयन्तीं पुनः मञ्जुलतोपनीतछाया मञ्जुलता मनोज्ञत्वं तथा उपनीता ढौकिता छाया कान्तिर्यस्याः सा पक्षे मंजको मनोज्ञाः ताश्चलताश्च ताभिरुपनीता छाया यस्याः तां मञ्जुलतोपनीतछायाम् ॥ रमेशस्यपद्मा स्फुटवृत्तशालि क्षेत्रा नदद्धंसकचारुचर्या । यापास्तपङ्का विललास पुण्य - प्रकाशकाशा शरदङ्गिनीव ॥ ४१ ॥ ( व्या० ) स्मेरास्यपद्मा इति ॥ सा सुमङ्गला अङ्गिनी अंगमस्या अस्तीति अङ्गिनी मूर्तिमती शरदिव अश्वयुक् कार्तिकसत्कऋतुवत् विललास । किं लक्षणा सुमंगला शरद् वा स्मेरास्य पद्मा स्वेरं विकस्वरं आस्यमेव पद्मं मुखकमलं यस्याः सा पक्षे स्मेरं आस्यमिव पद्मं मुखवत्कमलं यस्याः सा स्मेरकमला स्फुटवृत्त - लिक्षेत्रा स्फुटं प्रकटं औदार्यधैर्यगांभीर्यमाधुर्यादिवृत्तेन चरित्रेण शालि शोभमानं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२) श्रजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६ ॥ क्षेत्रं शरीरं यस्याः सा । पक्षे स्फुटानि प्रकटानि वृत्तानि जातानि शालीनां क्षेत्राणि यस्यां सा । नदद्धंसकचारुचयां नदद्भयां शब्दायमानाभ्यां हंसकाभ्यां नूपुराभ्यां चारुर्मनोज्ञा चर्या ( समजनिपन्निपशीड्लुग् विदि चरिमनीणः । ५-३-९९ । इ. सू. स्त्रियां नाम्नि चरघातो. क्यप् । आत् इ. सू. आप् ।) I गमनं यस्याः सा पक्षे नदन्तीति नदन्तः शब्दं कुर्वाणा. ते च ते हंसकाश्च तेषा हंसकानां चारुः चर्या यस्यां सा । अपास्तपङ्का अपास्त पङ्क पापरूपकर्दमो यया सा पक्षे शोषितकमा । पुण्यप्रकाशकाशा पुण्यप्रकाशिका आशा यस्याः सा पक्षे पुण्याः पवित्राः प्रकाशाः प्रकटाः काशा यस्यां सा ॥ ४१ ॥ सत्पावकार्चिः प्रणिधानदत्ता-दरा कलाकेलिचले दधाना । श्रियं विशालक्षणदा हिमत्तः, शिश्राय सत्यागतशीतलास्या ||४२|| ( व्या० ) सत्पावक इति । सा सुमंगला हिमर्तो. मार्गशीर्ष पौषसंबधिन श्रियं शोभां शिश्राय । किं लक्षणा सुमंगला हिमर्तुश्च अत्रापि अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः सत्पावकार्चिःप्रणिधानदत्तादरा सत् प्रधानं पावकं पावित्र्यकारकं अर्चिः तेजः परब्रह्मरूपं तस्मिन् प्रणिधानं ध्यानं येषां ते सत्पावकार्चि प्रणिधानास्तेभ्यो दत्त आदरोयया सा | पक्षे सत् प्रधानं पावकस्याग्नेः अर्चिस्तेज 'तस्य प्रणिधाने दत्तादरा । पुनः कला के लित्रलं दधाना | कलासु केलिचलं कोडाबलं तत् धत्ते इति दधाना | पक्ष कलाकेले : कंदर्पस्य बलं दधाना । कला कामं निका सेवते शीतकाले इति वचनात् । पुनः विशालक्षणदा विशालश्वासौ क्षणश्च विशलक्षण: विस्तीर्णक्षणस्तं ददातीति विशालक्षणदा पक्षे विशाला क्षणदा रात्रिर्यस्यां सा । पुनः सत्यागतशीतलास्या व्यजनं व्यागः सह त्यागेन वर्तते इति सत्यागः एवंविधस्तकारो यस्मिन् स सत्यागत एतावतातरहित शीतल शब्दः शील इति स्यात् तस्मिन् शीले आस्था निवेशो यस्याः सा सत्यागतशीतलास्या शीले निश्चला इत्यर्थः पक्षे सत्येन आगतस्य शीतस्य लास्यं यस्यां सा ॥ ४२ ॥ सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा-गमं क्रमोपस्थितमारुतौघा | सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, गोष्ठयां विजिग्ये शिशिरर्तु कीर्तिम् ॥ ४३ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग ६ (२१३ ( व्या० ) सत्रमिति । सा सुमंगला शिशिरर्तुकीर्तिं शिशिर इतिऋतुस्तस्य कीर्तिस्तां माधफाल्गुनयो' कीर्ति विजिग्ये ( परार्वेर्जेः । ३-३-२ । इ. सू. विपूर्वक जिधातो आत्मनेपद विधीयते । परोक्षे । ५-२-१२ । इ. सू. विपूर्वकजिधातोः परोक्षाया. अत्मनेपदस्य प्रथमपुरुषैकवचने ए प्रत्यये विजि ए द्विर्धातुः परोक्षाडे प्राक् तु स्वरेश्वर विधे । ४-१ - १ | इ. सू द्वित्वेविजिजिए इति । जेर्गि: सन्परोक्षयो । ४ - १ - ३५ । इ. सू. परस्यजे. गि आदेशे विजिगि ए इति जाते | योऽनेकस्वरस्य । २-१-५६ । इ सू यकारे कृते विजिग्ये इति । ) जितवती किं कुर्वती सुमंगला हि शिशिरर्तुश्च सत्रं सत्रागारं विपत्त्रं विपदस्त्रायते इति विपत् तत् विपत्त्रायकं विपदो रक्षकं रचयतीति रचयन्ती कुर्वती पक्षे सत्रं वनं विगतानि पत्राणि यस्मात् तत् विपत्रं पत्ररहितं किंलक्षणं सत्रं वनं च अदभ्रागमं अदम्रो बहु' आगमो जनानामागमनं यस्मिन् तत् पक्षे आगमा वृक्षा बहुवृक्षमित्यर्थः । पुनः क्रमोपस्थितमारुतौघा क्रमयोश्चरणयोरुपस्थित मारुतानां देवानामोघः समूहो यस्या. सा पक्षे क्रमेण उपस्थित मारुतौघः पवनसमूहो यस्यां सा । पुनः किंकुर्वती इनं स्वामिनं गोष्ठयां श्रीदकाष्ठां श्रीदानां लक्ष्मीदाकानां काष्ठां कोटिं आनयन्तीं गोष्ठ्यां सखीमध्ये वार्तायां स्वामिनं लक्ष्मीदायकत्वेन श्लाधयन्तीति भाव' ॥ पक्षे इनं सूर्य श्रीदस्य घनदस्य काष्ठामुत्तरदिशमानयन्ती ॥ ४३ ॥ उल्लासयन्ती सुमनःसमूहं तेने सदालिप्रियतामुपेता । वसन्तलक्ष्मीरिव दक्षिणा हि-कान्ते रुचिं सत्परपुष्टघोषा ॥ ४४ ॥ ( व्या० ) उल्लासयन्ती इति । दक्षिणा अनुकूला सुमंगला हि. निश्चितं कांते श्री ऋषभदेवे भर्तरि वसन्तलक्ष्मीरिव वसन्तस्य लक्ष्मी: चैत्र वैशाखसत्कऋतुरिरुचिमभिलापं तेने ( तन् ए इति दशायां अनादेशादे रे कञ्जनमध्येऽत' । ४-१-२४ । इ. सू. एकारे तेने. इति । ) विस्तारयामास । वसन्तलक्ष्मी दक्षिणस्यादिश. अहिकान्त पवतस्तस्मिन् रुचिं विस्तारयति । किं कुर्वती सुमंगला वसन्तलक्ष्मीश्च सुमन समूह शोभनं मनो येषां ने सुमनसः उत्तमास्तेसां Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ समूहरा उल्लासयन्ती पक्षे सुमनसः पुष्पाणि तेषां समूहमुलासयन्ती । पुनः सदा सर्वदा आलिप्रियतां प्रियस्यभावः प्रियता आलीनां सखीनां प्रियता प्रियत्वं तां उपेता पक्षे अलयो भ्रमरास्तेषां प्रियतामुपेता प्राप्ता । पुन. सत्परपुष्टघोपा सत्सु साधुषु पर प्रकृष्टः पुष्टो घोषः प्रसिद्धिरूपो यस्या. सा पक्षे सन् विद्यमानः परपुष्टानां कोकिलानां घोष. शब्दो यस्यां सा ॥ ४४ ।। संयोज्य दोषोच्छयमल्पतायां, शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती। तारं तपः श्रीरिव सातिपदवी, जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे ॥४५॥ (व्या०) संयोज्येति । सा सुमंगला तारमत्यर्थ तप:श्रीरिव ग्रीष्मलक्ष्मीरिव ज्येष्ठाषाढसकतुरिव जगतो विश्वस्य जाड्याधिक जडस्य भावो जाड्यं तस्याधिकत्वं तत् मूर्सचं जलाधिकत्वं वा न सेहे । किं कुर्वती दोषोच्छ्रयं दोषाणां दूषणानामुम्छयोविस्तारस्तं पक्षे दोषा रात्रिस्तस्या उच्छायो विस्तारतं अस्पतायां अल्पस्य भाव अल्पता तस्यां संयोज्य प्रत्यहं (योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्थे । ३-१-४० । इ. सू. वीप्सायाम०ययोभाव । अहः अह प्रति इति प्रत्यहम् ।) निरन्तरं शुचिप्रभां शुचिर्निमला प्रभा यस्याः सा तां पक्षे शुचे: मूर्यस्य प्रभा तामेवयन्ती वर्धयन्ती पुन• अतिपदवी ( स्वरादुतोगुणादखरो. । २-४३५ । इ. सू. स्त्रियां अतिपटुं शब्दात् विकल्पेन डी ) विदुषी पक्षे अतिशयेन पट्वी तीवा ॥ ४५ ॥ परांतरिक्षोदकनिष्कलंका, नाम्ना सुनन्दा नयनिष्कलङ्का । तस्मै गुणश्रेणिभिरद्वितीया, प्रमोदपूर व्यतरद् द्वितीया ॥४६॥ (व्या०) परा इति । तस्मै भगवते श्रीषभाय परा अन्या नाना सुनन्दा द्वितीया (द्वेस्तीयः । ७-१-१६५ । इ. मू. द्विशब्दात् संख्यापूरणेऽथै तीयप्रत्ययः | आत् इति सूत्रेण आपि कृते द्वितीया । ) कलत्रं प्रमोदपूरं प्रमोदस्य हर्षस्य पूररतं व्यतरत् ददौ । किंलक्षणा सुनन्दा अन्तरिक्षोदकनिष्कलका अन्तरिक्षस्य आकाशस्य उदकं जलं तद्वत निष्कलका निर्मला पुनः नयनिष्कलका नय एव निष्कं सुवर्ण तस्य लंका तस्यां हि लंकायां सुवर्ण प्रचुर पुन गुण Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२१५ श्रेणिभिः गुणानां श्रेणयस्ताभिः विनयविवेकविचारशीलप्रभृतिगुणसमूह: अद्वितोया मनोज्ञा ।। ४६ ॥ तयोः सपत्न्योरपि यत्प्रसन्न-हृदोर्मदोद्रेकविविक्तमत्योः । अभूद्भगिन्योरिव सौहृदं स, सुस्वामिलाभप्रभवः प्रभावः ॥ ४७ ॥ (व्या०) तयोरिति ॥ तयोः सुमंगलासुनन्दयो सपन्यो (समान पति र्ययोस्ते सपत्न्यो समानस्य धर्मादिषु । ३-२-१४९ । इ. सू. समानस्य स आदेश: सपन्यादौ । २-४-५० । इ. सू. स्त्रियां पतिशब्दात् डोः च अन्तस्य न् । ) रपि सत्यो भगिन्योरिव यत् सौदं प्रेम अभूत् । किंविशिष्टयोस्तयोः प्रसन्नदोः प्रसन्नं हृदयं ययोस्तयोः पुनः मदोद्रेकविविक्तमत्योः 'जातिलामकुलैश्वर्यबलपतप श्रुतै' एषोऽष्टप्रकारो मदः तस्य मदस्य उद्रेक आधिक्य तेन विविक्ता रहिता मतिर्ययोत्तयोः मनाधिक्यरहितबुद्धयो । सुस्वामिलाभप्रभवः शोभन: स्वामी सुस्वामी तस्य लाभ प्राप्तिः स प्रभवः कारणं यस्य सः भव्यभर्तृप्राप्तेरूत्पन्नः स प्रभावो ज्ञेयः ॥ ४७ ॥ आत्मोचितामालिमनासवत्यौ, त्रिलोकभर्तुर्हदयंगमे ते । सुरालयखामिनिबद्धरुच्या, शच्यापि सख्या समलजिषाताम् ॥४८॥ (410) आत्म इति । त्रिलोकमतुः त्रय अवयवा यस्या सः व्यवयवः स चासी लोकश्च त्रिलोकस्तस्य भर्ता स्वामी तस्य श्रीयुगादिनिनस्य हृदयंगमे (नानो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५-१-१३१ । इ. सू. हृदयपूर्वकगम् धातोः खप्रत्ययः । खित्यनव्ययाऽरुषोर्मोऽ-तो इस्वश्च । ३-२-१११ । इ. सू. मोऽन्तः ।) हृदयं गच्छतः इति हृदयंगमे ॥ ते कलने सुमंगलासुनन्दे રાજ્યાપિ ફ્રન્નાથાપિ સત્ય મનિષાતાં નિતે . વુિ માત્મવિતા आत्मन उचिता योग्या तामालिंसखीं अनाप्तवत्यौ अप्राप्त । किंलक्षणया शच्या सुरालयस्वामिनिबद्रीच्या सुराणामालयः स्थानं सुरालयो देवलोक सुराया मदिरायाः आलयः सुरालयो मदिरागृहं तस्य स्वामी मा इन्द्रस्तस्मिन् निबद्धारुचिरभिलाषो यया सा तया ॥ ४८ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६) श्रोजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६॥ तयो रहपूर्विकया निदेशं, विधिसमानासु गताभिमानम् । स्यगं गतास्वप्यमराङ्गनासु, ययौ न जातु प्रशमं विवादः ॥ ४९ ।। __ (व्या०) तयोरिति । तयोः सुमंगलासुनन्दयो• निदेशमादेशमहपूर्विकया (अहं पूर्व इति यस्यां सा अहंपूर्विका मयूर०यसकादित्वात् निपातः ।) अहमहमिकया अमराङ्गनासु अमराणां देवानामङ्गना नार्यस्तासु गताभिमानं निरहंकार यथा भवति तया विधिसमानासु (मिमीमादामित्स्वरस्य । ४-१-२० । इ. सू विपूर्वक सन्नन्तधाधातो सनि परे इत् न च द्विः ।) विधातुमिच्छन्तीति विधित्सन्ते विघित्सन्ते इति विधिसमानास्तासु कर्तुमिच्छन्तीषु स्वगै गतासु अपि जातु कदाचिदपि विवाद: प्रशमं उपशान्ति न ययौ ॥ ४९ ॥ उपाचरद् द्वे अपि तुल्यबुद्धया, प्रभुः प्रमापास्ततमःसमूहः । उच्चावचा नखरुचिं तनोति, भास्वनिलीनालिषु पद्मिनीषु ॥ ५० ॥ (०या०) उपाचारदिति । प्रभुः श्रीऋषभस्वामी ते द्वे अपि कलत्रे तुल्य. बुद्धया तुल्याचासौ बुद्धिश्च तुल्यबुद्धिस्तथा सदृशभावेन उपाचरत् असेविष्ट । किलक्षणः प्रभुः प्रभापास्ततम समूहः प्रभया कात्या अपास्तो निराकृत: तमसां समूहो येन सः प्रभानिराकृताधिकारपटलः । भास्वान् सूर्यः निलीनालिषु निलीना अलयो भ्रमरा यासु ताः आलय. सख्या एवं विधासु पभिनीषु कमलिनीषु स्त्रीषु उच्चावचा (उदक्च उदच उच्चावचा मयूर०यंसकादित्वात् निपात । ) विषमां स्वरुचिं स्वस्य रुचिः कान्तिरभिलाषश्च तां आत्मीयप्रभा स्वाभिलाषं वा किं तनोति अपि तु नैव ॥ ५० ॥ ऋतूचितं पञ्चसु गोचरेषु, यदा यदाशंसि जिनेन वस्तु । तदिगिताकूतविदोपनिन्ये, तदैव दूरादपि वासवेन ॥ ५१ ॥ (०या०) ऋतु इति । जिनेन श्री५भेण पञ्चसु गोचरेषु ( गोचरसंचरवहज-म् । ५-३-१३१ । इ. सू. आधारे धान्तो निपातः गावः' इन्द्रियाणि चन्ति ५५ इति गोचरा ।) पञ्चसंख्याकेषु विषयेषु यदा यम्मिन्नवसरे यत् *चित तृनां उचितं योग्यं-पड्ने तुयोग्य वस्तु आशंसि (आपूर्वकस्धिातोः Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२१७ कर्मणि अद्यतनी ।) वाञ्छितं तदैव तस्मिन्नेवायसरे वासवेन इन्द्रेण तद्वस्तु दूगदपि उपनि-ये ढौकितम् । किं लक्षणेन वासवेन तदिगिताकूतविदा इंगितं च आकूतश्च अभिप्राय इङ्गिताकूनौ तस्य भगवतः इङ्गिताकूतौ तदिगिताकूतौ तौ वेत्तीति तेन तदिगिताकृतविदा ॥ ५१ ॥ कदापि नाथं विजिहीर्षमन्त-वणं विबुध्येव समं वधूभ्याम् । पत्रैश्च पुष्पैश्च तरून शेषा-विभूषयामास ऋतुर्वमन्तः ॥५२॥ ___ (व्या०) कदेति । ऋतुर्वसन्त पत्रैश्च पर्णैः पुन: पुष्पै कुसुमै अशेषान् न शेषा. अशेषास्तान सर्वान् तरून् वृक्षान् समस्तवृक्षान् विभूषयामास अलं. कृतवान् कि कृत्वा उत्प्रेक्षते-नाथं श्रीपभदेवं कदापि अन्तर्वणं (परिमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ट्या वा । ३-१-३० । इ. सू. अव्ययीभावसमासः । निष्प्राग्रेऽन्तः खदिरकोश्यामशरेक्षुप्लक्षपीयूक्षाभ्योवनस्य । २-३-६६ । इ. सू. अन्त शब्दपूर्वकवनशब्दस्य नस्यणत्वम् । ) वनस्यान्तर्मध्ये वधूभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां समं विजिहीर्षु ( सन् भिक्षाशंसेरुः । ५-२-३३ । इ. सू सन्नन्तविजिहीर्षधातो. उ प्रत्यय ।) विहर्तुमिच्छतीति विजिहीर्षति विजिहीर्षतीति विजिहीर्षस्तं क्रीडाकर्तुमिछु विबुध्येव ज्ञात्वेष अन्तर्वणमित्यत्र निष्प्रातरिति सूत्रेण नस्य णत्वं ज्ञेयम् ॥ ५२ ॥ शैत्यं सरस्यां मृदुता लतायां, सोरभ्यमब्जे ललनैः प्रकाश्य । आनन्दयनिन्धदिगुद्भवोऽपि, देव समेतत्रिगुणः समीरः ॥ ५३ ।। (व्या०) शैल्यमिति । निन्धदिगुद्भवोऽपि निन्धा चासौ दिक् च निन्द्यदिक् दक्षिणादिक तस्या उद्भवतीति निन्वदिगुद्भवः दक्षिण दिशाया उत्पन्न समीरो वायु देवं श्रीऋषभदेव आनन्दयत् -। किलक्षण समीरः सभेतत्रिगुण: समेता. मिलिता. त्रयो गुणा यस्य स हीनकुलोत्पन्नोऽपि गुणैर्मान्यः स्यात् वायो. त्रयो गुणा शीतो मन्दो सुरभिश्च । ललनै प्रकाश्य इति त्रिष्वपि स्थानेषु संत्रध्यते । किं कृत्वा सरस्यां सरोवरे ललनैः शैयं ( वर्णदादिभ्यष्टयण च वा । ७-१-५९ । इ. सू ढादित्वात् न वर्णत्वात् शीतशब्दात् वा व्यण । शीत Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६॥ स्य भावः शैयम् । ) शीतलत्वं प्रकाश्य प्रादुष्कृत्य लतायां वल्ल्यां मृदुतां कोमल अब्जे कमले ललनैः खेलने सौरभ्यं ( पतिराजा-तगुणाराजादिभ्यः कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू. गुणाङ्गत्वात् सुरभिशब्दात् व्यण सुरभेः भाव: सौरभ्यम् । ) परिमलबहुत्वं प्रकाश्य ।। ५३ ।। वल्ली विलोला मधुपानुष, वितन्वती सत्तरुणाश्रितास्य । पुरा परागस्थितितः प्ररूढा, पुपोष योपित्सु चलत्वबुद्धिम् ।। ५४ ॥ (व्या०) वली इति । वल्ली अस्य भगवत श्रीऋषभदेवस्य योपित्सु स्त्रीषु चलवबुद्धिं चलस्य भावश्चल तस्य बुद्रिस्तां पुपोष । किंलक्षणा वल्लो विलोला चपला पुन: किं कुर्वतो मधुपानुष मधु पिबन्तीति मधुपा (आतोडोऽदावामः । ५-१-७६ । इ सू. मधुपूर्वकपाधातो ड प्रत्ययः । डस्युक्तं कृता । ३१-४९ । इ. सू. समास ) भ्रमरा मद्यपा वा तेषां अनुषङ्ग संसर्गरतं वितन्वती वितनोतोति । पुनः सत्तरुणा संश्चासौ तरुश्च तेन प्रशस्यवृक्षण आश्रिता । अथवा सत्त५ प्रशस्य युवानमाश्रिता । पुरा पूर्व परागस्थितित पगग किंजल्क परं प्रकृष्टं आगः अपराधो वा तस्य स्थितेः पूर्व प्रहामुद्गतां अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम ॥ ५४ ॥ निविश्य गुल्मानि महालतानां, विश्रम्य पत्रधिमिलारुहाणाम् । मंत्वा सदारः सरसां जलानि, कृतार्थयामास कृती बने सः ॥५५॥ (व्या०) निविश्येति । स कृती (इष्टादे । ७-१-१६८ । इ. सू. कृतशब्दात् कर्तरिइन् ।) कृतमनेनेति विद्वान् भगवान् सदार. (सहस्तेन । ३१-२४ । इ. सू. बहुव्रीहिसमास ।) दार सह वर्तते इति स+लत्रः सन् वने वनमध्ये महालतानां (जातीयैकार्थेऽवे. । ३-२-७० । इ सू. समानाधिकरणे उत्तरपदे महतो डा । डिसत्यस्वरादेः इति सू अन्त्यस्वरादिलोपः ।) महत्यश्च ता. लताश्च तासां महावल्लीनां गुल्मानि निविश्य उपविश्य कृतार्थयामास । एतत् क्रियापदं सर्वत्र संबध्यते । इलाहाणां इलायां पृथिव्यां रोहन्तीति इलारुहा वृक्षास्तेषां पत्राणि तेषा नदि ता पत्रसंपद विश्रभ्य कृतार्थयामास । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२१९ सरसां सरोवराणां जलानि मकवा कृतार्थयामास ॥ ५५ ॥ विभोय॑तायन्त विवाहकाले, यत्पल्लवैस्तोरणमङ्गलानि । चूतस्य तस्याविकलां फलर्धि-मपप्रथत् साधु ततस्तपतुः ॥५६॥ (व्या०) विभोरिति । यत्पल्सपैः यस्य चूतस्य पल्लवाः यत्पल्लवास्तैः विभो. श्रीपभस्वामिन विवाहकाले विवाहस्य कालस्तस्मिन् विवाहसमये तोरणमङ्गलानि तानि व्यतायन्त व्यस्तार्यन्त । ततः ततोऽनंतरं तपतु ग्रीष्मर्तुस्तस्य चूतस्य अविकला तां सपूर्णा फलधि फलानामृद्धितां फलसम्पदं साधु युक्तं अपप्रथत् (स्मृदृन्वरप्रथम्रदस्तृस्पशेर । ४-१-६५ । इ सू. प्रथधातोः पूर्वस्थ अकारस्य अकारः न इकार ।) विस्तारयामास ॥ ५६ ॥ दोषोन्नतिनस्य तमोमयीटा, दृष्टेति तामेष शनैः पिपेष । पुपोप चाहस्तदमुष्य पूजा-पर्यायदानादुदितद्युतीति ।। ५७ ॥ (व्या०) दापो इति । एष प्रोष्मर्तु अस्य भगवत तमोमयी (अस्मिन् । ७-३-२ । इ. सू. तमस् शब्दात् मयट् । अणनेयेकण्ननटिताम् । २४-२० । इ सू. स्त्रिया डो. प्रचुरं तमः अस्यमिति तमोमयी । ) अंधकारमयी पापमयी वा दोषोन्नतिर्दोषाणामुन्नतिः पक्षे दोषा रात्रि रात्रेसनतिर्वा दृष्टा सती न इष्टा सती न इष्टा न प्रिया इति कारणात् तां दोषोन्नतिं शनैर्मन्दं मन्दं पिपेष पिष्टवान् । च अहदिन इति कारणात् पुपुषे पुष्टवान् । इतीति किं तत् अहः अमुष्य भगवतः पूजापर्यायदानात् पूजाया पर्यायोऽवसरस्तस्य दानं तस्मात् पूजावसरदानतः उदितद्युति उदिता धुतिर्यस्य तत् । सप्रकाशं वर्तते ॥ ५७ ॥ उदग्रसौधाग्रनिलीनमल्ली-वल्लीसुमश्रेणिसुगन्धिशल्यः । श्रीखंडलेपावृतचन्द्रपाद-स्पर्शः कशा ग्रीष्मनिशाः स मेने ॥५८॥ (व्या०) उदय इति । स भगवान् ग्रीष्मनिशा श्रीष्मस्य निशा रात्रय ताः उष्णकालसत्का रात्रीः कृशा मेने । किलक्षणो भगवान् उदग्रसौधानिलीनभलीवलीसुमश्रेणिसुगन्धिशय्यः सौधस्य हर्म्यस्य अग्रं सौघानं उदग्रं च तत् सौधा च उच्चैस्तर सौधाग्रं तस्मिन् निलीना स्थापिता चसौ मल्लीवल्ली च विक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ सितवल्लीं तस्याः सुमानि पुष्पाणि तेषां श्रेणयस्ताभिः सुगन्धिः शय्या यस्य सः उदप्रसौ० पुनः श्रीखंड लेपावृतचन्द्रपादस्पर्श' श्रीखंडस्य चन्दनस्य लेपः तेन आवृतः अन्तरितः: चन्द्रस्य पादानां किरणानां पक्षे चरणानां स्पर्शो यस्य सः श्रीखंडलेपा० ॥ ५८ ॥ पुष्ट्यर्थमीशध्वजतैकसद्म- ककुद्मतः किं जलभृअलौधैः । उदीत तृण्यामवनीं समन्ता - द्वितन्वती प्रावृडथ प्रवृत्ता ॥ ५९ ॥ : ( व्या० ) पुष्टि इति । अथानन्तरं प्रावृट् (कुत् संपदादिम्य: किपू 1५३ - ११४ । इ. सू. प्रपूर्वकवृषघातोः स्त्रियां किप् । गतिकारकस्य नहिवृति वृषि व्यधिरुचिसहितनौकौ । ३-२-८५ । इ. सू. गतिसंज्ञकस्य अस्य दीर्घः । प्रकर्षेण वर्षन्ति मेघा अस्यां प्रावृट् 1) वर्षा ऋतुः प्रवृत्ता किं कुर्वती जलभृज्जलौघैः जलानि बिभ्रतीति जलभृतो मेघास्तेषां जलानि तेषामोघाः समूहास्तै. मेघसत्कजलसमूहैः समन्तात् सर्वतः उदीततृण्यां तृणानां समूहस्तृण्या (पाशादेश्चल्यः । ६-२-२५ ा इ. सू. समूहे ऽर्थे तृणशब्दात् ल्यप्रत्ययः ।) उदीता उद्गता तृण्या तृणसमूहो यस्यां सा तामवन पृथ्वों वितन्वती विस्तारयन्ती । किमर्थ किमिति ईशव्यजतैकसनककुभतः ईशस्य स्वामिनो ध्वजताया एकं सभ स्थानं य ककुभानू (नोम्र्म्यादिभ्यः । २-१-९९ । इ. सू. ककुभान् इत्यत्र न मतोर्मस्य वः ककुद् अस्ति अस्य इति ककुभान् ।) वृषभस्तस्य पुष्ट्यर्थम् ॥ ५९ ॥ या वारिधारा जलदेन मुक्ताः - सान्द्राः शिरस्यस्य बहिर्विहारे । असस्मरंस्ता हरिहर कुंभ - नीराभिषेकं शिशुतानुभूतम् ॥ ६० ॥ ( व्या० ) या इति । जलदेन जलानि ददातीति तेन मेघेन अस्य भगवतः शिरसि शीर्षे या वारीघाराः वारीणां जलानां धाराः सान्द्रा अतिनिबिडा: वहिविहारे मुक्ता ता वारिधाराः शिशुतानुभूतं शिशोर्भावः शिशुता बाल्यं तथा जन्माभिषेकावसरे अनुभूतस्तं हरिहस्त कुंभनीराभिषेकं हरेरिन्द्रस्य हस्तः करः तस्मिन् कुंभः कलशतस्य नीरं तेनाभिषेकस्तं इन्द्रसत्ककर कलश जलाभिषेकं असस्मरन् ( स्मृदृत्वरप्रथश्रदस्त स्पशेरः । ४-१-६५ । इ. सू. यन्तस्मारिधातोः पूर्वस्य अकारस्य अकारादेशः न इकारादेशः । ) स्मारयन्ति स्म ॥ ६० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६(२२१ असौ वहिहिकुलेन क्लस, मृदङ्गवद्गर्जति वारिवाहे । निभालयन्नाटयमदान्मुदा तां, दृशं धनाढयैरपि दुर्लभा या ॥६१॥ (या०) असाविति । असौ भगवान् बहिर्मुदङ्गवत् ( स्यादेरिये । ७१-५२ । इ. सू तुल्येऽर्थे मृदङ्गशब्दात् वत् प्रत्यय ।) मृदङ्गन तुल्यं मृदगवत् पारिवाहे (कर्मणोऽण् । ५-१-७२ । इ सू. वारिपूर्वकवहधातो. अण् प्रत्ययः । ङस्युक्त कृता । ३-१-४९ । इ सू. तत्पुरुष समासः । ) मेधे गर्जति सति यत् बर्हिकुलेन बर्हाणि पिच्छानि सन्ति इति बर्हिणो मयूरास्तेषां फुलं तेन मयूरसमूहेन क्ल्स रचितं नाटयं मुदा हर्षेण निमालयन् तादृशमदात् । या हा धनाढयैरपि धनेनाढयास्तै श्रीमद्भिरपि दुर्लभा ( दुःस्वीषतः कृष्छाकृतप्र्थात् खल् । ५-३-१३९ । इ. सू. दुःखपूर्वक लभधातोः खलु दु खेन लभ्यते इति दुर्लभा ।) स्यात् ॥ ६१ ।। लोकोपकाराय स लोकनाथः, कृत्वा क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम् । तदा तदभ्यासवशाद्विधत्ते-ऽद्यापि क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम् ।। ६२ ॥ (व्या०) लोक इति । स लोकनाथ लोकानां जनानां नाथ स्वामी तदा तस्मिन्नवसरे लोकोपकाराय लोकानां मनुष्याणामुपकारस्तस्मै क्षमाभृद्भवसिन्धुरोध क्षमा वसुधां बिभ्रतोति क्षमामृत' पर्वता तेभ्यो भवा उत्पन्ना. -या सन्धिवो नधस्तासां रोधो बन्धस्तं पर्वतोत्पन्ननदीबन्ध कृत्वा तदभ्यासवशात् तस्य अभ्यास स्तस्यवशस्तस्मात् अद्यापि क्षमा मुद्भवसिन्धुरीधं क्षमा बिभ्रतीति क्षमामृत. साध. वस्तेषां भव एव सिन्धु संसारसमुद्र तस्य रोधोबन्धस्तं विधत्ते करोति ॥६२॥ प्रसादयन्त्याम्बु पयोजपुञ्ज, प्रबोधयन्त्याविधुमिद्धयन्त्या । अस्याभिषेकाचनवक्त्रदास्या-ऽधिकारतोऽसौ शरदोपतस्थे ॥ ६३ ॥ (व्या०) प्रसाद इति । असौ भगवान् । शरदा उपतस्थे आश्रितः | किं कुर्व या शरदा । अम्बु जलं प्रसादयन्त्या प्रसादयतीति तया पयोजपुञ्ज पयसि जले जातानि पयोजानि कमलानि तेषां पुञ्जः समूहरतं प्रबोधयात्या Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् सर्गः ६ ॥ प्रबोधयतीति तथा कमलसमूहं विकासयन्त्या विधुं चन्द्रं इद्रयन्त्या समृद्धं कुर्वत्या । कस्मात् अस्यभगवतः अभिषेकार्चनवत्रदास्याधिकारत अभिपेकश्च स्नानं अर्चनं च पूजनं वक्रस्य मुखस्य दास्यं च तेषु अम्बुप्रमुखाणामधिकारात् ॥ ६३॥ पङ्केर्धनोपाधिभिराकुले प्राक्, लोके तिरोभावमुपागतो यः । अहो स हंसः सहसा प्रकाशी- बभूव भास्वन्महसा विपङ्के ॥ ६४ ॥ ( व्या० ) पङ्केरिति । यो हंसः प्राक् पूर्वं लोके तिरोभावं अदृश्यत्वमुपागत' । किंलक्षणे लोके घनोपाधिभि घनाः मेघा उपाधयो येषां ने तैः मेघहेतुकैर्बहुकारणैर्वा पचैः कर्दमै पापैर्वा आकुले अहो इति आश्चर्ये स हंसः पक्षे आत्मा वा भास्वन्महसा भास्वतः सूर्यस्य महस्तेजस्तेन सूर्यतेजसा दीप्तज्ञानेन वा विपडूके विगतः पङ्को यस्मात् तस्मिन् सति प्रकाशीत्रभूव ( कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्वेच्चि । ७-२-१२६ । इ. सू प्रकाश शब्दात् त्रिः । ईश्र्वाववर्णस्थानव्ययस्य । ४-३ - १११ । इ सू. ईकार । न प्रकाशः अप्र काशः अप्रकाश· प्रकाश बभूव इति प्रकाशीबभूव । ) ॥ ६४ ॥ करैः श्रमच्छेदकरैः शरीर-सेवां मणीकुट्टिमशायिनोऽस्य । विधुर्विविके विदधत्प्रसाद - पूर्वापूर्वी श्रियमाप युक्तम् ॥ ६५ ॥ • ( व्या० ) करैरिति । विधुश्चन्द्रः अस्य भगवतो मणिकुट्टिमशायिनः (अजातेः शीले । ५-१-१५० । इ. सू शीलेऽर्थे शोधातो णिन् प्रत्ययः । ) मणिकुहिमे शेते इति तस्य मणिखचित भूमिगायिनः सत विविक्ते विजने श्रमच्छेदकरैः हितुतच्छोलानुकूलेऽशब्दश्लोक कलह गाथावैरचाटुसूत्रमन्त्रपदात् । ५-१-१०३। इ. सू. कृग्धातो. टप्रत्ययः । ) श्रमस्यच्छेदं कुर्वन्तीत्येवशीलास्तै करैः किरणैहस्तैर्वा शरीरसेवां शरीरस्य देहस्य सेवा तां विदधत् विदधातीति सन् प्रसादपूर्वा प्रसादः पूर्वो यस्या: सा तामपूर्वा न पूर्वा अपूर्वा तां श्रियं युक्तमाप प्राप ॥ श्रीचन्द्रे वसतीति प्रसिद्धि ॥ ६५ ॥ मनाग् मुखश्रीः परमेश्वरस्य, जिहीर्षिता यैः शरदा मदाढ्यैः । विधाय मन्तोः फलमन्तमेषु, पद्मेषु भेजे प्रशलर्तुरेनम् ॥ ६६ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२२३ ( व्या० ) मनागिति । शरदा मदाढ्यैः मदेन आढ्यानि तैः मदपरवशवद्भिर्यैः पद्मे परमेश्वरस्य श्री ऋषभप्रभो मनाक् स्तोकतरां मुखश्री मुखस्य श्री शोभा जिहीर्षिता हर्तु वाञ्छिता । एषु पद्मेषु अन्तं विनाशं मन्तोरपराधस्य फलं विधाय कृत्वा प्रशलतु हेमन्तर्तुः एनं भगवन्तं भेजे । शरदि पद्मानि सश्रीकानि हेमन्ते च दान्ते इति भाव ॥ ६६ ॥ भृशं महेलायुगलेन खेला - रसं रहस्तस्य विलोकमाना । 1 पौपी पुपोषालसतां गतौ यां, निशा न माद्यापि निवर्ततेऽस्याः ६७ ( व्या० ) मृशमिति । पौषी ( तस्येदम् । ६-३ - १६० । इ. सू. इदमर्थे भर्तुसन्ध्यादेरण् । ६-३-८९ । इ. सू. अण् अणन्तत्वात् डी: 1) निशा पौषमाससंबंधिनी रात्रिर्गतौ गमने यामलस्तां अलसस्य भावस्तामालस्यं पुपोष । सा अलसता अस्या निशायाः अद्यापि न निवर्तते । किं कुर्वाणा भृशं अत्यर्थ तस्य भगवतो महेलायुगलेन महेलयो युगलं तेन रह एकान्ते खेलारसं खेलाया - रसस्तं क्रीडारसं विलोक्रमाना विलोकते इति विलोकमाना ॥ ६७ ॥ नक्तं जगत्कम्पयतो हसन्ती, या शीतदैत्यस्य बलं विभेद | नेतुः पुरःस्थोचितमासचक्रा, सा कृष्णवर्त्माश्रयतां बिभर्तु ॥ ६८ ॥ (०या० ) नक्तमिति । या हसन्ती सघडीका नक्तं रात्रौ जगत् भुवनं `कम्पयतः कम्पयतीति कम्पयन् तस्य शीतदैत्यस्य शीतमेवदैत्यस्तस्य बल सामर्थ्यं विभेद भिनत्तिस्म । सा हसन्तो आप्तचका आप्तं चक्रं यया सा सती नेतु स्वामिनः पुरःस्था पुरः तिष्ठतीति उचितं युक्तं कृष्णवर्त्माश्रयतां कृष्णवर्मा अग्निस्तस्य आश्रयतां पक्षे बिभर्तु कृष्णश्चक्रधरो दैत्यभेत्ता च भवति कृष्णो बलानुजस्तस्य चर्म मार्गस्तस्याश्रयतां बिभर्तु ॥ ६८ ॥ अथ प्रभाद्दासकरीं विमोच्य, दुर्दक्षिणाशां शिशिरर्तुरंशुम् । अचीकरद्दीप्तिकरं प्रणन्तु - मिवोत्तरासङ्गमसङ्गमेनम् ॥ ६९ ॥ ( व्या० ) अथेति । अथ अनन्तरं शिशिरर्तुः असङ्ग न विद्यते सङ्गो यस्य तं एनं भगवन्तं प्रणन्तुमिव प्रभा ह्रासकरी (हेतुतच्छीलानुकूलेऽशब्दश्लोक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ कलहगाथावैरेचाटुसूत्रमन्त्रपदात् ।५-१-१०३ । इ. सू. कृग्धातोः टः टिल्वात् डी ) प्रभाया कान्तेर्ह्रासोनाशस्तं करोतीत्येवंशीला तां तेजोनाशकरों दुर्दक्षिणाशां दुष्टाचासौ दक्षिणाशा च तां विमोच्य मोचयित्वा अंशु सूर्य उत्तरासङ्गं उत्तरस्यादिश' सङ्गस्तं अचीकरत् कारयतिस्म । किंलक्षणमंशुं दीप्तिकरं (हेतुतच्छीलानुकूलेऽशब्दश्लोककलह-त् । ५--१-१०३ । इ. सू. कृग्धातोः टः ।) दीप्तिं करोतीत्येवंशीलस्तं दीप्तकरमिति पाठे दीप्तौ दीप्ता वा करौ हस्तौ कराः किरणा वा यस्य तम् ॥ ६९ ॥ प्रभौ प्रसुप्ते निशि शीतवश्यं, यदम्बु कम्बुच्छवि बन्धमाप | जाग्रतादिष्ट इवाहि तेन, भानुः स्वभावं स्वकरैर्निनाय ॥ ७० ॥ ( व्या० ) प्रभाविति || कम्बुच्छवि कम्बुचत् च्छविः कान्तिर्यस्य तत् शंखसदृशं निर्मलं यद् अम्बु जलं निशि रात्रौ प्रभौ ) यद्भावो भावलक्षणम् । २-२-१०६ । इ. सू. - प्रभौ इत्यत्र भावलक्षणा सप्तमी । ) श्री ऋषभस्वामिनि प्रसुप्ते सति शीतवस्थं शीतस्य वश्यं सत् बन्धमाप भानु' सूर्यस्तज्जलं अह्नि दिवसे स्वस्थ करास्तैः किरणैर्हस्ते व स्वभावं स्वस्य भावस्तं स्वप्रकृतिं निनाय नीतवान् । उत्प्रेक्षते - तेन भगवता जाग्रता सता जागतति जाग्रत् तेन आदिष्ट इव ॥ ७० ॥ शीतेन सीदत्कुसुमासु युष्मा स्वर्चास्य देवस्य मदेकनिष्ठा । इति स्फुटत्पुष्परदा तदानीं, शेषा लताः कुन्दलता जहास ॥ ७१ ॥ ( व्या० ) शीतेनेति । कुन्दलता कुन्दनाम्नोलता वल्ली तदानीं तस्मिन् शिशिरत शेषा लता इति अमुना प्रकारेण जहास किंलक्षणा स्फुटत्पुष्परदा स्फुटन्ति च तानि पुष्पाणि च तानि पुष्पाण्येव रदा दन्ता यस्याः सा । इतीति किं युष्मासु गीतेन सीदत्कुसुमासु सीदन्ति कुसुमानि यासान्तास्तासु अस्य देवस्य अर्चा पूजा मदे - ( त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् । २-१-११ । इ. सू. अस्मदः मोदेश' | ) कनिष्ठा मयिएव एका निष्ठा यस्या' सा मदेक निष्ठा वर्तते ॥ ७१ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२२५ तत्ताहगाहारविहारवासो - निवासनिर्नाशितशीतभीतिः । शरीरसौख्येन स शैशिरीणां, निशां न सेहे विपुलत्ववादम् ।। ७२ ।। ( व्या० ) तदिति । स भगवान् शैशिरीणां (तस्येदम् । ६-३-१६० । इ. सू. इदमर्थे भर्तुसंध्यादेरण् । ६-३-८९ । इ सू शिशिरशब्दात् अण् टीव्वात् डी: 1) शिशिरस्य इमाः शैशिर्यस्तासां शिशरसंबंधिनीनां निशां रात्रीणां शरीरसौख्येन शरीरस्य सौख्यं ( भेषजादिभ्यष्टय । ७-२-१६४ । इ. सू. सुखशब्दात् स्वार्थेय्यण् सुखमेव सौख्यम् । ) तेन विपुलत्ववादं विपुलस्य भावभावस्तस्य वादस्तं विस्तीर्णभावं न सेहे । किंलक्षणो भगवान् तत्ताहगाहारवासो निवासनिर्नाशितशीतमिति आहाराश्च भोजनानि विहाराश्च विचरणानि वासांसि च वस्त्राणि निवासाश्च गृहाणि तादृशश्च ते आहारविहारवासीनिवासाश्च । ते च ते ताध्गाहारविहारवासोनिवासाश्च तैर्निर्नाशिता शीतात् भीतिर्येन सः । उक्तं च 'तप्तं जलं तापनतैलनूप्लोताम्बूलतूलीवसनं तरुण्य । तमोप्रतापः कथितं पयोऽपि शरीरिणां शीतभये सुखाय ॥ ७२ ॥ इति ऋतूचितखेलनकैर्न कै - हृतहृदश्वरतोऽस्य यथारुचि । सुकृत सूरसमुत्थधृतिप्रभा - परिचिता अरुचन्नखिला दिनाः ॥ ७३ ॥ ( व्या० ) इतीति । अस्य भगवतो यथारुचि (योग्यता वीप्सार्थानतिवृत्ति सादृश्ये । ३-१-४० । इ. सू. अर्थानतिवृत्तौ यथारुचि । इत्यत्र अव्ययी - भावसमास ) रुचिमनतिक्रम्य इतियथारुचि स्वेच्छया चरत सत' अखिला समस्ता दिना अरुचन् - अदीप्यन्त । किंविशिष्टा दिना सुकृतसुरसमुत्थधृतिप्रभापरिचिता सुकृतं पुण्यमेव सूर सूर्य तत समुत्था धृतिः समाधि एव प्रभा कांतिस्तया परिचिता सेविता । किंविशिष्टस्य भगवत इति ऋतूचितखेलनके' ऋतूनामुचितानि यानि खेलनकानि क्रीडनकानि तै कैर्न हृतहृद हृतं हृदयं यस्य तस्य । इति पूर्वोक्तप्रकारैः षऋतुयोग्य क्रीडनैः । वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडश्रान्ते ॥ १ ॥ इत्यादिभिश्च कै कैर्न तहृदः अपि तु सर्वैर्हृतहृद ॥ ७३ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ कौमारकेलिकलनाभिरमुष्य पूर्व - लक्षाः षडेकलवतां नयतः सुखाभिः । आद्या प्रिया गरभमेणदृशामभीष्टं, भर्तुः प्रसादमविनश्वरमाससाद ७४ ( ०या० ) कौमार इति । षट्त्रिंशत् निमेषैरेकोलव उच्यते सुखाभिः सुखं कुर्वतीभिः कौमारकेलिकलनाभिः कौमारस्य बाल्यस्य केलयः क्रीडास्तासां कलनाः ताभिः बाल्योचितक्रीडाकरणै षट् पूर्वलक्षा. एकलवतां एकश्वासौ लवश्च तस्य भावः एकलवता तां नयतः नयतीति नयन् तस्य अमुष्य भगवत आद्या (दिगादिदेहांशाद्यः । ६-३-११४ । इ. सू. भवेऽर्थे आदि शब्दात् य आदौ भवा आद्या ।) प्रिया सुमंगला पत्नी गरभं ( कुशगृशलिकलिक डिगर्दिगसिर मिर्वाड હૃહૃદં वल्लेरभः । ३२९ । इ. उ. सू. गृत् निगरणे धातोः अभः प्रत्ययः ) गर्भमाससाद प्राप । किं विशिष्टं गरमं एणदृशां स्त्रीणां अभीष्टं पुनर्भर्तु स्वामिनः प्रसादं प्रसादरूपं अविनश्वर ( सृजीणून राष्ट्रवरप् । ५-२-७७ । इ. सू. शीलादिसदर्थे न धातोः कित् ट्वरप् प्रत्ययः । ) विनश्यतीति विनश्वरः न विनश्वरोऽविनश्वरस्तम् ॥ ७४ ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनी सानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसंभवमहाकाव्ये ऽभवत् षष्ठकः ॥ ६ ॥ इतिश्रीमदच्छीयञ्चलगच्छेकवि चक्रवर्त्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य सच्छिष्य श्रीधर्म शेखर महोपाध्यायविरचिताया टीकायां श्री माणिक्य सुन्दरशोधिताया षष्ठसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ६ ॥ SAI Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंहतम् ॥ सर्गः ६ (२२७ ॥ अथ सप्तमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ अथ प्रथमनाथस्य, प्रिया तस्य सुमङ्गाला । अध्युवास निजं वास-भवनं यामिनीमुखे ॥ १॥ (०या०) अथेति । अथ अनन्तरं तस्य प्रथमनाथस्य (पूर्वापरप्रथमचरमजयन्यसमानमध्यमध्यमवीरम् । ३-१-१०३ । इ. सू. कर्मधारयसमासः ) प्रथमश्चासौनाथश्च तस्य श्रीयुगादिदेवस्य प्रिया सुमङ्गला यामिनीमुखे यामिन्या रजन्या मुख तस्मिन् सायंकाले निजमात्मीयं वासभवनं वासस्य निवासस्य भवन तत् आवासं अभ्युवास उषिता ॥ १ ॥ यत्र ज्वलत्प्रदीपानां, प्रभाप्रारभारभापितम् । धृत्वा धूमशिखेत्याख्यां-तरं दूरेऽगमत्तमः ॥२॥ (व्या०) यत्रेति । यत्र वासभवने ज्वल प्रदीपभाप्राग्भारभापितं ज्वलन्तश्च ते प्रदीपाश्च जाज्वल्यमानप्रदीपास्तेषां प्रभाः कान्तयस्तसां प्रामार: समूहस्तेन भापितं त्रासितं तमोऽन्धकार धूमशिखा धूमस्य शिखा इति आल्यान्तरं अन्या आख्या इति आल्यान्तरं ( मयूरव्यंसकत्यादयः । ३-१-११६ । इ. सू. समासः ) अपरं नाम धृत्वा दूरे अगमत् दूरंगतम् ।। २ ॥ यत्र नीलामलोल्लोचा-मुक्ता मुक्ताफलस्रजः। बभुनेभस्तलाधार-तारकालक्षकक्षया ॥३॥ (व्या०) यत्रेति । यत्रावासे मुक्ताफलस्वज. मुक्ताफलानां सज: नमस्तलाधारतारकालक्षकक्षया नमस आकाशस्य तलं तदेवाधारो यासां ताः ताश्चताः तारकाश्च तासां लक्षाणि तेषां कक्षया सादृश्येन बभु शोभिताः । किलक्षणा मुक्ताफलसजः नीलामलोल्लोचामुक्ताः नीलेषु कृष्णवणेषु अमलेषु निर्मलेषु डल्लो. चेषु-आमुक्ता बद्राः ॥ ३ ॥ सौवर्ण्यः पुत्रिका यत्र, रत्नस्तम्भेषु रेजिरे । अध्येतुमागता लीलां, देव्या देवाङ्गाना इव ॥ ४ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम्-टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः ६. (व्या०) सौवर्ण्य इति । यत्रावासे रत्नस्तम्भेषु रत्नानां स्तम्भास्तेषु सौवर्यः सुवर्णमय्यः पुत्रिकाः रेजिरे शोभिता । उत्प्रेक्षते । देव्याः सुमङ्गलाया लीलां अध्येतुं पठितुं आगता देवाङ्गना इव देवानाममराणामङ्गना नार्य इव ॥४॥ - दह्यमानाः काकतुंडा, यत्र धूमैत्रिसृत्वरैः। . खपति- वर्णगन्धाभ्यां, निन्युर्वन्तराण्यपि ॥५॥.. .. (व्या०) दह्यमाना इति । यत्रावासे काकतुंडा. कृष्णागरयो दह्यमानाः दह्यन्ते इति दह्यमानाः सन्तः विसृत्वरै. ( सजीणनशष्ट्वरप् । ५-२-७७ । इ. सू. शीलादिसदर्थे सधातोः कित् ट्वरप् । ह्रस्वस्य तः पित्कृति । ४-४११३ । इ. सू त् अन्तः । ) विसरन्तीत्येवंशीलाः तैः प्रसरणशीलधूमः दार्वतराण्यपि अन्यानिदारूणि इति दार्वन्तराणि तानि काष्ठान्तराण्यपि वर्णगधाभ्यां वर्णश्च गन्धश्च वर्णगन्धौ ताभ्यां स्वपक्ति स्वस्य पक्ति निन्युर्गहीतवन्तः ॥ ५ ॥ उत्पित्सव इवोत्पक्षा, यत्र कृत्रिमपत्रिणः । आरेभिरे लोभयितुं, बालाभिश्वारुपूणिभिः ॥ ६ ॥ (व्या०) उत्पित्सव इति । यत्रावासे कृत्रिमपत्रिणः क्रिययानिवृत्ताः कृत्रिमाः ( ड्बितस्त्रिमा तत्कृतम् । ५-३-८४ - इ. सू. कृग्वातोः त्रिम प्रत्ययः ) पत्राणि पिच्छानि एषां सन्तीति पत्रिणः कृत्रिमाश्च ते पत्रिणश्च कृत्रिमपत्रिणः वालाभिर्बालिकाभिः चारपूणिभिः चारवश्चताश्चूणयश्च चारुणयस्ताभिः मनोज्ञभक्षैः लोभयितुमारेभिरे । उत्प्रेक्षते । उत्पक्षाः उत् ऊर्ध्व पक्षाणि येषां ते उपक्षाः ऊतिपक्षाः सन्तः उत्पित्सव उत्पतितुमिच्छन्तीति उत्पित्सन्ति उत्पित्सन्तीति उत्पित्सवः (रभलभशकपतपदामिः । ४-१-२१ । इ. सू. सादौ सनि पत् धातो. स्वरस्य इ. नच द्विः । सन् भिक्षासेरुः । ५-२-३३ ।। इ. सू. सन्नन्त पित्सधातो. उः । ) उत्पतितुकामा इव ॥ ६ ॥ यन्मणिक्षोणिसंक्रान्त-मिन्दुं कन्दुकशङ्कया। आदित्सवो भन्मनखा, न बालाः कमजीहसन् ॥७॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२२९ (व्या०) यदिति । यत्रावासे बाला• कं जनं न अजीहसन् न हासयन्ति स्म । किंलक्षणा बाला. यामणिक्षोणिसंक्रान्तं मणीनां रत्नानां क्षोणि पृथिवी मणिक्षोणि यस्यावासस्य मणिक्षोणिस्तस्यां संक्रान्तः प्रतिबिम्बितस्तमिन्दु चन्द्र कन्दुकशङ्कया कन्दुकस्य शङ्का तया आदित्सव आदातुमिच्छन्तीति आदित्सन्ति आदित्सन्तीति आदित्सवो ग्रहीतुमिच्छव । पुन भग्ननखा. भन्ना नखा येषां ते भन्ननखा ॥ ७ ॥ व्यालम्बिमालमास्तीर्ण-कुसुमालि समन्ततः । यददृश्यत पुष्पास्त्र-शस्त्रागारधिया जनैः ॥ ८ ॥ (व्या०) व्यालम्बीति । जनैलॊकैर्यद् आवासगृहं पुष्पास्त्रशस्त्रागारधिया पुष्पाणि एव अस्त्राणि यस्य स पुष्पास्त्र काम तस्य कामस्य शस्त्राणामायुधानाभगारं गृहं तस्य धी बुद्धिस्तथा कामदेवस्य आयुधशालाबुद्धया अदृश्यत व्यलोकि । किंलक्षणं गृहं व्यालम्बिमालं व्यालम्बिन्यो माला यस्मिन् तत् लम्बमानस्रक । पुन समन्ततः सर्वत. आत्तीर्णकुसुमालि कुसुमानामालय पडूक्तयः आस्तीर्णा कुसुमालयो यस्मिन् प्रसारितपुष्पश्रेणि ॥ ८ ॥ कौतुकी स्त्रीजनो यत्र, पुरा फाटिकभित्तिषु । स्पष्टमाचष्ट पृष्ठस्थ-चेष्टितान्यनुविम्वनैः ॥९॥ (व्या०) कौतुको । यत्रावासे कौतुको कौतुकमस्ति अस्येति कौतुकी स्त्रीजन स्त्रीणांजन स्त्रीजन पुर• अग्रे स्फाटिभित्तिषु स्फटिकानां विकारा स्फाटिक्य (विकारे । ६ । २ । ३० । इ. सू विकारे अर्थ प्राग् जितादण् । ६ । १ । १३ । इ. सू स्फटिकशब्दादण अणयेकण्ननटिताम् । २।४ २० । इ मू स्त्रिया डी । पुम्वत् कर्मधारये । ३ । २ । ५७ । इ सू. पुंवत् ।) स्फाटिक्यश्चता भित्तयश्च तासु स्फटिकमणिसत्कभित्तिमध्ये अनुबिम्वनैः प्रतिबिम्बन पृटस्थचेष्टितानि पृष्ठस्थाना पश्चात् स्थितानां चेष्टितानि स्पष्टं आचष्ट कथितवान् ॥ ९ ॥ लतागुल्मोत्थितो यत्रा-हरजालाध्वनागतः । मुक्ताधिया मरुच्चौरः, स्वेदविन्दून् मृगीदृशाम् ॥१०॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०) श्रोजेनकुमारसम्भपाख्यं महाकाव्यम् टोकासमलकृतम् ॥ सर्गः ६ (व्या०) लतेति यत्रावासे लतागुल्मोत्थित लताना बल्लीनां गुल्मानि तेभ्यः उत्थित वल्लीसत्कगुल्मसमुत्पन्नो मरुचौर. मरुत् एव चौर पवनरूपचौर मृगीशां मृगीणांगिवदृक् यासा तासां स्त्रीणां स्वेदबिन्दन स्वेदस्य बिन्दव स्वेदविन्दवस्तान् मुक्ताधिया मुक्ताना धीस्तया अहरत् हृतवान् । किंलक्षणो मरुचौर जालावना जालस्य गवाक्षस्य अव्वा मार्गस्तेन आगतः प्रविष्ट ॥१०॥ वीक्ष्य यत्परितोऽध्यक्ष, वनं सर्वतुकं जनः । श्रद्धेयमागमोक्त्यैवाभिननन्द न नन्दनम् ॥ ११ ॥ (व्या०) वीक्ष्येति । जनो लोको यत्परितो यस्यावास प्य परित समन्ततः सर्वर्तुक सर्वे तवो यस्मिन् तत् सर्वर्तुपु साधारण अध्यक्ष प्रत्यक्षं वनं वोध्य दृष्ट्वा नन्दनं वनं नन्दनाख्यं वनं न अभिननन्द न प्रगशंस । किंलक्षणं नन्दनं वन आगमोक्यैव आगमाना गास्त्राणामुक्तिर्वचनं तयैव श्रद्धेयं (यएचातः । ५ । १ । २८ । इ सू. अत्पूर्वक धाधातो. य च धातोराकारस्य एवम् । ) श्रद्धालु योग्यं न तु प्रत्यक्षम् ॥ ११ ॥ श्वेतोत्तरच्छदं तत्र, दोलातल्पमुपेयुषी। हंसी गगातरङ्गात्त-रङ्गामभिषभूव सा ॥१२॥ (व्या०) श्वेतइति । सा सुमङ्गला तत्र तस्मिन्नावासे श्वेतोत्तरदपटं श्वेत. उत्तरप्छदस्य (पुन्नाम्नि घः । ५। ३ । १३० । इ. सू संजायां करणे घ. उत्तरं छाधते अनेनेति उत्तरच्छद ।) पटो यस्मिन् तत् श्वेतउत्तरपटयुक्तं ढोलातल्पं उपयुषी पेयाय इति उपयुपी ढोलायमानशय्या प्राप्नवती सती हंसोमभि बभूव पराभवति स्म । किंलक्षणां हंसी गगातरजात्तरङ्गां गङ्गाया तरङ्गा कल्लोलास्तेषु आत्त गृहीतो र आनन्दो यया सा ता गङ्गानढोकल्लोलहीतानन्दाम् ॥१२॥ दक्षिणं तमुरीचक्रे, विवाहे भगवानिति । वामा वाममुपष्टभ्य, पाणिं तस्मिन्नशेत सा ।। १३ ।। (या०) दक्षिणमिति । सा वामा सुमङ्गला तस्मिन् शयनीये इति कारणात् वाम पाणिं हस्तमुपष्टभ्य अशेत स्वपिति स्म । इतीति किं विवाहे भगवान् तं दक्षिणागि हस्तामुरी चक्रे अङ्गीकृतवान् ॥ १३ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग ६ (२३१ पूर्वमप्सरसामङ्के, स्थित्वा तत्पादपङ्कजे । पश्चादवापत दिव्य - तूलीमौलिवतंसताम् ॥ १४ ॥ ( व्या० ) पूर्वमिति । पूर्व प्रथममप्सरसामङ्के देवाङ्गनानामुत्सङ्गे स्थित्वा पश्चात तत् पादपङ्कजे तस्या सुमङ्गलाया पादौ एव पङ्कजे चरणकमलौ दिव्यतूलीमौलिवतंसतां दिव्या चासौ तूली च दिव्यतूली हंसतूली तस्या मौलिवतंसतां मुकुटत्वमवापत प्राप्ते ॥ १४ ॥ दीपाः सस्नेहपटवोऽभितस्तां परिवत्रिरे । ध्वान्वारातिभयं भेत्तुं जाग्रतो यामिका इव ॥ १५ ॥ ( व्या० ) दीपा इति । दीपा अभित समन्तत तां सुमङ्गलां परिवत्रिरे परिवृण्वन्ति स्म । किंलक्षणा दीपा सस्नेहपटव स्नेहेन सह वर्तन्ते इति सस्नेहा ते चते पटवश्च स्नेहसहिता पटवश्व पटिष्ठाः । उत्प्रेक्षते ध्वान्तारातिं ध्वान्तं तम एव अराति शत्रुस्तं भेत्तुं अन्धकारशत्रुभयं छेत्तु जाग्रतो यामिकाः हरिका इव ॥ १५ ॥ विसृज्य सा परप्रेमालापपात्रीकृताः सखीः । निद्रां सुखार्थामेकान्त - सखीं संगन्तुमैहत ॥ १६ ॥ ( व्या० ) विसृज्येति । सा सुमङ्गला परप्रेमालापपात्रीकृताः प्रेम्णा स्नेहेन आलाप परश्वासौ प्रेमालापश्च प्रकृष्टस्नेहवार्ता तस्य न पात्राणि अपात्राणि अपात्राणि पात्राणि कृता एवंविधाः सखी विसृज्य विहाय निद्रां संगन्तु निद्रासङ्गममैहत इच्छति स्म । किंलक्षणां निद्रां सुखार्थी सुखमेव अर्थ · प्रयोजनं यस्या सातां सुखकारिण पुन एकान्तसखों एकान्तसखी ताम् ॥ १६ ॥ तस्याः सुषुप्सया जोष - जुषोऽजायत शर्मणे । मोहो निद्रानिमित्तः स्याद्दोषोऽप्यवसरे गुणः ॥ १७ ॥ ( व्या० ) तस्या इति । तस्या' सुमङ्गलाया. निद्रानिमित्त निद्रा निमित्तं कारणं यस्य स मोह' शर्मणे सौख्याय अजायत जातः । किंलक्षणायाः सुमङ्गलायाः सुषुप्सया स्वतुमिच्छा तया सुखायनवाञ्छया जोपजुप जोषं मौनं जुपते सेवते इति तस्या मौनसेविन्या दोपोऽपि अवसरे समये गुण स्यात् ॥ १७ ॥ 1 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ स्रोतांसि निभृतीय, तृपस्येव नियोगिनः।। निशि निर्वत्रिरे तस्याः, स्वस्वव्यापारसंवृतेः ॥१८॥ (व्या०) स्रोतांसीति । तस्या सुमङ्गलाया. स्रोतांसि इन्द्रियाणि स्वस्वव्यापारसंकृते. स्वस्य स्वस्य व्यापारा तेषां संवृतिस्तस्याः निभृतीभूय (कृभ्वस्तिभ्यां फक्तभ्यां प्रागतत्तत्वे च्विः । ७ । २ । १२६ । इ. सू भूधातुयोगे निभृतशब्दात् वि ईशवायवर्णस्याऽनव्ययस्य । ४ । ३ । १११ । इ. सू. निभृतशब्दस्य अस्य ई । गतिकन्यस्तत्पुरुष । ३ । १ । ४२ । इ. सू. तत्पुरुषः समासः । अनञः क्त्वो यप् । ३ । २ । १५४ । इ. सू. क्त्वो यबादेशः ।) न निभृतं अनिमृतं अनिभृतं निभृतं भूत्वा इति निमृतीभूय निश्चलीभूय निविरे निति प्रापुः । के इव नृपस्य राज्ञो नियोगिनो व्यापारिण इव यथा नृपस्य राज्ञो नियोगिन' स्वस्वव्यापारसवृतेनिति समाधि प्राप्नुवन्ति ॥ १८ ॥ तदा निद्रामुद्रितहम् , भवने सा बनेऽब्जिनी । निद्राणकमला सख्यो-चितमाचेतुर्मिथः ॥ १९ ॥ (०या०) तदेति । तदा तस्मिन्नवसरे सा सुमङ्गला भवने गृहे निदामुद्रितहम् निद्रया मुद्रिता संकुचिता हर दृष्टि यस्याः सा सती वने अजिनी निद्राणकमला निद्राणानि संकुचितानि कमलानि यस्याः सा द्वे अपि मिथः परस्पर सख्योचितं सख्यस्थ मैत्र्या उचित योग्यं सदृशं आचे(तुः ॥ १९ ॥ आसतामपरेमौनं, मेजुराभरणान्यपि । असंचरतया तस्या, निद्राभङ्गभयादिव ॥ २० ॥ (व्या०) आसतामिति । अपरे आसतां दूरे सन्तु तस्या सुमङ्गलाया। आभरणान्यपि भूषणा-यपि असंचरतया संचरस्य भाव संचरता न संचरता असंचरता तया नि संचरत्वेन मौनं भेजु । उत्प्रेजते तस्या सुमङ्गलाया निद्राया. भारतस्मात् भयं तस्मादिव ॥ २० ॥ निद्रानिभृतकाया सा, नायासानाकियोषिताम् । लोचनलेघसर्वाङ्ग-लावण्या समजायत ॥ २१ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२३३ (व्या०) निद्रेति । सा सुमङ्गला निद्रानिभृतकाया निद्रया निभृतः कायो देहो यस्था. सा निद्रानिश्चलशीग सती नाकियोषितां नाकिनां देवानां योपितो नार्यस्तासां देवानानां लोचननत्र यासात् सुकरत्वेन लेह्यसर्वाङ्ग लावण्या सर्व च तत् अङ्ग च सर्वाङ्गं साङ्गस्य लावण्यं लेटु योग्यं लेह्य (वर्णव्यञ्जनाद् धम् । ५ । १ । १७ । इ. सू लिहधातोय॑ण ) मास्वाधं सर्वाङ्गलावण्यं (वर्णदृढादिभ्यष्टयण च वा । ७ । १ । ५९ । इ सू भावेऽर्थे लवणशब्दात् ट्यण् ।) यस्था सा समजायत जाता ॥ २१ ॥ निर्वातस्तिमितं पद्म-मिवामुष्या मुख सुखम् । न्यपीयताप्सरोनेत्र-भृङ्गलावण्यसन्मधु ॥ २२ ॥ (व्या०) निर्वात इति । अमुष्याः सुमङ्गलाया लावण्यसन्मधु लावण्यमेव सत् विद्यमानं मधु मकरन्दो यस्मिन् तत् एवंविधं मुख वदनं सुखं यथा भवति तथा अप्सरोनेत्रभृङ्गै अप्सरसानेत्राणि भृङ्गास्तै देवाङ्गनासन्कलोचनभ्रमरैन्यपीयत पीतम् । उत्प्रक्षते निर्वातस्तिमितं निर्यात पातरहितदेशे स्तिमितं निश्चलं पद्ममिवकमलमिव ॥ २२ ॥ आप्तनिद्रासुखा सौख्य-दायीति स्वप्नदर्शनम् । अन्वभूत् पुण्यभूमी सो-त्सवान्तरभिवोत्सवे ॥ २३ ॥ (व्या०) आप्तेति । सा सुमङ्गला आतनिद्रामुखा आप्त प्राप्त निद्राया। सुख यया सा सती सौख्यदायि (सुखमेव सौख्यं भेषजादिभ्यष्टयण् । ७।२। १६४ । इ. सू स्पार्थेवा ट्यण् । अजाते शोले । ५ । १ । १५४ । इ. सू. शीलेऽर्थे दाधातो. णिन् ।) सौख्यं ददातीति तत् इति अमुना प्रकारेण वक्ष्यमाणं स्वमदर्शनं स्वप्नस्य दर्शनं तत् अन्वभूत् अनुभवति स्म । किलक्षणा सुमङ्गला पुण्यभूमी पुण्यस्थान किमिव उत्सवान्तरमिव अन्य उत्सव इति उत्सवान्तर यथा उत्सवे अन्यउत्सव अनुभूयते ॥ २३ ॥ प्रथमं सा लसद्दन्त-दंडमच्छुडमुन्नतम् । भूरिभाराद्भुवो भङ्ग--भीत्येव मृदुचारिणम् ।। २४ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ गण्डशैलपरिस्पर्धि-कुंभं कर्पूरपाण्डुग्म् । द्विरदं मदसौरभ्य-लुभ्यद्रमरमैक्षत ।। २५ ।। युग्मम् ।। (व्या०) प्रथममिति ।। सा सुमङ्गला प्रथमं द्विग्दं गजेन्द्रं ऐसत दृष्टवती। किंलक्षणं गजेन्द्र तानि सर्वाणि गजेन्द्रलक्षणानि ज्ञेयानि लसहन्तदंड लसत इति लसन्तौ दन्तौ एवं दण्डौ यस्य स तं उल्लसद-तमुसलं पुनः उच्छुण्ड उर्द्ध शुण्डा यस्य स उच्छुडस्तं उर्वीकृतशुण्डादण्ड पुन उन्नतमुच्चैस्तरम् । उत्प्रेक्षते भूरिभारात् भूरिश्वासौ भारश्च तस्मात् बहुभारात् भुवः भङ्ग भीत्येव भङ्गात् भीति या पृथिवीमङ्गभयेनेव मृदुचारिणं मृदुचरतीति मृदुचारी तं मन्दगमनम् । पुनः गण्डशैलपरिस्पर्धिकुंभ गण्डशैल परिस्पर्धेते कुंभौ यस्य तं पर्वत सत्कस्थूलोपलेनसह स्पर्धाकुर्वत् कुंभस्थलं कर्पूरपाण्डूरं कर्पूरमिव पाण्डरस्तं कर्पूरवद् घवलं मदसौरभ्यलुभ्यभ्रमर मदस्य सौरभ्येण मदपरिमलेन लुभ्यन्तो भ्रमरा यस्य तम् । युमिम् । २४-२५ ॥ भाग्यैः शकुनकामाना-मिवगर्जन्तमूर्जितम् । शुभ्रं पुण्यमिवप्राप्त, चतुश्चरण चारुताम् ।। २६ ॥ सिन्धुरोधक्षम रोधः, स्यन्तं मुल्लवलीलया। सशृङ्गमिवकैलासं, ककुमन्तं ददर्श सा ॥२७॥ युग्मम् ।। (०या०) भाग्यैरिति । सा सुमङ्गला ककुमन्तं (तदस्याऽस्त्यस्मिन्नितिमतुः ७ । २ । १ । इ. सू. ककुद् शब्दात् मतुः । नोर्यादिभ्य । २ । १ । ९९ । इ. सू. ककुद् शब्दस्य अादिगणे पाठात् मतोर्मकारस्य चकाराभाव. 1) ककुद् अस्यास्तीति ककुभान् तं वृषभं ददर्श । किंलक्षणं ककुमन्तं एतानि सर्वाणि ककुमत एव विशेषणानि गर्जन्तं गर्जतीति गर्जन् तं अर्जित बलवन्त उत्प्रेक्षते शकुनकामानां शकुनानि कामयन्ते इति तेषां शकुनाभिलाषिणां भाग्यैरिव चतुश्चरणचारुतां चत्वारश्चते चरणाश्च तैश्चारुता तां चतुर्भिश्चरणैमनोज्ञत्वं प्राप्त शुभ्रमुचलं पुण्यमिव । सिन्धुरोधक्षम सिन्धोः रोधस्तस्मिन् क्षमस्त नधारोधसमर्थ एवंविधं रोधस्तटं मृलवलीलया मृदो मृत्तिकाया लवो लेशतम्य लोला तया Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२३५ मृत्तिकाखंडवत् स्यन्तं पातयन्तं उत्प्रेक्षते सशृङ्गं शुनै सह वर्तते इति तं कैलासमिव कैलासगिरिमिव स्थितम् ॥ २६-२७ ॥ युग्मम् ॥ अप्यतुच्छतया पुच्छा-घातकम्पितभूतलम् । अप्युदारदरीकोड - क्रीडत्क्षेडाभयङ्करम् ॥ २८ ॥ सद्यो भिमकुंभोत्थ- व्यक्तमुक्तोपहारिणम् । हरिणाक्षी हरिं स्वन - दृष्टं सा बह्वमन्यत ॥ २९ ॥ युग्मम् ॥ ( व्या० ) अपीति । सा हरिणाक्षी हरिणस्य मृगस्य अक्षिणी इव अक्षिणी यस्याः सा मृगलोचना सुमङ्गला स्वप्नदृष्टं स्वप्ने दृष्टस्तं हरिं सिंहं बहु अमन्यत बहु मन्यते स्म । किंलक्षणं हरिं एतानि सर्वाणि हरेर्विशेषणानि अतुच्छतया न तुच्छ अतुच्छस्तस्य भावोऽतुच्छतया धनतया पुच्छाघातकम्पितभूतलं पुच्छस्य आघातेन कम्पितं भुवस्तलं येन तमपि पुच्छप्रहारेण कम्पितपृथिवीतलमपि । उद्धारदरीकोडकीडत्क्ष्वेडाभयङ्कर (मेघर्तिभयाभयात् ख' । ५ । १ । १०६ । इ. सू. भयपूर्वक कृग्धातोः ख । खित्य नव्ययारुषोर्मोऽन्तोदस्वश्च । ३-२-१११ । इ. सू. मोऽन्तः । ) अपि उदाराचा सौदरी च विशालगुहा तस्था क्रोडे उत्संगे क्रीडन्ती क्ष्वेडा सिंहनादस्तेन भय करोतीति तमपि । सधस्तत्कालं भिन्नभकुमोत्थव्यक्तमुक्तोपहारिणं भिन्नाश्च ते इभाव विदारितगजाः तेषां कुंभेभ्यो गंडस्थलेभ्य उत्था या व्यक्ताः प्रकटा मुक्ता मौक्तिकानि उपहरति ढौकयतीति भिन्नेभ० रौद्रोऽपिहरिर्मौक्तिकदायकत्वात् बहुमान्यो जात इति भावः ॥ २८ ॥ २९ ॥ युग्मम् ॥ निधीनक्षय्य सारौघ - तुन्दिलान् सन्निधौ दधिः । भूषाम्नः स्ववपुषो, मयूखैरन्तरं प्रती ॥ ३० ॥ पद्माकरमयीं मत्वा, नेत्रवकरांघ्रिणा । पद्मवासानिवासार्थ - मिवोपनमति स्म ताम् ॥ ३१ ॥ युग्मम् ॥ ( व्या० ) निधीनिति । पद्मवासा पद्मेवासो निवासो यस्या' सा पद्मवासा लक्ष्मीस्तां सुमङ्गलां निवासार्थमिव निवासहेतोरिव उपनमति स्म । किंलक्षणा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ मात्र च पर योजाणामि यो मत्वा पद्मवासा अक्षय्यसारौवतुन्टिलान् अक्षय्य. अत्रुटित सारस्य द्रव्यस्य ओघः समूहस्तेन तुन्दिलास्तान् (बाह्यर्थतुन्टादेरिलश्च । ७ । २ । ९ । इ. स. मत्वर्थ तुन्दशदात् इलप्रत्ययः तुन्दमस्ति एपामिति तुन्दिला.) लक्षणया स्थूलान् एवं विधान् निधीन संनिधौ समीपे दधिः (सस्त्रिक्रिदधिजज्ञिनेमिः । ५-२-३९ । इ. सू शीलादिसदर्थे ड्यन्तो दधि निपातः धत्ते इत्येवंशीला दधिः) दधाना दधिरिति निपातो ज्ञेय । पुन स्ववपुषः स्वस्य वपुः तस्य मयूखैः आत्मीयशरीरकिरणैः भूपाहेम्नः भूषायाम तस्य आभरणसत्कसुवर्णस्य अन्तरं नती विनाशयन्ती। किंकृत्वा नेत्रवक्त्रकरांघ्रिणा नेत्रे च वक्त्रं च करी च अंघी च एतेषां समाहारस्तेन प्राणितूर्याजाणामित्येकवचनं लोचनमुखहस्तपदैस्तां सुमङ्गलां पनाकरमयों मत्वा लक्ष्मी प पु वसतीति सुमङ्गलामाश्रयति स्म ॥ ३०-३१ ॥ भृङ्गैः सौरभलोभेना-नुगतं सेवकैरिव । तव्या दो पाशवत् पुण्य-भाजां कण्ठग्रहोचितम् ॥ ३२ ॥ प्रहितं प्राभृतं पारि-जातेनैव जगत्प्रियम् । असमं कौसुमं दाम, जज्ञे तन्नेत्रगोचरः ॥ ३३॥ युग्मम् ।। (व्या०) भृङ्गैरिति ॥ कौसुमं कुसुमानामिदं कौसुमं दाम कुसुमसंबंधि दाम माला तन्नेत्रगोचर' तस्या सुमङ्गलाया नेत्रयोर्गोचर प्रत्यक्ष जज्ञे तया सुमङ्गलया माला दृष्टेति भावः । किंलक्षणं दाम मृड्गैः भ्रमरैः सौरभ्यलोभेन सौरभ्यस्य सुगन्धस्य लोभस्तेन अनुगतं परिमलस्य लोभेन वेष्टितं दान एव सर्वाणि विशेषणानि तयाः स्त्रिया दो.पाशवत् (स्यादेरिव । ७ । १ । ५२ । इ. सू. दो पाशशदात् इवार्थे वत् प्रत्ययः ।) दोष्णोः पाशस्तेन तुल्यं भुजपाशवत् पुण्यभाजां (भजोविण । ५ । १ । १४६ । इ. सू. पुण्यपूर्वक भज्धातो विण प्रत्ययः ।) पुण्यं भजन्तीति तेषां भाग्यवतां कण्डमहोचितं कण्ठस्य ग्रहस्तस्य उचितं कण्४क्षेपणयोग्यम् । उप्रेक्षते पारिजातेन प्रहितं प्रामृतमिव ढौकनामिव जगत्प्रियं जगतः प्रियं विश्वाभीष्टं असमं निरुपमम् ।। ३२-३३ ॥ युग्मम् ॥ चकोराणां सुमनसा-मिव प्रीतिप्रदामृतम् । रोहिण्या इव यामिन्या, हृदयंगमतां गतम् ।। ३४ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाव्यम् टीपासमलंकतम् ॥ सर्गः ६ (२३७ निविष्टकौमुदीसारं, कामुकैरिव कैरवैः । आस्ये विशन्तं पीयूष-मयूखं सा निरैक्षत ॥ ३५ ॥ युग्मम् ।। (व्या०) चकोराणामिति । सा सुमङ्गला आस्थे मुखे विशन्तं प्रविशन्तं पीयूषमयूख पीयूषं मयूखा यस्य तं चन्द्रमसं निरक्षत दृष्टवती । किंलक्षणं चन्द्र एतानि सर्वाणि विशेषणानि चन्द्रस्यैव सुमनसा देवानां इव चकोराणां प्रीतिप्रदामृतं प्रीतिप्रदममृतं यस्य तं रोहिण्या इव रात्रर्यामिन्या हृदयंगमतां गतं हृदय गच्छतीति हृदयंगम भर्ता तस्य भावो हृदयंगमता तां भर्तृत्वं प्राप्तवन्तं कामुकरिव कैरवैः कुमुदै निर्विष्टकौमुदीसारं निविष्ट उपभुक्त कौमुद्या ज्योत्लाया. सारो यस्य तं उपमुक्त योगासारम् ॥ ३४-३५ ॥ युग्मम् ॥ क्षिपन गुहासु शैलानां, लोकादुरसारितं तमः। संकोचं मोचित पद्म-वनाद घुकशा दिशन ॥३६॥ न्यस्यन् प्रकाशमाशासु, तारकेभ्योऽपकर्षितम् । स्वमेऽपि स्मेरयामास, तस्सा हकमलं रविः ॥३७॥ युग्मम् ॥ __ (व्या०) क्षिपन्निति । रवि. सूर्यः तस्या सुमङ्गलाया हुकमलं हृदेवकमलं तत् स्वप्नेऽपि स्मेरयामास विकासयति स्म । किंकुर्वन् रवि. सर्वाणि विशेषणानि वे यानि लोकात् उत्सारित दूरितं तमः अन्धकार शैलानां (ज्योत्स्नादिभ्योऽण ७-२-३४ । इ सू. मत्वर्थे शिलाशब्दात् अण् शिला. सन्ति एषु इति शैलाः) पर्वतानां गुहासु गह्वरेषु क्षिपन् क्षिपतीति पनवनात् पानां वनं तस्मात् मोचितं त्याजितं संकोचं चूकशां घूकानां शतासां दिशन् दिशतीति ददत् तारकेभ्योऽपकर्षितं गृहोतं प्रकाशमाशासु दिक्षु न्यस्यन् स्थापयन् ॥ ३६-३७ ॥ अखंडदंडनद्धोऽपि, न त्यजभिजचापलम् । सहज दुस्त्यज घोष-निव किंकिणिकावणः ॥ ३८ ॥ ध्वजो रजोभयेनेव, व्योमन्येव कृतास्पदः ॥ तत्प्रीतिनर्तकीनाव्या-चार्यकम्बां व्यडंचयत् ॥ ३९ ॥ युग्मम् ।। (व्या०) अखंड इति । ध्वज तत्प्रीतिनर्तकीनाट्याचार्यकम्बा तस्या सुमङ्गलायाः प्रीतिरेवनर्तकी तस्या नाट्याचार्यों रगाचार्यः तस्य कम्बा ता सुम Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८) श्रीजैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ झलायाः प्रीतिरूपनर्तकी तस्या नर्तने रङ्गाचार्यककृतकम्बां व्यडम्बयत् लक्षणया नाट्याचार्यकम्बायाः प्रापेति भाव । किक्कुर्वन् ध्वजः एतानि ध्वजविशेषणानि ज्ञेयानि अखंडदंडनद्रोऽपि अखडासौ दंडच तेन नद्र बनोऽपि सहजे सहजातं स्वाभाविकं दुस्त्यजं दु खेन त्यक्तुमशक्यं निजचापलं निजम्य चापलं तत् न त्यजन् | उत्प्रेक्षते किंकिणिकाकणे किंकिणिकानां क्षुद्रघंटिकाना कणा दास्तैः क्षुद्रघंटिकाशब्दे घोषन् इव घोषतीति घोषन् गदं कुर्वन्निव । उत्प्रेक्षते रजोभयेन रजसोभयं तेन व्योम्नि एव आकाशे एव कृतास्पद इव कृतं आस्पदं येन स कृतस्थान इव ॥ ३८-३९ ॥ युग्मम् ॥ I स्त्रैणेन मौलिना धीये, सोऽहं साक्षी जगज्जनः । त्वं धत्सेतुच्छ मत्सम्प-ल्लुपाको हृदये पुनः ॥ ४० ॥ मुखन्यस्ताम्बुजचं चच्चंचरीकरवच्छलात् । इति प्रीतिकलिं कुर्वन्निव कुंभस्तयैक्ष्यत ॥ ४१ ॥ युग्मम् ॥ ( व्या० ) त्रेणेन इति । तथा सुमङ्गलया कुंभ ऐक्ष्यत दृष्टः । किं कुर्वन् कुंभ. उत्प्रेक्षते मुखन्यस्ताम्बुजच्चं चच्चं चरीकरवच्छलात् मुखे न्यस्तं निहितं यत् अम्बुजं कमलं तस्मिन् चंचन् भ्रमन् य चंचरीको भ्रमर तस्य रवः शब्द तस्य च्छलात् इति प्रीतिकलिं प्रीत्याकलिस्तं कुर्वन् करोतीति कुर्वन् इव । इतीति किं स सर्वप्रसिद्धोऽहं स्त्रैणेन (षष्याः समूहे । ६-२-९ । इ. सू. प्राग्वतः स्त्रीपुंसानञ्स्नञ् । ६ । १ । २५ । इ. सू. स्त्रीशब्दात् नञ् प्रत्यय 1 ) स्त्रीणां समूहः स्त्रैणं तेन खीसमूहेन मौलिना मस्तकेन आघ्रीये धोये अत्र विषये जगज्जनः जगतोजन' साक्षी (साक्षाद् द्रष्टा । ७ । १ । १९७ । इ. सू. साक्षात् इति अव्ययात् द्रष्टा इत्यर्थे इन् प्रत्यय' । प्रायोऽव्ययस्य । ७ । ४ । ६५ । इ. सू. अन्त्यस्वरादेर्लुक्) वर्तते । त्वं पुन अतुच्छमत्संपल्लुम्पाको अतुच्छा महती या मम सम्पत् समृद्धिस्तस्या लुम्पाको अपहारको हृदये धत्से धरसि ॥ ४०-४१ ॥ अम्लानकमलामोद-मनेककविशब्दितम् । सद्वृत्त पालिनिर्देश- क्षमविष्टरडम्बरम् ॥ ४२ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ (२३९ स्वर्णस्फातिस्फुरदगि-वण्ये विश्वोपकारकृत् । 'इभ्यागारमिवातेने, कासारं तदृगुत्सवम् ॥ ४३ ॥ युग्मम् ॥ ___ (व्या०) अन्लान इति । कासार सरोवर इभ्यागारमिव इभ्यस्य व्यावहारिकस्य अगारं गृहमिव व्यावहारिकहमिव तद्गुत्सवं तस्या सुमङ्गलाया. दृशः उत्सवमातेने विस्तारयति स्म । कासारः पुनपुमेव ज्ञेय. । किलक्षणं कासारं इभ्यागारं च द्वयोरपि विशेषणानि सर्वाणि अालानकमलामोदं न म्लानः (व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः । ४-२-७१ । इ. सू. 'लाधातो परस्य तस्य नः ।) अम्लान. अम्लानः कमलानामामोदः परिमलो यस्मिन् तत् । पक्षे अग्लानः कमलया लम्म्या आमोदो हर्षो यस्मिन् तत् अनेकविशब्दितं अनेककानां वीनां पक्षिणां शब्दितं यस्मिन् तत् पक्षे अनेकानां कवीनां शब्दितं गीतकवित्वादिना कीर्तिविस्तारणं यस्मिन् तत् सती प्रशस्या वृत्ताकारा पालियस्मिन् तत् निशस्य उपभोगस्य क्षमो विष्टराणां वृक्षाणां डंबरो यस्मिन् तत् निवेशक्षमविष्टरडंबरं पंक्षे सवृत्तं येषां ते सहता. साधव सद्वृत्तानां सच्चारित्राणां पालिः श्रेणि तस्याः निवेशक्षमः आसनानां डंबरो यस्मिन् तत् । स्वर्णस्फातिस्फुरद्भविष्य सुष्टु शोभनस्य अर्णस• पानीयस्य स्फात्या स्फुरन्त्यो भंगयस्तरङ्गाः तैर्य पक्षे स्वर्णस्य सुवर्णस्य स्फात्या स्फुरन्त्यो भंगयो विछित्तयस्ताभिवण्य विश्वोपकारकृत् विश्वस्य जगत उपकार करोतीति ॥ ४२-४३ ॥ युग्मम् ॥ 'कचिद्वायुवशोद्धृत-वीचीनीचीकृताचलम् । उद्धृत्तपृष्ठः पाठीनैः, कृतद्वीपमं क्वचित् ॥ ४४ ॥ पीयमानोदकं कापि, सर्परिववारिदैः । रत्नाकरं कुरंगाक्षी, वीक्षमाणा विसिध्मिये ॥ ४५ ॥ युग्मम् ।। (व्या०) कचिदिति । कुरंगाक्षी कुरंगस्य मृगस्य अक्षिणी इव अक्षिणी यस्था सा सुमङ्गला रत्नाकरं समुद्रं वीक्षमाणा वीक्षते इति वीक्षमाणा सती विसिमिये विस्मयं प्राता । किलक्षणं रत्नाकरं सर्वाणि ग्नाकरस्यैव विशेषणानि चाचिद् वायुपशोधूतवीचीनीचीकृताचलम वायोर्वशेन उद्धृता उत्पारिता ये वीचयः कल्लोलास्तैींचीकृताः नीचाः कृता. अचलाः पर्वता येन तं । कचिद् उद्धृत्तपृष्टः Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ उद्वृत्त पृष्ठं यैस्ते तैः उत्पाटितपृष्ठविभाग पाठीनैर्मत्स्यविशेषैः कृतद्वीपभ्रमं कृतो द्वीपस्य भ्रमो यस्मिन् तम् । उत्प्रेक्षते सतृषेः (सहस्तेन । ३ । १ । २४ । इ. सू. बहुव्रीहिसमासः ।) सतृषितैरिव चारि ददतीति वारिदास्तैर्मधै' (आतोडोऽह्वावामः ५ । १ । '७६ | इ. सू. वारिपूर्वकदाधातोः ङः । कचित् पीयते इति पीयमानं पीयमानं उदकं यस्मिन् तम् ॥ ४४-४५ ॥ युग्मम् ॥ सूर्य विवादिवोद्भूतं, जन्मस्थानमिवार्चिषाम् । चरिष्णुमिवरत्नाद्रिं, भारादिव दिवघुतम् ॥ ४६ ॥ दीव्यदेवाङ्गनं रत्न- भित्तिरुग्भिः क्षिपत्तमः । अभूदकर्षं तस्या, विमानं नयनातिथिः ॥ ४७ ॥ युग्मम् ॥ ( व्या० ) सूर्य इति । विमानं तस्या: सुमङ्गलायाः नयनातिथि नयनयो-नैत्रयोरतिथिः अभूत् तया विमानं दृष्टमित्यर्थः । किंलक्षणं विमानं एतानि सर्वाणि विमानस्यैव विशेषणानि ज्ञेयानि उत्प्रेक्षते सूर्यबिम्बात् सूर्यस्य बिम्बं तस्मात् उद्भूतमिव प्रकटीभूतमिव उत्प्रेक्षते अर्चिषां तेजसां जन्मस्थानमिव जन्मनः स्थानमिव उत्प्रेक्षते चरिष्णुं ( भ्राज्यलङ्कृग् निराकृग्भूसहिरुचिवृतिवृधिचरि प्रजन पत्रप इष्णु । ५ । २ । २८ । इ. सू. शीलादिसदर्थे चरघातोः इष्णुः प्रत्यय 1 ) चरतीत्येवंशीलस्तं चलनशीलं रत्नाद्रिमिव रत्ना चलमिव । उत्प्रेक्षते भारात् दिवः स्वर्गात् च्युतमिव भ्रष्टमिव । दीयडेवाङ्गनं दीव्यन्तीति दीव्यन्त्यो देवानामङ्गनाः स्त्रियो यस्मिन् तत् क्रीडदेवस्त्रि रत्नभित्तिरुग्भिः रत्नानां भित्तयस्तासांरुग्भिः किरणैस्तमोंकारं क्षिपतीति क्षिपत् । अभ्रंषं ( कूलाम्रकरीपात् क५ः । ५ । १ । ११० । इ. सू. अभ्रकर्मपूर्वककपेः खः । खित्वान्मोऽन्तः ), अभ्राणि कपतीति अभ्रंमाकाशलग्नम् ॥ ४६-४७ ॥ युग्मम् ॥ राश्मरिष्टवैडूर्य-स्फटिकानां गभस्तिभिः । ल+भयन्तं नभश्चित्र – फलकस्य सनाभिताम् ॥ ४८ ॥ वार्धिना दुहितुर्दत्त-भित्र कंदुक केलये । रत्नराशि दवीयांस-मपुण्यानां ददर्श सा ॥ ४९ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन कुंमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग ६ (२४१ · ( व्या०) रक्तइति । सा सुमङ्गला रत्नराशि रत्नानां राशि समूहस्तं ददर्श । किं कुर्वन्तं रत्नराशिं रक्ताश्मरिष्टवैडूर्यस्फटिकानां रक्ताश्मानश्च पद्मरागमणय. अरिष्टानिच कृष्णरत्नानि वैडूर्याणिच नीलमणय' स्फटिकाच श्वतमणयः तेषां गभस्तय किरणा तै नभः आकाश चित्रफलकस्य चित्रस्य फलकं तम्य सनाभितां साहस्य चित्रपटकस्य सादृश्यं लंभयन्तं लंभयतीति लंभयन् तं प्रापयन्तं पुनः किंलक्षणं रत्नराशि उत्प्रेक्षते वार्धिना समुद्रेण दुहितु पुत्र्या लक्ष्म्या कंदुककेलये कदुकस्य केलिस्तस्यै दत्तमिव अपुण्यानां न विद्यते पुण्यं येषां ते तेषां निर्भाग्यानां दषीयांसं (गुणाद्ङ्गाद्देष्ठेयस् । ७-३-९ । इ. सू. दूरशब्दात् ईयसुप्रत्ययः । स्थूलदूरयुवह स्वक्षिप्रक्षुद्रस्यान्तस्थादेर्गुणश्चनामिनः । ७ । ४ । ४२ । इ. सू. ईयसुप्रत्यये परे दूरशब्दे अकारविशिष्टस्य रकारस्य लुक् च उकारस्य गुण' | ओदौतोडवा । १ । २ । २४ । इ. सू. अवादेश: 1) अतिशयेनदूर इति दवीयान् तमतिदूरम् ॥ ४८-४९ ॥ युग्मम् ॥ आधारघाररोचिष्णुं, जिष्णुं चामीकरत्विषाम् । अजिह्म विलसज्ज्वाला - जिह्वमाहुतिलोलुपम् ।। ५० ।। श्मश्रुणेव तु धूमेन, श्यामं मखभुजां मुखम् | ददर्श श्वसनोद्भूत - रोचिषं सा विरोचनम् ॥ ५१ ॥ युग्मम् || - ( व्या० ) आधार इति । सा सुमङ्गला विरोचनमग्नि ददर्श । किंलक्षणमग्नि एतानि सर्वाणि अग्ने विशेषणानि ज्ञेयानि आधारधाररोचिष्णुं आधारं धृतं तस्य धारेण सेकेन रोचिष्णुं (भ्राज्यलड् कृग् निगेकृग् णु । ५ । २ । २८ इ. सू रुच्चातो शीलेऽर्थे इष्णु 1 ) देदीप्यमानं । चामीकरत्विषां चामीकरस्य सुवर्णस्य त्विष कान्तयस्तासां जिष्णु भूजे ष्णुक् । ५ । २ । ३० । इ. सू शीलादिसदर्थे ष्णुक् प्रत्यय 1 ) जयनशीलम् | अजिह्मविलज्ज्वालाजिह्वं न जिला अजिमा पटिष्टा विलसन्त्य प्रसरन्त्य ज्वाला' एव जिह्वा: यस्य तं आहुतिलोलुप आहुतौ होतव्यद्रव्यग्रहणे लोलुपं लंपटम् । उत्प्रेक्षते श्मश्रुणा इव कूर्चसदृशेन धूमेन श्यामं कृष्णं मखभुजां देवानां मुखं श्वसनोद्भूतरोचिषं श्वस'नात् पवनात् उद्भूता उत्पन्ना रोचि कान्तिर्यस्य तम् ॥ ५०-५१ ॥ युग्मम् ॥ इत्यष्टाविंशतिश्लोकै चतुर्दशस्वप्नदर्शनम् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ प्रविश्य वदनद्वारा, तस्याः स्वमा अमी समे । कूटस्थकौटुंबिकतां, भेजिरे कुक्षिमन्दिरे ॥ ५२ ॥ (व्या०) प्रविश्य इति । अमी गजादयोऽग्निपर्यन्ता समे सर्वे स्वप्नाः (यजिस्वपिक्षियतिप्रच्छो नः । ५ । ३ । ८५ । इ. सू. स्वप्धातो भावे नः ।) तस्याः सुमङ्गलाया. कुक्षिमन्दिरे कुक्षिरेव मन्दिर तस्मिन् उदररूप हे पदनद्वारा मुखबारेण प्रविश्य कूटस्थकौटुंबिकता कूटस्थश्चासौ कौटुंबिकश्च तस्य भावः स्थिरगृहपतित्वं भेजिरे सेवन्ते स्म । ५२ ।। ततो गुणवजागारं, जजागार सुमङ्गला । साक्षात्तद्वीक्षणात्कर्तु-कामेव नयनोत्सवम् ॥ ५३ ॥ (व्या०) तत इति । तत ततोऽनन्तरं सुमङ्गला जजागार किविशिष्टां सुमङ्गला गुणात्रजागारं गुणाः औदार्यगांभीर्यचातुर्यधैर्यादयस्तेषां व्रज समूह स्तस्यागारं गृहम् । उत्प्रेक्षते साक्षात् प्रत्यक्षं तद्दीक्षणात् तेषां स्वप्नानां वीक्षणात् दर्शनात् नयनोत्सवं नयनयोनॆत्रयोरुत्सवं कर्तुकामा (तुमश्चमन कामे । ३ । २ १४० । इ. सू. कामशब्दे परे तुमो मलोपः कर्तु कामो यस्याः सा कर्तुकामा ।) ३० ॥ ५३ ॥ स्वमार्थास्तानपश्यन्ती, पुरः सा चिखिदे क्षणम् । प्राप्ता मत्कुक्षिमेवामी, इति द्राग मुमुदे पुनः ।। ५४ ॥ (व्या०) स्वप्न इति । सा सुमङ्गला पुरोऽने तान् स्वभार्थान् स्वप्नानामस्तान् स्वप्नपदार्थान् अपश्यन्ती न पश्यतीति अपश्यन्ती सती क्षणं चिखिदे खिद-ए द्विर्धातुः परोक्षाडे प्राक् तुस्वरेस्वरविधे । ४ । १ । १ । इ. सू. द्वित्व खिखिए द्वितीयतुर्ययो पूर्वो । ४ । १ । ४२ । इ. सू. पूर्वखस्य क. कडश्चञ् ४ । १ । ४६ । इ. सू. कस्य चत्वं चिखिदए इत्यत्र इन्ध्यसयोगात् परोक्षाकित् । ४ । ३ । २१ । इ सू. कित्वात् गुणो न भवति ।) खेदं प्राप्तवती । पुनः द्राग् गोत्रं इति कारणात् मुमुदे प्रमोदं धृतवती । इतीतिकिम् अमी स्वप्नार्था मत्कुक्षिमेव ममकुक्षिस्तमेव प्राप्ता. ॥ ५४ ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्थ महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ६ (२४३ निर्नष्टनेत्रनिद्रा सा, स्वप्नान्तरचिन्तयत् । मुनिरप्राप्त पूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश ॥ ५५ ॥ (व्या०) निर्नष्ट इति । सा सुमङ्गला निर्नष्टनेत्रनिद्रा निर्नष्टा प्रनष्टा नेत्रयोनिद्रा यस्याः सा निद्रारहितलोचना सती चतुर्दशस्वप्नात् अन्तर्मध्येऽचिन्तयत् । क इव मुनिरिव यथा मुनिः अप्राप्तपूर्वाणि न प्राप्तपूर्वाणि अप्राप्तपूर्वाणि तानि चतुर्दश पूर्वाणि चिन्तयति स्म इति ॥ ५५ ॥ स्मृतिप्रत्ययमानीते, मत्या स्वप्नकदम्बके । कदम्बकोरकाकार-पुलका साऽभवन्मुदा ॥ ५६ ॥ (व्या०) स्मृति । सा सुमङ्गला मुदा हर्षेण कदम्बकोरकाकारपुलका कदम्बस्य पुप्पं कदम्बं कदम्बपुष्पस्य कोरको मुकुले' तदाकारा पुलकाः यस्याः सा तत्सदृशरोमाञ्च। अभवत् । क सति मत्या बुद्धया स्वप्नकदम्बके स्वप्नानां कदम्बकस्तस्मिन् स्वप्नसमूहे स्मृतिप्रत्ययं स्मृते. प्रत्ययस्तं स्मृतिगोचरमानीते सति प्राप्ते सति ॥ ५६ ॥ नैयग्रोधोंऽकुर इच, प्रवर्धिष्णुः पुटं भुवः । आनन्दो हृदयं तस्याः, सोल्लासं निरवीवृतत् ॥ ५७ ।। (व्या०) नैयग्रोध इति । प्रवर्धिष्णु. (भ्राज्यलकृग् निराकृग् भूसहिरुचिकृतिवृधि-प्णु: । ५-२-२८ । इ. स. शीलादिसदर्थे प्रवृध्धातोः इष्णु:), प्रवर्धते इत्येवं शीलः प्रवर्धिष्णु: प्रवर्धनशीलः आनन्दः तस्याः सुमङ्गलाया हृदयं सोल्लासं उल्लासेन सह वर्तते इति सोल्लासं सविकाश निरवीकृतत् निर्वतयामास निष्पादयामासेत्यर्थ । क इव नैयग्रोध (तस्येदम् । ६ । ३ । १६० । इ, स. इदमर्थे प्राजितादण् । ६-१-१३ । इ. सू. अण् । य्वः पदान्तात् प्रागैदीत् ७-४-५ । इ. स. न्यग्रोध इत्यत्र अणिपरे यकारात्पूर्व ऐकार ।) न्यग्रोधस्य अयं नैयग्रोधः अड्कुर. इव यथा वटसंबंधी अड्कुरो वर्धिष्णुर्भुव. पुटं सोल्लासं निर्वर्तयति ॥ ५७ ॥ यनिभालनभूः प्रीति-मैंने मम तनुं तनुम् । तत्फलावाप्तिजन्मा तु, मातु त्याममशंसा ।। ५८ ।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ६ ( ०गा० ) यदिति । सा सुमङ्गला इति आममश इत्थं विमृशति स्म । इतीतिकिम् । यन्निभालनभू येषां स्वप्नानां निभालनात् दर्शनाद भूः समुत्पन्ना प्रीतिः मम तनुं शरीरं तनुं कृशां मेने । तु पुनः तत्फलावाप्तिजन्मा तेषां स्वप्नानां फलानि तेषा मवाप्ति प्राप्ति तस्या जन्म यस्या सा प्रीतिः कं मातु ॥ ५८ ॥ तया स्वक्षणोनीत - प्रीतिसंतर्पितात्मया । • उन्निद्रा नित्यमस्वप्न-वध्वोऽप्यबहु मेनिरे ॥ ५९ ॥ ( व्या० ) तयेति । तथा सुमङ्गलया अस्वप्नवध्वोऽपि न विद्यते स्वमो निद्रा येषां ते अस्वप्ना देवा स्तेषां वध्योनार्यो देवाङ्गना नित्यं निरन्तरं उन्निद्राः उद्गता निद्रा याभ्यस्ता उन्निद्रा सत्योऽबहुमेनिरे न बहुमन्यन्ते स्म । किं विशिष्टया तया स्वप्नक्षणोन्नीतप्रीतिसंतर्पितात्मया स्वप्नानां क्षण उत्सवः तस्मात उनीता प्राप्ता या प्रीतिस्तया संतर्पित आत्मा यया सा तया ॥ ५९ ॥ चेतस्तुरङ्गं तच्चारु-विचाराध्वनि धावितम् । सा निष्प्रत्यूहमित्यूह - वल्गया विदधे स्थिरम् ॥ ६० ॥ ( व्या० ) चेत इति । सा सुमङ्गला चेतस्तुरङ्ग चेतोहृदयमेव तुरङ्गोऽश्वस्तं इति अनेन प्रकारेण ऊहवल्गया ऊहो विचार एव वल्गा मुखरज्जुस्तया निष्प्रत्यूहं निर्गता: प्रत्यूहा विना यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा स्थिरं निश्चलं विदधे । किंलक्षणं चेतस्तुरङ्गं तच्चारुविचाराध्वनि तेषां स्वप्नानां चार्मनोज्ञो यो विचारः स एव अध्वा मार्गस्तस्मिन् धावितं सत्वरं चलितम् ॥ ६० ॥ नाम्ना न केवलं वामा, वामावुद्धिगुणेष्वपि । ऊहे स्फुरन्ति सद्द्दष्टि-लालसे नालसेक्षणाः ।। ६१ ॥ ( व्या० ) नाम्ना इति । वामा स्त्रिय केवलं नाम्ना न वामा' न प्रतिकूलाः किन्तु बुद्धिगुणेष्वपि बुद्धेर्गुणास्तेष्वपि तु वामा अलसेक्षणा' अलसे ईक्षणे यासां ता लिय. सद्दृष्टिलाल से सती चासौ दृष्टि सद्दृष्टिस्तस्या लालसे प्रशस्यलोचनगोचर ऊहे विचारे न स्फुरन्ति न समर्था भवन्ति ॥ ५२ ॥ कटीरस्तनभारेण, यासां मन्दः पदक्रमः । तासां विचारसामर्थ्य, स्त्रीणां संगच्छते कथम् ॥ ६२ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ (२४५ __ (व्या०) कटीर इति । यासां स्त्रीणां कटीरस्तनभारेण कटीरं च कटीतटं स्तनौ च एतेषा समाहार कटीरस्तनं (प्राणितुर्याङ्गाणाम् । ३-१-१३७ । इ. सू. द्वन्द्वैकवद्भाव 1 ) तस्य भारेण पदक्रम पदानां क्रम• चरणविन्यासो मन्दो वर्तते पदश्चरण पक्षे विभक्त्यन्तपढम् । तासा स्त्रीणां विचारसामर्थ्य विशेषण चारो गमनं तस्य सामर्थ्य पक्षे ऊहशक्ति कथं संगच्छते कथं घटते ॥ ६२ ॥ स्थूलस्तनस्थलं दृष्ट्वा, हृदयं हरिणीदृशाम् । त्रस्यता यानहंसेन, भारती नीयतेऽन्यतः ॥ ६३ ॥ (व्या०) स्थूल इति हरिणीशा ( उष्ट्रमुखादयः । ३-१-२३ । इ. सू. समासः ।) हरिण्या दृगिव हक यासां ता. हरिणीदृशस्तासां स्त्रीणां स्थूलस्तनस्थलं स्थूलौ चतौ स्तनौ च स्थूलस्तनौ तयोः स्थलं तत् हृदयं दृष्ट्वा त्रस्यता त्रस्यतीति त्रस्यन् तेन त्रासं प्राप्नुवता यानहंसेन वाहनराजहंसेन भारती सरस्वती अन्यतः अन्यत्र नीयते । कोऽर्थ स्थले राजहंसानां प्रायः स्थिति भवतीति भाव ॥ ६३ ॥ हारेऽनुस्तनवल्मीकं. महाभोगिनि वीक्षिते । आसीदति कुलायेच्छुः, स्त्रीणां धीविष्करी कथम् ॥ ६४ ॥ (व्या०) हार इति । धीनिष्करी (वौ विकिरो वा । ४-४-९६ । इ सू. विपूर्वककिरते स्सट् । ) धीरेव विष्करी बुद्धिरूपपक्षिणी स्त्रीणा स्त-वल्मीक स्तनावेव वल्मीकरतं अनु पश्चात् स्तनरूपकोटरं पश्चात् महाभोगिनि महान् आभोगो विस्तार , अस्ति यस्य महाभोगी तस्मिन् महासप्पै वा एवंविधे हारे वीक्षिते सति कथं आसोदति आसन्ना भवति अपि तु नैव । किं लक्षणा धीविकरी कुलायेच्छुः कुलायं (कुलिलुलिकलिकषिभ्य काय । ३७२ । इ उ. सू कुलिधातो काय. कोलन्ति अत्र इति कुलायः ।) नीडं पक्षे कुलायवंशाय निरु पद्रवतामिछु (विन्दिछु। ५-२-३४ । इ. सु. निपात ) ॥ ६४ ॥ मन्ये मोहमयः सर्गः, स्त्रीषु धात्रा समर्थितः । यान्ति यत्तदभिष्वङ्गा-मूढतां ताविका अपि ॥ ६५ ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ ( ०या० ) मन्ये इति । अहमेवं मन्ये धात्रा ब्रह्मणा स्त्रीषु मोहमयः सर्गः सृष्टि समर्थितः कृतः । यत् यस्मात् कारणात् तदभिष्वङ्गात् तासां स्त्रीणामभिवङ्गात् आसक्तितः तात्त्विका अपि विद्वांसोऽपि मूढतां मूढस्य भावो मूढता तामविवेकितां यान्ति प्राप्नुवन्ति ॥ ६५ ॥ जातौ नः किल मुख्याश्रीः, सापि गोपालवल्लभा । जातं जलात्कलाधार - द्विष्टं शिश्राय पुष्करम् ॥ ६६ ॥ 1 ( व्या० ) जातौ इति । नोऽस्माकं जातो या श्रीलक्ष्मी मुख्या (शाखा - देर्यः । ७-१-११४ । इ. सू. तुल्येऽर्थेमुखशब्दात् य. । ) वर्तते । सापि श्री गोर्गोपाल वल्लभा गाः पालयतीति गोपाल ( कर्मणोऽण् । ५- १-७२ ॥ इ. सू. गोशब्दपूर्वक पालघातोरणू | डस्युक्तं कृता । ३-१-४९ । इ. सू. नित्यतत्पुरुषः ।) पशुपाल कृष्णो वा तस्य वल्लभा पत्नी | जलात्पानीयात् जडान्मूर्खात् वा जातं कलाघारद्विष्टं घरतीति घर कलानां धरश्चन्द्रो विचक्षणो वा तस्य द्विष्टं पुष्करं कमल शिश्राय आश्रितवती ॥ ६६ ॥ 9 बभार भारती ख्यातिं स्त्रीजातौ विदुषीति या । स्वभावभङ्गे न श्रेय इति साऽभूदभर्तृका ॥ ६७ ॥ ( व्या० ) बभारेति । या भारती स्त्रीजातौ विदुषी ( वावेत्ते कसु. ५२-२२ । इ. सू. सदर्थे विदधातो. सु । अघातूहदितः । २-४-२ । इ. सू. स्त्रियांडी । कसुप्मतौ च । २ - १ - १०५ । इ. सू. कस उष् । ) वेत्तीति विदुषी इति ख्यातिं प्रसिद्धि बभार धृतवती । स्वभावभङ्गे स्वभावस्य भङ्गस्तस्मिन् स्वीयसहजप्रकृतित्यागे न श्रेय' कल्याणं इति कारणात् सा अभर्तृका नास्ति भर्ता यस्या' सा अभर्तृका भर्तृरहिता बालकुमार्येव अभूत् ॥ ६७ ॥ तज्जगद्गुरुरेवैत-द्विचारं कर्तुमर्हति । जात्यरत्नपरीक्षायां, बालाः किमधिकारिणः ॥ ६८ ।। ( व्या० ) तदिति । तत् तस्मात्कारणात् जगद्गुरु जगतां गुरु श्रीयु गादीश्वर एव एतद्विचारं एतेषां चतुर्दशस्वमानां विचारस्तं कर्तुमर्हति । योग्यः Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી નૈનકુમારમવાથ મદ્દાવાળ્યમ્ હાલમતમ્ . સ ૭(ર૪૭ स्यात् । जात्यरत्नपरीक्षायां जात्यानि च तानि रत्नानि च तेषां परीक्षायां बाला: शिशव किमधिकारिणः अधिकारोऽस्ति एषामित्यधिकारिणः स्युरपि तु नैव भवेयुः ॥ ६८ ॥ अथालसलसबाहु-लता तल्यं मुमोच सा । सौषुप्तिकैरिव प्रीय-माणा कणितभूषणैः ॥ ६९ ॥ (व्या०) अथेति । अथानन्तरं अलसलसबाहुलता अलसेन आलस्येन लसन्ती बाहू एव लतावल्ली यस्याः सा सती सा सुमङ्गला तल्पं शय्यां मुमोच त्यक्तवती । किविशिष्टा सुमङ्गला कणितभूषण क्वणितानि च तानि भूषणानि च ते शब्दितैरभमरण कैरिव सौषुप्तिकैः (सुस्नातादिभ्य पृच्छति । ६-४४२ । इ. सू. पृष्छत्यर्थे सुपुतशब्दात् इकण ) सुषुप्तं सुष्टु सुप्तं पृच्छन्तीति सौषुप्तिकानि तै. प्रीयमाणा प्रीतिं पाप्यमाना ॥ ६९ ॥ अकुर्वती स्वहर्षस्य, सखीरपि विभागिनीः । साऽचलचलनन्यास-हंसन्ती हंसवल्लभाः ॥ ७० ॥ (व्या०) अकुर्वतीति । सा सुमङ्गला अचलत् चलतिस्म । किं कुर्वती सखोरपि स्वहर्षस्य स्वस्य हर्षस्तस्य विभागिनी विभागोऽस्ति आसामिति विभागिन्यस्ताः विभागवती अकुर्वती पुनः चलनन्यासैः चलनयोन्यासास्तश्चरणमोचनः हंसवल्लभाः हंसानां वल्लभास्ता राजहंसी हसतोति हसन्ती ॥ ७० ॥ इच्छन्त्या विजनं याने, तस्या नाभवतां प्रिये । नू पुरे रूपरेखाया, आरावैः स्तावकैः पदोः ॥ ७१ ।। (व्या०) इच्छन्त्या इति । तस्या सुमङ्गलाया नू पुरे प्रिये अभीष्ट नाभपताम् । किं कुर्वत्या याने गमने विजनभेकान्तं इच्छन्त्या इच्छतीति इच्छन्ती तस्या पाच्छन्त्या किंलक्षणे नू पुरे आरावैः (रोरुपसर्गात् । ५-३-२२ । इ. सू. भावेरुधातोर्घञ् । ) गदै तस्याः सुमङ्गलासंबंधिनो पदोश्चरणयो रूपरेखाया रूपस्यरेखा तस्या. स्तावकै (णकचौ । ५-१-४८ । इ. सू. स्तुधातो. कर्तरि णक । नामिनोऽकलिहले । ४-३-५१ । इ. स. वृद्धि । ) सुतिकारकै ॥ ७१ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ अकाले मज्जुसिञ्जाना, मेखला मे खलायितम् । अधुनैव विधात्री कि- मिति सा दध्युपी क्षणम् ॥ ७२ ॥ ( व्या० ) अकाल इति । सा सुमङ्गला क्षणमिति दध्युषो दध्याविति दध्युप ध्यातवती । इतीति किं मे मम मेखला खलायितं दुर्जनवढाचरितं अधुनैव किं विधात्री किं करिष्यति । किं कुर्वाणा मेखला अकाले न कालोडकालस्तस्मिन् अनवसरे मञ्जु मनोज्ञ सिञ्जानां अव्यक्तं शब्दं कुर्वाणा ॥ ७२ ॥ मौनं भेजे करस्पर्श - संकेताद्वलयावलिः । विदुषीव तदाकूतं, तरसा तत्प्रकोष्ठयोः ॥ ७३ ॥ 1 ( व्या० ) मौनमिति । तत्प्रकोष्ठयोः तस्याः सुमङ्गलाया. प्रकोष्ठौ तयोः तत्प्रकोष्ठयोः वलयावलि वलयोनामावलिर्वलयावलि करस्पर्शसंकेतात् करस्थ स्पर्शस्तस्य सकेतात् मौनं भेजे । किं कुर्वती वलयावलिः तरसा वेगेन तदाकूतं तस्या' सुमङ्गलाया आकूतं स्वान्ताभिप्रायं विदुषी इव विज्ञावतीव ॥ ७३ ॥ दुर्निमित्तात् क्व गन्तासी - त्यालापादालिजन्मनः । भीता मन्दपदन्यासं, साऽभ्यासं भर्तुरासदत् ॥ ७४ ॥ (च्या० ) दुर्निमित्तादिति । सा सुमङ्गला मन्दपदन्यास मन्द पदानां न्यासो यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा भर्तु श्रीभदेवस्य अभ्यासं समीपं आसदत् प्राप्ता किंलक्षणा सुमङ्गला आलिजन्मन • आलिभ्य सखीभ्यो जन्म यस्य तस्मात् सखीभ्य. समुत्पन्नात् दुर्निमित्तात् (दुर्निन्दाकृच्छ्रे । ३-१-४३ इ. सू. नित्यतत्पुरुष । दुष्टं निमित्तं दुर्निमित्तं । ) अमङ्गलरूपात् क्व गन्तासि त्वं कुत्र गमिष्यसि इत्यालापात् ईदृग् जल्पनात् भीता भयं प्राप्ता । इतीति किं छीए विच्छभग्गे, कहि भणिएकंटके अभग्गे य || 'दिठे सप्पविडाले, नहि गमणं सुंदरं होइ ॥ १ ॥ इति शकुनशास्त्रे जिनदत्तपादा | इति वचनात् अपशकुनभयेन सखीनामकप्रयित्वैकव एकाकिनी ययाविति भाव ॥ ७४ ॥ रत्नप्रदीपरुचिंसंयमितान्धकारे, मुक्तावचूलकमनीय वितानभाजि । सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं, निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ (२४९ (व्या०) रत्नेति । सा सुमङ्गला तत्र तस्मिन् दिव्यभवने दिव्यं च तत् भवनं च तस्मिन् भुवनाधिनाथं भुवनानामधिनाथ स्वामी तं निद्रानिधनयनद्वयं निद्रया निरुद्ध नयनयोर्नेत्रयोर्द्वयं यस्य तं निद्रयामुद्रितलोचनयुग्मं आलुलोके ददर्श । किंविशिष्टे दिव्यभवने रत्नप्रदीपरुचिसंयमिताधिकारे रत्नानां प्रदीपाः तेषां रुचय कान्तयस्ताभिः संयमितं लक्षणया निराकृतमन्धकारं यस्मिन् तत् तस्मिन् रत्नसत्कप्रदीपानां कान्तिनिरस्ताधिकारे प्रकाशमये इत्यर्थः । पुन मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि मुक्तानामवचूला' डुंबनका. ते कमनीया मनोज्ञा ते च ते वितानाश्च चन्द्रोद्योता. तान् भजतीति भाक् तस्मिन् ॥ ७५ ॥ पल्यङ्के विशदविकीर्णपुष्यतारे, व्योम्नीव प्रथिमगुणैकधाम्नि लीनः। उत्फुल्लेक्षणकुमुदां मुदा जिनेन्दु धक्राणः सपदि कुमुद्धतीमित्रताम् ।। (व्या०) पल्यत इति । जिनेन्दुः जिन एव इन्दुः श्रीप्रभचन्द्र एतां सुमङ्गलां मुदा हर्षेण कुमुदतीमिव कुमुदानि सन्ति अस्या इति कुमुदती तां कुमुदिनीमिव चक्राण. कुरुते इति चाण कृतवान् । किविशिष्टो जिनेन्दुः पत्यके व्योम्नीव नभसीव लीन• सुप्तः । किंलक्षणे पल्यड्के योनि च विशदविकीर्णपुष्पतारे विशदानि निर्मलानि विकीर्णानि विक्षिप्तानि यानि चम्पकशतपत्रादिपुष्पाणि तैस्तारे मनोज्ञे पक्षे विशदविकीर्णपुष्पवत् तारा यस्मिन् तस्मिन् । पुनः प्रथिमगुणकधाम्नि पृथोर्भाव प्रथिमा (पृथ्वादेरस्मिन् वा । ७--१-५८ । इ. सू. पृथुशब्दात् इमन् वा । त्र्यन्तस्वरादे ७-४-४३ । ई. मू अन्त्यस्वरादेलक् । ) विस्तार स एव गुण विस्तारगुणस्तस्य एकधाम्नि एकहे किं लक्षणां सुमङ्गला उत्फुल्लेक्षणकुमुदा उत्फुल्ले विकरपरे च ते ईक्षणे च लोचने एव कुमुदे यस्याः सा ताम् । कोऽर्थ यथा चन्द्र कुमुदिनी स्वदर्शनेन विकाशयति तथा जिनेन्दुरपि सुमङ्गला मोदयामासेति भाव ॥ ७६ ॥ तोयाीया इव परिचयान्मुक्तशोषं स्वतन्वाः, पौष्पं तल्पं प्रति परिमलेनोत्तमर्णीभवन्तम् । दृग्भ्यां ब्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां प्रसुप्तं, दृष्ट्वा नाथं लवणिममुधांभोनिधि पिप्रिये सा ।। ७७ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ ( व्या० ) सा देवी सुमङ्गला हग्भ्यां लोचनाभ्यां नाथं स्वामिनं प्रसुतं दृष्ट्वा पिप्रिये प्रीतिं प्राप । किं कुर्वन्तं नाथं पौपं (तस्येदम् ६-३-१६०। (इ. सू. इदमर्थे प्राजितादण् । ६-१-१३ । इ. मृ. अण् ) पुप्पाणामिदं तत् तल्पं पुष्पशम्यां प्रति परिमलेन उत्तमर्णीमवन्तं परिमलदानं कुर्वन्तं किंविशिष्टं पौप्पं तल्पं जलक्लिनवस्त्रं तोयार्द्रा उच्यते तोयार्द्राया इव तोयार्द्रासच्या या स्वतन्वाः स्वस्य तनुस्तस्याः स्वतन्वा निजशरीरम्य परिचयात् मुक्ताशोषं मुक्त आशोषो येन तत् शोषरहितं किं लक्षणाभ्या दृग्भ्यां व्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां व्रीडायाः लज्जायाः व्यपगमेन अभावेन ऋजु सरलं यथा भवति तथा स्फारिताभ्यां विस्तारिताभ्यां किंविशिष्टं नाथं लवणिमसुधां भोनिधिं लवणिमा ( पृथ्वादेरिमन् वा । ७-१-५८ । इ. सू लवणशब्दात् इन् । त्र्यन्तस्वरादेः । ७-४-४३ । इ. सू. अन्त्यस्वरादेर्लुक् । लावण्यं तदेवसुधा अमृतं तस्याः लावण्यसुधाया अंभोनिधि समुद्रस्तम् ॥ ७७ ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविमिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनी मानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वय निर्मिते, सर्गों जैनकुमारसंभव महाकाव्ये ऽभवत् सप्तमः ॥ ७ ॥ इतिश्रीमदच्छीयञ्चलगच्छे कवि चक्रवर्त्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्य श्रीधर्मशेखर मह महोपाध्यायविरचितायां टीकायां श्री माणिक्य सुन्दरशोधितायां सप्तम सर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ७ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ८ (२५१ ॥ अथ अष्टमः सर्गः प्रारम्यते ॥ अथ प्रसन्नप्रभुवक्त्रवीक्षा-पीयूषपानोत्सवलीनचेताः। विश्रम्य मृद्वी क्षणमविचार-जन्मक्लमच्छेदमसौ विवेद ॥ १ ॥ (व्या०) अथेति । अथानन्तरं मृद्धी (स्वरादुतो गुणादखरोः । २-४३५ । इ. सू. मृदुादात् स्त्रियांडीर्वा ) सुकोमला असो सुमङ्गला क्षणं विश्रम्य अंघ्रिचारजन्मल्लमच्छेदं अंयोश्चार अध्रिचार तस्मात् जन्म यस्य चासौ क्लमश्च तस्यच्छेदतं चरणसंचरणसमुत्पन्नश्रमच्छेदं विवेद प्रा५ । किंलक्षणा सुमङ्गला प्रसन्नप्रभुवक्त्रवीक्षापीयूषपानोत्सवलीनचेता प्रसन्नं च तत् प्रभोर्वक्त्रं च मुख तस्य वोक्षा दर्शनं तदेव पीयूषममृतं तस्य पानं तस्य उत्सवे लीनं घेतो यस्याः सा ॥ १ ॥ ये श्वासवाता वदनादमान्त-इवोद्भवन्ति स रयेण तस्याः । । ते स्वास्थ्यमापत्सत वहिदिश्य-वायोविरामे जलधेरिवापः ॥२॥ (व्या०) ये इति । तस्याः सुमङ्गलाया वदनात् मुखात् ये श्वासवाता. श्वासस्य वाता. श्वासवायवो रयेण वेगेन अमान्त इव उद्भवन्ति स्म रयेण उद्यता. । ते श्वासपाताः स्वास्थ्यं स्वस्यस्य भाव स्वास्थ्यं निश्चलतामापत्सत आगता । के इव जलधेः जलानि धीयन्ते अस्मिन् इति जलधि. तस्य समुद्रस्य आपो जलानीव । यथा आपो जलानि वह्निदिश्य (दिगादिदेहाशाच ६-३-१२४ । इ. सू दिश् शब्दात् भवेऽर्थे यः । ) वायो पहेर्दिशिभवो यो वायुस्तस्य आग्नेयकोणपवनस्य विरामे अभावे स्वास्थ्यमापद्यन्ते ॥ २ ॥ या कृत्रिमा मौक्तिकमण्डनश्री-रदीयत स्वेदलवै तदङ्गे। तत्र स्थितौ सा सहसा विलीना, किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे ॥३॥ . (व्या०) येति । तदङ्गे तस्या सुमङ्गलाया अङ्गं तस्मिन्, शरीरे स्वेदजले स्वेदस्य जलानि तै. प्रस्वेदबिन्दुभि. या कृत्रिमा (ड्वितस्त्रिमा तत्कृतम् । ५-३-८४ । इ सू. कृग्धातो त्रिम । ) क्रियया निवृत्ता मोक्तिकश्री:मौः Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ७ क्तिकानां श्रीः मुक्तामयी अलंकरणलक्ष्मीग्दोयत दत्ता । तत्र स्थितौ श्रीयुगादोशदृष्टौ सा मौक्तिकमंडनश्री सहसा विलोना विल्यं गता । नेतु ( णकतृचौ । ५ - १-४८ । इ. सू. नीवातो कर्तरितृच् प्रत्ययः । नामिनोगुणोऽकिति । ४- ३-१ । इ. सू. नीधातोर्गुण । ) स्वामिनोऽग्रे किं कृत्रिमं खेलति अपि तु नैव ॥ 919 11 3 11 श्लथं विहारेण यदन्तरीय- दुक्कूलमासीत् पथि विप्रकीर्णम् । सांयात्रिकेणेव धनं नियम्य, नीवीं तया तद् दृढयांबभूव ॥ ४ ॥ ( व्या० ) थमिति । यदन्तरीयदुकूलं यस्या सुमङ्गलाया. अन्तरीयं परिधानवस्त्रं तदेव दुकूलं पडलं पथिमार्गे विहारेण चलनेन श्लथं शिथिलं विप्रकोण विसंस्थुलमासीत् । तद्दुकूलं तया सुमङ्गलया नीव मेखलां नियम्यबध्ध्वा दृढयांबभूवे दृढीचके ये श्वासवाता इत्यादिकं सुमङ्गलायाः स्तोकचलेऽप्युक्तम् । तत अतिशयालङ्कारे कवीनां धर्मादुक्तम् । यथा वाग्भटालङ्कारे त्वहारितारितरुणीश्वसितानलेनेत्यादि । केनेव सांयात्रिकेणेव (प्रयोजनम् । ६-४११७ । इ. सू. संयात्राशब्दान् प्रयोजनेऽर्थे इकण् प्रत्यय' । ) संभूय यात्रा प्रयोजनमस्येति सांयात्रिकस्तेन प्रावहणिकेनेव यथा सांयांत्रिकेण नीविं मूलद्रव्य नियम्य पथि विप्रकीर्ण धनं दृढीक्रियते ॥ ४ ॥ भर्तुः प्रमीला सुखमङ्गभीति - स्तामेकतो लम्भयतिस्म धैर्यम् । 'स्वार्थ शुश्रूषणकौतुकं चान्यतस्त्वरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम् ॥ ५ ॥ ( व्या० ) भर्तुरिति । भर्तु श्रोऋषभदेवस्य प्रमीलासुखमङ्गमीति प्रमीलाया निद्रायाः सुखं तस्य भङ्गो नाशस्तस्माद् भीतिर्भयं एकत (आयादिभ्यः । ७-२-८४ । इ. सू. एकशब्दात् तसु एकस्मिन् इति एकत 1) स्तां सुमझलां धैर्यं धीरस्य भावस्तत् लम्भयति स्म प्रापयति स्म । च अन्यत' (आद्यादिभ्य ७-२-८४ । इ. सू. अन्यशब्दात् तसु अन्यस्मिन् इति अन्यत 1) स्वप्नासुश्रूषणकौतुकं स्वप्नानामर्थास्तेषां शुश्रूषणं श्रोतुमिच्छा तस्य कौतुकं त्वरामौत्सुक्यं प्रापयति स्म स्त्रीषु स्थिरत्वं स्थैर्य कुत स्यात् ॥ ५ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनकुमारसम्भवाल्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (२५३, क्षोभो भवन् मा म मुषुप्तितृप्ते, नाथेऽत्र तारस्वरया ममोक्त्या।। मेधाविनी तजय जीव नन्दे-त्युदीरयामास मृदुं गिरं सा ॥६॥ (व्या) भोभ इति । मेधाविनी (अस्तपोमायामेधास्त्रजोविन् । ७-२४७ । इ. स. मत्वर्थे मेधाशब्दात् चिन् । स्त्रियां नृतोऽस्वस्त्रादेडी । २-४१ । इ. सू स्त्रियां डी. 1) मेधा बुद्धिरस्ति अस्या इति मेधाविनी बुद्धिमती सा सुमङ्गला तत् तस्मात् कारणात् त्व जय त्वं जीव आयुष्मान् भव नन्द इति मृदुं सुकोमलां गिरं वाणीमुदीरयामास जगाद । कस्मात् हेतोः सुषुप्तितृप्ते सुषुप्त्या तृप्ते अत्र अस्मिन् नाथे. स्वामिनि तारस्वरया तारो दीर्घ स्वरो, यस्या सा तया, मम उक्त्या क्षोभो मा स्म भवन् (सस्मे बस्तनी च । ५-४-४० ।, इ. सू: स्मयुक्तमाडिउपपदे ह्यस्तनी । अधातोरादिस्तिन्यां चमाडा । ४-४२९ । इ. सू. अडभावः ।) मा भवतु इति कारणात् ॥ ६ ॥ चित्रं वधूवक्त्रविधूत्थवला-वाकौमुदीभिः सरसी रराज । श्रीसङ्गमैकप्रतिभूप्रबोध-लीलोल्लसल्लोचननीरजन्मा ॥७॥ (च्या०) चित्रमिति । स भगवान् सरसी रसाड्य पक्षे सरसी,महासरः चित्रमाश्चर्य रराज । काभि वधूवक्त्रविधूत्थवल्गुवाकौमुदीभि वध्वा. सुमङ्गलाया वक्त्रं मुखमेव विधुश्चन्द्र तस्मादुत्था वल्गवो या कौमुद्यो ज्योत्स्नास्ताभि । किं.) विशिष्टो भगवान् श्रोसङ्गमैकप्रतिभूप्रबोधलोलोल्लसल्लोचननीरजन्मा श्रीलक्ष्मीस्तायाः सङ्गमे एकश्चासौप्रतिभूश्च प्रतिभूसमानप्रबोधस्तस्य लीलया उल्लसन्ती लोचने एव नीरजन्मनी कमले यस्य स ॥ ७॥ निविष्टवानिष्टकृपः स पूर्व-कायेन शय्यां सहसा विहाय । . क्षणं धृतोष्मामिदमङ्गसङ्ग-भङ्गानुतापादिव देवदेवः ॥ ८॥ (व्या०) निविष्ट इति । इष्टकृप. इष्टा कृपा करुणा यस्य स इष्टकृ५ अभीष्टकरुण स देवदेवो देवानां देव भगवान् पूर्वकायेन (पूर्वीपराधरोत्तरमभिन्ननाशिना । ३-१-५२ । इ. सू. तत्पुरुषसमास ।) पूर्वं कायस्य शरीरस्य पूर्वकायस्तेन अप्रशरीरेण शय्यां सहसा औत्सुक्येन विहाय मुक्या निविष्टवान् Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨) શ્રીનનમાલમવાલ્યું મજ્ઞાાવ્યમ્ દીાલમહંતમ્ ॥ ધર્મઃ ૮ n उपविष्टः । किंलक्षणां शय्यां इदमङ्गसङ्गभङ्गानुतापादिव अस्य भगवतः अङ्ग शरीरं तस्य सङ्गः तस्य भङ्ग तस्यानुतापस्तस्मात् पश्चात्तापात् क्षणं धृतोष्माभिव घृतं उष्मं यया सा तां घृतसंतापामिवेत्यर्थ ॥ ८ ॥ पुरः स्थितामप्युषितां हृदन्त - र्निशिप्रबुद्धामपि पद्मिनींताम् । अप्यात्तमौनां स्फुरदोष्ठद्दष्ट - जिजल्पिषामैक्षत लोकनाथः ॥ ९ ॥ ( व्या० ) पुर इति । लोकनाथः लोकानां नाथः श्रीयुगादीशः तां सुमझलामैक्षत दृष्टवान् । किंविशिष्टां तां पुरोऽग्रे स्थितामपि हृदन्तः हृदयस्य अन्तमध्ये उषितां हृदयमध्ये कृतावासां निशि रात्रौ प्रबुद्ध जागरितामपि पद्मिन कमलिन पक्षे पद्मिनीं स्त्री आत्तमौनामपि आतं गृहीतं मौनं यया सा तामपि स्फुरदोष्टदृष्टजिजल्पिषां स्फुरन्तौ च तो ओष्ठौ च ताभ्यां दृष्टा जल्पितुमिच्छा जिजल्पिषा (शंसि प्रत्ययात् । ५-३ - १०५ । इ. सू. सन्नन्तजिजल्पिष्धातोः स्त्रियां अप्रत्यय 1) नल्पनेच्छा यस्या सा ताम् ॥ ९ ॥ सुमङ्गलां मङ्गलकोटिहेतु - नैतुर्निदेश स्त्रिदशेश मान्यः । निवेशयामास निवेशयोग्ये, भद्रासने भद्रमुखीमदूरे ॥ १० ॥ ( व्या० ) सुमङ्गलामिति । नेतु' श्री ऋषभदेवस्य निदेशआदेश: भद्रमुखीं (नखमुखादनानि । २-४-४० । इ. सू. भद्रमुखशब्दात् स्त्रियां डी: 1) भद्रं कल्याणकृन्मुखं यस्या' सा तां सुमङ्गलां अदूरे प्रत्यासने निवेशयोग्ये निवेशस्य योग्यं तस्मिन् उपवेशना भद्रासने निवेशयामास उपवेशयति स्म । किंविशिष्टो निदेश' मङ्गलकोटिहेतु' दधिदूर्वाक्षतचन्दनादिमङ्गलानि तेषां कोटिस्तस्याः हेतु कारणं पुनः त्रिदशेशमान्यः त्रिदशानां देवानामीशा. स्वामिनस्त्रिदशेशा. सौधमदयश्चतुष्षष्टिदेवेन्द्रास्तेषां मान्य ॥ १० ॥ दिगङ्गनाङ्गेषु सिताङ्गराग-भङ्गीं भजद्भिर्दशनांशुजालैः । ज्यौत्स्नी यशोजापयता जिनेन तयारजन्या जगदेऽथ जाया ||११|| ( व्या० ) दिगिति । अथानन्तरं जिनेन श्री 15 मेण जाया सुमङ्गला जगढे । किंकुर्वता जिनेन दशनांशुजालै दगनानां दन्तानां अंगव किरणास्तेपां Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजन मारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (२५५ जालानि समूहास्त. दन्तकिरणसमूहै. तया रजन्या ज्योत्स्नी (ज्योत्स्नादिभ्योऽण् । ७-२-३४ । इ. सू. मत्वर्थ ज्योत्स्नाशब्दात् अण् । ज्योत्स्ना अस्ति अस्यामिति अण् । अणयेकण् इ. सू. स्त्रियां डी. 1) पूर्णिमा तस्या यश कीर्ति जापयता जयाय प्रयुञ्जता जिझिं अभिभवे जिधातोर्णिगन्तस्य प्रयोग । किंकुर्वद्भिर्दशनाशुजालैः दिगगनाङ्गेषु दिश एव अङ्गना. स्त्रियस्तासामङ्गेषु शरीरेषु सिताङ्गरागभङ्गी सितश्वासौ अङ्गरागश्च तस्य भङ्गी विच्छित्तिस्तां श्वेतविलेपनरचनां भजाहिः सेवमानै । कोऽर्थः भगवतोदन्तकिरण सा रात्रिज्वला जाता तया च पूर्णिमायशोनिर्जितमिति भावः ॥ ११ ॥ अयानचर्यानुचितक्रमायाः, कञ्चित्तव स्वागतमस्ति देवि । तनूरबाधा तव तन्वि तापो-तीर्णस्य हेम्नो हसितप्रकाशा ॥ १२ ॥ (व्या०) अयानेति । हे देवि कञ्चित् अभीष्टप्रश्ने तव स्वागतं सुष्टु शोभनं आगमनं अस्ति विद्यते । किविशिष्टायास्तव अयानचर्यानुचितक्रमायाः न यानमयानं अयानेन चर्या ( समजनिपन्ननिषद्शीड सुग् विदिचरिमनीणः । ५-३-९९ । इ. सू. चर्धातोः भावे क्यप् । ) गमनं तस्थामनुचितौ अयोन्यौ क्रमौ चरणौ यस्याः सा तस्याः यानरहितचर्यानुचितगमनायोग्यचरणायाः हे . तन्धि कृशामि तव तनू शरीरं अबाधा न विद्यते बाधा पीडा यस्या सा निराबाधा वर्तते । किविशिष्टा तनू • तापोत्तीर्णस्य तापादुत्तीर्णस्य अग्नितापगतमलिनिम्नो हेम्न सुवर्णस्य हसितप्रकाशा हसितः प्रकाशो यया सा जितस्वर्णकातिरित्यथैः ॥ १२ ॥ छायेव पादपृथग्बभूवान् , सुखी सदास्ते स सखीजनस्ते । प्राप्ता सुवर्णे परभागमङ्गे, माणिक्यभूषा किमुतापदोषा ॥ १३ ॥ (व्या०) छायेति । हे देवि ते तव स सखीजन: सखीनां जन सखीवर्गः सदासुखी सुखमस्यास्तीति सुखी कुशली आस्ते । किलक्षण सखीजन' छाया इव पार्थात् समीपात् अपृथग्वभूवान् पृथग्बभूव इति पृथग्बभूवान् न पृथग्बभूवान् अबभूवान् (तत्र कासुकानौ तद्वत् । ५-२-२ । इ सू परोक्ष Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ विषये भूघातो. कसु प्रत्यय 1 ) उत अथवा अड्गे शरीरे माणिक्यभूषा माणिक्यानां भूषा रत्नाभरणानि किं अपदोपा अपगतो दोषो यस्याः सा निर्दोषा वर्तते । किंरूपा माणिक्यभूषा सुवर्णे परभागं पुण्योत्कर्ष प्राप्ता ॥ १३ ॥ 1 महानिशायामपि मुक्त निद्रे, दिदृक्षया मां किमुपस्थितासि । क्षणार्धमुकेsपि चिराय दृष्ट-इव प्रिये धावति येन चेतः ॥ १४ ॥ ( व्या० ) महा इति । महानिशाया (जातीयैकार्थेऽचेः । ३-२-७० । इसू डाप्रत्यय डित्यन्तस्व० २-१-११४ । इ. स. अन्त्यस्वरादेलोंप. ) मपि महती चासौ निशा च महानिशा तस्यां अर्द्धरात्रेऽपि हे मुक्तनिद्रे त्वं मां दिदृक्षया द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा तया विलोकनेच्छया किं उपस्थितासि आगतासि । येन कारणेन क्षणार्द्धमुक्तेऽपि क्षणार्द्ध मुक्तस्तस्मिन् प्रिये चिराय चिरकालं दृष्टे इव चेतो धावति ॥ १४॥ स्वझोपलब्धे मयि भारदूना, रिरंसया वा किमुपागतासि । प्रायोऽबलासु प्रबलत्वमेति, कन्दर्पवीरो विपरीतवृत्तिः ॥ १५ ॥ ( व्या० ) स्वम इति । वा अथवा हे देवि मयि स्वप्नोपलब्धे सति स्वप्ने उपलब्धः स्वमोपलब्घस्तस्मिन् स्वममध्ये दृष्टे सति त्वं भारदूना मारेण कामेन दूना' पीडिता मारदूना कामपीडिता सती रिरंसया रन्तुमिच्छा रिरंसा (शसिप्रत्ययात् । ५ -३ - १०५ । इ स सन्नन्तरिरंसवतो. स्त्रियां भावे अप्रत्ययः । आत् २-४-१८ । इ. स. खियामाप् ।) तया किमुपागतासि आयातासि । प्रायोबाहुल्येन विपरीतवृत्ति विपरीता वृत्तिर्यस्य स कन्दर्पवीर कन्दर्प एव वीरों भट' अबलासु स्त्रीषु प्रचलत्वं प्रबलस्य भाव प्रबलत्वमेति प्राप्नोति ॥ १५ ॥ प्रिये प्रयासं विचिकित्सितं वा, मीमांसितुं किंचिदमुं व्यवास्त्वम् । संदेहशल्यं हि हृदोऽनपोढ-मामृत्यु मर्त्यस्य महार्तिदायि ॥ १६ ॥ ( व्या० ) प्रिये इति । वा अथवा हे प्रिये त्वं किंचित् विचिकित्सितं संदिग्धं विचारं मोमांसितुं विचारयितुं अमुं प्रयासं व्यधा अकार्षी । हि निश्चित हृदो हृदयात् संदेहशल्यं संदेह एव शल्यं अनपोढं न अपोढं अनाकृष्टं 1 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजनमारसम्भवाल्यं महाव्यम् सिमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (२५७ सत् मर्त्यस्य मनुष्यस्य आमृत्यु (पर्यपाड् बहिरच् पञ्चम्पा । ३-१-३२ । इ. सू. अव्ययीभाव समासः । ) मृत्यो आ मृत्युं यावत् महार्तिदायि महती चासौ आर्तिश्च पोडा तां ददातोति महार्तिदायि महादु खदायि भवति ॥ १६ ॥ चेद्वस्तु संत्रस्तमृगाक्षि मृग्यं, तवास्ति किंचिद्वद तद्विशंकम् । आनाकमानागगृहं दुरापं, प्रायो न मे नम्रसुरासुरस्य ॥ १७ ॥ (व्या०) चेदिति । संत्रस्तश्चासौ मृगश्च संत्रस्तमृगः तस्य अक्षिणी इस अक्षिणी यस्याः सा तस्या संबोधनं हे संत्रस्तस्तमृगाक्षि चेद् यदि मृत्यं मार्ग णीयं वस्तु किंचित् तवास्ति तद् तर्हि विशवं, विगता शङ्का यस्मिन् कर्मणि यथा भवति नि शडकं वद ब्रूहि । प्रायो बाहुल्येन नम्रसुरासुरस्य सुराश्च असुरोश्च नम्राः सुरासुराः यस्य स तस्य मे आनाकं (पर्यपाड्बाहिरच पञ्चम्या । ३-१-३२ । इ. सू. अव्ययीभावसमासः ।) नाकात् आ आस्वर्ग यावत् आनागहं नागानां गृहं नागगृहं नागगृहात् आ आनागगृहं आपातालं यावत् न दुरापं दु खेन आप्यते इति दुरापं (दु स्वोषतः कृच्छाकृच्छ्रार्थात् खल् । ५-३-१३९ । इ. मू कृष्छार्थद परात् आफ्धातोः खल ।) दुष्प्रापं नास्ति ॥ १७ ॥ विश्वप्रभोर्वाचममूं सखंड-पीयूषपांङ्क्तेयरसां निषीय । - प्राप्ता प्रमोदं वचनानपारं, प्रारब्ध वक्तुं वनितेश्वरी सा ॥ १८ ॥ ___ (व्या०) विश्व इति । सा वनितेश्वरी वनितानामीश्वरी (अश्नोतेरीचादे । ४४२ । इ उ सू. अशोटधातो वरट् प्रत्यय आदेरीश्च । टित्त्वात् डी ।) सा सुमङ्गला वक्तु जल्पितुं प्राय प्रारभते स्म । किविशिष्ट वनितेश्वरी वचनाध्वपार वचनानामध्वा तस्य पारं वाग्गोचरातीतं प्रमोदं प्राप्ता । कि कृत्वा विश्वप्रभो विश्वस्य प्रभु स्वामो तस्य श्रीषभदेवस्य अमं वाच निपीय पीत्वा । किंविशिष्टां वाचं सखडपीयूषपक्तियरसां खडे न सह वर्तते इति सखंड सखडं च तत् पीयूषं च खडसहितमभिनवपय तस्य पंको भव पांक्तेयो ( भवे । ६-३-१२३ । इ सू भवेऽर्थे पंक्तिशब्दात् एयण् । ) रसो यस्यां सा ताम् Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः८ पातुत्रिलोकं विदुपस्त्रिकालं, त्रिज्ञानतेजो दधतः सहोत्थम् । स्वामिन्नतेऽवैमि किमप्यलक्ष्य, प्रश्नस्त्वयं स्नेहलतैकहेतुः ॥ १९ ॥ (व्या०) पात्विति । हे स्वामिन् अहं ते तव किमपि अलक्ष्यं न लक्ष्य अलभ्यं तत् अज्ञेयं नावैमि न जानामि। त्रीण्यपि विशेषणानि भगवतो ज्ञेयानि । किंविशिष्टस्य तव त्रिलोकं त्रिभुवन पातुः पातोति पाता तम्य रक्षतः । त्रिकालविदुषः त्रयाणां कालानां समाहारस्तत् वेत्तीति तस्य अतीतानागतवर्तमानकालान् ज्ञातवतः सहोत्थं सहोत्पन्नं त्रिज्ञानतेजः त्रयाणां ज्ञानानां समाहारस्तस्य मतिश्रुतावधिज्ञानस्य तेज. तत् दधत दधातीति दधत् तस्य बिभ्रत तु पुनरयं प्रश्नः स्नेहलतैकहेतुः स्नेह एव लता तस्याः एकश्चासौ हेतुश्च वर्तते ॥ १९ ॥ निध्यायतस्ते जगदेकबुद्धया, मप्यस्ति कोऽपि प्रणयप्रकर्षः । भृशायते चूतलताविलासे, साधारणः सर्ववने वसंतः ॥ २० ॥ __ (व्या०) निध्यायत इति । हे स्वामिन् ते तव जगत् एकबुद्धया एकाचासौ बुद्धिश्च तया निध्यायत पश्यतः सतः मयि विषये कोऽपि अपूर्व प्रणयप्रकर्षः प्रणयस्य स्नेहस्य प्रकर्षः स्नेहसमूहोऽस्ति । वसन्त सर्वचने साधारणः सदृशो वर्तते परं चूतलताविलासे चूतस्य लता तस्या विलासे सहकारवल्लीविलासे भृशायते (व्यर्थे भृशाद स्तोः । ३-४-२९ । इ सू च्यर्थे मृगादे क्यड् इडित कतरि । ३-२-२२ । इ. मू डिवात आत्मनेपदम् ।) न मृशः अभृश अमृग भृशो भवतीति मृशायते अधिकः स्यात् ।। २० ॥ न नाकनाथा अपि यं नुवंतो, वहंति गर्व विबुधेशतायाः । . वक्तुं पुरस्तस्य तव क्षमेऽह-महो महामुर्महिलामु मोहः ॥ २१ ॥ (व्या०) नेति । हे नाथ नाकनाथा अपि नाकस्य स्वर्गम्य नाथा इन्द्रा अपि यं त्वा नुवन्त नुवन्तो त नुवन्त स्तुवन्त सन्तो विवुधेशताया विधानां देवानामोशाम्तेपा भावन्तस्या देवेशत्वं पक्षे विहदीशि वं तस्या गर्वमभिमानं न वहन्ति । तस्य नव पुगेऽग्रे अहं वस्तु जल्पितु भमे शक्नोमि । अहो इत्याश्चर्ये महिलानु बीपु मोहो महासु महाप्राणी वर्तते ॥ २१ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्री जैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ८ (२५९ स्त्रीमात्र मेषास्मि तव प्रसादा- देवादिदेवाधिगता गुरुत्वम् । राज्ञो हृदि क्रीडति किं न मुक्ता-कलापसंसर्गमुपेत्य तन्तुः ||२२|| ( व्या० ) श्री इति । हे आदिदेव आदिवासौ देवश्च तस्य संबोधनं हे आदिदेव एपा अहं स्त्रीमात्रं स्त्रीएव स्त्री साधारणा अस्मि । तव प्रसादादेव कृपाया एव गुरुत्व गुरोर्भावो गुरुत्वं तत् महत्त्वं अधिप्राप्तास्मि । तन्तुर्मुक्ताकलापसंसर्ग मुक्तानां कलाप समूहस्तस्य संसर्ग संवधमुपेत्य प्राप्य राज्ञो नृपम्य हृदि हृदये किं न क्रीडति अपि तु क्रीडति ॥ २२ ॥ मां मानवीं दानववैविध्यो, याचन्ति यत्प्राञ्जलयोगदास्यम् । सोऽयं प्रभावो भवतो न धेयं, भस्कापि भाले किमु मन्त्रपूतम् ||२३|| मामिति । दानववैविध्य दानवानां दैत्यानामरय शत्रवः दानवारयो देवास्तेषां वव्व स्त्रिय देवाङ्गनाः प्राञ्जलय' कृताञ्जलय सत्यो मानवोमपि यत् अदास्यं अङ्गस्य दास्य शरीरदास्यं याचन्ति । सोऽयं भवतस्तव प्रभावो वर्तते । भस्मापि रक्षापि मन्त्रपूतं सत् मन्त्रेण पूतं सत् भाले ललाटे किं न धेयं धातु योग्य किं न धार्यमपि तु धार्यमेव ॥ २३ ॥ त्वत्सङ्गमात् सङ्गमितेन दिव्य - पुष्पैर्मदङ्गेन विदुरितानि । वैराग्यरङ्गादिव पार्थिवानि, वनेषु पुष्पाण्युपयान्ति वासम् ॥ २४ ॥ (०या० ) त्वदिति । हे नाथ पार्थिवानि (जाते ६-३-९८ । इ. सू. जातेऽर्थे पृथिवीशब्दात् अण् प्रत्यय 1 ) पृथिव्यां जातानि पुष्पाणि वैराग्यरङ्गादिव वैराग्यस्य रङ्गस्तस्मादिव वनेषु वासमुपयन्ति प्राप्नुवन्ति किंविशिष्टानि पुष्पाणि । सङ्गमात् (त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् । २ - १ - ११ । इ सू. उत्तरपदे युष्मदस्व आदेश ।) तव सङ्गमस्तस्मात् दिव्यपुष्पै दिव्यानि च तानि पुष्पाणि च तै सङ्गमितेन मिलितेन मदङ्गेन मम अहं तेन मम शरीरेण विदूरिकृतानि दूरीकृतानि ॥ २४ ॥ अङ्गेषु मे देव धूपनीत - दिव्याङ्गरागेषु निराश्रयेण । नाथानुतापादिव चन्दनेन, भुजङ्गभोग्या स्वतनुर्वितेने ॥ २५ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (व्या.) अङ्गेष्विति । हे नाथ चन्दनेन स्वतनुः स्वस्य तनुः शरीरं । आत्मीयं शरीरं भुजङ्ग (नानोगम खड्डौ च विहायसस्तु विह. ५-१-१३१ । इ. सू. भुजनामपूर्वकगम्धातो खड्प्रत्ययः खिल्वात् मोन्तः। ) भोग्या (वर्णव्यञ्जनाद् ध्यण् । ५-१-१७ । इ. सू. भुजधातो. ध्यण । तेऽनिटश्चनोः कगौघिति । ४-१--१११ । इ. सू. भुज्धातो. जस्य गः ।) भुजङ्गैः भोग्या सर्पवेष्टिता वितेने । उप्रेक्षते अनुतापादिव पश्चात्तापादिव किंविशिष्टेन चन्दनेन मे मम अङ्गेषु निराश्रयेग निर्गत आश्रयो यस्य तत् तेन आश्रयरहितेन । किंविशिष्टेषु अड्गेषु देववधूपनीतदिव्याङ्गरागेषु देवानां वध्वस्ताभिरुपनीता। दिव्या अङ्गरागा येषु तानि तेषु ॥ २५ ॥ खभूषणैरेव मदङ्गशोभा, सम्भावयन्तीष्वमराङ्गनासु । रोषादिवान्तदेहनं प्रविश्य, द्रवीभवत्येव भुवः सुवर्णम् ॥ २६ ॥ (व्या०) स्वरिति । हे नाथ भुव पृथिव्याः सुवर्ण अन्तर्दहनं ( पारे मध्येऽन्तः षष्ट्या वा । ३-१-३० । इ सू. अव्ययीभाव समासः ।) दहनस्य अन्तर्मध्ये प्रविश्य रोषादिव क्रोधादिव द्रवीभवति न द्रवमद्रवं अद्र द्रवं भवति इति द्रवीभवति गलन्येव । कासु सतीषु अमगगनासु अमराणां देवाना. मङ्गना नार्यस्तासु देवागनासु स्वर्भूषणैरिव स्वर्गसत्काभग्णैरेव मदङ्गशोभा मम जङ्गस्य शोभा सभावंयन्तीपु कुर्वतीपु सतीषु ॥ २६ ॥ पयः प्रभो नित्यममय॑धेनोः, श्रीकोशतो दिव्यदुकूलमाला । पुष्पं फलं चामरभूरुहेभ्यः , सदैव देवैरुपनीयते मे ॥ २७ ॥ (व्या०) पय इति । हे प्रभो हे स्वामिन् देवैर्नियं निरंतर अमर्त्यधेनो; अमर्त्यानां देवानां धेनुस्तस्याः कामधेनोः पयो दुग्धं श्रीकोगत श्रियो लक्ष्म्या. कोश श्रीकोशस्तस्मादिति श्रीकोगत दिव्यदुकुलमाला दिव्यानि च तानि दुकृ. लानि च तेपा माला च अन्यत् अगरभूरुहेभ्य अमगणां देवानां भूरहो वृक्षास्तम्य कपवृक्षेभ्य पुष्प फलं सदैव मे मम उपनीयते ढोक्यते ॥ २७ ॥ भोगेषु मानव्यपि मानवीनां, स्वामिन्न बन्नामि कदाचिदास्थाम् । अह त्वदीयेत्यनिशं मुरीभिः, स्वर्भोगमङ्गीप्वभिकीकृताङ्गी ॥ २८ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाल्य महाव्यम् टीसमलंकतम् ॥ सर्गः ८ (२६१ ___(व्या०) भोगेष्विति । हे नाथ अहं मानवी मनुष्यमात्रापि मानवीनां भोगेषु कदाचिदास्था न बध्नामि । अहं त्वदीया तव इयं त्वदीया त्वत्सत्का इति कारणात् सुरीभिर्देवाङ्गनाभि अनिशं निरन्तरं स्वर्मोगभङ्गीषु स्वर्भागस्य भङ्गयस्तासु, देवलोकसत्कभोगविच्छित्तिषु अभिकीकृताझी न अभीकं अनभीकं अनभीक अभीकं ( अभेरीश्च वा ७-१-१८९ इ. सू. अभेः कमितरि कः ) कृत इति अभिकीकृतं अभिकीकृतं अझं यस्या सा अभिकीकृताझी कामुकीकृतशरीरा वर्त ॥ २८ ॥ अन्यैरनीषल्लभमेति वस्तु, यदायदासेचनकं मनो मे । तदातदाकृष्टमिवैत्यदूरा-दपि प्रमोदं दिशति पयीशे ॥ २९ ॥ (व्या०) अन्यैरिति । हे नाथ यदा यस्मिन्नवसरे मे मम मनः यत् आसेवनकं नयनानन्दकारि वस्तु एति गच्छति । किलक्षणं वस्तु अन्यैः अनीपल्लभं ईषत्सुखेन लभ्यते इवल्लभं (दु स्वीपत: कृच्छाकृछार्थात् खल् ५-३-१३९ । इ. सू. ईषत्पूर्वकलमधातो. खल।) न ईपल्लभं अनीषल्लभं दुष्प्रापं तद्वस्तु त्वयिईशे सति समर्थ सति तदा तस्मिन्नवसरे दूरादपि आकृष्टमिव एत्य आगत्य मे मम प्रमोद दिशति ददाति ॥ २९ ॥ प्रमाष्टिं गेहाग्रमभुनभवान् , पिपर्ति कुंभान् सुरसिन्धुरद्भिः । भक्ष्यस्य चोपस्कुरुतेंऽशुमाली-दास्योपि नेशे त्वयि दुर्विधा मे ॥३०॥ (व्या०) प्रमार्टि इति । हे नाथ त्वयि ईशे स्वामिनि सति मे मम दाम्योऽपि दुर्विधा न दुःस्थानदुष्कर्मकों न वर्तते । नभस्वान् *भुः (रभिप्रथिभ्यामृचरस्य । ७३० इ. सू रभिधातो. कित् उप्रत्यय रेफस्य च ऋकार । रभन्ते पुण्यकार्येषु उत्सुका भवन्तीति *भव । ) वायुर्देवता मे मम गेहाग्रं गेहस्याग्रं तत् गृहागणं प्रमार्टि तृणकाष्ठक चवरादि परत्र करोति । सुरसिन्धुः सुराणां सिन्धु. आकाशगङ्गा अद्धि पानीय कुंभान् पिपर्ति पूरयति । च पुनरंशु. मालो अंशूनां किरणानां माला पडूक्तयः सन्ति इति अंशुमाली सूर्यः भक्ष्यस्य उपस्कुरुते ( उपाद् भूषासमवायप्रतियत्नविकारवाक्याच्याहारे । ४-४-९२ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ।। सर्गः ८ इ. सू. उपात् परस्य कृगः सट । ) शालिसूपपकानघृतपूरादि भोज्यं संस्करोति । भक्ष्यस्य इत्यत्र षष्ठी 'कृगः प्रतियत्ने' इति सूत्रेण ॥ ३० ॥ त्रातस्त्वयि त्राणपरे त्रिधापि, दुःखं न मनाति मुदं मदीयाम् । यं हेतुमायासिषमत्र माया-मुक्तं ब्रुवे तच्छृणु सावधानः ।। ३१ ।। ___(व्या०) त्रात इति। हे त्रातः हे रक्षक त्वयि त्राणपरे त्राणे रक्षणे परस्तस्मिन् सति त्रिधापि त्रिभिः प्रकारैत्रिधा ( सङ्ख्याया धा । ७--२-१०४ इ. सू. त्रिशब्दात् प्रकरिऽर्थे धाराप्रत्ययः । ) त्रिभि प्रकारैरपि आध्यात्मिकाधिभूतिकाधिदैविक्रभेदात् त्रिविधं वा देवमानुपतिर्यकृतं दुख मदीयां मम इथं मदीया तां मम मुदं हर्ष न मनाति न स्फेटयति । यं हेतु येन हेतुना अहमत्र आयासिपमायाता। तदहं मायामुक्तं मायया मुक्तं तत् कपटरहितं ब्रुवे सावधानस्त्वं शृणु ॥ ३१ ॥ क्रियां समग्रामवसाय सायं-तनीमनीषद्धृतिरत्र रात्रौ । अशिश्रियं श्रीजितदिव्यशिल्पं, तल्पं स्वबासौकसि विश्वनाथ ॥३२॥ (व्या०) क्रियामिति । हे विश्वनाथ विश्वस्य नाथस्तस्य संबोधनं अहं सायंतनी ( सायश्चिरं प्राणे प्रगेऽव्ययात् ६-३-८८ । इ. सू. सायमव्ययात् तनटप्रत्ययः रित्वात् डीः ।) सायं भवा सायन्तनी संध्यासंबधिनी समग्रां सी क्रियां अवसाय समापय्य अत्र रात्रौ स्ववासौकसि स्वस्य वासस्य ओकस्तस्मिन् आत्मीयवासभवने तल्पं शयां अशिश्रियमाश्रितवती । किंविशिष्टं तल्पं श्रीजितदिन्यशिल्पं श्रिया शोभया जित दिव्यं शिल्पं विज्ञानं येन तत । किंलक्षणा अहं अनीपधृतिः न ईषत् अनीपद् धृतिर्यस्याः सा बहुसमाधियुक्ता ॥ ३२॥ स्वनाममन्त्राहितदेहरक्षा-निद्रां खकालप्रभवामवाप्य । स्वप्मानिभोक्षप्रमुखानदर्श, चतुर्दशादर्शमुख क्रमेण ॥ ३३ ॥ (व्या०) त्वदिति । हे आदर्शमुख आदर्शों दपंगः माङ्गल्यकारकत्वात् तसदृशं मुखं यस्य स तस्य संयोवनं हे आदर्शमुख अहं पनाममंत्राहितदेहरक्षा (स्वी प्रत्योत्तरपदे चैकस्मिन् २-१-११ इ. सू. । युप्मः एकवचने त्वआ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (२६३ देशः ।) तव नाम एव मन्त्रः तेन आहिता देहस्य रक्षा यया सा त्वदीयनाममन्त्रेण कृतशरीररक्षा सती स्वकालप्रभवां स्वस्य काले प्रभवतीति तां आत्मीयकालोत्पन्नां निद्रां क्रमेण अवाप्य प्राप्य इभो गज उक्षा वृषभ इभश्च उक्षाणौ तौ प्रभुखौ येषां ते तान् चतुर्दशस्वमान् (यजिस्वपिरक्षियतिप्रच्छोनः ५-८-८५ । इ. स. भावेस्वप्धातोर्न ।) अदर्श दृष्टवती ॥ ३३ ॥ ततोऽत्यभीष्टामपि सर्वसार-स्वमौघसंदर्शन या कृतार्थाम् । विसृज्य निद्रां चतुरांचित त्वां, तत्त्वार्थमीमांसिषयागतास्मि ।। ३४॥ (व्या०) तत इति । हे चतुरांचित चतुरै अञ्चितस्तस्य संबोवनं हे विद्वत्पूजित ततः ततोऽनन्तरं अहं अयभीष्टामपि निद्रां विसृज्य त्यक्त्वा तत्वार्थमिमासिपया मिमांसितुं विचारयिनुमिच्छा मिमांसिषा तत्वस्य अर्थस्य मिमांसिघया विचारेण त्वां त्वत्समीपमागतास्मि । किंलक्षणां निद्रां सर्वसारस्वप्नौघसंदर्शनया सर्वेषु सारा प्रशस्या ये स्वप्नास्तेषामोव समूहस्तस्य संदर्शना दर्शनेन कृतार्थी कृतोऽर्थो यया सा तां कृतार्थाम् ॥ ३४ ॥ वस्त्वाकृषन्ती भवतः प्रसाद-संदंशकेनापि दविष्ठमिष्टम् । न कोऽपि दुष्प्रापपदार्थलोभ-जन्माऽभजन मां भगवस्तदाधिः ॥३५॥ (व्या०) वस्त्विति । हे भगवन् कोऽपि दुष्प्रापपदार्थलोमजन्मा दु खेन प्राप्यते इति दुष्प्राप. प्राप्तुमशक्यः स चासौ पदार्थश्च तस्य लोभात् जन्म यस्य सः दुर्लभवस्तुलोभोत्पन्न. आधिरसमाधिस्तदा तस्मिन्नवसरे मां न अभजत् । कि कुर्वती मां भवतः प्रसादसंदंशन प्रसाद एव संदंशकरतेन तव प्रसादरूपसंदशकेन दविष्ट ( गुणाझाष्ठेयसू ७-३-९ । इ. सू. दूरशब्दात् इष्ठप्रत्ययः । स्थूलदूरयुक्-न । ७-४-४२ । इ. स. अन्त्यस्वरादेलोपः नामिनो गुणश्च । ओदौतोऽवाव् । १-२-२४ । इ सू अवादेशः ।) अतिशयेन दूरं इति दविष्ठ दूरतरमपि इष्टमभीष्टं वस्तु आकृषन्ती आकृपतीति आकृषन्ती ताम् ॥ ३५ ॥ आकूतमक्षिभुवचेष्टयैव, हा विबुध्याखिलकर्मकारी । न स्वैरचारीति परिच्छदोऽपि, मनो दुनोति स्म तदा मदीयम् ॥३६॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४) श्रीजैनकुमारसम्भवायं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (व्या०) आकृतमिति । हे नाथ तदा तस्मिन्नवसरे परिष्दोऽपि परिपारोऽपि स्वैरचारी स्वैरं चरतीति इति कारणात् मदीयं मम इदं मदीयं तत् मामकं मनो हृदयं न दुनोति स्म खेदयुक्तं नाकरोत् किंलक्षण: परिछ६: अक्षिश्रुपचेष्टयैव अक्षिणी च भ्रुवौ च एतासां समाहार अक्षिवं (* सामान्यजुषधेपहवाड्मनसाऽहोरात्ररात्रिंदिवनांदिवाऽहर्दिवोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षिभ्रुवदारगवम् । ७-३-९७ । इ. मू. अक्षिभ्रुवं अदन्तद्वन्द्वो निपातः ।) तस्य चेष्टा तया अक्षिभ्रवचालनयैव हादै हृदयस्येदं तत् आफूतमभिप्रायं विबुध्य ज्ञा-या अखिलकर्मकारी अखिलानि च तानि कर्माणि च अखिलकर्माणि तानि करोतीत्येवंशील: समस्त कार्यकृत् ॥ ३६॥ अपि द्वितीयाद्वितये विभज्य, चित्तं च विच च समं समीचा। स्वया न सापत्न्यभवोऽभिभूति-लवोऽपि मेऽदत्त तदानुतापम् ॥३७॥ (व्या०) अपीति । हे नाथ तदा तस्मिन्नवसरे सापल्यभव' सपन्या भावः सापल्यं तस्मात् भव सपल्या उत्पन्नोऽभिमूतिलवोऽपि अभिभूतेः पराभवस्य लयो लेशोऽपि मे मम अनुतापं विषादं नादत्त । केन हेतुना त्वया द्वितीया(देस्तीयः । ७-१-१६५ । इ. सू. द्विशब्दात् संख्यापूरणे तोयप्रत्य ) द्वितयेऽपि द्वितीययोर्भार्ययोर्द्वितयं तस्मिन् कलत्रद्विकेऽपि चित्तं च पुनर्वित्तं समं समकालं विभक्त्वा इति विभज्य विभागीकृत्य समीचा सम्यग् अञ्चतीति सभ्यङ् तेन समीचा सम्यग् अञ्चता । अञ्चौ गतौ समपूर्वकः 'सह सम सघ्रि समि इति सम्यादेशः ॥ ३७ ॥ आसीन्न मे वर्मणि मारुतादि-प्रकोपतः कोऽपि तदा विकारः। त्वयि प्रसन्ने न हि लब्धवाधा, मिथः पुमर्था इव धातवोऽपि ॥३८॥ (व्या०) आसीदिति हे नाथ तदा तस्मिन्नवसरे मे मम वर्मणि शरीरे मारूतादिप्रकोपत मारुतोवायुरादिर्यषांते मारुतादयः तेषां प्रकोपात् इति प्रकपतः कोऽपि विकारों नासीत् नाभत् त्वयि प्रसन्ने सति धातवोऽपि पुमर्था इव मिथ' परस्परं लव्वबाधा नहि लब्धा बाधायैस्ते लब्धपीडा. नहिवर्तन्ते ॥३८॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (२६५ गदा वपुः कुंभगदाभिघाता, नासंस्तदा त्वनिगदागदाप्त्या | अजातशत्रु' पतिमाश्रिताया- स्त्वां मे कुतः संभव एव भीतेः ||३९|| ( व्या० ) गदा इति । हे नाथ गदा वात पित्तश्लेष्माणो रोगा मे मम तदा तस्मिनवसरे त्वन्निगदागदाप्या तव निगदो नाम स एव अगद ओषधं तस्य आप्या लाभेन न आसन् । किंविशिष्टा गदा वपु कुंभगदाभिघाताः कुंभो घटः तस्य गढ़ाया अभिधाता गदाप्रहारसदृशाः । अजातशत्रुं न जाताः अजाता. शत्रवो यस्य तं गतवैरिणं त्वां पतिं भर्तारमाश्रिताया मे मम भीतेर्भयस्य संभव उत्पत्तिरेव कुत ( इतोऽत कुतः ७-२-९० इ. सू कुत' तसन्तो निपातः । ) स्यात् अपि तु न कुतोऽषि ॥ ३९ ॥ एवं सुखाखादरसोर्जितायां, मनस्तनुक्लेशविवर्जितायाम् । स्वमैर्बभूवे मयि यैस्तदर्थ-मीमांसया मांसलय प्रमोदम् ॥ ४० ॥ ( व्या० ) एवमिति । हे नाथ ये स्वप्नैर्मयि बभूवे । तदर्थमीमांसया तेषां स्वमानामर्थस्य मीमांसया विचारणया हर्ष मयि विषये मांसलय (मांसमस्ति अस्य इति मांसल : | सिम्मादिक्षुद्रजन्तुरुग्भ्य ७ - २- २१ इ. सू मत्वर्थे ल । ) पोपय । किंविशिष्टायां मयि एवं सुखास्वादरसोर्जिताया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सुखम्य आस्वादस्य आस्वादस्य रसेन ऊर्जितायां बलिष्ठाया । पुन मनस्तनु+लेशविवर्जितायां मनश्च तनुश्च शरीरं तयो क्लेशेन विवर्जितायां मानसिकशारीरिक्+लेशरहितायाम् ॥ ४० ॥ सूक्ष्मेषु भावेषु विचारणायां, मेधा न मे धावति बालिशायाः । त्वमेव सर्वज्ञ ततः प्रमाणं, रात्रौ गृहालोक इव प्रदीपः ॥ ४१ ॥ ( व्या० ) सूक्ष्मे५ इति । हे नाथ बालिशाया मूर्खाया मे मम मेधा बुद्धि सूक्ष्मेंपु भावेपु विचारणायां न धावति । हे सर्वज्ञ सर्व जानातीति तस्य संबोधनं ततस्तस्मात्कारणात् त्वमेव प्रमाणमसि । क इव प्रदीप इव यथा प्रदीपो गृहालोके गृहस्य आलोक' प्रकाशस्तस्मिन् प्रमाणं स्यात् ॥ ४१ ॥ यद्दीपगौरद्युतिभास्कगणां, प्रकाशभासामपि दुर्व्यपोहम् । हार्दं तमस्तत्क्षणतः क्षिणोति, वाग्ब्रह्मतेजस्तव तन्वपीश ॥ ४२ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ (व्या०) यदिति । यत् यस्मात् कारणात् दीपगौरद्युतिभास्कराणां दीपश्च प्रदीप: गौरद्युतिश्च चन्द्रः भास्करश्च (सल्याऽहर्दिवाविभानिशाप्रभामाश्चित्र-टः ५-१-१०२ । इ. सू. भास्ाब्दपूर्वक्रधातोः ट प्रत्ययः । ) सूर्यः तेषां प्रकाशभासामपि प्रकाशा भाः येषां तेषामपि प्रकटतेजसामपि हार्द हृदयस्येदं हार्द हृदयसंबंधि तमोऽन्धकार दुर्यपोहं दु खस्फेटनीयं वर्तते । हे ईश हे स्वामिन् तद् हार्द तमः तव वाग्मतेजः वाचां ब्रह्म ज्ञानं तस्य-तेज वचनज्ञानसक तेज तन्वपि सूक्ष्ममपि भणतः क्षणादेव क्षिणोति क्षयं नयति ॥ ४२ ॥ यत्र कचिद्वस्तुनि संशयानाः, स्मरन्ति यस त्रिदशेशितारः। तत्रांतिकस्थे त्वयि शास्त्रदृश्वा, मानाहै नार्हत्य परोऽनुयोक्तुम् ॥४३॥ (व्या०) यत्रेति । हे नाथ त्रिदशेशितार• त्रिदशानां देवानामीशितारः इन्द्रा यत्र कचिद् वस्तुनि संशयाना संशेरते इति संशयाना संदेहं दधाना यस्थ तब स्मरन्ति । हे मानाह ( अर्होऽच् ५-१-९१ इ. सू. मानपूर्वकअहंधातोः अच्प्रत्ययः । ) मानमर्हतीति तस्य संबोधनं हे पूजायोग्य तत्र वस्तुनि त्वयि अन्तिकस्थे सति समीपस्थे सति अपर शास्त्रदृश्वाश कनिप् ५-१-१६६ इ. सू. शास्त्रव्याप्यपूर्वक दृश्धातोः भतेऽर्थे कनिप्प्रत्ययः । ) शास्त्राणि दृष्टवानिति शास्त्रदृश्वी सर्वशास्त्रविशारद अनुयो प्रष्टुं नाहीत योग्यः न स्यात् ॥४३॥ हकर्मघातीनि तमांसि हत्वा, गोभिर्बभूवान् भुपि कर्मसाक्षी। इदं हृदन्तर्मम दीप्रदेह, संदेहरक्षः स्फुरदेव रक्ष ।। ४४ ॥ (व्या०) दृगिति । हे दीप्रदेह दीप्रो देहो यस्य स दीप्रदेहत्तस्य संबोधनं हे दोप्यमानशरीर त्वं इदं संदेहरक्ष संदेह ५५ रक्ष. तत् मम हृदन्त हृदयमध्ये स्फुरत् स्फुरतोति प्रसरदेव रक्ष । किं विशिष्टस्त्वं गोभिर्वचोभि किरण । कर्मघातीनि दृष्ट कर्म कर्म ज्ञान किया दर्शनक्रिया वा तस्य धातीनि विनाशकानि तमांसि पापानि अन्धकाराणि वा हत्वा भुवि पृथिव्यां कर्मसाक्षी कर्मणां साक्षी ( साक्षाद् दृष्टा ७-१-१९७ इ. सू. साक्षात् अव्ययात् द्रष्टा इत्यर्थे इन्प्रत्यय ।) पक्षे कर्मसाक्षी श्रीसूर्य बभूवान् बभव इति बभूवान् ( तत्रकसुकानौ तद्वत् ५-२-२ इ. सू. भधातोः परोक्षे क्वसुः ।) जात ॥४४॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सगं ८ (२६७ अतीन्द्रियज्ञाननिधेस्त वेश, क्लेशाय नायं घटते विचारः । भक्तुं महाशैलतटीं घटीय-द्वजं किमायस्य तृणं तृणेढि ॥ ४५ ॥ (व्या०) अतीति । हे ईश अयं विचार. तव क्लेशाय न घटते । किविशिष्टस्य तव अतीन्द्रियज्ञाननिधे अतिक्रान्ता इन्द्रियाणि अतीन्द्रिया (प्रात्य वपरिनिरादयो गतका तक्रुष्टालानकान्ताद्यर्था प्रथमाद्यन्तै ३-१-४७ इ स. तत्पुरुषसमासः) इन्द्रियातीतपदार्थास्तेषां ज्ञानस्य निधिस्तस्य इन्द्रियातीतज्ञाननिधानस्य । महाशैलती महांश्चासौ शैलश्च तस्य तटी तां महापर्वततट भक्तुं भेत्तुं घटीयत् घट इस आचरतीति घटीयति घटीयतीति घटीयत् घट इवाचरत् वज्रं कि आयस्य आयसित्वा इति आयस्य अपक्रम्य तृणं तृणेढि छिनत्ति अपि तु आयास विनैव ॥ ४५ ॥ उद्भूतकौतूहलया रयेणा-जागयथास्तन्मयि मास कुप्यः । कालातिपातं हि सहेत नेत-न कौतुकावेशवशस्त्वरीव ॥ ४६॥ (व्या०) उद्भतेति । हे नाथ रयेण वेगेन मया उद्भूतकौतूहलया उद्भूतं उत्पन्न कौतूहलं यस्या सा तया उत्पन्नकौतुकया त्वं अजागर्यधाः जागरितः । तन्मयि विषये मास्म कुप्य कोपं मा कार्षीः । हे नेत. स्वामिन् कौतुकावेशवशः कौतुकस्य आवेशस्तस्य वशोऽधीन पुमान् कौतुकाक्षिप्त त्वरीव त्वरा अस्यास्तीति त्वरीव उत्सुक इच कालातिपातं कालस्य अतिपात: विलंबस्तं कालविलंब हि निश्चितं न सहेत ॥ ४६॥ श्रुत्वा प्रियालापमिति प्रियायाः, प्रीति जगन्वान् जगदेकदेवः ।। वाच मृदुस्वादुतया सुधाब्धि-गर्भादिवाप्तप्रभवामुवाच ॥ ४७ ॥ (व्या०) श्रुत्वेति । जगदेकदेव. एकश्चासौ देवश्च एकदेवः ( पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलम् ३-१-९७ इ. सू कर्मधारयसमास । ) जगति एक देव जगदेकदेव श्रीयुगादीशो वाचमुवाच उक्तवान् । किविशिष्टां वाचं मृदुस्वादुतया मृदुच स्वादुच मृदुस्वादुनी तयोर्भावस्तया सुधाब्धिगर्मात् सुधाया अमृतस्य अब्धि समुद्रस्तस्यगर्भात् मध्यात् अमृतसमुद्रमध्यात् आतप्रभवामिव Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ आप्तः प्रभवो यया सा तामिव । किंलक्षणो जगदेकदेव प्रियायाः सुमङ्गलायाः इति प्रियालापं प्रियश्चासौ आलापश्च तं अभीष्टवचनं श्रुत्वा प्रीतिं जगवान् जगाम इति जगन्वान् गम् घातो. क्वसौ प्रत्यये द्वित्वे पूर्वगस्य जत्वे गमहनविद्लविशदृशो वा इ. स. विकल्पेन इट् इडभावे 'मोनोम्बोश्च इति सत्रेण मस्थ नकारे कृते सिविभक्तौ जगवान् -इति प्रथमैकवचनं सिद्धम् ॥ ४७ ॥ प्रिये किमेतजगदे मदेका-त्या त्वया हन्त तटस्थयेव । त्वदुक्तिपानोत्सव एव निद्रा-भङ्गास मे दस्यति वैमनस्यम् ॥ ४८॥ (व्या०) प्रिये इति । हे प्रिय हन्त इति वितर्क त्वया तटस्थया ( स्थापास्नात्र कः ५-१-१४२ इ. सू तादपूर्वकस्थाधातो. कः । इडेत् पुसिचातो लुक् इत्याकार लोप. । ) समीपस्थया इव किमेतत् जगदे ( गदधातोः कर्मणि परोभा । ) प्रोक्तम् । किं विशिष्टया त्वया मदे कात्मया मया सह एक आत्मा यस्याः सा तया हे प्रिये त्वदुक्तिपानोत्सवः तव उक्तेर्वचनस्य पानस्य उत्सव एव मे मम निदामझस्य निद्राया भङ्गस्तस्य वैमनस्य विमनसो भावो वैमनस्यं तत् मनोव्यथा दस्यति स्फेटयति ॥ १८ ॥ निद्रा तमोमय्यपि किं विगेया, सुस्वमदानात् परमोपकी । जाये जगजीवनदातुरब्दा-गमस्य को निन्दति पङ्किलत्वम् ।। ४९ ।। (व्या०) निद्रेति । हे जाये हे प्रिये तमोमय्यपि तम एव तमोमयी निद्रा कि विगेया निन्या स्यात् अपि तु नैव । किंलक्षणा निद्रा सुखानदानात् (सु पूजाथाम् ३-१-४४ इ सू. तत्पुरुषसमास । ) शोभना स्वभास्तेषां दानात् परमोपकी परमा चासौ उपकी च उपकरोतीति उपकी शोभनस्वप्नदानतः परोपकारकारिणी । जगजीवदातु ददातीति दाता जीवनस्य जलस्य दाता जगतो जोवनदाता तस्य जगजलदायकस्य अब्दागमस्य वर्षाकालस्य पङ्किलावं (नीह्य. थेतुन्दादेरिलश्च ७-२-९ इ स. मत्वर्थे पशदात् इलप्रत्यय । पङ्क अस्ति अस्य इति पकिल पकिलस्य भाव पकिलल्वम् । ) पङ्किलभाव पङ्किलत्वं तत् कर्दमयुक्त को निन्दति अपि तु न कोऽपि ॥ ४९॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ८ (२६९ भद्रङ्करी निर्भर सेवनेन, निद्रावया काचन देवतेयम् । दूरस्थितं वस्तु निरस्तनेत्रा-नप्यङ्गिनो ग्राहयते यदीहा ॥ ५० ॥ (व्या०) भद्र इति । हे प्रिये इयं निद्रावया निद्रा आह्वयं नाम यस्या सा निद्रानाम्नी काचन देवता निर्भरसेवनेन निर्भरं सेवनं तेन भदङ्करी ( हेतुतपछीलानुकूलेऽ२।०३ श्लोककलहंगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदात् । ५-१-१०३ । इ. सू भद्रपूर्वककृग्धातो. टा टिपात् डीः । ) भद्रं सुखं करोतीति सुखकरी वर्तते । यदीहा यस्या निद्राया ईहा इछ। निरस्तनेत्रानपि निरस्तानि नेत्राणि यैस्ते तान् निरस्तलोचनव्यापारनपि अङ्गिन प्राणिन• दूरस्थितं दूर स्थितं तत् वस्तु प्राहयते । अन्यापि देवता मनसोऽप्यगोचरं वस्तु यतस्ततोऽप्यानीय भक्तन्य दत्ते इति॥५०॥ श्रोतांसि संगोप्य जडानि चेतः, सचेतनं साक्षिरही विधाय । संदर्शयन्ती तव सारभावा-निद्रा धुरं छेकधियां दधाति ॥ ५१ ॥ __(व्या०) श्रोतांसीति । हे प्रिये निद्रा छेकधियां छेका चतुरा धोर्येषां ते छेकधियस्तेषां चतुरबुद्धीनां धुरं भारं दधाति धरति । किं कुर्वती निद्रा जडानि अज्ञानानि श्रोतांसि नव इन्द्रियाणि संगोप्य गोपयित्वा रह एकान्ते चेतश्चित्तं सचेतन चेतनेन सह वर्तते इति सचेतनं साक्षि विधाय कृत्वा तव सारभावान् साराश्चते भावाश्च तान् संदर्शयन्ती संदर्शयतीति संदर्शयन्ती ।। ५१ ॥ एकात्मनोनों परिमुञ्चती मा, सुखप्नसर्वस्वमदत्त तुभ्यम् । निद्रा ननु स्त्रीप्रकृतिः करोति, को वा स्वजातौ नहि पक्षपातम् ॥५२॥ (व्या०) एक इति । निद्रा ननु निश्चितं स्त्रीप्रकृति स्त्री प्रकृतिर्यस्या सा तुभ्यं सुस्वमसर्वस्वं शोभना स्वमा तेषां सर्वस्वं तत् अदत्त । किं कुर्वती एकात्मनो एक आत्मा स्वरूपं ययोस्तौ तयो नौ आवयोः मां परिमुञ्चतो परिभुश्चतोति परिमुवती । वा अथवा हि निश्चितं स्वजातौ स्वस्य नातिस्तस्यां पक्षपात को न करोति अपि तु सर्व कोऽपि ॥ ५२ ॥ दुर्घोषलालाश्चतिदन्तघर्षा-दिकं विकर्माप्यत निद्रया यैः । स्वप्नबजे श्रोत्रपथातिथौ ते, ते खेदतः स्वं खलु निन्दितारः॥५३॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ ( व्या० ) दुर्घोष इति । यैः पुरुपैर्निद्रया दुर्धोपलाला चुति - दन्तधर्मादिकं लालाया· श्चुति. श्रावः दन्तानां घर्पणं दुर्धोपश्च रौद्रस्वरेण पूत्करणं लालाश्चुतिश्र दन्तवर्षणं च तानि आदीनि यस्य तत् इत्यादि कुचिह्नरूपविकर्म आयत प्राप्यतेस्म । ते पुरुषाः ते तव स्वभव जे स्पमानां व्रज समूहस्तस्मिन् स्वमसमूहे श्रोत्रपथातिथौ श्रोत्रयो. कर्णयोः पन्थाः श्रोत्रपथ ( श्रूयते अनेन इति श्रोत्रं हुयामाश्रुवसि - स्त्र. । ४५१ इ. उ. सू. श्रुद्धातो. त्रप्रत्यय । ऋक्पू पथ्यपोऽत् । ७-३-७६ । इ सु. पथिन्शब्दात् समासान्तोत् प्रत्यय अन्त्यस्वरादे लप.) रतस्यातिथिस्तस्मिन् कर्णमार्गातियों सति एतावति श्रुते सति खलु निश्चितं स्वं आत्मीयं निन्दितारो निन्दिष्यन्ति ॥ ५३ ॥ आदौ विरामे च फलानि कल्प-बल्लेखि स्वादुविपाक्रभाजः । नेमाननेमानपि नीरजाक्षि, स्वमान् दृशः कर्मकरोत्यपुण्या ॥ ५४ ॥ ( व्या० ) आदाविति । हे नीरजाक्षि नीरेजाते नीरजे ते इव अक्षिणी यस्याः सा नीरजाक्षी तस्या संबोधनं हे कमललोचने अपुण्या न विद्यते पुण्यं यस्याः सा पुण्यरहिता स्त्री इमान् चतुर्दशस्वमान् अनेमानपि न नेमे अनेमे तान् अर्धरहितानपि दृश' कर्म न करोति न पश्यतीत्यर्थ । किंविशिष्टान् इमान् आदौ (आदोयते प्रथमतया इति आदि : उपसर्गाद कि' इ. सू. आपूर्वकदाघातो. कि इडेत् पुसि इति - आलोप ) प्रथमं चान्यत् विरामं प्रान्ते कल्पवल्ले फलानीव स्वादुविपाकभाज स्वादुश्चासौ विपाकश्च तं भजन्तीति तान् ॥ ५४ ॥ निशम्य सम्यक् फलदानशौंडान्, स्वप्नानिमांस्ते वदनादिदानीम् । दक्षे ममोल्लासमय वक्षः, किं स्थानदानाय मुदां भराणाम् ||२५|| ( व्या० ) निशम्येति । हे दक्षे विचक्षणे मे मम वक्षो हृदयं इदानीमधुना ते तव बदनात मुखात् सम्यक् फलदानशौंडान् (सप्तमी शौण्डाद्यैः ३-१-८८ इ. सू. सप्तमी तत्पुरुष' । ) फलानां दाने शौंडा समर्थास्तान् इमान् चतुर्दश स्वप्नान् निशम्य श्रुत्वा मुद्रां हर्षाणां भराणां समूहानां स्थानदानाय स्थानस्य दानं तस्मै स्थितिकरणाय उल्लासं विस्तारमिदर्ति याति ॥ ५५ ॥ 1 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ८ (२७१ आनन्दमाकन्दतरौ हृदाल-वाले त्वदुक्तामृत सेकपुष्टे | रक्षावृतिं सूत्रयितुं किमङ्ग - ममाङ्गमुत्कण्टकता दधाति ।। ५६ ।। ( व्या० ) आनन्द इति । अङ्ग इति कोमलामंत्रणे हे सुमङ्गले मम अङ्ग शरीरं उत्कण्टकतां उत्कण्टकस्य भाव उत्कण्टकता तो उतरोमाञ्चत्वं उर्ध्व कण्टकत्वं वा किं दधाति । किं कर्तु मम हृढालवाले हृदेव आलवालस्तस्मिन् हृदयरू पस्थानके आनन्दमाकन्दतरौ आनन्द एव माक्रन्द्रतरुस्तस्मिन् हर्षरूपसहकारवृक्षे त्वदुक्तामृतसेकपुष्टे तब उक्तानि वचनानि त्वदुक्तानि तान्येव अमृतं तस्य सेकेन सिञ्चनेन पुष्टे प्रौढे सति रक्षावृति रक्षाया वृतिस्तां रक्षायैकण्टकवृतिं सूत्रयितुं कर्तुम् ॥ ५६ ॥ श्रुत्योः सुधापारणकं त्वदुक्त्या, मत्वा मनोहत्य समीपवासात् । पिंडोललोले इव चक्षुपी मे, प्रसृत्य तत्संनिधिमाश्रये ॥ ५७ ॥ ( व्या० ) श्रुत्योरिति । हे प्रिये त्वदुक्या तव उक्तिर्वचनं तया त्वदीयवचनेन श्रुत्यो. कर्णयो' मनोहत्य मनो हत्वा इति मनोहत्य (कणेमनस्तृप्तौ ३-१६ । सू. तृप्यर्थे मनसो गतिसज्ञा । गतिकन्यस्तत्पुरुष ३-१-४२ । इ. सू. नित्यतत्पुरुषसमास ) मनस्तृप्तिं यावत् सुधापारणकं सुधाया पारणकं अमृताशनं मत्वा ज्ञात्वा मे मम चक्षुषी लोचने तत्संनिधिं ( सम्यनिधीयते अस्मिन् संनिधि' उपसर्गा: कि ५-३-८७ । इ. सू. संनिपूर्वकधाधातो. कि. इडेत् पुसि इति आलुक् ।) तयोः कर्णयोः संनिधिस्तं कर्णसमीपमाश्रयेते । किंविशिष्टे चक्षुषी समीपवासात् समीपस्य वासस्तस्मात् प्रत्यासन्नवासात् पिंडोललोल इव पिंडोले भुक्तशेपे लोळे लोलुपे इव ॥ ५७ ॥ एकस्वरूपैरपि मत्प्रमोद -तरोः प्ररोहाय नवाम्बुदत्वम् । स्वप्नैरभीभिः कुतुकं खलाशा - वल्लीविनाशाय दवत्वमीये ॥ ५८ ॥ ( व्या० ) एक इति । एकस्वरूपैरपि एकं स्वरूपं येषा ते अमीभिः खप्नै कुतुकमाश्चर्यम् । मत्प्रमोदतरो मम प्रमोदोहर्ष स एव तरुर्वृक्षस्तस्य मदीयहर्षवृक्षस्य प्ररोहाय अड्कुराय नवाम्बुदत्वं अम्बूनि ददातीति अम्बुद, नवश्वासौ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ अम्बुदश्च तस्य भाव नवीनभेघसादृश्यं खलाशावल्लीविनाशाय खलानां दुर्जनानामाशा मनोरथाः ता एव वल्लयस्तासां विनाशस्तस्मै दुर्जनमनोरथरूपवल्लीविनाशाय दवस्य भावो दवावं दवानलस्वमीये प्राप्तम् ॥ ५८ ॥ नैषां फलोक्तावविचार्य युक्त-माचार्यकं कर्तुमहो ममापि । महामतीनामपि मोहनाय, छमस्थतेयं प्रबलप्रमीला ॥ ५९ ॥ (व्या०) नेति । अहो इत्याश्चर्ये एषां स्वप्नानां फलोक्तौ फलानामुक्तिस्तस्यां अविचार्य न विचार्य अविचार्य अविमृश्य ममापि आचार्यकं ( योपान्त्याद् गुरुपोत्तमादसुप्रख्यादक ७-१-७२ । इ. सू. भावे कर्मणि आचार्यशब्दात् अकम् । ) आचार्यकर्म क न युक्तं न योग्यमस्ति । इयं छमस्थता प्रबलप्रमीला प्रवलाचासौ प्रमीला च सबलनिद्रा महामतानामपि महती मतिः येषां ते महामतयस्तेषां विचक्षणानां मोहनाय वर्तते ॥ ५९ ॥ यावद् घनाभं धनघातिकर्म-चतुष्कमात्मार्यमणं स्तृणाति । तावत् तमश्छन्नतया विचारे, स्फुरन्न चेतोऽश्चति जांधिकत्वम् ॥६० (व्या०) यावदिति । हे प्रिये घनाभं घनवत् मेधवत् आभातीति धनाभं मेवसदृशं घनघातिकर्मचतुष्कं घनघातीनि च तानि कर्माणि च धनधातीकर्माणि तेषां चतुष्कं ज्ञानावरणीयकर्म १ दर्शनावरणीयकर्म २ मोहनीयकर्म ३ अन्तरायकर्म एतत् धनधातिकर्मचतुष्कं आत्मार्यमणं आत्मा एवं अर्थमा सूर्यस्तं यावत् स्तृणाति आच्छादयति । तावत् चेतः चित्तं तमश्छन्नतया तमसा अज्ञानेन छन्नमाच्छादितं विचारे स्फुरत् सत् जांधिकार (वेतनादेर्जीवति ६-४-१५ इ. सू. जीवत्यर्थे जंघाशदात् इकण जधाभ्या जीवति इति जांधिक जांधिकस्य भावः जांविकायम् ) जघालवं परमाणत्वं न अञ्चति न प्राप्नोति ॥ ६० ॥ आकेवलाचिकलनं विशवं, वयं न संदेहभिदां विदध्मः । को वा विना काञ्चनसिद्धिमुर्वी-माधातुमुर्वीमनृणां यतेत ॥ ६१ ॥ (व्या०) आकेवल इति । हे प्रिये वयं आकेवलाचिंकलनं केवलमिति अर्थिः तस्य कलनं आकेवलार्षिकलनात् केवलज्ञानलाभं यावत् विशकं विगता Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ८ (२७३ शङ्का यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा नि शक सदेह भिदां संदेहस्य भिद । तां संशयभेदं न कुर्मः । वा अथवा कः पुमान् काश्चनसिद्धिं काञ्चनस्यसिद्धिस्तां सुवर्णसिद्धि (विनाते तृतीया च २ - २ - ११५ । इ. सू. विनायोगे द्वितीया । ) विना उर्वी गुर्वी उर्वी पृथ्वी अनृणां न विद्यते ऋणं यस्या यस्यां वा सा तां ऋणरहितामाधातु - कर्तुं यतेत उपक्रमेत ॥ ६१ ॥ तस्मान्मनागागमयख काल-मतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धेः । इत्युक्तवास्त्यक्तमनस्तरङ्गः, क्षणं समाधत्त स मेघिरेशः ॥ ६२ ॥ ( व्या० ) तस्मादिति । तस्मात् कारणात् हे प्रिये मनाकू स्तोकं कालं आगमयस्व प्रतीक्षस्व । अतित्वरा इष्टसिद्धे इष्टस्य सिद्धिस्तस्याः विन्नकरी विघ्नं करोतीत्येवंशीला इति हेतो औत्सुक्यं इष्टसिद्धेर्विनकृत् वर्तते । इति उक्तवान् सन् उवाच इत्युक्तवान् एतावता इत्युक्त्वा स मेधिरेश: मेधा प्रज्ञा अस्ति एषामिति में घिरा : ( मेघारथान्नवेर ७-२-४१ । इ सू. मत्वर्थे मेधाशब्दात् वा इर· । ) प्राज्ञास्तेषामीश भगवान् व्यक्तमनस्तरङ्ग मनसः तरङ्गो व्यापार व्यक्तो मनस्तरङ्गो मनोव्यापारो येन स सन् क्षणं समाधत्त समाधिं दधौ ॥ ६२ ॥ निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं, निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः । निशि प्रसुप्तान्ज मनादिहंसं, सरोऽवहार्षीदलसत्तरङ्गम् ॥ ६३ ॥ ( व्या० ) निमील्येति । स नेता भगवान् निशिरात्रौ प्रसुप्तान् प्रसुप्तानि संकुचितानि अब्जानि कमलानि यस्मिन् तत् सकुचितकमलं । अनादिहंसे नद तीति नादिनः ननादिनोऽनादिनो हंसा यस्मिन् तत् अशब्दायमानहंस अलसतर लसन्तीति लसन्त' न लसन्तोऽलसन्तस्तरङ्गा कल्लोला यस्मिन् तत् अनुलसत्तर एवंविध सर सरोवरं अन्वहार्षीत् सरोवरस्यानुकरणं चकार । किं कृत्वा नेत्रे निमील्य वाचं विनियम्य संवृत्य अखिलकायचेष्टा कायस्य शरीरस्य चेष्टाः अखिलाच ता' कायचेष्टाश्चता समस्तशरीरचेष्टा' निरुध्य ॥ ६३ ॥ स्वप्नानशेषानवधृत्य बुद्धि - बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः । महाधियामूहसभामभीष्टां, निनाय लोकत्रयनायकस्य ॥ ६४ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪) શ્રીનનમાત્તમવાણ્ય મદ્દાાવ્યમ્ દીાનમ ંતમ્ સર્ગઃ૮ I ( व्या०) स्वप्नानिति । मनोवेत्रवरः मन एवं वेत्रधरः मनःप्रतीहारः अशेषान् न शेषा अशेषास्तान् समस्तान् स्वप्नान् बुद्धिवाहा वुद्धिरेव बाहुस्तया अवधृत्य लोकत्रयनायकस्य लोकानां त्रयस्य नायक स्वामी तस्य श्रीयुगादीशस्य अभीष्टां प्रियां ऊहसभां ऊहस्तर्कः स एव सभा तां विचारसभां निनायनीतवान् । किंविशिष्टो मनोवेधर महाधियां महती घोर्येषां ते महाधियस्तेषां महाबुद्धीनां पुरोग. पुरो गच्छतीति पुरोगः ( नाम्नो गम खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५-१-१३१ । इ. सू. पुरस्पूर्वक गम्धातोः डः डित्वात् अन्त्यस्वरादेर्लोपः । ) अग्रेसरः ॥ ६४ ॥ अस्ताज्ञताधारविचारवार्धि, ज्ञानाञ्जनोभिदृशावगाह्य | चित्तेन नेतुः स्फुट धीवरेण समर्पितास्तत्फलयुक्तिमुक्ताः ॥ ६५ ॥ ( व्या० ) अस्त इति । चित्तेन तत्फलयुक्तिमुक्ता तेषां स्वप्नानां फलानि तेषां युक्तय एव मुक्ता मुक्ताफलानि नेनु श्रीषमस्वामिनः समर्पिताः । किंविशिष्टेन चित्तेन स्फुटघीवरेण । धीवरो बुद्धिमान् मात्स्यिकश्च स्फुटश्चासौ धीवरच बुद्धिमांश्च तेन बुद्धिप्रधानेन पक्षे धीवरेण ( ध्यायति मत्स्यघातं इति धीवरः । तीवर धीवर पीवर - य: ४४४ । इ. उ. सू. निपात 1 ) मात्स्यिकेन । पुनः જ્ઞાનાનો દ્વાદશ જ્ઞાનમેવ અન્નને તેન ચંદ્રા દ યસ્ય તેન જ્ઞાનપાનેન विकस्चरलोचनेन । अस्ताघताधारविचारवाधिं अस्तं अधं पापं येन स अस्तावस्तस्य भाव. अस्ताघता निष्पापता पक्षे अस्ताघता गंभीरत्वं तस्या आधारो यो विचारस्तस्य वार्षिः समुद्रः तमवगाह्य यथा अञ्जनोनिशा घोवरेण समुद्रमवगाह्य मौक्तिकानि नेतुः स्वामिनः समर्थन्ते ॥ ६५ ॥ तद्भूईर्षामृतरसभरः किं शिरासारणीभिः, स्वान्तानूपाधुगपदसृपत्क्षेत्र देशेऽखिलेऽस्य । लोकत्रातुः कथमितरथा लोमबर्हिः प्ररोहैः, सद्यस्तत्रोल्लसितमसि तच्छायसूक्ष्माग्रभागैः ॥ ६६ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીનેનમા લક્ષ્મવાસ્થ્ય મદાાવ્યમ્ દીાલમ ંદ્યુતમ્ ॥ લર્નઃ ૮ (૨૦૧ I (०या० ) तदिति । तद्भूः तेभ्यः स्वप्नेभ्यो भवतीति तद्भूः स्वप्नसमुत्पन्नः हर्षामृतरसभरः हर्ष एवं अमृतस्य रसस्तस्य भर अस्य लोकत्रातु लोकानां त्राता तस्य त्रिभुवनपालकस्य भगवत' स्वान्तानूपात् स्वान्तं चित्तमेव अनूप ( अनोर्देशे उप् । ३-२-११० । इ. सू. अनो. परस्य अपो देशेऽर्थे उप् ।) सजलप्रदेशस्तस्मात् शिरासारणीभिः शिरा एव सारण्यः प्रणाल्यस्ताभिः अखिले समस्ते क्षेत्र प्रदेशे क्षेत्रस्य शरोरस्य प्रदेशे युगपत् समकालं असृपत् प्रासरत् । इतरथा तत्र क्षेत्र प्रदेशे सद्यस्तत्कालं कथं लोमबर्हि प्ररोह: लोमानि एवं बर्हिषो -दर्भाः तेषां प्ररोहा अड्कुरास्तैः लोमरूपदमकुरे उल्लसितम् । किंलक्षणैः लोमबहिः प्ररोहै' असिता कृष्णा छाया कान्तिर्येषां ते असितच्छाया सूक्ष्गाश्वते अग्रभागाश्च सूक्ष्माग्रभागा· असितच्छायाः सूक्ष्माग्रभागा येषां तै. ॥ ६६ ॥ युग्ममुल्लसितमुच्छ्वसितां तनुं च, चश्चन्मतिद्रढिमधाम सुमङ्गला सा। दृष्ट्वाद्भुतं वरपितुर्वचनं विनापि, स्वप्नान्महाफलतयान्वमिमीत सर्वान् ६७ (०या० ) दृगिति । सा सुमङ्गला वरयितु श्री ऋषभदेवस्य वचनं (विना ते तृतीया च । २-२-११५ । इ. सू. विनायोगे वचनं इत्यत्र द्वितीया । ) विनापि दृग्युग्मं दृशोर्नेत्रयोर्युग्मं युगलं उल्लसितं दृष्ट्वा च तनुं शरीरमुच्छ्वसितां दृष्ट्वा सर्वान् स्वप्नान् महाफलतया महत् च तत् फल च तस्य भावो महाफलता तया अन्वमिमीत अनुमानेन ज्ञातवती । किंविशिष्टा सुमङ्गला चश्ञ्चन्मति दृढिमधाप चञ्चन्ती चासौ मतिश्च चञ्चन्मतिः प्रसरन्मति तस्था द्रढिमा (वर्णदृदादिभ्यष्टयण् च वा । ७- १ - ५९ । इ. सू. भावे दृढशब्दात् इमन् । त्र्यन्तस्वरादे । ७-४-४३। इ सू. अन्त्यस्वरलोपः । दृढस्य भावो द्रढिमा ) दृढता तस्य धाम स्थानम् ॥ ६७ ॥ 1 sia सा स्वामिनो मौनमुद्रा - भेदं वृष्णालुर्वाक्सुधायास्तथापि । धनोत्कंठां गर्जिते के किनी किं, मेघस्योन्नत्या ज्ञातवर्षागमापि ॥ ६८॥ इतिश्री अञ्चल गच्छेशश्रीजय शेखरसूरिविरचिते श्रीजैन कुमारसंभवमहाकाव्ये चतुर्दशमहास्वनावधारणावर्णनो नामाष्टमः सर्गः समाप्तः ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ८ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गों जैनकुमारसंभवमहाकाव्येऽष्टमोऽयं गतः ॥ ७ ॥ ( व्या० ) ईहां चक्रे इति । सा सुभङ्गला तथापि स्वामिनः श्री ऋषभदेव - स्य मौनमुद्रा भेदं मौनस्य मुद्राया भेदं ईहांचक्रे वाञ्छितवती । किंलक्षणा सुमङ्गला वाक्सुधाया· वाकू एव सुधा तस्याः वचनामृतस्य तृष्णालु तृष्णा अस्ति अस्था इति तृषार्ता मेघस्य उन्नत्या ज्ञातवर्षागमापि ज्ञातो वर्षागमो यया सा के किनी मयूरी गर्जिते उत्कंठां किं न धत्ते अपि तु धत्ते ॥ ६८ ॥ इतिश्री मदच्छीयञ्चलगच्छेकवि चक्रवर्त्तिश्री जयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्य श्रीधर्मशेखर महोपाध्यायविरचिताया टीकाया श्रीमाणिक्य सुन्दरशोधिताया अष्टम सर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ८ ॥ 1 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनामारसम्भवाल्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग.९ (२७७ ॥ अथ नवमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः-सुधारसस्वादनसादरश्रुतिः। गिरा गभीरस्फुटवर्णया जग-त्रयस्य भी जगदे सुमङ्गला ॥१॥ (व्या०) तदेति। तदा तस्मिन्नवसरे जगत्रयस्य जगतां त्रयं तस्य भर्ना श्रीयुगादीश्वरेण सुमङ्गला गिरा पाण्या जगदे जालिता। किलक्षणया गिरा गभीरस्फुस्वर्णया गभीराश्च स्फुटाश्च प्रकटा वर्णा अक्षराणि यस्यां सा तया प्रकटाक्षरया । किंविशिष्टा सुमङ्गला तदास्येन्दुसमुल्लसचसुधारसस्वादनसादरश्रुतिः तस्य भगवतः आस्थं मुखमेव इन्दुश्चन्द्र तस्मात् समुल्लसत् निर्गच्छत् वचः वचनमेव सुधाया-अमृतस्य रसः तस्य आस्वादस्तस्मिन् सादरे आदरसहित श्रुतो कर्णी यस्याः सा ॥ १ ॥ जुडजडिमा जडभक्ष्यभोजना-दनाश्तस्थानशयेन जन्तुना । विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्-विचारणं स्वामभरो न सोऽहति ॥२॥ __(व्या०) जडेति । हे सुमङ्गले जुज्जडिना जडस्य भावो जडिमा (वर्ण६ढादिभ्यष्टयण च वा ७-१-५९ इ. सू. जडशब्दात् भावे इमन् प्रत्ययः ।) जुडंश्चासौ जडिमा च तेन मिलनाडयेन । जडभक्ष्यभोजनात् जडं च तत् भदयं च.जडभन्यं तस्य भोजनात शोतलाहारभोजनात् । अनावृतस्थानशयेन न आवृतमनावृतं अनाच्छादितं अनावृतं च तत् स्थानं च तस्मिन् गेते इति अनावृत्तस्थानशयस्तेन एवंविधजंतुना मानवेन य. स्वप्नभर• स्वप्नानां भरः विलोक्यते दृश्यते । स वनभरः स्वप्नसमूहो विकलप्रचारवत् विकलस्य प्रथिलस्य प्रचारोगमन विकलप्रचार स इव विकलप्रचारवत् ग्रथिलामनवत् विचारणं नार्हति विचार कर्तुं योग्यो न स्यात् ॥ २ ॥ निभालय त्यालयगोऽपि यं प्रिये-ऽनुभूतदृष्टश्रुतचिन्तितार्थतः । नरो निशि स्वप्नमबद्धमानसो, न सोऽपि पंक्ति फलिनस पश्यति॥३॥ (व्या०) निभालयतीति । हे प्रिये अबदमानस न बद्ध अबद्धं मानसं Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८) श्रीजैनकुमारसम्भवाल्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग:९ यस्य सः असंवृतचित्तो नरो मनुष्य: आलयगोऽपि आलयं गच्छतीति आलयगः गृहे स्थितोऽपि सन् अनुभूतदृष्टश्रुतचिन्तितार्थतः अनुभूतश्च दृष्टश्च श्रुतश्च चिन्तितश्च अनुभूतदृष्टश्रुतचिन्तिताः ते च ते अर्थाश्च तेभ्य इति निशि रात्रौ यं स्वानं निभालयति पश्यति । सोऽपि स्वप्न फलिन ( फलबह चेन. । ७-२-१३ । इ. सू. मत्वर्थे फलशब्दात् इन प्रत्यय 1) फलमस्यास्तीति फलिनः तस्य पक्ति न पश्यति ॥ ३ ॥ नरस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं, तनोति यस्तस्य फलं किमुच्यते । विमुच्यते सोऽपि विचारतःपृथ-ग्गतः प्रथां यो मलमूत्रबाधया ॥४॥ (व्या०) नरस्येति । यः स्वप्न: नरस्य मनुष्यस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं दर्शनस्योत्सवं तनोतिं करोति । तस्य स्वप्नस्य फलं किमुच्यते किं कथ्यते न किमपीति । य. स्वप्न: मलमूत्रबाधया मलश्च भूत्रंच मलमूत्रे तयोधिया पीडया प्रथां विस्तारं गतः सोऽपि स्वप्न: विचारतः विचारात् पृथग् विमुच्यते विचारात् अन्यत्र , कियते अर्थात् तादृशानां स्वप्नानां फलं नास्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥ मनाक् समुत्पाद्य शोनिमीलनं, सुख निषण्णे शयितेऽथवा नरे । प्रवति यत्स्वमभिषेण देवता, वितायते तस्य विचारणा बुधैः ॥ ५ ॥ (व्या०) मनागिति । हे प्रिये नरे मनुष्य सुख निषण्णे सुखेन उपविष्टे सति अथवा शयिते दृशोलोचनयोर्मनाक स्तोकतर निमीलनं समुत्पाद्य स्वप्नमिपेण देवता यत् प्रवक्ति । वुधैर्विद्भिस्तस्य विचारणा चिन्तनं वितायते (तन: क्ये ४-२-६३ । इ. सू. क्ये परे तन् धातो. आवं वा ।) क्रियते ॥ ५ ॥ अधर्मधर्माधिकतानिवन्धनं, यमीक्षते स्वममपुष्कलं जनः । वदन्ति वैभातिकमेघगर्जिव-न्न मोघतादोषपदं तमुत्तमाः ॥६॥ (व्या०) अधर्म इति । हे प्रिये जनो लोकः अपुष्कलं न पुष्कलं अपुकलं तत् स्तोकं अवर्मधर्माधिकतानिबन्धनं अधर्मश्च धर्मश्च अधर्मधर्मी तयोरधिकता आधिक्यं सैव निबन्धनं कारण यस्य त एवविध यं स्वप्नं ईक्षते पश्यति । उत्तमाः सत्पुरुपास्तं स्वप्नं वैभातिकमेवानिवत् विभाते प्रभाते भवो वैभातिक स चासो Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीफासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२७९ मेवश्च तस्य प्रभातसत्क्रमेघस्य गर्जिः गर्जारवः तस्या गर्जेस्तुल्यं गर्जिवत् मोघतादोपपदं मोवस्य भावो मोघता निष्फलता सैव दोप निष्फलता दोषस्तस्य पदं स्थानं न वदन्ति । कोऽर्थः यथा प्रभातसत्क मेघगर्जितं निष्फलं नैव स्यात् तथा सोऽपि स्वप्न सफल एवं स्यात् ॥ ६ ॥ त्वमा द्विनिवीसभाञ्जनं, सभाजनं सिश्चसि मे वचोऽमृतेः । सभाजनं यत्तव तन्वते सुरा, विभासि तत्पुण्यविलासभाजनम् ॥७॥ (= या० ) त्वमिति । हे प्रिये त्वं वचोमृतै वचांसि वचनान्येव अमृतानि तैः मे मम सभाजनं सभाया जनस्तं सभासत्कलोकं सिञ्चसि । किंलक्षणं सभाजनं आदृतद्विनिविरीसभाजनं आहतं द्विषां वैरिणां निविरीसायाः ( विडविरीसौ नीरन्प्रे च ७-१-१२९ इ. सू. ने नरन्द्रेऽर्थे विरीस प्रत्ययः । ) निबिडायाः भाया प्रभाया अञ्जनं क्षेपणं येन तं आहतद्विड्० । सुरा देवास्तव यत् सभाजन मापृच्छनं तन्वते कुर्वते तत् तस्मात्कारणात् पुण्यविलासभाजनं पुण्यस्य विलासरतस्य भाजनं पात्रं त्वं विभासि शोभसे ॥ ७ ॥ कुलं कलङ्केन न जातु पङ्किलं न दुष्कृतस्याभिमुखी च शेमुषी । गिरः शरच्चन्द्रकरानुकारिका, गतं सतंद्रीकृत हंसवल्लभम् ॥ ८ ॥ निरर्गलं मङ्गलमङ्गसौष्ठवं वदावदीभूत विचक्षणा गुणाः । इदं समयं सुकृतैः पुराकृतै, ध्रुवं कृतज्ञे तव ढौकनीकृतम् ||९|| युग्मम् ( व्या० ) कुलमिति । हे कृतज्ञे कृतं जानातीति कृतज्ञा तस्याः संबोधने हे कृतज्ञे ध्रुवं निश्चितं तव पुराकृतैः पूर्वभवकृतैः सुकृतैः शोभनानि कृतानि तैः पुण्यै . इदं समयं ढौकनीकृतं न ढौकनं अढौकनं अढौकनं ढौकनं कृतमिति ढौकनीकृतमुपदीक्रियते स्म । इदं किमिति तवकुलं कलङ्केन जातु कदाचिदपि न पलिं ( श्रीार्थ तुदादेरिलश्च ७ - २ ९ इ. सू मत्वर्थे पङ्कशब्दात् इल प्रत्यय 1 ) न कलुषं वर्तते । च अन्यत् तव शेमुषी बुद्धि दुष्कृतस्य दुष्ट कृतं दुष्कृतं तस्य पापस्य अभिमुखी संमुखी न स्यात् । तव गिरो वाण्य' शरच्चन्द्रकरानुकारिकाः शरदः चन्द्रस्तस्य करास्तान् अनुकुर्वन्तीति शारद चन्द्रकिरणानुकारिण्यो वर्तन्ते । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०) श्रीजेनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः९ तव गतं गमनं सतन्द्रीकृतहंसवल्लभं सतन्द्रीकृताः अलसीकृता: हंसानां वल्लभा हंस्यो येन तत् वर्तते । तव अङ्गसौष्ठवं अङ्गे सौष्ठवं (सुष्टु भाव. सौष्ठवं युवादेरण ७-१-६७ । इ. सू. सुष्टु शब्दात् भावे अण् । ) शरीरपाटवं निरंगलं निर्गता अगला बंधनं यस्य तत् अर्गलारहितं मङ्गलं वर्तते । तव गुणा माधुर्योदार्यादयः पदावदीमतविचक्षणा वदन्तीति वदावदा (चराचर चलाचल पतापत पदावद घनाधन पाट्पट वा । ४-१-१३ । इ. सू. अच् प्रत्ययान्तो पदावद शब्दो निपात्येति । ) वाचाला न पदावदा अवदावदा. अवदापदावदावदाता इति पदावदीभता. वाचालीभता ते च ते विचक्षणाश्च कवीश्वराः वाचालीभतकवीश्वरा वर्तन्ते ॥ ८ ॥ ९ ॥ युग्मम् ॥ न कोऽधिकोत्साहमना धनार्जन, जनेषु को वा न हि भोगलोलुपः । कुतः पुनः प्राक्तनपुण्यसंपदं, विना लता वृष्टिमिवेष्टसिद्धयः ॥१०॥ __(व्या०) नेति हे प्रिये कापुमान् जनेषु लोकेपु धनार्जने धनानामर्जन तस्मिन् धनोपार्जने अधिकोत्साहमनाः अधिकउत्साहो यस्य तत् अधिकोत्साह अधिकोत्साहं मनो यस्य सः अधिकोत्साहमनाः अधिकतरोधमचित्तो न स्यात् अपि तु स्यादेव हि निश्चितम् । वा अथवा कः पुमान् भोगलोलुपः भोगेषु लोलुपः सुखलम्पटो न स्यात् अपि तु स्यादेव । प्राक्तनपुण्यसम्पदं विना प्राकूभवा प्राक्तनी (सायं चिरं पाहणे प्रोऽययात् ६-३-८८ इ. सू. तनट् प्रत्ययः ।) पुण्यानां सम्पद् पुण्यसम्पद् । पाक्तनी चासौ पुण्यसम्पत् च तां विना पुनकुत इष्टसिद्धयः इष्टानां सिद्धयः स्युः । का इव लता इव पल्ल्य इव यथा लता वाल्यो वृष्टिं विना कुतः स्युः ॥ १० ॥ न जापलक्षरपि यनिरीक्षण, क्षण समश्येत विचक्षणैरपि। सुराङ्गनाः सुन्दरितास्तवक्रम-द्वयस्य दास्यं स्पृहयन्ति पुण्यतः॥११॥ (व्या०) नेति । विचक्षणैरपि बुधैरपि यन्निरीक्षणं यासां सुराङ्गनानां निरीक्षणं दर्शनं जापलभैरपि जापानां लक्षणितैरपि क्षणं न समश्येत न प्राप्येत । अशोट व्याप्तो इति धातो प्रयोगः । हे सुन्दरि ताः सुराङ्गना. तब क्रमद्यस्य Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन कुमारसम्भवाख्य महाकाव्यम् टीफासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२८१ क्रमयोश्चरणयोर्द्वय तस्य पुण्यत पुण्यात् इति पुण्यतः पुण्यप्रभावात् दास्यं स्पृहयन्ति ॥ ११ ॥ न कापथे कंटक कोटिसंकटे, पदेषु कासांचन पादुका अपि । मणिक्षमाचारभवः क्रमक्लमः शमं सुरीभिः सुकृतैस्तवाप्यते ॥१२॥ " ( व्या० ) नेति । हे प्रिये कासांचन स्त्रीणां कंटककोटिसंकटे कंटकानां कोटय. ताभिसंकुले कापये ( गति धन्यस्तत्पुरुष ३-१-४२ इ. सू. तत्पुरुप समास । काक्षपथो ३-२-१३४ इ. सू. पथशब्दे परे को कादेश | ऋक्पू· पश्यपोऽत् ७-३-७६ इम् पथिन् गब्दात् समासान्त अत्प्रत्यय 1 ) कुत्सिथ पन्थाः कापथस्तस्मिन् कुमार्गे पदे५ पादुका अपि न स्यु' । सुरीभिर्देवीभि' तत्र मणिक्षमा चारभव. मणिभिर्निर्मितायां क्षमायां चारात् चलनाद् भवः मणिकुट्टिमचलनात् समुत्पन्नः क्रमक्लमः क्रमयो क्रम पदश्रमः सुकृतैः पुण्यैः शमं उपशान्ति आप्यते प्राप्यते ॥ १२ ॥ बहुत्वतः काश्चन शायिनां वने, कृशे कुशश्रस्तरके शेरते । घुतल्पतूलीष्वपि न प्रिये रतिः सुमच्छदप्रच्छदमन्तरेण ते ॥ १३ ॥ " ( व्या० ) बहु इति । हे प्रिये काश्चन स्त्रियो वने वनमध्ये शायिनां शेरते इति शायिनस्तेषां बहुत्वत' बहुत्वं बहुत्वमिति बहुत्वतो बाहुल्यात् कृशे अल्पे कुशश्रस्तर के कुशानां श्रस्तरस्तस्मिन् दर्भसंस्तार के शेरते स्वपन्ति । हे प्रिये ते I तव चुत पतलीष्वपि दिव स्वर्गम्य तल्प शव्या तस्य तूलिकास्वपि सुमच्छड प्रच्छदं सुमाना पुष्पाणा छदो वस्त्रं तस्य प्रच्छदं उत्तरच्छदं (गौणात् समया निकपा हाधि'गन्तरान्तरेणातियेन तेनै द्वितीया २-२ - ३३ इ. सू अन्तरेणयोगे सुमच्छदप्रच्छद मित्यत्र द्वितीया ।) अन्तरेण विना पुष्पवस्त्रस्य उत्तरच्छदं विना नरतिर्न सुखम् ॥ १३ ॥ कदन्नमप्यात्ममनो विकल्पनै - महारसीकृत्य लिहन्ति काश्चन । चटुक्रियां कारयसि सत्प्रियाः, फलाशने त्वं सुरभूरुहामपि ॥ १४ ॥ ( व्या० ) कदन्नमिति । कश्विन स्त्रिय कदन ( गतिकन्यस्तत्पुरुष ३१-४२ इ. सू तत्पुरुषसमास । को कन्तत्पुरुषे ३-२-१३० इ सू अन्न Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः९ शब्दे परे कोः कदादेशः । ) मपि कुत्सितमन्नं कदन्नं कुत्सितान्नमपि आत्ममनोविकल्पनैः आत्मनो मनांसि तेषां विकल्पनानि तैः महारसीकृत्य महान् रसो यस्मिन् तत् महारसं न महारसं अमहारसं अमहारसं महारसं कृत्वा इति महारसीकृत्य लिहन्ति आस्वादयन्ति । त्वं घुसत्प्रिया दिविसोदन्तीति घुसदो देवास्तेषां प्रियाः देवागनाः सुरभूरुहामपि भुवि रोहन्तीति भूरुहो वृक्षाः सुराणां देवानां भूरुहस्तेषां कल्पवृक्षाणामपि फलाशने फलानामशनं भोजनं तस्मिन् फलाहारे चटुक्रियां चटूनां क्रिया तां चाटुवचनानि कायसि ॥ १४ ॥ विनाश्रयं संततदुःखिता ध्रुवं, स्तुवन्ति काश्चित् सुगृहाः पतत्रिणीः । विमानमानच्छिदि धानि लीलया, त्वमिद्धपुण्ये पुनरपमरायसे ।।१५ (व्या०) विनेति । हे प्रिये काश्चित् स्त्रिया आश्रयं गृहं विना संततदु:खिताः संततं दुःखिताः सत्यः ध्रुवं निश्चितं सुमहाः शोभनं गृहं यासांता सुरहारव्याः पतत्रिणी. पक्षिणी स्तुवन्ति । हे इद्धपुण्ये इदं पुण्यं यस्याः सा तस्या. संबोधनं हे समृद्धपुण्ये त्वं विमानमानच्छिदि विमानस्य मानं छिनत्तीति तस्मिन् विमानमानच्छेदिनि धाम्नि गृहे लीलया अप्सरायसे ( ओजोऽप्सरस ३-४-२८ इ. सू. अप्सरसूशब्दात् वा क्यड् सस्य लुक् च । ) अप्सरस इव आचरसि अप्सरायसे देवाङ्गनावदाचरसि ॥ १५ ॥ अखंड यन्त्या स्वसदाथिति मदा, गतागतं ते सदने वितन्वती। *तीयते कि सुकृताश्चिते शची, तुलां त्वथा स्थानमधर्मकं त्रिता ॥१६ (व्या०) अखंडयन्त्येति । हे सुकृताश्चिते सुकृतेन पुण्येन अश्चिता युक्ता सुकृताश्चिता तस्या संबोधनं हे सुकृताश्चिते हे पुण्ययुक्त शची इन्द्राणो त्वया तुला सादृश्यं कि *तीयते ( ऋतीडीय ३-४-३ इ. सू. ऋतिधातोः स्वार्थे डोयः डिचात् आत्मनेपदम् ।) गच्छति अपितु न गच्छति । किं लक्षणा शची अधम्भकं स्थानं देवलोकं श्रिता आश्रिता पुन किं कुर्वतो ते तव सदने गृहे सदा ( सदाधुनेदानोंतदानोमेतर्हि ७-२-९६ इ. सू. सदा निपात्यते । ) सर्वदा गतागतं गतं च आगतं च एतयोः समाहारः गतागतं तत् गमनागमनं वित Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैन कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२८३ 살 वती वितनोतीति वितन्वती कुर्वती । किंविशिष्टया त्वया स्वसद स्थिति स्वस्थात्मन: सदो गृहं तस्य स्थितिस्तां स्वस्थानकस्थिति अखंडयन्त्या न खंडयन्तीअखडयन्ती तथा ॥ १६ ॥ प्रदोषा करनाम्नि निर्भरं, कलङ्किनीन्दौ महिषीत्वभीयुषीम् । तमः समुत्पन्नरुचि कृतीनरो, न रोहिणीमप्युपमित्सति त्वया ॥ १७॥ ( व्या० ) प्ररुट इति । हे प्रिये कृती कृतमनेनेति कृती ( इष्टादेः ७१-१६८ इ. सू. कृत शब्दात् कर्तरि इन् । ) विचक्षणो नरः पुमान् त्वया रोहिणीमपि न उपमित्सति ( मिमीमादा मित्स्वरस्य ४-९-२० इ. सू. स्वरस्य इत् न च द्विः । ) उपमातुमिच्छति । किं विशिष्टां रोहिणीं तम समुत्पन्नरुचि -तम सु अंधकारेषु पापेषु वा समुत्पन्ना रुचि कान्तिरभिलाषो वा यस्या: सा तां 'पुन इन्दौ चन्द्रे महिषोत्वं महिष्या भावो महीत्वं पट्टराज्ञीत्वं ईयुषी इयाय इति ईयुषी प्राप्तवती किंलक्षणे इन्दौ प्ररूढदोपा करनाम्नि दोषाणामाकरः दोषाकरः पक्षे दोषा रात्रिं करोतीति दोषाकर दोषाकर ( सङ्ख्याह दिवाविभा - ट ५-११०२ । इ. सू. दोषापूर्वक कृग् घातो. ट । ) इति नाम दोषाकरनाम प्ररूढं दोषा करनाम यस्य स तस्मिन् पुनः निर्भरमत्यर्थं कलङ्किनि कलङ्कोऽस्यास्तीति कलङ्की तस्मिन् ॥ १७ ॥ कुतः प्रकर्षं समतामपि त्वया न सङ्गता श्रीरपि रूपवैभवः । स्वकं शकुन्त्याः सदृशं नभोगता-गुणं वृणं जल्पति खेचराङ्गना ||१८|| ( व्या० ) कुन इति । हे प्रिये प्रकर्ष कुत श्री लक्ष्मीः अपि रूपवैभवैः रूपस्य वैभवास्तैः रूपद्रव्यै त्वया सह समतां अपि समस्य भाव समता तां तुल्यतामपि न सङ्गता न प्राप्ता । तु प्रकर्षमतिशयं कुत न कथमपि । खेचरागना खेचरतीति खेचर' ( अद्वयञ्जनात् सप्तम्या बहुलम् ३-२-१८ इ. सू. सप्तम्या अलुक् । चरेष्टः ५-१-१३८ इ. सू. चरघातो टप्रत्ययः । ) विद्याधरस्तस्य अङ्गना भार्या विद्याधरत्री स्वकं आत्मानं शकुन्त्याः पक्षिण्याः सदृशं न भोगतागुणं नमः गच्छतीति नभोग नभोगस्य भाव नभोगता नभोगतायाः गुण' न भोगतागुणस्तं आकाशचारित्वगुणं तृण जल्पति ॥ १८ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २८४) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ निजै द्विजिह्वप्रियतादिदूषणै, र्हियेव मुश्चन्ति न जातु या विलम् । अनाविलं ते चरितं विषानना, न नागकन्या अनिशं स्पृशन्ति ताः । ( व्या० ) निर्जेरिति । हे प्रिये या नागकन्याः निजैरात्मीयैः द्विजिह्वप्रियतादिदूषणैः द्वे जिह्वे येषां ते द्विजिह्वाः सर्पाः खला वा तेषां प्रियता तद भोष्टत्वं सा आदिर्येषां तानि तान्येव दूषणानि तैः दोषैः जातु कदाचिदपि बिल पातालं न मुञ्चन्ति । उत्प्रेक्षते हियेव लज्जया इव । हे प्रिये ता विषानना विषमानने मुखे यासां ता विषानना विषमुख्य नागकन्याः नागानां कन्या. अनिशंनिरन्तरं अनाविलं न विद्यते आविलो दोषो यस्मिन् तत् अनाविलं तत् निर्मल ते तव चरितं न स्पृशन्ति ॥ १९ ॥ नवोदयं संगतया रयात्त्वया, ततोऽतिशिश्ये त्रिजगद्वधूजनः । तमो लाल्लब्धभवः परः प्रभा - भरः स्वधर्मैस्तरणेरिव त्विषा ||२०|| ( व्या० ) नवोदयमिति । हे प्रिये ततस्तस्मात्कारणात् त्रिजगद्वघूजन: त्रयाणां जगतां समाहार त्रिजगत् तस्य वध्वस्तासां जनः स्वर्गमर्त्यपातालसत्कस्त्रीजनः त्वया अतिशिश्ये अतिक्रान्त' । किंविशिष्टया त्वया स्वधर्मे स्वस्य धर्मास्तै स्वधर्मैः आत्मपुण्ये नवोदयं नवश्वासौ उदयश्च तं नवीनोदयं सङ्गतया प्राप्तवत्या । कयेव तरणे' सूर्यस्य त्विया इव यथा सूर्यस्य त्विषा कान्त्या तमोबलात् तमसां बलं तस्मात् लब्धभव लब्धो भवो येन सः परोऽन्य प्रभाभरः प्रभाणां भरः समूह' कान्तिसमूह स्वयम् स्वकिरणैः अतिशय्यते अतिक्रम्यते ॥ त्वयेक्षितः स्वप्नगुणो गुणोज्ज्वलो, न जायते जात्यमणिर्यथा वृथा । पुनः प्रकल्प्या कथमल्पबुद्धिभि- विचारणा तस्य विचक्षणोचिता ॥ २१ (duro) caufa lè fua caur ŝfadì eeì gnìwaz: Jolewacìगुणोज्ज्वल स्वप्नगणः स्वमानां गणः स्वप्नसमूह वृथानिष्फलो न जायते । यथा जात्यमणि वृथा न जायते । यथा इवार्थे । पुनः परं अल्पबुद्धिभिः अल्पा बुद्धिर्येषां ते अल्पवुद्र्यस्तै' मन्दबुद्धिभिः मन्दप्र विचक्षणोचिता विचक्षणानां विदुषां उचिता योग्या विद्वज्जनयोग्या तस्य स्वमगणस्य विचारणा कथं प्रकल्प्या स्यात् ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनामारसम्भवाल्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ९ (२८५ मृगाक्षि वल्लीव धनाधनोदका-द्भवत्यतः स्वमभरान्नवा रमा । प्रयाति गर्भानुगुणात्प्रथां पुनः, पुरोदिता सा सरसीकृताश्रयात् ॥२२॥ (व्या०) मृगाक्षि इति । हे मृगाक्षि मृगस्य अक्षिणी इव अक्षिणी लोचने यस्या सा मृगाक्षी तत्सबोधनं हे मृगाक्षि हे मृगलोचने अतोऽस्मात् स्वप्नभरात् स्वमानां भरस्तस्मात् स्वमसमूहात् नवा नवीना रमा लक्ष्मीर्भवति । पुनः पुरोदिता पूर्वमुदिता सा रमा प्रथां विस्तारं प्रयाति । किविशिष्टात् स्वप्नभरति घनावनोदकात् वनं च तत् अधं च पापं घनाधं तत् नुदति स्फोटयति इति घनाधनोदकस्तस्मात पुन गर्भानुगुणात् गर्भम्य अनुगुणः सदृश तस्मात् गर्भसात् । यदि उत्तमो गर्भस्तदा स्वप्ना अपि उत्तमाः स्युरिति । पुन सरसीकृताश्रयात् रसेन सह वर्तते इति सरस न सरस असरस असरस' सरसः कृत इति सरसीकृत' सरसीकृत. आश्रयो येनस सरसीकृताश्रयस्तस्मात् । केव वल्लीव यथा पल्लो घनाघनोदकात् घनाघनस्य ( चराचरचलाचलपतापतवदावदधनाधन पापट वा ४-१-१३ । इ सू. धनाधनशब्दो निपात्यते ) मेघस्य उदकं जलं तस्मात् मेघजलात नवा भवति पुरोदिता सा वल्ली प्रथां विस्तार प्रयाति । किविशिष्टात् घनाधनोदकात गर्भानुगुणात अभ्रविद्युत हिमानि गभस्तेषामनुगुणात् सदृशात् यादृशा गर्भास्तादृशी वृष्टि स्यात् । पुन सरसीकृताश्रयात् सरस्यां सरोवरे कृत आश्रय स्थान येन तत् तस्मात् ॥ २२ ॥ अनेन सर्वस्वजनाकुले कुले-नवा नवासं विदधत्यही गदाः। पुरातना अप्युपयान्ति ते शमं, रसायनेनेव विदोषधीभुवा ॥ २३ ॥ (व्या०) अनेनेति । हे प्रिये अहो इत्याश्चर्ये अनेन स्वप्नभरेण सर्वस्वजनाकुले स्वम्य जना स्वजनाः सर्वे च ते स्वजनाच तैगकुलं व्याप्तं तस्मिन् कुले नवा नूतना गदा रोगा वासं स्थानं न विदधति न कुर्वन्ति । पुरातना अपि पुरा भवा पुरातना ( सायश्चिप्राणेप्रगेऽध्ययात् ६-३-८८ । इ. मू. पुग इति अव्ययात् नित्यं तनट् प्रत्यय ।) चिरंतना अपि ते गदा रोगा शमं शातिमुपयान्ति । किंविशिष्टेन स्वप्नभरेग विदोषधीभुवा विगता ढोपा यस्या सा Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः९ विदोषा निर्दोषा विदोषा चासो धोश्च विदोषधी तम्या भवतीति तेन विदोषधीभुवा । केनेव रसायनेनेव यथा रसायनेन नवा गदा रोगा वासं स्थितिं न कुर्वन्ति पुरातना अपि गदा. शमं यान्ति । किंविशिष्टन रसायनेन विदोषधीभुवा वित च ज्ञान ओषध्यश्च विदोपध्यस्ताभ्यो भवतीति तेन विदोषभुवा ॥ २३ ॥ दिनोदयेनेव हते सुसंहते-ऽमुना धनारिष्टतमिस्रमण्डले । कुले विलास कमलावदुत्पले, करोति पुण्यप्रभवा शिवावली ॥ २४॥ (व्या०) दिन इति । अमुना स्वप्नभरेग सुसंहते सुष्टु संहतं मिलित तस्मिन् अत्यर्थ मिलिते धनं च तत् अरिष्टं च धनारिष्टं निचितं अरिष्टं पापं तमित्राणामन्धकाराणां मण्डलं घनारिष्टमेव तमित्रमण्डलं तस्मिन् धनारिष्टरूपअन्धकारसमूहे हते सति पुण्यप्रभवा पुण्यं प्रभवः (प्रभवति अस्मात् इति प्रभव । युवर्णदेवशरणगमृद्ग्रह । ५-३-२८ । इ. मू प्रपूर्वक भूधातोरल ।) कारणं यस्याः सा पुण्योत्पन्ना शिवावलो शिवाना मङ्गलानामावली श्रेणि मङ्गलश्रेणिः कुले विलासं करोति । किंवत् कमलावत् ( स्यादेग्वेि ७-१-५२ इ. सू. कमलाशब्दात् सादृश्येऽर्थे वत् प्रत्यय ।) कमला इव कमलावत् लक्ष्मीवत् । केनेव दिनोदयेनेव दिनस्य उदयो दिनोदयस्तेन यथा दिनोदयेन घनारिष्टतमिस्रमण्डले घनश्च मेव अरिष्ट च रत्नं घनारिप्टे तमित्राणामन्धकागगा मण्डलं घनारिष्टे इव तमिस्त्रमण्लं तस्मिन् धनवत अरिष्टवत् कृष्णान्धकारसमूहे हते सति कमला लक्ष्मी: उत्पले कमले वासं निवास करोति ॥ २४ ॥ अबालभाविश्रुत सौख्यदायिनी, वृथा विभूतिर्विभुता च यां विना । अयं हि तां वर्धयितुं निशान्तरुक, धृति मतिं ब्राह्ममुहूर्तवत्प्रभुः ॥२५॥ (व्या०) अबाल इति । विभूतिलक्ष्मी विभुता प्रभुत्व यां धृति मतिं (विना ते तृतीया च २-२-११५ । इ. न्यू बिनायागे धृति मतिमित्यत्र द्वितीया।) विना वृथा निफठा स्यात् । किंलक्षणां वृति अबालभाविश्रुतसौख्यदायिनी अत्राला चापौ भा च प्रौढा प्रभा तया विश्रुतं विख्यातं यत् सौख्यं तद् ददातीति । किंल्पां मतिं अबालभविश्रुनयोख्यदायिनी (अनाने शीले ५-१-१५४ । इ. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवाव्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ९ (२८७ सू. सौख्य पूर्वकद्राधातोः शीलेऽर्थे णिन् । आत ऐकुञ्ज ४-३ - ५३ इ. सू. ऐ. एदैनोऽया १-२-२३ । इ. सू. आयादेग । स्त्रियां नृतोऽस्वत्रादेर्डी. २-१-१ । इ. स् नान्तत्वात् त्रियां डीः । ) न बाला अवाला पण्डितास्तेषु भवतीत्येवं शीलं अचालभावि तच्च तत् श्रुतं च शास्त्रं तस्यसौ ख्यं छात्रो ताम् । अयं स्वप्नभर हि निश्चितं तां धृतिं मतिं वर्धयितुं प्रभु समर्थ स्यात् । किंवत् ब्राह्ममुहूर्तच ब्राह्ममुहूर्त इव यथा ब्राह्ममुहूर्त धृतिं सन धिं मतिं बुद्धिं वर्द्धयितुं प्रभु समर्थ' स्यात् । किंविशिष्ट. स्वप्नभर ब्राह्ममुहूर्त निशान्तरुक् नितरां - शान्ता रागा यस्मात् स निशान्तरुक् पक्षे निशाया रात्रेरन्ते अवसाने रोचते इति निशान्तरुक् ॥ २५ ॥ जनानुरागं जनयन्नयं नवं धुवोदयप्राभवदानलग्नकः । यदन्यदप्यत्र मनोहरं तद- प्यनेन जानीहि पुरः स्फुरत् प्रिये ॥ २६ ॥ ( व्या० ) जन इति है प्रिये अयं स्वप्नभर ध्रुवोदय प्राभवदानलप्रकः ध्रुवो निश्चित उदयो यस्य स ध्रुवोदय स चासौ प्राभवश्च स्वामित्वं ध्रुवोदयप्राभवस्वस्थ दाने लग्नक प्रतिभूवर्तते । किं कुर्वन् अयं नवं नवीनं जनानुरागं जनानामनुगग स्नेहस्तं जनयन् जनयतीति जनयन् उत्पादयन् । यत् अन्यदपि अत्र त्रिजगति विश्वे मनोहरं (हृगोवयोऽनुद्यमे ५ - १ - ९५ । इ सू अनुद्यमे मन कर्मण' परान् हृग्वातोरच् प्रत्ययः नामिनोगुणोऽति ४-३ - १ इ. सू. गुण । वस्तु तदपि अनेन स्वप्नभरेण पुरोऽग्रे स्फुरत् देदीप्यमानं जानीहि || २६ || यदिष्यते हन्त शुभान्निमित्ततः पुरापि तद्वस्तु ममस्तमस्ति मे । भवन्नशीतांशुमद्दोमहोज्ज्वले, दिनेन दीपः परभागमृच्छति ॥ २७ ॥ असाव सामान्यगुणैकभूरिति त्वया विशालाक्षि वृथा न चिन्त्यताम् । फलं यदग्र्यं तदथ ब्रवीमि ते, मितेः परां कोटिमियसंमदः ||२८|| ( व्या० ) यदिति । हे प्रिये हन्त इति वितर्के शुभात् निमित्तत निमिचात् इति निमित्तत शुभनिमित्तहेतो यदिष्यते वाञ्छयते तत् समस्तं वस्तु पुरापि अग्रेपि मे ममास्ति । अशीतांशु महो महोज्ज्वले न शीता अशीता अशीता ' , Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीसमलंकृतम् ॥ सर्ग:९ अंशको यस्य स अशीतांशुः अशीतांगोः सूर्यस्य महसा तेजसा महत् च तत् उज्वलं च तस्मिन् अगीतांशुमहोमहोपले सूर्यस्य तेजसा देदीप्यमाने दिने दिवसे दीपो भवन् परभाग गुणोत्कर्ष न अच्छति न याति । हे विशालाभि विशाले अक्षिणी यस्याः सा तस्याः संबोधन हे विशालाक्षि विस्तीर्णलोचने असौ स्वप्नभर असामान्यगुणैकम असामान्याश्वते गुणाश्च तेषां निरूपमगुणानामेकभू एकस्यानं वर्तते । इति अस्मात् कारणात् वृथा निष्फलो न चिन्त्यताम् । यत् अग्र्यं प्रशस्यं फलं तत् अथ प्रवीमि । ते तव संमदो हर्षो मितगणनाया परां कोटिमियतु प्राप्नोतु ॥ २७ ॥ २८ ॥ युग्मम् ॥ चतुर्दशस्वमनिभालनद्रुम-स्तनोत्यसौ मातुरुमे शुभे फले । इहैकमहजननं महत्फलं, तनु द्वितीयं ननु चक्रिणो जनुः ॥ २९ ॥ (-या०) चतुरिति । असौ चतुर्दशस्वप्ननिभालनद्रुमः चतुर्दश च ते स्वप्नाश्च चतुर्दशस्वप्ना (संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् ३-१-९९ । इ. सू. द्विगुसमासः । ) स्तेषां निभालनमवलोकनं तदेव द्रुमो (धुद्रोर्म ७-२३७ इ. सू. मत्वर्थे द्रुशदात् म. द्रु शाखा अस्ति अस्य इति द्रुम ।) वृक्ष चतुर्दशस्वप्नावलोकनरूपवृक्षः मातुर्जनन्या उभे द्वे शुभे फले तनोति करोति । इह एकं अर्हजननं अर्हतो जननं जन्म अर्ह जन्म महाफलं वर्तते । द्वितीयं (द्वेस्तीय ७-१-१६५ इ. सू. द्विशब्दात् संख्यापूरणे तीयप्रत्ययः ।) तु तनु स्तोकं ननु निश्चितं चक्रिणो जनु जन्म स्यात् ॥ २९ ॥ प्रदष्टभावारिभयच्छिदं स्फुटी-कृता निशीथे सुकृतः पुराकृतः । तदर्धवीक्षा विशिनष्टि केशवो-शवं भवोत्तारमरागवागिव ।। ३० ॥ (व्या०) प्रदुष्ट इति । हे प्रिये तदर्धत्रीक्षा वीक्षाया अर्ध अर्धवीक्षा (समेंऽशेऽर्द्ध नवा ३-१-५४ इ. सू. तत्पुरुषसमासः ।) तेषा मनोभा तदर्धवीक्षा तदर्धदर्शन केशवोद्भवं केशवस्य उद्भव उत्पत्तिस्तं वासुदेवोत्पत्ति विशिनष्टि कथयति । किंविशिष्टं केशवोद्भवं प्रकर्षेण दुष्टो भावो येषां ते प्रदुष्टभावा. ते चते अस्यश्च वैरिण प्रदुष्टभावारीणां भयं छिनत्तीति तम् । किविशिष्टा तदई. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२८९ वीक्षा पुर।कृत सुकृत पुण्यै स्फुटोकृता न स्फुटा अस्फुटा अस्फुटा स्फुटाकता ' इति स्फुटीकृता निशीथे अर्धगत्रे स्फुटीकृता प्रकटीकृता । केव अरागवागिव न विद्यते रागो यस्य स अराग वीतरागोऽर्हन् तस्य वाग वाणी वीतरागवाणी भवोतरं भवस्य उत्तरस्तं संमारपार विशनष्टि । किविशिष्टा अरागवाक् प्रस्तावात् भव्यानां पुराकृते. सुकृत स्फुटीकृता निशोथस्य उपलक्षणत्वात् अन्येऽपि सिद्धान्तग्रन्था ज्ञेया । किं विशिष्टं भवोत्तर प्रदुष्टभावारिभयच्छिदं प्रकर्षण दुष्टानां क्रोवमानमायालोभमोहादिभावारीणां भयं छिनत्तीति प्रदुष्टाभावारिभयच्छित् तम्।। बलं सुतं यच्छति तच्चतुष्टयी, लतेव जातिः कुसुमं समुज्ज्वलम् । तदेकतां वीक्ष्य तदेकतानया, स्त्रियाङ्गभूमांडलिकः प्रकल्प्यताम् ॥३१ (व्या०) बलमिति । तचतुष्टयी तेपा स्वप्नाना चतुष्टयी (अवयवात् तयद् ७-१-१५१ इ. सू. चतुरशब्दात् तयट टित्वात् ङो । ) चतुष्क बलं सुतं बलदेवं पुत्रं यच्छति । केव जातिलतेव यथा जातिलता मालती समुज्ज्वलं कुसुम यच्छति । यतो बलदेवोऽपि समुज्ज्वलः स्यादिति । तदेकतानतया तेषु स्वप्नेषु एकतानता सावधानता तया सावधानतया स्त्रिया तदेकतां तेषां स्वप्नानामेकतां एकं स्वप्नं वीक्ष्य मांडलिकोऽङ्गभूः अङ्गात् भवतीति अङ्गभू पुत्रः प्रकल्प्यता चिन्त्यताम् ॥ ३१ ॥ तदीदृशस्वप्नविलोकनाचया- ऽधिगंस्यते चक्रधरस्तनूरुहः । विशन्ति विद्याः किल यं चतुर्दश, श्रयन्ति रत्नान्यपि संख्ययातया।। (व्या०) तदिति । हे प्रिये तत् तस्मात् कारणात् ईदृशस्वप्नविलाकनात् ईशाश्च ते स्वप्नाश्च ईशस्वप्नास्तेषां विलोकनात् त्वया चक्रधर चक्रं धरतीति चक्रधर ( आयुधादिभ्यो धृगोऽदण्डादे. ५-१-९४ इ सू. गधातो. अच् प्रत्ययः । डस्युक्तं कृता ३-१-४९ इ सू. नित्यतत्पुरुषसमासः ।) तनूरहः तन्वां शरीरे रोहतीति तनूरुह पुत्र अधिगंस्यते प्राप्स्यते किल इति सत्ये । चतुदश विद्या यं पुत्रं विशन्ति प्रविशन्ति । तया चतुर्दशरूपया संख्यया रत्नान्यपि संश्रयन्ति सेवन्ते ॥ ३२॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ वया यदादौ हदिहस्तिसोदरः, पुरः स्थितस्तन्वि करी निरीक्षितः । मनुष्यलोकेऽपि ततः श्रियं पुरा दधाति शातक्रतत्र तवाङ्गजः ॥३३ ( व्या० ) त्वयेति । हे तन्वि त्वया यद् आदौ हरिहस्तिसोदरः हरेरिन्द्रस्य हस्ती गज ऐरावणस्तस्य सोदर ( समानस्य धर्मादिषु ३-२- १४९ इ. सू. समानस्य स आदेश. समानं उदरं यस्य सः सोदर: 1 ) ऐरावणस्य बांधवः करी हस्ती पुरः स्थितः अग्रे स्थितो निरीक्षित दृष्ट' । तत् तस्मात्कारणात् तव अङ्गज' पुत्र मनुष्यलोकेऽपि मनुष्याणां लोकस्तस्मिन् शाततव शतक्रतोरिन्द्रस्य इयं शातनवो तो इन्द्रसंबन्धिनों श्रियं लक्ष्मी पुरा दधाति धास्यति । 'पुरा यावतो वर्तमाना' इति सूत्रेण भविष्यति काले वर्तमाना ज्ञेया ॥ ३३ ॥ दिगन्तदेशांस्तरसा जिगीषया, ऽभिषेणयिष्यन्तमवेत्य तेऽङ्गजम् । प्रहीयते स्म प्रथमं दिशा गजैः, प्रिये किंमरावत एष संधये ॥ ३४ ॥ ( व्या० ) दिगिति । हे प्रिये ते तत्र जङ्ग अङ्गात् जातस्त पुत्र तरसा वेगेन दिगन्तदेशान् दिशामन्तास्तेषां देशास्तान् जिगीषया जेतुमिच्छा जिगीषा तया जेतुमिच्छया अभिषेगयिष्यन्तं सेनया अभिमुखं गमिष्यन्तमवेत्य ज्ञात्वा ऐरावतः १ पुंडरीकः २ वामन ३ कुमुद ४ अञ्जन ५ पुष्पदन्त ६ सार्वभौम • ७ सुप्रतीकश्च ८ दिग्गजाः ॥ पुंडरीकाद्यैर्दिशांगजै दिग्गजै एष ऐरावतः प्रथमं संघये संत्रिकरणाय किं प्रहीयते स्म ॥ ३४ ॥ यदक्षतश्रीषभो निरीक्षितः, क्षितौ चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठितः । महारथाग्रेसरतां गतस्तत - स्तवाङ्गभूवरघुगं धरिष्यति ॥ ३५ ॥ अक्षता (न्या० ) यदिति । यत् यस्मात् कारणात् अक्षतश्रीः न क्षता अक्षता श्रीर्यस्य स अक्षयलदगीर्वृषभो निरीक्षित दृष्टः । किंलक्षणो वृषभः श्रितों पृथिव्यां चतुर्भिश्चरणै पादै प्रतिष्ठित । हे प्रिये ततस्तस्मात्कारणात् तत्र अङ्गभ्रू अङ्गात् भत्रनीति अङ्गभू ( कि ५-१-१४८ इ. सू. अङ्गशब्द पूर्वकभूघातो. क्रिप्प्रत्ययः । ) पुत्रः महारथाग्रेसरतां महान् रथो येषां ते महारथा सहस्रयोधिन, अग्रे सरतीति अग्रेसरस्तस्य भावोऽग्रेसरता ( पुरोऽग्रतोऽग्रे Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनमारसम्भवायं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ९ (२९१ सत. ५-१-१४० इ. सू. अग्रेशदात् परात् सूधातो. प्रत्ययः । ) महारथेषु अग्रेसरता तां मुख्यता पक्षे महान रथः तस्य अग्रेसरतां अग्रगामित्वं गतः प्राप्तः सन् वीरधुगं वोरस्य धू. तां वीरधुरां (धुरोऽनक्षस्य ७-३-७७ इ. सू ममासान्तोऽत् । अदन्तत्वात् स्त्रियामाप् । ) धरिष्यति । 'धनुर्वेदस्य तत्त्वज्ञ सर्वयो. धगुणान्वित । सहस्र योवयत्थेकः स महारथ उच्यते' ॥ १ ॥ इति युद्धकलाविलासे ॥ ३५ ॥ सुपर्वलोकाचदिवा तवाङ्गजे, प्रवेशमातन्वति भूतले नवम् । अहो महोशः किमसौ पुरोऽस्फुर-नदन्नदभ्रं शकुनप्रदित्सया ॥३६॥ (व्या०) सुपर्व इति । यदिवा अथवा इति शव्देन द्वितीयकारणमाह प्रिये अहो इत्याश्चर्ये महेोक्षो महावृषभ महांश्चासौ उक्षा च महोक्ष. ( जातमहद् वृद्रादु कर्मवारयात् ७-३-९५ इ. सू महत् शब्द पूर्वक उमन् शब्दात् अत् समासान्त ) सुपर्वलोकात् सुपर्वणां देवानां लोक तस्मात् देवलोकात् तब अङ्गजे पुत्रे भतले भुवस्तलं तस्मिन् पृथ्वोतले नवं नतनं प्रवेशं आतन्वति आतनोतीति आतन्वन् तस्मिन् कुर्वति सति अदभ्रं अतुन्छ नदन् शब्द कुर्वन् सन् शकुनप्रदित्सया शकुनानां प्रदातुमिच्छ। तया शकुनप्रदानेछया कि पुरोऽग्रेऽस्फुरत् ॥ ३६ ॥ जिनेषु सर्वेषु मयैव लक्ष्मणा, जनेन तातस्तव लक्षयिष्यते । अयं चटूत्यत्यथवा तवात्मजा-प्रसादमासादयितुं किमापतत्॥३७॥ (व्या०) जिनेषु इति । अपवा अयं वृषभ इति चट्या चाटुवचनेन हे प्रिये तब आत्मजात् आत्मनो जात आत्मज पुत्रस्तस्मान् प्रसादमासादयितुं प्राप्तुं कि आपतत् आगत । इतीति किं जनेने लोकेन सर्वेषु जिनेषु मयैव लक्ष्मणा लाञ्छनेन तव तात पिता लभविष्यते उपलक्षविष्यते ॥ ३७ ॥ द्विपद्विषो वीक्षणतोऽवनीगता-गिनो मृगीकृत्य महाबलानपि । न नेतृतामाप्स्यति न त्वदङ्गाजः, प्रघोषतोऽतनयन्महीभृतः॥३८ (व्या०) द्विप इति । हे प्रिये द्विपद्विष द्विपान् हस्तिनो द्वेष्टीति द्विद्विपट् Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ सिंहस्तस्य वीक्षखत वोक्षणात इति वीक्षणतो दर्शनत त्वदाज तव अङ्गजस्वत्पुत्रो नेतृतां नेतुभावो नेतृता तां प्रभुतां न आप्स्यति न अपितु प्राप्स्यत्येव ।। किं कृत्वा अवनीगताङ्गिन. अवनी महीं गता अवनीगताः ते चते अङ्गिनश्च प्राणिन तान् पक्षे महद्धनं वनो तत्र स्थितान् प्राणिनः महाबलानपि महद्वलं येषां ते तानपि सबलानपि मृगोकृत्य न मृगाः अमृगा अमृगान् मृगान् कृ वा इति मृगीकृत्य । किं कुर्वन् महीभृतः महीं बिभ्रतीति महीभृतस्तान् राज्ञ प्रधोपत प्रसि ढेरन्तलनयन् चमत्कुर्वन् पक्षे प्रकृप्टात् घोषतः सिंहनादात् महीभृत पर्वतान् अन्तर्ध्वनयन् प्रतिशब्दयन् ॥ ३८ ॥ नयाप्तसप्ताङ्गकराज्यरङ्गभूः, क नायकस्त्वं प्रखरायुधो नृणाम् । प्रभुः पशूनां नयनपुणं विना, वसन् वनेऽहं नखरायुधः क्व च ।।३९ तथापि मा कोपमुपागमः कृतो-पमा कृतीशै युधि विक्रमान्मया । सुतं तवेत्यर्थयितुं समागतः, किमर्थिकल्पद्रुममेष केसरी ॥४०॥युग्मम् (व्या०) नय इति । हे प्रिये एष केसरी केसराः सन्ति अस्येति केसरी सिंहः अर्थिकल्पद्रुमं अर्थयन्ते इति अर्थिनो याचकास्तेषां कल्पद्रुमः (धुद्रोम ७-२-३७ इ. सू. मत्वर्थे द्रुशब्दात् म । ) तं वाचकजनकल्पवृक्षं तव सुतं पुत्र इति प्रार्थयितुं समागत । इतीति किं त्वं नृणां नायकः क्व किं विशिष्टस्त्वं नयाप्तसता कराज्यरङ्गभः सप्त स्वान्यादीनि अङ्गानि यस्य तत् सप्ताङ्गक सप्तागकं च तत् राज्यं च सता राज्यक नयेन न्यायेन आप्तं प्राप्त नयाप्तं नयाप्तं च तत् सताराज्यं च नयाप्तसप्तङ्गकराज्यं तस्य रङ्गभूमिः । पुनः प्रखरायुधः प्रखराणि कठोराणि आयुधानि यस्य स. । अन्यत् अहं पशुनां प्रभु क किं वशिष्टोऽहं नखरायुध नखरा एव आयुधानि यस्य स न निषेधार्थ खरायुध. तीनशनो न । पुन: नयनैपुणं नये नैपुणं नयनपुणं ( विना ते तृतीया च । २ -२-११५ इ. सू विनायोगे नयनपुणमित्यत्र द्वितीया । ) तत् न्याय:क्षत्वं विना वने वसन् । त्वं कृतीशै कृतिना ( इष्टादे ७-१-१६८ इ. सू. कृत शब्दात् कर्तरि इन् । ) मीशा कृतीशास्तैः कृतयुधि संग्रामे विक्रमात् पराक्रमात् मया सह कृतोपम• कृता उपमा यस्य सः भविष्यसि । तथापि कोपं मा उपागमः ॥ ३९ ॥ ४० ॥ युग्मम् Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनमारसम्भवाय महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२९३ यदिन्दिरा सुन्दरि वीक्षिता ततः, स्त्रियो नदीनप्रभवा अवाप्स्यति । कलाभृदिष्टाः कमलंगताः पर:-शतास्तयैवोपमिताः सुतस्तव ॥४१॥ (व्या०) यदिवि । हे सुन्दरि यत् त्वया इन्दिरा लक्ष्मीवीक्षिता दृष्टा । ततस्तस्मात् कारणात् तवसुत पुत्र पर आता शतेभ्यः परा पर शताः शतसहस्राधिका तयैव इन्दिरया लम्या उपमिता उपमानं प्रापिता. त्रिय आप्त्यति प्राप्स्यति । किविशिष्टा स्त्रियः नदीनप्रभवा । न दीनो हीनः प्रभव उत्पति. यासां ता लामी पक्षे नदीना इन:-स्वामी समुद्र तस्मात् प्रभवो यस्याः सा । अत्र अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामो लम्या विशेषणो ज्ञेयः । पुन' कलामृदिष्टाः कलाः विभ्रतीति कलामृतः कलावन्तस्तेषां इष्टा अभीष्टा । पक्षे कलामृत् चन्द्रस्तस्य इष्टा रात्री लक्ष्म्याः चन्द्रमण्डलवासितत्वात् । कमलं गताः कं सुखं अलं अत्यर्थ गताः पक्षे कमलं पद्मं गताः स्थिता ॥ ४१ ॥ बलाधिकत्वाच्चलिते हरे हृदि, प्रसह्य भने युधि गजमण्डले । अनेन पद्धयां कृशिते कुशेशये, चमूरजोमिः स्थगिते पयोनिधौ ॥४२॥ - सुतस्तवैवास्ति गतिर्ममाधुना, तवेति वा जल्पितुमाययावसौ। खजातिधौरेय मनुप्रविश्य य-त्प्रभुप्रसादाय यतेत धीरधीः॥४३युग्मम् ___(व्या०) बल इति । हे प्रिये असौ इन्दिरा लक्ष्मी वा अथवा तव इति जल्पितुं किमाययौ आयाता । तव इत्यत्र विवक्षातः संबवे षष्ठी अन्यथा त्वामिति स्यात् । इतीति किं ममतावच्चत्वारि स्थानानि । एकं हरिदय । द्वितीयं चन्द्रमण्डलं । तृतीय कमलं । चतुर्थ समुद्र । अनेन तव पुत्रेण इति पदं सर्वत्र योज्यते। बलाधिकावात बलस्य अधिकत्व तस्मात् बलाधिक्यात् हरेर्वासुदेवस्य हृदि हृदये चलिते सति बलो बलभद्रः बलं सैन्यं हरेरेक एव बलः अस्यतुबलाधिकत्वमिति भाव । प्रसह्य बलात्कारेण राजमण्डले राज्ञां मण्डलं तस्मिन् राजसमृहे चण्द्रमण्डले वा युधिसग्रामे भग्ने सति पद्भयां चरणाभ्यां कुशेशये (आधारात् । ५-१-१३७ । इ. सू. कुशे इति आधारपूर्वकशीधातो अप्रत्यय । नामिनो गुणोऽडित । ४-३-१ । इ. सू गुणः । एदैतोऽयाय् । १-२-२३ । इ सू अयः Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकतम सर्गः९ देशः । डस्युक्तं कृता । ३-१-४९ । इ. सू. नित्यतत्पुरुषः । अद्वयञ्जनात्सतम्याबहुलम् । ३-२-१८ । इ. सू सप्तम्या अलुप् । कुशे गेते इति कुशे शयम् ।) कमले कृशिते ग्लानि प्रापिते सति चमुरजोभिः चमूनां रजासि तैः पयोनिधौ पयसां निधिस्तस्मिन् समुद्रे स्थगिते सति आच्छादिते सति ।।४२.४३॥ युग्मम् ।। स्वसौरभाकर्षितषट्पदाध्वगा, सगालुलोके यदि कोसुभी त्वया । ततःसुतस्ते निजकीर्तिसौरभा-वलीढविश्वत्रितयो भविष्यति ॥४४॥ (व्या०) स्वइति । हे प्रिये यदि त्वया कौसुमी कुसुमानामियं कौसुमी कुसुमसंबंधिनी सग माला आलुलोके दृष्टा । किलमणा स्रक स्वसौरभाकर्षितषट्पदावा स्वस्यात्मनः सौरभेण ( वृवर्णाल्लघ्वादे । ७-१-६९ । इ. सू. भावेऽथै सुरभिशब्दादण । सुरमे व सौरभम् । ) परिमलेन आकर्षिता पट्पदा भ्रमरा एव अध्वगा• पान्था यया सा ततः तस्मात् कारगात् ते तव सुतः पुत्रो निजकीर्तिसौरभावलोढविश्वत्रितयः निजस्यात्मनः कीर्त्या सौरभेण परिमलेन अवलीढ व्याप्तं विश्वानां जगतां त्रितयं (अवयवात्तयट् । ७-१-१५१ । इ. सू अवयवे त्रिशब्दात् तयट् । ) येन स भविष्यति ॥ ४४ ॥ अयं विवादे ननु दानविद्यया, विजेष्यते नश्चिरशिक्षितानपि । इयं मियेतीव सुग्द्रुभिर्भव-भुवो ददे दंडपदेऽथवा किमु ॥ ४५ ॥ (व्या०) अयमिति । अथवा सुरद्रुभि कल्पवृक्ष इयं स्रग भवद्भवः भवत्या भवतीति भवद्भू तस्य भवद्भुव तव पुत्रस्य किमु दडपदे दंडस्य पदं तस्मिन् दंस्थाने ददे दत्ता। उत्प्रेक्षते इति भिया ईदृग्भयेनेव । इतीति किं अर्थ तव पुत्रो ननु निश्चितं चिरशिक्षितानपि चिरशिक्षिताः तानपि नोऽस्माम् दानविद्यया दानविद्या तया विजेष्यते 'परावेजें' इति सूत्रेणात्मनेपदम् ॥ ४५ ॥ भवान् ममादेशवशो भवेट्टही, गृहीतदीक्षस च नास्मि ते प्रभुः। वदन्निदं वानुगभृङ्ग निःस्वनैः, समरोऽस्य रोपं व्यसृजत् सजश्छलात् ४६ (व्या०) भवानिति । अनुगभृङ्गनि.स्वनै अनुपश्चाद् गच्छन्तीति-अनुगाः पृष्ठस्था. ते च ते भृङ्गाश्च भ्रमरास्तेषां नि स्वनाः शब्दास्तैः । इद वदन् वा इव Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं मद्दी काव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (२९५ अत्र वा इवार्थे स्रजो मालायाः छलात् भिषात् स्मरः कामः रोपं वाणं व्यसृजत् प्रहितवान् । इदमिति किं भवान् गृही गृहस्थः सन् मम आदेशवशः आदेशस्य चशो भवेत् वशेन भवितव्यमिति भावः । च अन्यत् गृहीतदीक्षस्य गृहीता दीक्षा येन तस्य ते तच अहं प्रभुः समर्थो नास्मि ॥ ४६ ॥ ་ यदिन्दुरापीयत पार्वणस्त्वया, ततः सुवृत्तो रजनीघनच्छविः । - सदा ददानः कुमुदे श्रियं कला - कलापवांस्ते तनयो भविष्यति ॥ ४७ ( व्या० ) यदिति । हे प्रिये यत् पार्वणः पर्वणि पौर्णमास्यां भव. पार्वणः (भवे । ६-३-१२३ । इ. सु. पर्वन् शब्दात् भवेऽर्थे अणु ( ) ततः सुवृत्तः पूर्णिमासंबंधी इन्दुश्चन्द्रः आपीयत ( यः शिति । ३-४-७० । इ. सू. भावातो' कर्मणि शिद्विपये क्यः । ईञ्जनेयपि । ४-३ - ९७ । इ. सू. क्ये परे श्राधातोराकारस्य दीर्घ ईकार कर्मणि ह्यस्तनी । ) पीयते स्म किंलक्षण इन्दुः रजनीवनच्छवि रजन्या रात्रौ घना बहु छवि कान्तिर्यस्य सः । कुमुदे कैरवे सदा श्रियं शोभां ददान' दत्ते इति ददान | कलाकलापवान् कलानां कलापः स अस्ति अस्येति कलाकलापवान् कलासमूहयुक्तः । ततः तस्मात् कारणात् सुवृत्तः शोभनं वृत्तं यस्य स सुचरित्र । रजनीघनच्छवि रजनी हरिद्रा तद्वत् घना छविः कान्तिर्यस्य स । कुमुदे को पृथिव्याः मुत् हर्षस्तस्यै पृक्रिया हर्षाय सदा श्रियं शोभां ददान | कलाकलापवान् कलानां गीतवाद्यनृत्यगणित पठितलिखितादीनां कलाप समूहस्तद्वान् । एवंविधस्ते तव तनयः पुत्रो भविष्यति ॥ ४७ ॥ दाननस्पर्धि सरोजमोजसा, निमीलयिष्यामि तथाधिकश्रिये । तव श्रयिष्यामि सितातपत्रता-समुक्तमुक्ताभिषदारतारकः ॥ ४८ ॥ "५रं रुजन् राजकमाजिभाजिनं, न राजशब्दं मम मार्टुमर्हसि । इतीव विज्ञापयितुं रहोरया - दुपस्थितोऽयं तनयं तवाथवा ॥ ९४ युग्मम् ( व्या० ) त्वदिति । अथवा अयं चन्द्रस्तव तनयं पुत्रं रह एकान्ते इति विज्ञापयितुमिव रयात् वेगात् उपस्थितः प्राप्त इतीति किं हे स्वामिन् अहं त्वदाननस्पर्धि तव आननं स्पर्धते इति त्वदाननस्पर्धि त्वदीयमुखस्पर्धाकारि सरोजं Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग.९ सरसि जातं सरोजं कमलं ओजसा वलेन तेजसा वा निमीलयिष्यामि संकोचं प्रापयिष्यामि । तथा तव अधिकश्रिये अधिका चासौ श्रीश्च तस्यै अधिकशोभायै सितातपत्रतां सितं च तत आतपत्रं च सितातपत्रं (आतपात् त्रायते इति आतपत्रं स्थापानात्रः कः । ५-१-१४२ इ. सू. आतपपूर्वकनावातो. कः इडेत् पुंसि चातोलुक् इति सू. आलोप ) तस्य भाव. श्वेतच्छत्रतां श्रयिष्यामि । किंविशिष्टो विधुः अमुक्तमुक्तामिषतारतारकः न मुक्ताः अमुक्ताः मुक्ता मिषं येषां ते मुक्तामिषाः ताराश्च ते तारकाश्च तारतारका मुक्तामिषाश्च ते तारतारकाश्च मुक्ताभिधतारतारकाः अमुक्ता मुक्ताभिषतारतारका येन सः । त्वं परं आजिभाजिनं आणि भजतीति आजिभाजिनं (अजाते. शीले । ५-१-१५४ । इ. सू. आजिशब्द पूर्वकभधातोः णिन् ।) संग्रामसेविनं राजकं (गोत्रोक्षवत्सोष्ट्रवृद्धाजोरभ्रमनुष्यराजराजन्यराजपुत्रादकम् । ६-२-१२ । इ. सू. राजन् शब्दात् समूहेऽर्थे अकञ् राज्ञां समूहो राजकम् ।) राजसमहं रुजन् भञ्जन् सन् अत' कारणात् मम राजशब्दं माष्टुं रफेटयितुं न अर्हसि । राजशब्देन चन्द्र उच्यते ॥४८-४९॥ युग्मम् ।। दिशन् विकाशं गुणसअपभिनी-मुखारविन्देषु सदा सुगन्धिषु । निरुद्धदोषोदयमात्मजस्तव, प्रपत्यते धाम रवेरवेक्षणात् ॥ ५० ॥ __(व्या०) दिशन्निति । हे प्रिये रवे. सूर्यस्य अवेक्षणात् दर्शनात् तक आत्मज पुत्र. धाम तेज प्रपत्स्यते आश्रयिष्यते । किंविशिष्टं धाम निरुद्रदोषोदयं निरुद्धो दोषाणामिषणादीनां उदयो येन तत् । तब आत्मज किं कुर्वन् सदा निरन्तरं सुगन्धिषु (सुपूत्युत्सुरभेर्गन्धादिद्गुणे । ७-३-१४४ । इ. सू. सुपर्वक गन्धशब्दात् इ. ॥) शोभनो गन्धो येषां तानि तेषु सुपरिमलेघु गुणसभपमिनीमुखारविन्देषु गुणानां विवेकादीनां समानि पद्मिनीनां स्त्रीणां मुखानि एव अरविन्दानि गुणसद्मानि च तानि पभिनीनां मुखारविन्दानि च मुखकमलानि तेषु विकाशं दिशतीति दिशन् रविपक्षे गुणास्तन्तवः पभिन्य' कमलिन्यः ॥५०॥ उदेष्यतस्त्वत्तनयस्य तेजसा, दिवाकरो दीप्तिदरिद्रतां गतः । मृगाक्षि मन्येऽवलयापि तत् त्वया, सुदर्शनः स्वमपरम्परास्वयम् ५१ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनकुमारसम्भपाख्य महाकाव्यम् टीकासमलंकतम् ॥सर्ग.९ (२९७ (व्या०) उदेष्यदिति । हे मृगाक्षि हरिणलोचने अहमेवं मन्ये उदेष्यतीति उदेष्यन् तस्य उदयं प्राप्तुकामस्य त्वत्तनयस्य तवतनयस्य पुत्रस्य दिवा करोतीति दिवाकरः (सङ्ख्याऽहर्दिवाविभा-टः । ५-१-१०२ । इ. सू. दिवापूर्वककृग्धातो टप्रत्ययः ।) सूर्य दीप्तिदरिद्रतां दरिद्रस्य भावो दरिद्रतां दीते. दरिद्रता दीतिरहितत्वं गत प्राप्त । तत तस्मात् कारणात् त्वया अबलयापि अयं सूर्यः स्वप्नपरम्परासु स्वाभानी परम्परा तासु सुदर्शनः सुखेन दृश्यते इति सुदर्शनः जातः ॥ ५१॥ मया नमः स्थालदशेन्धनेन ते, विधातुरारात्रिककर्म भावि तत् । ममोर्ध्वगत्वं च महश्च मृष्यतां, भवद्भुवं वक्तुमिदं सपाययौ ॥५२॥ (या०) मयेति । वा अथवा स रविः भवत्याः भूः भवद्भूतं तब पुत्रं इदं वक्तुं आययौ आयातः । इदमिति कि विधातुः ब्राह्मणो मया नभःस्थालदशे-धनेन दशा वतिरेव इन्धनं यस्य स दशेन्धनो दीपः नभः आकाशमेव स्थालं पात्रं तस्मिन् दशे-धने दीपेन ते तव आरात्रिकं कर्म भावि भविष्यति । तत् तस्मात् कारणात मम ऊर्ध्वगत्वं उचैमिनत्वं च अन्यत् महस्तेजो मृष्यतां सह्यताम् । मृपृच् क्षान्तौ एतस्यधातो प्रयोगः ॥ ५२ ।। बजावलोकादयिते तवाङ्गजो, रजोभिरस्पृष्टवपुः कुसङ्गजैः । गभी गुणादयः शिरसोऽवसतां, कुले विशाले विपुलक्षणस्पृशि ॥५३॥ (व्या०) वजेति । हेदयिते ध्वजावलोकात् ध्वजस्य अवलोको दर्शन तस्मात् ध्वजदर्शनात् तव अङ्गजः पुत्रः विशाले विस्तीर्णे कुले वशे गृहे वा शिरोऽवतंसता शिरस अवतंसता तां मस्तकमुकुटमणित्वं गमी (वयति गम्यादि । ५-३-१ । इ. सू भविष्यत्यर्थे गम् धातोर्णिन् । ) गमिष्यतीति । किंविशिष्टस्तव पुत्रो ध्वजश्च कुसङ्गजैः कुत्सितः सङ्गः कुसुङ्ग ( गतिकन्यस्तत्पुरुष । ३-१-४२ । इ. सू. तत्पुरुषसमासः । ) स्तस्मात् जातानि तै· कुसं. सर्गजे. रजोभिः पापैः पक्षे कु पृथ्वो तस्याः सः रजोभिः रेणुभिः अस्पृष्टवपुः न स्पृष्टं अस्पृष्टं अस्पृष्टं वपुर्यस्यस अस्पृष्टशरीरः । पुनः गुणाढय गुणैर्विन Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P ૨૮) શ્રીનેનકુમાલમ્માલ્ય માન્યમ્ દી સિમ ંતમ્ ॥ લશ્ यादिभिः तन्तुभिर्वा आढ्यः समृद्धः । किंविशिष्टे कुले विपुलक्षणस्पृशि विपुलश्चा क्षणश्च विस्तीर्णः क्षण उत्सवो वा गृहविभागो वा तं स्पृशतीति विपुलक्षणस्पृक् तस्मिन् ॥ ५३ ॥ परिस्फुरन्तं दिवि केतुसंज्ञया, निरीक्ष्य मां ते पृतनाग्रवर्तिनम् | विपक्षवर्गः स्वयमेव भैक्ष्यते, युधेऽमुना तद्भव जातु नातुरः ||५४ || विभर्तु गांभीर्यगुणं युवा भवा - निधाय सर्वे मयि बालचापलम् । इति प्रजल्पन् कल किंकिणीकण रमुं किमागात्प्रियमित्रवत् सवा ५५ ( व्या० ) परीति । हे प्रिये वा अथवा ध्वजः अमुं तव सुतं प्रियमित्रवत् प्रियं च तत् मित्रं च प्रियमित्रं तदिव प्रियमित्रवत् (स्यादेरिवे । ७-१-५२ । इ. सू. सादृश्येऽर्थे प्रियमित्रशब्दात् वत् प्रत्ययः । किमागात् ( इणिकोर्गा | ४-४-२३ । इ. सू. अद्यन्तन्यां इण्घातो गाः आपूर्वक इण्घातोः अद्यतनीरूपम् ) किं कुर्वन् कलकिंकिणीकणैः कलाश्चता किंकिण्यश्च मनोज्ञकिंकिण्यस्तासां कणाः शब्दास्तैः मनोज्ञक्षुद्रघंटिकाशब्दैः इति जल्पतीति जल्पन् इतीति किं ते तव पृतनाग्रवर्तिनं पृतनायाः (पृपूभ्यां कित् । २९३ । इ. उ. सू. पृत् व्यायामे इतिधातोः कित् तन प्रत्ययः अदन्तत्वात् स्त्रियां आप प्रियते इति पृतना ।) सेनाया अग्रे वर्तते इति पृतनाग्रवर्तिनं दिवि आकाशे केतुसंज्ञया केतुरिति संज्ञा तथा केतुरिति नाम्ना परिस्फुरन्तं परिस्फुरतीति परिस्फुरन्तं निरीक्ष्य दृष्ट्वा विपक्षवर्गः विपक्षाणां वर्गः शत्रुसमूहः स्वयमेव भक्ष्यते भग्नो भविष्यति । केतुशब्देन ध्वज उच्यते धूमकेतुरपि इति भावः । तत् तस्मात् कारणात् युधे संग्रामे अमुना विपक्षवर्गेण सह जातु कदाचिदपि आतुर उत्सुको न भव माभूः । भवान् युवा यौवनं प्राप्तः सन् सर्वं बालचापलं बालस्य चापलं तत् मयि निधाय मुक्त्वा गांभीर्यगुणं गंभीरस्य भावोगांभीर्य ( पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिम्य: कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू. गंभीरशब्दात् । भावेट्यणू । ) तदेवगुणस्तं बिभर्तु दधातु ॥ ५४-५५ ॥ युग्मम् । न्यभालि कुंभः करभोरु यच्चया, ततः सुवृत्तः सुमनश्चयाञ्चितः । गतः सुतस्ते कमलैकपात्रता - मभङ्गमाङ्गल्यदशां श्रयिष्यति ॥ ५६ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंयतम् ॥ सर्ग: ९ (२९९ (व्या०) न्यभालीति । हे करभवत् ऊरू यस्याः सा करभोरुः (उपमानसहितसंहितसहशफवामलक्ष्मणाघरोः । २-४-७५ । इ. सू. करमशदपूर्वक ऊरशदात् स्त्रियां ऊङ् प्रत्ययः ।) तस्याः संबोधनं हे करभोरु 'मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभो बहिः' स करम उच्यते । यत् त्वया कुंभो न्यमालि 'पूर्णकलशो दृष्टः । ततस्तस्मात् कारणात् ते तवसुतः कुभवत् अभङ्गमाङ्गल्यदशां मङ्गलस्य भावो माङ्गल्यं अभङ्गं च तत् माङ्गल्यं च तस्य दशामवस्थां श्रयिष्यति आश्रयिष्यति । किविशिष्टस्तव सुतः कुंभश्च सुवृत्तः शोभनं वृत्तं यस्य स. सञ्चरित्रः सदाकारो वा । सुमनश्चयाञ्चितः सुमनसां साधूनां पुष्पाणां चयेन समूहेन अञ्चितः पूजितः । कमलैकपात्रता कमलाया लम्याः कमलस्य जलजस्थ वा एकपात्रस्य भावः एकपात्रतां स्थानकावं गतः प्राप्तः ॥ ५६ ॥ सुमङ्गलागीभवितुं तवद्धये, विसोढवान् कारुपदाहतीरहम् । विवेश वहावनुभूय भूयसी-श्चिराय दंडान्वितचक्रचालनाः ॥५७॥ छतज्ञ मद्दत्तजलैः प्रतीष्यतां, ततस्त्वया चक्रिपदाभिषेचनम् । इतीहितं ज्ञापयितुं किमाययो, घटा फुटत्वं तनयस्य तेऽथवा ॥५८॥ (व्या०) सुमङ्गलीति । हे प्रिये अथवा घटः कुभः ते तव तनयस्य पुत्रस्य इति ईहितं ईप्सितं ज्ञापयितुं स्फुटत्वं प्रकट किमाययौ प्राप । इतीति कि अहं तव ऋद्धये पुष्टये सुमङ्गलाशीभवितुं सुष्टु मङ्गलं (सुः पूजायाम् । ३१-४४ । इ. सू. समासः । ) अङ्गं यस्य स सुमङ्गलागः न सुमङ्गलाङ्गः असुमङ्गलाङ्गः असुमङ्गलाङ्गः सुमङ्गलाङ्गः भवितुमिति सुमङ्गलाङ्गीभपितुं कारपदाहतीः फारूणां (कृवापाजिस्वदिसाध्यशोदृस्नासनिजानिरहीणभ्य उण । १। इ. सू. उण प्रत्ययः कुर्वन्तीति कारवः) कुंभकाराणां पदानामाहतीः प्रहारान् परेणधातान् विसोढवान् सेहे । भूयसीः (गुणाङ्गाद्वेष्ठेयम् । ७-३-९। इ. सू. बहुशब्दात् इथसुः । भूलकवर्णस्य । ७-४-४१ । इ. सू. बहोभूरादेशः ईयस ईवर्णस्यलक्च अधातूदितः । २-४-२ । इ. सू. उदित्वात् स्त्रियांडीः) बहतीश्चिराय चिरकालं दंडान्वितचक्रचालनाः दंडेन अन्वितं युकं यत् चक्रं तस्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००) श्रीजनकुमारसमाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग.९ चालनास्ता. दंडयुक्तचापरिचालनमनुभय वह्नौ अग्नौ विवेश प्रविष्टः । ततस्तस्मात् कारणात् हे कृतज्ञ चतुर मदत्तजलै मया दत्त लैः चत्रिपदाभिसेचनं चक्रिणः चक्रवर्तिनः पदस्य पदव्याः अभिषेचनं अभिषेक त्वया प्रतीप्य. तामड्गीक्रियताम् ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ युग्मम् । सर: सरोजाक्षि यदैक्षि तेन ते, सुतः सतोषैः सवयोभिराश्रितः। प्रफुल्लपोपगतो घनागौ-रसं रसं धास्थति साधुपालियुक् ।। ५९।। (व्या०) सरः इति । हे सरोजाक्षि सरसि जाते सरोजे कमले तद्वत् अक्षिणी यस्याः सा सरोजाक्षी तस्याः संबोधनं हेसरोजाक्षि कमललोचने त्वया यत् सरः सरोवरं ऐक्षि (ईवातो. कर्मणि अवतनो । ) दृष्टम् । तेन कारणेन ते तव सुतः सरोवररस पानीय शगारादिरस वा धास्यति धरिष्यति कथभूतस्तव सुतः सरोवरं च सतोषैः (सहस्तेन । ३-१-२४ । इ. सू बहुव्रीहिसमासः । सहस्य सोऽन्यार्थे । ३-२-१४३ । इ. सू सहस्य सो वादेश ) तोपेण सह वर्तन्ते इति सतोषास्तै सहर्षे. सवयोभिः समानं वयो येषां ते सवयस तैः सवयोभिः ( एकार्थ चानक च । ३-१-२२ । इ. सू. बहुव्रीहिसमास । समानस्य धर्मादिषु । ३-२-१४९ । इ. सू. समानस्य स. । ) मित्रः प्रधानवयोभिः पक्षिभिर्वा आश्रितः प्रफुल्लपोपगतः प्रफुल्लया विकस्वरया पनया लदाया पक्षे प्रफुल्लः ५ः कमलैः उपगतः । साधुपालियुक् साधूनां पालि. श्रेणिः वा' मनोज्ञा पालिः तया युज्यते इति । किंविशिष्ट सं धनागमौरसं धनो बहुरागमः सिद्धान्तः पक्षे धनागमो वर्षर्तुः तस्मात् औरसमुत्पन्नम् ॥ ५९ ॥ मयैव जातानि मयैव वर्धिता-याङ्मुखीभूय ममावतस्थिरे । इमानि पद्मानि रमानिवासता-मवाप्य माद्यन्मधुपैश्च सङ्गतिम् ॥६०॥ प्रशाधि विश्वाधिप किं करोम्यहं, त्वमीशिष मूढजनानुशासने । इदं वदंस्तत्त्वधियः कृते स्वयं, जड स्तडागः किमुपास्त ते सुतम् ॥६॥ (व्या०) मयेति । प्रिये स्वयं जडो मूर्ख शीतलो वा तडाग इदं वदन् सन् तावधियः तत्वानां धीस्तस्याः कृते परमार्थबुद्धयर्थं किं ते तब सुतमुपास्त Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (३०१ सिवे । इदमिति किं इमानि मयैव जातानि मयैव वर्धितानि रमानिवासतां निवासस्य भावो निवासता रमाया निवासता तां लक्ष्म्यावासत्पम् । च अन्यत् माद्यन्मवुपै. (आतोडोऽद्वावामः । ५-१-७६ । इ सू. मधुशब्दपूर्वकपाधातोः डः प्रत्ययः डित्वात् आलोप ।) माधन्तश्च ते मधुपाश्च तैः मत्तभ्रमरैमद्यपैर्वा सड्गतिभवाप्य मम अवाड्मुखीभूय अवाड्मुखं येषां तानि अवाड्मुखानि अवाड्मुखानि भूत्वा अवतस्थिरे । हे विश्वाधिप विश्वानामविपः तस्य संबोधनं हे विश्वाधिप हे चक्रवर्तिन् प्रशाधि (शासऽसहनः शाध्येधिजाह । ४-२-८४ । इ. सू. शास्धातोः यन्तस्य निपात ।) शिक्षां देहि । अहं किं करोमि त्वं मूढजनानुशसने मूढाश्वते जनाश्च तेषामनुशासनं तस्मिन् मूर्खजनशिक्षणे ईशिषे समर्थो भवसि ॥ ६० ॥ ६१ ॥ युग्मम् । निमालनानीरनिधेरधीश्वरः, सरस्वतीनां रसपूर्तिसंस्पृशाम् । अलब्धमध्योऽर्थिनिराश्रितो धनैः, सुतस्तवात्येष्यति न स्वधारणाम् ६२ (०या०) निभालनमिति । हे प्रिये नीरनिधेः नीराणां जलानां निधिः तस्य समुद्रस्य निभालनात् दर्शनात् । रसपूर्तिसंस्पृशाम् रसानां शृङ्गारादीनां पूर्ति (स्त्रियां क्ति । ५-३-९१ । इ. सू. धातो. स्त्रियां भावे तिः । ओष्ठ्यादुर् । ४-४-११७ । इ. सू. तो परेपृधातोः ऋकारस्य उर । भ्वादेमिनो दीर्वोयञ्जने । २-१-६३ । इ सू. उकारस्य दीर्घः । ) पूरणं पक्षे रसस्य जलप्य पूर्ति. पूरणं तां संस्पृशन्ति इति रसपूर्तिसंस्पृश-(स्पृशोऽनुदकात् । ५-१-१४९ । इ. सू रसपूर्तिपूर्वकसंस्पृशधातो. कि प्रत्ययः ।) स्तासां सरस्वतीनां वाणीनां नदीनां च अधीश्वर स्वामी । अलब्धमध्य अलब्धं मध्यं यस्य स. गंभीर. । घनैर्बहुभिरर्थिभिर्याचकैः पक्षे घर्नेमै धैराश्रितः एवंविवस्तव सुत. स्वधारणां स्वस्यधारणा तां निजमर्यादा न अत्येष्यति न अतिक्रमिष्यति ॥१२॥ प्रचेतसापि स्फुटपाशपाणिना, कृपाणिना मध्यशयेन जिष्णुना । न राजनीतेः किल कुलमुद्जो, न्यवारि मात्स्यः समयो भवन्मयि ६३ धरातलं धन्यमिदं त्वयि प्रभो, न यन्नयव्यत्ययदोषमाप्स्यति । इति स्ववीचिध्वनितैरिवस्तुवन् , किमाविरासीत्पुरतोऽस्य वारिधिः ६४ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः९ (व्या०) प्रचेतसा इति । हे प्रिये वारिधिः (व्याप्यादाधारे । ५-३८८ । इ. सू. वारिपूर्वकधाधातोः किः । इडेत्पुसीति सू. आलोपः । वारीणि धीयन्ते अस्मिन् इति वारिधिः । ) समुद्रः अस्य तव पुत्रस्य पुरतः अग्रे इति अमुना प्रकारेण स्ववीचिबनित स्वस्य वीचीनां ध्वनितानि तैः स्व+ल्लोलशब्दितः स्तुवन् इव स्तवीति इति स्तुवन् किमाविरासीत प्रकटीबभूव । इतीति किं स्फुटपाशपाणिना स्फुटः पाशः पाणौ यस्य सः तेन प्रकट पाशहस्तेन प्रचेतसापि वरुणेनापि । कृपाणिना कृपाणोऽस्यास्तीति तेन खड्गयुक्तेन मध्यशयेन (आधारात् । ५-१-१३७ । इ. सू मध्ये इति आधारपूर्वक शोधातो. अप्रत्ययः । डस्युक्त कृता । ३-१-४९ । इ. मू. नित्यतत्पुरुष ।) मध्ये शेते इति मध्यशयस्तेन मध्यवर्तिना जिष्णुना (भूजे प्णुक । ५-२-३० । इ सू शीलादिसदर्थे जिधातोः प्णुक् प्रत्ययः कित्त्वात् न गुण । जयति इत्येवंशोल. जिष्णुः।) नारायणेन किल इति सत्ये राजनीतेः राज्ञां । नीतिस्तस्या. कूलमुद्रुज' कूलमुद्रुजतीति कुलमुद्रुजः (कूलादुद्रुजोद्वहः । ५-१-१२२ । इ सू कुलकर्मपूर्वकउद्रुजूवातो. खश् प्रत्ययः । खित्यनव्ययाऽरुषोर्मोऽन्तो हम्बश्च । ३-२-१११ । इ. सू. मोऽन्त ।) कूलंकष मात्स्यः समय' मत्स्ये गिलगिलन्यायो मयि भवतीति भवन् सन् न न्यवारि न वारित । इदं धरायास्तलं पृथ्वीतलं धन्यम । यत् यस्मात्कारणात् त्वयि प्रभौ सति व्यत्ययस्य दोषो व्यत्ययदोषरतं न्यायविपरीतत्वदोषं न आप्स्यति न प्राप्स्यति ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ युग्मम् । प्रिये विमानेन गतेन गोचरं, समीयुषा भोगसमं समुच्छ्यम् । उदारवृन्दारकवल्लभश्रिया, भवद्भुवा भाव्यमदभ्रवेदिना ।। ६५ ॥ (व्या०) प्रिये इति । हे प्रिय विमानेन गोचरं गतेन पृष्टेन सता भवभुवा भवत्या. भुवा तव पुत्रेण विमानसदृशेन भाव्यम् । किं विशिष्टेन तव पुत्रेण विमानेन च भोगसमं भोगस्य सम भोगसदृशं पक्षे आभोगसम आभोगस्य विस्तारम्य समं सदृशं समुच्छ्रयं वृद्धिं समोयुषा रामीयाय इति समीयिवान् तेन प्रासेन । पुन' उदारवृन्दारकवल्लभश्रिया उदारा दातारस्तेपु वृन्दारका देवम। - तेषां पमा श्री शोभायस्य स. पक्षे उदारा प्रोढा ये वृन्दारका (वृन्दादारका । ७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजैनकुमारसम्भवास्यं महाव्यम् टीकासमलंतम् ॥ सर्ग: ९ (३०३ २-११ । इ. सू. मत्वर्थे वृन्दशब्दात् आरक प्रत्ययः । प्रशस्तं वृन्दमस्ति एषामिति वृन्दारकाः) देवास्तेषां वलमा श्रीलक्ष्मीर्यस्य सः तेन पुनः अदम्रदिना अददंबहुवेत्तीति अद्भवेदी तेन अदभ्रवेदिना पक्षे अदभ्रा वेदिवलभी यस्य स तेन ।। ६५ ॥ पुराश्रितमा परिहत्य यन्महीं, पुनासि पड्केरुहतापदैः पदैः । किमत्र हेतुर्मयि दोषसंभवो, विरागता वा चिरसंस्तपोद्भवा ।। ६६ ॥ नवीनपुण्यानुपल मतोऽय चे-विरक्तिरश्चिष्यसि तत्कथं शिवम् । प्रसीद मामेशथवोपयुज्यते, चट्टक्तिरस्नेहरसे न सेतुवत् ।। ६७ ॥ यदि त्वयात्यज्यत हन्त ताविषो, विपोपमः सोऽस्तु न तन्ममापि किम्। किमियमुष्यानुपदीनमागतं, सुधाशिधामानुनयाय तन्धि वा ॥ ६८ ॥ त्रिभिविशेषकम् । (व्या०) पुराइति । हे तन्त्रि वा अथवा सुवाशिधाम सुधाममृतमश्नन्ति इति सुधाशिनो देवास्तेषां धाम अमरविमानं किं इति अमुना प्रकारेण अमुष्य तब पुत्रस्य अनुनयाय स्नेहकरणाय अनुपदीन पृष्ठलग्नमागतम् । इतीति किं हे स्वामिन् त्वं पुराश्रितं मां परिहत्य त्यक्पा यत् पङ्केरहतापदैः पङ्के रोहन्तीति पड्केरुहाणि ( अद्वयञ्जनात् सप्तम्या बहुलम् । ३-२-१८ । इ सू. सप्तम्या लुप् न ) कमलानि तेषां तापं संतापं ददतीति पड़केरुहतापदास्तैः पदैश्चरणेः महीं पृथ्वी पुनासि पवित्रीकरोषि । अत्र मयि विषये दोषसंभवः दोषाणां संभवः किं हेतुः । वा अथवा चिरसंस्तवोद्भवा चिरं संस्तवात् उद्धव उत्पत्तिर्यस्याः सा चिरकालीनपरिचयोत्पन्ना विरागता विरागस्य भावों वैराग्यं वर्तते । अथ चेत् यदि नवीनपुण्यानुपलभत. नवीनं (नवादीनतननं च न चास्य । ७२-१६० । इ. सू स्वार्थ नवशब्दात् ईनप्रत्ययः ।) च तत् पुण्यं च नवीनपुण्यं तस्य अनुपलंभात् अप्राप्तेविरक्तिवर्तते । तत् शिवं मोक्षं कथमश्चिष्यसि यास्यसि । प्रमोद प्रसाद कुरु मां एहि । अथवा अस्नेहरसे स्नेहस्य रसः स्नेहरस न विद्यते स्नेहरसो यस्मिन् स अस्नेहरसस्तस्मिन् पुरुषे चटूक्तिश्चाटुवचन Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ९ सेतुवत् पालिवत् सेतुना तुल्यं नोपयुज्यते न उपयोगमेति । हन्त इति वितर्के यदि त्वया ताविषः ( तवेर्वा । ५५० । इ. उ. सू. तव गतौ इति सौत्रधातोः टित् इष प्रत्ययः स च णित् वा णित्त्वात् वृद्धिः तव्यते गम्यते शुभकर्मवशात् अस्मिन् इति ताविषः ।) स्वर्गोऽत्यज्यत व्यक्त ' स ताविष' स्वर्गे ममापि विषोपमः विषं उपमा यस्य स विषोपम न अस्तु अपितु अस्त्वेव ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । विलोकितें रत्नगणे स ते सुतः, स्थितौ दधानः किल काञ्चनौचितिम् । उदंशुमत्रासमुपास्य विग्रहं, महीमहेन्द्रैर्महितो भविष्यति ।। ६९ ।। ( व्या० ) विलोकिते इति । हे प्रिये किल इति सत्ये ते तव स सुतःपुत्रः रत्नानां गणः समूहस्तस्मिन् रत्नगणे विलोकिते दृष्टे सति रत्नगणवत् उदशं उगता अंशवो यस्य तं उद्गतकिरणम् । अत्रासं न विद्यते त्रासो भयं यस्य तं भयरहितं दवरकरहितं वा विग्रहं युद्धं शरीरं वा उपास्य संसेव्य महीमहेन्द्रैः नह्या' पृथिव्याः महेन्द्रास्तै' महेन्द्रैर्वा पृथ्वीसत्कराजभिर्महितः पूजितो भविष्यति। किं कुर्वाणस्तवसुतो रत्नगणश्च स्थितौ मर्यादायां काञ्चन अपूर्वा औचितिं योग्यतां दधानः (शत्रानशा वेष्यति तु सस्यौ । ५-२-२० । इ. सू. सदर्थे धाधातोः आनश् प्रत्ययः ) धत्ते इति दधानः पक्षे स्थितौ अवस्थाने काञ्चने सुवर्णे. औचितिं दधान ॥ ६९ ॥ न रोहणे कर्कशतागुरौ गिरौ, न सागरे वाऽनुपकारिवारिणि । अहं गतो निर्मलधामयोग्यतां, शुचौ सभीहे तव धानि तु स्थितिम् ७०परार्थवैयर्थ्यमलीमसं जनुः, पुनीहि मे संततदानवारिणा । तवेति वा प्रार्थयितुं स गर्भगः सुखं सिषेवे किमु रत्नराशिना ॥ ७१ ॥ " 1 (व्या०) नेति । हे प्रिये वा अथवा तव स गर्भग' (नाम्नो गम खड्डौ च विहायसस्तु विहः । ५- १ - १३१ । इ. सू. गर्भगब्दपूर्वक गमधातोर्डः डित्वात् अन्त्यस्वरादि लोप. 1) पुत्र रत्नराशिना रत्नानां राशि समूहस्तेन रत्नसमूहेन इति प्रार्थयितुं किमु इति किं सुखं सिपेवे सेवित । इतीति किं अहं Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजनमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलकृतम् ॥ सर्गः ९ (३०५ कर्कशतागुरौ कर्कशस्य भाव कर्कशता काठिन्यं तया गुरौ गरीयसि गिरौ रोहणाचले वा अथवा अनुपकारिवारिणि उपकरोतोति उपकारि न उपकारि अनुपकारि अनुपकारि वारि यस्य स अनुपकारिवारिस्तस्मिन् सागरे उपकाररहितजले समुद्रे निर्मलधामयोग्यता निर्मलं च तत् धाम च स्थानकं तस्य योग्यता तां निर्मलस्थानकयोग्यतां न गत न प्राप्त । तु पुनः शुचौ पवित्रे तव धाम्नि स्थिति समीहे । हे स्पानिन् परार्थवैयर्थ्यमलीमसं परार्थस्य परोपकारस्य वैयर्थेन निरथकत्वेन मलीमसं ( मलादीमसश्च । ७-२-१४ । इ. सू. मलशब्दात् मत्वर्थे ईमसप्रत्ययः मलोऽस्ति अस्येति मलीमसम् । ) मलिनं मे जनुः मदीयं जन्म संततदानवारिणा सन्ततं निरन्तरं दानव पारि जलं तेन पुनीहि पवित्रं कुरु ॥ ७०-७१ ॥ युग्मम् । स्फुरन्महाः प्राज्यरसोपभोगतो, गतो न जाइयं धुतिहेतु हेतिभृव । तव ज्वलह्निविलोकनात्सुतो, द्विषः पतङ्गानिव धक्ष्यति क्षणात् ७२ (व्या०) स्फुरनिति । हे प्रिये तव सुत' पुत्र' ज्वल निविलोकनात्ज्वलंश्चासौ वह्निश्च तम्य विलोकन तस्मात् निधूमवैश्वानरदर्शनात् द्विषः शत्रन् पतङ्गानिव क्षणात् धक्ष्यति भस्मीकरिष्यति । किंविशिष्टः तव सुतो वह्निश्च प्राज्यरसोपभोगतः प्राज्या प्रभूता चासौ रसा च पृथ्वी पक्षे प्रकृष्ट' आज्यस्य घृतस्य रसः तस्या च तस्य उपभोगतः उपभोगात् स्फुरन्महा स्फुरत् महो यस्य स प्रसरत्तेजाः । पुन. जाडयं जडवं मूर्खत्वं शीतत्वं न गत । द्युतिहेतुहेतिभृत् चुते. कान्तेर्हेतवो या हेतयः ( सातिहेतियूतिजूतिज्ञप्तिकीर्तिः । ५-३-९४ । इ. सू. हेतिशब्दो निपात्यते । ) शस्त्राणि ज्वाला वा ता विभर्ति घरतीति ।। ७२ ॥ प्रभो न मां कोऽप्युपलक्षयिष्यति, क्षितौ चिरागोचरमागतोऽस्मि यत् । मनुष्व मूर्ति मम तैजसीमिमां, महानसि स्थापय तन्महानसे ॥७३॥ जने जिघत्सौ यदतीव जीवनं, मयैव तद्भक्ष्यमुपस्करिष्यते । इति स्वरूपं किममुष्य भाषितुं, भुवि प्रवेक्ष्यन्ननलोऽस्फुरत्पुरः ॥७४॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૦૬) શ્રીનિમારમવાર્થ મહાશાવ્યમ્ દીશામર્દનમ ૧ (व्या०) प्रभो इति । अनलो वैश्वानरः अमुष्य तव पुत्रस्य किं इति भाषितुं भुवि पृथिव्यां प्रवेक्ष्यन् प्रवेष्टुकामः सन् पुरोऽग्रेऽस्फुरत् । इतीति कि हे प्रभो क्षितौ पृथिव्यां मां कोऽपि न उपलक्षयिष्यति । यत् अहं चिरात् बहुकालेन गोचरं (गोचरसंचरवहनजव्यजखलापणनिगमबकभगकषाकषनिकषम्। ५-३-१३१ । इ. सू. गोचरशब्दः पुंसि धान्तोनिपातः 1) दृष्टिमार्गमागतोऽस्मि । मम इमां, तैजसी मूर्ति मनुष्य जानीहि । त्वं महान् असि । तत् तस्मा. कारणात् मां महानसे (महत् च तत् अनश्च महानसं । सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् । ३-१-१०७ । इ. सू. कर्मधारयसमास: । जातीयैकार्थेऽच्चे । ३-२-७० । इ. सू. अनस् उत्तरपदे महतो डाः । डित्वात् अन्त्यस्वरादिलोपः । सरोऽनोऽश्माऽसो जातिनानोः । ७-३-११५ । इ. सू. महतशप्दपूर्वकअनसन्तात् तत्पुरुषाद । ) पाकस्थाने स्थापय । जिघत्सौ ( तुमर्हादि छायां सन्नतत्सनः । ३-४-२१ । इ. सू. अद्धातोऽरिच्छाथै सन् । पलसनद्यतनीधचलि। ४-४-१७। इ. सू. सनि परे अदो धस्ट आदेश । सन् भिक्षासंशेरुः। ५-२-३३ । इ. सू. निधत्स् इति सनन्तात् उ । ) अत्तुमिच्छति इति जिधत्सति निघत्सति इति जिघत्सुस्तस्मिन् बुभुक्षिते जने लोके यद् भक्ष्यं अतीव जीवनं वर्तते । तद् भक्ष्यं मयैव उपस्करिष्यते ॥७३-७४॥ सुदुर्वचं शास्त्रविदामिदं मया, फलं स्वसंवित्तिबलादलापि ते । दुरासदं यद्यवसायसोष्मणां, सुखं तदाकर्षणमांत्रिकोऽश्नुते ॥७५॥ (व्या०) सुदुचमिति । हे प्रिये इदं स्वप्नफलं भया ते तव स्वसंवितिबलात स्वस्य संवित्तिनि तस्या बलात् स्वीयजानबलात् अलापि प्रोक्तम् । किंलक्षणं स्वप्नफलं शास्त्राणि विदन्तीति शास्त्रविदस्तेषां सुदुर्वचं सुष्टु अत्यर्थ दुर्वच वक्तुमशक्यम् । व्यवसायसोष्मणां व्यवसायेन ऊष्मा सह वर्तन्ते सोप्माण सगस्तेिपां यद् वस्तु दुरासदं दुखेन आसयते इति दुष्प्रापं वर्तते । तस्तु आकर्षणमान्त्रिकः आकर्षणस्य मंत्र जानाति इति आकृष्टिमंत्रज्ञः सुखं अश्नुते प्राप्नोति ॥ ७५ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्य महापाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ (३०७ पलीकतादूषणमुत्तमे न मे, मुखप्रियत्वेन गिरोऽधिरोप्यताम् । सुवर्णनाम्ना हि समर्पिता रिरी-भवेत्स्वरूपाधिगमेऽधिकार्तये ॥७६॥ (०या०) व्यलोकता इति । हे उत्तमे त्वं मे मम गिरो वाण्याः मुखप्रियत्वेन मुखस्य प्रियत्वं तेन व्यलीकतादूपणं ०यलीकस्य भावो व्यलोकता असत्यता सा एव दूषण न अधिरोप्यतां मा स्थाप्यताम् । रिरीपित्तलं हि निश्चित सुवर्णनाम्ना सुवर्णस्य नाम तेन समर्पिता स्वरूपाधिगमे स्वरूपस्य अधिगमोजानं तस्मिन् स्वरूपे ज्ञाते सति अधिका चासौ आर्तिश्च पीडा तस्यै अधिकपीडायै भवेत् ॥ इदं वदन्तं भगवन्तमन्तग-लयं नमःस्था ऋभवो भवन्मुदः । सुमेरसिञ्चन् जय संशयक्षया-मयागदंकारवरेति वादिनः ॥ ७७ ॥ (व्या०) इदमिति ॥ नभः स्था नभसि आकाशे तिष्ठन्तीति आकाशस्था ऋभवोदेवाः भवन्मुद भवन्ती मुद् येषां ते जायमान हर्षाः सन्तः अन्तरालयं ( पारे मध्येऽग्रेऽन्त पष्ठया वा। ३-१-३० । इ. सू. अव्ययीभावसमासः ) आलयस्य अन्तरापासस्य अन्तर्मध्ये इदं वदन्तं भगवन्तं सुभैः कुसुमैरसिञ्चन् । किंलक्षणा ऋभवः हे संशयक्षयामयागर्दकारवर संशय संदेहः स एव क्षयनामा आमयः रोगः अगदं करोतीति अगदकारोवैधः (कर्मणोऽण् । ५ । १।७२ । इ. सू. अगदकर्मपूर्वक कृधातो. अण् । नामिनोऽकलिहले: । ४ । ३ । ५१ । इ. सू. अणिपरे कृधातो. *कारस्य वृद्धि. । डयुक्तं कृता ! ३ । १ । १९ । इ. सू. तत्पुरुष समासः । सत्यागदास्तो कारे । ३ । २ । ११२ । इ. सू. कारशब्दे उत्तरपदे अगदशब्दस्य मोऽन्तः ।) तेषु वरः उत्तमस्तस्य संबोधन संशयक्षयामयस्य अगदकारवर हे राजवैद्य त्वं जय इति वादिनः इति वदन्तीति ।। श्रुत्वेदं दयितवचः प्रभोदपूर्या, दधे सा समुदितकंटकं वपुः स्वम् । पभिन्या निजमुखमित्रपद्ममातु-न्यकर्तु किमिह सकंटकत्वदोषम् ॥७८॥ (व्या०) श्रुत्वेति । सा सुमङ्गला इदं दयितवचः दयितस्य वचस्तत् श्रीषभदेववचनं श्रुत्वा प्रमोदपूर्या प्रमोदस्य पूर्तिस्तया हर्षपूरेण स्वं वपुः आत्मीयं शरीरं समुदितकंटक समुदिताः कंटका यस्य तत् उद्गतरोमाञ्चं दधे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८) श्री जैन कुमारसम्भवाथ्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ९ धरति स्म । किंकर्तुं निजमुखभित्र पद्ममातु` निजमुखस्य मित्रं यत् पद्म कमलं. तस्य माता जननी पद्मिनी तस्याः इह जगति किंसकंटकत्वदोषं कंटकै सह वर्तते इति सकंटका तस्या भाव' सकंटकत्वं तदेव दोषस्तं न्यक्कर्तु निराकर्तुम् ॥७८॥ तामेकतोऽमृतमयीमभितश्चकार, स्वार्थसम्यगुपलब्धिभवः प्रमोदः । चक्रेऽन्यतश्च दवदाहमयीं विषादः, प्राणेशितुर्वचनपानविरामजन्मा ॥ ७९ ॥ ( व्या० ) तामिति । स्वनार्थसम्यगुपलब्धिभवः (स्वप्नानामर्थस्य सम्यकः उपलब्धिः प्राप्तिः तस्या भवः उत्पन्न' प्रमोदो हर्षः तां सुमङ्गलां ( सर्वोभयाभिपरिणा तसा । २-२ - ३ । इ. सू. अभितोयोगे द्वितीया ) अभितः समन्ततः एकतः अमृतमय चकारः । अन्यतश्च प्राणेशितुः प्राणानामीशिता स्वामी तस्य श्री ऋषभदेवस्य वचनपानविरामजन्मा वचनरूपामृतस्यपानं तस्य विरामो निवर्तनं तस्मात् जन्म उत्पत्तिर्यस्य सः विषाद दवदाहमय दवस्य वनाग्नेर्दाहरतन्मय चक्रे ।। ७९ ।। नहि बहिरकरिष्यद्वक्ष सोऽस्याः स्तनाख्यं, यदि तरुणिमशिल्पी मंडपद्वन्द्वमुचैः । तदिह कथममास्यल्लास्यलीलां दधानं, प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतमानन्दयुग्मम् ॥ ८० ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनी सानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गों जैनकुमारसंभवमहाकाव्ये गतस्तस्वभाक् ॥ ८१ ॥ ( व्या०) नहि इति । तरुणिमशिल्पी तरुणस्य भावस्तरुणिमा तरुणिमा एवं शिल्पी यौवनरूपविज्ञानी अस्याः सुमङ्गलायाः स्तनाख्यं स्तन इति आख्या यस्य तत् मंडपद्वन्द्वं मंडपयोर्द्वन्द्वं युगलं तत् उच्चैरत्यर्थं यदि वक्षसो हृदयात् Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३०९ बहिनहि अकरिष्यत् । तत् तदा इह वक्षसि आनन्दयुग्मं आनन्दयोयुग्मं कथं अमास्यत् । किं कुर्वाणं आनन्दयुग्मं लास्थलीलां लास्यस्य तांडवनृत्यस्य लीला धत्ते इति दधानम् । पुन: प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतं सुतस्याप्तिः सुताप्तिः प्रभुवचनं च सुतातिश्च प्रभुवचनसुताप्ती ताभ्यां स्फीतं प्रौढम् ॥ ८० ।। इतिश्रीमदचलगच्छकविचक्रवत्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमार संभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्यश्रीधर्भशेखरमहोपाध्यायकृतायां टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरशोधितायां नवमसर्गव्याख्या समाता ॥ ९ ॥ ॥ अथ दशमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ साथ नाथवदनारविन्दतो, वामपन्दमुपजीव्य निर्भरम् । उज्जगार मृदुमंजुलां गिरं, गौरवादिति सदालिवल्लभा ॥१॥ (व्या०) सा इति । अथानन्तरं सा सुमङ्गला गौरवात् गुरोर्भावो गौरवं तस्मात् मृदु मंजुला मृद्धीचासौ मंजुला च तां सुकुमारां मनोज्ञा गिरं वाणी उज्ज. गार उद्गिरतिस्म । किंलक्षणा सुमङ्गला सदा सर्वदा आलिवल्लभा आलीनां सखीना वल्लमा अभीष्टा अलिवल्लभा भ्रमरीसमाना । किंकृत्वा नाथवदनारविन्दतः नाथस्य श्रीपभस्वामिनो वदनं मुखमेव अरविन्दं कमलं तस्मात् स्वामिमुखकमलात् वाक् एच मरन्दरत वाड्मरन्दं वचनमकरन्दं निर्भर अत्यर्थ उपजीव्य निपीय ॥ १ ॥ लब्धवर्णजनकर्णकर्णिका, वाञ्छितार्थफलसिद्धिवर्णिका। दीधितिघृतजडिस्नि पावकी, वाग विभो जयति कापि तावकी ॥२॥ (व्या०) लब्ध इति । हे विभो हे स्वामिन् कापि तावकी (वा युष्मदस्मदोऽत्रीनौ युष्माकास्माकं चास्यैकावेतु तवकममकम् । ६ । ३ । ६७ । इ. सू युष्मद अञ् प्रत्ययः एकवचने तवकादेश । अणजेयेकण न स्नहिताम् । २ । ४ । २० । इ सू स्त्रियां डो ।) तव इयं त्वदीया वाक् जयति । किं Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०) श्रीजैनकुमारसम्भवाल्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥सर्ग:१० लक्षण वाक् लब्धवर्णजनकर्णकर्णिका लब्धा वर्णा यैस्ते लब्धवर्णाः विद्वांसः लब्धपश्चिते जनाश्च विद्वज्जनास्तेषां कर्णयोः कणिका कर्णाभरणम् । पुनः पाञ्छितार्थफलसिद्धिवर्णिका वाञ्छिताश्चते अर्थाश्च तेषां फलानि तेषां सिद्धेवर्णिका । पुनः धृतजडिम्नि जडस्य भावो जडिमा जाडयं धृतवत् जाडयं यस्मिन् स तस्मिन् घृतजाडये पुरुष पावकस्याग्नेरियं पावकी वह्निसंबधिनी दीधिति. कान्तिः ॥२॥ रूपमीशसमकं दिदृक्षते, तावकं यदि सहस्रलोचनः । ईहते युगपदञ्चनं च ते, चेत् सहस्रकर एव नापरः ॥ ३ ॥ (व्या०) रूपमिति । हे ईश तावकं तवेदं रूपं यदि समकं समकालं दिदृक्षते द्रष्टुमिच्छतीति दिदृक्षते विलोकयितुमीहते तर्हि सहस्र लोचनानि नेत्राणि यस्य स सहस्रलोचनः इन्द्रः एव नापर. । दिदृक्षते इत्यत्र स्मृदृ। इति सूत्रेणात्मनेपदं भवति । च अन्यत् चेत् यदि ते तव युगपत् समकालं अञ्चनं पूजन ईहते पाञ्छति । तदा सहस्रं कराः किरणा यस्य स सहस्रकरः सूर्यः एव नापरः ॥ ३ ॥ यो बिभर्ति रसनासहस्रक, द्वथाहतत्वमधिरोप्य सोऽप्यलम् । देव वक्तुमखिलान ते गुणा-न्मादृशः किमबलाजनः पुनः ॥ ४ ॥ (व्या०) य इति । हे देव योद्वयाहतत्वं द्वाभ्यामाहतत्वं द्विगुणत्वं अधिरोप्य रसनासहस्रं रसनानां सहस्रं तत् जिह्वासहस्रं बिभति । सोऽपि शेषनागः तव अखिलान् समस्तान् गुणान् वक्तुं न अलं न समर्थ । माशो मत्सदृश अबला एवं जनः स्त्रीजन: किं पुन: ॥ ४ ॥ धीधनोचित भवद्गुणस्तवा-द्वारकेऽपि निजजाडयचिन्तने । उच्यते किमपि नाथ यन्मया, भक्तितन्मयतया तदर्थताम् ॥ ५॥ (व्या०) धी इति । हे नाथ मया निजजाध्यचिन्तने निजस्य जाडयं मुर्सत्वं तस्य चिन्तने आत्मीयमूर्ख वचिन्तने। धीधनोचितभवद्गुणस्तवान् धीः धनं येषां ते धीधना विद्वांसः तेषां उचिता ये भवतो गुणास्तेषां स्तवान् विद्धजनयोग्यावदीयगुणस्तवान् निवारयतीति निवारकं तस्मिन् सत्याप किमपि उच्यते Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजनमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३११ कथ्यते । तत् भक्तितन्मयतया तदेव तन्मयं तस्य भावो तन्मयता भक्तेः तन्मयता तया अवधार्यतां ज्ञायताम् ॥ ५ ॥ स्वादुतां मृदुलतामुदारतां, सर्वभावपटुतामकूटताम् । शंसितुं तव गिरः समं विधिः, किं व्यधान्न रसनागणं मम ॥ ६ ॥ (या०) स्वादुतामिति । हे नाथ विधिः विधाता तव गिरो वाण्याः स्वादुतां स्वादुनो भाव स्वादुता तां सुस्वादुत्वं मृदुलतां मृदुलस्य भावो मृदुलता तां सौकुमार्यत्वं उदारतां उदारस्य भाव उदारता मौदार्य सर्वभावपटुतां पटोर्भावः पटुता सर्वे च ते भावाश्च सर्वमावास्तेषु पटुता तां पटिष्ठतां अकूटतां कूटभावः कूटता न कूटता अकूटता तां सत्यतां समं समकालं शंसितुं स्तोतुं मम रसनागणं रसनानां गणस्तं जिह्वासमूहं किं न व्यधात् न अकरोत् ॥ ६ ॥ किन्तु ते हृदि गभीरतागुणं, शिक्षितुं वसति दुग्धसागरः। ईगुक्तिपयसां यदर्मयो, विस्फरन्ति बहिराननाध्वना ॥ ७॥ (व्या०) किन्तु इति । हे नाथ तु इति वितर्के दुग्धसागरः दुग्धानां (दुह्यते इति दुग्धं । लोबे क्तः । ५ । ३ । १२३ । इ. सू. भावे दुधातोः क्तः । भ्वादेदिर्घः । २-१-८३ । इ. सू. हस्य घ. । अधश्वतुर्थात् तथोधः । २ । १ । ७९ । इ. सू. प्रत्ययस्य तस्य धकारः । तृतीयस्तृतीयचतुर्थे । १। ३ । ४९ । इ सू. धे परे पूर्वघस्य ग.) सागर: क्षीरसमुद्रस्तव हदि गभीरतागुणं गभीरस्य भावो गभीरता सा एव गुणस्तं गांभीर्यगुणं शिक्षितुं कि चसति । यत् ईगुक्तिपयसां ईदृशश्चताः उक्तयश्च ईगुक्तयः ता एव पयांति तेषां ईशवचनदुग्धानां ऊर्मयः कल्लोलाः आननाध्वना आननस्य मुखस्य अध्वा मार्गस्तेन मुखमागेण बहिर्विस्फुरन्ति प्रसरन्ति ॥ ७ ॥ सस्थमेव सुखयन्यहो जनं, दुःखितेष्वपि सुख ददानया । बिभ्यतीव भवतो जिता गिरा, किं सुधा न वसुधामियति सा ॥८॥ (व्या०) स्वस्थमिति । हे नाथ भवतो गिरा त्वदीय वाण्या जिता सती सा सुधा वसुधां पृथ्वी कि न इयति नागच्छति । उप्रेक्षते बिभ्यती इस बिभेति Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० n इति भयान्ता इव किंकुर्वाणया तब गिरा अहो इति आश्चर्ये दु खितेषु अपि सुखं दत्ते इति ददाना तया ददानया । किंकुर्वती सुधा स्वस्थं स्व तिष्ठतीति तमेव जनं सुखिनं करोतीति सुखयति सुखयतीति सुखयन्ती सुखिनं जनं कुर्वती ॥ ८ ॥ वैधवं ननु विधिर्न्यधात्सुधा - सारमत्र सकलं भवगिरि । पूर्णिमोपचितदेहमन्यथा, तं कथं व्यथयति क्षयामयः ॥ ९ ॥ 1 ( व्या० ) वैधवमिति । हे नाथ विधिर्विधाता वैधवं विधोरयं वैधवस्तूं चन्द्रसाकं सुधासारं सुधाया अमृतस्य सारस्तं सकलं संपूर्ण अत्र अस्यां भवतो गीः भवद्गी· तस्यां भवद्गिरि त्वद्वाभ्यां न्यधात् ( पिवैतिदाभूस्थः सिचो लुप् परस्मै न चेद् । ४-३-६६ । इ. सू. न्यधात् इत्यत्र सिचो लुप् ) क्षिप्तवान् अन्यथा क्षयामयः क्षय इति आमय क्षयरोगः । तं पूर्णिमोपचितदेहं पूर्णिमायां - उपचितः वृद्धिं गतो देहो यस्य तं पूर्णिमायां पुष्टदेहं चन्द्रं कथं व्यथयति पीडयति ॥ ९ ॥ बद्धधारममृतं भवद्वचो, निर्व्यपायमभिपीय साम्प्रतम् । प्रीतिभाजिनि जनेऽत्र नीरसा, शर्करापि खलु कर्करायते ॥ १० ॥ (५०) बद्ध इति । हे नाथ शर्करा अपि अत्र मल्लक्षणे जने । नीरसा निर्गतो रसो यस्याः सा सती सांप्रतं अधुना खलु निश्चिते कर्करायते ( क्यङ् ३-४-२६ । इ. सू आचारे अर्थे कर्करशब्दात् क्यड् वा डित्वात् आत्मने पदम् । ) कर्कर इव आचरति । किंविशिष्टे जने बद्धधारं बहा धाका यस्य तत् अमृतं अमृतरूपं भवता वचो भवद्वचस्तत् निर्व्यपायं निर्गतो व्यपायो विनो यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा अभिपीय पीत्वा प्रीतिभाजिनि (अजातेः शीले ५-१-१५४। इ. सू शीलेऽर्थे प्रीतिशब्दपूर्वक्रमज्धातोः णिन् प्रत्ययः णित्वात् वृद्धि । ) प्रीतिं भजतीति प्रतिभाजिन् तस्मिन् ॥ १० ॥ प्राक्कषायकलुषं ततो धनं, घोलनार्पितरसं विनाशि यत् । तद्रिपूकृतघनागम समं, नाम्र भीशवच सामनीदृशाम् ॥ ११ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३१३ ( व्या० ) प्रागिति । तत् आम्र आम्रफलं ईशवचसां ईशय स्वामिनो चचांसि तेषां समं सदृशं न भवति । किंविशिष्टानां ईशवचसां अनीशां न ईदृशि अनीह शि तेषां न अनेन आम्रफलेन सदृशानाम् । किंविशिष्टमात्रं रिपूकृतघनागमं घनानामेघानामागमो यस्मिन् स घनागमोवर्षतु न रिपु. अरिपुअरिपु रिपु यथा संपवमान कृत रिपूकृत रिपूकृतो घनागमो वर्ष सिद्धान्तो वा येन तत् भगवद्वचनमागम मन्यते । अत एव अनीदृशत्वम् । यत् आम्रफलं प्राक्कषायकलुषं प्राकूपूर्वं कषायेण कलुषम् | भगवद्वचा नैवंविध स्यात् । ततोऽनन्तरं यत आनं घनं अत्यर्थम् । घोलनार्पितरस घोलनेन अर्पितो रसो येन तत् विनश्यतीति विनाशि विनश्वर वर्तते ॥ ११ ॥ द्राक्षया किल यदानुशिक्ष्यते, स्वं फलं मधुरतां भवद्भिरः । तत्तदा द्रुतमितो वियोज्यते, वेधसा ध्रुवममन्दमेधसा ॥ १२ ॥ ( व्या० ) द्राक्षयेति । हे नाथ किल इति सत्ये स्वं फलं आत्मीयं फलं भवद्भि भवता गी तस्या त्वदीयवाण्या मधुरतां मधुरस्य भावो मधुरता तां माधुर्य अनुशिक्ष्यते । तदा तस्मिन्नवसरे तत्फलं इतो द्राक्षावल्लीत दुतं शीघ्रं अमन्दमेघसा (मन्दाल्पाच्च मेधाया । ७-३-१३८ । इ. सू. मन्दशब्दपूर्वक. मेघाशब्दान्तात् बहुव्रीहे असू समासान्त ) न मन्दा अमन्दा अमन्द्रा मेघा यस्य स तेन बहुप्रज्ञावता वेधसा ध्रुवं निश्चित वियोज्यते पृथक् क्रियते ॥ १२ ॥ वारिवाहवदलं तव श्रवः - पल्वल प्रमभिवर्षतः सतः । निश्यधीश शममाम मामकं, संशयान्धतमसं तदद्भुतम् || १३ || ( व्या० ) वारीति । हे अधोग तव वारिवाहवत् वारीणि जलानि वह - तीति तेन तुल्यं मेघवत् अलमत्यर्थ श्रव पल्वल श्रव एव पल्वलं पूरयति इति श्रव पल्वल्प अत्र 'वृष्टिमाने उलुक चास्य वा' इति सूत्रेण पूरयतर्णम् प्रत्यये उकारस्य लोपे श्रव पल्वल रूपसिद्धि ॥ कर्णसर पर यथा भवति तथा अभिवर्षात सत निशि रात्रौ मामक ममेद मामकं सगयान्धतमस अन्धं करोतीति अन्वयति अन्यतीति अन्ध अध च तत् तमश्च अन्यतमसं (समवान्धात्तमसः Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪) શ્રીનકુમારસમેવા માધ્યમ થી સમર્હતમ ા સ ૨૦ ७-३-८० । इ. सू. अन्धपूर्वकतमस् शब्दात् अत् समासान्तः ।) संशय एक अन्धतमसं संशयान्धतमसं शमं शान्ति आम जगाम तत् अद्भुतमाश्चर्यम् १३ निर्गतं यदि तवाननाद्वचः, क्षीणमेव तदशेषसंशयः। कोशतोऽसिरुदितो भटस्य चे-भष्टमेव तदसत्त्वदस्युभिः ॥१४॥ (व्या०) निर्गतमिति । हे नाथ यदि तव आननात मुखात् वचो निर्गतम् तत् तदा अशेपसंगयै अशेपाश्च ते संशयाश्च तै. समस्तसंदेहैः क्षीणमेव । पेत् यदि कोशतः परिवारात भटस्य सुभस्य असि. खड्गः उदितो निर्गत: स्यात् तत् तदा असत्त्वदस्युभिः नास्ति सत्वं बलं येषां ते असत्त्वा निर्बलाः असत्वाश्वते दस्यवश्च चौ रैनष्टमेव ॥ १४ ॥ तावकेऽपि वचने श्रुति गते, यस्य मानसमुदीर्णसंशयम् । मुष्टिधामनि मणौ सुधाभुजां, तस्स हन्त न दरिद्रता गता ॥ १५॥ (व्या०) तावके इति । हे नाथ तावकेऽप तब इदं तस्मिन् वचने श्रुतिं कर्ण गते सति यस्य मानसं चित्तं उदीर्णसंशयं उदीर्ण संशयो यस्य तत् गतसंदेहं वर्तते तस्य पुंसो मुष्टिधामनि मुष्टिर्धाम स्थानं यस्य स तस्मिन् मुष्टिस्थिते सुधाभुजां सुधाममृतं भुञ्जते इति सुधाभुनो देवास्तेषां मणौ चिन्तामणौ। हन्त इति वितर्के दरिद्रता न गता ॥ १५ ॥ यत्वयोच्यन तथैव तन्महे, तन्महेश निजहृद्यसंशयम् । कम्पते किल कदापि मन्दरो, मन्दरोष न पुनर्वचस्तव ॥ १६ ॥ (व्या०) यदिति । हे महेश यद् वचस्त्वया औच्यत प्रोक्तम् । तत् तथैव असंशयं न विद्यते संशयो यस्मिन् तत् नि.सन्देहं वयं निजहृदि तन्महे विस्तारयामः 'अविशेषणे द्वौ चास्मद' इति सूत्रेण एकवचने बहुवचनम् । किल इति सत्ये हे मन्दरोष मन्दोरोषो यस्य स तस्य संबोधनं हे नन्दरोष । मन्दरो मेरु. कदापि कम्पते पुनस्तव वचो न कम्पने ॥ १६ ॥ शैलसागरवनीभिरस्खल-स्पक्ष्ममात्रभीलनानियन्त्रितम् । ज्ञानमेकमनलीकसंगतं, नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ।। १७ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाल्यं महाकाव्यम् टीकासमलंतम् ॥ सर्गः १० (३१५ (या०) शैल इति । हे नाथ एकं ज्ञानं नेत्रयुग्मं नेत्रयोयुग्मं अतिशय्य अतिशयित्वा इति अतिशय्य (विऽतियि शय् । ४-३-१०५ । इ. सू. अनिपूर्वकशीड्धातोः यपि परे शय् आदेशः । ) जित्या वर्तते । किलक्षणं ज्ञान अनलीकसंगतं न अलीकमसत्यमनलीकं सत्यं तेन संगतम् । नेत्रयुग्मं तु अलीकेन ललाटेन संगतं मिलितं भवति । पुन शैलसागरवनीभि. महदनं वनी शैलाश्च (ज्योत्स्नादिभ्योऽण् । ७-२-३४। इ. सू. मत्वर्थ शिलाशब्दात् अण् णित्त्वात्वृद्धिः शिलाः सन्ति एषु इति शैला । ) पर्वताः सागराश्च समुद्रा वन्यश्वमहद्वनानि ताभिः पर्वतसमुद्रमहवनादिभिः अस्खलत् न स्खलतीति अस्खलत् स्खलनां न प्राप्नुवत् । पुनः किंलक्षणं नेत्रयुग्मं पक्ष्ममात्रमिलनात् पक्ष्म एव 'यममात्रं तस्य मिलनात् नियन्त्रितं स्पष्टम् ॥ १७ ॥ पात्रतैलदशिकादिभिर्बल-निःसहायमधिकायितस्य ते । अश्नुते न खलु कजलध्वज-चिन्मयस्व महसः शतांशताम् ॥१८॥ (व्या०) पात्र इति । हे नाथ कजलध्वजः कज्जलं वजो यस्य स दीपः खल निश्चित ते तव चिन्मयस्य चिदेव चिन्नयं तस्य ज्ञानरूपस्य महसस्तेजसः शतांशतां शतांशस्य भावः शतांशता तां न अश्नुते न प्राप्नोति । किंविशिष्टो दीप• पात्रतैलदशिकादिभिः पात्रं च तैलं च दशिका च पर्तिका पात्रतैलशिका. ता. आदयो येषां तानि तै पात्रतैलवर्तिकाप्रमुखरुपकरणेऽवलन्। ज्वलतीति ज्वलन् दीप्यमान. । किविशिष्टस्य महस: नि सहायं निर्गतः सहायो यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा साहाय्यरहित अधिकायितस्य आधिक्यं प्राप्तस्य ॥ १८ ॥ सर्वतो विकिरतोऽपि कौमुदी, यस्य शाम्यति न कालिमा हृदः। स स्पृशत्यपि न ते तमस्विनी-वल्लभः स्वपरमासि चिन्महः ॥१९॥ (व्या०) सर्वत इति । सर्वतः सर्वपार्वतः कौमुदी ज्योत्स्ना विकिरतोऽपि विकिरतीति विकिरन् तस्य विस्तारयितोऽपि यस्य चन्द्रमस हदो हृदयकालिमा न शाम्यति । स तमस्विनी वल्लभः तमस्थिन्या रात्रेवल्लभ स्वामी चन्द्रः ते तव Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० चिन्महः चिदेव महस्तत् ज्ञानतेज स्पृशति अपि न । किंविशिष्टं चिन्मह स्वपरभासि स्वस्य आत्मन. परस्य अन्यस्य भासि प्रकाशकम् ॥ १९ ॥ जाड्यहेतुनि हिमर्तु संकटे, याति याऽतिकृशतां रवेः प्रभा । तां गिरस्तव सदेव दिधुतो, लज्जते बत सपत्नयन्न कः ॥ २० ॥ ( व्या० ) जाड्य इति । हे नाथ या रखे. सूर्यस्य प्रभा कान्तिर्जाड्यहेतुनि जडस्य भावो जाड्यं जडत्वं तस्य हेतु कारणं तस्मिन् हिमर्तुसंकटे हिमतः संकटं तस्मिन् सति अतिकृशतां याति तां प्रभां सदैव दिद्युत ( दिधु दह-जगज्जुहू वाक्प्राधी श्री ज्वायतस्तूकटपरित्राट्म्राजादय किप् ५ - २ - ८३ इ. सू. शीलादिसदर्थे किन्त दिद्युत् निपात 1 ) द्योतते इति दिद्युत् तस्याः दीप्यमानायास्तव गिरो वाण्या बत इति वितर्के सपत्नयन् सदृशीकुर्वन् क पुमान् न लज्जते अपि तु सर्व कोऽपि लज्जते ॥ २० ॥ बिभ्रता मतिमतीन्द्रियां त्वया, वस्तुतत्वमिह यन्निरौच्यत । नेतरेतदपरेण जन्तुना, दुर्बचं प्रतनुबुद्धितन्तुना ॥ २१ ॥ ( व्या० ) बिभ्रता इति । हे नेतः स्वामिन् त्वया इह जगति अतीन्द्रिय (प्रात्यवपरिनिरादयो गतक्रान्तनुष्टम्लानकान्ताद्यर्था. प्रथमाद्यन्ते । ३-१-४७ इ. सू. तत्पुरुष: 1) इन्द्रियाणि अतिक्रान्ता तां इन्द्रियातीतां मतिं बुद्धिं बिभ्रता बिभर्तीति बिभ्रत् तेन घरमाणेन वस्तुतत्त्वं वस्तूनां तत्त्वं यत् निरौच्यत प्रोचे । एतत् वस्तुतत्त्वं अपरेण जन्तुना प्रतनुबुद्धितन्तुना प्रतनु कृशो बुद्धिरेव तन्तुयस्य तेन दुर्वचं (दुस्वीपत कृच्छ्राकृछ्रार्थात् खल् । ५ -३ - १३९ । इ. सूदु पूर्वकवचधातोः खल् प्रत्यय 1 ) दु खेन वक्तुमशक्यमित्यर्थ ॥ २१ ॥ अस्तु वास्तवफलस्य वास्तु ते वाग्लता त्वरितमेवमूचुपी । वासवेश्म निजमाश्रयेति सा शासनं सपदि पत्युरासदत् ॥ २२ ॥ , ( व्या० ) अस्तु इति । सा सुमङ्गला निजं वासवेश्म वासस्य वेश्म तत् वासभवनं आश्रय इति अमुना प्रकारेण पत्यु श्री ऋषभदेवस्य शासनमादेशं आसदत् प्राप । किंविशिष्टा मुमङ्गला हे स्वामिनू ते तव बागूलता वाग् एव Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीपासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३१७ लता वाग्वल्ली वास्तवफलस्य वास्तवस्य फलं तस्य सम्यक्फलस्य वास्तु (वसन्ति अत्र इति वास्तु । वसेर्णिद्वा ७७४ । इ. उ. सू वसं निवासे इ. धातोः तुन् प्रत्ययः स च णित् णित्त्वात् वृद्रिः । ) स्थानं अस्तु भवतु एवं ऊचुषी उवाच इति ऊचुषी जल्पितवती ॥ २२ ॥ दत्तदक्षिणभुजा निजामने, गर्भगे धरणीपाकशासने । सोदतिष्ठदतनुस्तनावनी-भृत्तटीललितहारनिर्झरा ॥ २३ ॥ (व्या०) दत्त इति । सा सुमङ्गला धरणोपाकशासने धरण्याः पृथिव्याः पाकशासन इन्द्रस्तस्मिन् चक्रवर्तिनि गर्भगे गर्भ गच्छतीति गर्भगस्तस्मिन् उदरस्थे सति निनासने निजस्य आसनं तस्मिन् दत्तदक्षिणभुजा दक्षिणश्चासौ भुजश्व दक्षिणभुजः दत्तो दक्षिणभुजो यया सा सती उदतिठत् उत्थिता । किविशिष्टा सुमङ्गला अतनुस्तनावनीमृत्तटीललितहारनिर्झरा । न तनू अतनू स्थूलौ अतन च तौ स्तनौ अतनुस्तनौ तौ एव अवनीभृतौ पर्वतौ अतनुस्तनावनीभृतौ तयोस्तयां तटे ललिताश्च ते हाराश्च ललिताः सविलासा: हारा एव निर्झरा यस्याः सा॥२३॥ फुल्लमल्लिकाभिदं वनं किमु, स्मेरकैरवगणं सरोऽथवा । एवमूह विवशा निशामयं-त्यभ्रमक्रमविकीर्णतारकम् ॥ २४ ॥ बिभ्यती स्खलनतः शनैः शनैः, प्रांजलेऽपि पथि मुञ्चती पदौ । अल्पकेऽपि भवनान्तरे गते, स्तानवेन भवनान्तरीयिता ।। २५ ॥ कौतुकाय दिविषत्पुरंधिभिः, स्वं तिरोहितवतीभिरग्रतः । शोध्यमानसरणिः शिरस्यथा, धीयमानधवलातपत्रिका ॥ २६ ॥ रत्नभित्तिरुचिराशिभासिते-नाध्वना ध्वनितनुपूरक्रमा। वायुनावसरवेदिनेव सा, दम्यमानगमनश्रमाऽचलत् ॥ २७ ॥ (चतुर्भिः कलापकम् ) (व्या०) फुलमिति । अथानन्तरं सा सुमङ्गला रत्नभित्तिरुचिराशिभासि तेन रत्नानां भित्तयस्तासां रुचय कान्तयस्तासां राशि समूहः तेन भासितेन दीपितेन अध्वना मार्गेग अचलत् । किंकुर्वती एवममुना प्रकारेण ऊहविवशा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮)શ્રીનરૂમમવાન્ય મળ્યમ ટીસમન્વતમ્ ૧ લવ ऊहेन विचारेण विवशा परवशा सती। अक्रमविकीर्णतारकं न कम: अक्रमः अक्रमेण विकीर्णा विक्षिप्तास्तारका यस्मिन् तत् अभ्रनाकाशं निशामयन्ती निशामयतीति निशामयन्ती पश्यन्ती एवमिति किं इदं फुलमालक फुला: मल्लिका यस्मिन् तत् विकसितविचकिलकुसुमं किमु वनं वर्तते । अथवा स्मेरकैरवगण स्मेरा: (स्म्यजसहिंसदीपकम्पकमनमोरः । ५-२-७९ । इ. मू. शीलादिसदर्थे स्मिधातो रप्रत्ययः । ) विकस्वराः कैरवाणां कुमुदानां गणाः समूहाः यस्मिन् तत् विकस्वरकुमुद्रसमूहं सरो वर्तते । पुनः स्खलनात् इति खलनतः बिभेतीति विभ्यती सती प्रांजलेऽपि सरलेऽपि पथि मार्गे शेन शनै पदो चरणौ मुश्चती अल्पकेऽपि स्तोकेऽपि भवनान्तरे भवनस्य अन्तरं तस्मिन् गते सति स्तानवेन गतिलाघवेन भवनान्तरीयिता अन्यत् भवनं भवनान्तरं भवनान्तरमाचरती भवना-तरीयिता । पुनः स्वमात्मानं तिरोहितवती आच्छादितवती। दिविषत्पुरन्ध्रिभीः दिविसीदन्तीति दिविषदो ( किप् । ५-१-१४८ । इ. सू. दिवशब्दपूर्वसद्धातोः कर्तरि कि५ । ) देवास्तेषां पुरन्ध्रयः ताभिः देवाङ्ग नाभिः कौतुकाय अग्रत: शोध्यमानसरणिः शोध्यमाना सरणिर्मार्गो यस्याः सा विलोक्यमानमार्गा। अथ पुनः शिरसि मस्तके आधीयमानधवलातपत्रिका आधीयते इति आधीयमाना आधीयमाना धवला श्वेता आतपत्रिका यस्याः सा धार्यमाणश्वेतछत्रा 'वनितनूपुरक्रमा ध्वनिते नू पुरे ययोस्तो ध्वनितनू पुरौ ध्वनितनू पुरौ क्रमौ यस्याः सा। अवसरवेदिना इव अवसरं वेत्तीति अवसरवेदी तेन इव अवसरज्ञसहशेन वायुना दभ्यमानगमनश्रमा इभ्यमानो गमनस्य श्रमो यस्याः सा निर्गम्यमानगमनश्रमा । २४ । २५ । २६ । २७ ॥ कान्तमन्दिरमुपेत्य सा चिरा-शंसितार्थपरिपूरिताशया। सारसंमदमहाबलेरिता, स्वं निकेतनमियाय नौरिव ॥ २८॥ (व्या०) कान्तमिति । सा सुमङ्गला कान्तमन्दिरं कान्तस्य स्वामिनो मन्दिर उप्रेत्य प्राप्य अचिराशसितार्थपरिरिताशया अचिरेण स्तोककालेन आशंसितः कथित अर्थः स्वप्नार्थलक्षणस्तेन परिपूरित आशयोऽभिप्रायो यस्याः सा Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाय महाव्यम् टीकासमलं शतम् ॥ सर्गः १० (३१९ सुमङ्गला । नौपक्षे अर्थो द्रव्यं तेन परिपूरित आशयो मध्यं यस्याः सा । सार-संमदमहाबलेरिता सारः प्रधानो यः संमदो (संमदप्रमदी हर्षे । ५-३-३३ । इ. सू. अलन्त' संमदशब्दो निपात्यते । ) हर्षस्तस्य महता बलेन महास्थाना ईरिता प्रेरिता । पक्षे महाबले वायुज्ञेयः महावायुप्रेरिता नौरिच नौका इव स्वं 'निकेतनं आत्मीयं गृहमियाय जगाम ॥ २८ ॥ तत्र चित्रमणिदीपदीधिति-ध्वस्यमानतिमिरे ददर्श सा । पानशौंडमिव लुप्तचेतनं, सुप्तमन्तरखिलं सखीजनम् ।। २९ ॥ (व्या०) तत्रेति । सा सुमङ्गला तत्र तस्मिन् निकेतने गृहे पानशौंडमिव प्यानेन शौंडस्तं सुगपानमत्तमिव लतचेतनं ल चेतनं ज्ञानं यस्य स तं अन्तभव्ये सुप्तं अखिलं समस्तं सखीनां जनः सखोजनस्तं ददर्श दृष्टवती । किंविशिष्टे निकेतने चित्रमणिडोपदीधितिध्वस्यमानतिमिरे चित्राश्चते मणीनां दीपाश्च आश्चर्यकररत्नदीपा तेषां दीधितय. किरणास्तैः ध्वस्यमानं निराक्रियमाणं तिभिरमन्धकारो यस्मिन् तस्मिन् ॥ २९ ॥ सोऽध्वगत्वचपलाङ्गसङ्गतो-न्मेषिधोषमणिमेखलादिभिः । निद्रयाऽजगरितोऽपि जागरं, द्रागनीयत तया विना गिरम् ॥३०॥ ___ (व्या०) स इति । तया सुमङ्गलया स सखोजन' अध्वस्वचपलाङ्गसजतोन्मेषिघोषमणिमेखलादिभिः अध्वस्य भावः अवगत्वं मार्गगत्वं तेन चपलं च तत् अङ्गं च शरीरं तस्मिन् संगता मिलिता या उन्मेषी घोषो यस्याः सा विकस्वरनादा मणीनां मेखला सा एव आदयस्तैः । गिरं वाणी ( विना ते तृतीया च । २-२-११५ । इ. सू. विनायोगे गिरमित्यत्र द्वितीया ।) विना द्राक् शीघ्रं जागरं अनीयत गृहीतः । किविशिष्टः सखीजन: निद्रया जागरितोऽपि अजगरित' अजगरवदाचरितः ॥ ३० ॥ तां ससंभ्रमसमुत्थितास्ततः, सभिपत्य परिवरालयः। उच्छ्वसजलरुहाननां प्रगे, पमिनी मिव मधुव्रतालयः ॥ ३१ ॥ (०या०) तामिति । ततस्ततोऽनन्तरमालयः सख्यः ससंभ्रमं संभ्रमेण Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम टीकासमलंकतम सर्ग:१० सह यथा भवति तथा समुत्थिताः सत्यः संनिपत्य संनिपतित्वा इति संनिपत्य समुदायं कृत्वा तां सुमङ्गला परिवत्रुः परिवृण्वन्ति स्म । किंलक्षणां सुमङ्गलां उच्छ्वसजलरुहाननां जले रोहतीति जलरह उछ्वसत् च तत् जलरुहं उच्छ्वसजलरहमिव आननं यस्या. सा तां विकसकमलसदृशमुखीम् । कामिव पनिनीमिव यथा मधुव्रतालय. मधु व्रतयन्ति भुञ्जते इति मधुनता (डस्युक्तं कृता । ३-१-४९ । इ. सू. तत्पुरुषसमास ।) भ्रमरास्तेपामालयो भ्रमरश्रेगय. प्रो प्रभाते विकसकमलमुखी पमिनी परिवृण्वन्ति ॥ ३१ ॥ ऊचिरे त्रिचतुग पुरस्सरी-भूय भक्तिचतुरा रयेण ताः । तां प्रणम्य वदनेन्दुमण्डला-भ्यासकुड्मलित पाणिपङ्कजाः ॥३२॥ (व्या०) ऊचिरे इति । त्रिचतुरा. (सुज्वाथै सङ्ख्या सख्ये सत्यया बहुव्रीहिः । ३-१-१९ । इ सू त्रिचतुरा' इत्यत्र बहुव्रीहि समास । नञ् सुव्युपत्रेश्चतुरः । ७-३--१३१ । इ. सू त्रिशब्दपूर्वकचतुरन्तात् बहुनोहे: अप् समासान्तः । ) तिस्रो वा चतस्रो वा भक्तिचतुरा. भक्त्या चतुरास्ता आलयः संख्यः पुर सरीभूय पुर सरन्तीति पुरःसराः ता. भूत्वा पुर सरीभूय अग्रे भूत्वा तां सुमङ्गलां प्रणम्य प्र नत्वा प्रणम्य रयेग वेगेन ऊचिरे ऊघु । किंलक्षणाः सख्यः वदनेन्दुमण्डलाभ्यासकुड्मलितपाणिपङ्कजा वदनमाननमेवेन्दो-श्चन्द्रस्य मण्डलं तस्याभ्यासे समीपे कुड्मलिते कोशीकृते पाणी हस्तावेव पङ्कजे अरविन्दे याभिस्ताः वदनेन्दु० पङ्कजा ॥ ३२ ॥ एवमाजनुरसंस्तुतो भवे-धः स एव शयितो विमुच्यते । उच्यते किमथवा तव प्रभु-नापरस्य परिभाषणोचितः ॥ ३३ ॥ (०या०) एवमिति । हे स्वामिनि यो जनः आजनु ( पर्यपाडबहिर पञ्चम्या ३-१-३२ । इ. सू आडा सह अव्ययीभावः ।) आजनुष. आजन्म असंस्तुत: न संस्तुत: अपरिचितो जनो भवति । स एव जन एवं शयित सुप्तो विमुच्यते । अथवा तव किमुच्यते । प्रभुः स्वामी अपरस्य परिभाषणोचितः परिभाषणस्य उचितो योग्यो न भवति जल्पनयोग्यो न भवति ॥ ३३ ॥ नेन्दु० पङ्कजा " एव शयिता १ ॥३३॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजग मारसम्भवास्थ महाकाव्यम् टीकासमलंधतम् ॥ सर्गः १० (३२१ युक्तमेव यदि वा विनिर्मित, सर्व विद्दयितया त्वया सखि । तमोगुणजिता विमुच्य नो, रुच्यसम्र विकसझना गता ॥३४॥ (व्या०) युक्तमिति । हे सखि यदि वा अथवा सर्वविद्दयितया सर्व वेत्तीति सर्पविद् तस्य दयिता तया सर्वज्ञपल्या त्वया युक्तमेव योग्यमेव विनिर्मित कृतम् । यत तमोगुणजिता. तमोगुणेन निद्रया जितास्ता नो अस्मान् विमुच्य त्वं विकसमाना विकसत विकस्वरं मनो यस्याः सा प्रफुल्दया सती रुच्यसमा (रुच्याऽव्यथ्यवास्तव्यम । ५-१-६ । इ. सू. रुच्चातो. कर्तरि यो निपात्यते। रोचते इति रुच्य. 1) भर्तगृहं गता ॥ ३४ ॥ स्वामविन न वयं विनिर्यती, जातसिद्धिमिव ही प्रमद्वराः । म.मेतमनपेतचेतना, दध्महे स्वहृदि शल्यवत्पुरा ॥ ३५ ॥ (या०) वामिति । हे स्वामिनि ही इति खेदे वयं प्रमद्वारा प्रमादिन्य त्वां जातसिद्धिमिव जाता सिद्धिः दृष्टयावरणादिसिद्धिर्यस्याः सा तामिव विनिर्यती निर्गच्छन्ती न विद्मः न ज्ञातवत्यः । एतं मन्तुमपराधं अनपेतचेतनाः न अपेत अनपेतं चेतनं यासां ता वलितचेतनाः सत्यः वयं स्वहदि स्वस्य हृदये शल्यवत् शल्यमिव पुग दध्महे धास्यामः । पुरा यावतोवर्तमाना इति सूत्रेण पुरायोगे भविष्यदर्थे वर्तमाना ॥ ३५ ॥ विश्ववन्धधुपारिपार्श्विको-ऽस्त्येव ते सततमप्सरोजनः । वेधसा हि वयमेव वञ्चिता, यत्कृता भवदुपासनादहिः ॥ ३६ ॥ (व्या०) विश्व इति । हे विश्ववन्धवधु विश्वस्य वन्य पूज्य तस्य वधू तस्याः संबोधने हे त्रिभुवनाधीशदयिते अप्सरोजन अप्सरसां जन देवाङ्गनासमूहः सततं निरन्तरं ते तव पारिपार्श्विक परिपार्श्वे वर्तते इति समीपस्थोइत्येव । हि निश्चितं वेधसा ब्रह्मणा वयमेव वश्चिता. । यत् वयं भवदुपासनात् भवत उपासनं तस्मात् त्वदीयसेवनात् बहि कृता विमुखोता. ॥ ३६ ॥ कार्यमेतदजनिष्ट किं तवा-कस्मिकं विमलशीलशालिनि । यत्पुरा ब्रजसि चाटुकोटिभि-भर्तृवेश्म तदगाः स्वयं यतः ॥ ३७॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (व्या०) कार्यमिति । हे विमलशीलशालिनि विमलं च तत् गीले च विमलशीलं निर्मलशीलं तेन शालते इति विमलगोलशालिनी तस्याः संबोधनं हे निर्मलशीलशोभिते एतत्कार्य तब कि आकस्मिकमुत्सुकमजनिष्ट जातम् । यत पुरा पूर्व चाटुकोटिभिः चाटूना कोटयस्ताभिः भवेश्म भर्तुर्वेश्म तत् स्वामिगृहं व्रजसि यतो यस्मात्कारणात् । तत् स्वयमगा गतवती ॥ ३७ ॥ तद्भविष्यति फलोदये स्फुटं, गूढचारिणि चिरादपि स्वयम् । किन्तु नः प्रकृतिचञ्चलं मन:-काललालनमियन्न सामहि ॥ ३८ ॥ (व्या०) तद् इति हे गूढचारिणि गूढं चरतीति हे प्रग्छन्नगमने तत् कार्य चिरादपि बहुकालतोऽपि स्वयमात्मना फलोदये फलस्य उदयस्तस्मिन् सति स्फुटं प्रकट भविष्यति । किन्तु नोऽस्माकं मनश्चित्त प्रकृतिचञ्चलं प्रकृत्या स्वभावेन चञ्चलं चपलं सत् इयत् काललालनं कालस्य लालनं कालविलंब न सासहि (डो सासहि वावहि चाचलि पापति । ५-२-३८ । इ. मू. ड्यन्तो निपातः भृशं सहते इत्येवंशीलं सासहि । ) न सहते ॥ ३८ ॥ सिञ्च न स्त्वमखिलाः स्वकार्यवाक्-शीकरैः समयभङ्गतापिताः। सर्वदैकहृदयं सखीगणं, मा पृथग्गणनयाऽवजीगणः ॥ ३९ ॥ (व्या०) सिञ्च इति । त्वं समयभङ्गतापिता: समयस्य भङ्गेन तापिताः खाः मर्यादाभङ्गेन तापयुक्तानोऽम्मान् अखिला समस्ता सखी कार्यवाक्शीकरैः कार्यस्य वाग् सा एव शीकरा: कार्यवचनरूपजलकणै सिञ्च । सर्वदा (किंयत्तसवैकान्यात् काले दा। ७-२-९५ । इ. सू. कालेऽर्थे सर्वशब्दात् दाप्रत्ययः सर्वस्मिन् काले इति सर्वदा ।) निरन्तरं एकं हृदय यस्य स एकहदयस्तं सखीनां गण. सखीगणस्तं सखीसमूहं पृथग्गणनया मा अवजोगण मा अवगणय ॥३९॥ सा सखीभिरिति भाषिता रमे-वोरुपद्ममणुपद्मवेष्टितम् । अध्यशेत शयनं समन्ततः, सन्निविष्टवरविष्टरावलि ॥ ४०॥ (व्या०) सा इति । सा सुमङ्गला सखीभिरिति अमुना पूर्वोक्तप्रकारे भाषिता जल्पिता सती शयनं पल्यवं अध्यशेत आश्रिता । किंलक्षणं शयनं Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवास्य महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः५० (३२३ • समन्ततः सर्वतः संनिविष्टवरविष्टरावलि वराणि च तानि विष्टराणि परविष्टराणां प्रशस्यमश्चिकाब्दिकामूढकसिंहपीठाचासनानां आवलि श्रेणिः संनिविष्टा परविष्टरावलियस्मिन् तत् । सुमङ्गला काइव रमा इव लक्ष्मीरिव यथा रमा अणुप"भवेष्टितं अणूनि च तानि पद्मानि च अणुपमानि तेर्वेष्टितं तत् लघुकमलपरिवृतं उरुपद्मं बृहत्कमलमाश्रयति ॥ ४० ॥ एकमूलकमलद्वयाभयो-स्तत्पदोरुपरि पेतुरुत्सुकाः । हेमहससलनागरुच्छ्यिो , लालनाय शतशः सखीकराः ॥ ४१॥ (व्या०) एक इति । शतश शतसंख्याकाः सखीकराः सखीनां करः सखीहस्ताः उत्सुका. (उदुत्सोरुन्मनसि । ७-१-१९२ । इ. सू उत्सुशदात् कः ।) सन्तः लालनाय प्रतिपालनाय तत्पदो तस्याः सुनङ्गलायाः पदो. पादयोरुपरि पेतुः पतिता । किंविशिष्टयोस्तत्पदो. एकमूलकमलद्वयाभयोः एकमेवमूलं ययोस्ते एकमले एकमूले च ते कमले च तयोर्द्वयं तदिव आभातः तयोः। किलक्षणा• सखीकराः हेमहंसललनागरप्छ्यिः हंसानां ललनाः हंसललना हंस्यः हेम्नः सुवर्णस्य हेमललना. हस्यस्तासां गरुत: पक्षास्तद्वत् श्री. शोभा येषां ते हेमहंसललनागरुछिय ॥ ४१ ॥ पाणिपूर परिमईमर्दना-हेतुमप्यपगतश्रमत्वतः । सालिपालिमरुणन्न तन्मनो-रङ्गभङ्गभयतोऽतिवत्सला ॥ ४२ ॥ (व्या०) पाणि इति । सा सुमङ्गला तन्मनोरङ्गभङ्गभयत तासां सखीनां मनांसि तेषां रंग आनन्दस्तस्य भङ्गात् भयत: अतिवत्सला सती अपतिश्रमत्वतः अपगतश्चासौ श्रमश्च तस्य भाव अपगतश्रमन्वं तस्मात् आलिपालिं आलीनां 'यालिस्तं सखीगणं अदना हेतुं अर्दनाया. पीडाया हेतुः कारणं तं पाणिपूरमई पाणीनां हस्तानां पूर समूहस्तस्य परिमईस्तं अरुणत् न न रुणद्भिस्म । रुविधातोईिकर्मकत्वम् ॥ ४२ ॥ स्वमवीक्षणमुखामुषाभरे, भर्तृवेश्मगतिहेतुदां कथाम् । तामु सासनगतासु विस्तृत-श्रोत्रपात्रपरमामृतं व्यधात् ॥ ४३ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥सर्ग:१० (व्या०) स्वप्न इति । सा सुमङ्गला आसनगतासु आसनं गता आस- ' नगतास्तासु सखीपु उपाभरे उषाया भरतस्तस्मिन् रात्रिमध्यभागे स्वप्नवीक्षणमुखां वनानां वीक्षणं मुखं प्रमुख यस्याः सा तां स्वप्नावलोकनप्रमुखां भर्तके मगतिहेतुदां भर्तुः स्वामिनोवेश्मगृहं तत्र गतिः तस्याः हेतुं ददातीति तां प्रियगृहगमनदायिनी कथां विस्तृतश्रोत्रपात्रपरमामृतं विस्तृतानि यानि श्रोत्राण्येक पात्राणि तेषु परमममृतं परमामृतसमानां व्यधात् कृतवती ॥ ४३ ॥ तोषविस्मयभवः सखीमुखा-दुद्ययौ कलकल: स कश्चन । अन्तरालयकुलायशायिभि-यन जागरितमण्डजैरपि ॥ ४४ ॥ (व्या०) तोष इति । तोषविस्मयभवः तोषश्च विस्मयश्च तोषविस्मयोताभ्यां भवः हर्षविस्मयोत्पन्न सखीमुखात सखीनां मुखं तस्मात् स कश्चन फलफलकोलाहल: उद्ययौ उदयं प्रातः । येन कलकलेन अन्तरालयकुलायशायिभिः अन्तरं च तत् आल्यं च अन्तरालयं तस्मिन् गृहमध्ये कुलायो नीडस्तस्मिन् शेरते इति अन्तरालयकुलायशायिनस्तैः गृहमध्यनीडशयनशीलैः अण्डजैरपि अण्डात् जाता अण्डजाः पक्षिणस्तैरपि पक्षिभिरपि जागरितं जागर्यते स्म ॥ ४४ ॥ स्वममेकमपि सालसेक्षणा, कि विचारयितुभीश्वरीदृशम् । उल्लसत्तमसि यन्मनोगृहे, संचरन्त्यपि बिभेति भारती ।। ४२॥ (व्या०) स्वामिति । सा जलसेलणा अलसे ईक्षणे यस्याः सा स्त्री ईश (प्नभेकमपि विचारयितुमीश्वरी (अश्नोतेरीचादेः । ४४२ । इ. उ. सू. अशधातोरट् प्रत्यय आदेरस्य ई. टित्वात् डीः । ) समर्था वर्तते अपि तु नैव । यन्मनो गृहे यस्था मन एव गृहं तस्मिन् भारती सरस्वती संचरती अपि संचरतीति संचरन्त्यपि बिभेति । किविशिष्टे यन्मनो गृहे उल्लसत्तमसि उल्लसत् तमः अज्ञानरूपान्धकार यस्मिन् तत् तस्मिन् ॥ ४५ ॥ वर्णयम तव देवि कौशलं, यत्प्रकृत्य कृतिनीरुपेक्ष्य नः । देवदेववदनादनाकुलं, स्वमसूतफलं व्यबुध्यथाः ॥ ४६॥ (व्या०) वर्णयेम इति । हे देवि वयं तव कौशल वर्णयेम । यत् त्वं Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनामारसम्ममा मान्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ स. १० (३२५ प्रत्यकृतिनी प्रकृत्या अकृतिन्यस्ता (पभावेन भर्खा अस्मान् उपेक्ष्य देवदेवयदनात देवानां देवो देवदेवः श्रीपभदेवस्तस्य वदनं तस्मात् अनाकुलं यथा भवति तथा स्वप्नमृमृतफल स्वप्नानां सूनृतं सत्यं फलं व्यबुध्यथाः ज्ञातवती ४६ नाथवा विधुवाकरोभित-स्त्वत्प्रमोदजलधिः सदैधताम् । एबमालपितमालिभिर्वचः, शुश्रुवे श्रुतिमहोत्सवस्तया ॥ ४७ ॥ (व्या०) नाथ इति । हे स्वामिनि त्वन्प्रमोद जलधिः तब प्रमोद एवं जलधि त्वदीयहर्पसमुद्रः सदा निरतामेधतांवृद्धिं यातु । किंलक्षण प्रमोदजल. धि:-नाथचक्त्रविधुवावरोंभित नाथस्य स्वामिनो वक्त्रं मुखं तदेव विधुश्चन्द्रस्तस्य वाग्भिरेव करै किरणे उम्भितः पूरित । आलिभि सखीभिरेवं आलपितं कथितं यस्तया सुमङ्गलया शुश्रुवे श्रुतम् । किंलक्षणं चच. श्रुतिमहोत्सव महांश्चासौ उत्सवश्च महोत्सव श्रुत्योः कर्णयोमहोत्सवः महोत्सवरूपम् ॥ ४७॥ वाग्मिषादथ सुमङ्गला गला-यातहन्नदजसंमदामृता । आदिशद्दशनदीधितिस्फुटी-भूतमुज्ज्वलमुखी सखीगणम् ॥४८॥ (व्या०) वागिति । अथानन्तरं सुमङ्गला सखोगणं सखीनां गण. सखीगणरतं सखीसमूहमादिशत् । किंलक्षणा सुमङ्गला वाग्मिघात वाचो मिषात गलायातहनदजसमदामृता ले आयातमागतं हृदेव नदस्तस्माजात. संमदो (संमदप्रमदो हर्षे । ५.-३-३३ । इ -सू संपूर्वकमद्धातो. अलन्तो निपात ।) हर्ष एव अमृतं गलायातं हृन्नद जसंमदामृतं यस्या सा । पुन उज्ज्वलं मुख यस्या. सा उज्वलमुखो । ( नखमुखादनानि । २-४-४० ॥ इ सू स्त्रियां उज्ज्वलशब्दपूर्वकमुखशब्दात् डीर्वा) किलक्षणं सखीगणं दशनदीधितिस्फुट दशनानां दन्तानां दीधितय किरणा ते स्फुटीभूतः प्रकटीभूतस्तम् ॥ ४८ ॥ समणीयकगुणैकवास्तुनो, वस्तुनः सुकरमर्जनं जने । भावि विप्लवनिवारणं पुन हास्य दुष्करमुशन्ति सूरयः ॥ ४९ ।। (व्या०) रामणीयक इति । हे हला रामणीयकगुणैकवास्तुन रमणीयस्य भावो रामणीयक ( योपान्याद् गुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकम् । ७-१-७२ । इ. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६) श्रीजेनफुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः १० सू. भावे रमणीयशदात् अका।) तस्य गुणानां एक वास्तु स्थानं तस्य वातुन: अर्जनमुपार्जन जने लोके सुकरं सुखेन क्रियते इति सुकर सुलभमस्ति । पुनस्तस्य वस्तुनो भाविविप्लवनिवारणं भविष्यन्तीति भाविनः भाविनश्चते विप्लवाश्च नागास्तेपां निवारण मूरयो विद्वांसो दुष्करं दुखेन क्रियते इति दुष्करं (दुःस्तीपतः कृष्छाकृच्छ्रार्थान खल् । ५-३-१३९ । इ. म्. कृछार्थदु पूर्वकबातो. खल प्रत्ययः । ) दुर्लभं उान्ति कथयन्ति ॥ १९ ॥ अर्जिते न खलु नाशशङ्कया, क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम् । जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेऽलसतया सुवस्तुनि ॥ ५० ॥ (व्या०) अर्जिने इति । हे हला. सुवस्तुनि शोभने वस्तुनि अर्जिते उपार्जिते सति खल निश्रितं पुरुषस्य तथा सुखं न जायते । यथा अलमतया अलसस्य भावोऽलसता तया सुवस्तुनि नाशिते सति व्यथाभगे व्यथायाः पीडाया भर समूहो जायते । किंविशिष्टस्य पुरुषस्य नाशशङ्कया नाशस्यशङ्का नाशङ्का तया क्लिश्यमानमनसः क्लिश्यते इति क्लिश्यमानं मनः यस्य स तस्य क्लिश्यमानमनस. पीडयमानमनस ॥ ५० ॥ दृष्टनष्टविभवेन वर्ण्यते, भाग्यवानिति सदैव दुर्विधः। जन्मतो विगतलोचनं जनं, प्राप्तलुप्तनयनः पनायति ।। ५१ ॥ (व्या०) दृष्ट इति । दृष्टनष्टविभवेन आदो दृष्ट पश्चान्नष्टः दृष्टनष्ट' (पूर्वकालैकसर्वजरत् पुराणनवकेवलम् । ३-१-९७ । इ सू दृष्टनष्ट इत्यत्र पूर्वकालेऽर्थे कर्मधारयसमास ।) दृष्टनष्टो विभवो यस्य तेन पुरुषेण सदैव दुर्विधः दरिद्रो भाग्यवान् भाग्यमस्यास्तीति भाग्यवानिति वय॑ते प्राप्त तनयनः आदो प्राप्ते पश्चात् लुप्ते नयने यस्य सः पुरुषो जन्मतो ( अहीयरुहोपादाने । ७२-८८ । इ. सू पञ्चम्यन्तात् जन्मन् शब्दात् तसुर्वा ।) जन्मन' इति जन्म यावत् विगते लोचने नेत्रे यस्य तं गतनेत्रं अन्धजनं पनायति । ( गुपौधूपविछिपणिपनेरायः । ३-४-१। इ. सू पन्धातो. स्वार्थे आयप्रत्यय ।) स्तवीति ।। ५१ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन कुमारसम्भवाच्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३२७ हारि मातदिदमद्य निद्रया, स्वमवस्तु मम संमदास्पदम् । चत्प्रमादमवधूय रक्षितुं यामिकीभवत यूथमालयः ॥ ५२ ॥ 1 ( व्या० ) हारि इति । हे हलस्तित् तस्मात् कारणात् संमदास्पदं संभदस्य आस्पदं हर्षस्थानमिदं मम स्वप्नवस्तु स्वप्नस्य वस्तु निद्रया अथ मा हारि-माहार्यताम् । हे आलय. हला. तत् स्वप्नवस्तु प्रमादमवधूय त्यक्त्वा रक्षितुं यूयं यामिकीभवत आरक्षकीभवत ॥ ५२ ॥ स्वमवस्तु दयतेऽप्यगोचरं, दत्तमप्यहह हन्ति तामसी । संनिरुध्य नयनान्यचेतसां, चेष्टते जगति सा यदृच्छया || ५३ ॥ ( व्या० ) स्वप्न इति । सा तामसी तमोमयी रात्रि अचेतसां न विद्यते चेतो येषां ते तेषां पुरुषाणां नयनानि लोचनानि संनिरुध्य जगति विश्वे चेष्ट या रात्रि अगोचरं न गोचरं अगोचरमपि स्वप्नवस्तु स्वप्नस्य वस्तु यदृच्छया - स्वेच्छया दयते दत्ते । अहह इति खेदे दत्तमपि वस्तु हन्ति ॥ ५३ ॥ वासरे सरसिजस्य जाग्रतो, गर्भमन्दिरमुपेयुषीं श्रियम् । शर्वरीसमयलब्धविक्रमा, लुम्पतीयमनिमित्तवैरिणी ॥ ५४ ॥ ( व्या० ) वासरे इति । इयं निद्रा अनिमित्तवैरिणो न विद्यते निमितं यस्या' सा अनिमित्त। अनिमित्ता चासौ वैरिणी च निर्निमित्तवैरकारिणी वर्तते । या निद्रा शर्वरीसमयलब्धविक्रमा शर्वर्याः समये लब्धो विक्रमो यया सा रात्रिसमयलब्धपराक्रमा सती वासरे दिवसे जाग्रतः सरसिजस्य विकसितकमलस्य गर्भमन्दिरं गर्भस्य मन्दिरं तत् उपेयुष नपेयाय इति उपेयुर्थी ( वेयिवदनाखदनूचा - नम् । ५-२-३ । इ. स. उपेयिव करवन्तोनिपात । अधातूहदित । २४-२ । इ. सू स्त्रियां ङी । कसुष्मतौ च । २-१-१०५ । इ. सू. डीपरे - बस उ ।) तां गतवर्ती श्रियं लक्ष्मी लुम्पति ॥ ५४ ॥ सौ भुवनवञ्चनोत्सुका, स्वप्नराशिमपहृत्य तादृशम् । दास्यते किमपि गर्हितं तदा, पत्तने वमति लुण्डितास्मि हा ॥५५॥ ( ब्या० ) यदति । यदि असौ निद्रा भुवनवञ्चनोत्सुका भुवनस्य वञ्चने Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम्॥ सर्ग:१० उत्सुका स्वप्नराशिं स्वप्नानां राशिस्तं स्वप्नसमूहं अपहृत्य अपहनवा इनि ताशे · किमपि गर्हितं स्वप्नं दास्यते तढा हा इति खेदे वसति पत्तने लुण्टिता अस्मि ।। सर्वसारबहुलोहनिर्मितै-युष्मदानननिषङ्गनिर्गतैः । पाक्शरैः प्रसरमेत्य धर्मतो, धर्षिते यमिह मासदत्पदम् ।। ५६ ॥ (०या०) सर्व इति । इयं निद्रा इ. मयि विषये पदं स्थानं मासदत् मा प्रामोतु । किंविशिष्टा निद्रा धर्मत धर्मात इति धर्मत -पुण्यत धनुषो वो वाक्शरैः वाच एव शगत वचनबाणैः प्रसरं एत्य प्राप्य । किंलक्षणैर्वाशर सर्वसारबहुलोहनिर्मित सर्वेषु सार उकृष्ट सर्वसार बहुलश्चासौ ऊश्च विचार बहुलोहः सर्वसारश्चासौ पलोहश्च तेन निर्मितैः पक्षे सर्वसाग्मयं बहुलेहं तेन निर्मितः निप्पादितः । पुनः युष्मदानननिषङ्गनिर्गते. युप्माकं आननं मुखमेव निषगस्तूणीरस्तस्मात् निर्गतैः भवतीनां मुखरूपतूणकेभ्यो निसृतः ॥ ५६ ॥ तत्तदुत्तमकथातरङ्गिणी-भङ्गिमज नकसजचेतसा । नैशिकोऽपि समयो मयोच्यतां, वासरः स्वरसनष्टनिद्रया ॥ ५७ ॥ (व्या०) तदिति । तत् तस्मात् कारणात् स्वरसनष्टनिव्या स्वरसेन नष्टा निद्रा यस्याः सा तया स्वभावगतनिद्रया मया नैशिकोऽपि निशायां भवो नैशिक: (निशप्रदोषात् । ६-३-८३ । इ. सू. शैषिके भवेऽर्थे निशाशदात् इकण पा णित्वात् वृद्धिः 1 ) रात्रिसंबंधी अपि राणय. वासरो दिवस फव्यताम् ।। किविशिष्टयामया तत्तदुत्तमकथातरङ्गिणीभगिम जनकसजचेतसा ताश्च ताश्च उत्तमकथा एक तरङ्गिण्यो नद्यस्तासां भङ्गवः कल्लोलास्तेषु मज्जनके स्नाने सज्ज सब। चेतो यं यस्या सा तया ॥ ५७ ॥ स्वप्नभङ्गभयकम्प्रमानसां, मां विवोध्य सरसोक्तियुक्तिभिः । जाग्रतोऽस्ति नहि भीरितिश्रुति-नाथिपीष्ट चरितार्थतां हलाः ॥५८ (व्या०) स्वप्न इति । हे हला इति श्रुतिश्ररिताथतां चरितार्थस्य भावस्तां सत्यार्थतां नायिषीप्ट । इतीति किंजाग्रतो भोर्न हि अस्ति । किं कृत्वा स्वप्नभङ्गभयक प्रमानसां स्वप्नानां भङ्गात् भयेन कन्धे (स्म्यजसहिंसदीपकपकमनमोर । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भधाख्यं महाकाव्यम् टीकासमर्मतम् ॥ सर्गः १० (३२९ ५-२-७९ । इ. सू. शीलादिसदर्थे कम्पधातो.रप्रत्ययः ।) मानसं यस्याः सा तां मां सरसोक्तियुक्तिभि रसेन सह वर्तन्ते इति सरसाः ताश्च ता उत्तयश्च तासां युक्तयस्ताभिर्विबोध्य जागरयित्वा ।। ५८ ॥ . . ।। एवमृचुषि विभोः परिग्रहे, विग्रहे धनरुचिः सखीगणः । धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा-सारमारभतमारभङ्गिवित् ॥ ५९॥ (०या०) एवमिति । सखीगणः सखीनां गणः सखीसमूहः धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरासार धर्मः पुण्यं धनुर्वा धाम स्थानं येषां ते धर्मधामानः एवंविधा ये गुणा विनयादयः प्रत्यश्चा वा तेभ्यो गोर्णा निसृता वाच एव शराः तेषामासारं वेगवदृष्टिमारभत । क सति विभोः स्वामिनः परिग्रहे कलने एवं पूर्वोक्तप्रकारेण ऊषि उवाच इति ऊचिवान् तस्मिन् उक्तवति । किविशिष्टः सखीगण विग्रहे घनरुचिः घना रुचिः कान्तिर्यस्य सः बहुकान्ति• पक्षे विभहे युद्ध घनाभिलाषः। पुन: मारभझिवित् भार. कंदर्षस्तस्य भाङ्गिं विच्छित्ति वेत्तीति ॥ ५९ ॥ प्रागपि प्रचुग्केलिकौतुकी, सोऽदसीयवचसाऽभृशायत । नीरनाडियुजि किं न वाक्पता-वेति वृष्टिधनतां घनाघनः ॥६०॥ (व्या०) प्रागिति । स सखोगणः अदसीयवचसा अमुष्या इदं अदसीय च तत् वचश्च तेन अमुष्या. सुमङ्गलाया वचनेन अभृशायत ( प्यर्थे भृशादेः स्तोः ३-४-२९ । इ. सू. घ्यर्थे भृशशब्दात् वा क्यड् ।) प्रगल्भो बभूव । किलक्षणः सखीगण प्रागपि अग्रेऽपि प्रचुरकेलिकौतुकी बहुक्रीडाविषये कौतुकवान् । नीरनाडियुजि नीरस्य नाड्या युज्यते तस्मिन् जलनाडियुक्ते वापतौ वाचां पतिः तस्मिन् बृहस्पती धनाधनो (चराचर चलाचल पतापत वदावद - धनाधन पाटू पटं वा । ४-१-१३ । इ सू. घनाघनशब्दो निपातः 1) मेघः वृष्टिधनतां वृष्ट्यायुक्तोधनस्तस्य भावो वृष्टिघनता तां कि न एति न याति अपि "तु यान्येव ॥ ६० ॥ सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसंमतकृताङ्गिकक्रिया । आत्मकर्मकलनापटुर्जगी, कापि नृत्यनिरता स्त्रमार्हतम् ॥ ६१ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः १० (व्या०) सुश्रुत इति । कापि सखी नृत्यनिरता नृत्ये निरता सती स्वमात्मानं आहेत (देवता । ६-२-१०१ । इ. सू. देवता अर्थे अर्हत् शब्दात् अण् प्रत्ययः । ) जैनं जगौ । किविशिष्टा सखी सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी सुष्टु अत्यर्थं श्रुतः कर्णगोचरीकृत अक्षराणां पन्थाः अक्षरपथो (ऋक् पू: पथ्यपोऽत् । ७-३-३६ । इ. सू. अक्षरपूर्वकपथिन् शदात् अत् समासान्तः ।) वर्णमार्गस्तमनुसरतीत्येवंशीला । याग गीतं वाचं तादृग् नृत्यमपि स्यात् । पुन' ज्ञातसंमतकृताङ्गिकक्रिया आदौ ज्ञाता पश्चात् संमता इति ज्ञातसमता ( पूर्वकालैकसर्वनरत् पुराणनवकेवलम् । ३-१-९७ । इ. सू. ज्ञातसमता इत्यत्र पूर्वकाले कर्मधारयः ।) आदौ ज्ञातसंमता पश्चात् कृता आङ्गिकी अङ्गसंबंधिनी क्रिया यया सा। पूर्व गीतवाचस्वरूपं ज्ञातं पश्चात् सभ्यगवयुद्धं तदनुमानेन अङ्गसंबंधिनी क्रिया कृतेति भावः। पुन आत्मकर्मकलनापटुः आत्मनः कर्मणो नृत्यरूपकर्मगः कलनायां कर्तव्ये पटुः पतिष्ठा या आर्हती भवति सा तु एवंविधा सुष्टु शोभनं श्रुतं सिद्धान्तस्तेन अक्षरपथं मोक्षमाग अनुसरतीत्येवंशीला । ज्ञाता सम्याजानेन समता सम्यकदर्शनेन कृता सम्यक्चरित्रेण आङ्गिकी द्वादशाहसंबंविनी क्रिया यया सा । आत्मा च जीवः कर्माणि च तेषां कलनायां पटुः । इति जैनम् । सद्गुणप्रकृतिराप चापलं, कापि कापिलमताश्रयादिव । रङ्गयोग्यकरणौधलीलया, साक्षितामुपगते तदात्मनि ॥ ६२ ।। (व्या०) सदिति । कापि सखी तदात्मनि तस्याः आत्मा तस्मिन् साक्षिता ( साक्षादृष्टा । ७-१-१९७ । इ. सू. साक्षात् इति अव्ययात् द्रष्टा इत्यर्थे इन् प्रत्ययः । प्रायोऽव्ययस्य । ७-४-६५ । इ. सू. साक्षात् इत्यत्र अन्त्यस्वरादेलुक् । साक्षात् द्रष्टा इति साक्षी साक्षिणोभावः साक्षिता ताम् ) सम्यक्परिज्ञानतया साक्षित्वं उपगते प्राप्ते सति । रङ्गयोग्यकरणोधलीलया रङ्गो रङ्गभूमिस्तस्मिन् योग्यानां करणानां उत्पतमपतनादिकानां ओघः समूहस्तस्य लीलया चापलं चपलस्य भावश्चापलं तत् चपलपं आप प्राप । किंविशिष्टा सखी सद्गुणप्रकृतिः सन्तो गुणा विनयादिगुणा यस्यां सा सद्गुणा प्रधानविनयादिगुणा Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીગૅનન્નુમા લક્ષ્મવાસ્થ્ય મદાિગ્યમ્ ટીજાલમહંતમ્ ॥ સર્વઃ ૬૦ (૩૨ प्रकृतिः स्वभावो यस्याः सा सद्गुणप्रकृतिः । उत्प्रेक्षते कापिलमताश्रयादिव कपिलेन प्रोक्तं कापिलं ( तेन प्रोक्ते । ६-३-१८१ । इ. सू. कपिलशब्दात् प्रोक्तेऽर्थे अणू णित्वात् आदिस्वरवृद्धिः । ) कापिलं च तत् मतं च तस्य आश्रयात् इव या कापिलमतं सांख्यमतं आश्रयति सापि एवंविधा सांख्यमते सत्व- रजस्तमोलक्षणास्त्रयो गुणा सत्त्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्था प्रकृति प्रधानापपर्याया उच्यते । सैव सर्वे व्यापारं प्रपञ्चयति । आत्मा तु साक्षिमात्रं । अकर्ता अभोक्ता निर्गुणः आत्मा कपिलदर्शने इति वचनात् । सद्गुणा विद्यमानसत्वरजस्तमोक्षणा गुणाः प्रकृति प्रधानम् । रङ्गस्य हर्षस्य योग्यानां करणानामिन्द्रियाणां ओघ समूहस्तस्य लीलया चापलं चपलत्वं प्राप । यथा प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकार अहंकारात् पश्चेद्रियाणि इत्यादि क सति तदा तस्मिन्नवसरे आत्मनि - साक्षितां अकर्तृत्वात् साक्षिमात्र प्राप्ते सति । यथा नृपे सभायां निविष्टे विलो - यति सति नृत्यकी नृत्यं करोति तथा अत्रापि ज्ञेयम् ॥ इति सांख्यमतम् । तां विधाय शुचिरागसंभव-मूर्च्छनाभिरुपनीतमूच्र्छनाए । सौगतं ध्वनिगतं तदुद्भवा - भावदूषणमलुप्त काचन ।। ६३ ।। ( व्या०) तामिति । काचन स्त्री सौगतं ( तेन प्रोक्ते । ६-३--१८१ । -इ. सू. सुगतशब्दात् प्रोक्तेऽर्थे अण् णित्त्वात् वृद्धि । ) सुगतप्रणीतं ध्वनिगतं शब्दगतं तदुद्भवाभावदूषणं तस्मात् उद्भवति इति अस्य अभावः स एव दूषणं तत् अलुप्त लुम्पतिस्म । किंकृत्वा शुचिरागसंभवन्मूर्च्छनाभिः शुचिः पवित्रो यो रामः श्रीरागादिः तस्मात् संभवन्तीभिरेकविंशतिमूर्च्छनाभिः तां सुमङ्गलां उपनीतमूर्च्छनां उपनीता मूर्च्छना यस्था सा तां प्राप्तमोहां विधाय कृत्वा । तथा च चौद्धमते सुगतो देवः क्षणक्षयिकं च विश्वं क्षणक्षयत्वात् अमुकममुकादुत्पद्यते इति न वक्तव्यम् । यतो यो यत्रैव स तत्रैव च यो यदैव तदैव सः । न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते । यदि रागात् संभवन्तीभिर्मूर्च्छनाभिस्तस्याः सुमङ्गलाया मूर्च्छना जाता तदा रागस्य क्षणक्षयत्वं नास्ति । यदि रागः क्षयी स्यात् तदा ततो मूर्च्छना कथमुत्पद्यते । अत: कारणात् ध्वनेः शब्दस्य तस्मा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२) श्रीजेनकुमारसम्भवाल्य महापाव्यम् टीकासमलंकृतम्॥ सर्गः१० दुद्भवस्य अभावः । यथा वन्ध्यायाः पुत्राभावदूषणं तथात्रापि तदुद्भवाभावदूषणं लुप्तमिति भावः । रागोध्वनिः तदुद्भपाश्च मच्छना ज्ञेयाः ॥ इति बौद्धमतम् ॥ तस्वषोडशकतोऽधिकं व गीततत्वमपनीतनिर्वति। व्यञ्जतीह विधिनाच्युते न का-प्यक्षपादमतमन्यथाकृत ॥ ६४ ॥ (व्या०) तत्त्व इति । कापि स्त्री अक्षपादमतं अक्षपादस्य मतं तत् अन्यथा अकृत वैपरीत्येन करोतिस्म । नैयायिकमते हि प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्त सिद्धान्त अवयव तक निर्णयवादजल्पवितंडा हेत्वाभास छलजातिनिनहस्थानानि षोडश तत्वानि सृष्टिसंहारकर्ता मोक्षदो देवो महेश । एवं च सति वैपरीत्यं कथ्यते । किं कुर्वती कापि स्त्री तत्वषोडशकतः तत्वानां षोडशकतः अधिकं स्वकीयं गीतं व्यञ्जयन्ती प्रकटयन्ती। किविशिष्टं गीतं अच्युतेन अस्पतितेन विधिना उपनीता निर्वतिः समाधियेन तत्। वैपरीत्यपक्षे घोडशतत्वेभ्योऽधिकं सप्तदर्श तत्वं कथयति । अच्युतेन कृष्णेन विधिना ब्रह्मणा उपनीता ढौकिता निर्वतिर्मोमो यत्र एवं वैपरीत्यं ज्ञेयम् ॥ ६४ ॥ इति नैयायिकमतम् । विश्रुतस्वरगुणश्रुतेः परं, या प्रपञ्चमखिलं मृषादिशत् । ' मूर्च्छनासमयसंकुचदृशां, सा न कि परमहंसतां गता ॥ ६५ ॥ (व्या०) विश्रुत इति । सा स्त्री किं सतां परमहं परं च तत् महश्च तत् अष्टोत्सवं न गता अपि तु गता प्राप्ता । अथवा परमहंसतां परमहंसस्य भावः परमहंसता तां मीमांसकभेदं न ता अपि तु गतैव । यत- 'चत्वारो भगवद्भेदाः फुटीचरपदको । हंस. परमहंसश्चाधिकोऽभीषु पर• परः' ॥१॥ एके मीमांसका भा: एके प्राभाकराः । भट्टानां षट् प्रमाणानि प्राभाकराणां पञ्च प्रमाणानि । भ। प्राभाकरा कर्ममीमांसका वेदवादिनः परे च वेदान्तब्रह्ममीमांसकोः इत्यादि मीमांसकमतस्वरूपं ज्ञेयम् । अथ काल्यार्थः कथ्यते या सतां परमहंगता सा किंविशिष्टा वर्तते । या स्त्री मर्छनासमये संकुचन्त्यो दृशौ येषां ते मूछनासमयसंकुचदृशस्तेपां विश्रुतस्वरगुणयुतेः विश्रुता विख्याता ये स्वराः सारिंगमपधनीरूपाः मन्द्रमध्यमतराः तेपा गुणा माधुर्यादय. सङ्गीतोक्तास्तेषां श्रुतेः श्रवणात् Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीपासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० (३३३ परमन्यमखिलं समरतं प्रपञ्च देवतादिपोरुपेयशास्त्रादिविस्ताररूपं मृषा अलीकं आदिशत् । गीतश्रोतार(तल्लयलीनत्वेन गीतमेव शुश्रुवु इति भावार्थः । परमहंसातिपक्षे या स्त्री विश्रुता विख्यातो. रबरा उदात्तानुदातत्वरितरूपा. वेदोच्चारविशेषा गुणा वेदोक्ता | कारिरी निर्वपेत् वृष्टिकामः अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः इत्यादिका यस्याः सा एवंविधा श्रुतिर्वेदस्तस्या परमन्यं अखिलं प्रपञ्च देवतादिपौरुयेयशास्त्रादिविस्ताररूपं मृषा अलोकं आदिशत् । तेषां मते वेदानामेव तत्वरूपत्वात् । तन्मते देवता अपि मंत्रमय्यो मन्यन्ते ।। ६५ ॥ इति मीमांसकमतम् । आत्मनः परभवप्रसाधना-भासुरामिषनिषेधिनैपुणा । गीःपतेर्मतमतीन्द्रियार्थवि-तत्र काचिदुचितं व्यधाद् वृथा ॥६६॥ (व्या०) आत्मन इति । काचित् स्त्री गी पतेश्चार्वाकस्य मतं तत्र सुमङ्गलाने उचितं वृथा निप्फलं व्यधात् कृतवती । चार्वाकमते इन्द्रियार्था एव बहु मन्यन्ते । अणुन्न भोयणं सुच्चा इत्यादिवचनात् । पिब खादं च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । नहि भीरु गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥ एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचर । भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्ति बहुश्रुता ॥२॥ इत्याद्यागमः तन्मते चात्मन परभवो न मन्यते । इत्यादियुतं चार्वाकमतम् । सा एवंविधं तन्मतं निराकार्षीत् । सा कथंभूता आत्मनः परभवप्रसाधनाभासुरा आत्मनः स्वस्य परेभ्यो भवा स्नानशीर्षग्रथनादिसंभवा प्रसाधना अलङ्करणं तया भासुरा (भञ्जिमासिमिदो धुरः । ५-२-७४ । इ. सू शीलादिसदर्थे भास्थातोः धु(प्रत्यय ।) देदीप्यमाना । पुनश्चमिषनिषेधिनैपुणा मिषं दम्भस्तस्य निपेधि निपेवकारकं नैपुणं चातुर्य यस्या सा । पुन. अतीन्द्रियार्थवित् इन्द्रियमतिकान्ता अतीन्द्रिया (प्रात्यवपरिनिरादयो गतकान्तकुष्टग्लानक्रान्ताद्यर्था प्रथमीचन्तः । ३-१-४७ । इ. सू कान्ताद्यर्थे द्वितीयातत्पुरुष । ) ते च ते अर्थाश्च तान् स्वर्गनरकीपसमुद्रकर्मजीवादिपदार्थान् वेत्तीति अतीन्द्रियार्थवित् । (डत्युकं कृता । ३-१-४९ । इ. सू. नित्य तत्पुरुषः । ) सम्बो लोगालोगो सज्झायचियरस पचक्खे इत्यागमात् । चार्वाकमतनिराकरणपक्षे तु सा कथंभूता Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂફ) અનિમા સમવાયાં મધ્યમ રીલિમાંતમ ૨૦ आत्मनो जीवस्य परभवस्य स्वर्गनरकादिरूपस्य प्रसाधनं स्थापनं तेन आभातीति परभवप्रसाधनाभा । पुनः कथंभूता सा सुरामिषनिषेधिनैपुणा सुरा च मदिरा आमिषं च मांसं सुरामिषेतयोनिधि नैपुणं यस्याः सा एतेन पिव खाद चारुलोचने यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । नहि भीरु गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेइत्यादिवचनं निराकृतम् । अतीन्द्रियार्थवित् अतिक्रान्तानि इन्द्रियाणि येन स एवंविधो यो धर्मार्थकाममोक्षेषु सार इन्द्रियाद्धिरसरहितो धर्मस्तं वेत्ति इति । तत्र धर्मे निपुणा ॥ ६६ ॥ इति चार्वाकमतम् । तां प्रवीणहृदयोपवीणयं-त्येकतानमनसं पुरः परा। ममे सरख चल्लकी-दण्डमेव मृदुभास्वरस्वरा ॥ ६७॥ (व्या०) तामिति । प्रवीणहृदया प्रवीणं कुशलं हृदयं यस्याः सा पर अन्या स्त्री स्ववठकीदण्डमेव स्वस्थाः वल्लक्या दंडस्तमेव आत्मीयवाणासाकदण्डमेव खरवं खर.रवो वस्य तं कठोर शब्द निर्ममे चकार । किं कुर्वती पुरोऽग्रे एकतानमानसं एकतानं मनो यस्याः सा तां एकचित्तां सुमङ्गला उपवीणयन्ती वीणया गायन्ती। किंलक्षणा मृदुमास्वरस्वरा मृदुश्चासौभास्वरश्च मृदुभास्वर. (स्थेशभासपिसकसोवरः । ५-२-८१ । इ. सू. शीलादिसदर्थे भास्धातोर्वरप्रत्ययः ।) सुकुमालदेदीप्यमानः स्वरो यस्याः सा मृदुभास्वरस्वरा ॥ ६७ ॥ अन्यया ऋषभदेवसद्गुण-धामगानपरया रयागता । लभ्यते लघु तामुपासितुं, किन किन्नरवधूः स्वशिष्यताम् ॥६८॥ (०या०) अन्यया इति । अन्यथा लिया किनरवधू. किनरस्य वधूर्भार्या स्वशिष्यतां स्वस्यात्मनः शिष्यस्य भावस्ता आत्मीय छात्रत्वं किं न लभ्यते (स्मे च वर्तमाना । ५-२-१६ । इ. सू. स्मयोगे लभ्धातोः भतेऽर्थे वर्तमाना।) स्म न प्रापिता अपि तु प्रापितव । किंविशिष्टा किलरवधः लघु शीघ्रं तां सुमसला उपासितुं सेवितुं रयागता रयेण वेगेन आगता । किंविशिष्टया अन्यया ऋषभदेवसद्गुणग्राममानपरया सन्तश्वते गुणाश्च सद्गुणाः ऋषभदेवस्य सद्गुणाः कुलीन १ शीलवंत २ वयस्थ ३ शौचन ४ सततव्यय ५ प्रीतिवंत ६ सुराग ७ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवा महाकाव्यम् टीकासमलंटाम् ॥ सर्गः १० (३३५ सावयववंत ८ प्रियंवद ९ कीर्तिवंत १० त्यागी ११ विवेकी १२ शृङ्गारवंत अभिमानी १४ श्लाघ्यवंत १५ समुज्ज्वलवेष १६ सकलकलाकुशल ९७ सत्यचंत १८ प्रिय १९ अवदान २० सुगंधप्रिय २१ सुवृतमंत्र २२ क्लेशसह २३ प्रदग्धपध्य २४ पंडित २५ उत्तमराव २६ धमित्व २७ महोत्साही २८ गुणग्राही २९ सुपात्रग्राही ३० क्षमी ३१ परिभावुकश्चेति लौकिक ३२ द्वात्रिंशत् नायकगुणाः तेषां गुणानां ग्रामः समूह तस्य गाने परा तत्परा तथा ॥ - आङ्गिकाभिनय विज्ञयाऽन्यया, शस्तहस्तक विहस्तहस्तया । एतदीयहृदिपूरितं मरु-लोलपल्लव लताकुतूहलम् ॥ ६९ ॥ • ( व्या० ) आङ्गिक इति । अन्यया स्त्रिया एतदीयहृदि एतस्याः सुमङ्गलाया इदं एतदीयं एतदीयं च हृदयं च तस्मिन् एतस्या' सुनङ्गलाया हृदये मरुलोलपल्लवलताकुतूहलं मरुता वायुना लोलाश्वश्वला. पल्लवा यस्याः सा एतादृशी या लतावली तस्था कुतूहलं कौतूकं पूरितम् । किंलक्षणया अनन्यया आङ्गिकाभिनयविज्ञया अङ्गस्यायं आह्निक अङ्गसंबंधी आह्निकश्वासौ अभिनयश्च नाट्यविधिः तस्मिन् विज्ञया चतुरया पुनः शस्तहस्तकविहस्तहस्तया शस्ताश्वते हस्त'काश्च शस्तहस्तकाः प्रशस्ता पताकुत्रिपताकुकर्तरीमुखइत्यादि चतुःषष्टिः हस्तकाः तेषु विहस्तौ व्याकुलो हस्तौ यस्याः सा तथा शस्तहस्तकविहस्तहस्तया ॥६९॥ अप्युरःस्वननित' । मारिणी, काचिदुल्लसद पूर्वलाघवा । लास्यकर्मणि विनिर्मितभ्रमि-र्निर्ममे विघृतकौतुकं न कम् ॥ ७० ॥ (०या० ) अपीति । काचित् स्त्री विधृतकौतुकं विधृतं कौतुकं येन स तं ताश्चर्यकं न निर्ममे न कृतवती अपि तु सर्व निर्ममे । किंलक्षणा स्त्री उरुरतननितम्बमारिणी अपि उरश्व स्तनौ च नितम्बश्च एषां समाहारः उरः स्तननितम्बं (प्राणितूर्याङ्गाणाम् । ३-१--१३७ । इ. सू. प्राण्यङ्गत्वात् एकार्थद्वन्द्वः । ) 'हृदयस्थलस्तनकटीतटानि तस्य भारिणी भारवती अपि लास्यकर्मणि लास्यस्य कर्म તસ્મિન્ નાટ્યમેળિ વહાવપૂર્વાષવા ઇક્ષતીતિ જીતત્ અપૂર્વ છાપવું ચસ્યાઃ सा । पुन' विनिर्मिता भ्रमिर्यया सा विनिर्मितमिः कृतभ्रमणिका ॥ ७० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६) श्री जैनकुमारसम्भवाख्यं महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः १० शृण्वती धवलबंधबंधुरं, स्वामिवृत्तमुपगीतमन्यया । गाहकुंड नवकाधिकं सुधा - स्थानमास्यमिदमीयमेव सा ॥ ७१ ॥ ( व्या० ) शृण्वती । सा सुमङ्गला इदमीयमेव अस्था इदं इदमीयमेव आस्य मुखं कुंडनवकाधिकं कुंडानां नवकात् अधिकं सुधास्थानं सुधाया अमृतस्य स्थानं तत् आहस्म प्रोक्तवती । किंकुर्वती सुमङ्गला घवलबंधबंधुरं धवलवास बंधश्च तेन बंधुरं ( वाश्य सिवासिमसिमध्यन्दि - रः । ४२३ । इ. उ. सू. बन्धराधातोः उरप्रत्यय 1 ) तत् मनोज्ञं धीरोद्रत १ धीरोदात्तरधीरललित ३ धीरोपशान्त ४ एतनायकगुणचतुष्करूप स्वामिवृत्तं स्वामिनो वृत्तं तत् श्रीऋषभदेवचरितं शृण्वती शृणोतीति शृण्वती ॥ ७२ ॥ साधितस्वरगुणा ऋजूभव - देहदंड तततुम्बकस्तनी । कापि नाथगुणगान लालसा, व्यर्थतां ननु निनाय वल्लकीम् ॥७२॥ ( व्या० ) साधित इति । कापि स्त्री ननु निश्चितं वीणा विपंची नकुलोष्ठी किंनरी शततंत्री जया हस्तिका कुब्जिका कच्छपी घोषवती सारंगी उदुंबरी त्रिसरी ढिबरी परिवादिनी आलिचिणिप्रभृतिरूपवल्लकीं व्यर्थतां व्यर्थस्य भावो व्यर्थता तां निरर्थकतां निनाय । किंलक्षणा स्त्री नाथगुणगानलालसा नाथस्य श्रीऋषभदेवस्य गुणानां वंश १ विद्या २ विनय ३ विजय ४ विवेक ५ विचार ६ सदाचार ७ विस्तार ८ प्रभृतिषण्णवतिगुणानां गाने लालसा तत्परा । पुनः साधितस्वरगुणा साधिताः स्वरस्य गुणाः यथा सा । पक्षे साधितस्वरो गुणस्तन्त्री यस्याः सा । तद्यथा सप्तस्वरास्त्रयोग्रामा, मूर्च्छनास्त्वेकविंशतिः । ताना एकोनपञ्चाशत् इत्येतद्गोतलक्षणम् ॥ १॥ उद्गाहादौ नकारो न, मध्येयकार एव च ॥ अन्ते हकारो नो कार्यत्रयो गीतस्य वैरिणः ॥ २ ॥ नामाक्षरो यदुद्गाने भवेत्तत्र न संशयः । हकारो वा घकारो वा रेफोवापि कुलक्षयः ॥ ३ ॥ नकारे नष्टसर्वस्वं यकारे धातमेव च । हकारे हरति लक्ष्म तस्माद्गीतं न धारयेत् ॥ ४ ॥ हे नघनतरषभवर्णान् कवयः परिहृत्य कुरुत सुकवित्वमित्यादिदोषान् विचार्य सुस्वरे १ सुताले २ सुपदं ३ शुद्धं ४ ललितं ५ सुबद्धं ६ सुप्रमेयं ७ सुराङ्गना ८ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन मारसम्ममा महाव्यम्टीमासमलंतम् ॥ स १० (३३७ रम्य ९ समं १० सदर्थ ११ सुग्रहं १२ हृष्टं १३ सुकायं १४ सुयमक १५ सुरकं १६ संपूर्ण १७ सालंकार १८ सुभाषामव्यं १९ सुसंधिकव्युत्पन्न २० गंभीरं २१ स्फुट २२ सुप्रभं २३ अग्राभ्यं २४ कुंचितकम्पितं २५ समायातं २६ ओजसः सङ्गत २७ प्रसन्नस्थितं २८ सुखस्थायक २९ द्रुतं ३० मध्य ३१ विलम्बित ३२ द्रुतविलम्बित ३३ गुरूवं ३४ प्राञ्जलत्वं ३५ उत्तप्रमाणं ३६, चेत् यदि त्रिंशत् गीतिगुणानादाय लघुसालिग सूड धूउ माठॐ पडम6जत् त्रिवडॐ पडतालउ एकताली डूंगडउ कृपाणु पंचतालेश्वररागकदम्बकप्रतिगीतचतुरा । पुनः ऋजूभवदेहदंडतततुंबकरतनी ऋजूभवंश्वासो देह एव दंडश्च सरलीभवदेहदंडे ततो विस्तीर्णी तुंबकाकारौ स्तनौ यस्याः सा *जूभवद्देहदंडतततुंबकस्तनी ( असहन विद्यमानपूर्वपदात् स्वाभादकोडादिभ्यः । २४-३८ । इ. सू. स्त्रियां स्तनशब्दात् डीर्वा । ) ॥ ७२ ॥ एकया किलकुलाङ्गानागुण-श्रेणिवर्णनकृता व्यधायि सा । कोशमाशु मम ताविक कदा-दत्तसेयमिति संशयास्पदम् ॥७३॥ (०या०) एकयेति । एकया खिया सा सुमङ्गला इति संशयास्पदं संशयस्य संदेहस्य आस्पदं स्थानं व्यधायि क्रियतेस्म । इतीति कि सा इयं सखी मम तात्विक ( विनयादिभ्यः । ७-२--१६९ । इ. सू. तत्त्वशब्दात् स्वार्थे इकण । णित्वात् आदिस्वरद्भिः । ) पारमार्थिक कोश भांडागारं आशु शीघ्र कदा कस्यां वेलायामादत्त गृहीतवती । किविशिष्टया स्त्रिया कुलानागुणश्रेणिव नकृता कुलाङ्गनानां गुणाः सुरुपा १ सुभगा २ सुवेषा ३ सुरतप्रवीणा ४ सुनेत्रा ५ सुखाश्रया ६ विभोगिनी ७ विचक्षणा ८ प्रियभाषिणी ९ प्रसन्नमुखी १० पीनस्तनी ११ चारुलोचना १२ रसिका १३ लज्जाविता १४ लक्षणयुक्ता १५ पठितज्ञा १६ गीतज्ञा १७ वाधशा १८ नृत्यज्ञा १९ सुप्रमाणशरौरा २० सुगंधप्रिया २१ नीतिमानिनी २२ चतुरा २३ मधुरा २४ स्नेहवती २५ विषमर्षती २६ गूढमंत्रा २७ सत्यवती २८ कलावती २९ शीलवती ३० प्रज्ञावती ३१ गुणान्विता ३२ चेतिद्वात्रिंशनायिकानां गुणानां श्रेणीनां वर्णन Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८) श्रीजैनकुमारसम्भवाय महाव्यम् टी.समलंकृतम्। सर्ग:१० करोतीति वर्णनकृत् तया कुलानागुणश्रेणिवर्णनकृता । सर्वस्यापि तात्विको: कोशाः गुणा एव ज्ञेया इति भावः ॥ ७३ ॥ स्वेशसोहदमवेत्य तन्मुख-खागतैः शरणमंतरिक्षतः । भास्करोदयभयादिवोडुभिः, काप्यास्त शुचिरत्नकंदुकैः ॥ ७४ ॥ (व्या०) स्व इति । कापि स्त्री शुचिरत्नकंदुकः शुचीनि च तानि रत्नानि च पवित्रपमरागस्फटिकवेडुर्थचन्द्रकान्तप्रभृतिरत्नानि तैपां रत्नानां कंदुकैः अरंस्तरेमे । उत्प्रेक्षते भास्करोदयमयात् भास्फरस्य सूर्यस्य उदयस्तस्मात् भयं तस्मात् अन्तरिक्षतः अन्तरिक्षात् आकाशात् शरणं आगतैरुड्डभिनक्षत्रैरिव । किंवत्ता तन्मुखस्य तस्या सुमङ्गलायाः मुखस्य स्वेशसौदं स्वस्य ईश स्वामी चन्द्रः तेन चन्द्रेण सौदं (युवादेरण् । ७-१-६७ । इ. सू. सुहृदयशदात् भावे अण। हदयस्य हलासलेखाण्ये ३-२-९४ । इ. सू. अणि परे हृदयस्य हृदादेशः णित्वात् आदिस्वरवृद्धिः । सुदो भावः सौहृदम् ।) मैत्र्यमवेत्य ज्ञात्वा मुखस्य चन्द्रदर्पणपद्मप्रभृतीनामुपमानं दीयते । अतो मुखस्य चन्द्रेण मैत्र्यं तेन ते शर. णार्थ प्राप्ताः ।। ७४ ॥ को बली जगति कः शुचांपदं, याचितो वदति किमितम्पचः। कीदृशं भटमनः सुरेषु को, भैरवस्तव धवश्च कीशः ॥ ७ ॥ प्रश्नसन्ततिमिमां वितन्वती, काश्चनग्लपितकाञ्चनच्छविः। नाभिभूत इति सैकमुत्तरं, लीलयैव ददति व्यसिस्मयत् ।।७६॥युमिम् (व्या०) को इति । सा सुमङ्गला नाभिभूत इति एकमुत्तरं लीलयैव ददती ददातीति ददती सती काञ्चनसखी व्यसिस्मयत् विस्मयं प्रापयति स्म । किंलक्षणा सुमङ्गला ग्लपितकाञ्चनप्छवि ग्लपितं च तत् काश्चनं च तद्वत् छवियस्याः । सा द्रुनसुवर्णकान्तिः । किंकुर्वती काश्चन सखी इमां प्रश्नसन्ततिं प्रश्नानां सन्ततिस्ता प्रश्नश्रेणि वितन्वती वितनोतीति वितन्वती तां कुर्वती इमा कां जगति विश्वे को बली बलवान् इति प्रश्नः ना पुरुष इत्युत्तरः । क शुचां पदं शोकानां स्थानमिति प्रश्न अभिभूतः पराभूत. इत्युत्तर । मितंपच मितंपचतीति Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચીનમાલમતા ધ માન્ય ટોમર્જતમ્ પ લ ૨૦ (૩૩૧ मितम्पचः (परिमाणार्थमितनखात् पचः । ५-१-१०९ । इ. सू. मितपूर्वक'पच्यातोः स्वप्रत्ययः खित्यनव्ययाऽरुषोर्मोऽन्तो हस्वश्च । ३-२-१११ । इ. सू. खित्प्रत्ययान्ते पचे परे मितशब्दात् मोऽन्तः । ) कृपणो याचित. सन् किंवदति इति प्रश्न: न निषधमित्युत्तरः । भटमनः भटस्य मनःसुभटस्वान्तं कोशमिति प्रश्न अभि न विद्यते भीयं यस्य तत निर्भयमित्युत्तरः सुरेषु देवेषु को भैरवो भयङ्करः इति प्रश्नः भूत इत्युत्तरः च अन्यत् तव धवो भर्ता कोशः नाभिभूतः नाभेर्भूतः नाभिभूत: नाभिजातः ।। ७५-७६ ॥ युग्मम् ।। उत्तरोत्तरकुतूहलैरिमां, चान्तचेतसमुवाच काचन । श्यतां सहृदयेऽरुणोदयो, जात एव दिशि जम्भवैरिणः ॥ ७० ॥ (व्या०) उत्तर इति । काचन सखी इमां सुमङ्गला उवाच । किंलक्षणां सुमङ्गला उत्तरोत्तरकुतूहलै. उत्तराणि उत्तगणि इति उत्तरोत्तराणि तानि च तानि कुतूहलानि च तैः उपरिष्टात उपरिष्टात् वर्तमान कौतुकैः चान्तचेतसं चान्तं च्याप्तं चेतो हृदयं यस्याः सा तां व्याप्तमानसाम् । हे सहृदय विचक्षणे जंभवैरिणः जभस्य दैत्यस्य वैरी शत्रुस्तस्य इन्द्रस्य दिशि पूर्वस्यां दिशि अरुणोदयः अरुणस्य उदय सूर्योदयो जात एव दृश्यताम् ॥ ७७ ॥ शंख एव तव सौखरात्रिको, द्वारि सनंदति दीयतां श्रुतिः । आर्थकार्यफलवर्धनस्वनो-पज्ञपुण्यपटलैरिवोज्ज्वलः ।। ७८ ॥ (व्या०) शंख इति । हे स्वामिनि एष शंख एव द्वारि द्वारे संनदति शब्दं करोति । श्रुति. कर्णों दीयताम् । किंलक्षणः शंखः तव सौख्यरात्रिका सुखरात्रिं पृच्छतीति सौखरात्रिक । (सुस्तातादिभ्यः पृच्छति । ६-४-४२ । इ. सू. सुखरात्रिशदात् पृच्छत्यर्थे इकण प्रत्ययः णित्वात् आदिस्वरवृद्धिः ।) પુનઃ પ્રેક્ષતે માર્યોwવદ્ધનસ્વનીપજ્ઞપુષ્કપટ માર્યા િવ તાનિ ખિ तेषां फलानि तेषां वर्द्धनस्य वृद्धिकारिणः स्वनस्य शब्दस्य उपः संजातैः पुण्यानां पटलः समूहै. उज्वल इव धवल इव ॥ ७८ ॥ जाग्रदेव, तव शान्तदिग्मुखो, वक्ति यन्मृदुरवः प्रियं द्विका । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ↑ : રૂ૪૦) શ્રીનેનમાલમવા> માિત્મ્યમ્ ટીૉલમôવમ્ ñ ર્યા किं ततः सुचरिताद् द्विजन्मना - मग्रभोजनिकताभयं गमी ॥ ७९ ॥ ( व्या० ) जादिति । हे स्वामिनि जाग्रदेव जागतति जामदेव मृदु:खो यस्य सः सुकोमलशब्दो द्विकः द्वौ ककारौ नानि यस्य सः द्विकः काकः यत् तव प्रियं अभीष्टं वक्ति वदति । किंविशिष्टो द्विकः शान्तदिग्मुखः शान्तायां दिशि मुखं यस्य स । ततस्तस्मात् सुचरितात् सदाचरणात् अयं द्विको दिनमनां द्वे जन्मनी येषां तेषां ब्राह्मणानां अग्रभोजनिकतां भोजनिकभावो भोजनिकता अग्रेभोजनिकतां गमी गमिष्यतीति गमी (वत्स्थति गम्यादिः ५-३-१ ।। इ. सू. भविष्यत्यर्थे इन्नन्तो निपातः ॥ ७९ ॥ सुदति नदति सोऽयं पक्षिणां चंडदीधित्युदय समय नश्यनेत्रमोहः समूहः । रजनि रजनि दूरेऽस्माध्शां स्वैरचार प्रमथनमथ नृत्यत्पक्षतीनामितीव ॥ ८० ॥ (०या० ) सुदति इति । हे सुदति शोभनाः दन्ताः यस्याः सा सुदती ( वयसि दन्तस्य दतृः । ७-३ - १५१ । इ. सू. सुपूर्वस्य दन्तस्य बहुव्रीहौ दः ऋदित्वात् खियां ङी: 1) तस्याः संबोधनं क्रियते । सोऽयं पक्षिणां समूहो नदति शब्दयते । किंलक्षणः पक्षिणां समूहः चण्डदीधित्युदयसमयनश्यन्नेत्र मोह : चण्डा उमा दोषितयः किरणा यस्य स चंडदीधितिः सूर्यस्तस्य उदयस्य समयः तस्मिन् नश्यन् नेत्राणां मोहो निद्रा यस्य किंविशिष्टानां पक्षिणां नृत्यन्त्यः पक्षतयो ( पक्षतिः । ७-१-८९ । इ. सू. पक्षशब्दात् मूले अर्थे तिप्रत्ययः पक्षाणां मूलानि पक्षतयः ।) येषां ते नृत्यत्पक्षतयस्तेषाम् । उत्प्रेक्षते - इतीव । इतीति किम् अथानन्तरं अस्मादृशां स्वैरचारप्रमथनं स्वैरं चारः स्वेच्छाचारस्तस्या प्रमथनं स्फेटनं रजनिः दूरेऽजनि जाता इतीव ॥ ८० ॥ પિનવિનિદ્રીભૂતાનીવાની, परमपरिमल श्रीतस्करोऽयं समीरः । સારવપદતચૈત્યઃ વિશિવાયનછી, भ्रमति भुवि किमेष्यच्छ्ररमीत्याऽव्यवस्थम् ॥ ८१ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીને માલમવાગ્યે મઢાવ્યમ્ ટીપાતમĐતમ્ ॥ લઃ ૨૦ (૪{ ( ०या० ) दिन इति । अयं समीर: वायु, भुवि पृथिव्यां किं एण्यच्छूर भीत्या एष्यतीति एष्यन् सचासौ शूरश्च तस्मात् भीतिस्तया आगामिष्यतः सूर्यात् सुभटाद्वा भीत्या भयेन अव्यवस्थं न विद्यते व्यवस्था मर्यादा यस्मिन् कर्मणि यथा भवति तथा व्यवस्थारहितं भ्रमति । किंकृत्वा वलीलता. किञ्चित् आधूय घुवित्वा । किंलक्षणः समीरः दिनवदनविनिद्रीभूतराजीवराजी परमपरिमलश्रीतस्करः दिनस्य वदनं दिनवदनं प्रभातं विगता निद्रा यस्याः सा विनिद्रा न विनिद्रा अविनिद्रा अविनिद्रा विनिद्रा भूता इति विनिद्रीभूता दिनवदने विनिद्रीभूता विकखरा या राजीवानां कमलानां राजी श्रेणिः तस्याः परमश्चासौ परिमलच तस्य श्रीर्लदगी' तस्यास्तस्करचौर । पुनः सरिदपहतशैत्यः सरितो नद्या अपहृतं गृहीतं शैत्यं येन सः सरिदपहृतशैत्यः । अन्योऽपि योऽपराधी स शूदात् बिभेति । कमलपरिमलहरणे वायोरेकोऽपराधः नद्याः शीतत्वहरणे द्वितीयोऽपराधः वल्लीधूनने परदारलम्पटत्वलक्षणस्तृतीयोऽपराधः । वायुश्च शीतो मन्दः सुरभिश्च त्रिगुणो वर्ण्यते इति भावः ॥ ८१ ॥ लक्ष्मी तथा परमथात्मपरिच्छदं च, मुञ्चन्तभागमित योगमिवास्तकामम् । वेशमल्परुचिर्मुज्झति कामिनीव, तं यामिनी असरमम्बुरुहाक्षि ५२५ ॥ ८२ ॥ · ( व्या० ) लक्ष्मीमिति । हे अम्बुरुहाक्षि अम्बुनि जले रोहतः इति अम्बुरुहे कमले तद्वत् अक्षिणी नेत्रे यस्था सा अम्बुरुहाक्षी तस्याः संबोधनं क्रियते हे कमललोचने पश्य विलोकय । यामिनी रात्रि कामिनी इव प्रसरं उज्झति त्यजति । किं कृत्वा ईशं स्वामिनं तं चन्द्र अल्परुचि अल्पा रुचि कान्तिरिच्छा बा यस्य तं अल्पप्रकाशमल्पेच्छं वा दृष्ट्वा विलोक्य किं कुर्वन्तं चन्द्रं लक्ष्न तथा अम्बरमाकाशं वस्त्रं च अथ आत्मपरिच्छद (पुन्नानघ ५-३-१३० । इ. सू. संज्ञायां परिपूर्वकछादयतेर्घः । एकोपसर्गस्य च घे । ५-४-३४ । इ. सू. ह्रस्वः 1 ) आत्मनः परिच्छदस्तं आत्मपरिवारं च मुञ्चन्तं मुञ्चतीति मुश्चन् तँ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂાર) ચીનનામાવલમ્બવાર્ય માન્યમ્ ટાલમાતમાં ૨૦ त्यजन्तम् । उत्प्रेक्षते अस्तकामं अस्त: कामो येन तं अस्ताभिलाषं निरस्तकंदर्प वा आगमितयोगमिव आगमितो योगो येन तं अभ्यस्ताव्यात्ममिव ।। ८२ ॥ अवशमनशीतः शीतद्युतिः स निरम्बर, खरतरकरे सद्ध्वान्ते रवावुदयोन्मुखे । चिरलविरलास्तजायन्ते नभोऽध्वनि तारकाः, परिकृढढीकाराभावे बले हि कियदलम् ।। ८३॥ (व्या०) अवशमिति । स शीतधुतिः शीता द्युतिर्यस्य सः चन्द्रः भीत: सूर्यभयात् भीतः त्रस्तः निरम्बरः निर्गतमम्वरं यस्य स निरम्बर: निर्वत्रः सन् अवशं यथा भवति तथा अनशत् नष्टः । क सति खरतरकर अतिशयेन खरा णाः कराः किरणाः यस्य स तस्मिन् । ध्वस्यद्ध्वान्ते ध्वस्यत् ध्वान्तं तमो यस्मात् तस्मिन् एवंविधे वो सूर्य उदयोन्मुखे उदयस्य उन्मुखे सति तत् तेन कारणेन नभोऽध्वनि नभसः अव्वा नभोवा तस्मिन् आकाशमार्गे तारका विरलविरला अतिशयेन अल्पा जायन्ते । हि निश्चितं परिवृढदृढीकाराभावे परिवृदस्य (क्षुब्धविरिवस्वान्तध्वान्तलग्नम्लिाटफाण्टबाढपरिवृद्ध मन्थस्वरमनस्तमःसत्ताऽस्पष्टाSनायाशशप्रभौ । ४-४-७० । इ. सू. प्रभौ अर्थे परिढो निपातः ।) नायकस्य दृढीकारः तस्य अभावे सति बले सैन्य बलं कियद्भवति । अपि तु न किमपि । अन्योऽपि शीतयुतिः शीतलस्वभावो यः स्यात् स कठोरानश्यति तस्मिनष्टे तत्परिवारोऽपि विनश्यतीति भावः ॥ ८३ ॥ गंभीराम्भः स्थितमथजपन्मुद्रितास्यं निशाया मन्तर्गुञ्जन्मधुकरमिषान्सूनमा कृष्टिमन्त्रम् । प्रातर्जातस्फुरणमरुणस्योदये चन्द्रविमा दाकृष्याब्ज सपदि कमलां स्वीतल्पीचकार ॥८४॥ (०या०) गंभीर इति । अजं कमलं कमलां लक्ष्मी चन्द्रबिम्बात् चन्द्रस्य विम्बात् आकृष्य सपदि झटिति स्वातल्पीचकार स्वस्य अङ्क उत्सङ्ग एप तल्पं शल्या यस्याः सा स्वाङ्कतलपान स्वातल्पा अस्वाङ्कतल्पा अस्वातल्पां स्वाक Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजेनमारलभदास्य महाव्यम् टीपासमलतम् सगः १० (३४३ तल्पां चकार इति स्वाङ्कतल्पीचकार स्वोत्सङ्गे निवेशयति स्मेत्यर्थः । किंलक्षणं अज गंभीराम्भः स्थितं गंभीरं च तत् अम्भश्च गंभीराम्भः तस्मिन् स्थितं गंभीरजलेस्थितं किंकुर्वन् नूनं निश्चितं निशायां रात्रौ अन्तमध्ये गुञ्जन्मधुकरभिपात् गुञ्जन्तश्च ते मधुकराश्च भ्रमरास्तेषां मिषात् गुजारवकारिभ्रमरप्लात् मुद्रितास्य मुद्रितमास्यं मुखं यस्य तत् मुद्रितमुख सत् आकृष्टिमन्त्रं आकृष्टेमन्त्र जपत् ओकर्षणमंत्रस्य जापं कुर्वाणम् । पुनः प्रातः प्रभाते जातस्फुरणं जातं स्फुरणं यस्य तत् सञ्जातमन्त्रसिद्धि । अन्योऽपि साधको जले स्थित्वा मौनेन रात्रौ मन्त्र जपतीति भावः ॥ ८४ ॥ धरिः श्रीजयशेखर कविघटाकोटीरहीरच्छवि, धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुभाक् । पाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सों जैनकुमारसंभवमहाकाव्ये दिशासङ्ख्यभाम् ॥१॥ इतिश्रीमदचकगच्छकविचक्रवतिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरमहोपाध्यायकृतायां टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां दशमसर्गव्याख्या समाता ॥१०॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३४४) श्रीजेनमारसम्भवाल्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः ११ ॥ अथ एकादशः सर्गः प्रारभ्यते ॥ निराकरिष्णुस्तिमिरारिपक्षं, महीभृतां मौलिषु दत्तपादः । अथ ग्रहाणामधिभूरुदीये, प्रसादयन् दिललनाननानि ॥ १॥ __ (व्या०) निराकरिष्णुरिति । अथानन्तरं ग्रहाणां अधिभूः स्वामी श्रीसूर्य उदीय उदयं प्राप्तः । किंकुर्वन् सूर्यः दिग्ललनाननानि दिश एव ललना:स्त्रियरखासा आननानि मुखानि प्रसादयन् प्रसादयतीति दिगङ्गनानां मुखानि प्रसन्नीकुर्वन् पुनः किविशिष्टः तिमिरारिपक्षं तिमिराणि एव अरयस्तेषां पक्षं अन्धकारशत्रुपक्षं निराकरिष्णु: (भ्राज्यलड्गनिराकगभूसहिरूचिकृतिधिचरिप्रजनापत्र! इष्णु: ५-२-२८ । इ. सू. शीलादिसदर्थे निरापूर्वककृपधातोः इष्णुप्रत्ययः।) निराकरोतीत्येवं शीलः । पुन: महीभृतां महीं बिभ्रतीति महीभृतस्तेषां पर्वतान राज्ञां च मौलिषु शिखरेषु मस्तकेषु वा दत्तपादः दत्ताः पादा येन सः दत्तकिरणः दत्तचरणो वा ॥ १ ॥ तमितवांधांबुजबोधधिण-भोपांधुशोषाध्वविशोधनाधाः । अर्थक्रिया भुरितरा अवेक्ष्य-वेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥२॥ (व्या०) तमिस इति । वेधा ब्रह्मा अस्य रवः सूर्यस्य सहसं करान ज्यधात् चकार । यथा विंशतिः पुरुषाः अत्रैकवचनं तथा अत्रापि। किंकृत्वा तमिनबाघांबुजबोधधिष्णमोषांबुशोषाध्यविशोधनाचाः तमित्राणामन्धकाराणां बाधा तमिस्रबाधा अन्धकारपीडा अंबुजानां बोधः अम्बुजबोधः कमलविकासः धिष्णानां मोषः धिमोषः नक्षत्रमोष अंबुनः शोषः अम्बुशोषः जलशोषः अध्वनां विशोधनं अध्वविशोधनं मार्गशोधनं तमिस्रबाधा च अम्बुजबोधश्च घिष्णमोषश्च अम्बुशोषश्च अध्वविशोधनं च इति विशोधननानि तानि आधानि यासां ताः भरितराः प्रचुराः अर्थक्रियाः अर्थानां क्रियास्ताः कार्याणि अवेक्ष्य ज्ञात्वा ॥ २ ॥ प्रातःप्रयाणाभिमुखं तमिस्र, कोकास्यमालिन्यसरोजमोहौ। आलव्य साथै न हि मार्गमेको, गच्छेदितिच्छेदितपन्न नीतिम् ॥३॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसामवाल्य महाकाव्यम् टीकासमलंतम् ॥ सर्ग. ११ (३४५ (व्या०) प्रातः इति । तमिस्र अन्धकार इति नीति न्यायं नच्छेदितवत् न छिनत्तिस्म । इतीति किं न हि एको मार्ग गच्छेत । किंरूपं तमिस्र प्रातःप्रयाणाभिमुख प्रभाते प्रयाणस्य गमनस्य संमुख किंकृत्वा कोकास्यमालिन्यसरोजमोहौ कोकानां चकवाकानामास्यानि तेषां मालिन्यं कोकास्यमालिन्यं सरसि जातानि सरोजानि तेषां मोह. सरोजमोह कोकास्यमालिन्यं च सरोजमोहश्च कोकास्यमालिन्यसरोजमोहौ तौ द्वौ साथ आलम्व्य आश्रित्य ॥ ३ ॥ तमो ममोन्मादमवेक्ष्य नश्य-देतैरमित्रं स्वगुहास्वधारि।। इति जुधेव घुपतिगिरीणां, मूर्नो जघानायतकेतुदंडैः ॥ ४ ॥ (व्या०) तम इति । धुपतिः (उ पदान्तेऽभूत् । २-१-११८ । इ. सू. दिवोवकारस्य उः ।) दिव. पति सूर्यः गिरीणां पर्वतानां मूर्ध्न मस्तकानि आयतकेतुदंडे आयताश्च ते केतवश्च त एव दंडास्त । विस्तीर्णकिरणदडै जधान । प्रेक्षते इति क्रुधा इव रोषेण इव । इतीति किं एते पर्वतैर्मम अमित्रं शत्रुरूपं तम अन्धकार स्व गुहासु स्वस्य गुहास्तासु आत्मीयगुहासु अधारि धृतम् किंकुर्वत् तम मम उन्माद अवेक्ष्य दृष्ट्वा नश्यत् नश्यतीति नश्यत् ॥ ४ ॥ क्षाराम्बुपानादनिवृत्ततृष्णः, पूर्वोदधेरेप किमौर्ववह्निः। नदीसर:स्वादुजलानि पातु-मुदेति कैश्चिजगदे तदेति ॥ ५ ॥ (न्या०) क्षार इति । तदा तस्मिन्नवसरे कैश्चित् पुरुष इति जगदे जल्पितम् । इतीति किम् । एष पूर्वोदधे ( पूर्वापरप्रथमचरमजयन्यसमानमध्यमध्यमवीरम् । ३-१-१०३ । इ. सू. कर्मधारयसमास 1) पूर्वश्चासौ उदधिश्च तस्मात् पूर्वसमुद्रात् किं औश्वह्निः वडवानल क्षाराम्बुपानात क्षार च तत् अन्दु च जलं तस्य पानात् अनिवृत्ततृष्ण न निवृत्ता अनिवृत्त अनिवृत्ता तृष्णा यस्य स. अभन्नतृष्णः सन् नदीसर स्वादुजलानि स्वादूनि च तानि जलानि स्वादुजलानि नद्यश्च सरांसि नदीसरांसि नदीसरसां स्वादुजलानि नदीसर स्वादुजलानि पातुं उदेति उदयं प्राप्नोति ॥ ५ ॥ इन्दोः सुधाश्राविकरोत्सवज्ञा-विज्ञातभाव्यर्ककरोपतापा । व्याजानिशाजागरगौरवस्थ, शिश्ये मुखं कैरविणी सरस्म ॥ ६ ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं मन्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ ( व्या० ) इन्दोः । कैरविणीकुमुदिनी या इन्दोः किरणैर्विकसति सा कैरविणी कुमुदिनीत्युच्यते । निशा जागरगौरवस्य निशायां रजन्यां जागरस्य गौरवं गुरुता तस्य व्याजात् सरस्सु सरोवरेषु सुखं यथा भवति तथा शिरये सुप्ता संकोचमाप्ता इत्यर्थः । किंलक्षणा कैरविणी इन्दोश्चन्द्रस्य सुधा श्राविकरोत्सवज्ञा सुधां श्रवन्तीति सुधाश्राविण ते च ते कराश्च तेषां अमृतश्राविणां किरणानां उत्सवं जानातीति सुधाश्राविकरोत्सवज्ञा । विज्ञातभान्यर्क करोपतापा भविष्यतीति भावी ( वत्स्थति गम्यादिः । ५ -३ - १ । इ. सू. भविष्यत्यर्थे भूधातो औणादिकोणिन् ।) स चासो अर्कश्च सूर्यः भाग्यर्कस्तस्य कराः तेषां भविष्यत्सूर्यकिरणानामुपतापः विज्ञात भाव्यर्ककरोपतापो यया सा ॥ ६ ॥ बद्धाञ्जलिः कोशमिषाद्गतेना, जातश्रियं पङ्कजिनीं दिनाप्त्या । जहास यत्तद्वयसने निशायां, कुमुद्वती तत् क्षमयांवभूव ॥ ७ ॥ ( व्या० ) बद्राञ्जलिः । कुमुद्वती कुमुदिनी निशायां रात्रौ यत् तद्वयसने तस्या' कमलिन्या व्यसने कष्टे सति जहास हसितवती विकसिता वा तत् क्षमयांबभूव । किंकृत्वा दिनापत्या दिनस्य आप्ति प्राप्तिस्तया दिवसप्राप्त्या पङ्कजिन कमलिनीं जातश्रियं जाता श्रीर्यस्याः सा ताम् । किंलक्षणा कुमुद्दती कोशमिषात् फोशस्य मुकुलस्य मिषात् बद्वाञ्जलिः बद्धः अञ्जलिर्यया सा योजितहस्ता ||७|| देहेन सेहे नलिनं यदिन्दु - पादोपघातं निशि तं चत्राम | पराभवं सूरकराभिषङ्गे, प्रगे हृदो निर्यदलिच्छलेन ॥ ८ ॥ ( व्या० ) देहेन इति । नलिनं कर्तृपदं कमलं निशि रात्रौ यत् इन्दुपादोपघातं इन्दोश्चन्द्रस्य पादाः किरणास्तेषां पादाश्चरणा वा तेषां उपघातः प्रहारस्तं देहेन शरीरेण सेहे । प्रगे प्रभाते सूरकराभिषङ्गे सूरस्य सूर्यस्य करो: किरणास्तेषामभिपट्टे सूर्यकिरणसंसर्गे हृदो हृदयात् निर्यदलिच्छलेन निर्यन्तश्चते अलयच भ्रमरास्तेषां मिपेण निर्गच्छ भ्रमरमिषेण तं पराभवं ववाम वमतिस्म ॥ ८ ॥ भित्त्वा तमः शैवलजालमंशु-मालिद्विपे स्फारकरे प्रविष्टे । आलीन पूर्वोऽपससार सद्यो, वियत्तडागादुडुनीडजौघः ॥ ९ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं मद्दाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ (३४७ (०या० ) भित्वा इति । उडुनीडजौघः उडूनि एव नीडजानां पक्षिणा मोघः नक्षत्ररूपपक्षिसमूहः आलीनपूर्वः पूर्वमालीन आलीनपूर्वः पूर्वनिविष्टः सन् सद्यस्तत्कालं वियत्तडागात् वियदेव तडागस्तस्मात् आकाशसरोवरात् अपससार अपसृतः । क सति तम शैलजालं तमांसि एव शैवलानि तेषां जालं त अन्धकाररूपशैवालसमूहं भित्त्वा स्फारकरे स्फार करो यस्य स तस्मिन् प्रौढकिरणे महाशुंडादंडे वा अंशुमालिद्विपे अंशूनां किरणानां मालाः सन्ति अस्येति अंशुमाली सूर्यः स एव द्विपोगजस्तस्मिन् सूर्यरूपगजे प्रविष्टे सति ॥ ९ ॥ किश्चित् समासाद्य महः पतङ्ग - पक्षः क्षपायां यदलोपि दीपैः । चां वैरशुद्धिं व्यधिताभिभूय, दीपान् प्रगे कोऽप्युदितः पतङ्गः ॥१०॥ ( व्या० ) किञ्चित् इति । दीपै क्षपायां रात्रौ किञ्चिन्महस्तेजः समासाद्य 'आप्य पतङ्गपक्ष' पतङ्गस्य पक्ष शलभपक्षः पक्षे सूर्यपक्षः यत् अलोपि लुप्तः । अगे प्रभाते कोऽपि पतङ्ग उदितः सन् दीपान् अभिभूय अभिभूत्वा इति पराभूय वैरशुद्धि वैरस्य शुद्धिस्तां व्यधित कृतवान् । अत्रापि पतङ्गः सूर्यः शलमो 'चा ज्ञेयः ॥ १० ॥ गते व संत्रवृधेऽन्धकारो, गतेऽन्धकारे च रविर्दिदीपे | तथापि भानुः प्रथितस्तमोभि-दहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् ॥ ११ ॥ ( व्या० ) गत इति । खौ सूर्ये गते सति अन्धकारो ववृधे वृद्धि प्राप्तः अन्धकारशब्द पुंनपुंसकः । अन्धकारे गते गते सति रविः सूर्योदि दीपे दीप्तः । - तथापि भानु सूर्य तमोभित तमांसि भिनत्तीति तमोभित् अन्धकारभित् प्रथितो विख्यातः । अहो इति आश्चर्ये यशो भाग्यवशोपलभ्यम् भाग्यस्य वशेन उपलभ्यं प्राप्यं वर्तते ॥ ११ ॥ कृतो रद्भिः कटु लोककर्णो-चाटो निशाटैस्तमसो बलाद्यैः । सूरे तमो निम्नति मौनिनस्ते, निलीय तस्थुर्दरिणो दरीषु ॥ १२ ॥ ( व्या० ) कृतो इति । यैः निशा: निशायामटन्तीति निशाटास्तैः वूकैः तमस' बलात् अन्धकारस्य चलातू कटुरदद्भिः कर्णस्य कटुशब्दं कुर्वद्भिः सद्भिः Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४८) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलहतम् ॥ सर्ग: ११ ।। लोककर्णोच्चाट: लोकानां कर्णेषु उच्चाट कृतः । ते घका दरिणो भययुक्ताः । मौनिन· मौनमस्ति एषामिति मौनिनः मौनयुक्ता. दरीषु गुहासु निलोय तस्थुः स्थिताः । क सति सूरे सूर्ये तमोऽन्धकारं निन्नति विनाशयति सति ।। १२ ।। कोकप्रमोदं कमलप्रबोध, स्वेनैव तन्वस्तरणिः करेण । नीति व्यलंधिष्ट न पोष्यवर्ग-बनन्यहस्ताधिकृतिस्वरूपाम् ॥१३॥ (व्या०) कोक इति । तरणिः सूर्य कोकप्रमोद कोकानां चक्रवाकानां प्रमोदो हर्षरत कमलप्रबोधं कमलानां प्रबोधं विकाशं स्वेनैव करेण आत्मीयेन किरणेन हस्तेन वा तन्वन् तनोतीति तन्वन् सन् पोष्यवर्गेषु पोष्याणां वर्गास्तेषु अनन्यहस्ताधिकृतिस्वरूपां हस्तस्य अधिकृतिः हस्ताधिकृतिः अन्यस्य हस्ताधिकृतिन भवतीति अनन्यहरताधिकृतिः सा एवं स्वरूपं यस्या सा तां नीति न च्यलंधिष्ट न लंघयतिस्म ॥ १३ ॥ इलातले बालरवेमयुखै रुन्भेषिकाश्मीरवनायमाने । सुमङ्गला को कुममङ्गरागं, निर्वष्टुकामेव मुमोच तल्पम् ॥ १४ ॥ (व्या०) इलेति । इलातले इलाया. पृथिव्यास्तलं तस्मिन् पृथ्वीतले बालरवे: बालश्चासौ रविश्च तस्य बालार्कस्य मयूखैः किरणें । उन्भेषिकाश्मीरवनायमाने काश्मीराणां वनं काश्मीरवनं उन्भेषि च तत् काश्मीरवनं च तदिन आचरति तस्मिन् विकस्वरकाश्मीरवनवत् आचरति सति सुमङ्गला कौंकुम अङ्ग-. राग कुड्कुमस्य अयं तं अङ्गस्यरागस्तं निबष्टुं कामो यस्याः सा निष्टकामा इव उपभोक्तुकामा इव तल्पं शयनीयं सुमोच ॥ १४ ॥ जलेन विश्वग्विततस्तदंशु-जालैरभेदं भजता प्रपूर्णाम् । करे मृगाङ्कोपलवारिधानी, कृत्वा सखी काप्यभवत्पुरोऽस्याः ॥१५॥ (व्या०) जलेनेति । कापि सखी करे हस्ते जलेन प्रपूर्णा मृगाकोपलवारिधानी वारीणि धीयन्ते अस्यामिति वारिधानी (करणाधारे । ५-३-१२९ । इ. सू. वारिशदपूर्वकधाधातो अधिकरणे अनट् । टिस्वात् डी) मृगाकोपलानां वारिधानी तां चन्द्रकान्तमणिनिर्मितकरकं कृत्वा अस्या. सुमङ्गलाया. पुरोऽग्रे Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११(३४९. अभवत् । किविशिष्टेन जलेन विश्व समन्ततः विततः प्रसतः तदंशुजालैः तस्याः मृगाकोपलवारिधान्या. अंशूनां जालानि तैः किरणसमुहै: अभेद न भेदोऽभेदस्तं ऐक्यं भजता प्राप्नुवता ॥१५॥ मुमङ्गला मृदुपाणिदेशे, सा मुश्चती निर्मलनीरधाराः । उल्लासयन्ती गुरुभक्तिवल्ली, कादम्बिनीवालिजनेन मेने ॥ १६ ॥ (व्या०) सुमङ्गला इति । आलिजनेन आलीनां जनस्तेन सखीवर्गेण सा स्त्री कादम्बिनी इव मेघमालेव मेने मन्यते स्म । किंकुर्वती सा सुमङ्गलाया मृदुपाणिदेशे पाण्योर्देश• मृदुश्चासौ पाणिदेशश्च तस्मिन् कोमलहस्तप्रदेश कोमलहस्ते निर्भलनीरधार। निर्मलं च तत् नीरं च निर्मलनीरं तस्य धारास्ताः मुश्चती । पुन: गुरुभक्तिवल्ली गुरोः भक्तिः सा एव वल्ली तां उल्लासयन्ती उल्लासयंतीति पई यन्ती ॥ १६ ॥ यदम्भसा दम्भसमुज्झिताया, राझ्या मुखेन्दोविहितोऽनुषङ्गः । कृतामृताख्य कृतकर्मभिस्त-जगत्सु तज्जीवनतां जगाम ॥१७॥ (व्या०) यदिति । अम्भसा पानीयेन दम्भसमुज्झिताया. दम्भेन समु. ज्झिता तस्या माया मुक्ताया राज्याः सुमङ्गलाया मुखेन्दो. मुखमेवेन्दुस्तस्य मुखचन्द्रस्य यत् अनुषङ्गः संपर्को विहितः । तत् तस्मात् कारणात् तत् अम्भः कृतकर्मभि. कृतानि कर्माणि यैस्ते कृतकर्माणस्तः कृतकर्मभिः विनिः जगत्सु विश्वेषु कृतामृताख्यं कृता अमृतमिति आल्या यस्य तत् सत् जीवनतां जीवनस्य भावो जीवनता तां जगाम प्राप । अमृतं जीवनं पानीयभेवोच्यते ॥ १७ ॥ मुख परिक्षालनलग्नवारि-लवं चलचञ्चलनेत्रभृङ्गम् । प्रातःप्रबुद्धं परितःप्रसत्ता-वश्यायमस्या जलज जिगाय ॥ १८ ॥ (व्या०) मुखमिति । अस्या सुमङ्गलाया मुख कर्तृपदं जलज (सप्तम्याः ५-१-१६९ । इ. सू. जलपूर्वकमनेई । डिवात् अन्त्यस्वरादिलोप ।) जले जातं तत् कमलं कर्मपदं जिगाय जयति स्म । किंलक्षणं मुख परिक्षालनलमवारिलवं परिक्षालनेन लामा सक्ताः वारिणो लवा बिन्दयो यस्मिन् तत् । पुन. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः११ चलचञ्चलनेत्रभृशं चलतः इति चलन्तौ चलन्तौ चञ्चले नेत्रे एव भृङ्गौ भ्रमरौ यस्मिन् तत् । किंविशिष्टं कमलं प्रातः प्रभाते प्रबुद्धं विकसितम् । पुनः परितः समन्ततः प्रसक्तावश्यायं प्रसक्तोऽवश्यायो यस्य तत् लभतुहिनम् ॥ १८ ॥ निशावशाद्भूषणजालमस्या, विसंस्थुलं मुष्ठ निवेशयन्ती । काप्युज्झितं लक्षणवीक्षणस्थ, क्षणे करं दक्षिणमन्वनैषीत् ॥ १९ ॥ (०या०) निशा इति । कापि सखी अस्याः सुमङ्गलाया दक्षिणं कर अन्वनैषीत् रुष्टं प्रीतिमन्तं चकार । किंलक्षणं दक्षिणं कर लक्षणवीक्षणस्य लक्षणाना वीक्षणं तस्य क्षणे समये लक्षणावलोकनसमये उज्जितं त्यक्तम् । पुरुषस्य दक्षिणहस्ते लक्षणानि वीक्ष्यन्ते नार्यास्तु वामहस्ते । तदा दक्षिणो हस्तो रुष्ट इति भावः । किंकुर्वती सखी निशावशात् निशाया रजन्या वंशात् अस्या. सुनङ्गलाया विसंस्थुलं भूषणजालं भूषणानां जालमाभरणसमूहं सुष्टु शोभनं निवेशयन्ती निवेशयतीति कुर्वती तदा दक्षिणहस्तस्यापि भूषणानि सुष्टु निवेशितानि इति प्रीतिमांश्चक्रे ॥ १९ ॥ यं दर्पणो भस्मभरोपरागं, प्रगेऽन्वभूत् कप्राधिया म्रदिष्ठः । तदा तदायप्रतिमामुपास्य, सखीकरस्यः प्रशशंस तं सः ॥ २०॥ (व्या०) यमिति । दर्पण आदर्शः प्रो प्रभाते कष्टधिया कष्टस्य धीस्तया कष्टबुद्धया यं भस्मोपरागं भस्मन उपरागतं भस्मना मार्जनोपप्लवं म्रदिष्टः (गुणाझाष्ठे यस् । ७-३-९ । इ. सू. मृदुशब्दात् इष्ठः । पृथुमृदुभृशकशहढपरिवृढस्य ऋतो र । ७-४-३९ । इ. सू. इष्ठे परे *तः रः ।) अतिशयेन मृदुः इति सुकुमालतरः सन् अन्वभवत् अनुभवति स्म । तदा तस्मिन्नवसरे दर्पणः सखीकरस्थः ( स्थापास्नानः क । ५-१-१४२ । इ. सू. करपूर्वकस्थाधातोः क प्रत्ययः । इडेत् पुसीति आलोपः । ) सख्याः करयोस्तिष्ठतीति सखीहस्तस्थित सन् तदास्यप्रतिमा तस्याः सुमङ्गलाया. आस्यं मुख तस्य प्रतिमां प्रतिविम्बं उपास्य सेवित्वा तं भस्मभरोपरागं प्रशशंस शंसितवान् ॥ २० ॥ ' Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनामारसम्भाव्य महाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ (३५१ समाहिता संनिहितालिपालि-प्रणीतगीतध्वनिदत्तकर्णा । उपस्थितं सा सहसा पुरस्ता-दक्षा ऋभुक्षाणमथालुलोक ॥ २१ ॥ (व्या०) समाहिता इति । सा दक्षा चतुरा सुमङ्गला सहसा झटिति *भुक्षाण ( अते भुक्षिनक् । ९२८ । इ. उ. सू. *धातोः भुक्षिनक् प्रत्ययः इयति इति ऋभुक्षाः । ) मिन्द्रं उपस्थितं आगतं पुरस्तात् अग्रे आलुलोके अ५श्यत् । किंलक्षणा सुमङ्गला समाहिता समाधियुक्ता संनिहितालिपालिप्रणीतगीत चनिदत्तकर्णा संनिहिता चासौ समीपस्था आलीनां सखीनां पालिश्च तया प्रणीते कृते गीतस्य ध्वनौ दत्तो कर्णी यया सा ॥ २१ ॥ युगादिमतुर्दयितेति तीर्थ, तां मन्यमानः शतमन्युरूचे। नत्वाञ्जलेर्योजनया द्विनाल-नालीककोशभ्रममादधानः ॥ २२ ॥ - (व्या०) युग इति । शतमन्यु शतं मन्यव प्रतिमाभिप्रहविशेषाः यस्य स. इन्द्र. अस्य इन्दस्य कार्तिकभवे शतं प्रतिमाभिग्रहविशेषा अभवन् इत्यागमविदः तां सुमङ्गला युगादिभर्तुः आदिश्वासी भर्ता च आदिनाथः युगे आदिभर्ता युगादिभर्ता तस्य दयिता भार्या इति तीर्थ मन्यमानः मन्यते इति मन्यमानः सन् नत्वा ऊचे । किंविशिष्टः इन्द्रः अञ्जले. योजनया करणेन द्विनालनालीककोशभ्रमं द्वौनालौ यस्य तत् द्विनालं द्विनालं च तत् नालीकं द्विनालनाकीकं तस्य कोशस्तस्य भ्रमं भ्रान्ति आदधान: आधत्ते इति आदधानः ॥ २२ ॥ परिच्छदाप्यायकसौम्यदृष्टे, मृगेक्षणालक्षणकोशसृष्टे । जयैकपत्नीश्वर विश्वनाथ, श्रीमहत्पञ्जरसारिकत्वम् ॥ २३ ॥ (०या०) परिच्छद इति । हे परिच्छदाप्यायकसौम्यदृष्टे परिच्छदे (परितः छाचते अनेन इति परिच्छेद । पुनाम्नि घः । ५-१-१३० । इ. सू. करणे अर्थ घः एकोपसर्गस्य च घे। ४-२-३४ । इ. सू. घे परे परिपूर्वकछादयतेर्हस्वः ।) परिवारजने आप्ययका सौम्या दृष्टिर्यस्याः सा तस्याः संवोधनं क्रियते परिवारजने मनोहरशान्तदृष्टिमति । भृक्षणालक्षणकोशसृष्टे मृगस्य ईक्षणे इव ईक्षणे यासा ता मृगेक्षणाः स्त्रियस्तासां लक्षणानि यथा 'त्रिषु श्यामां त्रिषुश्वेतां, Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम्॥ सर्गः११ . त्रिषु ताम्रां त्रिषूनताम् । त्रिगंभीरां त्रिविस्तीर्णी आयतां त्रिशीयसीम् ॥ १ ॥ एतद्वयाख्या चेयम्-नेत्र १ दृष्टिमध्य २ स्तनान्तेषु त्रिपु झ्यामां नेत्रमध्य १ दन्त २ यश.सु ३ त्रिषुश्वेतां हस्त १ ओष्ठ २ तालु ३ त्रिपु ताम्रा आरक्तां योनि १ नख २ स्तनेषु ३ त्रिषु उन्नतां नाभि १ सत्त्व २ स्वरेषु ३ त्रिषु गंभीरां मुख १ जघन २ हृदयेषु ३ त्रिपु विस्तीर्णा नासा १ अड्गुली २ नेत्रेषु ३ त्रिषु आयतां प्रलम्बां मध्यं १ अणि २ रोमावलीपु ३ त्रिषुकशीयसी इस्त्रीलक्षणानां कोशस्य भाण्डागारस्य सृष्टे । हे एकपत्नीश्वरि । हे विश्वनाथश्रोमपञ्जरसारिके विश्वाना जगतां नाथ आदिदेवस्तस्य श्रिया. मजु-- मनोज्ञं यत् हृदयं तदेव पञ्जरं तस्मिन् सारिके सारिकासशे । त्वं जय ॥२३॥ जाता महीध्रादिति या शिला सा, स्वां स्पर्धमानास्तु जडा मृडानी।। अम्भोधिलब्धप्रभवेति मत्सी, न श्रीरपि श्रीलपसरगुते ते ॥ २४ ॥ (या०) जाता इति । सा मृडानी मृडस्य शिवस्य भार्या मृडानी (46जेन्द्ररुद्रमवशर्वमृडादान् चान्तः । २-४-६२ । इ. सू. मृडशब्दात् डोः अ. न्तस्य आन् च । ) पार्वती त्या स्पर्धमाना स्पर्धते इति स्पर्धमाना जडा अज्ञाना अस्तु । या पार्वती महीधात् महीं धरतीति महीध्र ( मूलविभाजयः । ५-११४४ । इ. सू महीप्रशदो । कान्तो निपात्यते । ) स्तस्मात् पर्वतात् जाता इति शिला वर्तते । श्रीरपि लक्ष्मीरपि ते तव श्रीलवं श्रियः शोभाया लब अंशरान अश्नुते न प्राप्नोति किंविशिष्टा लामी. अम्भोधिलब्धप्रभवा अम्भोधेः लब्धः प्रभवो यथा सा समुद्रात जाता इति कारणात् मत्सी ( मत्स्यस्य यः । २-४-८७ । इ. सू. मत्स्यशब्दस्य यस्य डौ परे लोपः ।) मत्सीतुल्या २४ केनापि नोढा स्थविराङ्गजेति, या निम्नगाख्यामपि कर्मणाप्ता । पपात पत्यो पयसा पिपति, कथं सरस्वत्यपि सा तुला ते ॥ २५॥ (०या०) केनेति । या सरस्वती स्थविराङ्गजा स्थविरो ब्रह्मा वृद्धश्च तस्य मङ्गजा पुत्री इति कारणात् केनापि न ऊहा न परिणीता । या सरस्वती कर्मण निम्नगाल्यां निम्नं नीचैर्गच्छतीति निम्नगा। नदीनी च गामिनी स्त्री वा तस्या Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजग मारसम्मवाल्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग. ११ (३५३ आख्यां नाम आता प्रासा सती पयसां पत्यो समुद्रे पपात | सा सरस्वती अपि ते तब तुलां सादृश्यं कथं पिपर्ति प्राप्नोति ॥ २५ ॥ या स्वर्वधूः काचन काश्चनाझी, तुलां त्वयारोमियेष मूढा । असारतां कि विवुधैर्विचार्य, रम्भेति तस्या अभिधा व्यधायि ॥२६॥ (व्या०) येति । या काञ्चनाङ्गी ( नासिकोदगेष्ठजड्घादन्तकर्णशृगागात्रकण्ठात् । २-४-३९ । इ. सू. काञ्चनपूर्वक अङ्गशब्दात् वा डीः ।) काश्चनभित्र अङ्ग यस्या सा सुवर्णशरीरा काचन स्वर्वधू देवाङ्गना मूढा सती त्वया तुला सादृश्यमारोढुमियेष वाञ्छति स्म । विबुधैर्विद्धि देवैर्वा असारतां असारस्य भाव असारता विचार्य तस्याः स्वर्ववाः कि रंभा इति नाम व्यधायि कृता । रम्भाशब्देन कदली सा मध्ये असारा भवति ॥ २६ ॥ कलाकुलाचारतुरूपताधं, यं तावकं गौरि गुणं गृणीमः। मामहाब्धाचिव तत्र मन्ना, वाग् न स्वमुद्धर्तुमधीश्वरी नः ॥२७॥ __ (व्या०) कलेति । हे गौरि वयं तावकं तव अयं तावक (वा युष्मदस्मदोऽजीनौ युष्माकास्माक चास्यैकत्वे तु तवकममकम् । ६-३..६७ । इ. सू. युष्मद अब् तबकादेशश्च ।) स्तं त्वदीयं कलाकुलाचारसुरूपताद्य कलाश्च कुलाचारश्च सुरूपता च ता आधा यस्य स त य गुणं गृणीमः ब्रूमः तत्र तस्मिन् गुणे मना नोऽस्माकं वाक् स्वं तु न अधीश्वरी न समर्था । का इव मा इव छागीव महा-धौ महांश्चासौ अब्धिश्च तस्मिन् महासमुन्द्रे मना सती स्वं उतुं समर्था न स्यात् ॥ २७ ॥ सीमासि सीमन्तिनि भाग्यवत्सु, यल्लोकमतुर्हदयङ्गमासि। यचेशं स्वप्नसमूहमूह-क्षमं श्रुताधेयधियामपश्यः ॥ २८ ॥ (व्या०) सीमा इति । हे सीमन्तिनि त्वं भाग्यवत्सु भाग्यमस्ति एषामिति भाग्यवन्तस्तेषु लोकेषु सीमा अवधिरसि । यत् त्वं लोकमतुः लोकानां भर्ता स्वामी तस्य श्रीयुगादीश्वरस्य हृदयङ्गमा हृदयं गच्छतीति हृदयङ्गमा (नाम्नो गम खड्डौ च विहायसस्तु विह । ५-१-१३१ । इ. सू. हृदयरादपूर्वकगमधातो: Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४) श्रीजेनकुमारसम्भवाच्यं महाकाव्यम् टीफसमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ खप्रत्ययः खित्यनत्र्ययाऽरुषोर्मोऽन्तो ह्रस्वश्च । ३-२-१११ । इ. सू. मोऽन्तः । हृदयवल्लमा असि । च अन्यत् श्रुताधेयधियां श्रुतानामाधेया धीर्येषां ते तेषां बहुश्रुतानां ऊइक्षमं ऊहस्य विचारस्य क्षमस्तं ईदृशं स्वप्नसमूहं स्वमानां समूहस्तं अपश्य ॥ २८ ॥ अतः परं किं तव भाग्यमीडे, यद्विश्वनेत्रा निशि लम्भितासि । स्वप्नार्थनिश्चायिकया स्ववाचा, रहः सुधापानसुखानि देवि ॥ २९ ॥ ( व्या० ) अतः इति । हे देवि तव अतः परं किं भाग्यं ईडे स्तुवे । विश्वनेत्रा विश्वस्य नेता तेन जगन्नाथेन निशि रात्रौ स्वप्नार्थनिश्वायिकया स्वप्ना - नामर्थस्य निश्चायिका निश्चयकारिणी तथा वाचा र एकान्ते सुधापानसुखानि सुधाया अमृतस्य पानं तस्य सुखानि तानि लम्भिता प्रापितासि ॥ २९ ॥ न पाययन् गोरसमर्थिनीं त्वां धत्ते । चित्ते रजनीमधीशः । क्षुधातुरं भोजयतां न दोषा, दोषापि यस्मादियमर्हदाज्ञा ॥ ३० ॥ " (०या०) नेति । अर्थिर्नी त्वा गोरसं गो रसस्तं गोरसं पाययन् पाययतोति पाययन् ईश श्री स्वामी रजनीमपि रात्रिमपि चित्ते न घत्ते स्म । यस्मात्कारणात् अर्हदाज्ञा अर्हतामाज्ञा श्रीसर्वाज्ञा इयं वर्तते । इयमिति किम् । दोषापि रात्रावपि अत्र दोषाशब्दोऽययोज्ञेयस्तेन विभक्तिलोप | क्षुधातुरं क्षुधया आतुरस्तं बुभुक्षितं भोजयतां भोजयन्तीति तेषां दोषा न स्यु' अस्मिन् श्लोके पूर्वार्धे भगवता सुमङ्गलायै यो गोरस: पायित इत्यत्र गोरसशब्देन सरस्वतीरसो ज्ञेय' तेन उत्तरार्धे दोषा अपि क्षुधातुरं भोजयतां न दोषाः । इति भोजनसंबन्धिनी या अर्हदाज्ञा लिखिता तत्रापि तत्वाधुपदेशविषयकमेव भोजनं ज्ञेयं न वनपानादि चतुर्विधं भोजनम् ॥ ३० ॥ कदाचिदुद्गच्छति पश्चिमायां, सूरः सुमेरुः परिवर्तते वा । सीमानमत्येति कदापि वार्धिः, शैत्यं समास्कन्दति वाश्रयाः ॥३१ ॥ सर्वसहत्वं वसुधाऽवधूय श्वभ्रातिथित्वं भजते कदाचित् । रम्मोरु द+मोरगगारुडं ते वचो विपर्यस्यति न प्रियस्य ॥ ३२ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन मरिसमास्य महाव्यम् टासमतम् ॥ सर्गः ११ (३५५ __ (पा०) कदाचिदिति । हे कल्याणि कदाचित् सूरः सूर्य पश्चिमायां दिशि उद्गच्छति । वा अथवा कदापि सुमेरुः परिवर्तते मेरुपर्वतः स्वस्थानाच्चलति । कदापि वार्धिः समुद्र सीमानं मर्यादा अत्येति अतिक्रामति । कदापि आश्रयाश: अग्नि. शत्यं समास्कन्दति समागच्छति । कदाचित् वसुधा पृथिवी सर्वसहत्वं सर्व सहते इति सर्वसहा (सर्वात् सहश्र । ५-१-१११ । इ. सू. सर्वशब्दात् महधातो खप्रत्ययः खित्वात् मोऽन्तः अदन्तात् स्त्रियामाप् ) तस्या भावः सर्वसहत्वं तत् अवधूय विमुच्य श्वभ्रातिथित्वं अतिथेः भावः अतिथित्वं श्वभ्रस्य पातालस्य अतिथित्वं तत् भजते सेवते । तथापि हे रम्भोर (उपमानसहितसंहितसहशफवानल मणाधूरो । २-४-७५ । इ. सू. रंभाशब्दपूर्वक86शब्दात् स्त्रियांसमूड ।) रम्भा कदली तद्वत् उरू यस्याः सा तस्याः संबोधनं हे रम्भोरु ते तव प्रियस्य श्रीयुगादीशस्य दम्भोरगगारुडं दंभ एव उरगः तस्य गारू मायारूपसपम्य गारुडमन्त्रसमानं वचो न विपर्यस्यति न परावतीते ॥ ३१-३२ ॥ युग्मम् । यथातथामस्य मनुप्ववाचं, वाचंयमानामपि माननीयाम् । 'पूर्णवधौ प्राप्स्यसि देवि मुनु, स्वं विद्धि नूनं सुकृतैरनूनम् ॥३३॥ (व्या०) यथा इति । हे देवि त्वं अस्य भगवतो यथातथा सत्यां वाचं वाणी मनुष्व जानीहि । किंविशिष्टां वाचं वाचंयमानामपि वाचं यच्छन्तीति वाचंयमा (वाचंयमो व्रते । ५-१-११५ । इ. सू. व्रतविषये वाचंयमशब्दो निपादेवते) मुनयस्तेषां यतीनामपि माननीयां ( तव्यानीयौ । ५-१-२७ । इ. सू. मान्धातो. कर्मणि अनीयः अकारान्तत्वात् आप् मानयितुं योग्या माननीया ।) मान्यां हे देवि त्वं अवधौ पूर्ण सति सूनुं पुत्रं प्राप्स्यसि । त्वं नूनं निश्चित स्वं आत्मानं सुकृत पुण्यै अनूनं न ऊन• अनूनस्तमनून संपूर्ण विद्धि जानीहि ३३ दाता कुलीनः सुपचा रुचाढयो, रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः। तद्रनगर्दा भवती निरीक्ष्य, तयाख्ययापनपतेतरां भूः ॥ ३४ ॥ (व्या०) दाता इति । हे देवि पुमाने रत्नं वर्तते न च अश्मभेद: अस्मनो भेदः पाषाणविशेषो रत्नम् । किलक्षण:पुमान् दाता ददातीति दाता विश्वे Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६) श्रीजेनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्ग: ११ सर्वेषामर्थिजनानामाशापूरकत्वात् । उपकारकतत्वाच्च । कुलीनः कुले भव सत्कुलोत्पन्न: मातृकी जाति: पैतृक कुलमिति । सुवचा शोभनानि वांसि यस्य सः सुवचा सत्यवाक् मधुरवचनभाषणपरगुणग्रहणादित्वात् । रुचायः रुचा कात्या आख्य समृद्ध । तत् तस्मात् कारणात् भवती त्या रत्नगर्भो रत्नं गर्भे यस्याः साता निरीक्ष्य ष्वा भः पृथ्वी तया आख्यया रत्नगर्भा इति नाम्ना अपत्रपतेतरां लतेतराम् ॥ ३४ ॥ सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि, गर्भ सुपर्वागममुद्वहन्ती । श्रियं गता सौमनसीमसीमां, न हीयसे नन्दनभूमिकायाः ॥ ३५॥ ' (०या०) सुवर्ण इति । हे देवि त्वं नन्दनभूमिकाया नन्दनस्य भूमिका तस्याः नन्दनवनसंबंधिभूमिकातो न हीयसे न होना भवसि । किंविशिष्टा वं सुवर्णगोत्र सुष्टु शोभना वर्णा अक्षराणि यस्मिन् तत् सुवर्ण एवंविधं गोत्रं नाम यस्य सः तं वरं पति आश्रितासि । नन्दनवनभूमिपक्षे वरं श्रेष्ठं सुवर्णगोत्रं मेरुं। त्वं किं कुर्वन्ती सुपागमं सुपर्वाणोदेवा. तेभ्यः आगम आगमनं यस्य स तं एवंविधं गर्भमुद्वहन्ती पक्षे सुपर्वणां देवानां आगमो यस्मिन् तं एवंविधं गर्भ मध्यमुद्वहन्ती । पुन: असीमां नास्ति सोमा यस्या सा तां सौमनसी सुमनसः सन्तः तेषामियं तां सत्सम्बन्धिी श्रियं शोभां श्रिता पक्षे सुमनसः पुष्पाणि तत्संबंधिर्नी शोभां श्रिता एतावता नन्दनभूमे सुमङ्गलायाः सादृश्यं जातम् ॥ ३५ ॥ रिपुद्विपक्षेपिपलं गभीरा, न भूरिमायैः परिशीलनीया। गर्भ महानादममुं दधाना, परैरधृष्यासि गिरेगुहेव ॥३६॥ (व्यां०) रिपु इति । हे देवि त्वं अमुं गौं दधानां धत्ते इति दधाना सती गिरेः पर्वतस्य गुहा इव परैरन्यैरधृष्या न धृष्या अधृष्या (दुपान्त्यादकपिचः । ५-१-४१ । इ. सू. धृष्धातोः कर्मणि क्या कित्वात् गुणाभाव ।) अनाकलनीयासि । किविशिष्टममुं महानादं महान् नादः कीर्तिरूपो यस्य तं पक्षे महानादं सिहं पुन: रिपुद्विपक्षेपि बलं रिपव एव द्विपाः करिणः तेषां क्षेपि तिरस्कारि बलं यस्य तम् । किलक्षणा त्वं गुहा च गभीरा पुनः भरिमायः Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमारसमा महामान्यम् टीपासमलंकृतम् म सर्ग. ११ (३५७ भरिर्माया येषां तै. मायाबहुलैः शृगाला न परिशीलनीया परिशीलितुं योग्या परिशीलनीया अनाश्रयणीया ॥ ३६ ॥ जित्वा गृहव्योममणी स्वभासा, ध्रुवं तव प्रोल्लसिता सुतेन । तत्तेल मध्ये वसतारोह-चीत्र धत्से नवमेव तेजः ॥ ३७ ।। (ब्या०) जिवेति । हे देवि तव सुतेन स्वभासा स्वस्य भाः तया आस्मीयकात्या गृहव्योममणी गृहं च व्योम च तयोर्मणी गृहमणि, प्रदीप, व्योममणि सूर्य तौ जित्वा ध्रुवं निश्चितं प्रोल्लसिता उल्लसिष्यते । तत् तस्मात् कारणात् तेन सुतेन मध्मे उदर वसता वसतीति वसन् तेन त्वं अभ्रमेहदयी इव अभ्रं च गेहं च तयोर्द्वयी (द्वित्रिभ्यामयट वा । ७-१-१५२ । इ. सू. द्विशब्दात् अवयवे अर्थे अपट् वा टित्त्वात् डी. 1) इव अभ्र आकाशं हं तद्वत् नवमेव तेजो धत्से दधासि । अथवा अद्भगृहमिव जो धत्से ॥ ३७॥ सूते त्वया पूर्वदिशात्र भास्व-त्युलासिनेत्राम्बुजराजि यत्र । दृष्टामृताघ्राणमुखं वपु, सरस्यते तदिनमर्थयेऽहम् ॥ ३८ ॥ (व्या०) सूते इति । अहं तत् दिनमर्थये प्रार्थयामि यत्र यस्मिन् दिने पूर्वदिशा पूर्वा चासौ दिन च पूर्वदिक् तया पूर्वदिशा पूर्वदिक्सदृशया त्वया अत्र अस्मिन् सुते सूते सति मम वपु शरीरं सरस्यते (मो वा लुक् च । ३-४२७ । इ. सू. आचारे अर्थ पयस् शब्दात् क्यड् वा सकारम्य लुगभावश्च डिवादात्मनेपदम् । ) सर इबाचरति । किविशिष्टे अत्र सुते भास्वति देदीप्यमाने सूर्यसदृशे वा किंविशिष्टं वपु उल्लासिनेत्राम्वुजराजि नेत्राणि एवं अन्धुजानि नेत्राम्बुजानि उल्लसतीति उल्लासिनी उल्लासिनी नेत्राम्बुजानां नेत्रकमलानां सहस्रत्पात् राजि श्रेणियस्मिन् तत् पुनः दृष्टामृतात्राणसुख ६ अमृतेन आघ्राणस्य तृप्तस्य सुख येन तत् ॥ ३८ ॥ प्राप्ता भुवं खेलयितुं तनूजं. तवोपगुह्याप्तमुदस्त्रिदश्यः । तथा रतिं न स्वरितारताते-प्रियोपगूढा अपि चोधितारा || ३९ ॥ (०या०) प्राप्ता इति । त्रिदश्यो देवाङ्गनाः स्वरिता स्वर्ग इता गताः Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८) श्रीजेनकुमारसम्भवाक्यं महाकाव्यम् टोकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ संत्यः तार्तप्रियोपगूढाः अपि रतेन आर्ताः रतार्ताः ते च ते प्रियाश्च स्वामिनस्तैः उपगूढाः अपि संभोगावसरपीडितदयितालिङ्गिता अपि रतिं सुखं तथा न बोधितारः न ज्ञास्यन्ति । यथा तव तनूजं पुत्रं उपगुह्य आलिय आप्तमुदः आता मुद्याभिस्ताः प्राप्तहर्षाः सत्य भुवं खेलयितुं प्राप्ता यथा सुखं बोधितारः ज्ञास्यन्ति ॥ ३९ ॥ अस्मिन् मयैकासनसन्निवि, मत्तो महत्वादिगुणैरनूने । चिद्वैरिला स्पर्श निमेषमुख्यै, रस्यैव मां लक्षयितामरौघः ॥ ४० ॥ ( व्या० ) अस्मिन् इति । हे देवि अस्मिन् तत्र सुते मया सह एकासनसन्निविष्टे एकं च तत् आसनं एकासनं तस्मिन् सन्निविष्टस्तम्मिन् एकासने उपविष्टे सति अमरौघः अमराणामोघ देवसमूह' । अस्य एव तव पुत्रस्यैव इलास्पर्शनिमेषमुख्यै' इलाया. स्पर्श इलास्पर्श. इलास्पर्शश्च निमेषाश्च ते मुख्यानि येषु तानि तै' पृथ्वीतलस्पर्शनादिचिह्नैः मां लक्षयिता उपलक्षयिष्यति । किंविशिष्टे अस्मिन मत्तो ( अहीरुहोऽपादाने । ७-२-८८ । इ. सू. पञ्चम्यर्थे अस्मद् शब्दात् वा तसुप्रत्ययः ।) मत्सकाशात् महत्त्वादिगुणैः महतो भावो मह्त्त्वं तत् आदि येषां ते महत्वादय. ते च ते गुणाश्च तैः गुणैः अनूने न ऊन: अनूनस्तस्मिन् संपूर्ण ॥ ४० ॥ अस्मिन्नसिव्यग्रकरे करीन्द्रा - रूढे रणाय प्रयतेऽरिभूपाः । पलायमाना वपुषो विगास्य-न्त्युच्चत्वमेके गुरुतां तथान्ये ॥ ४१ ॥ ( व्या० ) अस्मिन् इति । अस्मिन् तव पुत्रे असिव्यप्रकरे असिना व्यग्रः करो यस्य स तस्मिन् खड्गव्यग्रहस्ते करीन्द्रारूढे करिणामिन्द्रस्तस्मिन् आरूढे रणाय संग्रामाय प्रयते आदरपरे सति एके अरिभूपा अस्यश्वते भूपाश्च शत्रुनृपाः चपुप. शरीरस्य उच्चत्वं तथा अन्ये वपुषो गुरुतां गुरोर्भावस्तां गुरुत्वं विगास्यन्ति । किंविशिष्टा अरिभूपा पलायमाना पलायन्ते इति पलायमाना ॥ ४१ ॥ अस्येषु पुंखक्षरवीक्षणेन, क्षरन्मदाः संख्यमतन्त्रतोऽपि । यास्यन्ति दास्यं समुपास्य लास्यं, दूरे मनुष्या दनुजारयोऽपि ॥ ४२|| Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन कुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः ११ (३५९ ( व्या० ) अस्येति । हे देवि ते सर्वप्रसिद्धाः सदानवाः दानवसहिताः दनुजारयः अपि दनुजानामरयोऽपि मागघवरदामप्रभास सिन्धुखंडप्रपातगुफातमिस्रगुफासत्कप्रभृतिदेवा अपि अस्य तव पुत्रस्य लास्यं नाट्यं समुपास्य कृत्वा अस्य तव पुत्रस्य डास्यं यास्यन्ति । किंविशिष्टा दनुजारयः इ५ पुंखाक्षरवीक्षणे इपोर्वाणस्य पुंखोऽन्तिमभागस्तस्मिन् अक्षराणां वीक्षणेन दर्शनेन क्षरन्मदाः क्षरन् मदो येषां ते नश्यनुगः । किंकुर्वतोऽस्य संख्यं संग्रामं सतन्वतोऽपि तनोतीति तन्वन् न तन्वॆन् अतन्वन् तस्य अकुर्वतोऽपि ॥ ४२ ॥ अस्मिन् दधाने भरताभिधानमुपेष्यतो भूमिरियं च भीश्र । विद्वदुभुवि स्वात्मनि भारतीति ख्यातौ मुदं सत्प्रभुलाभजन्माय् । 3 ( व्या० ) अस्मिन् इति । अस्मिन् तव पुत्रे भरताभिधानं भरत इति अभियानं तत् दधाने सति धत्ते इति दधानस्तस्मिन् इयं भूमिः पृथ्वी च अन्यत् -गी सरस्वती च विभुवि विदुषां भू तस्यां विद्वद्भुवि विद्वज्जनस्थाने स्वात्मनि -स्वस्यात्मा तस्मिन् आत्मविषये भारतीति ख्यातौ सत्यां सत्प्रभुलाभजन्मां संश्चासौ प्रभुश्च तस्य लाभ प्राप्ति तस्मात् जन्म यस्याः सा तां सुस्वामिप्राप्तिसमुत्पन्नां सुदं हर्ष उपेयतः प्राप्स्यतः । विद्वांस इति वदन्ति भरतस्य इथं भारती भरतक्षेत्रभूमि सरस्वती च ॥ ४३ ॥ उदच्यमाना अपि यान्ति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नाथः । तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वत्र्त्स्यति ते तनूजे ॥४४॥ ( व्या० ) उदच्यमाना इति । येषु निधिपु उदयमाना अपि निष्काश्यमाना अपि अर्था द्रव्याणि निष्ठां क्षयं न यान्ति केषु इव सूत्रेषु इव । यथा जैनेषु सूत्रेषु आगमेषु अर्था निष्ठां न यान्ति । तद्यथा - सव्व नईणं जाहुज्यवा या सव्व उदहिजं नीरं इत्तोवि अनंतगुणो अनंतसो अत्थसुत्तस्स ॥ १ ॥ इति न्यायात् आगमोऽर्थनिष्ठां न यातीति भावः । हे निपुणे तेषां नवानां निधीनां स्वाधीनता स्ववशता ते तव तनूजे पुत्रे वत्स्थति भविष्यति । अमूनि नवनिधानानि ज्ञेयानि । नेसप्पे १ पेडुथए २ पिंगल ३ सव्वरयण ४ महपहुने प Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३६०) श्रीजनकुमारसम्भवायं महाव्यम् टीकासमलंकसम सर्ग:११ फालेय ६ महाकाले ७ माणगमहानिही ८ संखे ९ । एतेषु एते पदार्थाः स्युः पुर १ कण २ भूसण ३ स्थण ४ वत्थ ५ सिप्पा ६ गरणे ७ सत्थणे ८ नाडय ९ उप्पत्तिकमासनामसुरठियनिहीणं ।। २ ।। पादपइदाणा अधुररोहये नवयविकसभा । बारसजोयणमंजू ससंदिया जक्ष वीयमुहे ॥ ३ ॥ ४ ॥ न मानवीष्वेव समाप्तकामा, प्रभामयीं मूर्तिमुपेतयासो। समाः सहस्रं सुरशैवलिन्या, समं समेष्यत्युपभोगभङ्गीः ॥ ४५ ॥ (व्या०) न इति । हे देवि असौ तव पुत्र. मानवी(तस्येदम् । ६३-१६० । इ. सू. मनुशब्दात् इदमर्थे अण् । अणजेयेकण-म् २.-४-२० इ. सू. ङी । ) एव न समाप्तकाम: समाप्तः कामो यस्य सः असंपूर्णाभिलाषः सन् प्रभामयीं (प्रकृतमयट् । ७-३-१। इ सू. प्रचुरेऽथै प्रभाशब्दात् मयः टित्वात् डी. 1 ) कान्तिमयी मूर्तिमाकृतिमुपेतया प्राप्तया सुरशैवलिन्या सुराणां देवानां शैवलिनी नदी तथा गङ्गया समं सहस्र समा. सहस्र वर्षाणि उपभोगभङ्गी उपभोगानां भङ्ग यस्ताः विलासादिसुखविष्छिती: सभेष्यति प्राप्स्यति ॥ ४५ ॥ सत्वर्मिकान् भोजयतोऽस्य भक्त्या, भक्तैर्विचित्रः शरद समुद्रान् । भक्तश्च भुक्तश्च रसातिरेक, वक्तुं भविष्यत्यबुधा बुधाली ।। ४६ ॥ (व्या०) सत् इति । हे देवि तव अस्य सुतस्य सम्यक्त्वधारिणः १॥ सचित्तपरिहारिणः २ । एकाहारिणः ३ । ब्रह्मचारिण ४ । सत्यव्यवहारिणः ५। बादशनतधारिणः ६ ॥ ईगषट्रीयुक्तान साधर्मिकान् सुश्रावकान् भक्त्या विचित्रः शालिदालिपकानवृतधोला_भक्तैरने शरदां वर्षाणां समुद्रान् कोटाकोटी: भोजयतः सतः भक्तेश्च अन्यत् भुक्तेश्च रसातिरेक रसस्य अतिरेकस्तं रसाधिक्य चक्तुं जल्पितुं बुधाली बुधानामाली वुधाली विद्वतश्रेणि: अवुधा न बुधा अबुधा मूर्खा भविष्यति ॥ ४६ ॥ निवेशिते मृHमुनाविहार-नीमाणिस्वर्णमये किरीटे। सुभ्र भर्ता फिमुदारशोभा, भूभृद्वरोऽष्टापदनामधेयः ॥ ४७॥ (व्या०) निवेशिते इति । हे सुभ्रु शोभने भ्रुवौ यस्याः सा तस्याः Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमारसम्भवाय महाव्यम् टीपासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ (३६१ संबोधनं क्रियते अष्टापदनामधेयः अष्टापद इति नामधेयं (नामरूपभागाद् धेयः । ७-२-१५८ । इ. सू. नामशब्दात स्वार्थे धेयप्रत्ययः नाम एव नामधेयम् ।) यस्य स भूमृदर भुवं विभ्रतीति भूभृत पर्वतास्तेपु वरः श्रेष्ठः पर्वतमुल्यो राजा उदारशोमा उदारा चासौ शोभा च तां किं न भर्ता न धरिष्यति । अपि तु धरिष्यत्येव । क सति अमुना तव पुत्रेण विहारनिभे विहारस्य निभे सहशे प्रासाढसदृशे मणिस्वर्णमये मणिस्वर्णनिर्मिते किरीटे मुकुटे मूर्ध्नि मस्तके निवेशिते सति । यत् उच्यते उत्सेबागुलदीर्घयोजनमितं क्रोशत्रयं चोच्छ्रितं विस्तारे भरताधिराजविहित गव्यूतमात्रोद्वरम् । एकाहनिशवामनित्यशिवदं कैलासभूषामणि नाम्ना सिंहनिषाद्यभुत्तममहं चैत्य स्तुवे सर्वदा राजापि शिरसि मुकुटे निवेशिते शोभां प्राप्नोति । अष्टापदेनापि प्रासादेन शोभा प्राप्तेति भाव ॥४७॥ तथैष योगानुभवेन पूर्व-भवे स्वहस्तेऽकृत मोक्षतत्वम् ।। स्वरूपवीक्षामदकर्मबन्धात्-त्रातुं यथा सत्स्यति तद्रयेण ॥ ४८ ॥ (व्या०) तथेति । एपः तव सुत पूर्वभवे पूर्वश्चासौ भवश्च पूर्वभव(पूर्वापरप्रथम चरमजघन्यसमानमव्यमध्यमवीरम् । ३-१- १०३ । इ. मू पूर्वशब्देन सह भवशब्दस्य कर्मधारय समास ।) स्तस्मिन् योगानुभवेन योगस्य अनुभवस्तेन योगमामर्थ्येन स्वहस्ते स्वस्य हस्तस्तस्मिन् स्वकरे मोक्षतत्त्वं मोक्ष इति तत्वं मोक्षतत्त्वं तत् तथा अकृत । यथा तत् मोक्षतत्त्वं रयेग वेगेन स्वरूपवीक्षामदकर्मबधात् स्वरूपस्य वीक्षा वीक्षणं तया मदस्य कर्मणो बधस्तस्मात् त्रातुं रक्षितुं आसत्स्यति आसन्न भविष्यति ॥ ४८ ॥ एवं पुमर्थप्रथने समर्थः, प्रभानिधि :स्व्यनिरामनिष्ठः । पाल्यो महोास्तव पद्मराग, इव प्रयत्नान्न न गर्भगोऽयम् ।। ४९ ॥ - (व्या०) एवमिति । हे देवि एव अमुना पूर्वोक्तप्रकारेण पुमर्थप्रथने पुमर्थानां प्रथन तस्मिन् पुरुषार्थविस्तारणे समर्थ प्रभानिधि प्रभाणा निधि । नै व्यनिरासनिष्ठ निर्गत स्व धनं यस्य सः नि स्व. निःस्वस्य भावो नै ख्य (पति(जान्तगुणाझराजादिभ्यः कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू नि स्वश Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२) श्रीज कुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम्। सर्ग:११ ब्दात् व्यण णित्वात् वृद्धिः ।) दारिद्रयं तस्य निरासे निष्ठा यस्य सः दारिद्रयनिराकरणतत्परः । एवंविधोऽयं गर्भगः गर्भ गछतीति तव पुत्र: महोयाः महतीचासौ उर्फ च महोर्वी तस्या. महापृथिव्याः पद्मराग इव प्रयत्नात् महोद्यमात् न नपाल्यः अपि तु पालनीय एव ॥ ४९ ॥ गीर्वाणलोकऽस्मि यथा गरीयां-स्तथा नृलोके भविता सुतस्ते । वयस एवात्र सहवयस्य-संपर्कसौख्यानि गमी ममात्मा ॥ ५० ॥ (व्या०) गीर्वाण इति । अहं गीर्वाणलोके गीर्वाणानां लोकस्तस्मिन् देवलोके यथा गरीयान् (गुणाङ्गाद्वेष्ठेय मू । ७--३-९ । इ. सू. गुरुशदात् अतिशयेऽर्थे ईयसुः । प्रियस्थिरस्फिरोरुगुरु-म् । ७-४-३८ । इ. सू. ईथसुपरे गुरोगरादेशः । ) अतिशयेन गुरु: अस्मि । तथा नृलोके नृणां लोकस्तस्मिन् मनुष्यलोके तव सुतः पुत्रो गरीयान् भविष्यति । वयस्थे एव वयसि तिष्ठतीति वयस्थं तस्मिन् एव यौवनं प्राप्ते एव सुते मम आत्मा सहग्ययस्यसंपर्क सौख्यानि सक् चासौ वयस्य (धपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुभ्यागार्हपत्यजन्यधर्म्यम् । ७-१--११ । इ. सू. मित्रेऽर्थे वयस्यान्दो यान्तो निपात्यते)श्च तस्यसंपर्कसनमस्तस्य सौख्यानि तानि सक्षमित्रसमागमसुखानि गमी गमिष्यतीति गमी (वय॑ति गम्यादिः । ५-३-१ । इ. मू इन-तो गमिन् निपात्यते ।) ॥५०॥ इत्युक्तिभिष्टसिताम्बुमेघ-श्लाघाममोघां मघवा विधाय । तिरोदधे व्योमनि विद्युदर्चि:-स्तोमं स्वभासा परितो वितत्य ॥५१॥ (व्या०) इतीति । मधवा इन्द्र इति उक्तिभिः पूर्वोक्तवचनैः वृष्टसिता. म्बुमेघश्लाघां वृष्टं सिताया शकराया उदकं येन स वृष्टसिताम्बु स चासौ मेघश्च तस्य श्लाघां प्रशंसा तां अमोघां न मोघा अमोघा तां सफलां विधाय कृत्वा तिरोढधे अदृश्यो बभूव । किंकृत्वा व्योमनि आकाशे स्वभासा स्वस्य भाः तया आत्मीयकान्त्या परितः समन्ततो विधुदर्चिःस्तोमं विद्युतः अपिस्तेजांसि तेषां स्तोमं समूहं वितत्य विस्तार्य ॥ ५१ ॥ तस्मिन्नथालोकपथाद्विभिन्ने, हृन्नेत्रराजीवविकाशहेतो Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भापमहाव्यम् टीपासमलंकृतम् सगः ११ (३६३ सा पमिनीवानघचक्रवन्धौ, क्षणात्तमः श्याममुखी बभूव ॥५२॥ (व्या०) तस्मिन् इति । अथानन्तरं तस्मिन् इन्द्रे आलोकपथात् आलोकस्य पन्थाः आलोकपथ(*क्पू पथ्यपोऽत् । ७-३-७६ । इ. सू. आलोकपूर्वकपथिन् शब्दात् अत् प्रत्ययः । ) स्तस्मात् दर्शनमार्गात् विभिन्ने पृथग्भूते सति सा सुमङ्गला पमिनी इव क्षणात् तमः श्याममुखी ( नखमुखादनाम्नि । २-४-४० । इ. सू. मुखशब्दात् स्त्रियां डी ।) तमसा विषादेन श्यामं मुख वदनं यस्या सा बभूव जाता । किविशिष्टे इन्द्रे हृन्नेत्र राजीवविकाशहेतौ हृदयं च नेत्रे च एतेषां समाहारो हुनेत्रं (प्राणितुर्याङ्गाणाम् । ३-१-१३७ । इ. सू. प्राण्यङ्गत्वात एकार्थद्वन्दः । ) तदेव राजीवं कमलं हृदयकमलनयनकमलानां विकाशः तस्य हेतु कारणं तस्मिन् । पुनः अनघचक्रवन्धौ न विद्यते अघं पापं येषां ते अनघा निष्पापा तेषां चक्रे समूह बन्धौ बन्धुसदृशे पक्षे अनघे निर्दूपणे चक्रबंधो सूर्ये आलोकपथात् विभिन्ने सति कमलिनी तमःश्याममुखी स्यात् तथा सा सुमङ्गला जाता ॥ ५२ ॥ अवोचदालीरुपजानुपाली-भृय स्थिता गद्गदया गिरा सा । अतृप्त एवात्र जने रसस्य, हला बलारियरमत् किमुक्तः ॥ ५३ ॥ (व्या०) अवोचत् इति । सा सुमङ्गला गद्गदया गिरा स्खलिताक्षरया वाण्या उपजानु (विभक्तिसमीपसमृद्भिव्ययर्थाभावात्ययाऽसप्रतिपश्चातक्रमख्यातियुगपत् सहक-म् । ३-१-३९ । इ. मू समोपेऽर्थे अव्ययीभावः ।) समीपे पालीभय श्रेणीभय स्थिता एवंविधा आली सखीरवोचत् । हे हला सख्य बलारि बलस्य अरि इन्द्र अत्र अस्मिन् मल्लक्षणे जने रसस्य अतृप्ते एव उक्तवचनत कियरमत् विरराम ॥ ५३ ॥ दौःस्थ्यं किमस्यापि कथाप्रथासु, न्यासोचिता वा किमु नास्मि तासाम् । वाणीरसे मामसमाप्तकामा, विहाय यसैष ययौ विहायः ॥ ५४॥ (व्या०) दौःस्थ्यमिति । अस्यापि इन्द्रस्य कथाप्रथासु कथानां प्रथास्तासु किंदौ स्थ्यं दु स्थस्य भाव दारिद्रयं वर्तते । वा अथवा तासां कथाप्रधानां कि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४) श्रीजनकुमारसम्भवाच्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः ११ महं न्यासोचिता न्यासस्य उचिता संवासयोग्या नास्मि । यत् यस्मात् कारणात् स एष इन्द्रः वाणीरसे वाण्या वाचायारसस्तस्मिन् असमाप्तकामां न समाप्त असमाप्त: असमाप्तः कामो यस्याः सा तां असंपूर्णाभिलाषां मां विहायमुक्त्वा विहाय आकाशं ययौ ॥ ५४ ॥ यस्यामृतेनाशनकर्म तस्य, वचासुधासारति युक्तमेतत् । पातुः पुनस्तत्र निपीयमाने, चित्रं पिपासा महिमानमेति ॥ ५५ ॥ . (व्या०) यस्थेति । यस्य इन्द्रस्य अमृतेन अशनकर्म अशनस्य भोजनस्य कर्म आहारो वर्तते । तस्य इन्द्रस्य वच. सुधासारति सुधाया अमृतस्य आसार धारावृष्टिः सुधासार इव आचरति सुधासारति (कर्तु. विप् गल्भक्लीबहोटात्तु डित् ३-४-२५ । इ. सू. आचारार्थे सुधासारशब्दात् विप् प्रत्यय 1) अमृतवृष्टिरिव भवति एतद् युक्तम् । पुनश्चित्रं आश्चर्य तत्र वचसि निपोयमाने निपीयते इति निपीयमानं तस्मिन् सति पातु पिबतीति पाता तस्य पिवत' पुरुषस्य पिपासा पातुमिच्छा पिपासा तृप्णा महिमानं महतो भावो महिमा तं महिमान (पृथ्वादे रिमन् वा । ७-१-५८ । इ. सू महत शब्दात् भावे इमन् वा । त्र्यन्तस्वरादे । ७-४-४३ । इ. सू अन्त्यस्वरादेलक) महत्त्वं एति प्राप्नोति ॥५५॥ न मार्जितावत्कवलेन लेह्या, न क्षीग्वचाञ्जलिना निपेया। अहो सतां वाग् जगतोऽपि युक्त-पीतातिरिक्तां विदधाति तुष्टिम् ५६ (व्या०) नेति । अहो इति आश्चर्ये सतां वाक् मार्जितावात् (स्यादेरिवे । ७-१-५२ । इ सू सादृश्येऽर्थे मार्जिताशब्दात् वत् प्रत्यय मार्जिता इव मार्जितावत् ) रसवत् भोजनवत् कवलेन प्रासेन लेह्या न आस्वाचा वर्तते । च अन्यत् सतां वाग् क्षीरवत् ( स्यादेरिवे । ७-१-५२ । इ सू. सादृश्येऽर्थे क्षीरशदात् वत् प्रत्ययः क्षीरमिव क्षीरवत् । ) पानीयवत् अञ्जलिना निपेया निपातुं योग्या पेया न वर्तते । सतां वाग् जगतोऽपि विश्वस्यापि भुक्तपीतातिरिक्ता भुक्तं च पीतं च भुक्तपीते ताभ्यां अतिरिक्ता अधिका भुक्तपीतातिरिक्त तां भोजनात् क्षीरपानात् विशेषकारिणी तुष्टिं विदधाति ॥ ५६ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन कुमारसम्मपापं महाव्यम् ही समलंकृतम् ॥ सर्गः ११ (२६५ 2 न चन्दनं चन्द्रमरीचयो वा न वाप्यपाचीपवनो वनी वा । सितानुविद्धं न पयः सुधा वा, यथा प्रमोदाय सतां वचांसि ॥५७॥ ( व्या० ) नेति । न चन्दनं वा अथवा चन्द्रमरीचयः चन्द्रस्य मरीचयः किरणाः न अपाचीपवनः अपाच्याः पवनः दक्षिणदिशः पवनः दक्षिणपवनः अथवा वनी महद्वमं वनीसितानुविद्धं सितया शर्करया अनुविद्धं शर्करा मिश्र पयो वा दुग्धं वा अथवा सुधा अमृतं तथा प्रमोदाय हर्षाय न स्युः । यथा सतां सत्पुरुषाणां वचांसि वचनानि प्रमोदाय स्युः ॥ ५७ ॥ अङ्गुष्ठयन्त्रार्दनया ददानौ, रसं रसज्ञा सुधियां रसज्ञे । सुधां प्रकृत्वा किरती परेष्टु-स्तनेक्षुयष्टी न नधिकरोति ॥ ५८ ॥ . ( व्या० ) अड्गुष्ठ इति । सुधियां शोभना घीर्येषां ते सुधियः तेषां रसज्ञा रसंजानातीति रसज्ञा (आतोडोडावामः । ९-१-७६ । इ. सू. रसशब्दपूर्वकज्ञाघातो. ड प्रत्ययः डित्वात् अन्त्यस्वरादिलोपः अदन्तत्वात् खियामापू । ) जिह्वा परेण्टुस्तनेक्षुयष्टी परेष्टु बहुप्रसूतागौ तस्याः स्तने: इक्षोर्यष्टिः परेण्टुस्तनश्च इक्षुयष्टिश्च द्वौ न न धिक्करोति अपि तु धिकरोति तिरस्करोत्येव । किंविशिष्टौ द्वौ परे स्तनेक्षुयष्टी अड्गुष्ठयन्त्रार्दनया अड्गुष्ठश्च यन्त्रश्च तयोरर्दनापीडना तथा रस ददानौ ददाते इति उदानौ । किंविशिष्टा रसज्ञा रसज्ञे रसं नानातीति रसज्ञस्तस्मिन् पुरुषे प्रकृत्या स्वभावेन सुधाममृतं किरती विस्तारयन्ती || ५८ ॥ अवेदि नेदीयसि देवराजे, श्रोत्रोत्सवं तन्वति वाग्विलासैः । दिनो न गच्छन्नपि हन्त सख्यः, कालः किमेवं कुतुकैः प्रयाति ॥५९॥ ( व्या० ) अवेदि इति । हे सख्य हन्त इति वितर्के मया दिनो गच्छन् I गच्छतीति गच्छन् अपि न अवेदि न ज्ञात । क सति नेदीयसि अतिशयेन अतिक इति नेदीयान् ( गुणाङ्गाद्वेष्ठेयम् । ७-३-९ । इ. सू अन्तिकशब्दात् तरविषये ईयसुप्रत्ययः बाढान्तिकयोः साधनेदौ । ७-४-३७ इ. सू. ईयसौ परे अन्तिशब्दस्य नेदादेश: । ) तस्मिन् प्रत्यासन्ने देवराजे ( राजन् सखेः । ७-३-१०६ । इ. सू. देवपूर्वक राजन् शब्दात् अट् समासान्तः । नोऽपदस्य • Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६) श्रीजैनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम्॥ सर्गः ११ तद्धिते । ७-४-६१ । इ. सू. अट् परे अन्त्यस्वरादेर्लुक् । ) देवानां राजा देवराजस्तस्मिन् इन्द्रे वाग्विलासैः वाचां विलासास्तैः श्रोत्रोत्सव - श्रोत्रयोरुत्सवस्तं कर्णात्सवं वितन्वति वित्तनोतीति वितन्वन् तस्मिन् कुर्वति सति । कालः किमेवं अमुना प्रकारेण कुतुकैः आश्चर्यैः प्रयाति ॥ ५९ ॥ विज्ञापयचक्रुरथालयस्तां, विमुग्धचिते गतचिन्तयालम् । स्नातुं च भोक्तुं च यतस्व पश्य, खमध्यमास्कन्दति चंडरोचिः ६० ( व्या० ) विज्ञापयां चकुरिति । अथानन्तरं आलयः सख्यः तां सुमङ्गलां विज्ञापयांचकुः । हे विमुग्धचित्ते विमुग्धं चित्तं यस्याः सा तस्याः संबोधनं क्रियते गतचिन्तया गतस्य चिन्ता तथा अलंपूयतां पश्य विलोकय । चंडरोचिः चंडे रोचिर्यस्य सः सूर्यः खमध्यं खस्य मध्यं तत् आस्कन्दति आक्रामति । त्वं स्नातुं स्नानं कर्तुं च अन्यत् भोक्तुं भोजनं कर्तु यतस्व उपक्रमं कुरु ॥६०॥ अहो अहः प्राप्यकृतप्रयत्नः शनैः शनैरुच्चपदोपलब्धौ । करे खरीभूय नयस्थ तत्रं, व्यनक्ति सुरेष्वपरेषु, सूरः ॥ ६१ ॥ ( व्या० ) अहो इति । अहो इति आश्चर्ये सूरः सूर्यः अह दिनं प्राप्य शनैः शनैः उच्चपदोपलब्धौ उच्चं च तत् पदं उच्चपदं तस्य उपलब्धौ प्राप्तौ कृतप्रयत्नः कृतः प्रयत्नो येन सः सन् करे किरणे खरीभूय कठोरो भूत्वा अपरेषु सूरेषु भटेषु नयस्य ज्ञेयस्य तत्वं व्यनक्ति प्रकटीकरोति । दिवसे प्राप्ते सति उच्चपदप्राप्त्यर्थ प्रयत्नः क्रियते करे दंडे च खरत्वं क्रियते इति भावः ॥ ६१ ॥ लोकं ललाटन्तपरमिदंडे, रुत्सार्यभानुर्विजनीकृतेषु । सरस्स्ववक्रान्वियदन्तरस्थः, कोडे करान्न्यस्यति पद्मिनीनाम् ॥६२॥ ( व्या० ) लोकमिति । भानुः सूर्य. विजनीकृतेषु विगता जना येभ्यस्तानि विजनानि न विजनानि अविजनानि अविजनानि विजनानि कृतानीति विजनीकृतानि तेषु निर्जनेषु सरस्सु सरोवरेषु पद्मिनीनां क्रोडे उत्संगे वियदन्तरस्थः वियत अन्तरे तिष्ठतीति आकाशमध्ये स्थितः सन् अवक्रान् न वकाः अवका स्तान अवक्रान् करान् न्यस्यति व्यापारयति । किंकृत्वा ललाटन्तपरश्मिदंडे: Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजनमारसम्भवाय महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ (३६७ ललाटं तापयन्तीति ललाटन्तपाः (ललाटवातात्तिपाऽजहाकः ५-१-१२५ । इ. सू. ललाटपूर्वकतपधातोः खश् प्रत्ययः । खित्वात् मोऽन्तः । ) २२मय एव दंडाः रश्मिदंडाः ललाटन्तपाश्च ते रश्मिदंडाश्च सैः लोकं उत्साय परत्र कृत्वा ६२ पद्मं श्रियः सम बभूव भानो, करैरधृमायत सूर्यकान्तः। मतुः प्रसादे सदृशेऽपि सम्प-त्फलोपलब्धिः खलु दैववश्या ॥६३॥ (व्या०) पद्ममिति । भानोः सूर्यस्य करैः किरणैः पद्मं कमलं श्रियः लक्ष्म्याः सभागृहं बभूव । सूर्यस्य करैः सूर्यकान्तः अधूमायत (क्यड् । ३-४२६ । इ. सू. धूमशब्दात् आचारेऽर्थे क्यड् । कित्वात् आत्मनेपदम् । ) धूमवदाचरितः । भर्तुः स्वामिनः प्रसादे सहशेऽपि तुल्येऽपि सम्पन्फलोपलब्धिः सम्पदा फलानामुपलब्धिः लक्षणया फलावाप्तिः खल्ल निश्चितं दैववश्या दैवस्य वश्या देवायत्ता स्यात् ॥ ६३ ॥ यः कोऽपि दधे निशि राजशब्द, दिगन्तदेशानियता ययौ सः। . दधासि कस्योपरि तिग्मभावं, पान्थैःश्रमात रविरेवमुचे॥ ६४॥ (व्या०) य इति । श्रमातैः श्रमेण आता. तैः श्रमाकुलैः पान्थैः (नित्यं णः पन्थश्च । ६-४-८९ । इ. सू द्वितीयान्तात् पथिन् शब्दात् नित्यं याति इत्यर्थे णप्रत्ययः पथश्च पन्धादेश. पन्थानं नित्यं यान्ति इति पान्थाः।) पथिकै रविः सूर्यः एवमूचे । एवमिति किं यः कोऽपि निशि रात्रौ राजशब्दं राजा इति शब्दस्तं दधे धरति स्म । स इयता दिगन्तदेशान् दिशामन्ताः तेषां देशास्तान् ययौ । तर्हि कस्योपरि तिग्मभावं तिग्मंश्वासौ भावश्च तं तीव्रत्वं दधासि ॥६॥ तोयाशया धावित एष पान्थ-तातो विमुह्यन् मृगतृष्णिकाभिः । अप्राप्य तोयं क्षरदश्रुपूरै-रुत्थापयत्यम्बु किलोषरेऽपि ॥ ६५ ॥ (व्या०) तोय इति । एष पान्थबात. पान्थानां व्रातः पान्थत्रातः पथिकसमूहः तोयाशया तोयस्य जलस्याशा तया जलस्येच्छया धावित सन् तोयं जलं अप्राप्य न प्राप्य क्षरदश्रुपरैः क्षरन्ति च तानि अश्रूणि च तेषां पूरैःसमूहै: किल इति सत्ये उपरेऽपि अम्बु ऊत्थापयन्ति ऊपरस्थानेऽपि जलं प्रकटं करोति । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८) श्रीजैनकुमारसम्भवास्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् । सर्गः ११ किंकुर्वन् पान्थत्रातः"मृगतृष्णिकाभिर्मूगजलैर्विमुह्ययन् विमुह्यतीति विभुह्यन् ६५ अमी निमीलन्नयना विमुक्त-बाह्यभ्रमा मौनजुषः शकुन्ताः । श्रयन्ति सान्द्रद्रुमपर्णशाला, अभ्यस्तयोगा इवनीरजाक्षि ॥६६॥ (व्या०) अमीति । हे नीरजाक्षि (असहनब् विधमानपूर्वपदात् स्वाहादकोडादिभ्यः । २-४-३८ । इ. सू. स्त्रियां नीरजपूर्वकअक्षिशब्दात् डीर्वा ।) नीरे जाते नीरजे कमले ते इव अक्षिणी यस्याः सातस्याः संबोधनं क्रियते हे कमललोचने अभी निमीलन्नयनाः निमीलन्ति नयनानि येषां ते निमील्यमानलोचनाः विमुक्तबाह्यभ्रमाः बाह्यश्चासौ भ्रमश्च विमुक्तो बाह्यभ्रमो यैस्ते । मौनजुषः मौनं जुषन्ते इति मौनजुषः (किप् । ५-१-१४८ । इ. सू. मौनशब्दपूर्वकजुषधातोः किप् प्रत्ययः ।) एवंविधाः शकुन्ताः पक्षिण: सान्द्रद्रुमपर्णशालाः सान्द्राश्च ते माश्च तेषां पर्णशालाः पर्णः पत्रनिर्मिताः पर्णशालास्ता निबिडवृक्षपत्रशालाः श्रयन्ति । उत्प्रेक्षते अभ्यस्तयोगा इव अभ्यस्तो योगो यैस्ते इव ॥ ६६ ॥ उदीयमानोऽकृतलोककर्म-साक्षीत्यभिख्यामयमाहितार्थाम् । भास्त्रानिदानीं तु कृतान्ततात, इति त्विषा त्रासितसर्वसत्तः ॥६७॥ (व्या०) उदीयमानः इति । अयं भास्पान् भासोऽस्य सन्तोति भास्वान् सूर्यः उदीयमानः उदीयते इति उदीयमानः सन् लोककर्मसाक्षी लोकानां कर्मणां साक्षी ( साक्षाद्रष्टा । ७.-१-१९७ । इ. सू. साक्षात् शब्दात् द्रष्टा इत्यर्थे इन् प्रत्ययः । प्रायोऽव्ययस्य । ७-४-६५। इ. सू. इन परे अन्त्यस्परादेलक । ) इति अभिख्यां नाम आहितार्थ आहितोऽर्थो यस्यां सा तां सत्यार्थी अकृत कृतवान् तु पुनः इदानीं अधुना कृतान्ततातः कृतोऽन्तो नाशो येन स कृतान्तो यमस्तस्य तातः पिता इति अभिल्यां आहितार्थी सत्यार्थी अकृत । किविशिष्टः सूर्यः त्रासितसर्वसत्त्वः सर्वे च ते सत्त्वाश्च सर्वसत्त्वाः (पूर्वकालैकसवजरत्पुराणन केवलम् । ३-१-९७ । इ. स. कर्मधारयसमासः।) सर्वप्राणिनः त्रासिता. त्रासं गमिताः सर्वसत्त्वा सर्वप्राणिनो येन सः त्रासितसर्वसत्वः ६७ इतीरयित्वा विस्तासु तासु, तारुण्यमारूढमहनिरीक्ष्य । सुमङ्गलाथ स्वयशोनियुक्त-धीमजना मजनसम भेजे ॥ ६८ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाजकुमारसम्भवाय महाकाव्यम् टी.सिमलंकृतम् ॥ सर्ग. ११ (३६९ (व्या०) इतीति । अथानन्तरं सुमङ्गला मज्जनस मज्जनस्य स्नानस्य सद्मगृहं स्नानगृहं भेजे । किंकृत्या अहर्दिन तारुण्यं ( पतिराजान्तगुणाराजादिभ्यः कर्मणि च । ७-१-६० । इ. सू तरुणशब्दात् भावेटयण टिस्वात् आदिस्वरवृद्धिः । ) तरुणस्य भावस्तारुण्यं तत् यौवनं आढं निरीक्ष्य दृष्ट्वा । कासु सतीषु तासु सखीषु इति ईरयित्वा कथयित्वा विरतासु सतीषु । किंलक्षण सुमङ्गला स्वयशोनियुक्तधीमजना स्वस्य यशसा नियुक्ता व्यापारिता• धीमन्तो बुद्विमन्तो जना यया सा आत्मीययशसा व्यापारितविद्वज्जना ॥ ६८ ॥ तद्वक्षोजश्रीपौढिमालोक्य हैमः, कुंभमैदाक्षेणेव नीचीमवद्धिः। अभ: संभारभ्राजिभिः खानपीठ, न्यस्तां सख्यस्तां मजयामामुराशु।। (०या०) तदिति । सख्य (नारी सखोपड्यूश्वश्रू । २-४-७६ । इ सू. सखीशब्दो डयन्तो निपात्यते ।) स्नानपीठन्यरतां स्नानस्य पीठे न्यस्तामुपविष्ट तां सुमङ्गला अम्भ संभारभ्राजिभिः अंभसां जलानां संभारेण समूहेन भ्राजन्ते इति अम्भ संभारभ्राजीनि तै जलसमूहेन शोभमान. मृत हेमै हेम्न विकासः हैमा. ते हैमै (हेमादिभ्योऽञ् । ६-२-४५ । इ. सू. हेमन्शदात विकारेऽथै अञ् भिवात् आदिस्वरवृद्धिः । नोऽपदस्य तद्धिते । ७-४-६१ इ सू. अन्त्यस्वरादेलोप ।) सुवर्णमत्कै कुभै घटै आशु शीघ्रं मज्जयामासुः स्नानं कारयामासुः । किंकुर्वद्भि कुमै उत्प्रेक्षते तद्वक्षोजश्रीप्रौढिं तस्या सुमङ्गलाया वक्षोजी स्तनौ तयो श्री शोभा तस्या प्रौढिस्तां आलोक्य दृष्ट्वा मन्दाक्षेण इव लज्जया इव नीचीभवद्धि (कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्वेच्चि । ७-११२६ । इ. सू. नीचशदात् अभूततद्भावे भूयोगेच्चि । ईश्याववर्णस्याऽनव्ययस्य । ४-३-१११ । इ सू च्चौ परे पूर्वस्य अस्य ई ) न नीचा अनीचा: अनीचा नीचा भवन्त इति नीचीभवन्तस्तै ॥ ६९ ॥ जगद्भर्तुर्वाचा प्रथममथ जंभारिवचसा, रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम् । स्वरायातर्भक्ष्यैः शुचिमुवि निवेश्यासनवरे, बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम् ॥ ७० ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०) श्रीजनकुमारसम्भवाख्यं महाकाव्यम् टीकासमलंकृतम् ॥ सर्गः ११ ( व्या० ) जगदिति । आलीपाली आलीनां पाली सखीश्रेणिः शुचिभुवि शुचिवासौ भूश्च तस्यां पवित्रभूमौ आसनवरे आसनेषु वरं तस्मिन् श्रेष्ठासने इमां सुमङ्गलां बलात् निवेश्य निवेशयित्वा इति निवेश्य उपवेश्य स्वरायातैः स्वरात् आयातानि तै स्वर्गात आगतैर्भक्ष्यै भोजनै चटुघटनया चढूनां घटना तया चाटुवचनरचनया अभोजयत् किंलक्षणां सुमङ्गला प्रथमं जगद्भर्तुर्जगतां भर्ता तस्य श्रीस्वामिनो वाचा वचनेन अथ अनन्तरं जंभाविचसा जंमारेरिन्द्रस्य बचो वचनं तेन इन्द्रस्य वाण्या रसाधिक्यात् रसस्य आधिक्यं तस्मात् अनुपमामपि न विद्यते उपमा यस्याः सा ता तृप्तिं समविगतामपि प्राप्तामपि ॥ ७० ॥ सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि, मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुभाक् । वाणीदत्तवरविरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसंभवमहाकाव्येयमेकादशः ॥ १ ॥ इतिश्रीभद्र चल गच्छकविचक्रवर्त्तिश्री जयशेखरसूरिविरचितस्य श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्य श्रीधर्मशेखर महोपाध्यायकृतायां टीकायां श्री माणिक्य सुन्दर सुरिशोबिताया एकादशसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ११ ॥ Sc " 'सुरासुरनराधीश - सेव्यमानपदाम्बुज । नाभिगजाङ्ग जोनित्य, श्रीयुगादिजिनो मुदे || १ || श्रीमदञ्चलगच्छेश-जयशेखरनूरय । चत्वारस्तैर्महाग्रन्था, कविशनैर्विनिर्मिता ॥ २ ॥ प्रबोधश्चोपदेशश्च चिन्तामणिकृतोत्तरौ । कुमारसंभव काव्य, चरित्रं धम्मिल्लस्य च ॥ ३ ॥ तेपा गुरूणां गुणवंधुराणा, शिष्येण धर्मोतरशेखरेण । श्रीजैन कौमारकसंभवोया, सुग्वाय वोधाय कृतेति टीका ||४|| देशे सपादलक्षे, सुखलक्ष्ये पद्यरे पुरप्रवरे । नयनवसुवार्धि चन्द्रे || १४८३ वर्षे हर्षेण निर्मितासेयम् ||५|| विहृत्पद्मविकाराने दिनकरा मृगेश्वरा भास्वरा, माणिक्योतरसुन्दरा कविवग कृत्वा प्रसाद परम् । भक्ता श्रीजयशेखरे निजगुरौ शुद्धामकार्षुर्मुद्रा, श्रीमज्जैन कुमार संभव महाकाव्यस्य टीकामिमाम् ॥६॥ यावन्मेरुर्महीपीठे, स्थिरतां भजते भृशम् । वाच्यमाना जनैस्ताव - ट्टीकासौ नन्दताम्रिम् ॥७॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहीमेलमुनिप्रणीता जिनस्तुतिपञ्चाशिका क्रियागुता. सकलसुरेश्वमुख्या, विवुवाः सुविशुद्धबुद्धिनिधयोऽपि । स्तवनं तीर्थाधिपते !, जिनेश । ते नैव कर्तुमिह ॥१॥ इति जानन्नपि नित्यं, तथाप्यहं मुग्वमानस: यवितुम् । विनयी हे जिनराज !, स्तवनमिपात्ते निजां जिह्वाम् ॥ २ ॥ मन्ये न सर्वशास्त्रे, तव वृत्तं विवुधवय॑मानमिह । पूण्यप्रभूतगुरुतर-महिमातिकान्तरा फलसुरम् ॥ ३ ॥ स्तुतिवादीक्षेऽमकरध्वजं जिन ! त्वां सुरेशसंसेव्यम् । समवसृतिमध्यभाजं, संसृतिहरणं कदामोक्षात् ॥ ४ ॥ तत्त्वतरुजलदधारा, शासितचलय ! भव्यजनवारा. । अतिशयसमूहशाली, नाप | भवाश्चरणगुणपाली ॥५॥ सकल । ससार ! सलक्षण | संसारासारतां समधिगत्य । सर्वज्ञ । सर्वसङ्गो, भगचन भवानभावाय ॥ ६ ॥ संमारवारिराशि, विषमतरं दुस्तरं च जिनराज ! । विदभासिततारसुखं, लब्ध्वा वैराग्यमत्रभवान् ॥७॥ भाषितशुचिसत्यागम, उदितोदितधाम ! सद्गुणग्राम | कृत्वा कर्मनिगस, दूरीकृतदुःखंभववासम् ॥ ८ ॥ इनिर्जितमनोजहारो-ज्ज्वलगुणमण्डल | विशालतमभाल । कृपया भावारिभयं, भविनां भूमौ भवानेव ॥ ९ ॥ अष्टविधकर्मरोगा-पनोदविशदागद सदा विमदः । त्वमविपदं जन्तूना, हितेच्छया शुदसिद्धान्तम् ॥ १० ॥ शशिशोभमानसाधित, यशोऽतिधवलीकृतावनीवलय । नि शेषजन्तुकरुणां, निष्कारणवत्सलोऽत्र भवान् ॥११॥ कनकविराजितमोचे, सुरनरतियंगग्विजातसङ्कोचे । भवतेश | समवसरणे, देधा धर्मो धराभरणे ॥ १२ ॥ न कदा करुणाम्बुनिधे, रजनीश | परोपकारिता भवत. । विद्रुतेह यथा तपनात् , प्रकाशिता विश्व विश्वहिता ॥१३॥ उज्झितसंसृतदोषे, पापिन्यपि जनितपुण्यमतिपोपे । मैत्र्याऽपरत्र रोपे, निरीक्षिते भवति कृततोषे ॥१४॥ ननु निर्ममत्वदीये, हृदये जिन ! वेद्मिमुदितयावास । मित्रामित्रेषु यतस्व-मेकप सदा विदित. ॥१५॥ शिवपदसाधनविहिता-दरस्य भवतरतप- समाचरत । हृदये सत्क्षान्तिमये, स्थानं न कदापि रोषेण ॥१६॥ दु.सहसुरनरतिर्यक्-कृतोपसर्गावली त्वया त्रेधा । विश्वे क्षमीश ! सम्यक्-सिद्धिसुखास्वादरसिकेन ॥ १७ ॥ जनदुर्जनेन लपितं, दुर्वचनं श्रवणशूलसदृशमपि । भवता सुरपतिविहित-स्तुतितुल्यममानि मुनिमुख्य १ ॥१८॥ भव्यजननयनकैपवने, विकाशं सदा ददानेन । चन्द्रोपमितिर्भवता, सितेन युक्तं जगन्नाथः ॥१९॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयमतिविषमरजनी-विनाशमनिशं वितन्वता भवता । रवितोऽधिकेन लोके, भाविख्यातिप्रतापेन ॥ २० ॥ भव्यविभारोचिष्णु-निंगकरिष्णुर्भवं भयोपेतम् । एकस्त्वमेवसंवर, मिन्द्रयजयसम्भवं सत्यम् ॥२१॥ चित्रं विशददयास्थः, क्षमापता मुख्यतां सदेव दधत् । सकलं भावारिकुलं, नाथ ? त्वं त्रिभुवने विदितः ॥२२॥ अमृतरसादपि समधिकरसं विशेषादशेषशान्तरसम् । नक्तं दिवापि चित्रं त्वं न सदासावधान जिन 2 ॥२३॥ ननु नव्यरम्यरञ्जित सुरनम्यपद ? प्रभावतो भवतः । आजन्मजातवेरा-चित्रं तियागणेनापि ॥ २४ ॥ विदितचरित्रपु रहो, मुख्यां के के न विषयजं सौख्यम् । जिनवर ? भवता तु जने, तत्व्यत्यतं विषभिवावेत्य ॥२५॥ दोषैरष्टादशभिर्नाथ ! मनस्ते मलीमलं न जने । समतानितरां क्षालित-कर्ममलत्वात् कदाचिदपि ॥२६॥ इहते विशदाचारा चरणपरस्य प्रभो ? मनोनमनाक् । संवेगसावधानं कदापिपश्चप्रमादेषु ॥ २७ ॥ हरिहरमुख्या देवा, जिन ! विख्याता जगत्त्रये सन्तु । त्वय्येव पर प्रकट दृश्यतया वीतरागत्वम् ॥ २८ ॥ परिनम्रप देदीप्यमानचरणे सुभक्ति रिह भवति । येन जिनेश्वरसत्या, दुःप्रापामुक्तिरपि तेन ॥२९॥ प्रकटितसुख ? कलिकाले, लयालयं शमरसं जनेयोऽत्र । स तवप्रसादविशदः, परमां पुष्टिं जगामैवम् ॥३०॥ ये परमायुरमायं, तव शासनयानपात्रमतिनिविडम् । ते तेरुरतारतर, भवजलधि लीलया लोके॥३१ ये दुर्गतिभयभोता, नैवविकारेषु मानसं स्वीयम् । लब्ध्या ते जिन १ वचनं, ते धन्धाः शिवपुरं प्राप्ता. ॥ ३२ ॥ या भवमतयो धुर्या, मोहबले मुख्यतां क्षमाधो ? । तास्तत्त्वज्ञस्तरसा, तवाज्ञया वर्जिताः सततम् ॥३३॥ कामाग्नि जलद दुर्बल दुःखक्षेप्येषु ये कषायेषु । चित्तप्रसरं न जनास्ते, वसुधायां तबादेश्याः ॥३४॥ यः परमविभाव 2 सदानन्दमये तव मते ह्यकम्पमति । तस्य जिनेश्वर । विश्वे, न दुर्लभा शिवपदावाप्तिः ॥३५॥ यः किल निर्मलमनसाऽत्मरदेवममाय ? निर्ममाधीश ? तव नाम महामन्त्र, समीहितं करगतं तस्य ॥३६॥ य श्रीजिनेन्द्र ! मिथ्यामतिमुदितो मानसे नवक्रोधात् शुभवति भवति द्वेष, नहि भवति स भव्यताशाली ॥३७॥ संख्याव्यतीतनवनव भवसम्भूतानि पापकर्माणि 1 तक शिवकर ! सद्ध्यानाजिनातिभक्ति प्रसत्तात्मा ॥ ३८ ॥ तापं पापं च जने, समन्ततः सन्ततं निरस्यन्ती । तव वागविबुद्धशावादीन्द्र वर्ण्यतम । ॥ ३९ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहक्षसमवसरणं, भवभयहरणं जगत्रयीशरणम् । न तव पुरा के भन्या, दृष्ट्वा पुरतः परानन्दम् ॥४०॥ भक्त्या धाम मनोरम, सुरनिर्मितसमवसरणविरम् । हृदये भवन्तमीशं, न वयं मिथ्यात्वमतिमृदा ॥ ४१ ॥ सुरतरुरिह तब चरितं, निशम्य मन्ये विदूरतदेशम् । चिन्तातिगफलदातु- बहुधामविगजमानस्य ॥४२॥ अकृतकलाविलासा, दिलातलाभासि केवलालौकात् । भवतोऽधित्यसुकृतं, ससार मूलत. सुजनः ॥४३॥ विज्ञप्तैः पापपारा, वदलितनरकालिमोहनृपकारा । कांस्कानते जिनाना, सुपालिता साधुजनमान्या ॥४४॥ आज्ञायदित्वदीया, लब्धाभवकोटिदुर्लभेहमया । तत्तां कामगावीमपि, नाहं तु समीहया युक्त ॥ ४५ ॥ संसारकान्तारेऽनन्त- भवान्नाथ जन्तुनाऽनेन । दुख वचनातोतं, विना ताज्ञ , जिनाधीग ! ॥ ४६ ॥ त्रिभुवनविदितोयोत, त्वयि दृष्टे यद्यहं न जगदीश ! मोहान्धकारभिदुरे, स कोऽपि दोपो ममैव तदा ॥ ४७ ॥ नित्यं प्रीणितहृदये, भापितनि शेषजन्तुजातदये। विहितान्तरारिविजये, त्वयोक्षिते मोढमहमभये॥४८॥ सितकरसौम्यतरास्ये, योगिजनैतत्त्वतस्तु समुपान्ये । मोह नाहं दास्ये, कथं स्वयीशेश्रितेऽहास्ये ॥ ४९ ॥ अहमिह हरिहरमुख्याऽनेकसुराणां चरित्रमाकर्ण्य । त्वमेव देवदेव, निष्कारणवत्सलं लोके ॥५०॥ भव्यजनेशाधीश्वर !, पवित्रचारिवराधनं सुभतिम् । सततं समीहमान, माममलज्ञाननी निधिः ॥५१॥ पदनतनिर्ज(राजे, भवत्यहं सेवकोऽपि गाढतरम् । तेन त्वदीयसेवा, भवे भवे मे भृशं भयात् ॥ ५२ ॥ गच्छाधिप श्रीजयकीर्तिरि शिष्यो महीमेरुग्हं स्तवं ते । कृत्वा क्रियागुप्तकवित्वमित्थं त्वामेव दव्यां हृदये जिनेन्द्र ! ॥ ५३ ॥ श्री अर्हते नमः विद्यानामनरस्यरूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं विद्या भोगकरी या सुखकरी विद्या गुरूणां गुरु विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परादेवता विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्या विहीन पशु । न जारजातस्य ललाटशृङ्ग कुलप्रमूतेन च पाणिपनम् । यदा यदा मुञ्चति वाक्यबाणं, तदा तदा जाति कुलप्रमाणम् ॥ इह खल तत्रभवन्त सकलकनिशिरोमणय श्रीजयशेखरसूरय 'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदेशिवेतरक्षतये । सद्य परनिर्वृतये कान्तासंमिततयोपदेशयुजे' इत्याद्यालंकारिकवचनप्रामाण्यात् काव्यस्यानेकश्रेय साधनताम् 'काव्या. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लापांश्च वर्जयेत्' इत्यस्य निषेधशास्त्रस्यासत्काव्यविपयतां च पश्यन्तो जैनकुमारसंभवाख्यं महाकाव्यं चिकीर्षवश्चिकीर्षितार्थाविघ्नपरिसमाप्तिसंप्रदायाचिच्छेदलक्षणफलसाधनभूतविशिष्टवस्तुनिर्देशात्मकमङ्गलस्य शिष्टाचारपरिप्राप्तत्वात् ' आशीर्न मस्क्रियावस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् इत्याशीर्वादाद्यन्यतमस्य प्रबन्धमुखलक्षणत्वात् ग्रन्थादौ वस्तु निर्देशात्मकं अस्त्युतरस्येति मङ्गलमाचरन्ति । ध्यात्वा श्री शारदां देवीं नत्वा श्री सद्गुरूनपि । कुमारसंभवस्येयं विवृतिर्लिख्यते मया ॥ १ ॥ यस्मैकाव्ययुगप्रदा च वरदा श्रीशारदा देवता श्रीमज्जैनकुमारसभवमहाकाव्यादिकर्ता कलौ । सिद्धान्तोदधिचन्द्रमाः सहृदयश्रेणीशिरः शेखरः सोऽयं श्रीजयशेखराख्यसुगुरु जयाज्जगन्मङ्गलम् ॥२॥ लौकिक काव्यानुसारेण अस्त्युत्तरस्यांदिशीति सप्ताक्षराणि वर्तन्त इति न ज्ञातव्यं किन्तु श्रीस्तंभतीर्थे श्रीमदञ्चलगच्छ गगन प्रभाकरेण सकल विद्वज्जनचित्तचकोर निशाकरेण यमनियमासनप्राणायामाद्यष्टांगयोगविशिष्टेन समाधिध्यानोपविष्टेन निजमतिजित सुरमूरि· परमगुरु श्रीजयशेखरसूरिणा चन्द्रमण्डलसमुज्ज्वलराजहंसरकंघोषितया चंचलकुण्डलाद्याभरणविभूषितया भगवत्या श्रीभारख्यावत्स त्वं कविचक्रवर्तित्वं प्राप्य निश्चिन्त इवासीनः किंकरोपीति प्रोच्य जैनकुमारसंभवं महाकाव्यं कुरु इत्युक्वा अस्त्युतरस्यां १ संपन्नकामानयनाभिरामा २ एतदाद्यं काव्ययुग्मं दत्त्वा विहितसुगसुरसे च श्रीयुगादिदेवसत्कजन्मबालके लियौवनमहेन्द्रस्तवन सुनन्दा सुमङ्गला पाणिग्रहण चतुर्दगत्वमदर्शन भरत संभवप्रातर्वर्णनपुरस्सरं श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यं कारितं । तथा लौकिक कुमारसंभवे कुमारः कार्त्तिकेय तस्य संभवश्चात्र कुमारो भरतस्तस्य संभवो ज्ञेय पुत्राश्च सर्वे कुमारा उच्यन्ते अत कुमारसंभव इति नाम्ना महाकाव्यमत्रापि ज्ञायते तेनादौ व्यात्वा श्रीशारदा । इति सम् । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- _