Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Author(s): Bhadrabahu, Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000 999999900989|91969 ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ( श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलं अने श्रीश्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित ) ॥ आचाराङ्गसूत्रम् ॥ भाग बीजो मूळ अने शीलाङ्काचायें रचेली टोकाना भाषांतर सहित ) जामनगर निवासी स्व० पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मरणार्थे छपावी प्रसिद्ध करनार - पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २ -८-० श्रीजैनभास्करोदय मिटिंग प्रेसमां छाप्युं जामनगर. संवत १९८९ 188668688888ISISISISISI प्रति २०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२२९॥ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीआचारांगसूत्रम् ॥ (मूळ अने शीलांकाचायें रचेली टीकानुं भाषान्तर ) ( भाग बीजो ) छपावी प्रसिद्ध करनार - पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगर ) नमः श्रीवर्द्धमानाय, वर्द्धमानाय पर्ययैः । उक्ताचार प्रपञ्चाय, निष्प्रपञ्चायतायिने ॥ १ ॥ श्री वर्धमान स्वामीने नमस्कार थाओ जेओ पर्याय (आत्माना उत्तम गुणो ) वडे निरंतर वघेला छे. तथा आचारनो विस्तार जेमणे को छे तथा संसारी प्रपंच ( रागद्वेष) थी सर्वथा मुक्त छे अने सर्व जीवोना रक्षक छे. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमति गहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमित्रैर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥ २ ॥ सूत्र ॥२२१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रपरिज्ञा नाम पहेलं अध्ययन जे घणुं गंभीर छे, तेजें विवरण गंधहस्तिनामना श्रेष्ठ आचार्ये कहेलं छे तेमांथी हं कंडकविशेष आचा० खुलासो करुं छ. ते पहेलं अध्ययन पूर्वे कही गया. हवे बीजं अध्ययन कहेवाय छे. तेनो आवीरीतनो संबंध छे. B आ संसारमा मिथ्याख-उपशम-क्षय क्षयउपशम ए त्रणमांथी कोइपण सम्यक्त्व प्राप्त थयेला ज्ञानी साधु पुरुषने अत्यन्त ए-12 ॥२२२॥ कान्त बाधा रहित परमानंदरूप स्वतखलुं सुख जे आवरण रहित ज्ञान दर्शन (केवळज्ञान केवळदर्शन) प्राप्त थयेलाने मोक्षमुंज कारण छे. अने आश्रवनो निरोध अने निर्जरानी प्राप्ति छे. तथा मूळ-उत्तर एवा बे भिन्न गुणो छे एवं चारित्र छे अने बीजा बधा व्रतोनी वृत्ति (निर्वाह) नो कल्प उत्पन्न करेल छे, तथा निर्विघ्ने वधा प्राणीने संघटन परिताप अपद्रावण विगेरेथी दुःख न देवारूप जे सवोत्तम चारित्र छे. ते चारित्रनी सिद्धि माटे आ अध्ययन छे. मरणना अभावना प्रसंगथी पांचभूत रहित (चेतनरुप) आत्मानो धर्म केवळज्ञाननी प्राप्ति छे, जेथी एका चारित्रनी नथा आत्मानी | तथा आत्माना गुणज्ञाननी तथा मोक्षनी प्राप्ति माटे आ सूत्रनं अध्ययन छे ते वताव्युं छे " उपरना वाक्यथी ज्ञान प्राप्ति" तेथो बृहस्पतिना नास्तिक मतनुं खंडन कर्यु, कारण के ते पांच भूत माने छे ते भूतो जड छ । अने आत्मा चेतन छे. तेनो गुणज्ञान छे ते वताव्युं छे. आ प्रमाणे सामान्यथी जीवनुं अस्तित्व स्वीकारी विशेषपणाथी जीवनो मोDIR बताववाथी बौद्ध विगेरे भतनं खंडन थयु. कारण के जीवत्रणे काळमां होय तो तेना मोक्षनो संभव थाय. एकेन्द्रिय पृथ्वी, पाणी, अग्नि, पवन, वनस्पति विगेरे भेदवाळा जीवोने बतावी अनुक्रमे समान जातीयवाला पत्थरनी शीला SHRAS Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाल ॥२२३॥ विगेरेनी उत्पत्ति हरस मसा जे मांसना अंकुरा छे, तेनी माफक पृथ्वीकायनी उत्पत्ति छे. ___ अविकारवाळी (पडतर) जमीन खोदवाथी देडकानी माफक पाणीनी उत्पत्ति छे, तथा विशेष उत्तम आहारथी वधq; अने विपरीत आहारथी हानि थवी. तेज प्रमाणे अर्भक (बाळक ) ना शरीरनी माफक अग्निनी तुलना छे. बीजानो प्रेरेलो अटक्या विना अनियत ( एक सरखी नहि ) एवी तिरछी गतिवाळो गाय घोडानी माफक पवन वताव्यो अळ-2 ता (स्त्रीओना शणगारमा वपरातो लाल रंग) थी, तथा झांझरथी शणगारेली जुवान स्त्रीनी लताथी विकार पामता कामीपुरुषनी माफक वनस्पति खीले छे. ए प्रमाणे अनेक प्रयोगो छ, तथा ऊंचा अभिप्रायथी माथु उघाडीने (खुलासाथी) सूक्ष्मवादर-एकेन्द्रिय बेत्रण चार इन्द्रियवाळा, तथा पांच इन्द्रियवाला संजी तथा असंज्ञी तथा पर्याप्ता तथा अपर्याशा विगेरे जीवोना भेदो वतावी; तथा तेमना Hशस्त्र व अने परकायवाळां वतावी तेना वधमां बंध, अने कर्मथी छुटवा विरति वतावी, तेनेज चारित्र बताव्यु; एटले जीवनी रक्षा करवी तेज चारित्र छे, अने जीवरक्षा करनारज चरित्रने अनुभवे छे, तेवू पहेला अध्ययनमा बताव्युं छे अने आ बीजा अध्ययनमां बताव्यु छे केः शत्रपरिना नामना अध्ययनने सूत्रअर्थथी भणेला साधुने अध्ययनमां बतावेला पृथ्वीकाय विगेरे जीवोना भेदने मानतो तेनी रक्षाना परिणामवाळो सर्व उपाधिथी शुद्ध, अने तेना उत्तम गुणधीरजीत थइः गुरुए वडोदीक्षारुप पंचमहावत जेने अर्पण कर्या छे तेवा साधुने जेम जेम रागादिकपायवाला लोक, अथवा शब्दादि विषयलोक ( रागद्वेषमां, अथवा इन्द्रियोना विषयमां रंजीत थयेला X4-ARASANGRESG 5555555 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२२४॥ जीवो) नो विजय थाय छे. अर्थात् जे साधु रागद्वेष, तथा इन्द्रियोनी रमणातामां रागी न थाय. तेणे लोक जीत्यो कहेवाय ते आ अध्ययनमां बतान्युं छे. टीकाकार कहे छे केः — जेवुं हुं हुं हुं, तेज प्रमाणे नियुक्तिकारे पण अध्ययननो अर्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञामां पूर्वे कहेलो छे, ते सूत्र - आछे. "लोओ जह बज्झइ जह य तं विजाहियव्वं " आ पदवडे सूचव्युं छे के, “लोक ( संसारी-जीवो) जेम बंधाय छे, तेम साधुए न बंधातां ते वधानां कारणने छोडवां जो इए;" तेथी पूर्वे पहेला अध्ययनमां बंध बताव्यो; तेम आ वीजा अध्ययनमां बंधने छोडावानुं सूचयुं; एटले शस्त्रपरिज्ञामां बंध, अने लोकविजयमां बंधथी छुटवानुं वतान्युं छे ते संबंध छे. ना चार अनुयोगद्वार छे. तेमां सूत्र अने अर्थनुं कहेवुं, ते अनुयोग छे, तेमां चार द्वार ( उपायो, व्याख्यांग) कवां उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय छे. उपक्रम वे प्रकारे छे. शास्त्र संबंधी, शास्त्रीय अने लोक संबंधी ते लौकिक छे. निक्षेपात्रण प्रकारना छे. ओघ, नाम अने सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप एम त्रण भेद छे. अनुगमसूत्र, अने नियुक्ति एम वे प्रकारे छे, नयोनैगम विगेरे छे. शास्त्रीय उपक्रम, आ उपक्रममां अर्थ अधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययन अने उद्देशानो अर्थ अधिकार छे, तेमां अध्ययननो अर्थ अधिकारशस्त्र "" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + परिज्ञामां में कह्यो छे, अने दरेक उद्देशानो अधिकार नियुक्तिकार पोते कहे छे. आचा० सयणे य अदढतं, बीयगंमि माणो अ अत्थसारो।भोगेसु लोगनिस्साइ, लोगे अममिज्जया चेव ॥१६३॥ सूत्र पहेला उद्देशाना अर्थ अधिकार ( विषय ) मां मातापिता विगेरे संसारी-सगामां साधुए प्रेम न करवो. ( न करवो, ए मूळ IRI ॥२२५॥ 18. सूत्रमा नथी; ते उपरथी लीधुं छे,) ते प्रमाणे आगळ सूत्र आवशे के, मारी माता, मारा पिता इत्यादि साधुने न जोइए. बीजा उद्देशामां संयममां अदृढपणुं (ढीलापणुं)न करवू; पण विषय अने कषाय विगेरेमां साधुए अदृढपणुं करवू; अने तेज सूत्र कहे छे के, अरतिमां बुद्धिमान पुरुष आसक्ति न करे. त्रीजा उद्देशामां मान ए अर्थसार नथी; कारणके, जाति विगेरेथी उत्तम साधुए कर्मवशथी संसारनी विचित्रता जाणीने बधा मदनां ठेकाणामां पण मान न करवू. कयु छे के-कोण गोत्रनो वाद करनारा? कोण माननो वाद करनारा छे ? चोथा उद्देशामां कहे छे के भोगमा प्रेम न धारवो कारण के सूत्रमा कहेशे, स्वीओथी लोकमां दुःख पामशे. अने तेनो मोह । छोडे तो तेथी तेमां भोगीओने भविष्यमां थतां दुःखो बतावशे. पांचमां उद्देशामां साधुए पोतानां सगां धन मान अने भोग त्याग्या छतां संयमधारक साधुए शरीरनी प्रतिपालना माटे गृह| स्थोए पोताना माटे करेला आरंभथी वनेली वस्तु लेवानी निश्राए विचरवु. तेज सूत्र कहेशे के समुस्थित अणगार होय विगेरे सुधो निर्वाह करे विगेरे छे. छट्टा उद्देशामां लोकनिश्रामां विचरता साधुए ते लोको साथे पहेलां के पछीनो परिचय थयो होय RC+%AAAAAACRECRS) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सूत्रम् ॥२२४॥ जीवो) नो विजय थायछे. अर्थात् जे साधु रागद्वेष, तथा इन्द्रियोनी रमणातामां रागी न थाय. तेणे लोक जीत्यो कहेवाय; ते आ आचा०18 अध्ययनमा बताव्यु छे. al टीकाकार कहे छे केः-जेधुं हुं कहुं छु, तेज प्रमाणे नियुक्तिकारे पण अध्ययननो अर्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञामां पूर्वे कहेलो छे, ते सूत्र आछे. ॥२२४॥ "लोओ जह बज्झइ जह य तं विजाहियव्वं” आ पदवडे सूचव्यु छे के, "लोक (संसारी-जीवो) जेम बंधाय छे, तेम साधुए न बंधातां ते वधानां कारणने छोडवां जो इए;" तेथी पूर्वे पहेला अध्ययनमां बंध बतान्यो; तेम आ बीजा अध्ययनमां बंधने छोडावा सूचव्यु; एटले शस्त्रपरिज्ञामां बंध, अने लोकविजयमांबंधथी छुटवानुं बताव्यु छे ते संबंध छे. तेना चार अनुयोगद्वार छे. तेमां सूत्र अने अर्थन कहे, ते अनुयोग छे, तेमां चार द्वार ( उपायो, व्याख्यांग) कहेवां ते उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय छे. उपक्रम चे प्रकारे छे. शास्त्र संबंधी, शास्त्रीय अने लोक संबंधी ते लौकिक छे. 5 निक्षेपा त्रण प्रकारना छे. ओघ, नाम अने सूत्रालापक निष्पन्ननिक्षेप एम त्रण भेद छे. अनुगमसूत्र, अने नियुक्ति एम बे प्र६ कारे छे, नयोनैगम विगेरे छे. शास्त्रीय उपक्रम, आ उपक्रममां अर्थ अधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययन अने उद्देशानो अर्थ अधिकार छे, तेमां अध्ययननो अर्थ अधिकारशस्त्र OGŁOSTRORILOGIES ॐॐSISRSSॐका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२२५॥ परिशामां में कह्यो छे, अने दरेक उद्देशानो अधिकार नियुक्तिकार पोते कहे छे. सयणे य अददत्तं, बीयगंमि माणो अ अत्थसारो अ । भोगेसु लोग निस्साइ, लोगे अममिज्जया चेव ॥ १६३ ॥ पहेला उद्देशाना अर्थ अधिकार ( विषय ) मां मातापिता विगेरे संसारी - सगामां साधुए प्रेम न करवो. ( न करवो, ए मूळ सूत्रमां नथी; ते उपरथी लीधुं छे, ) ते प्रमाणे आगळ सूत्र आवशे के, मारी माता, मारा पिता इत्यादि साधुने न जोइए. बीजा उद्देशामां संयममां अदृढपणुं ( ढीलापणुं ) न कर; पण विषय अने कषाय विगेरेमां साधुए अदृढपणुं कर; अने तेज सूत्र कहे छे के, अरतिमां बुद्धिमान पुरुष आसक्ति न करे. त्रीजा उद्देशामां मान ए अर्थसार नथी; कारणके, जाति विगेरेथी उत्तम साधुए कर्मवशथी संसारनी विचित्रता जाणीने वधा मदनां ठेकाणामां पण मान न कर. कां छे केः — कोण गोत्रनो वाद करनारा ? कोण माननो वाद करनारा छे ? चोथा उद्देशामां कहे छे के भोगमां प्रेम न धारवो कारण के सूत्रमां कहेशे, स्त्रीओथी लोकमां दुःख पामशे अने तेनो मोह छोटे तो तेथी तेमां भोगीओने भविष्यमां थतां दुःखो बतावशे. पांचमां उद्देशामां साधुए पोतानां समां धन मान अने भोग त्याग्या छतां संयमधारक साधुए शरीरनी प्रतिपालना माटे गृहस्थोए पोताना माटे करेला आरंभथी बनेली वस्तु लेवानी निश्राए विचरखं. तेज सूत्र कहेशे के समस्थित अणगार होय विगेरे ज्यां सुधी निर्वाह करे विगेरे छे. छट्टा उद्देशामां लोकनिश्रामां विचरता साधुए ते लोको साथै पहेलां के पछीनो परिचय थयो होय सूत्रम् ॥२२५॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२२६॥ अथवा परीचय न थयो होय तो पण ममत्व न करवो एटले कमळ पाणीमां उत्पन्न थया छतां निर्लेप रहे छे, तेम साधु ते गृहस्थोथी गोरी विगेरेनो संबंध छतां पण तेनाथी लेपत्राळा थबुं नही. ते सूत्र कहेशे आ मारो छे ते मारापणं मूके तेज साधु छे विगेरे तात्पर्यवालुं सूत्र आगळ कहेशे. आ अध्ययननुं नाम लोक विजय छे. हवे लोक अने विजय एवा वे पदना निक्षेपा करवा जोइए, तेमां सूत्रा आलापक निष्पन्न निक्षेपमां निक्षेपने योग्य जे सूत्रपदो छे मना निक्षेपा करवा, अने सूत्रपदमां वनावेल मूळशब्द ( लोक ) नो अर्थ कषाय नामनो कह्यो छे तेथी लोकने बदले कषायना निक्षेपा कहेवा जोइए ते प्रमाणे नाम निष्पन्न निक्षेपामां बतावेला सामर्थ्यथी आवेला निक्षेपामां जे बताववानुं छे ते नियुक्तिका गाथाने एकठी करीने कहे छे लोगस्स य विजयस्त य गुणस्स मूलस्स तह य ठाणस्स । निख्खेवो कायवो जंमूलागं च संसारो ॥ १६४ ॥ लोकोनो विजयनो, गुणनो, मूळनो, स्थाननो, ए प्रमाणे पांच शब्दनो निक्षेपो करवो जोइए. अने जे मूळ छे ते संसार छे तेथी तेनो निक्षेपो करत्रो जोइए. ते संसारतुं मूळ कषाय छे. कारण के नरकना जीवो तिर्यचना जीवो तथा मनुष्य अने देवता ए चार गतिरूप संसार वृक्षनुंज स्कंध ( थड) छे, तथा गर्भ निषेक कलल अर्बुद ( वीर्य अने लोहीथी बंधातुं शरीर ) मांसनी पेशी विगेरे तथा जन्म जरा ( बुढापो ) अने मरण आ संसारझाडनी शाखा ( डाळीओ ) छे, अने द्रारिद्र विगेरे अनेक दुःखोथी उत्पन्न थयेला सूत्रम् ॥२२६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ पांदडांनो समूह छे. वळी वहालांनो वियोग, अपियनो संबंध, पैसानो नाश, अनेक व्याधि विगेरे रूप सेंकडो फुलोनो समुह छे, आचा० तथा शरीर अने मन संबंधी अत्यन्त पीडाजनक दुःखनो समूहरूप-फळ छे. आ वधु संसाररूप-झाडर्नु वर्णन कर्यु; ते संसार-झाडर्नु । मूळ कषायो छे. कारणके, कष एटले संसार. अने आय एटले लाभ.. जेनाथी संसारनो लाभ थाय छे, ते कषाय छे. आ प्रमाणे सूत्रम् ॥२२७॥ त ज्यां ज्यां नामनिष्पन्न निक्षेपामां तथा मूत्र आलापक निक्षेपामां जे जे पदनो संभव थशे (जरुर पडशे) त्या त्यां ते ते पदो नियुक्ति-| ॥२२७॥ P कार साचा मित्र बनीने विवेकथी कहेशे. लोगोत्ति य विजअत्ति य अज्झयणे लक्खणं तु निष्फण्णं । गुणमूलं ठाणंतिय, सत्तालावे य निप्फपणं १६५ लोकविजय, अध्ययन, लक्षण, निष्पन्न, गुण, मूळ, स्थान, तथा सूत्रालापकमां निष्पन्न विगेरे टुंकमा जे का; तेनुं विवेचन करे | • छे उद्देश प्रमाणे निर्देशनो न्यायछे, ते प्रमाणे लोक, अने विजयनो निक्षेपो कहे छे. लोगस्स य निक्खेवो अट्टविहो छविहो उ विजयस्त । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥१६६॥ लोकनो निक्षेपो आठ प्रकारे तथा विजयनो छ प्रकारे छे. भावमां कपाय लोकनो अधिकार छे, अने तेनो विजय करवानो छे ते कहे छे. जे देखाय ते लोक सूत्र प्रमाणे लुक धातुनो लोक शब्द थयो छे. लोकनुं वर्णन. धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायथी व्यप्त थयेलुं तमाम द्रव्यना आधारभूत, वैशाखस्थान एटले, कमरनी बे बाजुए बन्ने हाथ दइने पग पहोळा करी उभा रहेला पुरुषनी माफक जे आकाश, खंड रोकायो छे, ते लेवो; अथवा धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल ए है. बरकरार ॐॐॐकान Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * *** * पांच अस्तिकाय. (प्रदेशनो समूह) छे, ते लेवो. ते लोकनो आठ प्रकारे निक्षेपो छे. नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव, भाव, आचा०४ पर्यव. एम आठ भेद छे, अने विजय, अभिभव पराभव, पराजय एम पर्यायो छे, तेनो निक्षेपो छ प्रकारे छे. अहिंया लोकना आठ ४ सूत्रम् प्रकारना निक्षेपा छतां भाव निक्षेपामां भाव लोकनो अधिकार छे. ते छ प्रकारनो औदायिक भाव विगेरे छे. ते औदायिक भाववाळा ॥२२८॥ कपाय लोकवडे अधिकारछे; अने ते संसारर्नु मूळ छे. शिष्यनो प्रश्न-आ वधुं शा माटे का ? उत्तर-तेनो एटले औदयिक भाव कपाय लोकनो पराजय करवो. (क्रोध विगेरे थाय तो तेने दावी देवा) लोकना निक्षेपा 6 पछी विजयना छ प्रकारे निक्षेपा छे ते कहे छेलोगो भणिओ दवं खित्तं कालो अ भावविजओ अ । भव लोग भावविजओ पगयं जह वज्झई लोगो॥ लोक द्रव्य क्षेत्र, काळ, अने भाव, विगेरेनुं वर्णन करे छे.. चतुर्विंशति स्तव-(चोवीस भगवाननु स्तवन जेनुं बीजुं नाम लोगस्स) छे, ते बीजो आवश्यक छे. तेनुं आवश्यक सूत्रनी नियुक्तिमा विस्तारथी वर्णन करेलुं छे. शिष्यनी शंका-आ वाचानी कइ जातनी युक्ति छे ? के लोकोनुं त्यां वर्णन करेलुं छे. अने अहीं तेनो शुं संबंध छे ? उत्तर-अहीआं अपूर्वकरण (आठमुं गुणस्थान) थी अनुक्रमे चढी क्षपकश्रेणि (केवणज्ञान पामवानुं ध्यान जेमां मोहनो सर्वथा * * * Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- २२९॥ नाश थाय छे.) ए चढनारा पुरुष जेम अग्नि लाकडांने बाळे तेम पोते कर्मरूपी लाकडांने ध्यानरूपी अनिवडे बाळी मुक्याथी। आवरणरूप कर्म नाश थतां निर्मळ (केवळ) ज्ञान प्राप्त थतां देवताओनु आसन कंपतां तेओना आववाथी केवळ ज्ञानी पूज्य पुरुष तरीके पूजाय छे. अने तेज पुरुष ज्ञान वडे सर्व जीवोनुं हीत थवा उपदेश आपे ते तीर्थ छे. तेने करवाथी तीर्थकर नामकर्म उदयमा आवे; 6 अने तेमने सामान्य लोकथी विशेष एवा चोत्रीस अतिशयो प्राप्त थया एवा अंतिम तीर्थंकर वर्धमानस्वामीए (लगभग पचीस्सो र वर्ष उपर) त्यागवा योग्य अने गृहण करवा योग्य पदार्थनो खुलासो करवा देव अने मनुष्यनी सभामां आचारांगसूत्रनो विषय 3 कह्यो. अने ते सांभळी तेमना महान् बुद्धिवाला गणधरो. जेओ अचिंत्य शक्तिना प्रभाववाळा हता. तेवा गौतम इंद्रभूति विगेरेए ते ४ प्रवचन (महान् उपदेशना वाक्यनो समूह) ने सर्वे जीवोना उपकारमाटे तेनी सूत्र रचना करी तेनु नाम आचारांग तरीके प्रसिद्ध थयु. अने आवश्यकनी अंदर रहेलुं चतुर्विशति स्तवनी नियुक्ति तो त्यारपछी हमणांना काळमां थयेला भद्रबाहुस्वामीए कयु छे तेथी ते अयुक्त छे कारण के पूर्व काळमां बनेलं आचारांगनुं व्याख्यान करतां पाछळथी थएल चतुर्विशति स्तवनो अधिकार जोवानुं ४ अथवा कहेवार्नु क्यांथी आवे! आबु कोइ कोमळ बुद्धिवाळा शिष्यने शंकानुं स्थान थाय तेनुं आचार्य समाधान करे छे के आमां a कंइ दोष नथी कारण के आ नियुक्तिनो विषय छे. अने भद्रबाहुस्वामीए प्रथम आवश्यकनी नियुक्ति करी, त्यारपछी आचारांगनी | नियुक्ति करी तेथी तेम थाय. तेमन का छे मूत्र . . " आवस्मयस्स दसकालियस्य तह उत्तरज्झमायारे" 4-4-94GRESEARSE (15ऊवार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२३०॥ आवश्यक - दश वैकालिक - उत्तराध्ययन तथा आचारांगनी नियुक्ति छे विगैरे जाणवुं - विजयना निक्षेपा नामस्थापना छोडीने द्रव्यमां ज्ञ शरीर विगेरे सिवाय व्यतिरिक्तमां द्रव्यवडे द्रव्यथी अथवा द्रव्यमां विजय ते छे, के कडवो तीखो कसाएलो विगेरे औषधथी सळेखम विगेरे रोगनो विजय थाय, अथवा राजा के महनो विजय थाय ते द्रव्य विजय छे. क्षेत्र विजय ते छ खंडने भरत विगेरे चक्रवर्त्तिओ जीते छे. अथवा जे क्षेत्रमां विजय थाय ते क्षेत्र विजय छे काळवडे जे विजय थाय छे, ते जेमके भरते साठ हजार वर्षे आखो भरतखंड जीत्यो ते काळ विजय छे कारण के तेमां काळनुं प्रधानपशुं छे. अथवा भृतक ( भरवाना ) काममां एणे मास जीत्यो अथवा जे काळमां विजय थयो ते पण काळ विजय छे— भाव विजय ते औदयिक विगेरे एक भावनुं बीजा भावमां बदलाववा वडे एटले औपशमिक विगेरेथी थता विजयनुं स्वरूप. बतावीने चालु वातमां जे उपयोगी छे ते कहे छे. अहीं भाव लोक मूळसूत्रमां लीवेल छे तेथी भाव लोकज कह्यो छे (छंदमां मात्रा वधवाथी भावने बदले भव लीधो छे) ( ते प्रमाणे कां छे. निर्युक्ति गाथा १६६ ना छेल्ला वे पदसां कहां छे के भावमां कषाय लोकनो अधिकार छे विगेरे जाणं) ते औदयिकभाव कषाय लोकनो औपशमिक विगेरे भाव लोक वडे विजय करवो ( कषायो मोहनीय कर्मना उदयथी छे, तेने शांत करवा - क्षय करवा ते कहे छे.) चालु विषयमा तेज जाणवानुं छे टीकाकार तेज कहे छे. “आठ प्रकारनो लोक अने छ प्रकार विजय ए वन्नेनुं स्वरूप पूर्वे कं. ते बन्नेमां भाव लोक अने भाव विजयथीज अहीआं प्रयोजन छे." आठ प्रकारना कर्म वढे लोक सूत्रम् ॥२३०॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् (जीवोनो समूह) बंधाय छे. अने धर्म करवाथी मकाय छे. ते पण आ अध्ययनमा बताव्यु छे. ते भाव लोक विजय वडेज शुं फळ । IPछे ते वतावे छे. आचा० विजिओ कसायलोगो सेयं खु तओ नयत्ति होइ । कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं ॥ १६८ ॥ ॥२३॥ जेणे कपाय लोकनो विजय कर्यो, ते संसारथी जल्दी मुकाय छे. तेथी कपायथी दूर रहे, तेज कल्याणकारी छे. (खु अव्यय 18/ ॥२३१॥ "ज"ना अर्थमांज छे.) प्रश्न-कषाय लोकथीज दूर रह्यो. तेज संसारथी मूकाय छे के बीजा कोइ पापना हेतुओ छे. के जे दूर करवाथी मोक्ष मळे ? उत्तर-काम एटले संसारी विषयनी जे खोटी बुद्धि छे ते पण निवारण करवाथीज मोक्ष मळे छे ? नाम निष्पन्न निक्षेपो पुरो थयो. हवे सूत्र आलापक निक्षेपाने कहे छे तेने माटे सूत्र जोइए ते मूत्र निर्दोष उच्चार जोइए ते आ छे मूळ मूत्र “जे गुणे से मुलहाणे जे मूलठ्ठाणे से गुणे” 8. जे गुण छे ते मूळ स्थान छे अने जे मूळ स्थान छे ते गुण छे. एना निक्षेप नियुक्ति अनुगम बढे दरेक पदे निक्षेपो कराय छे. तेमां गुणनो पंदर भेदे निक्षेपो छे. ते कहे छे. . दवे खित्ते काले फल पजव गणण करण अभासे । गुणअगुणे अगुणगुणे भव सील गुणे य भावगुणे ॥१६९॥2 -RESS-IS-SE-CA-NCCCCESS -OS Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् २३२॥ नाम गुण, स्थापना गुण, द्रव्य गुण, क्षेत्र गुण काळ गुण फळ गुण, पर्यव गुण, गणना गुण, करण गुण, अभ्यास गुण, आचा० गुण-आण, आण गुण, भव गुण, शोल गुण, भाव गुण एम पंदर भेद थया ते टुंकाणमां कडं. हवे सूत्र अनुगम वडे सूत्र उच्चा- हैरतां निक्षेप नियुक्तिना अनुगम वडे तेना अवयवनो निक्षेपो करतां उपोद्घात नियुक्तिनो अवसर छे-ते उद्देशा विगेरेना द्वारनी चे ॥२३२॥ गाथा बडे जाणवा. हवे सूत्रने स्पर्श करनारा नियुक्तिनो अवसर छे, ते नाम स्थापना सुगमने छोडीने द्रव्यादिकने कहे छे. दवगुणो दवं चिय गुणाण जे तंमि संभवो होइ । सच्चित्ते अच्चित्ते, मोसंमि य होइ दव्वंमि ॥ १७ ॥ द्रव्यगुण ते द्रव्य पोतेज छे. प्रश्न-शा माटे ? उत्तर-गुणोनो गुणपदार्थमां तेजरूपे संभव थाय छे. शंका-द्रव्य अने गुणमां लक्षण अने विधानना भेदथी भेद छे. तेज कहे छे. द्रव्य लक्षण गुणपर्यायवाळु द्रव्य छे. विधान पण #धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल विगेरे छे. द्रव्यनी व्याख्या कही; अने गुणनी व्याख्या कहे छे. द्रव्यने आश्रयी साथे रहेनारा 2 गुणो छे, अने तेनुं विधान ज्ञान, इच्छा, द्वेष, रुप, रस, गंध, अने स्पर्श विगेरे छे, ते पोतानामा रहेला भेदे करीने जुदा छे. 8 आचार्यनुसमाधान-ए दोष नथी; कारणके, द्रव्यो सचित्त, अचित्त अने मिश्र भेदथी जुदां छे, तेमां गुण छे ते, तेजस्वरुपे रह्यो छे, तेमां हो अचित्त द्रव्य वे प्रकारे छे. अरुपी अने रुपी तेमां अरुपी द्रव्यमां धर्म, अधर्म, अने आकाश. एम त्रण भेदे करीने जुदा छे. लक्षणो 2 अनुक्रमे गति स्थिति अने अवगाह आपवानुं छे अने एनो गुण पण अमूर्त छे अने अगुरुलघु पर्याय-लक्षणवाल छे तेमां त्रणेनुं 8 अमूर्तपणुंछे ते पोताना रुपभेद वडे व्यवस्थावालं नथी. ( अमूर्तपणामां भेद नथी) तेम अरुलधु पर्याय पण छे ते तेना पर्याय R-4-%A-REACHES RSS RSS-ONS Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२३३॥ पणाथीज छे जेमके माटीनो पींड ( गोळो स्थास कोश कुथूल पर्यायो ( माटीनो घडो बनावतां चाक उपर जुदा जुदा आकारो बने छे ते) रुपवाली माटी छे. एटले माटीथी आकारो जुदा नथी, तेज प्रमाणे रुपी द्रव्यपण स्कंध देश प्रदेश परमाणु भेदोवालुं छे | तेना गुणो रुप विगेरे छे ते अभेदपणे रहेलाछे अर्थात् एमां भेदवडे प्राप्ति थती नथी जेमरूप पदार्थथी जुदुं पढे तेवो संभव नथी. जेम पोतानो आत्मा पोताना ज्ञानगुणथी जुदो पडे ते अशक्य छे तेम वीजाओमां पण समजवु. तेज प्रमाणे सचित्त एवं जीवद्रव्य उपयोग लक्षणवाळं छे एटले उपयोग राखे. तोज जीवने वस्तुनुं के पोतानुं भान रहे छे ते आपणा आत्माथी जुदा ज्ञान विगेरे गुण नथी. कोइ जुदा माने तो जीवने अचेतनापणानो प्रसंग आवे. वादीनी शंका ते प्रमाणे मानतां तो तेना संबंधथी जीवने अजीव पशुं थशे. ? आचार्यनो उत्तर - तमारुं वचन गुरुनी सेवा कर्या विनानुं छे, कारण के जेने पोतानामां शक्ति नथी तेने वीजानी करेली केवी रीते थाय ? दाखला तरीके सेंकडो दीवानो संबंध थाय तो पण आंधळो रुप जोवाने शक्तिवान न थाय. एज प्रमाणे मिश्र द्रव्यमां पण गुण साथै एकपणानी योजना पोतानी बुद्धिए करी लेवी. आ प्रमाणे द्रव्य अने गुण तेने एकान्तथी एक पणे स्वीकारे छते शिष्य कहे छे. शुं वन्ने ने वीलकुल भेद नथी ? उत्तर - तेवो एकांत अभेद नथी, कारणके जो सर्वथा अभेद मानीए तो एकज इंद्रिय वडे बीजा गुणोतुं पण उपलब्धि (प्राप्ति) थइ जाय, अने वीजी इंद्रिओ नकामी थाय. जेमके केरीनुं रुप जोवामां चक्षु काम लागे' अने तेना साथे एकपणुं मानीए तो गुण सूत्रम् ॥२३३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२३४॥ वाळं द्रव्य एकपणे होवाथी आंखथीज रस पण खाटो-मीठो परखावो जोइए, कारण के रूप देखाय तेम रस पण जणावो जोइए, एटले रूप अने रस साथै देखाय. तो सर्वथा अभेदपशुं छे, पण तेम तथी. रस पारखवामां जीमनुंज काम छे माटे कंइ अंशे घट अने वस्त्र जेम जुदा छे तेम कइ अंशे गुण आत्माधी जुदा छे. आ प्रमाणे भेद अने अभेद एम वे बताववाथी शिष्य गमराइने आचार्यने पूछे छे के बने रीते मानवामां दोप आवे छे. तो केम मानीए आचार्य कहे छे -- एटला माडेज दरेकमां कं अंशे भेद अने कंइ अंशे अभेद मानवुं सारं छे एटले अभेद पक्षमां द्रव्य पोतेज गुण छे. अने भेद पक्षमां भाव गुण जुदो छे. तेज प्रमाणे गुण अने गुणी पर्याय अने पर्यायी सामान्यने विशेष अवयव अने अवयवीनो भेद अने अभेदनी व्यवस्था बताववा वटेज आत्मभावनो सद्भाव थाय छे, कहाँ छे के दव्वं पज्जवविजयं दव विउत्ता य पजवा णत्थि । उप्पायट्टिइभंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १ ॥ द्रव्य ते पर्यायथी जुदुं छे. अने द्रव्यथी जुदा पर्यायो छे एवं क्योंय नथी. पण उत्पाद, स्थिति अने नाश एवा पर्यायोवाळं द्रव्यलक्षणजाण यास्तव स्यात्पदलांछिता इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ २ ॥ हे भगवंत ! तमारा कला नया स्यात् पदे करीने शोभे छे. जेम लोह धातु रसे करीने व्याप्त थयेली ( सोनुं बनेली ) इच्छित फळने आपनारी छे. तेथी उत्तम पुरुषो जे हितना वांच्छको छे तेओ नमस्कार करीने आपने आशरे रहेला छे. स्पादनाद मतने सूत्रम् ॥२३४॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम् ।।२३५॥ | स्वीकारे छे. आबु द्रव्य गुण४ स्यादवाद स्वरुपने बतावनार आपणां आचार्योए घणु लख्युं छे माटे वधारे कहेता नथी. तेज नियुक्तिकार | कहे छे के बधा द्रव्यमा प्रधान एवा जीव द्रव्यमा गुण भेद वडे रहेल छे ते कहे छे. संकुचियवियसियत्तं, एसो जीवस्स होइ जीवगुणी । पूरेइ हंदि लोग, बहुप्पएसेत्तणगुणेणं ॥१७१॥ ॥२३५॥ जीव छे ते संयोगि वीर्यवाळो छतां, द्रव्य पणे प्रदेश संहार विसर्ग वडे आधारना वश पणाथी दीवानी माफक संकोच अने विकाश पामे छे. जीवनो आज गुण आत्मानी साथे आत्मभूत थइ रहेल छे, आम भेद विना पण छट्ठी विभक्तिनो संबंध थाय छे. जेम के राहुनुं माथु. शिला पुत्रक ( दस्तो. या वाटा) मुं शरीर विगेरे छे. तेज भवमा सात समुद्घात (आत्मानुं वधq घटवू ते) Pना परवशपणाथी आत्मा संकोच विकोच पामे छे, तेज कहे छे. बरोबर रीते चारे वाजु जोरथो हणवु. अने आत्म प्रदेशोने । 8 आमतेम फेंक. ए समुद्घात छे, ए सात समुद्घातनां नाम बतावे छे, कषाय, वेदना; मारण अंतिक, वैक्रिय, तैजस, आहारक, अने केवलि समुद्घात छे. तेमां प्रथमनो कषाय. समुद्घात. अनतानुबंधी क्रोध विगेरेथी, जेर्नु चित्त (ज्ञान) नाश पाम्यु छे, तेओ पोताना आत्माना प्रदेशने आम तेम फेंके छे. तथा अतिशय वेदना थतां नाडीओ तूटतां वेदना समुद्घात थाय अने मरवानो अणीमां जीव आम तेम उत्पन्न थवाना प्रदेशमा लोकना अंत सुधी आत्म प्रदेशोने षोते वारंवार फेंके छे. अने संकोची ले छे. वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय लब्धिवाळो, नवु वैक्रिय शरीर बनाववा माटे , आत्म प्रदेशोने बहार काढे छे, तेज प्रमाणे तेजस टू शरीर बनाववा तथा तेजोलेश्यानी लब्धिवालो तपस्वी तेजोलेश्या फेंकवा वखते तेजस समुद्घात करे छे तथा आहारक शरीर BASAHॐॐॐॐॐ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२३६॥ बनाववा चौद पूर्व धारी आहारक लब्धिवाला साधु कोइपण वखत संदेह दूर करवा तीर्थकर पासे पोतानुं शरीर मोकलवा आहारक शरीर बनाववा बहारना प्रदेशोने लेवा आत्माना- प्रदेशांने बहार फेंके छे, अने केवलि समुद्घात समस्त लोकव्यापी छे एटले तेनी अंदर बधा समुद्घात छे, एवं निर्युक्तिकार पोतेज कहे छे. चौद राज लोक प्रमाण आकाश खंड छे तेमा व्यापे छे कारण बहु प्रदेशनुं गुण पणुं छे. आ केवलि समुद्घात केवळ ज्ञान थया पछी केवळ ज्ञानी प्रभु जुए छे के मारुं आयुष्य थोडुं छे, अने कर्म वधारे भोगववानां छे तेथी दंड कपाट मंथन आंतरा पूरवा, ते प्रमाणे संकोचमां पण जाणवुं एटले पहेले समये उपर नीचे दंड समानवीजे समये वन्ने छेडे कपाट समान त्रीजे समये मथनी ( रवैया ) ना आकारे तथा चोथे समये आंतरा पूरे छे; ते प्रमाणे पाहुँ चार समयमां मूल शरीर करी नाखे छे. आ द्रव्य गुण छे हवे क्षेत्र गुण विगेरे कहे छे. देवकुरु सुसम सुसमा, सिद्धी निब्भय दुगादिया चेव । कल भोअणूज्जु वंके जीवमजीवे य भावंमि ॥१७२॥ जाणवा, क्षेत्र ते देव कुरु विगेरे जुगलीआना क्षेत्र छे. त्यां सदाए कल्प वृक्ष रहे छे, काळ गुणमां सुखम सुखम विगेरे नामना आरा . जेमां काळे करीने वस्तुमां फेरफार थाय छे. फळ गुणमां सिद्धि गति छे. पर्यव गुणमां निर्भजना ( निश्चित भेद ) छे. गणना गुणमां बेण चार विगेरे नुं गणवुं छे. करण गुणमां कळार्कौशल्य छे, अभ्यास गुणमां भोजन विगेरे छे. गुण अगुणमां सरळता छे, अगुण गुणमां वक्रता छे, भवगुण अने शीलगुणनो भावगुणनो विषय लेवाथी जीवनुं ग्रहण लेवाथी तेमां समावेश थइ गयो छे, तेथी गाथामा जुदुं बतान्युं नथी. भावगुण ते जीवनो नारक विगेरे भव जाणवो, शीलगुणमां जीवनो क्षमा विगेरे गुण युक्त आत्मा सूत्रम् ॥२३६॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेवो, अने भावगुण ते जीव अने अजीवनो जाणवो, आ प्रमाणे थोडामां बतावी तेनी विशेष व्याख्या करे छे. आचा० क्षेत्र गुण. सूत्रम् देवकुरु, उत्तरकुरु, हरी वर्ष, रस्यक, हेमवत, हैरण्यवत आ छ युगलिकनां क्षेत्र छे. ते सीवाय छपन्न अंतर द्वीप छे. तेमां पण ॥२३७॥ युगलिक छे, तेओने खेती विगेरे कृत्य करवा वीना जे जोइए ते कल्प वृक्षमाथी मली शके छे, तेथी ते अकर्म भूमि कहेवाय छे. ४ ॥२३७॥ आ क्षेत्रने आश्रयी गुण जाणवो, वली त्यां जन्मेला मनुष्यो देव कुमार जेवा सुंदर रुपवाला सदा जुवानी भोगवनारा पुरे आयुष्ये मरनारा अनुकूळ सुंदर पांचे इन्द्रिय विषय सुख भोगवनारा स्वभावोज सरळ कोमळ स्वभाववाळा अने भद्रक भावना गुणथी देवर लोकमां जनारा होय छे ( साथे स्त्री पुरुषतुं जोडुं जन्मे अने ते नरमादा तरीके रहे तेथी ते युगलिक कहेवाय) काळ गुण. भरत औरवत आ चे क्षेत्रमा प्रथमना त्रण आरामां एकान्त सुखवाला वखतमा युगलिकोनी स्थिति सदा सुंदर रुपवाली अने यौवनवाली रहे ले. फळ गुण. दफळ तेज गुण, ते फळ गुण कहेवाय; अने ते फळ क्रियाने आश्रयी छे, ते क्रिया सम्यकदर्शन ज्ञानचारित्र विना आ लोक अथवा है परलोकने आश्रयी जे करवामां आवे; ते एकांत अनंत सुखने आपनारी नहोवाथी तेनो फळ गुण मळ्या छतां अगुण जेवो छे, पण है। RAGACE+ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् પરતા सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र साथे मळी तेने अनुसार जे क्रिया थाय; ते एकांत अनंत वाधारहित संपूर्ण सुख आफ्नार सिद्धि (मोक्ष) फळ आचा० 18 आपनार छे, तेज फळगुण मेळवाय छे, तेथी एम का केः-सम्यकदर्शन ज्ञानचारित्रवाळी क्रिया मोक्षफळ आपनारी छे, अने ते शिवायनी क्रिया संसारीक सुखफळना आभास मात्र ( वनावटी) छे. माटे ते निष्फळ छे. एटला माटे मोक्षार्थिए फळगुण तेनेज | ॥२३८॥ कहेवो के जेमां सम्यकदर्शन ज्ञानचारित्र विगेरेनी प्राप्ति थाय. पर्यायगुण पर्याय तेज गुण, ते पर्यायगण छे, एटले गुण अने पर्याय, ए बनेनो नयवादना अंतरपणाथी अभेद स्वीकार्यो छे, अने ते निर्भजनारूप छे. निश्चितभजना एटले, निश्चितभाग जाणवो. जेमके, स्कंधद्रव्य छे, तेने देशपदेश बडे भेद पाडतां परमाणु सुधी भेदो पढे छे. ( पुद्गल द्रव्य ज्यारे आखं होय; त्यारे स्कंध कहेवाय; अने 'तेनो एक भाग लइए तो देश, अने सौथी बारीक भाग लइए: तो प्रदेश कहेवाय अने ते प्रदेश छुटा पडे तो परमाणुं छे.) परमाणु पण एक गुणो काळो वे गुणा काळा साथे मेळवतां अनंता भेदवाळो थाय छे. आ वधा पर्यायगण छे. गणना गुण बेत्रण चार विगेरे, घणी मोटी राशि होय; ते गणना गण वडे निश्चय कराय छे के, आटलुं एनु प्रमाण छे. करण गुण. कळाकौशल्य ते, पाणी'विगेरेमा इन्द्रियोने कुशळता माटे, ( कसरत माटे ) नहावा, तरवा विगेरेनी क्रिया कराय छे. ASS54-- Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रा ॥२३९॥ 2 अभ्यास गुण.-भोजन विगेरे संबंधी छे. जेमके, ते दिवसे जन्मेलो बाळक पण ते पूर्वभवना अभ्यासथी मातार्नु स्तन विगेरे : आचा० पोताना मोढामां ले छे, अने रोतो बंधथाय छे, अथवा अभ्यासना वशथी अंधारं होय; तोपण कोळीओ मोढामांज मुके छे, तथा आकुळ चित्तवाळो पण दुःरूवाळी जग्यायेज शरीरने पंपाळे छे विगेरे हे| गुणगुण-गुणज कोइने अगुणपणे परिणमे छे. जेमके, कोइ माणसनो सरळगुण. कपटीने अवगुण करनारो थाय छे. " शाठ्यं हीपति गण्यते व्रतरूचौ, दम्भःशुचौ कै तवं। शूरेनिघृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियाभाषिणि॥3 5 तेजस्विन्यवलित्पता मुखरता वक्त शक्तिः स्थिर। तत्को नाम गुणो भवेत् सविदुषां, योदुर्जनैर्नाङ्कितः?॥१॥ लज्जावाळी बुद्धि होय; ते शठपणामां माने. व्रतनी रुची दंभपणे माने पवित्रताने कैतव ( मश्करीपणे ) माने; शूरने निर्दयता, है शरळताने घेलापणं, मीठु बोलतां दीनता माने; तेजस्वीने, अंहकारी, सारं बोलनारने, मुखरता ( वाचाळपणुं ) माने; स्थिरमां बो-18 लवाने अशक्त माने. आथी कोइ सारो कवि कहे छे केः-पंडितोमा एवो क्यो गुण होय के, दुर्जनो तेने कलंकित न बनाये ? आनो अर्थ ए छे के:-हितने माटे कहेलं वचन पण निर्भाग्यने अगुणपणे परिणमे छे. अगुण गुण.-कोइने अगुण-वचन पणे गुणकारीपण थाय छे. जेमके, वक्र विषय संबंधी छे. ते जेम, गोधो गळीयो होय; अने * तेने किण स्कंध ( कांध ) थयो न होय; तो गो गणयां मुखेथी बेसे छे. GERIRLESARISSASSURESARIRICARD FASERA Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२४॥ % गुणानामेव दौर्जन्याधुरि धुर्यों नियुज्यते । असंजातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः ॥१॥ आचा०15 जेमके-दोर्जन्य ( कुटीलताथी) गुणोनुज धुरिमां धुर्थपणुं योजाय छे. जेमके, असंजात एटले, जेने किणस्कंध नथयो होय; • ॥२४॥ 18/ तेवो गलीयो बळद सुखेथी जीवे छे. भवगुण-भवगुण एटले, नारकादि भववाळो जीव ते ते स्थानमा उत्पन्न थाय; त्यां तेने तेवो गुण मळे ते जीवने आश्रयी छे. जेमके नारकिमां जीव उत्पन्न थाय; तेने अतिशय वेदना, तथा दुःखेथी पोडा सहन थाय; तेवी ते भोगवे; तथा तेना शरीरने तल तल जेवडा टुकडा करीनांखे, तोपण जोडाइ जाय; तथा अवधिज्ञानवाळा होय छे. आ नारकभवनो गुण कहेवाय ए प्रमाणे तिर्यंचमां उत्पन्न थयेला तेना भवगुण प्रमाणे सत् असतना विवेकरहित छतां आकाशगमननी लब्धिवाळा होय छे, तथा गाय विगेरेने घास विगेरे खाणुं शुभ अनुभव वडे मळे छे, तथा मनुष्यभवमां मोक्षमाप्ति वधां कोनो क्षयरुप छे, ते मळे छे, तथा देवोने सर्व शुभ अनुभव छे. आ भवनो गुण छे. शीलगुण.-बीजाए आक्रोशथी कहेवा छतां पोते स्वभावथी शांत रहीक्रोध न करे; अथवा शब्दादिक विषय सारा-माठा प्राप्त | थतां; पोते तत्वनो जाण होवाथी मध्यस्थपणुं राखे ते शीलगुण छे. भावगुण-भावगुण ते ऐदायिक विगेरे छे, तेनो गुण ते, भावगुण छे. ते जीव अने अजीव आश्रयी छे. ते जीव विषय अॅदयिक, विगेरे छ प्रकारे छे. तेना ये भेद छे, एटले तीर्थकर, तथा आहारक शरीर विगेरे संबंधी प्रशस्त छे, अने शब्द विगेरेमां विपयनी %** *45 SARRC COM Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सुत्रम् वांच्छना, तथा हास्य रति अरति, विगेरे निंदवा योग्य छे, तथा औपशमिक ते, उपशम श्रेणीए चढेला आयुष्यना क्षयथी तेज समये आचा० अनुत्तर विमानने प्राप्त करे छे, तथा सारं कर्म उदयमा न आववारूप छे, ते औपशमिक छे. क्षायिकभाव गुण चार प्रकारे छे. (१) IN सात मोहनीयकर्मनी प्रकृति क्षय थया पछी फरीथी मिथ्यात्वमा जाय (२) क्षीण मोहनीय कर्मवाला जीवने अवश्ये बाकीनां त्रण ॥२४॥ ६ घातीकर्म दूर थशे (३) क्षीण घातीकर्मने आवरण रहीत ज्ञानदर्शन प्रगट थशे (४) वर्धा घातिअघाती कर्म दूर थतां फरीथी जन्म लेवो न पडे; तथा अत्यंत एकान्त बाधा रहीत परमानंदवाला सुखनी प्राप्ति छे, ते छे, क्षय उपशमथी थयेल क्षायोपशमिक दर्शन विगेरेनी प्राप्ति छे अने परिणामिक ते भव्य अभव्य, विगेरे छे, तथा संनिपातिक ते औदयिक विगेरे पांच भाव एक काळे साथे मळवू ते आ प्रमाणे छे. जेमके मनुष्य गतिना उदयथी औदयिक भाव छे त्यां पांच इंद्रियोनी प्राप्ति थवाथी ते समये ज्ञान संबंधी क्षय उपशमथी क्षायोपशमिक छे अने दर्शन मोहनियकर्मनी सात प्रकृतिना क्षयथी क्षायिक छे अने चारित्रमोहनीयना उपशम भावमां 13 औपशमिक छे अने भव्यपणाथी परिणामिकभाव छे एम जीवनो भावगुण बतान्यो (आनुं वधारे वर्णन चोथा कर्मथमा छे त्यांथी जोवु.) हवे अजीव भावगुण कहे छे ते औदयिक अने पारिणामिकनो संभव छे. पण बीजानो नथी औदयिक एटले उदयमां थयेल अने * अजीवना आश्रयी छे ते विवक्षाथी अजीवलीधो जेमके केटलीक प्रकृतिओ पुद्गल विपाकीज होय छे. प्रश्न-तेकइ छे ? उत्तर-औदारिक विगेरे पांच शरीर, छ संस्थान त्रण अंगोपांग छ संहनन, पांच वर्ण, वे गंध, पांचरस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु नाम, उपघातनाम, परायातनाम, उद्योत आतपनाम, निर्माण, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ आ वधी प्रकृतिओ पुद्गल विपाकिनी छे, कारणके, जीवनुं संबंधपणुं छतां पुद्गल विपाकिपणे तेओ छे. परिणामिकभाव, अजीवगुण वे प्रकारे छे. अनादि परिणामिक ते धर्म-अधर्म है OCTOCSTERCACHAR ॥२४॥ 7555525-3-5-5 2544 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 सूत्रम ॥२४२ P| आकाशनो अनुक्रमे गति, स्थिति, अने अवगाह लक्षणरूप छे; सादि, (आदीवाळो) परिणामिक देखावभाव ते, आकाशमां वादळानु । आचा०/ इंद्रधनुष्य विगेरेनो देखाव छे, तथा परमाणुओर्नु रूप विगेरेमां वीजु गुणपणुं वदलाय छे. हवे आ प्रमाणे गुण कहीने मूळनो निक्षेपो कहे छे. ॥२४२॥ मूले छक्कं दवे ओदइ उवएस जाइमूलं च । खित्ते काले मूलं भाव मूलं भवे तिविहं ॥ १७३ ॥ ( मूळ शब्दनो छ प्रकारे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव एम निक्षेपा छे. नाम स्थापना जाणीता छे. द्रव्यमूळ, द्रव्यमूळमां ज्ञ शरीर, भव्यशरीर, अने ते शिवाय (१) औदयिकमूळ, (२) उपदेशमूळ, (३) आदिभूळ. एम त्रण प्रकारे छे. वृक्षना मूळपणे जे द्रव्य परिणमे ते औदायिकमूळ जाणवू तथा वैद्य रोगोने तेनो रोग दुर करवा जे मूळनो उपदेश करे; ते उपदेशमूळ-पिपरीमूळ विगेरे जाणवां; आदिमूळ वृक्षोनां मूळनी उत्पत्तिमा जे पहेलं कारण छे ते जेमके, स्थावरनाम गोत्र प्रकृतिना संबंधथी तथा मूळ निर्वर्तन उत्तर प्रकृतिना प्रत्ययथी जे मूळ उत्पन्न थाय; तेनो भावार्थ कहे छे, ते मूळनो निर्वाह करनार पुद्ग लोना उदय आवतां कर्मण शरीर छे, ते औदारिक शरीरपणे परिणमतां पहेलं कारण छे... ल क्षेत्रमुळ-जे क्षेत्रमा मुळ उत्पन्न थाय छे, अथवा जे क्षेत्रमा मुळचें वर्णन थाय ते जाणवू. M काळमुळ-क्षेत्रमुळ प्रमाणे एटले जे काळमां उत्पन्न थाय; अथवा वर्णन कराय; ते काळ मुळ छे. भावमुळ त्रण प्रकारे छे. भावमूळ. SAMR55519 5754-HRS Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रम ॥२४३॥ ओदइयं उवदिट्ठा आइ तिगं मूलभाव ओदइअं । आयरिओ उवदिठ्ठा विणयकसायादिओ आई ॥१७॥ आचा० उपदेशक मुळ-भावमुळ औदायिक-भावमुळ, अने आदिमुळ प्रथमर्नु कहे छे. नाम गोत्रना कर्मना उदयथी वनस्पतिकायतुं मुळ- पणुं अनुभव करतो " मुळ जीवज" औदयिकभाव मुल छे, अने उपदेशकमुळमां जैन आगम जाणनारा आचार्य जे उपदेशक छे, ॥२४३० ते जाणवा आदिमुळमां पाणीओ जे कर्म वढे उत्पन्न थाय छे, ते पाणीओर्नु मोक्ष अथवा संसारनुं जे प्रथम भावमुळ छे, तेने उपदेश करे ते जाणवू. जेमके, आ गाथाना चोथा पदमां कडं के:-"विनय कषाय विगेरे आदि छे." मोक्षनु आदि कारण ज्ञानदर्शन-8 चारित्र, तप अने औपचारिक एम पांच प्रकारको विनय छे, तेनाथी मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. विणया णाणं णाणाउ देसणं दंसणाहि चरणं तु । चरणाहिंतो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥१॥ G विनयथी ज्ञान, अने ज्ञानधी दर्शन, (श्रद्धा), श्रद्धाथी चारित्र, चारित्रथी मोक्ष अने मोक्षमा वाधारहित सुख छे. विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥२॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥३॥ विनयन फळ गुरुनी सेवा. तेनाथी श्रुतज्ञान, तेनाथी चारित्र, तेनाथी आश्रव, (पाप) नो अटकाव, तेनाथी संवर, संवरनुं फळ, तप. तेनाथी निर्जरा, तेनाथी क्रियानो अंत तेनाथी योगीपणुं छे. | योगनिरोधाद्भव सन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ४॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२४ ॥ अयोगिपणार्थी भवसंततिनो क्षय तेनाथी मोक्ष छे, माटे ते वधां कल्याणोन मुळ विनय छे. (माटे विनय संपादन करवो.) आचा० विनय मोक्षन कारण छे, तेज प्रमाणे विषय (इन्द्रियोनो स्वाद,) तथा क्रोध, मान विगेरे कपायो संसारर्नु मुळ छे. द्र मुळनु वर्णन कर्यु. हवे स्थानना पंदर प्रकारे निक्षेपा बतावे छे. ॥२४४॥ णामंठवणादविए खित्तद्धा उढ उवरई वसही। संजम पग्गह जोहे अयल गणण संघणाभावे ॥१७५॥ नामस्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, विगेरे छे, ते कहे छे नामस्थापना सुगम छे. द्रव्यमा ज्ञ शरीर विगेरे छोडीने द्रव्यस्थानमां सचित्त अचित्त अने मिश्रद्रव्यर्नु जे स्थान, (आश्रय) छे ते लेQ. क्षेत्रस्थानमा भरत विगेरे छे, अथवा ऊंचे नीचे अथवा तिरछा (त्रांसा) & लोकमां जे क्षेत्र छे ते क्षेत्रस्थान छे अथवा जे, क्षेत्रमा स्थान- व्याख्यान थाय ते लेवु. अद्धा (काळ) तेनुं स्थान के प्रकारे. (१) कायस्थिति, (२) भवस्थिति छे. कायस्थिति, ते पृथ्वी, पाणो, अग्नि, वायुमां असंख्यात, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणीनो काळ छे, तथा वनस्पतिकायनो अन्तकाळ छे. घे इन्द्रिय विगेरे विकलेन्द्रियनीकाय स्थितिसंख्याता हजार वर्षनी छे. पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, तथा मनुष्यनी कायस्थिति सात आठ भव छे. पण ते बधानी भवस्थिति नीचे मुजब छे:पृथ्वीनी बावीस हजार, पाणीनी सात हजार, वायुनी त्रण हजार, वनस्पतिनी दश हजारवर्षनी उत्कृष्टि स्थिति छे. अग्निकायनी * त्रण रात्रीदिवस छे. बे इन्द्रिय शंख विगेरेनी, बार वर्षनी छे, त्रण इन्द्रिय कीडो विगेरेनी स्थिति ओगणपचास दिवसनी छे, चार । इन्द्रिय भमरा विगेरेनी छ मासनी छे पांच इन्द्रिय तिर्यंच, तथा मनुष्यनी त्रण पल्योपमनी छे, देव, तथा नारकीनी स्थिति भवसंबंधी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् | तेत्रीस सागरोपमनी छे. अने एकवार त्यां उत्पन्न थया पछी लागलागट उत्पत्ति नथी; माटे कायस्थिति एकज भवनी गणाय. आदि उपर जे स्थिति बतावी छे, ते कायसंबंधी तथा भवसंबंधी बन्ने प्रकारे उत्कृष्ट जाणवी जघन्यथी तो वधाओनी स्थिति अंतमुहुर्त्तनी है छे, पण नारकी, देवतानी भवस्थिति दश हजार वर्षनी छे. आ बधुं काळने आश्रयी का; अथवा अद्धास्थान ते सपय आवलिकामुहूर्त अहोरात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसरर्पिणी, पुद्गलपरावर्तन, अतीत, 4 ॥२४५॥ अनागत, एम बधा काळरूपे जाणवू. उर्द्धस्थान ते, कायोत्सर्ग विगेरे छे, अने एना उपलक्षणथी निषण्णा (बेस) विगेरे पण जाणवू. उपरतिस्थान ते, विरति छे. तेनुं स्थान एटले,साधुपणु, अथवा श्रावकपणुं जाणवू; पण साधुनी सर्व विरति अने श्रावकनी देश विरति छे. वसतिस्थान एटले, जे स्थानमां गाम अथवा घर विगेरेमां अमुक काल रहेवार्नु थाय; ते वसति छे. संयमस्थान सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहार विशुद्धि तथा सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात, एम पांच प्रकारे संयम छे. ते दरेकनां स्थान असख्यात छे. प्रश्न-असंख्यातनी संख्या केटली छे? । उत्तर-अति इन्द्रियपणानो विषय होवाथी साक्षात् देखाडवाने शक्तिवान् नथी, तेथी सिद्धांतमा आपेली उपमा प्रमाणे कहीए छीए. एक समयमां सूक्ष्म अग्निकायना जीवो असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण उत्पन्न थाय छे तेनाथी असंख्यात गुण अग्निकाय 2 पणे परिणमेला छे तेनाथी पण ते कायस्थिति असंख्येय गुणी छे. तेनाथी पण अनुभाग बंध अध्यवसाय स्थान असंख्येय गुणाछे है ASSISASAGAR Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥२४६॥ ॥२४६॥ आटलां संयमनां स्थान सामान्यथी कह्यां. हवे विशेपथी कहे -- | सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहार विशुद्धि-ए त्रणनी दरेकनां असंख्येय प्रदेश लोकाकाश तुल्य संयम स्थान छे अने सूक्ष्म संप- रायनी अंतरमुहर्तपणानी स्थिति होवाथी अंतमुहर्तना समय बरोबर असंख्येय संयम स्थान छे. यथाख्यात चा,रेत्रनु जघन्य उत्कृष्ट सीवाय एकज संयम स्थान छे, अथवा संयम श्रेणिनी अंदर रहेला संयम स्थानोने लेवां, ते आ क्रमे छे अनंत चारित्र पर्यायथो बनेलं एक संयम स्थान छे. असंख्येय संयम स्थानहुँ बनेलं कंडक छे. ते असंख्यात कंडकथी उत्पन्न थयेल छ स्थानन जोडकुं छे, तेथी असंख्येय स्थानरूप श्रेणि छे. २ प्रग्रह स्थान-प्रकर्पयी जे वचन ले गाय (माननीय थाय) ते प्रग्रह वाक्यालो नायक (नेता) जाणवो. ते लौकिक अने लोकोत्तर एग वे प्रकारे छे तेनुं स्थान ते प्रग्रहस्थान छे. लौकिकमां माननीय वचनवाला राजा युवराज महत्तर (राजानो हित शिक्षक) अमात्य (प्रधान) राजकुमार छे. लोकोत्तरमां पण आचार्थ उपाध्याय भवति (प्रवर्तक) स्थविर गणावच्छेदक छे. योध स्थान-आ पण पांच प्रकारे आली ढ-प्रत्यालीढ-वैशाख मंडल समपाद ए रीते छे अचळ स्थान-आ स्थान चार प्रकारे छे, तेना सादि पर्यव सान विगेरे छे ते बतावे छे. परमाणु विगेरे द्रव्यनो एक प्रदेश विगे-8 रेमा जघन्यथी एक समय सादि सपर्यवसान अवस्थान छे. अने उत्कृष्टथी असंख्येय काळ छे. अने सादि अपर्यवसान स्थान सिद्धोन भविष्यना काळरूप छे. सिद्धोर्नु मोक्षमां जq ते आदि अने त्यांथी कोइपण वखते खसवा, नथी. माटे अनंत छे. अनादि सपर्यवसान स्थान अतीत अद्धा रूपर्नु शैलेशी अवस्थाना अंत समयमां कार्मण अने तैजस शरीर धारनारा जे भव्य जीव SARGIN-SCARSS Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥२४७ ર૪ળા. छे तेने आश्रयी जाणj (तैजस अने कार्मण शरीर भव्य जीव साये अनादि काळथी जोडाएलां छे. अने जीव मोक्षमा जता ते बने जीवथी जुदां पडे छे ते अनादिसांत कहेवाय छे.) अनादि अपर्यवसान ते धर्म अधर्म आकाशना संबंधी छे. (तेमनी स्थिति पूर्वनी जेवीछे, तेवीज हमेशां रहे छे.) गणना स्थान-एक बेथी मांडीने शीर्ष पहेलीका सुधी जे गणत्री छे. ते लेवी. (जैनमा पराध उपरांत संख्या छे ते अनुयोगद्वार सूत्रमा बतावेलो छे, त्यांथी जोवी.) 81 संधान स्थान-ते बे प्रकारे छे. द्रव्यथी अने भावथी छे. द्रव्यथी छिन्न अने अछिन्न एम वे भेदे छे. ते स्वीनी कांचळी विगेरेना : टुकडा करीने सांधवानुं छे. अने अछिन संघानमा पक्षण उत्पद्यमान तंतु विगेरे जोडाण छे (ताणो वाणो कपडामा जोडाय ते.) भाव संधान प्रशस्त अने अप्रशस्त एम बे भेदे छे तेमा प्रशस्त अछिन्न भाव संधान उपशम क्षपक श्रेणिए चढता मनुष्यने अपूर्व संयमस्थान एक सरखांज होय छे. पण वचमां तुटक पडती नथो अथवा श्रेणि सिवाय. प्रवर्धमान कंडकनां लेवां. छिन्न प्रशस्त भावसंधान भावथी औदयिक विगेरे वीजा भावमां जश्ने पाछा शुद्ध परिणामवाला थइने त्यां आवतां थाय छे. ___ अप्रशस्त अछिन्न भाव संधान उपशम श्रेणिएथी पडतां अविशुद्धमान परिणामवाला मनुष्यने अनंतानुबंधि मिथ्यात्वना उदय सुधी जाणवु-अथवा उपशम श्रेणि सीवाय कषायना वशथी बंध अध्यवसाय स्थानोने चढतां चढतां अवगाह मान करनाराने होयछे. __ अप्रशस्त छिन्नभाव संधान ते औदयिक भावथी औपशमिक विगेरे बीजा भावमा जइने पाछा त्यांज औदयिक भावमा आवे ते छे. आ द्वार जोडकुं साथेज कडं एटले संधानस्थान द्रव्य विषयतुं पहेलुं छे, अने पछीर्नु भाव विषयर्नुछे अथवा भावस्थान जे कपा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२४८॥ ॐ- यो स्थान छे, ते अहीं लQ कारणके तेओनेज जीतवापणानो अधिकार छे. आचा०४ पश्न:-तेओर्नु कयुं स्थान छे के जेने आश्रयीने ते थाय छे उत्तर-शब्दादि विपयोने आश्रयीने ते थाय छे ते वतावे छे. ॥२४८ पंचसु कामगुणेसु य सदप्फरिसरसरूवगंधेसुं । जस्स कासाया वहृति मूलहाणं तु संसारे ॥ १७६ ॥ 8 अहीं इच्छा अनंगरूप जे काम छे. तेना गुणोने-श्राश्रयी चित्तनो विकार छे. ते वतावे छे. ते विकारो शब्द, स्पर्श, रस, रूप, दगंध एम पांच छे. ते पांचे व्यस्त अथवा समस्त-विषय संबंधी जे जीवन विषय सुखनी इच्छाथी अपरमार्थने देखनार संसार प्रेमी जीवने राग द्वेपरूप अंधकारथी आंखनुं तेज हठी जवाथी साग-माठा पदार्थ प्राप्त थतां कपायो थाय छे ते मूलनुं संसार झाड थाय छे तेथी शब्दादि विपयथी उत्पन्न थए करायो संसार संबंधी मूळ स्थानज छे-एनो भावार्थ आ छे के राग विगेरेथी डामाडोळ थएल सचिचवालो जीव परमार्थने न जाणवाथी आत्माने तेनी साथे कई संबंध नथी छतां विपयने आत्मारूपे मानीने आंधळाथी पण वधारे आंधळो वनी कामी जीव रमणीय विषयो जोइने आनंद पामे छे तेथी का छेदृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थिते, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति ॥ कुन्देन्दीवरपूर्णचंद्रकलशश्रीमल्लतापल्लवा, नारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमा गात्रेषु यन्मोदते ॥ 6 आंधळो छे ते जगतमां जोवा जेवी वस्तु जोइ शक्तो नथी पण रागथी आंधळो थएलो पोते आत्मा छे ते आत्म भावने छोडीने अनात्म भावने जुए छे जेमके छती वस्तु कुंद (फुल) इन्दीवर (कमळ) पूर्णचंद्र कळस श्रीमत् लतापल्लवो जेवानी गंदकीना ढगला -- -ॐॐ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप प्रिय स्वीना शरीरने उपमाओ आपीने तेमां कामी आनंद माने छे. (साक्षात् उत्तम वस्तुओ छोडीने दुर्गधथी भरेला स्त्रीना गंदा रीरमां आनंद माने छे) अथवा कर्कश शब्दो सांभळीने तेमां द्वेष करे छे तेथी मनोहर अथवा अणगमता शब्द विगेरे विपयो ? तू कपायोनुं मूळस्थान छे. अने ते कषायो संसारर्नु मूळ छे. सूत्रम् १२४९॥ प्रश्न-जो शब्दादि विषयो कपाय छे तो तेनाथी संसार केवी रीते छे ? उत्तर-कारण के कर्म स्थितिनु मूळ कपाय छे अने ॥२१९॥ P कर्म स्थिति संसार- मूळ छे. संसारीने अवश्य कषायो होय छे, ते कहे ठे| जह सबपायवाणं भुमीए पइठियाइं मूलाई । इय कम्मपायवाणं संसारपइठिया मूला ॥ १७७ ॥ जेम सर्व झाडोनां मूळो पृथ्वीमा रहेलां छे तेज प्रमाणे कर्मरूप वृक्षना कषायरूपे मूळो संसारमा रहेलां छे. है शंका-आ अमे केवी रीते मानीए के कर्मनुं मूळ कषाय छे ? उत्तर-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, ए बंधना हेतु | छे. आगममां पण का छे के& “जीवे गं भंते! कतिहिं ठाणेहिं णाणावरणिनं कम्मं बंधइ ? गोयमा, दोहिं ठाणेहि, तं जहा-रागेण || ६व दोसेण व । रागेदुविहे-माया लोभे य, दोसे दुविहे । कोहे य माणे य, एएहिं चउहिं ठाणेहिं वोरिओ वगूहिएहि णाणावरणिनं कम्मं बंधइ ॥ हे भगवंत, जीव केटलां स्थान बडे ज्ञानआवरणीय कर्म बांधे छे. उत्तर-हे गौतम राग अने द्वेष ए वे स्थान बडे बांधे छे अने OSACES ROSLASESH GOSTOSO Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए राग माया ने लोभ एम वे भेदे छे, तथा द्वेप पण क्रोध अने मान, एम चे भेदे छे. ए चार स्थान बड़े वीर्य, उपगूढ, (जोडावा) आचा० थी ज्ञानावरणीय कर्म वांधे छे. ए प्रमाणे आठे कर्मने आश्रयी जाण, अने ते कपायो मोहनीय कर्मनी अंदर रहेला छे. अने आठे भकारना कर्मनु मूळ कारण छे. काम गुणतुं मोहनीयपणुं वतावे छे॥२५०॥ अठविहकम्मरुक्खा सवे ते मोहणिजमूलागा। कामगुणमूलगं वा तम्मूलागं च संसारो ॥ १७८ ॥ पूर्वे का के कर्म पादप विगेरे तेनी व्याख्या करे छे. तेमां कर्मपादप क्या कारणवाला छे. तेनों उत्तर-आठ प्रकारना कर्मरूप वृक्षो छे. तेमन मुळ मोहनीय कर्म छे. एटले एकला कपायो न लेवा. पण काम गुणो मोहनीय मूळवाला छे. जे वेदना (संसार है। भोगववानी इच्छा) उदयथी काम थाय छे. ते लेवा. अने वेद. छे ते मोहनीय कर्ममा समावेश थाय छे. तेथी मोहनीच कर्म जे संसारर्नु मूळ कारण छे. ते संसार लेवो. तेज प्रमाणे संसार कपाय, कामोर्नु परंपराए मोहनीय कर्म कारणपणाथी प्रधान भावने अनुभवे छे. (तेज कर्म बंधनमा अग्रेसर छे.) ते मोहनीय कर्मनो क्षय थवाथी वीजा कर्मनों अवश्य क्षय थशे तेज प्रमाणे. का छे. "जह मत्थयसूईऐ हयाए हम्मए तलो। तहा कम्माणि हम्मंति मोहणिजे स्वयं गए ॥१॥". जेम ताडना झाडनी. जे मूइ मथाळे रहेली छे. ते नाश करतां ताडनं झाड नाश पामे छे, तेज प्रमाणे मोहनीय कर्म नाश पामतां बीजां कर्मो नाश पामे छे.. आ मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय अने चारित्र मोहनीय एम बे भेदे छे, ते वतावे छे. CAESRESEARCH Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुविहो अ होइ मोहो दसणमोहो चरित्तमोहो अ-। कामा चरित्तमोहो तेणऽहिगारो इहं सुत्ते ॥ १७९ ॥ आचाल दर्शन मोहनीय अने चारित्र मोहनीय एम बे भेदे का. अने बंधना हेतुन पण वे प्रकार पणुं छे ते बतावे छे. सूत्रम् अईत (जिनेश्वर) सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुतगुरु, साधु, संघना प्रत्यनीक (जिनेश्वरथी संघ सुधी जे पदो छे, जेमां गुण अने गुणी । ॥२५॥ दिए बंने आवे छे तेमना शत्रु) पणे जे वर्ते ते दर्शनमोहनीय कर्म वांधे छे. अने जेना वडे जीव अनंत संसाररूप समुद्रना मध्यमां|8॥२५१।। पडे छे तथा तीव्र कषाय बहुराग द्वेषरूप मोहथी घेराएलो वनी देश विरति अने सर्व विरतिने हणनारो चारित्रमोहनीयकर्म बांधे छे. | तेमां मिथ्यात्त्व, सम्यग् मिथ्यात्त्व (मिश्र) अने सम्यक्त्व एम त्रण भेदे दर्शन मोहनीय-कर्म छे, तथा सोळ भकारना कपाय छे. नव नोकषाय छे. एम पच्चीस भेदे चारित्रमोहनीय छे. (पहेला कर्मग्रंथमां मोहनीय कर्म जुओ.) तेमां काम ए शब्द विगेरे पांच है विषयो चारित्रमोह जाणवा; तेना वडे अहीं सूत्रमा अधिकार छे, कारण के, चाल विषयमां कषायोनुं स्थान छे; अने ते शब्दादि पांच गुणरूप छे. अने चारित्रमोहनीय पूर्वे कहेली उत्तर प्रकृति जे स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद तथा हास्य रतिलोभथी आश्रीत काम आश्रयवाळा कपायो संसारर्नु मूळ छे अने कर्ममा प्रधान कारण ए छे ते बतावे छे. संसारस्स उ मूलं, कम्मं तस्सवि हंति य कसाया ॥ संसार ते नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव एम चार प्रकारे गतिरूप संसारर्नु भ्रमण छे. तेनुं मूळ कारण आठ प्रकारचें कर्म छे. ते | कर्मनुं पण मूळ कारण कषायो छे. ते क्रोध विगेरे संसारन निमित्त छे, अने ते प्रतिपादित शब्द विगेरे स्थानोनुं प्रचुरस्थानपणुं है. बताववा फरीथी स्थान विशेष अब्धी गाथा बड़े कहे. छे...... . . . . . . SAIRAGAR Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर ते सयणपेसअस्थाइएसु अज्झत्थओ अ ठिआ ॥ १८० ॥ आचा० पहेलां अने पछी परिचयवाळां माता, पिता, सासु, ससरा विगेरे जे स्वजन (सगां) छे. तथा नोकर विगेरे प्रेष्य छे अने धन ॥२५२॥ 18 धान्य कुप्य (तांबु-पीत्तळ विगेरे) वास्तु (घर) रत्न ए अर्थ कहेवाय छे (ते स्वजन विगेरेनो द्वंद्व समास करवो.) आ बधाने अंगे कपायो विषयपणे रह्या छे, अने आत्मामां प्रसन्नचंद्र राजर्पिनी माफक विषयीपणे छे; तेम एकेन्द्रिय विगेरेने पण कपायो छे. आ प्रमाणे कपायन स्थान बताववा वडे सूत्रपदमां लीधेलं छे. स्थान समाप्त करीने जीतवा योग्य विषयोवाळा कपायोना निक्षेपा कहे छे. णामंठवणादविए उपत्ती पच्चए य आएसो । रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ॥१८१ ॥ कपायना निक्षेपा-जेवो छे तेवो अर्थ न बतावे; ते निरपेक्ष अभिधान मात्र ते नाम कषाय छे अने सदभाव (तदाकार चित्र विगेरे) असद्भाव (तदाकार नही.) जेम इंट विगेरेना देव बनावे; ते बे प्रकारे स्थापना निक्षेप छे. जेमके, भयंकर भृकुटि (आंखनी भ्रमर) क्रोधथी चढावी कपाळमां त्रण सळ पाडी त्रीशूळ साये मोडं तथा आंख लाल करी होठ दांत पीसतो परसेवाना पाणी विगेरेथी संपूर्ण क्रोधन चित्र पुस्तक अथवा अक्ष वराटक विगेरेमा रहेल ते स्थापना कषाय छे. (क्रोध जीवने आश्रयी छे, अने क्रोधनां 8 चिन्ह जेने प्रगट थयां होय; तेवा क्रोधीनुं चित्र पुस्तक अथवा वीजामां चित्र पाडे; ते कषायनुं चित्र होवाथी; स्थापना कषाय छे.) द्रव्यकषायोमां ज्ञ शरीर तथा भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त कर्मद्रव्य कपायो तथा नोकर्मद्रव्य कषायो छे, तेमां प्रथम जे उदीर्णामां न | आवेला; अथवा उदीर्णामां जे पुद्गलो आवेला होय ते पुदगलो द्रव्यना प्रधानपणाथी कर्मद्रव्य कपायो जाणवा. विभितक विगेरे SSAGARGRESEARLEAF SASRA Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है नो कर्मद्रव्य कपायो छे तथा उत्पत्ति कषायो शरीर उपधि क्षेत्र वास्तु स्थाणुं विगेरे उत्पत्ति कषायो छे, एटले जेने आश्रयीने कपाআত্মা योनी उत्पत्ति थाय; ते उत्पत्ति कषाय जणवा; तेवुज शास्त्रमा कयुं छे:'किं एत्तो कट्टयरं,जं मुढो थाणुअम्मि आवडिओ। थाणुस्स तस्सरूइ, न अप्पणो दुप्पओगस्स ॥१॥ सूत्रम् ॥२५३॥ ___ कोइने स्थाणुं ( झाडनु लुटुं ) विगेरे वागतां मूढ माणस पोतना प्रमादनो दोष न काढतां; तेज स्थाणा उपर क्रोध करे छे, 18/॥२५३॥ | एनाथी वधारे दुःखदायक बीजु सुंछे ? प्रत्ययकषाय.-कषायोना जे प्रत्ययो एटले बंधनां कारणो छे ते अहींयां सुंदर अने खराब, एवा भेदवाळा शब्द विगेरे लेवा; कारणके एनाथीज उत्पत्ति तथा प्रत्ययन कार्य तथा कारणरूपे-भेद रहेलाछे. आदेश कपाय.-बनावटी भ्रमर विगेरे चढाववी ते छे. रसकपाय-रसथी एटले कडवा तीखा एम पांच मकारना रसनी अंदर रहेला छे ते लेवाभावकषाय-शरीर, उपधि, क्षेत्र, वास्तु, स्वजन, प्रेष्य, अर्चा विगेरे निमित्तथी प्रगट थएला जे शब्द विगेरे काम गुण कारण का यंभूत कषाय कर्मना उदयरूप आत्माना परिणाम विशेष ते क्रोध मान माया लोभ एवा चार कपाय छे. ते दरेकना अनंतानुबंधी द अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान आवरण तथा सज्वलन, एवा चार भेद वहे गणतां सोळ भेद वाला भाव कषाय छे. तेओर्नु स्वरूप तथा - अनुबंधनु फल गाथाओ वडे कहे छे. SEASON SESSISSESGEGO Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चउविहो कोहो ॥ तिणिसलयाकदृष्टियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ आचा० पाणीमां रेतीमां जमीन उपर अने पर्वत उपर जे फाट पडवा जेवो देखाव थाय छे तेवो चार प्रकारनो क्रोध छे. ( रेतीमां काढेली लीटी. पवनथी तुरत मली जाय. तेवो संज्वलन क्रोध जाणवो. एम अनुक्रमे दरेक वधारे वधारे प्रमाणमां जाणवो) तथा ॥२५४॥ है तिनिश लता लाकडं हाडकुं पत्थरनो थांभलो ए चारनी उपमावालुं मान छे. (तिनिश लता झट वळे तेम संज्वलन मानवाळो मान है मुकी झट नमे वाकीना मानवाला कठणाइथी नमे पण पत्थरनो थांभलो नमे नही तेम अनंतानुबंधी मानवालो नमे नही) मायावलेहिगोमुत्ति मेंढसिंगघणवंसमूलसमा । लोभो हलिदकद्दमखंजणकिमिरायसामाणो ॥२॥ अवलेखी (नेतर विगेरेनी छाल) गोमुत्रीका घेटानुं शीग९ अने वांसनुं थडीउं, आ चारनी उपमां वाली माया छे. (संज्वलन माया वालो जेम नेतरनी छोल वाळेली होय तोपण सीधी थइ जाय छे. तेम आ माया वाळो मायाने दूर करे छे पण छेवटनी मायावाळो वांसना थडीचा माफक कदीपण कपट छोडतो नथी.) तथा लोभ हलदर कादव खंजन अने कृमिना रंग जेवो छे. (संज्वलनना लोभवाळो जेम हलदरनो रंग झट जतो रहे तेम आ लोभीने झट संतोष याय. पण कृमि रागथी रंगेला कपडा जेवा लोभीने मरतां सुधी संतोष न थाय. & पक्खचउमासवच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो। देवगर तिरियणारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥३॥ ते कपायो संज्वलन विगेरेनी स्थिति एक पखवाडीउ तथा चार मास, एकवर्ष अने छेवटना अनंतानुबंधीनी आखी जींदगी ॐॐॐॐ REGISGSASS676872 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधीनी छे. अने तेओनी संज्वलनवालानी देव गति तथा बाकीना त्रणनी अनुक्रमे. मनुष्य तिथंच अने नरक गति छे. अर्थात् एक-13 आचा पायो वाला जीवो ए गतिने पामे छे. एम कषायो ते गतिना साधनना हेतुओ कह्या, आ कषायना नाम विगेरे आठ प्रकारे निक्षेपा 15 कह्या. तेने क्या नयवालो शुं इच्छे छे. ते कहे छे. सूत्रम् ॥२५५॥ नैगम नयवालो सामान्य विशेष रुपपणाथी तथा तेनुं एकगमपणुं नहोवथी तेना अभिप्राय प्रमाणे वधाए निक्षेपा नाम विगेरे || ॥२५५॥ आठे माने छे. अने संग्रहव्यहवार नयवाला कषाय संबंधना अभावथी आदेश अने समुत्पत्ति ए वे निक्षेपाने इच्छता नथी. रुजु सूत्रवालो वर्तमान अर्थने इच्छतो होवाथी आदेश, समुत्पत्ति अने स्थापना निक्षेपाने इच्छतो, नथी शब्द नयवालो नामनो पण कथं| चितभावनी अंदर रहेला भावथी नाम अने भाव, एवा वे निक्षेपानेज इच्छे छे आ प्रमाणे कषायो कर्मना कारणपणे कया. अने ते र कर्म संसार कारण छे. हवे संसार केटला प्रकारनो छे ते बतावे छे. दव्वे खित्ते काले, भवसंसारे अ भवसंसारे । पंचविहो संसारो, जत्थे ते संसरंति जिआ ॥ १८२॥ द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव, अने भाव, एम पांच प्रकारनो संसार छे, जेमा संसारी जीवो भ्रमण करे छे (नाम स्थापना सुगम | होवाथी नियुक्तिकारे लीधा नथी एम जणाय छे.) द्रव्य संसारमा ज्ञ शरीर भव्य शरीर छोडीने द्रव्य संसाररूप आ संसारज छे. द अने क्षेत्र संसार जे क्षेत्रोमां द्रव्यो आम तेम संसरे (खसे) ते छे. काळ संसार ते जेमा संसारर्नु वर्णन थाय अने नरक विगेरे चार गतिमा अनुपूर्वीना उदयथी एक भवथी बीजा भवमा जवू, ते भव संसार छे. अने भाव संसार एटले संसृतिनो स्वभाव ते औदयिक SOSIOCESSIASASCHASIS 256RSNEHRA Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२५६॥ विगेरे भावनी परिणतिरूप छे, तेमां प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, अने प्रदेश एम चार प्रकारना कर्मना बंधना प्रदेश विपाकनुं भोगव छे. आ प्रमाणे द्रव्यथी लइ भाव सुधी पांच प्रकारनो संसार छे अथवा द्रव्यादिक चार प्रकारनो संसार छे ते आ प्रमाणे अश्वथी हाथी. गामथी नगर. अने वसंतथी ग्रीष्म. तथा औदयिकथी औपशमिक एम चार प्रकारे थाय छे, एम बने प्रकारे संसार बताव्यो छे, आसंसारमां कर्मने वश थएला जीवो आम तेम भमे छे. तेथी कर्मनुं स्वरूप बतावे छे. णामंठवणाकम्मं, दवकम्मं पओगकम्मं च । समुदाणिरियावहियं आहाकम्मं तवोकम्मं ॥ १८३ ॥ किकम्म भावकम्मं, दलविह कम्मं समासओ होइ । कर्म-कर्म विषय शून्य एवं नाम मात्र छे. स्थापना कर्म पुस्तक अथवा पात्र विगेरेमां कर्म वर्गणानुं सद्भाव. असद्भाव एम बे रुपे जे लखेलं के चितरेलुं होय कर्म छे ते स्थापना कर्म छे. द्रव्य कर्ममां - ज्ञशरीर. भव्यशरीर सीवाय व्यतिरिक्त वे प्रकारे छे द्रव्य कर्म अने नो द्रव्य कर्म, तेमां द्रव्यकर्म ते कर्म वर्गणाना अंदर रहेला पुद्गलो जे बंधने योग्य, अने बंधाता अने बांधला जे उदीर्णामां न आवेला होय ते लेवानो द्रव्यकर्ममां कृषीवल (खेडुत.) विगेरेनां कर्म जाणवां (जेनाथी वीजा जीवोने दुःख थाय तेवां संसारी कृत्य अहीं लेवां) प्रश्न – कर्म वर्गणानी अंदर रहेला पुद्गळो द्रव्यकर्म छे एवं कथं ते वर्गणा क छे ? उत्तर - सामान्य रीते वर्गणा चार प्रकारनी छे, द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव, एम चारभेदे छे. तेमां द्रव्यथी एक वे विगेरेथी सूत्रम् ॥२५६॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्येय, असंख्येय, अनंत, प्रदेशवाली छे. तथा क्षेत्रथी जे क्षेत्र प्रदेशमां अवगाढ करी रहेल द्रव्यना एक बेथी संख्येय, असंख्येय, आचा० * प्रदेशरूप क्षेत्र प्रदेशो जेनाथी रोकाय, ते क्षेत्र वर्गणा छे. अने काळथी एक वेथी मांडीने संख्येय, असंख्येय, समय स्थितिमा र15 हेल वगणा लेवी अने भावथी रुप, रस, गंध, स्पर्श, तथा तेनी अंदर रहेला भेदोरूरुप सामान्यथी भाव वर्गणा जाणवी, अने विशे-13 सूत्रम ॥२५७॥ पथी हवे कहे छे. ४॥२५७॥ (१) परमाणुओनी एक वर्गणा छे. एज प्रमाणे एक एक परमाणुना उपचय ( वधारा) थी संख्येय प्रदेशवाला स्कंधोनी संख्येय वर्गणाओ छे. तेज प्रमाणे असंख्येय प्रदेशवाला स्कंधोनी असंख्येय वर्गणा जाणवी आ वर्गणाओ औदारिक विगेरे परिणाम ने योग्य थइ शकती नथी तथा अनंत प्रदेशनी बनेली अनंती वर्गणाओ पण ग्रहण योग्य नथी. तेवी वर्गणाओने उलंघीने औदारिक ग्रहण योग्य थाय छे. ते अनंती अनंत प्रदेशरूप अनंती वर्गणाओज छे एटले पूर्वे कहेली अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणानी अंदर 'एक | एक मेळववाथी औदारिकशरीर ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणाओ थाय छे एम एक एक प्रदेश वधारतां वधेली औदायिक योग्य उत्कृष्ट वर्गणा ज्यांसुधी अनंती थाय त्यांसुधी लेवी. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टानो शुं भेद छे ? व उत्तर-जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे, तेमां विशेष आ छे के औदारिक जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग जे छे तेना & है अनंता परमाणुपणाथी एक एक प्रदेशना उपचय थएथी औदारिक योग्य वर्गणानो जघन्य उत्कृष्ट मध्यवर्तीनी वर्गणाओनुं अन HARRAK Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२५८॥ तपणुं छे, तेमां औदारिक योग्य उत्कृष्ट वर्गणामां एकरूप (संख्या) उमेरवाथी अयोग्य वर्गणा जघन्य थाय छे, ए प्रमाणे एक एक प्रदेश वधतां उत्कृष्ट अंतवाळी अनंती थाय छे. प्रश्न- एमां जघन्य उत्कृष्ट वर्गणानो शुं विशेष छे ? उत्तर -- जघन्यथी असख्येय गुणी उत्कृष्टी छे, अने ते बहु प्रदेशपणाथी अने अति सूक्ष्म परिणामपणाथी औदारिकने अनंति वर्गणा पण ते अग्रहण योग्य छे, तेम अल्प प्रदेशपणाथी अने बादर परिणामपणाथी वैक्रिय (शरीर ) ने पण अयोग्य छे, ए प्रमाणे जेम जेम प्रदेशनो उपचय थाय; तेम तेम विश्रसा परिणामना वशथी वर्गणाओनुं अतिशय सूक्ष्मपणुं जाणवुं; तेज उत्कृष्ट उपर एकरूप नाखवाथी योग्य अयोग्य विगेरे वैक्रिय शरीर वर्गणाओनुं जघन्य उत्कृष्टनुं विशेष लक्षण जाणवुं; तथा वैक्रिय- आहारक ए बन्नेना वचमा रहेली अयोग्य वर्गणाओनुं जघन्य उत्कृष्ट विशेष असंख्येय गुणपणुं छे वळी पूर्वे कला प्रमाणे अयोग्य वर्गणा | उपर एकरूपना प्रक्षेपथी जघन्य आहारक शरीर योग्य वर्गणाओ थाय छे. ते प्रदेश दृद्धिथी वधतां उत्कृष्ट अनंत सुधी थाय छे. प्रश्नः - जघन्य उत्कृष्टतुं केटलं अंतर छे ? उत्तरः --- जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे. प्रश्नः - विशेष केटलो छे ? उत्तरः- जघन्य वर्गणानोज अनंत भाग छे, तेनुं पण अनंत परमाणुपणुं होवाथी आहारक शरीर योग्य वर्गणाओनुं मदेश उतरथी वधती वर्गणाओनुं पण अनंतपणुं छे, ते उत्कृष्ट वर्गणामांज एकरूप उमेरवाथी जघन्य आहारक शरीरने अयोग्य वर्ग णाओ थाय सूत्रम् ॥२५८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् SACARS है छे त्यारपछी प्रदेश वृद्धिए वधती ज्यांमुधी उत्कृष्ट अनंत थाय; त्यांसुधीज आहारकशरीरना सूक्ष्मपणाथी अने बहु प्रदेशपणाथी तेने अयोग्य वर्गणाओ छे, तेम बादरपणाथी अने अल्प मदेशपणाथी तैजस शरीरने पण अयोग्य छे. प्रश्न:-जघन्यउत्कृष्टने अहीं केटलुं अंतर छे ? उत्तर- जघन्यथी उत्कृष्ट अनंतगुणा छे. ॥२५९॥ प्रश्न-क्या गुणाकार वटे ? उत्तर-अभव्यथी अनंतगुणा अने सिद्धथी अनंतमे भागे के. तेना उपर एकरूप नाखवाथी तैजस शरीरने योग्य वर्गणा जघन्य छे, ते प्रदेशवृद्धिए वधती उत्कृष्टसुधी अनंती थाय छे. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टनुं अंतर केटलुं छे! उत्तर-जघन्यथी उत्कृष्ट विशेष अधिक छे, अने विशेष ते जघन्य वर्गणानो अनंत भाग छे, तेने पण अनंत प्रदेशपणुं होवाथी द जघन्य उत्कृष्टनी वचमा रहेली वर्गणाओनु अनंतपणुं छे, तैजसनी उत्कृष्ट वर्गणाना उपर एकरूप नाखवाथी वधेली जे वर्गणा ते I तैजस शरीरने अग्रहण योग्य थाय छे एम एक एक प्रदेश वधतां उत्कृष्ट अंतवाली अनंती वर्गणाओ छे, ते तैजस शरीरने तेना के 5 अति सूक्ष्मपणाथी तथा बहु प्रदेशपणाथी अयोग्य छे, तेम बादरपणाथी अने अल्प प्रदेषपणाथी भाषा द्रव्यने पण अयोग्य छे.131 जघन्य उत्कृष्टतुं अनंत गुणपणाथी विशेष छे अने ते गुणाकार अभव्यथी अनंतगुणा अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे ते XI | अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणामां एकरूप नाखवाथी जघन्य भाषा द्रव्यवर्गणा थाय छे, तेनी पण प्रदेश वृदिए उत्कृष्ट वर्गणा सुधी अनंत K. BASISALCCASIॐॐॐ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %E स्थान छे. जघन्य उत्कृष्टनु विशेष आ छे, जघन्य वर्गणाना अनंतमेभागे अधिक उत्कृष्ट वर्गणा छे. अहीआं पण अनंत भागनु अआचा०४ नंत परमाणुपणुं जाणवू तेथी आ एक विगेरे प्रदेश वृद्धिना प्रक्रमथी अयोग्य वर्गणाओनुं जघन्य उत्कृष्टपणुं विगेरे जाणवू. अही0 /. महाआमासूत्रम् विशेष आटलुं छे के जघन्य उत्कृष्टनो भेद अहीआं अभव्यथी अनंतगुणो अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे, ते वर्गणाओनं पण पूर्व ॥२६०॥ हेतु कदंबक (समूह) थी भाषा द्रव्य अने आनापान (श्वासोच्छवास) द्रव्यतुं अयोग्य पणुं जाणवं. अने अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणामां ॥२६॥ एक रूप नांखेथी आनापान वर्गणा जघन्य थाय छे. तेनाथी एक एक रूपे वधतां उत्कृष्ट वर्गणाओना अंतवाली अनंती थाय छे. जघन्यथी उत्कृष्टा जघन्यथी अनंत भाग अधिक जाणवा तेना उपर एक रुप वधतां जघन्य उत्कृष्ट भेद बडे अग्रहण योग्य वर्गणा 4 छे. पण विशेषमा अभव्योथी अनंत गुण अने सिद्धोथी अनंतमे भागे छे. फरीथी अयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा उपर प्रदेशथी मांडीने वृद्धि । करतां जघन्य उत्कृष्ट भेदवाली मनोद्रव्य वर्गणा छे. जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग विशेष छे. फरीथी प्रदेशना वधता क्रमथी अग्रहण वर्गणा छे. विशेपमां अभव्यनो अनंत गुण विगेरे छे. अने ते वर्गणाओ प्रदेशना बहु पणाथी अने अति सूक्ष्म पणाथी मनो द्रव्यने अयोग्य वर्गणाओ छे, तथा अल्प प्रदेशपणाथी अने बादरपणाथी कार्मण शरीरने पण अयोग्य छे, तेना उपर एक रुप नाखवाथी जघन्य कार्मण शरीरनी वर्गणा छे, वळी एक एक प्रदेशनी वृद्धि करतां उत्कृष्ट अनंत सुधी छे. प्रश्न-जघन्य उत्कृष्टनो शुं विशेप छे. ? उत्तर-जघन्य वर्गणानो अनंतमो भाग अधिक ते उत्कृष्ट वर्गणा छे, अने ते अंनत भाग अनंता अनंत परमाणुरूप होवाथी -- ISA56REACRA -SENSAR Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORIGAM सूत्रम् ॥२६॥ अनंत भेदथी भिन्न कर्म द्रव्यनी वर्गणाओ छे, अने अहीं तेमनुं प्रयोजन छे. कारण के द्रव्य कर्मना व्याख्याननी अहीं वात चाले चा० * छे, अने हवे पछीनी वर्गणाओ क्रमे आवेली छे, ते शिष्यना उपर उपकारनी बुद्धिथी कहेवाय छे. र वली उत्कृष्ट कर्मवर्गणा उपर एक रुप नाखवाथी जघन्य उत्कृष्ट भेदथी भिन्न धृव वर्गणा छे, ते जघन्यथी उत्कृष्टी सर्व जी२६॥ वोथी अनंत गुणी छे, तेना उपर एक रुप नाखवाथी क्रमवढे अनंतीज जघन्य उत्कृष्ट भेदवाली अध्रुव वर्गणा छे. अध्रुव पणाथी अध्रुव छे, कारण के तेना विरुद्ध पक्षवाली धृवना सदभावथी तेनुं अधृवपणुं छे. अहीं जघन्य उत्कृष्टनो भेद हमणा उपर कहेलो तेज छे-ते उत्कृष्टना उपर एक एकनी वृद्धि करतां जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी अनंतीज शून्य वर्गणाओ थाय छे, ४ अने जघन्य उत्कृष्टनो विशेष पूर्व माफक छे. तेओनो संसारमा पण अभाव छे, तेथी तेनुं नाम शून्यवर्गणा राख्यु छे. तेमां एम 9 का छे केः-अध्रुववर्गणाना उपर प्रदेशनी वृद्धिए अनंतीनो पण संभव थतो नथी. एवी प्रथम शून्यवर्गणा छे. तेना उपर एकरुप विगेरेनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी प्रत्येक शरीरनी वर्गणा थायछे. जघन्यथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्येय भागना प्रदेश जेटला गुणी उत्कृष्ट छे, तेना उपर एक एकरुपनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी अनंतीज शुन्य वर्गणाओ थाय छे. जघन्य वर्गणाथी उत्कृष्टी असंख्य भाग प्रदेशगुणी छे, तेनो असंख्येय भाग पण असंख्येय लोकाकाशरूप छे. आ प्रमाणे बीजी शून्यवर्गणा छे, तेना उपर एकरूपादि वृद्धिए बादर निगोद शरीरनी वर्गणा जघन्यथी छे, अने क्षेत्र पल्योपमना असंख्येय भाग प्रदेशगुणी उत्कृष्टी छे, तेना उपर एकरूप विगेरेनी वृद्धिथी जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळीत्रीजी शून्यवर्गणा छे. जघन्यथी असंख्येय गुणी उत्कृष्टी छे. XRASHISHERS Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२६२॥ प्रश्नः -- गुणाकार क्यो छे ? उत्तरः- आंगळना असंख्येय भाग प्रदेशनी राशिना आवलिका काळना असंख्येय भाग समय प्रमाणे वारंवार वर्गमूळना करवाथी असंख्येय भाग प्रदेश प्रमाणे छे, तेना उपर एक एकरूपनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी सूक्ष्म निगोद शरीरनी वर्गणा छे, जघन्यथी उत्कृष्ठि आवलिकाना काळना असंख्येय भाग समयना गुणाकार जेटली छे. "तेना उपर एक एक रूपनी वृद्धिए जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी चोथी शून्यवर्गणा छे. जघन्यथी उत्कृष्टी चोखुणो करेलो लोकनी असंख्य श्रेणिओ जेटली छें, अने ते प्रतरना असंख्येय भाग बराबर छे, तेना उपर एक एकरूपनी वृद्धिएं जघन्य उत्कृष्ट भेदवाळी महास्कंध वर्गणी छे, जघन्यथी उत्कृष्ट क्षेत्र पल्योपमना असंख्येय अथवा संख्येयगुणा छे. प्रमाणे संक्षेपथी वर्गणाओ कही छे, विशेष जाणवा इच्छनारे कर्मप्रकृति नामनो ग्रंथ जोवो जोइए, हवे प्रयोग कर्म कहे छे - वीर्यंतरायना क्षय उपशमथी प्रगट थएल वीर्यवाला आत्माथी प्रकर्षे करीने योजाय ते प्रयोग छे. ते मन व चन अने कायाना लक्षणंवालो पंदर प्रकारे छे तेनी विगत. मन योगमां— सत्य, असत्य, मिश्र, तथा न सत्य न असत्य एम चार प्रकारे छे, तेमज वचन योग पण चार प्रकारे छे अने 'काया योग सात प्रकारे छे, ते बतावे छे. (१) औदारिक (२) औदारिक मिश्र (३) वैक्रिय (४) वैक्रिय मिश्र (५) आहारक (६) आहारक मिश्र (७) कार्मण योग एम पंदर भेद थया तेमां मनयोग मनपर्याप्तिथी पर्याप्त थएला मनुष्य विगेरेने छे. वचन योग-वे इन्द्रिय विगेरे जीवोने छे. औदारिक योग तिर्यच तथा मनुष्यने शरीर पर्याप्तिनी पछीथी छे. त्यार पहेलां मिश्र जाणवो अथवा सूत्रम् ॥२६२॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२६३॥ केवळी भगवंतने समुद्घातनी अवस्थामां बीजा छठ्ठा अने सातमा समयमां छे. वैक्रियकाय योग देव नारक अने बादर वायुकायने । छे, अथवा बीजा कोइ वैक्रिय लब्धिवालाने होय छे. तेनो मिश्र योग देवता नारकिने उत्पत्ति समये छे अथवा नपुं वैक्रिय शरीर बनावनार बीजाने पण होय छे, आहारक योग चौद पूर्वी साधु ज्यारे आहारक शरीरमां स्थित होय छे त्यारे छे अने तेनो मिश्र - योग निर्वर्त्तना (बनाववा) ना काळमां होय छे. कार्मण योग - विग्रह गतिमां अथवा केवलि समुद्घातमां त्रीजा चोथा पांचमा समयमां छे. आ प्रमाणे पंदर प्रकारना योगवडे आत्मा आठ प्रदेशने छोडीने तपेला वासणमां उछळता पाणीनी माफक उद्वर्तमान सर्व | आत्माना प्रदेशोवडे आत्मा प्रदेशनी अवष्टब्ध आकाश भागमां रहेल कार्मणशरीरने योग्य कर्मदळने जे बांधे छे तेने प्रयोगकर्म कहे छे. कहां छे के 66 'जाव णं एस जीवे एयंइ, वेयइ, चलइ, फंदईत्यादि ताव णं अहविहबंध वा सत्तविहबंध वा छfair वा विबंधए वा नो णं अबंधए " । ज्यां सुधी आ जीव हाले छे. वधारे हाले छे. चाले छे. फरके छे. त्यां सुधी आठ प्रकारना कर्मनो बंधक सात प्रकारना छ प्रकारना अथवा एक प्रकारना पण कर्मनो बंधक छे, पण ते अबंधक होतोज नथी. समुदान कर्म - ( समुदान शब्दनी उत्पत्ति सं. तथा आ उपसर्ग साथ दा. धातु जे देवाना अर्थमा छे, तेनुं ल्युट अंतथी पृषोदर विगेरे सूत्रम ॥२६३॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॥२६४ पाठ वडे आकारनो उकार आदेश थवाथी समादानने वदले समुदान शब्द थयो छे:) तेमा प्रयोग कर्मवडे एक रूप पणे ग्रहण कआचा० रेली कर्म वर्गणाओनी सम्यक् मूळ उत्तर प्रकृति स्थिति अनुभाव अने प्रदेश वंधवाळा भेदवडे आ उपसर्ग (जेनो अर्थ मर्यादा छे ते.) ॐ सूत्रम् वडे देश (थोडो) सर्व उपघाती रुप वडे तेज प्रमाणे स्पृष्ट निधत्त निकाचित एवी त्रण अवस्था वडे जे स्वीकार करखो तेज समदान ॥२६४॥ छे, अने ते कर्मनुं नाम समुदान कर्म छे. तेमां मूळ प्रकृतिनो बंध ज्ञानआवरणीय विगेरे आठ प्रकारे छे, अने उत्तर प्रकृतिनो बंध जुदो जुदो छे, ते बतावे छे... 18. ज्ञान आवरणीयना पांच भेद छे. मति श्रुत अवधि मनपर्याय तथा केवळ एम पांच भेदे ज्ञान छे. तेंर्नु आवरण करनार सर्व द घाती फक्त केवळज्ञान- छे. अने वाकीना चारनां आवरण देशघाति अथवा सर्वघाति छे. दर्शनावरणीय कर्म नव प्रकारे छे. तेमां पांच प्रकारनी निद्रा तथा चार प्रकारचें दर्शन. तेने आवरण करनार जाणवू. निद्रा ६चक छे. ते मेळवेला दर्शननी लब्धि तेना उपयोगने उपधात करनार छे, अने दर्शन चतुष्टय ते दर्शनलब्धिनी प्राप्तिनेज आवरण : हूँ करनार छे. अहींयां पण केवळ दर्शनआवरण सर्वघाति छे. वाकीना देशथी छे. * वेदनीयकर्म, साता अने असाता एम बे भेदे छे. मोहनीयकम, दर्शनचरित्र भेदथी चे प्रकारे छे. तेमां दर्शनमोहनीय मिथ्या त्वादि उदयमा आवतुं त्रण भेदे छे, अने बंधमां तो एक प्रकारे छे. *SASCARSAROGRECAREER CREE -GG Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SONGS आचा० सूत्रम् ॥२६५॥ ACEASA SASA चारित्रमोहनीय सोळ कषाय, नव नोकपाय एम पच्चीस प्रकारे छे. अहींयां पण मिथ्यात्व, मोहनीय, तथा संज्वलन कपाय छोडीने वार कपायो सर्वघाति छे, अने वाकीना देशघाति छे. आयुष्यकर्म चार प्रकारे छे. ते नारकादि भेदवाळां छे. नामकर्म बेताळीस भेदे छे, तेमां गति विगेरे भेद छे. वाळी उत्तर प्रकृतिथी ताणुं (९३) भेद छे, तेनो खुलासो कहे छे. गति नारक; विगेरे चार भेदे छे. जाति एकेन्द्रिय विगेरे पांच छे. शरीरो /॥२६५॥ औदारिक विगेरे पांच छे. औदारिक वैक्रिय, अने आहारक. एम त्रण शरीरनां अंगोपांग त्रण छे. निर्माणनाम सर्वजीव शरीरनां अवयवतुं निष्पादक ( बनावनार) होवाथी एक प्रकारे छे. बंधननाम औदारिक विगेरे कर्मवर्गणार्नु एकपणुं करनार पांच प्रकारे छे, तथ संघातनाम औदारिक विगेरे कमवणानी र-15 चना विशेपकरीने स्थापनार ते पांच प्रकारे छे. संस्थाननाम समचतुरस्र (बधी बाजु सरखं ) विगेरे छ प्रकारे छे. संहनननाम वजरुपभनाराच विगेरे छ प्रकारे छे.स्पर्श आठ प्रकारे छे.रस पांच प्रकारे छे. गंध चे प्रकारे छे अने वर्ण पांच प्रकारे ठे' अनुपूर्वी नारक विगेरे चार प्रकारे छे. विहायोगति प्रशस्त तथा अप्रशस्त एम बे भेदे छे. अगुरुलधु उपघात पराघात आतप उद्योत उच्छवास प्रत्येक साधारण त्रस स्थावर शुभ अशुभ सुभग दुर्भग सुस्वर दुःस्वर सूक्ष्म वादर पर्याप्तक अपर्याप्तक स्थिर अस्थिर आदेय अनादेय यश कीर्ति अयश कीर्ति तीर्थकरनाम आ बधी प्रकृतिओ दरेक एकज प्रकारनी छे (आनु वधारे वर्णन पहेला कर्म ग्रंथमा नाम कर्मनी प्रकृतिमांजुओ) अSISRAENT Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R सूत्रम् ॥२६६॥ - गोत्र कर्म-ते उंच अने नीच एम वे भेदे छे. आचा०8 अंतराय कर्म-दान,लाभ, भोग उपभोग,वीर्य एम पांचने अंतराय करनार पांच भेदे छे.आप्रमाणे मूळ तथा उत्तर प्रकृति बंधनो भेद बताव्योछे. हवे प्रकृतिबंधना कारणो वतावे छे. १२५६॥ "पडिणीयमंतराइय उवघाए तप्पओस णिण्हवणे ॥ आवरणदुर्ग बन्धइ भूओ अच्चासणाए य ॥१॥ P ज्ञानआवरणर्नु तथा दर्शनआवरणर्नु कर्म केम वांधे ते वतावे छे. ज्ञान भणनारनुं शत्रुपणुं करे, अंतराय करे उपघात करे, द्वेष करे भणावनारनो गुण भूले अथवा ज्ञानी अथवा ज्ञाननी आशातना (निंदा) करे ज्ञान दर्शन ए बन्ने प्रकारनु आवरण बंधाय छे. भूयाणुकंपवयजोगउज्जुओ खंतिदाणगुरुभत्तो । बंधइ भृओ सायं विवरीए बंधई इयरं ॥ २ ॥ व जीवोनी दया व्रतयोगमा उद्यम करे क्षमा राखे दान आपे सद्गुरुनो भक्त होय आवो जीव सातावेदनीय कर्म बांधे, अने तेनाथी उलटो एटले जीव हिंसा करनार विगेरे दुगुणवाळो जीव असातावेदनीयकर्म वांधे. . ६ अरहंतसिद्धचेइयतव सुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ । बन्धड देसणमोहं अणंतसंसारिओ जेणं ॥३॥ तीर्थकर सिद्ध चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, साधु, संग आजे धर्मना पोषको छे तेमनो प्रत्यनीक ( शत्रु ) थाय तो ते पापवढे दर्शन मोहनीयकर्म अने अनंत संसार भ्रमण- कर्म वांधे. तिवकसाओ बहुमोह परिणतो रागदोससंजुत्तो। वंधइ चरित्तमोहं दुविहंपि चरित्तगुणघाई ॥ ४॥ RESCRESCREGISGAR-CARSHISHIRECG १८८२८२-०८-453 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२६७॥ तीव्र कपायवालो ( घणो क्रोधी विगेरे ) बहु मोहवालो रागद्वेषथी भरेलो ते जीव ने प्रकारनो चारित्र मोह जे चारित्र गुनो घातक छेतेने वांधे छे. मिच्छीि महारंभ परिग्गहो तिलोभ णिस्सीलो । निरआउयं निबंधइ पात्रमती रोडपरिणामो ॥ ५ ॥ मिथ्यादृष्टि महान आरंभ परिग्रहवाळो घणो लोभीनिःशील, ( दुराचारी. ) जीव पापनी बुद्धिवाळो होवाथी तथा मनमां रौद्र (दुष्ट) परिणामवाळ होवाथी नरकनुं आयुष्य वांधे छे उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहियय माइल्लो | सढसीलो, अ ससल्लो, तिरिआउं बंधई जीवो ॥ ६ ॥ उन्मार्ग (कुमार्ग) मां दोरनार सुमार्गनो नाशक गूढ हृदयवालो, कपटी शठता करनारो, शल्यवाळो ते जीव तिर्यचनुं आयुष्य वांधे छे. पगती तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो, मणुयाउं बन्धई जीवो ॥ ७ ॥ स्वभावथीज क्रोधादि ओछा होय, दानमां रक्त होय, शील संयममा ओछाशवाळो होय, मध्यम गुणे करीने युक्त होय, ते जीव मनुष्यनुं आयुष्य वांधे छे. tara बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंध, सम्मद्द्द्विी उ जो जीवो ॥ ८ ॥ ... अणुव्रत, महाव्रत, पाळे. तथा वाळ तप करे - अकामनिर्जरा करे अने सम्यक् दृष्टि होय. ते जीव देवनुं आयुष्य बांधे छे सूत्रम् ॥२६७॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ २६८ ॥ मणवयणकायको माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो । असुभं बंधइ नामं तप्पडिपक्खेहिं सुभनामं ॥ ९ ॥ मन वचन कायाथी वक्र होय, अहंकारमां चढेलो होय. आ दुर्गुणोथी अशुभनामकर्म बांधे छे, अने तेनाथी उलटो एटले मन वचन कायाथी सरळ होय, निष्कपट होय; एवा सद्गुणवाळो शुभनाम कर्म वांधे छे. अरिहंतादिसु भो सुतरुई पयणुमाण गुणपेही । बन्धइ उच्चागोयं विवरीए बन्धई इयरं ॥ १० ॥ जिनेश्वर विगेरे पंच परमेष्ठिनो भक्त होय; सूत्र भणवानी रुचीवाळो होय; अहंकारी न होय; गुणोनो रागी होय; ते उंच गोत्र वांधे छे. अने तेनाथी उलटा गुण ( दुर्गुणवाळो ) नीच गोत्र वांधे छे. पाणवहादीसुरतो, जिणपूयामोक्खमग्गविग्घयरो । अजेइ अंतरायं, ण लहइ जेणिच्छयं लाभं ॥ ११ ॥ प्रणवध ( जीवहिंसा ) विगेरे पापमां रक्त जिनेश्वरनी पूजा तथा मोक्षमार्गनां जे कृत्य तेमां विघ्न करनारो होय; ते अंतराय कर्म वांधे छे, अने ते कर्मना प्रतापथी इच्छित वस्तु मेळवतो नथी. स्थितिबन्ध - मूळ अने उत्तर प्रकृतिओनो उत्कृष्ट अने जघन्य ( सौथी थोडो ) एवा वे भेद छे, तेमां उत्कृष्टथी मूळ प्रकृति ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय अंतराय ए चार कर्मनी ३३ कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे, अने जेटली कोडाकोडी स्थिति होय; तेला का वर्षो सुधी अवाधा होय; त्यारपछी प्रदेशथी अथवा विपाकथी कर्मनो अनुभव ( भोगवj ) थाय ए प्रमाणे दरेक कर्मनी स्थितिमां जाणवुं. सूत्रम ॥२६८॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२६९॥ - मोहलीयकर्मनी ७० कोडाकोडी सागरोपम छे. नाम अने गोत्रनी २० कोडाकोडी सागरोपम छे. आयुष्यकर्मनी फक्त ३३ साआचाल गरोपमनी छे, तेमां पूर्वकोडीनो त्रीजो भाग अबाधा काळ छे. हवे जघन्यथी कहे छे-ज्ञानदर्शननां, आवरण, मोहनीय, अंतराय, ए चार कर्मना जघन्यवन्धनी स्थिति अंतर्मुहर्तनी छे. नाम॥२६९॥ गोत्रनी आठ मुहर्तनी छे वेदनीयकर्मनी १२, अने आयुष्यनी जे सौथी क्षुल्लक (नानो) भव छे-ते निरोगी मनुष्यना श्वासोश्वासना काळना लगभग १७मे भागे छे. (युवान माणसना एक श्वासोश्वासमा निगोदना जीवना १७ भव लगभग थाय छे.) हवे बन्ने उस्कृष्ट जघन्य बन्धने उत्तर प्रकृति आश्रयी कहे छे. मति श्रुत अवधि मनःपर्याय केवळ आवरण निद्रा पंचक चक्षु दर्शन विगेरे चतुष्क असाता वेदनीय तथा दान अंतराय विगेरे । 8. पांच ओ बधीनी एटले २० उत्तर प्रकृतिनी ३० कोडाकोडी सगरोपम छे. स्त्रीवेद साता वेदनीय मनुष्य गति तथा अनुपूर्वी ए| हैं चार प्रकृतिनी १५ कोडाकोडी सागरोपम छे. मिथ्यात्व मोहनीयनी ७०नी छे. अने १६ कषायनी ४० कोडाकोडी सागरोपम छे. (१) नपुंशक वेद (२) अरति (३) शोक (४) भय (५) जुगुप्सा (६) नरक (७) तिर्यच ए बे गति तथा (८) एकेन्द्रिय (९) दू पंचेन्द्रिय जाति (१०) औदारिक (११) वैक्रिय शरीर तथा ते (१२-१३) बन्नेनां अंगोपांग तथा (१४) तैजस (१५) कार्मण (१६) हैहुंडक संस्थान (१७) छेल्लु संहनन (१८) वर्ण, (१९) गध (२०) रस. (२१) स्पर्श. (२२) नरक. (२३) तियेच अनुपुर्वी (२४) AAAAAAA% *HARASHTRA Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुरुलघु(२५) उपघात [२६] पराघात [२७] उच्छवास [२८] आतप [२९] उद्योन. [३०] अप्रशस्त विहायोगति [३१] त्रस [३२] आचा० स्थावर [३३] वादर [३४] पर्याप्तक [३५] प्रत्येक [३६] अस्थिर [३७] अशुभ. [३८] दुर्भग. [३९] दुःस्वर. [४०] अनादेय (४१) अयश कोर्ति,(४२) निर्माण. (४३) नीच गोत्र. ए प्रमाणे ४३ प्रकृतिनी २० कोडाकोडी सागरोपम छे. ॥२७॥ (१) पुंवेद. (२) हास्य (३) रति (४) देवगति तथा (५) अनुपूर्वी ए वे तथा. ६, पहेलं संस्थान ७, संहनन ८, प्रशस्त विहायोगति ९, स्थिर १०, शुभ. ११, सुभग १२, सुस्वर १३, आदेय १४, यश कीर्ति १५, उंच गोत्र ए १५ उत्तर प्रकृतिनी १० 18 कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. न्यग्रोध संस्थान वीजुं संहनन ए बेनी १२ कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. त्रीजु संस्थान नाराच संहनन ए बन्नेनी १४ तथा कुब्ज संस्थान अर्धनाराच संहनननी १६ तथा १, वामन संस्थान २, कीलिका संहनन तथा ३, बे ४, त्रण ५, चार इन्द्रि जाति तथा ६, सूक्ष्म ७, अपर्याप्तक ८, साधारण ए ८ प्रकृतिनी १८, तथा आ-2 हारक शरीर तथा अंगोपांग तथा तीर्थकर नाम ए त्रणनी एक कोडाकोडी सागरोपम स्थिति छे. अने ते दरेकनी अबाधा भिन्न अंतर्मुहुर्त काळनी छे. देव नारकिनुं आयुष्य ३३ सागरोपम छे अने तिर्यंच मनुष्यनुं आयुष्य त्रण पल्योपम छे. अने पूर्व कोडीनो त्रीजो भाग अवाधा छे. आ प्रमाणे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कह्यो.. हवे जघन्य स्थितिवन्ध कहे छे–मति विगेरे ५ तथा चक्षु दर्शन आवरण विगेरे ४, संज्वलन लोभ दानादिक अंतराय पंचक ए 5/१५ प्रकृतिनो अंतर्मुहुर्त स्थिति बन्ध छे. अने अबाधा पण अंतर्महत छे. OGUSEGREOSTICKKI Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७१॥ निदा पंचक तथा असाता वेदनिय ए छठें एक सागरोपमना सातमा भागना त्रण लेवा १४.) ते सागरोपमथी पल्योपमनो & आचा० असंख्येय भाग ओछो लेवो. सूत्रम् . साता वेदनीयनो काळ १२ मुहुर्त छे, अने अंतर्मुहूर्त्तनी अबाधा छे. तथा मिथ्यात्वनी सागरोपममा पल्योपमथी असंख्येय ॥२७॥ भाग ओछो लेवो. पहेला १२ कषाय ते सागरोपमना: लेवा अने पल्योपमथी असंख्येय भाग ओछो लेवो. संज्वलन क्रोधनी बेमास छे. माननीएक मास, मायानी अडधोमास; पुवेदनी आठ वर्ष स्थिति छे. आबधामां अंतर्मुहर्तनी अबाधा छे. बाकीना कपाय मनुष्य तिर्यंच गति पन्वेन्द्रिय जाति औदारिक तथा तेनां अंगोपांग तथा तैजस कार्मण छ संस्थान तथा संह18 नन वर्ण, गंध, रस. स्पर्श, तिर्यच, मनुष्य, अनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास आतप उद्योत, प्रशस्त, अपशस्त विहायोगति, यशः कीर्ति. छोडीने त्रस आदि २० प्रकृति निर्माण नीचगोत्र देवगति अनुपूर्वी. मळीने २ तथा नरकगति अनुपूर्वी.२. वैक्रिय शरीर तथा अंगोपांग एम ६८ उत्तर प्रकृतिनी स्थिति : सागरोपम अने पल्योपमनो असंख्येय भाग ओछो छे. तेमां अंतर्मुहू-IPI 18/तनी अबाधा छे. वैक्रिय षट्कनी हजार सागरोपमना : भाग लेवा. तेमां पल्योपमनो असंख्येय भाग ओछो छे. तेमां अंतर्मुहूर्तनी द्र अबाधा छे. आहारक शरीर तेनुं अंगोपांग तथा तीर्थकर नामनी सागरोपम कोटीकोटी स्थिति छे. भिन्न अन्तर्मुहुर्त अबाधा छे. प्रश्न-उत्कृष्ट पण एटलीज स्थिति कही त्यारे जघन्य साथे तो शुं भेद छे ? Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ૧૭ उत्तर-उत्कृष्टथी संख्येय, गुणहीन जघन्य छे. यश, कीर्ति तथा उंच गोत्र ए वनेनी स्थिति आठ मुहुर्त छे. अने अन्तर्महआचा०र्तनी अबाधा छे. देव अने नारकिर्नु आयुष्य, दशहजार वर्षतुं छे. अने अंतमुहुर्त्तनी अवाधा छे. तियेच मनुष्यना आयुष्यनी स्थिति, टू क्षुल्लक भव अने अंतर्मुहुर्त्तनी अवाधा छे. वन्धन, संघात, ए बन्नेनी औदारिक विगेरे शरीरनी साथे रहेवाथी तेनी अंदरज उत्कृष्ट ज॥२७२॥ र धन्य भेद जाणवो स्थितिवन्ध कह्यो हवे अनुभव वन्ध कहे छे-तेमां शुभ, अशुभ, प्रयोग कर्मथी उत्पन्न थएल प्रकृति, स्थिति, अने प्रदेशरुप, कर्म प्रकृति तीव्र मंद अनुभवपणे जे अनुभवाय (भोगवाय) ते अनुभव (रस) छे, ते रस एक बे त्रण चार स्थान भेद वडे जाणवो. तेमां अशुभ प्रकृतिनुं कोपातकी ना उकाळेला रस जेवो तेमां अडधो रहे. बीजो भाग रहे. चोथो भाग रहे ते अनुक्रमे तीव्र २ अनुभव जाणवो. [ कडवा पदार्थना रसने उकाळतां पाणी जेम ओर्छ रहे तेम कडवास वधारे थाय छे, तेम अशुभ कर्मन दळ जेम वधारे चीक' थाय तेम वधारे दुःख भोगवयु पडे छे. ] 12 हवे मंद अनुभव कहे छे-मंद रसनो अनुभव ते जाइ [ फुल] रसमा एक बेत्रण चारगणुं पाणी वधारे नाखवाथी रसनी मुगंधी लि। ओछी थइ जाय छे, ते प्रमाणे कर्मनी पण चीकणास ओछी होय तो ओछु दुःख भोगवईं पडे छे. शुभ प्रकृतिनो रस दुध तथा शेरडीना रस जेवो मीठो जाणवो. तेमां पण पूर्व माफक योजना करवी, एटले कोषातकी तथा शेरडीना रसमां पाणी एक बिंदु विगेरे नाखवाथी अथवा रस वधारे नाखवाथी तेना भेदोर्नु अनंतपणु जाणवू. अहीं आयुष्यमां RSS Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२५३॥ चार प्रकृतिओ भवविपाकिनी छे. ( ते भवमां गया पछी भोगवाय छे. तथा चार अनुपूर्वीओ क्षेत्रविपाकीनी छे. ) तें क्षेत्रम जतां उदयमां आवे छे. शरीर, संस्थान, अंगोपांग, संघात, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उद्योत, आतप, निर्माण, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ तथा अशुभ रूपवाळी छे, ते बधीए पुद्गलविपाकीनी छे, अने बाकीनी ज्ञान आवरण विगेरे जीवविपाकीनी छे, एम अनुभाव बंध को. हवे प्रदेशबंध कहे छे - ते एक प्रकार विगेरे बंधकनी अक्षेपाए थाय तेमां कोइ एक प्रकारे कर्म बांधे, ते वखते प्रयोग कर्म वडे एक समयमा ग्रहण करेला पुद्गलो सातावेदनीयना भाववढे विशेषे करीने परिणमे छे, पण छ प्रकारनुं कर्म बांधनारने आयुष्य तथा मोहनीयकर्म छोडीने छ कर्मनो बंध जाणवो; तथा सात प्रकारे बांधनारने आयुष्य छोडीने सात प्रकारे जाणवो; तथा आठ प्रकारनां कर्म बांधनारो ते आठ प्रकारे जाणवो; तेमां पहेला समयमां ग्रहण करेलां पुद्गलो समुदानवडे, बीजा विगेरे समयमां अल्प बहुप्रदेशपणे आ कर्मवडे स्थापे छे. मां आयुष्यनां थोडा पुद्गलो छे, तेथी विशेष अधिकनाम गोत्रना प्रत्येकना छे, ते बने ( बराबर) तुल्य छे, तेथी विशेष अधिक ज्ञानदर्शन-आवरणना तथा अंतरायना देरेकना छे, तेथी विशेष अधिक मोहनीयकर्मना छे. 4 प्रश्नः - तेथी विशेष अधिक एम निर्द्धारणमां पांचमी विभक्ति, छे, ते पा. २-३ ४२ सूत्र प्रमाणे कराय छे, एटले एनो अर्थ सूत्रम् ॥२७३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B सूत्रम ॥२७४॥ एवो छे के, विभाग ते विभक्त तेमां पांचमी विभक्ति लेतां; जेमां अत्यंत विभाग होय; तेमांज थाय छे. जेमके मथुरा नगरीना रआचा० हेवासीथी पाटलीपुत्रना रहेवासी वधारे रुपवाला छे, पण अहीं कर्म पुद्गळोनुं सदा एकपणुं छे, ते प्रमाणे अवस्थाओनज बुद्धि प्रमाणे द वहप्रदेश विगेरेना गुणवडे प्रथक् करवान बताव्यु; तेमां छही अथवा सातमी विभक्ति वापरवी ठीक छे. जेमके गायोना अथवा ॥२७४॥ - गायोमां आ काळी गाय वधारे दुधवाळी छे. उत्तर:-तमे बतावेलो दोष बराबर नथी. जेमां अवधि (मर्यादा) अने अवधिवाळो सामान्यवाचक शब्द योजीए, त्यां छठ्ठी सातमी विभक्ति होय छे, अने ज्यां निर्धारण पा. २-३-४१ आ सुत्रवडे कराय छे. जेम गायोमां काळी गाय सौथी वधारे दुधवाळी छे. मनुष्यमां पटनाना रहेवाशी वधारे पैसादार छे. तेम कर्मवर्गणाना पुद्गलो वेदनीयकर्ममां बहु वधारे छे, पण जेमां विशेष वाचीशब्द अवधिपणे लइए त्यां पांचमी विभक्तिज वपराय जेमके-खंड, मुंड, शवल, शाबलेय, धवल धावलेय आ व्यक्तिओथी काळी गाय वधारे दुधवाळी छे. अहींआं तेवो विभाग पोते कारण नथी अथवा विभाग विना छे. जेथी मथुरा पाटलीपुत्रकादि वि|भाग बढे विभक्तोनं सामान्य मनुष्य विगेरे शब्द उच्चारणमां छठी सातमी विभक्ति थाय छे. पण ज्यां मथुरांना रहेवासी विगेरेमां कांड पण विशेष अवधिपणे लेवाय तेमां कार्यवशथी एक स्थानमां पण पांचमी विभक्तिज लेवाय, तेज प्रमाणे अहींआं कर्मवर्गणाना एकपणामां तेना विशेषना अवधिपणे उपादान करवाथी पांचमीज विभक्त योग्य छे. तेथी विशेष अधिक वेदनीयमां छे. आ प्रमाणे Bा प्रदेशबंध कह्यो. तथा समुदान कर्म पण का. REGRESSESSACRENA -RSSC Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे इर्यापथिक कहे छे-दर, धातुनो अर्थ गति अने प्रेरणा छे. अने भावमां य प्रत्यय लागवाथी स्त्रीलिंगे इर्या शब्द थाय छे, आचा तेनोपंथ ते इर्या पंथ छे तेनो आश्रय थाय ते इर्यापथिक जाणवी. प्रश्न-इर्यानो पंथ क्यो छे ! के जेने आश्रयी पथिकी थाय छे ? उत्तर-आ व्युत्पत्ति ( उत्पन्न थवाने ) निमित्त छे कारण के ते उभा रहेनारने पण थाय छे. पण प्रवृत्ति निमित्त तो स्थि सूत्रम् ॥२७५॥ तिनो अभाव छे, अने ते उपशांत क्षीणमोह तथा सयोगीकेवळीने होय छे कारण के संयोगीकेवळीओ बेठेला होय तोपण निश्चयथी ||॥२७५॥ सूक्ष्म गोत्रना संचारवाला होय छे. __"केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ता णं पडिसाहरेजा, पभृ णं भंते ! केवलो तेसु चेवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए ? णो इणढे समढे, कहं ?, केवलिस्सणं चलाई सरीरोवगरणाई भवंति, चलोवगरणताए केवली णो सञ्चाएति तेसु चेवागा सपदेसेसु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए' प्रश्न-हे भगवंत ? जे समयमा केवळज्ञानीए जे आकाश प्रदेशोमां हाथ अथवा पग पहेलां मुकीने पाछो ते जग्याए लइ शके? उत्तर-हे गौतम. ते समर्थ नथी. प्रश्न-शा माटे. ? उत्तर-केवळज्ञानीना पोतानाशरीरना भागो चलायमान होय छे, तेथी। * करीने जे भागमा प्रथम हाथ पग मुक्या होय त्यांथी पाछा लेतां सहेजसाज वांकुं थइ जाय. एटले थोडो फेर पडी जाय.. ___ आप्रमाणे वधारे सूक्ष्म शरीरना संचाररूप योगवडे जे कर्म बंधाय ते इर्यामां थएल होवाथी र्यापथिक छे.कारणके तेमां | LCCASSASSES CASISASHASA2 5 -6 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEX सूत्रम् ॥२७६॥ गतिनोज हेतु छे, अने ते बे समयनो छे एटले पहेला समयमां बांधे अने बीजा समयमा भोगवे अने ते कर्मनी अपेक्षाए त्रीजा सआचा05 मयमां अकर्मता थाय छे.. प्रश्न-कवी रीते ? उत्तर-जे प्रकृतिथी सातावेदनीय छे, ते कषाय विनानुं छे, अने तेथी स्थितिनो अभाव छे, तेथी बंधा॥२७६॥ है। ववानी साथे खरी पडे छे, अनुभावथी अनुत्तर विमानमा उत्पन्न थएल देवता अतिशय सुखने भोगवे, ते प्रदेशथी स्थुल लुख्खा 15 धोळा विगेरे बहु प्रदेशवाला छे. का छे के अप्पं बायरमउयं बहुं च लुक्खं च सूक्किलं चेव । मंदं महत्वतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं ॥१॥ स्थितिथी अल्प छे, कारण के त्यां स्थितिनो अभाव छे, परिणामथी बादर छे, अने अनुभावथी मृदु ( कोमळ ) अनुभाव छे, प्रदेशथी बहु छे, अने स्पर्शथी लुख्खं छे, वर्णथी शुक्ल (धोलु) छे लेपथी मंद छे जेमके करकरी भूकीनी मुठी भरीने पालीस 8 करेली भीत उपर नाखतां जेम अल्प (नही जेवो) लेप थाय, तेम महाव्यये करेलु ते एक समयमांज बधुं दूर थइ जाय छे, साता वेदनीना घणापणाथी अनुत्तर विमानना देवता, सुखनु घणापणुं छे ( सुख भोगववा छतां तेमने अल्पमोहथी नवां अशुभ कर्म 4धातां नथी) इर्यापथिक कह्यु. हवे आधा कर्म कहे छे-जे निमित्तने आश्रयी पूर्वे कहेला आठे प्रकारना कर्म बन्धाय ते आधाकर्म छे, अने ते शब्द, स्पर्श, रस, रुप, अने गंध विगेरे छे, जेमके शब्द विगेरे काम गुणना विषयनो रसीयो सुखनी इच्छाथी मोहमा जेनी बुद्धि हणाइ गइ छे, *54545A CSAMSHEOSSSS 5 %A3456 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द एवो जीव खरीरीते ते विषयोमा सुख नथी, छतां तेमां मुखनो खोटो आरोप करीने तेने भोगवे छे, तेथी कां छ:आचा० "दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःख बुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदप सूत्रम ङ्क्ति रिबान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगति प्रयोगात् ॥ १ ॥” (वसंत तिलका) ॥२७७॥ दुःखरुप-विषयमा सुखर्नु अभिमान करीने खरा सुखरुप नियम विगेरेमा जे मूर्ख माणस दुःखरुप माने छे, ते माणस कोत ४॥२७७॥ रेला अक्षरपदनीश्रेणी माफक अन्यरुपे छतां ते रुपवाळी विपरित गतिना प्रयोगथी तेने खरापणे माने छे. एनो भावार्थ आ छे के, है कर्म निमित्तथी थयला-मनोहर अथवा कठोर शब्द विगेरेज आधाकर्म छे (एटले रागद्वेष करवाथी चीकणा कर्म बंधाय छे.). हवे तपकर्म कहे छे-ते आठ प्रकारना कर्मने बांधेला स्पर्श थयेला निधत्त (मळीगयेला), निकाचित (पक्का जोडायेला) एवा एकरुपे थयला कर्मने पण निर्जरा करनार ए तप छे, ते बाह्य .अने अभ्यंतर.एम वे भेदे वार प्रकारे छे ते नपकर्म छे... हवे कृतिकर्म कहे छे-तेज आठ कर्म ने दुर करनार अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय संबंधी नमस्कार विगेरे छे. हवे भावकम कहे छे--अबाधाने उल्लंघी पोताना उदयमां आवेला; अथवा उदीरणा करवा वडे उदयमां लावेला जे पुद्गळो छे, ते प्रदेश तथा विपाकवडे भव, क्षेत्र, पुद्गळ, जीवोमां अनुभाव करावे; ते भावकम शब्दना नामे ओळखाय छे. आ प्रमाणे नाम विगेरे दश प्रकारना निक्षेपावडे कर्मनी व्याख्या कही; पण अहींयां समुदान कम थी ग्रहण करेला आठ प्रकारना कर्म वडे अ-14 धिकार छे, ते नीचली अहधी गाथावटे वतावे छे. KAAAAA-% Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० SECREGARCASRAL अट्टविहेण उ कम्मेण,एत्थ होई अहीगारो ॥ १८४ ॥ आठ प्रकारना कर्म वढे अहीं अधिकार छे अने एज प्रमाणे सूत्र अनुगमवढे सूत्र बरोबर उच्चारतां निक्षेप नियुक्ति अनुगमवडे | सूत्रम् दरेक पदमां नामादि निक्षेपा करीने व्याख्यान कयु. हवे ते उत्तरकाळना मूत्रनुं विवरण करे छे. ॥२७८॥ __ जे गुणे से मुलढाणे, जे मूलठ्ठाणे से गुणे । इति से गुण्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो रसे है। पमत्ते पिया मे माया मे भज्जा मे पुत्ता मे धुआ मेण्हुसामे सहिसयणसंगथसंथुआ मे, बिवित्तुवगरणपरिवणभोयणच्छायणं मे । इच्चत्थं गढिए लोए अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुठ्ठाई, संजोगट्ठो अट्टोलोभीआलंपेसहसाकारे, वेणिविठ्ठा चित्ते, एत्थ सत्थे पुणो, पुणो अप्पं च खलु आ'उयं इह मेगेसिंमाणवाणं तंजहा ॥ ६२ ॥ पूर्वना सूत्र साथे तथा ते अगाउना सूत्रो साथे ६२ मा सूत्रनो संबंध बताववो ते आ प्रमाणे छे, गया सूत्रमा कह्यु हतुं केः-"सेहुमुणि" इत्यादि. ते मुनि परिज्ञातकर्मा छे, जेने आ मळ गुण विगेरे मळेला छे. परंपर सूत्र संबंध आ प्रमाणे छे. 'सेजं पुण' विगेरे एटले जे पोतानी बुद्धिवडे अथवा तीर्थकरना उपदेशथी, अथवा तीर्थकर शिवाय बीजा आचार्य पासेथी सांभळीने जे जाणे; अने तेनो विचार करे; ते जे गुणु छे, ते मूळ स्थान छे, एमःवीजां सूत्रो साथे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध छे, तथा पहेला सूत्र साथे आ संबंध छे. "सुर्यमेआउसंतेणं" इत्यादि में भगवान पासे आ प्रमाणे सांभळ्यु विगेरे छे. आचा० प्रश्न-में शुं सांभळ्यु ? उत्तर--जे गुणो सेमल ठाणे इत्यादि जे गुजरातीमां सर्वनाम छे, ते एक वचनमा छे. ते एम सूचवे 8छे के जेना बडे गुणाय भेदाय अथवा विशेष बतावे ते गुण छे अने अहीं ते शब्द, रुप, रस, गंध, अने स्पर्श, विगेरे छे, अने सूत्रम् ॥२७९॥ द मूळ एटले ते निमित्त कारण छे, अने प्रत्यय ते पर्यायो छे, ते जेमां रहे ते स्थान छे. मूळमां स्थान ते मूळस्थान छे, अने ते वा- 10 ॥२७॥ क्योनुं विवेचन करनार छ, तेथी ते न्याये जे शब्दादिक काम गुण छे, तेज संसाररुप चार गति नारक तिर्यंच, मनुष्य, देवतुं मूळ छे, ते मूळ कारण कपायो छे, तेओनुं स्थान एटले आश्रय छे, ते आश्रय ज्यारे सुंदर अथवा कठोर शब्द विगेरे प्राप्त थाय त्यारे कषायनो उदय थाय छे अने तेथी संसार छे.. अथवा मूळ ते कारण अने तेज आठ प्रकारनां कर्म छे तेनुं स्थान आश्रय ते काम गुण छे. अथवा मूळ ते मोहनीय कर्म अथवा तेनो भेद काम (संसारी इच्छा) छे, तेनुं स्थान शब्द विगेरे विषय गुण छे अथवा मूळ 2 ते शब्दादिक विषय गुण छे, तेनुं स्थान इष्टअनिष्ट विषय गुणना भेदवडे व्यवस्थामा रहेलो गुणरुप संसारज छे. अथवा आत्मा पोते शब्दादि उपयोगथी एक पणे होवाथी ते गुण छे अथवा मूळ ते संसारमा तेना स्थान रुपे शब्द विगेरे छे, अथवा कषायो छे, तथा गुण पण शब्दादिक अथवा कपायथी परिणत थएलो आत्मा संसारनुं मूळ छे, तेनुं स्थान शब्दादिक छे, ४ अने गुण पण तेज छे, तेथी वधी रीते सिद्ध थयु के जे गुण तेज मूळ स्थान छे. -SCREE+RECR5 GANGREECE5CESS R A -% Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 756 आचा० सूत्रम् ॥२८०॥ ॥२८॥ CRESCRECA प्रश्न-सूत्रमा वर्तन क्रियाने नथी लीधुं छतां शा माटे प्रक्षेप करी छो? उत्तर-ज्यां कोई विशेष क्रिया लीधी न होय त्यां पण सामान्य क्रिया होय छे, तेथी पहेलांनी क्रियाने लइने वाकय समाप्त कराय छे, ए प्रमाणे वीजे पण ज्यां साक्षात् क्रिया न लीधी होय त्यां पण पूर्वनी सामान्य लेवी अथवा मूळ ते आध (प्रथम) अथवा प्रधान छे, अने स्थान ते कारण छे, तेमां मूळ अने कारण ए वेनो कर्मधारय समास करीए; तो एवो अर्थ थाय के जे शब्दादि-गुण छे, तेज मूळ स्थान संसारनुं प्रधान कारण छे बाकी वर्षा पूर्व माफक लेवु. ते गुण अने मूळ स्थान -नियम्य-(दोर: ववा योग्य) तथा नियामकभाव बतावतां तेना तेना स्वीकारेला विषय कपाय विगेरेनां बीज अने अंकुरना न्यायवढे परस्पर कार्य-| कारणभाव सूत्रवडेज वतावे छे, एटले संसारनं मूळ अथवा कर्मचें मूळ अथवा कपायोनें स्थान आश्रय ते, शब्दादि गुण पण आज छे, अथवा कपाय मूळ शब्ददिकनुं जे स्थान छे, ते कर्म संसार छे, अने ते ते स्वभावनी माप्तिथी गुण पण तेज छे, अथवा शब्दादिक कपाय परिणाम मूळ जे संसार अथवा कर्मन जे स्थान मोहनीयकर्म छे, ते शब्दादि कपायथी परिणामवाळो आत्मा छे, तेना गुणनी प्राप्तिथी गुण पण तेज छे, अथवा संसारकषाय मूळ जे आत्मा, तेनुं स्थान विषयोनो अभिलाष ते पण शब्दादि विषयपणाथी गुणरुपज छे, अने अहींया विषयना लेवाथी विषयीना पण आक्षेपथी, अने मुचन मात्र करवाथी सूत्रनुंपण. एम जाणवू के, जे जीव गुणमां, अथवा गुणोमां वर्ते छे, ते मूळ स्थानमां अथवा मूळ स्थानोमां वर्ते छे, अने जे मूळस्थान विगेरेमा वर्ते छे, तेज गुणोमां वर्ते छे. RECENESS Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥२८१॥ ASSAGAR जे जीव पूर्वे वर्णवेला शब्दादिक गुणोमां वर्तेः तेज संसार मूळ कषाय आदि स्थान विगेरेमा वर्ते छे, अने तेज वीजा मूत्रनी अपेक्षावडे व्यत्यय करवाथी पूर्व माफक योजq; कारणके सूत्रनुं अनंतगम अने पर्यायपणुं छे. सूत्रम् वळी आ पण जोQ. जे गुण तेज मळ स्थान छे, अने जे मूळ तेज गुण.स्थान पण तेज छे अने जे स्थान तेज गुण अने मूळ पण तेज छे. आ प्रमाणे बीजा विकल्पोमां पण योजq अने विषयना निर्देश (बताववा) मां विषयी पण वतावी दीधो छे. जे गुणमां वर्ते | ॥२८१॥ ६ छे. तेज मूळस्थानमां वर्ते छे. ते प्रमाणे बधे जाणवू. अही0 सर्बज्ञन कहेलं होवाथी सूत्रनुं अनंत अर्थपणुं जाणवू ते आ प्रमाणे छे. है अहीआं कषाय विगेरे मूळ बताच्यु. अने क्रोध विगेरे चार कपायो छे. वली अनंता-बंधी विगेरे चार भेदे क्रोध छे. अने । अने अनंतानुवंधीनां असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण बंधना अध्यवसायनां स्थान जाणवां तथा तेओना पर्यायो पण अनंता छे. ४ तेथी प्रत्येकने स्थान गुणना निरुपणवडे सूत्रनुं अनंत अर्थपणुं थाय छे. छमस्थ (केवळ ज्ञानविनाना) जीवोने बधा आयुष्यमों पण ५ ते मेळवीन शकाय तेथी अनंत पणाने लीवे समजाववाने पण अशक्य छे. पण एम अहीं आ दिशावडे थोडामां दिगदर्शनरूपे वताव्यु छे. अने कुशाग्र (तिक्षण) बुद्धिवालाए गुण स्थानोर्नु परस्पर कार्य कारण भाव विगेरेनी संयोजना करवी. तेथी आ प्रमाणे जे गुण तेज मूळस्थान, अने जे मूळस्थान तेज गुण एम कहां, तेथी शुं समजवू ते कहे छे "इतिसे गुणठी" विगेरे अहीआं इति शब्द हेतुना अर्थमां छे. एटले जे शब्दादि गुणथी परीत. (व्याप्त) आत्मा छे ते कषायना मूळ स्थानमा वर्ते Kछे. अने वधाए पाणीओ गुणना प्रयोजनवाला छे. तथा गुणना रागी छे. तेथी गुणोनी प्राप्तिमा अथवा प्राप्त थइने नाश थतां ॐAE Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख सत्रा CER-R इच्छा अने शोक वडे ते घणा परिताप वडे शरीर तथा मनना संबंधी दुःखवडे हारी जइने वारंवार ते ते स्थानमा उद्यम करे छे. आचा० ४ अने त्यां प्रमत्त बने छे. अने प्रमाद छे ते रागद्वषतुं स्वरुप छे. अने राग विना प्रायः द्वेष थतो नथी तथा राग पण उत्पत्तिथी मांडीने अनादि भवना अभ्यासथी माता पिता विगेरे सबंधी थाय छे. ते वतावे छे. कोइने "मायामे" एटले मासंबंधी राग संसा-181 ॥२८२॥ रना स्वभावथी माताए उपकार करवाथी तेना उपर राग थाय छे. अने तेवो राग थतां मारी मा भूख तरसथी न पीडाओ तेटला माटे तेनो दिकरो खेती, वेपार, नोकरी विगेरे वीजा जीवोने दुःख आपनारी क्रिया आरंभे छे, अथवा तेनो उपघात करवा वाळी ते क्रियामां वर्त्ततां अथवा माता विगेरे अकार्यमा प्रवर्त्ततां द्वेष थाय छे. ते आ प्रमाणे छे. जेमके. जमदग्नि' रुपिनी स्त्री रेणुकामां अनंत वीर्य राजानो दुराचार जोइ परशुरामने द्वेप थयो (अने परस्पर महान अनर्थ कयों) एज प्रमाणे कोइने मनमां थायके आ मारो पिता छे. तेथी तेने ते संबंधी रागद्वेष थयो छे. जेमके तेज परशुरामने पाप उ5 पर प्रेम होवाथी तेने हणनार उपर द्वेष लावीने सातवार क्षत्रिओने मारी नाख्या. ___अने तेथी क्षत्रीय पुत्र सभूम चक्रवर्तिए. एकवीस वार ब्राह्मणोने मार्या कोइ पाणी बेनना माटे कलेश पामे छे. कोइ स्त्री माटे रागद्वेष करे छे, जेमके चाणाक्य नामना ब्राह्मणे वेन तथा चनेवी विगेरेए पोतानी स्त्रीन करेलु अपमान सांभली तेनी प्रेरणाथी " नंदराजा" पासे द्रव्य माटे जतां नंदराजाए तेनुं अपमान कर्यु तेथी चाणाक्ये क्रोधमां आवी नंदन कुळ क्षय करी नाख्यु, (चाणाक्यनी स्त्री तेना बनेवीने त्यां गयेलो त्यां गरीवीथी ते, अपमान थy, RESCERARMS Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सूत्रम् ॥२८३॥ स्त्रीए पोताना पति चाणाक्यने वात करी. तेथी धन लेवा नंदराजा पासे गयो त्यां धनने बदले अपमान मळ्यु तेथी चाणाक्ये नं-1 आचा० दराजाना कुलनो नाश कर्यो.) कोइ विचारे छे के मारे पुत्रो जीवता नथी. ते जीवाडवा बीजा आरंभो करे छे, कोइ प्राणी मारी दीकरी दुःखी छे, एवा राग ॥२८३॥ | अथवा द्वेषथी घेला जेवो बनी परमार्थने न जाणतो एवां एवां कृत्यो करे छे के जेनावडे आलोक परलोकमां नवां दुःखोने भोगवे छे. ___जेमके "जरासंध" नामनो प्रतिवासुदेव. पोताना जमाइ कंसना मरणथी पोताना लश्करना अहंकारथी कंसने मारनार "वासुदेव" || है (कृष्ण.) ना उपर कोप करीने तेना पाछळ जइने लडाइ करतां सेना साथे नाश पाम्यो. कोइ तो मारी पुत्रवधु जीवती नथी, तेथी आरंभ विगेरेमा वर्ते छे. कोइ मित्र माटे, कोइ स्वजन. (काका, दिकरा के साळा) माटे क्लेश करे छे. के ए मारा वारंवार परिचयमा आवेला छे. अथवा पूर्वे मारा माता पिता उपकारी हता अने पाछळथी साळा विगेरे उपकारी हता ते अत्यारे दुःखी छे. एम माणीओ कोइना कंइपण निमित्ते शोक करेछे. अथवा जुदा जुदां शोभायमान अथवा घणा हाथी घोडा रथ, आसन, पलंग विगेरे जे उपकरणो छे तेनाथी बमणा, तमणा विगेरे वधारे राखीने बदले छे. तथा भोजन (लाड विगेरे) आच्छादन (पट्ट युगम विगेरे वस्त्र मने मळशे, अथवा मारां'नाश थयां एम रागद्वेष करे छे आ प्रमाणे पाणीओ चेतन वस्तुमां गृध्ध वनीने पूर्वे कहेला माता पिताविगेरेना रागथी आखी जींदगी सूधी प्रमादि रहे छे एटले ए मारांछे. अथवा हुंआ परिवारनो रक्षक छु, पोषण करनारो छ एम ममता करीने मोहीत मनवालो थाय छे. ... . .. RERA KC Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् SAE% ॥२८॥ P" पुत्रा मे, भ्राता मे, स्वजना मे, गृहकलत्रवगों मे । इति कृतमेमेशब्दं, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥१॥ आचा० मारा पुत्रो मारा भाइओ, मारां सगां मारांघर, तथा स्त्री समुदाय छे. आq पशुनी माफक मे मे 'बोलता माणसने मृत्यु हरी जाय छे. Pens पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषनरो व्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः परिग्रहादुःखमाप्नोति ॥२॥ पुत्र, स्त्रीनु परणवू तेथी तथा उपर ममता राखवी ए दोषोथी माणस नाश पामे छे जेमके कोशेटानो वनावनार कृमि (रेशमनो) । कीडो कोशेटाना दुःखथी मरण पामे छे तेम संसारी मनुष्य स्त्रीपुत्रनी चिंतांमां रीबी रीवीने मरे छे. आज सूत्र अर्थने मळतुं नियुतिकार बे गाथा वडे कहे छे. संसारं छेतुमणो कम्मं, उम्मूलए तदट्ठाए । उम्मूलिज्ज कसाया, तम्हा उ चइज्ज सयणाई ॥१८५॥ द नरक विगेरे चार गतिरुप संसार, अथवा माता, पिता, स्त्री विगेरे उपर प्रेम छे. ते संसार छे तेने जडमूळथी छेदवानी इच्छा है P वालो कर्मने मूळथी उखेडी नाखे तेटला माटे कर्मोनुं मूळ कषायो छे, तेने दूर करे. | माया मेति पिया मे, भगिणी भाया य पुत्तदारा मे । अत्थंमि चेव गिद्धा, जम्मणमरणाणि पावंति॥१८॥ अने ते दर करवा माटे पूर्वे बताव्या प्रमाणे माता पिता विगेरेनो स्नेह छोडी दे. जो न छोडेतो माता पिता विगेरेनो संयोगना अभिलापीओ तेमना मुख माटे रत्नकुपी (रसकुपी जेना बडे सोनुं बने छे ते) ना माटे गृध्ध बनीने तेमां अनेक पाप करतां 5 जन्म जरा अने मरण विगेरेना दुःखोने भोगवे छे ए प्रमाणे कषाय अने इन्द्रियोमा प्रमादि थएलो माता पिता विगेरे माटे धन में %AGAR-SARAN 5 % Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२८५॥ मेळववा तथा मेळवेलान रक्षण करवा फक्त दुःखनेन भोगवे छे, तेज मूळ सूत्रोमां बताव्युं छे के अहो (दिवस) राओ आचा० मां, अने सूत्रमा “च" शब्द छे तेथी पक्षमासमां सारा धर्मना विचारो छोडीने बधी रीते चिंतामां वळतो रहे छे जेमके " कइया वच्चइ सत्थो?कि भण्डं कत्थ कित्तिया भूमी। को कयविकयकालो, निविसइ किं कहिं केण?॥१॥ ॥२८५॥ क्यारे आ सार्थ (वेपारीओनो समूह) उपडशे? शुं माल छे ? केटले दूर जq छे तथा लेवा वेचवाने कयो काळ छे अथवा द्र कयु कयां कोना वडे आ चोकळु बेसशे ? (कार्य सिद्धि थशे) विगेरे चिन्तामांबळतो रहे छे अने ते चिन्ताग्रस्त केवो थाय छे. ते कहे छे. काळ (योग्य समय) अकाळ (अयोग्य समय) मां उठीने एटले दिवसमां जे करवान होय ते काम रातना करे अथवा प्रभातनुं काम सांजना करे विगेरे अथवा काळ अकाळ ए बनेमां करे अथवा अवसरमां न करे, तेम बीजा वखतमा ए न करे, जेम कोइ ४धन विगेरेनी हानी थतां गांडो बनी गमे तेम करे पण तेने काळ अकाळनो विवेक नथी एम जाणवू. जेमके "चंडमधोत" नामना राजाए मृगावती नामनी राणी, जेनो पति "शतानिक" राजा मरण पामेलो छे. तेना कहेवाथी मोहीत थइने जे काळे किल्लो लेवानो छे ते काळे न लेतां किल्ला विगेरे नवा सुधरावीने लेवानी इच्छ करी (पण लइ शक्यो नहि.) पण जे योग्य काळे क्रिया करे छे. ते बाधा रहीत वधी क्रिया करे छे. का छे के "मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा। तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण, येनान्ते सुखमेधते ॥१॥" आठ मास तथा दिवसे तथा जुवानीमा पहेला आयुष्यमां माणसे कृत्य करी लेवु एटले बार मासमां चोमासाना चारमासमां +9ARCHAEHRA RASISA-135 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणी कादव विगेरेनां दुःख न भोगवां पडे माटे कमावू के संग्रह करवो, ते आठ मासमां करवो, तथा रातना अंधारामां खराब 27 आचा०8 माल न आवे स्वपरनी हिंसा न थाय माटे दरेक कार्य दिवसना कर तथा पहेली अवस्थामा विद्या भणी धनउपार्जन करवु तथा सूत्र युवानीमां धर्म साधवो के जेथी पाछली वृद्धावस्थामां दुःख भोगव, न पडे अने सुख मेळवे. ॥२८६॥ जेम मृत्युने आवतां अकाळ नडतो नथी तेम धर्मनुं अनुष्ठान करतां पण अकाळ नडतो नथी, त्यारे शा माटे काळ अकाळनो 18 समुत्थायी थाय छे. ए माटे कहे छे. संजोगने माटे अर्थात् जेने प्रयोजन छे, ते तेने माटे करे छे. धन धान्य. सोनं बे पगवालां दि दास दासी अने चार पगवालां घोडा विगेरे तथा राज्य स्त्री विगेरेनो संसारमा अमुक अमुक कारणे संयोग थाय छे. तेने माटे अ थवा तो शब्दादि विषय तेनो संयोग अथवा माता पिता विगेरेना संयोगवडे तेने माटे संसारी जीवो काळमां अथवा अकाळमां काम करनारा थाय छे. कोइ अर्थ एटले रत्नकुपि विगेरे अथवा कोइ अत्यंत लोभने लीधे स्वार्थी बनी काळ अकाळ जोया विना ममण शेठ माफक करवा मंडे छे. ते ममण शेठन द्रष्टांत कहे छे आ शेठे अतिशय धन छतां युवावस्थामा (सुख भोगवq छोडीने) जळ स्थळने मार्गे | जुदा जुदा देशोमां माल भरीने वहाण गाडां उंटनी मंडली विगेरेना भारथी भरेलां मोकलीने (नफो मेळव्या छतां संतोप न पकडयो) पछी भर चोमासामा सात रात्री सुधी मृशळ प्रमाण जळ धारा पडते वरसादथी वधा प्राणी एक जग्याए स्थिर थया पण आ शेठ संतोष न पकडतां पोताना शहेरनी नजदीकमां रहेली महा नदीना पुरमा तणाइ आवेला लाकडां लेवानी इच्छावालो धननो उ15/पभोग धर्म नकरतां बधा शुभ परिणामने छोडीने फक्त धन मेळववामांज तैयार थयो तेज का छे. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२८७॥ "उपखणइ खणइ निहणइ रत्तिं, ण सुअति दियावि य ससंको। लिंपइ, ठएइ, सययं, लंछियपडिलंछिय कुणइ धन लोभी उंचेथी खोदे छे तथा खाण खोदे छे तथा जीवोनी हिंसा करे छे, रात्रिमां सुतो नथी दिवसे पण ' चिन्ता वालो होय छे. कर्मथी लेपाय छे विचार करतो पडी रहे छे तथा हमेशां लांच्छित तथा प्रति लांच्छित (लज्जास्पद कृत्य पण करे छे.) भुंजसु न ताव रिक्को, जेमेउं नविय अज्ज मज्जीहं । नवि य वसीहामि घरे, कायव्वमिणं बहुं अजं । २ । ” कोई कहे खा तो पण पोतानो वेपार पूरो न थाय त्यां सुधी तेने खावानुं सुझतुं नथी तेथी कहे के हुं स्नान नही करूं तेम घरमा रहीश नहीं अत्यारे मारे बहु काम छे. (अर्थात् लोभीओ कंइ पण मुख छते धने भोगवतो नथी तेम दान पण आपतो नथी). वली लोभीना अशुभ वेपारो बतावे छे. मूळ सूत्रमां आप शब्द छे. तेनो अर्थ आ छे. ते लोभथी हणायला अंतःकरणवालो वधा कर्त्तव्य अकर्त्तव्यनो विवेक छो| डीने अर्थ लोभमां एक दृष्टि राखीने आलोक अने परलोकमां दुःख आपनारी कलंकरूप गळां कापवां तथा चोरी विगेरे कृत्य करे छे, एटले तेनी मति सर्वथा लोपाइ गएली छे. सहसककारे – आगळ पाछळनुं विचार्या विना दोष भूलीने एकदम. ( सहसा ) कार्य करी नांखे ते काम करनारो (पा. र. १२७ सूत्र प्रमाणे) सहसककार जाणवो जेमके लोभ अंधकारथी छवाइ गएली दृष्टिवालो “हाय पैसो " माननारो शकुंत पक्षी माफक तीरनाघाने भूलीने मांसना अभिलाषथी सांधाना छेदनथी नाश पामे छे. ( पक्षीने फसाववा धनुष्यमां मांसनो टुकडो बांधे छे. सूत्रम् ॥२८७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने ते पक्षी खावा जतां तीर छुटे छे. अने पक्षी मरी जाय छे.) तेज प्रमाणे लोभी धनमां लुब्ध मनवालो थइ वीजा दुःखोने जोतो नथी.17 आचा० "विणि विछ चिठे"-(विविध) अनेक प्रकारे (निविष्ट) रहेल. पैसा मेळवंवा माटे चित्त जेनु छे, ते माणस अथवा जे सूत्रम् माणसने मातापिता विगेरेमां प्रेम रह्यो छे, अथवा जेने उत्तम गायन विगेरेनो रस लेवामां चित्त लाग्युं छे, अथवा सूत्रपाठमां चित्तने ॥२८८॥ बदले चिह लइए तो, कहे छे के:-ते माणस विशेषे करीने काय, वचन, अने मनना चचळपणाथी पैसो पेदा करवामां रातदिवस રદ્ધા चित्त राखे छे, तेज प्रमाणे मातापिता विगेरेनो प्रेम धारण करी संसारवाळो छ, अथवा अर्थनो लोभी थइने पापथी लेपातो वगर विचारे संसार-विपयमा एक चित्तवाळो बनीने हवे पछीथी शुं शुं करे ते.कहे छे. आलोकमां मातापिता विगेरेमां, अथवा. इंद्रिय-विषयमां लोलुपी बनी पृथ्वीकाय विगेरे जंतुने दुःख आपनारो ते पुरुष शस्त्र ६ वापरवामां वारेवारे तैयार थाय छे, ए प्रमाणे वारंवार पृथ्वीकाय विगेरेनी हिंसा करी नवां कर्म बांधे छे. जीवोने दुःख आपनार है शस्त्र बे प्रकारचें छे, एटले खारा कुवान पाणी मीठा कुवामां नांखे; तो. स्वकायथी हिंसा छे, अने अग्नि उपर पाणी नांखे तो, पर कायथी हिंसा छे, (ते पहेलां अध्ययनमां वताव्यु छे.) आ प्रमाणे उपर कह्या मुजब हिंसा करे छे. वळी मूळ मूत्रमा एत्थ सत्थे ने बदले बीजी जग्याए एत्थ सत्ते पाठ छे, तेनो आ प्रमाणेनो अर्थ छे. के मातापितामां अथवा पोते गायननो रसिक लोभी लोभमां है पीने सक्त (गृद्ध) बनीने वारंवार तेमां एक चित्तवाको थइने धर्मकर्म लोपीने विना विचारे काळ-अकाळ न जोतां पापमा प्रवर्ते छे. आ हालना जीवोने जो, अजरामरपद होय; अथवा लांचं आयुष्य होय; तो ते कर, घटे; पण टुंका आयुष्यमां, तथा मरण द्र माथे भमतुं होवाथी भोगनी इच्छाए व्यर्थ पाप करे छे. कारणके, हालना काळमां मोटामां मोठं आयुष्य निश्चयथी सो वरसनी REGA-SCARSAESCESS Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२८९॥ AAAAAAEOS 5 आसपास छे, अने नानुं आयुष्य क्षुल्लक (नाना) भव आश्रयी अंतर्मुहुर्त मात्र छे, अने वधारेमां वधारे त्रण पल्योपमर्नु छे तेमां पण संयजीवित (साधुपगुं) अल्पकाळ छे, तथा अंतमूहुर्त थी लइने थोडं ओर्छ.एq करोड पूर्वनुं आयुष्य छे. जेमा साधुपणुं उदय आवे ट्र त ते अपेक्षाए ते पण थोडुं छे, एटले गमेतेटलुं मनुष्यन आयुष्य होय; तोपण ते एक अंतर्मुहूर्त छोडीने बाकीर्नु अपवर्तन (अकाळX 5 मोत) थाय छे. तेथी का छे के: 1 ॥२८९॥ "अद्धा जोरक्कोसे, वंधित्ता भोगभूमिएसु लहुं । सव्वप्पजीविय, वज्जइत्तु उव्वढिया दोण्हं ॥ १॥” 18 उत्कृष्ट योगमां बंधना अध्यवसाय स्थानमां आयुष्यनो जे बंधकाळ छे. ते उत्कृष्टो काळ बांधीने जे जीव देव गुरु विगेरे भोग भूमीमां युगलिक तरीके जन्मे छे. तेनुं जल्दीथी बधु आयुष्य छोडीने तिर्यंच अने मनुष्यन अपवर्तन थाय छे. अने ते अपर्याप्त अंतर्मुहूर्त्तनुं अंतर जाणवू, त्यारपछी अपवर्तन थाय छे, (जे आयुष्य त्रण पल्योपमनुं छे, ते पण कारण विशेषथी ओर्छ थवा संभव छे.) सामान्यथी आयुष्य सोपक्रम जीवोने सोपक्रम छे, अने निरुपक्रमआयुष्यवालाने निरुपक्रम छे ते बतावे छे. ज्यारे जीवने पोतानुं आयुष्य त्रीजे भागे बाकी रहेछे. अथवा त्रीजानो त्रीजो (२) नवमो भाग बाकी रहे अथवा जघन्यथी एक बे अथवा उत्कृ हथी सात आठ वर्षे अथवा अंतकाळे काळे अंतर्मुहर्त काळना प्रमाणथी जीव पोते पोताना आत्मप्रदेशोने नाडिकाना अंतरमा रहेला 5 आयुष्य कर्मवर्गणाना पुद्गळोने प्रयत्न विशेषथी रचना करे छे. ते वखते निरुपक्रम आयुष्यवालो थाय छे, अने बीजीवखते आ युष्य बांधे तो उपक्रम आयुष्य थाय छे. उपक्रम ते उपक्रमणना कारणथी थाय छे. ते कारणो नीचे बताव्यां छे. FASASARAI Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥२९ ॥ " दंडकससत्थरज्जू, अग्गो उदगपडणं विसं वाला। सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिसा य वाही य ॥१॥ आचा० ४ दंड, चावखो, शस्त्र, दोरी, अग्नि, पाणी, पडी जवु, झेर, साप, अती ठंड, अती गरमी, अरति, भय, भूख, तरस, अने रोग (आ घणा प्रमाणमां थाय. एटले दंड विगेरेथी मार पडे तो लांबु आयुष्य पण टुंका वखतमां समाप्त थाय, जेने लोकमां अकाळ मोत कहे ॥२९०॥ IVछे, जेनाथी मोत थाय ते उपक्रम अने जेनुं मोत थयुं ते सोपक्रम मृत्यु कहेवाय छे. अने तेनुं जीवित पण पूरुं न थवाथी सोप क्रम आयुष्य कहेवाय. मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे भोयणे बहसो। घंसणघोलणपोलण आउस्स उवकमा एते ॥२॥ झाडो पीशाव रोकवाथी, भोजन जीर्ण थयां पहेलां वधारे खाय अथवा जीर्ण थया पछीथी पण वधारे खाय अथवा घर्षण. (घसारो) अथवा घोलन. अथवा पीडन-(शरीरने गजा उपरांत वोजो अथवा श्रम पडे ते)थी आयुष्यनो अंत आवे छे. तेथी ते 8 उपक्रमो छे. वळी का छे के. स्वतोऽन्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नृणां क्षणमपीह यजीव्यते। मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, कियच्चिरमवर्बितं दशनसङ्कटे स्थास्यति ? ॥ १॥ पोतानाथी के वीजाथी आम तेम सामे दोडती आवती आपदाओवाला मनुष्यो छे. तेमां तेमनी निपुणता जुओ के. क्षण पण ४ अहींआं जे जीवे छे. मोढामां फळ छे. घणी भूख लागी छे. रसवाल अने थोडे भोजन मल्यु छे. ते केटलो काळ चवाशे अने ते Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि दांतना संकटमां पडेलु रहेशे. (माणसो विषय तृष्णाना लोभी बनी तेने माटे आम तेम दोडे छे. पण ते भोग प्राप्त करवा पहेलां आचा० कयारे काळ झडपशे तेनी खबर पण नथी राखता ते आश्चर्यनी वात छे.) उच्छवासनी मर्यादावाला प्राण छे. अने ते उच्छ्वास पोते पवन छे अने पवनथी बीजुं कइ वधारे चंचळ नथी तो पण क्षणभरनु आयुष्य लोकोने मोह करावे छे. ते पण एक आश्चर्य छे. ॥२९॥ उच्छ्वासावधयः प्राणाः, स चोच्छासः समीरणः । समोरणाचलं नान्यत् क्षणमप्यायुरद्भुतम् ॥२॥ ___ आ प्रमाणे मनुष्यने मोह उतारवा का. वली जेओ लांवा आयुष्य वाला छे. तेओने पण उपक्रमण (आफत) ना अभावे आयुष्य भोगवे छे. तेओ पण मरणथी पण वधारे पीडा करनार बुढापाथी पीडाएला शरीरवाला सुखनी जींदगी अल्पमा अल्प भो-ल गवे छे, ते हवे सूत्रकार बतावे छे. तंजहा-सोयषरिणाणेहिं, परिहायमाणेहिं, चक्सुपरिणाणेहिं, परिहायमाणेहि घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं रसणापरिणाणेहि परिहायमाणेहिं फासपरिणाणेहि परिहायमाणेहि, अभिर्कतं च खल्लु है. वयं स पेहाए तओ से एगदा मृढभावं जणयंति ॥ ६३ ॥ भाषारुपे परिणमेला पुदगलोने जे सांभळे ते श्रोत (कान) छे, अने तेनो आकार कदंवना झाडना फुल जेवो द्रव्यथी छे, अने| भावथी तो जे भाषा द्रव्यने ग्रहण करवानी लब्धि, तथा तेनो उपयोगनो जे स्वभाव छे, ते जाणवू. पूर्वे कहेलां श्रोत्र (कानवडे) | विचारे वाजुथी घटपट शब्द विगेरे विषयोर्नु जे ज्ञान थाय; ते परिज्ञान छे, ते कानना परिज्ञानमां बुढापाना प्रभावथी जे सांभळवानी SACREAGRAAGRAASERECASS Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० मम ॥२९२॥ ॥२९२॥ RECANADA-IN शक्ति कमी (बहेराश) थाय तेथी ते पाणी बुढापामां, अथवा तेवाज रोगना उदयना वखतमां मूढभावपणाने पामे छे, जेथी करवा | योग्य न करवा योग्य, विवेक जतां अज्ञानपणुं इंद्रियोनी शक्ति कम थतां आवे छे. अने तेथी हित पाप्त करवू; अने अहित छोडवू; त तेनो विवेक नाश पामे छे. जेम कान संबंधी कयु; तेज प्रमाणे आंखनु पण बुट्टापामां के रोगमां विज्ञान नाश पामे छे. प्रश्न:-आत्मा साथे जेम काननो संबंध छे, तेम आंख साथे पण संबंध छे, त्यारे आंखनी माफक कानथी केम देखातुं नथी? उत्तर:-तेम थर्बु अशक्य छे, कारणके. तेना विनाशमां तेनो उपलब्ध (माप्त) अर्थनी स्मृतिनो भाव थाय छे, अने एवं देखाय पण छे के, इंद्रियना उपघात (नाशमां) पण तेनो उपलब्ध अर्थ- स्मरण थाय छे. जेमके, घोळु घर. तेमां बेठेलो पुरुष पांच वारीओथी देखायलो जे कंइ पदार्थ होय; ते वारीमाथी कोइपण वारी ढांकतां पूर्वे जोयलु; ते याद आवे छे, तेवीज रीते में कान8 वडे, सांभळ्यो अथवा आंखवडे धीमो (धीमाशथी) पदार्थ जोयो; अने में आ कान, जाण्यो अथवा आंखथी स्फुट (खुल्लो) अने स्पष्ट | पदार्थ जोयो, ते इंद्रियोनी करणपणानी अवगति (बोध) छे, तेथी आत्मा साथे दरेक इंद्रियोनो संबंध छे. वादीनी शंका-जो, एम छे तो; वीजी पण इंद्रियो छे, ते केम न लीधी ? (वीजी कइ इंद्रियो छे? एवं पूछो तो नीचे बतावीए छीए) जेवी के जीभ हाथ पग टटी अने पेशाबनी इंद्रियो तथा मन ए केम न लीधी? जेमके वचन बोलवाथी ते पण जीभ स इंद्रिय छे. तथा लेवा मुकवामां हाथ इंद्रिय छे. चालवामांपग इंद्रिय छे तथा मळ काढवामां टटीनी इंद्रियं छे. अने संसारी आनंद भोगविवामां गुह्य इंद्रिय छे. तथा विचार करवामां मन इंद्रिय छे.आ छ इंद्रियो पण आत्माने उपकार करे छे. तेथी तेमांपण करणपणुंघटे छे. अने करणपणाथी इंद्रियपणुं छे. तेथी वधी मलीने अगीआर इंद्रियो थाय छतां तमो पांच इंद्रियो केम बतावो छो? HASHASEX Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यनो उत्तर-एमां कंड दोप नथी कारणके अहीं आत्माना विज्ञाननी उत्पत्तिमां जे विशेष उपकारक होय छे. तेज कआचा० तारण (जेना बढे कार्य थाय ते) पणे लेवाथी पांचज इन्द्रियो छे. अने जीभ हाथ पग विगेरे आत्मा साथे साधारण रीते एक पणे सूत्रम् होवाथी करण पणे वपराती नथी अने कंड पण क्रियाना उपकारपणाथी जो करण पणुं मानीए तो ते प्रमाणे "V" (पांपण) अथवा ॥२९३॥ 15 उदर (पेट) विगेरे पण उंचेनिचे थवानो संभव होत्राथी तेनामां पण करण पणु थाय, बली इन्द्रियोना पोताना विषयमा नियत (चोकस-18/॥२९३॥ द्र पणुं) होवाथी एकनुं काम बोजी करी शकवाने शक्तिवान नथी. तेज कहे छे के:-रुप जोवाना काममां आंख काम लागे पण आंखने वदले आंखना अंभावमां कानं विगेरे काम न लागे पण जे रस विगेरे प्राप्त थतां थंडा विगेरे स्पर्शनो लाभ थाय छे ते स्पर्शन सर्व व्यापिपणुं होवाथी त्यां शंका न करवी के जीभथी चाखतां खारा खाटा साथे ठंडो उनो पदार्थ लागेछे तेथी जीभ जीभन पण काम करे छे तेम वीजी इन्द्रियनुं काम करे छे. Vतेम न मानवू पण जीभमा स्पर्श इन्द्रियनु पण सर्व व्यापिपणुं छे एम जाणवू. अहींआं हाथ कापवा छतां तेनुं कार्य जे लेवापणुं छे. ते दांतथी पण लेवाय छे. तेथी हाथमां लेवाना कारणथीज ते इन्द्रियद्र पणुं मानवं ते नका, छे. अने मन- सर्व इन्द्रियो उपर उपकारपणं होवाथी. तेने अंतःकरणपणे अमे इच्छिए छीएज, अने वाह्य इन्द्रियोना विज्ञानना उपघात वडे ते छे. अने ते तेमां समाइ जवाथी मनने तेमां जुएं लीधुं नथी. अने प्रत्येकनुं ग्रहण करवू ते क्र. . मनी उत्पत्तिना विज्ञानना उपलक्षण माटे छे. तेज बतावे छे. जे इनद्रियनी साथै मन योजाय छे तेज पोताना विषयनो गुण ग्रहण करवा माटे व छे. पण बीजो ग्रहण करवाने माटे नही. ॐॐॐॐ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२९४॥ प्रश्न – दिर्घ शष्कुली. (तळपापडी) खावा विगेरेमां पांच इन्द्रियोनुं विज्ञान थाय छे। अने ते साथे अनुभव थाय छे, ते केवी रीते छे? उत्तर - तेम नथी. कारणके. केवळीने पण वे उपयोग साथे नथी. त्यारे वीजानेतो आरातीय (अल्पमात्र) भाग जोनारने पांचेने उपयोग साथै कयांथी होय आ वावतमां अमे बीजी जग्याए विस्तारथी कछु छे. तेथी अहीं कहता नथी अने जे साथेना अनुभवनो आभास थाय छे. ते मननुं जल्दी दोडवानी वृत्तिपणानुं छे. कछु छे के " आत्मा सहति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति ?, यस्मिन्मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥ १ ॥ आत्मा मननी साथे जाय छे। अने मन छे ते इन्द्रिय साथै जाय छे। अने इन्द्रिय पोताना इच्छित पदार्थ मां जाय छे. अने ते क्रम शीघ्र वने छे. आ मननो योग शुं अजाण्यो छे के जेमां मन जाय छे त्यां आत्मा गएलोज छे. अ अह आ आत्मा, इन्द्रियोनी लब्धिवाळो शरुआतथीज जन्मना उत्पत्ति स्थानमां एक समयमां आहार पर्याप्तिने निपजावे छे. त्यार पछी अंतर्मुहूर्त्तमां शरीर पर्याप्तिने निपजावे छे. त्यार पछी इन्द्रिय पर्याप्तिने तेटलाज काळमां निपजावे छे. अने ते पांच इन्द्रियो स्पर्श रस घ्राण चक्षु अने श्रोत्र एम छे. ते पण द्रव्य अने भाव एम दरेक वे भेदे छे. तेमां द्रव्य इन्द्रिय निवृत्ति अने उपकरण एम वे भेदे छे. निरृत्ति पण अंतर अने बाह्य एम वे भेदे छे. नाथ निर्वाह थाय ते निवृत्ति छे. अने ते कोनाथी निर्वाह थाय छे.? तेनो उत्तर - कर्मवढे निर्वाह थाय छे. सूत्रम् ॥२९४॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२९५॥ _तेमां उत्सेध ( लोकमां वपरातुं माप आंगळीनुं) अंगुलना असंख्येय भाग जेटला शुद्ध आत्म प्रदेशना प्रतिनियत चक्षु विगेरे इंद्रियोना संस्थान वडे जे वृत्ति अंदर रहेली छे ते निवृत्ति जाणवी . ते आत्मा प्रदेशोमांच इंद्रियना व्यपदेशने भजनार जे प्रतिनियत संस्थानवालो निर्माण नामना पुद्गल विपाकवाली ( कर्मप्रकृतिवडे) वर्द्धकि ( सुतार माफक ) विगेरे विशेष रूपवालो (इंद्रिय विभाग) अने अंगोपांग नामना कर्मवडे बनावेल जे छे ते बहारनी निर्वृत्ति जाणवी. (आ उपर जे वर्णन कर्तुं ते शरीरनी अंदर अने बहार ज्यां जे इंद्रिय रहेली छे तेनुं बने प्रकारनुं वर्णन बताव्युं छे, बहारनी | इंद्रियो दरेकनी देखाय छे पण अंदरनी तो आत्मज्ञानी जाणी शके छे) उपरनी वतावेली निवृत्ति वे प्रकारनी कही तेने जेना वढे उपकार कराय छे ते उपकरण छे अने ते इंद्रियोना कार्यमां समर्थ छे. वली निर्वृत्ति होय अने हणाइ नहोय तो पण मथुर ( जेनी | दाळ थाय छे) तेना आकार वाली निर्वृत्तिमां तेने जो उपघात थाय तो आंख जोइ शकती नथी (आंखनो बहारनो आकार मथुरनी दाळ जेवो छे, जोते नाश पामे तो अंदर आत्मानी शक्ति छे छतां ते जोड़ शकतो नथी माटे बहारना आकारने उपकरण कधुं छे. पण निर्वृत्ति माफक वे प्रकारे छे तेमां आंखनी अंदरनुं काळं धोळं मंडळ छे अने बहारनुं पण पांदडांना आकारे वे पापण विगेरे छे, (ते सौने जाणीतुं छे.) आ प्रमाणे बीजी इंद्रियोमां पण जाणी लेवु. भावइंद्रिय पण लब्धि अने उपयोग एम वे भेदे छे. तेमां लब्धि छे, ते ज्ञानदर्शन आवरणीय कर्मना क्षय उपशमरुप जेना सं सूत्रम् ॥२९५॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ २९६ ॥ निधानथी आत्मा द्रव्य इंद्रिय निर्वृत्ति तरफ जाय छे, अने तेना निमित्तथी आत्मानो मनना जोडाणथी पदार्थतुं ग्रहण करवानो व्यापार थाय ते उपयोग छे, ते आछती लब्धिए निरृत्ति उपकरण, अने उपयोग छे, अने छती निवृत्तिमां उपकरण अने उपयोग छे, अने उपकरण होय; त्यारे उपयोग थाय छे. आ कान विगेरे बधी इंद्रियोना आकार अनुक्रमे नीचे मुजव जाणवा. काननो आकार कदंबना फुल जेवो छे, आंखनो मशुर जेवो, अने नाकनो कलंबुका ना फुल जेवो छे, जीमनो क्षुरत्र ( खरपो, तावेता) ना आकार जेवो, तथा शरीरनो स्पर्श, इंद्रियोनो आकार जुदी जुदी जातनो छे एम जाणवुं. काननों विषय. बार योजनथी आवेला शब्दने ग्रहण करे छे, अने आंखनो विषय. एकवीस लाख योजनथी कंइक अधिक दूर होय; अने ते प्रकाश करनार होय; ते देखाय छे. पण प्रकाश करवा योग्य. होय, ते एकलाख योजनथी कंक अधिक होय; तेवा रुपने ग्रहण करे छे, पण वाकीनी इंद्रियोनो विषय 'नव योजनथी आवेलो होय; तेने ग्रहण करे छे, अने जघन्यथी तो, वधी इंद्रियोनो विषय आंगळना असंख्येय भाग मात्र छे. (नीचेना टीपणमा खुला सो कर्यो छे के, वधी इंद्रियोथी आंखनुं जुदुं छे, कारण के, आंखनो विषय जघन्यथी आंगळना संख्येय भाग मात्रथी जाणवो मूळसूत्रांना परिज्ञानथी हणातां, अथवा ओलुं थतां इंद्रियोनी केवी दशा थाय छे ते वतान्युं तेनो परमार्थ आ छे. अहींयां संज्ञी पचेद्रिय जीवने उपदेश आपवानो अधिकार होवाथी उपदेश छे ते काननो विषय छे. (काननी शक्ति सारी होय; ताज | उपदेश संभळाय.) एटला माटे तेनी पर्याप्तिमां वधी इंद्रियोनी पर्याप्ति पण साथै सूचवी. (काने सांभळीने जीवरक्षा माटे आंखथी जोड़ने चाले; विचारी ने वोले विगेरे छे, तेथी बीजी इंद्रियोनुं पण स्वरूप बताव्युं छे.) सूत्रम् ॥२९६॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२९७॥ KAAR आकान विगेरेनो आत्मानी साथे संबंधथतांजे ज्ञान थाय छे, ते ज्ञान उमर वृद्ध थतां ओछु थाय छे, ते हवे बतावे छे. मूळसूत्रमा कयु छेके:"अभिकंतं घ" विगेरे एटले उपर बताव्या प्रमाणे बुट्टापामां शक्ति ओछी थइ जाय छे. सूत्रम् अथवा आखा सूत्रनो आ प्रमाणे अर्थ लेवो केः___ कान विगेरे विज्ञानथी कमी थयेल कर्णभूत इन्द्रियो छतांपण अभिकतं. विगेरेनो अर्थ आ थाय छे केः-जेम जेम ऊमर वीते;18/ ॥२९७॥ तेम तेम बुद्धि-शक्ति ओछी थाय; तेमां प्राणीओने काळेकरेली शरीरनी अवस्था जेमां यौवन विगेरे वय (उमर) छे. तेने जरा अ-18 थवा मृत्युना सामे जवान छे. कारण के अहीआं शरीरनी चार अवस्थाओ छे, (१) कुमार (२) योवन (३) मध्यम (४) वृद्धत्व छे, एम जाणवू. ते शास्त्रमा कयुं छे. केx “प्रथमे वयसि नाधीतं. द्वितीए नार्जितं धनम्। ततीए न तपस्तप्त, चतुथें किं करिष्यति? ॥१॥ पहेली वयमा विद्या न भण्यो, बीजी वयमां धन न मेळव्युं. त्रीजीमां तप न को. (एवो आळसु माणस इन्द्रियो थाकता. चोथी , अवस्थामां शुं करवानो छे !) । तेथी पहेली वे अवस्था जतां वृद्धावस्थाना सामे वय जाय छे, अथवा बीजीरीते त्रण अवस्थाओ छे. (१) कुकार (२) योवन | (३) वृद्धावस्था छे कयु छे केF “पिता रक्षति कोमारे, भर्ता रक्षति यौवने। पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ॥१॥" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO सूत्रम् ॥२९८॥ -4 बाळक पणामां पिता रक्षा करे छे. यौवनअवस्थामां धणी वचावे छे. अने वृद्धावस्थामां दिकरा पाळे छे, पण स्त्रीने कोइपण 8 आचा० अवस्थामां स्वतंत्रता आपवी योग्य नथी. __अथवा बीजी रीते त्रण अवस्थाओ छे. (१) बाळ (२) मध्य अने (३) वृद्धत्व एम छे. का छे के॥२९८॥ आषोडशाद्भवेहालो, यावतक्षीरान्नवर्तकः। मध्यमः सप्तति यावतपरतो वृद्ध उच्यते ॥१॥ दुध अने अन्न खानार (जन्मथी लइने) सोळ वर्ष सुधी बाळक कहेवो, अने सीत्तेर वर्ष सुधी मध्यम अने त्यारपछी वृद्ध क६ हेवो, आ बधी अवस्थामां पण जे उपचयवाली (बळ वधे त्यां सुधी) अवस्था छोडीने आगळ गएलो अतिक्रांत वयवालो जाणवो. ("च" समुच्चयना अर्थमां छे.) ____ अहींआं कान, चक्षु, नाक, जीभ, अने स्पर्श इंद्रियोना अस्त (नाश) पामेला समस्त ज्ञाननी वात फक्त न लेवी पण तेनी साथे । 15 शरीरनी बीजी शक्तिओ पण नाश थतां मूढपणुं आवे छे. (आ करवू आ न कर. एवो विवेक नष्ठ थाय छे.) तेथी वय उलंघतां (शरीरनी शक्ति ओछी थतां) विचारीने ते प्राणी (संसारमा मोह राखनारो पुरुष) निश्चयथी वधारे मुट्ठपणुं पामे छे. (पण धर्म आराधतो नथी) तेथीज मूळ सूत्रमा का छे के-"तओस" विगेरे अटेले धोळा वाळ जोइने अथवा शरीरपर करोचलीपडेली जोइने पोते हुँबुड्डो थयो एम जाणीवधारे खेद करे छे; अने तेथी मुट्ठताप्राप्त करेछे |" अथवा ते संसारी जीवने कान विगेरेजी शक्ति ओछी थतां तेने मूढता आवे छे; ए प्रमाणे वृद्धावस्थामां ते मृढ भावने पामीने 4-4AC-%-540 RECOGER Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाय-लोकमां अवगीत (तीरस्कार करवा योग्य.) थाय छे. ते बतावे छे. आचा० जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते विणं एगदा णियगा पुव्विं परिवयंति, सोऽवि ते णियए पच्छा परिवएजा, सूत्रम् Pणालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा, सेण हासाय ण कि॥२९९॥ ड्डाए ण रतीए विभूसाए सू०॥ ६४ ॥” ४ ॥२९९॥ बीजा लोको तो दूर रहो पण जेनी साथे घरमा रहे छे. ते पोताना पुत्र स्त्री विगेरे छे ते स्त्री पुत्र विगेरे पण एकदा एटले वृद्धाव-13 स्थामां तेना पोनाना सगा छतां तथा पोते समर्थ अवस्थामां कमाइने तेमने पोष्या हता ते स्त्री पुत्र विगेरे पण तेनो तीरस्कार करे & छे. अने बोले छे के. आ मरतो नथी अने खाटलो पण मुकतो नथी. अथवा "परिवदंति" एटले पराभव करे. (छोकराओ तेमनुं । | अपमान करतां बोले छे के. "बेस बेस डोकरा? तुं शुं समजे छे." विगेरे अथवा परस्पर वातो करे छे के. हवे आ बुट्टानुं शुं काम छे. ए सगाओनोज तीरस्कार खमतो नथी पण पोतानो आत्मा पण पोताने निंदवा योग्य थाय छे. ते बतावे छे.. वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते,किमु कान्ता कमनीयविग्रहा? सर्वत्र करोचलीओ पडी गएल अने हाडकां बाकी रहेल तथा ढीलां पडीगएल स्नायु (नाडीओ) ने धारण करनार. आहाहा आ मारुं आq शरीर रा! आq पोतानुं शरीर जोइने पुरुष पोतेज पोतानी निंदा करे छे. तो सुंदर शरीरवाळी स्त्री में निंदा करे तो तेमां शुं नवाइ छे ! Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ३००॥ गोवालीओ बाळक तथा स्त्री विगेरे मंद बुद्धिवालाना ताटे द्रष्टांत द्वाराए कहेलो विषय वधारे बुद्धिमां उसे छे. तेटला माटे उपर बतावेल विषय समजवा माटे कथा कहे छे. धना शेठनी कथा, कौसंबी नगरीमां घणुं धन अने घणा पुत्रवालो धनो नामनो सार्थवाह (मोटो वेपारी) हतो. तेणे एक वखत पोते एकलाए घणा उपायो वडे स्वापतेय (पोतानुं कमाएलुं धन) मेळव्युं. अने बधां । दुःखी जे भाइ सगां मित्र स्त्री पुत्र विगेरे हतां तेमने माटे उपभोगभां लीधुं. त्यार पछी आ शेठ उमरना परिपाकथी बुढो थयो, त्यारे तेणे साचववामां होंशीयार एवा पुत्रोने बधा कार्यनी चिन्तानो भार सोंपी दीधो, ते पुत्रो पण विचारवा लाग्या के आ बुढाए अम आवी अवस्थामां मृक्या के जेथी बधा माणसोमां हमो अग्रेसर थया, तेनो उपकार मानता छता उत्तम कुळनी सज्जनता धारण करता रह्या. पण कोइ वखते कार्यना मसगे तेओ दूर थया, तेथी पोतानी स्त्रीओने पोतानो अशक्त बाप सोंप्यो ते स्त्रीओ पण घरनी श्रीमंताथी ते बुट्टाने तेल मर्दन तथा स्नान तथा भोजन विगेरेथी यथायोग्य कार्य संतोष पाडवा करती हती. त्यार पछी केटलोक काळ गयो. त्यारे घरमा पुत्र परिवार तथा माल मीलकत वधतां ए स्त्रीओ पोताना पतिनी संपदाथी अहंकारमां आवी. अने ते बुड्ढो परवश थएलो अने तेनुं आखुं अंग कंपतुं हतुं. शरीरनां बधां द्वार अंदरना मळ विगेरे नीकळवाथी। गंधाता हां. तेथी ते बुट्टा तरफ घरनो स्त्रीओ धीमे धीमे योग्य उपचार करवामां प्रमाद करवा लागी. आ डोशो पण पोतानी ओछी सेवा थती जोइ चित्तना अभिमानवडे तथा कुदरती लागणीथी दुःखना सागरमा डुबेलो वनी छोकरानी बहुओनी फरीआद छोकराओ पासे करवा लाग्यो, ते स्त्रीओने पोताना पतिए उपको आपवाथी वधारे खेदवाली बनी ( ससरानी उपर क्रोध लावी.) ने थोडी पण चाकरी करवी छोडी दीधी, अने ते दरेक बहुओ एक विचारवाळी बनीने पोताना पतिने कहेवा सूत्रम् ॥ ३००॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. . . लागी के अमो आवी सारी रीते रात दिवस जागीने डोशानी चाकरी करीए छीए, छतां आ डोशो बुढापाथी विपरीत बुद्धिवालो आचावनीने गुणोनो चोर थाय छे, अने जो अमारा उपर पण तमोने विश्वास न होय तो जे कोइ विश्वासवाला होय तेने काम सोपो. तेथी | मत्रम छोकराओए पण तेज प्रमाणे कर्य, अने बीजी बहुओने काम सोप्यु, पण बीजी बहुओए वधां कार्योने वरावर योग्य अवसरे को, पछी पुत्रोए डोशाने पूछयु. त्यारे पहेलाथी रीसाएलो डोशो तेज प्रमाणे निंदा करवा लाग्यो. अने कहेवा लाग्यो के मारा कहेवा ॥३०१: प्रमाणे आ बहुओ पण काम करती नथी. एटले छोकराओए खातरीवाळा माणसोना वचनथी खरी वात जाणीने विचार्यु के, आ डोशानी बराबर चाकरी करवा छतां वृद्धावस्थाथी व्यर्थ रोदणां रुवे छे, तेथी छोकराओए पण तेनी उपेक्षा करी तेथी बीजाओ आ-17 18 गळ पण अवसर आवतां छोकराओ डोशानी निंदा करवा लाग्या. आ प्रमाणे छोकराओए. तथा बहुओए पराभव करेलो तथा सगां दवहालांए तथा नोकरोए अपमान करेलो अने तेनुं वचन पण कोइ न मानतुं जोइने घरनां बधां मुखीओमां ते एकलो दुःखी बुट्टो & | पाछली अवस्थामां वधारे वधारे दुःख जोवा लाग्यो. ए प्रमाणे बुट्टपाथी अशक्त थएल शरीरवाळो बीजो बुढो माणस पण तरखलाने वांकुं वाळवामां असमर्थ जेवो थतां कार्थनेज | ४ चाहता लोकोमा पराभव पामे छे. कयुं छे के __ "गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाश गता, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते। - वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥ १॥ RSHAN Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३०२॥ ****CHOGOROSO शरीर संकोचाइ गयु.टीआ लथडवा लाग्या. दांत पडी गया. आंखोनुं तेज गो. मोढांमाथी लाळ पडया लागी. सगां वहालां कहेलं करतां नथी. अने पोतानी स्त्री पण जोइती मागणी स्वीकारती नथी. आ हाहाहा! बुढा थएल पुरुषने अशक्त थतां पुत्र पण अपमान करे छे. ते कष्टदाइ बुड्ढापाने धिक्कार हो-(विगेरे जाणवु.) आप्रमाणे बुड्डापाथी हारेलाने सगां वहालां निंदे छे.अने ते पण गभराएलो वे वाकळो बनीने वीजालोको आगळ पोतानाघरनी निंदाकरे छे. मूळ सूत्रमा "सो वा" इत्यादि शब्दो छे. ते पहेलांनी अपेक्षाए वीजो पक्ष सूचवे छे. एटले एम जाणवू के सगां वहालां अपमान करे छे. अथवा पोते बुड्ढोथतांदुःखने लीधे सगांवहालांनी निंदा पारका आगळ पोते करे छे. अथवा पोते गभरामणथी सगांनुं अपमान करेछे. कदाच कोइए पूर्वे धर्म आराध्यो होय तेवानुं धर्मात्मा जीवो बुढापामां अपमान न करे तो पण तेनु दुःख दूर करवाने तेओ समर्थ थता नथी तेवू सूत्रकार कहे छे. "के तारा छोकरा तथा बहुओ तने तारवा माटे शक्तिमान नथी अथवा तने शरण आपवा योग्य नथी तेमज तुं पण तेओने तारवाने समर्थ नथी नेम शरण आपवा योग्य नथी (आपदामांथी वचावे ते त्राण छे) जेम महा श्रोतवडे (पाणीना पूरमां सारा नाविकने आश्रयी जे नावमां बेसाय तो पार उतराय) जेनो आश्रय लइने बेसीए अने भय न आवे ते शरण छे किल्लो अथवा पर्वतने आश्रये बचे अथवा शूर पुरुप गामने वचावे ते शरण छे. “जन्मजरामरणभये, रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र, नास्ति शरणं कचिल्लोके ॥ १॥" ___ जन्म जरा अने मरणना भयथी पीडाएला अने रोगनी वेदनाथी घेराएला पुरुषने जिनेश्वरना वचनथी बीजं कंइ शरण आ RAHASASHRECHARE Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकमां क्यांय नथी. उलटुं ते पीडाएली अवस्थामा पोते कोइनी हांसी करवा योग्य रह्यो नथी. किंत जगत तेनी हांसी करे छे.! AM आचा० जेनी पारकाथी हांसी थाय ते केवीरीते हर्ष पामे (पोते पोताना समक्ष के पाछळथी हसी खुसीनी वात करवा योग्य नथी किंतु हांसी सूत्रम् करवाने योग्य छे. तेम तेनी साथे ओळंगवा, कुदवाने, ताळी पाडवा के तेवो बीजो कोइ जातनो वात करवा विगेरेनो आनंद पण ॥३०३॥ करवा योग्य नथी तथा तेनुं रुप विगेरे स्त्रीओने गमतुं नथी उलटुं स्त्रीओ तेनी निंदा करे छे. अने कहे छे के. "तुं तारा आत्माने ॥३०३॥ जोतो नथी! माथु जोतो नथी ! के जे धोळा वाळ रुप राखथी लेपाएल छे! हुँ तारी दिकरी जेवी जुवान छ अने तुं मारी साथे आनंद (लग्न) करवा इच्छे छे. आ दुनीयामां जाणीतुं छे के ते बुट्ठो संसार सुखने योग्य नथी तेम शरीरनी शोभा करवाने पण योग्य नथी अने कदाच शोभा करे तो पण वगडी गएली अने करोचली पडेली चामडीवालो बुढो शोभतो नथी. कयु छे के. दिन विभूषणमस्य युज्यते न च हास्यं कुत एव विभ्रमः? । अथ तेषु च वर्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बना द , 'तेने शोभा करवी योग्य नथी. तेने हर्ष नथी अने स्त्रीने खुश करवानो विभ्रम (चेष्टा) क्याथी होय अने ते छतां जुवान स्त्रीओमां खेलवा' जाय तो निश्चये मोटा अपमानने पामे छे. जं जं करेइ तं तं न सोहए जोठवणे अतिकते॥ पुरिसस्स महिलियाइ, व एक्कं धम्मं पमुत्तणं ॥२॥ जुवानी जतां बुट्ठोमाणस जे कंइ करे ते शोभतुं नथी. एटले एक धर्मने छोडीने स्त्रीने खुशी करवा जे कंइ बुट्टो करे ते बधुं निरर्थक छे. अप्रशस्त मूळ स्थान कयुं हवे प्रशस्त मूळ स्थान कहे छे. HOSSARIESAISASA SISUSTUS AASARAॐ% Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३०४॥ ॥३०४॥ इच्चेवं समुट्टिए अहोविहाराए अंतरं च खल्लु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि, णोपमायए वओ अञ्चेति । आचा० 15 जोव्वणं व. (सूत्र. ६५) अथवा जे कारणथी ते वहालांओ संसार समुद्रथी तारवा के वीजाना भयथी रक्षण आपवा समर्थ नथी एवं शास्त्रना उपदेशथी। उत्तम पुरुपने समजाय तो तेणे शुं कर, ते कहे छे (इति शब्दनो उपर कहेलो अर्थ छे) अप्रशस्त मूळ गुणस्थान (संसारी विपय सुख) मां राचेला जीवने बुढापानी अशक्तिथी घेरातां हर्षना माटे के क्रीडाना माटे के भोगविलास माटे अथवा शरीरनी शोभामाटे र योग्यता नथी (परंतु ते तेणे पहेलेथी समजवु जोइए) के संसारमा जे कंइ सुख अथवा दुःख पडे छे. ते दरेक पोताना शुभ अशुभ कर्मनुं फळ बधा पाणीओने भोगववानुं छे. एq जाणीने ते समजेला पाणीए पूर्वे कहेला पहेला अध्ययन शस्त्र परिज्ञामां बनावेल महावतोमा स्थिर चित्तवाला बनीने साधुए विचार, के अहो (पारा पुन्य उदयथी आq निर्मळ चारित्र मल्युं छे. एम जाणीने) सुंदर विहार करवा योग्य छे." जेमां शास्त्रमा कहेल संयम अनुष्ठान छे. तेना माटे योग्य विहारमा तत्पर बनी जरा पण प्रमाद न करे. द्र वली तेणे विचार, जोइए के आर्य क्षेत्र उत्तम कुळमां जन्म वीतरागनो धर्म तेना उपर श्रद्धा अने आवां सुंदर महाव्रतो विगेरेनो* सारो अवसर मने मल्यो छे. तो केवीरीते प्रमाद थाय तेथी विनेय (शिष्ये) तप संयममां जरापण खेद न पामतां उपर कहेल उत्तम वस्तु आर्य क्षेत्र प्राप्तिथी आनंद पामीने गुरु शुं कहे छे ते समजे. गुरु कहे छे के आ तारो योग्य अवसर छे, अनादि संसारमा घणा ४ भव भमतां तने धर्म प्राधि थवी घणी दुर्लभ छे. माटे हे धीर! आ सारा अवसरने विचारीने तुं एक मुहूर्त (४८ मीनीटनी अंदरनो AAS Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३०५॥ वखत.) पण प्रमाद वश न थजे (मूळसूत्रमा अनुस्वारनो लोप थयो छे. अने ते प्रमाणे बीजु. पण व्याकरण विरुद्ध आवे तो समजी आचा०ल लेबु के. मागधीमां तथा संस्कृतमां कंइक भेद छे.) अंतर्मुहर्तनो वखत बताववानुं कारण ए छे के. केवळज्ञान विनाना जीवोने स मय विगेरेनुं वारीक ज्ञान नथी तेथी तेटलो बखत बताच्यो. खरी रीते तो एक समय मात्र पण प्रमाद न करवो एवो सुगुरुनो ॥३०५॥ उपदेश जाणवो. कयु छे के. "सम्प्राप्य मनुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय हे जीव ? किं प्रमादान्न चेष्टसे शान्तये सततम्? ॥१॥ मनुष्य पणुं पामीने संसारनी असारता समजीने. प्रमादथी केम वचतो नथी तथा हे जीव शांतिना माटे महेनत केम करतो नथी? ननु पुनरिदमतिदुर्लभ मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिभम् ॥ तुं जोतो नथी के आ अतिदुर्लभ संसार समुद्रमा भ्रष्ट थएला मनुष्यने आगीआना कीडाना प्रकाशवा जेवू अथवा विजळीना झवकारा जेवू संसारी सुख छे. वळी शास्त्राकार कहे छे के शामाटे प्रमाद न करवो? सांभळो. तारी वय (उमर) दिवसे दिवसे व्यतीत थाय छे. जुवानी चाली | जाय छे.! (मूळ सूत्रमा वय अने जुवानी एक छतां जुवानीमां मोह थाय माटे ते जुदं बतावेलुं छे.) जुवानीमां धर्म अर्थ अने 5 ५ काम त्रणे सधाय छे. माटे मोहमां न पडतां तेमां धर्म साधी लेवो गुरु कहे छे के हे शिष्य! ते जुवानी जल्दीथी जाय छे. कयुं छे के. "नइवेगसमं चवलं च जीवियं जोव्वणं च कुसुमसमं। सोक्खं च अणिचं तिषिणवि तुरमाणभोजाई" ॥ २RS२ॐ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३०६॥ नदीना पूर समान तारं जीवित चपळ छे. अने जुवानी फुलनी समान. (जल्दी करमाय तेवी.) छे संसारीक मुख अनित्य छे आचा० अने ते जीवित जुवानी अने सुख ए त्रणे शीघ्र भोगववानां छे. (जल्दी विती जनारां छे.) आ प्रमाणे मानीने साधुए विचार, के विहार करवो ते वधारे सारं छे. (जे साधुओ चालवाथी कंटाली एक जग्याए पडी। ॥३०६॥ 10 रहेता होय तेमणे उपरनुं रहस्य विचारवा जेवू छे.) पण जे संसारना सुख वांच्छको छे, तेओ असंयम जीवित ने खुखकारी माने छे. तेमनी शुं दशा थाय छे. ते सूत्रकार कहे छे. जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ताल्लुपित्ता विलंपित्ता उद्यवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिंवा सर्हि संवसइ ते वा णं एगया निगया तं पुष्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए 'वा' सरणाए 'वा' तुमंपि तेसिं, नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू. ६६) २ जेओ पोतानी वय वीते छे, तेने जाणता नथी तेओ विषय कषायमां प्रमादी थाय छे. तेओ रात दिवस कलेश पामता काळ | अकाळमां उद्यम करी जीवोने दुःख आपनारी क्रिया (आरंभ) करे छे. संसारी गुणमा रहीने विषयना अभिलापमां प्रमादी बनी स्थावर अने त्रस जीवोना घातक वने छे. (बहु वचनने वदले. एक वचन मूळ सूत्रमा छे. ते जातिनी अपाक्षाए जाणवू) तथा कान नाक विगेरेने छेदनारा पण छे. तथा माथु आंख पेट विगेरेने भेदनारा पण छे. अने कपडानी गांठ विगेरेने छोडीने चोरनारा पण ४. गामनी लुट करनारा पण छे. तथा विष तथा शस्त्र वडे प्राण लेनारा पण छे. अथवा दगो देनारा पण छे. अथवा ढेखाळो RASARA-ORGER- Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३०७॥ * विगेरे मारीने त्रास आपनारा पण छे. आचा० शिष्य पूछे छे. शामाटे आवी परने पीडा आपनारी क्रिया करे छे.? उत्तर-बीजो तेवू नथी करी शकतो पण हुं बहादुर छं एवं अभिमान लावीने पैसो मेळववा मारवा विगेरेनी पाप क्रियामा ॥३०७॥ ते जीव वर्ते छे. वली ए प्रमाणे ते अतिशय क्रूरकर्म करनारो समुद्रने तरवानी क्रिया पण करे छे. छतां तेना पापना उदयथी कंइ पण न मेळवेलो. गांठन गुमावी केवो थाय छे. (के अपमान पामे छे.) ते वतावे छे के जेओनी साथे ते बसे छे, ते माता पिता | सगां विगेरेर्नु पूर्वे जेणे पोषण कर्यु छे. अने आ वखते जो ते न कमाइ लाग्यो होय तो तेओ तेनुं रक्षण करता नथी अथवा संसारी | दुःखथी पार उतारता नथी. कदाच कमाइने लावे अने सगाने पोषे तो तेओ तारुं रक्षण करवा समर्थ नथी तेमज तु तेमना आलो-18 कना रक्षण माटे के परलोक ना भलाना माटे समर्थ नथी. वली एम समजवु के-महा कष्टथी मेळवेलुं धन पण साचची राख्या छतां ले रक्षण आपवा योग्य नथी. ते बतावे छे.. उवाईयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किजई, इहमेगार्सि असंजयाण 'भोयणाएं तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजति,जेहिं वा सर्हि संवसइ ते वाण एगया नियगा तं पुत्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए'वा'सरणाए वा,तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू.६७) ते घणुं खाधुं (भोगव्यु.) हवे तेमांनुं थोडं वाकी छे. अथवा जे नथी भोगवायुं तेनो तुं संचय करे छे. अथवा उपभोग करवाने RECAUGUST Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECER सूत्रम् ॥३०८॥ , माटे पुष्कळ सुख लेवा द्रव्यनो संचय करे छे. ते लोभीओ जीव आ संसारमा असंयत. (संसारसुखना चाहक.) ना माटे अथवा भामा साधुना वेश मात्र धारेला पण साधुगुणथी रहित एवाने जमाडवा माटे धन एकळं करे छे. तेने गुरु कहे छे के ते तने अंतराय कर्मनो ६ उदय आवतां तारी संपत्ति माटे सहायक नही थाय अथवा द्रव्य क्षेत्र काळ भावना निमित्तथी ज्यारे तने असातावेदनीयकर्मनो उदय ॥३०८॥ थाय त्यारे रोगो आवतां ताव विगेरेथी तुं पीडाय छे. (त्यारे ते धन के सगां कंइ पण काम लागतां नथी) ते पापी ज्यारे तेना पा पना उदयथी कोढ, क्षय रोग, विगेरेथी पीडाएलो ज्यारे तेनु नाक झरे छे. अथवा हाथ पग गळे छे. (लथडे छे.) अथवा दम च-4 ढवाथी अशक्त थतां जे सगां वहालां साथे पोते बसेलो छे ते तेना दुःखथी कंटाली भयंकर रोग उत्पन्न थतां तेने त्यजे छे. (क्षयरोगीना आश्रममां मोकले छे.) अथवा सगांने घणो कंटाळो आपे तो ते सगां तेनी घेलाइथी तेनी उपेक्षा करे. एटले वधा सगां तजीदे. अथवान तजे तोपण ते रोगोथी बचाववा के शरणुं आपवा समर्थ नथी त्यारे रोगीए शुं करवू! ते गुरु कहे छे के समताथी सहन करचु. जाणित दक्खं पत्तेयं सायं (सू.६८) आ प्रमाणे बुद्धिमाने दरेक प्राणीनुं दुःख के सुख तेना पुन्य पापथी आवेलुं छे. ते विचारवं एटले ताव विगेरेनु दुःख आवतां । पोताना करेलां कर्मनुं फळ अवश्य भोगवg पडशे. माटे हाय पीट न करवी कथु छे के. "सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयन्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । बहुतरं च सहिष्यसि जीवहे! परवशो 15 न च तत्र गुणोऽस्ति ते ॥ १ ॥" -RESERECACHECRE 5425*5*5A5% 25ARE Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३०९॥ हे शरीर! तुं बीजो विचार कर्या विना दुःखने सहन कर कारण के हाल तने स्ववशता मळी छे. ते दुर्लभ छे. पण जो तुं हायपीट आचा67 करीश तो परभवमा घणां दुःख भोगवां पडशे. त्यां परवशता छे. तने त्यां विशेष लाभ नथी. एथी ज्यां सुधी कान विगेरेनी शक्ति न हणाय अने तारा सगा तने बुट्टो थतां न निंदे अने दया लावीने तारुं पोपण करवानो ॥३०९॥ ४ वखत न आवे तथा क्षयरोगी थतां घरमांथी न काढे त्यां सुधी तुं तारो आत्मार्थ (परलोकनु हित) साधी ले ते बनावे छे. अणभिकंतं च खलु वयं संपेहाए (सू. ६९) (मूळ सूत्रमा “च" विशेष पणा पाटे छे. खलु शब्दनो अर्थ पुनः-थाय छे.) आ प्रमाणे पोतानी उमर जती जोइने संसारी जीव Pघेलो बने छे. ए, पूर्वे कहेलुं छे. माटे ते पश्चाताप न करवो पडे तेथी जुवानअवस्थामां बुद्धिथी विचारीने आत्महित करे. प्रश्न-शुं जुवानीमांज आत्महित करवू.' के बीजी वखतमां पण करईं ! उत्तर-बीजाए पण आत्महित ज्यारे समज्यो होय त्यारे करी ले. अर्थात बोध मले त्यारे धर्म साधी लेवो ते वतावे छे. खणं जाणाहि पंडिए (सू. ७०) क्षण-ते धर्म करवानो समय छे. ते आर्यक्षेत्र उत्तम कुळ विगेरे छे. अने निंदायोग्य, पोषण करवा योग्य, तथा तजावाना दोपथी दुष्ट छे. तेवा जरा (बुढापो) वाळकपणुं अथवा रोग छे. ते न होय त्यारे गुरु कहे छे. हे पंडित हे आत्मज्ञ! तुं बोध पाम अने आत्महित कर अथवा खेद पामता शिष्यने गुरु कहे छे. हे शिष्य ! ज्यांसुधी तारी जुवानी वीती नथी अथवा निंदापात्र थयो नथी 4BCCICROCOCCASI Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३१०॥ अथवा पूर्वे कला त्रण दोषथी रहित छे, त्यांसुधी हे पंडित शिष्य द्रव्य क्षेत्र काळ भावना भेदथी मिन्न अवसरने अ प्रमाणे तुं । जाण बोध पाम, ते बतावे छे. द्रव्य क्षण ते तुं जंगमपणुं पाम्यो छे. पांच इंद्रियो छे. उत्तम कुळमां जन्म्यो छे. रुप वळ आरोग्य अने आयुष्य सारुं पाम्यो छे आ प्रमाणे उत्तम मनुष्य भव पामीने संसार समुद्रथी पार उतारवा समर्थ चारित्रनी प्राप्तिने योग्य तने अवसर मल्यो छे अने अनादि संसारमां भमता जीवने आ अवसर मलवो दुर्लभ छे. कारणके चारित्र मनुष्य जन्ममां छे. देव नारकीना भवमां सम्यक्त्व तथा ज्ञाना वोध रुप सामायिक छे. अने तिर्यचमां कोकनेज देशविरति (श्रावकनां व्रत . ) होय छे. क्षेत्र क्षण ते जे क्षेत्रमां चारित्र मले ते सर्व विरति अधोलोकनागाममां अथवा तिर्यच क्षेत्रमांज छे ते पण चे समुद्रमां छे. तेमांपण “१५" कर्म भूमिमां छे. तेमां पण भरतक्षेत्रती अपेक्षाए “२५॥ " देशमां चारित्रधर्म प्राप्त थाय छे. आ प्रमाणे क्षेत्ररूप अवसर दुर्लभ जाणवो बीजा क्षेत्रोमा पहेलां बेज सामायिक छे. बीजा घणा द्वीपो अने समुद्रो छे. तेमां सम्यक्त्व अने श्रुत सामायिक छे. तथा कोइकने देशविरतिनो संभव थाय छे.) काळक्षण काळरूप अवसर आ अवसर्पिणीमां त्रण आरा जे सुखम, दुखम, दुखम सुखम. तथा दुखम नामना त्रण आरामां धर्म प्राप्ति छे. तथा उत्सर्पिणीमां त्रीजा चोथा आरामां सर्व विरति सामायिकनी प्राप्ति छे. आ नवो धर्म पामता जीवआश्रयी कां पण पूर्वे धर्म पामेला तो तिर्यक् अथवा उद्ध तथा अधोलोकमां तथा बधा आरामां जाणवा. भावक्षण प्रकारे छे. कर्म भावक्षणनो कर्म भावक्षण कर्म भावक्षण ते कर्मनुं उपशम थवं. क्षय उपशम थवं अथवा सर्वथा क्षय थवं सूत्रम् ॥३१० ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३१९॥ एत्रणमानुं कंइपण प्राप्त थाय ते अवसर जाणवो तेमां उपशम श्रेणीमां चारित्रमोहनीयउपशम थतां अंतर्मुहूर्त्त काळ औपशमीक नामनो चारित्र क्षण थाय छे ते चारित्र मोहनीयनो क्षय थतां अंतर्मुहूर्त्तनो छद्मस्थ यथाख्यातचारित्र नामनो क्षण थाय छे. अने क्षय उपशमवडे क्षायोपशमिक चारित्रनो अवसर छे ते उत्कृष्टथी थोड ओलुं एवो पूर्व कोडी वर्षनो चारित्र काळ जाणवो. सम्यकत्व क्षण ते अजघन्य उत्कृष्ट (मध्यम) स्थितिमां वर्तता आयुष्यवाळा जीवने छे. अने बीजा कर्मोनुं पल्योपमना असंख्येय भाग ओछु एवा सागरोपम कोडाकोडी स्थितिवाला जीवने छे. तेनो अनुक्रम आ प्रमाणे छे. सम्यक्त्वनुं वर्णन. ग्रंथी- (मिथ्यात्वनी चौकणा कर्मनी बंधाएली गांठ) वाळा अभव्य जीवोथी अनंत गुणवाळी शुद्धिथी शुद्ध थएल मति, श्रुत, विभंग ए ऋण ज्ञानमांथी कोइपण साकार उपयोग जे जीवने होय ते शुद्ध लेश्या (तेजु, पदम, शुकल) मांनी कोइपण लेश्यावालो |जीव अशुभकर्मप्रकृतिनो चार ठाणीओ रस तेने वे ठाणीओ करीने अने शुभ प्रकृतिना वे ठाणीआ (चासणीमां जेम वधारे रसना तार पढे ते प्रमाणे कर्मना भाव होय. अने आत्मा वेदे ते ठाण कहेवाय छे.) ने चार ठाणीआवाळो करी बांधतो तथा ध्रुव प्रकृतिने ध्रुव प्रकृति बतावे छे. परिवर्त्तमान करतो भव प्रायोग्य बांधतो जीव जाणवो. ज्ञानआवरणीय पांच; तथा दर्शनावरणीय नव - मिथ्यात्वनी एक-तथा सोळ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस कार्मण शरीर, वर्ण, गंध, रस स्पर्श अगुरुलघु उपघात निर्माण अने पांच अंतराय ए बधी मलीने ४७ ध्रुव प्रकृति छे. ध्रुवनो अर्थ एवो छे के, ते हंमेशां वंधाय छे. मनुष्य अथवा तिर्थंच आ बेमांथी कोइपण जीव ज्यारे प्रथम सम्यक्त्व मेळवे छे, त्यारे आ २१ प्रकृति परिवर्तनवाळी बांधे छे ते नीचे मुजब छे. देवगति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा पंचेंद्रिय जाति वैक्रिय शरीर, अंगोपांग मली बे, तथा समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उ सूत्रम् ॥३१९॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् A- उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, प्रशस्त प्रसादि दशक,शाता वेदनिय उंचगोत्र मळी २१ छे. पण देव अने नारकिना जीव मनुष्यगति । आचा० अने अनुपूर्वी मली चे. तथा औदारिक शरीर अंगेपांग मलीने वे. पहेलं संघयण मलीने ए पांच सहीत शुभ वांधे छे. अन अनुपूवा मला तमतमा (सातमी नारकी.) वाळा तिर्यंच गति तथा अनुपूर्वी मली बे तथा नीच गोत्र सहीत वांधे छे. ॥३१२। आ प्रमाणे तेना अध्यवसाय उत्पन्न थतां आयुष्य न वांधतो प्रथम उपर कही गया ते जीव यथा प्रवृत्ति नामना करणवडे ग्रंथीने | ॥३१२॥ मेळवीने अपूर्व करणवडे मिथ्यात्वने भेदीने अंतरकरण करीने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यकत्व मेळवे छे. त्यारपछी क्रमवडे कर्म ओछां थतां चढता भावना शुद्ध कंडक (शुद्ध भावना अंशने कंडक कहे छे.) मां देश विरति तथा सर्वविरति (साधुपणा)नो अवसर आवे छे. आ प्रमाणे कर्म भाव क्षण कहीने नो कर्मभाव क्षण बतावे छे. नो कर्मभावक्षण ते आळस मोह अवर्णवाद तथा स्थंभ (मान विगेरे)ना अभावे सम्यकत्व विगेरेनी प्राप्तिनो अवसर छे. | कारणके आळस विगेरेथी हणाएलो (प्रमादी जीव) संसारथी छुटवा समर्थ मनुष्य भव पामीने पण धर्म श्रद्धा विगेरे उत्तम गुणो मेळवतो नथी. कहुं छे के."आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता भयसोगा अन्नाणा, विक्खेव कुऊहला रमणा ॥१॥ आलस्य मोह अवरण (निंदा) स्थंभ (अहंकार) क्रोध प्रमाद,कृपणता,भय,शोक अज्ञान विक्षेप कुतुहल रमण आ १३ कारणो (१३ काठीआ)छे. एएहिं कारणेहिं, लखूण सुदुल्लहपि माणुस्सं । न लहइ सुई हिअरिं संसारुत्ताराणं जीवो ॥२॥ RE 55-%ARRAGESCRS - RECIRK Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३१३॥ AGAR ते मळतां जीव पोते मनुष्यपणुं अमूल्य छे. ते मेळवीने पण संसारने पार उतारनार हितकरनार गुरुवाणीने पामतो नथी. 8 ___ आ प्रमाणे चार प्रकारनो क्षण बताव्यो तेमां एम समजवू के द्रव्यक्षणमां जंगमपणाथी श्रेष्ट मनुष्यजन्म अने क्षेत्र क्षणमां & आर्यक्षेत्र छे. काळ क्षणमां धर्म चरणनो काळ छे भाव क्षणमां क्षय उपशम विगेरे छे. आ प्रमाणे सारो अवसर पामीने धर्म आरा-18 8 धवो जोइए वली कहे छे के. ॥३१३॥ जाव सोयपरिणाणा अपरिहीणा, नेतपरिणाणा, अपरिहीणा घाणपरिणणा अपरिहीणा जीह परिणाणा फरि० इच्चेएहिं विरुवरुवेहिं, पण्णाणेहिं अपरिहिणहिँ आयटुं संमं समणुवासिज्जासि (सू.७१) तिबेमि ज्यांमुधी आ नाश पामनारी कायाना अपशद (निमकहरामपणा)थी कानन ज्ञान (सांभळg ते) बुढापणाना के रोगना कारणे ओछु न थाय त्यांखुधी धर्म करी लेवो... आप्रमाणे आंख कान जीभ स्पर्शना विज्ञाननी शक्ति पण पोतानुं काम करवामां निष्फळ न थाय त्यांनुधी पण धर्म साधवो. जो पांच इंद्रियोनी शक्ति ओछी थशे तो धर्म नही थाय आ शक्ति ओछी थशे तो इष्ट अनिष्टपणे जुदा जुदा ज्ञानवढे काम नहि थाय माटे ज्यांसुधी शक्ति होय त्यांसुधी आत्मानो अर्थ ते सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्ररुप साधी लेवू. आ त्रण सीवाय वाकी वधां अनर्थ 5 समजवां अथवा आत्माने माटे जे प्रयोजन छे. ते आत्मार्थ छे. अने ते चारित्रनुं अनुष्ठान जाणवू. अथवा "आयत" ते अपर्यवसान (अनंतपणा) थी मोक्षज छे. ते मोक्ष अर्थ छे. तेने साधी ले. अथवा आयत्त (मोक्ष.) तेज जेनुं प्रयोजन छे. एवा पूर्वे कहेला सम्यक् ॐॐॐॐॐ * RESC -CA Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ज्ञान चारित्र छे. तेमां निवास कर एटले शास्त्रोक्त रीतिए अनुष्ठान वढे तुं आराध, अने पठी पण वय न वीती होय ते वि-18 आचा० ६चारीने अवसर मेळगीने कान विगेरेनुं ज्ञान ओर्छ थतुं जाणीने आत्मार्थ ने आत्मामां धारण करजे. न अथवा ते आत्मार्थवडे एटले ज्ञान दर्शन चारित्ररुप आत्मार्थवडे आत्माने रंजीत करजे. (तेमां आनंद मानजे.) अथवा आय सूत्रम् ३१४, तार्थ जे मोक्ष छे. तेने फरीथी संसारमा न आवQ पडे ते माटे शास्त्रमा कहेली विधिए अनुष्ठान करीने आत्मावडे (मोक्षने) पामजे. ॥३१४॥ ___आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंयूस्वामीने कहे छे. में श्री वर्धमानस्वामी पासे अर्थथी जे सांभळ्युं. ते हुँ तने सूत्र रचनावडे कहुं | छ. आ प्रमाणे वीजा अध्यायननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बोजो उद्देशो. पहेला उद्देशानो बीजा उद्देशा साथे आ प्रमाणे संबंध छे के विषय-कपाय तथा माता-पिता विगेरेनो प्रेम विगेरेथी जे बंधन ते लोक छे. तेनो विजय करवाथी अर्थात् राग द्वेपने छोडी समभाव धारण करवाथी मोक्षनी प्राप्ति छे. अने तेनो हेतु चारित्र छे. जेम | संपूर्ण भावने अनुभवे छे, एवा रुपवाळो आ अध्ययननो अर्थ अधिकार पूर्वे कह्यो छे, तेमां मातापिता विगेरे लोकनो विजय कर5 वाथी रोग अने बुढापानी अशक्तिथी ज्यांसुधी अशक्त न थाय; ते पहेलां आत्मार्थ ते संयमने आराधवो ए पहेला उद्देशामां का अने आ बोजा उद्देशामां पण ते संयमने पाळतां कदाच ते जीवने मोहनीयकभनो उदय थवाथी अरति थाय; अथवा अज्ञानकर्म विगेरे, तथा लोभना उदयथी पूर्वकर्म ना दोषथी संयममां स्थिरता न रहे; तो उत्तम साधुए ते अरति विगेरेने दूरकरी जेम, संयममां दृढता । थाय तेम करवू. ते आ बीजा उद्देशामां वताव्यु छे. अथवा आठ मकारना फर्म जेम दुर थाय; ते आ अध्ययनना अर्थाधिकारमां कडं । SHRESERECRUA GECRUGGE %%%ARRICA494-9-0CRE Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 छे, ते केवीरीते कर्मक्षय थाय ते बतावे छे. आचा० - अरई आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के (सू. ७२) सूत्रम् ॥३१५. पूर्वसूत्र साथे एनो संबंध कहेवो जोइए ते बतावे छे. ७१ मा सूत्रमा कg:-आत्मार्थ ते संयम छे. तेने सारी रीते पाळेते संय-2 Pममां कदाचित अरति थाय; तेथी उपदेश आपे छे के, अरति न करवी; ते आ ७२ मां सूत्रमा बताव्युं छे. 8. तथा परंपर सूत्र संबंध आ प्रमाणे छे. "खणं जाणाहि पंडिए." एटले चारित्रनो क्षण (अवसर) मेळवीने अरति न करे; तथा प्रथमना सूत्र साथे आ संबंध छे. "मुझं में" इत्यादि में भगवान पासे आ सांभळ्यु छे के, "अरई" इत्यादिके साधु अरति न करे. आ अरति साधुने पांच प्रकारना आचारमा मोहना उदयथी कपाय, तथा प्रेमथी एटले मातापिता स्त्री विगेरेमां स्नेह थतां थाय छे, ते समये संसारनो स्वभाव जाणेला बुद्धिमान साधुए ते मोहने दूर करवो. जो तेम करे तो चारित्र पळे नहिं तो शुं थाय? ते कहे छे. जेम, कंडरीकने दुःख थयु; तेम, संयममां अरति करनारने नरकगमन छे, तथा विषयवांच्छामां रति दूर करीने साधुनी दश है। प्रकारनी गुरुनी आज्ञामा रहेवारुप विगेरे समाचारीमा ते कंडरिकना भाइ पुंडरिकनी माफक रति थाय; तो संयममां अरति नथाय तेज कहे छे:2 साधु संयममा रति करे (आनंद माने) जेथी तेने कोइपण प्रकारनी बाधा (अडचण) न आवे; तथा आलोकमां पण संयम शि-131 5 वाय बीजुं सुख छे, एवं मनमां पण न लावे. कां छे केः "क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा, महति फलविशेषे नित्य नका ख Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त मभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःख मुत्पादयन्ति ॥ १॥ आचा० पृथ्वीनां तळमां शयन छे तुच्छ भिक्षार्नु भोजन, अथवा कुदरती लोकर्नु अपमान, अथवा नीच पुरुपोनां महेणां सांभळवां; आ- सूत्रम् हटलं छता उत्तम साधुओ मोटाफळ (मोक्षने) माटे निरंतर उद्यम करनारा छे. तेमने मनमां के, शरीरमा पूर्वे कहेलां कृत्य कंइपण & ॥३१६॥ दुःख उपजावी शकतां नथी. (मोक्षार्थी-साधु तेने गणकारता नथी) ॥३१६॥ तणसंथारनिसण्णोऽवि, मुणिवरो भट्ट रागमयमोहो। जं पावइ मुतिसुहं, तं कत्तो चकवट्टीवि? ॥२॥" घासना संथारे बेठेलो जे मुनि छे, अने तेणे राग-मद, मोह त्यज्यां छे, तेवो मुनिज मुक्ति-सुख पामे छे, तेवू सुख चक्रवर्ती पण क्याथी पामे! अहीं चारित्र मोहनीयकर्मना क्षय उपशमथी जे पुरुपने चारित्र मळ्यु छे, तेने पाछो मोहनो उदय थतां घेर जवानी इच्छावालाने आते सूत्रवडे उपदेश अपाय छे, अने ते संबंधमां जे कारणोथी संयममाथी भ्रष्ट थवाय छे, ते हेतुओने नियुक्तिकार कहे छे. बिइउद्देसे अदढो उ, संजमे कोइ हुज्ज अरईए। अन्नाणकम्मलोभा, इएहिं अज्झत्थ दोसेहिं ॥ १९७ ॥5 (पहेला उद्देशामां नियुक्तिनी गाथा घणी कही; अने आ उद्देशामां आ एकज छे, तेथी मंदबुद्धिवाळा शिष्यने आरेका (शंका) त थाय के, आ एक पण पहेला उद्देशानी हशे; ते शंका दूर करवा बीजो उद्देशो एवं गाथामां लखवू पडयुं छे) बीजा उद्देशामां वताव्यु ले के, कोइ कंडरीक जेवा साधुने १७ प्रकारना संयममां मोहनीयना उदयथी अरति थाय; अने तेथी संयममां ढीलापणुं थाय; अने ते ५. मोहनो उदय मनमा रहेला जे दोषो छे, तेनाथी थाय छे, ते दोषो अज्ञान, लोभ, विगेरे छे. OGAREKARENCE REC-STRUCTS Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ US आचा० ॥३१७॥ SEASESSACRECRRECSAECE एटले आदि शब्दथी इच्छा मदन काम विगेरे पण लेवा ते अज्ञान लोभ काम विगेरेथी साधुने अरति थाय छे. ते वताव्युं. शंका-अरतिवाला बुद्धिवानने आ ७२ मा सूत्रवडे उपदेश अपाय छे के संयममां अरति थाय तो बुद्धिवान साधुए अरति दूर करवी सूत्रम् परंतु संसारनो स्वभाव जाणेलो आQ कहेवाथी ते अरतिवालो थाय नही अने जो अरतिवालो थाय तो संसार- स्वरुप जाणनारो विद्वान न कहेवाय आ बेने परस्पर विरोध होवाथी जेम एक जग्याए छाया अने तडको न रहे ते अहीं ते बुद्धिमान न कहेवो अ-14 ॥३१७॥ थवा अरतिवालो न कहेवो. कां छे के. तज्झानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम?" |AI जेना उदयथी राग गण (संसारप्रेम) उत्पन्न थाय छे. तेने ज्ञान न कहे, कारणके ज्यां सूर्यना किरणो प्रकाशीत थयां होय त्यां अंधाराने रहेवानी शक्ति क्याथी होय ? विगेरे छे. . जे अज्ञानी जीव मोहथी चित्तमां विकल्प करे ते विषयसुखथी निश्चय (नक्की) रागद्वेप विगेरे सर्व जोडलां जे संयमना शत्रु छे, तेमां रति करे अने संयममां अरति करे. __ अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते; कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा; विद्वञ्चित्तं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यंसभिर्ति गजेन्द्रः ॥ १ ॥" अज्ञानथी आंधला थएला, सुंदर स्त्रीओना अपांगथी डामाडोळ थएला कामीओ काममा प्रेम धारण करे छे. अथवा वैभवना है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३१८॥ विस्तारने मेळववा चाहे छे. पण जेओ विद्वान छे, तेनुं चित्त मोटा मोक्ष मार्गमां एकतान वालुं छे. कारणके श्रेष्ट हाथी नाना पातळा थडवाला झाडनी साथै पोतानुं शरीर घसतो नथी. आचार्यनो उत्तरः-- अमे तेने जुटुं कहेता नथी. कारण के, चारित्र पामेलाने आ उपदेश छे, अने चारित्रमाप्ति ज्ञान शिवाय नथी; कारण के चारित्रनुं कारण ज्ञान छे अने कार्यए चारित्र छे. तथा ज्ञान, अने अरति तेने विरोध नथी; परंतु रतिनो विरोधी अरति छे. तेथी संयममां जेने रति छे, तेनी साथै अरति बाधारूप छे, परंतु ज्ञाननी साथे तेनो विरोध नथी; कारणके, ज्ञानीने पण चारित्र मोहनीयना उपशमथी संयममां अरति थाय छे, कारण के, ज्ञान पण अज्ञाननुं वाधकज छे, पण संयमनी अरतिनुं बाधक नथी; तेज कं छे:ज्ञानं भूरि यथार्थ वस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृ स्वयम् । दीपो त्तमसि व्यक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षतां, सर्वः स्वं विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः॥१॥” घं ज्ञान यथार्थ वस्तुविषय संबंधी छे, ते पोताना शत्रु अज्ञानतुं बाधक छे. रागनो शत्रु, शम (शांतिने) माटे बीजो हेतु पोते जोडतो नथी. जेम दीवो छे ते पोते अंधारामां रूपने प्रगट करे छे, तेज अहींया रुपने जुओ; कारणके, सर्व प्रासंगीक विधि पोतपोताना विषयने साधे छे. तथा आचार्य कहे छे केः- आ तमारा कानमां आव्युं नथी. 'बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यतीति' इंद्रियसमूह बळवान छे, अने तेमां पंडित पण मुंझाय छे, एथी तमारुं कहेतुं कई विसातमां नथी. सूत्रम् ॥३१८॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___अथवा जेने अरति प्राप्त न थइ होय; तेनेज एम कहेवाय छे, पण आ उपदेश संयम-विषयमां बुद्धिमान पुरुषने कहेवाय के, प्राचा० संयममां अरति न करवी; तथा संयममांथी अरति दुर करनारने केवा गुण मळे ते कहे छे: सूत्रम् "खणं सि मुक्के" विगेरे बारीक काळने क्षण कहे छे. ते क्षण, जुनी साडी (वस्त्रने) फाडतां जेटली वार लागे; तेथी पण वा४रीक काळ समय छे. आवा सूक्ष्म संयममां पण कर्म जे आठ प्रकारनां छे, अथवा संसारबंधन छे ते बंधन नथी. भरत महाराजा 8 ॥३१९॥ माफक मोह मूकी दे, तो तेनुं कल्याण थइ जाय. (केवळज्ञान पामीने मोक्षमां जाय; ) अने जेओ उपदेश न माने; तेओ कंडरीक Mमुनि माफक चार गतिमा भ्रमण करे छे, अने दुःखसागरमा डुबे छे, तेज कहे छे: अणाणाय पुठ्ठावि एगे नियति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो, समुट्टाय लके कामे । 8/ अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए (सूत्र-७३) हित मानवु अहित छोडवं, ए जिनेश्वरली आज्ञामां छे. तेथी विरुद्ध चालवू ते अनाज्ञा छे. जे पुरुषो आज्ञावहार थइने परिषहद अने उपसर्गथी कंटाळीने, अथवा मोहनीयकर्मना उदयथी कंडरीक विगेरे मुनिओनी माफक संयमथी भ्रष्ट थाय छे, ते जडपुरुषो जेमने करवा न करवानो विवेक नथी; तेओ मोहथी, अथवा अज्ञानथी घेरायला छे. कर्तुं छे केः__"अज्ञानं खल्लु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः। अथ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १॥” खरेखर, क्रोध विगेरे बधां पापोथी पण अज्ञान मोटु पाप छे, ते घणु दुःख आफ्नार छे, ते अज्ञानथी घेरायलो माणस पोताना AAAAEES SRIGANGA Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३२०॥ 15/ हित-अहित पदार्थने जाणतो नथी. आचा० आ प्रमाणे मोहथी घेरायलो जडमाणस चारित्र पामेलो छतां, कर्मना उदयथी, अथवा परिसहना उदयमां चारित्र धारण करेलो चारित्र मूकवा इच्छा करे छे अने वीजा साधुओ पोतानी रुची प्रमाणे वृत्ति रचीने जुदा जुदा उपायोबडे लोक पासेथी पैसा ग्रहण ॥३२०॥ करता छता कहे छे के:-अमे संसारथी खेद पामेला छीए; अने मोक्षनी इच्छावाळा छीए. तोपण, तेओ (अंतरंगत्यागी न होवाथी) जुदा जुदा आरंभमां, तथा विपय-अभिलापामां वर्ते छे ते वतावे छे. मन, वचन अने कायाना कर्मवडे जेनाथी घेराय ते परिग्रह छे. ते परिग्रह जेमनामां नथी; ते अपरिग्रहवाळा अमे थइशु एवं बौद्धमत विगेरेना साधुओ माने छे, अथवा जैनदर्शनमा जे साधुओए साधुवेष पहेरेलो छे, तेओ पछी इच्छानुसार (भोळा माणसोने ठगीने) परिग्रह धारीने भोगो भोगवे छे. जे प्रमाणे निस्पृहता धारवी जोइए; तेज प्रमाणे वीजा महाव्रतो पाळवां जोइए; एटले जैनेतर मतवाळाए, अथवा पासत्थ (वेप मात्र धारी जैनसाधु) जेम परिग्रह धारेछे तेवीरीते मोढेथी कहे के, अमे सर्व जीवोना रक्षक M(अहिंसक) छीए; छतां तेओ स्वार्थना माटे हिंसा करे छे, तेवीजरीते उपरथी कहे छे के:-अमे साचुं बोलीए छीए; अने खरीरीते तो, तेओ जुटुं वोले छे, जेम चोरी करता होय; छतां कहे के, अमे चोरी करता नथी; तेथी आq करनारा शैलुष (ठगनी) माफक 8| बोलवा जुडुं, अने करवानुं जुईं. एवा जगतने ठगनारा भोगनी इच्छाथीज वेप मात्रने धारे छे. का छे के: “स्वेच्छाविरचितशास्त्रः प्रत्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रैः। नानाविधैरुषायैरनाथवन्मुष्यते लोकः ॥ १॥" SEISESSUARA TOCHIGIGOGOs 56-56146 1560 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३२१॥ CREATRE पोतानी इच्छा मुजव शास्त्र वनावनारा, अने दीक्षामा वेव धारण करनारा क्षुद्र मनुष्योए जुदा जुदा उपायोथी अनाथने जेम लुटारो लुटे; नेम आ भोळा लोकोने आ साधुठगो लुटे छे, तेथी आ प्रमाणे वेषधारी साधुओ मेळवेला भोगोने भोगवे छे, अने & सूत्रम् तेवा बीजा भोगो मेळववा, तेवा तेवा उपायोमा वर्ते छे. ते कहे छे के:वीतरागनी आज्ञा विरुद्ध पोतानी बुद्धिए मुनिना वेपने लजावनारा संसार सुखना उपायना आरंभमां वारंवार लागे छे. (मचेछे) ॥३२॥ ३२९॥ आ विषयसुखना अज्ञानरूप भावमोहमां वारंवार कादवमां खुंचेला हाथी माफक बहार पोते पोताने काढवाने समर्थ नथी. जेम कोइ महा नदीना पूरमां वचमां जइने डुब्यो होय तो ते जल्दीथी तरवा के सामे किनारे आववा समर्थ नथी एज प्रमाणे कोइपण निमित्तथी प्रथम थी घर स्त्री पुत्र धन धान्य सोनु रत्न तांबु दास दासी विगेरे वैभव छोडी त्यागवृत्ति स्वीकारीने आरातीयतीर (पाछो । आववा के किनारे जवा ते समर्थ नथी ते) समान घरवासना सुखथी नीकळेलो साधु थयो अने फरी ते. वमेला भोगने पाछो ग्रहण & करवा इच्छा करे तो संयम पण जाय तो मोक्षमा जइशके नहि तेम घरवालां पण संघरे नही एटले बने बाजुथी जुदी पडेली मुकतोली माफक साधुपण जो संसार वांच्छना करे तो न ग्रहस्थ रहे तेम न साधु रहे तेथी ते बने प्रकारे भ्रष्ट छे. कयं छे के. - I "इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया। मानुष्यं दुर्लभ प्राप्य, न भुक्तं नापि शोषितम् ॥१॥ जेणे इंद्रियोने कबजे लीधी नथी अथवा इच्छानुसार ते इंद्रियोने विषय सुखमां जोडी नथी तेणे मनुष्य पणुं पामीने न भोग भोगव्या न त्याग वृत्ति स्वीकारी (आ वधानो केहेवानो सार ए छेके साधुए साधु वेष धार्या पछी गमे तेटलां कष्ट आवे; तोपण धीरज राखी संयम पाळवू.) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाल دوره به وبلاحد موح सूत्रम् ॥३२२॥ ॥३२२॥ CROSAROG4 जेओ उपर कहेली अप्रशस्त (संसारी विपय सुख) रतिथी दूर थयला छे, अने उत्तम रति (चारित्रमा प्रेमवाळा) छे, ते केवा : होय छे ते वतावे छे. विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लढे कामे नाभि गाहइ ७४ द्रव्यथी एटले धन सगाना अनेक रीतना प्रेमथी मुकायला; अने भावथी विपय कषायथी प्रत्येक समये छुटता साधुओ जे भविष्यकाळमां वधारे वधारे निर्लोभी बने छे, ते पुरुपो सर्व प्राणीने समानभावे गणी निर्ममत्ववाळा बनी (ससारथी) पारगामी बने छे. पार ते मोक्ष छे, कारणके, संसार-समुद्रना किनारे जवानी वृत्तिनां कारणो ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रण छे, ते त्रणने पार कहे छे. जेम, लोकमां सारा वरसादने चोखानो वरसाद कहे छे. एटले कारणने कार्यमा समाव्यु; तेथी ते प्रमाणे ज्ञान दर्शन चारित्रनो परे जवानो आचार जेमनो छे, तेओ संसारना मोहथी के, विषयकपायथी मुक्त थाय छे. ___ प्रश्नः-तेओ केवीरीते संपूर्ण पारगामी थाय ? उत्तरः-जोके, आ लोकमां लोभछे, ते वधाने तजवो दुर्लभ छे. जेमके क्षपक श्रेणीमांचढेला मुनिने पण ओछो ओछो करतां जरा जरापण लोभ रहे छे, तेवा जरा लोभने पण उत्तम साधु संतोषबडे पूर्वना लोभने निंदतो; अने छोडतो सामे आवता सुंदर विलासोने (लोको प्रार्थना करे; छतां पण) सेवतो नथी जेम महात्मा पोताना शरीरमां पण महत्व रहित थयलो छे, ते पर वस्तुना विषयमुखमां लुब्ध थतो नथी जेमके, ब्रह्मदत्त, चक्रवत्तिए पोताना पूर्वभवना भाइ चित्रमुनिने ओळखीने प्रार्थना कर्या छतां पण, SAGARRORCHASHA-94-5 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U आचा० सूत्रम् ॥३२३॥ NA-% ROSECCO तेणे भोगो न स्वीकार्या. उपर प्रमाणे सुंदर भोगो जेणे त्याग्या; ते त्यागवाथी बीजुं पण त्यागेलं जाणवू ते आ प्रमाणे-क्रोधने क्षमाथी, तथा मानने है| कोमळताथी, मायाने सरळताथी, ए प्रमाणे बधा दुर्गुणोने निंदी उत्तम साधु छोडे छे. सूत्रमा लोभ लेवानुं कारण ए छे के, ते वधा कषायमा मुख्य छे ते बतावे छे. ते लोभमां पडेलो साध्य असाध्यना विवेकथी ४ ॥३२३॥ | शून्य छे तथा कार्य अकार्यना विचारथी रहित वनी ने एक धनमांज दृष्टि राखनारोज पापना मूळमां उभो रहीने सर्व क्रियाओ करे छे कयुं छे के. 4 "धावेइ रोहणं तरइ सायरं, भमइ गिरिणिगुंजेसुं । मारेइ बंधवंपिह पुरिसो तो होइ धणलुद्धो ॥१॥ जे धननो लोभीओ होय ते पहाड चढे छे समुद्र तरे छे पहाडनी झाडीमां भमे छे बंधुओने पण मारे छे. अडइ बहुं वहइ भरं, सहइ छहं पावमायरइ धिहो। कुल सील जाइपच्चय, विइं च लोभदुओ चयइ॥२॥" 61 ___ घणु भटके छे घणोभार वहन करेछे भूखने सहे छे. पाप आचरे छे कुळ शील जाति विश्वास धीरज ए वधाने लोभथी पीडा- | एलो घृष्ट पुरुष त्यजे छे. तेथी आ प्रमाणे उत्तम साधुए प्रथमथी लोभ विगेरेथी दीक्षा लीधी होय अने तेवा भोग मळतां लालच थायतो पण मन दृढ । द करीने लोभ विगेरेनो त्याग करवो केटलाक लोभ विना पण दीक्षाले छे ते बतावे छे. SHRAA Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३२४॥ विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकखइ, एस अणगारिति पच्चइ, | अहो य राओ परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठाइ संजोगट्टी अट्टालोभी आलूंपे सहकारे विणिविचिते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्र से पिच्चबले से देवबले से रायवले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणवले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्त्रमाणे, अदुवा आसंसाए ( सू० ७५ ) सर्व भरतचक्रवर्ती विगेरे कोइ लोभना कारण बिना पण दीक्षाने मेळवीने अथवा सूत्र पाठांतरमां विणइतुलोभं छे तेनो अर्थ संज्वलन लोभने जडमूळथी दूर करीने पोते घाति कर्मनी चोकडीने दूर करीने आवरण रहित निर्मळ केवळज्ञान प्राप्त विशेषथी जाणे छे अने सामान्ययी जुए छे. अर्थात् जेणे पूर्वे बतावेलो अनर्थोनुं मूळ जे लोभ छे. तेने तज्यो छे तेनो लोभ दूर तां मोहनीयकर्मक्षय थतां अवश्ये घातीकर्मनो क्षय थाय छे अने निर्मळ केवळज्ञान प्रगट थाय छे तेथी बीजां कर्म जे भवउप ग्राहक छे ते पण दूर थाय छे ( जेनां घाती कर्म दूर थयां तेना अघाती कर्म सर्वथा स्वयं नष्ट थाय छे.) तेथी लोभ दूर थां कर्मा एवं विशेषण सूत्रमां आप्युं छे. आ प्रमाणे लोभतजवो दुर्लभ अने तजवाथी अवश्य कर्मनो क्षय थाय छे तेथी शुं करवुं ते क सूत्रम् ॥३२४ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ३२५॥ छे प्रति उपेक्षणा एटले गुण दोषनो विचार करी गुणोने ग्रहण करवा अने लोभ छोडवो अथवा लोभनां कडवां फळने विचारी तेना अभावमा जे गुण तेने चाहीने ते लोभने जे त्यजे तेनेज अणगार कहेवो. अने जे अज्ञानवडे मनमां मुंझाएलो छे ते अप्रशस्त मूळ गुण स्थानमा रही विषय कषाय विगेरेमा फसेलो होय ते दुःख पामे छे ए वधुं फरीथी सारो साधु याद करे के संसारी जीव अलोभने लोभ वडे निंदे अने विशयसुखमळतां तेने भोगवे अने लोभ छोडी साधु थइ पाछो लोभमां गृद्ध बनी वोळा कर्मवालो. कंइ पण जाणे नहीं तथा जुवे नहीं ( कामान्ध जन्मथी आंधळा करतां पण वधारे आंधळो छे ) अने हृदयमां चक्षु मीचावाथी विवेक र हित वनी भोगोने वांच्छे छे. अने पहेला उद्देशामां जे वतान्युं ते अहि जाणवुं. आ प्रमाणे उत्तम साधु विचारे छे के लोभी रात दिवस दुख पामतो अकाळमां उठतो भोग वांच्छुक अर्थ लोभी लुंटारो विचार | बगरनो घेला जेवो वने छे अने पृथ्वी विगेरे जीवोने उपघात करी शस्त्रो वारंवार चलावे छे. वली ते पोतानी शरीर शक्ति वधारवा जुदा जुदा उपायो बडे आलोक परलोकना सुखने नाश करनारी क्रिया करे छे ते नीचे मुजब छे. मांसथी मांस वघे तेथी पंचेन्द्रिय जीवोने हणे छे तथा चोरी विगेरे करे छे सूत्रमां बताव्युं छे एज प्रमाणे संसारी जीव सगांने पुष्ट करवा मित्रने पुष्ट करवा मथे छे एटले ते शक्तिवालां हशे तो हुं तेमनी मददथी आपदामांथी वचीश तथा प्रेत्य वळ वधारवा बस्त (घेटुं) विगेरेने ते हणे छे, तथा देववळ वधारवा (प्रसन्न करवा ) रांधवा रंधावांनी क्रिया (नैवेय करे छे) अथवा राजानुं बळ वधारवा राजानुं इच्छित करे छे, अथवा अतिथीनुं वळ वधारवा चाहे छे, ते अतिथी निःस्पृह होय छे. कां छे के; सूत्रम् ॥३२५॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 "तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ १ ॥” आचा० K जे महात्माए तिथिना, तथा पर्बना बधा महोसत्वो तज्या छे, तेने अतिथि कहेवो; अने बाकीनाने अभ्यागत कहेवो तेनो सारा सूत्र आ छे. तेना माटे पण प्राणीओने दुःख न आपq एज प्रमाणे कृपण-श्रमण विगेरेने माटे पण जाणवू जे संसारीजीव वीजाओने | ॥३२६॥ ॥३२ माटे के, पोतानां आलोकनां सुख छे, तेना माटे जुदी जुदी जातनां हिंसककृत्यो करी; एटले पिंडदान विगेरे आपी वीजा जीवोने 18 दुःख आपे छे, तेओने अल्पलाभने बदले महान दुःख मळवू जाणीने उत्तम पुरुषेते पाप न करवू जोइए. छतां; अज्ञानथी, अथवा मोहथी हणायलो भयथी तेवां पाप करे छे, अथवा कुगुरुना खोटा उपदेशथी पापकर्ममां पण, धर्म मानी दुष्ट कृत्य करे छे, अथवा कांइपण आशाथी पाप करे छे, ते वतावे छे. अग्नि जे छ जीवनिकायतुं घात करनार शस्त्र छे, छतां ते अग्निमां पीपळान, अरणीनं लाकडं होमे छे, अथवा समित्ति (एक जातनुं लाकडं) लाज्य, (धाणी) विगेरे नाखे छे, अने तेमां धर्म समजे छे, तथा बापर्नु श्राद्ध करवायां घेटा विगेरे, मांस रांधीने ब्राह्मणोने जमाडे छे, अने वधेलं पोते खाय छे. ( आ रीवाज गुजरात विगेरे देशोमां नथी; & पण वंगाळ दक्षिण विगेरेमा छे.) ते आ प्रमाणे जुदा जुदा उपायोबडे अज्ञानथी हणायली बुद्धी वळा पापथी छुटवाना बहाने दंड मेळववारूप ते ते क्रियाओ पाणी ओने दु:ख आपनारी करे छे. अथात् अनेक शत करोडनी संख्याना भवमा भोगववा छतां पण न छुटाय तेवू अघोर पाप || 15,करे छे, अथवा पापथी छुटवानुं मानीने अज्ञानदशाथी नवां पापज वांधे छे. PROGResic CASS 454 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा न मेळवेलुं फरीथी मेलववानी इच्छाथी प्राणीओने दुःख आपी पोते दंड मेळवे छे ते आ प्रमाणे:आचा० आ मने वीजा लोकमां, अथवा आलोकमां, पठीथी कांइ ऊंचपद अपावशे; एवी इच्छाथी ते पाप करवामां वर्ते छे.. सूत्रम् अथवा पोते धननी आशाथी मूढ बनीने राजानी सेवा करे छे, ( अने राजाने खुशी करवा मजाने पीडवाना अनेक पाप ॥३२७॥ ६ करे छे.) कां छे के ॥३२७॥ आराध्य भुपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि; इत्याशया धनविमोहितमानसानां, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥१॥ राजाने प्रसन्न करीने तेनी पासेथी धन मेळवी अने पछी अमे रोज सुख भोगवीशुं. आवी आशाथी धनथी मोह पामेला म- | नवाला माणसोने आखी जींदगी सुधीकाळ बीती जाय छे. (पण तेओ धर्म आराधी शकता नथी.) एहो गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहग्रस्तैः, क्रोडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ॥२॥ आव जा, पड, उठ, बोल, चुप रहे आ प्रमाणे बोलनारा धनवाळा छे. ते धननी इच्छवाला गरीबोने वारंवार रमाडे छे. आई द आ प्रमाणे सारा साधुए समजीने शुं करवु ते शास्त्रकार कहे छे. तं परिणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभिजा नेव अन्नं एएहिं कज्जेहिं दंडं समा. CARCISCHACRECARRORSCIECESS ACASSECRECAMERCE Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर आचा० રૂરલા रंभाविजा, एएहि कजेहिं दंड समारंभंतंपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि, तिबेमि, (सू०७६) लोगविजयस्स बितिओ उद्देसो ॥२॥ पहेला अध्ययनमां परिज्ञा वतावेली छे. तेमांचे प्रकारनां स्वकाय अने परकायवालां दुःख देनारां शस्त्रने चलाववां नहीं अ-४, दनारा शस्खन चलावना नहा ॥३२८) थवा पहेला उद्देशामां बतावेल विषय तथा मातापिता संबंधी प्रेमर्नु अप्रशस्त गुणमूळ स्थान समजीने तथा काळ अकाळे रखडवू ते समजीने अथवा अमूल्य अवसर तथा सुगुरुनो बोध तथा पांचे इन्द्रियोर्नु विचक्षणपणुं तथा वृद्धावस्थामां तेनी हानी विगेरे समजीने तथा आज उद्देशामां शरीर शक्ति वधारवा अथवा सगावहालांनुं वळ वधारवा दंडनुं लेQ (नवा पाप बांधवानु) ज्ञपरिज्ञावडे जाणीने । मर्यादामा रहेला मुनिए प्रत्याख्या न परिज्ञावडे पाप कृत्य छोडी देवा ते बतावे छे, पोते जाते शरीर शक्ति वधारवानां के वीजा दुष्ट कृत्यो करवा बडे जीवोने दुःख न आपे तेम हिंसा जुठ विगेरे पाप कृत्य बीजा पासे न करावे, अथवा पापीओने मन वचन अने कायाथी कोइ पण रीते सहायता के अनुमोदना न करे. आवो सर्व जीवने अभयदान देवानो उपदेश तीर्थकरे को छे. तेवू सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. ज्ञान विगेरेथी युक्त भावमार्ग जेनाथी कोइ पण जातवें दूपण के दंड के पाप लागवानां नथी ते मन वचन अने कायाए करी करवो कराववो अने अनुमोदवो जोइए तेम करनारा आर्य पुरुषो छे. एटले जेटला पाप धर्म छे. तेमने छोडी सर्व प्रकारे उत्तम 5 मार्गमा जे जीवो जोडायला छे तेओ संसार समुद्रथी किनारे पहों वेला अने घातीकर्मनो अंश पण नाश करनार जीवो संसारनी * ** 4-9 ARC Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३२९॥ अंदर रहेलां बधा भावोने जाणनारा सर्वज्ञ तर्थकर प्रभुए देव मनुष्यनी सभामां बधाए समजी शके तेवी तथा बधाना मनना संशय छेदनारी वाणीवडे आ· मार्ग कह्यो छे. पोते ते प्रमाणे वर्त्तेला छे एवो आ मार्ग जाणीने उत्तम पुरुषे उपर बतावेलां पाप कृत्योने छोडीने वधां तत्व जाणीने पोतानो आत्मा पापोमां न लेपाय तेम सर्व प्रकारे करवुं. आ प्रमाणे हुं कहुं हुं बीजो उद्देशो समाप्त थयो. हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. वीज उद्देशानी साथै त्रीजानो आ प्रमाणे संवन्ध छे. गया उद्देशामां कहां के संयममां दृढता करवी अने असंयममां उपेक्षा करवी अने ते बन्ने पण कपाय दूर करवाथी थाय तेमां पण मान उत्पत्तिना आरंभथी उंच गोत्रमां जन्मे छे ते उत्थापेलो (अहंकारी) थाय तेथी ते दूर करवा कद्देवाय छे तेथी वीजा अने त्रीजानो आ संवन्ध छे के बुद्धिमान साधु राग द्वेषमां न लेपाय तेज प्रमाणे बुद्धिमान साधु उंच गोत्रना अभिमानमां पण न लेपाय शुं मानीने अहंकार न करवो ते सिद्धांतकार बतावे छे. से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरिते नोऽपीहए, इय सखाय को गोयावाइ को माणावाई ? कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं सू. ७७ आ संसारी जीव अनेक वार मान सत्कारने योग्य एवा उंच गोत्रमां आव्यो छे तथा अनेकवार नीच गोत्रमां ज्यां लोको निंदे तेवामां पण पोते जनम्यो छे ते कहे छे. नीच गोत्रना उदयथी अनन्तकाळ तिर्येचगतिमां संसारी जीव रहेल छे त्यारपछी भटकनो जीव नाम कर्मनी ९२ उत्तर प्रकृत्चिना कर्मवाळो वनी तेवा तेवा अध्यवसाये उत्पन्न थयेलो आहारक शरीर तेनुं संघात बन्धन वह % 96 6 6 6 सूत्रम् ॥३२९॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३३०॥ अंगोपांग देवगति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नरकगति अने अनुपूर्वी मली वे ए वैक्रिय चतुष्टय (चोक) ए १२ कर्म प्रकृतिने निर्लेप करीने ( दूर करीने) वाकीनी ८० प्रकृतित्रालो बनी तैजस अने वायुकायमां उत्पन्न थयो त्यारपछी मनुष्यगति तथा अनुपूर्वी | मली वे ते दूर करीने उंच गोत्रने पल्योपमना असंख्येय भागवडे उदल करे छे. एथी तैजस वायुकायनो पहेलो भांगो थयो. ते आ प्रमाणे नीच गोत्रनो वन्ध, अने उदय पण अने तेज कर्मनी सकर्मता (सत्ता) छे. त्यांथी नीकळीने बीजी कायना एकेन्द्रियमां आवीने उपजे तो तेज भांगो थाय; अने त्रसकायमां पण अपर्याप्त अवस्थामां पण तेज भांगो याय; अने ज्यांसुधी उंच गोत्रनो निर्लेप न थाय; तो बीजो चोथो एम वे भांगा थाय ते बतावे छे. नीच गोत्रनो बंध, अने उदय, तथा तेज कर्मपणाथी सत्ताथी उभयरूपे बीजो भागो थाय; तथा ऊंच गोत्रनो बन्ध नीच गोत्रनो उदय, अने सत्कर्मपणुं बन्ने रूपे छे. ए चोथो भांगो छे, पण बाकीना चार भांगा नथीज थतांः कारण केः - तिर्यचयोनिमां उंच गोत्रना उदयनो अभाव छे. तेज उंच गोत्रना ( अहंकारथी ) उद्वलनवडे कलंकवाळा भावमां आवेलो जीव अनंतकाळ सुधी एकेन्द्रियमां रहे छे, अथवा उद्बलन थया विना तिर्यचमां अनंत उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणी रहे छे. प्रश्न - आवलिकाना संख्येय भाग समय संख्यावाळा पुद्गल परावर्त्त एम जोइए; पण पुद्गलपरावर्त्त केम जोइए ? आचार्यनो उत्तरः- जेओ औदारिक, वैक्रिय तेजस भाषाअनापान, (श्वासोश्वास) मन = ( आ छ थाय छे, पण सात लखेल छे. आहारक ए टीकामां लखवुं रही गयुं छे.) कर्मसप्तकथी संसारना वचला भागमां पुद्गलो आत्मानी साक्षे एकमेकपणे परिणमेलाछे, ते सूत्रम् ||३३०॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३॥ RA SESSE पुद्गल परावर्त छे, एबु केटलाक आचार्य कहे छे. बीजा आचार्थनो मत एवो छे के, द्रव्य, क्षेत्र, काळ, अने भाव, एम चार भेदे वर्णवे छे, अने आ प्रत्येक पण बादर, अने सूत्रम् सूक्ष्म एम बे भेदे अनुभवे छे, तथा द्रव्यथी बादर जे औदारिक, वैक्रिय, तैजस कार्मणना चतुष्टय (चोकडावडे) सर्व पुद्गलो ग्रहण करीने छोडी दीधा त्यारे थाय छे, अने सूक्ष्म छे, ते एक शरीरवडे बधा पुद्गलो स्पर्शवाळा थाय त्यारे जाणवू. (२) क्षेत्रथी बादर ज्यारे क्रम, अने उत्क्रमवडे मरतां जीवने वधा लोकाकाशना प्रदेश स्पर्शवाला थाय त्यारे होय छे, अने #सूक्ष्म तो त्यारेज जाणवो के एक विवक्षित आकाशखंडमां मरेलो, ज्यारे तेना प्रदेशोनी वृद्धि थाय त्यारे सर्वे लोकाकाशने व्याप्त है | थाय त्यारेज जाणवू. (३) काळथी बादर ज्यारे उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणीना जेटला समयो छे, तेटला क्रम, अने उत्क्रमवडे मरण पामवावढे स्पर्श न करे छे त्यारे जाणवू; पण सूक्ष्म तो, उत्सर्पिणीना प्रथम समयथी आरंभीने क्रमवडे सर्व समयो मरनाराजीवे वधा स्पर्श कर्या होय त्यारे जाणवू । (४) भावथी बादर ज्यारे अनुभागना बन्धना अध्यवसायना स्थानो क्रम अने उत्क्रम बढे मरेला जीवथी व्याप्त थाय त्यारे कहे छे. अनुभागना बन्धना अध्यवसाय प्रमाण प्रथम संयम स्थानना अवसरमां कही गया छीए अने सूक्ष्म तो जघन्य अनुभाव बंधना अध्यवसाय स्थानथी आरंभीने ज्यारे वधामां पण क्रमे करीने मरेलो थाय त्यारे जाणवू तेथी आ प्रमाणे कलंकी भावने पामेलो ८ अथवा. बीजो कोइ जीव नीच गोत्रना उदयथी अनत काळ सुधी पण तिथंचमां रहे छे. मनुष्यमां पण नीच गोत्रनाज उदयथी तेवा 5 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३२॥ | निंदनीय स्थानमा उत्पन्न थाय छे. तथा कलंकवालो जीवपण बेइन्द्रिय विगेरेमा उत्पन्न थयेलो पहेला समयमां पर्याप्तिना उत्तर काआचा० ळमां उंच गोत्र बांधीने मनुष्यमां अनेक वार उंच गोत्र मेळवे छे. त्यां त्रीजा भांगामा रहेलो अथवा पांचमा भांगामां उत्पन्न य एलो छे ते आ प्रमाणे छे. ॥३३२॥ नीचगोत्र बांधे छे. अने उंचगोत्रनो उदय होय छे. अने कर्मपणुं (सत्ता) बन्नेनुं छे ते बीजो भांगो अने पांचमा भांगामा उंच 8 गोत्र बांधे छे तथा तेनोज उदय छे. अने सत्कर्मपणुं (सत्ता) बन्नेनुं छे छठ्ठो अने सातमो भांगो तो जे बंधथी उपरत (दर) थयोहोय । तेने थाय छे अने तेनो विषय न होबाथी ते बनेनो अधिकार नथी. ते वंने बंधना उपरमां उंचगोत्रनो उदय थाय छे अने सकर्म , पणुं बनेमा कायम छे ते छठो भांगो थयो अने सातमो भांगो शैलेशी अवस्थामां द्विचरम (छेल्ला समयना अगाडीना समयमां) नीच४ गोत्र खपावे छ ते ऊंचगोत्रनो उदय होय तेनेज छे. अने सत्ता पण ऊंचगोत्रनी छे. आप्रमाणे ऊंच नीच गोत्रमा रहेला जीवे अहंकार | न करवो जोइए तेम दीनता पण न करवी जोइए. ऊंच अने नीच ते वने गोत्रनो बंध अध्यवसाय स्थानना कंडको समान छे. सूत्रमा बतावे छे के. णो हीणे, णो अइरिते जेटलां उंच गोत्रमा अनुभाव बन्धना अध्यवसायना स्थान कंडक छे तेटलांज नीचगोत्रमा पण छेत 2 अने ते सर्वे अनादि संसारमा आ जीवे वारंवार अनुभवेलां छे. तेथी उंचगोत्रना कंडकना अर्थपणे जीव हीणो पण नथी तेम वधारे 18! पण नथी एज प्रमाणे नीचगोत्र कंडकमां पण समजवू ते संबन्धमा “ नागार्जुनीया" आ प्रमाणे कहे छे. AGREEMERASEOCURESCREGAROG4 AAAAAAASHARE Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A - "एगमेगे खल्लु जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए असई नीआ गोए, कंडगट्टयाए नो हीणे नो अइरित्ते” 18 आचा० ___एक एक जीव भूतकाळमां अनेकवार उंच नीच गोत्रमा आन्यो अने उंच नीचना अनुभाग कंडकनी अपेक्षाए हीन के अति- सूत्रम् रिक्त नथी तेज कहे छे. ऊंच गोत्र कंडकबालो एक भविक अथवा अनेक भविकमांथी नीच गोत्रना कंडको ओछां नथी तेम वधारे है ॥३३३॥ पण नथी. एवं समजीने अहंकार के दिनता न करवी. ( अर्थात् समाधि राखवी तेज साधुपणुं छे.) ते बतावे छे. कारण के उंच है। ॥३३३॥ नीच स्थानमां कर्मना वशथी उत्पन्न थाय छे. तेज प्रमाणे वळ-रूप-लाभ विगेरे मदना स्थानोतुं असमंजसपणुं ( अस्थिरता) सद मजीने साधुए शुं करवू ते कहे छे, जाति विगेरेनो कोइ पण मद साधु न वांच्छे अथवा तेवी इच्छा पण न करे कारणके उंच नीच ट स्थानमां आ जीव घणीवार उत्पन्न थयो, एवं समजीने कोण गोत्रनो-के-माननो अभीलाषी थाय.! अर्थात् मारु उंच गोत्र वधा 8 लोकोने माननीय छे. तेवू बीजार्नु नथी. एवं क्यो बुद्धिवान मनुष्य माने.! में तथा वीजा जीयोए उंच अने नीच ए वां स्थानोने अनेकवार पूर्व अनुभवेलां छे तेज प्रमाणे गोत्रना निमित्ते मान-वादी कोण थाय. अर्थात् जे संसारना स्वरूपने सारी रीते जाणे छे, ते अहंकारी न थाय वली अनेकवार ते स्थानो पूर्वे अनुभवे छते रहमणां एकाद उंच गोत्र विगेरे अस्थिर स्थानकमां आवतां राग विगेरेना विरहथी गीतार्थ थएल कोण ममत्व करे! एनो भावार्थ आ छे. के कर्मन परिणाम जेणे जाण्युं छे तेवो मुनि आ सेवाने धारण करे. अद्धपणाने क्यारे योजे के जो पूर्वे तेणे तेवून मेळव्यं होय तो. पण खरीरीते तेणे घणी वखत उंचगोत्र विगेरे मेळव्यु छे. तो ते ऊंचगोत्रना लाभथी के अलाभथी AS) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार, दीनता, न करवां तेवू सूत्रमा कयुं छे. कारण के अनादि संसारमा भटकता जीवे भाग्यने आधारे घणी वार उंच नीच गोत्रनां स्थान अनुभवेलां छे. तेथी कोइ वखत उंच नीच गोत्र मेळवीने डाह्यो पुरुष जे खराब तथा सारी वस्तुने ओळखे छे ते आचा० उंच गोत्र विगेरेथी अहंकार न करे. कयु छे के॥३३४॥ "सर्व सुखान्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु॥१॥॥३४॥ वा ए सुखोने में आसंसारमा भमतां मेळव्यां छे. उंच स्थान पण मेळव्यां छे, तेथी हवे मने तेनामां कांइ आश्चर्य जोवामां आवतुं नथी. जह सोऽवि णिज्जरमओ पडिसिद्धो अहमाण महणेहि। अवसेस मयट्ठाणा, परिहरि अवा पयत्तेणं ॥२॥ जो के, निर्जराने माटे ऊंच गोत्रना मदनो निषेध कर्यो छे, तोपण आठ मानने मथनारा साधुओए प्रयत्नवडे बीजां मदस्थान पण त्यागी देवां. तेजप्रमाणे नीच गोत्रमा के निंदनीक स्थानमां उत्पन्न थइने दीनता न करवी. तेज सूत्रमा का छे केः-"नो15 कप्पे" भाग्यवशथी लोकमां निंदनीक जाति कुळ रूप बळ लाभ विगेरेमां ओछापणुं पामीने साधुए क्रोध न करवो मनमां विचारखं के मारे नीच स्थान अथवा बीजाना हलका शब्द सांभळीने मारे दुःख शा माटे मानवु, में पूर्व तेवू घणीवार भनुभव्यु छे तेथी , दीनता न करवी कयुं छे के. “ अवमानात्परिभ्रंशावधबन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च जात्यन्तरशतेष्वपि ॥१॥ अपमानथी नीच दशा थवाथी अथवा वध बन्ध के धनना क्षयेथी माणसे खेद न करवो कारण के पूर्वे आ जीवे रोग शोक AGARAK Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जुदी जुदी जातिमां सेंकडोवार भोगव्या छे. 'आचा० संते य अविभ्हइडं असोइउं पंडिएण य असंते । सक्का हु दुमोवमिअहिअएण हि धरतेण ॥ २॥ सूत्रम् पंडित पुरुषेप्राप्तिमांआश्चर्य न करवू; अने अप्राप्तिमां नाखुश थ नहि. झाडनी उपमावाळा हृदयवडे हितने धारनारा पुरुषने शक्य छे. ॥३३५॥ (झाड बधां दुःख सहे; पण त्यांथी खसे नहि तेम हृदय स्थिर करी दुःखसुख सहेबां.) 2॥३३५॥ होऊण चक्कवट्टी, पुहइबई विमलपंडरच्छत्तो । सो चेव नाम भुजो अणाहसालालओ होइ ॥३॥ चक्रवर्ति के, पृथ्वीपति निर्मळ सफेद छत्रने धरनारो पहेलो पोते बन्यो; अने तेज पुरुष पोते रहेनारो (तेज जन्ममा) अनाथ | आश्रममा भाग्यवशथी बने छे. अथवा एक जन्ममा जुदी जुदी अवस्थानी नीच-उंचपणानी स्थिति कर्मवशथी अनुभवे छे, तेथी। उंच-नीच गोत्रनी कल्पना मनमांथी काढीने तथा बीजा पण मनना विकल्प दूर करीने शुं करवू ? ते कहे : जीवोने संसारमा आवां उंच-नीच पद हमणा थाय छे. पछीथी थवानां छे, अने पूर्वे थयां छे, एवं विचारीने शिष्यने गुरु कहे छे केः-तारी तीक्ष्ण बुद्धिथी जाण के, जीवने कर्मवशथी सुख आवे छे, तेम दुःख पण आवे छे, तथा तेनां कारणो पण विचार, (जीवे जेवां पुन्य पाप कर्या होय; तेवां मुखदुःख मळे छे.) . वळीअविगान पणे प्रणीओ सुखने इच्छे छे. अहींयां जीवजंतु पाणी विगेरे शब्दोपयोग लक्षणवाळां द्रव्यना मुख्य शब्दोने छोडीने “ सत्तावाचि " शब्द “भूत" शब्दने लेबाथी एम सूचव्यु के, जेम आ उपयोग लक्षणवाळो पदार्थ अवश्य सत्ताने धारण SIRSAGAR Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३६॥ 15 करे छे, ते मुखने वांच्छे छे, अने दुःखने धिक्कारे छे, सुख पुन्यना उदयथी छे, तेथी एम जाणवू के, बधी पण शुभ प्रकृतिओ पुआचा० न्यना उदयथी छे जेथी शुभ नाम गोत्र आयुष्य विगेरे कर्म प्रतिओने दरेक जीव चाहे छे अने अशुभने निंदे छे आ प्रमाणे छे तो शुं करवू ते कहे छे. ॥३३६॥ समिए एयाणुपस्सी, तं जहा-अन्धत्तं बहिरतं मृयत्तं काणतं कुंटत्तं खुजतं वडभत्तं सामत्तं सबलन्तं सह पमाएणं अणेगरुवाओ जोणीओ संघायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ ( सूत्र ७८) __ अथवा शुभ अशुभ कर्म वधा जीवोमां जोइने डाह्या पुरुषे ते जीवोने अप्रिय होइ तेवु कृत्य न कर, एवो शास्त्रकारनो उपदेश छे, आ संबन्धमा “ नागार्जुनीया " कहे छे. ___ "पुरिसेणं खल्लु दुक्खुव्वेअ सुहेसए" जीव दुःखने काढदा तथा सुखने मेळववा इच्छे छे. तेथी जीवनी मरूपणा करवी अने ते पृथ्वी पाणी वायु अग्नि वनस्पती 15 सुक्ष्म वादर विकल पंचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञीपर्याप्ता अपर्याप्ता विगेरे पहेला अध्ययनमां बताव्या छे अने ते दुःखने छोडवानी इच्छाबाला तथा सुखने मेळववानी इच्छावाला जीवोनुं पोतानी उपमाए मानता साधुए पोताना मुखना माटे जीवोने दुःख आपवान हिंसा विगेरे स्थान छोडवा इच्छता पुरुषे पंच महाव्रतोमा पोतानो आत्मा स्थापन करवो, अने ते महावतो पूरा पाळवा माटे उत्तर गुणो पण पाळवा जोइए तेज वात आ सूत्रयां लान्या छे, ते कहे छे. GREECE GRAAGSE SEX 45A5%ARI 4 . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३३७॥ पांच समितिथी बनेलो हवे पछी कद्देवाता शुभ अशुभ कर्मनुं स्वरूप जाणे एटले अंधपणुं वहेरापणं मुंगापणुं काणापणुं अने कुंटपणुं विगेरे कर्मनांज फळ छे. ते जीवोमां साक्षात् जोइने पोते समजे, के हुं दुःख वीजाने आपीश, तो ते मने पण भोगववुं पडशे ते खुलासावार कहे छे. हवे समिनिनुं वर्णन कहे छे. सम् उपसर्ग इ. धातु अने ति प्रत्यय लागनाथी समिति शब्द बन्यो छे. अर्थात् सम्यक् वर्तन ते समिति छे, तेना पांच भेद छे. (१) इर्या समिति ते जोइ विचारी पगलं भरवानुं छे, जेथी बोजा जीवोनी तथा पोतानी रक्षा थाय, (जोइने चालतो, पग नीचे कीडी विगेरे मरे नही, तेम टोकर पण न लागे) आ अहिंसा नामना पहेला महाव्रतने टेको आपनार छे. तेथी अहिंसा बरोबर पळे छे. (२) भाषा समिति ते असत्य अहितकारक वचन रोकवा माटे छे, अर्थात् साधुए वीजुं महाव्रत पाळबुं जोइ विचारीने बोलवु . तथा (३) एपणा समिति ते साधुने कोइनुं पण चोरीने के पूछया बिना कांइ पण न लें ते त्रीजुं महाव्रत पाळवा माटे छे, एटले निर्दोष भोजन विगेरे दिवसना प्रकाशमां मालीकनी रजा लइ वापरवानुं छे. वाकीनी वे समितिओ. (४) आदान- एटले वस्तु लेवी| मुकवी ते समिति तथा [५) उत्सर्ग - एटले शरीरमांथी के मकान विगेरेमांथी नीकळतो मळ विगेरे योग्य स्थाने नांखवो के जेथी बीजाने पीडा न थाय, ते वधा महाव्रतमां सर्वोत्तम अहिंसा नामना पहेला महाव्रतनी सिद्धि माटे छे, आ प्रमाणे पंच महाव्रतो मेळवीने पांच समिति पाळता साधुने बीजा जीवानुं मुख विगेरे देखाय छे, अथवा जे रीते पोते वीजानुं भलुं चाहनारो थाय छे ते सूत्र |वडेज बतावे छे अंधपणुं विगेरे जे जे विरूप रूपोमां संसारी जीवो संसारमां भ्रमणा करता घणी अवस्थाओ भोगवे छे. ते बतावे छे. सूत्रम् ॥३३७॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३३८॥ मां एकेन्द्रिय बेन्द्रिय त्रेन्द्रिय ए आंख विनाना द्रव्य अने भाव अंधा छे (आपणी माफक तेमने आंखो जोवानी नथी) तथा चीरेन्द्रियवालाथी जोवानी आंखो छतां धर्मना अभावे मिथ्यादृष्टिओ भाव अंधा छे. (सारा माठानो तेमने विवेक नथी) कां छे के. "एकंहि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम्; एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥१॥ जेने निर्मळ चक्षु समान स्वभाविक विवेक छे अने तेवा विवेक साथे एमने सोवतरूप वीजुं नेत्र छे. आ बन्ने चक्षु जेमने नथी ते हृदयना आंधळा कुमार्गे जाय तो ते वीचारानो खरोखर शुं अपराध छे : वीतराग धर्म पामेला छे तेओ सम्यक् दृष्टि छे. तेमने कोइपण कारणे आंखनुं तेज नाश पाम्युं होय ते द्रव्यअंधा जाणवा पण खरा देखता कोने कवा के जे द्रव्यथी पण आंधळा नथी अने भावथी पण आंधळा नथी अर्थात् आंखे जुए छे, अने विवेकथी वर्त्ते छे. तेथी द्रव्य अने भावथी भिन्न एवं वने प्रकारनुं जेने अंधपणुं छे, ते एकान्तथी दुःख आपनारुं छे. कयुं छे के. "जवन्नेव मृतोऽन्धो, यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । नित्यास्तमितदिवाकर, स्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः | १| जीवतांज वा जेवो आंखथी आंधळो छे. के ते वीचारो वधी क्रियामां परतंत्र छे. जेने चक्षु नथी तेने हमेशां सूर्य अस्त थलो छे. अने पोते अंधकारना समुद्रमां डुब्यो छे. लोकद्वयव्यसनवह्निविदीपिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् ॥ सूत्रम् ॥३३८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम ॥३३९॥ ॥३३९॥ SORGSSEISUGGESH ___ को नोद्विजेत भयकृजननादिवोगात्कृष्णाहिनेकनिचितादिव चान्धगर्त्तात्? ॥२॥" आलोक परलोकमां दुःखना अग्निमां वळता अंगवालो तथा पारकानी लाकडीए दोराता दुःखी आंधळाने जोइने कोण खेद न त. पामे? अथवा भयने पमाडनार एवो भयंकर काळो साप अंधारानी खाडावाळी जग्यामां जे एक दृष्टिए करडवानी इच्छावालो बेठेलो . छे तेने जोइने तेना आगळ जतां जेवो भय लागे छे, तेवी रीते अंधपणना खाडानुं दुःख कोने भयंकर न लागे.? जेम उपर आंधळानुं दु.ख वताव्युं ते प्रमाणे केटलाक जीवो कर्मना वशथी बहेरापणुं भोगवे छे. अने जेने सारा के माठा विवेकनुं भान नथी ते आ लोक परलोकहुँ जे सारं फळ छे तेनी क्रिया करवाने ते अशक्त छे का छे के "धर्मश्रुति श्रवणमङ्गलवर्जितो हि, लोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारबाह्यः । किं जीवतीह बधिरो? भुवि यस्य शब्दाः, स्वप्नोपलब्ध धन निष्फलतां प्रयानि ? ॥१॥ धर्मनां वचन सांभलवाना कल्याणथी दूर थयेल तथा लोकना वचन सांभळवाना वहेवारथी बहार थएल छे ते बहेरो आ दुनीयामां केम जीवे छे.? के जेने कहेला शब्दो स्वप्नमा मेळवेला धननी माफक निष्फळताए जाय छे. . स्वकलत्रवालपुत्रकमधुरवयःश्रवणबाह्यकरणस्य । बधिरस्य जीवितं किं. जीवन्मृतकाकृतिधरस्य ॥२॥ पोतानी स्त्री तथा नाना पुत्रनां मधुर वचन सांभळवाथी विमुख एवा बहेरान जीवित जीवतो छतां पण मरेलानो आकार धर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ by -- - नारनुं कंइ गणत्रीमा छे ? (नकामुं छे.) आचा० आ प्रमाणे मुगांने पण एकांत दुःखनो समूह भोगववान छे. कर्जा छे केः "दुःखकरमकीर्तिकर, मुकत्वं सर्वलोकपरिभृतम् । प्रत्यादेशं मूढाः कर्म कृतं किं न पश्यन्ति ? ॥१॥" ॥३४०॥ दुःखने करनार अपजशवाल्लं सर्वलोकमां निंदा पात्र मुंगापणुं छे, ते पोतानाकर्मोनु करेलुं फळ वीजाने भोगवाताने मूढो केम 18जोता नथी ? (पोते पाप करशे तो, तेवु फळ भोगवईं पडशे.) तेज प्रमाणे काणापणं पण दुःखरूपे छे. कयुं छे: “काणो निमग्न विषमोन्नतदृष्टिरेकः शक्तोविरागजनने जननातुराणाम् ॥ . यो नैव कस्यचिदुपैति मनःप्रियत्वमालेख्यकर्मलिखितोऽपि किमु स्वरूपः? विपमस्थानमां डुबेलो, जेने एफज दृष्टि ( आंख ) छे. जे पोते काणो होवाथी वैराग्य उत्पन्न करवामां शक्तिवान छे, अने 18/ जन्मदुःखीओमां ते छे पोते कोइनां पण मनने वहालो लागतो नथी. आलेखवा जोग कर्मथी लखायो छतां; जे वीजाने वहालो न ४ लागे; तेनुं स्वरूप गइ गणत्रीनुं छे ? आ प्रमाणे कुंटपणुं एटले, जेना हाथपग वांका होय; अथवा ठींगणापणुं होय; अथवा जेनी पीठ वडनी ( सुंधाना ) आकारे [2] होय; तथा रंगे कळो होय; तथा सबळपणुं होय. आQ स्वाभाविक कदरपुं शरीर होय अथवा पछवाडे कर्मना वशथी तेवो थाय; the SASHEGHOSSES GRER Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३४१॥ तो, घणुं दुःख भोगवे छे. प्रमाथी एटले, विषयक्रीडाना कारणे सारां काममां एटले, धर्ममा प्रमाद करवाथी संकट, विकट शीत, ऊष्णं विगेरे, अनेक भेदवाळी योनीमां पोते भ्रमण करे छे, अथवा प्रथम बतावेली चोराशीलाख जीवायोनीमां एकसरखं भ्रमण करे छे. अने नवा नवां आयुष्यो बांधीने तेमां जाय छे। अने ते योनीओमां जुदी जुदी जातनां दुःखोने अनुभवे छे, तेज प्रमाणे उंचगोत्रनो अइंकार करवामां हणाएला चित्तवाळो अथवा नीच गोत्रना कारणे दीन बनेलो, अथवा आंधळो बहेरो थवा छतां अज्ञानी जीव पोते | पोतानुं कर्त्तव्य नथी जाणतो तथा पूर्वे करेलां कर्म नुं आ फळ छे, ते जाणतो नथी. तथा संसारनी बुरी दशाने भूली जाय छे. अने हित-अहितने विसारे छे तेमज उचित वातने गणतो नथी. ते तत्वने भुलेलो मूढ बनेलो होय तेज उंच गोत्र विगेरेमां अहंकार करे छे. तेज कहे छे से अबुज्झमाणे हओ वहए जाईमरणं अणुपरियहमाणे, जीवियं पुढो पिथं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं आरतं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झति, तत्थे व रत्ता, न इत्थ तवो वा दुमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुण्ण बाले जीविडंकामे लालप्यमाणे मुढे विप्परिया समुवेइ ॥ (सू० ७९ ) सूत्रम् ॥३४१॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३४२ ॥ पूर्वे कलां उंचगोत्रो अभिमानी अथवा आंधळां, बहेरां विगेरेनां दुःखने भोगवतो; अथवा कर्मविपाकने न जाणतो हत उ | पहत छे एटले, जुदीजुदी जातना रोगथी शरीरे पीडातां हणायलो छे, तथा वधा लोकमां पराभव पामवाथी उपहत छे, अथवा उंचगोत्रना अहंकारथी उचित कार्यने छोड़वाथी विद्वान पुरुषोना मुखथी, जेनो अपयश पडघो पडवाथी ते हणायलो छे, तथा अभिमान करवाथी अनेक भवमां अशुभकर्म वांधीने, नीचगोत्रना उदयने अनुभवतो उपहत छे, अने ते दुःखधी मूढ बने छे, ते दरेक जग्याए जोडj. तेज प्रमाणे जाति (जन्म-मरण) ए वन्नेने "पाणी काढवाना रेंटना न्याये" नवा नवा जन्म-मरणनां दुःखसंसारना मध्यभागमां रहीने ते जीव भोगवे छे, अथवा क्षणेक्षणे क्षयरूप आवीचीमरणथी दरेक क्षणे जन्म तथा विनाशने अनुभवतो दुःखसागरमां | इचेलो सघळं नाशवंत छतां, तेने नित्य मानीनेः जेमां हित थवानुं छे तेने पण अहित मानी विमुख थाय छे. (धर्म, जे सुखने आपनार छे, ते धर्मने छोडी दुःख आपनार विषयमां खेंचाय छे.) युं छे के: आयुष्यने नित्य मानीने अथवा, असयंमजीवित दरेक प्राणीने वधारे वहालुं छे. एटले आ संसारमां अज्ञान अंधकारथी हणाएला चित्तवाला मनुष्यने तथा वीजा प्राणीओने विषय रसमां जीववुं बहालुं छे, ते बतावे छे. आयुष्य वधारवा माटे रसायण विगेरे क्रियाओ बीजा जीवोने जे दुःख करनारी छे तेने करे छे. तथा चोखा विगेरेनुं क्षेत्र खेडावे छे. धोळांघर (हवेलीओ) विगेरे बधावे छे. तथा आ मारां छे. एम मानीने तेना उपर वधारे प्रेम करे छे. तथा थोडां रंगेलां अथवा जुदी जुदी जातनां रंगेलां अथवा वगर रंगेलां वस्त्रो तथा रत्नोना कुंडळो तथा सोनुं तथा स्त्री विगेरे मेळवीने तेमां एटले उपर सूत्रम् ॥ ३४२ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४ कहेली रमणीय वस्तुओमां गृद्ध थएला छे. ते मृढपुरुषो दुःख आवतां गभराय छे. अथवा तेमनी शरीर शक्ति बरोबर होय त्यारे आचा०८ तेओ धर्म विगेरेने उत्तम बोलता नथी पण तप ते अणसण विगेरे तथा “ इन्द्रियोनुं दमन तथा अहिंसानो नियम फळवाळो नथी ? सूत्रम् एम तेओ उलटुं बोले छे. ते बतावे छे, तप नियम धारण करेला धर्मि जीवने तेओ कहे छे. के" आ तप विगेरेन फळ भविष्यमां। ॥३४३॥5 नथी. फक्त आलोकमां कायाने दुःख अने भोग विगेरेथी दूर रहेQ ए तमने ठगवा माटे गुरुओए खोटुं बतावेलुं छे. ॥३४३॥ वली बीजा जन्ममां सुख मळशे. ए पण खोटो गुरुए भ्रम आपेलो छे. कारणके हाथमां आवेला भोगो तथा सुखो भोगववां छोडीने भविष्यमां सुखनी आशा करवी ए वधारे पापरूप छे तेथी वर्तमान- सुख चहानार संसारी जीवो (गुरुना वचनोने ऊंचा मूकी) भोग भोगववमा एक पुरुषार्थ मानी अवसरे अवसरे संपूर्ण भोगोने भोगवतो अज्ञानी जीव लांबा आयुष्यने इच्छतो भोगोने माटे अतिशय कुवचन बोलती वचन दंडनु पाप बांधे छे. एटले जे माणस एम बोले के तप तथा इन्द्रिय दमन अथवा अहिंसादिक नियम फळवालं नथी एवं बोलनारो मृढ तत्वने न जाणनारो हत उपहत थएलो नवां नवां जन्म मरण करी जीवित क्षेत्र स्त्री विगेरेमां लोलुप बनी तत्वमां विमुख अने अतत्वमा तख मानीने हित अहितनी बावतमा पण उलटो चाले छे. ते वतावे छे. दाराः परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥ स्त्रीओअपमानने करनारी, बंधुजन बंधन समान तथा इंद्रियोना विषयो विष समान छे. छतां माणसने आ केवो मोह छे के जेखरेखराशत्रु छे. तेमां मित्रपणानी आशा राखे छे. पण जेओ शुश कर्म उपार्जन करीने मोक्षनी इच्छावाला बनेला छे ते केवा छे ते बतावे छे. AAAAA Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ३४४॥ ॥३४॥ CRECEMALSAROSECCRORECASSAX इणमेव नावकखति, जे जणा धुवचारिणो । जाइमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे (१) नत्थि कालस्स णागमो, सवे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा. पियजीविणो जीविउकामा, सवसि जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अ. भिमुंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽपि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गड्ढिए चिट्टइ, भोअगाए, तओ से एगया विविहं परिसिहं संभूयं महो- . वगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्लइ वा से,आगारदाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्सऽहाए कराई कम्माइं बाले ठकुचमाणे तेण दुक्खेण स मूढे विप्परियासमुवेइ, मुषिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा झए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए, अयाणिजं च आथाय तंमि ठाणे न चिठ्ठइ, वितहं पप्पऽखेयन्ने तंमि ठाणंमि चिट्ठइ (सू० ८०) SHASIR- Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ॥ जे ध्रुवचारी एटले मोक्षनुं कारण ज्ञान विगेरे छे तेने मेळववाना स्वभाववाला छे तेवा धर्मात्मापुरुषो उपर कहेला असार जीवितक्षेत्र धन स्त्री विगेरेने चहाता नथी. अथवा धुतचारी एटले धुत ते चारित्र तेमां रमणता करनारा छे. अर्थात् चारित्र लइ तेने पूर्ण पाळी मोक्ष मेळवे ते संसारने चहाता नथी वली भोगना अथावे ज्ञान मेळवीने जन्ममरणना दुःखने जाणीने तेवा पुरुषे संक्रमण ( चारित्र) मां रमणता करदी एवं | शिष्यने गुरु कहे छे के विश्रोतसिका रहित अथवा परिसह उपसर्ग आवतां तारे कंटाळवु नही अथवा हे शिष्य तुं शंका रहीत मन| वालो थइ संयममां रहे एटले शिष्ये तप दमन नियम विगेरे आलोकमां जे कष्ट छे. ते परभवनुं अनंतु सुख आपशे एवं निःशंकपणे | मानीने धर्ममां आस्था राखे; अने ते तप नियम विगेरे करे; अने तेथीज पोते तपना प्रभावर्थी राजा-महाराजाओने पण पूजवायोग्य थाय छे. जेणे विषय कषायने जीत्या छे, तेवा तपस्वी शांत पुरुषने अहीं जे सुखरूप फळ मळ्युं छे, तथा तेणे वधा जोडकांने दूर करी समभाव मेळव्यो छे, तेवा पुरुषने परलोक कदाच न होय; तोपण तेनुं कं वगळतुं नथी. (उपशमभावमां अहींज अनंतु मुख छे, |तेने परलोकना सुखनी इच्छाज नथी. कं छे केः "संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः || १ ||” परलोक छे के नहि ? एवी एवी शुंकावाळा लोकमां पंडित पुरुषोए पापने छोडवुंज जोइए; जो परलोक नथी; तो तेनुं शुं वगडवानुं छे ? अने परलोक छे तोपण, तेनुं शुं वगडवानुं छे ? एथी परलोक न माननारो नास्तिक हणायो. अर्थात् पापने करनारो सूत्रम् ॥ ३४५॥ Bal T 1 | Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३४६॥ आलोकमांज नास्तिक केदमां पडी दुःख भोगवे छे, तोपण तेनी आशा पुराती नथी; अने आस्तिक भोगने रोग मानी तेनी आशा नमके छे, तो ते देवनी माफक पूजाय छे. तेथी गुरुमहाराज शिष्यने कहे छे के तमारे पोताना वशमा रहेलुं संयम सुख मेळववामां मदृढ रहे. पण आधुं न विचार के थोडा वर्ष पछी अथवा वृद्धावस्थामां धर्म करीश. कारण के मृत्युन आवq अनिश्चत छे के हमणा ॥३४६॥ मृत्यु नहि आवे. कारण के सोपक्रम आयुष्यवाळा जीवने कोइ अवस्था एवी नथी के-जेमां कर्मरूपी अग्निमां पडनारा लाखना गोळा माफक जीव पीगळी न जाय. कधं छे के शिशुमशिशुं कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीर मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रकाशमवलीनमचेतन मथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्य समयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥१॥" बाळक, जुवान, कठोर कोमळ, मूर्ख, पंडित धीर, अधीर, अहंकारी दीन गुण रहित, घणा गुणवाळो, साधु, असाधु, प्रकाशवाळो अप्रकाशवाळो, अचेतन, सचेतन, अर्थात् जेटला जीवो संसारमा छे. ते वधा काळ ( मृत्यु ) थी दिवसमां, रात्रीमां अथवा संध्याना समयमां पण कोइ रीते नाश पामे छे. तेथी मृत्युना सर्वेने कडवापणाने समजीने उत्तम पुरुष अहिंसा विगेरे महावतोमा सावचेत थर्बु जोइए. शा माटे ते कहे छे. "सव्वे पाणा पियाउया" 594ROSSANA CAAAACASH Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले सूत्रमा बताव्या प्रमाणे बधा जीवोने पोता आयुष्य पिय छे. आचा० शंका-सिद्धने आयुष्य प्रिय नथी, तेथी तमारा कहेवामां दोष आवशे. सूत्रम् . उत्तर-एटला माटेज अमे मुख्य शब्द जीवने न वापरतां प्राण शब्द वापर्यो छे. अने तेथी माण धारण करनार संसारी | DI] ॥३४७॥ जीवज लेवा. तेथी तमारो बांधो नकामो छे. ॥३४७॥ “सव्वे पाणा पियायया" आ पाठ छे. एटले आयुष्यने बदले आयत शब्द छे अने तेनो अर्थ आत्मा छे. कारण के ते अनादि अनंत छे. अने वधाने पोतानो आत्मा वहालो छे. अने सुखनी वांच्छा दुःखनो नाश करवानी अभिलाषा छे. कछु छे के सुहसाया दुक्खपडिकूला. .' आनंदरूप-सुख छे, तेनो स्वाद करवो ते सुख भोगववानी इच्छावाला जाणवा. अने असाता ते दुःख. तेना द्वेषी जाणवा; तथा पोतानो घात करे; तो, पोते अप्रिय माने छे, तथा जीवितने प्रिय माने छे, एटले दीर्घ आयुष्य वांच्छे छे, अने ते पण असंयम 18 जीवित वांच्छे छे, एटले दुःखमां पीडाइने पण, अंतदशामां पण जीववाने इच्छे छे का छे केः18, रमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेव वित्थरो महई । मग्गइ सरीर महणो, रोगी जीए च्चिय कयत्थो॥१॥” * वैभववाळो विशेष वैभवमा रमे छे. थोडावाको पण रहेवाने इच्छे छे. निर्धन पण पोतनां शरीरने संभाळे छे. रोगी पण जीव-ट Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४८॥ 15/ वामां कृतार्थ माने छे. तेथी आ प्रमाणे सर्व प्राणी सुखना जीवितना अभिलापी छे: अने संसारी-निर्वाह आरंभ विना नथी; अने आरंभ छे, ते आचा० निमाणीने उपघात करनार छे, अने प्राणीओने पोतानुं जीवित वधारे बहाल छे, तेथी वारंवार गुरुमहाराज उपदेश आपे छे के-द॥३४८॥ रेकने सर्वथा इन्द्रियोना विपय बहाला छे, अनेतेथी विपयोने ध्यानमा राखीने शुं करे छे ? ते कहे छे. चे पगवाळा दास दासी चार पगवाळा गाय घोडा विगेरे उपभोगमां लइने धननो संचय करीने मन, वचन, अने कायाथी करवू वरावयु, अने अनुमोदनावडे है पोतानां मनुष्य-जन्ममां जे कंइ जींदगी परमार्थमां गुजारवी जोइए; तेने वदले तेने आरंभमांएटले पापकर्ममां रोकीने व्यर्थ करे छे. ते वखते अर्थमां गृद्धथयलो पोते क्लेशने गणतो नथी. धनने रक्षण करवानो परिश्रम विचारतो नथी; तथा तेनी चंचळताने ध्यानमां | लेतो नथी, तेना नकामापणाने विसरे छे. (धनना अपायो भूलोने लाभज नजरे जुए छे, अने पापमां रक्त रहे छे.) का छे के-3 कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ॥ सरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं सशान्तिमीक्षते, न हि गण यति क्षुद्रो लोकः प्ररिग्रहफल्गुताम् ॥१॥ कृमिना समूहथी व्याप्त अने लाळथी भरेल्लं दुर्गधवाल्छं निंदनीक एबुं मांस विनानुं हाडकुं मोढामां ममरावतो अधिक स्वाद तेमां मानतो कुतरो-पासे उभेला इन्द्रने पण शंकाथी जुए छे. (के रखेने मारू हाडकुं इन्द्र लइ न जाय.) आ उपरथी निश्चय एम जणाय 5छे के क्षद्र जंतु छे. ते पोतानी संघरेली बस्तुनी असारना जाणतो नथी. ते पैसाने शा माटे चाहे छे, ते कहे छे. भोजनने माटे CRECROREGARMA Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३४९ ॥ उपभोगने माटे - धनने इच्छी तेवी तेवी क्रियामां वर्त्ते छे. एटले अवलगन. ( बीजानो आशरो लेवा) विगेरेनी क्रिया करे छे. तेमां | लाभांतराय कर्मना क्षय उपशममां जुदीजुदी जातनुं मळेलं अने वापरतां वचेलं साचववा महान उपकरण भेगां करे छे. अने कोइ पापीने तेवा लाभनो उदय न होय, तो धननी इच्छाए ते रंक मनुष्य समुद्र ओळंबे छे, पहाड चढे छे. खाण खोदे छे, गुफामां पैसे छे, पारानो रस बनावी तेना वडे सुवर्ण सिद्धि (कीमीयो) करवा चाहे छे. राजानो आश्रय ले छे, खेती करावे छे, आधी क्रियामां पोताने अने परने दुःख आपवा वडे पोताना सुखना माटे मेळवेलं धन पोते कष्ट करेलुं होय छतां कोइ वखत तेना पापना उदयथी तेना पीतराइओ तेमां भाग पडावे छे. अथवा दगाथी ले छे. चोरो चोरे छे. राजाओ दंडे छे. अथवा पोते राजना | भयथी जंगलमां नासी जाय छे. अथवा तेनुं जुनुं घर पडी जाय छे. अथवा अग्निथी वळतां धन नाश पामे छे. लुंटाइ जाय छे; आवां घणां कारणोथी अर्थ नाश पामवानो छे. एथी उपदेश करे छे के, हे शिष्य ! अर्थनो मेळवनारो बीजानां गळां रेसनारो पाप | करीने आज्ञानी जीव ते धनथी सुख भोगववाने बदले दुःख भोगवतां मुढ बनीने घेलो थाय छे। अने तेथी विवेक नाश थवाथी कार्य - अकार्यने मानतो नथी. तेज तेनी विरूपता छे. कां छे के "रागद्वेषभिभृतत्वा, त्कार्याकार्य पराङ्मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥१॥ रागद्वेषथी घेरावाथी कार्य अकार्यना विचारमां शून्य एवो विपरीत कार्य करनारो मूढ माणस जाणवो. आ प्रमाणे मूढपणाना अंधकारमां छवायाथी जेने आलोकना मार्गनुं ज्ञान नथी एवा सुखना अर्थिओ छतां दुःखने पामे छे. सूत्रम् ॥३४९ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३५०॥ तेथी सर्वज्ञ वचन रूप दीवाने वधा पदार्थतुं स्वरूप खरेखरुं बतावनार जाणीने गुरु कहे छे. हे मुनिओ तेनो आश्रय तमे ल्यो. में आ मारी बुद्धिथी नथी कं. एवं सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे, त्यारे कोणे कां ? ते कहे छे. त्रणे काळमां जगत विद्यमान छे. एवं जे माने ते मुनि जाणवा अने ते त्रणे काळनुं ज्ञान जेने होय ते सर्वज्ञ तीर्थकर छे. तेमणे कं छे. तेओए अनेकवार पोताना पुन्य वळथी उंच गोत्र विगेरे मेळव्युं छे. अथवा प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी ज्ञान प्राप्त थतांज वधा जीवो पोतानी भाषामां समजे तेवां वचनवढे तेमने उपदेश कर्यो छे. ते कहे छे. नो-ओघ वे प्रकारे छे. द्रव्यओघ ते नदीनुं पूर विगेरे छे. अने भावओघ ते आठ प्रकारनुं कर्म अथवा संसार छे. ते आठ कर्मी संसारी जीव अनंत काळ भंगे छे. ते ओघने ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूपी वहाणमां बेठेला मुनिओ तरे छे. अने जेओ थी तरता ते अनोतरा छे, अर्थात् जेओ मुनि धर्म पाळे छे तेओ तरे छे, अने जेओ ते धर्मने छोडी विषयना लालचु बने छे, ते जैनेतर अथवा जैन्मां पतित साधु छे. तेओ ज्ञान विगेरे उत्तम वहाणथी भ्रष्ट थवाथी तरवानो उद्यम करे तो पण संसार तरवा समर्थ थता नथी. तेज सूत्रमां कहूं छे नो ओहं तरितए, जे संसार तरता नथी ते अतीरंगमा छे, एटले तीर ते संसारनो पार तेनी पासे जबुं. ते तीरंगमा छे अने जेओ विषय रसमां पढे तेओ किनारे न जवाथी अतीरंगम छे. ते कोण ? ते कहे छे. जैनेतर अथवा प्रथम कहेला धर्म भ्रष्ट जैन साधु-ते बतावे छे. सूत्र ॥३५० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३५॥ ACHANAGARPAN तेओ वेष धारे छे छतां सम्यक् आचार न पाळवाथी सर्बज्ञना कहेला सन्मार्गथी दूर होवाथी किनारे जता नथी तेज प्रमाणे अपारंगम पण जे. अहीं पार एटले, सामेनो तट जाणवो. तेज प्रमाणे अपारगत पण जाणवा; एटले वितरागना उपदेशथी वीरुद्ध चा- सूत्रम् लवाथी पारगमनमा सफलता मळती नथी. आ वधुं कहीने कहे छे के-ते संसारना मुखइच्छको संसारमांज अनंतकाळ रहे छे.. जोके, तेओ वेष धारवाथी के, स्वेच्छाचारथी थोडुक कष्ट पण सहेता होय; तोपण सर्वज्ञना उपदेशथी विकळ, अने पोतानी इच्छा-४॥३५१॥ नुसार बनावेला शास्त्रनी रीतिए चालनारा होवाथी संसारपार जवाने समर्थ नथी. प्रश्नः-तीर, अने पारमां शुं भेद छे ?.. उत्तरः-अहींआं तीर एटले मोहनीयकर्मनो क्षय लेवो. तथा बाकीनां बीजां त्रण घातीकर्म दूर थवाथी पार जाणवो; अथवा तीर एटले, चार घातीकर्मनो नाश अने पारमां बाकीनां अघातीकर्मनो पण नाश जाणवो. प्रश्नः-जैनेतर अथवा, पतितसाधु केम मोक्षमां न जाय ? उत्तरः-जेनाथी सर्व पदार्थो ग्रहण कराय; ते आदानीय ते श्रुतज्ञान जाणq. ते श्रुतज्ञानमां कह्या प्रमाणे संयमस्थानमा जे न वर्ते ते मोक्षमा न जाय अथवा लोकोने पियएवां भोगनां अंग दास दासी चोपगां धन धान्य सोनुं रु' विगेरे ग्रहण करीने अथवा | मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योगवडे ग्रहण करवा योग्य कर्म ग्रहण करीने ज्ञानादिमय मोक्षमार्गमां अथवा सम्क् उपदेशमा अथवा | प्रशस्तगुण स्थानमा जे जीव पोताना आत्माने स्थिर नथी करतो ते संसारमा भमे छे. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३५२॥ ad धर्मभ्रष्ट पोते वीतरागना उपदेश स्थानमां स्थिर थतो नथी. पण तेने बदले अनुचित स्थानमां वर्त्त छे. ते बतावे छे. वितथ ते असत् वचन दुर्गतिनो हेतु छे तेने पामीने अकुशळ अथवा खेदने जाणनारो असंगम स्थानमां वर्त्ते छे. अथवा | ग्रहण करवा योग्य भोग नथी. जुदुं जे संयम स्थान “छे तेने पामीने खेदने जाणनारो निपुण साधु तेज स्थनमां एटले कर्मने हवामां तत्पर रहे छे अर्थात् पोताने सर्वज्ञ प्रभुनी आज्ञामां स्थापे छे. आ उपदेश जे शिष्य ज्यां सुधी तत्वनो बोध पाम्यो नथी तेने सुमार्गमां वर्त्तवा अपाय छे. पण जे नखनो जाण तथा हेय ( त्यागवा योग्य ) उपादेय ( ग्रहण करवा योग्य ) नुं विशेष जाणे छे, ते बुद्धिवान पुरुष यथाअवसरे यथायोग्य करवुं ते पोतानी मेळेज करे छे; ते बतावे छे. उद्देसो पासगस्स नत्थि, वाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव अणुपरि (सू० ८१ ) तिबेमि ॥ लोकविजये तृतीयोदेशकः ॥ उद्देश उपदेश एटले सत् असत् कर्त्तव्य तेना आ देशने जे जाणे ते पश्य जाणवो तेज पश्यक छे. तेने आ उपदेशनी जरुर नथी. 'ते पोतेज समजे छे.: अथवा पश्यक ते सर्वज्ञ अथवा तेना उपदेश प्रमाणे चालनारो जाणवो. जे काय ते उद्देश. ते नारकादि चार गति अथवा उंच नीच गोत्रनुं कहें. ते उपर कहेला सर्वज्ञने अथवा उत्तम साधुने नथी: कारण के थोडाज वखतमां तेनो मोक्ष थवानो छे. सूत्रम् ॥३५२॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % सूत्रम् ४॥३५३॥ प्रश्न:-क्यो माणस वीतरागना उपदेश प्रमाणे चालतो नथी ? ते कहे छेचिार "वाळ" राग विगेरे मोहीत थएलो ते कषायो तथा कर्मोवढे अथवा परिसह उपसर्गवडे हणाय छे. ते "निह" अश्वा जे नांथी स्नेह थाय ते स्नेहि ते जेने छे. ने स्नेह वालो रागी जाणवो. ते इच्छा संसार सुखनो अभिलापी मनोहर भोगोनो रागी बनी ॥३५३॥ | कामनी इच्छावालो ते कामी वारंवार विषयनी इच्छा शांत न पडवाथी तेना दुःखथी दुःखीओ बनेलो शरीर अने मनमां दुःखोथी पीडांतो रहे छे. कांटा तथा शस्त्रनो घा अथवा गुमर्दू कोड विगेरेथी शरीर दुःख भोगवे तथा वहालांनो वियोग अभियनो संयोग अनिष्टनो लाभ अने इच्छितनो अलाभ तथा दारिद्र दुर्भाग्यथी मननी पीडाओ भोगवे छे. अने तेनाथी वारंवार आर्त्तध्यान करतो वारंवार तेमां भमे छे. एटले दुःखना आवर्त्तमां डुबेलो संसारमा भमे छे. ( आ बधानो सार ए छे के-जे अहंकार करे-दीनता करे ते संसारमा भमे अने जे मुनि सुख दुःखमा अहंकार दीनता न करतां चारित्रने समता भावे आराधे ते मोक्षमां जाय) लोक विजयनो त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. CC -SCRECASSACCESS +%A5%CAI तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजति जेहिं वा साई संवसइ, ते व णं एगया नियया पुस्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा, नालं ते तव ताणाए वा • सरणाए वा तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C . आचा० सूत्रम् ॥३५४॥ 2॥३५४॥ CHAKOR भोगा मे व अणुसोयन्ति इहमेगेसिं माणवाणं (सू० ८२) बीजो उद्देशो कह्या पछी चोथो उद्देशो कहे छे भोगोमां प्रेम न करवो. ए आ उद्देशायां छे. जेथी भोगीओने शुं दुःखो थाय छे, ते बतावे छे. पूर्वे पण तेज का छे के भो-18 गीओने कोइ वखते रोग उत्पन्न थाय छे. पूर्वे वताव्यु के संसारमा विपयी जीव परिभ्रमण करे छे. ते जीव आ दुःखोने पण भोगवे छे, आ प्रमाणे त्रीजा उद्देशानो संबंध छे. तथा एना पहेलांना सूत्रनो आ संबंध छे के चालक जेवो जोव प्रेममां पडीने काम भोग करे छे. ते काम दुःखरुपज छे. तेमां आसक्त थएला जीपने वीर्यनो क्षय भगंदर विगेरे रोगो थाय छे. तेथी कहे छे के का-3 मना अभिलापथी अशुभ कर्म बंधाय अने तेथीज मरण थाय छे, पछी नरकमां उत्पन्न थाय छे, अने नरकमांथी नीकळीने माना पेटमां वीर्यना बींदुमा उत्पन्न थइ कलल अर्बुद पेशी व्युह गर्भ प्रसव विगेरेनां दुःख भोगवां पडे छे. त्यार पछी मोटो थतां रोगोथाय छे. आ वधू अशुभ कर्मचं फळ उदय आवतां थाय छे, ते रोगो बतावे छे, माथार्नु दुखवू पेटमां शूळ उठवी विगेरे रोगो थाय छे. g आ रोग उत्पन्न थतां जेनी साथे ते बसे छे. ते सगां तेने निंदे छे. अथवा चाकरी न थतां सगांने ते निंदे छे, वली गुरु कहे छे, के हे शिष्य ! जे सगां उपर मोह राखे छे, ते सगां तेना भाग रक्षणना माटे थतां नथी, तेम तुं पण तेना प्राण शरणना माटे थवानो नथी. एवं जाणीने तथा जे कंद दुःख सुख आवे छे, ते पोताना कार्योनुंज माणीओ फळ भोगवे छे, तेथी रोगोनी उत्पत्तिमां नता न लाववी; तथा सुंदर भोगोने याद करवा नहि, तेथी" सूत्रमा का छे के" शब्द रूप रस गंध अने स्पर्श ए पांच विषयनो ORIEOS Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३५५॥ अभिलाष अमे कोइ पण अवस्थामां भोगवीए एवी इच्छा न करवी, तथा पूर्व अमारी चढती अवस्थामां तेनो आनद न लोधो, एQ पण याद न कर, “एटले इच्छा" संसारमा जेमणे विषय रसना कडवां फळ जाण्यां नथी तेवा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती विगेरेने थाय छे. सूत्रम् पण वधाने तेवा भोगनी इच्छा थती नथी. जो तेम न मानीए तो सनत्कुमार चक्रवर्ती जेवाने पण दोष लागे ते वतावे छेब्रह्मदत्त मरणांतिक रोगनी वेदनाथी पीडाएलो संतापना अतिशयथी प्रिय स्त्रीने स्पर्श करवा माफक विश्वास भूमीमां मृर्छाने | 19/॥३५५॥ पामेलो तेने बहु मानतो तथा कोकडं वली गएलो तथा विषमतानो विषयी वनेलो ग्लानीथी पीडाएलो दुःख तलवारथी घवाएलो, C काळे वाथमां लीधेलो, अने पीडाथी पीडाएलो, नियतिए दुर्दशामां मृकेलो दैवे भाग्यहीन बनावेलो छेवटना उच्छ्वासमां पहोंचेलो महा प्रवासना मुखमां पडेलो दीर्घ निद्राना द्वारमा पडेलो जीवित इश (जम) ना जीहाये आवेलो, बोलीमां गद गद बनेलो, शरीरमां विछळ बनेलो, मलापमा प्रचुर थएलो भिका (रोवा) वडे जीताएलो अर्थात् करेलां पापोथी दुर्गतिमां जवानी तैयारी करी रहेलो. छतां महा मोहना उदयथी सुंदर भोगोनी इच्छावाळो पासे बेठेली भार्या जे पोते पतिना दुःखनी भयंकर वेदनाथी पोडाइने आंखमांथी आंसु पाडती राती आंखोवाली सामे वेठेली छे. तेने कहे छे के-हे कुरुमति हे कुरुमति एम वारंवार पोकरवा छतां (ते स्त्रीना देखताज ) पोते सातमी नारकीए गयो. त्यां पण अतिशय वेदना भोगवतो छतां वेदनाने न गणकारतो ते कुरुमतिने बोलावे छे. आ प्रमाणे भोगोनो प्रेम कोइक जीवोने बीजी गतिमां पण तजवो दुर्लभ छे. पण जे उदार सत्ववाला महान् पुरुपो छे. तेमने ते नथी जेमके जेणे आत्माथी शरीर *SHASTRA Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३५६॥ 66 ॥ जुदुं जाण्युं छे. एवा सनत्कुमार जेवा तख प्रेमी ओने तेवो भयंकर रोग आववा छतां पण (हायपीट करवाने बदले) में पूर्वे पाप कर्या छे. ते हुं भोग छं. एवो निश्चय करीने कर्म समूहने तजवा तैयार थपलाने (शरीर दुःख छतां पण) मनमां क्लेश थतो नथी. कां छे केउप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, । रागद्वेषकषायसन्ततिमहान्निर्विघ्नवीजस्त्वया रोगैरंकुरितो विपत्कुसुमितः कर्म्मद्रुमः साम्प्रतं । सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ॥१॥ उत्तम पुरुष पोताना आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा जे मोहरूपी पाणीवालो अने अशुभ जन्मरूपी “आलवाल" (झाडने पाणी पावानो क्यारो) वालो तथा रागद्वेष तथा कषायनो समूह तेना वडे निर्विघ्नपणे मोढुं बीज तें रोपधुं छे तथा ते हवे रोगे कअंकुरावा थयुं छे. विपदाओ तेनां फुलो छे. एवं कर्मरूपी मोटुं झाड तें तैयार कर्यु छे जो हवे तेने सारी रीते सहन नहीं करे तो नीच गतिमां लइ जनार दुःखोए करीने ते फळवाळो थशे (जो तुं तेने लीघे हायपीट करीश तो फरीथी दुःखो भोगववां पडशे.) | पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं । न खलु भवति नाशः कर्म्मणा संचितानाम् ॥ इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग् । सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ? ॥२॥ जोतुं हायपीट करीश तो तारे फरीथी पण दुःखनो पाक भोगववो पडशे. कारणके हायपीटथी बंधायेलां कर्मोनो नाश भोगव्या विना थशे नही. आ प्रमाणे समजीने जे जे दुःख सुख आवे ते सहन कर तेज विवेक छे. ते सिवाय बीजो विवेक क्यांथी होय (विवेकनुं लक्षण एछे के दुःख सुखमां हायपीट न करवी पण संतोषथी रहें.) सूत्रम् ॥३५६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३५७॥ भोगोनुं मुख्य कारण धन छे, तेथी तेनु स्वरूपज सूत्रकार कहे छे. आचा० तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गडिए चिट्ठइ, भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिढे संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दा॥३५७॥ याया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्स अट्टाए कराणि कम्मा णि बाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ (सू० ८३) __त्रण प्रकारे एटले मन, वचन, अने कायाथी तेनी पासे जे कंइ मील्कत थोडी अथवा घणी छे. नेमां भोगी गृद्ध थइने रहे छे.. 18 ते माने छे के-आ मील्कत मारे भविष्यमा भोग भोगवा काम लागशे. तेथी तेनुं रक्षण करवा महान उपकरणो राखे छे. पण & जो तेनुं एकळु करेलुं धन कोइपण रीते नाश मामे छे एटले पीतराइयो भाग पडावे, चोरी चोरी करे, राजाओलुंटे, नाश पामे, बळी- जाय विगेरेथी पोताने भोगमां न आववाथी इच्छा पुरी न थतां ते घेलो बने छे. अने धनने माटे क्रुर कर्म करतो अज्ञानी जीव | ४ तेना दुःख वडे मृढ बने छे. आ वर्षा पूर्वे कहेलुं छे, तेथी समजी लेवु. अहीं नथी कहेता आ प्रमाणे दुःखना विपाकवाला भोगोने जाणीने डाडा मुनिए शुं करवं ते कहे छे. AALHAROCHA-GAGACASSACRE Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम् LSCREER-R ॥३५८॥ ॥३५॥ आसं च छन्दं च विगिंच धीरे ? तुमं चेव तं सल्लमाहल, जेण सिया तेण नोसिया, इणमेव नाव बुझंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पवहिए, ते भो! वयंति एयाई आययणाई, से दुःक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मुढे धम्मं नाभि जाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं सं तिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं (सू० ८४) गुरु उत्तम शिष्यने कहे छे के तुं भोगोनी आशाओने तथा भोगोना अभिलापोने छोड, धी. (बुद्धि) तेना वढे राजे. (शोभे) ते धीर पुरुष जाणवो. तेवा उत्तम शिष्यने गुरुनो उपदेश लागे छे. तेथी कहे छे के हे शिष्य ! भोगमां दुःखज छे. अने तेमां सुखनी प्राप्ति नथी. (मगतष्णामां जळ नथी. पण जळनो खोटो आभास छे तेम भोगोमां सुख नथी.) आ प्रमाणे शिष्यने गुरु समजावे छे. अथवा पोते ५ आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा तुं भोगनी आशा विगेरे शल्यने छोडीने परमशुभ संयम तेनु सेवन कर. पण भोगोने विसरी जा कारणके जे जे पैसा विगेरेना उपायथी भोग उपभोगनी आशा छे तेना वढे मळतो नथी. एटले जेना वढे भोगो मळे तेज धन विगेरेथी। कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी धार्या करतां उलटुं थाय छे. AA Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R॥३५९॥ अथवा गुरु महाराज कहे छे के जेना वढे कर्म बंधन थाय ते कृत्य तारे न करवं. एटले पापना काममां न वर्तवं अथवा जेना चाट बढे राजना उपभोग विगेरेनो कर्म बंध छे, ते न करवं. (एटले संयमथी राज मुख न वांच्छवू) अथवा जे साधुपणाथी मोक्ष थाय & सूत्रम् IP तेज साधु जो भोगमां पडे तो मोक्षने बदले संसार भ्रमण थाय (माटे साधुए दरेक जग्याए विवेकथी वर्तवू.) 18 आ प्रमाणे अनुभवथी निश्चय करेलु छतां मोहथी हारेला जीवो सत्य वातने समजता नथी. आज हेतुनं विचित्रपणुं छे के जे पुरुषो तीर्थकर प्रभुना उद्देशयी रहीत छे. तेओन मोह तथा अज्ञान वडे अथवा मिथ्यात्वना उदयथी तत्व संबंधी ज्ञान बंधाएलुं छे. है तेओ मोहनीय कर्मना उदयथी मृढ बने छे. अने तेओने स्रोओ भोगनुं मुख्य कारण छे, ते बतावे छे. एटले युवान स्वीओना कटाक्ष अंगना चाळा सुंदर देखाव हाथना लटका विगेरेथी आ लोक (ससारी जीव समृह) आशा अने | अभिलापथी हारेला जीवो क्रूर कर्म करीने नरक विपाक फळरूप शल्यने मेळवीने ते दुर्गतिना दुःखरूप फळने विसरीने मोही सुमति (अंतरात्मा) ने विसरेलो प्रकर्षे करीने पीडाएलो पराजीत बने छे. एटले पोतेज परवश थाय छे. एटलं नहीं पण वीजाओने पण वारंवार खोटो उपदेश आपीने दुर्गतिमां लइ जाय छे. ते मृढो आ प्रमाणे बोले छे. आ स्त्री विगेरे उपभोगने वास्ते आनंदमां स्थान बनावेलां छे. एना विना शरीरनी स्थिति नज याय अने ते उपदेश तेओना दुःखना माटे थाय छे. एटले तेमनाकहेवाप्रमाणे चालनारने पण शरीर तथा मननां दुःखो भोगवां पडे छे. अथवा मोहनीय कर्म बंधाय छे, अथवा ते अज्ञानी बने छे. अने वारंवार तेमने मरणनां दुःख थाय छे. नरकमां जq पढे छे, त्यांथी नीकळीने तिर्यंच थर्बु पडे छे. आवधानो मूळ कारण स्त्रीमांमोह पामवानुं SHERLOCCA****** C - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 छे. एटले सर्व भोगोमां मुख्य भोगचं स्थान आ स्त्री छे. अने तेथीज वधां दुःख छे एम वधी जग्याए संबंध लेवो. आचा० आ प्रमाणे स्वीना हावभावथी तेना अंग जोवामां रसीओ बनेलो उपर कहेली योनीओमां भमतो छतां आत्माना हितने जाणतो M नथी. तथा निरंतर दुःखथी हारीने मूढ बनेलो क्षमा विगेरे दश प्रकारना लक्षणवाला साधु धर्मने जाणतो नथी. अने ते धर्म दर्गतिना ॥३६०॥ भ्रमणने रोकनार छे. तेवू जाणतो नथी. आ तीर्थंकरे कहेलं हे कोणे का ? ते कहे छे. जेणे संसारनो भय विसार्यो ते वीर प्रथुए का छे. हे शिष्यो, तमारे महा मोहमा एटले स्त्रीओना हावभावमां रक्त थq नहीं पण सावचेत रहेवु. तेज महा मोहन कारण छे. एटले ते स्त्रीमां जराए पण रागी न थQ प्रमाद न करवो. आ निपुण बुद्धिवाला है शिष्यने माटे आटलं वचन वस छे. वली मय, विषय, कपाय, निद्रा, विकथा, ए पांच प्रकारना प्रमादथी तमारे सावचेत रहेQ कारणके ते प्रमाद उपर कहेलां दुःखो आपवाने माटेज छे. प्रश्न-शुं आधार लइने प्रमादने छोडवो ? उत्तर-शांति एटले शमन ते वधा कर्मनो नाश जाणवो ते मोक्ष तेज शांति छे. प्राणीओ वारंवार चार गतिना संसारमा मरण जेना वडे पामे छे, ते संसार छे. ते शांति अने मरण ए वन्नेने विचारीने प्रमाद छोडवो. गुरु कहे छे के हे शिष्य, एक वाजु प्रमादीने वारंवार जन्म मरणर्नु दुख छे. अने बीजी वाजु अप्रमादीने जन्म मरणना त्यागरूप अनंतुं सुख छे ए बन्नेने कुशल बुद्धिवाला शिष्ये विचारीने विषय कपायरूप प्रमादने न करवो... CCEACOCASST- | ॥३६०॥ -54-SCA-CA %A4%AE Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिा० सुत्रम् S ।३६१॥ ॥३६१॥ OSTEN ___ अथवा शांतिवडे मरण एटले मरणसुधी जे फळ थाय छे ते विचारीने प्रमाद न करवो. एटले जीवतां सुधी उत्तम पुरुषे कोइपण साथे क्लेश न करवो. अने ते क्लेश प्रमादथी थाय छे माटे प्रमाद न करवो. वळी विषय कषाय अने स्त्रीना विलासरूप जे प्रमाद छे ते शरीरना अंदर रहेलो छे. अने ते शरीर पोतानी मेळे नाश पामनारं छे. तो तेवा नाशवंत शरीरने विचारीने साधुए प्रमाद न करवो. (जे शरीरना माटे प्रयास थाय ते शरीर नाशवंत छे. धन अहीज रहेवानुं छे) एटले भोगो भोगववा छतां पण तृप्ति थती नथी. तेम भोगो अभिलाषने संतोष पमाडी शकता नथी. माटे हे शिष्य! तारी, | बुद्धिवडे जो के दुःखना कारणवाला प्रमादरूप विषयोर्नु भोगवq छे ते तृप्तिने अथवा शांतिने आपता नथी. को छे के ___“यल्लोके ब्रोहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रीयः । नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं कुरु ॥१॥ __ आ लोकना विषे व्रीहि, जव, सोनु, पशुओ, स्वीओ, विगेरे बधुं पण एक माणसनी तृप्तिना माटे समर्थ नथी एवं समजीने 3 तेनो मोह छोड, आत्माने शान्त कर. उपभोगो पायपरोवांछति यः शमयितं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमि तुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम् ॥२॥ उपभोगना उपायमां तत्पर थएलो जे विषय तृष्णाने शान्त करवा इच्छे छे तो फरीथी आंतरे पोतानी छायामां आक्रमण क४ रवाने ते तृष्णा तैयार रहे छे (एक इच्छा पूरी करीके बीजी तैयारज छे. तृष्णानो अंत कोइ वखत नथी) तेथी भोगना लालचुओने 6 तेनी प्राप्तिमां के अप्राप्तिमा दुःखज छे ते बतावे छे. .. 1545555555 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥३६२॥ ---ॐॐARE ॥३६२॥ एयं पस्स मुणी ! महब्भयं, नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए जे न निविजइ, आयाणाए, न मे देइ न कुपिज्जा थोवं लटुं न खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिजा एवं - मोणं समणुवासिज्जासि (सू० ८५) तिबेमि॥ गुरु सारा शिष्यने काहे छे के हे मुनि ! भोगनी आशारूप महा तापथी घेरायेला पुरुषने कामदशानी अवस्थाना मोटा भयने तुं प्रत्यक्ष जो, कामीने डगले डगले वीजानो भय छे. तेथी मोटो भय तेज दुःख छे. अने भोग लंपटोने मरण- कारण छे. तेथी ते मोटो भय कह्यो, तेथी हे शिष्य! आ लोक अने परलोकमां भय आपनार भोगोने जाण, तेथी शिष्ये शुं करवू ते गुरु कहे छे. माटे तुं ते भोगोथी तारा आत्माने दुर्गतिमां न नाखीश, तुं कोइ जीवोने दुःख न आपीश, तेज प्रमाणे बीजा कोइने जुठं बोली न फसावीश तेम चोरी पण न करीश विगेरे पांचे पापोने त्यजजे. ले भोगथी दूर रहे छे अने जीव हिंसाथी दूर रहे छे. ते महात्माने शुं गुण थाय छे ते बतावे छे. ते भोगोनी आशा अभिलाषा त्यागनार अप्रमादि साधु पंच महाव्रतना भारथी पोतानोस्कंध नमावेलो अनेक कर्म विदारण करवाथी वीर पुरुष इंद्र विगेरेथी स्तुति कराय छे. प्रश्न-क्या पुरुषनी स्तुति थाय छे ? उत्तर-जे महात्मा आत्माने ग्रहण करवा योग्य तत्वने ग्रहण करे छे एटले वधां घातीकर्म क्षय थवाथी बधी वस्तुनो प्रकाश करनार केवळज्ञान तेने प्रकट थवाथी अव्यावाध मुख मळे छे. ते ज्ञान मळवावें मुख्य कारण संयमनुं अनुष्ठान छे. तेमां दोष ल SEGIREGUISE FREE Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi . सूत्रम् मने आफ्नो नयी. एवं मानीने तेना उपर क्रोध न लावे. परंतु सानिए एम मा AMER ॥३६३॥ गाडतो नथी. अथवा रेतीना कोळीआ खावा मुश्केल छे ते संयम पाळवं कठण छे छतां पाळे छे. एटले कोइ वखत गोचरी न मळे ५ चा० तोपण साधु संयमने मुके नहिं तेम मनमां दिनता पण न लावे. अथवा आ गृहस्थ पोतानी पासे वस्तु छे छतां मने आपतो नथी. एवं मानीने तेना उपर क्रोध न लावे. परंतु मुनिए एम मा।३६३॥ | नवु के आ मने अंतराय कर्मनो दोष छे. अने न मळवाथी तपनो लाभ थशे तेथी मने काइपण नुकसान नथी. अथवा थोई आपे अथवा तुच्छ खोराक आपे तोपण दान आपनारने निंदे नही. कोइ गृहस्थ ना पाडे तो त्यांथी रीसाया विना खसी जq. एकक्षण मात्र पण हठ लइ उभा न रहे. अथवा दान आपनारी IPI बाइने कटु वचन न कहेवां जेमके तारा गृहस्थावासने धिक्कार छे ? “दिट्ठाऽसि कसेरुमई! अणुभूयासि कसेरुमह!। पीय चिय ते पाणिययं वरि तुह नाम न देसणं ॥१॥" हे उदार बुद्धिवाली स्त्री ! तने जोइ ! हे उदार बुद्धिवाली ! तारो अनुभव कर्यो ! तारुं पाणी पीधुंज ! तारुं नाम सारं ! आ| टलं बधुं छतां पण तारुं दर्शन सारुं नथी. (आQ साधुए बोलवू नहि.) कदाच ते आपेतो लइने रस्तो पकडवो. पण त्यां उभारहीने नीचा उचा वचन वडे तेनी स्तुति निंदा न करवी. अर्थात् भाटनी माफक तेनां खोटां गीतां न गावां. आ बधानो सार कहे छे. आ प्रव्रज्याना निर्वेदरूप (शांतिथी) दातार उपर न आपे तो पण कोप न करवो, थोई आपे तो निंदा न करवी. आपे तो ल 15-SCRACK SARASHASHISAR Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० काइने चालता थवं. आ मुनिन मौन छे. एटले मोक्षार्थि साधुनुं आ आचरण छे. तुंपण अनेक भव कोटिने भ्रमण करतां अमृल्य एवासंयमने, पामीने सारी रीते पाळजे, आम गुरु शिष्यने समजावे छे. अथवा पोताना आत्माने उपदेश आपे छे. के तु राग द्वेष न करजे. चोथो उद्देशो समाप्त थयो. सूत्रम् ॥३६४॥ ल ॥३६॥ हवे पांचमो उद्देशो कहे छे. तेनो आ संबंध छे आ लोकमां भोगोने तजीने संयम देह पाळवाने माटे लोकनी निश्राए विहार 5 करवो जोइए. ते आ उद्देशामां वतावे छे. ___ आ लोकमां संसारथी खेद पामेला भोगना अभिलाप तजेला मोक्षाभिलाषिए पोतानामां गुरुए स्थापन करेला पंच महाव्रत , भार वडे निर्वद्य अनुष्ठान करनारा मुनिए दीर्ध संयमनी यात्रा माटे देहर्नु परिपालन करवा लोकनी निश्राए विहार करवो जोइए, कारण के आश्रय विना देहनां साधन क्याथी थाय ? अने देह विना धर्म क्याथी थाय ? कयु छे के "धर्म चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पञ्चापि । राजा गृहपतिरपरः षङ्काया गणशरीरे च ॥१॥" धर्ममां चालनारा साधुने लोकमां पांच निश्रानां पद छे, राजा गृहस्थ छकाय साधु समूह तथा शरीर ए पांच जाणवां वस्त्र, पात्र, अन्न, आसन, शयन, विगेरे साधनो छे. तेमां पण प्रायः निरंतर आहारनो मुख्य उपयोग छे. अने ते आहार गृहस्थ पासेथीज । 8 लेवानो छे. 'अने गृहस्थो जुदा जुदा उपायो वडे, पोताना पुत्र स्त्री विगेरे माटे आरंभमां प्रवतेला छे, तेमने त्यां साधुए संयम देहनी SAHARASTROREGORECASHASTROD - A-CA Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० सूत्रम् 1656 ॥३६५॥ रक्षामाटे निर्वाह करवा जोइती वस्तु शोधवी जोइए. ते वतावे ठे जमिणं विरुवरूवेहि, सत्थेहि लोगस्स 'कम्मसमारंभा' कजंति, तंजहा-अप्पणो से पुत्ताणं, धूयाणं सुण्हाणं नाईणं, धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्म करीणं आएसाए पुढोपहेणाए सामासाए पायरासाए संनिहि संनिचओ कजई, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए (सू० ८६) तत्वने जाणनारा पुरुषो सुख मेळववा तथा दुःख छोडवा माटे जुदांजुदां शस्त्रो जे प्राणीओने दुःख आपनारां छे, ते द्रव्य अने 5 भावथी चे प्रकारनां बताव्यां छे, तेनावडे पोतानुं शरीर पुत्र दीकरी छोकरानी वहु ज्ञाती विगेरेना निर्वाह माटे कर्मना समारंभो ४ करे छे, ते बतावे छे.. . सुख मेळवq, दुःख छोड, तेना माटे कायाथी अधिकरणवडे, अथवा द्वेषथी, परिताप उपजाववावडे, अथवा जीवथी शरीर दूर करवावाली पांच पापनी क्रियाओ छे, अथवा खेतीवाडी व्यापार विगेरे कर्मना समारंभो छे, ते लोको करे छे. आसमारंभ शब्द लेवाथी "संरंभ." तथा आरंभ पण जाणी लेवा एटले शरीर अने स्त्री माटे लोको संरंभ समारंभ अने आरंभो करे छे. संरंभर्नु वर्णन-इष्ट प्राप्ति अनिष्ट छोडवं. तेने माटे. प्राणातिपात विगेरे, संकल्पनो आवेश जाणवो. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० | सूत्रम् ॥३६६॥ ॥३६६॥ * समारंभ वर्णन-संकल्प कर्या पछी तेनां साधन भेगां करवां, तथा काया अने वचनना वेपारथी बीजाने परिताप विगेरेना लक्षणवालो छे. आरंभ वर्णन-प्रण दंड (मन वचन काया) ना व्यापारथी मेळवेली तथा उपयोगमा लीधेली जीव हिंसा विगेरेनी क्रिया चाल करवी, ते आरंभ छे, अथवा आठ प्रकारना कर्मना समारंभ, एटले जोइती वस्तुने मेळववाना उपायो करवा ते. सूत्रमा लोक शब्द छे, ते लोक क्यो छे, के जेना वढे आरंभो कराय छे ? ते बतावे छे. आत्मा शरीरथी जोडाएलो छे, ते शरीर निभाववा लोको आरंभ करे छे, तेज प्रमाणे पुत्र दीकरी विगेरे माटे पण आरंभ कराय छे, एटले रसोइ विगेरे वनायवी पढे छे. तेवी रीते वीजा आरंभो पण करवा पढे छे एवं पूर्वे का छे. प्रश्न-शरीर लोकशब्दना अर्थमां केवीरीने घटे.? उत्तर-तमारूं कहे, वरावर नथी, कारण के परमार्थ दृष्टिथी जोनाराओने ज्ञान दर्शन चारित्ररूप अत्मतखने छोडीने बाकीनं ॐ शरीर विगेरे पण पारकुंज छे, कयुं छे के-वहारना पुद्गहुँ बनेलं अचेतनरूप कर्मनुं विपाकरूप पांचे शरीरो छे. तेथी शरीर आत्म पण लोक शब्दवडे वताव्यो, तेथी कोइ शरीर माटे पापक्रियाओ करे छे, वीजो कोइ दीकरा दीकरी माटे, तो कोइ दीकरानी बहुने माटे तो कोइ न्यात माटे, तेज प्रमाणे संबंधथी जोडाएलां सगां, धाव माता माटे, राजा माटे दास दासी माटे नोकर नोकरडी माटे आरंभ करे छे, कोइ परोणा माटे करे छे, कोइ जुदा जुदा पुत्र विगेरेने प्रहेणक माटे करे छे, कोइ रात्रिमा खावा रांधे छे. कोइ प्रभातमा खावा रांधे छे, ते आ वधामां कर्म समारंभ छे, बळी विशेष कहे ई RSHASHA Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् | ॥३६७॥ जल्दी नाश पामे तेवी वस्तुओने राखी मुके छे, दहीं भात मेळवी राखे छे, तथा घणो काळ रही शके तेवी वस्तुओनो संचय चाला पण करे छे, ते बाल हरडे, साकर द्राक्ष, बिगेरेने संघरे छे, आ वधु परिग्रह विगेरे आजीविकाना कारणे छे, अथवा धनधान्य सोनुं विगेरेनो संग्रह करे छे. आ नधुं शा माटे करे छे ते कहे छे:६७॥ आ लोकमां परमार्थ बुद्धिवाळा मुनिओने जमाडवा माटे करे छे, एटले कोइ स्वार्थ माटे, तथा कोइ परमार्थ माटे रात्रिमां, प्र- भातमां के दिवसमां भोजन माटे के निर्वाह माटे संसारी-पापक्रियाओ करे छे, अने विरूप शस्त्रोवडे बीजां जीवोने पीडा करे छे. आ प्रमाणे लोकनी स्थिति होय; तो, साधुए शुं करवू ते कई छे: समुट्टिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंधित्ति अदक्खु, सेनाईए ना इयावए न समणुजाणइ, सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिवए (सू० ८७) जे साधु सम्यक् रीते निरंतर संयम अनुष्ठानवडे वर्ने छे, ते जुदां जुदां शस्त्रोवढे थती पापक्रियाथी मुक्त थयलो छे, ते मुनिने घर नथी; तेम ममत्त्व पण नथी; 'तेथी ते अनगार छे, तेम तेने गृहस्थनी माफक दीकरा-दीकरी बहु विगेरेने पण पोषवां नथी. ते अनगार पोते बधां पापकर्मोथी दर थयेल छे, तेथी ते आर्य छे, तेथी ते चारित्रने पाळवा योग्य छे. वळी जेनी बुद्धि उत्तम छे, ते आर्य प्रज्ञावाळो जाणवो एटले सूत्र भण्याथी; जेनी बुद्धि परमार्थमां खीलेली छे, तथा न्यायमा मन रहेलं होवाथी ते न्यायने जुए तेथी ते आर्थदर्शी छे, एटले ते जुदा “प्रहेणक ' श्यामा' अशन" (पूर्वे परोणा विगेरे माटे राते रांध; विगेरे तेनाथी मुक्त) C425*** C*XOCOCOCHES RRE5%BECORRESCk Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० CAMERS सूत्रम् ॥३६८॥ ॥३६८॥ छे, तथा पोते " अयंसधि" छे, एटले पोतानां दरेक कार्य योग्यवखते करनारो छे. ज्यारे जे करवु होय; ते प्रमाणे करे छे. कपडां जोवां; ध्यान राखवूसिद्धांत भणवो गोचरी जवू, प्रतिक्रमण करई. विगेरे दरेक क्रिया एकवीजाने 'बाधा' विना समये समये करे छे, तेज परमार्थने जोनारो जाणवो. तथा ते मुनि “ अदक्खु"छे, एटले जे आर्य छे, आर्यबुद्धिवाळो छे. आर्यदर्शी छे, काळने जाणनारो छे, तेज परमार्थने जाणनारो जाणवो. वीजी प्रतिभा सूत्रपाठमां भेद छे, ते, ____ अयं संधिमदक्खु छेतेनो अर्थ कहे छे:-पूर्वे वतावेला उत्तम विशेषणवाळो साधु कर्तव्यकाळने जाणे छे, एटले जे परस्पर हित-अहित मेळव, छोड विगेरे क्रियाने वाधा न करतां; प्रथम अवसरने जाणे छे, अने ते प्रमाणे करे छे. ते परमार्थने जाणनारो छे. भावसंधि-ज्ञान दर्शन अने चारित्र तेनी वृद्धि शरीर विना न थाय, अने शरीरनो निर्वाह आहारना कारण विना न थाय, 1 अने तेमां पण सावधनो त्याग करवानो छे. तेथी ते भिक्षुक जे उत्तम साधु छे, ते पोते दोषित आहारने ग्रहण न करे तेम बीजा | पासे लेवडावे नहीं, अथवा कोइ लेतो होय तेने अनुमोदे नहीं, अथवा इंगाल दोप, अथवा धुम दोष, न लगाडे, एटले सारा आहारनी स्तुति न करे, तेम खराब आहारनी निंदा पण न करे, तेज प्रमाणे बीजा पासे तेवा दोषो न लागवा दे, तथा तेवा निंदा स्तति करनारानी प्रशंसा पण न करे, तथा आम गंधने छोडे एटले अशुद्ध आहार बडे दोष न लगाडवो जोइए. शंका-पूति शब्दनो अर्थ अशुद्ध छे, तो आम शब्द शा माटे वापर्यो ? AARA Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३६९॥ उत्तर-अशुद्ध ते सामान्य शब्द छे, अने पूति शब्द लेवाथी अहीं आधाकर्म विगेरेनी अशुद्ध कोटि पण बतावी, अने तेनो आचाल मोटो दोष होवाथी तेनुं प्रधानपणुं बताववा फरी का छे, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे. गंध शब्द लेवाथी (१) आधाकर्म (२) औद्दे शिकत्रिक (३) पूति कर्म (४) मिश्र (५) वादर प्राभृतिका (६) अध्यय पूर्वक एम छ प्रकारना उद्गम दोष अविशुध्ध कोटिनी अंदर ॥३६९॥ रहेला छे, अने वाकीना विशुध्धकोटिमा छे ते आम शब्दवडे बताव्या छे, तथा सूत्रमा सर्व शब्द छे, ते बधा प्रकारोने सूचवे छे, तेथी एम जाणवू के, कोइपण प्रकारे अपरिशुध्ध, अथवा पूति होय; तो, ते दोषित भोजन विगेरे ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान, परिज्ञावडे निरामगंधवाळो बने; एटले निर्दोष भोजन विगेरे लेनारो वर्ते; बने; तेथी पोते ज्ञान दर्शन-चारित्र नामना मोक्षमार्गमा । 8 सारीरीते वर्ते; अने संयम अनुष्ठानने पाळे. आम शब्द ग्रहण करवाथी खरीद करेलु साधुने न कल्पे; छतां, अल्पसत्त्ववाळा साधुने ओछ समजाय; तेथी विशुध्धकोटिमां रहेल व्रतदोष छे, एम जाणीने ते ले, तेवी तेनी वृत्ति, न थाओ; ते माटे फरीथी तेनुं नाम लइने निषेध करे छे.साधु माटे वेचातुं आणेलु; पण साधुए न ले, ते बतावे छे: अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किणावए, किणंतं न समणुजाणइ, से भिक्खू कालन्ने बालन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुट्टाई अपडिण्णे (सू० ८८) SHAREHRSHERS SANSAR Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३७०॥ लेवु, वेचq, ते क्रय-विक्रय छे. ते पोते तेनाथी अदृश्य रहे; अर्थात् पोते साधु माटे खरीद करेली वस्तुने भोगवे नहि एटले आचा० मोक्षवांच्छक साधु कर्म ऊपकरणोने पण खरीद न करे; वीजा पासे न करावे; तेम खरीद करनारने प्रशंसे पण नहि अथवा नि रामगंधवाळो बनी साधुपणुं पाळे. अहीयां पण आम शब्द ग्रहण करवाथी हननकोटिनी त्रिक छे, तथा गंधग्रहणवढे पचनत्रिक लेवी; ॥३७०॥ तथा क्रयणकोटित्रिक ते पोतानां स्वरूप बतावनारा शब्दवढे लीधी छे, एथी नवकोटि परिशुद्ध आहारने अंगार धूमदोषरहित साधु 8 भोजन' करे अथवा वस्तुने भोगवे.. ए गुणथी उत्तम साधु केवो होय ते कहे छे, ते भिक्षुक (साधु) समयनो जाण होय छे. तथा वळने जाणनारो छे, एटले पोतानी शरीरशक्ति विचारीने ते प्रमाणे धर्मक्रिया करे छे, पण बळने छुपाची राखतो नथी, करवाना काममा प्रमाद करतो नथी, तथा पोताने केटली वस्तु जोइशे, तेने जाणनारो छे. ते "मात्रज्ञ" कहेवाय छे. तथा 'खेद' ते अभ्यास तेनावडे जाणनारो छे. * अथवा खेद एटले 'श्रम' के, संसारना भ्रमणमा आटलं दुःख छे, तेने जाणे छे. का छे के "जरामरणदोर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धोरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥१॥ जरा (बुढापो) मरण, दुर्गति, रोग, आ मोटी पीडा 'तो' 'दूर रहो, पण धीर पुरुषने विचारतां मालुम पडशे के, जन्म वारे 12 वारे लेवो, ते जन्म वखतनी अवस्था पण निंदनीक छे, एबुं हुं मार्नु छु. अथवा क्षेत्रज्ञ शब्द लइए तो संसक्त (रागनुं कारण) विरुद्ध द्रव्य, परिहार्य, (तजवा योग्य) कुळ विगेरे क्षेत्रनुं स्वरूप जाणनारो CHIEOSADA-ARC SAGARRIORS Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३७१॥ एटले आ जग्याए जवाथी राग थशे, आ जग्याए जवाथी द्वेष थशे, अमुक 'जग्याएथी अमुक वस्तु मळशे; आवां भ्रष्ट क्षेत्रमां गोच | लेवा योग्य नथी. विगेरे स्थिति जाणनार तथा “खण यन्न " एटले क्षण ( अवसर) एटले अमुक वखते गोचरी जनुं ते जाणनारो मुनि होय छे, तथा ज्ञान दर्शन चारित्रने योग्य रीते पाळवां, ते 'विनय' छे, तेने जाणनारो छे. तथा जैन तथा अन्य मतोना तखने जाणनारो छे. एटले पोताना सिद्धांतनो जाण होवाथी गोचरी विगेरेमां गएलो मुखेथी गोचरीना दोषोने जाणे छे. ते दोषो नीचे मुजव छे. सो उद्गम दोषो कहे छे १ आधाकर्मी (साधुना माटे रांधेलं) २ औद्दे शिक (अमुक मुनि माटे अमुके भोजन बनावेलं) रु पूतिकर्म ( निर्दोष अन्नने आधा कर्म साथे मेळवं) ४ मिश्र (साधु तथा पोताना माटे भेगु बनावेलं) ५ स्थापना [ साधुना माटे राखी मुकेलं ] ६ प्राभृतिका [ साधु माटे बहेलुं मोडुं कार्य करं] ७ प्रकाशकरणं [अंधारमाथी अजवाळे बहार लावे. अथवा दीवी विगेरे करे ते. ८ क्रीत [चा लावे. ] ९ उद्यतक [वारे लावीने आपवुं ते. ] १० परिवर्तित [बदली करीने लावे ते . ] ११ अभ्याहृत (सामे लावीने आप.) १२ उद् भिन्न (लाख विगेरे शील तोडीने आपवुं.) १३ मालापहृत (उपरथी नीचे लावीने आपकुंः) १४ अछेय (जोर जुलम करी बीजा पासेथी लइने आप ) १५ अनिसृष्ट [घणाओनी भेगी रसोइमांथी वगर ग्जाए एक माणस आपे | १६ अध्यव पूर्वक [साधुने आवता जाणीने तेमना माटे पूर्व रंधाता अनाजमां थोड- उमेरे ते. ] आ उपरना सोळ दोषो वोहोरावनार तरफथी साधुने लागे छे. सोळं उत्पाद दोषो कहे छे 1 सूत्रम् ॥३७१॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ३७२ ॥ १ धात्रीपिंड. [गृहस्थना छोकराने रमाडीने साधु ले ते . ] २ दूतीपिंड - परदेशना समाचार आपीने गोजरी ले ते. ३ निमित्तपिंड [ ज्यतिथी समजावी गोचरी ले.] ४ आजीवपिंड [ पोतानो पहेलांनी अवस्था बतावी गोचरी ले ते. ) ५ वनीपकपिंड (जैनेतर पासे तेनो गुरु बनी गोचरी ले ते . ) ६ चिकित्सापिंड ( दवा करीने गोचरी ले ते.) ७ क्रोधपिंड ( धमकावीने गोचरी ले ते.) ८ मानपिंड (पोतानी उंच जाति विगेरे बतावीने गोचरी ले ते.) ९ मायापिंड ( वेष बदलीने गोचरी ले ते.) १० लोभपिंड (स्वादिष्ट भोजन माटे वारंवार ते जग्याए गोचरी लेवा जाय ते.) ११ पूर्व स्तवपिंड (पहेलांना सगपणनो परिचय कराववो) १२ पश्चात् संस्तपिंड (तेना संबंधीना गुण गाइने गोचरी ले ते.) १३ विद्यापिंड छोकरा भणावीने गोचरी ले ते. १४ मंत्रपिंड कामण टुमणना मंत्र बतावीने गोचरी लेवी ते. १५ चुर्णयोगपिंड-वास क्षेप विगेरे मंत्री आपीने गोचरी ले ते. १६ मूळ कर्मपिंड - गर्भ रहेवा संबंधी उपाय विगेरे बतावीने गोचरीले ते. आ उपरना सोळ दोषो गोचरी लेनार साधुने पोताने लीये थाय छे. दश एषणा दोषो आपनार लेनारना भेगा थवाथी बने ते कहे छे. १ शंकित-अशुद्ध आहारनी शंका छतां लें ते २ प्रक्षित-अशुद्ध वस्तुथी खरडाएला हाथे लेधुं ते. ३ निक्षिप्त-सचित्त वस्तुमां पडेली अचित्त वस्तु मुकेली लेवी ते ४ पिहित-अचित्त वस्तु उपर सचित्त वस्तु ढांकेली होय ते अचित्त वस्तु ले तो तेनो पण दोष | लागे ५ संहत- वीजा वासणमां नाखीने आपे ते. ६ दायक - आपनारने भान न होय ते ले ते. ७ मिश्र - सचित्तमां अचित्त वस्तु मेळवीने आपे ते. ८ अपरिणत - अचित्त थया विनानी वस्तु आपे ते. ९ लिप्त. लीट-वळखा विगेरे गंदा हाथथी आपे ते. १० ऊज्झित सूत्र ॥३७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३७३॥ छांटा पाडती आपे ते उपरना दश दोपो लेनार तथा आपनार, वन्नेना भेगा थाय छे. पर समयज्ञ होवाथी ऊनाळाना वपोरे खरा तडकाना तापमां तपेला सूरजंथी परसेवाना 'बिंदु' टपकता साधुना मेला शरीरने जोइ कोइ अन्य गृहस्थे पूछयुं के, भाइ तमारामां वधा माणसोए उचित मानेलुं स्नान शामाटे नथी करता ? त्यारे साधुए जवाब आप्यो के, हे बंधु ! सर्व साधुओने जळनुं स्नान छे. ते काम 'स्त्रीनो अभिलाष' तेनुं एक अंग छे. तेथी निषेध कर्यो छे ते सांभळो:" स्नानं मदद करें, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥ १ ॥ " स्नान मदनो दर्प करावनार छे, तथा कामनुं पहेलं अंग छे. माटे कामने छोडनारा ब्रह्मचारी, अने दमनमां रक्त थयेला छे तेओ स्नान करता नथी. आ प्रमाणे स्व अने परसिद्धांतने जाणनारो परने उत्तर आपवामां कुशळ होय छे, तथा भावज्ञ एटले, चितना अभिप्रायने जाणनारो छे के आ 'दान' आपनार के, व्याख्यान सांभळनारनो आवो अभिप्राय छे. वळी परिग्रह ते, संयममांजोइतां ऊपकरणर्थी वधारे छे, ते न ले, अने लेवानी पण मनमां इच्छा न राखे; तेवा साधु काळज्ञ, वळज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, खेदज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, भावज्ञः होय ते परिग्रहने ग्रहण न करतो योग्यसमये योग्य क्रियानो करनारो बने छे. शंका - पूर्वे 'काळज्ञ' शब्दमां ते वात आवी छे, अने अहीं फरीथी केम कहो छो ? उत्तरः- त्यां ज्ञपरिज्ञावडे जाणवानुं छे, अने अहींयां कर्तव्य करवानुं छे. वळी कोइपण जातनुं नियां न करे; ते अप्रतिज्ञ छे. जेमके, क्रोधना कारणे स्कंदक आचार्ये पोताना शिष्योने घाणीमां पीलेला सूत्रम् ॥ ३७३ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A आचा सूत्रम् ॥ ७ ॥ ॥३७॥ ASLISHES जोइने प्रतिज्ञा करी के, जो मारं 'तप-तेज' होय; तो, बीजा भवमां लश्कर, वाहन, राजधानीसहित पुरोहित, जेणे मने दुःख दीg छे, ते वधानो नाश करीश. ते प्रमाणे पाछळथी देवता थइने नाश कर्यो, तेज प्रमाणे मानना उदयथी बाहुबळीए प्रतिज्ञा करी के, H प्रथम दिक्षा लीधेला नाना भाइओने हुं केवीरीते नमस्कार करूं. कारण के तेओ केवळज्ञानी थया छे, अने हुं छदमस्थ ज्ञानवाळो छं. तेज प्रमाणे कपटना उदयथी मल्लिस्वामीना जीवे पूर्व भवमां वधारे उंचं पद लेवा बीजा मित्र साधुओने ठगवा माटे कर्यु हतुं, एटले पेला मित्रोने खवडावीने पोते उपवास करेल हता ते, तथा लोभना उदयथी परमार्थ न जाणनारा वर्तमाननो लाभ जोनार यतिनो बेश राखनारा मास क्षपण (महीना महीनाना उपवास) करनारा छतां प्रतिज्ञा (नियाj) करे छे, (अर्थात् क्रोध, मान, मायाना लोभथी चारित्र भ्रष्ट न कर. ते बताव्युं छे) अथवा वसुदेव माफक संयमर्नु अनुष्ठान करतो नियाj न करे के हुँ आवता भवमां आवा भोग भोगवनारोथाउं अथवा गोचरी | विगेरेमा गएलो एवी प्रतिज्ञा न करे के मने आवीज गोचरी मळवी जोइए, अथवा जैन मतमां स्याद्वाद् प्रधान होवाथी जिन १ वचनमा एकांत पक्ष ग्रहण न करे, ते अप्रतिज्ञ जाणवो, जेम के मैथुन विषय छोडीने कोइपण जग्याए कोइपण नियमवाली प्रतिज्ञा , न करवी जेथी का छे केः"न य किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥" जिनेश्वरे कइपण कल्पनीयनी आज्ञा आपी नथी. अने कारण वढे कोइपण जातनो निषेध पण कर्यो नथी; पण तीर्थंकरोनी आ 6-%A5-4- 15 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RS सूत्रम् C. I निश्चय वहेवार 'बे' नयने आश्रयी सम्यक आज्ञा मानवी के ज्ञानादि आलंबन 'ना' कार्यमां सत्यवढे सारां स्वभाववाळा साधुए थर्बु आचालाले पण कपटथी कंइपण खोटो आश्रय न लेवो. तात्वीकज्ञान विगेरेना आलंबननी सिदिथीज मोक्षमार्गनी सिदिवाळा वाद्य अनुष्ठाननी सिदि छे, कारणके, बाह्यअनुष्ठानमां अ॥३७५॥8/नेकांतवाद, अने अत्यंतिपणुं न होवाथी समजबु. आज प्रमाणे करवाथी द्रव्यत्वनी सिद्धि थाय छे, अथवा सत्य नाम संयमर्नु छ, ॥३७५॥ है तेनावडे कार्य उत्पन्न थतां तेम नेम वर्त; अने तेनुं उत्सर्पण (वधq.) पण शक्तिने छुपाव्या विना निर्वाह करवो. अर्थात् शक्ति प्रमाणे : संयम पाळवामां उद्यम करवो आना संबंधमां वृहदभाष्यकार कहे छे:3" कजं नाणादीयं सच्चं पुण होइ. संजमो णियमा । जह जह सोहेइ चरणं, तह तह कायवयं होइ ॥१॥" ज्ञानादि कार्य ते सत्य ते; संयम छे, माटे जेम जेम चरण (चारित्र) निर्मळ रहे; तेम वर्तन करवू. (उपर बतावेल टीकानां टीपणमां लीधुं छे, ) पण टीकानी गाथानो अर्थ नीचे मुजब छे. जिनेश्वरे मैथुन (स्त्रीसंग ) छोटीने बाकीचं जे कंइ कर्तव्य छे, तेमां कोइपण वातनी एकांत आज्ञा करवानी आपी नथी; तेम न करवानो निषेध पण कर्यो नथी. एमटले साधु शुद्ध बुद्धिए ज्ञानदर्शन-चारित्रनी वृद्धि माटे उपदेश आपे; अने पोते वर्ते. फक्त रागद्वेष विना स्त्रीसंग थाय नही; माटे तेनोज निषेध कर्यो छे. दोसा जेण निरुज्झति जेण जिझंति पुवकम्माइं । सो सो मुख्खोवाओ, रोगावत्थासुं समणं व ॥२॥” है। CARRCAUS Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० २२ ॥३७६॥ NAGAR 459 जेनावडे दोपो दर थाय अथवा न थाय; अने जेनावडे पूर्वनां कर्म क्षय थाय; ते ते मोक्षनो उपाय, एटले अनुष्ठान साधुए करवा. जेमके रोगमा चित्त औपध आपवावडे, तथा पथ्य-भोजनवडे रोगनी शांति करे छे, तेज प्रमाणे साधुए उत्सर्ग-अपवादने आचरवां; पण रागद्वेष न करवा अने कर्मो खपावबां. सूत्रम् वळी कोइ वखत, तेज औपध उपयोगी होय छे, तेम कोइ वखत, अन्उपयोगी पण छे, तेथी जरुर पढता अपाय तेज प्रमाणे ॥३७६॥ 8 साधुनां अनुष्ठानमां पण समजवार्नु छे. नीचे टीपणमां लख्युं छे केः“ उत्पद्यते हि साऽवस्था, देशकालामयान प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्मकार्य च वर्जये ॥१॥" ते अवस्था देशकाळना रोगपत्ये छे. के जेमां, अकार्य ते कार्य थाय; अने कार्य ते अकार्य थायः माटे देश, अने काळ विचारी रोगने वैये औषध आपq. 3 "जे जत्तिया उ हेउ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे । गणणाइया लोया दुण्हवि पुण्णा भवे तुल्ला ॥३॥" जेटला हेतुओ भ्रमणना छे, तेटलाज हेतुभो मोक्षना पण छे, अने ते गणत्रीए गणाय तेवा नथी; पण बन्ने बराबर छे. आ बधानो परमार्थ ए छे के साधुए रागद्वेष कर्या विना पोतानी शक्तिने अनुसार एकांत न पकडतां ज्ञानदर्शन-चारित्र्यनी आराधना करवी.. उपर प्रमाणे "अयंसंधि" त्यांथी लइने "काले अणुढाइ" सुधी अगीआर पिंडेषणा बतावी छे. आ प्रमाणे होय तो प्रश्न थाय छे, अप्रतिज्ञावाळो आ सूत्रबडे एम सिद्ध थयु के कोइए क्यांय पण प्रतिज्ञा न करवी, त्यारे शास्त्रमा आवे छे के जुदा जुदा अभि-18 RAA- HORS- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३७७॥ ग्रहो करवा तेथी शुं समजवुं ? आचार्यनो उत्तर— सूत्रमां आपेल छे के दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं, उग्गहणं च कडासणं एएसु चैव जाणिजा (सू० ८९) राग अने द्वेष वडे जे प्रतिज्ञा थाय छे, तेने छेदीने निश्चयथी जे करे ते नियाति एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, नामनोज मोक्ष मार्ग छे, तेमां अथवा संयम अनुष्ठानमां अथवा भिक्षादिमां प्रतिज्ञा करे, एटले राग द्वेष विनानी प्रतिज्ञा गुणवाली छे. अने राग द्वेशवाली प्रतिज्ञा दुःखदाइ छे, हवे ते साधु उपरना गुणवालो राग द्वेषने छेदीने शुं करे ते कहे छे. पोते जोइतां वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुंछन विगेरे निर्दोष जाणीने ले, तेनी विधि बतावे छे. पूर्व का मुजब जे गृहस्थो पोताना पुत्र विगेरे माटे आरंभमां वर्तेला छे. तथा पोताने जोहती वस्तुनो संग्रह करनारा छे, तेमने त्यां जइ लेवा योग्य वस्तुनी तपास करे एटले शुद्ध ने ले. अने दोषितने छोडी दे ते केवी रीते जाणे ते कहे छे. वस्त्र शब्द लेवाथी वस्ती एषणा (शुद्धि) बतावी अने पात्र शब्द लेवाथी पातरांनी शुद्धि बतावी. कंबल शब्दथी आविक पातरानो नियोग गुच्छा विगेरे बताव्या, तथा सवार सांज के रातना कारण विशेषे खुल्लामां नीकळं पडे. तो ओढवानी कामळ पण सूचवी | तेज प्रमाणे पाद पुंछन ते रजोहरण (ओघो) जाणवो, आ सूत्रोथी ओघ उपधि अने उपग्रहीक उपधि बतावी तेज प्रमाणे वस्त्र एषणा तथा पात्रेपणा पण सूचवी. ॥३७७॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अवग्रह कहे छेआचा० जेनी आज्ञा लइने क्षेत्रमा फराय; ते अवग्रह छे. ते पांच प्रकारे छे. (१) इंद्रनो अवग्रह (२) राजानो अवग्रह (३) गामनामा- मत्रम लीक पटेल विगेरेनो अवग्रह (४) घरवालानो अवग्रह (५) प्रथम उतरेला साधुनो अवग्रह आ प्रमाणे अवग्रहनी वधी प्रतिमाओ सू-18 ॥३७८॥ चवी; तेथी तेनुं पण समर्थन कर्यु, अने अवग्रहना कल्पनुं वर्णन आ सूत्रमा कहे छे ॥३७॥ कटासण कहे छे-- कट शब्दथी संथारो जाणवो. अने आसन शब्दथी आसंदक विगेरे बेसवानां आसन जाणवां, जेनामां बेसाय ते आसन छे. अने तेज शय्या छे. तेथी आसन शब्दथी शय्या पण जाणवी, तेनुं स्वरूप कहां. उपर बतावेल साधुने उपयोगी सर्व वस्तु वस्त्र वि४गेरे तथा आहार विगेरे आरंभ करनारा ग्रहस्थ पासेथी मळता जाणवा अने तेमां आमगंध(दोषित) छोडीने निर्दोष जेम मले तेम वर्ते 8 प्रश्न--आवीरीते गृहस्थोने त्यां जतां जे मले, ते ले के तेनी कंइ हद छे ? ते बतावे छे. लके आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा, से जहेयं भगवया पवेईयं लाभुत्ति न मजिज्जा अलाभुत्ति न सोइज्जा, बलुपि लटुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा (सू० ९०) साधुने आहार मलतां विचारे के हुं लइश, तो पछी मारे खातर नवो आरंभ गृहस्थने करवो पडशे के नही ते, विचारीने ॐ ले, के जेथी नवो आरंभ न करवो पडे; तेवीजरीते वस्त्र-औषध विगेरेमां पण जाणी लेवू; तथा नवो आरंभ न करवो पडे; पण ॐॐॐॐ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोताने वधारे पण न आवे ते ध्यानमा राखीने ले, आ हुं मारी बुद्धिथी नथी कहेतो; परंतु जिनेश्वरे आ उद्देशाथी मांडीने हवेपआचा०/ छीनु वधुंए बतावे छे ते कहे छे: द सूत्रम् ते जिनेश्वर चोत्रीस अतिशययुक्त केवळ ज्ञानीए अर्धमागधी भाषामां को छे, अने बधी भाषावालाजाणे, तेवा शब्दोमां देवता॥३७९॥ 15 मनुष्यनी सभामा कां. आq सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे: ४॥३७९॥ तश वस्तु मळतां मने वस्त्र-आहारनो लाभ थयो. हुं लब्धिमान छु, एवो अहंकार न करेः तेम याचवा छतां मळे तो, दीन पण बने एटले वस्तु न मळतां खेद न करे के, मने धिक्कार छे ! हुं मंदभागी छु! के, सर्वने सर्व वस्तु आपनार दातार होवा छतां, मने नथी मळतुं. तेथी साधुए लाभअलाभमां मध्यस्थपणुं राखQ. कयुं छे के:-- "लभ्यते लभ्यते साधु, साधुरेव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे तु प्राणधारणम् ॥" मळे तो सारु, अने न मळे तोपण सारूं. कारण के, न मळे तो, न भोगववाथीतपश्यानो लाभ थशे; अने मळवाथी माणनुं धारण थशे. आप्रमाणे पिंडपात्र, वस्त्रोनी एपणा वतावी छ। हवे वधारे न संघरे ते कहे छे. . घj मळे तो मोह न करे; अने वधारे लइने राखी न मुके; एटले थोडो पण संग्रह न करे. जेम आहार वधारे न ले, तेम IS संयम ऊपकरण करतां वधारे वस्त्रपात्र विगेरे न ले, ते सूत्रपां कमु छे के:-- SA-SAA% I Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३८०॥ परिग्रह कहे छेधर्मऊपकरणथी जेटलं वधारे उपकरण ले, ते परिग्रह छे. माटे वधारे मळतुं न ले, अथवा संयम उपकरणमां पण मूछों करवाथी परिग्रह छे. कडूंछे केः (तत्वार्थ 'भ. ८. सू.') मूर्छा परिग्रह छे, तेथी वधारे मळतुं छोडीने जोइतां लीधेलां ऊपकरणमां पण मूर्छा न करे. ॥३८॥ शंका-जे कंइ धर्मऊपकरण विगेरेनो परिग्रह छे, ते पण चित्तनी मलीनता (राग) शिवाय थतो नथी का छे के-पोताने उ-18 | पकार करनारमा राग थाय; तो उपघात करनार उपर द्वेष पण थाय; तेथी परिग्रह राखतां रागद्वेष नजीक आवे छे, अने नेनाथी कर्म बंध थाय छे, माटे तमो कहो छो के, धर्मऊपकरण परिग्रह नहीं; ते केवीरीते मानीए ! कह्यु छे के: "ममाहमिति चेष यावदभिमानदाहज्वरः । कृतान्त मुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः ॥ यशः 'खुख' पिपासितैरयमसावनोंत्तरैः, । परैरपसदः कुतोऽपि, कथमप्यपाकृष्यते ॥१॥ आ मारुं एवो ज्यां सुधी अभिमानरूप, दाहज्वर रहेलो छे, त्यांमुधी जमना मुखमां जवानुं छे तेम त्यां मुधी शांति पण नथी तेम उन्नति पण नथी. माटे जस अने सुखना वांच्छकोए परिणामे आ अनर्थ छे एम जाणे छे, तेथी ते उत्तम पुरुषोए आ ममताना दुर्गुण पण रीते गमे त्यांथी खेंची काढवो जोइए. . HEARSASAR ASHREESAE Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥३८॥ NRNAGAR CAR E आचार्यनो उत्तर-तेवो दोष नथी, कारण केधर्मउपकरणमां साधुओने आमारूंछे, एवो परिग्रहनो आग्रह नथी. एज शास्त्रमा कलु छे के, ... "अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरंति ममाइउं" सूत्रम् जे मुनिओने पोताना शरीरमां पण ममत्व नथी, ते वीजामां ममत्व केवी रीते करे ? (न करे.) ફી રૂદ્રા जे अहीं कर्मबंधना माटे लेवाय तेज परिग्रह छे, पण जेनाथी कर्मनी निर्जरा थाय (कर्म ओछां थाय) ते परिगृहज नथी, (साधुनो लेप करवाथी पूर्वना तेल विगेरेना लेपमां वधारो थतो नथी, पण तेलने खाइ वस्त्र साफ बनावे छे. तेवी रीते जोइतुं उपकरण संयमनी रक्षा करे छे.) का छे केअन्नहा णं पासए परिहरिज्जा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिंजासि तिबेमि ॥ आ प्रकारे देखतो बनीने (विचार पूर्वक) परिग्रह छोडे जेम गृहस्थो तत्व जाण्या विना आ लोकना मुखना माटे परिग्रह सं-1 घरवा जुए छे, पण साधुओ तेम करता नथी, तेनो आशय आ छे. आचार्यने आश्रयी आ वधारानु उपकरण छे पण मारुं नथी, जेमां रागद्वेषन मूळ छे ते परिग्रहनां आंग्रहनो योग अहीं निषेधवो परंतु धर्म उपकरणनो निषेध न करवो, तेना विना संसार समुद्रथी पार जवाय नहीं. का छे केसाध्यं यथा कथञ्चित् स्वल्पं कार्य महच्च न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं, पारं गन्तुं समुद्रस्य ॥१॥ ॐॐॐॐॐॐ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ३८२॥ कोइ नानुं कार्य गमे ते साधी लेवाय, पण मोडं कार्य तेम सिद्ध न थाय. कदाच नानुं खावोच्युं कुदीने जवाय पण नाव विना समुद्रनी पार जयुं शक्य नथी. जेओ धर्मोपकरणने पण परिग्रह माने छे, तेवा दिगंबर बंधुओ माटे आ संबंधमां मतभेद छे, तेथी अविवक्षित अर्थने तौर्थंकरना अभिप्रायने अनुसारे साधवानी इच्छार्थी कहे छे, के “ एसमग्गे " मूळ सूत्रमां वतान्याप्रमाणे आ धर्मोपकरण परिग्रहने माटे नथी, एव पूर्वे कयुं, ते मार्ग तोर्थंकरोए कह्यो छे, कारण के सर्व पापरूप "हेय" धर्मथी जेओ दुर छे. ते आर्थो, तीर्थकरो, छे, पण जेओ धर्मोपकरणने इच्छता नथी. तेवाओए पण कुंडिका, तट्टिका लंबणिका अश्ववाळधि, विगेरे इच्छानुसार उपकरण राखवानो मार्ग पोतानी मेळे शोधी काव्यो छे, तेम अमारा उपकरणो नथी. ( वर्त्तमानमां श्वेतांबर साधुओं पासे रजोहरण मुहपत्ति विगेरे धर्मोपकरणो छे, त्यारे दिगंबर साधुओ पासे मोरनी पीछीनुं उपकरण विगेरे छे, अने टीकाकारना समयमां ते बखते दिगंबर साधुओ जेम करता हशे तेने उद्देशीने लख्युं छे, खरीरीते ते चर्चा करवा करतां परमार्थद्रष्टिए जोनारा बन्ने पक्षना साधुओ रागद्वेष रहित बनी जे भविष्यमा अने वर्तमानमां वधारे लाभदायी थाय dai धर्मोपकरण वापरी संयमनो निर्वाह करे अने सम्यक्ज्ञान दर्शन चारित्रनी आराधना करे.) अथवा उपरनी चर्चा चौद्ध मतना मौगल तथा स्वाति पुत्र ए बन्नेथी बौद्ध मतनुं जे मंतव्य छे. तेने आश्रयी कहे छे. तेज प्रमाणे धर्मोपकरणनुं कोइ खंडन करतो होय. तो तेमने पण ते प्रमाणे समजावत्रा. कारण के जिनेश्वरे परोपकारना माटे रागद्वेष रहित धइने जे कयुं छे. तेना बहु मानना माटे आटलं लखवुं पड. अने सूत्रम् ॥३८२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेटला माटेज आ जिनेश्वरना कहेला मार्गमांज उत्तम साधुए उद्यमवाला थवु, तेज सूत्रमा कहे छे के आ कर्मभूमी छे. जेमां मो-४ आचा० | क्षना झाडना बीज समान सोधी (सम्यक्त्व) तथा सर्व संवर रूप चारित्र पामीने कर्ममा जेम लेप न थाय, नवां कर्म न बंधाय तेम आ उत्तम मार्गमां वर्तवं, ते विदित वेद्य (पंडित) जाणवो, जो ते मार्ग उलंघीने बतावेलां धर्म अनुष्ठान न करे तो कर्मनो बंध थाय. सूत्रम् ॥३८३॥ ४ तेथी आ सत्पुरुषोनो मार्ग छे तेथी पोते चारित्र लेतां प्रथम सर्व जीवने समाधि आपवारूप प्रतिज्ञा करी ठे, ते छेवटनो उच्छवास 8 ॥३८३॥ है लेता सुधी पाळवी जोइए. का छे के: "लजां गुणोघजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनु वर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि । सन्त्यजन्ति; सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम ॥१॥" गुणना समूहनी माता तथा अत्यंत शुद्ध हृदय बनावनारी जे लज्जा छे, तेने श्रेष्ठ माता माफक मानीने तेनी पाछळ चालनारा तेजस्वी पुरुषो (साधुओ) सुखे करीने पोताना प्राण पण त्यजे छे, परंतु सत्य स्थितिने चाहनारा तेश्रो पोतानी प्रतिमानो भंग करता & नथी. आप्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे केः-में उपर प्रमाणे जे कयुं ते महावीरप्रभुनां चरणसेवन करतां सांभळ्यु । छे, ते तने कधु छे, माटे परिग्रहथी आत्माने दुर कर; ए जे कयुं छे, ते संसारी-वासनाना उच्छेद विना न थाय; अने ते संसारी-वासना पांच प्रकारना इन्द्रियोना विषयरसने अनुसरनारा अभिलापो छे, अने ते तजवा मुश्केल छे. तेथी कहे छे के:-- कामा दुरतिकमा, जीवियं दुप्पडिवूहगं,। कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ तिप्पइ परितप्पइ है। SARKAAHARASHI R5.45 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥३८४॥ काम कहे छे:-- आचा० कामना चे भेद छे. (१) इच्छाकाम, (२ सदनकाम, तेमां, मोहनीयकर्भनाभेद हास्य (हांसी) रतिथी उत्पन्न थयेल इच्छाकाम । छे, अने मोहनीयकर्मना वेदना उदयथी मदनकाम छे. ते वन्ने प्रकारना कामोनुं मूळ मोहनीयकर्म छे, तेना सद्भावमां कामनो उ॥३८४॥२च्छेद करवो मुश्केल छे, एटले तेनो विनाश करवो दुर्लभ छे, तेथी मुनिने एम समजाव्यु के, तारे प्रमाद न करवो, आ काममां प्रमाद न करतो; पण जीवितमां प्रमाद न करवो. कारणके, क्षण क्षण जे ओछी थाय छे, ते वृद्धि पामवानी नथी; अथवा संयमजीवितनो संसारीवासनामां पडतां दुःखेकरीने निर्वाह थाय छे. अर्थात् संयम पाळवो मुश्केल थाय छे. कयु छ के “अगासे गंगसोउव, पडिसोउव दुत्तरो। बाहाहि चेव गंभीरो, तरिअबो महोअही ॥१॥ आकाशमां गंगा नदीनो प्रवाह छे, तेने सामे जइने तर मुश्केल छे; अथवा महासागर हाथवडे तरवो मुश्केल छे. बालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो । जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्करं ॥२॥" बेळु (रेती) ना कोळीआ मुश्केल छे. तेज प्रमाणे इन्द्रियोनो कोइपण जातनो स्वाद जेमां नथी; तेवू संयम पाळq घणुं मुश्केल छे, अथवा लोढाना बनावेला जव चाववा मुश्केल छे. तेवु संयम पाळ, मुश्केल छे. P आ अभिप्राय प्रमाणे अभिलाप तजवा मुश्केल छे, ते वताच्या छतां वधारे खुलासा माटे कहे छे. कामकामी एटले, इंद्रिय विषयुरसनो लालचु जीव जे छे, ते शरीर, अने मन संबंधी घणा दुःखोने भोगवशे ते बतावे छे. । 5-45--041954 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३८५॥ . एटले इच्छीत वस्तु न मळतां, अथवा तेनो वियोग थतां तेनो शोक करीने जेम ताव चढेलो घेलो माणस बके छे, तेम पोते 81 पोक मूकीने रडे छे. सूत्रम् “गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहुमाने च गलिते । निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः॥ तमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि ? गतांस्तांश्च दिवसान, न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हृदयम् ? ॥१॥" X॥३८५॥ प्रेमनु बंधन नाश पामतां, अथवा प्रणय (वहांला) नुं बहु मान ओर्छ थतां अथवा सद्भाव ओछो थता जतो रहेतां प्रेम, माणसमां माणसनी माफक आगळ जाय छे, तेने जोइ जोइने कोइ स्त्री पोतानी सखीने कहे छे के:-हे सखी ! ते गयेला दिवसोने ज्यारे याद करूं छु, त्यारे हुं नथी जाणती के; क्यो हेतु मने सो प्रकारे दुःख आपे छे ? पण, ते मारुं हृदय भेदतो नथी. ( आर विलाप प्रेमी स्त्रीपुरुषोना वियोगमां अथवा, बन्नेने कंइपण कारणे भेद पडतां, वीरही वनेला पोतानां हेतस्वी आगळ पूर्वनां सुखो याद करीने कहे छे): तेज नमाणे पोते हृदयथी झुरे छे. "प्रथम तरमथेदं चिन्तनीयं तवासी-बहजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन ॥ हृतहृदय ! निराश! क्लीब! संतप्यसे किं । न हि जडगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥" हे हृदय (पहेलुं आ तारे चितवQ जोइए के, तारो प्रेमीजन प्रेम करीने छुटो पडी गयो छे ! हे हृदय ! हे आशारहित ! हे न Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक! तुं हवे शामाटे खेद करे छे! पाणी गया पछी पाळो वांधवी नकामी छे. (पोते पोतानां हृदयने ठपको आपे छे के, तारां आचा० वहालां संबंधीने जा केम दीधो? अने हवे, गया पछी रोये शुं थाय? पाणी ज्यारेजोइतुं हतुं त्यारे पाळ बांधीने का रोकी न लीधुं?)४ तथा जेनां घरमां मोत थाय; ते पोते मर्यादाथी भ्रष्ट थाय छे. एटले शरीर, अने मनमां दुःखोथी पीडाय छे. तथा तेज प्रमाणे घj ॥३८६॥ वहाळ सगुं गुजरीगयु होय; तो केटलांक लोको पश्चाताप करे छे के-हे वहाला पुत्र ! हे वहाली स्त्री ! तु मने मुकीने केम जती "8/ रही ? इत्यादि. अथवा कोइ जग्याए कोष करीने गयेलो होय. अर्थात् नाशी गयेलो होय; अने वनेनो वियोग थाय तो पछीथी, है कहे केः-में तारूं कहेवु गुस्सामां न मान्यु तेथी तुं रीसाइने चाल्योगयो. इत्यादि व्यर्थ दुःखो भोगवे छे. आ बधां दुःखो शोक विगेरे जे कह्यां छे, ते वधाए जे मनुष्यो विषय-विपना आश्रयमां अंतःकरणने राखे छे, तेमनी दुःखनी अवस्था सूचवे छे. (केटलीक स्त्रीओ रडी रडीने आंधळी थाय छे, वोइ छाती कुटीने पोतानां नानां वाळकोने अथवा, पोताना गर्भाशयने अथवा, गर्भमा रहेलां वाळकने दुःख आपे छे, केटलीक अज्ञान स्त्रीओ माथां कुटीने पीडाय छे.) अथवा शोक करे छे. एटले यौवन, धन, मद विगेरेना मोहथी घेरायला मनवाळो विरुद्ध कृत्य करीने ज्यारे बुढापो थाय; त्यारे, मोतनो समय आवतां मोह दूर थतां पस्ताय छे. के, में दुर्भागीए पूर्वमां वधा श्रेष्ठ पुरुषोए आचरेलो सुगतिमा जवाना एक हेतुरूप अने दुर्गतिद्वार अटकाववाने बारणांनी पाछली भुगळसमान धर्म न कर्यो. कहुं छे केः "भवित्री भूतनां परिणतिमनालोच्य नियतां । पुरा यद्यत् किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् ॥ PROGTRYGGSR6% SASSEMERGESSAGE Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C आचा० 9442 सूत्रम् ॥३८७॥ ॥३८७॥ ३८ ARRESARI पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, । तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥१॥" निश्चय करीने जीवोने भविष्यमा थनारी अवस्थाने विचार्या विना मे जुवानीमां जे जे अशुद्ध कृत्यो कर्या छे, ते परलोकमां जवाना वखते बुट्टापाथी जीर्ण थयेला शरीरवाळा पुरुषने खेद पमाडे छे. (के, में धर्म न को. हवे मारी शी दशा थशे! तथा हवे पस्ताये शुं लाभ ?) तथा तेज प्रमाणे कडवां फळ अहीं भोगवतां, पापीओ पण झुरे छे, विगेरे उपर बताव्या माफक लंपटोने दुःख पडे छे, ते बुद्धिमान वांचके विचारी लेबु कयुं छे केः____ "सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, । परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ॥ अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते-र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥१॥" गुणवाल के अवगुणवालुं कार्य करतां पहेलां बुद्धिमाने प्रयासथी विचार के एन परिणाम शुं आवशे. कारण के उतावळमां 3 करेला कार्यनुं फळ भोगवतां ते समये हृदयने वाळनारो शल्य समान पश्चाताप विपत्तिना माटे थाय छे आयु कोण न शोचे ते बतावे छे. कबु छे केआययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ उ8 भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ गड्ढिए लोए अणुपरियमाणे संधि विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए ASIA Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A जे बझे पडिमौयइ जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूड आचा०81 देहंतराणि पासइ, पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए ॥ (सू० ९३) सूत्रम् जेने आ लोक अने परलोकना परिणामनां दुःख जोवामां (विचारवामां) विशाळ दृष्टि (ज्ञान) छे. ते विशाळ चक्षुवाळो बने રૂ૮ | छे. ते उपर कहेला भोगोने घणा अनर्थोनुं मूळ समजीने तेने छोडीने "शम सुख" (वीतराग दशा) ने अनुभवे छे. तथा संसारी B. રૂદ્ધ P लोको जे विषय रसमां पडतां अतिशय दुःखी थएला छे. (एटले कुमार्गे जतां गुप्त इन्द्रि सडतां विसफोटकनो रोग थतां के क्षयथी । 8 मरतां जोइने) पोते तेवा कुमार्गने इच्छतो नथी. तेथी पशम सुखने अनेक प्रकारे जुए छे. तेथी ते लोकविदशी छे. अथवा लोक 6 एटले उर्द्ध अधः तथा तिर्यक् (स्वर्ग पातळ अने मृत्यु) ए त्रण लोकमां चार गतिमां थतां दुःखो सुखोना कारणोने तथा त्यां भोगवाता आयुष्य विगेरेने जुए छे. ते वतावे छे. लोकना अधो भागमां शुं छे ते जाणे छे. एटले धर्म अधर्म अस्तिकायथी व्याप्त आकाश खंडनो नीचलो भाग जाणे छे. तेनो | टूसार आ छे के जीवो जे कर्मों वडे त्यां उत्पन्न थाय छे. तथा त्यां सुख दुःखनो विपाक केवो छे. तेने जाणे छे. (नारकीना जीवोने ★ थतुं दुःख पोते जाणे छे तथा भुवनपति व्यंतरना देवोन सुख पण जाणे छे.) तेज प्रमाणे उर्द्ध तथा तिर्यक् लोकने पण जाणे छे. (उर्द्ध लोकमां वैमानीक देव तथा मोक्ष सुख छे. ते जाणे छे. तथा ५ तिर्यक् लोकमां ज्योतिषना देवतानुं सुख तथा धर्मी मनुष्यनुं मुख तथा पापी तथा तिर्यंच माणीनुं दुःख जाणे छे.) अथवा लोक MORMALGAUR ASPASSSSSHREE Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम ॥३८९॥ | विदर्शी ते काम मेळवचा पैसो पेदा करवा एक ध्यान राखनारा पुन्य पापने भूली गएला अन्य लोकोने पोते जुए छे. ते वतावे छे. जे काम विगेरेमा अथवा तेने प्राप्त करवाना उपायमा लागेला छे. तेने वारंवार आचरवाथी बन्धाता तथा अशुभ कर्म बढे संसार ठ चक्रमा भमता जोइने पोते विशाळ चक्षुवाळा कामना अभिलाषथी दूर थवा केम समर्थ न थाय ? ( अर्थात् डायो माणस दुःख वि-H ॥३८९॥ चारी पापथी दूर भागे.) गुरु शिष्यने कहे छे-हे शिष्य ! संसारना भोगोमां राचता अने तेथी दुःखी थता जीवोने तुं जो, वळी आ मनुष्य लोकमां | जे ज्ञानादिक भाव संधि छे. ते मनुष्य लोकमांज संपूर्ण प्राप्त थाय छे, (केवळ ज्ञान यथाख्यात चारित्र जे मोक्षना हेतुओ छे, ते | 8 मणष्यनेज छे. माटे मर्त्य लोकने लोधो छे,) अने जे डाह्यो छे ते पोते उपर बतावेल तत्वने समजीने विषय कपाय विगेरेने छोडे छे, तेज वीर पुरुष छे. ते सूत्रकार बतावे छे एटले जे आयत चक्षुवालो छे. तथा लोकना विभागना स्वभावने यथावस्थित पणे जाणे छे. ते भाव संधिनो जाण छे, अने विषय तृष्णाने छोडनारो छे. ते वीर पुरुष कर्मने विदारण करवाथी वखणायो छे, अर्थात् तत्व जाणनारा पुरुषोए तेनी प्रशंसा करी छे. . ते आ प्रमाणे तखज्ञानी बनीने वीजें | करे छे ते कहे छे "जे बद्ध एटले द्रव्य भाव बंधन बढे बंधाएला छे. तेमने पोते मुक्त बनी वीजाने मुकावनार छे, तेज द्रव्य भावबंधनो विमोक्षक (मुक्ति भपावनार) छे. ते वाचानी युक्ति वडे बतावे छे. जेवीरीते पोते अभ्यंतरथी मुकाएलो छे, तेवीरीते बहारथी पण मुक्त छे, एटले अंदर आठ प्रकारनी कर्मनी बेटी छे, ते छोडावे छे. तथा पुत्र, स्त्री, विगेरेने पण छोडावे छे. एटले जेम आठ प्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रम ॥३९०॥ कारनी कर्मनी बेडी छे. तेम बहारनुं सगांनुं बंधन छे, ते बंने मोक्ष गमनमां विघ्ननुं कारण छे, ते बन्नेथी मुकावे छेचा० अथवा आ केवी रीते मुकावे छे. ते कहे छे. पोते पोताना विशाळ ज्ञानवडे तत्वनो प्रकाश करी बोध आपवा वडे मुकावे छे. बोध आपतां पोते कहे छे के आ काया विष्टा, पिशाब, मांस लोही, परु, विगेरे गंदी वस्तुथी भरेली असार छे. एटले विष्टान ३९०॥ एभरेलु माटलं अंदर पण गंदु छे. अने बहारथी पण तेवुज छे. ते प्रमाणे आ काया, अंदरथी गंदी छे अने बहारथी लगाढेला सारा | पदार्थने पण गंदा वनावे छे. का छे के "यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तद्वहिर्भवेत । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकांश्च वारयेत ॥" ___आ कायानी जेवी अंदरनी गंदकी छे, नेवी साक्षात् बहार जणाती होत तो लोको हाथमां दंड लइने कुतराने अने कागडाने २ वारता होत (बहारथी मांसना लोचा जोइने कागडा चुंथत, अने विष्टाने जोइने कुतरा बाझत, तेथी लाकडी लइने हांकवा पडत.) आप्रमाणे जेम बहार असारता छे. (परसेवानी गंध बहार देखाय छे. ते अनुमाने) अंदर पण काया गंदी छे. ते जाणे छे. # वली जेम जेम शरीरमां उंडाणमां तपासे तेम तेम विशेष गंदी एटले मांस रुधिर मेद मज्या विगेरे जणाय छे. तथा कोट रक्तपीत मा विगेरे रोगो आवतां उपर कही बधीए मलीनता साथे प्रत्यक्ष देखाय छे, ___अथवा शरीरनां नवे द्वारोथी झरती गंदकी छे, काननो मेल आंखना पीया बळखो लाल पिशाव झाडो विगेरे छे. ते सिवाय बीजी व्याधियी गुमडां पाकतां लोही, परु, नथा रसीवाळा पदार्थो विगेरेथी गंदकी छे. आ प्रमाणे बधुं जोइने पंडित पुरुष विचारे छे के द्वारो वहे छे, गुमडां रोमे रोमे पीडा करे छे. ते तत्व समजनारो तेनुं स्व YADARGAHARASHTRA AGRICARR-90-7-% Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३९९॥ रूप जाणे तेज कहे छे "सरुिहिरण्हारुवणद्ध कलमलयमेव मजासु । पुण्णंमि चम्मकोसे दुग्गंधे असुइबीभच्छे ॥ १ ॥ * मांस, हाडकां, लोही, स्नायु, विगेरेथी बन्धाएला तथा मलीन मेद मज्या विगेरेथी भरेला अने असुचिथी बीभत्स एवा दुर्गधीवाला चामडाना कोथळारूपे कायामां संचारिमजंनगलंतवच्चमुत्तंत से अपुष्णंमि । देहे हुज्जा किं रागकारणं असुइहेउम्मि ? ॥२॥ तथा विष्टा पिशाब झरनारां यंत्रवाळा परसेवाथी भरेला शरीरमां ज्यां ज्यां अशुचिनो हेतु छे. तेमां रागनुं कारण केवीरी थाय ? आ प्रमाणे देहनी अंदरनो गंदको जाणीने तथा बहार पण झरतुं छे, ते जोइने डाह्या माणसे शुं कर ते कहे छे. सेमइमं परित्रायमाय हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए, कासंका से खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडे मूढे, पुणों तं करेइ लोहं वेरं बड्ढेइ अप्पणो जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेत्र पडिवूहणयाए, अमरा य महासड्ढी अट्टमेयं तु पिहाए अपरिण्णार कंदइ || (सू०९४) पूर्वे को बुद्धिमान साधु जेनी सिद्धांत भणवाथी संस्कारवाली बुद्धि थएली छे, ते देहना स्वरूपने तथा कामना स्वरूपने वे प्रकारनी प्रतिज्ञावडे शुं करे ते कहे छे हे साधु-तुं 'लाळ झरतां' अने वळखा वारंवार पडता मोढानो अभिलाषि न थइश. एटले जेम बाळक पोतानी पडती लाळने सूत्रम् ।। ३९१ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर आचा० ॥३९२॥ नहीं, -7- AGAR-- 5 विवेकना अभावे चाटे छे. तेम तुं तजेला भोगोने पाछा स्वीकारतो नही अर्थात् भोगो तजीने पाछा न भोगवतो. बली ते संसारमा भ्रमण करावनार अज्ञानअविरति मिथ्यादर्शन विगेरेने तिरश्चीन (तिरछि गति) अथवा प्रतिकुळ उपाय 4 * वडे, उलंघी जा, अने निर्वाणना झरणरूप ज्ञान दर्शन विगेरेमां तुं अनुकुळता कर, एटले तुं अज्ञान विगेरेमां आत्माने डुवावीश है। सूत्रम् नही, अने ज्ञानादि कार्थमा प्रतिकुळता न करीश तेथी सावचेत रहेवं. ॥३९२॥ द जे प्रमादी छे, ते अहीं पण शांति नथी पामतो; एटले, जे ज्ञानथी विमुख थदने भोगनो अभिलापि थइने तिरछी गतिमां पडे छे, ते पुरुप कर्तव्यतामां मूढ बनेलो छे ते माने छे के, आ में एम कयु अने हवे एम करीश; एवी भोगना अभिलापनी तृष्णामां है व्याकुळ बनेलो चित्तनी शातिने निश्चे भोगवतो नथी. (मूत्रमा भूत भविष्य लीधो; पण वर्तमानकाळ अति सूक्ष्म होवाथी न लेतां, अतीत अनागत भूत भविप्य लीधा छे.) म आ प्रमाणे में कर्यु अने करीशएम विचारनारा कामातुरने शांति नथीज थती. कांछे के:"इदं तावत् कराम्यद्य, श्वः कर्ताऽस्मीति चापरम् ॥ चिन्तयननिह कार्याणि, प्रेत्यार्थ नावबुध्यते ॥१॥” | आ हमणां करुं छु. अने चोमु सवारमा करीश एम कार्यने विचारतां तेने, अहीं परलोकने माटे कइ धर्म कृत्य सूझतुं नथी. अहीं दहींना घडावाळा भीखारीनुं दृष्टात कहे छे. कोइ रंकने कोइ जग्याए भेसने चारतां दुध मळेलु; तेनुं दहीं करीने विचारवा | लाग्यो के, आखें घी वनावी, अने तेथी पैसा पेदा करी, वेपार करीने वैरी परणीश; अने पुत्र उत्पन्न थइने मोटो थतां, खावा चोलाववा आवशे; त्यारे लात मारीश. विगेरे तुरंगपांज पग अफाळतां माथु धुणापतां दहीनो घडो पड्यो; अने घडो फुटी गयो तेथी ** - ॐ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् वा जेमा कपाय ते “कास" संसारमाया लीधी; एटले जे बहुमायो RECANSA564 बधा तुरंग दूर थया. न खाधं न कोइने पुन्य माटे आप्यु. ए प्रमाणे बीजा पण जीवो करवा कराववाना संसारी-कर्तव्यमां-मूढ | वनीने पोतानो आरंभ निष्फळ करे छे. । अथवा जेमां कषाय ते "कास" संसार छे तेने कसे; एटले सन्मुख जाय; ते ज्ञान विगेरेमां प्रमाद करनारो छे ते कहे छे. एटले संसार भ्रमण कपायथी छे, एटले तेमां माया लीधी; एटले जे बहुमायी छे, ते क्रोधी मानी अने लोभी पण जाणवो; अने अशुभ कृत्य करवाथी मृढ बनेलो सुख वांच्छतो छतां दुःखज भोगवे छे. कमु छे:5 "सोउं सोवणकाले मज्जणकाले य मज्जिउं लोलो । जेमे च वराओ जेमण काले न चाएइ ॥१॥" जे स्वार्थी छे, ते रातना सुवान, अने दिवसमा नावानी वखते, नावानुं तथा जमवानी वखते, जमवानुं ते सुखेथी करी शकतो नथी. आना संबंधमां मम्मण शेठनु दृष्टांत पूर्वे कहेलुं छे, तेना जेबो कासकप एटले बहु कपटी. तेणे करेला कपटथी बनेलो ल मृढ, जे जे करे तेनावडे वेरनो प्रसंग थाय; ते कहे छे:-ते कपटी बीजाने ठगवा लोभनुं कृत्य करे छे, जेथी वेर वधे छे, अथवा लोभ करीने नवां कर्म बांधीने, सेंकडो नवा भव करे छे, अने नवां वेर बधे छे. ते कहे छे:" दुःखातः सेवते कामान्, सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥१॥" दुःखथी पीडायलो काम भोगने सेवे छे, अने परिणामे ते दुःख आपे छे, तेथी गुरु शिष्यने कहे छे:-हे मुनि ! तने जो, दुःख मिय न लागतुं होय; तो, ते भोगोनो स्वाद छोड. प्रश्नः-जीव, एवां शुं कृत्य करे छे के, पोताने वेर वधे छे? Sॐॐॐॐॐ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३९४॥ SAGER-61-09-ॐ उत्तर:-आ नाशवंत शरीरनी पुष्टि माटे जीवहिंसा विगेरे पापक्रियाओ करे छे, ते क्रियामां हणायला सेंकडो प्राणीओ नाश पामे छे, तेथी मरेला जीवो साथे वेर बन्धाय छे. जे उपर कही गया के, भवभ्रमणमांकपट करवाथी वेर वधे छे, अथवा गुरु कहे छे:-आ वारंवार हुँ जे उपदेश आपुं छु, तेनुं कारण ए छे के, संसारमा वेर वधे छे, तेथी संयमनीज पुष्टि करवी ते सारुं छे. 1 सूत्रम् हवे वीजु कहे छे. जे देवता नहीं छतां, देवता माफक द्रव्य-जुवानी स्वामीपणुं, सुंदर रुप, विगेरेथी युक्त होयः ते मनुष्य अ-P॥३९॥ मर ( देवता ) माफक आचरे ते अमराय ( देवताइ) पुरुष कहेवाय; ते महाश्रद्धी एटले, जेने भोगमां, अने तेने मेळववाना उपायमा घणी लालसा (श्रद्धा) होय; ते महाश्रद्धी (पापारंभी) छे, तेनुं दृष्टांत कहे छे:-राजगृह-नगरमां मगधसेना नामनी गणिका (वेश्या ) रहेती हती. तेज नगरमां धनशेठ नामनो सार्थवाह हतो. ते कोइ बखते घj धन आपीने, ने वेश्यानां घरमा पेठो. तेना ६ रुपयौवन-गुणोनो समूह, द्रव्य विगेरेनी लालचथी वेश्याए तेने स्वीकार्यो; पण ते शेठनु आवक, खर्चना हीसावनी जंजाळमां मन रोकायाथी ते वखते, वेश्याने नजरे पण जोइ शक्यो नहीं. (मतलब के, वेपारनी धुनमां, वेश्या साथे वात पण करी नहीं.) आ । वेश्या पोताना रुपयौवन-सुंदरताना अहंकारथी दुःखी थइ. तेने अति दुःखी जोइने जरासंघ राजांए कहेवडाव्युं के तारुं दुःख, का रण शुं छे? अथवा तुं कोनी साथे रहे छे ! वेश्याए कह्यु के हुं अमर साथे रहुं छ राजाए पूछ्यु के केवी रीते ? तेने कयु के मने ले राखनार शेठ आ प्रमणो पैसादार छे, अने भोगना अभिलापीओ धनमां असक्त बनेला देवता माफक क्रियामां वर्ते छे, खावा पी वामां तथा बीजी क्रियामां देवता माफक विलास भोगवे छे, पण कामनो अभिलापि शरीर अने मननी पीडामा पीडाएलो बहारथी ५ सुखी अने अंदरथी दुःखी भोगोनी इच्छावालो छतां भविष्यना वेपारनी चिंतामां पडेलो मने जोतो पण नथी, तेथी मारां वांए Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३९५॥ CACACCASIA मुसो एक मुख विना रद ले. तेथी गुरु शिष्यने कहेले, संसारी कामीजीवोनो दुख जोड़ने मने सीममानता भोगोनीपो . वली संसारी भोग वांच्छक स्वरूप कहे हे. पोते कामना स्वरूपने अयवा सेना का विषाको मजाणीने या KिU राखेलो वीजानी सुंदर खीओ जोइने ते न मळवाधी अथवा पोतानी बहाली मिया भरी जयाधी तेजी लादिमी करे हे; कहुं छे केः "चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे-मुक्ते तु तसिरधिका रमितेऽध्य पशिः ॥ द्वेषोऽन्यभाजि वश वर्तिनि दग्धमानः-प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कश्चिदस्ति ॥९॥" नाश पामे तो चिन्ता थाय, पासे होय तो तेना धाकथी गभरामण याय, माग बारे सोनी ४५६०१ unia sigallarm, 8/ अथवा पति के पत्नी वीजा साथे संबंध करे, तो ऐप थाय, घश करतो पनि पो थाय भी करीमे all audel/ स्त्रीने कदापि पण नथी, आ प्रमाणे धन विगेरेमां पण समज के फोइपण प्रकारे काम विभावय राख मी. aur पाये छे, एवं वतावीने समाप्त करवा कहे छे.. से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हत्ता, हिसा मिला प३५॥ qिin इना उद्दवइत्ता, अकडं करिस्लामिति मन्नमाणे, जस्सपि य णं करे, अलंबाल संगण. जे वा से कारइ वाले, न एवं अणगारस्स जायइ (सू. ९५) निबेगि ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRE सूत्रम् ॥३९६॥ जेथी कामना अभिलापो दुःखनाज हेतुओ छे. तेव॒ तमे जाणो तेथी हुँ कहुं छं, मारो उपदेश चित्तमा राखवा माटे कानेथी आचा० सांभळो अने खोटी वासनाने छोडी दो. शंका-अही कामवासनानो निग्रह वताव्यो, ते चीजा उपदेशथी पण कार्य सिद्धि थात तेथी आचार्य कहे छे. "ते इच्छ" काम चिकित्सामां पण पंडित अभिमानी पोते तेवा वचन बोलतो अथवा व्याधिनी चिकित्सानो उपदेश करतो अन्य दर्शनीसाधु जीवना उपमर्दनमां वर्ते छे. एटले जे भविष्यना कडवा विपाकने भूले छे, ते बीजाने संसार भोगववाना (कोकशास्त्र) ग्रंथनो उपदेश करे छे, जेना वडे अज्ञानी जीवो विपय सुख लेवा शरीर शक्ति वधारवा अनेक पाप करे छे, तेनुं मूळ कारण तेवा उपदेशने कहेवाथी बीजा जीवोने लाकडी विगेरेथी मारनारो तथा शुळ विगेरेथी कान विगेरेनो भेदनारो तथा गांठ छोडवी, विगेरेधी धन चोरनारो, तथा लंट के खातर पाडीने धन लेनारो तथा जीव लेनारो बने छे. कारण के कामचिकित्सा के शरीरनी पुष्टि, के रोगर्नु निवारण तत्व दृष्टिथी विमुख पुरुषोने जीवहिंसा सिवाय यतुं नथी. वली केटलाक पंडित मानी पुरुषो एम गर्व करे छे के तेणे कामचिकित्सा विगेरे न करी पण हुं तो करीशज! एम मानीने पोते | हणवा विगेरेनी क्रिया करे छे, तेथी कर्मवन्ध थाय छे, जे कुवासना अथवा जीव हिंसाना औषधोनां शास्त्र बनावे छे ते परिणामे लदुर्गतिने आपनार शास्त्र होवाथी ते अकार्य छे. वली कहे छे के, जे पोते चिकित्सा करे छे. ते करनार अने करावनार बन्ने पाप क्रियाओना भागी छे. तेथीतेवी दुर्गतिमां जनारा अज्ञानी जीवनी संगत पण न करवी, कारण के तेथी कर्मबंध थाय छे, अने जीवहिसाथी औषध करावे, तेनी पण सोबत न करवी.8 RECAMERAऊपर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥३९७॥ उत्तम साधुओने उपर कहेल प्राणीओनी हिंसावालुं काम वासनानुं अथवा वैदकशास्त्रनुं भणवा भणाववानुं होय नहि. एटले जेम वाळजीवो करे तेम साधुओने करधुं कल्पे नर्दि, तेओनुं वचन पण साधुओए सांभळवु नहि. सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे, पांचमो उद्देशो समाप्त थयो. पांचमा साथ छठ्ठा उद्देशानो आ संबंध छे के, क ते हवे सिद्ध करे छे. आ सूत्रनो पूर्वना सूत्र साथैनो संबंध कहे छे: न होय. अहीं "९६" सूत्रमां पण तेज कहे छे. दवे छो उदेशो कहे छे. संयम देहना निर्वाह माटे लोकोमां जवुं, पण तेमनी साथे मेम न बांधवो एवं एटले, “ ९५ मा " सूत्रनी छेवटे कहूं केः- उत्तम साधुने चिकित्सा विगेरे से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्वाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेजा । (सू० ९६ ) जेने चिकित्सा न होय; ते अनगार कदेवाय अने जे जीवोने दुःख आपनार चिकित्सानो उपदेश आपको; अथवा तेनुं कृत्य करवुं ते पाप छे, एम जाणीतो (गीतार्थ) सांधु ज्ञ - परिज्ञावडे तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जाणीने तथा पाप छोडीने आदानीय ( ग्रहण करवा योग्य) परमार्थथी भाव आदानीय ज्ञानदर्शन- चारित्र छे, तेने ग्रहण करीने पापकर्म कोइपण वखते न करे तेम न करावे; अने करनारने अनुमोदना पण न आपे. सूत्रम् ॥३९७॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3GNCE आचा० सूत्रम् ॥३९८॥ ॥३९८॥ अथवा, ते साधु ज्ञान विगेरे, मोक्षतुं साचुं कारण छे, एम जाणीने, संयम-अनुष्ठानमांसावध थइने सर्वसावध (पापनां) कृत्य मारे न करवां; एवी प्रतिज्ञारूपपर्वत उपर चडीने शुं करे छे ? ते कहे छे:र आ सावधना आरंभनी निवृत्तिरूप-संयम लीधो छे, तेथी, मुनिए पापकर्मनी क्रिया न करवी. मनथी पण इच्छयी नहीं; पोते बीजा पासे पण कराववी नहीं; एटले, नोकर विगेरेने पापकर्ममां मेरवां नहीं; तथा, “१८" प्रकारर्नु पापजीव-हिंसा, जुलु, चोरी, कुचाल, परिग्रह ममता, क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष, कजीओअभ्याख्यान, पैशून्य रति अरति, परनिंदा, मायामृपावाद, (कपटन जुठ,) मिथ्यादर्शन-शल्यने पोते न करे; तेम न बोजा पासे न करावे; तथा, पाप करनारी प्रशंसा न करे; एम, मन, वचन, कायाथी त्याग करे. प्रश्नः-एक पाप करे; तेने बीजां पाप लागे के नहीं ? उत्तरः-ते शास्त्रकार बतावे छे. सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि कप्पइ सुहट्टो लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, सएण, विप्पमाएण पुढो वयं पकुवइ, जसिमे पाणा पवहिया पडिहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ कम्मोवसंती । (सू० ९७) कोइ पापआरंभमां पृथ्वीकाय विगेरेनो समारंभ करे छे, ते एक प्रकारचें आश्रवद्वार प्रारंभे छे, ते छ कायना आरंभमां वर्ते छे, ते जाणवू. जोके, पोते एकने हणवानो विचार करे छे, छतां संबधने लीधे सर्व हणाय छे. RROREGARDASRENCES Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥३९९॥ प्रश्न-ज्यारे कोइपण एक कायने हणवा आरंभ करे त्यारे बीजीकायना समारंभन पाप अथवा सर्व पापोमां वर्ते छे तेवु केम मनाय ? ल आचा० उत्तर-कुंभारनी शालामां पाणीने अडकवाना दृष्टांतवडे जाणवु. एटले पाणीने अडकतां पाणी साथे रहेली माटीने स्पर्श थाय तेथी वीजी पृथ्वीकायनो आरंभ थयो अने पाणीमा रहेली वनस्पतिनो आरंभ थयो, ते हालतां वायुनो समारंभ थाय, त्यां रहेली ॥३९९॥ 5- अग्नि प्रदीप्त थाय. ए प्रमाणे अग्नि बळतां त्रस जीवोनो आरंभ थाय. (माटे साधुए दरेक जग्याए विचारीने पग मुकबो) अथवा प्राणातिपात आश्रवद्वारमां. वर्तवाथी, अथवा एक जीवना अतिपात (हिंसा ) अथवा एक कायाना आरंभथी बीजा जीवोनो पण घातक समजवो, तथा प्रतिज्ञा लोपवाथी ते बीजुं पाप बांधे छे. कारण के जीव हिंसानी आज्ञा जिनेश्वरे आपी नथी, तथा प्राणीओना माण लेवानी आज्ञा प्राणोओ आपता नथी, माटे चोरीनो दोष छे. तथा सावधना ग्रहण करवाथी परिग्रहवाळो पण छे, अने परिग्रहमां मैथुन तथा रात्रिभोजन पण आवे, कारण के ग्रहकार्य विना स्त्री भोगवाय नहीं. एथी एकना आरंभमां बधी कायानो आरंभ छे, अथवा चार आश्रवद्वारने रोक्या विना चार महावतमां तथा छहा रात्रिभोजन विरमणव्रत केवी रीते थाय ? एथी वधानो आरंभ लागे अथवा एक पाप आरंभ करे, ते अकर्तव्यमा प्रवर्तवाथी छए कायना आरंभनो दोषित छे, अथवा जे एक पण पाप करे, ते & आठे प्रकारना कर्मने ग्रहण करी वारंवार तेमां प्रवर्ते छे. प्रश्न-शा माटे ते पाप करे छे ? उत्तर-सुखनो अर्थि ते वारंवार अयुक्त बोले छे, अने कायाथी दोडवा-कुदवानी क्रिया करे छे, अने पैसो पेदा करवा म उपायोने मनथी चिंतवे छे, ते कहे छे. खेती विगेरे करीने पृथ्वीनो आरंभ करे छे, स्नान माटे पाणीनो, तापवा माटे अमिनो गरमी दूर करवा हवानो (पंखावडे ) तथा खावाने माटे वनस्पति अथवा पशु इत्या विगेरेनो आरंभ करे छे, भा पाप वरनार है ASCIS- 4 x7 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A गृहस्थ अथवा वेषधारी साधु रसनो रसीओ बनीने सचित्त लवण वनस्पति फळ विगेरेने ग्रहण करे छे, तथा बीजी वस्तु पण वा-ॐ परे छे, ने समजी लेवु. आचा० आ प्रमाणे जे वधारे बोलनारो होय, ते पापकर्मथी वीजा नवा जन्मना दुःखरूपी झाडतुं कर्मवीज पण वावे छे, अने तेथी ॥४०॥ दुःखना झाडन कार्य प्रकट थशे, ते तेणे अहीं कयु. माटे आत्मीय (पोता) कयु अने ते पाप कर्मना विपाकनो उदय थनां मूढ माणस परमार्थने न जाणवाथी, धर्म करवाने बदले सुखने मेळववा माणीने दुःख आपवानां कृत्यो करे छे, अर्थात् सुखने बदले भविष्यमां पण दुःखज पामशे. कधु छे केः| "दुःखद्विट् सुखलिप्सु-मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्तेः ॥१॥ दुःखनो द्वेषी, सुखनो चाहक, मोहथी आंधळो थवाथी गुण दोषने न जाणनारो जे जे चेष्टाओ करे छे, तेनार्थी पोते दाखज पामे छे. अथवा ते मूढ हित मेळववा, अहित छोडवाना विवेकथी शून्य उलटो चाले छे, एटले हितने अहित माने छे. तथा अहितने है हित माने छेः तथा कार्यने अकार्य, पथ्यने अपथ्य विगेरेमां पण समजवू; एटले एम वताव्युं के, मोह ते अज्ञान छे, अथवा मोहनीयनो भेद छे, ते वन्ने प्रकारना मोहथी मूढ बनेलो अल्प सुखना माटे तेवो तेवो आरंभ करे छे के, जेनावडे शरीरना अने मनना दुःखना व्यसनोने पामीने अनंत काळना संसार भ्रमणनी पात्रताने पामे छे. वली मूढनी बीजी अनर्थनी परंपरा वतावे छे, एटले पोताना आत्मावडे मद्य विगेरेना प्रमादथी एटले इन्द्रियोनो रस लेयो, कपायो करवा, विकथा करवी, अथवा घणी निद्रा करवाथी 13 जुदं जुदं वृत (पापना चाळा) करे छे. अथवा वय एटले पोताना कर्मवडे जेमां जीवो भ्रमण करे छे ते वय संसार जाणवो, एटले 5-%AIRSA- 941-42 UGREECH HAMARIES Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 1180311 एक एक कायम घणो काळ रहेवाथी तेनो अनंतोकाळ दुःखमां बीते छे. अथवा कारणमा कार्यनो उपचार करीए; तो पोताना जुदीजुदीरीते करेला ममादथी बंधायलां कर्मवडे वय एटले, कोइपण अवस्था भोगवे; ते एकेंद्रिय विगेरेमां कलल, अर्बुद विगेरेथी लइने, एक दिवसना जन्मेला बाळक पण विगेरेनी अवस्थामां व्याधिथी | पीडायला, अथवा दारिद्र तथा दुर्भाग्य विगेरेनां दुःखथी प्राप्त थयेल ते प्रकर्ष करीने बांधे छे. (एटले पूर्वे कर्म बांधे; अने पछीथी भोगवे; ते आश्रयी वयः शब्द लीधो छे. ते संसारमां अथवा, उपर कहेली अवस्थामां प्राणीओ पीडाय छे ते बतावे छे. 'जं सि मे.' एटले, आ पोताना करेला प्रमादना कारणे अशुभकर्मनां फळ भोगवतां चारगतिवाळा आ संसारमां अथवा, एकेन्द्रियादि अवस्थामां प्राणीओ दुःखोथी पीडाय छे, ( एवं गुरु शिष्य कहे छे के तुं जो.) तेओ सुखने माटे आरंभमा राचोने मोहथी धर्मने बदले अधर्म करीने गृहस्थो तथा साधु वेषधारी तथा पाखंडीओ पीडाय छे, (जे ब्रह्मचर्यने बदले कुशील सेवे; तेने इन्द्रिय सडतां संसारमांज नरकवास भोगववो पडे. वैदनी गुलामी करवी पढे; अने वधारे रोग न वधे; ते माटे, बधी इन्द्रियो वशमा राखवी पडे; ए कुमार्गे चाल्यानुं फळ छे.) जो एवीरीते प्राणीओ पोतानां पापोथी अहीं पीडातां देखाय; तो शुं करवुं ? ते कहे छे:- आ संसार - भ्रमणमां पोतानां क्रत्योनुं फळ भोगववामां समर्थ जीवोनुं स्वरूप जाणीने अथवा, गृहस्थवडे मार खातां अथवा, परस्पर लढतां अथवा रोगादीनी पीडाओ भोगवतां, तेमनां कर्मनां फळ भोगवतां जाणीने पंडित साधुए निश्वयथी तेनो त्याग करवो; पटले सर्वथा अथवा, निश्वयथी प्राणी सूत्रम् 1180311 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४०२॥ सूत्रम् ॥४०२॥ SAGAR 5. ओने जुदा जुदा दुःखोनी अवस्था जेमां थाय; ते "निकरण" अथवा "निकार" छे, अने तेज अशुभकर्म शरीर मन दुःख उत्पा दक छे, ते कर्मने साधु न करे; एटले जेथी माणीओने पीडा थाय; तेवू कृत्य साधु न करे; (साधुए कोइ पण जातनो पापारंभ न ल करवो;) तेथी शुं थाय ते कहे छे. आजे सावध वेपारनी निवृत्तिरूप-परिज्ञा छे, तेज तत्त्वथी प्रकर्षथी 'परिज्ञान' कहेवाय छे, पण शैलुभ ( ठगनी) माफक 8 मोक्ष फळ रहित ज्ञान नथी. आ प्रमाणे ज्ञ परिज्ञा, तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे प्राणीनो निकार (हिंसा) छोडवावडे साधुने मोक्षम छे, एटले कर्मो शान्त पामे छे, संपूर्ण जोडलां राग द्वेप विगेरेनां छे, ते वधां संसार झाडनां वीजरूप कर्म छे, तेनो क्षय थाय छे. ते जीवहिंसानी क्रिया दूर करनारने थाय छे. र अने आ कर्मक्षयमां विघ्नरूप जीव हिंसार्नु मूळ आत्मामां विषयवासना, ममत्व छे, ते दूर करवा कहे छे. जे ममाइ-यमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिदृपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावो विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिकमिजासिं तिबेमि ॥ नारई सहई वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्मा अविमेण वोरे. तम्हा वीरे न रजइ ॥१॥ (सू० ९८) संसारी जड वस्तुमां मारापणानी मति तेने जे साधु परिग्रहना कडवां फळने जाणे छे, ते छोडे छे. ते परिग्रह द्रव्यथी अने RE Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ भावथी एम वे प्रकारे छे, ते चन्ने प्रकारनी परिग्रहनी बुद्धि छोडवाथी,अंतरनो भावपरिग्रह पण निषेध कर्यो, अने परिग्रहनी बुद्धि आचाका विषयनो प्रतिषेध करवाथी बहारनो द्रव्यपरिग्रह पण तजवानो कह्यो अथवा काकुन्याये लइए तो एम अर्थ थाय के, जे परिग्रहना सूत्रम् विचारनुं मलिन ज्ञान छोडे, तेज परमार्थथी बहार अने अंदरनो परिग्रह छोटे छे, तेनो अर्थ आ छे. ॥४०॥ Ix संबंध मात्रथी चित्तना परिग्रहनी काळाशनो अभाव छे. जेम नगरमां साध रहे. अथवा पृथ्वी उपर से छतां जेम जिनकल्पी ४॥४०॥ M मुनिने निष्परिगृहताज छे, तेम स्थविर कल्पीने पण जाणवू, तेथी शुं समजबुं ते कहे छे. जे मुनि जाणे छे के मोक्षमा मुख्य विघ्ननो हेतु तथा संसार भ्रमणनुं कारण छे, ते परिग्रह ममत्वथी छुटवाना विचारवाळो । छे, तेज देखतो छे, तेणेज मोक्षनो मार्ग ज्ञानादिक जोयु छे, ते द्रष्टपथ छे. अथवा दृष्ट भय लइए तो साते प्रकारनो भय जे शरीर विगेरेना ममत्वथी साक्षात देखाय छे, अथवा विचारतां परंपराए। जणाय छे, ते साते प्रकारना भयने जाणनारो निश्चयथी थाय छे, तेनो वधारे खुलासो करे छे. जेम ममत्व न करे, परिग्रह न राखे, ते दृष्ट भय छे, एम समजीने पूर्व वतावेला परिग्रहने ते ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे गीतार्थमुनि परिग्रहना आग्रहवाळा एकेन्द्रियादि संसारी-जीवलोकने दुःखी जाणीने पोते पाणीगणनी दश प्रकारनी ममत्वसंज्ञा (परिग्रहने) त्यागे छे, तेज मुनि सत्यासत्यना विवेकने जाणनारो छेतेने गुरु कहे छे. तु संयम अनुष्ठानमां योग्य रीते उद्यम कर! . अथवा, आठ प्रकारनां कर्मने अथवा कर्मनुं मुरागद्वेषादि छ रिपुवर्ग छे, तेने अथवा, विषयकषायने जीतवा पराक्रम कर एवं कहुं छु. . ते मुनि संयम अनुष्ठानमा पराक्रम करनारो परिग्रहना आग्रहने छेडनारो मुनि केवो थाय छे ते कहे छे: HAMROICRORE ॐॐॐॐॐRAS Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n ॥४०४॥ (सारा काममां विघ्न वधारे आवे तेम) कदाच ते संसारनो घर, स्त्री, धन सोनुं विगेरे परिग्रह छोडनार अकिंचन मुनिने सं-| आचा० यम अनुष्ठान करतां मोहनीयकर्मना उदयथी संयममां अरति थाय; तोपण, ते संयम संबंधी अरतिने पोते सहन करे; (तेमां मन न | Mराखेः) पण वधारे वैराग्यथी वीर बनीने आठ प्रकारना कर्मशत्रुने प्रेरणा करीने ते शक्तिमान बनेलो वीर असंयममां अथवा, विष- I ॥४०४॥ य-परिग्रहमां रति न करे; अने संयममा जे अरति थाय; अने विषयमां रति थाय तेथी, विमन बनीने शब्दादिमां रमणता न करे। एटले, रति अरति, ए वन्नने छोडवाथी खेदी मनवाळो न थाय; तेम, राग पण न करे ते वतावे छे. जेणे रति, अने अरतिमां मन न लगाडयुं ते वीर छे, अरे जे वीर छे, ते पांच इन्द्रियना विषयमा आसक्ति न करे त्यारे शुं करते कहे छे: सद्दे फासे अहियासमाणे निविद नंदि इह जीवियस्स । मुणो मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥२॥ पंतं लूहंसेवंति वीरा संमत्तदसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिन्ने मते विरए वियाहिए, तिमि ॥ (सू० ९९) जेथी रति-अरतिने त्यागीने मनोहर शब्द विगेरेमा साधु रांग न करे; तेम खराबमा द्वेष पण न करे. ते स्पर्श विगेरेमां पण मसारीरीते सहन करे; एटले, मनोज्ञ शब्द सांभळीने आनंद न माने; तेम, खराव सांभळीने खेद न करे; ते प्रमाणे शब्द, 5 तथा स्पर्श लीधाथी वीजी इन्द्रियना विषयमां पण जाणवू कयु छे के: सदेसु अ भद्दयपावरसु, सोयविसयमुवगएसु । तुट्टेण य रुटेण व समणेण सया न होअवं ॥१॥ SHREST A-A Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४०५॥ सुंदर के. खराव शब्द कानमां आवतां साधुए खुश अथवा नाखुश हमेशां (कोइपण वखते) न थयुं. एज प्रमाणे रूपगंध विगेमां पण जाणवु, तेथी शब्द विगेरेमां पण मध्यस्थता राखनारा शुं करे ? ते कहे छे: आ गुरुनी उपासना करनार शिष्य जे विनय छे, तेने अथवा, मोक्षाभिलाषी वीजाने पण आ उपदेश छे. के, तुं सारी रीते जाण के, अश्वर्य, वैभव विगेरेथी मननी जे प्रसन्नता छे, तेने दूर कर. आ मनुष्य लोकमां जे संयम विनानुं जीवित छे; तेनेत्यजी दे, अथवा वैभव विगेरेथी कुदरती जे आनंद थाय छे, के मने आ आवी उत्तम समृद्धि मली छे, मळे छे. अने मळशे. एवो जे विकल्प थाय छे, ते आनंदना विकल्पने पण तुं निंद, विचार के आ पापना कारण रूप अस्थिर समृद्धिवडे शुं लाभ छे ! कां छे के:| विभव इति किं मदस्ते ? च्युतविभवः किं विषादमुपयासि ? । करनिहित कन्दुकसमाः पानोत्पाता मनुष्याणाम् । अमारो वैभव छे, एवो तने मद शुं काम थाय छे ! अने वैभव जतां खेद केम करे छे ? तुं जाणतो नथी के माणसाने मळेली रिद्धि हाथमां रमवाना दडा माफक पड़े छे, ने उछळे ! आ प्रमाणे रूप विगेरेमां पण जाणवुं. ते संबंधी सनतकुमारनुं दृष्टांत जाणं. अथवा पांच अतिचारने पण तुं जे पूर्वे कर्या होय, तेने निंद अने थताने रोक अने आवताने अटकाव, केवी रीते ? ते कहे छे, ऋण काळने जाणनार ते मुनि छे, अने मुनिनुं मौन ते संयम छे, अथवा मुनिनो भाव ते मौन अने वचननुं संयम छे, अने ते प्रमाणे काया अने मननुं पण जाणवुं ते मन वचन अने कायाना संयमने आदरीने कर्म शरीर, अथवा औदारिक विगेरे शरीरने आत्माथी जुदुं कर, अर्थात् तेनो ममत्व मूक, ते ममत्व केवी रीते मूकाय ? ते कहे छे. प्रान्त एटले रस रहित तथा घी विगेरेथी रहित लख्खं भोजन कर, अथवा द्रव्यथी अने भावथी मान्त एटले विगत धुम ते गोचरी करतां द्वेष न करवो. तथा रुक्षभाव एटले सारी सूत्रम् ॥४०५॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आचा० सत्रम् . meroennium....Ardo .. . . ॥२०६॥ 1201 लव-REAK गोचरीमा राग न करवो, ते अंगार दोप रहित, वीर साधुओ गोचरी करे छे, ते साधुओ, सम्पफ्त्वदर्शी छे. ते रागद्वेष रहिन. अधवा सम्यक्त्वदर्शी छे, एटले परमार्थ दृष्टिवाला छे. तेओजाणे . के आ शरीर कृतन के निरूपधारी के.एना माटे पानीमा आलोक परलोकमां कलेश करी दुःख भोगवनारा छे. (अने अनेक आदेशमा एक आ देश ३) तेथी रस रहीत दाना खाना तथा समदी कर्मादि शरीर छोटीने भावथी भवओपने तरे टे. ते उत्तम क्रिया करतां भव ओपने तरे दे. अने जे पाय पनर परिग्रही रहित छे. ने युक्त छे. एटले जे निर्मळ भावथी शब्दादि विषयनो राग त्यजे ते विरत थे, भने मुक्तपणे तथा विरतपणे जे विख्यात है, तेज मुनिभव ओघने तरे छे, अधया ने तो है, एग जाणg जे मुनि आ प्रमाणे मुक्त. अने विरतपणाची विम्या न थयो, ते फेयो दुःखी थशे ने बतावे छे. दवसुमणीअणाणाए, तुच्छए गिलोइ वत्तए, एसवीरे पसंसिए, अच्चेइलोयसंजोगं एस नाए पवनइ(सू९०० बस द्रव्य हे. अने भव्य अर्थमां उत्पन्न कर्य के. ते मोक्षरूपी भव्य द्रव्य ३. एटले मुक्ति गमन योग्य जदय ने बनो . भने खराय मार्गे चपराय ते दुर्वस ले. एटले दुरुपयोग करनार जे मुनि हे. ते मोक्षगमनने अयोग्यसे. (भान संग गने खोटे मागेले, तेथी तेनो मोक्ष न धाय.) आम माथी थाय ? ते कद्दे से. तीर्थकरना उपदेशपी शुन्य बनी स्वतावारी बने, मन-शाधी ने स्वछंदी बने के.? उत्तर-प्रथम फईला उद्देशामां बना है. ने मचन्द मी गाणन ने भापमा मिथ्यात्वथी मोहीत लोकळे. तेमां तत्व समज दुर्लभ छे भने वतोमा भात्माने रोकयों ने कारण भने रनि भारतिने यावती नया पांच इन्द्रियना विषयमा इट अनिष्टमा समभाव भाववो तथा मान्त (निरस) तथालयो भागार फरयो माथी नीयवारनी भागापानी +19 . .. 4 4 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥४०७॥ धार उपर चालवा माफक पाळवी कठण छे. तथा अनुकूळ प्रतिकूळ जुदा जुदा उपसर्गो सहेवा कठण छे. अने ते न सहेवानुं कारण XI अनादि अतीत काळ सुखनी भावना जीवने छे. ते स्वभावथी दुःखभां बीकण अने सुखनो प्रिय बनीने वीतरागनी आज्ञाने पाळतो * नथी. तेमां दुःख माने छे. कारणके आज्ञा सहन करवानी छे. सुख के दुःखमा समभाव राखबानो छे, ते भूली परवश बनी तुच्छ | एटले, पापना उदयथी द्रव्यथी, निर्धन अथवा, घट अथवा जळ विगेरेथी रहित बने छे. (पीवाने पाणी पण मळत नथी.) तथा | ॥४०७॥ भावथी रिक्त एटले ज्ञान दर्शन चारित्र तेने मळतुं नथी; एटले ते मूर्ख साधुने कोइए प्रश्न करतां जवाच आपवामां अशक्त होवाथी | | बोलवाने शरम आवे छे, अथवा, ज्ञानवाळो छतां, चारित्रभ्रष्ट होवाथी; खरं बोलतां पोतानी पूजा नहीं थाय; माटे शुद्ध मार्ग कहेवाना अवसरे बोलतां शरमाय छे. पोते परिग्रह राखे त्यारे कोइ पूछे के, साधुने धन राखq कल्पे ? त्यारे पोते कहे केः-धन ४ राखवामां दोष नथी; ए, खोटुं पण बोले. जे कषायरूपी-महाविषनो टाळनार भगवाननी आज्ञा पाळनार ते 'सुवसु' मुनि छे, ते ज्ञानथीभरेलो प्रभुना कहेला मार्गने बतावनारो कर्मने विदारवाथी वीर बनेलो उत्तम पुरुषोए प्रशंसेलो छे. (जे आज्ञा पाळे ते प्रशंसा तथा सद्गतिने पामे; अने जे आज्ञा न पाळे ते अपमान अने दुर्गति पामे.) वळी "अच्चेइ" भगवाननी आज्ञाने अनुसरनारो वीरपुरुष असंयत लोकथी जे ममल थाय तेने त्यजे छे, ते लोक बे प्रकारना छे. एटले-बाह्य, धन, सोनु, मातापिता विगेरेमां ममल थाय छे, ते तथा हृदयमां रागद्वेष विगेरे अथवा तेनाथी बंधातां आठ प्रकारनां कर्म, ते अभ्यंतर लोक (ममत्व) छे तेनो संयोग उल्लंघे छे, अर्थात ममत्व त्यागे छे.. ___ जो, एम छे तो, शुं करवू ! ते कहे छ:-जे आ लोकना ममत्वनं उल्लंघन छे, ते सारोमार्गएटले, मोक्षाभिलाषिओनो आचार ASHISHRSॐछ RSAMACHAR Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ४०८ ॥ छे ते कहे छे:— अथवा 'परं ' ते आत्मा छे, तेने मोक्षमां लइ जाय छे, ते 'नाय' (मागधी सूत्र प्रमाणे) छे तेनो अर्थ आ छे. के जे, लोकनो संयोग त्यजे; तेज श्रेष्ठ आत्माना मोक्षनो न्याय छे. सदुपदेशथी मोक्ष मेळवनारो कहेवाय छे. एम हो; पण, ते उपदेश केवो छे ते कहे छे: जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुलला परिन्नमुदाहरंति, इह कम्मं परिन्नाय, सर्व्वसो जेअणन्नंसी, से अणन्नारामे, जे अणपणारामे, से अणन्नदंसी, जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ जहा पुणस्स कत्थइ (सू० १०५ ) जे दुःख अथवा दुःखनुं कारण अथवा, लोकना ममत्वथी वन्धातुं कर्म तीर्थकरोए बतान्युं छे के, आ संसारमां जीवोने आवा आवां दुःखो छे, ते दुःखने अथवा तेनां कर्मने धर्मकथानी लब्धि प्राप्त करेला जैन तथा जैनेतर मतना जाण गीतार्थ योग्य बिहार करनारा; बोले तेनुं पाळनारा, निद्रा जीतेला इन्द्रियो वश राखनारा, देशकाळ विगेरेनुं स्वरूप जाणनारा; उत्तम गुणवाळा साधुओ विगेरे आवी परिज्ञा बतावे छे के, दुःखोनुं मूळ कारण तथा तेनुं रोकावानुं कारण आ प्रमाणे छे. ते जाणीने इ-परिज्ञावडे प्रत्याख्यान परिज्ञावडे पापने त्यागे छे. वळी, उपर दुःख थवानो विचार विगेरे मनुष्य तथा वीजा जीवोनुं कनुं ते दुःख जाणवानी तथा दुःखनुं मूळ पाप त्यागवानी वे प्रकारनी परिज्ञा - गीतार्थ साधुओएवतावी. ते परिज्ञा करीने तथा पापनां मूळ आश्रवद्वार जाणीने छोड़वा ते कहे छे: सूत्रम् ॥ ४०८ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० १४०९ ॥ ज्ञानुं शत्रुपj (भणनारने विघ्न करं) विगेरे करवाथी ज्ञानावरणीयकर्म बन्धाय छे. तेम आठे कर्म संबंधी जाणीने प्रत्याख्यानपरिज्ञावडे पाप छोडीने तेना आश्रवद्वारमां मन-वचन-करवा - कराववा तथा अनुमोदवावडे पोते न वर्ते, अथवा, सर्वथा जाणीने कहे छे. सर्वथा 'परिज्ञान' ते केवळीने गणधरने अथवा चौदपूर्वि साधुने छे. अथवा सर्वथा 'कहे छे' एटले आक्षेपणि विगेरे चार प्रकारनी धर्मकथा छे ते टिप्पणमां नीचे मुजब छे. स्थाप्यते हेतु दृष्टान्तैः स्वमतं यत्र पण्डितैः । स्याद्वाद ध्वनिसंयुक्तं सा कथाऽऽक्षेपणी मता ॥ १॥ हेतु अने दृष्टांत वडे पंडितो जेमां स्याद्वादवादने अनुसरी जे वचन बोले, ते वचनयुक्त जे कथा ते आक्षेपणी छे. मिथ्यादशां मतं यत्र, पूर्वापरविरोधकृत् ॥ तन्निराक्रियते सद्भिः सा च विक्षेपणीमता ॥२॥ मिथ्यादृष्टिओना मतने तेमनो पूर्व अपर विरोध बतावी उत्तम पुरुषो तेनो निषेध करे, ते कथा विक्षेपणी छे. यस्याः श्रवण मारेण भवेन्मोक्षाभिलाषिता ॥ भव्यानां सा च विद्वद्भिः प्रोक्ता संवेदनीकथा ||३|| जेना सांभळवा माथी भव्य पुरुषोने मोक्षनी अभिलावा थाय, तेवी विद्वानोनी कहेली कथाने संवेदनीकथा कहे छे. यत्र संसारभोगाङ्ग, स्थितिलक्षणवर्णनम् । वैराग्य कारणं भव्यैः सोक्ता निवेंदनीकथा ॥४॥ जे संसार भोगना अंगोनी स्थितिना लक्षणनुं वर्णन छे अने वैराग्यं कारण छे तेवी कथाने भव्य पुरुषो कहे छे ते निर्वेदनीकथा जाणवी ते कथा केवी छे. ते कहे छे बीजुं एटले जैन सिवायनुं जे तत्त्व तेने माने ते अन्यदर्शी - तथा न अन्यदर्शी ते यथायोग्य सूत्रम् ॥४०९ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४१०॥ ॥४१०॥ 1967 1694% पदार्थ जाणनारो सम्यक दृष्टि जिनवचन माननारो गीतार्थ साधु छे ते मोक्ष सीवाय वीजा मार्गमां रमतो नथी. हेतु अने हेत्वाळा-भाववढे मूत्रने जोडवा कहे छे के जे भगवानना उपदेशथी अन्य स्थानमा स्मणता न करनारो ते अनन्यदर्शी छे अने जे अनन्यदर्शी छे ते वीजे रमे नही का छे के"शिवमस्तु कुशास्त्राणां वैशेषिकषष्टि तंत्र बोद्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥१॥ 'कुशास्त्रो जे, "वैशेषिकपष्टितंत्र" तथा चौद्धनां रचेलां छे, तेमन पण भलुं थाओ; कारणके, तेमनामां विसंवाद जोइने जिनेपू चिरना वचनमां अमाझं मन रंजित थाय छे. मा प्रमाणे सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहेल छे, ते कहेनार रागद्वेप दर करनारो थाय छे ते बतावे छे. जहा पुण्णस्स. विगेरे. तीर्थकर, गणधर, आचार्य विगेरे जे प्रकारे इन्द्र चक्रवर्ती मांडलीक राजा विगेरे पुन्यवान-जीवने उपदेश करे छे. तेज प्रमाणे कठीयारा विगेरे तुच्छ जीवोने पण उपदेश करे छे. (बन्नेमां तेमनो समभाव छे,) अथवा पूर्ण ते जाति, कुळ, रूप, विगेरेथी पुण्यवान के, अने नीच जाति कुरुपवाळो ते तुच्छ छे, अथवा, विज्ञानवाळो पूर्ण तथा, अन्य सामान्य बुद्धिवाळो तुच्छ छे, ते दरेकने उत्तम ४ पुरुपो समानभावे उपदेश करे छे. का छे केः "ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वय बलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छा विपर्ययात् ॥१॥" Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान, ऐश्वर्य अने धनवाळो, तथा जातिवंश, तथा बळवाळो तेजस्वी, बुद्धिमान प्रख्यात ए गुणवाळो पूर्ण कहेवाय; अने तेथी ४ 14 रहित ते तुच्छ कहेवाय. आनो परमार्थ आ छे के, साधुओ, भिक्षुक विगेरेने तेना कल्याण माटे स्वार्थ राख्या विना उपदेश करे सूत्रम् छे. तेज प्रमाणे चक्रवती विगेरेने पण उपदेश करे छे. १४११॥ ___अथवा चक्रवर्ती विगेरेने संसारथी पार उतारवाना हेतुने जेबा आदरथी कहे छे, तेज प्रमाणे भीक्षुकने पण कहे . आ वा 4॥४११॥ 16 क्यथी साधुमां 'निरीहता' (निस्पृहता) वतावी. . पण एवो नियम नथी के, बधाने एक सरखीरीते कहेवू; पण जेम जेने चोध लागे तेम तेने कहेवू; एटले, बुद्धिमानने समजावq होय तो सूक्ष्म वात कहेवी; अने सामान्य बुद्धिवाळाने सादी वात कहेवी; तथा राजाने कहेतां तेना अभिमायने अनुसरीने कहे; एटले, उपदेशके विचार के, आ राजा अन्यदर्शनना आग्रहवाळो छे के, मध्यस्थ बुद्धिवाळो छे के संशयवाळो छे ? के, दि संशयरहित छे ? तथा आग्रहवाळो छतां, कुतीर्थिओए कदाग्रहवाळो वनाव्यो छे के, पोते कदाग्रही छे ? जो एवो होय; तो, तेने आ प्रमाणे कहेतो क्रोध थाय. जेमकेः___ “दशसूना समश्चक्रो, दशक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजासमो वेश्या, दशवेश्या समो नृपः ॥१॥" दशसूना समान चक्री छे, अने दशचक्री समान ध्वजा छे. अने दशध्वजा समान वेश्या छे. अने दश वेश्या जेवो एक राजा छे. माटे ( आयु न बोलq.) तेनी भक्ति रुद्र, विगेरे देवता उमर होय; तो, तेनु चरित्र कहेतां तेने तेना पापना उदयथी सत्य, * * * Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RASHTRA 15) कहेता पण, मोह उत्पन्न थतां द्वेपी थाय; अने द्वेषी थइने शुं करे ते पण कहे छे:आचा० अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ? सूत्रम् एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडियमोयए, उड्ढे अहं तिरियं दिसासु से सवओ सत्व ॥४१२॥ ॥४१२॥ परिन्नाचारी, न लिप्पई छण पएण वीरे से मेहावी अणुग्घायण खे यन्ने जे य बन्ध पमुक्ख मन्नेसी कुसले पण नो बद्धो नो मुक्के ॥ (सू० १०२) क्रोधायमान थयलो राजा वाचाथी अपमान करे; अने तेनुं गायुं न गावाथी वखते मारवा पण तैयार थाय; एटले, लाकडीचाबकाथी साधुने मारे कयु छे के:| 'तत्थे ब य निढवणं बंधण निध्छुभण कडगमद्दो वा । निविसयं व नरिंदो करेज संघपि सो कुद्धो ॥१॥ 18/ क्रोधायमान थयलो निष्ठापन करे; बंधन करे; देशनिकाल करे; सेनापासे मार मरावे; अथवा, पोतानां राज्यमा आवतां बंध करे अथवा संघने पण दुःख आपे; ते प्रमाणे, तचनिक (विगेरे नो) उपासक-नंदचळनी कथाथी एटले, बुद्धनी उत्पत्तिना कथानकथी भागवत मतनो भल्लिग्राहनां दृष्टांतथी रौद्रमतनो पेढालनो पुत्र सत्यकी उमाना दृष्टांतने सांभळवाथी द्वेपी थाय छे. (वीजा मतना गुणो न जोतां इर्णरूपे कथाओ जोडी काढेल छे, तेवी कथा कहेतां वीजा मतवालाने क्रोध थाय छे. माटे, वने त्यांमधी 5525136SECCASSA Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ४१३॥ | गुणेप्राप्तिनीज कथा करवी) अथवा भीखारी काणोकुट (हाथपगनी खोडवाळो ) तेने उद्देशीने धर्मफळना उपदेशरूप- कथा कहेतां | तेने क्रोध थाय. आ प्रमाणे, विधि न जाणनारो कथा कहे; तो तेने बाधा (पीडा) थाय छे, तथा तेमां परलोकनो पण कंइ लाभ नथी विगेरे जाणवुं, जोके, मुमुक्षुने धर्मकथापरना हित माटे कहेतां पुन्य छे, पण जो, कहेनार सभाने न ओळखे; अने द्वेषनुं वचन बोले तो तेने शास्त्रकारे पुन्य बतान्युं नथी. अथवा राजानुं अपमान थतां धर्मकथा कहेनार साधुने इणे; एटले, राजा पशुवधनो यज्ञ करे; तथा श्राद्ध, होम, विगेरे करे; तेमां, धर्म मानतो होय; ते समये धर्मकथा कहेनार साधु राजाना सांभळतां कहे केः- तेमां धर्म नथी; तो, राजा क्रोधी थइने दुःख आपे. अथवा, जे जे अविधिए कहे; तेमां पण साधुने श्रेय नथी. ते बतावे छे. साक्षर पंडितनी सभामा पक्षहेतु दृष्टांत विगेरे छोडीने प्राकृत भाषामां कहेतुं ते अनुचित छे, तथा मूर्खानी सभामां तत्त्व समजावा जनुं; ते पण अनुचित छे. एज प्रमाणे कंइपण अनुचित कार्य करतो साधु जैनधर्मनी हीलनाज करे छे, अने तेने पापनोज बन्ध छे, तेनुं कल्याण थवानुं नथी; माटे, तेवा विधि न जाणनारा पुरुषे मौन धारण कर वधारे सारुं छे. ( के बीजाने क्रोध उत्पन्न करी अशुभकर्म पोते न बांधे.) युं छे के:'सावज्जणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वुत्तुंपि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं ॥ १ ॥ जेने सावध अने निर्बंध वचननुं जाणपणुं नथी; तेने बोलवानो पण अधिकार नथी. तो तेने उपदेश आपवानो -अधिकार सूत्रम् ॥४१३ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४१४॥ | क्यांथी होय ? आ प्रमाणे छे तो, धर्मकथा केवीरीते करवी ते कहे छेः जे, पोतानी इन्द्रियोने वशमां शखनारो छे, अने विषय विपनो वेरी छे, संसारथी उद्वेग मनवाळो छे, अने वैराग्यथी जेतुं हृदय खेचायलं छे, तेवो माणस धर्मने पूछे तो, ते समये आचार्य विगेरे धर्मकथा कहेनारे विचारखुं के, आ पुरुष केवो छे ? मिथ्यादृष्टि छे के भद्रक छे ? अथवा, केवा आशयथी पूछे छे ? एनो इष्टदेव क्यो छे ? एणे क्यो मत मान्यो छे ? विगेरे विचारीने योग्य उत्तर समय उचित कहेवो ते बतावे छे. एनो सार आ छे के धर्मकथानी विधि जाणनारे पोते आत्ममां परिपूर्ण होय ते सांभळनारनो विचार करे के द्रव्यथी ते केवो छे. तथा आ क्षेत्र केबुं छे ? जेमां तच्चनिक भागवत अथवा वीजा मतवाला अथवा पतित साधुए अथवा उत्कृष्ट साधुओए आ क्षेत्र केवा रूपमां वनान्युं छे. अने काळ ते सुकाळ छे के दुकाळ छे. अथवा वस्तु मळे तेम छे के नहीं. अने भावथी जो के पूछनार | माणस मध्यस्थ भाववाळां छे. के रागी द्वेषी छे, विगेरे विचारीने जेम ते बोध पामे, तेवी धर्मकथा करवी. उपरना गुणवाळो माणस धर्मकथा करवाने योग्य छे. वीजाने अधिकार नथी. कयुं छे के 'जो हेउवापक्खंमि, हेउओ आगमम्मि आगमिओ । सो ससमयपण्णवओ सिद्धंत विराहको अपणो |१| ' जे हेतुवाद पक्षमां हेतुने बतावनार छे, आगममां आगम वतावनार छे. ते स्वसमयनो प्रज्ञापक (उन्नति करनार ) अने बीजो सिद्धांतनो विराधक छे. (जो पूछनार हेतु मागे तो हेतु बतावे अने युक्तिथी सिद्ध करे अने आगम प्रमाण मागे तो आगम बतावे ते बन्नेनो जाणनारो वीजाने धर्मकथा कहे ते योग्य छे.) सूत्रम् ॥४१४॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISRORS जे उपर प्रमाणे धर्मकथानी विधिने जाणनारो, छे. ते प्रशस्त छे, अने जे पुन्यवान अने पुन्यहिनने धर्म कथामां सममिना । आचा० विधिए जाणे छे. तथा सांभळनारनो विवेक करी शके तेवा गुणवाळो कर्मने विदारण करनार वीर साधु, उत्तम पुरुषोथी वखाणा-& सूत्रम् F एलो छे. वळी तेनुं वर्णन करे छे. ४१५॥ ॥४१५॥ 'जे बद्धे' विगेरे. ते आठ प्रकारना कर्मवडे अथवा स्नेह रूप सांकळ विगेरेथी बंधाएला प्राणीओने धर्मकथा संभळाववा, विगेरेथी मुकावनारो राथाय तेज तीर्थकर गणधर अथवा आचार्य विगेरे उपर कहेली धर्मकथानी विधि जाणनारो छे. ते क्ये स्थाने रहेला जीवोने मुकावे छे ? ते कहे छे. उंचे रहेला ज्योतिषी विगेरेने तथा नीचे भवनपति विगेरेने तथा तिर्यंच तथा मनुष्यने बोध आपे छे (देवताना जीवो सम्यक्ल पामे अने तियेच पचेंद्रिय चारित्रनो थोडो भाग अने मनुष्य पूर्ण चारित्र पण पामे.) वळी ते वीर पुरुप बीजाने मुकावनारो हमेशा बन्ने परिज्ञाए पोते चाले छे, एटले सर्वोत्तम ज्ञाने युक्त छे, अने सर्व संवर चारित्र पाळनार छे, ते पोते जे गुणोने मेळवे छे ते कहे छे: पोते हिंसाथी थतां पापे लेपातो नथी; (एटले कोइनी हिंसा करतो नथी.) (क्षणनो अर्थ हिंसा को छे,) ते मेघावी (बुद्धिमान) पण छे, एटले, जेनावडे जीवो चार गतिमां भमे ते अण (कर्म) छे, तेनो घात करे; ते खेदने जाणनारो निपुण मुनि छे. एटले ते कर्म क्षय करवानो उद्यम करनारा मोक्षाभिलापीओने कर्म क्षय करवानी विधि बतावनार पण छे, ते मेघावी, कुशळ, वीर मुनि छे, AAI - ॐ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 तथा, जे प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश. एम चार प्रकारनां बन्धनोथी मोक्ष करावे; अथवा तेनो उपाय बतावे; ते 'अन्वेषि' पण , 13 आचा० (ते पूर्वनां वाक्य साथे जोडवू;) एटले, जे जीव हत्याने दूर करे; खेदने जाणे; ते मूळ उत्तर प्रकृतिना भेदोवडे भिन्न, तथा योगनिमित्ते आवती कर्मप्रकृति, तथा कषाय-स्थितिवाळी कर्मनी बन्धाती अवस्थाने जाणे छे. बांधवं; स्पर्श करवोः सूत्रम् ॥४१६॥ निधत्त करचुं; निकाचित करवू. आ कर्म परिणामने आश्रयी बन्धाय छे, अनेसारा भावथी तेनो नाश थाय छे, ए बनेने ते जाणे छे. ४१६॥ ___ प्रश्न-आ फरीथी केम कयु ? उत्तरः-पुनरुक्त दोष लागतो नथी; कारणके, एनावडे कर्म छोडवानुं बताव्युं छे. प्रश्न-उपर बतावेला गुणोवाळो साधु छद्मस्थ कहेवो के, केवळी कहेवो ? उत्तरः-उपरनां विशेषण केवळी साधुने न घटे , छद्मस्थ लेवो तो केवळीनी शी वात. प्रश्न:-कुशल साधुना केवा गुणो होवा जोइए ? उत्तरः-कुशळ एटले, जेणे घातिकर्मनो संपूर्ण क्षय कर्यो छे, ते तीर्थकर अथवा, सामान्य केवळी छे. अने छद्मस्थ-घातिकर्मथी बन्धायलो मोक्षार्थि तथा, तेना उपायने शोधनारो छे, अने केवळी पोते घातिकर्मनो क्षय थवाथी पोते कर्मथी बन्धायलो नथी; पण, अघाति चार कर्म जे भव उपग्रहीक छे, ते तेने होवाथी पोते मुक्त पण नथी; अथवा, तेवा गुणीने छदमस्थन कहीए छीए. के, 'कुशळ' ने, जेणे ज्ञानदर्शन-चारित्र मेळवेलुं छे, तथा मिथ्यात्व, अने बार कषायोनो उपशम करेलो होवाथी; तेने उदयमां न होवाथी ते 'बन्ध' न कहेवाय. आ प्रमाणे, गुणवान साधु कुशळ होय; पछी, ते केवळी होय के, छमस्थ होय; पण ते साधुना आचारने पाळतो होवो जोइए. जेम साधु माटे का तेम, बीजा मोक्षाभिलापीए पण वर्तवं ते बतावे छे. SECRECTOSECIA SHRASES SHARE Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४१७॥ 5 से जं च आरभे जं नारभे, अणारद्धं च न आरभे, छणं छण परिणाय लोगसन्नं च सवसो (सू० १०३) आचा०४ जे संयम अनुष्ठानने संपूर्ण कर्मक्षय माटे आदरे; ते मिथ्यात्व अविरति विगेरे संसारनां कारणने न आरंभे; एटले, साधुपणुं ल आराधे; अने संसारीपणुं छोडे; एटले, अढारे प्रकारनां पापो विगेरे जे एकांतथी दूर करवानां छे, तेवां पापो छोडीने संयम अनु-14 ष्ठानने करीने मोक्ष पामेअने केवळी, अथवा, उत्तम साधुओए जेने अनाचीर्ण का; ते पोते न करे; अने मोक्ष अनुष्ठान करे. 3. वळी, जिनेश्वरे त्यागवा योग्य का; तेमा मुख्यत्वे हिंसा छे. ते हिंसानां कारणने जाणीने साधु तेने छोडे. ज्ञ-परिझाए जाणे; अने प्रत्याख्यान परिज्ञाए त्यागे; अथवा, क्षणनो अर्थ हिंसाने बदले समय लइए; तो समयने जाणीने ते काळे ते काम करे. वळी लोक जे गृहस्थो छे, तेमने सुखनी अभिलाषा छे, अथवा, ते कारणे तेने परिग्रहनी संज्ञा छे, तेवी संसारी-वासनाने साधु छोटे, ते मन, वचन, कायाथी पोते न करे, न करावे; न अनुमोदे; तेथी कई केः-उपरना गुणवाळो धर्मकथा-विधि जाणनारो, बन्धायला ने मुकावनारो कर्मने छेदवामां कुशळ, अने बन्ध-मोक्षनी खोळ करनारो सुमार्गे चालनारो, कुमार्गने समजी अदार पापने रोकनारो, संसारी-लोकनी स्थिति चाणारो जे मुनि छे, तेने शुं थाय ते बतावे छे. उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुणे निहे कामसमणुन्ने असमिय दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवढं अणुपरियट्टइ, (सू० १०४) तिबेमि लोकविजयाध्ययनम् ॥२॥ RECTROSORic EXECE Ree Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४१८॥ AKASHAI.. जे परमार्थथी जोनारो छे, तेने त्रीजा उद्देशाथी लइने आ उद्देशाना छेडा सुधी जे दोष बताव्या; जेनाथी नारकादि गति भोगववी पडे; ते उद्देशो छे, ते गीतार्थ साधुने न होय; तथा वाळ (मूर्ख) संसार प्रेमी होय; ते स्नेह करीने कामनी इच्छाथी दुःखना सूत्रम् आवर्त्तमांज वारंवार वर्ते छे. एबुं हुं कहुं छु. (टीकाना श्लोक २५०० छे.) छठो उद्देशो समाप्त थयो. सूत्र अनुगम तथा सूत्रालापक ५॥४१८॥ निष्पन्न निक्षेपो सूत्रने स्पर्श करनारी नियुक्ति सहित पूरो थयो नयोनुं वर्णन बीजे स्थळे कर्तुं छे. अहीं संक्षेपामां ज्ञान क्रिया प्रधा-2 नपणुं जाणवू. तेमां पण पोते ज्ञानवाळो ज्ञानने एकांत खेंचे अने क्रिया उठावे अथवा क्रियावाळो क्रियाने पकडी राखे तो ते मि-* थ्यात्वी छे. शिष्यने एम का के तमारे बन्नेने अपेक्षापूर्वक समजीने बनेने आराधवां ॐ शांति लोकविजयनामनुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयु. इतिश्री आचाराङ्गमूत्रे द्वितीयो भाग समाप्तः ॥श्रीरस्तु।। 5555555555 בהבהבהבה Page #202 --------------------------------------------------------------------------  Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19191919191919191912121212121212181310 ಈgh]][}]} ggggggggf@gythggggggggggggbಳಲ್ಲು ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रेद्वितीयोभागः समाप्तः ॥ চিকচিক্কpককককক SSIBIESIGIRIDISCICICIESISISTEGree Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOSESIDERESIBEISISSSSS ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलु अने श्री श्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित ) ।आचाराङ्गसूत्रम्॥ भाग त्रीजो (मूळ अने शीलाङ्काचायें रचेली टीकाना भाषांतरसहित) जामनगरनिवासी स्व० पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मरणार्थे छपारी प्रसिद्ध करनार-पण्डित हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २-८-० प्रति २०० श्रीजैनभास्करोदय प्रिन्टिंग प्रेसमां छाप्यु जामनगर. १९८९ BEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #205 --------------------------------------------------------------------------  Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४२१॥ ॥ श्रीजिनाय नमः || ॥ श्रीआचाराङ्गसूत्रम् ॥ अने शिलांकाचार्ये रचेली टीकानुं भाषांतर ) भाग चीजो छपावी प्रसिद्ध करनार — पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) ( मूळ शितोष्णीय नामनुं त्रीजुं अध्ययन. ) बीजुं अध्ययन कं हवे त्रीजुं कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध हे :- पूर्वे शस्त्रपरिज्ञा नामना पहेला अध्ययनमां आ अध्ययननो अर्थाधिकार को छे. के शीत, अने गरमीनो अनुकुल के प्रतिकुळ ( सुख-दु:ख ) परिषद आवे; तो, समभावे सहन क वो. ते हवे कहे छे: अध्ययननो संबंध शस्त्रपरिज्ञामां कहेल महाव्रतने धारण करेला, अने, लोकविजय नामना अध्ययनमां बतावेल संयम पाळनारा सूत्रम् ॥४२१॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् M 55% 8 तथा कषाय विगेरेने जीतनारा मोक्षाभिलाषीसाधुने कोइ वखते अनुकुळ के प्रतिकुळ परिपह आवे छे,ते वखते मन निर्मळ रा खीने तेने समभावे सहन करवा. ए प्रमाणे, संबंधथी आ त्रीजुं अध्ययन बताव्युं छे. एना उपक्रम विगेरे चार अनुयोगद्वार थाय छे. तेमांउपक्रममा अर्थाधिकार चे प्रकारे छे, तेमां अध्ययननो अर्थाधिकार पूर्वे कह्यो छे. अने उद्देशनो अर्थाधिकार हवे नियुक्तिकार बतावे छे. ॥४२२॥ पढमे सुत्ता अस्संजयत्ति.' ? विइए दुह अणुहवंति । तइए न हु दुक्खणं, अकरण याए व समणुत्ति' १९८ ॥४२२। उद्देसंमि चउत्थे, अहिगारो उवमणं कसायाणं। पाव विरईओ विउणो, उ संजमो एत्थ मुक्खुति ॥१९९॥ 2 (१) पहेला उद्देशामां का छे के-जे भावनिद्रामा सुता छे, ते सारा विवेकथी रहित छे. प्रश्न:-ते क्या छे ? उत्तरः-जे गृहस्थो छे ते. ते भावथी सुतेलाओना दोष कहे छे. तथा जे भावथी जागता छे, तेना गुणोने बतावे छे. मूत्र 'जरामच्चु विगेरे. (२) बीजा उद्देशामा जे गृहस्थो भावनिद्रामा सुतेला छे, तेपने थतां दुःखो बतावे छे. ते सूत्र 'कामेसु गिद्धा' त्रीजामां का छे केः-फक्त दुःख सहन करवाथीन साधु न कहेवाय पण जो, संयमअनुष्ठान करे; तो ते साधु छे नहीं 8 ते साधु नहीं. ते सूत्र कहे छे. 'सहिए दुक्ख' द चोथा उद्देशामां कषायोनुं वमन करवु. एटले न करवा; अने बाकीनां पापो छोडवां. ते पंडित साधुन संयम छे, अने प्रथम - क्रोधथी लइने लोभ सुधी कपायो दुर थवाथी क्षपकश्रेणिना क्रमथी केवळज्ञान प्राप्त थाय छे, अने अघातिकर्म दूर थवाथी आठे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P सूत्रम् ॥४२३॥ कर्मोनो नाश थतां मोक्ष थाय छे, ने ये गाथामां बताव्युं छे. नामनिष्पन्न निक्षेपामा 'शीतोष्णीय' अध्ययन छे माटे शीत उष्ण ब-13 आचा० न्नेना निक्षेपा कहे छे: नामं ठवणा सायं, दवे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य उण्हस्सवि, चउविहो होइ निक्खेवोनि. गा.२००। ॥४२३॥ ___ नाम. स्थापना, द्रव्य अने भाव एम चार प्रकारे निक्षेपाछे. तेमां नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्य निक्षेपो शोत अने उष्णनो कहे छे. 18 दव्वे सीयल दव्वे, दव्वुणहं चेव, उण्हदव्वं तु । भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अणेगविहो ।२०१॥ व ज्ञ शरीर भव्य शरीर छोडी व्यतिरिक्तमां गुण गुणीना अभेदपणाथी द्रव्य शीत ठंडा गुणथी युक्त द्रव्य, अथवा शीतर्नु कारण जे द्रव्य ते द्रव्यना प्रधानपणाथी ते शीत द्रव्य छे, ते बरफ हिम करा विगेरे छे, एज प्रमाणे उष्णमां गरम पदार्थ लेवा. भावथी बे प्रकारे छे एटले पुद्गालाश्रयी, तथा जीवाश्रयी-छे, ते गाथाना बे पदमा बतावेल छे, तेमां पुद्गालाश्रयी ठंडो गुण गुणना प्रधानपणाने बताववारूपे छे, तेम भाव उष्णमां पण जाणवं. जीवने आश्रयी शीत अने उष्ण रुपवाळो अनेक प्रकारे गुण छे. जेमके औदयिक विगेरेज भायो छे. तेमां औदयिक ते कर्मना उदयथी प्रगट थयेल नारकी विगेरे जीवोने भवना आश्रयी पो तानी मेळे कषाय थाय छे ते उष्ण भाव जाणवो. अने औपशमिक ते सात प्रकृतिना उपशमथी उपशम सम्यक्त्व तथा विरति (चारित्र) 18 रूप ठंडो भाव छे. तथा क्षायिक भाव पण ठंडो छे. कारणके ते क्षायिक सम्यक्त्व तथा चारित्र रुपवालो छे. अथवा बधा कर्मनो दाह ते (क्षायिकभाव) सिवाय उत्पन्न यतो नथी. माटे ते उष्ण छे. तेज प्रमाणे विवक्षाथी बीजा पण चे से SHEESECRUAR - ॐ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४२४॥ प्रकारे थाय छे (आम वे भाव आव्या, बाकीनामां पण तेज प्रमाणे जाणवा. ) जीवना आ भवगुणनुं शीतपणुं अने उष्णपणाना रुपनुं वर्णन नियुक्तिकार खुलासाथी पोतेज कहे छे. सीयं परिसह पमायुवसमविरई सुहं चउण्हं तु । परीसहत चुज्जमकसाय, सोगाहिवेया रई दुक्खं दारं | २०२| भावशीत, ते अहीं जीवना परिणामरूपे ग्रहण करे छे. ते आ परिणाम छे, के संयममार्गमांथी न पडतां साधुए सकाम निर्जरामाटे परिषदो समभावे सहन करवा, तथा कार्यमा शिथीलता एटले 'विहारमां प्रमाद' न करवो तथा मोहनीय कर्मने शांत करवुं ते सम्यक्त्व. देशविरति तथा सर्व विरति लक्षणवाळो छे अथवा उमशम श्रेणी आश्रयी छे. ते अथवा क्षपक श्रेणी आश्रयी कपाय विगेरेना क्षयरूप छे, विरति—प्राणातिपात विगेरेथी दूर रहेबुं ते विरति छे. एटले ते सत्तर प्रकारनो संयम छे, तथा सुख एटले पूर्वना पुन्यना उदयथी भोगव ते छे. आ परिषह विगेरे तथा शीत गरमी बन्नेने गाथाना वे पदमां कहे छे: परिपद्द पूर्वे कहेला स्वरूपबाळा छे; अने तपमां उद्यम करो; ते तप बार प्रकार छे, ते शक्ति प्रमाणे ; तथा विगेरे कषायो छे, तथा इष्ट न मळे; अथवा नाश थाय, तेथी शोक थाय; ते आधि छे, तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक, एम ऋण वेद छे. अरति एटले, मोहना विपाकथी चित्तमां मलिनता थाय ते छे, तथा रोग विगेरे दुःखो छे. आ परिषह विगेरे पीडाकारक होवाथी आत्मा तपे तेथी उष्ण छे. आ प्रमाणे कामां गाथानो अर्थ छे, अने एनुं विशेष वर्णन निर्युक्तिकार पोते कहे छेः - परिषद, सूत्रम् ॥४२४॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम् 964 ॥४२५॥ ॥४२५॥ CARKARA-CAKAL शीत अने उष्णताना कह्या; तेमां मंदबुद्धिवाळाने विचार विना शंका थाय के, उलटुं समजाय; तेथी खुलासो करे छे. इत्थी सकारपरासहो य दो भावसीयला एए । सेसा वीसं उण्हा परीसहा इंति नायव्वा ॥२०३॥ स्त्री-परिसह, अने सत्कार-परिसह, ए वन्ने शीत छे, कारणके, भाव मनने ते गमे छे, बाकीना वीश परिसह प्रतिकुळ होवाथी ते मनने गमता नथी; माटे उष्ण छे. अथवा परिसहोर्नु शीत-उष्णपणुं बीजी रीते कहे छे:जे तिव्वप्परिणामा, परिसहा तेभवे उण्हा उ । जे मंदप्परिणामा परिसहा ते भवे सीया॥नि.गा. २०४दारं। दुःखेकरीने सहन थाय; तेवा तीव्र स्वभाववाला गरम परिसह जाणवा, अने जे मंदपरिणामवाळा (सहेलाइथी सहन थाय;) ते शीतपरिसह छे, तेनो खुलासो करे छे के, जे शरीरमां दुःख उत्पत्र करनारा थाय; अने सहेलाइथी सहन न थाय, तथा मनमा 8 खेद करावे; ते तीच परिणामवाळा होवाथी उष्ण छे, अने जे परिषह फक्त शरीरने दुःख उत्पन्न करे छे, पण वळवान पुरुषने मननुं दाख तेमां धतु न होय; ते भावथी मंदपरिणामवाळा होवाथी ते शीत-परिपह छे. अथवा जे घणा जोरमां परिषह आवे ते उष्ण छे. अने जे शरीर उपर थोडी असर करे; ते शीत-परिपड जाणवा. हवे, परिपह पछी साथेज शीतपणे जे प्रमादपद लीधुं छे, अने तपश्चर्यामां उद्यम करवो ते ऊष्णपणे लीधुं छे. ते वन्नेने नीचली गाथामां कहे छे:धम्ममि जो पमायइ अत्थेवासीअलुत्ति तं विति । उज्जुतं पुण अन्नं तत्तो उण्हंति णं विति ॥नि.२०५॥ SABA--- Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ते श्रमण धर्ममां जे साधु प्रमाद करे, पोतानी क्रिया न करे. अथवा जेनाथी अर्थ सधाय ते धन धान्य, सोनुं विगेरे आचा० मेळवना उपाय करे, तेवाने शीत (ठंडो) परिपह कहे छे, पण जे साधु प्रमाद न करे अने संयममा उद्यम करे ते उष्ण परिषह कहेवाय छे. ( सूत्रमा ‘णं' शोभा माटे छे) हवे उपशम पदनी व्याख्या करे छे. सूत्रम् ॥४२६॥ सीईभुओ परिनिव्वुओ य संतो तहेव पण्हाणो (ल्होओ) । होउवसंत कसाओतेणु वसंतो भवे जीवो २०६ ॥४२६॥ उपशम गुण क्रोध विगेरेना उदयना अभावमां होय छे, अने ते कपाय अग्नि ठंडो थवाथी आत्मा ठंडो थाय छे, तथा क्रोध ४ विगेरे अग्निनी ज्वाळा वुझे त्यारे ते परिनित थाय छे, अने रागद्वेप रुप अग्निना उपशमथी उपशांत छे तथा क्रोधादि परिताप 8दर थवाथी आत्मा आनंदित थाय छे अने तेज सुखी छे कारण के जेने कषायो शांत छे तेज सुखी छे. अने तेथीज उपशांत कषा5 यवाळो आत्मा शीत थाय छे. आ वां पदो एक अर्थवाळां छे. एटले (१) शीतीभूत (२) परिनिर्वृत (३) शांत (४) मल्हाद. आ|2|| 8 उपशांत कपाय कहेवाय छे (आ पदोनो अर्थ क्रोधादिने शांत करवानो छे) हवे विरतिपद कहे छे. 5 अभय करो जीवाणं सीय घरो संजमो भवइ सीओ । अस्संजमो य उण्हो, एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥२०७॥ जीवोने अभय करवानो आचार ते शीत (मुख) छे. तेन घर छे, ते, प्र. क्यु? उत्तर. सतर प्रकारनो संयम पाळवो ते शीत छे. कारण तेमां वधां दुःखनो हेतु जे रागद्वेप विगेरेनां जोडलां छे, ते विरतिमां दूर थाय छे. एथी, उलटो असंयम ते उष्ण छे.. SESSESSESPECTATUS Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४२७॥ AAAA% आ शीत अने ऊष्ण लक्षणरूप-संयम, असंयपनो वीजो पर्याय, सुख दुःखरूप छे. ते विवक्षाना कारणथी थाय छे. तेथी हवे, आचा० सुखपदनुं विवरण करे छे. निवाणसुहं सायं सीईभूयं पयं अणाबाहं । इहमवि जं किंचि सुहं तं सोयं दुक्खमवि उण्हं नि. ॥२०॥ ॥४२७॥ मोक्षसुखनुं स्वरुप __ अहींयां सुखने शीत कर्तुं छे, अने ते रागद्वेष विगेरेनां वधां जोडकां दूर थवाथी घणुंज अने एकांत बाधारहित लक्षणवाळ के निरुपाधिक परमार्थ चिंतामां विचारतां मुक्तिनुं सुख तेज साचुं सुख छे, पण वीजुं नथी. अने ते सुख आठे कर्मनो ताप दूर थवाथी Pशीत छे. ते निर्वाण सुख वतावे छे, अने निर्वाण ते वधा कर्मनो क्षय जाणवो, अथवा विशिष्ट आकाश प्रदेशवाळू स्थान (सिद्धिस्थान) तेमां (जीव निश्चल पणे) रहेवाथी निर्वाण सुख छे. अने आ वां पदो एक अर्थवाळां छे. एटले साता शीतीभुत, अनावाधपद ए त्रणेनो अर्थ निर्वाण सुख छे. अने आ संसारमा पण सातावेदनीयना विपाकथी उदयमां आवेलुं सुख ते मनने आनंद आपवाथी Pशीत छे. अने तेथी उलटुं पापथी उदयमां आवेलुं दुःख ते उष्ण छे. हवे कपाय विगेरे पदो कहे छे. डज्झइ तिवकसाओ सोगभिभूओ उइन्नवेओ य । उण्हयरो होय तवो कसायमाईवि 'ज' डहइ ॥२०९॥ ॐ तीव्र एटले घणा प्रमाणमां विपाक उदयमा आवतां कषायो जेने उदयमां आव्या होय ते बळे छे. आ कषाय अनिवाळो जीव ARSA Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४२८॥ AAAAAAERS 8 फक्त बळे छे, एटलंज नहीं पण शोक एटले व्हालांना वियोगथी उत्पन्न थयेल शोकथी मृढ बनीने शुभ व्यापार (धर्म) ने जे भुले ते पण वळे छे. तथा जेने संसारी सुख भोगववानी इच्छा थइ होय, तेवोपण बळे छे कारण के पुरुष वेदवाळो स्त्रीने इच्छे छे. अने स्त्री पण पुरुपने इच्छे छे, अने नपुंसक तो बनेने इच्छे छे तेनी प्राप्ति न थाय तो आकांक्षा पुरी न थवाथी ते अरति दाहे बळे छे, अने (च) शब्दथी (शब्द विगेरे पांच इन्द्रियना विषयोनी) इच्छा अने कामनी प्राप्ति न थाय तोपण जीव अरतिना दाहे बळे त छ, नेथी आ प्रमाणे कपायो शोक अने वेदनो उदय ए त्रणे जीवने वाळनारा होवाथी ते उष्ण छे. अथवा बधुं मोहनीयकर्म, अथवा आठे प्रकारनुं कर्म उष्ण छे आथी पण वधारे दाहकपणावाळू तप छे ते अडधी गाथामां बताव्युं छे, कारण के उष्ण कपा| यने पण तप तपावे छे. माटे ते तप उष्णतर छे. मूळ गाथामां कपाय जोडे आदि शब्द छे. तेथी एम जाणवू के तप कपायने बाळे | तेम शोक अने वेद उदयने पण वाळे छे. आ प्रमाणे अनेक रीते शीत उष्ण बतावी जे अभिपायवडे आचार्य द्रव्यभावथी भेदवाळा परिपह प्रमाद उद्यम विगेरे रूपवाळा शीत उष्ण बतावेल छे, ते आचार्यना अभिप्रायने हवे प्रगट करे छे. सीउण्हफाससुहदुहपरीसहकसायवेयसोयसहो । हुज्ज समणो सया उज्जुओ, य तवसंजमोवसमे ॥२१०॥ शीत अने उष्ण ए बन्नेनो जे स्पर्श छे, तेने सहन करे; एटले, शीतस्पर्श अने उष्णस्पर्श शरीरे (अधिकपणामां) लागवाथी | जीववेदनाने अनुभवतो होय; छतां आर्तध्यान न करे; एटले, शरीर अने मनने अनुकुळ थतां सुख अने विपरित थतां दुःख अनुभवे; तथा परिषद कपायवेद तथा शोक जे ठंडी तथा गरमीथी उत्पन्न थाय ते बघांने, सहे छे. आ प्रमाणे ठड अने उष्ण विगेरे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् , ॥४२९॥ सहीने साधु हमेशां तप अने संयमना उपशममां उद्यमवाळो थाय (अर्थात् गृहस्थ उनाळामां के शियाळामां जीवोने दुःखरुपी-पाणी ४ आचां० छांटवानुं के, अग्नि बाळवार्नु पाप करे छे. तथा हायपीट करे छे, अथवा, बगीचा विगेरेमा जइ वनस्पतिने दुःख आपी पोते सुख मानी अहंकार करे छे तेQ साधुए न कर; पण सुखदुःखने समभावे सहन करीने समाधिमा रहेq.) हवे समाप्त करतां ए टंड ॥४२९॥ 18 तापने घणा प्रमाणमां सहेवां ते बतावे छे. सीयाणि य उहाणि य, भिक्खूणं हुति विलहियवाइ। कामा न सेवियवा, सीओसणिज्जस्स निज्जुत्ती २११ । परिषह-प्रमाद उपशम-विरति सुखरुप जे पदो पूर्वे ठंडपणे वताव्यां; तथा परिषहतप उद्यम-कषाय शोकवेद अरतिरुप पूर्वे उष्णरूपे वताव्यां छे. ते बधांने मोक्षाभिलाषी साधुए सहेवा; पण, ते सुखनो हर्ष, अने दुःखनो शोक न करवो; ते परिषहोने सम्यक् दृष्टि जीव जो कामनी अभिलाषा दूर करे; तो तेनाथी सहन थाय छे, माटे, नियुक्तिकार कहे छे के:-गमेतेवा परिषह ठंड के, उष्णताइना आवे; तोपण, ते कामो (खोटी इच्छाओ) मां चित्त न राखq तथा कुमार्गे न जq. आ प्रमाणे, त्रीजा अध्ययननो नामनिष्पन्न निक्षेपो कह्यो. हवे, सूत्र अनुगममा अस्खलित विगेरे गुणवाळू निर्दोष वचन कहे, ते आ छेसुत्ता अमुणी सया मुणीणो जागरंति (सूत्र० १०५) पूर्व सूत्र साथे एनो संबंध बतावे छे, दुःखोना आर्त (चक्रावा) मां जे भमे ते दुःखी छे, एटले आ लोकमां जेओ भाव ४ निद्रामां अज्ञानी जीवो मुताछे. ते दुःखोना चक्रावामां भमवाथी दुःखी छे. कमु छे केः 44RGA RESॐॐॐ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४३०॥ नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञान महारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥ आ जगतमां जे अज्ञानरूपी महारोग सर्वे जीवोने दःखे करीने दूर थाय तेत्रो असाध्य छे, तेनाथी बीजुं दुःखनुं कारण हुं | मानतो नथी, विगेरे छे. अहिंआं सुतेला वे प्रकारना छे, द्रव्यथी अने भावथी तेमां निद्रा प्रमादवाळा द्रव्यथी सुता छे। अने मिध्यात्व | अने अज्ञानरुप महानिद्राथी मूढ वनेला जेओ मिथ्यादृष्टि (मोक्ष मार्गथी विमुख) अमुनि छे. तेओ निरंतर भावथी सुतेला जाणवा, कारणके तेओ (सर्व जीवोने अभय दान आपका रूप ) सम्यकज्ञान तथा चारित्रनी क्रियाथी रहित छे. पण निद्रामां पडेलानुं आ प्रमाणे समजवुं के वखते मिथ्यादृष्टि होह अने सम्यक् दृष्टि पण होय, आ अम्मुनि माटे बतान्युं हवे मुनिओनुं वर्णन करे छे. तेओ | हमेशां सुबोधथी युक्त अने मोक्षमार्गथी चलायमान थता नथी पण निरंतर हितने मेळववा अहितने छोड़वा. संयम पाळवा प्रयास करे तेथी तेओ जागता छे अने शरीरनी स्वभाविक अशक्तिथी द्रव्य निद्रा तेओने होय (सुवे ) तो पण रातना नवथी ऋण वाग्या सुधी | शास्त्रमां बतावेली विधए सुवाथी तथा अल्प निद्राथी तेओ जागताज छे, आज भाव स्वाप ( सुबुं ) तथा जागरण करवुं ते संबंधी नियुक्तिकार गाथा कहे छे: सुत्ता अमुणिओसया मुणिओ सुत्ता वि जागरा हुति । धम्मं पडुच्च एवं निद्दासुतेण भइयां ॥ नि. २१२ ॥ द्रव्यथी अने भावथी वन्ने प्रकारे सुता छे, तेमां निद्राथी सुतेलानुं वर्णन पछी कहेशे अने भावथी सुतेलानुं पहेलां कहे छे. ओ अमुनि (गृहस्थो ) मिथ्यात्वथी तथा अज्ञानथी घेराइने हिंसा विगेरे पांच आस्रव सदा वर्ते छे, तेओ भावथी सुतेला छे. अने सूत्रम् ॥४३०॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० X मुनिओने मिथ्यात्व अज्ञानरुप निद्रा दूर थवाथी सम्यक्त्व विगेरेनो वोध पामीने भावथी तेओ जागता छे. , जो के, आचार्यनी आज्ञा लइने, मुनिओ नवथी त्रणसुधो रात्रीना बोजा बोजा पहोरे दीर्घसंयम माटे शरीर आधाररूप होवाथी त सत्रम सुवे; तोपण तेओ सदाए जागताज छे. आ प्रमाणे धर्मने आश्रयीने सुता अने जागता बताव्या. हवे, द्रव्यनिद्रामा सुतेलामां भजना ॥४३१॥ जाणवी; एटले, तेमनामां धर्म होय अथवा न पण होय. ॥४३१॥ .. एटले जो भावथी जागे; अने निद्राथी आंखो घेरावाथी सुवे तोपण तेने धर्म छे, अने भावथी जागतो होय; पण निद्रा अने । प्रमादमां तेनुं ध्यान होयतो, तेने न पग होय; पण जे द्रव्यभाव बन्नेमा सुता छे, तेने न होय; एम भजनानो अर्थ छे. प्रश्नः-द्रव्यथी सुतेलाने धर्म केम न होय ? उत्तरः-द्रव्यथी सुतेलाने निद्रा होय छे, ते निद्रा दुःखेथी दूर थाय छे, कारणके, स्त्यानद्धि (थीणद्धि) त्रिकना उदयमा सम्यक्त्वनी प्राप्ति मोक्षमा जनारा भवसिद्धि जीवोने पण थतो नथी; अने तेनो बंध मिथ्यादृष्टि, अने सास्वादननी साथे अनंतानुबंधी 15 कषायना बंधवाळाने होय छे. 1. अने तेनो क्षय अने अनिवृत्ति बादर गुणस्थान काळना संख्येय भागोमांना केटलाक भाग जाय त्यांसुधी होय छे. तेज प्रमाणे निद्रा, अने प्रचलाना उदयमां पण पूर्व माफक छे. 15 बंधनो उपरम (दूर थq.) तो, अपूर्व करणकालना असंख्येय भागना अंतमां थाय छे. पण तेनो क्षय तो, ज्यारे बधा कषायो Hदुर थाय; तेना द्वीचरम समयमा (छेल्लानो पहेलामां) थाय छे. XPREX Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४३२॥ A-CREASSACREECRECTGCALCE अने उदय तो उपशमक, अने उपशांत मोहवाळा मुनिओने पण होय छे. एथी, निद्रा प्रमादने दुरंत कह्यो छे. (दर्शनावरणीय कर्मनी नव प्रकृतिमां पांच निद्रा छे, तेमां निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, अने थीणद्धि अनुक्रमे ५ प्रमाणमां वधारे निद्रा छे, तेनुं वर्णन कर्मग्रंथमां छे, त्यांथी जोQ. अहीं एटलं कहेवानुं छे के, परमार्थ (मोक्षन) लक्ष राखवू; अने वने त्यांसुधी अल्प निद्रा करवी.) ___ अने द्रव्यथी निद्रामा सुतेलो दुःख पामे छे. (जेमके, ऊंघणसी माणस घरमां आग लागतां बळीजाय छे, घरमांथी धन चो-४ राइ जाय छे.) तेज प्रमाणे भावथी सुतेला पण दुःख पामे छे ते बतावे छे. जह सुत्त मत्त मुच्छिय असहीणो पावए बहुं दुक्खं । तिव्वं अपडियारंपि वट्टमाणो तहा लोगो॥नि. २१३॥ निद्रार्थी सुतेलो तथा दारु विगेरेना निशाथी गांडो थएलो तथा घणो मार मर्मस्थनमां पडवाथी बेशुद्ध बनेलो तथा वायु विगेरे दोपथी चक्री आवतां परवश यएलो जीव बहु दुःख पामे छे छतां पोते ते वखते वदलो के उपाय लइ शकतो नथी तेज प्रमाणे * भाव निद्रा एटले मिथ्यात्वअविरति, प्रमाद, कपाय विगेरेमा सुतेलो जीव समूह नरक विगेरेना भवनां दुःखो भोगवे छे, हवे बीजी रीते उलटा दृष्टांतथी उपदेश देवा कहे छे:एसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसुं । अणुहवइ जह सचेओ सुहाइंसमणोऽवि तहचेव ॥नि.२१४॥ उपर कहेलो उपदेश जे विवेक अने अविवेक संबंधी थाय छे. ते वतावे छे जेमके सचेतन (बुद्धिमान) विवेकी आग लागतां Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- तेमांथी नीकळीने सुखी थाय छे अने विघ्नवाळा अने विघ्नरहित एवा मार्गनुं ज्ञान जेने छे ते सुखेथी पार पहोंचे छे. आदि शब्दथी आच० जाणवू के चोर विगेरेना भवमां विवेकी माणस सुखथी ते विघ्नने दूर करी सुखी थाय छे. तेज प्रमाणे साधु पण भावथी सदा विवेकी | P होवाथी जागतो रहिने बधां कल्याणने मेळवे छे सुता अने जागता सबंधी गाथाओ कहे छे:॥४३३॥18| जागरह णरा णिचं जागरमाणस्स वडए बुद्धी । जो सुअइ नसो धपणो जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥१॥RI जागता माणसोनी बुद्धि बधे छे माटे हे माणसो ! तमे जागो (अल्पनिद्रा करो.) जे सुवे छे, ते धन्यवादने योग्य नथी, पण जागतो माणस धन्यवादने योग्य छे. | सुअइ सुअं तस्स सुअं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअंथिरपरिचिअमप्पमत्तस्स ॥२॥ जे घणु सुवे छे तेने प्रमादथी तेनुं भणेलु शंकावालु तथा भुलोवाळु थाय छे, पण अप्रमादी जागता साधुनु भणेलं स्थिर परिचयवाडं (भुल वगरनु) रहे छे. नालस्सेण समं सुक्ख, न विज्जा सह निदया। नवेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दशलुया ॥३॥ आळसनी साथे सुख नथी. ( आळसुने सुख न होय; ) तथा निद्रानी साथे विद्या न होय; प्रमादनी साथे वैराग्य न होय; तथा आरंभ करनारने दया न होय. जागरिआ धम्मीणं, आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिव भगिणाए अहिंसु जिणो जयंतीए ॥४॥ ++CCESCE%EHA - RE Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४३४॥ धर्मोजीवोने जागवुं सारं, अधर्मीने सुबुं सारुं एवं भगवान् महावीरे वत्स देशना राजानी बेन जयंती श्राविकाने कां छे:सुयय अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । होहिइ गोणव्भूओ नहंमि सुए अमयभूए ॥५॥ जे अजगरनी माफक सुवे छे, तेनुं अमृत जेतुं भणेलुं नाश थाय छे, तथा तेने अमृत जेतुं भणेलं नाश थतां मुडदाल-वळदीया माफक तेनुं अपमान थाय छे. आ प्रमाणे दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी कोइक वखत कोइ साधु स्रुतो होय; पण मोक्षाभिलाषी, अने यतनावाळो होवाथी; तथा तेणे दर्शन मोहनीयरुप - निद्रा दुर करवाथी ते जागतोज छे. पण जेओ, अज्ञानना उदयथी सुतेला छे, ते अज्ञानीज खरा सुतेला छे, अने अज्ञान ते महादुःख छे, अने ते दुःख जंतुओने अहितकारी छे, ते सूत्रकार बतावे छे. लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्थ सत्थोवरए, जस्सिमे सदा य रूवा य रसाय गंधा य फासा य खभिसमन्नागया भवंति (सूत्र १०६) छ जीवनीकाय संबंधी तुं दुःखने जाण; एटले अज्ञान अथवा मोह (मूढपं) ते जीवने नरकादि भवमां दुःख आपनारुं अतिने माटे छे, अथवा तेनुं अज्ञान, तेने अहींयाज बंधने माटे, वधने माटे, तथा शरीर, अने मन संबन्धी पीडाने माटे थाय छे. ( अर्थात् गुरु शिष्य कहे छे केः- आ संसारमां अज्ञानी जीवो पोते अज्ञानदशामां पापो करीने नरक विगेरेमां जाय छे, अने त्यां ता, अहीं अनेक प्रकारनां दुःख सहे छे) ते तुं ध्यानमा राख; अने अज्ञानने छोड. हवे एम जाणवानुं फळ बतावे छे. सूत्रम् ॥४३४| Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचto ॥४३५॥ द्रव्य अने भाव ए वे प्रकारनी निद्राथी सुतेला जीवो अज्ञानी छे. तेमने थता दुःखथी दूर रहेतुं ए ज्ञाननुं फळ छे. समय एटले आचाराङ्गसूत्रमां बतावेल अनुष्टान ( संयम ) ने जाणीने अथवा लोक एटले जीवसमूहने जाणीने तेने जे शस्त्रोथी दुःख थाय ते शस्त्र ज्ञानी साधुए न जणाववा (ज्ञान भणवानुं फळ ए छे के कोइ पण जीवने दुःख न देवं) आ प्रमाणे पहेलांना सूत्र साथै बीजा सूत्रो संबन्ध छे, कारण के संसारी जीवो भोगना अभिलाषीपणाथी जीवहिंसा विगेरे कषाय हेतुवाळं कर्म बांधीने नरक विगेरे पीडाना स्थानमां उत्पन्न थाय छे. त्यांथी कोइ वखते नीकळीने बधा दुःखोनुं नाश करनार धर्मनुं कारण जेमां छे तेवुं आर्यक्षेत्र विगेरेमां मनुष्य जन्म पामे छे. बळी त्यां पण ( धर्म पाळवाने बदले ) महा मोहना कारणे मोहित मतिवाळो बनी ( इन्द्रियोना स्वादने माटे ) एवां एवां कार्य करे छे के जेने लीघे ते नीचेनीचे (नारकीमां) जाय छे, पण संसारमाथी पार पहचतो नथी (आवुं लोकोनुं वर्तन जाणीने तेवुं तमारे न करयुं.) अथवा समभाव एटले समता (समयनो अर्थ समता लीधो) छे तेने जाणीने बधा जीवो उपर एटले पोताना आत्मा बरोबर परने जाणीने अथवा शत्रु मित्रने समभावे जाणीने तेमना उपर राग द्वेष तुं न कर, अथवा बधा जीवो एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधी पोताना उत्पन्न थवाना स्थानमां रमवानी इच्छावाळा छे, मरणथी ढरे छे, सुखना चाहक छे. दुःखना द्वेषी छे आबुं तेओनुं समानपणुं जाणीने साधुए शुं करधुं ते कहे छे, छ जीवनीकायना द्रव्य भावना भेदवाळा शस्त्रथी दूर रहेवा धर्म जागरणथी जागतो रहे, अथवा जेजे संयमनां शस्त्रो छे ते ते आस्रवद्वार प्राणातिपात विगेरे छे.. अथवा शब्द विगेरे पांच प्रकारना काम गुणो (विषयप्रेम) छे. तेनाथी जे दूर रहे ते मुनि छे. तेज सूत्रकार कहे छे के जे मुनिने पोताना आत्माना अनुभवेला बीजा बधा प्राणी संबन्धी इन्द्रियोनी प्रवृत्तिना विषयरूप शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श ते सुदर अने सूत्रम् ॥४३५ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ISA ॥४३६॥ ISRECRUISSEUSA 5 विरुप एम वे भेद छे, ते समीप आवतां अनुकूळ वहाला, अने प्रतिकूळ ते अणगमता लागे छे, तेवू जे मुनि जाणे ते लोकने जाणे छे. तेनो अर्थ आ छे के:-मुनिए तेवा विपयो प्राप्त थाय; तोपण अनुकूळमां राग 'न' करवो; अने प्रतिकूळमां द्वेप न करवो; तेज खरीरीते तेओन अभिसमन्वा गमन (जाणवापj) छे, पण बोजु नथी. (आ संसारमा मुनिने विहार विगेरेमां पुण्योदयथी मधुर अवाज, सुंदर देखाव, रमणीय सुगंधी खटरस-भोजन, तथा कोमळ स्पर्श विगेरे प्राप्त थाय छे, तथा पापना उदयथी तेथी उलटुं थाय छे. तेवा समयमा संसारी-जीवो हर्पखेद करे छे, तेम मुनिए न करवो.) अथवा आलोकमांज शब्द विगेरे विषयो प्राणीओने दुःखने माटे थाय छे, तो परलोकनुं तो, शुं कहेवू ? कयु छे के:5 उक्तंच रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥१॥ हरिण शब्दमां रक्त थयलो, हाथी स्पर्शमां, माछलुं रसमां, अने रुपमां गरीब पतंगीयु, तथा सुगंधीमां साप, (अथवा भमरो) खरेखर, नाश पाम्या छे, पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ॥२॥ __. आ प्रमाणे, पांच इन्द्रियोमांथी एकमां रक्त थयेला परमार्थ न जाणनारा ते, पांचे अहींयां नाश पाम्या छे, तेय मूर्ख माणस एकलो पांचेमां रक्त थतां तेनो नाश थाय छे. अथवा, पुष्पशाळथी शब्दमां भद्रा नाश पामी अर्जुन चोररुप जोवा जतां नाश पाम्यो । गंधमां गंध मियकुमार नाश पाम्योः रसमां सौदास, अने स्पर्शमां सत्यकि विद्याधर, अथवा सुकुमारीकानो पति ललितांग नाश पाम्योः४ 45 SASHRSHI Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४३७॥ - - 5 - - अने तेओने परभवमां नरक विगेरे दुःख भोगववानो भय बाकी रहे छे. आ प्रमाणे गायन विगेरे बन्ने लोकमां दुःख आपनारा जाणीने जे मुनि तजे, ते केवा गुणो मेळवे ते कहे छे: सूत्रम् से आयवं नाणवं वेयवं धंमवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणिति वुच्चे, धम्मविऊ उज्जू आवद्दसोए संगमभिजाणइ (सू० १०७) 1४॥४३७॥ जे मुनि महामोहनिद्रामा सुतेला लोकोने अहितने माटे यतुं दुःख जाणे ते लोक समयदर्शी छे, ते शस्त्रयी दूर रहीने मधुर | गायन विगेरे पांच कामगुणो एकलाज दुःखना हेतुओ तरीके ज्ञ-परिज्ञावडे जाणे छे, तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्यागे छे, ते मोक्षा| भिलापी मुनि छे, अने ते आत्माने जाणनारो छे. एटले, ज्ञानादिक गुणवाळो आत्मा तेणे मेळव्यो; ते आत्मावान छे, कारणके, है शब्दादि विषय त्यागवाथी एणे आत्मानु रक्षण कर्यु छे, जो, तेम रक्षण न कर्यु होत; तो, पोतानां पापथी नारकी, तथा एकेन्द्रिय ४॥ विगेरेमा उत्पन्न थतां आत्मानु कार्य मोक्षमा जवान न करवाथी तेनो आत्मा केवी रीते गणाय ? (आत्मानुं कार्य ज्ञानमा रमणता करी; चारित्र पाळी; मोक्षमांज जवान छे, ते जे मात करे; तेणे आत्मा मेळव्यो जाणवो; अने तेज आत्भावाळो छे.) अने तेज ज्ञानवान् पण छे. एम जाणवू अथवा, बोजा प्रतिमा आयवी नाणवी छे, तेनो अर्थ आ छे के: पोताना आत्माने श्वभ्र (नरक) विगेरेमां पडतां अटकावे; ते आत्मवित् (आत्माज्ञानी) छे तथा प्रभुए जेवू पदार्थनें स्वरुप : बताव्यु; तेवू जाणे, ते ज्ञानवित् (तत्त्वज्ञानी) ते, तथा जीवादि स्वरूपने जेनावडे जाणे ते वेद एटले, आचाराङ्गविगेरे मूत्र जा - - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णनारो होय; ते वेदवित् कहेवाय छे. तथा, दर्गतिमां पडता जीवने धारी राखनार, तथा स्वर्गमोक्ष अपावनार धर्मने जाणे ते धर्मआचा० वित छे. ए प्रमाणे, बधां कर्मरुप-मळ, कलंकथी रहित, एवं योगीनुं सुख ब्रह्मचर्य छे, तेने जाणे ते, ब्रह्मवित् छे, अथवा, अढार प्रकार, ब्रह्म छे. आ प्रमाणे, ज्ञान, वेद धर्म, अने ब्रह्मचर्य प्रकर्षथी (उत्कृष्टपणे) जेनाबडे ज्ञेय पदार्थो जणाय; ते प्रज्ञानो छे एटले, ॥४३८॥ IPमति विगेरे पहेला भागमां बतावेल ज्ञानवडे जीवलोक जेवे रुपे रह्यो छे तेने जाणे; अथवा जीवलोकने रहेवानं जे स्थान, जे क्षे18 त्रलोक छे, तेने पोते जाणे अर्थात् जे शब्दादि विषयोनो राग तजे; तेज, ज्ञानि यथावस्थित लोकनुं स्वरुप जाणे छे, अने तेवो ज्ञानी प्रथम बतावेला गुणवाळो (एटले जे आत्मवान् ज्ञानवान वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् ) थोडा अथवा, समस्त प्रज्ञानवडे लोकोने से जाणे तेने मुनि कहेवो कारणके, जगतनी त्रणे काळनी अवस्थाने माने अथवा. जाणे तेने मुनिशास्त्रमा कह्यो छे. धर्म ते चेतन. अने अचेतन द्रव्यना स्वभावरुप, अथवा श्रुतचारित्ररुप-धर्मने जाणे; ते धर्मवित् जाणवो. रुजु (सरळ) शानदर्शन-चरित्र नामना मोक्षमार्गनां जे अनुष्टान छे, तेनाथी अकुटिल छे, अथवा यथार्थरीते पदार्थ- स्वरुप 12 जाणवाथी सरल छे अथवा बधी उपाधिथी शुद्ध ते अवक्र (सरल) छे आ प्रमाणे धर्म जाणनार रुजु मुनि होय तेने शुं लाभ मळे ते कहे छे. आवट्ट एटले भाव आवर्त ते जन्म जरा मरण रोग शोकना दुःख आपवाना स्वभाववालो संसार छे. का छे के, रागद्वेष वशाविळं, मिथ्या दर्शन दुस्तरम् ॥ जन्मावतें जगत्क्षिप्तं, प्रसादाभ्राम्यते भृशम् ॥१॥ ___ रागद्वेषना वशथी विधायेल मिथ्यादर्शनना कारणे दुस्तर अने जन्मना आवर्तमां फेंकायलुं जगत् छे. तेमां प्रमादथी जीवो tre: 960GSGESESSES AREARCHARCHASREPRESS Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥४३९॥ 8 घणुं भ्रमण करे छे. भाव श्रोतपण शब्दादि काम गुणनो विषय अभिलाष छे, अने ते बन्ने 'आवर्त' अने श्रोत मळीने आवर्त श्रोतः शब्द बने छे ते बन्नेमां रागद्वेषवढे संग (संबंध) थाय छे, तेने जाणे छे के आ आवर्त अने श्रोतन कारण छे. आ जाणनारो खरी रीते कोने कहेवो? ते कहे छे, जे अनर्थने जाणीने त्यागे, ते जाणनारो छे. अर्थात् संसार श्रोत ते रागद्वेष रुप संग छे. | तेने जाणीने जे त्यागे तेज आवर्त श्रोतना संगनो खरो जाणनारो छे. उपर बताव्या प्रमाणे सुता अने जागताना दोपो तथा गुणोने ४ जाणनारो क्या गुणो मेळवे, ते कहे छे. साउसिगच्चाई से निग्गंढे अरइरइसहे, फरूप्तयंनो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुख्खसि, जरामच्चुवसो वणिए नरे सययं मुढे धमं नाभिजाणइ (सूत्र १०८) ते आत्मार्थी मुनि वाह्य अभ्यंतर अथ रहित (निग्रंथ) वनीने शीत अने उप्णतानो त्यागी एटले सुख दुःखने न गणनारो अथवा ठंड तापना परिषहने सारी रीते समभावे सहन करनारो संयममां रति (प्रेम) अने असंयममां अरति वतावनारो वनी पीडा | करनारी परिपहो अने उपसर्गोनी कठोर वेदनाने सहे छे, पण पीडाकारी मानतो नथी, (जेम गजमुकुमाळना ससराए भीनी मा| टीनी पाळ बांधी माथामां वळता अंगारा भर्या, ते समये घणी पीडा थइ, छतां तेणे ससरानो उपकार मान्यो, अने केवळ ज्ञान ४ पामी मोक्षमा गयो. तेम बीजा साधुए करवू) अथवा संयम के तपथी शरीरमा पीडा थतां परुपता (कठोरपणुं) आवे अथवा कर्म लेप दूर थवाथी संसारथी खेदी मनवाळो मोक्षाभिलाषी निरावाच सुखनो चाहक बनीने संयम तपमां पीटा थाय तो पण समभावे CG- Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41C आचा० सूत्रम् ॥४४०॥ -IN- H ॥४४॥ ORORSCIEOCOCROS सहे पण खेद न पामे. 'जागर' एटले असंयम निद्रा दूर थवाथी पोते संयममां जागतो छे अने अभिमानथी थता अमर्ष (अदेखाइ) एटले बीजान बगाडवानो अध्यवसाय (विचार) ते वैर छे. ते वैरथी पोते दूर छे एटले जागर अने वैर उपरत गुणवाळो वीर बने छे, ते कर्म शत्रुने दूर करवानी शक्तिवाळो छे तेवा वीरने उद्देशीने गुरु कहे छे हे वीर ! तुं उपरना गुण धारण करीने पोताने अ-2 थवा बीजाने संसारना दुःखथी अथवा दुःखना कारणरुप कर्मथी बचीश अने बचावीश. अने उपरना उत्तम गुणोथी रहित प्रमादी जीव संसारना चक्रमां अने दुःखना प्रवाहमां संग करीने उंघतो रहीने ते शुं मेळवे छे ते कहे छे. जरा अने मृत्यु ए बेने वश थइने ते पाणी निरंतर महा मोहथी मूढ बनेलो स्वर्ग अने मोक्ष आपनार धर्मने जाणतो नथी अने संसारमा जीवने एवं कोइ पण स्थानज नथी के ज्यां जरा मृत्यु न होय. प्रश्नः-देवताओने जरा (बूढापो) नथी.. उत्तर-देवताओने पण त्यांथी च्यववाना छ महिना पहेलां उत्तम लेश्या वळ सुख प्रभुत्व अने सुंदर वर्णनी हानि थाय छेज, तेथी तेमने पण जरानो सद्भाव छे, कयुं छे के. देवा णं भंते ! सो समवण्णा ? नो इणटे समठे, सेकेणटेणं भंते! एवं वुच्चइ गोयमा देवा दुविहा-पुत्वोववणग्गा य पच्छोववणग्गा य तत्थ णं जे ते पुवोवरणग्गा तेणं अविसुद्धवपणयरा, जे णं पच्छोववणग्गा ते णं विसुद्धवण्णयरा BHARTIERREATREMIERERASHAN Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T- गौतमनो प्रश्न-हे भगवन् ? बधा देवता समान रुपवाळा छे ? उ०-तेम नथी.प्र०-तेनुं शुं कारण ? आचा उ०-हे गौतम ! देवो बे प्रकारना छे. पहेलां उत्पन्न थयेला अने पछी उत्पन्न थता तेमां जे पहेलां उत्पन्न थयेल छे ते कं-18 सत्रम् 8 इक झांखा रुपवाळा अने जे पाछळथी उत्पन्न थया ते विशुद्ध सुंदर रूपवाला होय छे. तेज प्रमाणे लेश्या विगेरेमां पण जाणवू. ॥४४१॥ म अने च्यवनना वखते तो बधाने बध झांखुज होय छे जेमके ॥४४॥ __ मल्यम्लानिः कल्पवृक्ष प्रकम्पः श्री हीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागङ्गभङ्गो, दृष्टिभ्रान्तिपयुश्चारतिश्च ॥१॥ माला करमाइ जाय छे कल्पवृक्ष कंपतुं देखाय छे, श्री अने हीनो नाश थाय छे कपडां उपरथी प्रेम उठी जाय छे. दीनता आवे 18 छे, आळस धाय छे, काम रागनो अने अंगनो भंग थाय छे, दृष्टिमां भ्रांति थाय छे. अने कंपारो थाय छे, अने बधुं रमणिक ते * अरमणिक लागे छे. (जेम, अहींयां मनुष्यने मरती वखते घरनी ऋद्धि के, वैभव उपरथी अणगमो थाय छे, तेम देवताने पण देवलोक छोडतां घणो खेद थाय छे, अने कल्पांत करे छे.) । जो, आवी रीते छे तो, नक्की थयु के, बधा जीवो जरा मृत्युने वश छे तो, तेवू जाणीने पंडित मुनि शुं करे? ते कहे छे:पासिय आउरपाणे अप्पत्तो परिवए, मंता य मइमं, पास आरंभजंदुक्खमिणंतिणच्चा, माई पमाई पुण एइ गम्भ, उवेहमाणो सदरूवेसु ऊज्जू माराभिसंकी मरणा पमुच्चई, अपमत्तो S+ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४४२॥ Mail : कामेहिं, उंवरओ पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने जे पज्जवजाय सत्यस्स खेयन्ने, असत्यस्स खेयन्ने जे अत्थस्स खेयन्ने से पज्जवज्जायसत्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स ववहारो न वि जड़ कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडि लेहाए (सूत्र १०९) ते भावथी जागतो मुनि भावनिद्रामां सुतेला जीवोने मन संबंधी दुःखोथी पीडाता जुवे छे. ते दुःखी जीवो विचारे छे के, हवे अमारे शुं कर ? एम मूढ बनेला तथा दुःखसागरमा डुबेलां प्राणीओने देखीने पोते तेवां दुःखमां न पडवा माटे मुनि अप्रमत थइने विचरे; अने संयम अनुष्ठानने बरोबर करे; तेवा शिष्यने गुरु फरीथी कहे छे: - हे बुद्धिमान् ! हे भणेला शिष्य ! तुं भा| वनिद्राथी सुतेला दुःखीओने जो, अने जागताना गुणो तथा सुताना दोषोने जाणीने सुवानी मति न कर ( प्रमादी न था . ) वली पाप क्रियानो आरंभ करनारानां दुःखो तथा दुःखना कारण कर्म, तेने तुं प्रत्यक्ष जो ! जेओ जीवहिंसा (खुन) चोरी विगेरे करे छे. तेओने थती शिक्षा साक्षात् जो ! अने ते जाणीने आरंभ रहित वनीने आत्महितमां जाग्रत था ! 22 (जेओ साधु छे तेमने मोक्ष साधवानो दोवाथी गृहस्थ माफक खेती विगेरे आरंभ करवानो नथी छतां जेओ त्यागी नाम धरावी खेती विगेरे करे छे ते पण ग्रहस्थ माफक दुःखी थाय छे.) पण जे विषय कषायथी मलीन चित्तवाळो भावशायी (प्रमादी) छे, ते शुं मेळवे, ते कहे छे. मायी बने, छे, अने माया ले वाथी वधा कषायोवाको बने तेज कहे छे, क्रोधी मानी मायी लोभी बनीने दारु विगेरेना नसामां प्रमादी थइ नारकीनां दुःख अनुभवी सूत्रम् ॥४४२॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४४३॥ REACHESESSAATKE ६ पाछो तिर्यंचमां गर्भना दुःखने अनुभवे छे, पण जे मुनि कफायरहित अप्रमादी छे तेने शुं लाभ थाय छे. ते बतावे छे. शब्द रुप विगेरेमा जे रागद्वेष थाय छे तेनी उपेक्षा करतो रुजु (सरल) यति थाय छे. एटले खरी रीते जे यति (साधु) छे ते रुजु छे. पण सूत्रम् गृहस्थ तो स्त्री विगेरे पदार्थ ग्रहण करवाथी वक्र छे (स्त्री विगेरेने मेळववा राजी राखवा गृहस्थने कपट करवू पडे छे.) वळी ते ।। सरल साधु गायन विगेरेनी उपेक्षा करतो मरण (मार) नी शंका करे छे. एटले बीजाने मारतां (दुःख देतां) डरे छे. तेथी पोते ॥४४३॥ पण मरणथी बचे छे. वळी ते काम (पाप चेष्टाओ) थी अप्रमादी रहे छे. अने जे साधु काम चेष्टाना पापोथी दूर रहे, तेज खरी रीते मन वचन कायाना पापथी उपरत (वचेलो) छे. कोण बचे छे? ते कहे छे. जे वीर छे तेज गुप्त आत्मा छे. अने ते खेदज्ञ छे 4 (एटले बीजा जीवोना खेदने जाणे छे तेथी कोइने दुःख देतो नथी। ते खेदज्ञ साधु गायन विगेरेना आनंदना विषयोना पर्यव (भागो) अनुकुळ थतां पोते तेना निमित्तना शस्त्रने पाणीओने दुःखकारक जाणीने तेमों लोन न थतां ते निपुण साधु निरवद्य अ-ल. नुष्ठान जे अशस्त्र छे ते करे छे. अने ते संययना खेदने जाणनारो पर्यव जात शस्त्रना खेदने जाणनारो छे, तेनो सार आ छे के जे साधु पासे शब्दादि पर्यायो सुंदर के विरुप आवे तो लेवानी के त्यागवानी क्रिया बीजा जीवोने दुःखरुप छे तेम जाणे छे अने मध्यस्थपणुं राखg; ते अपीडाकारक होवाथी जे अशस्त्ररुप-संयम छे. ते पोताने अने परने उपकार करनारो छे, एवं जाणे छे. . आ प्रमाणे, जाणीने शस्त्रने छोडे, अने अशस्त्र (संयम) तेने ग्रहण करे; एटले ज्ञान- फळ ए छे के विषयोना आनंदने छोटनारो; समभाव राखनारो जीवोने बचावीः संयम पाळे छे, (अने जीवो उपर रागद्वेष करे तो, संयम पाळी शकतो नथी.) 'अथवा, गायन विगेरे पर्यायोथी, अथवा गायन विगेरेथी उत्पन्न थयेल रागद्वेषना पर्यायोथी जे ज्ञानावरणीय विगेरे कर्म द । - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४४ बंधाय छे, तेने दाहकपणाथी तप ते शस्त्र छे, ते तपना खेदने जाणे; ते खेदज्ञ छे. कारणके तेना ज्ञान तथा योग्य अनुष्ठानवडे आचा०15 जे अशस्त्र-संयम छे, तेने पण जाणनारो छे, अने संयम तप खेदने जाणनारो आश्रवनिरोध विगेरेथी भवभ्रमणां कर्म जे पूर्वे IV एकठां कर्यां छे, तेनो क्षय थाय छे, अने कर्मक्षयथी जे लाभ थाय छे, ते कहे छे:॥४४४॥ अकर्मन वर्णन. . ___अकर्म एटले, जेने आठ प्रकारनां कर्ममांथी एक पण कर्म न होय; ते छे, अने ते नारक, तिर्यंच, नर, देव एवी चार गतिमां भ्रमण करवानो व्यवहार नथी; तथा, पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था नथी; तथा बाळपण, तथा कुमारपणुं विगेरे संसारी व्यपदेशो (जुदी | 4 जुदी व्यवस्थान नाम) नथी; अने जे सकर्मी छे, तेने कर्मवडे नारकादि व्यपदेश होय छे. तथा ते कर्मनी उपाधिवडे एटले, ज्ञानावरणीय विगेरेथी जुदां जुदां विशेषणो कर्म संबंधी थाय छे ते कहे छे:-जेमके, मति, श्रुत अवधि, मनःपर्याय ज्ञानवाळो होय; तेने तेनी बुद्धिना प्रमाणमां मंदबुद्धिवाळो, अथवा तीक्ष्ण बुदिवाळो कहेवाय छे. (१) है तथा चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी निद्राळ विगेरे छे. (२) तथा सुखीदुःखी कहेवाय छे. (३) मिथ्यादृष्टि, सम्यग मिथ्यादृष्टि, स्त्रीपुरुष नपुंसक-कषायी विगेरे छे. (४) ६ तथा सोपक्रम निरुपक्रम आयुवाळो, अल्प आवखावालो; विगेरे छे. (५) नारक तिर्यंचयोनीवाळो, तथा एकेन्द्रिय, बे इन्द्रिय, है पर्याप्तो-अपर्याप्तो, सुभग-दुर्भग विगेरे छे. (६) उंचगोत्रवाळो, नीचगोत्रवाळो छे, (७) कृपण, त्यागी, निरुप भोगी, निर्वीर्य छे.(८) आ प्रमाणे आठे कर्मने लीधे संसारी जीवो ओळखाय छे. जो आवी रीते छे तो शुं करवू ते कहे छे. ज्ञानावरणीय विगेरे कर्म छे GEECRECRECREC APER Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचिा सूत्रम् ACCOR ॥४४५॥ [ ॥४४५॥ RECT तेनी उपेक्षा करीने अथवा तेना बंधने प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेशरुपे विचारीने तेनी सत्ता विपाकने पामेला प्राणीओ जेवी रीते भावनिद्रामा सुए छे ( अने दुःख भोगवे छे) ते विचारीने कर्म तोडवामां भाव जागरण करवा साधुए उद्यम करचो, ते कर्म तोडवार्नु आवा क्रमथी थाय छे. प्रथम आठ कर्मवाळो माणस छे ते दीक्षा लइने मोहने तोडे पछी अप्रमादी थइ क्षपकश्रेणी करे ते आठमे गुणस्थाने क्रोधादि ओछा करी अग्यारमे गुणस्थाने लोभनो सर्वथा नाश करे अने बारमा गुणस्थानना अंते ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा 8 अंतराय कर्म दूर करी तेरमे गुणस्थाने चार अघाती कर्मवाळो रहे. आ गुणस्थाने जघन्यथी अंतर्मुहुर्त. अने उत्कृष्टथी पूर्व कोडीमां थोडो ओछो काळ रहे, त्यारपछी १४मे गुणस्थाने पांच हस्व अक्षर वोलवाजेटलो काळ शैलेशी अवस्थाने अनुभवीने अकर्म थाय छे. हवे, उत्तरप्रकृतिओनु छतापर्यु-अछतापणुं बतावे छे. ज्ञानावरणीय, तथा अंतराय ते दरेकनी पांच पांच भेदनी प्रकृति चौदे जीवस्थानमां होय छे. तथा, चौद गुणस्थानमा मिथ्यादृष्टिथी मांडीने वारमा गुणस्थान सुधी पांचे प्रकृतिओ होय छे, तेमां बीजो विकल्प थतो नथी; तथा, दर्शनावरणीयनां त्रण सत्कर्मनां स्थान छे. (सत्कर्म एटले सत्ता छे.) पांच निद्रा, अने चार दर्शन, ए नव प्रकृति सर्व जीवस्थानमा रहे छे. (१) अने गुणस्थानमा अनिवृत्ति वादरकाळना संख्येय | भाग सुधी होय छे. (२) केटलाक संख्येय भागना अंतमां थीणद्धिनिद्रात्रिक क्षय थवाथी छ कर्मवाळु वीजुं स्थान छे. त्यारपछी, क्षीणकपायना अंत समयना पहेला समयमा निद्रा अने प्रचला, ए बेना क्षय थवाथी चार कर्मनुं स्थान छे. अने ते पण क्षय थवाथी क्षीणकपाय काळना अंतमां त्रीजुं स्थान छे. : Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४४६॥ वेदनीय-कर्मनां वे सत्तास्थान छे. ते आ प्रमाणे: (१) साता अने असाता बन्ने होय. (२ तथा बन्नेमांथी एक साता, अथवा असाता ज्यारे पोते शैलीशी अवस्थामा सौथी छेल्लाल समयना पहेला समयमां मोक्ष जवाना काळभां होय; त्यारे कोइपण एक साता के, असाता भोगवे ते वीजुं स्थान छे. मोहनीयकर्मनां । पंदर सत्तास्थान छे ते आ प्रमाणे:- . (१) सोळ कपाय, नव नो कपाय अने त्रण दर्शन होय, त्यारे सम्यक्ष्टि जीवने अठ्ठावीश प्रकृति होय छे.. (२) सम्यक्स.वमतां मिश्रदृष्टिए सत्तावीश होय छे. (३) स्वभावथी अनादि मिथ्यादृष्टि होय; अथवा चे दर्शन वमतां छवीश होय (४) सम्यक्दृष्टिने अट्ठावीश प्रकृतिमाथी अनंता-1 नुबंधी चार कपाय वमतां अथवा, क्षय यतां चोवीश होय. (५) तेनेज मिथ्यात्व क्षय यतां २३ (६) मिश्रदृष्टि क्षय थता २२ (७) क्षायिक सम्यक्दृष्टिने २१ (८) अप्रत्याख्यान अने प्रत्याख्यान-कषाय जतां १३ (९) कोइपण एक वेद क्षय यतां १२ (१०) बीजो टी वेद क्षय यतां ११ (११) हास्यादि छ दूर थतां ५ (१२) पुरुषवेदना अभावमां ४ (१३) संज्वलन क्रोध क्षय थतां ३ [१४] मान व क्षय थतां २ (१५) मायाक्षय थतां ए एक लोभ रहे. . अने ए लोभ दूर थतां मोहनीय सत्ता पण गइ. ___सामान्यथी आयुष्य कर्मनी सत्तानां ये स्थान छे ते आ प्रमाणे:-(१) परभवना आयुना बंधना उत्तर काळमां बे आयुष्य होय; अने तेना बंधना अभावमां जे आयुमा होय; तेज़ वीजें स्थान छे. ॥४६॥ S-CREAC-ACCESGRASie .' Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥४४७॥ AAAAAA-AR नामनां बार स्थान कहे छे. नामकर्मनी प्रकृतिनां बार सत्तास्थान छे, ते आ प्रमाणे: सुत्रम् - (१) ९३ (२) ९२ (३) ९१ (४) ८८ (५) ८६ (७) ७९ (८) ७८ (९) ७६ [१०] ७५ [११]९ [१२] ८ तेनी विगतः- गति चार, पांच जाति, पांच शरीर, पांच संघात, पांच बंधन, छ संस्थान अंगोपांग त्रण, संहनन छ, वर्ण पांच, गंध बे, रस ॥४४७॥ पांच, आठ स्पर्श, अनुपूर्वी चार. अगुरु लघु, उपघात, पराधात, उछ्वास आतप, उद्योत. ए छ तथा प्रशस्त अने अप्रशस्त, ए चे विहायोगति, तथा प्रत्येक शरीर, त्रस, शुभ, सुभग, सुस्वर सूक्ष्म, पर्याप्त स्थिर आदेय अने यश आ दश शुभ छे अने तेनाथी उलटी बीजी दश अशुभ छे. कुल २० तथा निर्माण अने तीर्थकर एम वधी मळीने नाम कर्मनी ९३ प्रकृति छे. तेमांथी तीर्थकर नामना अभावमा ९२ छे अने आहारक शरीर संघात बंधन अंगोपांग ए चारना अभावमां ९३मांथी ४ बाद ४ करतां ८९ छे तेमांथी पण तीर्थकर नामकर्म बाद करता ८८ तथा देवगति तथा अनुपूर्वी वमेली बाद करतां ८६ अथवा नरकगति ! योग्य बांधतां तेनी गति तथा अनुपूर्वी तथा वैक्रिय चतुष्ट बांधनारने ८० साथे आ छ मेळवनां ८६ छे तथा,देवगति पायोग्य बांधनारने पण ८६ छे अने नरक गति तथा अनुपूर्वी मळी बे तथा वैक्रिय चतुष्क चार-ए छ वमता ८० रहे छे. बळी मनुष्यगति अनुपूर्वी बन्ने वमतां ७८ छे. आ अक्षपक जीवोनां कर्मनां सत्ता स्थान छे अने हवे क्षपकवाळानां कहे छे. ९३ प्रकृतिमांथी नरक तिर्यक गति तथा अनुपूर्वी बन्नेनी मळी तथा १, २, ३, ४, इन्द्रिय जाति मळी चार तथा आतप लि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचा० सूत्रम् १४४८॥ ॥४४॥ CAGLEGESSIS 5 उद्योत स्थावर सूक्ष्म साधारण मळी कुल १३ प्रकृति क्षय थता ८० प्रकृति रहें छे तथा तीर्थंकर नाम न होय तो ९२मांथी १३जतां ७९छे. तथा आहारकचतुष्टय दूर थतां ९३ मांथी ८९ रहे अने तेमांथी नारकी विगेरे संबंधी १३ दूर थतां ७६ रहे अने तीर्थकर नाम न होय तो ८९ मांथी १ दूर थतां ८८ रहे अने तेमाथी १३ जतां ७५ रहे छे. तेमा ८० अथवा ७६ माथी तीर्थकर केवळी शैलेशी अवस्थामां पहोंचेलाने छेल्लाना पहेला [द्विचरम] समयमां तीर्थंकर नाम ६ कर्म उमेरवाथी वेदाती नव कर्म प्रकृति सिवायनी प्रकृति दुर थतां बाकी अंत समये नव प्रकृति सत्तामा रहे छे ते कहे छे. [१] मनुष्य गति [२] पंचेन्द्रिय जाति [३] त्रस [४] वादर [५] पर्याप्तक [६] सुभग [७] आदेय [८] यशकीर्ति [९] तीर्थ-/४ कर ए नव सिवायनी बाकीनी ७१ अथवा ६७ द्विचरम समयमां नष्ट थाय छे अने तीर्थकर सिवायना केवळीने आठ होय छे एटले तेने तीर्थंकर नाम छोडीने बाकीनी आठ प्रकृति सत्तामां होय छे आ तेनुं छेल्लं स्थान छे [त्यार पछी मोक्षमा जतां एक पण प्रकृति 6 नथी गोत्रनां वे सत्तास्थान छे. उंच नीच गोत्रना सद्भावमां एक सत्तास्थान छे तथा अग्निकाय अने वायुकायने उंच गोत्र वमतां । | मलिनभाववाळी अवस्थामां फक्त नीच गोत्रनी सत्ता रहे छे. अथवा अयोगी गुणस्थाने द्विचरम समये नीच गोत्रनी सत्ता दूर थतां 8 उंच गोत्र एकल रहे छे एटले बे गोत्रनी अवस्थामा प्रथम सत्ता स्थान छे अने बनेमांथी एक होय ते वीजुं सत्ता स्थान छे अंतरायनी पांचे प्रकृतिओ साथे दुर थती होवाथी तेनुं जुएं वर्णन बताव्युं नथी.) आ प्रमाणे कर्मोनी सत्ता जाणीने साधुए ते सत्ताने दूर करवा प्रयत्न करवो. वळी बीजूं कहे छे, ॐॐॐॐॐॐॐ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४९॥ IF कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सवं सामायाय 'दोहि' अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिन्नाय 'मेहावी' आचा विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिकमि ज्जासि ॥सूत्र ११०॥ तिबेमि शीतोष्णीयोदेशः? । सूत्रम् कर्मनुं मूळ कारण मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योग छे एने समजीने क्षण एटले हिंसा ते पाणीओने दुःख देवारुप कृत्य ॥४४९॥ । कर्मनुं मुख्य मुळ समजीने छोडg. पाठांतरमा 'कम्ममाहू' पाठ के तेनो अर्थ आ छे के उपादान क्षण आ कर्मना छे ते क्षण कर्म छे ते कर्म मेळवीने तेज क्षणे निवृत्ति करे तेनो भावार्थ आ छे अज्ञान प्रमाद विगेरेथी जे क्षणे कर्मना हेतुरुप अनुष्ठान कर्यु तेज क्षणे चित्त स्थिर करीने तेना Pउपादान हेतुने निवृत्ति करे (जेनाथी कर्म बंधाय तेने छोडे अथवा तेनी गुरु पासे शीघ्र आलोचना ले) वळी उपदेश करे छे पूर्वे 18 कहेलां कर्मने समजीने तथा कर्मना विरुद्ध (कर्म हणनार) गुरुनो उपदेश सांभळीने जे रागद्वेष अंतरुपे छे तेनाथी दूर रही अथवा तेनो संवन्ध छोडीने अथवा कर्म उपादाननां कारण रागादिकने ज्ञ परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे तजे अने रागादिथी मोहित लोक अथवा विषय कपाय लोक जाणीने तथा विषयनी वांछा अथवा धन उपर ममत्वभाव छोडीने मर्यादामा रहेलो ते मुनि संयम-अनुष्ठानमा प्रयत्न करे; अथवा विषयतृष्णा, अथवा छरिपुवर्गने. अथवा आठ कर्मने आवतां अटकावे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं कहुं छु. शीतोष्णीय नामना अध्ययननो पहेलो उदेशो समाप्त थयो. RAPECIA9-%ES Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥४५॥ ॥४५०॥ बीजो उद्देशो पहेलो उद्देशो कह्या पछी बीजो कहे छे. तेनो संवन्ध आ प्रमाणे छे:-पहेला उद्देशामां भाव सुतेलावताव्या; अने अहीं तेओना ५ सुवाथी “दुखि पडवानु" फळ बतावे छे. एस ते बन्नेनो संवन्ध छे, सूत्र अनुगम होवाथी सूत्र कहे छे: जाइं च बुद्धिं च इहऽज्ज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह साय, तम्हाऽतिविजे परमंतिणच्चा, संमत्तदंसी न करेइ पावं ॥१॥ जाति एटले, जन्मथी लइने वाळकुमार-यौवन बूढापा सुधो वृद्धि छे, ते मनुष्यलोकमां, अथवा संसारमा इमणांज (काळना विलंब विना) तुं जो. तेनो सार आ छे के गुरु शिष्यने कहे छे के-हे भद्र ! हमणां जनमता जीवोने बूढापासुधीमां शरीर मन है संवन्धी केवां केवां दुःखो भोगवाय छे ते तु विवेक चक्षुथी जो, का छे केजायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइ मप्पणो ॥१॥ जनमता माणसन जे दुःख छे, ते माणसने मरमी वखते पडतां दाखथी ते तपेलो होवाथी पूर्वथी जाती पण विसरी गयो छे. विरसरसियं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निप्फडइ । माऊए अप्पणोऽविअ वेअणमउलं जणेमाणो ॥२॥ माना चावेला आहारने गर्भमां बेठेलो वाळक परवश थइने खाय छे, अने पोते जनमती वखते पोताने तथा, माताने घणी त पीडा आपीने योनिद्वारा बहार नीकळे छे. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४५१॥ . ही भिण्णसरो दीणो विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खीओ वसइ, संपत्तो चरिमं दसं ॥३॥ अने ते वृद्धावस्थामां हीन - भिन्न (खोखो) अवाज होय छे. रांकडं मुख तथा विपरीत विकल्प करनारो दुर्बळ दुःखी अवस्थामां ते पडेलो होय छे, अथवा हे आर्य ! एवं महावीर प्रभु गौतमने कहे छे, के जाति वृद्धि अने तेनुं मूळ कारण कर्म तथा कार्य दु:ख छेतेने जो, अने देखीने बोध पाम, अने तेवुं जन्म विगेरेनुं दुःख तने न आवे, एवं संयम अनुष्ठान कर. art चौद प्रकारना भूत ग्राम (जीवोनां चौद स्थान) छे. तेजी साथ तारा आत्मानुं सुख सरखाव एटले जेम तुं सुखने बांछे छे तेम बधा पण बांछे छे अने तने दुःख गमतुं नथी तेमं बीजानुं पण समज, तेथीं तुं कोइने दुःख न दे तो तेथी तने जन्मादि दुःख नहि मळे. कहां छे केः यथेष्टविषयाः सातमनिष्टा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं न कुर्यादप्रियं जने ॥ १ ॥ जेवी रीते तने इन्द्रियोना रस व्हाला छे अने अनिष्ट अप्रिय छे एवी रीते जाणीने वीजाने अमिय कृत्य न करतो. शिष्य पूछे छे तो शुं कर? उ०- जाति वृद्धि सुख दुःख देखीने तत्व बतावनारी श्रेष्ट विद्याने जाण, अने जे तत्व जाणेला होय, ते मोक्ष अथवा परम ज्ञान विगेरे अथवा मोक्ष मार्गने जाणीने सम्यक्त्वदर्शी बनीने पाप न करे, अर्थात् सारो साधु पाप व्यापार न करे. हवे पापनुं मूळ संसारी स्नेहना पासो छे, ते छोडवा उपदेश आपे छे, उम्मं च पासं इह मच्चिएहिं, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी; कामेसु गिद्धा निचयं करंति, सं सूत्रम् ॥४५१ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४५२॥ सिच्चमाणा पुरिति गर्भ सूत्र. २॥ काव्य आचा० आ चार प्रकारना कपाय तथा विषयना विमोक्षमां समर्थ आधार रुप मनुस्य लोकमां संसारी मनुष्यो साथे द्रव्यथी तथा भा वथी बने प्रकारे जे पाश (मोहजाळ) छे, तेने सर्वक्षा छोड; कारण के ते जन समूह काम भोगनी लालसावाळो छे तथा ते मेळववा है ॥४५२॥! माटे जीव हिंसा विगेरे पापा आरंभे छे. तेथीज सूत्रमा कयुं छे के ते आरंभथी जीववावाळो छे, अने महारंभ परिग्रहथी रचना 18 करीने जीवननो उपाय योजे छे, तथा उभय एटले शरीरना तथा मन संबंधो अथवा आ लोक तथा परलोक संबन्धी (भोगाकांक्षी): छे, वळी ते काम भोगमां रक्त थइने अशुभ कर्मनो उपचय करे छे. अने ते कर्म संचय करीने एक गर्भथी नीकळी वीजा गर्भमा 18 प्रवेश करे छे. अने संसार चक्रवाळ (चक्रावा) मा अरटनी घटमाळ जेम भराय अने ठलवाय ते न्याये जुनां कर्म भोगवे, अने फरी नवां बांधीने भ्रमण करे छे. वळी ते अनिभृत (विना विचारनो) आत्मा केवो (दुष्ट) थाय छे ते कहे छे. 1d अविसे हासमासज्ज, हंता नंदीति मन्नई अलं बालस्स संगण, वेरं वढेइ अप्पणो (सू० ३) काव्य. लज्जा भय विगेरेना निमित्तथी चित्तना विप्लववाडं जे हास्य (हांसी) छे, तेने मेळवीने इच्छा प्रेमी बनी (क्रीडानी खातर) 18 जीवोने हणी [शिकारमां] आनंद माने छे, अने वीजाओने फसाववा ते महा मोहथी घेरायलो अशुभ विचारवाळो बोले छे के "आ है मग विगेरे पशुओ शीकारने माटे बनाव्यां छे, तथा शिकार सुखी पुरुषोनी क्रीडा माटे छे.” जेवी रोते जीव हिंसा सिद्ध करे छे. IA तेम जुठ चोरीमां पण सिद्ध करे के. आ जुटुं बोली ठगq के चोरी करवी ए तो बुद्धि बल तथा बहादुरी काम छे विगेरे समजी / ॐARLS Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम् ॥४५३॥ ले जो आवी रीते संसारी मनुष्यो पाप करनारा छे. तो साधुए शुं करवू, ते आचार्य कहे छे.' आचा० के जे मनुष्यो शिकारी विगेरे होय, अथवा बिषयय कषायमां रक्त होय, तो तेवा बालजीव साथे हास्यादि तथा सग न करवो जो पापीनो संग करे तो माहोमांहे. लडाइ.थतां वैर वचे छे, अने परस्पर वैर लेवानो प्रसंग आवे छे. जेमके गुणसेन राजाए जुदी ॥४५३॥ जुदी रीते करेला हास्यना कारणे अग्निशर्मा ब्राह्मण साथे वैर वधीने नव भव मुधी चाल्यु. [समरादित्य चरित्रमा तेनी कथा छे के में अग्निशर्मा ब्राह्मण- कुरुप जोइ राजकुमार गुणसेने तेनी हांसी करी. तेथी ब्राह्मणे कंटाळी तापस बनी तप करी विख्यात थयो. अनुक्रमे गुणसेन राजा बनी ते तापस पासे आव्यो पूर्वनो वात सांभळी राजाए क्षमा चाही पारणामां जमवाजें आमन्त्रण कर्यु. त्रणे वार आमन्त्रण वखते राजा भूली.गयो. अने तापस पाछो गयो. तेथी तापसने आ दरेक वखते हांसी लागी, अने वैर लेवार्नु निया| कयु. गुणसेन ते समरादित्य थयो. अने नव भव सुधी तेनी साथे तापसनुं बैर रघु, माटे हांसी न करवो, तेम हांसी कर नारनो संग पर न करवो] एज प्रमाणे विषय संग विगेरेमां पण दुःख अने वैर वधवानुं जाणी तेवाओनो संग न करवो. जो एम 15/छे, तो साधुए शुं करवू ? ते कहे छे. तम्हातिविजो परमंतिणच्चा, आयंकदंसो न करेइ पावं, अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, . पलिच्छिदियाणं निकम्मदंसी (सू० ४) काव्य. बाळ (पापी) नी संगतिथी वैर वधे छे, तेथी अति विद्वान् (गीतार्थ) मुनि परम एटले मोक्षपद अथवा सर्व संवररुप चारित्र artACA ॐ - - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४५४॥ अथवा सम्यग ज्ञान अथवा सम्यग दर्शन [ए त्रणे उत्तम होवाथी] तेने जाणीने शुं करे ते गुरु कहे छे. आनक दर्शी -- आतंक ते नरक विगेरेनां दुःख छे. तेने (हृदय चक्षुवडे) देखवाना स्वभाववाळा ते आतंकदर्शी छे. ते कहेला पापोना अनुबन्धरूप अशुभ कर्मने करतो नथी. तेम पाप करावे पण नहि, तथा अनुमोदतो पण नथी; वळी गुरु उपदेश आपे छे, के. अग्र-चार अघाति कर्म जे भवोपग्राही छे, ते अग्र छे, अने मूल - ते चार घातीकर्म छे. ते मूळ छे. (अथवा बीजीरीते लइए तो) मोहनीय कर्म मूळ छे. बाकीनां सात कर्म अग्र छे. अथवा मिथ्यात्व मूळ छे. बाकी बधी प्रकृति अग्र छे. ए प्रमाणे वधां अग्र तथा मूळ कर्मने दूर कर आ सूत्रथी एम सूचव्युं के कर्म ते पुद्गलनो समूह छे. तेनो सर्वथा क्षय थतो नथी, पण योग्य अनुष्ठान करवाथी आत्माथी सर्वथा दूर थइ शके छे. मोहनीयनुं अथवा मिथ्यात्वनुं वधां कर्ममां मूळपणुं केवी रीते घटे छे ? आम जो कोइने शंका होय तो आचार्य कहे छे के तेना कारणे बाकीनी वधी प्रकृतिओनो बंध पडे छे. कहां छे के न मोहमतिवृत्य बंध, उदितस्त्वया कर्मणां न चैकविध बंधनं, प्रकृतिबंधविभवो महान् ॥ अनादिभव हेतुरेष, न च बध्यते नासकृतः त्वयाऽतिकुटिला गतिः कुशल ! कर्मणां दर्शिता ॥१॥ हे कुशल प्रभो! तमे कर्मोनो बन्ध मोह विना बताव्यो नथी, अने ते मोहनुं अनेक प्रकारनुं बन्धन छे अने प्रकृतिनो महान विभव छे; अने आ मोह अनादि भवनो हेतु छे. अने ते अनेकवार बन्धाय एम नथी. पण वारंवार बन्धाय छे. एथी कर्मेनी कु सूत्र ॥४५ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 सूत्रम् ॥४५५॥ टिल गति आपे बतावी छे! तेज प्रमाणे आगम कहे छेआचा० कहपणं भंते जीवा अट्ट कम्मपगडीआ बंधति,? गोयमा! णाणावरणिजस्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्मं नियच्छइ, दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणीयं कम्मंनि यच्छइ, दसणमोह॥४५५॥ णिज्जस्स उदएणं मिच्छत्तं नियच्छइ मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं एवं खलु जीवे अठकम्मपगडीआ बंधइ॥ हे भगवान! जीवो केवी रीते आठ कर्म बांधे छे ? हे गौतम! ज्ञानावरणोयना उदयथी दर्शनावरणीय कर्म वांधे छे, दर्शनावरFणीय कर्मना उदयथी दर्शनमोहनीय कर्म बांधे छे, अने मिथ्यत्वना उदयथी आठे कर्मप्रकृतिओ बांधे छे, तेवी रीते क्षय पण, मोहPनीयकर्मना क्षय साथेज क्षय थाय छे. कडुं छे के:नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणस्सई। एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिज्ज खयं गए ॥१॥ नायक हणावाथी जेम; सेना नाश पामे छे, तेवी रीते मोहनीयकर्मनो क्षय यवाथी बीजां सात कर्मो नाश थाय छे. अथवा मूळ ते असंयम अथवा कर्म छे, अने अग्र ते संयम तपसा अथवा मोक्ष छे, ते मूळना अग्रमा अक्षोभ्य (अचळ) धीर तुं था; अथवा बुद्धि ए शोभायमान एवा शिष्यने गुरु कहे छ:-हे धीर; विवेकथी असंयमने दुःखD कारण तथा, संयमने सुखना कारणपणे मान, तथा तप अने संयमवडे राग विगेरेनां बन्धन अथवा तेनां कार्य जे कर्म छे, तेने छेदीने कर्मरहित तुं बन; एटले तुं पोताना आत्माने कर्मरहित बनाव. एवा स्वभाववाळो निष्कर्मदर्शी कहेवाय छे. अथवा, मोहनीयकर्म क्षय थतां ज्ञानदर्शननां आव AAAAAAA% Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ४५६ ॥ रण दूर थतां, ते सर्वदर्शी, तथा सर्वज्ञानी थाय छे, अने कर्मर हित थयलो, अथवा सर्वज्ञ वनेलो बीजुं शुं मेळवे छे ते कहे छे:एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समि सहिए सयाजए कालकंखी परिवए, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं (सू० १११) ए सर्वज्ञ साधु मूळ अने अग्रनो रेचक [कर्मने तोडनारो] बनीने निष्कर्मदर्शी कहेवाय छे, ते मरणथी मुकाय छे, कारण के घातीकर्मे | दुर थवाथी अघातीकर्ममा रहेलं आयु नवा भवनुं बंधातुं नथी, अथवा वारंवार मरखुं, अथवा क्षणे क्षणे मरतुं ए मरणथी मुकाय छे अथवा वधोज आ संसार मरण युक्त छे तेथी पोते मुकाय छे वळी ते, मुनि संसारमा रहेलो भय, अथवा संसार संबंधी सात प्रकारनो भय तेने देखे छे, के (संसारीने आवा भयो आवे छे.) ते दृष्टभय कहेवाय छे, वळी ते छ द्रव्यना आधाररूप- लोक अथवा, चौद जीवस्थानवाळो लोक छे तेमां परम जे मोक्ष छे. अथवा तेनुं कारण संयम छे तेने देखवाना स्वभाववाळो होय ते परमदर्शी छे तथा स्त्रीपशु नपुंसक साधुना ब्रह्मचर्यने घात करनार छे, तेनाथी रहित एवा मकानमां रहे छे, ते द्रव्यथी विविक्त कहेवाय. तथा रागद्वेषथी रहित निर्मळ चित्त राखवाथी भावथी विविक्त कहेवाय, ते गुणवाळो होवाथी विविक्तजीवी कहेवाय छे. आवो मुनि इंद्रिय तथा मनने शांत राखवाथी उपशांत छे, अने ते पांच समितिथी युक्त होवाथी अथवा सरळ ते मोक्षमार्गे जवाथी समित छे, अने ज्ञान विगेरेथी युक्त छे, "तेम अप्रमादि पण छे. वळी ते मुनि तेवीरीते आखी जींदगी सुधी उत्तम गुणवाळी रहे; ते काळ" आकांक्षी कहेवाय; भने ए ममाणे पंडित मरणनी आकांक्षावाळो संयम - अनुष्ठानमां रहे. सूत्रम् ॥४५६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CLASCIEO- सत्रम ॥४५७॥ ॥४५७॥ 446O.G-CA आq शामाटे करे ते कहे छे. मूळ उत्तरप्रकृतिना भेदवाळू तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाव, प्रदेश, एम चार प्रकारे बन्धवाळं, तथा बन्ध उदय-सत्तानी व्यव- स्थावाल्लं, तथा बांधg स्पर्श करचो जोडावू, एकपणे मळवू; विगेरे अवस्थावालं कर्म छे अने ते थोडाक काळमां क्षय थाय; तेवू | नथी, तेथी काळ आकांक्षी कयु छे. तेमां बन्धस्थाननी अपेक्षाए मूळ उत्तरमकृतिनुं बहुपणुं बतावीए छीए. जेमके: वधी मूळ प्रकृतिओ अंतर्मुहूर्त सुधी साथे बांधे; ते आठ प्रकारनो कर्मबन्ध छे, अने आयुष्य न बांधे; तो, सात प्रकारनो छे, अने ते आयुने काळ जघन्यथी अंतर्मुहुर्त छे, अने उत्कृष्टथी तेना शिवायनां ३३ सागरोपममा पूर्वकोटीनो त्रीजो भाग बधारे छे, अने सूक्ष्मसंपरायनो मोहनीयकमनो बन्ध दूर थतां, तथा आयुना बन्धनो अभाव थवाथी छ प्रकारनो कर्मवन्ध छे, अने ते जघन्यथी एक समयनो अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहर्त छे, तथा उपशांत क्षीणमोह तथा, संयोगी केवळीने सात प्रकारना कर्मना बन्धनो उपरम थतां एक प्रकारचें सातावेदनीयकर्म बन्धाय छे. ते जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी पूर्वकोडीमां थोडं ओछं छे. हवे, उत्तरप्रकृतिनां बन्धस्थान कहे छे:ज्ञान आवरण, अने अंतरायना पांचे भेदन ध्रुवबंधीपणुं होवाथी एकज बंधस्थान छे, तथा दर्शनावरणीयनांत्रण वधस्थान कहे छे: (१) पांच निद्रा अने चार दर्शन साथे रहेवाथी ते नवेनुं ध्रुव बन्धीपणुं होवथी नवविधनुं एक स्थान छे, (२) तेमांथी थीणद्धि निद्रात्रिक अनंतानुबंधीनी चोकडी साथे दुर थवाथी ते त्रणना बंधनो अभाव थतां छ प्रकृतिनो बन्ध ले (३) अपूर्व करणना संख्येय पगडगडल Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४५८ ॥ भागे निद्रा अने प्रचलानो बन्ध दूर थतां चार प्रकारना दर्शनावरणनो बन्ध रहेवाथी ते त्रीजुं स्थान छे. वेदनीय कर्मनुं एक बन्ध स्थान छे. चाहे साता बांधे चाहे असाता बांधे, पण एक बीजानी विरोधी होवाथी बने साथे न बांधे. मोहनीयकर्मनां दश बन्धस्थान छे. (१) एक मिथ्यात्व १, सोळ कषायो १६, कोइ पण एक वेद १, हास्य रतिनुं जोडकुं अथवा अरति शोकनुं एक जोडकुं तेमांथी एक जोडकुं लेतां ते बे २ तथा भय १, जुगुप्सा २, मळी फुल २२ प्रकृतिनो बंध होय छे. (२) मिध्यात्वनो बन्ध दूर थतां सास्वादनगुणस्थनमां २१ नो बन्ध छे. (३) तेमांधी मिश्रदृष्टि अथवा अरतिसम्यगदृष्टिने अनंतानुबन्धी चोकडी दूर स्वाथी १७ प्रकारनो बन्ध (४) तेमांथी देशविरति गुणस्थाने अप्रत्याख्याननी चोकडीना बन्धनो अभाव थवाथी १३ नो बन्ध छे, (५) तेमांथी ममत्त अप्रमत्त अपूर्वकरणमां वर्तता साधुने प्रत्याख्याननी चोकडी दूर थवाथी ९ नो बन्ध छे. (६) तेमांथी हास्य विगेरेनुं जोडकुं तथा भय जुगुप्सा दूर थवाथी फक्त ५नो बन्ध अपूर्व करणना चरम [ छेल्ला ] समये छे. (७) तेमांथी अनिवृत्तिकरणना संख्येय भाग वीते थके पुरुष वेदना बन्धनो अभाव थतां चारनो बन्ध छे. (८) तेमांथी तेज गुणस्थाने संख्येय भाग गये थके अनुक्रमे क्रोधनो क्षय थतां ३ नो बध छे. (९) माननो क्षय थतां २नो बन्ध छे [१०] मायानो क्षय थतां १नो बन्ध छे त्यार पछी अनिवृत्तिकरणना छेल्ला समयमां मोनीयना बन्धनो अभाव थवाथी अबन्धक छे. सूत्रम् ॥४५८॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আঘাত ॥४५९॥ KES सामान्यथी आयुकर्मनो बन्ध एक प्रकारनो के चार प्रकारना आयुमाथी कोइ पण एकनो बन्ध होय पण वे अथवा त्रण साये बन्धावानो अभाव होवाथी एक बन्ध जाणवो-18 सूत्रम् नाम कर्मनां आठ बन्धस्थान छे. (१) २३ प्रकृति तिर्यंच गतिने योग्य बांधतां थाय छे. ते नीचे प्रमाणे तिर्यंच गति, १ एकेंद्रिय जाति १ औदारिक तेजस | ॥४५९॥ कार्मण शरीरो ३ हुंड संस्थान १ वर्ण गंध रस स्पर्श ४ तिर्यग गतिने योग्य अनुपूर्वी १ अगुरु लघु १ उपघात १ स्थावर १ बादर सूक्ष्ममांथी १ कोइ पण एक, अपर्याप्तक १ प्रत्येक साधारणमांथी एक १ अस्थिर १ अशुभ १ दुर्भग अनादेय १ अयश कीर्ति नाली निर्माण १ एम फुल २३ छे तेनो बन्ध एकेंद्रिय अपर्याप्ताने योग्य मिथ्यादृष्टिने बांधतां होय छे. (२) ते त्रेवीशमां पराघात अने उच्छ्वास मळी एम २५पर्याप्ता एकेंद्रियने वन्ध जाणवो.[अपर्याप्ताने बदले पर्याप्ताने २५ प्रकृति लेवी. (३) एमां आतप अथवा उद्योत एक प्रकृतिनो बन्ध मेळवतां २६ थाय पण साधारणनी जग्याए प्रत्येक अने मूक्ष्मनी जग्याए बादर लेवी. (४) देवगतिने योग्य बांधतां २८ प्रकृतिनो बन्ध नीचे मुजब छे. देवगति १ पंचेंद्रिय जाति १ वैक्रिय तेजस कार्मण त्रण शरीर | ३ समचतुरस्र संस्थान १ अंगोपांग १ वर्ण विगेरे चतुष्टय, ४ अनुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ पराघात १ उच्छवास १ प्रशस्त विहायोगति १ त्रस । बादर १ पर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर अस्थिरमांथी एक, १ शुभ मुभग १ सुस्वर । आदेय १ यशःकीर्ति १ अथवा अयश-कीति निर्माण टीकामां शुभ अशुभमा कोइ पण एक होय छे, एम लख्युं छे. टीपणमां एकली शुभ लीधी A ॐ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेएम कुल २८ नो बन्ध थाय छे.: आचा० (५) तेमां तीर्थंकर नामकर्म उमेरवाथी २९ । (६) हवे त्रीशनो बन्ध बतावे छे. देवगति, १ पंचेद्रियजाति १ वैकिय आहारक शनीर २ अंगोपांग २ तेजसकार्मण २ पहेलु ॐ सूत्रम् ॥४६०॥ संस्थान १ वर्णादि चतुष्क ४ अनुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ पराघात १ उच्छवास १ प्रशस्तविहायो गति १ त्रस बादर पर्याप्त ॥४६॥ ६ प्रत्येक स्थिर शुभ सुभग सुस्वर आदेय यशःकीर्ति ए दशक १० तथा निर्माण १ नाम मळी फुल ३० [७] एमां तीर्थंकर नाम मेळववाथी ३१ थाय छे. टू आ प्रमाणे एकेंद्रिय बेइंदिय त्रेयेंद्रिय नरकगति विगेरे आश्रयी अनेक भेदे बन्धना घणा प्रकारो छे. ते कर्म ग्रंथथी जाणवा. (८) अपूर्वकरण आदि त्रण गुण स्थाने देवगनि पायोग्य बन्धना उपरमथी यश-कीर्तिज फक्त बांधे छे. तेथी एक विधबन्ध छे. त्यारपछी नामकर्मना बन्धनो अभाव छे. पू गोत्रकर्ममा सामान्यरीते उंच अथवा नीचनो एकनो बन्ध छे. उंच अने नीच बन्ने विरोधी होवाथी साथे बन्धावानो अभाव छे. कर्मोन आ प्रमाणे बन्धद्वारमा लेशथी घणा प्रकारपणुं बताव्युं. सूत्रकार तेथी कहे छे केः-आ कर्म जीवे बांध्यां छे. ते खुलेखुल्लुं छे, कारणके, ते प्रमाणे भोगवतां दरेकने अनुभवाय छे. है मित्रमा खलु शब्द वाक्यालंकारमा छे अथवा निश्चयअर्थमा छे के, कर्म बहु प्रकारेज छे.] जो आ प्रमाणे छे, तो ते कर्मबन्धनने ल दूर करवा शुं करवू ? ते कहे छे: RECE Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सच्चमि घिई कुवहा, एत्थोवरए मेहावी, सवं पावं कम्मं जोसइ (सू० ११२) आचा उत्तम जीवोने हित करनार ते सत्य छे, अने तेनेज संयम कहे छे. ते संयममा धैर्यता राख, अथवा यथावस्थित वस्तुनुं स्वरूप । सूत्रम् जिनेश्वरे बताववाथी तेमनुं कहेलं मौनींद्र आगम (जैन सिद्धांत) सत्य (तत्व) छे. ते भगवंतना बचनमा उपरत [अतिशय रक्त] बनीने ॥४६१॥ 15 मेधावी [तत्वदर्शी साधु वधां पाप कर्म जे संसार समुद्रमा भ्रमण करावे छे तेने संयम अनुष्ठान तथा तप बढे] क्षय करे छे. आ ॥४६॥ ६ प्रमाणे अप्रमादी साधुना उत्तम गुणो वताव्या ते अप्रमादनो शत्रु प्रमाद छे, ते कषाय विगेरे प्रमादथी प्रमत्त बनेलो केवो दुर्गुणी थाय छे. ते कहे छे. ____ अणेगचित्ते खल्लु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिणए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए (सू० १९३) खेति वेपार मजुरी विगेरे अनेक प्रकारना कार्यमां तेनुं चित्त लागवाथी ते संसारी जीव अनेक चित्तवाळोज छे. एटले संसार सुखनो अभिलाषी अनेक चित्त (चंचळ चित्त) वाळो होय छे. "आ पुरुष" एम कहेवाथी संसारी जीव बताव्यो. अहीं पूर्वे कहेल दधि घटिका अने कपिल दरिद्रीनो दृष्टांत कहेवो.. (उत्तराध्ययन सूत्रमा कपिलनो दृष्टांत वतावेल छे.) हवे जे अनेक चित्तवाळो छे ते शुं करे छे, ते वतावे छे. द्रव्य केतन एटले चालणी पूरनारो अथवा समुद्र छे. अने भाषकेतन ते लोभनी है इच्छा छे. एटले पूर्वे कोइए पण भर्यु नथी, तेने पोते भरवा इच्छे छे, तेनो सार आ छे के पैसाना लोभमां शक्य अथवा -- SACREECECRECA-A-% - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् HD अशक्य कार्यमां विचार्या विना अशक्य अनुष्ठानमा वर्ते छे, अने लोभनी इच्छा पूरण करवामां व्या- कुल मतिवाळो बनीने आचा० शुं करे छे, ते कहे छे ते लोभीओ बोजा पाणीओना वधमां तत्पर थाय छे, अने बीजा जीवोने शरीर तथा मन संबंधी परिताप करावे छे तेज प्रमाणे वे पगवाळां मनुष्य चार पगवाळां मनुष्य पशु विगेरेनो संग्रह करे छे, तथा जानपद एटले जन ॥४२॥1 पदमां थएला काळ प्रष्ट विगेरे अथवा राजा विगेरेनो वध करवा तैयार थाय छे, अथवा लोकोनी निंदा माटे कृत्य करे छे, ६ एटले आ चोर छे एम वीजानी चुगली करे छे, अथवा पारकानां छिद्र उघाडे छे, अथवा मगध विगेरे देशो जीतवा यत्न करे छे (मूळ सूत्रमा क्रियापद नथी लीधुं ते लेवू) आ प्रमाणे लोभीआ मनुष्यो वध विगेरे क्रिया करे छे के बीजं पण पण करे छे ते वतावे छे. आसेवित्ता एतं (वं) अहें इचेवेगे समुटिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं णच्चा, अणणं चर माहणे, से नछणे न छणावए छणंतं नाणु जाणइ, निविंद नंदि, अरए पयासु. अणा मदस्तिनिसपणे पावेहिं कम्मेहिं (सू० ११४) उपर बताव्या प्रमाणे बीजा जीवोनो वध करवो, संग्रह करवो, तथा बीजा जीवोने दुःख देवु विगेरे पाप करीने पोताना लोभनी इच्छा पूर्ण करीने केटलाक मनुष्यो भरतचक्रवर्ती विगेरे (ते जीवोना थता दुःखने नजरे देखीने वैराग्य पामीने) मन वचन है कायाना दुष्ट व्यापारने धिक्कारी शुभ व्यापारमा एटले संयम अनुष्ठानमा यत्न करे छे अने महान तपश्चर्या करवाथी तेज भवमां E4 %E -E- %E2 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४६३॥ मोक्षमां जाय छे, अने ते प्रमाणे विचारी संयम अनुष्ठानमा वर्तीने काम भोग तथा हिंसा विगेरे आस्रवद्वारने त्यागीने शुं करवु ते आचा०है कहे छे. जेणे भोग त्याग्या ते माणसे प्रतिज्ञा करीने बीजी वखत भोगना लालचु न थवं, अथवा जुठ अथवा असंयममा वर्तवु नहि. कारण के पांच इंद्रियोना स्वादने खातर असंयम सेवे छे पण ते विषयो सार विनाना छे कारण के जे सार वस्तु छे ते मेळववाथी ॥४६३॥ तृप्ति थाय छे पण जे वस्तुथी तृष्णा वधे तेथी ते निःसार छे, एवं देखीने तत्व जाणनारो साधु विषय अभिलाष न करे, आ मनुष्योना विषयरसो असार छे, अने अनित्य छे एटलुंज नहि पण देवताओर्नु पण विषय सुख तथा जीवित अनित्य छे ते वतावे छे. उपपान (उत्पन्न) थर्बु, च्यवन (नाश पामवं) ते जाणीने विषय संगना सुखनो त्याग करजे. कारण के विषयसमूह अथवा बधो 18 संसार अथवा सर्वे स्थान अशाश्वत छे तेथी शें करवू ते कहे छे. । मोक्ष मार्गथी अन्य असंयम छे ते अन्यने छोडीने अनन्य ज्ञानादिक छे, तेनुं सेवन कर, माहण एटले मुनि तेने आ उद्देश आप्यो छे. वळो ते मुनि संयम पाळनारो प्राणीओने दुःख न दे, न हणे, न हणावे, न हिंसा करनारने अनुमोदे, आ प्रमाणे हिं18 साथी निवृत थइ चो) व्रत पाळे, ते कहे छे विषयथी उत्पन्न थएल जे आनंद तेने धिक्कार, तथा स्त्री विगेरेमां राग रहित थइने | A आवी भावना भाव, “आ विपयो किंपाक फळनी उपमावाला छे अने कडवा तुरियाना जेवा कडवां फळ आपनारा छे" एम जाभणीने ते विषय सुख लेवाना परिग्रहना ममत्वने त्यागी दे, हवे उत्तम धर्म पाळवा माटे कहे छे. अवम एटले मिथ्यादर्शन अवि रति विगेरे छे तेनाथी उलटुं अनवम एटले संयम छे, तेने देखवाना स्वभाववाळो ते सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्रवाळो थइने उपर | कह्या मुजब तुं स्त्री संगनी चुद्धिने दूर कर. विषयोनी निदा कर, आ सूत्रनो परमार्थ छे. COACROS । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४६४॥ जे अनवमदर्शी छे ते निसन्न छे एटले पाप कर्मोथी खेदी वनीने ते करतो नथी, अथवा पाप कर्मोथी दूर रहे छे. बळी बीजा गुणो मेळववा बतावे छे. कोहामा हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिंदिज सायं लहुभूयगामी ॥१॥ गंथं परिपणाय इहऽज ! धीरे सायं परिषणाय, चरिज्ज देते । उम्मज लधुं इह माणवेहिं, नोपाणिणं पाणे समारभिजा सि तिबेमि ॥ द्वितीय उद्देशकः ३-२ ॥ क्रोध जेमा पहेलो छे ते क्रोधादि कषायो छे. तथा जेनावडे मपाय ते मान, एटले अनंतानुबन्धी विगेरे कपायोना चार भेदो छेते अथवा क्रोध अने मान जे क्रोधनुं कारण छे ते गर्वने साधु हणे अने ते हणनारो वीर छे, तथा जेम द्वेषरूप क्रोध मानने हणे, तेमज राग दूर करवा कहे छे. लोभ पण अनंतानुबंधी विगेरे चार प्रकारनो छे तेनी स्थिति अने विपाकने जो, कारण तेनी स्थिति सूक्ष्म संपराय नामना दशमा गुणस्थान सुधी मोटी छे, अने तेनो विपाक अप्रतिष्ठान विगेरे नरकवासनी प्राप्ति सुधी छे. तेथी सूत्रमांकधुं छे के “गच्छा मणुआ य सत्तमिं पुढवि" माछलां अने मनुष्यो मरीने सातमी नारकी सुधी जाय छे, ते प्रमाणे ते मोटा लोभमां परवश थइने सातमी नारकीमां दुःख भोगवे छे. तेथी शुं कर ते कहे छे जो लोभथी आवुं दुःख छे तो प्राणी वध विगेरेनी प्रवृत्तिथी नरकमां जनुं न पडे माटे वीर पुरुष लोभथी दूर रहे. वळी शोकने सूत्रम् ॥४६४॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४६५॥ -BSI अथवा संसार भ्रमण करावनार भावोतने दूर कर तथा तुं लघु भूत एटले मोक्ष अथवा संयम ते तरफ जनारो लघुभूतगामी था, अथवा लघुभूत थवानी इच्छावाळो लघुभूत कामी बन; फरो उपदेश आपे छे तुं बाह्य तथा अभ्यंतर चे प्रकारे गांठने झपरिज्ञावडे । सूत्रम् | जाणीने हमणांज धीर बनीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे छोड.. ॥४६५॥ P वळी विषय अभिलाष ते संसार प्रवाह छे तेने जाणीने दांत एटले इंद्रियोने दमन करीने संयम पाळ, केवी रीते पाळे ते कहे 8 छे, अहींयां मिथ्यात्वादि शेवालथी आच्छादित संसार कुंडमां जीवरूपी काचवो तुं बनीने श्रुति (ज्ञान भणयु) श्रद्धा तथा संयममां वोर्य जोडीने काचवो जेम तरी आवे तेम तुं तरोजा, मनुष्य सिवाय मोक्ष नथी, माटे मनुष्यपणामां तरवार्नु कयुं पण पाणीनी हिंसाना आरंभनां कृत्यो न करतो, पांच इन्द्रियो त्रण बळ श्वासोश्वास अने आयु ते दश प्राणने धारण करवाथी प्राणी कहेवाय. तेने दुःख 5/न दे, न दुःख देनारां कृत्य कर. आ प्रमाणे शितोष्णीयअध्ययनमां बीजो उद्देशो अर्थरूपे पुरो थयो. सुधर्मास्वामीए जंबुस्वामीने का विगेरे पूर्व माफक जाणवू. मोर्य जोडीने काचवा जम बळ श्वासोश्वास अन अर्थरूपे पुरो थयो. -% % हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. एनो बीजा साथे आ प्रमाणे संबन्ध छे. गया उद्देशामां दुःख तथा तेने सहन करवानुं बताव्युं अने ते सहन न करे तो साधु नहि एटलुंज नही पण संयम अनुष्ठान । करे तथा पापकर्म न करे तोज साधु थाय छे. ते आ उद्देशामां बतावे छे. आ संबन्धवडे आवेला त्रीजा उद्देशाना सूत्र अनुगममा 95 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४६॥ सूत्र उच्चार जोइए. संधि लोयस्स जाणित्ता, आयआ बहिया पास, तम्हा न हंता न विघायए, जमिणं अन्नमन्नआचा० वितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कार सिया? (सू० ११५) ॥४६६॥ द्रव्यर्थी अने भावथी एम वे प्रकारे संधि छे. एटले भीत विगेरेमा फाट पडे ते द्रव्य संधि छे, अने भावथी संधि कर्म विवर &छे एटले दर्शनमोहनीयकर्म जे उदयमां आव्युं ते क्षय थयुं अने चीजें बाकीनुं शांत छे ते सम्यक्त्वनी प्राप्तिरूप भावसंधि छे, ५ अथवा ज्ञानावरणीय विशिष्ट क्षायोपशमिकभावने पामेल ते सम्यग् ज्ञाननी प्राप्तिरूप भावसंधि छे. अथवा चारित्रमोहनीय क्षय है उपशमरूप भावसंधि जे छ तेने जाणीने विचारजे के प्रमाद करवो सारो नथी. जेमके लोकमां चोर विगेरे शत्रुना सैन्यथी घेरायेला लोकमां भीत अथवा बेडी विगेरेमा सांधो अथवा छिद्र देखीने प्रमाद करवो सारो नथी तेज प्रमाणे मोक्षाभिलाषीए कर्म विवर मेळवीने लव क्षण जेवा थोडा काळने पण स्त्री पुत्रनां संसारी सुखनो व्यामोह (प्रेम) करवो सारो नथी; अथवा सांधो तेज संधि छे, ते भावसन्धि ज्ञानदर्शन-चारित्रना परिपालनमां अशुभकर्मना उदयथी फाट पडे; तो पार्छ संघाण करीदेवु. (कुभावने दूर करवो.) आ क्षयउपशमिक विगेरे भावलोकना आश्रयी छे, अथवा मूत्रमा विभक्ति बदलीए; तो, सातमी विभक्ति लेतां लोकमां ज्ञानदर्शन-चारित्रने योग्य लोक छे, तेमां भावसन्धि जाणीने अक्षुण्ण (सम्पूर्ण) पाळवाने प्रयत्न करवो. CIECREGGEEGirl Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४६७॥ RECECARAARAL अथवा सन्धि एटले अवसर धम अनुष्ठान करवानो आव्यो-छे तेने जाणीने लोक एटले, १४ प्रकारनां जीबोने उपजवाना १४ स्थान छे, तेने जाणोने जीवोने दुःख देवानुं कृत्य न कर. (संधिना प्रण जुदा अर्थ बताव्या. प्रथममा विवर एटले वाकुं सूत्रम् 6 अथवा फाट बताव्यु के, शत्रुथी घेरातां अजसर जोइने प्रमाद न करतां नासीजg; तेम मोह दूर थतां, संसारथी तरीजवू; बीजो अर्थ द॥४६७॥ सांधो बताच्यो. एटले, जेम गृहस्थो घरमा फाट पडे; तो, प्रमाद कर्या विना पुरीदे तेम साधुने पापना उदयथी चारित्रमा दोष x लागे; तो, तरत शुद्धि करीले. त्रीजो अर्थ अवसर को छे. एटले, धर्मना अवसरे धर्म करी बोजा जीवोने दुःख थाय ते कृत्य न करवू एम वताव्यु.) वळी कहे छे के:-हे साधु ! तुं जेम, पोताना आत्माने सुख व्हालुं गणे छे, अने दुःख अमिय माने छे, तेवी रीते बहारनां जीवो उपर पण मानी ले; अने पोताना आत्मा समान मानीने बधां जीवो सुखना वांच्छक, अने दुःखना द्वेषी जाणीने तेओने न थइश; तेम बीजाओथी जुदा जुदा उपायोवडे तेमनो घात न करावीश. जो के, वीजा मतना केटलाक साधुओ जीवदयाने मुख्य मानीने स्थूळसत्त्व (मोटा जीव अथवा हालता-चालता जीव) ने मारता नथी तोपण, तेओ पोताने माटे रंधावीने खाय छे तथा गृहस्थ माफक, वस्तुनो संचय करवाथी तेमना लीधे, सूक्ष्म (नाना जंतुओ, अथवा एकेन्द्रिय) जीवो विगेरे हणाय छे, तेथी तेओ घातक छे, एटले बीजा पासे हणावे छे, अने हणनारनी अनुमोदना करे छे. (माटे साधुए तेवो पण दोष न लागे: माटे, साधु माटे रांधेलो आहार न वापरवो तेम, संचय पण न करवो.) हवे एम बतावे छे के. उपर प्रमाणे त्रण करणथी हिंसा न करवी. तेटलाथी साधु न कहेवाय; पण जेमां, पापकर्मनुं न करवाचं कारण छे. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 532 ॥४६८॥ COACREDGE A ते वतावे छे. अन्योन्य जे शंका अथवा, एकवीजानो भय अथवा लज्जा, ते लज्जावडे अथवा लज्जाने ध्यानमालइने परस्पर आशंका अथवा अपेक्षावडे, पापना उपादानरूप-जे कर्मनुं अनुष्ठान छे, ते साधु न करे; एटलुं पाप न करवाथी मुनि कहेवाय एटले जो, 8. परनी लज्जाथी पाप न करे; तो, ते मुनि कहेवाय? उ०-तेटलाथी मुनि न कहेवाय; पण अद्रोहना विचारवाळो मुनिज निश्चयथी साधु छे. जो, ते प्रमाणे, बीजी उपाधिना वशथी ते निर्मळ भाववाळो न होय; तो मुनि न कहेवो. मुनिपणाना भाववाळो मुनि कहेवाय, एटले, सूत्रमा सरळ शिष्य गुरुने पुछे छे केःकोइ साधु बीजा साधुओना डर अथवा लज्जाथी आधाकर्मादि आहार न ले; तो, ते मुनि भावसाधु कहेवाय के नहि ? आचार्य कहे छे बीजो व्यापार छोडीने सांभळ. बीजी उपाधि जे पापना व्यापाररूप छे, तेने त्यागवाथी भाव साधुपणुं थाय छे, एथी एम समजवू के, अंत:करण निर्मळ 6 करीने साधुनां अनुष्ठान करे; तेज भावमुनिपणुं छे, शिवाय नहि. . ___उपर कहेल अभिप्राय निश्चयनयनो छे. हवे, व्यवहारनयनो अभिमाय कहे छे:-जे सम्यक्दृष्टि छे, अने पंचमहावत लीधेलाल छे, तेनो भारवहन करवामां प्रमाद करीने पण वीजा समान साधुनी लज्जावडे, अथवा गुरु महाराजना भयथी अथवा गौरव (पोतानां 6 उत्तम कुळ विगेरेना कारणे कोइ साधु आधाकर्म विगेरे दोषिव आहार विगेरे छोडी पडिलेहणा विगेरे क्रिया करे; अथवा तीर्थनी शोभा माटे महिनाना उपवास विगेरे लोकप्रसिद्ध क्रिया करे; तो, तेमां तेना मुनिभावपणानुज कारण जाणवू. कारण तेवी धर्मक्रिया करतां परंपराए (धीरे धीरे) तेनी शुभ भावनी उत्पत्ति थशे. SCESSIS Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४६९॥ आ प्रमाणे शुभअंतःकरणना व्यापारथी रहित साधुना साधुपणामां सत् असद्भाव बताव्यो; त्यारे शिष्य पूछे छे के:- निश्च यनयनो मुनिभाव केवीरीते छे ? तेनो विशेष खुलासा शास्त्रकार कहे छे: समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विष्पसाणीए - अणन्न परमं 'नाणी; नो पमाए कायावि । आयगुत्ते सया वीरे, जायामायोइ जावए' ॥ १ ॥ 'विरागं' रुवेहिं गच्छिना महया खुड्डएहि य, आगई गई परिणाय दोहिवि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से न छिनइ न भिज्जइ 'न' डज्झह 'न' मइ कंचण सवलोए (सू० ११६) समभाव ते, समता तेने विचारीने एटले, समतामां रहेलो साधु जे जे करे छे, ते ते कोइपण प्रकारे दोषित आहार विगेरे लज्जा विगेरेथी छोडे; अने लोकमां देखाडवा उपवास विगेरे करे; ते वधु मुनिपणाना भावनुं कारण छे. अथवा, समय ते जैनागम छे, ते आगममां बनावेली विधिए विचारीने संयम - अनुष्ठान करे; ते वधुं मुनिभावनुं कारण छे, एटले आगममां का मा चालीने अथवा, समताने धारण करीने आत्माने प्रसन्न राखे; अथवा, आगम भणीने विचारीने अथवा, समदृष्टि राखीने जुदा जुदा उपायोवडे इन्द्रियो तथा मनना अप्रमाद विगेरेथी आत्माने प्रसन्न करे; अने आत्माने प्रसन्न राखवो; ते संयममा रहेकाथी थाय छे, अने तेमां हमेशा साधुए अममादीपणं भावयु तेज कहे छे: मूळ सूत्रमां 'अणण्ण' विगेरे श्लोक छे तेनो अर्थ कहे छे: सूत्रम् ॥४६९॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० न ॥६७०॥ ACADEEOGAESCREECTEGORK जेनाथी बीजु कंइ मोटुं नथी; ते अनन्य परमसंयम छे, तेने परमार्थ जाणनारो ज्ञानी प्रमादवडे दोष न लगाडे. अर्थात संय-1B मक्रियामा कोइपण वखत प्रमाद न करे. हवे जेम अप्रमादी थवाय ते बतावे छे. सूत्रम् इन्द्रियो तथा मन ए बन्नेनी आत्माने कुमार्गे न जवा दइ गुप्त राखे ते आत्मगुप्त साधु जाणवो, तथा हमेशां यात्रा ते संयम यात्रा अने संयम निर्वाहमां मात्रा बापरे ते यात्रा मात्रा कहेवाय, मात्रानो अर्थ अतिआहार न ले, एटले आत्माने जेवीरीते संय- ॥४७॥ ममां शक्ति रहे पण इन्द्रिओ उन्मत्त न थाय, अने संयमना आधाररूप देहर्नु प्रतिपालन लांबा काल सुधी थाय, तेवीरीते आहार विगेरे वापरे. कर्तुं छे केः आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्यं, स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥१॥ आहार माटे निर्दोष गोचरी वापरे कारण के आहार छे ते प्राणोने धारण करवा माटे छे, अने ते प्राणोतत्वनी जीज्ञासा पूर्ण करवा माटे धारवाना छे, कारण के एवं तत्व जाणवू वारंवार जन्म लेवो न पडे. ___हवे ते आत्मा गुप्तता केवीरीते थाय ते गुरु बतावे छे. विराग एटले मनोहररूप आंखो आगळ आवे, तो पण तेमां प्रेम न करे, अहिं रुप लेवानुं कारण आ छे के ते रुप सुंदर देखतां गमे तेवा, मन खेंची ले छे, तेथी सूत्रमा रुप लीधुं छे, खरीरीतेतो पांचे विषयोमा विरागी बनवू, तथा दिव्य भावन ॐ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४७१॥ ६ रुप होय अथवा क्षुल्लक एटले मनुष्यरुप होय ( देवांगना अथवा सुंदर रुपवाळी स्त्री देखीने ) तेमां ललचाय नहि, अथवा देव | आचा० से संबन्धी के मनुष्य संवन्धी मोटुं नानुं रुप एटले तेमां पण मध्यम रूपवाळी के घणा रूपवाळी देवी के स्त्री होय तो तेमां लल चावू नहिं, अहि “नागार्जुनीया" कहे छे. ॥४७१॥ 15 विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहंमि तियं तियं ॥ भावओ सुटु जाणित्ता, से न लिप्पइ दोसुवि ॥१॥ शब्द विगेरे पांचे प्रकारना विषयोमा तथा बन्ने प्रकारमा एटले जे इष्ट अनिष्ट छे, तेमां हीन मध्यम उत्कृष्टने भावथी एटले ४ परमार्थथी जाणीने रागद्वेषवढे पाप कर्मथी न लेपाय, अर्थात् तेमां रागद्वेप न करे, तेमां शुं आलंबन ले के रागद्वेष न थाय ते कहे छे. आगमन तथा गमन ते तिर्यंच अने मनुष्यने चारे गतिमां आववा जवान छे. तथा देवता नारकीने तिर्यच मनुष्यमांथीज आवq जवु छे, नारकी माफक देवने पण बेज गति अगति छे, फक्त मनुष्यने मोक्ष गतिनो सद्भाव होवाथी पांच गति छे, आ प्रमाणे जीवने गति आगति थाय छे ते विचारीने संसार चक्रवाळमां कुवाना अरटना न्याये भ्रमण छे, ते समजीने अने मनुष्यपणामां मोक्ष मळे छे तेवू जाणीने मुगतिनो अंत लावनार जे रागद्वेष छे तेने दूर करीने आगति गतिने आपनार रागद्वेष जाणीने । ते बन्नेने दूर करी कोइ पण जीवने पोते तरवार विगेरेथी छेदे नहि, तथा भाला विगेरेथी भेदे नहि, तथा अग्नि विगेरेथी बाळे | नहिं तथा नरकगति विगेरे अथवा अनुपूर्वी विगेरे घणी वार विचारीने पोते हणे नहि. अथवा रागवेषनो अभाव थाय तो उपर कहेलां पाप पोतानी मेळे दूर थाय, एटले रागद्वेष छोडनारो मुनि छेदवा विगेरेना Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 4-7- कृत्य पोते न करे, सूत्रमा 'कंचण' विगेरे छे तेनी विभक्ति बदलीने त्रीजीमां अर्थ लइए, तो एम थाय के 'केनचित् कोइपण माणस आचा० । एवो नथी के एवो नथी के आवधा लोकमां रागद्वेष विनानो होय ते रागद्वेषना अभावे छेदे, भेदे, अर्थात् रागद्वेष छोड्या पछी छेदे भेदे नहि. सूत्रम् जो के आ प्रमाणे गति आगतिना ज्ञानथी रागद्वेपनो त्याग थाय छे, अने तेना अभावथी छेदनादि संसार दुःखनो अभाव है। ॥६७२॥ थाय छे, तेवु मुनि जाणे छे, पण वर्तमान सुखछे देखनारा अमे क्याथी आव्या क्यां जइशुं ? अथवा अमने त्यां शुं मळशे, एवो ॥४७२॥ विचार नथी करता, तेथी रागद्वेप करीने नवां कर्म बांधीने संसार भ्रमणनी योग्यता अनुभवे छे. एवं सूत्रकार बतावे छे. अवरेण पुचि न सरंति एगे, किम्मस तीयं किं वाऽऽगमिस्सं । भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमागमिस्सं ॥१॥ नाईयम न य आगमिस्सं, अहं नियच्छन्ति तहागयाउ । विहय कप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥२॥ उपरनी चे सूत्र गाथानो अर्थ कहे छे. पहेलां हुं कोण हतो ? के हुं हाल आवो छु ? एq केटलाक मोह अने अज्ञानथी घेरायेली वुद्धिवाळा जीवो जाणता नथी, एटले आ जीवने नरकादि भवथी उत्पन्न थयेलुं अथवा बाळ कुमार विगेरे वयवाळ एकटुं धयेलं पूर्वन दुःख विगेरे केवी रीते आवेलुं छे ? अथवा, भविष्यमां केवी रीते थशे ? एटले, आ विषय सुखना वांछक, अने दु:खना दवेपी जीवन भविष्यकाळमां शुं थशे.? ते तेओ जाणता नथी; पण जो, कदी तेओना हृदयमां भूत-भविष्यनी विचारणा होत; तो, तेजोने संसारमा रति (आनंद) थात नहीं, का छे केः RECISCOGSTAGE -3-1 -1 -1 - 4 4 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४७॥ 18 केण ममेथुप्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतवं? जो एत्तियपि चिंतइ इत्थं सो को न निविण्णो? ॥१॥ आचात अहीं मारी उत्पत्ति केवीरीते थइ छे? अने अहींथी मारे क्यां जq छे ? जे माणस आटलं पण, अहीं चिंत; तो, तेवो केम ४७३॥ दुःख-संसारथी वैराग्यपाळो न थाय? (अर्थात् थायज!) पण, केटलाक महामिथ्याज्ञानियो कहे छे के-आ संसारमा अथवा मनुष्य-लोकमां जेवीरीते हाल मनुष्यो के, बोजां पाणीओ जेवी अवस्थामा छे, तेवीजरीते भूतकाळमां स्त्रीपुरुष नपुंसक सौभाग्यवाळो, दुर्भाग्यवाळो, तरो, शीयाळ, ब्राह्मण, क्षत्री, विटशुद्र विगेरे भेदोमां भोगवता हतां; अने तेवुज भविष्यमा थवानुं छे. (आ प्रमाणे जैनेतर एकवादीनो मत कह्यो. ते लोको एवं माने छे के जेम जीवो हालनी दशामा छे, तेवा भूतकाळमां हता; अने हवे पछी रहेशे.) (वीजो अर्थ) जेनाथी बीजो पर (श्रेष्ट) नथी ते संयम अपर छे, तेनाथी जेनुं चित्त रंगायलं छे. तेओ पूर्वे भोगवेलां विषयसुख विगेरेने (स्थूलभद्रमुनि माफक) याद करता नथी. केटलाक रागद्वेषथी मुकायला भविष्यना देव संवधी भोगोनी आकांक्षा राखता नथी. वळी आत्मा-रमणतामां रमता मुनिओने अमुक संसारी जीवने भूतकाळर्नु सुखदुःख के, भविष्यनुं थवानुं सुखदुःख लक्ष्यमा रहेतुं नथी; अथवा उत्तम ध्यानमां बेठेला साधुने केटलो काळ वीतीगयो; अथवा केटलो बाकी रह्यो ते पण लक्ष्यमां नथी. ____ अथवा लोकोत्तर पुरुषो जेओ रागद्वेपरहित छे, तेवा केवळी भगवंतो, अथवा चउदपूर्वी मुनिओ संसारी जीवने अनादि अनन्तकाळ सुधी ( अभव्य आश्रयी, अथवा वीजां बधा जीव आश्रयी ) दरेक काळमां सुख विगेरे केटलां इतां, अने आवशे तेनी गणतरी पण कही शकता नथी. SECREC% AA AAAAAA Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥४७॥ PR ॥४७४॥ वीजा आचार्थो नीचे प्रमाणे कहे छे:-(प्रथमनुं सूत्रकाव्य) वीजी रीते कहे छे:आचा० "अवरेण पुदि किह से अनीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे ॥ भासन्ति एगे इह माणवाओ, जह स अईअं तह आगमिस्सं ॥१॥" पूर्व जन्म साथे वीजा जन्मनो सवन्ध जाणता नथी, के केवीरीते अथवा क्या प्रकारे पूर्वे सुख दुःख हतुं, अने भविष्यमां केवो रीते सुख दुःख थशे ते जाणता नथी. अथवा वीजा वादीओ आम वोले छे के.. आमां शुं जाणवानुं छे? जेवीरीते हपणां पूर्वना रागद्वेषथी उत्पन्न थएला कर्मवढे जीवने बन्धायला कर्मनां फळ संसारमा भोगववां पडे छे. तेमज पूर्वे पण हतुं अने भविष्यमा थवा छे, (तेमां वधारे शुं जाणवानुं छे?) ___अथवा प्रमाद्र विपय कपाय विगेरेथी कर्मो एकठां थवाथी इष्ट अनिष्ट विषयोने अनुभवता जीवो सर्वज्ञनी वाणीरुप अमृतना है स्वादने न जाणनारा जेओ छे, तेमने जेम भूनकाळमां संसारमा सुख दुःख अनुभव्यु, तेवू भविष्यमां पण अनुभवशे. पण जेओ संसार समुद्रथी तरवावाळा छे, तेओ कर्मनुं फळ जाणे छे, ते बतावे छे, ते सूत्रना वीजा काव्यमां कडे जे 5 जीवोन संसारमा फरी आवq नथी. तेओ सिद्ध छे, अथवा जेवुज जाणवार्नु छे तेवुज तेमने ज्ञान छे. तेवा सर्वज्ञो छे, तेओ अतीत 6 (जुना) पदार्थने भविष्यना रुपपणे नथी मानता, तथा भविष्यना पदार्थने भूतकाळना रुपपणे नथी मानता, कारण के परिणतिनी । M विचित्रता छे, मूत्रमा “अर्थ" शब्द फरी लेवानुं कारण ए छे के पर्यायरूप बदलाय छे (वाळक जुवान बुढो ए पर्याय छे भने ते CAREEREGER ASALES Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्र बदलाय छे) पण द्रव्यार्थपणे तो त्रणे अवस्थामा एकपणुंज छे (वाळपणमां अने बुढापणमां जीवनो भेद नथी.) सूत्रम् आचाल अथवा अतीत अर्थ ते विषय भोगादिक भोगवेलां अने भविष्य संबंधी देवांगनाना विलासने भोगववानां छे. तेने जेओ राग-181 द्वेषना अभाववाळा छे तेओ याद करता नथी अथवा वांछता नथी. (तु शब्द विशेष बतावे छे) जेम मोहना उदयथी केटलाक पूर्वना P७५॥ ॥४७५॥ अथवा भविष्यना भोगोने वांछे छे, तेम सर्वज्ञ भोगोने इच्छता नथी; अने तेना मार्ग (शासन) मां चालनारा पण एवाज निःस्पृही 31 व होय छे ते बतावे छे, 'विहूय कप्पे. एटले अनेक प्रकारे आठ प्रकारना कर्मने धोनार ते विधृत छे, अने कर्म धोवु ते साधुनो आचार छे, तेवो कल्प पाळनार है साधु विधूत कल्पवाळो कहेवाय, अने तेज सर्वज्ञनो अनुदी कहेवाय छे, अने ते अतीन अनागत विषयसुखनो अभीलापी न होय, वळी तेने बीजा क्या गुणो होय ते कहे छे. पूर्वे बांधेलां अशुभ चीकणां कर्मनो क्षपक एटले नास करनारो छे,अथवा ते भविष्यमां नाश करनारो थशे [मूत्रमा 'निज्मोस । इत्ता' शब्द छे, तेनो अर्थ वर्तमान अने भविष्यनो लीधो छे] कर्म नाश करवाने जे मुनि उद्यम करे ते धर्मध्यान अथवा शुक्ल ध्यान,ध्यानार महा योगीश्वरने संसारना सुख दुःखना ६ विकल्पनो नाश थवाथी हवे शुं थशे ते बतावे छे. का अरई के आणंदे?, इत्थंपि अग्गहे चरे, सव्वंहासं परिच्चज आलीणगुत्तो परिवए, AAAAAAA- 45 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासमाभासत्र ॥४७६। पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि? (सू० ११७) आचा० इच्छित वस्तुनी अमाप्ति अथवा इष्ट वस्तुनो नाश थतां मनमा जे विकार थाय ते अरति छे, अने इच्छित वस्तुनी प्राप्तिमां आनंद थाय छे, आ अरति के आनंद - योगिना चित्तमा होतो नथी, कारणके ते महात्माने धर्मध्यान के शुक्लध्यानमा चित्त ॥४७६।। रोकावाथी तेने संसारी वस्तुनी अरति के आनंद उत्पन्न थवाना कारणनो अभाव छे. तेथी सूत्रमा का के अरति अने आनंद ए शुंछे? (अर्थात् कंइज नथी) पण संसारी जीवनी माफक तेमणे ते विकल्पने राख्यो नथी. - जो आ प्रमाणे होय तो तेवा जीवने असंयममां अरति अने संयममा आनंद तेने होवो जोइए एम सिद्ध थयु, तेनुं आचार्य, समाधान करे छे, के तेवू नथी अने अमारो अभिप्राय तमे समज्या नथी, कारण के जेमां रति अरतिना विकल्पनो अध्यवसाय निषेध कर्यो छे, तो बीजा प्रसंगमां पण रति अरति न होय तेज सूत्रकार कहे छे ए महात्माने अरति अने आनंद बन्ने दूर थवा रूप छे एटले तेमने तेवो आग्रह नथी तेथी ते 'अग्रह' कहेवाय छे, एनो भावार्थ आ छे के उत्तम साधु शुक्ल ध्यानथी बीजे कई रति आनंद कोइ निमित्ते आवे तो पण तेना आग्रह रहित बने, अने ते बन्नेमां मध्यस्थ रहे (संयम अने असंयम व्यवहारथी बाह्य । क्रियारूप छे. शुक्ल ध्यानवाळाने ते बाह्य क्रियाओनी श्रेणीमां जरुर नथी; अने ते ध्यानवाळाने थोडा समयमां केवळज्ञान थवान 6 छे. ते अपेक्षाए आ वचन छे के, संयममा रति, असंयममा अरति न होय; परंतु,शुक्लध्यान शिवायना बीजा आत्मार्थी साधुने तो कंडक होय छे) फरी उपदेश आपे छे, सर्व हास्य, अथवा हास्यनां कारणो तजे; अने, मर्यादामा रही इन्द्रियोने कबजे राखी लीन रहे। SECRECRECEMSRUSit Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४७७॥ तथा मन, वचन, कायानी सावध - क्रिया छोडवाथी गुप्त रहे; अथवा काचवा माफक पोतानुं शरीर संभाळी राखे; के, कोइ जीवने पीडा न थाय; ते संवृतगात्र मुनि छे, अने ते आलीन गुप्त कहेवाय छे, तेवो मुनि साधुनां अनुष्ठाननो बरोबर रीते करे. मुमुक्षु साधुने पोतानां आत्मवळथी संयम-अनुष्ठान फळवालुं थाय छे, पण पारकाना उपरोध ( आग्रहथी) नहीं एम बतावे छे. गुरु शिष्य ने कहे छे:- हे पुरुष! जो, तें ग्रह (घर) पुत्र, स्त्री, धन-धान्य, सोनुं विगेरेथी रहित तृण अने मणि- मोतीमां, तथा ढे सोनामां समानदृष्टि राखनार मोक्षार्थी जीवने पण कदाच उपसर्ग आवतां व्याकुळ मति थतां मित्र विगेरेनी आकांक्षा थाय; तो ते दूर करवा कहे छे: - ( हे शिष्य !) पुरुष एटले, सुखदुःखथी पूर्ण माटे पुरुष अथवा पुरिमां शयन करवाथी पुरुष (जीव) छे, तेमां वधा जीवोमां उपदेश, तथा संयम-अनुष्ठान करवामां मनुष्य योग्य होवाथी तेने आश्रयी कहे छे. एटले सुशिष्य ने कहे; अथवा कोई पुरुष संसारथी खेद पामेलो खराब अवस्थामां होय; अने ते पोताना आत्माने शीखामण आपतो होय; अथवा अन्य भव्यात्माने साधु उपदेश आपे के " हे पुरुष ! हे जीव ! सारां अनुष्ठान करवाथी तुंज तारो मित्र छे, अने पापकर्म करवाथी तुंज तारो शत्रु छे! तोपछी, बीजा मित्र केम शोधे छे? कारण के, उपकार करे ते मित्र छे अने ते उपकारी परमार्थ - दृष्टिए अत्यंत अने एकांत - गुण युक्त सन्मार्गे चालता आत्माने छोडीने बीजो कोइ शोधवो शक्य नथी; अने संसारनां कार्यमा सहायकारीपणे वीजाने मित्रपणे मानवो ते मोहनुं विजृंभन ( चेष्टा ) छे. कारण के संसारीनी मित्रताथी परिणामे मोटा दुःखमां पडवारूप संसार समुद्रमां भ्रमण कराववाथी ते खरी रीते अमित्रज छे! तेनो सार आ छे. !: .. सूत्रम ॥४७७॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - "आत्माज आत्मानो अप्रमत्तपणाथी मित्र छे. कारण के अप्रमत्त आत्मा अत्यन्त एकांत परमार्थ सुख उत्पन्न करे छे. अने आचा० जो आत्मा प्रमादी थाय तो दुर्गतिमां जाय, माटे वीजा मित्रने शोधवानी जरुर नथी. पण आत्मा शिवाय बीजो बहारनो आ मित्र + आ शत्रु एवो विकल्प अदृष्ट उदयना निमितथी औपचारिक छे. कहुं छे के॥४७८॥ दुपस्थिओ अमित, अप्पा सुपस्थिओ अ ते मित्तं ॥ सुहदुक्खकारणाओ, अप्पा मित्तं अमितं च ॥१॥8॥४७८ कुमार्गे गयेलो आत्मा शत्रु छे, सुमार्गे चालनारो मित्र आत्माज छे. कारण के तेथीज दुःख सुख पामे छे अने तेथीज ते | - अमित्र के मित्र छे. वळी का छे के अप्येकं मरणं कुर्यात्, संक्रुद्धो बलवानरिः॥ मरणानि त्वनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् ॥२॥ एक वळवान शत्रु क्रोधायमान थइने घणुं तो एक वार मारी नाखशे, पण कुमार्गे गयेलो आत्मा अनंतां जन्ममरण आपे छे." एटले एम समजवु के निर्वाण आपनार संयमत्रतने जेणे उचर्या अने पाळ्यां ते आत्मानो मित्र छे. हवे आवो पवित्र आत्मा केवीरीते जाणवो अने तेनु शुं फळ थशे. ते कहे छे. जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूगलइयं, जं जाणिज्जा दालइयं तं जाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा! सबमेव समभिजाणाहि, REGENCIESir Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54: 5 सच्चस्स आणाए से उवहिए मेहावी मारं तरइ, सहिओ धम्ममायाय सेयं समणु पस्सइ (सू०११८) || सूत्रम् आचा० जे पुरुष विषय संगनां कर्म जाणीने छोडनार होय तेने तुं तारनारो मानजे; तथा बधा पाप धर्मो (कारणो) ने जे आलय १७९॥ ॥४७९॥ (घर) दूर छे. ते दूरालय (मोक्ष) अथवा मोक्ष मार्ग (संयम) छे. ते मोक्ष मार्ग जेने होय ते दरालयिक छे, हवे हेतु तथा हेतुवालो पदार्थ जणाववा गत प्रत्यागत मूत्र कहे छे. (वीजी रीते) कहे छे, जेने दुरालयिक जाणे तेने उच्चालयिक (तारनारो) जाणे, एनो सार आ छे. जे कर्म तथा आस्रव द्वारनो रोकनार छे तेज मोक्ष मार्गमा रहेलो छे अथवा मुक्त थएलो छ अथवा जे सन्मार्गे वर्तन करे ते कर्मनो काढनारो छे. अने तेज आत्मानो मित्र छे, तेथी कहे छे, हे पुरुष! हे जीव! आत्मानेज ओळखीने धर्मध्यानथी वहार इन्द्रियोना विषयस्वादने लेता मनने रोकीने आ प्रकारे दुःखना पासामांथी आत्माने मुकावजे! ए प्रमाणे कर्मोने दूर करी आत्मा आत्मानो मित्र बने छे. वळी गुरु कहे छे, हे पुरुष! सदाचरणवाळा पुरुषर्नु हित करनार सत्य तेज संयम छे. ते संयमनेज वीजा व्यापारथीज निरपेक्ष तुं वनीने जाण, अने ते प्रमाणे वर्त्तवानी परिक्षावडे प्रयत्न कर, अथवा आज सत्य जाण, के हे शिष्य! गुरु साक्षिए लीधेलां महावतोनी प्रतिIMज्ञानो निर्वाहकया, अथवा सत्य एटले जैनागम, तेनुं संपूर्ण ज्ञान मेळव, अने मोक्षाभिलापीए ते प्रमाणे व्रतोतुं पालन कर. म०-शा माटे? उ०-सत्य जैनागमनी आज्ञा प्रमाणे वर्तीने मेघावी (बुद्धिमान) साधु मार [संसार ने तरे छे. वली सहित ४ ते झानादिथी युक्त अथवा हित सहित श्रुत चरित्र बन्ने प्रकारना धर्म ग्रहण करीने साधु शुं करे, ते कहे छे. CHARACTERS HIRAGSAX Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागद्वेष ए वे प्रकार श्रेय ते पुण्य अथवा आत्महितने बरोवर रीते देखे (ते मोक्ष मेळवे) आ प्रमाणे अप्रमत्त साधु तथा तेना गुणो बताच्या हवे आचा०६ तेथी उलटुं कहे छे. दुहजो जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जंसि एगे पमायंति (सू० ११९) ॥४८०॥ रागद्वेष, ए वे प्रकारे अथवा आत्मा के वीजा माटे अथवा आ लोक परलोक माटे अथवा रागद्वेष ए वे प्रकारे हणायलो अ-18 थवा खराब रीते हणायलो ते द्विहत अथवा दुहेत (दुःखी) होय ते शुं करे छे. ते कहे छे. आ जीवित केलना गर्भ माफक निःसार छे, तथा वीजळीना चळकाटना झवकारा माफक चंचळ छे. तेवा शरीरना परिवदन (वंदन कराववा) मानन (मान मेळववा) तथा । पूजन (पूजावा) माटे हिंसा विगेरे पापोमा प्रवर्ने छे. परिवंदन ते लोको मारा पछ्याडे भमे ते माटे प्रयत्न करे छे, एटले लायक 8 विगेरेना मांसथी मारुं बधुं शरीर पुष्ट तथा सुंदर देखीने लोको खुशीथीज मने बांदशे, तमे श्रीमान् घणा लाखो वर्ष जीवो! विगेरे 6. बोलशे विगेरे परिवंदन छे. तेज प्रमाणे मान मेळववा कर्म बांधे छे के, लोको मारु वळ पराक्रम देखीने अभ्युत्थान, विनय, आ-131 सन दान, तथा अंजलि करी माधुं नमावी मने मान आपशे. ते मान न (मान) छे, तथा पूजन माटे वर्तनारा कर्म आस्रववडे आत्माने बांधे छे. एटले, विद्या भणीने हुँधनवान थवाथी बीजो माणस दान, मान, सत्कार प्रणामवडे मारी सेवा विशेष प्रकारे | करी पूजा करशे, ते पूजन छे, वळी, उपरना निमित्ते, एरले वंदन विगेरे माटे केटलाक जीवो रागद्वेपथी हणायला प्रमाद करे के. पण तेओ पोताना हितने माटे हित (धर्म) करना नथी. एथी उलटुं कहे छे: वा शरीरकते कहे छे. पापामां मवर्ने Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HASHASTRIA ॥४८१॥ सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो ना झंझाए, पासिमं दविए आचा० लोकालोकपवं चाओ मुच्चइ (१२०) तिबेमि तृतीय उद्देशो ॥३-३॥ ज्ञानादि युक्त अथवा हितवालो उपसर्गथी आवेलां दुःख मात्रथी अथवा रोग थवाथी पीडातां व्याकुळ मतिवाळो न थाय ते । दूर करवा प्रयत्न न करे, अथवा इच्छेलं मळतां राग विकल्प नथा अनिष्ट मळतां द्वेष विकल्प न करे, अर्थात रागद्वेष बन्नेने तजे 18 (न सहेवाय तो मध्यस्थ बनी दवा करे, अने स्थविर साधुने योग्य उपायनो निषेध न होवाथी संतोषथी करे) 'वळी उपर कहेला वधा उद्देशाना रहस्यने समजीने करवू न करवू ते विवेकथी समजे! कोण? जे मोक्षमां जवा योग्य छे ते साधु, ए विवेकी साधु क्या गुणो मेळवे? जे आलोकाय (देखाय) ते लोक छे, अने १४ रजु प्रमाण ते छे. लोकमां आलोक ते लोकालोक छे, तेना प्रपंचथी मुक्त ६ थाय छे. लोकमां प्रपच आ छे. पर्याप्त, सुभग दुर्भग तथा नारकीना जीवपणे ओळखाय एकेन्द्रियमां अपर्याप्त, एकेन्द्रिपणे ओळखाय Hए प्रमाणे बधो संसारी प्रपंच जाणवो. तेनाथी मुकाय एटले चौद राजलोकमां जीवोनुं जु, जुदुं रूप तेने मळतां ते नामे गणाय छे. तेवो पोते नहीं थाय, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो अर्थथी समाप्त. LEARNAG-4-% L A Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४८२॥ चौथो उद्देश त्रीजो पुरो थवा पछी चोथो कहे छे तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे. गया उद्देशामां कां के फक्त पाप न करवाथी के दुःख सहन करवाथी साधु न कहेवाय, पण निष्प्रत्युह (अविघ्नपणे) संयम अनुष्ठान करवाथी साधु थाय. ते बतान्युं. अने निष्प्रत्युहता (अविघ्नप) कषायने दूर करवाथी थाय छे. तेथी हवे पूर्वे कट्टेल उद्देशाना अर्थाधिकारवाळु सिद्ध करे छे, तेथी आ प्रमाणे संबन्धे आवेल उदेशाना सूत्र अनुगममां सूत्र कहे छे. संवंता कोह च माणं च मायं च लोभं च एवं पासगस्त दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंत करस्स आयाणं सगडब्भि ( सू० १२१) साधु ज्ञानादि सहित दुःख मात्रथी घेरायलो छतां अव्याकुल मतिवाको आत्मद्रव्य भूत लोकालोक प्रपंचथी मुक्त थया जेवो पोतानुं तथा परनुं हित बगाडनार क्रोधने वमन करनारो छे (बम धातुनो अर्थ दूर करवाना अर्थमां छे तेनो भविष्यकाळ लइए तो वीजी विभक्ति लागे, नहितो छठ्ठी विभक्ति लागु पडे) अर्थात् शास्त्रमां कहेल अनुष्ठानने जे साधु विधि प्रमाणे करे, ते थोडा काळमां क्रोधने दूर करशे ए प्रमाणे बीजे पण समजी लेबुं. एटले पोताना उपघात करनार उपर क्रोध कर्मना विपाकना उदयथी क्रोध थाय, जाति कुळ रुप वळ विगेरे कारणे जे गर्व थाय ते मान छे, परने उगवा रूप विचार ते माया छे. तृष्णाना आग्रहनो परिणाम ते लोभ छे. ते वधाने क्षपणा (कर्म खपाववा) तथा उपशम (शांत करवा ) तेने आश्रयी आ क्रोध विगेरे चारनो अनुक्रम छे. अनं सूत्रम् ||४८२॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानुवन्धी अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी तथा संजवलनी अंदर रहेल भेदो बताववाने माटे जुदा जुदा बताव्या छे, अने चशब्द आचा० मुकवाथी ते दरेकनी उपमा पर्वत पृथ्वी रेणु जळ राजीनी क्रोधनी छे, तथा शैल स्तंभ हाडकुं लाकडं तिनिशलता माननी छे, तथा सूत्रम् वांस कुडंगी (थडीउं) मेष अंग गोमुत्रिका अवलेखनीनी उपमा.मायानी छे, तथा कृमीराग कर्दम खंजन हरिद्रानी उपमा लोभने ॥४८३" छे, तथ आखी जींदगी सुधी एक वरस सुधी चार मास अने पंदर दिवसनी स्थिति अनुक्रमे दरेकनी छे, (आ बधानुं वर्णन आज ॥४८३॥ सूत्रमा पाने छे त्यांथी जोg.) आ प्रमाणे क्रोध, मान माया लोभ त्यागवाथी खरी रीते साधुपणुं छे पण क्रोध होय त्यां सुधी साधुपणुं नथी; कह्यु छे केःसामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उकडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुप्फ व निप्फलं तस्स सामपणं ॥१॥ साधुपणुं पाळता साधुने जो कषायो वधारे प्रमाणमां होय तो शेरडीना फुल माफक तेनुं साधुपणुं हुं निष्फळ मार्नु छु.॥ ___ जं अजिअं चरित्तं देसूणाएवि पूवकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥२॥ पूर्व कोडीमां थोडा वर्ष ओछां एवु ( आटली लांबी मुदतनुं) चारित्र पाळ्युं होय, ते जो उत्कृष्ट क्रोध करे तो ते माणस एक मुहुर्तमां साधुप' हारी जाय छे. आ वधु पोतानी बुद्धिथी नथी कर्जा एबुं बताववा गौतमस्वामी कहे छे के 'एय' विगेरे आ कषाय दूर 1४/ करवानुहमणा उपर बताव्यु, ते बधुं सर्वदर्शी पश्यक साक्षात् देखे छे, कारण के तेने निवारण (केवळ) ज्ञानदर्शन छे, अने ते ४ पश्यक तीर्थकृत् वर्धमना स्वामी छे, अने तेमनुं दर्शन (अभिप्राय मंतव्य) आ छे. ---ॐॐॐ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وم: مرد सूत्रम् - ح - خ ॥४८॥ - د अथवा जेनावडे वस्तु तत्त्व यथावस्थित देखाडाय (कहेवाय) ते दर्शन एटले उपदेश छे, अर्थात् महावीर (वर्धमान) स्वा-2 कहेलुं छे ते हुँ कहं ; पण स्वबुद्धिथी नथी कहेतो, ते सर्वदर्शी पश्यक केवा छे. के जेनुं आ दर्शन छे ते कहे छे, 'उबरय' विगेरे-जेनुं द्रव्य भावथी (सर्व जोबोने दुःख देवारुप) शस्त्र बने प्रकारे दूर थयुं छे, अथवा शस्त्रथी पोते दूर र के, अहीं भावशसमा अरांयम अथवा कपायो जाणवा, तेनाथी पोते दूर छे. तेनो भावार्थ आ छे के: तीर्थकरने पण कपायने वम्या सिवाय निरायण बधा पदार्थने देखनारं परम (केवळ) ज्ञान प्राप्त थतुं नथी, तेना अभावमा मोक्ष सुखनो अभाव छे, एथी बीजो पण मोक्ष वांछक साधु जे तेनो उपदेश माने छे अने तेना मार्ग चाले छे तेणे पण कपायर्नु चमन करबु, शसने उपरमर्नु कार्य बतावा बीजापण तीर्थकरनां विशेपण बतावे छे. 'पलियतकरस्स' एटले वधां कर्मनो अथवा संसा-2 रनो अंत लाववानो जे यत्न दरे ते पर्यंतकर छे, तेनुं आ दर्शन छे. हवे जेम तीर्थकरे संयमने विघ्न करनार कषाय शस्त्रने दूर करी संसारनो अंत कर्यो तेम चीजो पण साधु जे तेनुं कहेलं करनारोल सू, होय ते पण करे, तेवू बताचे छे. 'आयाण' विगेरे जेनावडे आठ कर्म आत्म प्रदेश साथे. एकमेकपणे थाय ते आ दान छे, अथवा हिंसा विगेरे आश्रवद्वार अथवा अढारे पापस्थान छे. 'तेनी स्थितिनुं निमित्त कपायो होवाथी ते आ दान छे. ते कपायोनो वमन करनारो स्वकृत भिद (कर्म भेदनारो) बने छे. अर्थात् पोते (अज्ञानदशामां) पूर्वे जे कर्मों अनेक भवमा एकठां को होय; तेने भेदी नांखे; ते स्वकृतभिद जाणवोः अने जे कर्मोना आदान (वीजरुप)-कषायोने रोके; ते अपूर्वकर्म प्रतिषिद्धमा प्रवेश करनारो छे, अने पोते पोतानां पूर्वकर्मनो ४ ا لا Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ४८५ ॥ भेदनारो छे. तीर्थकरना उपदेशवडे पण, पारकानां करेलां कर्मना क्षयना उपायनो अभाव होय तेथी स्वकृत लीधुं. तेथी तीर्थंकरे पण पारकाना करेला कर्मना खपाववानो उपाय नथी जाण्यो एवी कोइने शंका थाय तेनो उत्तर. एम नथी. कारण के तेमना ज्ञानमां वधा पदार्थोनी सत्ता व्यापीने रहेली छे. (परंतु करे ते भोगवे ए नियमथी दरेके कर्म कापवा उद्यम कर वो जो ए.) शंका — हेय उपदेय पदार्थने छोडबुं ग्रहण करतुं तेंना उपदेशने जाणवाथी सर्वज्ञ नथी एवं अमे कहीए छीए. कारण के उपदेश मात्रथी परोपकार करवाथी तर्थंकरपणानी उत्पत्ति घटती नथी उत्तर युक्तिना विकलपणाथी उत्तम पुरुषना मनने तमारुं कहें आनंद आपतुं नथी, कारणके उत्तम ज्ञान विना हित अहितनी प्राप्ति तथा त्याग उपदेशनो असंभव छे. अने एक पदार्थनुं पण संपूर्ण ज्ञान सर्वज्ञपणा विना घटतुं नथी ते सूत्रकार बतावे छे. जे एगं जाणइ से सबं जाणइ, जे सवं जाणइ से एगं जाणइ (सू० १२२) जे कोइ पण ज्ञानी परमाणु विगेरे एक द्रव्यने तेना पछीना के पूर्वना पर्याय सहित जाणे, अथवा पोताना अथवा पारकाना वधा पर्यायोने जाणे छे; कारण के तेवा पुरुषने अतीत अनागतमां वनेला अने बनवाना पर्यायो सहित द्रव्यने जाणवाथी तेने वधी वस्तुनुं ज्ञान अविनाभावीपणे छे. हवे तेने हेतु तथा हेतुवाळा पदार्थ सहित वीजी रीते कहे छे. जे सर्व पदार्थो संसार उदरमां रहेला छे तेने जाणे छे ते एक घट विगेरे एक वस्तुने जाणे छे, तेज ज्ञानीने अतीत अनागत पर्याय- दोवडे ते ते स्वभावनी आपत्तिवडे अनादि अनंतकाळपणे समस्त वस्तु स्वभावमां जाणपणुं थाय छे. कधुं छेः सूत्रम् ॥४८५॥ 1213 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगदवियस्स जे अत्थपज्जवा वयणपजवा वावि । तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव ॥१॥ आचा० एक द्रव्यना जेटला अर्थना पर्यायो, अथवा वचनना पर्यायो छे, ते भूत-वर्तमान, भविष्यसहित होय; त्यारे ते द्रव्य थाय छे. सासू (उपरना सूत्रनो परमार्थ ए छे के, कोइपण बस्तुमां द्रव्य पोते वस्तु छे छतां, तेमां जे स्वरूप बदलाय छे ते पर्यायो छे पूर्वे जे बदलाया ते भूतपर्यायो छे. चालुमां छे, ते वर्तमान, अने थवानो ते भविष्यना छे. ए वधांने जे साथे जाणे; तेज एक वस्तुना 18 एक पर्यायने पण जाणे अने ते एक पर्यायने पण बरोबर जाणे; ते सर्वने पण जाणे अने ते आ गाथामां वताव्युं छे के एक द्रव्यमांत्रणे काळना पर्यायो छे, अने पर्यायोसहित होय; तेज द्रव्य छे.) उपर कहेल सर्वज्ञ ते तीर्थकर छे, अने तेज सर्वज्ञप्रभु सर्व सत्त्वोने उपकार करनारो, अने बनीशके तेवो उपदेश आपे छे ते ।। सूत्रकार बतावे छे. सबओ पमत्तस्स भयं, सबओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे, जे पहुं नामे से एग नामे, दुक्ख लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकं खंतिजीवियं (सू० १२३) द्रव्य विगेरेथी सर्व प्रकारे जे भय करनारुं कर्म उपार्जन करे; ते भय, मद्य विगेरेथी जे प्रमादी बने तेने थाय छे. ते बतावे छे के, प्रमादी द्रन्यथी बधा आत्ममदेशोथी कर्म एकछु करे छे. क्षेत्रथी छए दिशामा रहेलं; काळथी प्रत्येक समये, अने भावी RELAKISCRECENTER Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् हिंसा विगेरेथी भयजनक कर्म बांधे छे. आचा० ते अथवा सर्वत्र एटले, अहीं अने परलोकमां बने ठेकाणे प्रमाद करनारने भय छे. पण अप्रमादीने क्यांय पण भय नथी, ते बतावे छे के, आलोक के. परलोकमां अपायोथी आत्महितमां जागृत रहेनार अप्रमादीने संसार अपसद (निमकहराम विश्वाघाती,) ॥४८७॥ थी अथवा अशुभ कर्मथी कोइ प्रकारे भय नथी; अने कषायना अभावथी अप्रमत्तता थाय छे, तेथी बधां मोहनीयकर्मनो अभाव ४ ॥४८७॥ में थाय छे, तेथी संपूर्ण कर्मनो क्षय थाय छे. तेथी ए प्रमाणे एकना अभावमां घणाना अभावनो संभव थाय छे, तथा एकनो अभाव पण बहु अभावथी जुदो नथी. तेटला माटे हेतु, अने हेतुवाळा पदार्थना भावने गत प्रत्यागत मूत्रवडे वतावेल छे. जे प्रवर्धमान शुभ अवयवसायना कंडकमां चढेलो साधु जे, एकला अनंतानुवंधी क्रोधने क्षय करे छे, ते, मान विगेरे बहुने खपावे छे. अथवा, पोतानाज भेदवाळा अप्रत्याख्यान विगेरेने खपावे छे. तथा, एकला मोहनीयने खपावतां पीजी प्रकृतिओने पण खपावे छे. अथवा जे, घणी स्थितिवाळाने खपावे छे, ते साधु अनतानुबन्धी एकने अथवा, मोहनीयकमने खपाये छे, ते वतावे छे. जेमके-अगणोतेर । ४ ६९ मोहनीय कोडा-काडी क्षय गया पछी, ज्ञानावरणीय, दर्शानावरणीय, वेदनीय, अंतराय, ए चारनी २९ तथा नामगोत्रनी १९ कोडा-कोडी खपी गया पछी, अने तेमां पण थोडु ओछं थया पछी मोहनीय कर्मनो क्षपण थवाने योग्य थाय छे, पण, ते शिवाय न थाय. तेथी का छे केः-जे बहु नाम होय; तेज परमार्थथी. एकनामवाळो छे. अहीं नामनो अर्थ कर्मप्रकृतिनो क्षय, अथवा, उपशम करनार जाणवो. एक उपशम श्रेणीना आश्रयथी एक तथा, बहु उपशम करवावडे बहु उपशमता जाणवी. तेथी ए प्रमाणे बहु तथा, एक कम ना अभाव शिवाय मोहनीयक्षय अथवा, उपशमनो अभाव थाय; अने तेना अभावमा एटले, जो, मोहनीयक्षय D... .....- - - AA-%AA-K Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० sants ह अथवा, उपशम न थाय; तो, जंतुओने यहु दुःखनो संभव छे, ने सूत्रमा बतावे छे. दुःख एटले असातावेदनीय-कर्म अथवा पीडा थाय. ते जीवोने दुःख यतुं ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने, अने प्रत्याख्यान-परिज्ञावडे # जेम, तेनो अभाव थाय; तेम, साधु ए कर. प्रश्नः-अभाव केवीरीते थाय? अथवा ते अभावथी शुं लाभ थाय? ते वन्ने वतावे छे. 'वंता' विगेरे जे स्वआत्माथी जुदं Rधन, पुत्र, शरीर, विगेरे छे, तेनो ममत्त्व भावनो संवन्ध छे, अने तेनाथी शरीर विगेरेने दुःख थाय छे, ते दुःखना हेतुरुप-उपादान - कारण, अथवा कर्म ने त्याग करचा प्रयत्न करे छे. एटले, कर्मविदारण करवामां धैर्य राखना। धीरपुरुषो जेनावडे मोक्षमा जवाया है द्र तेवं चारित्रयान जे, अनेक करोडो भवमा मळवू दुर्लभ छे, अने केटलाक जीवो ते मेळवीने पूर्वना अशुभकर्मना उदयथी, प्रमादथी। न ते हारीजाय छे. एटले, जेम कोइने स्वप्नामां भेळवेल धननो भंडार नकामो थाय छे, तेम प्रमादथी हारनारने मळेलां चारित्रनो' लाभ थतो नथी. माटे तेने मोटुं यान, एवं विशेपण आपेल छे. अथवा सम्यग दर्शन विगेरे त्रण रत्नरूप महायान छे, अने जेने मोटुं यान छे, ते मोक्ष छे, तेने धीर पुरुपो प्राप्त करे छे प्रश्नः-ए वात ठीक छे. पण एक भववडेज महायानरूप चारित्र मेळ्ववाथी मोक्ष मळे के परंपराए मोक्ष मळे. उत्तर-अमे बन्ने प्रकारे मानीए छीए एटले कोइ थोडा कर्मवाळाने योग्य क्षेत्रकाळ मळता तेज भवमा मुक्ति थाय छे, अने। बीजाने परंपराए मोक्ष थाय छे, ते बताये छे, 'परेण परं जेणे सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु, तेणे नरक तिर्यंच गति अटकावी. अने जान प्राप्त करीने यथाशक्ति संयम पाळीने आयु कर्म पुरुं थतां सौधर्मादि देवलोकमां जाय छे, त्यांची पण पुन्य थोडं बाको रहे न्यारे" २-२ २- Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यांथी चवीने कर्मभूमि आर्यक्षेत्र सारा कुळमांजन्म आरोग्यता धर्म श्रद्धा, तत्वसांभळ, अने संयम लइने पुरुंपाळी अनुत्तर विमान सुधीना आचा० देवलोकमां उत्पन्न थाय छे, फरीथी चवीने पूर्व माफक उत्तम संयोगो मनुष्य जन्म विगेरे मेळवी संयम लइने वधा कर्मनो क्षय | करे छे, तेथी एम कयु के पर एटले संयमवडे उपर बतावेली विधिए परं एटले स्वर्गमां जाय छे, अने परंपराए मोक्षमां जाय छे. । सूत्रम् ॥४८९॥ अथवा पर एटले सम्यग्दृष्टि गुणस्थान जे चोथु छे, तेना वडे देशविरति ( पांचमुं गुणस्थान ) थी लइने अयोगी ( चौदमुं ॥४८९॥ गुणस्थान) सुधी चढे छे. अथवा पर एटले अनंतानुबन्धी क्षय थवाथी कंडक स्थान निर्मळ थतां चढता भावे साधुओ दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीय कर्मनो क्षयरुप पर मेळवे छे, अथवा घातीकर्म अथवा अघातीकर्मनो क्षय करे छे. . आ प्रमाणे कर्म खपाववा तैयार थयेला साधुओ पोतानुं आयुष्य केलं वाकी रहा तेनी आकांक्षा करता नथी, एटले लांच # आयु इच्छता नथी, अथवा असंयम जीवितने वांछना नथी. अथवा पर बढे पर एटले उत्तर उत्तर तेजोलेश्याने मेळवे छे का छे के:"जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं कस्स तेयलेस्सं वीईवयंति ?, गोयमा!, मासपरियाए समये निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, एवं दुमासपरिआए असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं देवाणं चउमास COLAGAAAAA-AGENOGRAA- - ॐ रम G Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४९०॥ 2624969C-CaEOGRAPESCEACOCHACle परियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियागं देवाणं, पंचमासपरियाए चंदिमसूरियाणं जोइसिंदाणं जोइसराईणं तेउलेस्सं, छम्मासपरियाए सोहम्मीलाणाणं देवाणं सत्तमासपरिआए सणंकुमारमाहिंदाणे देवाण, अट्टमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं, नवमासपरिआए महा सुकसहस्साराणं देवाणं, दसमासपरियाए आणयपाणयआरणच्चुआणं देवाणं, एगारसमासपरियाए गेवेजाणं, बारसमासे समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेसं वीयवयइ, तेण परं सुक्के सुकाभिजाई भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ ।" वीर प्रभुने गौतस्वामी पूछे छे. जे हमणां साधुओ साधुपणामां विचरे छे, ते कड तेजोलेश्याने पामे छे? उ०-हे.गौतम! एक मास साधुपणानी पर्याय थवाथी व्यन्तर देवोनी तेजोलेश्याने पाभे छे, वाकीन कोष्टक नीचे प्रमाणे. बेमास दीक्षा पर्यायवाळो असुर इन्द्र छोडीने भवनपति देवोनी.॥त्रण मास दीक्षा असुर कुमार देवोनी ॥ चार मास दीक्षा ग्रहगण नक्षत्र तारारुप ज्योतिपीनी ।। पांच मास दीक्षा चंद्र सूर्य ज्योतिष इंद्रनी ॥छ मास दीक्षा सौधर्म इशान देवोनी ॥सात मास दीक्षा सन्नतकुमार माहेन्द्रनी ॥ आठ मास दीक्षा ब्रह्म लोकांतकनी ।। नव मास दीक्षामहाशुक सहस्रारनी ॥ दश मास दीक्षा आनत Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचा० ཏུབ༑ཏར་ ་ བསྐུ -5 सूत्रम् 18/॥१९॥ ॥४९॥ eHCHAA-कक माणत तथा आरण अच्युतनी ।। अगीयार मास दीक्षा ग्रैवेयकनी ॥ बार मास दीक्षा अनुत्तर विमाननी ।। त्यार पछी शुक्ल लेश्याने पामीने केवळज्ञान पामीने मोक्षमा जशे. जे अनंतानुबन्धी विगेरे कपायोने खपाववा तैयार थयो ते एक क्षय करवामांज वर्ने छे के नहि? ते बतावे छे. एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढोवि, सड़ी आणाए मेहावी लोगं च आणाए अभिसमिच्चा अकुओभयं, अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं (सू० १२४) अनंतानुवन्धी एक क्रोधने क्षपकश्रेणीमा चढेलो साधु खपावे ते समये पृथक् बीजी पण दर्शनादि कर्मप्रकृति खपावे छे, अने तेणे आयु बांध्यु छे, ते पण दर्शनसप्तक एटले, अनंतानुवन्धी कषाय चार तथा दर्शनमोहनीयनी त्रण सुधी खपावे छे. अथवा, वीजी प्रकृति खपावतां अवश्ये अनंतानुबन्धी नामनी प्रकृति खपावे छे. जो, तेम न खपे तो, मूत्रमा कहेल एकना क्षयमा वीजी क्षय थाय तेवू न कहेवाय. केवा गुणवाळो क्षपकश्रेणीने योग्य थाय ते कहे छे: 'सट्टा' विगेरे, श्रद्धा एटले मोक्षमार्ग मेळववाना उद्यमनी इच्छा करे; ते श्रद्धावाळो (श्रद्धी) कहेवाय. एटले, तीर्थंकर प्रणीत आगम अनुसारे यथोक्त अनुष्ठान करनारो मेघावी अप्रमत्त साधु) जे मर्यादामा रहेछे, तेज श्रेणीने योग्य छे पण वीजो योग्य नथी. - चळो, लोक एटले छ जीवनिकाय, अथवा कषायलोकने जिनेश्वरना आगम प्रमाणे जाणीने ते जीवोना समूहने कोइपण रीते भय न थाय तेम साधुए वर्तन करवू. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥४९२॥ GAR4-6 अने कपायना समूहने दूर करवाथी ते दूर करनार साधुने कोइथी भय रहेतो नथी; अथवा चराचर लोकने आगमनी आज्ञा | ममाणे समजीने चाले; तेने आलोक-परलोक अपाय; ने सारीरीते देखवाथी (सीधे मार्गे चालनाराने) क्यायथी भय न उपर बतावेलो भय शस्त्रथी थाय छे, पण ते शस्त्रनी प्रकर्पगति छे के नहि? उत्तर-छे, ते वतावे छे.. तेमां द्रव्यशस्त्र तलवार विगेरे छे. ते परथी पण पर छे, तीक्ष्णथी पण तीक्ष्ण थाय छे. कारण के, लोढा उपर पाणी विगेरे ॥४९२॥ R चढावानो संस्कार कराय छे. अथवा, शस्त्रएटले, उपघातकारी. तेथी एक पीडाकारीथी बीजो पीडाकारी उत्पन्न थाय छे. ते न्याये । . एकथी वीजो अपर छे ते वतावे छे. जेमके-तलवारना घाथी धनुर्वा थाय; तेनाथी माथानी वेदना थाय; तेनाथी ताव चढे; पछी लं, मुखमां शोप पडे; अने छेवटे, मूर्छा विगेरे थाय छे. ____पण भावशस्त्र परंपराए जोडेला मूत्रथी सूत्रकार महाराज पोतानी मेळेज प्रत्याख्यान परिज्ञाना द्वारवडे कद्देशे के जेवीरीते हैं शस्त्रनी प्रकर्पगति छे, अथवा परंपराए विद्यमान छे, पण अशस्त्रने तेम नथी, ते बतावे छे, के अशस्त्र ते संयम छे, ते संयम परथी । बीजुं पर नथी, एटले ते प्रकर्ष गतिने पामेल नथी, ते आ प्रमाणे. पृथ्वी विगेरेनी समानता करवी, तेमां मंद तीव्रनो भेद नथी, एटले पृथ्वी विगेरेमां समभावपणुं धारवाथी सामायिकनी सिद्धी छे. अथवा शैलेशी अवस्थामा रहेला संयमथी बीजो संयम नथी, अर्थात् तेनाथी बीजुं गुणस्थान उपर कोइ नथी. जे क्रोधना उपादानथी बन्ध करे छे. ते स्थिति तथा विपाकथी तथा अनंतानुवन्धीना लक्षणथी जे कर्म बन्धाय तेना क्षयने आश्रयी प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जे जाणे छे ते साधु अपर मान विगेरेने पण तोडवानुं देखनारो छे, ते पछीना मुत्रमा बतावे छे. ARRRRRRRR६२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४९३॥ जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदसी, जे विज्जदसी से दोससी, जे दोससी से मोहदंसी, जे मोहमंसी से गन्भदसी, जे गब्भदसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदसी, जे मारदंसी से नरयंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तीरियदंसी सुदुक्खसी । से मेहावी अभिणिवद्विजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्ज च दोसंच मोहं च गन्धं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुख्खं च । एवं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियं तकरस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमत्थि ओवाही पासगस्स ? न विजइ ?, नत्थि (सू० १२५) तिबेमि ॥शितोष्णीयाध्ययनम् ३ ॥ जे क्रोधने स्वरुपथी जाणे अने ज्ञानने अनर्थ करनारुं जाणी त्यागवारुप मानीने (ज्ञान वडे) क्राधने त्याग करे, ते साधु निवे मानने पण अनर्थ करनारुं देखे छे, अने तेने त्यागे छे. अथवा जे क्रोधने जाणे छे, अने समय आवतां क्रोधी बने छे, तेवो माणस मान पण देखे छे, अर्थात् ते अहंकारी पण थाय छे, ए प्रमाणे हवे पछी पण सनजी लेबुं. ज्यां सुधी ते दुःख देखनारो थाय त्यां सुधी जाणवुं, सूत्र सुगम होवाथी टीका करी नथी. तो पण मंद बुद्धि हितार्थेथोडामां लखीए छीए. सूत्रम् ॥४९३॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगा० ॥४९४ ॥ जे अहंकारी बने ते समय आवतां कपटी पण वने. लोभी पण बने, अने जे लोभी होय, ते अनुक्रमे प्रेमी पण बने, अने पोतानुं इच्छित न थतां द्वेषी पण वने, अने ते मोह करनारो पण थाय, अने ते मोह करीने गर्भमां उत्पन्न थाय पछी जन्मनुं दुःख वेठे, ते मार ( हिंसा अथवा आरंभना कृत्य ) पण करे, अने पछी ते नरक गामी पण थाय, त्यांथी चवीने तिर्येच थाय, एम | परंपराए अनेक दुःखोने ते संसारी जीव भोगवे छे, पण जे मेघावी ( बुद्धिमान ) साधु छे ते क्रोध विगेरेथी दूर रहे छे ते बतावे छे, एटले क्रोध मान माया लोभ प्रेम द्वेष मोह गर्भ जन्म मार नरक तिर्यच विगेरेनां दुःखो क्रोधरूप वीजने त्याग करवाथी भोगवतो नथी, आ वधुं जे तत्वज्ञान बतान्युं ते वधा उद्देशानुं शरुआतथी ते अहि सुधी तीर्थंकरतुं कलुं छे, अने ते तीर्थकर जीवोने पीडा करनार शस्त्रने छोडीने आठ कर्मनो अंत करनार थया छे एटले तेओ कर्म उपादान कारण क्रोध विगेरे प्रथम | त्यागीने पोताना कर्मो जे पूर्वे बांधेलां तेने भेदनारा थया, तेओने केवळज्ञान थवाथी संसारी कोइपण जातनी उपाधी नथी एटले द्रव्यथी सोनुं चांदी विगेरे नथी नेम भावथी आठ प्रकारनां कर्म नथी, आ प्रमाणे शिष्या प्रश्नमां तीर्थकरने कोइपण जातनी द्रव्यथी के भावथी कोइ पण जातनी उपाधि छे के नहि ? तेनो उत्तर कह्यो नथी. आ वचन सुधर्मास्वामि जंबुस्वामीने कहे छे, के में भगवानना चरणनी सेवा करतां जे सांभळयुं तेने अनुसारे तने कहुँ हुँ, पण मारी मति कल्पनाथी हुं कहेतो नथी. सूत्र अनुगम कह्यो, चौथो उद्देशो पुरो थयो अने तेनी समाप्तिथी अतीत अनागत नय विचारने सूत्रमां थोडामा वताववाथी शितोष्णीय नामनुं त्रीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. -Chi सूत्रम् ॥४९४॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४९५॥ सम्यक्त्व नामर्नु चो) अध्ययन. आचा० त्रीजु अध्ययन पुरुं थवाथी हवे चो) कहे छे. तेनो आ प्रमाणे-संबन्ध छे. पहेला शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमा अन्वय व्यतिरेक12 वडे छ जीवनीकायचं स्वरूप बतावतां जीव अने अजीव, एम चे पदार्थ सिद्ध कर्या; तथा जीवोना वधमां बंध थाय छे, अने ते त्या" गवाथी विरति थाय; तेवू बतावतां आस्रव संवर चे पदार्थ चताव्या; तथा लोकविजय नामना वीजा अध्ययनमां लोको जेम बंधाय छे, अने जेम मुकाय छे, ते बतावतां बंध अने निर्जरा बतावी; तथा त्रीजा अध्ययनमां शतोष्णरुप-परिसहो सहेवा; ते बतायतां तेना | फळरुप-मोक्ष बताव्यो; तेथी त्रण अध्ययनमां जीव-अजोव, आस्रव, संवर, बंध निर्जरा अने मोक्ष, एम सात पदार्थरुप-तत्त्व वताव्यु: अने तत्त्व पदार्थनु श्रद्धान (विश्वास) राखवू; ते सम्यक्त्व कहेवाय छे, ते हवे वतावे छे. _आ संबन्धवडे आवेला आ चोथा अध्ययनना चार अनुयोगद्वार बतावतां उपक्रममां अर्थ अधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययननो अर्थाधिकार सम्यक्त्व नामनो छे ते शस्त्रपरिज्ञामा प्रथम कहेल छे, अने उद्देशानो अर्थाधिकार अहीं बतायवा नियुक्तिकार कहे छे: पढमे सम्मावाओ, बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवजतवो, न हु बालतवेण मुक्खुत्ति ।१२५॥ P 15 उद्देसंमि चउत्थे, समासवयणेण णियमणं भणियं । तम्हा य नाणदंसणतवचरणे होइ जइयत्वं ॥२६॥ (१) पहेला उद्देशामां सम्यक्वाद ए नामनो अर्थाधिकार छे. एटले, अविपरीतवाद ते सन्यवाद छे. अर्थात् यथाअवस्थित तुने बतायवी. (२) वीजा उद्देशामां धर्मप्रवादिकोनी परीक्षानो विषय छे. एटले, जेओ धर्मनुं स्वरुप बतावे छे, ते धर्मप्रवादिक । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४९६ ॥ • कहेवाय. तेनुं अयुक्त तथा, युक्त कथनने विचारखं. (३) त्रीजामां, अनवद्य तपनुं वर्णन छे. एटले, जे वाळतप करे; तेवा अज्ञान करेलां तपथी मोक्ष न थाय ते अहीं वतान्युं छे. (२१५) चोथा उद्देशामां संक्षेप वचनमां संयतनुं स्वरुप बतान्धुं छे, तेथी पहेलामां सम्यग्दर्शन, वीज मां सम्यक्ज्ञान त्रीजामां बाळ तपनो निषेध करवाथी सम्यक् तप बताव्यो छे, अने चोथामां सम्यक् चारित्र बतव्यं. छे, गाथामा 'तरमात' अने 'च' शब्द छे ते वन्ने हेतुमां छे, जेथी ए चारे पण मोक्षनां अंग पूर्वे कह्यां छे, तेथी एम जाणवुं के ज्ञान दर्शन तप चरणमां मोक्षाभिलाषी साधुए यत्न करवो, अने तेनुं प्रतिपालन करवा जीवतां सुवी प्रयत्न करवो, आ प्रमाणे वे गाथाना अर्थ थयो. हवे नामनिष्पन्ननिक्षेपामा बतावेल सम्यक्त्व नामनो निक्षेपो कहे छे. मंठणासम्मं दवसम्मं च भावसम्मं च । एसा खलु सम्मस्सा, निख्खेवो चउहि होइ ॥ २९७ ॥ नाम स्थापनानो अक्षरार्थ सुगम छे, अने तेनां भावार्थ नाम स्थापना छोडोने द्रव्य अने भाव संबंधी नियुक्तिकार कहे छे. अह दवसम्म, इच्छाणु लोमियं तेसु तेसु दवेसुं । कयसंखय संजुत्तो, पउत्त जढ मिण्ण छिष्णं वा ॥२१८॥ ज्ञ शरीर भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त द्रव्य सम्यक्त्व बतावे छे, इच्छा एटले चित्तनी प्रवृत्ति (अभिप्राय ) छे, तेने अनुकुल करं, | ते 'ऐच्छानुलोमिक' छे तेवी तेवी इच्छा अने भावने अनुकुल द्रव्यमां कृत विगेरे उपाधिना भेद वडे सात प्रकारे थाय छे, ते आ प्रमाणे छे. (१) कृत एटले अपूर्व रथ विगेरे बनाव्यो होय, ते रथमां योग्य रीते भागो गोठव्याथी सारा बनावनारने लीधे बेसनारने चित्तमां शांति थाय छे, अथवा जेना माटे ते बनाव्यो ते शोभायमान अने योग्य समयमां जलदी बनावी आपवाथी करावनार ने सूत्रम | ॥ ४९६॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAR समाधान (समाधी) नो हेतु होवाथी ते द्रव्यसम्यक् छे. आ प्रमाणे संस्कृत (संस्कार करेल) विगेरेमां पण समजवू, एटले (२) तेज आचा० रथ विगेरे भांगी जतां अथवा जुनो थतां तेने सुधारवो अथवा भांगेला भागने बदलवो ते समाधि आपनारो होवाथी द्रव्य सम्यक् छे. (३) जे बे द्रव्यनो संयोग 'नवो गुण बनाववा करे पण नाश करवा न करे ते खानार अथवा भोगवनारना मननी समाधिने सूत्रम् ॥४९७॥ माटे दुधमां साकर मेळववी विगेरे छे, ते संयुक्त द्रव्य सम्यग् छे. ॥४९७॥ (४) तथा जे प्रयोगमा लीधेलु द्रव्य आत्माने लाभना हेतुथी समाधि माटे थाय छे, ते प्रत्येक द्रव्य सम्यक् छे. अथवा वीज प्रतिमां उपयुक्त शब्द छे एटले उपयोगमां लीधेलुं द्रव्य मनने समाधि दायक थाय ते उपयुक्त द्रव्य सम्यक् छे. (५) तथा जड (त्यजेलं) भार विगेरे दूर करवाथी चित्तमां शांति थाय, ते त्यक्त द्रव्य सम्यक् छे, (६) दहीनुं वासण विगेरे | फुटी जतां कागडा विगेरेने आनंददायी थवाथी ते भिन्न, द्रव्य सम्यक् छे, (७) अधीक मांस विगेरे छेदवाथी [अथवा गुमडामा नस्तर मुकवाथी जे शांति थाय ते छिन्न सम्यक् छे, आ साथे पण चित्तने समाधि आपनार होवाथी द्रव्य सम्यक् छे, पण जो ते 2वरोवर न थाय तो चित्तमां क्लेश थतां सम्यक् थाय छे, हवे भाव सम्यक् बतावे छे. तिविहं तु भावसम्म दंसण नाणे तहा चरित्ते य । दसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायव्वं ॥२१९॥ __ण प्रकारे भावसम्यक् छे, दर्शन ज्ञान चारित्र ए त्रण भेद छे, ते दरेक पण भेदवाळु छे, ते कहे छे, तेमां दर्शन अने चरण ४ दरेक त्रण प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥४९८॥ CREA-CASGARHICES अनादि मिथ्यादृष्टिने त्रण पुंज कर्या विनानो होय तेने यथाप्रवृत्तकारण वाकीनां कर्म क्षीण थवावाळो होय तेने सोगरोपम कोडा-कोडीमां थोडी ओछी स्थिति होय; तेने अपूर्वकरणमां ग्रंथी भेदाता मिथ्याखने उदय न होय तेवू अंत:करण करीने अनिवृत्ति | करणवडे प्रथम सम्यक्त्व मेळवे छे, ते औपशमिक दर्शन छे, कयुं छे के... "उसरदेसं दडेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्म लहइ जीवो ॥१॥” * ॥४ खारवालो [उपर] देश [जग्या] मेळवीने जेभ वननो अग्नि (दावानल) बुझाइ जाय छे, तेम मिथ्यात्व उदय न आवे. त्यारे । औपशमिकसम्यक्त्वने जीव पाते छे. अथवा कोइ उपशमश्रेणीमां औपशमिक सम्यक्त्व पामे छे. [१] तेज प्रमाणे सम्यक्त्व पुद्गलने आश्रयी ने जे अध्यवसाय उत्पन्न थाय ते क्षायोपशमिक छे. [२] तथा दर्शनमोहनीय क्षय थवाथी क्षायिक छे. (३) चारित्रना त्रण भेद (१) दर्शन प्रमाणे चारित्र पण उपशम श्रेणिमां औपशमिक [२] कपायना क्षय उपशमथी क्षायोपशमिक [३] तथा चारित्र मो। हनीय कर्मना क्षयथी क्षायिक चारित्र छे. ज्ञानना चे भागो छे.-क्षायोपशमिक, अने क्षायिक तेमां चार प्रकारना ज्ञान आवरणीय कर्मनो क्षय उपशम थवाथ मनि ज्ञान विगेरे चार प्रकारनें क्षायोपशमिक ज्ञान छे, अने बधु घातीकर्म क्षय थवाथी क्षायिक केवळ ज्ञान छे. आ प्रमाणे त्रणे प्रकारमा भाव सम्यक्त्वपणुं बतावे छते वादी, शंका-करे छे. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE C +- ___“जो, एम दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणेमां सम्यग्वादनो संभव थाय छे, तो, दर्शननोज सम्यक्त्ववाद केम रुढ थयो छे? के जे ।। आचा सम्यग्दर्शननु अहीं वर्णन करवान छे. उतर:-ते दर्शनना भावना भावी (विद्यमानपणाथीज) ज्ञानचारित्रनो भाव छे. जेमके-मिथ्यादृष्टिने ज्ञानचारित्र होतां नथी. सूत्रम् ॥४९९॥ [[तेने ज्ञान होय; छतां अज्ञान कहेवाय.] अहीं सम्यक्त्वनी प्रधानता बताववा आंधळा तथा देखता एवा वे राजकुमारोनुं दृष्टांत । बाल-[मंदबुद्धिवाळा] तथा स्त्री विगेरेना बोध माटे कहे छे: ॥१९९॥ उदयसेन नामनो राजा हतो. तेने वीरसेन तथा सूरसेन नामे वे कुमारो छे. तेमां वीरसेन आंधळो छे. तेणे पोताने योग्य गांधर्वादिक [गावा विगेरेनी] कळाओ शीखी; अने बीजा कुमारे धनुर्वेदनो अभ्यास करीने लोकमां प्रशंसनीय पदवी पाम्यो. आ४ सांभळीने वीरसेन कुमारे विज्ञप्ति करी के, हुं पण धनुर्वेदनो अभ्यास करु. पछी राजाए तेना आग्रहथी आज्ञा आपी; अने योग्य ल उपाध्यायना उपदेशथी, अने अतिशय बुद्धिना कारणथी शब्दवेधी थयो. पछी ते जुवान थयो; त्यारे सारा अभ्यासथी मेळवेला धनुर्वेदनां ज्ञानथी अने उत्तमवर्तनथी अगणित चक्षुदर्शन सद्-असंतभावथी, तथा शब्दवेधीपणाथी ज्यारे शत्रु राजा लडवा आव्यो; त्यारे राजा पासे युद्धमा जवा मांगणी करी. राजाए आज्ञा आपवाथी विरसेने शत्रुनुं सैन्य जीतवा प्रयत्न कर्यो; पण शत्रुए अंधपणु जाणीलीधाथी चुप बेसवाथी वीरसेनन कंइ न चाल्यु; त्यारे शत्रुना सैन्ये तेने पकडी लीधो पछी सूरसेने ते वृत्तांत जाणीने राजने हा पूछीने सूक्ष्म तीरोना सेंकडोनो वरसाद वरसवी शत्रुना सैन्यने जीती भाइने मुकाव्यो. ___आ प्रमाणे अभ्यास सारी रीते करी उद्यम करवा छतां पण चक्षुनी खामीथी इच्छित कार्य करवा समर्थ न थयो, तेज प्रमाणे +- + - । a- G Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५००॥ ---OCCASGEOGRESECSRese & सम्यग्दर्शन विना ज्ञानचारित्र कार्यसिद्ध न करी के. तेज नियुक्तिकार गाथानो उपसंहार करतां बतावे छे. । कुणमाणोऽवि य किरियं, परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए,। दितोऽवि दुहस्स उरं, न जिणइ अंधो पराणायं ।।२२०॥ सूत्रम् क्रियाने करतो, तथा पोतानां स्वजन, धन भोगोने त्यजवा छतां तथा दुःखने उर आपवा (सामे जवा) छतां पण अंधो अंधपणाने लीधे शत्रुना सैन्यने जीती न शक्यो. ते दृष्टांतथी हवे बोध आपे छे: H॥५०० कुणमाणोऽवि निवित्ति, परिचयंतोऽवि सयणधणभोए ।दितोऽवि दुहस्स उरं, मिच्छदिहि न सिज्झइउ ।।२२१॥ एटले मिथ्यादृष्टि पोताना दर्शनमां कहेली क्रिया करे. जेमके पांच यमो, तथा पांच नियमो विगेरे पाळे तथा पोताना धन सगा तथा भोगोने त्यागे. तथा पंच अमिनो ताप तपवा विगेरेथी दुःख सहन करे छतां मिथ्यादृष्टि दर्शननी खामीथी सिद्धि पद नथीज पामतो, (गाथामां उ शब्द एकवारना अर्थमां छे. पूर्वे जेम अंध कुमार शत्रुने न जीती शक्यो तेम आ कार्य सिद्धिमां असमर्थ छे, जा एम छे तो शुं करवु! ते कहे छे:तम्हा कम्माणीयं जेउमणो दसणमि पयइज्जा, दंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाइं ॥२२२॥ जेथी सिद्धि मार्ग, मूळ सम्यग् दर्शन छे, तेना विना कर्मक्षय न थाय, तेथी कर्म शत्रुने जीतवानी इच्छावालो मनुष्य सम्यग् दर्शन मेळववा प्रथम यत्न करे, अते तेनी प्राप्तिमां शुं थाय ते बतावे छे. के निश्चे दर्शन पामेलानां तप ज्ञान तथा चारित्रनां वधांग अनुष्ठानो सफळ थाय छे. तेथी तेमां यत्न करवो. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५०१ ॥ बीजी ते पण सम्यग्दर्शनना तथा ते दर्शन मेळवेला मनुष्योने प्राप्त थएला गुणस्थानोना गुणो बतावे छे. सम्मत्पत्ती सावए य, विरए अनंत कम्मं से ॥ दंसण मोहख्खवए, उवसामंते य उवसंते ॥२२३॥ खवए य खीणमोहे, जीणे अ सेढी भवे असंखीजा । तविवरीओ कालो, संखिजगुणाइ सेढाए ||२२४|| सम्यक्त्वनी उत्पत्ति थतां असंख्येय गुणवाळी श्रेणि थाय छे. ते पाछली अडधी गाथावडे बतावेल छे, ते क्रियाने आश्रयी छे. प्रश्नः - केवी रीते असंख्येय गुणवाळी श्रेणि थाय ? | ॥५०१॥ उत्तर: – (१) अहीं मिथ्यादृष्टि जो जे थोडं ओछु एवी कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिवाळा ग्रंथिसत्ववाळा छे. तेओ कर्म | निर्जराने आश्रयी समान छे, (२) अने धर्म पूछवानी उत्पन्न थएली संज्ञावाळा पूर्वे कलाओथी असंख्येय गुण निर्जरावाळां छे.. (३) त्यारपछी पूछवानी इच्छावाळा वनी साधु समीपे जवानी इच्छावाळो असंख्येय गुणे उत्तम जाणवो (४) त्यार पछी गुरुने पूछतां (५) धर्म स्वीकारवानी इच्छा थतां (६) त्यारपछी धर्मक्रिया करतां जे निर्जरा थाय तेना करतां पण प्रथम धर्मक्रिया करनाराने वधारे निर्जरा थाय ते असंख्येय गुणी जाणवी, एटलेसुधी सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं वर्णन कर्यु. त्यार पछी श्रावकत्रत (देशविरति ) स्वीकरतो तथा स्वीकारेलो विगेरे उत्तरोत्तर गुण पामेलाने असंख्येयगुणी निर्जरा जाणवी, ए प्रमाणे सर्वविरतिमां पण जाणवुं. नाथी पण पूर्वे सर्व विरति लीघेलानी असंख्येय गुणी निर्जरा जाणवी, मूळमां "अगंतकम्मं से” छे, तेनो अर्थ अनंतानुबंधी सूत्रम् Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C सूत्रम् ॥५०२॥ ONT- 5 आश्रयी जाणवो, एटले भीम कहेवाथी भीमसेन भामाथी सत्यभामा थाय, ते प्रमाणे छे. मोहनीयकर्मना अांत भागो छे, तेने आचाखपाववानी इच्छावालो असंख्येय गुण निर्जरा करनारो जाणवो, त्यारपछी क्षपक [क्षय करनारो] जाणवो, त्यारपछी क्षीण अन तानुबधी कषायवाळो जाणवो, तेज दर्शनमोहनीयनी त्रण प्रकृतिमा क्रियाना सन्मुखमां उभा रहेल अपवर्गनुं त्रिक जाणवू, त्यार ॥५०॥ पछी सात प्रकृति क्षीण थवाथी उपशमश्रेणिमा चढेलो असंख्येय गुण निर्जरावाळो जाणवो, त्यार पछी उपशांत मोहवाळो जाणवो पत्यार पछी चारित्रमोहनीयने क्षय करनारो जाणवो, त्यार पछी क्षीणमोहवाळो जाणवो, अहियां अभिमुख विगेरे त्रण यथासंभव योजना करवी, त्यार पछी भवस्थ केवळी (जिन) जाणवा त्यारपछी शैलेशी अवस्थावाळी असंख्येय गुण निर्जरावालो जाणवो तेथी ए प्रमाणे कर्म निर्जरा माटे असंख्येय लोकआकाश प्रदेश प्रमाण बनावेल संयम स्थानना प्रचयथी उत्पन्न थयेल श्रेणि छे । ते उत्तरोत्तर असंख्येय गुणवाळी जाणवी, कारण के उत्तरोत्तर प्रवर्धमान अध्यवसायना कंडकनो स्वीकार छे, [जेम संयम पर्याय ४ वधे तेम चारित्रमा आत्मानी निर्मळता वधे.] काळथी तो तेथी विपरीत अयोगी केवळीथी मांडीने प्रतिलोम पणे संख्येय गुणवाळी श्रेणिवडे काळ जाणवो, तेनो अर्थ आ छे, जेटला काळवडे अयोगी केवळो जेटलां कर्म खपावे तेटलां कर्म संयोगी केवळी संख्येय गुणाकाळवडे खपावे छे एप्रमाणे प्रतिलोमपणे जेटला काळमां धर्म पूछवानी इच्छावाळो छे, त्यांसुधी जाणवं, नीचला गुणस्थानमा काळ वधारे थाय अने की ओछां खपे.) व आ प्रमाणे बतावतां सिद्ध कर्यु के सम्यग्दर्शन पामेलाने तप ज्ञान अने चरण सफळ थाय छे, पण जो कोइ उपाधि (संसारी है वासना) वडे करे तो ते सफळ यता नथी, ते उपाधि कइ छे, ते हवे बताये छे, R-CE%ACASTER PERISHORE Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- R 3 आचा आहार उवहिपूआ, इडिसु य गारवेसु कइतवियं । एमेव बारसविहे, तवंमि न हु कइ तवे समणो ॥२२५ ।। आहार उपधि पूजा अने आमर्ष औषधि विगेरे रिद्धि छे, अने आहार उपधि अने पूजा रिद्विछे, अर्थात् तेवी रिद्धि पूजा IF मेळववा ज्ञान भणे, अने चारित्र पाळे, तथा ( तेवू मळवाथी) त्रण गारवमां बंधाएलो जे क्रिया करे ते कृत्रिम (बनावटी) कहेवाय | सूत्रम् छे, जेवीरीते ज्ञान चरणर्नु अनुष्ठान आहार विगेरे माटे करे, ते कृत्रिम होवाथी मोक्ष न आपे, ते 'प्रमाणे वार प्रकरना वाह्य ॥५०३॥ अभ्यंतरतपमां पण जाणवू, अने तेवो संसारी वासना राखनारने श्रमण भाव न होय, अने असाधुनुं अनुष्ठान गुणवाळ न थाय, | | तेथी वासना रहित साधुनं जे सम्यग्दर्शन पूर्वक तप ज्ञान चरण सफळ छे एम सिद्ध थयु. माटे सम्यग्दर्शनमां यतना करवी, अने तत्वार्थ, श्रद्धान करवू ते सम्यग्दर्शन छे, अने आ तत्व सघळां कलंकने दूर करीने जेमणे बधा पदार्थोमां सत्ता व्यापी केवळज्ञानने | मेळवेलुं छे, तेवा तीर्थकरे का छे तेने हवे अनुक्रमे 'आवेला सूत्रानुगममां सूत्र बतावे छे. से बेमि जे अईया जे य पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइख्खन्ति एवं भासंति एवं पण्णविति एवं परूविति--सव्वे पाणा सव्वे भृया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतवा न अज्जावेयवा न परिचित्तवा न परीयावेयवा न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुझे निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उटिएसु वा अणुटिएसु वा उवट्टिएसु वा GEORG Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५०४॥ अणुवटिएस्तु वा उबरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा अगोवहिएसु वा संजोआचा० गरएसु वा असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सि चेयं पवुच्चइ (सू० १२६) गौतम (सुधर्मा) स्वामी कहे छे के:-जे हुं कहुं हुं ते हुँ पोते तीर्थकरनां कहेलां वचनना तत्त्वने जाणीने कई छ, तेथी मारूं ॥५०४॥ वचन मानवा योग्य छ, अथवा बौद्धभतमां मानेलु क्षणिकपसुं दूर करवावडे कबु के, जे में पूर्वे का ते हमणां पण हुंज कहुं हुं, पण वीजो कहेतो नथी; अथवा 'से' शब्दनो अर्थ 'ते' थाय छे, एटले जे श्रद्धानमां सन्यक्त्व थाय छे, ते तत्त्वने हुँ कहुँ छ जेओ पूर्व काळमां थया जे वर्तमानमां छे, अने भविष्यमां थशे; ते वधा तीर्थकरो एम कहे छे. वळी पूर्वकाळ अनादी होवाथी अनंता थया; अने भविष्यकाळ अनतो होबाथी अने सर्वदा तीर्थकर होवाथी अनंता थशे; अने वर्तमानकाळ आश्रयी जे ६ वखते आ प्ररुपणा थती होय; तेमां नक्की संख्या न होबाथी उत्कृष्ट अथवा जघन्य पदे कहेवाय, तेगां उत्सर्गथी अढी द्वीपनी अदर द एकसोने सीतेर थाय, ते आ प्रमाणे ५-महाविदेहमा एकेक विदेहमा ३२ श्रेणी होवाथी दरेकमां एकेक गणतां १६० थाय, अने ५ भरत ५ ऐरावतना मेळवतां कुल १७० थाय अने जघन्यथी २० थाय ते आ प्रमाणे-५ महा विदेहमां महाविदेहनी अंदर रहेली महा नदीना बने किनारे ६ मळी पूर्व पश्चिम साथे लेतां चार चार होय ते पांचेना मळी वीश थाय. अने भरत अरावतमां तो एकांत सुखम विगेरे आरामां है अभाव छे, वीजा आचार्य कहे कहे छे, के मेरुना पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमां एकेक तीर्थकर होवाथी महाविदेहमा चेज छे, अने AAKAAREER Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी पांच विदेहमा दश थया, तेओ एम. कहे. छे. के, आचा० सत्तरसयमुक्कोसं, इअरे दस समयखेतजिणमाणं । चोत्तीस पढमदीवे, अणंतरऽडेय ते दुगुणा ॥१॥ लसूत्रम् ॥५०५॥ पूजास पूजा सत्कारने योग्य जेओ छे, ते अहंत कहेवाय छे, तेओ अश्वर्ययुक्त भगवंतो छे. तेओनी संख्या तेमना संबंधमां ज्यारे कोइ प्रश्न पूछे तेनो अर्थ उपर बतावे छे, सूत्रमा वर्तमानकाळनी वात छे, तेथी आ पण जाणबु, के आ प्रमाणे का अने भविष्यमां ॥५०५॥ कद्देशे, ए प्रमाणे सामान्यथी तीर्थंकरो देव मनुष्यनी परखदामां अर्ध 'मागधी' मां बधा जीवो पोतानी भाषागं समजे तेम तेओ४ में बोले छे, ए प्रमाणे प्रकर्षथी संशय दूर करवा माटे पामे रहेनारा साधु विगेरेने जीव अजीव आस्रव वन्ध संवर निर्जरा मोक्ष ए. सात पदार्थोने बतावे छे, (एटले जिनेश्वर देव सात पदार्थो वर्णन करे छे) ए प्रमाणे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जे मोक्ष मार्ग छे. तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योग ए चांच बन्धना हेतुओ छे. स्व अने परभाववडे छती अछती वस्तु तत्वने सामान्य वि-४ K शेषरुप विगेरेना प्रकारथी बतावे छे, अथवा आ वधां पदो एक अर्थवाळां छे, ते तीर्थकरो शृं बतावे छे ते कहे छे. वां पाणीओ एटले पृथ्वी पाणी अग्नि वायु वनस्पति ए एकेन्द्रिय छे, तथा वे त्रण चार पांच इन्द्रियोवाळा जीवो छे, तेमने इन्द्रिय ५ वळ ३ उच्छवास निश्वास. १ आयु १ ए दश प्राण छे, प्राणो (संसारी) जीवोने पूर्वे हता हमणां छे, अने भविष्यमा 1 रहेशे, तेथी प्राणी कहेवाय छे; तथा बीजी रीते चौद भेद जीवोना छे ते भूत ग्राम कहेवाय छे, अने वर्तमानमां वधा जीवो छे, जीवशे, अने पूर्वे जीवता हता, माटे जीव छे ते नारकी,तियच मनुष्य अने देव ए चार गतिवाळा छे, तथा बधा ए जीवो पोतान 11 LESCRISROSAGARSky Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ५०६ ॥ करेलां कर्मथी साता असाताना उदययी सुख दुःख भोगवे छे. तेथी सत्त्र छे, अथवा माण भूत जीव अने सत्व ए बधा एक अर्थवाळा शब्द छे, कारण के तत्व भेद पर्यायोवडे पदार्थने स्वीकारवानो छे, तेथी करीने उपरना वधा शब्दो प्राणीना पर्यायवाळा छे, ते जीवोने दंड चाबखा विगेरेथी हणवा नहि; तथा बीजा पासे वळजवरी करीने हणाववा नहि; तथा नोकर, दास, दासी विगेरे उपर ममखभावथी तेमनो संग्रह न करवो; तथा शरीर अने मननी पीडा उपजावीने परितापत्रा (संतापवा ) नहि; तथा जीवथी प्राण दूर करवावडे तेने अपद्रावण न करवुं. आवो जिनेश्वरनो कहेलो दुर्गतिने अटकाववाने भुंगळ समान तथा सुगतिनी पगथी समान धर्म छे, अने ते धर्म पुरुषार्थना प्रधानपणाथी विशेषणो बतावे छे. पापना अनुबन्ध रहित शुद्ध छे, पण बौद्ध तथा ब्राह्मणोथी एकेन्द्रियथी पचेन्द्रिय सुधीना जीवोनी हिंसानी अनुमतिने दुःखरूप - कलंक छे. (एटले, ब्राह्मणो यज्ञ करावे छे, अने बौद्धना साधुओ साधु माटे रांधेलं खाय छे, तेथी वधनी अनुमतिनो दोष लागे छे) तेवो दोष जैनधर्ममां नथी. वळी, पांच महाविदेहने आश्रयी | ते निरंतर (नित्य) छे, तथा शाश्वत तथा (मोक्ष गति आपवाथी शाश्वत छे अथवा नित्य होवाथी शाश्वत छे, पण एम न थाय; के भव्यत्व माफक प्रथम थइने पछी न थाय; अने घटना अभाव माफक प्रथम न थइने नित्य थाय; पण आ धर्म तो त्रणे काळमां शाश्वत छे. वळी, आ जीवसमूहने दुःखसागरमा डुबेल जाणीने तेमांथी पारजवा, जंतुनां दुःख जाणनारा एवा केवळी भगवंतो ए बताव्यो छे. आ गौतमस्वामीए पोतानी बुद्धिए न कहेलुं बताववानुं कारण शिष्योनी मति स्थिर करवा माटे कहां के : - आ शुद्ध धर्म जीनेश्वरनेा कहेलो छे. आज सूत्रमां कहेला अर्थने नियुक्तिकार सूत्र - स्पर्शीक वे गाथावढे कहे छे: जे जिणवरा अईया, जे संपइ जे अणागए काले । सव्वेवि ते अहिंसं, वर्दिसु वदिहिंति विवदिति ॥ २२६॥ सूत्रम ॥५०६ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ५०७n 5 छप्पिय जीवनिकाए, णोवि हणेणोऽवि अहणाविज्जा। नोऽवि अअणुमन्निज्जा, सम्मत्तस्सेस निजुत्तो ॥२२७॥ आचा ____ आ बन्ने गाथानो अर्थ सरळ छे तेथी टीका नथी तेथी थोडामा लखिए छिए. जे जिनेश्वरो पूर्व थया वर्तमानमां छे, भने । भविष्यमां थशे; ते वधाए भूतकाळमां अहिंसा बतावी छे, बतावशे, अने बतावे छे. एटले, छ ए जीवनीकायने हणे नहि, हणावे ॥५०॥७॥ 18/ नहिं अने हणनारने अनुमोदे नहि. ए सम्यकत्वनी नियुक्ति छे तीर्थकरनो उपदेश एमना स्वभावथी परोपकारीपणे अपेक्षा विना तसूर्य उदय माफक प्रवर्तलो छे, जेम सूर्य वधाने प्रकाश आपे, तेज प्रमाणे जिनेश्वर बोध आपे, एटले १२६ सूत्रमा बताव्या प्रमाणे ४ धर्म चरण पाळवा माटे उठेला एटले ज्ञान दर्शन चारित्रमा प्रयत्न करनारा अने तेनाथी विपरीत ते धर्ममां उद्यम न करनाराने 15 माटे सर्वज्ञ त्रण जगतना नाथे तेवा तेवा निमित्तोने उद्देशीने धर्म कह्यो छे, ए प्रमाणे बधे समजवू. । अथवा उठेला अने न उठेला एटले द्रव्यथी बेठेला अथवा न बेठेला जीवो छे, तेभने विर प्रभुए धर्म कह्यो तेमां ११ गणधरोए उभे उभे धर्म सांभळ्यो, एटले प्रभुना सन्मुख रहीने धर्म सांभळवा अथवा चारित्र ग्रहण करवा तैयार थयेलाने संभळाव्या, ते उपस्थित छे, अने तेथी विपरीत त्यां हाजर न होय ते अन उपस्थित (गेर हाजर) हता, (अहिं निमित्ते सूत्रमा सातमी विभक्ति लीधी छे जेमके चामडामां दीपडा मराय छे.) शंका-भावथी आवेला चिलाति पुत्र विगेरेमां धर्म कथा उपयोगी छे, पण गेरहाजर होय तेने धर्म कथा शुं गण करे? उत्तर:-जे गेरहाजर होय तेवाने इंद्र नाग विगेरे माफक कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी अथवा क्षय उपशमना मेळववाथी & भार AA-TOS Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8/ गुणकारी थाय छे, तेथी तमारी 'शंका' नकामी छे. पाणीने अथवा आत्माने दुःख दे (दंडे) माटे दंड छे, ते मन वचन कायाए त्रण प्रकारनो छे, ए त्रण दंडथी दूरथयेला ते आचा० उपरत दंड कहेवाय, ते बधा जीव उपर उपकारनी बुद्धिए उपदेश देवाय, एटले जेमणे दंड तज्यो छे, तेवा मुनिओ संयममां स्थिरता * सूत्रम् ॥५०८॥ करे, अने नवा गुणो प्राप्त करे, अने बीजां दंड न तजेला (ग्रहस्थीओ) ते दंडने तजे, माटे तीर्थकर उपदेश आपे छे, ॥५ ॥ तथा संग्रहकराय ते उपधि छे, ते द्रव्यथी सोनु विगेरे छे, अने भावथी कपट छे, ते राखनार उपधिवाला छे, ते सोपधिक छे, बाकीना तेथी उलटा अनुपधिक छे, तेओने माटे पण उपदेश छे, संयोग (संबंध) ते पुत्र स्त्री मित्र विगेरे उपर प्रेमनो छे, तेमां। रक्त थयेला ते संयोगरत कहेवाय, अने तेथी उलटा एकत्व भावना भावनारा मुनि असंयोगरत कहेवाय; ते बन्नेने पण भगवाने उपदेश आपेल छे, तेथी ते सत्य छे. (च शब्द नियम अर्थ वतावे छे, माटे) भगवाननुं वचन सत्य छे, तेम यथायोग्यपणे वस्तुनो सद्भाव कह्याथी ते वाच्य पण छे. ते वतावे छे के, प्रभुए आ प्रमाणे का के:-" सर्वे जीवो हणवा न जोइए" विगेरे. आ. राप्रमाणे सम्यग्दर्शननुं श्रद्वान राखवू; अने ते श्रद्धान-जिनेश्वरनां प्रवचनमां छे. जे सम्यक्मोक्षमार्गने आपनार छे. वळी, ते बधा। भना प्रवन्धथी दुर होवाथी प्रकर्षथी वोलाय छे, (माटे ते प्रवचन.) पण, वीजा मतमां तेवो अहिंसा धर्म बताव्यो नथी. जेमके-५ अन्य मतवाळा प्रथम कहे के, सर्व जीवोने न हणवा. ("न हिंस्यात्सव भूतानि") कहीने यज्ञमां पशुवधनी आज्ञा आपे छे. एटले, प्रथमनां वचनने तेमनां पाछळनां वचनथी वाधा लागे छे. (माटे, ते प्रवचन नथी.) आ प्रमाणे सम्यक्त्वनुं स्वरुप कहीने तेनी है प्राप्तिमां शुं करवू ते वतावे छे. -KHANGUAGECHOREOGROCENCE Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५०९॥ HISHASTR तं आइत्तु न निहे निक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिटेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे (सू०१२७) 18 प्रभुए कहेला तत्त्वार्थ उपर श्रद्धा राखवारुप सम्यग्दर्शन मेळवीने कहेलु कार्य न करवाथी दोष लागे; माटे, तेने गोपवे नहि. सूत्रम् ते प्रमाणे संसर्ग विगेरे निमित्तथी मिथ्यात्व दुर करीने पण, जीवना सामर्थ्य गुणोने छोटे नहि..( यथाशक्ति संयम पाळे; पण, प्रमाद न करे) अथवा शिवमतना के, बौद्धमतनां व्रतो ग्रहण करीने व्रतेश्वरयाग विगेरे छोडीने विधिए गुरु पासे पूर्वे वृतो स्थापन ४॥५०९॥ करीने दीक्षा मूकी देवी नहि. तेज प्रमाणे गुरु विगेरे पासे सम्यक्त्व लइने पार्छ तजे नहि. प्रश्न:-शुं करीने? उ:-जेवो धर्म छे, तेवो श्रुतचारित्ररूप-धर्म समजीने अथवा वस्तुओनो स्वभाव समजीने तेना उपर विश्वास राखे; तथा ते 31 धर्म जाणीने बीजुं शुं करे? ते कहे छे:-देखेला सुंदर अने खराब एवां रुपोवडे निर्वेद पामे; (वैराग्य मेळवे.) ते आ प्रमाणे: सांभळेला शब्दो, चाखेला रसो, सुंघेला गंधो, फरशेला शुभ. अने अशुभ स्पर्शोवडे, रागद्वेष थाय; ते न करतां मध्यस्थ रहे; अने D विचारे के, एमां रागद्वेप शुं करवो ? वळी पाणी समूहनी अन्वेषणा जे इष्ट वस्तुओने लेवानी अने अनिष्ट वस्तुने त्यागवानी: 2 जे बुद्धि छे, तेवा रागद्वेप साधु न करे, जेने आवी सामान्य लोक जेवी एषणा नथी तेने बीजी पण कुबुद्धि नथी, ते बतावे छे. जस्ल नस्थि इमा जाई अण्णा तस्स कओ सिया ? दिळं सुयं मयं विण्णायं ज एवं परिकहिज्जइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति ॥ सू० १२८ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचा० ब ॥५१०॥ - - -- जे मोक्षामिलापी साधुने लोकैपणा [संसारी वासना] नथी तेने बीजी आरंभनी प्रवृत्ति पण होती नथी, अर्थात् जेणे भोग वासना त्यागी, तेने वीजी आरंभ प्रवृत्ति क्याथी होय? एटले साधुने सावध अनुष्टाननी प्रवृत्ति न होय, कारण के सावध प्रवृत्ति 6 ग्रहस्थीनेज होय छे, सूत्रम् ____ अथवा हमणांज बतावेली प्रत्यक्ष सम्यक्त्व ज्ञाती जे जीवोने न इणया संबंधी वतावी ते दया जेने न होय तेवाने कुमार्ग तजवा ॥५१०॥ तथा सावध अनुष्ठान छोडवारुप वीजी विवेकनी बुद्धि क्यांथी होय ! (अर्थात् दया साथेज बीजी सुबुद्धि होय छे.) हवे शिष्यनी गति स्थिर करवा कहे, के जे तेने में कहुं ते सर्वज्ञ देवे केवळज्ञान वडे साक्षात् देखेलं छे, ते सेवा करवावडे में सांभळ्यु, ते लघुकर्मवाळा भव्य जीवोने मानवा योग्य छे, तथा ज्ञानावरणीय कर्मना क्षय उपशमथी विशेष प्रकारे जाण्यु, माटे विज्ञात छे, तेथी तमारे पण सम्यक्त्व विगेरे में तमने जे का तेमां तमारे यत्न करवो, जेओ उपर वतावेल मार्ग न आदरे तेओने ही शुं थाय छे ते कहे छे, ते ससारी मनुष्यो मनुष्य विगेरे जन्ममां अत्यंत गृद्ध बनीने वारंवार 'मनोज्ञ इंद्रियोना' विषयमा वारंवार | आनंद मानीने फरी फरीने एकेन्द्रि वे इन्द्रिय विगेरे जातिमां जन्म ले छे, पण संसारने तरी शकता नथी, जो आ प्रमाणे तत्वने || जाणनारा वर्तमान स्वाद लेनारा छे, जन्ममां आनंद माननारा इन्द्रिय विषयमां लीन थयेला वारंवार नवो जन्म विगेरे साधनारा 81 संसारी जीवो होय तो साधुए शुं करवू ते कहे छे, अहो अ राओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सपा + Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sit% सूत्रम् ॥५११॥ परिकमिजासि तिबेमि ( सू० १२९ ) सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥ ४-१ । आचा० दिवसे अने रात्रे मोक्ष मार्गमांज यत्न करतो, परिसह उपसर्गमां न डरनारो जे धीर पुरुष छे, तथा सर्व काळ जेणे सत् असत्नो है विवेक स्वीकार्यो छे, तेने गुरु कहे छे, के तुं जो, प्रमत्त जीवो जे ग्रहस्थो छे, अथवा अन्य मतवाला जेओ धर्मथी वहार रहेला छे, ॥५११॥ तेमनी दुर्दशा देखीने तेवू दुःख तने न भोगवईं पडे माटे तुं सर्वदा निद्रा विकथा विगेरेथी रहित बनी आंख फरकवा मात्र पण प्रमादी न थइश, अने कर्म शत्रने जीतवामां अथवा मोक्ष मार्गे जवाथी पराक्रमी बनजे, आ प्रमाणे सम्यक्खनु स्वरुप बतावनार चोथा अध्यायनो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बीजो उद्देशा. पहेला उद्देशा साथे बीजानो आ प्रमाणे संबंध छे, के पहेला उद्देशामां सम्यक्त्ववाद बताव्यो, अने ते तेनो शत्रु मिथ्यावाद छे, तेने दुर करवाथी आत्मा लाभ मेळवे छे, ते दूर करवो ज्ञान विना न थाय, अने विचारणा विना परिज्ञा न थाय, मिथ्यावादथी 6 थयेल अन्य तीथिकोना मतनी विचारणा करवा आ कहेवाय छे, आ संबंधी आवेला उद्देशानुं आ पहेलं सूत्र छे, जे (आसवा) विगेरे छे, अने अहिं जे सम्यक्त्व लीधुं ते सात पदार्थो श्रद्धान करवानुं छे, तेमां मोक्षाभिलापीए शस्त्रपरिज्ञा नामना पहेला अध्ययनमा 15 जीवाजीव पदार्थना ज्ञानवढे संसार तथा मोक्षनां कारणोनो निर्णय करवो एटले तेमां संसारर्नु कारण आस्रव अने निर्जरा, संसार ४ 6. मोक्षना अनुक्रमे कारणो छे, तेवं सम्यक्स वरोवर विचारवा माटे कहे छे. 15-% Acco Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० RECA- म सूत्रम् ॥५१२॥ जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा; जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा । ते अणासवा; एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं (सू० १३०) सूत्रमा जे शब्द छे, ते सामान्यथी लीधेल छे, अने जे आरंभोवडे आठ प्रकारनां कर्मनो आश्रय करे छे, ते आस्रवो छे, अने जे अनुष्ठानो करवाथी बधी रीते कर्म थाय ते परिस्रव छे, हवे पूर्वे जे आस्रवो कर्मबंधनां स्थान बताव्यां, ते पोतेज कर्मनी निर्ज-: रानां कारण थाय छे, तेनो भावार्थ आ छे, के सामान्य बुद्धिवाळाने मोह करावे तेवां फुलनी माळा तथा सुंदर स्त्रो मुखकरण ५ वास्ते मानवाथी ते वस्तुओ तेमने कर्मबंधनो हेतु थवाथी आस्रव छे पण तेज वस्तुओ तत्वने जाणनारा विषयसुखथी दूर है। रहेला महात्माओने फुलनी माळा विगेरे नकामी जेवी लागवाथी तथा संसार भ्रमण करावनारी जाणीने ते वस्तुओथी तेने वैराग्य थाय छे, तेथी का के, जे आस्रव छे ते ज्ञानीने परिस्रव एटले निर्जरानुं स्थान छे, तथा बधी वस्तुओर्नु अनेकांतपणुं वताववा तेथी उलटुं सूत्र कहे छे, जे परिस्रवो छे ते आम्रबो थाय छे, एटले अरिहंत साधु तप संयम दशविध चक्रवाळा समाचारी अनुष्ठान विगेरे भव्यात्माने निर्जरानां स्थान छे, तेज उत्तम पदार्थो जेने अशुभ कर्मनो उदय होय तेवा अशुभ अध्यवसायवाला तथा दुर्गतिमां लइ जवाने आगेवान बनेला जंतुने ते उत्तम पदार्थोनी आशातना करवाथी तथा सातारिद्धिरसनो गर्व करवामां तत्पर मनुष्यने ते * आस्रवो थाय छे, एटले जेनाथी धर्म प्राप्ति थाय एवा तीर्थकरो पण तेवाने पापर्नु उपादानकारण थाय छे, तेनो परमार्थ M आ छे, जेटलां कर्मनी निर्जरा माटे संयम स्थान छे, तेटलांज बंधने माटे असंयमस्थान छे, कां छे केः न माड Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:- प्राचा सूत्रम % %A A- . यथा प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासानिर्वाणसुखहेतवः॥१॥ जेटला भकारना जेटला संसारना भ्रमणना हेतुओ छे, तेटलाज तेने विपरीत रीते लेबाथी निर्वाण मुखने आपनारा हेतुओ छे. । ए प्रमाणे रागद्वेपथी जेनुं अंतःकरण मलिन छे, अने विषय सुखमां जे तत्पर छे, तेना विचारो दुष्ट होवाथी तेने वधु संसारने । माटे छे, जेम लीमडाना रसमां जो दुध साकर विगेरे मेळवीए तो पण लीमडानी कडवाशथी मीठी वस्तु पण कडवी थाय छे, पण ॥५१३॥ लै सम्यगदृष्टि जीव, जेणे संसार समुद्रमांथी नीकळवा माटे विषय अभिलाषो दूर करेलाने सर्वे मोहक वस्तुओ अशुचिरुप अने दुःखनुं कारण छे. एवं भावनारने संवेग थतां ते मोहक वस्तुओ संसारर्नु कारण छतां पण मोक्षने माटे थाय छे. वळी तेज विषयने उलटा (प्रतिषेध) सूत्र वडे कहे छे. 'जे अणासवा' इत्यादि-प्रसज्य प्रतिषेधना क्रिया प्रतीषेध पर्यवसानपणे 'परिसव' आ पदवडेसंबंधनो अभाव होवाथी आ पर्युदास छे. ते समजावे छे. एटले आस्रव (संसार कृत्य) थी उलटुं अनास्रव ते व्रत छे. तो पण ते व्रतो अशुभ कर्मना उदयथी अशुभ अध्यवसाय थतां कर्मने अपरिस्रव (निर्जरा माटे नहीं) थाय, जेमके कोंकण आर्य विगेरेनु चारित्र कर्मनी निजरा माटे न थयु, तेमज अपरिस्रव जे पापर्नु उपादान कारण छतां कोइ पण प्रवचन (जैन शासन) ने उपकार विगेरे करवाथी ते अशुभ कृत्यो कणवीर लताने भमडनारा क्षुल्लकनी माफक अनास्रव एटले कर्मबंधननां कारण थतां नथी. (उपरना सूत्रोनो भावार्थ आ छे के जे आस्रव ते बंधन कारण छतां कारण विशेषथी ते, कर्मबंधरुपे नथी थतुं, तेम निर्जरानुं %EX Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५५॥ ॥५१४॥ जनरल कृत्य करवा छतां तेवा संजोगोना अभावेमन परिणाम वदलातां बंधरुपे थाय छे, तेवीरीते कोइने व्रत लीधाथी अनास्रव थतां निर्जरा थवी जोइए, छनां कारण वदलातां ते व्रत बंधनरुपे थाय, अने अपरिसूव ते बंधनु कारण छतां संजोगो वदलातां बधरुपे न है थाय, माटे एकांत पकडवू. पण बुद्धि पूर्वक संजोगो तथा मनना परिणाम विचारी अनुमान करवू, के वोलचु.) अथवा बीजी रीते बतावे छे. जे आसूव करे-ते आस्रबो (पच विगेरेमा 'अ' लागे छे, तेज प्रमाणे जे परिस्रव करे ते परिस्रवो (निर्जरक) छे. एनी। चोभंगी थाय छे, तेमां मिथ्यास अविरति प्रमाद कपाय योगोबडे जेओ कर्मना अस्रबो (बंधको) छे, तेओज बीजाओना परिस्रवो 2 (निर्जरा करनारा) छे आ प्रथम भांगामां पडेला बधा संसारी जीवो चार गतिमा भ्रमण करनारा छे. ते दरेकने प्रत्येक क्षणे | आसव तथा निर्जरा छे पण जेओ आसव करे तो परिसव न करे, आ चीजो भांगो शून्य छे कारणके, बंधनी जोडे निर्जरा (थोडेघणे अंशे) हमेशां चालुज छे. ए प्रमाणे जे अनासबवाळा छे, तेओ परिसववाला छे, एटले, तेओ अयोगी केवळी १४ गुणस्थानमा रहेला त्रीजा भागमां छे, अने चोथा भागमां सिद्ध भगवंतो छे, तेओमां अनावपणुं छे, तेम अपरिसरपणुं पण छे, एमां पहेलो अने छेल्लो भांगो सूत्रमा लीधेल छे. अने पहेलो छेल्लो लेवाथी मध्यना वे भांगा साथे रहेवाथी आवीगयला जाणवा. जो, एम छे, तो शुं करवं ते कहे छे: उपर कहेला पदो (जेनाथी अर्थ समजाय; ते पद छे ते) आसवो विगेरे छे, (अने बीजानो अर्थ समजावा माटे शब्दना. | प्रयोगथी जे पदो अने अर्थ कहेवा जोग छे,) ते मने योग्यरीते समजवावडे समजेलो साधु विचारे के, दुनियाना जीवो आसवद्वार बनवल % RECE- Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 बडे आवेलां कर्मवडे बंधाय छे, तथा तप अने चारित्र विगेरेथी कर्मोथी मुकाय छे. आq तीर्थकरना कहेला आगमने अनुसारे जे चा० आज्ञामा रहे; अने वर्ते ते मुकाय. एवं जाणीने कर्मथी छुटवा जुडुं बतावेल आसव, तथा परिसव समजीने क्यो माणस धर्मचारित्रमा | सत्रम उद्यम न करे? केवीरीते कहेल छे, ते वतावे छे. ११५॥ ४ आस्रवो छे, ते ज्ञानना प्रत्यनीकपणाथी एटले, ज्ञान भणावनारना गुण भुलवा. भणतां अंतराय करवी; ज्ञान उपर द्वेष करवो; ४॥५१५॥ ज्ञाननी अतिशय आताशना करवी ज्ञानने सम्यक्प्रकारे न बताववाथी ज्ञानावरणीयकर्म बंधाय छे, तेज प्रमाणे दर्शनना शत्रुपणाथी ज्ञानमां वतावेलां विघ्नो माफक दर्शनमां विघ्न करवाथी एटले, दर्शनने सम्यक्प्रकारे न बतावg; त्यां सुधीना दोषो लगाडवाथी दर्शनावरणीयकर्म बंधाय छे. तेज प्रमाणे प्राणीओk, तथा भूतोनुं तथा जीवोनु तथा सखनुं भलु चाही दुःख न आपबाथी शोकन कारण न आपवाथी तथा न झुरव्याथी तथा पीडा न आपवाथी तथा न संतापवाथी ( अर्थात् निर्मल चारित्र बढे सर्वे जीवोने अभयदान आपवाथी) साता वेदनीय कर्म बंधाय छे, एथी उलटुं एटले जीवोने असंयम वडे दुःख आपवाथी असातावेदनीयकर्म वन्धाय छे, तेज प्रमाणे अनतामुंवन्धीना उत्कृष्टपणाथी तीवदर्शन मोहनीयपणे तथा प्रबळ चारित्रमोहनीयना सदभावथी मोहनीयकर्म बन्धाय छे, महान आरंभथी तथा घणा परिग्रहथी पंचेन्द्रियना वन्धथी मांसना खावाथी नरकनुं आयु वधाय छे, तथा मायावीपणे जुठना कारणे तथा खोटा तोल माप करवाथी जीव तिर्यचर्नु आयु वांधे छे. स्वभावे विनयवान तथा सानुक्रोप लज्जालपणाथी, तथा अदेखाइ न करवाथी मनुष्यनु आयु बांधे छे, तथा सराग-संयमथी देशविरति (श्रावकनावत) तथा बाळतपस्यथी अने अफाम निर्जराथी देवर्नु आयु बन्धाय छे, अने कार्यमां सरळ, तथा कोमळ वचन योग्यरीते बोलवाथी शुभ नाम बन्धाय छे. अने तेथी उलटा -A 5 - 4 BREAK CCASR. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाना सूत्रम् ॥५१६॥ ॥५१६॥ 04-10-1450 दुर्गुणोथी अशुभ नाम बन्धाय छे. जाति, कुळ वळरुप तप, विद्या लाभ जैश्वर्यना मद न करवाथी ऊंचगोत्र वन्धाय छे, अने जाति | विगेरेनो मद करवाथी, तथा पारकानी निंदा करवाथी नीचगोत्र बन्धाय छे, दान, लाभ भोग-उपभोग, अने वीर्य ए पांचना अंतराय करवाथी अंतरायकर्म बन्धाय छे. आज उपर कहेला आस्रवो छे. हवे परित्रवोढुं स्वरूप वतावे छे: - अनशन विगेरे वाह्य अने अभ्यंतर-तप ते कर्मनी निर्जरा करनार परिस्रव छे, आ प्रमाणे आस्रव करनार अने निर्जरा कर- नार भेदोसहित जीवो वताच्या छे, ते वधा जीव विगेरे सात पदार्थो मोक्ष सुधी छे ते जाणवा. आ पदार्थोने तीर्थकर तथा गणधर भगवन्तोए लोकोत्तर ज्ञानवढे जाणीने जुदा जुदा बतावेल छे, अने तेज प्रमाणे तेमनी आज्ञामां वर्तनार चीजो कोइपण साधु चौद पूर्व विगेरेनुं ज्ञान धरावनार जीवोनां हितने माटे वीजाओने पण उपदेश आपे छे, ते वतावे छे: आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहा सच्चमिणं तिबेमि, नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि इच्छा पणीय। वंकानिकेया कालगहिया निचयनिविद्या पुढो पुढो जाई पकप्पयंति (सू० १३१) वधा पदार्थोंने बतावनार ज्ञान छे. ते ज्ञान ने होय; ते ज्ञानी कहेवाय, ते ज्ञानी प्रवचनमां मनुष्याने उपदेश करे छे. मनुष्य लेवानु कारण ए छे के, पचेन्द्रिय सांभळे समजे; तो पण, तेओ संपूर्ण चारित्र तथा संवर लइ शके नहि अने देवता विगेरे सांभळे, पण आदरी शके नहि वळी, केवळीने उपदेशनी जरुर नथी; माटे संसारमा रहेलां घातीकर्मवाळां जीवोने आ उपदेश अपाय छे. बदनाव-लालन 4%86- -७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५१७॥ वळी, जेओ धर्मने भविष्यमां समजशे, अने स्वीकारशे, जेम मुनिसुव्रतस्वामी तीर्थकरनो अने.घोडानो दृष्टांत छे, तेवाओने धर्म संभलावाय, अने ते समजेला होय एटले जेओने आगळ कहेतां छदमस्त साधुने खबर न पडे माटे केवा जीवोने कहे, ते कहे छे. विज्ञान प्राप्त एटले हितनी प्राप्ति अने अहित छोडवानो विचार करवाने जेने ज्ञान होय, तथा बधी पर्याप्तिओथी पर्याप्त एटले संझी होवा जोइए. आ संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे. "आघाइ धम्म खल से जीवाणं. तं जहा-संसारपडिवन्नाणं माणुसभवत्थाणं आरंभ विणईणं दुक्खुव्वेअसुहे सगा धम्मस्सवण गवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाण पत्ताणं" ससारमा रहेला मनुष्य जन्ममां आवेला पण आरंभथी विरमेला दुःखनी उपेक्षा करनारा सुखने वांछनारा होय छतां पण तेओ धर्म सांभळवानी इच्छा करता होय, गुरुनी उपासना करता होय, धर्मना विषयने पुछता होय अने समजवानी शक्तिवाला होय (आ मूत्र सरळ होवाथी टीका नथी परंतु आरंभ विनयनो अर्थ आरंभथी दूर होय) तेओने ज्ञानी साधु धर्म वतावे छे, ते कहे छे. 'अट्टावि' विगेरे एटले विज्ञानने प्राप्त थएलाने धर्मने कहेतां कांइ पण निमित्तथी आर्तध्यानवाळा चिलाति पुत्रीनी माफक होय तो पण धर्म पामे, अथवा विषयना अभिलाषथी शालिभद्र माफक प्रमत्त होय छतां पण तेवा कर्मना क्षय उपशमथी जेवो धर्म स्वीकारे छे, ते कहे छे अथवा आत दुःखीओ अने प्रमत्त मुखीओ तेओ पण धर्म पामे छे तो बीजाओगें शुं कहे ? (अर्थात् धर्म पामे छे) अथवा रागद्वेपना उदयथी आत तथा विषयोथी प्रमत्त छे. तेओ जैनेतर अथवा गृहस्थ संसारकांतारमा पेठेला केवी रीते तत्वने Pr Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 51 सूत्रम् ॥५१८॥ ॥५१८॥ . जाणेला करुणायोग्य रागद्वेप विपयना अभिलापने जडमूलथी उखेडवाने केम समर्थ न थाय, आ वातने बीजी रीते नमाने, तेथी बतावे छे 'अहासच्च' विगेरे. आजे में का अने कहेवाय छे, ते सत्य छे, एबुं हुं कहुँ छु के जेवी रीते सम्यक्त्व अथवा चारित्रना परिणाम जे दुर्लभ डे, ते पामीने प्रमाद न करवो, शिष्य कहे छे ठीक पण शुं आधार लइने प्रमाद न करवो! ते कहे छे, 'नाणा गमो' विगेरे, एटले कोइ पण वरखत संसारमा रहेलो जोव मृत्युना मोढामां न आवे एबुं नथी, का छे के:४ वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः। प्रयत्नशतपरोऽपि, विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः ___ कोइ डाह्यो माणस पूछे के बोलो, के अहींआ रोज सुखनां परिभोगथी लाड लड़ावेलो अने सेकडो प्रयत्न करीने राखेलो पण । 1 वगर व्यथाना आयुवाळो माणस कोइ पण छे के ? (नथी) न खलु नरः सुगैघसिद्धासुरकिन्नर नायकोऽपि यः। सोऽपि कृतान्तदन्तकुलिशाक्रमेण कृशितो न नश्यति॥ देवताओना समूह अने सिद्ध विद्यावाळो तथा असुरकिन्नरनो नायक पण अथवा मनुष्य पण एवो कोइ नथी, के जे पुरुष जमना दांतरुपी बजना आक्रमणथी कृश करेलो ते न नाश पामे ? वळी मृत्युना मोढामां गयेलो जे कोइ छे, तेने बचाववानो कोइ पण उपाय नथी का छे, के नाशी जाय, नमी पडे, चाल्यो जाय विस्तार करे अथवा रसायम क्रिया करे अने मोटा व्रत करे जे वधारे बीकण छे, ते गुफामां पण पेसे, तप करे, मापसर खाय, मंत्र साधन करे तो पण जमना दांतरुप यंत्री कातरमा ते कपाइने चीराय छे ! अने जेओ विषय कसायना अभिलाषथी प्रमत बनेला धर्मने नथी जाणता तेओनी शुं दशा थाय छे, ते कहे छे, इंद्रियो तथा मनना --ATESG Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० - । विषयने अनुकूळ प्रवृत्ति (इच्छा) प्रमाणे अहीं विषयना सन्मुख जेमां कर्मनो बन्ध छे, ते तरफ अथवा संसारना सन्मुख प्रकर्षपणे जेओ गएला छे तेओ इच्छा प्रणीत छे. जेओ तेवा छे. तेओ वंकनी अथवा असंयमनी जे मर्यादा छे, तेनो आश्रय लीधेला ते वंकानिकेत छे, अथवा जेमन वांकुं निकेत छे, तेवा छे, (व्याकरणना नियमथी मूत्रमांकनो काथयेल छे.) अने जेओए असंयमनी म । सूत्रम् र्यादा (इद) लीधी छे. तेओ काल (पोत)थी, घेराता कर्मनां उपादान कारण जे सावध कर्मनां अनुष्ठान छे, तेमां रक्त बनीने वारं-8॥५१९॥ * वार एकेन्द्रिय जाति विगेरेमां नवां नवां जन्म मरण भोगवे छे, अथवा काल ग्रहितनो वीजो अर्थ एम लेवो के केटलाक जीवो एम। चिंतवे के धर्म करीशुं, चारित्र लइशं, एवी आशाथी बेसी रहे, (अथवा आ हिताग्निना व्याकरगना प्रयोगथी अथवा आर्ष वचन प्रमाणे परनिपात करतां) गृहितकाल शब्द लेतां, केटलाक एवं इच्छे के पाछली चयमां के मरणना अंत समयमां अथवा पुत्र परणाव्या पछी धर्म करीशुं, हमणा नहि, एवी उमेद राखनारा सावध आरंभमां रक्त चनी इच्छा प्रमाणे वक्र असंयममां रहीने भविष्यने भरोसे रहीने धर्म करवानु राखी वर्तमानमा पाप रक्त वनी पृथक पृथक (जुद्दी जुदी) एकेन्द्रिय जाति विगेरेमा जन्म-मरण करे छे. बीजी प्रतिमां 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' पाठ छे. तेनो अर्थ आ छे, के उपर कहेली रीते इच्छा एटले, इंद्रियोने अनुकूल कर्म* रुप-मोहमा डुबेला वारंवार एवां पाप करे छे के, तेनी संसारथी अमच्युति (नमुक्ति) थाय, संसारभ्रमण कोज करे; तेथी | थाय ते वतावे :इहमेगेमिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ, अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति, चिट्ठ कम्मेहिं कूरेहिं चिट्ठ परिचिट्टइ, अचिटं कूरेहि कम्मेहिं नो चिट्ट परिचिट्टइ, एगे वयंति अदुवावि नाणा नाणो वयंति अदुवावि एगे (सू० १३२) । --- *-*45%-5% X- - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५२०॥ इह (आ) चौद राजलोकमामणवाळा संसारमा केटलाक मिथ्याख, अविरति प्रमाद, अने कपायरुपदुर्गुणवाळां संसारी जीवोने ? (तेमनां पापनां फळ) ते ते नरक तिर्यच गति विगेरे पीडाना स्थानमा वारंवार जवाथी संस्तव (परिचय) थाय छे, एटले, पूर्वनां आचा० सूत्रमा कह्या प्रमाणे तेओ इच्छाने अनुसार तत्वो वनावी इन्द्रियोने चश थद तेने अनुकूळ आचारीने नरक विगेरे स्थानमां गयेला ॥५२०॥ छतां पण जैनेतर अथवा जैनमतना पासत्था (स्वेच्छाचारी) साधुओ औदेशिक विगेरे दोपित आहारने निर्दोष बतावनारा नरक विगेरेना दुःखना अनुभवो (स्पर्शने) भोगवे छे, (ते इन्द्रियोथी सौथी वधारे परवश बनेला) नास्तिकनुं मानवु वतावे छे केः पिव खाद च चारुलोचने!, यदतीतं वरगात्रि तन्नते।नहि भीरु! गतं निवर्तते, समुदायमात्रमिदं कलेवरम् ॥ HD ते मतनो नायक ब्रहस्पति पोतानी विधवा बनने कुमार्गे दोरवा कहे छे के:-" हे सुंदर लांचनवाळी ! इच्छत पी, खा. हे र सुंदर शरीरवाळी ! जे गयुं ते तारु नथी ! हे वीकण ! गयेलं पाछु आवतुं ना ! आ परमाणुओना समुह मात्रज शरीरनुं खोखु छे. (अर्थात जे शरीरवढे धर्म साधवानो छे, तेना वढे भोगोमांज रक्त थवा बताव्यु अने तेनी भोळी बेनने विवेक न होवाथी नेना 11 फांसामा फसी, अने तेमनां अधम आचरणोथी अनेक जीवाने कुमार्गे दोरवातुं स्थान मळघु.) है हवे चैशेपिक मतनुं थोडं वर्तन दूपणरुप छे. ते बतावे छे, के वैशेपिक मतवाला पण सावध योगना आरंभोओ छे, तेश्रो बोले छे के, अभिषेचन (स्नान) उपवास ब्रह्मचर्थ गुरुकुलवास, वानप्रस्थ (वनवास) यज्ञ करवो, दान दे, मोक्षण (मोक्षण) दिग् नक्षत्र मंत्र काळ नियम विगेरे छे (आ वावतोमां स्नान यज्ञ विगेरे एकेन्द्रि विगेरेने पीडाकारक छे तेज प्रमाणे बीजा मतवाळाओनं जे सावध अनुष्ठान छे ते एवी रीते वतावg Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५२१॥ प्रश्नः - कदाच एम पण होय, परंतु बधाए तेत्रा इच्छाप्रणीत विगेरेथी दुर्गतिमां जइ दुःखनो स्पर्श भोगवनारा छे के कोइकज तेने योग्य कर्म करनारो दुःख भोगवे छे ? ते बतावे छे. उत्तरः- वधा नहीं, पण जे अत्यंत क्रुर वधबंधन विगेरेनी क्रिया वडेज (चीकणा कर्म वांधी) वैतरणी तरण असिपत्र वनपत्र पडवानी तथा शाल्मली वृक्षनुं आलिंगन विगेरेथी थएल नरकनी भयंकर वेदनानी विरुप दशाने भोगवतो सातमी विगेरे नरकमां वसे छे, पण जे अत्यंत हिंसावाळा कर्मो न करे ते घणी पीडावाळां नरकोमां उत्पन्न थतो नथी, ठीक, एम हशे, पण आवुं कोण कहे छे, 'एगे वयंती' त्यादि चौद पूर्वी विगेरे मुनिओ कहे छे, अथवा जेने सकळ (वधा) पदार्थोनुं वतावनारुं ज्ञान छे, ते ज्ञानी वोले | | तथा जेवुं दिव्यज्ञानी केवळी वोले छे तेमज श्रुत केवळी वोले छे, तथा जे श्रुत (ज्ञान वाळा ) केवळी वोले छे, तेज निरावरण केवळज्ञानी बोले छे, (ते प्रत्यागत सूत्रवडे जाणवुं के) 'नाणी' विगेरे - ज्ञानी केवळी जे बोले छे तेतुं श्रुत केवळी यथार्थ बोलता होवाथी ते एकज छे, कारण के केवळी प्रभुने दरेक पदार्थ साक्षात् देखाय छे, अने श्रुत केवळी तेमना उपदेश प्रमाणे वर्ते छे. तेथी बोलवामां पण एक वाक्यता ( सरखापणुं ) छे; ते कहे छे, तथा वादीओनो विवाद तथा तेमनुं समाधान करे छे. आवंती यावंती लोयंसि समणा व माहणा य पुढो विवायं वयंति से दिहं च णे सुयं च णे मयं च णे विष्णायं च णे उडूढं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपंडिलेहियं च णे- सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्त्रे भूया सव्वे सत्ता हन्तव्वा अज्जावेयव्वा परियावेयव्त्रा परिघेत्तव्वा सूत्रम् ॥५२१ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५२२॥ *** उद्देवव्वा, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोस्रो अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी - से दुद्दिष्टं च भे दुस्सुयं च मे दुम्मयं च भे दुब्विण्णायं च भे उडूढं अहं तिरियं दिसासु सव्बओ दुप्पडिलेहियं च भे, जं णं तुब्भे एवं आइक्खह एवं भासह एवं पण्णवेह - सच्चे पाणा ४ तवा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं वयं पुण एवमाइक्खामो एवं भासामो एवं परुवेमो एवं पण्णवेमो- सव्वे पाणा ४ न हंतव्वा १ न अज्जावेयवा २ न परिधितवा ३ न परियावेयवा ४ न उदयवा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, आयरियवयणमेयं पुवं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्लामि, हंभो पवाइया! किं से सायं दुखखं असायं ? समिया पविणे यावि एवं बूया - सबेसिं पाणा गं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाण महन्भयं दुख्खं तिबेमि (सू० १३३) ॥ चतुर्थाध्ययने द्वितीय उदेशकः ४-२ ॥ 'अवन्ती' जेटला 'केआवन्ती' केटलाक मनुष्य लोकमां जैनतर साधु, तथा ब्राह्मणो जुदुं जुदुं विवादरुपे बोले छे, अर्थात् % 4% सूत्रम् ॥५२२॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५२३॥ | केटलाक अन्यदर्शनी ओ परलोकने बताववानी इच्छावाळा पोताना मंतव्यना प्रेमथी वीजानुं मंतव्य जुलुं ठराववा विवाद करे छे, जेमके भागवत मतना लोको कहे छे के पचीस (२५) तत्वना ज्ञानथी मोक्ष थाय छे. आत्मा सर्वव्यापि छे, गुण रहित छे, चैतन्य लक्षणवाळो छे, अने विशेष रहित सामान्य तत्व छे, तथा वैशेषिक मतवाला कहे छे, द्रव्य विगेरे छ पदार्थना परिज्ञानथी मोक्ष छे, समवायिज्ञान गुणवडे इच्छा प्रयत्न द्वेष विगेरे गुणोथी गुणवान् आत्मा छे, परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषरूप तत्व छे, शाक्य मतवाला कहे छे, परलोकमां जनार आत्माज नथी, निश्चयथी सामान्य क्षणिक वस्तु छे, मीमांसक कहे छे, के मोक्ष तथा सर्वज्ञनो अभाव छे, तथा केटलाक मतमां पृथ्वी विगेरे एकेन्द्रिय जीवो नथी, वीजा केटलाक वनस्पतिमां पण अचेतनपशुं माने छे, तथा केटलाक वेयेन्द्रि विगेरे कृमी विगेरेमां जंतुपणुं मानता नथी, अथवा जीवपणुं मानवा छतां तेना वधमां बंध मानता नथी, अथवा अल्प मात्र बंध माने छे, तथा हिंसामां पण भिन्न वाक्यपणुं छे, ते कहे छे: प्राणी प्राणज्ञानं घातकचित्तं च तद्रताचेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा || जीव जीवनुं ज्ञान, घात करनारनुं चित्त, अने तेमां रहेलीचेष्टा पाणा साथे वियोग, आ प्रमाणे पापने जाणवाथी हिंसा थाय छे. तथा औदेशिकना परिभोगनी आज्ञा आपवा विगेरेनी जे विरूद्ध वात छे, ते पोतानी मेळे विचारखं, प्र-ते ब्राह्मण तथा श्रमणो धर्म विरुद्ध जे वोले छे, ते सूत्र वडेज बतावे छे, अन्य दर्शनीभुं कहेवु आ छे केः - ( ' से दिहं चेण इत्यादि ' थी लइने 'नत्वित्य दोसोत्ति, ' ) दिव्यज्ञानवडे अमे अथवा, सूत्रम् ॥५२३ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 सूत्रम् ॥५२४॥ अमारा धर्मना नायको, (तीर्थकरो) शास्त्र रचनाराए साक्षात् जोयुं छे. अथवा, अमारा मोटा गुरु पासेथी अमे तथा अमारा वडगुरु आचा० पासेथी गुरुए सांभळ्युं छे. अथवा ते धर्मनायकनी पासे सेवामा रहेनारा शिष्योए एम मान्युं छे. अथवा तेमने आ युक्तिए युक्त होवाथी मान्य छे. अथवा अमोने अथवा, अमारा धर्मनायकने आ जाणीतुं छे, ते तत्व भेदना पर्यायोवडे अमोए अथवा, अमारा ॥५२४॥ धर्मनायके पारकाना उपदेशथी नहि पण, स्वयं जाणेलुं छे के, उपर नीचे तथा, चार दिशा, चार खुणा मळी दशे दिशामां तथा, बधां प्रमाणो ते, प्रत्यक्ष अनुमान ऊपमान आगम अर्थापत्ति विगेरेथी तथा, मनना निश्चयथी अमे तथा अमारा गुरुए विचारी ली, छे केः-सर्वे प्राणो, सर्वे जीवो, सर्वे भूतो, सर्वे सत्वो हणवा, हणाववा; संग्रह करवो; सतापवा; दुःखी करवा तेमां कंइ दोष नथी; मतेम धर्मकार्यमां पण समजवु के, याग यज्ञ करवामां अथवा, देवताने बळिदान आपवामां पाणी हणाय; तो, पापनो बंध नथी. आ। प्रमाणे, केटलाक जैनेतर सन्यासीओ तथा पोताने माटे रसोइ बनावेली जमनारा ब्राह्मणो धर्म विरुद्ध तथा, परलोकविरुद्ध बोले छे. | आ प्रमाणे, तेमन बोलवू जीवहिंसान होवाथी पापना अनुबंधवालं वचन अनार्यप्रणीत (रचेल) छे, पण जेओ तेवा हिंसक इन्द्रिय प्रिय नथी. तेवाओ शुं कहे छे? ते बतावे छे. (तत्र वाक्यनी शरुआत करवा अथवा निर्धारण माटे छे.) जेओ देश भाषा तथा चारित्र वडे आर्य (उत्तम गुणवाळा) छे, | तेओ एम कहे छे, के अन्य मतवाळाए जे का ते तेमणे खराब रीते देखेलुं छे, अर्थात् तमोए अथवा तमारा गुरु तथा धर्मना नायकोए जीव हिंसानी पुष्टि करो तेथी नीचला दोषो तमने लागु पडे छे. (णं वाक्यालंकारमा छे) वळी तमे याग अथवा देवताना बलिदानमां हिंसाने निर्दोष मानो छो, परंतु आर्य पुरुषो तेमां पण दोष माने छे. एq बतावीने हवे आर्य पुरुषो पोतानो मत स्था •-२RAS-IPI SSC Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . R E आचा० सूत्रम् % ॥५२५॥ ॥५२५॥ - % र- % पन करे छे अने कहे छे, अमे आq कहीए छीए, अने प्ररुपणा करीए छीए केः-वधा पाण, जीव, भूत, सत्व ए चारे शरीरधारी जीवो छे, तेमने हणवा नहि, हुकम चलाववो नहि, संग्रह करवो नहि, संतापवा नदि, पीडा आपवी नहि, उपद्रव करवा नहि. अहोआज दोष नथी. (अर्थात् कोइपण जीवने कोद पण रीते पीडा न आपनारं संयमज निर्दोष छे,) आ आर्य पुरुषोनुं वचन छे. आq कहेवाथी हिंसा प्रिय नेतर कहे छे, के अमने तमारुं वचन अनार्य लागे छे. जैनाचार्य:-तमारूं कहे, तमारा एक दिलवाला मित्रोज स्वीकारी शकशे. कारण के ते युक्ति रहित छे. तेने माटेज फरी कहे छे, के पोतानी वार (वाणी) रुप यंत्र वडे बंधायला वादीओ पोतानी कुवाणीथी पाछा नहि फरे. (आग्रह पकडी राखशे) तेवा वादी (जनेतर) ने तेमना मानेला आगमनी व्यवस्था करीने तेनुं विरुप (अनुचित) पणुं बताववा बडे जैनाचार्य प्रश्न पूछे छे. अथवा प्रथम प्रश्न करनारा दरेक वादीओने व्यवस्थापीने जैनाचार्य तरफथी प्रश्न पूछाय छे के-बोलो! वाद करनारा जैनेतर के बंधुओ तमने साता (सुख) मनने आनंद उपजावनारा छे, के दुःख ? जो एम कहे के सुख वहालुं छे, तो तमारा आगम (सिद्धांत) ने प्रत्यक्ष तथा लोकना मानवा प्रमाणे वाधा थशे. (तमारो सिद्धांत खोटो थशे.) कदी तेओ लुचाइथी जुटुं कहे के अमने दुःख मिय छे, तो तेवा वादीओने पोतानी वाक जालमां बंधायलाने आ प्रमाणे कहे, के तमने जेम दुःख प्रिय छे तेम सर्वे पाणी मात्रने दुःख प्रिय नथी, पण अप्रिय छे, अशांतिकर छे, महा भयरुप छे. छतां हठ ग्रहीने ते न माने तो कहे, के तमारु बोलQ सत्य ६ क्यारे थाय, के ते प्रमाणरुप बने, पण तेवु प्रमाण मळवू दुर्लभ छे के सुखने बदले दुःख कोइ पण प्रिय माने ? माटे तमारे अथवा दरेक मोक्षाभिलाषी के सुखना अभिलापीए कोइपण जीवोने हणवा नहि, पीडवा नहिं तथा केदमां नाखवा नहिं विगेरे जाणवू. ते BE% - *+% ** Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५२६॥ इणचामां दोप छे, छतां हणवामां दोप नथी. एवं मानवु ते अनार्य वचन छे. ( इति शब्द समाप्ति माटे छे) आq सुधर्मास्वामी आचा० जंबूस्वामीने कहे छे. उपर बताव्या प्रमाणे ते वादीओने तेमना वचनयंत्रवडेज बांधीने तेमनी अनार्यता बतावी. आ संबंधमां रोह- गुप्त मंत्री जेणे जैनागमन तत्त्व सारी रीते जाण्यु छे तेणे मध्यस्थपणुं धारण करीने तमाम मतवालानी परिक्षा करवा वडे जेम निरा॥५२६॥ करण कर्यु ते नियुक्तिकार गाथाओ बडे कहे छे. खुड्डग पायसमासं, धम्म कहपि य अपमाणेणं। छन्नेण अन्नलिंगी, परिच्छिया. रोहगुत्तेणं ॥ २२७ ॥ आ गाथा वडे संक्षेपथी क्षुल्लकनुं दृष्टांत का छे, गाथाना पदना संक्षेपवडे राजसभामां बधा वादीनी धर्मकथा प्रगट सांभळीने रोहगुप्त मंत्रीए वादीओनी परीक्षा करी. आ गाथानो वधारे खुलासो नीचेनी कथाथी जाणवो. ते कहे छे के चंपानगरीमा सिंहसेन राजनो मंत्री रोहगुप्त महामंत्री हतो ते जिनेश्वरना मंतव्यमा निर्मळ हृदयवाळो चनीने सत् असत्वादना विचारनी चर्चा पूछतो हतो, लते समये जे जेने इच्छित ते तेणे सारं का, ते समये चुप बेठेला मंत्रीने राजाए कह्यु, धर्म विचारो जणाववामां तमे काइ केम बोलता नथी? मंत्री बोल्योः-आ वादीओना स्वपक्षना आग्रहवाळां वचनोवडे शें लाभ थाय? माटे आपणे विचार करीए, पोतानी मेळे धर्मपरीक्षा करीए. ा प्रमाणे वधा वादीओने शांतिनुं वचन कहीने राजानी आज्ञा लइने नीचलं एक पद वनावी नगरमां लटकाव्युं. सकुंडलं वा वयणं नव' ति, आ गाथाना वीजां त्रण पद मेळवी आखी गाथाभंडारमा राजा पासे मुकावी. पछी जाहेर दांडी पीटावी कह्यं के आ पद सिवाय त्रण पद नवां बनावीने राजा पासे जे गुरु लावशे, तेने राजा मों माग्या दान आपशे, तथा तेनो -- - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५२७॥ वि. छल भक्त वनशे, आ गाथाना पदने सर्वे वादीओ पोताने घेर लइ गया. सातमे दिवसे राजाना सभामंडपमां सर्वे वादीओ आव्या तेमां परिवाड ( परिव्राजक ) बोल्यो. भिक्खं पविट्टेण मएज्ज दिडं, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२८ ॥ भिक्षामा प्रवेश करेला में आजे प्रमदा ( युवान स्त्री) नुं मोढुं जोयुं जेमां कमळ सरखां नेत्र हतां पण मारुं व्याक्षिप्तचित्त होवाथी मने बरोबर खबर न पडी, के तेना मोढामां (कानमां) कुंडल हतां के नहि ( आ गाथानो अर्थ सुगम छे परंतु कुंडल हतुं के नहि तेनी शंका रहेवानुं कारण फक्त तेणे चित्तनो व्याक्षेप बताव्यो. ) आ वादीमां वीतराग (त्याग) दशा न जोवाथी, तथा पूर्वे आपली गाथा प्रमाणे अर्थ न मळवाथी, तिरस्कार करीने राजाए रस्तो पकडाव्यो, पछी तापस बोल्यो: फलोदएण मि हिं पविट्टो, तत्थासणत्था पमया मि दिहा । वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२९ ॥ फलना उदय वडे हु घरमां पेठो, त्यां आसन उपर स्त्री बेठेली हती, पण व्याक्षिप्त चित्तथी में बराबर निर्णय न कर्यो, के ते | स्त्रीना कानमां कुंडळ छे के नहि. ? ( आमां पण वैराग्य न होवाथी तेने रजा आपी.) पछी बौद्ध अनुयायी वोल्यो:मालाविहारंमि मएज दिट्टा, उवासिया कंचणभुसियंगी । वक्खित्तचित्त्रेण न सुट्टु नायं, 12600 सूत्रम् ॥५२७॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५२८॥ सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २३०॥ मालना विहारमा मे आजे एक उपासिका (ते मतने माननारी स्त्री) जोइ, ते सुवर्णना भूषणे भूपित हती. पण व्याक्षिप्त सूत्रम् * चित्त वडे में न जोयु, के कानमां कुंडळ छे के नहि.? आ प्रमाणे बीजा तीर्थीओ (वादीओ) ए पोतानु कही वताव्यु पण कोइ जैन साधु न आव्यो, त्यारे राजाए कयु के तेने का ॥५२८॥ बोलावी लावो. तेथी मंत्रीए एक नानो साधु हतो पण तेने वैराग्य दशाए परिणमेलो जाणी गोचरीमा आवेलो हतो, तेने प्रत्युष । (उगता प्रभात) नी माफक राजा आगळ आण्यो तेथी राजाए ते चोथा पदने आपी उत्तर मागतां क्षुल्लक साधुए कह्यु, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतएणं! सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ।। २३१ ॥ क्षमा धारण करनारा, काम दमन करनारा, इन्द्रिओने जीतनारा अने अध्यात्ममां रक्त एवा मारा जेवा मुनिने शा माटे चिंतव, के ते प्रमदाना कानमां कुंडळ छे के नहि ? आमां अजाणपणानुं कारण क्षांति विगेरे गुणो धारणतुं कारण बताव्युं, पण । चित्तना विक्षेपर्नु कारण न बताव्यु, तेथी राजाने तेनी निस्पृहता उपरथी धर्म भावनानो उल्लास वध्यो, पछी राजाए धर्मतत्व पुछतां क्षुल्लक साधुए माटीनो एक गोळो भींत तरफ उछाळी सूचना करीने चालवा मांडयु, त्यारे राजाए पूछय के आप पूछवा छतां धर्म केम कहेता नथी? त्यारे तेणे का, हे भोळा राजा ! आ भीना मुका गोळाओना फेंकवाथी में धर्म कह्यो छे, ते वे गाथाथी बतावे छे." - +- Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - 2- - | जल्लो सुक्कोय दो छुढा, गोलया महियामया। दोवि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो तत्थ (सोऽत्थ) लग्गइ ॥ आचा० एवं लग्गनि दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥ २३३ ॥ ॥५२९॥ जे भीनो तथा सूको गोळो छे ते बन्ने माटीना छे, भींत उपर फेंकतां जे भीनो छे, ते त्यां भींत उपर लागशे ए प्रमाणे दुष्ट ॥५२९॥ बुद्धिवाळा जेओ कामनी लालसावाला छे, तेोज संसारवासनामां गृद्ध थशे. पण जेओ विरक्त , तेओ सुका गोळा माफक संसारवासनामां गृद्ध नहिं थाय. तेनो भावार्थ कहे छे जेओ अंग प्रत्यंग जोवाथी विमुख छे, तेओ स्त्रीनुं मोडं जोता नथी, अने जेओ | अंग प्रत्यंग जोवामां उत्सुक छे, तेओ काम वासनाथी गृद्ध थयेला भीना गोळा माफक स्त्रीतुं मोहु जुए छे, अने तेज जीवो लालसावाळा होवाथी संसारपंक अथवा कर्मकादव तेमने लागे छे, पण जेओ क्षमा विगेरे गुणोथी युक्त संसारसुखथी विमुख छे. काष्ठ (निस्पृह) मुनिओ छे तेओ सुका गोळा माफक होवाथी क्यांय पण लागता नथी. सम्यक्त्व अध्ययनमा वीजा उद्देशानी नियुक्ति | तथा बीजो उद्देशो समाप्त थयो. -:- हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे -- बीजा साथे तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां सम्यक्त्वमां साधुने स्थिर करवा वीजा मतवाळानी भूलो वतावी पण || हाते सम्यक्त्व साथे रहेलुं ज्ञान छे, तथा ते ज्ञाननी सफळता विरति (वैराग्य) छे, पण आ त्रणे होय छतां पूर्व करेलां चीकणां कर्मनो , बंध निरवध तप कर्या विना क्षय न थाय. माटे हवे ते तपनुं वर्णन करे छे. आ संबंधी आवेला त्रीजा उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. % C *-C 3 %-- -SA - - CRE Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५३०॥ उवेहिणं बहिया य लोगं, से सबलोगंभि जे केइ विष्णू, अणुवीइपास निक्खन्तदंडा, जे सत्ता पलियं चयंति, नरासुयच्चा धम्मविउति अंजू, आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा, एवमाहु संमत्तदंसिणो, ते सवे पावइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति इय कम्मं परिण्णाय सबसो ( सू० १३४ ) पूर्वे बतावेलो संसारप्रिय लोक समूह छे, तेने धर्मथी विमुख जाणीने तेनी उपेक्षा कर, अथवा तेनुं अनुष्ठान सारुं न मान, च शब्दथी जाणवुं के तेनो उपदेश न सांभळ, पासे न जा, तेमनी सेवा न कर तथा विशेष परिचय न कर, (आ बधुं नवा शिगुरु समजावे छे तुं न जइश-विगेरे-के जो त्यां जाय तो साधु धर्मनी विरुद्ध तेओ स्नान; इच्छित भोजन, मठ बांधी रहेधुं विगेरे आचरे छे, तेमां दिल लागवाथी ते स्वीकारतां साधु गृहस्थ पण न रह्यो, न पुरो साधु थयो, परंतु गीतार्थ साधु जरुर पडतां परिचय करे तो वखते तेवाने पण प्रसंगोपात ठेकाणे लावे) जे संसारप्रिय वेषधारीनो परिचय न करतां तेनी उपेक्षा करे ते क्या उत्तम गुण मेळवे, ते कहे छे के:- ते निस्पृही साधु वधा मनुष्यलोकमां जेआं विद्वान ( आत्मार्थी) छे, तेमनाथी पण सर्वोत्तम विद्वान थशे. प्रश्नः - लोकमां केटलाक विद्वानो छे, के तेमां आ श्रेष्ठ थशे ! 'अणुवीइ' विगेरे जे केटलाक निक्षिप्त दंडवाळा छे, अर्थात् जेमणे काया मन वचन वढे प्राणीने दुःख आपनारो दंड त्याग कर्यो छे, ते विद्वानो थाय छेज, एवं विचारीने हे शिष्य ! तुं तेमने जो प्रश्नः - जीवोने दुःख आपनारा तेओ क्या छे ! ते कहे छे, के जेमणे धर्मनुं तत्त्व जाण्युं छे तेवा सखवाळा साधुओ दुष्ट कर्म त्यजे छे, अने ते प्रमाणे जेओ दन्डथी दूर रहे छे, तेओ आठे कर्मने दणे छे, तेज विद्वन् छे. तेवुं आंखो बींची विचारीने सूत्रम् ॥५३०॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५३१॥ पछी जो, एटले विवेकवाळी बुद्धिथी तेने तुं धारण कर. प्रश्नः - क्या पुरुषो वधां कर्मोंने क्षय करे छे ! उत्तरः- ते कहे छे, 'नरे' इत्यादि माणसोज संपूर्ण कर्मक्षय करवाने समर्थ छे, पण बीजी गतिवाळा नहि. तेमां पण वधां मनुष्यो मोक्षमां जनारा नथी; पण जेओए अर्चाते, शरीरना संस्कारो ( शोभानो ) त्याग करवाथी जेमनुं शरीर मरण जेवुं छे अर्थात् जेमणे शरीरनो मोह | मुकी तेने पुष्ट करयुं; के शोभाव ए सघळं त्याग कर्युछे . ( मेघकुमारे जेम वीतराग प्रभुना उपदेशथी आंखो सिवाय शरीरना वीजा भागोनी ममता उतारीने दवा विगेरेनो पण त्याग कर्यो हतो; अथवा आखा शरीरनी चामडी जीवतां उतारी; तो पण कोइना उपर कोप न कर्यो; तेत्रा खंधकमुनि माफक थाय छे.) तेवा साधु सर्व कर्मनो क्षय करे छे. अथवा अर्चा एटले तेज अने ते पण क्रोध छे, अने तेना कहेवाथी वीजा कषायो पण जाणी लेवा. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे के:- जे पुरुषमांथी कषायरुप - अर्चा सर्वथा नष्ट पामी छे, तेवा अकषायी पुरुषोना आठ कर्म नाश थाय छे. वळी, श्रुतचारित्ररुप धर्मने जाणनारा ते धर्मविदो छे, ते कुटिलतारहित ( सरळ ) छे. प्रश्न: - तेम हशे; पण वीजा साधुए शुं आलंबन लइने तेवुं करवुं ? उत्तर:- 'आरंभ' विगेरे. सावद्यक्रिया - अनुष्ठानना आरंभथी थयेलं आरंभज ते, कृत्य दुःखरुप छे, एवं वधां प्राणीओने प्रत्यक्ष छे. अर्थात् खेती, नोकरी वेपार विगेरे आरंभमां प्रवर्तेलो मनुष्य, शरीर, तथा मननां दुःखने भोगवे छे, ते वाणीथी पण कहेवाय नहि. (एटलं वधुं छे, ) ते साक्षात् संपूर्ण देखनारा (केवळज्ञानी) ए कहेलुं छे. आ वधु दुःख स्वयं - अनुभवसिद्ध जाणीने तेओ शरीरशोभारहित (मृताच ) तथा धर्मविद तथा सरळ बने छे, एवं केवळज्ञानीओ कहे छे ते बतावे छे. आ प्रमाणे | केवलज्ञानीओए कहेलुं छे. प्रश्नः - केवा पुरुषोए ते कहेलुं छे ? उत्तरः- समत्व-दर्शीओ, (सम्यक्त्व-दर्शीओ) अथवा समस्त देख सूत्रम् ॥५३१॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५३२॥ नाराओए कहेलुं छे. एटले आ उद्देशानी शरुआतथी सघळु तेमणे कां छे, प्रश्नः - शाथी तेओए ते कहेलुं छे ? उत्तरः- तेओ वधा सर्व विद छे, अने प्रावादिका एटले प्रकर्ष-मर्यादावढे बोलवाना आचारवाळा यथावस्थित पदार्थने बताववा तथा शरीर, मन संबंधी दुःखो वतावनारा अथवा तेनुं मूळ कर्मनुं स्वरुप वतावत्रामां कुशळ छे, के जे बताववाथी ते दूर करवा उपाय जाणनारा बनीने ते वधा उत्तम पुरुषोए ज्ञ परिज्ञा वडे जाणीने ते पाप छोडवा प्रत्याख्यान परिज्ञा वडे त्याग करेल छे. आ प्रमाणे कर्मबंध उदय सत्ताना बताववाथी ( वीजा पण ) ते प्रमाणे जाणीने सर्वे प्रकारे कुशळ वनीने तेओ प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्याग करे छे. अथवा मूळ उत्तर प्रकृतिना वधा भेदोने जाणीने एटले मूळ प्रकृति आठ, उत्तर प्रकृति १५८ छेतेने जाणी कर्मबंधनो त्याग करे छे अथवा प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेश ए चार प्रकारोथी जाणीने त्यागे छे, अथवा बंध सत्ताना कारणो वडे कर्म स्वरूप जाणीने त्यागे छे. हवे ते उदयना प्रकारो वतावे छे. मूळ प्रकृतिना ऋण उदयस्थान छे, (१) आठ प्रकारनो, (२) सात प्रकारनो (३) चार प्रकारनो- एटले आठे प्रकृति साथै वेदे तो आठ प्रकारनो, अने ते काळथी अनादि अनंत अभव्योने आश्रयी छे. भव्य ने आश्रयी अनादि सांत तथा सादि सांत छे. अने मोहनीयनो उपशम अथवा क्षय होय, त्याग सात प्रकारनो । उदय छे, अने घातिकर्म चारे क्षय थतां वाकीना चार कर्मनो उदय छे, हवे उत्तर प्रकृतिना उदय स्थान कहे छे. ज्ञानावरणय अने अंतरायनुं पांचे प्रकारनं एक उदयस्थान छे. दर्शनावरणीयना वे छे दर्शन चतुष्कना उदयथी चार अने कोइ पण निद्रा साथ पांच | वेदनीय कर्मनुं सामान्यथी एक उदयस्थान साता के असातानुं छे. कारण के साता असाता विरोधी होवाथी बन्ने साथै उदयमां एक वखते न होइ, मोहनीयकर्मनां नव उदयस्थान छे, ते कहे छे दश, नव, आठ, सात, छ, पांच, चार, बे, एक. ए नवनी विगत - ते SAJ 1969-06 सूत्रम् | ॥ ५३२॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम दशमां मिथ्यात अनंतानुबंधीथी संज्वलन सुधी ४ क्रोधनी चोकडी-ए प्रमाणे माननी चोकडी पण होय ते प्रमाणे कपटनी चोकडी आचा० होय, तथा लोभनी चोकडी होय एटले कोइ पण चोकडीनी चार होय, ते मळी पांच थइ. छटो कोइ पण एक वेद होय, हास्य रति | अथवा अरति शोकनुं जोडलं होय भय तथा जुगुप्सा मळी कुल १० थइ. उपरनी दशामांथी कोइ जीवने भय के जुगुप्सामा एक ॥५३३॥ॐन होय तो नव, अने बन्ने न होय तो आठ, अनंतानुबंधीनी एक दूर थतां ७ रही, मिथ्यात्वना अभावमा छ रही, अप्रत्याख्याननी उदयना अभावमां ५, प्रत्याख्यान आवरणना उदयना अभावे ४ हास्यरतिनुं जोडलं कोइ पण न होय तो २ अने वेदना अभावमां फक्त संज्वलन एकनो उदय रह्यो. आयुष्यनुं पण एकज उदयस्थान छे. कारणके चारमांनु कोइ पण एक होय, नाम कर्मना उदयनां १२ स्थान छे. २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ९, ८ तेमां संसारमा रहेला सयोगी तेर गुणस्थान सुधीना है जीवोने नामकर्मना दश उदयस्थान छे. अने अयोगि गुणस्थानवाळाने छेवटना बेज छे. अहों वार ध्रुव उदयकर्म प्रकृति प्रथम वता वे छे. तेजस 'कार्मण' शरीर थे, वर्णगध रस स्पर्श ४ चोकहुं अगुरुलघु, एक स्थिर, एक अस्थिर, एक शुभ, एक अशुभ, एक निर्माण, कुल बार तेमां वीस तीर्थकर केवळी ज्यारे समुद्घात करे त्यारे कार्मण शरीरयोगीने होय छे. ते कहे छे, मनुष्यगति एक पचेन्द्रियजातिओ त्रस एक बादर एक पर्याप्त एक सुभग एक आदेय एक यशकीति एक त्रणे उपर कद्देली ध्रुवउदयनी बार मळी कुल २० थइ. अने एकवीसथी एकत्रीस सुधीनां उदयस्थानो जीव गुणस्थानना भेदथी अनेक भेदवाळां होय छे. ते ग्रंथ वधी जवाना 18 भयथी बधा अहीं कहेता नथी, पण जाणवा माटे एकेक कहे छे. प्रथम एकवीसनो एक कहे छे, गति एक, जाति आनुपूर्वी एक त्रस एक बादर एक पर्याप्त अथवा अपर्याप्त एक कोइ एक सुभग एक अथवा दुर्भग आदेय अथवा एक अनादेय यशकीर्ति अथवा -4- 2 GREAavac 8THS.CO Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५३४॥ एक अयश आ नव तथा उपर कहेली ध्रुव बार मळी एकवीस थइ हवे चोवीसनो एक भेद कहे छे: तिर्यग गति एक एकेन्द्रिय जाति एक औदारिक शरीर एक हुंडसंस्थान एक, उपघात एक प्रत्येक अथवा एक साधारण स्थाहै। वर एक सुक्ष्म अथवा एक बादर दुर्भग एक अनादेय एक अपर्याप्त एक यशकीर्ति एक अथवा अयश आ बार तथा उपर बतावेली। ध्रवनी बार मळी चोवीस थइ. ते चोवीचमांथी अपर्याप्त दूर करी पर्याप्तक तथा पराघात १ मेळवता २५ थइ. अने छवीश तो ध्रुवना पारमा पापात: ४ केवळीने उपर जे वीस कही छे तेमां उदारिक शरीर एक आंगोपांग एक संस्थान एक प्रथम संहनन एक उपघात एक प्रत्येक एक मळी मिश्रकाययोगमां छवीश होय छे. ते छवीशमां तीर्थकरनाम मेळवतां तीर्थकरने मिश्रकाय योगमां सत्यावीस होय छे. तेमा प्रशस्त विहायोगति मेळवतां अट्ठावीस अने ते अट्ठावीसमांथी तीर्थंकर नाम दूर करी उच्छ्वास एक सुस्वर एक पराघात 5 ए एक मेळवता (२७+३) त्रीस थद तेमांथी मुस्वर ओछी करतां २९ तथा ते ३० मां तीर्थंकर नाम मेळवतां ३१ थद. पण नवनो उदय तो मनुष्य गति एक पचेन्द्रिय जाति एक त्रस एक बादर एक पर्याप्त एक सुभग एक आदेय एक यशकीर्ति एक तीर्थकर एक ए नव तीर्थकरने अयोगी गुणस्थानमां होय छे. पण तीर्थकर नाम सिवाय सामान्य केवळी अयगीने तो आठ होय छे 8 गोत्रनं तो सामान्यथी एकज उदय स्थान छे. उंच अथवा नीच कोइ पण एक होय छे. कारण के बन्ने एक वीजाथी विरुद्ध छे. | उपर बताच्या प्रमाणे कर्मप्रकृतिना उदयवडे अनेक भेदो जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावढे ते तोडवा प्रयत्न करे छे. जो एम छे तो ( नवा साधुए) शुं करवं ते कहे छे. इह आणाकंखो पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरारं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं-जहा HEARC SoBECRECIRRECTORIES Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] जुन्नाई कट्ठाई हत्ववाहो पमत्थइ । एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे (सू० १३५) | आचा० आ प्रवचनमा आज्ञा पाळवानी आकांक्षा राखनारो आज्ञाकांक्षी साधु जे सर्वज्ञना उपदेश प्रमाणे वर्तनारो छे, ते पंडित (तत्वज्ञानी) द सूत्रम् & छे. अने ते अस्निह थाय छे. आठ प्रकारना कर्म बडे लेपाय ते स्त्रिह छे. ते जेने नथी ते अस्निह छे, अथवा जे स्नेह करे ते ॥५३५॥ स्नेहवाळो रागी छे. तेवो जे रागी न थाय ते अस्निह छे. तेथी एम जाणवू के ते रागद्वेष रहित छे. अथवा निश्चयथी जे भावरि ॥५३५॥ पुरुप इन्द्रियोना विषय तथा फपायथी बंधातां कर्म छे. तेना वडे हणाय ते निहत अने तेम न हणायतो अनिहत छे. उपर बतावेल आज्ञाकांक्षी पंडित तथा भावरिपुथी अनिहत गुणवाळो आ प्रवचन (जैन मार्ग) मां छे. बीजे नथी अने जे साधु अनिद्दत छे ते परमर्थथी कर्मनो सारी रीते ज्ञाता छे. अने ते शुं करे ते कहे छे. 'एगमप्पाणं' इत्यादि. ते अनिहत अथवा अस्निह साधु पोताना एकला आत्माने धन धान्य सोनुं पुत्र स्त्री तथा पोताना शरीर विगेरे (पुद्गल उपाधि) थी जुदुं जाणीने शरीर विगेरे वधानो मोह छोडे (संभावनामां लिङ प्रत्यय छे.) तेथी एम सुचव्यु छे के आत्माने बधी उपाधीथी जुदो देखे तोज ते शरीरथी जुदो पाडी शके अने तेम मोह उतारवा माटे संसार स्वभावनी भावना छे तथा एकत्व भावनाने आवी रीते भाववी. संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा? सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥ १॥ आ संसार अनर्थनो सारज छे, अने अहीं कोण केनो स्वजन अथवा परजन छे ? बधाए संसारमा भमता स्वजन अने परजनन HASHASHISHASHA KOREA Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५३६॥ छे ते पर थइ पाछा स्व थाय. अने केटल क फरी देखाव देता नथी. ( अर्थात् समुद्रमा तणातां अपार समुद्रमां ज्या भेगा थवानो, तथा स्थिर रहेवानो तथा मळवानो निश्चय नथी, तथा थोडो काळ पण एकता रहेबानो निश्चय नथी, त्यां कोण पोतान के पारकुंछे?) आचा० विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । ॥५३६॥ स्वकर्मभिधान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात ॥ २ ॥ उपर प्रमाणे विचारी हुँ एकलो छु, अने मारे पहेलां के पछवाडे कोइ नथी, परंतु मोहनीयकर्मथी आ एक मारा तारानी भ्रांति छे. खरीरीते तो पहेलां पण हुं अने पछी पण हुँ पोते पोतानो खजन छु एवी भावना तमारे भाववी. सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं नासी भावीति यो मम ॥३॥ हुँ सदा एकलो छु. मारो कोइ पण नथी, तेम हुं बीजा काइनो पण नथी, हुँ जेनो थाउं, तेवो मने कोइ देखातुं नथी! (कर्मसबंध ' छुटतां सौ रस्ते पडे छे.) तेम मारो भविष्यमा याय तेवो पण कोइ नथी. ___ एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ ४ ॥ . पोते एकलोज कर्म बांधे छे, तेनां फळ पण एकलो भोगवे ळे, अने जन्मे छे. अने परे छे पण एकलोज तथा भवांतरमां पण एकलोज जाय छे विगेरे चिंतवे वळी ते भव्यात्मा साधु शुं करे ? ते कहे छ:-"कसे हि अप्पाणं जरेहि अप्पण" विगेरे. पर (जुदो) आत्मा जे 'शरीर' छे. तेने तपरुप कष्ट वडे अथवा चारित्र विगेरेथी कृश (दुर्वल) बनाव, अथवा कृष एटले कर्म तोडवामां हुं समर्थ COPE Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - ७॥ छ ? एम विचारी यथाशक्ति तेमां यत्न कर, तथा जर एटल शरीरने जीर्ण बनावी दे, एटले तपवडे शरीर एवं कर के बुट्टापाथी 6 जीर्ण जेवू लागे, अर्थात् विगइनो त्याग करीने आत्मा (शरीर) ने दुर्बळ बनावी देजे. प्रश्न:-शा माटे ? सूत्रम् उत्तर:-जेम सार रहित (सुका) लाकडांने हव्यवाह (अग्नि) शीघ्र बाळी मुके छे, ए दृष्टांतवडे उपदेश आपे छे के तुं कर्मने बाळी मुक. 'एवं अत्त समाहिए'-उपर प्रमाणे आत्मा समाहित एटले ज्ञानदर्शन चारित्रवडे आत्मसमाहित (समाधिवाळो) ४ ॥५३॥ छे ते आत्मसमाहित छे, अर्थात् शुभ व्यापारवाळो छे. ( अथवा व्याकरणना नियमथी विशेषणने प्रथम लेवाथी आत्मा समाहितने बदले ) समाहित आत्मारुप थाय छे, तेवो तुं बन. एटले जे अस्निह (स्नेहरहित वैरागी) होय अने ते तप करे ते तपरूप अग्नि IP ॐ वडे कर्मरूप काटने वाली मुके छे, उपर कहेला मूत्रार्थने दृष्टांत तथा बोधने गाथावडे नियुक्तिकार कहे छे. जह खलु झुसिरं कट्ट, सुचिरं सुकं लहुं डहइ अग्गी, तह गल खवंति कम्म, सम्मचरणे ठिया साह पनि.२३४६ जेम सुका पोला लाकडाने अग्नि जलदी बाळे तेम उत्तम चारित्र पाळनारो साधु कर्मलाकडांने शीघ्र वाळे छे आ प्रमाणे प्रथम स्नेहरहित बनीने द्वेषनी निवृत्ति करवा कहे छ 'विगिंच कोहं' विगेरे कारणे अथवा आ कारणे अति क्रूर अध्यवसायवाळा क्रोधने छोड, अने क्रोधथी शरीर कंपे छे माटे कहे छे के तुं निष्कंप बनी जा शुं भावीने? ते कहे छे: इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइं च फासे, लोयं च पासविमें फंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिय, तम्हा अतिविजो नो पडिसंज बवाल Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५३९॥ चिन्हरुप विष्टा अने पिशावने मेळवी विलेपन कर, तो शांति थशे. अने ते प्रमाणे पुत्रे न छुटके कर्यु त्यारे तेने शांति थइ, अने पिता मरीने सातमी नरकमां गयो. आ दृष्टांतथी पापी पोते दुःख भोगवे छे तेम तेनी हायपीट जोइ बीजां सगां पण दुःख भोगवे ! सूत्रम् छे ते बताव्यु) गुरु कहे छे:-हे शिष्य ! जेओ क्रोध विगेरे नथी करता ते केवां होय छे ? ते सांभळ. 'जे निव्वुडा' विगेरे, पण जेओ तीर्थकरना बोधथी निर्मळ हृदयवाला छे, तेओ विषय अने कपाय अग्निना बुझावाथी निवृत्त (शांत) थयेलां पापकर्ममां ॥५३९॥ निदान (वासना) रहित बनेला छे. तेओ परमसुखना स्थानने पामेला छे. अर्थात् औपशमिक सुखने भजनारा होवाथी प्रसिद्ध छे. । प्रश्न:-तेथी शुं समजवु ? उत्तरः-तम्हा विगेरे. ते रागद्वेषथी घेरायेलो दुःखी थाय छे, तेथी अति विद्वान् के जेणे, 18 शास्त्रोनो परमार्थ जाण्यो छे, तेवाए क्रोधाग्निवडे आत्माने वाळवो नहि. अर्थात् क्रोधादि आवतां तेने शांत (दूर) कर, ए प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. k - 5 :: चोथो उद्देशो:: त्रीजो उद्देशो कहो, तेनो आ कहेवाता चोथा उद्देशा साथे आ प्रमाणे संबंध छे; गया उद्देशामां निरवद्य तप बताच्यो, अने ते संपूर्ण रीते सारा संयममा रहेला मुनिने होय छे, तेथी संयम बताववा चोथो उद्देशो कहे छे, तेनाआवा संबंधथी आवेला चोथा उद्देशानुं आ प्रथममूत्र छे. आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुवसंजोगं हिचा उवसमं, तम्हा अविमणे वीरे, सारए RRCRACKERLER % 2 PE0 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAGAESEX लिजासि तिबेमि ॥ (सू० १३६) चतुर्थे तृतीयः ॥४-३॥ आ मनुष्यपणुं परिगलित आयुवालं विचारीने क्रोध विगेरेने छोडी देजे बळी दुक्ख विगेरे-तथा क्रोध विगेरे कपायोथी बळ- 15 सूत्रम् ता मनुष्यने मन संबंधी जे दुःख उत्पन्न थाय छे, तेने जाण, तथा ते क्रोधथी जे नवां कर्म बंधाय तेनुं भविष्यमां पण उत्पन्न थवामुं दुःख विचारीने ते क्रोधादिने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जाण, अर्थात् त्याग कर, आगामी (भविष्य) ना दुःखनु स्वरुप कहे छे. | पुढो विगेरे-जुदी जुदी सात नरकी विगेरेमां मळता शीत उष्ण (ठंड ताप) नी बेदना तथा कुंभीपाक विगेरेनां पीडास्थानोमां थतां दःखोने भोगववां पडशे एथी एम सूचव्युं के क्रोधथी वळेलाने तेज क्षणे दुःख छे, एम नही, पण भविष्यमां पण जुदां जुदां स्था-सा नोमां दुःख भोगवां पडशे. तेने घणो दुःखीओ जोइने बीजा लोक पण दुखीआ थाय. ते बतावे छे लोयंच विगेरे, केवळ क्रोधादिथी आत्माज दुःख अनुभवतो नथी, पण शरीर अने मनथी उत्पन्न थयेला दु.खोबाला लोको परवश बनीने तेना दुःखने दूर करवा आम तेम भटके छे, तेने जो, विवेकचक्षुथी विचारी जो, (आ मूत्रवडे जेओ मोहांध छे. तेवाओ सगाने दुःखी देखीने | अथवा करुणाथी भींजायला हृदयवाळा छे तेओ दुःखीने शांति पमाडवा अनेक उपयो करवा आम तेम भटकतां अनेक दुःखो भो-a ग जेमके "एक कपायने रोज ५०० पाडा मारवानी बुरी आदत हती ते तेणे न छोडी. पुत्र पोते धर्मी होवाथी तेमां सामील नथयो. अंतकाळे बापने तेना पापथी दाहज्वरनो भयंकर व्याधि थयो अनेक उत्तम शीतळ औषधि बावना चंदन विगेरेनो लेप क-15 IN रखा छतां शांति न थइ, त्यारे पुत्रे गभाराइ पोताना परम धर्मी मित्रने पूछ्यु. तेणे विचारीने का के तेना नरकना अशुभ कर्मना | . नव-व---GOOGY AE Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ५३७॥ छं ? एम विचारी यथाशक्ति तेमां यत्र कर, तथा जर एटल शरीरने जीर्ण बनावी दे, एटले तपवडे शरीर एवं कर के बुट्टापाथी जीर्ण जेवुं लागे, अर्थात् विगइनो त्याग करीने आत्मा (शरीर) ने दुर्बळ बनावी देजे. प्रश्न: - शा माटे ? उत्तर:- जेम सार रहित ( सुकां ) लाकडांने हव्यवाह (अग्नि) शीघ्र बाळी मुके छे, ए दृष्टांतवडे उपदेश आपे छे के तुं कर्मनेवाळी मुक. एवं अत्त समाहिए'- उपर प्रमाणे आत्मा समाहित एटले ज्ञानदर्शन चारित्रवडे आत्मसमाहित ( समाधिवाळो ) छे ते आत्मसमाहित छे, अर्थात् शुभ व्यापारवाळो छे. ( अथवा व्याकरणना नियमथी विशेषणने प्रथम लेवाथी आत्मा समाहितने बदले ) समाहित आत्मारूप थाय छे, तेवो तुं वन. एटले जे अस्त्रि (स्नेहरहित वैरागी ) होय अने ते तप करे ते तपरूप अग्नि वडे कर्मरूप काटने वाली मुके छे, उपर कहेला मूत्रार्थने दृष्टांत तथा बोधने गाथावडे नियुक्तिकार कहे छे. जह खलु झुसरं कह, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी, तह गलु खवंति कम्मं, सम्मन्चरणे ठिया साहू ॥ नि. २३४ जेम सुका पोला लाकडाने अग्नि जलदी बाळे तेम उत्तम चारित्र पाळनारो साधु कर्मलाकडांने शीघ्र वाळे छे आ प्रमाणे प्रथम स्नेहरहित बनीने द्वेषनी निवृत्ति करवा कहे छे 'विगिंच कोहं' विगेरे कारणे अथवा आ कारणे अति क्रूर अध्यवसायवाळा क्रोधने छोड, अने क्रोधथी शरीर कंपे छे माटे कहे छे के तुं निष्कंप बनी जा शुं भावीने ? ते कहे छे:-- इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाई व फासे, लोयं च पासविफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कस्मेहिं अणियाणा ते वियाहिय, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंज सूत्रम् ॥५३७॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2: छोडीने तप करे, वळी 'हिच्चा विगेरे, (हि धातुनो अर्थ गतिवाचक छे तेथी) पामीने (मेळवीने) शुं ? ते कहे छे. इन्द्रिय तथा मनने जीतवारूप उपशम अथवा संयम मेळवीने तप करे तेनो सार आ छे, के असंयम छोडी संयम धारण करीने तप तथा चारित्रनां आचा० सुत्रम् ४ अनुष्ठानवढे कर्मने वधारे वधारे यथाशक्ति पीडे जेथी कर्मने पीडवा माटे उपशम मेळववो, अने ते मेळव्या पछी (अविमनस्कता)18॥ ॥५४१॥ निश्चल शांति मेळववी ते कहे ले. 'तम्हा' इत्यादि, जेम कर्मक्षय माटे असंयमनो त्याग, तेथी अवश्ये संयम मळे, तेमां चित्तनी | ॥५४१॥ अशांति न होय, तेथी अवीमना एटले भोगकपायमां अथवा अरतिमां जेनुं मन गयु ते विमन, तेवो जे न होय ते अविमना, अर्थात् Bारागद्वेपनी उपाधिथी जेनु मन चंचळ नथी तेवा शांत स्थिर मनवाळो साधु होय. प्रश्न:-ते क्यो छे ? उत्तरः-वीर! जे कर्म विदारण करवामां समर्थ छे, अने 'सारए' इत्यादि. सुआरत एटले सारीरीते जीवन पर्यंतनी मर्यादा ए संयम अनुष्टानमां रक्त रहे ते स्वारत कहेवाय, पांच समितिए समित तथा हितयुक्त ते सहित अथवा ज्ञानादियुक्त बनीने सदा (हमेश) एकवार गुरुए अर्पण करेलो संयम भारवाळो ते शिष्य संयमभारनी यतना करे. प्रः-वारंवार शा माटे संयम अनुष्ठाननो 15 उपदेश करो छो ? उ:-ते दुरानुचर छे, दुःखे करीने अनुचराय (पळाय) तेवो छे. मा-शुं ? उ.-मार्ग ते संयम अनुष्ठान विधि प्रश्नः-केवाओने ? उ:-अप्रमत्त साधुओने, प्रा-केवाओने ? अनिवर्त ते मोक्ष छे. तेमां जेमने जवानी इच्छा छे तेवाओने आ संयम पाळवो कठण छे ते केवीरीते पाळ्यो कहेवाय ? ते बतावे छे-विचिंचव-विगेरे मांस शोणित जे अहंकार तथा काम वासना वधारनारां छे. तेने विकृष्ट तप अनुष्ठान वडे विवेचकर (दूरकर) आत्माथी जुदां जाणी तेने शोषावीदे, आ वीर पुरुषोना मार्गनुं अनुचरण छे, एम जाणवू. जे आवी रीते तपकरी शरीरने सुकवे, तेने शुं गुण थाय छे, ते कहे छे, 'एप' विगेरे मांसशोणी MUSIC 5ASSES SEASEX Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५४२॥ ॐ तने सुकवे, ते पुरि (नगर) मां शयन करवाथी पुरुष छे, अने द्रव ते संयम छे ते संयम जेने होय ते द्रविक पुरुष छे, अथवा द्रव्यभूत छे कारण के तेज मोक्षमां जाय छे, कर्मशत्रु जीतवामां समर्थ होवाथी ते वीर पण छे, मांसशोणीत शोषवानुं बताव्याथी । सूत्रम् वीजा पदार्थो भेद चरवी विगेरे शोपवानुं पण बताव्यु जाणवू. कारण के मांस सुकातां ते पण साथे सुकाइ जाय छे; वळी आया-ही णीज्जे विगेर एटले वीर पुरुषोना मार्गे चालनारो जे मांस लोही सुकवे, ते मोक्षाभिलाषीओने आदानीय ग्राह्य. मानवाजोग वचन ॥५४२॥ वालो विख्यात थाय छे. प्र.-एवो कोण छे ? उ.-जे ब्रह्मचर्य ते संयममा रही कामवासना जीतवामा प्रयत्न करे, अथवा समुच्छ्रय ते शरीर अथवा कर्मोपचयने तपचारित्रवडे धुणावे. (कृशकरे-दूरकरे) ते आदानीय तथा व्याख्यात (स्तुत्य पूज्य) थाय छे, आ | प्रमाणे अप्रमत्त साधुनुं स्वरूप वताच्यु. हवे तेवू संयम न पाळनारा जे प्रमत (प्रमादी साधुओ) छे तेनुं वर्णन करे छे: नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए वाले, अव्वोच्छिन्नबंधांणे अणभिकंतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि तिबेमि (सू० १३८) जे पदार्थ तरफ लइ जाय-अर्थात् पदार्थनो निर्णय करवा जे दोरे, ते नेत्र विगेरे पांच इन्द्रियो छे, तेना वढे पोताना विषयने ग्रहण करवा वडे जे पाप थाय, ते अटकावीने साधु थतां जगत्मां सारा पुरुषोथी पूजनीक थइ ब्रह्मचर्यमां रद्देवा छतां पण फरीथी तेने मोहनो उदय थवाथी सावध कृत्यमा संसारभ्रमणना वीजरुष कर्मना इन्द्रियोना विषयोरुप स्रोत (प्रवाहो) अथवा मिथ्याख अविरति ममाद कपाय योग छे तेमां गृद्ध थाय ते आदान स्रोत गृद्ध बने. मा-कोण ? उ:-बाळ (अज्ञ) छे, ते राग द्वेपरुपली ॐ1555 नॐॐ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा मोहथी मलिन अंतःकरणवाळो गृद्ध बने. प्रः-पठी ते केवो थाय ? उ.-अवोच्छिन्न विगेरे-एक सरखां सेंकडो जन्ममरण आ-16 आचा० पनार एवु आठ मकारना कर्मरुप बंधन तेने मळे छे बळी 'अणमि.' जेणे संसारना संयोगरुप धन धान्य सोनू, पुत्र स्त्री, विगेरेनो. मोह अथवा असंयमनो संयोग छोड्यो नथी; ते 'अनभिकांत संयोगी' छे, तेवा कुसाधुने इन्द्रियोने अनुकुळ विषयलालसाना अंधारामा | सूत्रम् ॥५४३॥ अथवा मोहरुप अंधकारमा प्रवर्तेलानुं पोतानुं खरं हित अथवा मोक्षउपायो तेणे न जाणवाथी तीर्थकरनी आज्ञा (उपदेशनो) लाभ n५४३॥ तेने यवानो नथी एबुं हुं कई छ अथवा तेने आज्ञा एटले सम्यक्त्वनो लाभ थवानो नथी. (भविष्यमां) पण धर्म मळवो दुर्लभ छे. कारण के, सूत्रमा नास्तिक शब्द छे ते अव्यय प्रणे काळ आश्रयी छे. जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया? से हु पन्नाणमंते बुझे आरंभोवरए, संममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, निकंमदंसी इह मच्चिएहिं, कम्माणं सफलं दह्ण तओ निजाइ वेयवी (सू० १३९) जे कोइपण बाळमूर्ख साघु कर्मादान स्रोतमां गृद्ध थयेल छे तथा एकसरखां जन्ममरण बांध्या छे. तथा संसारमोह छोड्यो नथी, अज्ञानअंधकारमा भूल्यो छे, तेने पूर्वजन्ममां धर्मप्राप्ति नहोती; भविष्यमां पण थवानी नथी तेने मध्यजन्ममां क्याथी थवा४नी छे? अर्थात् जेणे सम्यक्त्व पूर्व प्राप्त करेल हशे; तेनेज वर्तमानमां मळे छे. कारण के जेणे सम्यक्त्व पूर्वे मेळवी तेनो स्वाद लीधो तेने पाछो मिथ्यात्वनो उदय थतां अपार्ध पुद्गळ परावर्तनना काळे पण थशे; पण सम्यक्त्व वमेलाने फरी सम्यच्चनो असं -% CE अवॐ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचा० ॥५४४॥ भवज थाय तेवू नथी. (अर्थात् अभविनेज त्रणे काळमां नथी; अथवा अनिरुद्ध इन्द्रियविषयवाळो होय; तोपण आदान स्रोत गृद्ध जाणवो एम कहेलं जाणवू. (पण सम्यक्त्व मेळव्या पठी पार्छ न मळे तेवू नहि.) पण जे साधु तेवो प्रमादी न थइ संसारसुखनुं स्मरण न करे; अने भविष्यमां मळनारी देवांगनाना भोगने न इच्छे, तेने वर्तमानकाळमां पण भविष्यमुखनो अभिलाष क्याथी 13 सूत्रम् होय ? ते बतावे छे. जे साधुए भोगनां भविष्यनां कडवां फळ जाणेला छे, तेने पूर्व भोगवेला भोग याद आवता नथी; भविष्यना ॥५४॥ भोगनी अभिलाषा पण नथी; तेवा उत्तम साधुने व्याधिने छंछेडवा समान भोगने रोग जाणीने तेने केवीरीते खोटी इच्छा पण थाय ? अर्थात् मोहनीयकर्म शांत थवाथी तेने भोगेच्छा होती नथी. जे साधुने त्रिकाळ-विपयनी भोगेच्छा दूर थइ ते केवो होय | ते कहे छे:-सेहु-विगेरे आवो निरीह साधु प्रकृष्टज्ञान जे जीवाजीव संबंधी तत्व बतावनारुं छे तेने मेळवे; तेथी मकृष्टज्ञानवाळो छे, 8 तेज बुद्ध एटले, तब जाणनारो छे, तेथीज ते सावधअनुष्ठानना आरंभथी दुर रहे छे, तेथी आरंभ उपरत छे, ते गुण उत्तम छे ते वतावे छे, सम्म विगेरे एटले साधुओने ते शोभावनारुं भूषण छे अथवा सम्यक्त्वन कार्य करनार होवाथी ते सम्यक्त्व छे. माटे गुरु कहे छे:-हे शिष्य ! तुं तेने जो. तुं पण तेवू मेळव. शामाटे ते शोभन (भूषणरुप) छे ? ते कहे छे:-जेण विगेरे जे कारणथी सावद्य-आरंभमां प्रवर्तलो छे. ते सांकळ विगेरेथी बंधनुं तथा चाचरखा विगेरेथी मार खाय छे तथा माणसंशयमरूप-घोर दुःख ८ खमे छे. तथा शरीर मन संबंधी परिताप दारुण दुःख बीजाने दइने पोतेपामे छे, माटे ते आरंभो छोडवा ते सारुं छे, शुं करीने आरंभ छोडे, ते कहे छे. 'पलिच्छिन्दि' विगेरे स्रोत (पापर्नु उपादान) रूप बहारथी धन धान्य विगेरे अथवा हिंसादि आस्रवद्वार [अदार पापस्थान] छे, तथा च शब्दथी अभ्यंतर रागद्वेषरुप अथवा विषय तृष्णा स्रोतने त्यागीने निर्मळ था; वळी 'णिकम्म' कर्म GUA5 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५४५॥ | जेनां दूर थयां ते निष्कर्मदर्शी छे, 'इह' - आ संसारमां मर्त्य [ माणस] लोकमां जे निष्कर्मदर्शी छे! तेज बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छेदनाराओ छे, शुं आधार लइने परिग्रहने छेदे अथवा निष्कर्मदर्शी बने ते कहे छे, 'कम्माणं' विगेरे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगोवडे जे कर्म बन्धाय छे. ते ज्ञानावरणीय विगेरेनुं सफळपणुं देखीने एटले ज्ञानावरणीयनुं फळ ज्ञान ढंकावुं छे, दर्शनआवरणीयनं देखवामां विघ्नरूप छे, वेदनीयनुं फळ रोग विगेरे दुःखो सुखो भोगववाना छे. प्रश्नः - बधां कर्मना विपाकना उदयने इच्छता नथी ? प्रदेश उदयने पण सद्भाव होय छे। अने तप करवाथी क्षय पण थाय |छे त्यारे कर्मनुं सफळपणुं केवी रीते घटे. आचार्यनो उत्तरः- ते दोष नथी, अमने बधा प्रकारनुं इच्छवापणुं अहीं नथी, पण द्रव्य पूर्णपणुं मानीए छीए अने ते छेज, एटले दरेकने आठज कर्मनो उदय छे, एम नहि पण बधा जीव आश्रयी सामान्यथी जोतां आठे कर्मनो सद्भाव छे; तेथी ते कर्मनुं अथवा कर्मनुं मूळ आश्रव छे. तेनाथी निश्चयथी नीकळी जाय, अर्थात् आश्रव आवे तेवं कृत्य न करे. प्र - कोण न करे ? उ:- वेदविद् जेना वडे सघळं चर-अचरवेदाय, ते वेद जैनागम छे, तेने जाणे ते वेदविद् जाणवो अर्थात् सर्वज्ञना उपदेशमां वर्तनारो होय ते आ नवां कर्म न बांधे. आ अमारा एकलानो अभिप्राय नथी; पण सर्वे तीर्थंककरोना आ आशय छे ते बतावे छे. जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघऽदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमणा पणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्वंसि परि (चिए) चिहिंसु, साहिस्सा - सूत्रम् ॥५४५॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो, नाणं वीराणं समियाण सहियाणं सयाजयाण संघड देसीणं आओ व रयाणं अहा तह आचा० लोयं समु वेहमाणाणं किमस्थि उवाहो ?, पासगस्स न विजइ नत्थि तिबेमि (सू० १४०) सूत्रम् । चतुर्थे चतुर्थः ४-४ । इति सम्यक्त्वाध्ययनम् ॥ ४ ॥ ॥५४६॥ सम्यग्वाद अने निरबद्य तप तथा चारित्र कपु. हवे, तेनुं फळ कहे छ:-'जेखलु' विगेरे (खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे.) IA ॥५४६॥ जे पूर्व अनंता तीर्थकरो थया तथा थवाना छे, अने वर्तमानमा केटलाक छे, तेओ कर्मशत्रुने विदारवामां समर्थ होवाथी वीरो छे, ॐ समितिथी युक्त तथा ज्ञानादिथी सहित छे. सारा संयमथी यनावाला छे. 'संघड दंसिणोति शुभ अशुभने निरंतर संपूर्णदर्शी (देख-४ नार) छे. पापकर्मरुप-आत्माथी उपरत छे. तेओ जेवीरीते लोक चौदराज प्रमाण छे, तेने अथवा, कर्मलोक जे बधी दिशा पूर्व। विगेरेमा रहेल छे, तेनी जीव अजीवनी व्यवस्थाने देखनारा छे. तेओ सत्य संयमतपमां स्थिर रहेला छे. अर्थात तेमने त्रिकाळ ॐ विषय संबंधी संपूर्ण देखाय छे. पूर्वे अनंता यया; ते संयममा रह्या. पंदर कर्मभूमिमां संख्याता तीर्थकर-सययमा रहेला छे, तथा भविष्यमां अनंता थवाना छे. तेओ संयममां स्थित रहेशेतेओनो त्रणे काळनोज अभिप्राय (बोध) छे, ते हुं तमने कहीश; एवंद सुधर्मास्वामी शिष्योने कहे :-तमे सांभळो. पूर्वे कहेला उत्तम विशेषणोवाळानुं ज्ञान (अभिप्राय) आ छे के, जे कर्मजनित उपाधि Bछे, ते नारक विगेरे चार योनिमां जन्म लेवो; मुखीदुःखी, सुभग, दुर्भग, पर्याप्त-अपर्याप्त विगेरे नवां नवां मळे छे के नहि ? ते संबंधी परमतवाळाने शंका छ के ? फरी मळी शके ? तेथी, ते तीर्थकरो साक्षात् जोइने कहे छे के:-तेवा साक्षात देखनाराने ते ते AAAAAAAAAEK L Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५४७॥ वस्तु उपर मोह न रहेवाथी ममता छुटीजवाथी तेवा पश्यक ( केवळ ज्ञानी) ने कर्मजनित उपाधि भविष्यमां मळवानी नथी; ते प्रमाणे हुं पण कहुं हुं पण आ हुं मारी बुद्धिथी कहेतो नथी, सूत्रानुगम कह्यो. चोथो उद्देशो समाप्त थयो, नय विचार तेमांज थोडो | बतावी दीधो छे. चोथुं सम्यक्त्व नामनुं अध्ययन समाप्त थयुं. ('टीकाना स्लोक ६२० थया . ) 'लोकसार' नामनु पांचमुं अध्ययन. चो अध्ययन का पछी हवे पांच अध्ययन कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया अध्ययनमां सम्यक्त्वनुं स्वरुप चताच्युं; अने तेनी अंदर ज्ञान रहेलुं छे, ए सम्यक्त्व तथा ज्ञाननुं फळ चारित्र छे, अने चारित्रज मोक्षनुं अंग प्रधानपणे छे, तेथी ते लोकमां साररुप छे. ते चारित्रनुं प्रतिपादन करवा माटे आ अध्ययन छे. आवा संबंधथी आवेला आ लोकसार अध्ययनना उपक्रम विगेरे चार अनुयोगद्वार थाय छे ते प्रथम उपक्रम द्वारमां अर्थाधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययननो विषय पहेला अध्ययनमां को छे, अने उद्देशानो नियुक्तिकार गाथाओ व कहे छे. हिंसगविसयारंभग, एग चरुति न मुणी पढमगंमि विरओ मुणित्ति बिइए, अविरयवाइ परिग्गहिओ ॥ २३६ ॥ तइए एसो अपरिग्गहो, य निविन्नकामभोगोय । अवत्तस्सेगचरस्स, पच्चवाया चउत्थमि ॥ २३७ ॥ हरओम य तव संयमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवजणा छट्टगंमि, तह रागदोसेय ॥ २३८ ॥ " सूत्रम् ॥५४७॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAM हिंसक ते हिंसा करनारो, तथा विषयो माटे आरंभ करतो ते विपयारंभक, ते बन्ने साथे लेतां हिंसक तथा विपयारंभक छे आचा० एटले जे साधु प्राणीओनी हिंसा करे, अने विपयसुख लेवा सावध आरंभ (संसारी जेवो) करे, ते मुनी न कहेवाय, (व्याकरणना नियम प्रमाणे समास तथा विग्रह टीकामां बताव्या छे. के जेथी शब्दनो अर्थ तथा उत्पत्ति समजाय) तथा विषयसुखना माटे एक सूत्रम् ॥५४८॥ लोज विचारे, ते एक चर छे. ते पण मुनी न कहेवाय आ त्रण अधिकार हिंसक, विषयारंभक अने एकचर छे ते पहेला उद्देशामा ॥५४॥ 18 छे. वीजा उद्देशामां हिंसादि पापस्थानथी जे दूर रहे, ते विरत मुनि थाय, ते अर्थाधिकार छे, वदन शील ते वादी, पण जे अवि-18 करत वादी होय, ते परिग्रह राखनारो बने छे, ते आ बीजा उद्देशामां बतावशे. त्रीजा उद्देशामां पूर्वे कहेलो अविरत ज्यारे परिग्रह वालो मुनी बने छे, अर्थात् कामभोगनी वासनाथी दूर रहेलो ते मुनी छे, ते आमां बतावेल छे. चोथा उद्देशामां अव्यक्त (अगीतार्थ) 5ने मुत्रअर्थ भण्या विना तथा सूत्रार्थ परिणम्या विना एकलो फरवाथी दुःखो भोगवां पडे छे ते वताव्युं छे. पांचमामा हृदनी उपमाए मुनी ए थवं, एटले जल भरेलो हृद ( होज) पाणी न झरी जाय, तो प्रशंसवायोग्य छे तेम बनादर्शन चारित्रथी सदा साधु भरेलो होय, अने विसरी न जाय, तथा ते तप संयम गुप्ति तथा निःसंगता राखे, तो ते शोभे छे, एम बताव्युं छे. छहा उद्देशामा उन्मार्ग (कुमार्ग) नुं वर्जन छे एटल कुदृष्टि तथा रागद्वेप छोडवानुं बताव्युं छे, आ प्रमाणे त्रण गाथानो अर्थ थयो, नामनिष्पन्न निक्षेपामां बे प्रकारे नाम छे. ते आदान पद वडे नाम छे, तथा गौणपणाथी छे ते बन्नेने नियुक्तिकार कहे छे. 5 आयाणपएणावंति गोपणनामेण लोगसारुत्ति। लोगस्स य सारस्स य चउक्कओ होइ निकूखेवो ॥ २३९ ॥ %EGREER15% लालसॐ C- Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५४९॥ ( प्रथम जे ग्रहण कराय, आदान छे. तेनी साथै पद शब्द जोडतां आदान पद थयुं अने ते करणभूत वडे 'आवन्ती' ते नाम छे. अध्ययननी अंदर शरुआतमां (आवन्ती बोलाय छे ) ते आदान पढ नाम थयुं तथा गुण वडे जे नाम वने, ते गौ | तेथी जे नाम पडे ते गौण नाम छे ते हेतुथी लोकसार नाम छे. चौद रज्जु प्रमाण लोक छे तेनो सार ( परमार्थ ) लोकसार छे. | वे पदवाळं आ नाम छे तेथी लोकना तथा सारना दरेकना चार प्रकारे निक्षेपा थाय छे, नाम - स्थापना द्रव्यभाव ले तेमां नाम लोक ते कोइनुं नाम लोक होय. चौद राजलोकनी स्थापनानुं चित्र ते स्थापाना लोक छे. तेनी स्थापना नीचली त्रण गाथाओथी जाणवी, तिरिअं चउरो दोसुं, छदोसुं अठ्ठ दसय एकेके । बारस दोसुं सोलस, दोसुं बीसा च चउसुं तु ॥ १ ॥ पुण रवि सोलस, दो बारस दोसुं तु हुंति नायव्वा । तिसु दस तिसु अट्ठच्छ, य दोसु दसुं तुचत्तारि ॥२॥ ओयरिय लोअमज्झा, चउरो चउरो यसवहिं णेया । तिअतिअ दुग दुग, एक्केक्कगं च जा सतमोए उ ॥३॥ ( गाथानो परमार्थ गुरुगमथी जाणवो कारण के टीका नथी) द्रव्य लोकनुं स्वरुप जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काळ ए छ द्रव्यनो समुह जेमां छे ते द्रव्य लोक छे. अने भावलोक औदयिक औपशमिक विगेरे छ भाव वाळो ले ते जाणवो. अथवा सर्व द्रव्य पर्याय युक्तस्वरुपवाळो जाणवो. सारना पण निक्षेपामां नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्य सार कहे छे. सबस् थूल गुरुए, मज्झे देस पहाण सरिराई । धण एरंडे वइरे, खइरं च जिणादुरालाई ॥ २४० ॥ मां पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमां यथासंख्य अनुक्रमे सार गणवां वधामां धन सार भूत छे, जेमके आ कोटीसार (करोडपति ) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . C FACCE- सूत्रम् ॥५५०।। 18 छे अथवा पांच कपर्दिका (वाळकोनी रनवानी कोडीओ) वाळो छे. स्थूळमां एरंडो सार छे (अहीं सार शब्द प्रकर्षवाची छे.) आचा० स्थळ मध्ये एरंडो अथवा भीडो प्रकर्प थयेलो छे, गुरुपणामां वज्र भारे छे. मध्यमां खेरनुं झाड छे, देशमां आंवो अथवा वेणुं छे. प्रधानमां ज्यां जे प्रधान भाव अनुभवे ते सचित्त अथवा अचित्त के मिश्रज होय ते, तथा सचित्तमां बे पगवाळो अपद छे, तेमां ॥५५० पगमां तीर्थकर छे. चो पगमा सिंह छे. अपद (झाडो) मां कल्पक्ष छे. अचित्तमां वैडूर्य मणिरत्न छे मिश्रमां तीर्थंकरज ज्यारे विभूपित होय छे, शरीरोमां मुक्ति जबाने योग्य तथा विशिष्ट रुपनी प्राप्ति (तीर्थकर चक्रवर्तीने आश्रयी) होयाथी औदारिक प्रधान छे, गाथामां आदि शब्द शरीर साथे लेवाथी स्वामिल करण अधिकरणमा सारता योजवी, जेमके स्वामीपणामां गोरसतुं सारभूत घी छे, करणपणामां मणीरत्ननी सारतावाळा मुकुट वडे राजा शोभे छे, अधिकरणमां दहीमां घी, पाणीमां कमळ उगेलु शोभे छे विगेरे छे. हवे भावसार बतावे छे. भावे फलसाहणया फलओ सिद्धी सहूत्तम वरिहा। साहणय नाण दसणसंजमतवसा तहिं पगयं ॥२४१॥ भाव विपयमा सार विचारतां फळनुं साधन तेज सार छे. जे, मतलब माटे क्रिया करीए ते प्राप्त थाय. (जेमके-विद्यार्थी वरस सुधी भणे अने पास थाय; त्यारे भावसार छे.) जोके, आ फळ प्राप्ति प्रधान छतां ते मळे. पछी तेनो अंत पण आवीजाय | अने अनिश्चित पण छे. तेथी ते, अनेकांत अनात्यंतिक छे, ते कारणथी परमार्थथी जोतां निःसार छे. पण तेथी उलटुं एटले, सिद्धि1 पदज मेळवq सार छे. ते केवु छ ? उ:-ते उत्तम सुखवडे श्रेष्ट छे. कारणके, ते एकांत सुखवाळी, अत्यंत सुख आपनारी सिद्ध A RALLERS Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ וואן चा० RECAREER-54:-- गति छे. तथा तेमां कोइ जातनी बाधा नथी, माटे ते सर्वोत्कृष्ट छे, अने तेनां साधनो प्रकृत (चाल) उपकारक ज्ञान दर्शन संयम, ४ अने तप छे ते भावसार सिद्धिफल मेळववा तेनां साधन ज्ञानादिक छे तेमां आपणुं कार्य छे. एटले ज्ञानदर्शन चारित्ररुप-भाव सूत्रम् सारवडे अहीं अधिकार छे. तेथी ते ज्ञान विगेरे जे सिद्धि (मोक्ष) ना उपायो छे, तेनी भावसारता बतावे छे. ॥५५१॥ लोगंमि कुसमएसु य काम परिग्गहकुमग्गलग्गेसुं। सारो हु नाणदंसणतवचरणगुणा हियहाए । २४२॥ । गृहस्थ लोकमां खराब (संसारी) सिद्धान्त छे, ते कामवासनाना आग्रहथी कुमार्ग छे, तेमां रक्त वनेला होवाथी काम परिग्रहनो आग्रही बनी गृहस्थ भावने तेओ प्रशंसे छे अने वोले छे के: गृहाश्रमसमो धम्मों, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः क्लीबा पाषण्डमाश्रिताः ॥ १॥ गृहस्थम जेवो धर्म थयो नथी, थवानो नथी, तेनुं पालन शूर पुरुषो करे छे, पण कलीव ( सब विनाना) पुरुषो तेने छोडी ४ बावा (साधु) बनी जाय छे, कारण के गृहस्थाश्रमने (गृहाश्रमने) आधारे बधा त्यागीओ रहे थे, तेवू सांभळीने (ओछी 8 बुद्धिवाळा) महामोहथी मृढ बनीने इच्छा मदन काममा प्रवर्ते छे, तेज प्रमाणे खरा साधु सिवायना वेशधारीओ पण जेमणे इन्द्रियोनी कुचेष्टा रोकी नथी तेओ पण ते चे प्रकारनी कामवासनाने वखाणे छे, एथी लोकमां साररूप ज्ञानदर्शन तप चारित्रना गुणो, उत्तम सुखवाळी श्रेष्ट सिद्धि मेळ्ववा माटे आदर करवा योग्य सार छे, कारण के ते हितसिदि आपनार छे, जो ज्ञानदर्शन तप चारित्रना गुणो हित माटे सार छे, तो शुं करवू ते कहे छे: - - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6-5-16 आचा० ब- ॥५५२॥ V५५२॥ चइऊणं संकपयं, सारपयमिणं दढेण चित्तवं। अत्थि जिओ परमपयं, जयणाजा रागदोसेहिं ॥२४॥ प्रथम शंका छोडी दे, अमारा करेला तप विगेरेनुं फल मोक्ष आपशे के नहि, एवो विकल्प ते शंका छे, ते सूत्रम् ४ शंका, पद ते निमित्तकारण छे, जेमके जिनेश्वरे कहेला इन्द्रियोथी न जणाय, एवा झीणा विषयो होवाथी ते फक्त आगम प्रमाणे | मानवा जोइए, तेमां न समजतां संदेह थाय तो पण ते छोडीने आ ज्ञानादिक सार जे पूर्वे वतावेल छे, तेने दृढ पणे (स्थिरचित्ते) कुमार्गे चालनाराओथी ठगाया विना निश्चलपणे मानवां, तथा पाळवां, ते शंका दूर करवा गथाना पाछला चे पदमां कडं छे के | जीव छे, आम प्रथम जीवने वधा पदार्थमा प्रथम लेवाथी अने जीवप्रधान होवाथी बीजा अजीव विगेरे पदार्थो पण जाणी लेवा, नि (के वधा पदार्थो विद्यमान छे) तथा जीव वाळो (शरीरधारी के विना शरीरनो) जीव जीवे छे, तथा जीवशे तथा ते संसारी जीव शुभ अशुभ कर्मना फलने भोगवनारी, अने ते 'हुँ पोते' एम प्रत्यक्ष साध्य छे, अथवा तेने थती इच्छा द्वेष प्रयत्न विगेरे कायोना अनुमानथी पण साध्य छे, तेज प्रमाणे अजीवो पण धर्म अधर्म आकाश पुद्गलने गति, स्थिति, अवगाह आपवाना; तथा बे अणु विगेरे स्कंधना हेतुरूप छे. तेथी, पांच द्रव्यसिद्ध थयां, ए प्रमाणे आस्रव-संवर बंध निर्जरा पण विद्यमान छे. कारणके, पुरुषा-2 थं प्रधानपणे छे. आ पदार्थमां आदिजीव अने अंते मोक्ष ग्रहण करवाथी वचला पदार्थों आवी जाय छे. एटले जीव तो सूत्रमा साक्षात छे, अने मोक्ष हवे पछी बतावे छे के, परम तेज पद ते, परमपद छे. एम जाणवू के, मोक्ष शुद्धपद कहेवातुं होवाथी विद्य-पू मान छे. कारणके, ते बंधथी विरुद्धपक्षमा छे, अथवा बंधनी साथे अविनाभाविपणे छे. (एटले बंध त्यारेज कहेवाय के कोइपण भान होवाथी वीजा अज - ना फलने भोगवना वालो (शरीरधारी - UAECCASSE Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 आचा० सूत्रम् ५५ ॥५५३॥ 4 अंशे बे पदार्थ जुदा पडे. जो, जुदा न पडे तो, एकज कडेवाय ते बंधन कहेवाय. माटे, जुदा पडे; ते मोक्षजीवने कर्मरूपी-अजीव ४ पदार्थ पुद्गळ स्कन्धरुपे कंइ अंशे मळेलो ते सर्वथा जुदो पडे; ते संपूर्ण मोक्ष छे, अने थोडे अंशे जुदो पडे; ते देशमोक्ष छे.) हवे, मोक्ष जो होय; पण, ते प्राप्त करवानो उपाय न होय; तो, माणसो शुं करे ? तेथी ते बतावे छे. 'यतना' एटले, रागद्वेष छोडवामां यत्न करवो; ते प्रथम लक्षणरूप-संयम पण विद्यमान छे. तेथी, आ प्रमाणे जीव अने परमपद विधमान छे, ते (मोक्षमां) शंका दूर ४ करीने ज्ञानादिक-सारपदने मेळववा दृढ प्रयत्न करवो, तेनाथी पण अपर अपर (चढतो) सार तथा श्रेष्ठगति छे.एबतावी उपक्षेप कहे छे: लोगस्स उ को सारो?, तस्स य सारस्स को हवइ सारो?। तस्स य सारो सारं, जइ जाणसि पुच्छिओ साह ॥ २४४ ॥ चउद राजप्रमाणनो जे लोक छे, तेनो शुं सार छे ? ते सारनो शुं सार ? ते सारनो शुं सार जो ए तमे जाणता हो; तो, हुं पुर्छ छ माटे कहो. लोगस्स सार धम्मो, धम्मपि य नाणसारियं विति। नाणं संजमसारं, संजमसारं च निवाणं ॥ २४५॥ बधा लोकनो सार धर्म छे, धर्मनो सार ज्ञान छे, ज्ञाननो सार संयम छे, संयमनो सार निर्वाण छे. आ प्रमाणे नामनिक्षेपो कह्यो. हवे, सूत्रानुगममा सूत्र कहे, जोइए. ते कहे छे:___आवंती केयावंती लोयंसी विप्परामुसंति अट्टाए अणहाए, एएसु चेव विप्परामुसंति, गुरु -4 + 0-40 Get Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आघा० ॥ ५५४॥ से कामा, तओ से मारते, जओ से मारंते तओ से दूरे, नेव से अंतो ने दूरे ( सू० १४१ ) ' आवन्ती ' - विगेरे, जेटला जीवो, मनुष्य, अथवा वीजा असंयत छे, तेमांना केटलाक चौद राजप्रमाण लोकमां गृहस्थ लोकमां गृहस्थ, अथवा अन्य तीर्थिक लोक छे, तेओ, छ जीवनीकायाना आरंभमां प्रवर्तीने अनेक प्रकारे विषयना रसीया बनी पीडा करे छे. एटले दंडाथी के, चावखाथी मारवा विगेरेथी दुःख दे छे.. शा माटे दुःख दे छे ? ते कहे छे:— धर्म, अर्थ, काम माटे, प्रयोजन आवतां जीवोनो घात करे छे ते बतावे छे. धर्मनिमित्त ते, शौच ( पवित्रता) माटे पृथ्वीकाय (काची माटी) ने दुःख दे छे. धन मेळवावा खेती विगेरे करे छे. काम ( शरीरशोभा ) माटे आभूषण विगेरे बनावे छे. ए प्रमाणे बीजी कायोनी हिंसा करवा संबंधी पण जाणवुं. हवे, अनर्थथी (वीनामयोजने) ते फक्त शोखना माटेज शिकार विगेरे प्राणीनो नाश करनारी क्रीयाओ करे छे, तेथी, ए प्रमाणे प्रयोजने अथवा अप्रयोजने प्राणीओने हणी; ते छ जीवनी कायाना स्थानमां विविध प्रकारे सुक्ष्मवादर पर्याप्तक- अपर्यायप्तक विगेरे भेदवाळां एकेन्द्रिय विगेरे प्राणीओने दुःख दे छे. पछी तेमांज पोते अनेकवार उत्पन्न थाय छे. अथवा, ते छ जीवनीकायाने वाधा करी तेनाथी बंधायलां कर्मवडे तेज कायोमां उत्पन्न थइने तेवा प्रकारोवडे कर्मोंने भोगवे छे, ते संबंधमां नागार्जुनीआ आ प्रमाणे कहे छे: " जाति के लोए छक्काय वहंसमारंभति अट्टाए अणट्टाए वा " विगेरे मूत्रमा आनो अर्थ आवी गयो छे. शंका-एम हशे पण, शा माटे आवां कर्मो जीव करे छे के, जे अन्य कायम जड़ने सूत्रम् ॥ ५५४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५५५॥ भोगवां पढे छे ? उत्तर 'गुरुसे० ' विगेरे तत्खने नहीं जाणनारा ते जीवने सुंदर शब्द विगेरे इच्छवा योग्य काम ( विषयो ) दुःखेकरीने छोडवा योग्य छे ? कारणके, अल्प सत्त्ववाळा जेमणे पुण्यनो समूह पूरो नथी कर्यो; तेओने ते उल्लंघवं दुष्कर छे, तेथी ते कायामां आरंभ करे छे, अने तेथी पाप वंधाय छे, तेथी शुं थाय ते कहे छे, ते संसारी जीवे छ जीवनिकायने दुःख देवाथी तथा अधिक विपयलालसा करवाथी पोते मारे ते आयुष्यनो क्षय ( मरणवश ) ने प्राप्त थाय छे, अने मरेला जीवने जन्म अवश्य थवानो छे, जन्ममां पार्छु मरण थवानुं, ए प्रमाणे जन्म मरणरूप संसारसमुद्रमां उपर आवधुं नीचे जनुं, तेथी जीव छुटतो नथी, पछी बीजुं ते शुं करे छे, ते कहे छे, 'जओ ' विगेरे जेथी ते मृत्युना मध्यमां पडेलो परम पदना उपायो ज्ञान विगेरे रत्नत्रयथी, अथवा | तेनुं कार्य मोक्ष तेथी दूर रहे, अथवा सुखनो अर्थी ते कामने त्यजतो नथी, अने विषय रस न छोडवाथी पाछो मरणना मुखमां. | जाय छे, तेथी जन्म जरा मरण रोग शोकथी घेरायेलो सुखथी दूर रहे छे, ते अधिक विषय रसीयाने मृत्युना मुखमां पडतां शुं | थाय छे ते कहे छे 'नेवसे . ' विगेरे पछी ते विषय सुखना किनारे आवतोज नथी तेनो अभिलाष हृदयमां रहेवाथी काम वासनाने न त्यागवाथी संसारथी दूर नथी थतो, अथवा जेने अधिक विषय आस्वाद छे ते कर्मनी अंदर ले के बहार छे ! उत्तर:- 'णेवसे. ' ते जीवकर्मा मध्यमां भिन्नग्रंथी होवाथी नथीज; कारणके, भविष्यमां तेनां कर्म अवश्य क्षय थशे तेम दूर पण नथी; कारण के कोटी कोटी (कोडा कोडी ) सागरोपममां थोडं ओछु एवी तेनी स्थिति छे, पूर्वे कलां कारणोथी चारित्रनी प्राप्तिमांज ते कर्मनी |अंदर नथी तेम दूर नथी. एम बोलं शक्य छे. चारित्र आत्मामां एकवार फरश्यं होय; तो तेनो मोक्ष थाय छे, अथवा जेणे आ प्राणोनुं लेवारूप कर्म न कर्यु, ने संसारना अन्तर्भूत छे के बहार वर्ते छे ! तेवी शङ्कानुं समाधान करे छे, ते जीव रक्षक साधनां सूत्रम् ॥५५५॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातिकर्मो क्षय थवाथी केवळी ते संसारना मध्यमां न गणाय, तेम दूर पण नथी, कारणके चार अघातिकर्म बाकी छे, आ (केवJGळीने आश्रयी छे) जेणे ग्रंथी भेद करीने दुष्पाप्य एवं सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु अने संसारना आरातीय तीरे (मोक्षमा जवानी तैयारी- F... आचा०४ वाळो) केवा अध्यवसायवाळो होय छे, ते कहे छे: १ सूत्रम् से पासइ फुसियमवि कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियणाओ, कूराई कम्माई बाले पकुवमाणे तेण दुकूखेण मृढे विप्परिआसमुवेइ, मोहेण गन्म मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो [ सू० १४२] जेजें मिथ्याव पडल (पडदो) दूर थयेल छे, अने सम्यक्त्वना प्रभावथी संसारनी असारता जाणेली छे, (दृश्य धातुनो अर्थ प्राप्तिना। अर्थमां छे) ते जाणे छे के, कुशना अग्रभागे रहेला पाणीना बिंदु माफक संसारी (बाल) जीवनुं आयुष्य छे, अने ते पाणीना बिंदु उपर उपरथी आवता पाणीना बीजा बिंदुथी प्रेरणा थतां वायुना झपाटाथी पडतां वार न लागे, तेम आ बालजीवनुं जीवित छे, तेनुं क्षणमात्र जीवित जाणीने, तख जाणनारो डाह्यो साधु तेमां मोह न करे, माटे बाळ शब्द लीधो छे, एटले बाळ ते अज्ञानी छे, ते अज्ञानपणाथी जीवितने बहु माने छे, तेथी बाळ छे, मंद छे, सद्असत्ना विवेकथी शून्य छे, तेथी बुद्धिहीन होवाथीज पर थने जाणतो नथी, अने परमार्थने न जाणवाथीज जीवितने बहु माने छे, अने परमार्थ न जाणवार्थी ते शुं करे छे, ते कहे छे, & 'कुरागि' विगेरे ते निर्दयतानां कृत्यो करे छे, हिंसा जूठ विगेरे जे वीजा लोकोने आश्चर्य पमाडे तेवां महान पाप अथवा अढारे । ar - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५५७॥ पापस्थानने ते बाल जीव करे छे, (आत्मनेपद क्रियापद लेवाथी पोताने माटे ते करे छे, ) तेनुं फळ बतावे छे, क्रूर कर्मना विपा| कथी मेळवेला दुःखवडे शुं करवु ? एम विचारमां मूढ बनेलो क्या कृत्यथी मारुं आ दुःख दूर थशे, एम मोहथी मोहित थयेलो विषर्यास (उलटो रस्तो) पामे छे, एटले ते मूढ जे प्राणीनी घात विगेरे पापकृत्यो जे दुःख मळवानां कारणो छे, तेज हिंसाना कृत्य दूर करवा माटे फरी करे छे ! वळी 'मोहेण' मोह अज्ञान छे, अथवा मोहनीयकर्म छे, ते मिध्यात्व कषाय विषयनो अभिलाषरुप छे, तेना वडे मूढ थयेलो नवां अशुभ कर्म बांधे छे, तेनाथी गर्भमां जाय छे, पछी जन्म बालावस्था कुमार यवन बुढापो विगेरे तेने मळे छे वळी ते विषय कपाय विगेरेथी कर्म नवां वांधीने आयुना क्षयथी मरण पामे छे, आदि शब्दथी पाछो गर्भ जन्म विगेरे मेळवे, एम जाणवुं. पछी ते नरक विगेरेनां दुःख पामे छे, ते कहे छे. 'एत्थ' उपर कहेला मोह कार्य ते गर्भ मरण विगेरेमां वारंवार अनादि अनंत चार गतिरूप संसार कांतारमां ते जीव भ्रमण करे छे, पण तेनाथी मुक्त थतो नथी, त्यारे केवीरीते भ्रमण न करे ? उत्तरः -- मिध्यात्व कषाय अने विषयना अभिलाषथी दूर रहेतो ते केवी रीते दूर थाय ? उत्तर:- विशिष्ट ज्ञाननी उत्पत्तिथी ? प्र-ते केवी रीते मळे ? उः - मोहना अभावधी ? जो आ प्रमाणे एक वीजाने आश्रये रहेलां छे, जेमके मोह अज्ञान अथवा मोहनीयकर्म तेनो अभावधी विशिष्ट ज्ञान, ते पण मोहनीय कर्म दूर थवाथी ए प्रमाणे इतर इतर आश्रय दोष खुलोज थाय छे, ? एटले एम थयुं के ज्यां सुधी विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति न थाय त्यां सुधी कर्म शांत करवानी प्रवृत्ति पण न थाय. उः - तमारो कहेलो दोष | लागतो नथी. कारण के अर्थ (पदार्थ) नो संशय आवतां पण प्रवृत्ति थती देखाय छे, ते सूत्र कहे छे: संसयं परिआणओ संसारे परिन्नाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ (सू० १४३ ) k सूत्रम् ॥५५७॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ५५८ ॥ 1 बन्ने बाजुना अंश जेमां देखाय त्यां संशय थाय छे, ते अर्थ संशय अने अनर्थ संशय एम वे भेद छे. अहीं अर्थ ते मोक्ष, तथा | मोक्षनो उपाय छे, तेमां मोक्षमां संशय नथी, कारण के तेने परम पद एम स्वीकार्य छे, पण तेना उपायमां संशय होय तो पण प्रवृत्ति थाय छे, अर्थ संशय ते प्रवृत्तिनुं अंग छे, अने अनर्थ ते संसार अने संसारना कारणो छे, तेना संदेहमां पण तिथ | छेज, कारण के अनर्थ संशय ते निवृत्तिनुं अंग छे, एथी अर्थमां अथवा अनर्थमां रहेला संशयने जाणतो होय तेने हेय उपादेयनी प्रवृत्ति थाय छे, तेज परमार्थथी संसारनुं परिज्ञान छे, ते बतावे छे, ते परिज्ञानवडे संशयने जाणनाराथी चार गतिवाळो संसार अथवा तेनुं मूळ कारण मिथ्यात्र अविरति विगेरे अनर्थपणे ज्ञ परिज्ञावडे जाणेलं थाय छे, ते बतावे छे, अने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्याग धाय छे, पण जे संशयने नथी जाणतो, ते संसारने पण नथी जाणतो, ते बतावे छे, 'संशयं संदेहने बन्ने प्रकारे न जाणनारानी हेय उपादेयनी प्रवृत्ति नहीं थाय, अने प्रवृत्ति विना संसार अनित्य छे, अशुचिथी भरेलो छे, घणां दुःख आपनारो छे, निःसार छे. एम ते जाणतो नथी, आ निश्चय केवी रीते थाय-के ते संशय जाणनारे संसार जाण्यो छे ? तथा शुं निश्चय करवो ? उ:- संसारना परिज्ञाननुं कार्य विरतिनी प्राप्ति थाय छे, तेथी सर्व विरतिमां प्रष्ठ (श्रेष्ठ) विरतिने बताववा कहे छे. जे छेए से सागरियं न सेवइ, कट्टु एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया, लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणय त्ति बेमि ( सू० १४४ ) जे छे ए— जे निपुण छे, जेणे पुण्य पाप जाण्यां छे, ते मैथुन (संसार संबंध) मन बुवन कायाथी करतो नथी, तेनेज संसार सूत्रम ॥५५८॥ 2 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाला जाणनारो कहेवो, (ते जे स्त्रीसंग मन वचन कायथी न करे) पण मोहनीयकर्मना उदयथी जे 'पासत्या (शिथिल साधु) छे, ते ४ सूत्रम् सेवे छे, अने सेवीने पछी साता तथा गौरव नाश थवाना भयथी शुं करे ते कहे छे, कटु एकांतमा 'कुचाल सेवीने गुरु विगेरे ए ॥५५९॥ पूछतां जुटुं वोले आवी रीते जुलु चोली पाप छुपावनारने शुं थशे ते कहे छे, 'विइआ' अबुद्धिमानने प्रथम तो कुकर्म कर्यु ते अज्ञा-11॥५५९॥ | नता छे, अने पार्छ जुटुं बोलतां मृषावादनो दोष लागे छे, तथा ते फरी न करवापणे फरी अनुत्थान (चालु) छे, आ संबधे, | नागार्जुनीआ आ प्रमाणे कहे छे:____“जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वाणालोएइ, परेणवा 'पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परंसएण वा दोसेण पाविट्टयरेण वादोसेण उवलिं पिजत्ति" जे कुकर्म करे 'करीने आलोचना करतो नथी, अथवा बीजाए पूछतां जुटुं बोले छे, अथवा पापी पोताना दोषो । | वडे वधारे वधारे लेपाय छे. जो. एम. छे, तो शुं करवू, ते कहे छे, 'लद्धाहु' कामो प्राप्त थये छते पण 'हुरत्ये चित्र क्षुल्लक (मुनि) माफक तेनां कडवां फळ जाणीने चित्तथी ते वहार करे (अथवा हुशब्द अपि अर्थमां लइ रेफनो आगम थयो| ते वीजाना अर्थमा प्रथम विभक्ति लेतां) आवो अर्थ थाय छे के, मेळवेला होय, ते विपाकद्वारवडे विचारीने तथा ते शब्दादिनां ४ कडवां फळ जाणीने बीजाने नेवां पाप करवानी आज्ञा पण पोतें न आपे, तेम पोते पण छोडे, एवं सुधर्मास्वामी कहे छे, जे में 131 -पूर्वे कयु, ते में एक सरखो श्रेष्ट ज्ञान प्रवाह मेळ्व्यो छे, अने शब्दादिनां कडवां फळने जाणवाथी देखवाधी जिनेश्वरना वचन 17-%ER 4 छककलानरव Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ५६० ॥ उपर मने आनंद थयो छे, (प्रथम भगवाननुं वचन सांभळयुं, तेथी कडवां फळ जाण्यां पछी अनुभन्युं तेथी विश्वास थयो) तेथी हुं कहुं हुं केःपासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंती केयावंती लोयंति आरंभजीवो, एएस चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपच्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्नमाणे, इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुए बहुडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसत्ति पलिउच्छन्ने उट्ठियवायं पवयमाणे, मा केइ अदक्खू अन्नायपमायदोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ! कंमकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमुक्खमाहु आवमेव अणुपरियहंति तिबेमि (१४५) | लोकसारे प्रथमोद्देशकः ५-१ ॥ हे एकांत धर्म रक्त मनुष्यो ? तमे देखो ? ( रुपमां बहु वचन लेवाथी आदि शब्दनो अर्थ थाय छे, एटले रुपआदि) के रूप विगेरे इन्द्रियोना रस जे खास कडवां फळ आपनार असार छे, तेमां गृद्ध थयेला अथवा संसारमां पडेला जीवो स्वाद लइने पछी | दुःख भोगववा नरक विगेरे पीडा स्थानमां गयेला छे, ते प्राणीओने जुओ ? ( कोइने नरक उपर विश्वस न होय तो कसाइखानामां पशु पक्षीओने गळे छुरी फरती देखो, के ते पशु पक्षीओ आवी दशामां पडवानुं शुं कारण छे, तथा पशुने मारनारा मरावनारा *3-03 सूत्रम ॥५६०॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५६१ ॥ मांसनो स्वाद करनारनी शुं दशा थशे, ते पण विचारो ? ) ते विषय रसना स्वादुओ इन्द्रिओने वश थइ शुं फळ मेळवे ते कहे छे, 'एत्थफासे' आ संसारमां इन्द्रियथी परवश थयेलो मूढ बनीने कर्मनी परिणतिरुप स्पर्शोने वारंवार तेवा तेवा स्थान मां ते भोगवे, पाठांतरमां 'एत्थमोहे' छे, आ संसारमां मोह ते अज्ञान अथवा चारित्र मोहमां वारंवार मूढ वने छे, कोण ? उत्तरः- आवंती - जे कोइ गृहस्थ आ लोकमां पेट भरवा पाप आरंभ करनारा छे तेओ (बीजाने दुःख देने ) पोते पाछां तेवां दुःख मेळवे छे, वळी ते गृहस्थाने आश्रय करीने रहेल आरंभ करनारो करावनारो अनुमोदनारो जनेतर के पासत्थो वेष विडंबक साधु छे, ते पण गृहस्थो माफक दुःख भोगवे छे, ते बतावे छे, एएस सावध आरंभमां पडेला गृहस्थोमां शरीर निर्वाह माटे रहेतो जैनेतर के पासत्थो साधुपण आरंभजीवी होय, ते पूर्वे बतावेला दुःखनो भोगीयो थाय, वळी गृहस्थ के जैनेतर तो दूर रहो, पण जे संसारसमुद्री तरवारुप सम्यक्त्व रत्न मेळवीने मोक्षनुं एक कारण विरति परिणाम पामीने पण जो पापकर्मना उदयथी चारित्रने पूरुं न पाळे तो ते पण सावध अनुष्ठान करनारो बने छे, ते कहे छे 'एत्यत्रि' आ अर्हत् प्रणीत संयम मेळवीने रागद्वेषथी व्याकुल बनेलो अंदरथी तपती अथवा उत्कंठा करतो विषयनी आकांक्षाथी रमे छे, ? कोनी साथे ? उत्तरः- पाप कृत्योवडे विषयरस लेवा सावध अनुष्टानमां चित्त लगाडे छे, शुं करतो ? 'असरण' कामाग्नि अथवा पापकर्मथी वळतो जो के सावध अनुष्ठानना अशरण छे, छतां तेनुं शरण लेतो भोगनी इच्छावाळो अज्ञान अंधकारथी छवायेलो दृष्टिवाळो ( कामांध वनेला ) वारंवार अनेक दुःखोने भोगवे छे, गृहस्थ के | जैनेतर दूर रहो पण प्रवज्या (दीक्षा) लेइने पण केटलाक वेष विडंबको दुराचारोने आचरे छे, ते बतावे छे, 'इहमे' आ मनुष्य एकला फरे छे, (चराय ते चरण अथवा चर्या एकलानी चर्या ते एक चर्या) ते एकलविहारीपणुं प्रशस्त अप्रशस्त एम वे भेदो सूत्रम् ॥५६१ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, तथा ते द्रव्यथी भावथी एम बे भेदे छे, तेमां द्रव्यथी ते गृहस्थ पाखंडी विगेरेनु विषय कपाय विगेरे माटे एकलानुं फरवु थाय, 6 अने भावथी अप्रशस्त न होय कारण के राग द्वेपना अभावथी ते एक चर्या होय छे, अने रागद्वेषना अभावमां अप्रशस्त एक चर्या आचा० ते द्रव्यथी प्रतिमा धारण करेला गच्छमांथी नीकळेला जिनकल्पीने संघ विगेरेना कार्य माटे एकला जवू पडे ते छे, अने भावथी सूत्रम् ॥५६॥ तो प्रशस्त एक चर्या राग द्वेपना विरहथी थाय छे, तेमां द्रव्यथी तथा भावथी एकचर्या ते केवळ ज्ञान उत्पन्न न थथेला तीर्थक-15५६॥ रोए संयम लीधा पछीनो छदमस्थ काल छे, वाकीना वधा चार भांगामां आवे छे, तेमां प्रथम अप्रशस्त 'द्रव्य एक चर्यानु' दृष्टांत कहे छे:-पूर्वे देशमां धान्य पूरक नामना संनिवेशमा जुवान वयमां देवकुमार जेवा रुपवान तापसे गामना नीकळवाना रस्ता उपर । छठनो तप शरु कर्यो, बीजा तापसे पासेना गाममां पर्वतनी गुफामां अठम तप करीने अतापना लेवा लाग्यो पछी गायमांथी नीक-16 ळतां ते तापसने ठंड ताप सहेतो देखीने लोकोए तेना गुणोथी रंजीत थइने आहार विगेरेथी तेनु सन्मान कयु, लोकोए पूजतां तथा सत्कार करतां ते तपासे लोकोने कथु के माराथी पण वीजो पहाडनी गुफावाळो तापस वधारे कष्ट सहन करे छे, तेथी लोकोए तेने वारंवार स्तुति करतो जोइ तेमणे ते वीजा तापसनी पण पूजा करी, अने पारकाना गुणो गावा दुष्कर छे, एम जाणीने तेनो पण सत्कार कर्यो. आ प्रमाणे बन्ने भाइए एकला रहीने पूजावा माटे तप कर्यो, तेथी ते अप्रशस्त छे. आ प्रमाणे वीजा पण एक है. चर्याना दृष्टांतो यथा संभव विचारी लेवा. आ प्रमाणे सूत्रार्थ कहेतां सूत्र स्पर्शिक नियुक्तिवडे नियुक्तिकार कहे छे. चारो चरीया चरणं, एगहें वंजणं तहिं छक्क। दव्वं तु दारु संकम जल थल चाराइयं बहुहा ॥२४॥ KO-G-C 50%ESENA-HASEX HAR Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५६३॥ ॥५६॥ चार (ते चर धातुनो अर्थ गति तथा खावाना अर्थमां छे, तेनुं भावमा चार रुप बने छे,) तथा चर्या शब्द (३-१-१०. ना & सूत्र प्रमाणे) बने छे, तेम चरण पण बने छे, एक ते अभिन्न, अर्थ (समान अर्थ ) वाळा ते एकार्थ कहेवाय छे. जेना वढे अर्थ । प्रगट कराय ते व्यंजन शब्द छे, अर्थात् चार, चर्या अने चरण ए त्रणे शब्द एक अर्थवाला छे, तेथी तेना जुदा निक्षेपा छ प्रकारे छे, नाम स्थापना मुगमने छोडीने ज्ञ शरीर भव्य शरीस्थी जुदो 'द्रव्य चार' ते अडधी गाथामां वताव्यो छे, 'दव्वं तु तु शब्दनो अर्थ पुनः छे, द्रव्य आवी रीते याय छे, दारु (लाकडं) चाले छे, तेजलमां तथा स्थलमां चाले छे, तेथी ते प्रथम कहे छे, ते लाकडं जलमा स्थलमा अनेक प्रकारे चाले छे, एटले लाकडानो पूल विगेरे पाणीमां बनावे छे, अने स्थलमा खाडा विगेरे ओळंगवा माटे लाकडां गोठवे छे, तेमज जलमां लाकडानी नाववढे चलाय छे, जमीन उपर रथ विगेरेथी चलाय छे तेमज आदि शब्दथी ते लाकडं महेल बनाववा विगेरेमां दादर बनाववामां काम लागे छे, . तथा जे जे द्रव्य एक देशथी बीजा देशमां जवा माटे वपराय ते द्रव्य चार छे. हवे क्षेत्र चार विगेरे कहे छे, खित्तं तु मि खित्ते, कालो काले जहिं भवे चारो । भावंमि नाण देसण, चरणं तु पसत्थ मपसत्थ ॥२४७॥ जे क्षेत्रमा चार (चालवान) करीये अथवा जेटलं क्षेत्र चालीए, ते क्षेत्र चार कहेवाय छे, ते प्रमाणे जे कालमां चालीए, अथवा जेटलो काळ चालीए ते काळ चार छे. • भावमां चारके चरण वे प्रकार- छे, प्रशस्त चरण अने अप्रशस्त छे. तेमा प्रशस्त चरण ते 'शान दर्शन अने चारित्र' छे, अने | कब-कवावलम.. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 आचा० सूत्रम् -X-15 ॥५६४॥ AERA ॥५६४॥ - एनाथी उलटुं अप्रशस्त चग्ण ते ग्रहस्थ अने अन्यदर्शीनीओनुं संसारी वर्तन छे. तेथी आ प्रमाणे द्रव्य विगेरे चार प्रकार चरण वतावीने वर्तमानमां उपयोगीपणे साधुनो प्रशस्त भाव चार प्रश्न द्वाराए नियुक्तिकार बतावे छे. लोगे चउविहंमी, समणस्स चउबिहो कहं चारो? होई विई अहिगारो, विसेसओ खित्तकालेसुं ॥२४॥ चार प्रकारना द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावरुप लोकमां श्रम सहेनार ते श्रमण (यति) नो केवीरीतनो द्रव्यादि चार प्रकारनो चार छे? उत्तर-अहीं धृति (धैर्यता) नो अधिकार छे, एटले चार प्रकारे धैर्यता राखवी. -:- चार प्रकारनी धैर्यता :द्रव्यथी धैर्यता-एटले अरस (रस रहित) तथा विरस ते तुच्छ तथा लुरूखु विगेरे भोजन मळे, तो पण तेमां धैर्यता राखवी. क्षेत्र धैर्यता-एटले कुतीर्थिके लोकोने पोताना रागी बनाव्या होय, अथवा कुदरतीज लोको अभद्रक होय (तो साधुनुं बहु मान न करे तेथी) साधुए उद्वेग न करवो, काळ धैर्यता-ते दुकाळ विगेरे मुश्केलीना वखतमा जेवू भोजन विगेरे मळे, तेमां संतोष राखवो. भाव धैर्यता-ते कोइ आक्रोश करे हांसी करे अपमान करे, तोपण क्रोधायमान न थवं, पण विशेष करीने तो क्षेत्रकाळमां हलकापणुं होय त्यां वधारे धैर्यता राखवानी छे, कारण के पाये तेना निमित्तेज द्रव्य अने भावमां अधैर्यता थाय छे. हवे फरीथी द्रव्यादिकना भांगाथी साधुनो चार कहे छे. 1 -5054 STOR- MEG Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा०18 पावोवरए अपरिग्गहे अ गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मग्गवजए रागदोसविरए य से विहरे ॥२४९॥ | सत्रम _ 'पापोपरतः'-एटले पापना हेतु जे सावध अनुष्ठान हिंसा, जूठ अदत्त आदान (चोरी) अने ब्रह्मचर्य भंग ए पापोथी पोते | ॥५६५॥ IFi दूर रहे, तथा परिग्रह न राखे ते अपरिग्रह एटले द्रव्यचारमां पांचे महावत पळवान बताव्यु, तथा क्षेत्र चार हवे बतावे छे के-गुरु- | ॥५६५॥ कुल ते गुरु पासे रहे, तथा तेनी सेवामां रहे. एटले आखी जोंदगी सुधी गुरुना उपदेश विगेरेथी ( तेमनं मन प्रसन्न करीने) 18) चारित्र निर्मळ पाळवू, आथी काळ चार बताव्यो. के आखी जींदगी सुधी वधो काळ गुरुनी आज्ञामा वर्तवू. & हवे भावचार कहे छे, साधु मार्ग उलटो ते उन्मार्ग छे, एटले कोइ पण जात- कुकर्म होय तेनुं वर्जन करे, ते उन्मार्ग वर्जक IP छे. तथा रागद्वेषथी विरक्त वनीने ते साधु विहार करे तथा संयम अनुष्ठान योग्यरीते करे. नियुक्तिकारे चार बताव्यो. म हवे पार्छ सूत्र आश्रयी चार (चर्या) बतावे छे. तेमां पूर्व विषय कषाय निमित्त जे एक चर्या (एकलविहार ) करे. ते केवो थाय ते कहे छे. 'से बहुकोहे-विगेरे एटले विषयगृद्ध बनेलो इन्द्रियोने अनुकूल वर्तनारो एकलो पडेलो पतित साधु अथवा गृहस्थ होय, तेनुं बीजा माणसो अपमान करे तो ते बहु क्रोधवाळो बने, तथा कोइ तप विगेरेना कारणे बदन करे तो बहुमानवाळो (अहं कारी) बने. तथा कुरुकुचादि (कुचेष्टा) तथा कल्क (खोटी) तपश्या करीने बहु कपटी बने अने आ बधुं कृत्य आहार विगेरेना लोभथी करे माटे ते बहु लोभी बने, अने तेज कारणथी बहु रजवाळो एटले बहु पापरूप कर्म रजवाळो अथवा आरंभ विगेरेमा बहु रक्त बने तेथी बहुरत कहेवाय छे, तथा नटनी माफक भोगो (संसारी सुख) लेवा बहु वेपो धारण करे ते बहु नट कहेवाय. GREAM Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० RECORAKHILE तेज प्रमाणे घणा प्रकारे शठपणुं करे तेथी बहु शठ कहेवाय, तथा संसारी कृत्यना घणा विचारो करे तेथी बहु संकल्पी (संकल्पवाळो) कहेवाय एज प्रमाणे चोर विगेरेनी पण एक चर्या (अप्रशस्तमां) जाणवी, आवी रीतनो होय तेनी केवी अवस्था थाय, ते कहे छे: 'आसव' विगेरे-आत्रवो ते हिंसा विगेरे छे, तेमां सक्त (संग) राखे ते आस्रव सक्त कहेवाय, अर्थात् हिंसा विगेरे पाप करBI नारो होय. 'पलितं'-ते कर्म-तेनावडे अविच्छिन्न छे. एटले कर्मथी अवष्टब्ध (लेपायलो) छे. आवीरीते अनेक दुर्गुणवाळो होय, [SIMusan छतां पण पोते (लोकोने ठगवा)-शुं कहे ते कहे छे: उट्टिय-धर्म चरण (चारित्र) माटे हुँ उद्यम करनारो छ, एटले पतित साधु पण एज प्रमाणे बोले के हुँ चारित्र पाळु छ, ४. अने ते प्रमाणे न पाळवाथी कर्म वडे लेपाय छे, अने ते साधु वेपधारी मोडेथी पोताने साधु वोलतो आस्रवोमां वर्ततो छतां आजीविकाना भयथी केवी रीते वर्ते छे. ते कहे छे. 'मामे-मने बीजा कोइ पाप करतां न देखो एथी ते पाप छानां करे छे, अथवा ते अज्ञानथी अथवा प्रमादना दोपथी पाप करे छे, वळी 'सयाय'-सतत (निरंतर) मोहनीय कर्मना उदयथी अथवा अज्ञानथी मृढ बनेलो श्रुत अने चारित्र धर्मने जाणतो नथी, एटले तेने धर्म अधर्म नो विवेक नथी, जो आम छे, तो शुं करवू ते कहे छे: अट्टा-विषय कपायोथी आर्त (पीडायला) बनीने तेओ आठ मकारनां कर्म बांधवामा कोविद (कुशळ) छे. पण धर्म अनुष्ठानमां कुशळ नथी, [ एवं गुरु सांभळनार भव्य जीवोने आश्रयी कहे छे ] हे जंतुओ! हे मनुष्यो ! तमे जुओ ! (मनुष्य धर्म करवाने योग्य होबाथी मनुज शब्द लीधेल छे) हवे क्या मनुष्यो निरंतर धर्मने न समजतां कर्म वन्धमा कुशल छे ? ते कहे छे:। 'जे अणुवरया-जे कोइ ( चोकस अमुक एम नहीं) पण पाप अनुष्ठानथी विरक्त [निवृत्त न होय, तेओ ज्ञान दर्शन चारित्र दोपथी पाप कर अधर्म नो विवक बांधवामा कोविद र HABASABHA Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ६७॥ जे मोक्षनो मार्ग छे, तेज विद्या छे. तेथी उलटी अविद्या छे, तेनाथी पण तेओ परि (वधी रीते] घेरायलां छतां मोक्ष कहे (अर्थात् अज्ञान दशामां रही कुकर्म करी तेनाथी मोक्ष माने) तेओ धर्मने जाणता नथी, हवे धर्मने जाणनारो शुं मेळवे ते कहे छे. 'आवट्ट - भाव' आवर्त्त ते संसार छे. ते संसारमां कुवाना अरटना न्याये जन्ण मरणनुं भ्रमण कर्या करे छे, अने नरक विगेरे चार गतिमां ते वारंवार जन्म ले छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे, आ प्रमाणे लोकसार अध्ययनमां प्रथम उद्देशो समाप्त थयो. लोकसार अध्ययननो बोजो उद्देशो हवे वीज उद्देशो कड़े छे, ते नो आ प्रमाणे सबंध छे. पहेला उद्देशामां कहां के एक पर्यायवाळो (त्यागी) वनीने पण सावध अनुष्ठान करवाथी तथा विरति ( चारित्र) न पाळवाथी तेये मुनि न कहेवो. आ-वीजा उद्देशामां तेनाथी उलटो ते चारित्र पाळीने पाप अनुष्ठान त्यागनारोज मुनि कहेवाय छे, ते कहे छे. आ संबंधथी आवेला उद्देशानुं पहेलं सूत्र कहे छे. आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभ जीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेमी एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उट्टिए नोपमायए, जाणित दुखं पत्तयं सायं पुढो छंदा इहमाणवा पुढो दुक्खं पवेइयं से अषि सूत्रम् ॥५६७॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECA सूत्रम् 353 हिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुन्नए (सू० १४६) आचा० आमनुष्य लोकमां जेओ केटलाक मनुष्यो आरंभ रहित जीवनारा छे, अहीं आरंभ एटले सावद्य अनुष्ठान अथवा प्रमादीपणुं छे को छे के ॥५६८॥ 18 आदाणे निक्खेवे, भासुस्सग्गे अ ठाणगमणाई । सबो पमत्तजोगो, समणस्सवि होइ आरंभो ॥१॥ ___ कोइ पण वस्तु लेवी के मुकवी, बोलवू. मल परठवो, स्थानमा रहेQ. अथवा जवु आवq, आ वधु कार्य साधु जो प्रमादथी करे, तो तेने आरंभ (नो दोष) लागे छे, पण तेथी उलटुं ते प्रमाद न करे, तो अनारंभी कहेवाय छे, तेवु निरारंभ जीवन गुजारे छे, तेवा 3 साधुओ समस्त आरंभथी निवृत्त थएला छे, अने जे गृहस्थीओ पुत्रकलत्र के पोताना शरीर विगेरेना रक्षण माटे आरंभ करे छ,5 तेमना उपर जीवन गुजारे छे, तेनो भावार्थ आ छे, के सावध अनुष्ठान करनार गृहस्थो छे, तेमना आश्रये पोताना देहनो निर्वाह करवावाळा अनारंभ जीवनवाळा ते साधुओ होय छे, जेम कादवना आधारे रहेल छतां कमळ निर्लेप होय छे, तेम तेओ निर्लेप छे, | जो एम छे, तो शुं समजवू. ते कहे छे, आ सावध आरंभवाळा कर्तव्यमां संकुचित गात्रवाळो बने. अथवा अहों जिनेश्वर कहेला 1 धर्ममा रही पापारंभथी निवृत्त थाय. प्रश्न-ते शुं करे? उ०-ते सावध अनुष्ठानथी आवेल (थता) कर्मने क्षय करतो मुनि भावने भजे ६ * प्रश्न-शुं आलंबन लइने उपरत थाय ? उ०-'अयंसंधी' विगेरे (अविवक्षित कर्म बताच्या विनानो धातु होय ते पण अकर्मक धातु 1 थाय छे. जेमके, जो ? मृग दोडे छे ! एम अहीं पण "अद्राक्षीत्” क्रिया छतां पण असंधि एम प्रथमा विभक्ति करी छे.) आ प्रत्यक्ष 12 नजरे देखातो आर्यक्षेत्र मुकुलमा जन्म इन्द्रियोनी पूरी शक्तिधर्मनी श्रद्धा तथा वैराग्य लक्षणवाळो अवसर मळ्यो छे, अथवा मिथ्यात्वनो -Aca-G-COCCUESDAE Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५६९॥ क्षय थयो छे. अथवा मिथ्याखनो हाल तेने उदय नथी, एटले सम्यक्त्वनी प्राप्तिना हेतुभूत कर्मविवर लक्षणवाळो संधि [अवसर / आचा० अथवा शुभ अध्यवसायना जोडाणरूप संवि तने मळ्यो छे, तेने तारा आत्मामा स्थापन करेलो तुं नजरे जो, एथी हवे तुं एक क्षण पण || ॥५६९॥ प्रमाद न करजे. विषय विगेरेना कारणे प्रमादी न थइश, क्यो प्रमादी न थाय ? उत्तरः--'जे इमस्स' जे एटले जेणे तत्व प्राप्त कर्यु, एवा तवज्ञानीने 'जेना वडे आठ प्रकारनं कर्म' विशेष करीने ग्रहण थाय ते इन्द्रियोवाल विग्रह (शरीर) औदारिक छे, तेनो आ/५ वर्तमाननो समय [क्षण] सुखमां के दुःखमां वीत्यो. अने भविष्यमां वीतशे. ते दरेक क्षण शोधवानो स्वभाव छे, ते अन्वेपी कहेवाय Dछे, अने ते सदा अप्रमत्त रहे छे, आचार्य कहे छे के आ हुँ नथी कहेतो पण 'एसमग्गे आ कहेलो मोक्ष मार्ग आर्य पुरुपोए कहेलो छे.एटले बधा त्यागवारूप धर्म (कुतीर्थ विगेरे) थी दूर रही मोक्ष किनारे पहोंचेला एवा तीर्थकर गणधरोए प्रकर्षथी पूर्वे कहेलो छे, वळी | तीर्थकरोए पूर्वे कहेलो अने हवे कहेवातो मार्ग कह्यो छे, एटलुंज नही पण ते प्रमाणे वर्तवानुं छे.ते कहे छे. 'उहिए'-संधि (अवसर) मळेलो है। जाणीने धर्मचरण माटे तैयार थएलो तु साधु एक क्षणमां पण प्रमाद न करीश. वळी बीमुं शुं समजवान छ? ने कह छे-जाणित्तु-दरेक पाणीनुं दुःख अथवा तेनुं मूळ कारण कर्म जाणीने तथा मनने प्रसन्न करनारु मुख जाणीने तुं प्रमादी न थइश. वळी दरेक जीवने || | दुःख अथवा कर्म जुदुं छे, एटलंज नहि पण कर्मनुं मूळ कारण अध्यवसाय पण दरेक पाणीनो जुदोज छे.ते बतावे छे, 'पुढो' जेओनो अभिमाय प्रथक छे तेओ प्रथक् छंदवाळा कहेवाय छे. एटले जुदी जुदी जातना बन्धना अध्यवसायना स्थानवाला छे. तेओ 'इह' ते आ संसारमा अथवा संज्ञावाळा संझी लोकमां मनुष्यो छे. अने तेज प्रमाणे बीजा जीवो पण जाणवा, अने दरेक संझी प्राणीनो जुदो जुदो संकल्प होवाथी तेना कार्यरूप कर्म पण जुदंज छे, अने तेना कारणरूप दुःख पण जुदा रुपवाळु छे, अने कारण भेद 454389CCES रुस्वक्लव Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० CREE सूत्रम् ॥५७०॥ सब-ब-ब- ॥५७०॥ थाय तो अवश्ये कार्य भेद थाय छे, तेथी पूर्वे कहेलुं फरीयाद करवावीने कहे छे, 'पुढो' दुःखना उपादानना भेदथी माणीओनु दुखि पण जुहूँ जुदुं बताव्युं कारण के बधा प्राणीओने पोताना करेलां कर्म भोगववामां इश्वर (समर्थ)पणुं छे, पण वीजान करेलु पोते | न भोगवे आवं मानीने शुं करे ? ते कहे छे, से-ते अनारंभ जीवी साधु प्रत्येक प्राणीना सुख दुःखना अध्यवसायने जाणनोरो जुदा जुदा उपायो वडे पाणीओनी हिंसा न करतो तथा जुटुं न बोलतो, (संयम पाळे) तेम तुं पण जो (सूत्रमा प्राकृतना अथवा आर्ष वचनथी 'पश्य'नो लोप थयो छे. ए प्रमाणे पर स्वमां पण ज्यांपद न ली, होय त्यां लेवू) आवीरीते जीवहिंसा न करनारो वीजुं शुं करे ते कहे छे, पुट्ठो-ते पांच महाव्रतमां स्थिर रहीने जे प्रमाणे संयम पाळवानी प्रतिज्ञा लीधी छे. ते प्रमाणे पाळवामा उद्यम करे, अने परिसह उपसर्गो आवतां तेनाथी थता शीत उष्ण विगेरे स्पर्श अथवा दुःखना स्पर्श आवे तेने सहन करी आकुल न थाय तू पण संसार असार छे विगेरे जुदी जुदी भावनाओवडे (धर्ममां) प्रेरे, अने प्रेरणा ते सम्यक्प्रकारे सहे. पण ते दुःख पडवाथी आत्माने # दुःखी न मानवो. (व्याकुल न थर्बु) पण जे समभावे रही परीपहोने सहे, तेने शुं गुणो थाय, ते कहे छे: एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इति उदाह धीरे ते फासे पुट्ठो अहिया सइ, से पुविं पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्मविद्धंसणंधम्ममधुवं __ अणिइयं असासयं चयावचइयं विपरिणामधम्मं, पासह एयं रूवसंधि (मू० १४७) पर्व कहेलो जे परीपहोनो प्रणोदक [सहेनारो सम्म अथवा शमिता शमना भाववालो पर्याय ते चारित्रने ग्रहण करीने सम्यक 5A5%SHADAILY SECGC Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५७१॥ पर्यायवाळो वने अथवा शमिता (शांत स्वभावी) दीक्षावाळो वने तेज स्तुत्य थाय छे पण वीजो नहिं, आ प्रमाणे परिषह अने उपसर्गमां अक्षोभ्यपणुं बतावीने हवे व्याधिनी सहन शीलता बतावे छे. 'जे असत्ता' एटले जेमणे कामवासनाने दूर करी तृष्ण अने मणि तथा माटीनुं देऊं तथा सोनामां समान भाव धारण कर्यो छे, तेवा समताने पामेला मुनिओ पापकृत्योमा असक्त एटले पापना उपादानना अनुष्ठानथी दूर रहेला छे, तेमने कदाचित् आतंक ते शीघ्र जीवने पण दूर करे तेवा जीवलेण शूळ विगेरे व्याधिओ पीडा करे, त्यारे तेओ शुं करे ? ते कहे छे. अने आ कहेनार कोण छे ते पण कहे छे, धी (बुद्धि) वडे राजे. ते धीर तीर्थंकर पुरुष | अथवा गणधर छे, तेओ कहे छे के तेवा जीवलेण व्याधिओवडे पीडायलो छतां ते दुःखना अनुभववाळा स्पर्शोने सम्यक्प्रकारे सहन करे, सहन करतां शुं विचारे ? ते कहे छे, 'से पूव्व' - ते साधु जीव लेण दुःखथी पीडातो छतां आ प्रमाणे विचारे, के पूर्वे पण में आवु अशातावेदनीय कर्मथी उदयमां आवेलं दुःख सहन कर्य छे, अने पछवाडे पण मारे सहन करवानुं छे, कारण के संसार ऊदरना विवरमा रहेनारो (संसारीजीव) एवो कोइपण नथी के, जेने अशातावेदनीयकर्मना उदयमां आवेला विपाकथी रोगोनां दुःखो न ते भोगवे ! बळी तेज प्रमाणे केवळीप्रभुने पण मोहनीय विगेरे चार घातिकर्म क्षय थतां केवळज्ञान उत्पन्न थया छतां | वेदनीयकर्मना सद्भावथी ते असातावेदनीयकर्मनो उदय थवानो संभव छे. तेथीज तीर्थकरोने पण प्रथम कर्म बंधाय; पछी स्पष्ट थाय; पछी निधत्त थाय; पछी निकाचन थाय; त्यारपछी उदयमां आवतां अवश्ये वेदपडे; पण भोगव्या विना मोक्ष न थायः तेथी अन्य साधु विगेरे पण असातावेदनीयकर्म उदय आवतां सन्नतकुमारचक्रवर्त्ती माफक मारे पण सहन कर एवं विचारीने खेद न करवो. कं छे के: सूत्रम् ॥५७१॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५७२॥ स्वकृत परिणतानां दुर्नयानां विपाकः । पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य । स्वयमनुभवतोऽसौ दुःख मोक्षाय सद्यो । भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥ १ ॥ पोतानां करेलां दुष्ट कृत्योनो उदयमां आवेलो आ विपाक (फळ) आवेल छे. ते तारे मध्यस्थ रहीने सहन करवो जोइए. ते प्रमाणे विपाक सहन करतां शीघ्र दुःखथी मोक्ष (छुटकारो) थशे. पण जो तुं भोगववामां समता नहीं राखे तो ते विपाक नवा सो भवनो हेतु थशे (चार गतिमां सेंकडो वार जन्म मरण करवां पडशे ) वळी आ औदारिक शरीर घणो काळ सुधी पण रसायण विगेरे अमूल्य औषधोथी पोष्या छतां पण माटीना काचा घडाथी पण निःसारतर (तद्दन नकामुं) वधी रीते हमेशां नाशपामनाएं छे ते बतावे छे, 'भिदुर बम्भ' अथवा पूर्वे अने पछी पण आ औदारिक शरीर हवे पछी कहेवाता धर्मवाळं छे, पोतानी मेळे भेदाय ते मिदुर छे ते धर्मवाळु जे होय, ते भिदुर धर्मवा छे, एटले आ औदारिक शरीरने सारी | रीते पोष्युं होय, तो पण वेदनानो उदय थतां माधुं पेट आंख छाती विगेरे अवयवोमां पोतानी मेळेज भेदन थार्य छे, तथा हाथ पग विगेरे अवयवो पोतानी मेळेज विध्वंस (शून्य) थता होवाथी विध्वंसन धर्मवाळं छे, तथा जेम रात्रीना अंते नक्की सूर्योदय थाय, ते ध्रुव कहेवाय, पण शरीर तेनुं न होवाथी अध्रुव कहेवाय छे, तथा अमच्युत ( नाश न थाय ) अनुत्पन्न ( उत्पन्न न थाय) एवा एक स्थिर स्वभाववालं कूटनी अंदर नित्य रहेलं छे, ते नित्य कहेवाय, पण तेनुं नित्य शरीर न होवार्थी अनित्य छे, तथा तेवा तेवा रूपवडे पाणीनी धारा माफक शाश्वत होय तेषु शरीर न होवाथी अशाश्वत छे, तथा इष्ट अनु सूत्र ॥५७२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५७३॥ RECASHAISA कूळ आहारना भोजनथी धृति उपष्टभ विगेरेमां औदारिकशरीर वर्गणाना परमाणुना उपचयथी चय तथा घटवाथी अपचय छे एवा ठं धर्मवालं होवाथी अयापचयिक छे, एथीज विविध परिणामवाळु छे, तेथी ते विपरिणाम धर्मवाळं छे, जो आवी रीते शरीर नाश-8 सूत्रम् वंत छे, तो ते शरीर उपर शुं अनुबन्ध (ममत) होय ? अने कइ रीते मूर्छा होय ? तेथी आ शरीरवडे कुशल (धर्म) अनुष्ठान विना ॥५७३॥ बीजी कोइ पण रीते सफलता नथी; ते कहे छे: पासह आ रुपसंधि (योग्य अवसर) ने जुओ ! के नाशवंत धर्मथी घेरायलं आ औदारिक शरीर छे, तेमां पांचे इन्द्रियोनी *संपूर्ण शक्तिना लाभनो अवसर छे, अने ते देखीने जुदा जुदा रोगोथी उत्पन्न थयेला स्पर्शोना दुःखनो उत्तम साधु सहन करे, आ 5 प्रमाणे (हृदयचक्षुथी) देखनारने शुं थाये, ते कहे छे:__ समुप्पेह माणस इक्काययणरयस्स इह विप्प मुक्कस्स नस्थि मग्गे विरयस्स तिबेमि (सू० १४८) सारी रीते देखाताने आ भेदुर धर्मवाळ शरीर छे, ए, विचारतां तेने मार्ग नथी. अर्थात् चार गतिमा भ्रमण नथी. ते कहे 8. छे. एटले आ आत्मने बधा पापारंभोथी मर्यादामा लेवाय-(कबजे रखाय) अथवा कुशल (धर्म) अनुष्ठानमा उद्यमवाळो कराय, तो ते आयतन कहेवाय अने ते ज्ञानदर्शन चारित्र ए त्रणमा एक रुपे होय तो ते एकायतन छे, अने तेमां रमणता करे तो आत्मा अकायतनरत छे, तेवा निस्पृही ज्ञानी मुनि 'इह' आ शरीर अथवा आ जन्ममा विविध उत्तम भावनाभोवडे शरीरना अनुबन्धथी मुकाय, ते विषमुक्त छे, तेने नरकतिर्यंच मनुष्य गतिमा भ्रमण नथी, तेमज वर्तमानकाळ बताववाथी' भविष्यमा पण भ्रमण नथी ॐडनाव Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५७४॥ एम कहुं, अथवा तेज जन्ममां वधा (आठे) कर्मनो क्षय थवाथी तेने नरकादि मार्ग नथी. प्रश्नः - कोने ! उ:- जे हिंसा विगेरे आश्रव द्वारोथी निवृत्त छे. तेने संसार भ्रमण नथी. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं मारी स्वकल्मनाथी नथी कहेतो पण जे वीर वर्धमानस्वामी दिव्य ज्ञानवडे जाणीने वचनथी कधुं ते हुं तमने कहुं छं. आ प्रमाणे विरत ते मुनि छे, एम कनुं, हवे अविरत - वादी ते परिग्रहवाको छे, एम पूर्वे कहेलं, ते सिद्ध करे छे: आवंति यावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वाचहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अत्तितं वा एएस चैव परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महन्भयं भवइ, लोग वित्तं चणं उder, एएसंगे अवियांणओ ( सू० १४९ ) जे कोई मनुष्यो आ लोकमां परिग्रहयुक्त छे तेमनी पासे आवी रीतनो परिग्रह छे, 'से अप्पं वा' जे परिग्रहाय (लेवाय) ते परिग्रह छे ते अल्प (थोडो) होय, जेम छोकराने रमावानी कोडीओ, विगेरे अथवा धनधान्य, सोनुं, गाम, देश, विगेरे घणो परिग्रह होय; अथवा तृण, लाकडं विगेरे मूल्यथी अणुं ( ओछी किंमतनुं ) होय; अथवा प्रमाण ( कदमां) नानुं वज्र (हीरो) विगेरे होय; अथवा मूल्यथी तथा प्रमाणथी स्थूळ (मोडं) हाथी घोडा विगेरे होयः अने आ वस्तुओ सचित्त अथवा अचित्त होय. आ चतावेला परिग्रहवडे परिग्रहवाळा वनीने ए परिग्रह राखनारा गृहस्थीओ साथेज वेपधारी साधुओ रहेनारा होय. (जेमके गृहस्थनुं घर अने वेषधारी मठ के स्वमालिकीनो उपाश्रय तथा गृहस्थने धन तेम वेपधारीनुं द्रव्य, तथा गृहस्थने नोकर-चाकरने बेटा-बेटीनो सूत्रम् ॥५७४ || Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५७५॥ R राध करवाथी पण संपूर्ण अपरा %E परिवार. तेम वेषधारीने नोकर-चाकर अने चेला-चेलीनो व्यवसाय आ ममत्वभावे परिग्रह छे.) आचा० अथवा आ छ जीवनिकायमांज अथवा विषयभूत वस्तुरूप] थोडं विगेरे जे द्रव्य का तेमांमूर्छा करतां परिग्रहधारी बने छे. सूत्रम् तेज प्रमाणे अविरत [संसारी रह्या छतां हुं विरत छ, एवं बोलतो अल्प-परिग्रह राखवाथी पण परिग्रहधारी बने छे. एज प्रमाणे ॥५७५॥ बीजां व्रतोमां पण जाणवु, कारणके तेणे आस्रवोर्नु निवारण न करवाथी एक देश (थोडो) अपराध करवाथी पण संपूर्ण अपराध* पणानो संभव थाय छे.. शंका-जो, आ प्रमाणे अल्प-परिग्रह पण राखवाथी परिग्रहपणुं थाय छे. तो. हाधमां भोजन करनारा दिगम्बर-वस्त्ररहित] तथा सरजस्क बोटिक विगेरे जे छे, तेओ अपरिग्रहवाळा मुनि थशे. कारणके, तेमने तेवा थोडा परिग्रहनो पण अभाव छे. __आचार्य- समाधान-तेम नथी; कारणके, 'परिग्रहोनो अभाव छे.' ए हेतु अप्रसिद्ध [जूठो छे. सांभळो सरजस्कने अस्थि विगेरेनो परिग्रह छे, अने बोटिकोने पीच्छी विगेरेनो परिग्रह छे. आ (बाह्य परिग्रह छे) तथा अंदरनो परिग्रह पण छे. कारणके, शरीरधारी छे, तथा आहार विगेरे परिग्रह तेमने विद्यमान छे. धर्मने टेको आपवारूप ते होवाथी निर्दोष छे एम कहेशो; तो, अमने पण ते समानज छे. तो पछी, दिगम्बर (नग्नपणाना) P आग्रहनो कदाग्रह शा माटे जोइए ? हवे, जे अल्प (थोडो) विगेरे पण परिग्रह राखे छे, अने अपरिग्रहपणानो अभिमान राखे छे, तेमनो आहार शरीर विगेरे मोटा अनर्थने माटे थाय छे, ते बतावे छे 'एत देव' ए अल्पबहुपणा विगेरेना परिग्रहवढे केटलाकने 81 परिग्रहपणुं नरकादि गमनना हेतुपणाथी अथवा वधाने तेनो अविश्वास थतो होवाथी महाभयरूप थाय छे, कारणके आ प्रकृति । -RS-CAX RCASS Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ (वभाव) परिग्रहनी छे, अथवा ते परिग्रहधारी पोते वधार्थी चमके छे. [ के मारो परिग्रह कोइ न लइ ले !] अथवा दिगम्बरने आचा०४ आ शरीर नभाववा आहारादिक लेचा वीजु अल्प पात्र लकत्राण (कपडु) विगेरे रुप धर्मोपकरणना अभावथी गृहस्थना घरमा आहार में वापरतां सम्यग् उपायना अभावथी अविधिए अशुद्ध आहार विगेरे खातां कर्मबन्धथी उत्पन्न थएल महाभयनो हेतु होवाथी महाभय ॥५७६॥ ॐछे, तथा आ धर्म शरीरने बधी रीते आच्छादन (ढांकवाना) अभावथी बीभत्स होवाथी बीजाओने महा भयरूप छे. आ प्रभाणे परिग्रह महाभय छे, तेथी कहे छे के 'लोग'-असंयत लोकन अल्प विगेरे विशेषवालं द्रव्य तेने महाभयरूप छे. (सूत्रमा च शब्द पुनः ना अर्थमां छे, णुं वाक्यनी शोभा माटे छे) अथवा लोक वित्तने बदले लोकत लइए तो आहार भय मैथुन ४ परिग्रह संज्ञावाळु लोकवृत्त छे. ते लोकनुं वलण मोटा भयने माटे छे. एवं उत्तम साधुए ज्ञ परिज्ञावढे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञा वडे ते लोकोनी संसारी चेष्टाओने त्यागी देवी, ते त्यागनारने शुं थाय, ते कहे छे, 'एएसंगे'-ए थोडं घणु द्रव्य संग्रह करवान अ* थवा शरीर आहार विगेरेनी मू ने न करवाथी ते परिग्रह राखवाथी यतुं दुःख ते साधुने न थाय वळी: से सुपडिबुझं सूवणीयंति नच्चा पुरिता परमचक्खू विपरिकम्मा, एएसु चेव बंभचेरं तिबेमि, ..' से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीराहयं ति तिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अपमत्तो परिवए, एयं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि तिबेमि __ (सू० १५०) लोकसारअध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥५-२॥ -एलए ॥५७६॥ ___ नजर Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५७७॥ से-ते परिग्रह छोडनारने सारीरीते प्रतिबद्ध तथा सारी रीते उपनीत ज्ञान विगेरे छे, (परिग्रह छोडनारने सारीरीते त्रण आचा051 रत्नोनी प्राप्ति छे) एवं जाणीने गुरु कहे छे, हे मानव ! तुं परम ज्ञान चक्षुवाळो बनीने अथवा मोक्षनी एकदृष्टिवाळो वनीने जुदी ॥५७७॥ जुदी जातना तप अनुष्ठाननी विधिवढे संयम अनुष्ठानमां पराक्रम कर' शा माटे आ पराक्रम करवानो उपदेश करे छे ? 'एएसचेव' जेओ आ परिग्रहथी विरक्त बनीने परम चक्षुवाळा थया छे, तेओमांज परमार्थथी ब्रह्मचर्य छे, पण बीजामां नथी, कारणके ब्रह्म चयनी नववाड वीजामां नथी, अथवा ब्रह्मचर्य नामनो आ श्रुतस्कंध छे, अने तेनु वाच्य पण ब्रह्मचर्य छे, ते आ ब्रह्मचर्य परिग्रह न मा राखनाराभोमांज छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे, के में का, अने हवे कहीश, ते बधुं सर्वज्ञना उपदेशथी कहुं छु, ते बतावे छे, 'सेसुअंचमे-जे जे का, अने जे हवेकहीश, ते में तीर्थकर पासे सांभळ्यु छे, अने ते प्रमाणे मारा आत्मामां स्थिर थयु, माटे अध्यात्म छे, एटले मारा चित्तमां पण नेज प्रमाणे छे, शुं छे? ते बतावे छे, बन्धथी मोक्ष ते बन्ध प्रमोक्ष छे, ते अध्यात्ममांज छे, ही अने अध्यात्म ते ब्रह्मचर्य छे, ब्रह्मचर्यवाळानो मोक्ष छे. वळी इत्थ आ परिग्रह राखवाथी विरत तेछे, प्र०-कोण छे ? उ०-जेने गृह नथी ते अणगार छे, ते साधु दीर्धरात्र (आखी जींदगी) सुधी परिग्रहना अभाववाळो बनीने भूख तरस विगेरेनां आवेलां कष्टोने सहन करे, वळी गुरुउपदेश करे छे, 'पमत्ते'-विपयो विगेरे प्रमादोथी धर्मथी विमुख थएला गृहस्थो तथा वेषधारीओने तुं जो, देखीने शुं करवू ? ते कहे छे-अप्रमत बनीने संयम-अनुष्ठानमां यत्न करे. वळी, 'एयम्' आ पूर्वे कहेलु संयम-अनुष्ठान मुनिनु । | सर्व स्वमौन छे. ते सर्वज्ञान कहेलं छे, ते सारीरीते पाळg आ प्रमाणे हुं कहुं छु. ASNARIES CCCCES Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रीजो उद्देशो. आचा० हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:-बीजा उद्देशामां का केः-अविरतवादी ते परिग्रहवाळो छे, अने आ४ आ .सूत्रम् ४त्रीजा उद्देशामां तेथी उलटुं कहे छे. भाप्रमाणे संबन्धथी आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. ॥५७८॥ आवंती केयावंती, लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई महावी ॥५७८॥ पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुजोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं (सू० १५१) आलोकमां जे कोइ परिग्रहवाळा विरत साधुओ छे, ते वधाए आ अल्प विगेरे द्रव्य छोडे; छते अपरिग्रहधारी मुनि वने छे, * अथवा छ जीवनीकायमां ममत्त्वभाव तजवाथी अपरिग्रहधारी थाय छे. मा-ठीक. पण, अपरिग्रहभाव केवी रीते वने ? ते कहे छे. 'सोचा वईति' (वीजी विभक्तिना अर्थमा प्रथम विभक्ति छे, तेथी) वाणी ते आ तीर्थकरे कहेला आगमरूप-आज्ञाने सांभळीने मेधावी (मर्यादामां रहेलो) श्रुतज्ञान भणेलो हेयऊपादयने समजी तत्त्व ग्रहण करावानी प्रवृत्ति जाणनारो बने; तथा, पंडित ते गणधर आचार्य विगेरेनां विधि नियमरूप-वचनोने सांभळी सचित्त-अचित्त वस्तुनो जाण बनी तेना परिग्रहनो त्याग करी अपरिग्रही वने प्रा-ठीक तेम इशे; पण, निरावरण ज्ञान उत्पन्न थएला तीर्थकरोनो क्ये समये वाणीनो योग (उपदेश) थाय छे, के अमे सांभळीए? . HCCESS650 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५७९॥ चा० 18. उत्तरः-धर्मकथाना अवसरमां, प्र:-तेओए केवो धर्म कह्यो ? एवी शंका दूर करवा कहे छे. 'समिय' समता एटले, शत्रु मित्रमा समभाव राखवो; तेनावडे आर्योए धर्म कहेलो छे. कयुं छे के:५७९॥ जो चंदणेण बाहुँ, आलिंपइ वासिणाव तच्छेति । संथुणइ जोअणिंदति, महेसिणो तत्थ समभावा ॥१॥ जे कोइ भक्तिथी मुनिने भुजा उपर चंदननो लेप करे, अथवा वांसलाथी चामडी छोले, अथवा कोइ स्तुति करे, कोइ निंदे, ॐ तो पण ते मुनि बधा जीवो उपर समभाव राखे छे. (तेज महर्षि छे) अथवा आर्य एटले देशथी भाषाथी के उत्तम आचरणर्थी तेओ है आर्य (सुधरेला) छे, ते वधा उपर भगवाने समभाव राखी उपदेश आपेलो छे. तेज का, छे के: जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ-विगेरे जेम पुण्यवानने धर्म संभळावे, तेम तुच्छने पण धर्म संभलावे अथवा शमि (शम शांतिधारक) नो भाव ते शमिता ते शांत हृदय राखीने वधा हेय धर्म (कुरीवाजो) ने त्यागवाथी आर्य वनेला तेमणे प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी आ धर्म कह्यो छे अर्थात् पांचे इन्द्रियो तथा मनने कबजे करवा वढे (केवळज्ञान प्रप्त करी) तीर्थकरोए धर्म कह्यो. ठीक एम हशे, तेवीरीते बीजाओए पण पोताना अभिप्राय प्रमाणे धर्मो कह्या छेज, आवी शंका थाय, ते दूर करवा आचार्य कहे छे, के तेम नहीं. आ धर्म भगवानेज कह्यो 8 छे, ते कहे , 'जइत्थ' विगेरे देवता अने मनुष्यनी सभामां भगवाने आ प्रमाणे का, जेम में अहीं ज्ञान विगेरे मोक्ष संधि (अवसर) सेवन कर्यो छे, अथवा आ ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मोक्षमा मां अथवा समभावरुपमां तथा इन्द्रिय नोइन्द्रियना उपशममां में है DISC- 5वववववव Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P॥५८०॥ मोक्षाभिलापी बनी पोतानी मेळज संधाय (ते संथि) अथवा जे कर्मसंतति बन्धाय अने एक भवथी बीजा भवमा साथे जाय ते आचा० आठ प्रकारना कर्मसंततिरूप छे. तेने क्षय करी में (तीर्थकरोए) धर्म कयो. तेज मोक्ष माग छे, पण बीजो नहीं. ते कहे छे जेम में अहीं कर्मसमूह (संधि) तोड्यो. तेम अन्यत्र वीजा अन्य तीर्थी के कहेला मोक्षमार्गमा कर्मसंततिरूप संधि दुःक्षय ते दुःखे करीने ॥५८०॥ क्षय याय तेम छे, कारण के ते असमीचीनपणे होवाथी तेमां खरा उपायनो अभाव छे. जो जिनेश्वरे अहीं कर्म संधि तोड्यो छे, तो शुं समजवु ते कहे छे, जेम आज मार्गमां रहीने उत्कृष्ट तपश्चर्यावडे में कर्म खपाव्यु, तेज प्रमाणे अन्य मुमुक्षु पण संयम अनुष्ठानमां तथा तपमा पोतानी शक्तिने योजे, पण प्रमाद न करे, सुधर्माखामीए पोताना ४/ शिष्यने कां, के आ प्रमाणे परम कारुण्यथी भीजायेला हृदयवाळा अने परहितनो एक उपदेश देनारा श्रीवीरवर्धमानस्वामीए 15 अमने का छे. प्रश्न क्यो माणस एवी क्रिया करनारो थाय ? ने कहे छे. जे पुव्वुहाई नो पच्छा निवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छा निवाई, जे नो पुव्वुट्टायोनो पच्छा निवाई ___सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्ने सयंति ॥ सू० १५२ ॥ जे कोइए संसारनो (अस्थिर) स्वभाव जाणवावडे धर्म चरणमां एक तत्पर मनवाळो वनीने प्रथमथी दीक्षाना अवसरे संयम अनुष्ठान करवाने तैयार थएलो होय ते 'पूर्वोत्थायी छे, अने पछीथी श्रद्धा तथा संवेगथी विशेषथी वधता परिणामवाळो होय, तो ते चारित्रथी भ्रष्ट थतो नथी, (पडवाना स्वभाववालो ते निपाती छे, एदले चारित्र लेइने निपात करे ते निपाती छे, आवो निपाती OECCCCCCCAGECAR Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ टू न होय ते नोनिपाती कहेवाय) एटले सिंहपणे घरथी नीकळी दीक्षा ले, अने लीधा पछी सिंह माफक पाळे, ते गणधर भगवंत जेवा पहेला भांगामां साधु जाणवा. . सूत्रम् बीजो भांगो मूत्रवडे वतावे छे, पहेलां.चारित्र ले ते पूर्वोत्थायी पछी कर्म परिणतिना विचित्रपणाथी तेवी भवितव्यताना का ताना का ॥५८१॥ ४ रणे नंदिषेण माफक पडी जाय (चारित्र मूकी दे) अने कोइ तो गोष्ठामाहिल माफक सम्यग्दर्शनथी पण दूर थय. है त्रीजा भांगामां अभाव होवाथी लीधो नथी, ते आ छे, 'जेनोपुखुट्टायी पच्छानिवाती' एटले पूर्व दीक्षा ले, तो पछी निपात | के अनिपात कहेवाय. धर्मवाळो होय, तो धर्मनी चिंता कहेवाय, पण दीक्षा लीधानोज निषेध होय तो दीक्षामा रह्यो, के गयो, तेनी चिंताज ते संबंधी दूर रही, चोथो भांगो बतावे छे. जेणे पूर्वे दीक्षा लीधी नथी; ते पाछळथी पडतो नथी, ते अविरत एटले, गृहस्थ जाणवो; तेने सम्यय विरतिना अभावथी | 12 पोते दीक्षा लेतो नर्थी; अने दीक्षा लीधा पछीज पडवानो संभव थाय; पण, दीक्षा लीधा विना तेनो संभव न होवाथी पडतो नथी || ४ अथवा ते भांगामां शाक्यमत विगेरेना साधुओ जाणवा. क.रण के तेमनामांचारित्र लेQ अने मुकीदेवू ए जैन रीतिए बन्नेनो अभाव छे. शंकाः-गृहस्थो चोथा भांगामा छे ते बोलवू योग्य छे, कारणके तेमनामां सावध-अनुष्ठान छे, अने दिक्षा न लेवाथी महाव्रतने लेवानी प्रतिज्ञारूप-मंदीर (मेरु) पर्वतना आरोप (चडवा)ना अभावथी पडवानो अभाव छे. पण शाक्यमत विगेरेने दीक्षा लेवाथी पडवानो संभव छे, तो केवी रीते पडवानो अभाव न होय? उत्तर:-'सोपि'-ते शाक्यादि साधु साधुसमुदायने पण पंचमहावतभारना आरोपणना अभावथी तथा तेमनां अनुष्ठानल E CRESHER Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५४॥ सावध व्यापारवाळां होबाथी पूर्वोत्थायी नथी, तेम दीक्षाना अभावथी पश्चात् निपाता पण नथी तेथी ते गृहस्थ समानज छे, कारण आचा08 के ते बन्नेमां आस्रवद्वारोनुं रोकण नथी, अथवा उदायी राजाने मारनारा विनय रत्न साधु जेवो कपटी चोथे भांगे छे. तेज प्रमाणे वीजा पण जेओ सावध अनुष्ठान करनारा छे. ते पण नेवाज छे, ते वतावे छे. जेओ स्वयथ्या (जैन मतना) पासत्था (पतित साधु । ॥५८२॥ विगेरे बन्ने प्रकारनी परिज्ञावडे लोकस्वरूपने जाणी (बत समजीने लेइने) पाछा रांधवा रंधाववा माटे तेज लोक (गृहस्थो)ने आश्रये रहे छे, अथवा गृहस्थने शोथे छे ( तेना उपर ममब करी आधाकर्मी आहार ले छे.) तेओ पण गृहस्थ सरखाज जाणवा, | आ पोतानी बुद्धिथी नहीं पण शास्त्रकारनुं वचन छे, ते वतावे छे: एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुवावररा यंजयमाणे, सया सोलं सुपेहाए 5 सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ? ॥ सू० १५३ ॥ एतद्-जे उत्थान निपात विगेरे पूर्वे वताव्यु, ते केवळ ज्ञानना अवलोकनवडे जाणीने तीर्थकरे कयुं , अने आ वीजुं कह्यु छ, 'इह' आ मौनींद्र प्रवचनमा रहेलो तथा तीर्थकरना उपदेशने सांभळचानी इच्छावाळो ते, आज्ञाकांक्षी आगमना अनुसारे प्रवृत्ति करनारो छे. मा-कोण एवो छे ? उ:-सद्-असना विवेकने जाणनारो तथा स्नेहरहित रागद्वेषथी प्रमुक्त रातदिवस गुरुनी आज्ञामां रहेनारो यत्नवाळो थाय; ते वतावे छे. रात्रिना पहेला पहोरे तथा छेला पहोरे सदाचारथी वर्त; अने वचला बे पहोरमा यथोक्तवि-६ ल धिए निद्रा ले, अने वैरात्रादिक (मूत्रार्थ-चिंबन) करे. आ प्रमाणे रात्रिनी यत्ना बतावथी दिवसर्नु पण समजी लेबु कारणके, AAAAAAA KARECRUCINGERIES Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिअंत लेवाथी मध्यन अवश्य आवी जाय छे. 'किंच' वळी 'सदा' सर्वकाळ १८००० भेदवाळु शीलवत अथवा संयम पाळे अथवा शीळ चार प्रकारच् छे. महाव्रतने सारीरीते पाळवां, त्रण गुप्तिओ पाळवी. सूत्रम् . पांच इन्द्रियोनुं दमन करवू; कषायनो निग्रह करवो. आ प्रमाणे चार प्रकारने शीळ विचारीने मोक्षना अंगपणे पालन करजे; ८३ & पण एक नीमेष (आंख ने फरकवानो काळ) मात्र पण प्रमादिवश न थइश. प्रः-क्यो माणस शीळनो संभेक्षक थाय ? ते कहे छे: --॥५८३॥ जे शीळनां रक्षणचें फळ (मोक्षगमन) छे, तथा कुशील सेक्वानुं फळ नरकगमन विगेरे आगमथी जाणे छे, ते गीतार्थसाधु है | 'अकाम'-इच्छा मदन काम (संसारी वासना)रहित बने, तथा तेने झंझा (माया अथवा लोभ इच्छा) न होय, तेथी अझंझ कहेवाय, अने काम तथा झंझानो प्रतिषेध करवाथी मोहनीयना उदयनो प्रतिषेध कर्यो, अने तेना प्रतिषेधथी शीलवाळो बने, एनो भावार्थ आ छे, के धर्म सांभळीने अकाम (सुशील) थाय, अने अझंझ थवाथी अमायी थाय, आ बन्ने गुणथी उत्तर गुण लीधा, अने ते | उपलक्षणथी मूळगुण (महावत) पण लीधां, तेथी अहिंसक सत्यवादी पण थाय, विगेरे समजी लेवु. शंका-जीवथी शरीर जुदं छे, आवी भावना भावनार तथा पोतानुं बळ वीर्य गोपच्या विना धर्म करनार १८००० शीलींग धारण करनारने तथा उपदेशमां कद्देवा मुजब वर्तवा छतां पण मारो सर्वथा कर्ममल दूर नथी थयो, तेथी तमे तेनुं असाधारण IP कारण कहो ! के जेना बडे हुं शीघ्र संपूर्ण कर्ममल कलंकथी रहित थाउं, हुं आपना उपदेशथी सिंह साथे पण युद्ध करीश, कारण के कर्म क्षय करवा माटे हु तैयार थयो छ, तेथी कंइ पण मने अशक्य नथी तेनो उत्तर मूत्रकार आपे छे, इन्द्रिय तथा मनरूप औदारिक शरीरवडे तुं युद्ध कर, कारणके ते विषयमुखनो पिपासु वनील कल्या - *e Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥५८४॥ 8. स्वेच्छाए चाली तारु अहित करे छे, तेथी एनेज सुमार्गे चालीने वश कर, बीजा बाह्य शत्रु साये युद्ध करवानी शी जरुर छ ? अंदर आचा० रहेला तारा छ रिपुनो जय करवाथी वधुं कार्य सिद्ध थशे, तेथी बीजु कंइ पण वधारे दुष्कर नथी पण आज संयम विगेरे सामग्री * अगाध संसारसमुद्रमां भटकता जीवने करोडो करोडो (हजारो) भवे पण मळवी दुर्लभ छे ! ते सूत्रकार बतावे छे:॥५८४॥ जुद्धारिहं खल्लु दुल्लहं, जहित्थ कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गब्भाइसु रजइ, अस्सि चेयं पवुच्चइ, रूबंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिणाय सवसो से न हिंसइ, संजमई नो पगब्भइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी नारभे कंचणं सवलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निविण्णचारी अरए पयासु ॥१५॥ ___ आ औदारिक शरीर भाव युद्ध करवाने योग्य छे, (खलु शब्द निश्चयना अर्थमां छे, अने ते भिन्न क्रमवाळो छे) ते खरेखर IPI दुर्लभज छे, अर्थात् ते दुःखथीज प्राप्त थाय छे, कधु छे केःननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम, मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥१॥ आ अति दुर्लभ मनुष्यपणुं अगाध संसारसमुद्रमां पडेलाने खरजुवा (अगीयो कीडो) जेवू के वीजळीना झवकारा जे थोडो काळ रहेनारूं मळेलुं छे! विगेरे समजवु जोइए. CAMBHABHEERESEN BR- लवन Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा बीजी प्रतिमां 'जुद्धारियं च दुल्लहं' पाठ छे, तेमा संग्राम (लडाइन) युद्ध अनार्य जंगलीपणान] छे, अने परिपड & आंचा विगेरेथी लडq ते आर्य युद्ध छे, तेथी ते दुर्लभ छे. माटे हे शिष्य! तेनी साथे युद्ध कर, तेथी तारां वधां कर्मना क्षयरुप-मोक्ष थोडा सूत्रम् 3 वखतमांज थशे; अने तेथी भावयुद्ध करवा योग्य औदारिक-शरीर मेळवीने कोइक मनुष्य तो, तेज भवे मरुदेवी माफक वधां कर्मनो ४ ॥५८५॥ क्षय करे छे, कोइ तो, भरत राजा माफक (पूर्व भवो आश्रयी) सात आठ भवमां मोक्ष मेळवे छे, अने कोइ ती अर्धपुद्गल परावर्तन ॥५८५॥ | थया पछी मोडा मेळवे छे, पण अपर (अभवी) मोक्षे नहीं जाय शा माटे? ते कहे छे, जेम जे प्रकारे आ संसारमा कुशल तीर्थ2 करोए परिज्ञा विवेक (परिज्ञान विशिष्टता) कोइनो कंइ पण अध्यवसाय संसारनो विचित्र हेतु वताव्यो छे, अने तेज बुद्धिमाने स्वीका रवो जोइए, हवे पूर्व कहेलुं परिज्ञानन जुदाजुदापणुं बताववा कहे छे, ल (भव्य अने अभव्यपणुं स्वभावथीज छे, भव्य काळांतरे पण मोक्षमा जशे, पण अभव्य नहीं जाय) कोइ दुर्लभवोधि दुर्लभ पण ही मनुष्यपणुं पामीने तथा मोक्षगमनना एक हेतुरूप धर्म पामीने पण कर्मना उदयथी फरीथी पण धर्मथी भ्रष्टथइ वाल ( मूर्ख) जीव ४ गर्भ विगेरेमा जाय छे, एटले गर्भ जेवां प्रथम छे, एवी कुमार यौवन विगेरे अवस्थाओमां गृद्ध थइ जाय छे, अने (एने पियमानीने)/81 है ए अवस्थाओ साथे मारो वियोग न थाओ एवा विचारवाळो बने छे, अथवा धर्मथी भ्रष्ट थइने एवां काम करे छे, के जेनावडे ते बाळजीव तेवी तेवी गर्भ विगेरेनी पीडाओना स्थानमा उत्पन्न थाय छे, "रिजई" (कोइ प्रतिमां पाठ छे) एटले जाय छे (एवो 18 अर्थ लेवो) प्र०-ठीक, एम दृशे पण आq क्या कबु छे ? उ०-जे पूर्वे कयु छे, के आ जिनेश्वरना वचनमा प्रकर्षथी कयु छे. ल अने हवे पछी पण तेज कहे छे, 'रूपे-चक्षु इन्द्रियना विषयमां रागी थएलो, अथवा रस इन्द्रियमा स्पर्श इन्द्रियमां रागी थएलोर % Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15क्षणमा प्रवर्ते छे, क्षणनो अर्थ हिंसा छे, तेथी जेम ते हिंसामां वर्त्त छे, तेम जूठ विगेरेमां पण प्रवर्ने छे, पण रुप विषयोमा प्रधान होवाथी तथा ते रुपवाळ होवाथी (तुर्त तेमां मन दोडतुं होवाथी) लीधुं छे, अने आस्रव (पाप) द्वारोमा हिंसा मुख्य अने प्रथम आचा० होवाथी ते लीधेल छे, अर्थात् अज्ञानी माणस रुप विगेरे माटे धर्मथी भ्रष्ट थइने गर्भ विगेरेनां दुःख भोगवे छे. एम आ जिनेश्वरना ॥५८६॥ मार्गमां कहेल छे, पण जे डाह्या माणसे आ विषय रसने पाछ गर्भादि गमननो हेतु जाणीने पोते धर्मथी भ्रष्ट न थइने हिंसा विगेरे आस्रव द्वारथी दूर रहे छे, ते केवो थाय, ते कहे छे. ते एकलोज जीतेन्द्रिय मुनि त्रण जगतने माननारो वनीने सम्यग रीते तेणे मोक्ष मार्ग पग तळे ख़ुदी नांख्यो छे, एटले ज्ञान दर्शन चारित्रबडे मोक्ष मार्ग संमुख को छे. तथा चीजी प्रतिमां 'संविद्ध भये पाठ Bछे, एटले ते जीतेन्द्रिय मुनिए भय जाण्यो छे, एटले जे हिंसा विगेरे आस्रवद्वारथी दूर रहे ते मुनिज खुदेला मोक्ष मार्गवाळो छे. 18 वळी बीजी रीते मुनि होय ते कहे छे, जे विषय कपायर्थी पराभव पामेलो छे, हिंसा विगेरे कृत्यमां रक्त छे, तेवो गृहस्थ अथवाद IF पाखंडी जन समूह छे तेने रांधवा रंधाववामां अथवा औद्देशिक तथा सचित्त आहार विगेरेमां रक्त छे. तेवानी (दुर्दशा विचारी) | तेनी संगति न करतो, अने तेवा पाममां पोताना आत्माने न जोडतो, अशुभ व्यापार छोडीने, मोक्ष मार्ग जाणनारी मुनि बने छे,8 5. लोकने उलटा मार्गे चालेला जोइने पोते शुं करे? ते कहे छे. । पूर्व कहेला अशुभ हेतुओथी जे कर्म बांध्यु छे तेना उपादान कारणो संपूर्ण ज्ञ परिज्ञावडे समजीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे सर्वथा Bछोडे, केवीरीते छोडे ते कहे छे. 'स' ते कर्म छोडनारो काय वाचा अने मन वडे जीवोनी हिंसा न करे, न मरावे, मारताने भलो 31 न जाणे, वळी पापोना उपादानमा प्रवर्त्तता पोताना आत्माने रोके, अथवा सत्तर मकारना संयममा आत्माने जोडे, अथवा आ चार बनवल Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् PEAR ॥५८७॥ आचा० संपूर्ण पाळवा संयम माफक पोते आचरण करे, वळी 'नो पगब्भइ' एटले असंयम कर्ममां (पापना उदयथी) प्रवर्त्ततो छतां प्रगल्भता (धृष्टपणुं) न करे, पापना उदयथी छान कुकर्म करे तो पण लज्जायमान थाय, (पश्चात्ताप करे) पण धृष्टता न करे (के एमां शुं पाप ॥५८७॥ छे ?) वळी, आ वताववाथी एम सूचव्यु के मोक्ष मार्ग जणेलो मुनि क्रोध न करे, न जाति विगेरेनो अहंकार करे, न कपट करे, मन लोभ करे शुं आलंबीने आ करे? ते कई छे. 'उत्प्रेक्षमाणः' वधां प्राणीना मनने पोतार्नु अनुकुळ ते साता (सुख) छे, पण & बीजाना सुख वडे पोते सुखी नथी, तेम पारकाना दुःखे दुःखी नहीं, तेवू जाणीने पोते हिंसा न करे, दरेक प्राणीना सुखने वि चारतो मुनि शुं करे ? ते कहे छे, जेनावडे प्रशंसा थाय ते वर्ण (कीर्ति) छे. तेनो अभिलाषी बनीने बधा लोकमां कोइपण जातनो | पापारंभ न करे. अथवा तपसंयम विगेरेनो आरंभ पण यशकीर्ति माटे करे नहीं, पण प्रवचन (जैनशासन)नी प्रभावना माटे करे, | तेवा प्रभावको नीचे मुजव छे: प्रावचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च। विद्यासिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावका स्त्वष्टौ ॥१॥ ' सिद्धांत भणेलो, धर्म कथा कहेनार, वादी (न्यायनो अभ्यासी) ज्योत्सी (जोशी) तपश्चर्या करनार, विद्या (चमत्कारवाळो) | सिद्ध मंत्रवाळो. कवि ए आठ धर्मना प्रभावको छे. अथवा वर्ण ते रुप, तेनो अभिलापी न बने एटले सुगंधी तेल विगेरे नलगाडे, केवो बनीने आ सदाचार पाळे? 'एको'-वधां मल कलंक दूर थवाथी एक ते मोक्ष छे, अथवा रागद्वेपना रहितपणाथी एक ते संयम छे. ल तेमां जेनु मुख गएल छे, तथा मोक्ष अथवा तेना उपायमां एक दृष्टि (लक्ष्य) राखीने कइपण पापारंभ न करे, वळी मोक्ष तथा ABAR Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५८८॥ ६ संयम तरफ छे. ते दिशा, अने ते सिवायनी बीजी विदिशा छे, तेमाथी प्रकर्षे तरेलो ते विदीक प्रतीर्ण छे, अने एवो होय ते आरंभ रहित बने, कुमार्गनो परित्याग करवाथी ते पापारंभनो अन्वेषी न होय, वळी चरण ते चार छे, अने ते अनुष्ठान छे. निर्विण्णनुं अनुष्ठान करे ते निर्विष्णचारी छे, क्याथी होय? ते कहे छे. 'प्रजावरतः' वारंवार जन्मे ते प्रजा (पाणीओ) तेमां अरत होय, एटले तेना आरंभथी निवृत्त होय, अथवा ममख विनानो होय, अने शरीर विगेरेमां पण जे ममख रहित होय ते निर्विष्णचारीज ५ होय छे, अथवा प्रजा (स्त्रीओ) तेमां अरक्त होय ते आरंभमां पण निर्वेद (मोहरहित) होय, कारण के कारणना अभावमां कार्यनो पण अभावज होय छे, अने जे प्रजामां अरक्त अने आरंभरहित छे, ते केवो होय ? ते कहे छे: से वसुमं सबसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणि पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोगति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सकं सिढिलेहिं अद्दिजमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहि, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओहंतरे मुणी, तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ॥ सू० १५५ ॥ लोकसारेतृतीयोदेशकः ॥ ५-३ ॥ वसु ते द्रव्य छे, अने अहीं तेनो अर्थ संयम छे, ते जेने होय ते निवृत्तारंभवाळो छे. अने ते मुनि वसुवाळो छे, तथा जे SECREवरुन Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओato ॥ ५८९ ॥ आत्माने सर्व सम्यक्प्रकारे आवेलं [ मळेलं ] प्रज्ञान ते वधा पदार्थोनो प्रकाश करनारुं छे. तेवा आत्मावडे ( पदार्थोनुं पुरुं ज्ञान | प्राप्त करेलाए) जे पापकृत्यो करवा योग्य नथी ते पोते कदीपण करवाने इच्छतो नथी, अर्थात् पोते परमार्थने जाणेलो होवाथी पोते सावध अनुष्ठान करतो नथी, जे सम्यग् प्रज्ञान छे, आ जगत प्रत्यागत सूत्रवडेज बतावे छे. सम्यग् एटले सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व छे. तेनी साथे चारित्र छे, आ वन्नेनुं सहभावपणुं होवाथी एकनुं ग्रहण करवाथी बीजुं पण ग्रहण करेलं जाणवु, ए न्याय छे, जे आ सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व छे, ते [ हे शिष्यो ] तमे जुओ के मुनिनो भाव ते मौन छे, एटले संयम अनुष्ठान ते मौन छे. तेने जुओ, तथा जे मौन छे, ते सम्यग्ज्ञान अथवा निश्चय सम्यक्त्व छे. ते तमे जुओ, कारणके ज्ञाननुं फळ विरति छे. तथा ज्ञान छेते सम्यक्त्वने प्रकट करवापणे छे. तेथी ते सम्यक्त्वज्ञान चरण त्रणेनी एकता जाणवी, अने आ जेवा तेवाथी पाळं शक्य नथी, माटे | कहे छे के आ सम्यक्त्व विगेरे ऋण सारीरीते करवां तेने शक्य नथी ने कोने ? शिथिल पुरुषो जेओ अल्प परिणामपणे मंद वीवाळा छे, तथा जेमनांमां संयम तपनी धीरज तथा दृढपणुं नथी तेमने संयम पाळवो अशक्य छे, वळी [आंद्रे:] पुत्र कलत्र विगेरेना | प्रेमथी जेमनुं हृदय भींजायलुं छे, तेमने पण संयम दुष्कर छे, तथा जेमने गुणो ते शब्द विगेरेनो आस्वाद छे, तेमने संयम अशक्य छे, वळी वक्र समाचारवाळा (कपटी) ओने अशक्य छे, तथा विषय कपाय विगेरेथी प्रमादी छे तथाजेओने घर उपर ममल छे. ते अगर सेवनारा (मटधारी वनेला) ने पाप वर्जनरूप संयम (मौन) अनुष्ठान करवुं अशक्य छे, [सूत्रमां अ नो लेप थवाथी गार छे. पण अगार लेबुं . ] प्रः - त्यारे केवी रीते शक्य थाय? मुनि ते त्रण जगत्ने माननारो, तेनुं मौन ते मुनिपणुं (वधां पापकर्म त्यागवारूप) छे. ते ग्रहण करीने औदारिक शरीर अथवा कर्म शरीर दूर करे, ते धूनन ( दूर करं) केवी रीते - थाय ? ते कहे छे. मान्तवासी अथवा सूत्रम् ॥५८९ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आची ॥५९०॥ - वाल चणादि अथवा अल्प आहार ले, ते पण विगइ रहित लुखो ले, आवो आहार कोण ले ? वीर पुरुषो कर्म विदारण करवाने समर्थ होय तेवा, वळी ते केवा छे ? सम्यक्त्वदर्शिओ अथवा समत्वदर्शिओ छे, अने जे तुच्छ लुखो आहार खानारो छे, तेने शुंद सूत्रम् गुण थाय ते कहे छे के, उपर बतावेल उत्तम गुणवाळो भावौध (संसार) ने तरे छे, कोण तरे ? मुनि होय ते, (अने तेवा गुण है धारण करावथी) हमणाज वर्तमानकाळमां तीर्ण (तर्या जेवो)ज छे, अने ते बाह्य अभ्यंतर संगना अभावथी मुक्त जेवोज छे. ॥५९०॥ -आवो कोण छे ? उ:-जे सावध अनुष्ठानथी विरत होय ते. आ प्रमाणे वताव्यो सुधर्मास्वामी कहे छे के में एम भगवान महावीर पासे सांभळ्युं ते तमने कछु. लोकसारअध्ययनमां बीजो उद्देशो समाप्त थयो । 65948ctory चोथो उद्देशो. हवे चोथो उद्देशो कहे छे, तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, पहेला उद्देशामां हिंसा करनार विपयारंभ करनार एकलविहारी होय । तो पण तेने मुनिन्वनो अभाव वताव्यो, पण वीजा अने त्रीजामां तो हिंसा अने विपयारंभ तथा परिग्रह छोडवावडे साधुपणुं छे, & तथा हिंसा करनार परिग्रहधारीना दोपो बताव्या. अने तेनाथी विरत (मुक्त) होय तेज मुनि छे, एम बताव्यु. अने आ चोथा | उद्देशामा एकला फरनाराने मुनिपणानो अभाव छे, तेथी तेनो दोपो वताववावडे कारणो कहे छे. आ प्रमाणे संवन्धथी आवेला चोथा उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र : AASACREAD - - - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५९१॥ %A5%-55575 गामाणुगामं दूइजमाणस्स दुजायं दुप्परकंतं भवइ, अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥ सू० १५६ ॥ सूत्रम् ४ बुद्धि विगेरे गुणोनो ग्रास करे (नाश करे) ते ग्राम छे. एक गामथी बीजे गाम जq ते ग्रामानुग्राम छे, दयमान ते विचरतो (धा5 तुना अनेकअर्थ छे) अर्थात् गाम गाम जे साधु तेने केवो दोष लागे ते कहे छे, दुष्ट गमन ते दुर्यात छे एटले एकलो विचरे तो निनीदय द २ ॥५९१॥ छे, तेने अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गना कारणे कांतो अरणीक मुनि माफक ते गृहस्थ बनी जाय, तथा गतिमां भेद करवार्थी दुष्ट व्यंतरीनी जंघा छेदवा माफक (प्रतिकूल उपसमां चारित्रथी अश्रद्धावाळो) थाय, एटले एकलविहारीने गमन करतां उपरनो दोप लागे छे, तथादुष्ट पराक्रांत एटले एकलो साधु जे मकानमां रहे, तेने चारित्रभ्रष्ट थवानुं कारण थाय छे. जेमके स्थूलभद्रनी इर्पा करनार कोश्या दी वेश्याने घेर चोमासुं करवा जनार सिंह गुफावासी मुनिने पतित थवा वखत आव्यो, अथवा चतुषुमोपित भर्तृकाना घेर रहेला मुनिने पोते महासत्ववान होवाथी अक्षोभ होवा छतां पण दुष्पराक्रांत थयु, पण ए प्रमाणे वधाने दुर्यात दुष्पराक्रांत यतुं नथी, ते वता-15 ४ ववा विशेष खुलासो करे छे, के अव्यक्त (भिक्षा लेनार ते) भिक्षुने ते दोप लागे छे, ते अव्यक्त श्रुत अने वयथी थाय छे. ते वतावे छे, श्रुति अव्यक्त ते आचार प्रकल्प (ब्रहत् कल्प) अर्थथी न भण्यो होय, आ स्थविरकल्पीने आश्रयी छे, पण गच्छथी निकळेला जिनकल्पीने नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तु सुधीनं ज्ञान जोइए. अने वयथी अव्यक्त ते गच्छमा रहेलाने १६ वर्ष अने जिनकल्पीने ३० वर्षनी उमर जोइए, अहीं चोभंगी थाय छे. [१] जे श्रृत तथा वयथी अव्यक्त (अपूर्ण) छे तेने एकलविहार न कल्पे, कारण के तेने संयम तथा आत्मा (पोता )नील PAGESARIA Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- आचा० ॥५९२॥ 153465 विराधनानो संभव छे. २] श्रुतथी अव्यक्त पण वयथी व्यक्त छे, तेने पण अगीतार्थपणाथी संयम तथा आत्म विराधनानो संभव होवाथी एकल है विहारनो निषेध छे. सूत्रम् [३] तथा श्रुतथी व्यक्त पण वयथी अव्यक्त होय तेने पण वाळकपणाथी सर्व प्रकारे पर भवना कारणे अने विशेषथी चोर तथा n५९२॥ कुलिंगि (अन्य दर्शनी वावा विगेरे) नो भय छे, तेथी तेने पण एकलविहार न कल्पे. ४] पण जे बन्ने प्रकारे व्यक्त छे, तेने कारण पडे अथवा प्रतिमा स्वीकारी होय, अथवा (उचित्त सोबतीना अभावे) एकल* विहार करवो पडे तो करे, आवाने पण कारणना अभावमां एकलविहारनी आज्ञा आपी नथी. कारण के ते एकलविहारमा इर्या समिति तथा गुप्ति विगेरेमा घणा दोषो थाय छे, ते वतावे छे. [१] एकलो भमतां जे इर्यापथ (मार्ग) जोतो चाले, तेने पछवाडे कूतरा विगेरेनुं देखq बनी शके नहीं, अने कतरा विगेरेने देखवा जाय तो इर्या पथर्नु भान न रहे, ए प्रमाणे चधी समितिओनुं जाणी लेवू, वळी अजीर्णना कारणे अथवा वायुना रोकबाथी अथवा रोगो उत्पन्न थतां संयम तथा आत्मानी विराधना थाय. तेथी जैन शासननी पण हीलना थाय, तथा तेना उपर दया लावीने गृहस्थो तेनी चाकरी करे, तो अज्ञानपणाथी छकायर्नु उपमर्दन करतां संयमने बाधा उपजावशे, अने तेवो दयाल गृहस्थ न मळे तो दवा न करवाथी ते साधुनी आत्मविराधना थाय, तथा अतिसार (झाडा) विगेरेमां पेशाब झाडा, विगेरेथी कपडा तथा शरीर खरडाइ जवाथी दुर्गच्छा आवतां लोको जैन धर्मनी हीलना [निंदा करे, वळी गामडा विगेरेमा रहेता ब्राह्मण विगेरे केश लुंचन विगेरेथी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ५९३ ॥ अधिक्षेप [तिरस्कार ] करतां परस्पर विवाद थतां मारामारीनो पण वखत आवे, आ वधुं गच्छमां रहेला समुदायमां विचरताने न संभवे, कारण के क्रोध विगेरे थतां गुरु उपदेश आपी बन्नेने शांत राखे. कां छे छे - 'अक्को सहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मण्णइ धीरो, जहुत्तराणं अभावमि ॥ १ ॥ आक्रोश वध मार धर्म भ्रंश विगेरे बालकोने सुलभ छे, आटलं छतां उत्तरना दोषोना अभावे धीर माणस तेमां लाभ माने छे, अर्थात् समुदायमा रहेनारो कोइथी लडे तो गुरु उपदेश आपे के आ मार विगेरेनुं दुःख पण सारुं छे. कारण के पाछळथी | दुर्गतिनो संभव नथी पण जे संघाडाथी जुदो पडी एकलो विचरतो होय तेने फक्त दोषोनोज संभव छे साहमिएहिं संमुजएहिं एगागिओ अ जो विहरे । आयंक पउरयाए छक्काय वहमि आवडइ ॥ १ ॥ पोताना समुदायना साधु योग्य विहार करता होय, तेमने छोडीने जे एकलो विचरे, तेने रोगोनो वधारो थतां छकायना वधमां ते पडे छे, (दोपो लगाडे छे) |एगागिअस्स दोस्सा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽवसोहि महवय तम्हा सविइजए गमणं ॥२॥ एकला फरनाराने स्त्री कूतरो तथा प्रत्यनीकथी दुःख थवा संभव छे, तथा गोचरीनी अशुद्धि तथा महाव्रतमां पण दोषो लागे माटे वीजा साधु सहित विचरतुं, पण गच्छमां रहेनाराने तो घणा गुणो थाय छे, तेनी निश्राए बीजो बाळ वृद्ध वगेरेने उद्यत विहारनो स्वीकार था, कारण के पोते तरवामां समर्थ होय, ते बीजो अशक्त डुबतो कोइ लाकडाने वळगेलो होय, तेने पण पोते तारे सूत्रम् ॥५९३॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५९४ ॥ छे, आ प्रमाणे गच्छमां पण योग्य विहार करनारो वीजा सीदाता (बेसी रहेला) ने बिहार करावे छे, आ प्रमाणे एकला विचरताना दोषोने जाणीने तथा गच्छमां विचरताना गुणो जाणीने कारणना अभावमां पंडित अने उम्मरलायक साधुए पण एकलविहार न करवो, तो अगीतार्थ अने नानी उमरवाळाए तो क्यांशी एकल बिहार करवो ? शङ्का - जेनो संभव होय तेनो प्रतिषेध थाय, पण एकाकी विहारनो संभव नयी कारण के क्यो मूर्ख साधु सोवतीओने छोडीने वधा दुःखोतुं स्थान एवो एकल विहार पसंद करे ! उत्तरः- कर्मपरिणतिने कंइपण अशक्य नथी; ते बतावे छे. स्वतंत्रता जे रोगरूप छे, तेने औषधतुल्य माननाराने वधां दुःखोना प्रवाहमां तणाताने बचवा माटे सेतु [ पूल] समान संपूर्ण कल्याणनुं एकस्थानरूप-शुभ आचारना आधाररूप-गच्छमा रहेनारा साधुने प्रमादथी भूल थतां तेने उपको अपाय; त्यारे, ते साधु मदुपदेशने न गणतां सारा धर्मने विचार्या विना कपाय- विपाकनी कडवाशने दीलमां न लेतां परमार्थने विचार्या विना कुल पुत्रता (खानदानी) पछवाडे मूकी वचन मात्रथी पण कोइने उपको आपतां सुखना वांछको वनवा माटे न गणाय एटली आपदावाळा थवा माटे गच्छमांथी नीकली जाय छे, अने पछी तेओ आ लोक तथा परलोकना अपायो (दुःखोने) मेळवे छे. कहां छेःजह सायरंमि मीणा, संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तओ सुकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ १॥ जेम सागस्मां रहेलां माछलां समुद्रनो क्षोभ न सहन करीने सुख मेळववा बहार जतां नाश पामे छे, तेज प्रमाणे सुखाभिलाषी सूत्रम् ॥५९४॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा ॥५९५॥ ॥५९५॥ साधु एकलो पडतां नाश पामे छे, ते नीचली गाथामां बतावे छे. एवं गच्छसमुद्दे सारणविईहिं चोईया संता। णिति तओ सुहकामी, मीणा व जहा विणस्संति ॥१॥ ___ गच्छ समुद्रमा रहेता साधुने प्रमादथी भूलतां प्रेरण करतां पोते कंटाळी नीकळी जाय; तो, ते सुखना वांच्छक माछला माफक नाश पामे छे. गच्छंमि केइ पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणीरुद्धा। सारणवारणचोइय पासस्थगया परिहरंति ॥३॥ शकुनी पक्षीने जो. पांजरामां पूरेल होय; तो, जीवहिंसा विगेरे न करी शके. तेज प्रमाणे स्मारण (दोषने याद करांववा) वारण (पापथी अटकाववा) अने धर्ममां प्रमाद करवाने प्रेरणा करवाथी पासत्था (ढीलापणाने) पाम्या होय; छतां पण गच्छमां रहेला साधुओ पाछा सुधरी जाय छे. जहादियापोयमपक्ख जाय, सवासया पविउमणं मणागं तमचाइया तरुणमपत्तजायं ढंकादि अवत्तगम हरेजा ॥ ४ ॥ जेम पक्षीनु वच्चु पांखो विनानुं पोताना माळामांथी नीकळवानी इच्छा करे; त्यारे, पांखोना जोर विनानु ते बच्चं आम तेम | कुदका मारतां तेने मोर विगेरे उपाडी जाय छे. उपर प्रमाणे सिद्धांत पूरा भण्या विना, अने लायक उम्मर विना गुरुए ठपको आपतां जे समृदाइथी रीसाइ नीकळी जाय; ते तीर्थीक ध्वांश विगेरे भ्रष्ट थाय छे ते शास्त्रकार बतावे छे: BIक्वान्वयन स Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥५९६॥ 2॥५९६॥ वयसावि एगे वुइया कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणेय नरे महया मोहेण मुज्झइ; संघाहा बहवेभुजो २ दुरइक्करमा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं तदिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सन्नी तलिवेसणे जयं विहारी चित्त निवाई पंथनिज्झाई पलि बाहिरे, . पासिय पाणे गच्छिज्जा ॥ सू० १५७ ।। कोइ वखत तप संयमनां अनुष्ठान विगेरेमां खेद आवतां; अथवा, प्रमादथी भूलतां गुरु विगेरेए. धर्मना कारणे वचनथी पण ठपको आपतां परमार्थने नहीं जाणनारा केटलाक साधुओ क्रोधायमान थाय छे, अने बोले छे के, "आ गुरुए मने आटलावधा साधुओ वच्चे ठपको आप्यो. में शुं गुनोह को हतो ? अथवा, आ वीजा पण. तेवी भूल करनारा छे. मने पण एटलोज अधिकार छे. तेथी मारा जीवितने पण धिक्कार हो! विगेरे विचारतां महामोहना उदयवडे क्रोधरूप-अंधारावडे ढंकायली चक्षुवाळा तेओ साधनो H (शांतिरूप)-समुचित आचार छोडीने बन्ने प्रकारे ज्ञानथी तथा, वयथी अशक्त बनेला जेम, समुद्रमांथी वहार जतां माछलु नाश पामे; तेम गच्छमाथी नीकळीने तेओ एकला फरतां धर्मभ्रष्ट थाय छे, अथवा कोइ माणस वचनथी एम कहे के:- . . "आ माथामां लोच करावेला मेलथी शरीर गंधातावाळा प्रगत अवसरे (दहाडो चडेज) आपणे देखवा. (अर्थात् आ अपशुकन थया के सामा मळ्या.) आq बोलतांज केटलाक साधु क्रोधथी अंधा बनी जाय छे, अथवा कोइनो स्पर्श थाय; तोपण, कोपायमान SIGDRBEEG Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५९७॥ थइ जाय छे, अने कोपायमान थइ बीजा साथै लडे; तेथी एवा अनेक दोषो जे गुरुथी जुदा पड्या होय; सिद्धांतनो परमार्थ न | जाण्यो होय; तो तेने रक्षकना अभावे दोषो थाय; पण, गुरु साथ होय; तो, लडनारने उपदेश आपे केःआष्टेन मतिमता तत्त्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥१॥ बुद्धिमान पुरुषे क्रोध करतां विचार करवोः अने तत्त्व शोधवामां बुद्धि जोडवी. जो, ते कहेनारनुं बोलधुं सत्य होय; तो, कोप | केम करवो ? अने तेनुं वोलबुं जूठु होय; तो, तारे कोप शुं काम करवो ? ( कारणके के ते तने लागतुं नथी. ) अपकारिणि कोपश्चेत्, कोपे कोपः कथं न ते ! धमार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपान्थिनि ॥ २ ॥ जो तारे बगाडनार उपरज कोप करवो होय, तो ते कोप उपरज तारो कोप केम थतो नथी कारण के धर्म अर्थ काम अने मोक्ष आ चारेने अतिशय विघ्नकारक आ कोप छे, (कोपवाळो माणस चारेने भूली जाय, अने अनर्थ करे छे ) विगेरे प्रश्न - क्या कारणे वचनथी पण ठपको आपतां आ लोक अने परलोकनुं बगाडनार स्वपरने वाधा करनार क्रोधने लोको पकडी राखे छे ? उः - जेने उन्नत (घं) मान छे, अथवा जे पोताना आत्माने उंचो माने छे, तेवो माणस प्रबळ मोहनीय कर्मना उदद्यथी अथवा अज्ञानना उदयथी झायछे एटले कार्य अकार्यना विचारना विवेकथी शून्य थाय छे, तेवा मुंझायलाने कोइए शीखामण आपवा कांइ कं होय, अथवा मिथ्यात्वीए वाणीथी तिरस्कार कर्यो होय त्यारे, पोते जाति विगेरे कोड़पण जातनो मद उत्पन्न थतां मानरूप मेरुपर्वत उपर चढीने | कोपायमान थाय छे, के हुं आवो ! तेनो पण आ तिरस्कार करे छे, धिकार छे मारी उंच जातिने । धिक् छे मारा पुरुषार्थने ! सूत्रम् ॥५९७॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥५९८॥ KARACK धिक छे मारा ज्ञानने! आं प्रमाणे अमिमानग्रहथी घेरायेलो वचनना ठपका मात्रथी पण गच्छमाथी नीकळी जाय छे, 'अथवा नीकळ्या पली बीजा साथे क्लेश करवार्थी विटंबना पामे छे अथवा कोइ ओछी बुद्धिवाळा मनुष्ये तेने फुलाव्यो होय के आ उत्तम । कूळमां उत्पन्न थएलो, सुंदर चेहरावाळो, तीक्ष्ण बुद्धिवाळो कोमल वचनवाळो वधां शास्त्र जाणनारो भाग्यशाळी मुखथी सेवा योग्य छे, एवां साचां जूठां वचन सांभळीने उंचे चढावेलो अहंकारी बनीने महान चारित्रमोहथी अथवा संसारना मोहथी मुंझाय छे, अने ते अहंकारथी महामोहे मुंझायेलाने कोइ वचनथी पण जरा ठपको आपे, तो गच्छमांथी नीकळी जतां ओछु भणवाथी गाम गाम विचरतां शुं दःख थाय ते कहे छे, ते ओछ भणेलाने एकला फरतां उपसर्ग संवन्धी पीडा थाय, अथवा जुदा जुदा रोगो संबन्धी पीडा वारंवार थाय ते पीडाओने एकला विचरता साधुने शास्त्रोने न जाणवाथी निरवद्य विधिए दूर करवी मुश्केल छे, केवा साधने मुश्केल छे ? ते कहे छे ते जुदी जुदी रीते आवेली पीडाओ सारी रीते सहेवानो उपाय न जाणवाथी, तथा सारीरीते सहेवानुं फळ न जाणतो होबाथी तेने ते पीडा सहेवी मुश्केल छे, पछी आतंक पीडाथी पीडाइ आकूळ बनेलो एपणाशुद्धिने पण त्यजी दे, पाणीने थत दुःख पण विसरी जाय वाक (वचन) रुप कंटकथी प्रेरायलो अंदर पण क्रोध करीने वळे पण आवी उत्तम भावना न भावे के, आ पीडाओ मारा कर्मना विपाको उदयमां आव्याथी थइ छे पण, वीजो प्राणीतो, तेमां निमित्त मात्र छे. वळी आत्मद्रोहममर्यादं मूढमुज्झितसत्पथम्। सुतरामनुकम्पेत, नरकाच्चिष्मदिन्धनम् ॥१॥ आत्माने द्रोह करनार जे अमर्यादा छे, ते मूढ माणसने सुमार्गेथी घसडीने नरकनी अग्निरूप-ज्वाळामां इधन तरीके नांखे. (अर्थात् मर्यादा छोडीने बहार नीकळे; ते नरकनों जेवां दुःखो अहीं अने परलोकमां वन्ने जग्याए भोगवे ) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा मत्रमू ॥५९९॥ ५९९॥ खबाट आवी उत्तम भावनाओ आगमने न भणवाथी आपरिमलित मतिवाळाने होती नथी. आ बतावीने गुरुमहारज शिष्योने कहे छे के:-आ एकला फरनाराने बाधा दूर करवी मुश्केल होवाथी अजाणपणाथी पीडा देखवा विना मारा उपदेशथी तुं बहार न जतो पण आगमने अनुसरी सदा आपणा गच्छमा रहेनारो बन, सुधर्मास्वामि कहे छे:-आ 'अभिप्राय कुशळ एवा वर्धमानस्वामीनो छे, के जेम, एकला भटकनाराने दोपो छे, तेम आचार्य पासे हमेशा रहेनाराने गुणो छे. हवे, आचार्यना समिपमा रहे; तेणे शुं करवू | ते कहे छे:-ते आचार्य महाराजनी दृष्टि जेमां होय; ते प्रमाणे हेय उपादेय पदार्थोमां वर्तव (जेम कहे तेम करवू;) अथवा संयममा PI दृष्टि ते 'तद्दष्टि' अथवा तेज़ आगमज दृष्टि एटले आगममां बताव्या प्रमाणे सर्व व्यवहार करवो; एटले, आगममां बताच्या प्रमाणे सर्वसंगथी विरति करी (ममख-त्यगी) ने संयमकृत्य करवा; तथा पुरस्करने सर्वत्र आगळ स्थापवो; अने ते प्रमाणे आचार्य संबन्धी है वर्तवू; तथा आचार्यनी संज्ञा प्रमाणे आचर. अर्थात् तेमनु कहेलं ध्यानमां लइ पछी ते प्रमाणे वर्तवू; पण पोतानी मतिकल्पनाथी कंइ पण कार्य न करे; तथा गुरुनु निवेशन ते पोतानुं करे; एटले सदा गुरुकुळ-वास सेवे; त्यां गुरुकुळमां वसतो केवो थाय ? ने ४ कहे छे. यतनाथी विहार करनारो थाय; यतनाथी पलेरणा डिकरतो प्राणीने उपमर्दन न करे वळी, आचार्यना चित्त (अभिप्राय) 81 प्रमाणे क्रियामा प्रवर्त; ते. चित्तनिपाती कहेवाय छे, तथा गुरु कोइ जग्याए गया होय तो, ते तरफ ध्यान राखे; ते पंथ निर्ध्यायी कहेवाय; तथा गुरुना संथारानो देखनार ते संस्तारक प्रलोकी. अने गुरु भुख्या होय; तो आहार शोधे ते विगेरे दरेक रीते गुरुनी आराधना करवाथी सदा गुरुनो आराधक बने. वळी, दरेक बखते गुरुनो अवग्रह कार्यप्रसंग सिवाय आगळपाछळ साचवे, (कार्य-18 & प्रसंगे अवग्रहमा जाय, नहि तो साडात्रंण हाथनी अंदर न जाय,) आ सूत्रथी त्रण इर्या उद्देशकमा रही छे. (तेमां इर्यासमितिनुल Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ६००॥ 8 वर्णन छे.) वळी कोइ पण कार्यमां गुरुए मोकल्यो होय, तो. प्राणीओने साडात्रण हाथनी जग्यामां शोधतो तेने दुःख न थाय, तेम यतनाथी चाले वली:आचा०.8 में से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवमाणे संपलिज्जमाणे एगया गुण॥६००॥ समियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविजावडियं, जं आउट्टिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेइ', एवं से अप्पमाएण विवेगं किदृइ वेयवी ॥ सू० १५८॥ 15 ते साधु सदा गुरुनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो होय छे, ते अभिक्रम जतो के पाछो फरतो, के हाथ पगने संकोचतो; हाथ विगेरे अवयवने पसारतो, बधा अशुभ वेपारथी पाछो हटतो, होय त्यारे बरोबर रीते बधी बाजुए हाथ पग विगेरे शरीरना अवयवोने तथा तेना स्थानोने रजोहरण विगेरेथी पूंजीने गुरुकुलवासमां बसे, त्यां रहेनारनी विधि कहे छे. * जमीन उपर एक उरु (जांघ) स्थापीने बीजो उचो राखीने बेसे, निश्चळ स्थाने तेम न बेसाय तो भूमि देखीने जीने कुकडीना 1. बेसवा प्रमाणे संकोचे, अथवा जरुर पढे लांबा पहोळा पण करे सुबुं होय; तो पण मोरनी माफक सुवे. कारणके ते मोरने बीजा पाणीनो भय होवाथी एक पासे सुवे, तथा हमेशा सचेतन सुवे, तेज प्रमाणे साधुने पासुं फेरवq होय तो पण देखीने पूंजीने ४ फेरवे एज प्रमाणे वधी क्रियाओ पुंजी प्रमार्जीने यतनाथी करे; आ प्रमाणे अप्रमादीपणे क्रिया करतां छतां अवश्य बनवाकाळने ४ लीधे शुं थाय, ते कहे छे, कदाच ते गुणयुक्त साधुने अप्रमत्तपणे वर्धा अनुष्ठान करवा छतां, जतां आवतां संकोचतां पसारता पाछा | AACHAR Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥६०१॥ फरतां प्रमार्जन करतां कोइपण अवस्थामां पोतानी कायाना समागममां आवेला संपातिम (उडता) केटलाक जंतुओ परिताप पामे, आचा० # केटलाक ग्लानी पामे, कोइनो अवयव नाश पामे, अने अंतअवस्था तो सूत्रकारज बतावे छे के, केटलाक पाणथी पण दूर थाय छे, ॥६०१॥ आमां कर्म संबन्धी विचित्रता छे, शैलेशी अवस्थामा रहेला साधुने मशक विगेरेना कायनो स्पर्श थतां कोई जंतु मरण पामे, तो पण वन्धना उपादान कारण योगना अभावथी बन्ध नथी. उपशांत तथा क्षीणमोह तथा संयोगी केवलिने स्थिति निमित्त 'कषायो' ना अभावथी एक समयनोज बन्ध छे. अप्रमत्त साधुने जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी कोडाकोडी सागरोपमनी अंदरनो बन्ध छे, पण प्रमत्त साधुने अनाकुट्टीना कारणे तथा विना देखे वर्तन करवाथी कोइ प्राणीनो पोताना पग विगेरेथी स्पर्श थतां तेने उपतापना | विगेरे थतां जघन्यथी तथा उत्कृष्टथी अप्रमत्त माफक छे, पण प्रमादना कारणे काइक विशेष बन्ध छे. अने ते तेज भवे क्षेपाय | 4 (दुर थइ शके) छे, ते सूत्र वडेज बतावे छे. आ जन्ममांज भोगवq, ते आलोकवेदन छे, तेनावडे भोगव, ते आलोकवेदनवेद्य छे, । | तेथी आवी पडेलुं वे आलोकवेदनवेद्य आपतित छे, तेनो भावार्थ आ छे, प्रमत्त यतिए पण जे विना इच्छाए भूल करी ते कायना। * संघटन विगेरेथी कर्म वन्ध थयो, ते आ भवना अनुवन्धरूपे छे, ते भवे खेरवी शकाय तेम छे, आकुट्टीथी करेला कृत्यमां शुं करवू ते कहे छे, आगममां कहेल कारण विना (फक्त भुलथी) पाणीने दुःख दीधुं होय, तो ज्ञ परिवाए जाणीने विवेक करवो, प्रायश्चित लेवु, ते दश प्रकारनुं छे, (ते गुरु पासे लेवू) अथवा तेनो अभाव करे, अर्थात् एवं कृत्य करे के तेनो अभाव थाय, कर्मनो जेम 18 अभाव थाय, ते वतावे छे, 'एव'-हवे वतावे ते उपाय प्रमाणे ते क्रोधादिथी करेला कृत्यना विवेक माटे वेदविद् (ज्ञाता) साधु प्रमादने दूर करी दश प्रकारमाथी कोइ पण प्रकारनु जे योग्य होय, ते सम्यग् अनुष्ठानवडे करीने अभाव करे अथवा तीर्थकर Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥६०२॥ ६ तेज वेदविद् छे अथवा आगम जाणनारा गणधर चौद पूर्वी विगेरे मुनिओ अप्रमादवडे शीघ्र अभाव करे छे. हवे अप्रमादी केवी आचा० रीतनो होय छे, ते कहे छे. से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दटुं विडिवेएइ अ॥६०२॥ प्पाणं किमेस जणो करिस्सइ ?, एस से परमारामो जाओ लोगंमि इत्थीओ, मुणिणा हु एयं पवेइयं, उब्बाहिजमाणे गामधम्मेहि अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुजा अवि उहूं ठाणं ठाइज्जा अवि गामाणुगाम दूइजिज्जा अवि आहारं वुञ्छिदिज्जा अवि चए इत्थीसु मणं, पुवं दंडा पच्छा फासा पुठ्वं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए त्तिबेमि, से नो काहिए नो पासणिए नो संपसारणिए नो मामए णो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे परिवजइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासित्तिबेमि (सू० १५९) ॥ ५-४ ॥ लोकसारे चतुर्थः ॥ CIRCTERSNEHATRE RECORM- Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६०३॥ ते साधु प्रमादना विपाक विगेरेनुं अथवा अतीत अनागत वर्त्तमानना कर्मविपाकनुं प्रभूत ( घणुं रहस्य) देखवाना स्वभाववालो होवाथी प्रभूतदर्शी कहेवाय छे, पण वर्त्तमाननो स्वार्थ देखीने कांइ पण न करें, तथा सत्व [ जीव समूह ] नुं रक्षण करवाना उपायमां घणुं ज्ञान धरावे, अथवा संसार भ्रमण तथा मोक्ष मेळववानां कारण घणी रीते जाणे, माटे 'प्रभूत परिज्ञानी' कहेवाय छे, अर्थात् संसारनुं जेवुं स्वरूप होय तेवुं वधा जीवोने बतावे छे, 'किंच'- बळी कपायनो उदय न करे, तेथी अथवा इन्द्रिय अने मनने कवजामां राखवाथी 'उपशांत' छे, तथा पांच समितिवडे अथवा सम्यग् रीते मोक्षमार्ग तरफ चालवाथी समित छे. तथा ज्ञान विगेरेथी सहित छे, तथा सदा यत्न करवाथी सदायत छे, आ प्रमाणे अप्रमत्त बनीने गुरु सेवामां रहतो, पोताना प्रमादथी पूर्वे | करेलां अशुभ कृत्योनो अंत करे छे, ते साधु स्त्री विगेरेना अनुकूल परिषद आवतां शुं करे, ते कहे छे. 'दृष्ट्वा ' स्त्रीओने पोताना आत्माने उपसर्ग करवाने आवती देखीने विचारे के, हुं सम्यग् दृष्टि छं, तथा पंच महाव्रतनो भार में लीधो ले, शरद ऋतुना चंद्र समान निर्मळ कुलमां में जन्म लीधो छे. हुं अकार्य त्यजवा माटेज तैयार थयो छु, ते स्त्रीसमूहने देखी विचारे, के आ स्त्रीओथी मारे शुं प्रयोजन छे ? में जीववानी आशा त्यग करी छे, आ लोकनुं सुख सर्वथा छोड्छु छे, तेथी ते स्त्री मने भुं उपसर्ग करवानी छे ? मारुं मन केम चलायमान करशे ? अथवा विषयोनुं सुख दुःख रूपे परिणमवाथी मने आ स्त्रीओ शुं सुख आपवानी छे ? अथवा पुत्र कलत्र विगेरे मने काळ झडपशे, अथवा रोगो पीडशे, त्यारे ते केवीरीते बचावी शकशे ? अथवा आ प्रमाणे स्त्रीओना स्वभावने चिंतवे ते सूत्रकारण बतावे छे. के आ स्त्रीसमूह रमणता करावे माटे आराम छे, तथा परम आराम होवाथी परमाराम छे, तेनुं सुख देखाडनारी स्त्री तत्व जाणनार ज्ञानी साधुने पण तेनाहास विलास उपांग तथा आंखना कटाक्ष देखडवा विगेरे विवोकवडे ते मुंझवे छे, भा लोकमां सूत्रम् ||६०३॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ||६०४॥ जे कोइ स्त्रीसमूह छे तेने मोहरूप जाणीने तेओ पोते पुरुषने न त्यजे, ते पहेला पोते त्यजवी, आ तीर्थकरे कहेलुं छे, ते बतावे छे, 'मुनिना' श्री वर्धमानस्वामाने केवलज्ञान उत्पन्न थया पछी तेमणे कां छे केः-स्त्रीओ भाव वन्धनरूप छे' एवं पूर्वे प्रकर्षथी क छे, अने आपण का छे के अतिशय मोहना उदयथी पीडायलो ते 'उद्बाध्यमान' छे मः - शाथी ? उः - इन्द्रियोना ग्राम एटले तेओना धर्ममां फसतां पीडा त्यारे गच्छमां रहेला होय तो गुरु समजावे. प्रः - केवी रीते ? उ:- ते कहे छे के तेवो साधु निर्बल निःसार एटले लख्खु सुकुं खानारो बने, अथवा निर्बळ बनीने खाय, अर्थात् घणी तपस्या करवाथी शरीर थाकतां इन्द्रियोना विषय पण शांत थइ जाय छे, कारण के आहार ओछो वाथी वळ ओछु थइ जाय छे, ते बतावे छे. अवमोदरी (ओछूं खानुं ते) करे, अने जो अंतमांत खावा छतां पण मोह शांत न थाय, तो तेथी पण अस्निग्ध आहार वाल चणा विगेरेना ३२ कोळीया मात्र खाय, तेथी पण शांत न थाय, तो कायोत्सर्ग विगेरे काय क्लेशनो तप करे, ते बतावे छे. उर्ध्वस्थाने रहे तथा शीत अथवा उष्णता विगेरेमां (एले ठंडमां नदी किनारे अने उनाळामां तपेली रेतीमां) काउसग करे, तेथी पण शांत न थाय, तो गाम गाम विचरे जो के कारण विना विहार निषेध्यो छे, छतां मोह शांत करवा रोज चाली चालीने काया थकवीने मोह दूर करे, एथी वधारे शुं कहे ? अर्थात् जे कारणथी विषय इच्छा दूर थाय, तेनुं कृत्य करे अने छेवटे आहार पण त्याग करे, अतिपात करे (उंचेथी पडीने मरे) उद्दबन्धन करे (गळे फांसो खाय) पण स्त्रीमां मन न करे, (अपि समुच्चयना अर्थमां छे) खीमां जे मन गयुं, ते त्यजे, तेना परित्यागमां वे प्रकारना कामो (इच्छा काम मदन काम) पण दूरथी त्यजेला जाणवा. क छे के काम जानामि ते रूपं, सकल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १ ॥ सूत्रम् ॥ ६०४ ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६०५॥ 43RSHA-330 हे काम हुँ तारुं स्वरूप जाणुं छ, के तुं संकल्पथी उत्पन्न थाय छे पण हुँ तारो संकल्प करवानो नथी, तेथी तुं मारा हृदयमांदा आववानो नथी! सूत्रम् प्रश्न:-पण शा माटे स्त्रीमा मन न करवू ? उ:-स्त्रीसंघमां वर्तनारो अपरमार्थ दृष्टिवाळो प्रथमथीज ते स्त्रीनो संग न छोडवा पैसो पेदा करवा खेती वेपार विगेरेनी सावध क्रिया करतो अगणित (अत्यंत) भूख तरस ठंड ताप विगेरेना परिषहो सहेबाना आ र ॥६०५॥ | लोकमांज दुःखरूप दंडो सहे छे, अने ते दंडो स्त्री संवन्ध करवा पहेलांज कराय छे, (तेथी पूर्वे का छे) अने स्त्री ग्रहण कर्या पछी || विषयना निमित्तथी बंधायला पापवडे नरक विगेरेनां दुःखोना स्पर्शो भोगववा पडशे, स्त्रीना अकार्यमा प्रवर्तेलाने पूर्वे दंड अने पछी हाथ पग विगेरे छेदावाना स्पर्शो छे, अथवा पूर्वे (कोइ स्त्री साथे छुपुं कुकृत्य करतां) ताडना (लाकडीनो मार) विगेरे छे अने पछीथी स्त्रीनो संबन्ध तथा आलिंगन चुंबन विगेरे छे ते बतावे छे. . वन्दी ए आणेल अने रोकेल राजकुमारीए गवाक्षमाथी फेंक्यो ते नीचे पडेल आवीलने लेवाथी राजपुरुषोए देखवाथी ठोक्यो, त्यारे राजकुमारीने मूर्छा थवाथी तेने देखतां इन्द्रदत्त वणिकने प्रथमथी दन्डा खावा पड्या, अने पाछळथी कन्या मळतां स्पर्श विगेरेन सुख मळ्यु, अथवा कोइने प्रथम मुख विगेरेना स्पर्शी छे, अने पाछळथी ललितांग कुमारनी माफक वीजा व्यभिचारीओने दुःख पडे छे, 'किंच' वळी आ स्त्री संवन्धो क्लेश संग्रानो सङ्ग (संवन्ध) करावे छे, अथवा कलह (क्रोध) तथा आसङ्ग ते राग छे, ए६ टले रागद्वेष करावनारा छे, जो एम छे तो शुं करे, ते कहे छे. ऐहिक अमुष्मिक (आ लोक परलोक) संबन्धी अपायोना कारणे स्त्री 81 ल संगनी प्रत्युपेक्षावडे 'आगमेतत्ति' जाणीने आत्माने आसेवन (कुचाल) थी रोके, आ प्रमाणे हुँ कहुं छु, ते तीर्थकरना वचन BECAPAGE Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रमाणे कहुँ छ स्त्रीसंगमां दुःख छे, माटे संग न करवो. वळी ते त्यागवानी, उपाय बतावे छे. है आचा०४ 'स' ते स्त्रीसंगनो त्यागी मुनि स्त्रीना कपडांनी, वेपनी तथा शणगारनी कथा न करे, आ प्रमाणे ते त्यजाय छे, तथा तेमने टू नरकमां लइजनारी तथा स्वर्गमोक्षमां विघ्नरूप अर्गला जेवी जाणीने ते स्त्रीनां अंगउपांगने न देखे, कारण के स्त्रीभोने देखतां तेना १. सूत्रम् जर 88 कटाक्षो महान अनर्थने माटे थाय छे. कहां छे केः ॥६०६॥ सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रिशणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव ॥8 भूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदिधृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ।। नीतिकार कहे छे के पुरुष सन्मार्गमां इन्द्रियोंने राखवा त्यां सुधीज समर्थ थाय छे, तथा त्यां सुधीज लज्जा छे, तथा विनय ४ पण त्यां सुधीज छे, के लीलावती (सुंदर स्त्री) ना कानना छेडा सुधीखेंचाइने नीली पांखोवाळा पापणना चापवडे खेंचीने छोडेला | (कटाक्षो) पुरुपना हृदयनी धीरजने चोरनारा दृष्टिबाणो त्यां सुधी न पडे. तथा ते स्त्रीओने नरकनी आपनारी जाणीने तेनी साथे संमसारण (खानगी वात) पोतानी सगी बेन विगेरे पण न करवू. का छे केः मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिद्रियग्रामः पंडितोऽप्यत्र मुह्यति ॥१॥ * माता बेन के दीकरी पोतानी होयः तेनी साथे पण एकान्तमा न बेसे कारण के इन्द्रियोनुं प्रवळ वधारे छे जेमां, पंडित पण - मोह पामे छे ! आq जाणीने स्वार्थमां तत्पर स्त्रीओमां ममत्व न करवो; तथा ते स्त्रीने मोह करनारी मंडन विगेरेनी क्रिया पोते न SARGISGDAS Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥६०७॥ करे; तथा स्त्रीओनी वैयावच्छ पोते न करे. अर्थात् कायाना व्यापारनो निषेध कर्यो तथा आ स्त्रीओने सारा-मोक्षनां) अनुष्ठानमा * विघ्नरूप मानीने वाणी मात्रथी पण आलाप न करे. आथी वचननो निषेध कर्यो, तेम अध्यात्म-(मनने) कवजामा राखी स्त्रीना भोगमा मन पण न राखे; एटले मूत्रनो अर्थ विचारवामां ध्यान राखीने मननो ते संवन्धी व्यापार पण रोके. आवो उत्तम साधु बीजुंत ॥६०७॥ शुं करे? ते कहे छे के-सर्वथा सर्वकाळ पाप तथा पापनां उपादान कारण छोडे. हवे समाप्त करे छे के, आ आखा उद्देशामा शरुआतथी कहेलु मुनिनो भाव मौन छे, तेने आत्मामां तुं चिंतवजे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. चोथो उद्देशो समाप्त थयो. ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रे तृतीयो भागः समाप्तः ॥ समाप्तः AALACE Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा BCense PeeeeSee eSVERSALSAS रुपीया ११ नी किंमतनो ग्रंथ फक्त रुपीया ४ मांज मलशे. * (मूळकर्ता-धर्मदासगणी) (टीकाकार-रामविजयगणी) उपदेशमालासटीक. PAESAEG सूत्रम् ॥६०८॥ ॥६०८॥ MAGEAA-RECASH REववव Deep आगळथी ग्राहक थनार पासेथी रु. ४ पाछळथी ग्राहक थनार पासेथी रु. ६ लेजरना कागल उपर सुपररोयल साइझमां पत्राकारे छपाय छे. आगाउथी रु. मोकलनारने पोस्टेज नहिं. 6068 हीरालाल हंसराज-जामनगर. ABAVENIAN SENSAVISENEN Page #394 --------------------------------------------------------------------------  Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ varappersevere prepare इति श्रीआचाराङ्गसूत्रे तृतीयो भागः समाप्तः । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190000000 ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलुं अने श्री श्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित निर्युक्तिसहित ) १९९० 9000 ॥ आचाराङ्गसूत्रम् ॥ भाग चोथो ॥ ( मूळ अने शीलाङ्काचार्ये रचेली टीकाना भाषांतरसहित ) जामनगरनिवासी स्व० पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मर्णार्थे छपावी प्रसिद्ध करनार - पण्डित हीरालाल हंसराज - ( जामनगरवाळा ) पडतर किंमत रु. २ -८-० श्रीजैन भाकरोदय मिटिंग प्रेसमां छाप्युं - जामनगर. 88880080860668 मति २०० SISSI Page #397 --------------------------------------------------------------------------  Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ०९॥ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीआचाराङ्गसूत्रम् ॥ ( मूळ अने शिलाङ्काचार्ये रचेली टीकानुं भाषांतर ) भाग चोथो छपावी प्रसिद्ध करनार - पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पांचमो उद्देशो कहे छे. पांचमा उद्देशानो चोथा साथे आ प्रमाणे संबन्ध छे के, चोथामां कहां केः -- अगीनार्थ अपाकच वयनो साधु एकलो विचरतां दुःख पामे छे, तेथी ते दुःखो दूर करवा इच्छता साधुए हमेशां आचार्यनी सेवामां रहेवुं तथा, ते आचार्ये पण हृदनी उपमावाळा थ; अने तेमनी साथे बीजा साधुए रही तप-संयमथी युक्त वनीने निःसंगपणे विचरखं. [ए पांचमां उद्देशामां छे,] आवा संबन्धे | आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे, सूत्रम् ॥ ६०९ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रम् ॥६१०॥ - से बेमि तंजहा-अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिटइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से आचा०18. चिट्टइ सोयमज्झगए से पास सवओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा । ॥६१०॥ आरंभोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिवयंति, तिबेमि (सू० १६०) से (जेवा) गुणवाळो आचार्य होय; ते तमने तीर्थकरना उपदेशना अनुसारे कहुं छं. ते आ प्रमाणे छे:-(वाक्य स्थापना 'तथा' वपराय छे. तथा, अपि शब्द भांगाना समुच्चय माटे वपराय छे.) हुद (होद-कुंड) नुं वर्णन. तेना चार भांगा नीचे मुजब छे. (१) ते होदमां धीरे धीरे पाणी नीकळतुं होय अने पार्छ चीजी बाजुथी भरातुं होय ते || सीता तथा सीतोदा नदीना प्रवाहना कुंड जेवं छे. (२) वीजो कुंड ते पाणी नीकळे खरं; पण पार्छ चीजें न आवे ते पद्मद्रह जे छे. (३) तथा त्रीजो पाणी नीकळे नहीं पण आवे खरुं ते लवण समुद्र जेवो छे, (४) जेमां पाणी आवे पण नहीं अने नीकळे पण नहीं, ते, मनुष्य लोकनी बहारना समुद्र माफक छे, तेज प्रमाणे आचार्य पोते श्रुतने अंगीकार करीने बीजाने भणावे छे, तेथी ते पहेला भागमां आवे छे, तथा क्रोधना कारणे वीजा भांगामां आवे छे, एटले कपायना उदयमां ग्रहणनो अभाव छे तेथी तप तथा कायोत्सर्ग विगेरेथी क्षपणना उपपत्तितुं कारण छे, आलोचनाने अंगीकार करवाथी त्रीजो भांगो लागु पडे, आलोचनाना कारणे कोइने संभळावी शके नहीं, कुमार्गमां पडेलो चोथा भांगामा छे कारण के तेने प्रवेशनिर्गमननो अभाव छ, अथवा धर्मि -- GES Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६११॥ भेदथी भेदो योजाय स्थविर कल्पिआचार्यो 'प्रथम भंगमां छे, वीजा भांगामां तीर्थंकरो छे, त्रीजा भांगामां अहालंदिक छे तेमने कोइ वखत अर्थनी प्राप्ति थंइ न होय, त्यारे आचार्य विगेरे पासेथी तेमने तेना निर्णयनो सद्भाव छे, अने प्रत्येक बुद्धोने उभय |[लेवुं आप ने भगवुं भणावखं] तेनो निषेध होवाथी तेओ चोथा भांगामां छे, पण आ जग्याए प्रथम भंगमां आवेला ने भणवा भाववानो सद्भाव होवाथी तेनो अधिकार छे, अने तेवा हृदरूप आचार्यनोज अहीं दृष्टांत छे, अने ते हृद निर्मल जलनो भरेलो तथा सर्व ऋतुमां जन्मनारां [ उत्पन्न थनारां] कमळोथी शोभायमान छे, समभूभागमां रहेल पाणीनुं नीकल अने आवकुं नित्यज | थाय छे, पण कोइ दहाडो सुकातो नथी, अने सुखेथी तेमां तरवानुं तथा नीकळवानुं बनी शके तेवो छे, तथा उपशांत ते रज विगेरे जे पाणीने काळं बनावे ते जेमांथी दूर थयेल छे, तथा जुदी जुदी जातना जळचर जीवोना समूहने वचावतो अथवा जळचर जीवोवढे पोतानी रक्षा करतो रहेल छे, आ आपणी चालु क्रिया दृष्टांतमां लेवानी एटले आ हृद जेवा आचार्य छे, ते प्रथम भांगाना लेवा, पांच प्रकारना आचार युक्त छे. अने आचार्यनी आठ प्रकारनी संपदाथी जोडायेलो छे, ते बतावे छे. आया सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई । एए सुसंपया खलु अहमिआ संगहपरिन्ना ॥१॥ आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति, अने आठमी संग्रह - परिज्ञा छे, अर्थात् आचारमां सारो, सिद्धांतनुं पूर्वापरनुं ज्ञान, शरीर सुंदर, वचन माननीय होय; वाचना आपवामां होंशीयार होय; बुद्धि तीक्ष्ण होय; प्रयोगमतिवाळो तथा साधु समुदायने योग्य उपकारण विगेरेनो संग्रह करनारो होय. सूत्रम् ॥६११॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६१२॥ तथा, छत्रीस प्रकारना गुणोना समुदायने धारनारो कुंडनी माफक निर्मळ ज्ञाने भरेलो समान-भूभाग एटले, संसक्त विगेरे ( रागद्वेष ) - दोषथी अदोषित, अथवा सुखविहारनां क्षेत्रमां मध्यस्थ रहे; तथा ज्ञानदर्शन- चारित्र नामनो मोक्षमार्ग उपशमवाळा साधुओनो छे, तेमां रहे छे. समता धारे, केवो वनीने ? उपशांत थइ छे रजरुप मोहनीकर्म जेने, शुं करतो? जीवनीकायनी पोते रक्षा करतो वीजाने सारो उपदेश देवावडे रक्षा करावतो; अथवा नरकपात अटकावी बचाववाथी परनो रक्षक बने छे. 'स्रोतो मध्य गतः' आथी प्रथम भांगामां आवेला स्थविर आचार्यने कहे छे, तेने श्रुतअर्थना दान ग्रहणनो सद्भाव छे, तेथी स्रोत मध्यगतपशुं छे ते आचाय केवा होय? ते कहे छे:- ते आचार्य क्षोभायमान न थाय; तेवा हृद जेवा बधी रीते इन्द्रियो तथा मनने वश राखनारा गुप्तिए गुप्त छे तेने तुं जो, (आवुं शिष्यने गुरु कहे छे,) तथा आचार्य शिवाय पण, एवा बीजा बहु साधुओ संभवे छे. एवं बताववा कहे छे : - आ मनुष्य लोकमां पूर्वे बतावेला स्वरूप - (गुणो) वाळा महर्षिओ [मोटा मुनिओ] छे तेमने तुं जो ते महर्षिओ केवा छे? ते कहे छे:- फक्त आचार्योज हृद जेवा छे. एटलुंज नहि; पण, बीजा साधुभो पण तेवा हृद जेवा छे. प्रकर्षथी जणाय | ते प्रज्ञान. पोतानुं तथा परनुं स्वरूप चतावनार ते आगम छे, तेने भणेला अर्थात् आगमना जाण ( गीतार्थ ) होय; कदाच, तेनुं जाणनारा छे छतां, मोहना उदयथी कोइ वखत हेतु उदाहरणना असंभवमां, अने ज्ञेयना गहनपणाथी संशयमां पडेला सम्यगश्रद्धानने न माननारा पण होय; तेथी, खुलासों करे छे के, 'प्रबुद्धा' प्रकर्षथी जेम, तीर्थकर कहे तेवुंज तत्त्व पोते समजेला होय; | अने तेवा छतां भारी कर्मने लीधे सावध - अनुष्ठानने छोडनारा न होय; ( चारित्र न पाळे ) तेथी खुलासा करे छे के, 'आरंभो | परताः' ते सावद्ययोगथी दूर रहेला महर्षिओ छे. अमारा उपरोध ( शरमथी ) ग्रहण न कर; पण तमारे तमारी निर्मळ बुद्धिव सूत्रम् ॥६१२ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X विचारीने जोवा, ते बतावे छे, आ जे में का; ते तमे (हे शिप्यो!) पण, मध्यस्थता धारण करीने समर्यादने जुओ; वळी आ| TOD पण जुओ. काळ ते, समाधि-मरण छे. तेनी अभिकांक्षावडे साधुओ मोक्षमार्गवाळा संयममां बधी प्रकारे वर्ते छे. आ प्रमाणे हुँ. सूत्रम् कहुं छु. इति ब्रवीमि शब्द, प्रकरण, उद्देशो, अध्ययन, श्रुतस्कंध के, परिसमाप्तिमां आवे छे, तेमां, अहीं अधिकारनी समाप्तिमा जाणवो. आचार्यनो अधिकार कह्या पछी विनेय (शिष्य) नो अधिकार कहे छे: HTT६१३॥ वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अनुगच्छंति, अणुगच्छ माणेहिं अणणुगच्छमाणेकहंनिविजे ? (सू० १६१) विचिकित्सा ते, चित्तनो विप्लब छे, आम पण छे. एवा पकारना संकल्पो ते, युक्तिथी उत्पन्न थता अर्थमां मोहना उदयथी। मतिनो विभ्रम थाय छे. ते आ प्रमाणे:-आ महान् तपनो कलेश रेतीना कोळीया खावा जेवु निःस्वाद छे, ते करवाथी तेनुं फळ मळशे के नहि? कारण के, खेती करनार विगेरेने महेनत करवा छतां, फळ मळे छे के, नथी पण मन्तुं ? आवी मति मिथ्यात्वनो अंश उदयमां आववाथी तथा, ज्ञेयने जाणवू गहन छे तेथी थाय छे, ते ज्ञेयने बतावे छे. अर्थ त्रण प्रकारनो छे. (१) सुखथी समजाय दुःखथी समजाय; अने वीलकुल न समजाय. - 1 त्रणे सांभळनारना आधार 18 उपर भेद छे, तेमा मुखाधिगम बतावे छे. जेमके-चक्षुवाळो होय; अने चित्रकळामां निपुण होय; तेने रुपप्रसिद्धि (चित्र करवू) सुलभ छे, अने अनिपुणने दुःखेथी चीतराय; पण आंधळाथी तो, बीलकुल देखायाविना न चीतराय; तेमां अनधिगम रुप तो, अव PROHTASSICALAM वनव-वनर Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥६१४॥ ६१४॥ स्तुज छे, अने सुखाधिगम पण शंकानो विपय न थाय, पण जे देशकाळ स्वभावथी विप्रकृष्ट होय; तेमांज शंका थाय, ते धर्मअधर्म, आकाश विगेरेमा जे विचिकित्सा थाय ते जाणवी; अथवा 'विइगिच्छति' विद्वाननी जुगुप्सा एटले, विद्वानो ते साधुओ छे. जेमणे संसारनो स्वभाव जाण्यो छे, अने समस्त संगनो त्याग को छे, तेओनी जुगुप्सा (निंदा) करे छे. कारणके, तेओ स्नान करतानथी; तथा, परसेवाना मेलथी गंधातां शरीरवाळा छे. तेओने निंदे छे, 'निंदनारा कहे छे के, जो, अचित्त पाणीथी स्नान करे; तो, शुं दोष छे ? आ जुगुप्सा छे, ते जुगुप्साने अथवा, विचिकित्साने प्राप्त करेला आत्मावाळो (शंकावालो) चित्तनी | समाधि अथवा ज्ञानदर्शन चारित्ररुप समाधिने पामतो नथी, कारण के विचिकित्साथी मलीन चित्तवाळाने आचार्य कहे तोपण सम्यक्त्व नामनी बोधि [भगवानना वचन उपर आस्था] मेळवतो नथी; अने जे बोधि मेळवे छे, ते गृहस्थ अथवा साधु होय, ते बतावे छे, 'सिताः' पुत्र स्त्री विगेरेमां रागी बनेला होय, अथवा लघुकर्मवाळा सम्यक्त्वने पमाडनार आचार्य ने अनुसरे छे. अर्थात आचार्यन कहेलुं माने छे ते प्रमाणे केटलाक गृहवास छोडेला साधुओ शंका विगेरेथी रहित बनी आचार्यना मार्गने अनुसरे छे. तेमनामां पण जो कोइ कोरडु माफक होय, ते पण तेवा बीजा उत्तम मार्गने अनुसरनारा साधुने जोइ ते आ कोरडु जेवो पण तेनां अशुभ कर्म ओछां थतांते पण सम्यक्त्व पामे, ते बतावे छे. आचार्यन कहेल सम्यक्त्व माननार श्रावकोथी परिचयमा आवतो अथवा प्रेरणा करातो न माने, तो पछी केवी रीते निर्वेद न पामे? अर्थात् खराब कृत्यनी मिथ्यात्वादि रुप विचिकित्साने छोडीने ते पण सम्यक्त्व पामे; अथवा साधु-श्रावक जेओ संसारमां रक्त अथवा विरक्त होय; तेओ आचार्यन कहेलं समजे; तो, कोइ अज्ञानना उदयथी मंद बुद्धि होवाथी तपस्वी साधु घणा वर्षनो दीक्षित होय; ते जो, न समजे; तो, केम खेद न पामे ? (कदाच) तप CA-SCREववार Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ाचा० ॥६१५॥ | अने संयमनो निर्वेद न होय; अने अनिर्वेदी होय; तो आवीपण भावना भावे. जेमके—जो, हुं भव्य नही होउं तो, मने संयमभाव पण नथी. के, प्रकट - ( खुल्लुं करीने) गुरु कहे छे तोपण, हुं समजतो नथी. आ प्रमाणे खेद पामताने आचार्य समाधिनां वचन कहे छे केः- हे साधु ! खेद न कर ! तुं भव्य छे. कारण के, तुं सम्यक्त्व पाम्यो छे, अने ते ग्रन्थीभेद विना न होय. अने ग्रन्थभेद | भव्यत्व विना न होय, कारण के, अभव्यने भव्य, के अभव्यपणानी शंका पण न थाय. वळी, अविरतिनो परिणाम वार कपायनो क्षय उपशम उपशम के क्षय थतांज होय छे, अने ते विरति तुं पाम्यो छे. तेथी, |दर्शनचारित्र - मोहनीयनो तारे क्षयोपशम थयो छे, नहीतो, सम्यग्दर्शन- चारित्रनी प्राप्ति न होय पण, तने कह्या छतां जो, वधा पदार्थो न समजाय; तो, ज्ञानावरणीयकर्मना उदयनुं लक्षण जाणवुं त्यां तो, तारे श्रद्धारूप - सम्यक्त्व स्वीकारं. ते कहे छे: तमेव सच्चं नीसंकं जं जिण हिं पवेइयं ( सू० १६२ ) ज्यां आगळ स्वसमय, परसमयना जाण आचार्य न होय; तथा, झीणी ग्रढ बाबतोमां, अने अतींद्रिय पदार्थोमां वन्ने पक्षने मान्य दृष्टांत तथा सम्यहेतुना अभावथी ज्ञानावरणीयना उदयथी सम्यग्ज्ञान न होय; त्यां पण आ प्रमाणे चिंतत्र के, तेज एक सत्य छे अने तेज निःशंक छे के, जिनेश्वरे कहेला अत्यंत सूक्ष्म-अतींद्रिय पदार्थों जे फक्त आगमथी मानवायोग्य छे ( ते मारे | प्रमाण छे. ) तथा मानवामां शंका न होय; ते निःशक्ति कहेवाय के धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गळ विगेरे जे तीर्थंकरे कहेलुं छे, ते रागद्वेषने जीतेला जिनो छे, माटे तेमनुं कहेलुं सत्यज छे. आधुं श्रद्धान करं. बरोबर रीते पदार्थ न समजाय; तोपण, शंका न करवी. सूत्रम् ॥६१५॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६१६॥ CHECA प०-शुं साधुने पण शंका थाय छे के तमे आम कहो छो ? उ०-संसारनी अंदर रहेला जीवोने मोहना उदयथी शुंन थाय ? ते प्रमाणे आगमां कहेलुं छे. गौतमनो प्र०-हे भगवन् ! साधुनिग्रन्थो कांक्षामोहनीयकर्म वेदे छे ? सूत्रम " अस्थि णं भंते ! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज कम्मं वेदेति ? हंता अत्थि, कहन्नं P६१६॥ समणावि णिग्गंथा कखामोहणिजं कम्मं वेयंति ? गोयमा! तेसु तेसु नाणन्तरेसु चरित्त तरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना भेयसमोवन्ना कलुससमावन्ना, एवं खल्लु गोयमा ! समणावि निग्गंथा कखामोहणिजे कम्मं वेदंति तत्थालंबणं ' तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' से णूणं भंते एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति? हता गोयमा! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति," उ०-हा. प्र०-केवी रीते ते वेदे छ ? उ-तेवा तेवा ज्ञानना के, चारित्रना विषयमा न समजातां शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सावाला बनी भेदोने पामेला न समजाता हृदयमा झखवाणा बने छे तेथी हे गौतम ! ते ठीकळे के, साधुने पण शङ्का विगेरे थाय. बनवल Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० १६१५७॥ गौतम कहे छे:- हे भगवान् ! ते समये साधु मनमां एम चितवे के, "तेज सत्य, निःशङ्क छे. के जे, जिनेश्वरे कहेलुं छे.” तो, ते आज्ञा पाळवानो आराधक थाय के ? उत्तर - हे गौतम! एम मनमां धारे; तो आराधक थाय छे. वळी गुरु उपदेश आपे छे के, साधुए विचार के -- | वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या नं ब्रुवते क्वचित्। यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भ्रतार्थदर्शनम् ॥१॥ वीतराग पोते सर्वज्ञ छे. अने तेथी, निश्वे तेओ जुटुं न वोले. जेथी, तेमनुं वचन जीवोनुं स्वरुप बतावनाएं साधुं छे. विगेरे | समजी लेबुं. वळी, आ विचिकित्सा दीक्षा लेनारने आगममां मति स्थिर थयली न होवाथी थाय छे. तेवाए पण उपर बतावेलं रहस्य चिंतत्र ते कहे छे: सड्रिस्त णं समणुन्नस्स संपवयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ १, समियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २, असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ ३, असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ ४, समियंति मन्नमामाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होड़ उवेहाए ५, असमियंति मन्नमा सूत्रम् ॥६१७॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णस्स समिया वा असमियो वा असमिया होइ उवेहाए, ६, उवेहमाणो अणुवेहमाणं आचा० बूया-उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से उडियस्त ठियस्स गई सूत्रेम समणुपासह, इत्थवि बालभाव अप्पाणं नो उवदंसिज्जा (सू० १६३ ) ॥६१८॥ ॥६१८॥ श्रद्धा धर्मनी इच्छा ते जेने होय; ते, श्रद्धावान् छे. तेवा भव्यजीवने संविग्न, अने योग्य विहार करनारा साधुओए, अथवाद Pसंविन विगेरे गुणोथी दिक्षा लेवायोग्य होय; तेने दिक्षा लेता शंका थाय; तो, तेने जीवादि पदार्थमां बोध पामवानी अशक्ति होय; लतो. तेने समजावयूँ के, हे भद्र ! जिनेश्वरे जे कहेलुं छे, ते शंकारहित अने सत्य छे. आ प्रमाणे दिक्षालेता बोध आपवाथी तेनो है आत्मा चारित्रथी निर्मळ थतां; चडता कंडकथी पछोना काळमां पण निर्मळ भावना वधे; अथवा बरोबर रहे; ओछी पण थाय अथवा अभाव पण थाय. आवी जीवनी विचित्र परिणामता बतावे छे, ते श्रद्धावाळाने समजावीने दिक्षा लीधा छतां, पोते जिनेश्वरन कहेलं वचन शंकारहित साचे मानतो पाछळथी पण शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, विगेरेथी रहित निर्मळ सम्यक्त्ववाळो होय छे, पण भगवानना वचनमा शंका उत्पन्न थती नथी. (१) कोइने दीक्षा लेतां श्रद्धा होवाथी मानवा छतां पाछळथी न्याय भणतां कोइ जातनोद एकांत पक्ष पकडतां हेतु दृष्टांतनो लेश हाथमां आवतां पूर्वापर विचार न थवाथी; अने ज्ञेयपदार्थ गहन होवाथी मति मुंझातां कोई | वखत मिथ्यात्वना अंशनो उदय थतां; ते जिनवचनने सम्यक् मानतो नथी. ते कहे:-आ वधा नयना समूहना अभिप्रायना कारणेM अनंत धर्मथी युक्तवस्तु जेवी छतां, मोहना उदयथी एकनयना अभिप्रायवडे एक अंश साधवा माटे ते साधु जाय छे, जो, नित्य CASSSSC Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा० जिनेश्वरे कहेल; ते फरी अनित्य केम थाय ? अथवा अनित्य ते, नित्य केम थाय ? कारणके, ते बन्ने परस्पर विरोधी छे. ते प्रमाणे अपच्युत अनुप्सन स्थिर एक स्वभाववाल्लं नित्य छे. अने तेथी उलटुं दरेक क्षणे नाश पामनारुं अनित्य छ, विगेरे है। ॥६१९॥ असम्यक्भावने पामे छे, पण ते एवं विचारतो नथी, के अनंत धर्मवाळी अने बधा नयना समूहथी युक्त वस्तु छे, ते मंद बुद्धिवा18ळाने ते मानवु अति गहन होवाथी अशक्य छे, पण श्रद्धाथी मानवा योग्य छे, पण हेतुथी क्षोभायमान न थq, का छे केः - सर्वनयर्नियतनेगमसंग्रहायेरेकैकशो विहिततीर्थिकोशासनैर्यत् ॥ निष्ठां गतं बहुविधै र्गमपर्ययस्तैः श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ॥ (इत्यादि) बधा नयोवडे एटले नैगम संग्रह विगेरे अने कथा नियत एक एक अंशथी अन्य तीर्थीक शासनवाळाए वतावेल जे बहु प्रकारना गमपर्यायोवडे संपूर्णता पामेलुं तमारं वचन श्रद्धा करवा योग्य छे. पण त्या हेतुथी जाणवा योग्य नथी, जेथी विचार के हेतुतो एक नयना अभिप्राय प्रमाणे वर्ते छे. तथा एक धर्मने साधे छे, पण वधा धर्मने साथे साधनारने | हेतुनो असंभव छे, (तेथी तेने शङ्का थाय छे.)(२)वळी विचित्र भावनाने बतावे छे, के कोइ मिथ्यात्वना लेशथी मुझाएलाने शङ्का थाय के शब्द पुद्गलनो केवीरीते बने एवं उलटुं मानीने मिथ्यात्वना परमाणुओना उपशमपणाथी पछीथी शंका विगेरे गुरुना उपदेथी दूर थतां ते श्रद्धावाळो थाय हे के जो शब्द पुद्गलनो बनेलो न होय तो तेनो करेलो अनुग्रह अथवा उपघात कान उपर केवी रीते थाय? कारण के आकाश माफक शब्द अमूर्त होय तो कानने कांइ पण न थाय एम समजीने सम्यक्त्व पामे छे (३) कोइने आग मानवकवरबद्र Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम RECECA5-% 18 ममां रमणता न थवाथी मति अपरिणत थतां विचारे के एक समयमांज परमाणु लोकांते केवी रीते जाय एम खोटुं मानतां कोई वखत कु हेतुना वितर्कना प्रकट अवसरे पूरेपूरो मिथ्याखी बने छे, के चौदराज लोकनो एक छेडाथी बीजा छेडा सुधी जतां आ-6 आचा Pकाश प्रदेशने साथे स्पर्श न थवाथी समयनो भेद पड़े, ते भेद न पडे तो वे जग्याए एक साथे स्पर्श न थाय तेथी परमाणुन तेटला ६२०॥ पणुं थाय, एटले ते एवं माने के लोकने बन्ने छेडे रहेला प्रदेशोनो एक वखते परमाणुए स्पर्श को माटे तेटलो मोटो परमाणु छ, । अथवा-ते वन्नेनुं छेटे परमाणु जेटलुं छे, आ तेनुं मानवु खोटुं छे. पण ते आग्रही बनेलो विचारतो नथी, के विस्रसा परिणामवड़े। रमाणु ॥२०॥ शीघ्र गतिपणाथी परमाणुनुं एक समयमां असंख्येय प्रदेशनु गमन थाय छे, जेमके आंगळीना माप जेटला एक द्रव्यना असंख्यात से | आकाश प्रदेश छे, तेटला बधाने एक समयमा परमाणु ओळंगी जाय छे. म०-ए केवी रीते बने ? उ०-जे प्रत्यक्ष देखाय छे ते ना नहि पाडी शकाय, कारण के ज्यां सौने देखीतुं प्रत्यक्ष प्रमाण होय, त्यां अनुमान विगेरेनुं प्रयोजन नथी जो एक समयमां अनेक प्रदेश ओळंगवा न मानीये तो अंगुल मात्र प्रदेश ओळंगतां असंख्येय समय नीकली जाय, तो आपणे देखेखें इष्ट छे तेने पण 3 बाधा आवे, माटे ते शंका नकामी छे. (४). हवे भांगानी समाप्ति करवा परमार्थ बतावे छे. भगवाननु वचन साचुं छे, एवं मानीने शङ्का विगेरे छोडीने ते वस्तु यत्न वडे. तेवा रुपेज सम्यक् अथवा असम्यक पूर्वे भावी होय तो पण गुरुना सहवासथी तेमनो उपदेश विचारतां ते शिष्य श्रद्धावाळो थाय छे, जेम इर्यापथमा उपयोग राखनारने कोइ वखत जीवहिंसा थाय. (तो पण तेने दोष लागतो नथी.) (५) हवे तेथी उलटुं बतावे छे, कोइ वस्तु खोटी रीते मानतां छद्मस्थ साधुने -त्वलनवलन्छ लनल Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६२१॥ टुंक बुद्धिथी शंका- थाय, ते समये ते वस्तु खोटी अथवा साची विचारी होय, तो तेणे खोटी विचारेली होवाथी खोटा विचारने लीधे अशुभ अशुभ अध्यवसाय होवाथी ते मिध्यात्व छे, कारण के जेवी शंका करे तेवोज भाव मेळवे, एवं वचन छे, (६) अथवा | सम्यक् माननारने बीजी रीते खुलासो करे छे, शमिनो भाव शमिता छे ते शमिताने माननारो शुभ अध्यवसायवाळो उत्तर कालमां पण उपशमवाळोज रहे छे, अने बीजो तो शमिताने मानवा छतां कपायना उदयथी अशमिता थाय छे, एज प्रमाणे बीजा भांगामां | सम्यक् शब्दनी योजना करवी के सारूं विचारे तो सारं फळ मेळवे, तेज प्रमाणे सारं नरसुं तेनो विवेक विचारतो बीजाने पण उपदेश देवाने समर्थ थाय छे, कछु छे के, आगममां मति परिणत थवाथी यथायोग्य पदार्थो स्वभाव बताववाथी आ योग्य छे, आ अयोग्य छे, एवं विचारतो विद्वान बीजा नहि विचारताने पण समजावे छे, एटले गाडरनां टोळा माफक एक पछी एक जेम दोढे तेम कोइ विना विचारनो शंकावाळो होय, तेने कहे के हे भद्र ! तुं मध्यस्थता राखीने निर्मळ भावथी विचार के जिनेश्वरनुं कलं | जीवादितत्व विचार युक्तिने योग्य छे के नहीं ? ते आंखो बींचीने विचार, अथवा संयने सारी रीते पाळनारो होय, ते संयम सारी | रीते न पाळनारने कहे, के हे भद्र ! सम्यग् भाव पामीने हवे संयममां सारो रीते उद्यम कर ! शुं आंलंबीने ? उ०- पूर्वे कला प्रकारे ते संयममां कर्म संतति क्षय करवा रुप जे संधि छे. ते जो संयम सारो पाले तो, कर्म दूर कराय तेम छे, आ कर्म संतति तेसिवाय बीजी रीते क्षय थाय तेम नथी. वळी सारीरीते संयम पाळनारने शुं लाभ थाय, ते कहे छे, 'से' - ते सम्यक् रीते दीक्षा लेवाने तैयार थएलाने शंका रहित धर्म श्रद्धा होवाथी चारित्र लइ गुरुकुल वासमां रहेवाथी अथवा गुरुनी आज्ञामां वर्त्तवाथी जे गति थाय छे, अथवा जे पदवि प्राप्त थाय छे, तेने हे शिष्यो ! तमे सारी रीते जुओ! वधा लोकमां प्रशंसा, ज्ञानदर्शनमां स्थिरता चारित्रमां सूत्रम् ॥६२९॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६२२॥ निष्कंपता अने तेने श्रुत ज्ञाननी आधारता थाय छे, अथवा स्वर्ग मोक्ष विगेरेनी उत्तम गति मळे छे, तेने जुओ ! अथवा संयममां प्रयत्न (न) करनारने उपग्ना उत्तम गुणो विना पासत्था विगेरेनी गति जे वधा लोकोने हांसी रूप छे. ते अथवा अधम स्थाननी गति मळे छे, ते तमे देखो ! आ प्रमाणे संयम पाळनार अने प्रमाद करनार साधुनी उंच नीच गतिने जाणीने पांच प्रकारना सारा आचारमां तमारे प्रवर्त्तन करयुं, पण जे चारित्र लेवामां प्रमाद करे तेनी नीच गति थाय तेथी शुं समजनुं, ते कहे छे, के जेओ | असंयममां बाल भावमां रमेला छे, जे सुगति सकल कल्याणना आधाररूप छे, तेने न मेळवी शके, अर्थात् हे शिष्य ! तुं दीक्षा | लइने बाळ चेष्टा माफक कुकृत्य न करीश ! ते बाल जेवो आचार शाक्य कपिल विगेरेना मतने माननारा आचरे छे, अने बोले छे, के नित्य, अने अमूर्त आत्मा होवाथी आकाश माफक तेनो अति पातज नथी ! अथवा वृक्ष छेदतां के वाळतां आकाशनो भेद के बळबुं थतुं नथी, तेमज शरीर विकारी छे, तेने घा विगेरे थतां अविकारी आत्माने कंइ पण थतुं नथी, तेओ कहे छे के. न जायते न म्रियते कदाचिन्नायं भूत्वा भवितेति ॥ आत्मा जन्मे नहीं, ते मरतो पण नथी, कोइ पण दिवस आ थइने थवानो नथी ! (जेवो छे तेवोज रहेवानो छे ) नं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । नचैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ जीवने शस्त्रो छेदे नही, अग्नि वाळे नहीं, पाणी भींजावे नहीं, तेम पवन शोषण करतो नथी. अच्छेयोऽयमभेद्योयम विकारी स उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ सूत्र ॥६२ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE आचा० सूत्रम ॥६२३॥ 545454 आ आत्मा अछेद्य अभेद्य अविकारी नित्य तथा हमेशां गमन करनार स्थाणु तथा अचल अने सनातन (पुराणो) छे. (विगेरे तेमनां वचनो छे) ते प्राणीने हणवा विगेरेमा प्रवर्तनाराने तेना निषेध माटे कहे छे. , तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय णमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए (सू० १६४) . तमे जे आत्माने हणवा पणे विचार्यो ते तुज छे, ( नाम शब्द संभावना माटे छे, ) जेम तमे माथु हाथ पग पासां पीठ पेटवाला छो, तेम आ पण छे. के जेने तमे दृणवा योग्य मानो छो, जेम तमने कोइ मारवा आवे तो ते देखीने तमने दुःख थाय छे, तेवी रीते बधाने छे, तेने दुःख उत्पन्न करवाथी पाप बंधाय छे, तेनो भावार्थ आ छे, के अहींयां अंतर आत्मा जे आकाश जेवो छे तेनी हिंसा मारवा वडे नथी पण शरीर आत्मानी हिंसा छे, कारण के ज्यां कइ पण आधार रुप पोतानुं शरीर छे, तेने सर्वथा से दूर करवू तेज हिंसा छे, एवं जैनो माने छे. का छे केः पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बल च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः ॥ प्रवास Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEOS सूत्रम ॥६२४॥ ॥६२४॥ प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजी करणं तु हिंसा ॥ १ ॥ आचा० पांच इन्द्रियो त्रण वळ श्वासोश्वास, अने आयु ए दश भाण भगवाने कहेला छे. तेनो वियोग करवो ते हिंसा छे. वळी संसारमा रहेला जीवने सर्वथा अमूर्तपणुं न घटे. के आकाशनी माफक जेनावडे विकार न थाय, तथा वधी जग्याए पाणीने दुःख देतां पहेलां आत्मानी तुलना विचारवी, एवं जोडेना मूत्रथी बतावे छे. तुं पण तेज छे. के तने आज्ञा करवामां आवे ते माने छे. तथा वीजा जीवने परितापवा. एबुं माने छे. तेज प्रमाणे जेने ग्रहण करवा, ते तुं माने छे. जेने दुःख देवू ते पण तं माने छे. पण जेवू तने विरुद्ध थतां दुःख थाय तेम वीजाने पण जाणवू. अथवा जे कायने तु इणवानो विचार करे छे. त्यां अ नेकवार तुं हतो. आ प्रमाणे जुठ विगेरेमां पण समजवु के. बीजो जुटुं बोली तने ठगे तो तने न गमे, तेम तुं जुलु बोले तो बीजाने 13 न गमे, जो हणानारो तथा हणनारो बन्नेने उपर कह्या प्रमाणे एकता थाय तो शृं? ते कहे छे.. द 'अज्जु' रुजु प्रगुण तेज छे के, जे घातक अने इंतव्यना एकपणाना बोधने माने (पोताना जीव माफक सर्वे जीवोने माने) तेज प्रतिवद्धजीवी साधज पोते परिज्ञानवढे जीवे छे, पण जीवनी हिंसा करनारो पोताना समान बीजाने न माननारो जीवतो नथी. जो एम छे, तो शुं करवू ? ते कहे छे. हणनारा जीवने पोतानी माफक मोटुं दुःख थाय छे, माटे पोतानी उपमाथी बीजानी हिंसा न करवी, न बीजा पासे मराववा, हणनाराने अनुमोदवा नहि, वळी संवेदन ते अनुभव छे. के जे बोजा जीवोने 'मोहना उदयथी हणवा विगेरेथी दुःख दे छे, ते पोते पछवाडे दुःख भोगवे छे, एवु जाणीने कोइने पण हणवो नदि, प्र-आत्माथी अनुभव नरव Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् SHARE-कव ॥६२५॥ आचा० साता के असातारुप छे, ते वातने नैयायिक तथा वैशेषिक मतवाला आत्माथी भिन्न गुण भूत संवेदनहुँ एकार्थपणुं समवायिझान IM वडे माने छे, तेव॒ तमे मानो छो, के आत्मा सथे एकपणे मानो छो? तेनो उत्तर मूत्रकार आपे छे, - ॥६२५ जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया, जेण वियाणइ से अया, तं पडुच्च पडि संखाए, एस आयावाई समियाए परियाए रियाहिए त्तिवेमि (सू० १६५) ॥५-५॥ .. जे आत्मा नित्य उपयोग लक्षणवाळो छे. तेज विज्ञाता छे, पण ते आत्माथी पदार्थनो अनुभव करावनार ज्ञान जुडें नथी अने जे विज्ञाता छे, ते पदार्थनो परिछेदक उपयोग ते पण आ आत्माज छे. कारण के जीवनुं लक्षण उपयोग छे अने उपयोग ते ज्ञानस्वरुप छे, ज्ञान अने आत्माने अभेदपणे मानवाथी बौद्धमतने अनुकुळ झानज एकलु सिद्ध थशे, एम तमने शंका थाय तो जैनाचार्य कहे छे, के तेम नथी, भेदनो अभाव फक्त अमे अहीं बताव्यो, पण एकता कही नथी, जो एम मानता हो के ज्यां भेदनो अभाव ६ तेज अक्यता छे, तो ते मानवु फक्त वार्तामात्र छेकारण के 'धोल्लं वस्त्र' तेमां घोल्लं तथा पट ए बन्नेमां भेदनो अभाव होवाछतां एकतानी माप्ति नथी, एमां पण शुक्ल पणाना व्यतिरेकवडे बीजो कोइपण पट [वस्त्र] नथी, एम मानो तो ते अशिक्षित (मुख) नो उल्लाप छे, कारण के तमारा कहेवा प्रमाणे मानतां शुक्ल (धोळा) गुणनो अभाव थतां सर्वथा पटनो अभाव थवा जशे. वादी-त्यारे एम मानतां आत्मा विनष्ट थयो? जैनाचार्य-थवा दो ! अमारी कंइ हानि नथी, कारण के अनंत धर्मवाळी वस्तुनो अपर (वीजो) मृदु विगेरे धर्मनो सद्भाव ABH OSALE+ क नर Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AABHI सूत्रम ॥६२६॥ तेनो नाश थायतो पण अविनष्ट (कायम) ज छे, एज प्रमाणे आत्मानो पण प्रत्युत्पन्न ज्ञान आत्मकपणाथी विनाश थवा छतां बीजो अमूर्त्तत्व असंख्य प्रदेशपणुं अगुरुलघु विगेरे धर्मोना सद्भावथी आत्मानो अविनाशज छे ! आटलुंज बस छे ! ( जैनमन आचा० प्रमाणे मूळ वस्तु द्रव्य पणे कायम रहे छे. अने फक्त पर्यायोनोज नाश अने उत्पति छे. तेथी पर्याय नाश थवा छतां मूळ द्रव्य ॥६२६॥ 18 वस्तु तो कायमज रहे छे.) शंका-जे आत्मा ते जाणनारो, एम तृप्रत्ययवाळो कर्त्ताना अभिधानथी अने आत्माना कर्त्तव्यपणाथी एम थर्बु के जे आत्मा तेज विज्ञाता एम अहीं विपत्ति पत्तिनो अभाव थयो, के जेना वडे आ जाणे छे, ते भिन्न पण होय. जेमके ते करण अथवा क्रिया थशे? जो करण मानीए तो दातरडा माफक भिन्न पदार्थ थशे, अने जो क्रिया मानीए तो कर्त्तामा रहेली संभवे छे, एम कर्ममा रहेली पण संभवे छे, आ प्रमाणे भेदना संभवमा क्याथी ऐक्यता होय ? जैनाचार्य शिष्यने कहे छे, के तेवाने खुल्लं कहे जे मति विगेरे P ज्ञान रुप करणवडे अथवा क्रियावडे सामन्य विशेष आकारपणे जे कोइ (जीव) वस्तुने जाणे छे ते आत्मा छे. अने ते आत्माथी भिन्न ज्ञान नथी; तेम करणपणे भेद नथी, एकने कर्म करणना भेदवडे उपलब्धि थाय छे, जेमके देवदत्त आत्माने आत्मावडे जाणे ॥ छे, क्रियाना पक्षमां पक्षसंबंधी अभेद छे एवं तमे पण स्वीकार्य छेज, बळी भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते जेमां भूति (धवापj) छे तेज क्रिया छे, अने तेज कारक छे, आ वचन विगेरेथी एकपणुंज छे, कमलावटबालवावम S ARG Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० SHRE- सूत्रम् ज्ञान अने आत्मानु एकपणुं मानतां शुं थाय ? ते कहे छे ते ज्ञान परिणामने आश्रयी आत्मा ते नामेज व्यपदेश कराय छे, जेमके इन्द्रिथी उपयुक्त होय ते इन्द्र कहेवाय, अथवा मतिज्ञानीश्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानी मनपर्यवज्ञानी, केवळज्ञानी छे. अने जे ज्ञान आत्मानुं एकपणुं स्वीकारे छे, तेने शुं गुण थाय, ते कहे छे. उपर बतावेली नीतिए यथावस्थित आत्मवादी थाय, अने तेना सम्पग भाववढे अथवा शमिता (उपशमपणा) वढे पर्यायरुप छे, । एटले तेज संयम अनुष्ठानरुप प्रसिद्ध छे, (इति शब्द समाप्ति माटे छे) लोकसार अध्ययनमां पांचमो उद्देशो पूरो थयो. ॥६२७ ६२७॥ छठ्ठो उद्देशो. पांचमो उद्देशो कह्यो हवे छहो कहे छे. तेनो संवन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां कह्य के आचार्ये निर्मळ हृद (कुंड) जेवा IR थy, तेवा उत्तम आचार्यना संसर्गथी शिष्यने कुमार्गनो परित्याग थाय. तेथी रागद्वेपनी अवश्य हानि थाय, माटे आ प्रतिपादन PSI [सिद्ध] करवाना संबन्धवडे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं मूत्र छे, अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दसणं तदिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तसन्नी तन्निवेसणे ( सू० १६६) . अहीं तीर्थकर गणधर विगेरेनो उपदेश माननार होय, तेने विनेय [शिष्य कहेल छे, अथवा सर्व भावना संभावितपणाथी बलकवडक Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६२८॥ सूत्रम ॥६२८ * * सामान्यथी अभिधान छे, अनाज्ञा एटले भगवानना उपदेश विना पोतानी मेळे आचरे, ते अनाचार छे, ते अनाचारमा प्रवर्तेला के-13 टलाक इन्द्रियोने वश थएला अने दुर्गतिमां जवानी इच्छाथी पोताना मतना अभिमान ग्रहथी बंधायला [कदाग्रही]छे, तथा उपस्थान ते बनावटी तेमनुं धर्माचरण छे, तेमां उद्यम 'करनारा' ते सोपस्थानवाला छे, तेओ बोले छे, के 'अमे पण प्रत्रजित छीए' छतां सारा धर्मना विवेकथी रहित बनीने सावध आरंभमां वर्ते छे. तेम केटलाक कुमार्गनी वासनावाळा (मिथ्यात्वी) नथी, पण आळस निंदा स्तंभ [मान] बिगेरे.(१३ काठिया) थी बुद्धि हणातां तीर्थकरना कहेला सदाचारमा निरुपस्थानवाळा(सारा धर्मानुस्थान रहित) छे, एटले मिथ्यावी चारित्रना नामे अनाचार करे, अने सम्यक्त्वी जीवो प्रमादथी संयम पाळवामां खेद पामे छे. ते बन्नेने दुर्गति मळवानी छे, तेवू जाणीने गुरु कहे छे हे शिष्य ! तने तेवी दुर्गति न थाओ ! [माटे सम्यक्त्व धारण करीने प्रमाद छोडी पुरो 5 संयम पाळ !] आयु सुधर्मास्वामी पोतानी बुद्विथी न्थी कहेता, ते कहे छे, 'एतद' उपर कहेलं (जिनेश्वरनु छे ) अथवा आज्ञा P रहित निरुपस्थानपणुं छे, अने आज्ञा पालनमां सोपस्थानपणुं (चारित्र) छे, आq तीर्थकरनुं दर्शन (मंतव्य) छे. ___अथवा हवे पछी जे उपदेश कहे छे, ते तीर्थकरनुं दर्शन छे, के कुमार्ग छोडीने हमेशां आचार्यनी सेवा करनारा थq ते आचार्यनी दृष्टिमा रहेg ते 'तदृष्टि' छे, एटले तीर्थकरे कहेला आगममां दृष्टि राखनारो छे तथा ते आचार्य अथवा तीर्थङ्करनी आज्ञा पालनारनी मुक्ति थाय छे, ते ' तन्मुक्ति' छे, तथा ते साधु आचार्यने वधां कार्यमा आगळ करे तेथी पुरस्कार छे अर्थात् आचायनी अनुमतिथी कार्य करनारो छे, तत्संज्ञी, ते तेमना ज्ञानथी उपयुक्त छे, तथा 'तन्निवेशन' एटले ते सदा गुरुकुल निवासी छे, तेवाने शुं गुण थाय ते कहे छे. RECEMERICA *-E Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥६२९॥ अभिभूय अदक्खू अणभिभूए पभू निरालवणयाए जे महं अबहिमणे, पवारण पवायं । आचा० जाणिज्जा, सह संमइयाए परवागरणेणं अन्नेसि वा अंतिए सुच्चा (सू० १६५७) ॥६२९॥ परिषहो तथा उपसाने जीतीने अथवा घाति चतुष्टयने जीतीने तत्वने जोयु, तथा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग आवतां अथवा P अन्य तीथिकोथी पोते हार्यो नहीं; एवो समर्थ (प्रभु) निरालंबनताने धारण करे; पण ते आ संसारमा मातापिता, स्त्री विगेरेनुं अवलंबन न चाहे; तथा तीर्थकरनी आज्ञा बहार वर्तवामां नरक विगेरेमा जवानुं छे. एवं भाववामां समर्थ थाय; प्र०-पण क्यो पुरुष परिषद उपसर्गने जीतनारो छे ? तथा कोइथी पण, न हारीने निरालंबनपणुं लेवामां समर्थ थाय ? आवु शिष्य पूछे तो नीर्थकर, सुधर्मास्वामी अथवा आचार्य तेने कहे छे: ..उ०-जेणे मोक्षने लक्ष्यमा राख्यो छे, ते महापुरुष लघुकर्मवाळो मारा उपदेशथी बहार न होय. माटे अबहिर्मन (स्थिरचि1 त्तवाळो) छे, ते सर्वज्ञना उपदेश प्रमाणे चाले. प्र०-पण, तेना उपदेशनो निश्चय केवी रीते थाय ? के, आ जिनेश्वरनो छे ? उ०-प्रकृष्टवाद ते, प्रवाद छे. आचार्यनी परंपराए चालेलो; तेने सर्वज्ञना उपदेश तरीके जाणीले अथवा अन्य मतवालानी ४. अणिमादि आठ प्रकारनी लब्धि (ऐश्वर्य) देखीने पण तीर्थङ्करना चनथी बहार मन न करे, पण तेवाओने इन्द्र जाळीया जेवा ठगनारा जाणीने तेमनुं अनुष्ठान तथा तेमना वादो (वचननो) ने विचारे (परिक्षा करे) वाटलनCADAUGES SECREENA Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०-केवी रीते ? उ.-"पवारण पवाय जाणिज्जा" प्रकृष्टवाद ते प्रवाद 'सर्वज्ञ वाक्य' छे, ते प्रवादवढे बीजा तीथिकोना आचा० त प्रवादनी परिक्षा करे, जेमके वैशेषिको तेनु भुवन विगेरे करनारने इश्वर मांने छे, कहे छे केः अन्यो जंतुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च । १॥ ॥६३०॥ बीजो जीव पोतानुं सुख दुःख भोगववा असमर्थ छे, पण इश्वरनी प्रेरणा थतां ते स्वर्गे अथवा नरकमां जाय छे. आवा प्रवादोने जिनेश्वरना पवादवढे विचारवा जेमके आकाशमा इन्द्र धनुष्य विगेरे विस्रसा परिणामे परिणमीने पोताने रुपे बनेलां छे, तेनो बनावनार जुदो इश्वर विगेरे कारणनी कल्पना करवामां अति प्रसंग आवशे, तथा घटपट विगेरेमा दंड चक्र चीवर (कपड़े) पाणी कुंभार तुरी वेम शंलाका कुविद विगेरेना व्यापारथी आंतरा विना मळता आत्मलाभवाळाने मुकी तेने बदले नहीं से देखाता एवा इश्वरथी पदार्थ बने छे एवी कल्पना करतां रासभ (गधेडा)ने पण कर्ता का न गणवो ? वादीनो उत्तर-तनुकरण विगेरेमां पण पोतानुं करेलु कृत्य अने तेथी बन्धाएल कर्म तेना विना अवंध्य छे. पण पोताना । कर्मनी विचित्रता छे. कर्मनी उपलब्धि सिवाय आQ क्याथी होय ? जैनाचार्य कहे छे, जो तमे एम मानो तो बन्नेमां ते समान कथन छे, बळी कारणरुप माता पिता एक छतां अपत्यनी विचित्रता देखवाथी अधिक निमित्तवडे भाववं, अने ते इश्वरनो स्वी कार करवा करतां अदृष्ट (नशीब) नेज इच्छ, सारुं छे? कारण के तेना विना सुख दुःख सुभग दुर्भग विगेरे जगतनी विचित्रता लन होय ! हवे सांख्य मतवाळा कहे छे. लवक Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६३१॥ R सत्त्व, रज, तमः ए वधांनी साम्यअवस्था प्रकृति छे. प्रकृतिथी महान, तेथी अहंकार, तेथी अग्यार इन्द्रियो, तेथी पांच तन्मात्र, आचा० र तेथी पंचभूत, अने तेथी बुद्धि, ए विचारेल अर्थने पुरुष (आत्मा) जाणे छे. पण, ते पोते अकर्ता, अने निर्गुण छे. ते प्रमाणे सूत्रम् प्रकृति करे छे, अने पुरुष भोगवे छे. त्यारपछी, कैवल्य अवस्थामा हुँ दृष्टा छु. एवं निवर्त (दुर थाय) छे. विगेरे तेमनु मानवू युक्ति ॥६३१॥ विकळ होवाथी तेमना आंतरा विनाना मित्रोज मानशे, कारणके, प्रकृति अचेतन होवाथी केवीरीते आत्माना उपकार माटे क्रि-४ यानी प्रवृत्ति करशे? अने हुं दुःख देनारो छ. ए, आत्मा देखीने पोताना उपकारनी प्रवृत्ति पोते न करे ? कारणके प्रकृति अ-6 चेतन होवाथी तेने विकल्प थवानो संभवज नथी; अने प्रकृति जो, नित्य होय; तो, प्रवृत्तिनी निवृत्तिना अभाव थइ जाय; अने 13 पुरुपर्नु कर्तापणुं न होय; तो, संसारथी उद्वेग, अने मोक्षनी उत्कंठा विगेरेनो अभाव थशे. कां छे केः ___ न विरक्तो न निर्विण्णो, न भीतो भवबंधनात् । न मोक्षसुखकांक्षी वा, पुरुषो निष्क्रयात्मकः ॥१॥HI ते विरक्त नथी; खेद पामेलो पण नथी; तेम, भवबंधनथी डरेलो नथी; अथवा, मोक्ष-सुखनो आकंक्षी नथी. एवा गुणवालो क्रियारहित पुरुष छे, नेनो उत्तर जैनाचार्य कहे छे:कः प्रव्रजति सांख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि । निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिष्यते॥ आत्मांनिष्क्रिय छे.त्यारे,सांख्यमतमां दीक्षा कोण ले छे? तथा क्षेत्र भोगवामां निष्क्रयपणाथी तेनं क्षेत्र भोगव केवीरीते इच्छे छे? || बौद्धमनवाळा बधु क्षणिक माने छे. तेनो उत्तरः SAEX-गरवकACACATION PAGE Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो, अन्वय रहित विनाश थाय; तो प्रतिनियतकार्य कारणभाव सिद्ध न थाय; पण एक संतान परंपराथी सिद्ध थाय छे. तेवू Mतमारूं कहे भण्या विनाना जेवु छे ! कारणके संतानवालाना व्यतिरेक (अभावथी) कोइपण संतान नथी, अने संतानतुं मूळ पूर्व 8 सत्रम आचा० काळमां रहेवा पणुं छे, तेज कारण होय तो वधुं ए बधांनुं कारण थशे, कारण के वधाने पूर्व काळमा रहेवापणुं छे, तेथी तमारु ॥६३२॥ कहेवू माल विनानुं छे, वळी. ॥६३२॥ यज्जातमात्रमेव, प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुंभे? । नोत्पन्नमात्रभग्ने क्षिप्तं सन्तिष्ठते वारि ॥१॥ जो घडो बनवा वखतेज नाश पामेतो ते घडामां शुं क्रिया थइ? अने उत्पन्न थतांज घडो भांगेतो तेमां नांखेलं पणी रही शके नहिः कर्तरि जातविनष्टे धर्माधर्मक्रिया न संभवति । तदभावे बंधः को बन्धाभावे च को मोक्षः? ॥२॥ धर्म पाप करनारो तुर्त नाश पामे, तो धर्म अने अधर्मनी क्रिया संभवे नहि, अने धर्म अधर्मना अभावमां पुण्य पापनो बंध न होय, अने ते बंधना अभावमां मोक्ष कोनो थाय ? बृहस्पिति (चाक) मतवाळा फक्त पांच भूतोने मानता होवाथी जीव पुण्य पाप परलोकनो तेमने अभाव थतां निर्मर्यादापणे. ४ अमानपी कत्य करनाराने तिरस्कार पदयुक्त कृत्यवाळाने उत्तर न आपत्रो, तेज उतर छे | तेमनी जोडे वात करवी अयोग्य]वळी. ____ अब्रह्मचर्यरकैर्मुढेः परदारघर्षणाभिरतैः । मायेन्द्रजालविषववत्प्रवर्तितमसत्किमप्येतत् ॥१॥ दुराचारमा रक्त अने परस्त्री आलिंगनमा मूड बनेला इंद्र जालना जुठा पदार्थ माफक आ लोकोए एवं असत् मंतव्य फेलाव्यु छे? वळी. HECCARE बाल-बलर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTTE- सूत्रम् मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्या; ॥ आचा० ' धर्माय येषां पुरुषाधमानां, तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः? ॥२॥ ॥६३३॥ भवोर्नु दुःख आपनारी माता समान जेमनु मिथ्यादर्शन छे, अने जेमनी मिथ्या मति विवेक रहित छे, के जे अधम पुरुषोए 18 धर्मने नामे अधर्म फेलाथ्यो छे, तेवाने पृथ्विमां बीजो क्यो अधर्म हशे? & आ प्रमाणे बधा तीर्थोना वादमां जिनेश्वरना मतने अनुसरीने विचारी असत्यने दूर करवू; अने ते सर्वजनुं वचन तथा कुमा गर्नु बरोबर निराकरण करीने तीर्थीकोना प्रवादोने आ बतावेला त्रण प्रकारवडे जाणे. (१) मनम करते मति छे, अने ज्ञानआ| वरणीयकर्मना क्षय उपशमथी कोइपण ज्ञान थाय; ते ज्ञानज छे, तेथी एकदम तेज क्षणे मनना कारणे मतिश्रुत अवधि के, बीजां ज्ञा नवडे (निर्मळता थतां) पोते बीजा वादोनी परीक्षा करे; अथवा ज्ञानवडे जोवायोग्य तेमने शोभनिक तथा, मिथ्यात्व कलंकरहित निमळमति (बुद्धिवडे) बघा वादोना स्वरुपने जाणे, कारण के, स्व, अने परतुं सत्यपणुं बतावनार मति छे. कोइ वखतपर [तीर्थकरना] उपदेशथी जाणे अथवा तेमनुं कहेल आगम भणीने तेनावडे जाणे; अथवा नेथी न समजाय; तो, वीजा आचार्य विगेरे पासे सांभळीने यथावस्थित वस्तुना सद्भावने जाणे; अने जाणीने शुं करे ? ते कहे छे: निदेसं नाइवठूजा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सबप्पणा सम्म समभण्णाय, इह आरामो परिवए निट्टियही वीरे आगमेण सया परक्कमे (सू० १६८) बहकलन कला Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६३४॥ ( निर्देश कराय ते ) निर्देश एटले, जिनेश्वर विगेरेनो जे उपदेश (साधुना हित माटे ) छे, तेनुं मर्यादामा रहेल मेधावीसाधु उल्लंघन न करे. शुं करीने ? ते कहे छे: सारीरीते विचारीने के, आ त्यागवाजोग अन्य मनो छे, अने आ ग्रहण करवायोग्य तीर्थकरनां वचन छे, तेने पोते वधा प्रकाराथी एटले, द्रव्यक्षेत्र काळभाव - रुपे तथा सामान्य विशेषरूपे - वधा पदार्थाने उत्तम मति विगेरे ऋण ज्ञान थी विचारीने हमेशां आचार्य | आज्ञा पालन करनारो बनी वधां दर्शनोनुं निराकरण करे. प्र०—–शुं करीने ? ते कहे छे :- वधा मतोनुं तत्त्व सारीरीते जाणीने, विचार करी निराकरण करे. वळी, आ मनुष्यलोकम संयममां रति करे; कारणके, परमार्थथी विचारतां एकांत अत्यंत रति (आनंद) संयममां छे, ते संयमने पूरो पाळवानी परिज्ञावडे जाणीने तेमां लीन रही इन्द्रियोनी उन्मत्तता रोकीने संयम — अनुष्ठानमां रक्त रहेधुं. 'किभूत' विगेरे. अहीं निष्ठित ते मोक्ष छे, तेनो अर्थी वन, अथवा निष्ठित ते पूरो. अने अर्थ ते, प्रयोजन छे. ते प्रयोजनवाळो वीर ते कर्मने विदारण करवामां तैयार बनीने सर्वज्ञे चतावेला आचार विगेरेमां सर्वकाळ यत्न करीने कर्मरिपुने जीत अथवा, मोक्षमार्गमां गमन कर. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. आवो उपदेश वारंवार शामाटे करे छे ? तेनुं कारण कहे छे: उट्टं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियोहिया । एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगति पासह ॥१॥ श्रोतो एटले, कर्म आवत्रानां आस्रवद्वारो छे, ते दरेक भवना अभ्यासथी विपयोना अनुबंध विगेरेथी जीवकर्म पुगकोने लीधांज सूत्रम ॥६३४॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् SASA करे छे, तेथी उंचे श्रोत ते वैमानिक देवीना अभिलाशनी इच्छा, अथवा वैमानिक देवना मुखनु निया' करवू, के, मने ते, मळो. आचा० अधो (नीचे) भवनपतिना देवोना सुखनो अभिलाप, अने तिर्यक्लोकमां व्यंतर तथा मनुष्य नथा तिर्यंचना विषयोनी इच्छा थाय छे, ॥६३५॥ | ते श्रोतो छे, अथवा प्रज्ञापकना आश्रयथी उंचे ते पहाडनां शिखरो तथा मोटा मेदान होय; अथवा मोटा धोध पडता होय. नीचे हूँ नारकी तथा नदीना किनारानी उंडी गुफाभोनां स्थान तथा तिर्यक्लोकमां आराम सभा विगेरे जीवोने उपभोगनां स्थानो छे, ते बनावटी के स्वभाविक बने छे अथवा कर्म परिणतिना कारणे मळेला छे, ए वधां (रमणिक अरमणिक) स्थानो कर्मना आस्रवद्वारो होवाथी श्रोतनी माफक श्रोतो छ, आ त्रणे प्रकारोबडे तथा बीजां पापोनां उपादानना हेतुवडे प्राणीओनी थती आसक्तिने अथवा कर्मना अनुसंगने जो, ते कर्मना अनुसंगना कारणथीज ए श्रोतो छे. एम कहे कहे छे, माटे तुं सदा जैनागम प्रमाणे उद्यम कर. आवदं तु पेहाए इत्थ विरमिज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह आगई गई परिन्नाय (सू० १६९) राग द्वेष कपाय अने विषयरुप जे आवर्त छे, ते अथवा कर्म बंधनो जे भाव आवर्त छे, तेने जोइने तुं विषयरुप भाव आवतने वेद (आगम)ने जाणनारो बनीने तेनाथी विरम, अर्थात् आसूबद्वारनो अटकाव कर, बीजी प्रतिमां "विवेग किट्टइ वेदवी" पाठ छे. एटलेआसूबद्वारने अटकावी तेनाथी यता कर्म बन्धनो वेदविद् माणस अभाव करे ? आसवद्वारना निरोधथी शुं थाय ? ते कहे छे, आम्वद्वारने दुर करवा दीक्षा लइने प्रयास करे, तेज आ प्रत्यक्ष प्रयोजन छे. अने ते आपणी चालु वातमा मुख्य छे. तेथी EARCESS Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६३६॥ 'आ' सर्वनाम वांची शब्दथी सूचव्युं, के जे कोइ महा पुरुष अतिशयवाळ (उत्तम संयमनां) कृत्य करीने केवो थाय ? ते कहे छेअकर्मा एटले घाति कर्म रहिन बने, (कर्मनो अर्थ घाति कर्म लील आघात कर्म दूर थवाथी ते विशेषथी जाणे, तथा सामान्यथी देखे छे, तथा बधी लब्धिओ तेने थाय छे, एथी ते पूर्वे जाणे छे, अने पछी देखे छे. आथी क्रमनो उपयोग बताव्यो छे; ते प्रमाणे तेने दिव्य (केवळ ) ज्ञान उत्पन्न थवाथी ऋण लोकमां माथाना मुकुटना मणि समान ( माननीय ) तथा सुरासुर नरेन्द्रथी पूज्य बने छे, तथा संसार समुद्रना किनारे पहोंचनारो संपूर्ण जाणेल वनी ते पोते शुं करे ? ते कहे छे, ते जाणवानुं जाणेला सुर असुर तथा माणसोथी थती पूजाने अनुभवीने पण तेने कृत्रिम अनित्य असार सोपाधिक [इन्द्रजाळ जेवी ] मानीने इन्द्रियोना वियोने जीतवाधी उत्पन्न थएल सुखनी निस्पृहताथी तेवी इन्द्रादिनी पूजाने पण तेओ इच्छतानथी, वळी आ मनुष्यलोकमा रह्या छतां केवळ ज्ञानथी जीवोनी आगति संसार भ्रमण तथा तेनां कारणोने ज्ञपरिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे संसार भ्रमण दूर करेछे, तेना निराकरणथी शुं थाय ? ते कहे छे. अच्चे जाईमरणस्स वमग्गं विक्खायरए, सधे सरा नियहन्ति, तक्का जत्थ नवि इ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वट्टे न तंसेन चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुकिल्लेन सुरभिगंधेन दुरभिगंधे न तित्तेन कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न सूत्र ॥६३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् -5555 ॥६३७॥ कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रुहे न आचा० संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विजए, अरूवी सत्ता, अ. ॥६३७॥ पयस्स पयं नस्थि, (सू० १९७०) जाति (जन्म) अने मरणना मार्गना उपादान कारणरुप कर्मने ते केवळी साधु उलंघे छे, अर्थात् वधां कर्मोनो क्षय करे छे, अने कर्म क्षय थवाथी शुं गुण थाय छे, ते कहे छे, विविध प्रकारे प्रधान पुरुषार्थपणे रचेलां शास्त्रोना विपयथी तप अने संयम अहनुष्ठाननो विषय अंते मोक्ष आपनार कह्यो छे, ते मोक्ष बधा कर्मना क्षयरूप छे, अथवा जे स्थानमा मोक्षना जीवो [ सिद्ध भवंगतो] रहेला छे, ते स्थान जे आकाश प्रदेशमा रहेल छे, तेमां पोते रत छे. (मूत्रमा व्याख्यातनो अर्थ मोक्ष लीधो छे) अने त्यां पोते अत्यंत एकांत वाधा रहित सुखवाळा छे, अने क्षायिक ज्ञान दर्शनरुप संपदायी युक्त वनेला अनत काळ रहेवाना छे-(नमुत्युणसां सिव मयल मरुय मणंत मुक्खेय मया वाह मपुणरावित्ति सिद्धि गइ नाम धेयं ठाणं संपत्ताणं नो अर्थ विचारवो.) प्र०-त्यां केवी रीते रहेला छे? ते कहे छे त्यां शब्दोनी प्रवृत्ति नथी, अर्थात् शब्दोथी कहेवाय एवी त्यां कोइ पण अवस्था नथी, ते वतावे छे, 'सव्वे' संपूर्ण स्वरो ते अध्ययन (भणवान भणाववान) जेम अहीं छे, तेम त्यां वाच्य वाचक संबन्धमा उच्चारण द्र पण नथी, कारण के शब्दो तो रुप रस गंध अने स्पर्श समजाववामां कोइ पण कारणे संकेत काळमां ग्रहण कर्या होय, त्यारे अथवा लं तेनी तुलनामां प्रवते छे, पण त्यां सिद्धोने शब्द विगेरेनी प्रवृत्ति नथी. एथीन मोक्ष अवस्था शब्दोथी कहेवाय तेम नथी; फक्त RE5%AERCACCCCCC M Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18| शब्दथी कहेवाय तेम नथी, एम नहीं पण उत्पेक्षणीय पण नथी ते पण बतावे छे, ज्यां पदार्थनो संबन्ध होय त्यां तेना अध्यवसायना अस्तित्वमा उह तर्को थाय, पण ज्यां ते नथी त्यां शब्दोनी प्रवृत्ति केवी आचा०६ रीते थाय ? प्र०-शा माटे त्यां तर्कनो अभाव छे ? ते कहे छे–'मनन कर ते मति छे अर्थात् ते मननो व्यापार छे. अने पदा॥३८॥ र्थनी चिंता [विचार नी चार प्रकारनी औत्पादिका विगेरे बुद्धि छे. त्यां तेनो ग्राहक नथी. (प्रयोजन नथी) कारण ते मोक्ष अब स्थामां बधा विकल्पोनो अभाव छे, [त्यां विकल्प थइ शकतो नथी] त्यां मोक्षमा जे जीवो जाय तेओने कोइ पण जातना कोनो 8 अंश छे के अथवा अकर्म बनीने जाय छे, ? तेनो उत्तर-कर्म सहित जे जीवो छे तेमनुं त्यां गमन नथी, ए, बतावे छे. 'ओजः' ४ एकलोज अर्थात् संपूर्ण मलरुप कलंकथी रहित त्यां सिद्ध भगवंत छे, वळी तेमने औदारिक शरीर विगेरेनु अथवा कर्मन प्रतिष्ठान ल नथी,माटे तेओ अप्रतिष्ठान छे.एटले मोक्ष अप्रतिष्ठान छे, ते मोक्षने जाणवामां 'खेदज्ञ' (निपुण) छे. अथवा अप्रतिष्ठान नामनो नरक छे. त्यां तेमने लोकनाडी पर्यंतनु परिज्ञान छे, तेना आवेदनवडे बधा लोकनी खेदज्ञता बतावेली छे सर्वे जीवोन तेओ दुःख सुख जाणे छे] सर्व स्वरनं निवर्तन जे अभिप्रायवढे का छे ते अभिप्रायने हवे प्रकट करे छे. ते परमपदनो अभ्यासी लोकांते कोशना छठा भागे ( कोश ) जे क्षेत्र छे, तेमां रहेल छे, तेमने अनंत ज्ञान तथा दर्शन छे, ते संस्थाने आश्रयी पोते दीर्घ न थाय, न हस्व थाय, न गोलाकारे न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न गोळा जेवो, तेमज वर्णरहित ते काळो नीलो लोहित (लाल) हारिद्र (पोळा) धोळो कोइपण जातनो रंग तेमने नथी, तेम सुरभि के दुरभि गंधनथी, तेम नीखो कडवो कपायलो खाटो मधुर रस नथी, तेमज कर्कश खरवचडो मृदु गुरु शीत उष्ण स्निग्ध लूखो कोइपण जातनो स्पर्श नथी, तथा उष्ण शब्दथी कापोत विगेरे लेश्यापण नथी, RECECESSASRAERS Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा कायवाळो नथी, एटले जेम वेदतावादी कहे छे के, एकज मुक्त आत्मा तेनी कायमां वीजा क्षीण कलेशवाळा प्रवेश करे छे, आघा० सूर्यनां किरणो सूर्यमां समाइ जाय छे, (तेम इश्वरमा बधु समाइ जाय छे,) तेम जैनमां सिद्धनुं स्वरुप नथी. सूत्रम् ॥६३९॥ बळी न रुह (एटले बीज अने जन्मना अर्थमां रुह शब्द वपराय छे) एटले कर्म वीजना अभावथी फरीथी तेमने जन्म नथी. पण जेम वौद्धमतवाळा माने छे के पोताना दर्शनन अपमान थवाथी ते मुक्त परमात्मा पण जन्म ले छे. दग्धेन्धनः पुन रुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् ॥ मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थ शूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥ जैनाचार्य तेमना मंतव्यथी तेमन खंडन करवा जिनेश्वरनी स्तुति करतां कहे छे के, बळेलुं लाकडं जेम उगी न शके, तेम मोक्षमां गयेला कर्म रहित थएला जीवने जन्म मरण न होय छतां संसारर्नु ममर्थन करीने निर्वाण प्राप्त कर्या पछी मुक्त थइने पण 51 ६ वौद्ध नायक पोतानी मेळे नवो भव लेनार पारकाने (शिक्षा करवा) माटे शूर वनेला तेणे विनां विचारे बीकणपणाना अंतवाद्धं निर्वाण मान्यु छे (अर्थात परोपकार करवा दुष्टने दंड देवा पोतानाशाशननुं महत्व वधारवा जन्म ले छे) एवा विपरीत बोलनारा जेओतमारी आज्ञाथी बहार रहेला छे, तेमने विषे मोह राजानु आवु प्रबळ राज्य ! (जैन धर्ममां एवं मंतव्य छे के मुक्त जीवने फरी जन्म नथी) तथा अमूर्त थवाथी तेने संग न होवाथी ते असंग छे, तथा स्त्री पुरुष नपुंसकनी गणतरीमा नथी. (त्यारे केवा छे ते कहे छे) विशेषथी जाणे ते परिज्ञ छे, तथा सामान्य बरोवर जाणे [देखे एवी संज्ञावालो ज्ञानदर्शन युक्त छे. प्र०-जोस्वरूपथी मुक्तात्मा - 5वनर ACTERA Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18/न जणाय तो, उपमाद्वारवडे आदित्यनी गति माफक जणाय छे के ? उ०-नहीं ते कहे छे, सादृश वस्तुनी उपमा थाय छे के आचा० हैं तेनी माफक आ छे पण ते सिद्ध मुक्त आत्मानी तुलना के तेमना ज्ञान के सुखनी तुलना लोकनी वस्तुनी साथे थती न होवाथी द्रा अनुपम छे.प्र०-शा माटे ? उत्तर-ते मुक्त आत्मानी जे सत्ता छे ते रुप रहित छे. अने ते अरुपीपणुं उपर कहेल दीर्घ विगेरेनो सूत्रम १६४०॥ निषेध करवाथी बतायुज छे. P॥६४०॥ हूँ वळी तेने पद 'ते अवस्था कोइ पण जातनी न होवाथी अपद छे, तेनुं अभिधान पण नथी के जे पद वडे अर्थ बोलाय का-६ हरण के वाच्य पदार्थनो अभाव छे. कारण के जे कहेवाय छे, तेज शब्दरुप गंध रस फरस विगेरेमांथी कोइ पण एक विशेषणथी बोलाय छे. तेनो अभाव छे ते बतावे छे. अथवा दीर्घ विगेरे शब्दोथी रुप विगेरेनु विशेषथी निराकरण कयु हवे सामान्यथी पछीना & सूत्रमा निराकरण करे छे. P सेनसद्दे न रूवे गंधे न रसेन फासे, इच्चेव त्तिबेमि (सू० १७१) षष्ट उद्देशकः । लोकसाराध्ययनं समाप्तम् ५-६॥ ol ते मुक्त आत्माने शब्दरुप गन्ध रस के स्पर्श नथी आज भेदो मुख्यत्वे वस्तुना छे, अने तेना प्रतिषेधथी बीजो कंइ विशेष भेद देखातो नथी, के जेथी अमे बीजु बतावीए ! आ प्रमाणे मुधर्मास्वामी कई छे. सूत्रानुगम कह्यो, अने तेनी समाप्तिथी अपवहै गने पामेलो (मोक्ष विषय कहेवानो) उद्देशो पूरो थयो, ते मोक्षनी प्राप्तिमां तपनी वक्तव्यता थोडामां बताची पंचम अध्ययन पुरुं थयु टीकाना श्लोक १११५ थया: हालय 9000000000000000000000 50000000000000000000000 % Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् चा० धुताख्य नामर्नु छटुं अध्ययन, 1 पांचमु अध्ययन कहां, हवे छई अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया अध्ययनमा लोकमां सारभूत संयम अने ॥६४१॥ मोक्ष बताव्यो छे, अने ते निःसंगता सिवाय संयम न होय, तथा कर्म दूर कर्या विना मोक्ष न थाय. तेथी कर्म दूर करवा आ धुत ते कर्म धोवानुं वताववा कहे छे, आ संबंधे आवेला धुत नामना अध्ययनना चार अनुयोग द्वार थाय छे, तेमां प्रथम उपक्रम छे. ते उपक्रममा अर्थाधिकार बे भेदे छे, अध्ययननो अर्थ अधिकार अने उद्देशानो अर्थाधिकार छे, तेमां अध्ययननो अर्थाधिकार १ला अध्ययनमा कहेल छे, अने उद्देशानो अधिकार कहेवा नियुक्तिकार कहे छे, पढमे नियगविहणणा, कम्माणं वितियए तइयगंमि । उवगरणं सरिराणं चउत्थए गारवतिगस्स ॥२५०॥ पहेला उद्देशामां. पोताना जे सगां छे, तेओनुं विधून न (मोह त्याग) करवो जोइए. बीजा उद्देशामां घातिकर्मने दूर करवां, ६ त्रीजामां उपकरण शरीरने, अने चोथामां त्रण गारवने दूर करवा तथा उपसर्ग के सन्मान थाय, तोपण रागद्वेश न करवो, तथा त साधुओए (पूर्वे) ते प्रमाणे कर्म विगेरे धोयां छे, ते आ पांचमा उद्देशामां बतावे छे. आ प्रमाणे अर्थाधिकार बतावीने निक्षेपो P कहे छे, ते त्रण प्रकारनो छे, ओघ निष्पन्नमा अध्ययन छे, नाम निष्पन्नमां धुत नाम छे तेना चार प्रकारे निक्षेपा छे, तेमां सुग[ मनाम स्थापना छोडीने द्रव्य अने भाव बताववा अडधी (पूरी) गाथा कहे छे. . . उवसग्गा सम्माणयविहुआणि पंचमंमिउद्देसे । दव्वधुयं वत्थाई, भावधुयं कम्म अविहं ।।२५१।। ASHISHESAECERIES 64GAAA AD Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ||६४२॥ | इस wat द्रव्यधुत वे प्रकारे छे, आगमथी अने नो आगमथी तेमां आगमथी घुतनो ज्ञाता (जाणनारो) होय, पण तेमां उपयोग न होय अने नो आगमथी तो ज्ञ शरीर भव्य शरीर सिवाय द्रव्यधुत ते कपड विगेरेनी धूळ दूर करवानुं छे. (द्रव्य ते कपडां विगेरेने अने धूत ते मेल दूर करवानुं छे) आदि शब्दथी वृक्ष विगेरे फळ माटे घोवानुं छे (सुकां पांदडां विगेरे दूर थवाथी फळ तैयार थाय छे, अथवा विना जरुरनी वनस्पति वचमांथी निंदी काढे छे) अने भाव धूत तो आठे कर्मने दूर करवा [ मोक्ष माटे] उपाय कराय ते छे, [आ अडी गाथानो अर्थ छे.] फरी आज विषयने खुलासाथी कहे छे.. उप अहियासित्वसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माई, भावधुयं तं वियाणाहि ॥ २५२॥ उपसर्गाने अतिशे (सारी रीते ) सहन करीने कर्म धोवां, एटले देवताना के मनुष्योना के तिर्येचोना दुःख सुखरुप 'सर्गे आवे तेमां समभाव राखीने जे संसार वृक्षना बीज समान मोहनीय विगेरे कमेने दूर करे, ते भाव धुत छे; एवं तुं जाण | अथवा क्रिया अने कारकनो भेद नथी, तेथी कर्म धुनन तेज भावधूत छे, एम जाण नामनिक्षेप कह्यो हवे त्रीजा सूत्रालापाक निष्पन्न निक्षेपामां सूत्रानुगममां अस्खलितादि गुणयुक्त सूत्र कहेतुं ते आ छे: ओवूज्झमाणे इह भाणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमाओ जाइओ सबओ सुपडिले - हियाओ भवति, आघाइ से नाणमणेलिस से किहइ तेसिं समुट्ठियाणं निक्खित्तद सूत्रमं ||६४२ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 5 ॥६४३॥ 5 ण्डाणं समाहियाणं पन्नाणमंताण इह मुत्तिमग्गं, एवं (अवि) एगे महावीरा विप्परिकमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपन्ने से घेमि, से जहावि (सेवी) कुंमे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति एवं ( अयि ) एगे अणेगरूवेहि कुलेहिं जाया रूवेहि सत्ता कलुणं थणंति नियाणओ ते न लभंति मुक्ख, अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया गंडी अहवाकोढी, रायसी अवमारियं काणियं झिमियं चेव, कुणियं सुजियं तहा ॥१॥ उदरिंच पास मूयं च सुणीयं च गिलाप्सणि वेवई पीढसप्पि च, सिलिवयं महुमेहणिं ॥२॥ सोलस एएरोगा, अक्खाया अणु पुवसो अहणं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥३॥ मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं च नच्चा, परियागं च संपेहाए (सू० १७२ ) स्वर्ग तथा मोक्ष, तथा नेनां कारणो तेमज संसारनां कारणोने आवरणरहित (केवळ) ज्ञानना सद्भावथी जे माणस जाणे; अने | आमर्त्य (मनुष्य)-लोकमां मनुष्योनो धर्म समजावे एटले, ते घातिकर्म दूर थयां पछी; पोते अघातिकर्मरूप [शरीरधारी] मनुष्य बारववव + + + मानना सद्भावथी जे माणस जाणे असे समजावे एटले, ते घातिकर्म दर पणामां रहेलो यको धर्म कहे Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREASE सूत्रम ॥६४४॥ * * पण जेम-बौद्धमतमां भींत विगेरेमांथी पण धर्मोपदेश प्रकट थाय छे. 'तेम जैनधर्ममां नथी; अथवा जेम, वैशेषिकोर्नु उलुक आचा० भाववडे पदार्थोनुं बताववापणुं छे, एवं अमारुं (जैनशासन) नथी. प्र०-शा माटे ? उ०-घातिकर्म क्षय थया पछी, केवळ ज्ञान उत्पन्न थवाथी मनुष्यपणामां रहेलाज (तीर्थकर) पोते कृतार्थ । Dथया छतांपण, जीवोना हितने माटे मनष्य अने देवोनी सभामां धर्मनो उएदेश करे छे. प्र०-तीर्थङ्करज धर्म कहे छे, के, बीजो पण कहे छे ? उ०-बीजो पण कहे छे. जेने विशिष्टज्ञान होय, अने सारीरीते पदार्थोनो परिच्छेदक होय; ते धर्मोपदेश करे छे. ते कहे छे: जेओ अतींद्रियज्ञानि छे, अथवा श्रुत केवळी छे, तेओ धर्म कहे छे. एवं शस्त्रपरिज्ञा नामना १ला अध्ययनमा कहेल छे. (तेथी। आ प्रत्यक्ष भूचक-विशेषणवडे मूचव्यु के,) ते विशिष्टज्ञानीए आ एकेन्द्रिय विगेरे जातीओ बधा प्रकारो एटले सूक्ष्मवादर पर्यात-अपर्याप्तरूपे बरोबर रीते [शंकारहित ] जाणेली छे, तेज साधु धर्म कहे छे. पण, एम न जाणनारो वीजो ( अजाण ) धर्म कहेतो नथी. तेज कहे छे: 'स आख्याति' ते तीर्थङ्कर अथवा सामान्य केवळी अथवा अतिशय ज्ञानी जातिस्मरण-ज्ञानवाळा, अवधिज्ञानी, मनःपर्यव है ज्ञानी] अथवा श्रुत केवळी होय ते कहे छे. प्र०-धूं कहे छे, जेनावडे जीव विगेरे पदार्थो जणाय छे, ते ज्ञान मति विगेरे पांच प्रकारनं छे, ते, प्र० ते ज्ञान के छे ? उ०-तेवु बीजे नथी, माटे 'अनीदृशं छे, अथवा सकल [वधा] शंसयने दूर करवावडे धर्म संभलावता तेज पोतार्नु अनन्य सदृश (अनुपम) ज्ञान बतावे छे, [अर्थात् संसारी ज्ञानथी तृष्णा वधे, पण तेमना उपदेशना ज्ञानथी AISCIECRECIPEGORRECRUCIENCIEBAR * * * Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० BGASHA% ॥६४५॥ सूत्रम् ॥६४५॥ 5 &ा तृष्णानी जड दूर थाय माटे ते ज्ञान अनुपम छे] प्र०-तेओ कोने-धर्म कहे छे ? उ०-ते तीर्थङ्कर गणधर विगेरे यथावस्थित भावो (पदार्थो)-ने धर्मचरण माटे योग्यरीते जे पुरुषो उठेला होय, तेमने कहे छे, अथवा द्रव्यथी शरीरवडे, अने भावथी ज्ञान विगेरेना 5 उत्सुक बनी विनय सहित (उभा या होय) तेमने धर्म कहे छे. समोसरणनो विनय समोसरणमां स्त्रीओ वन्ने प्रकारे उभी थइने विनय पूर्वक सांभळे छे, अने पुरुषो उभा थइने अथवा बेठा रहीने पण सांभळे पण भावथी उत्सुक होय; तेमज वीजा उठेलां जीवो, तथा देवता अने तीर्यच विगेरेने धर्म संभळावे छे. एटलंज नहि पण जेओ भाव विना फक्त कौतुक विगेरेथी आवी सांभळे, तेमने मण धर्म कहे छे, भावथी उठेलानुं विशेषथी कहे छे. ' मन वचन कायाने जेमणे कवजे लीधां छे, एटले मन वचन कायाथी जीवोने दुःख देवारुप जे दंड छे, ते दूर करवाथी ते निक्षिप्त दंडवाळा संयम पाळनारा छे. तथा तप संयममां उद्यम करवाथी समाहित (शांत) अंतःकरणवाळा छे, तेमने जिनेश्वर विशेषथी धर्म कहे छे, तेज प्रमाणे प्रकर्पथी जणाय ते प्रज्ञान छे, तेवं ज्ञान धरावनार बुद्धिमानोने आ मनुष्यलोकमां ज्ञानदर्शन चारित्ररुप मुक्ति मार्ग छे ते बतावे छे, आ प्रमाणे समोसरणमां साक्षात् धर्म संभळावतां केटलाक लघुकर्मी जीवो (पूर्ण श्रद्धा थतां) तेज वखते चारित्र ग्रहण करे छे, पण वीजा तेम चारित्र लेता नथी, ते कहे छे, एटले उपर कह्या प्रमाणे कर्मविवर जेमने मळ्युं ४ तेवा केटलाक भव्यात्माओं जिनेश्वर पासे धर्म सांभळतांज सयम संग्रामनी टोचे पराक्रम बतावे छे, अथवा पर ते इन्द्रियो अथवा कर्म शत्रुने जीतवा पराक्रमी बने छे, (अपि शब्दनो अर्थ 'च' छे, अने 'च' नो अर्थ वाक्यनो उपन्यास करवा माटे छे) हवे तेथी। ACTICE% -लख Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलटुं कहे छे. तीर्थङ्कर पोते बधा संशयने छेदनारा धर्म कहे छे, छता केटलाकने प्रबळ मोहना उदये घेरी लेवाथी संयममां खेद पामता रहे छे, (कांतो संयम लेता नथी, ले, तो पूरी पाळता नथी) तेवाने तमे जुओ गुरु शिष्यने कहे छे] ते बहोळा कर्मी संयआचा० मां दःख पामता जीवो केवा छे. ते कहे छे, आत्माना हितने माटे जेमनी प्रज्ञा [बुद्धि] काम करती नथी, ते अनात्म प्रज्ञावाला सूत्रम (कवदिवाळा) छे, प्र०-तेओ शा माटे संयममा खेद माने छे ? उ०-हुँ कहुं छु. अहो दृष्टांत वडे समजावे छे के शा कारणे तेओ खेद पामे छे. सूत्रमा 'से' शब्द 'ते' ना अर्थमां छे, 'अपि' शब्द 'च'ना अर्थमां छे, अने ते वाक्यना उपन्यास माटे छे] । कारण ॥६४६॥ कुंडना काचबानुं दृष्टांत. ___ कोइ काचवो मोटा कुंडमां विनिविष्ट[प्रेमी]चित्तवाळो वनीने गृद्ध बनेलो अने पलाश (कोमळ पांदडांवडे)ढंकायलो(तथा सूत्रमां81 प्राकतना नियम प्रमाणे व्यत्यय करवाथी)उन्मार्ग एटले, उपर आववानां विवर(छिद्र)ने मेळवतो नथी; अथवा, जेनावडे उंचे कदायः ते उन्मज्य छे. अथवा, उचे जवाय ते, उन्मार्ग छे, तेवो उन्मार्ग मेळवी शकतो नथी. अर्थात् जे कुंडमांते काचबो रहेल छे, ते. पाणी उपर पांददां विगेरे छवाइ जवाथी बीलकुल ढंकाइ गयो छे. तेथी ते काचबो बहार आवी शकतो नथी. आ कहेवानो आ सार छे: कोड मोटो कुंड होज एक लाख जोजनना विस्तारवाळो छे, अने ते अतिशे शेवाळना झुंडथी कठण बनी गयेला जाळोना समहथी ढंकाइ गयलो छे, अने ते कुंडना जुदा जुदा रुपवाळा करि मगर, माछलां, विगेरे जळचर जीवोनो आश्रय छे, तेना मध्य 18| भागमां कुदरतीज एक फाटर्नु बाकुं पडेलुं हतुं. जेमां फक्त काचवानी गरदन उंचे आवी शके तेवा कुन्डमांथी एक काचवाए पोताना टोलांथी जुदां पडतां वियोगथी आकुळ बनीने आम तेम गरदन फेरवतां कोइपण रीते तेवी भवितव्यताना योगथी ते काणामां पो वावलम्जर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० १६४७॥ | तानी गरदनने बहार काढी; ते समये त्यां तेणे शरदऋतुना चंद्रनां चांदरणाथी क्षीरसागरना पाणीना प्रवाहथी छवाइ रहेलुं शोभायमान बनेलं तथा, खीलेलां कुमुदना समूहथी पूजा करवा जेवा उगेला ताराओथी भराइ गयेलुं आकाश जोयुं. आधुं देखीने ते घणो खुश थयो; अने तेना मनमां आ प्रमाणे संकल्प थयो के—मारा सहचारी मित्रो आ स्वर्गसमान पूर्वे न देखेलुं मनोरथ ( विचारमा) पण, न कळी शकाय तेनुं ते काचवाओ जुए, तो बहु सारुं थाय. आ प्रमाणे विचारी शीघ्रताथी | पोताना बन्धुओने शोधवा माटे भटक्यो; अने तेमने मळीने तेमने तेतुं बतावचा माटे पैलुं छिद्र शोधतो आम तेम भटके छे, छतां, | दोजनी विस्तीर्णताथी, तथा जीवोनो समूह त्यां घणो मोटो छे, तेथी ते छिद्र मेळवी शक्यो नहि; पण, त्यांज ते, (विनादेखे) मरण पाम्यो. तेनो सार आ लेवानो छे के—संसाररूपी- होज छे. तेमां जीवरूपी - काचवो छे, कर्मरुपी -चीकणी सेवाळ छे, तेमां छिद्र समान-मनुष्यजन्म, तथा आर्थक्षेत्र सुकुळमां जन्म मळवो; अने सम्यक्त्वनी प्राप्तिरूप-सुंदर चन्द्रवाळं आकाशतळ मेळवीने मोहना उदयथी पोतानी ज्ञाति माटे, अथवा विषयस्वादना उपभोग माटे सारां संयममां अनुष्ठान न करतां सफळता (मोक्षने) पामतो नथी; अने तेवीरीते वखन गुमावी; ते सामग्री गुमावी देवाथी पाछो काचवाना विवर माफक क्यांथी तेवी उत्तम सामग्री मेळवी शके ? आ कारणथी गुरु उपदेश आपे छे के, हे भव्य ! सेंकडो भवोमां पण, दुष्प्राप्य एंवं कर्मविवररुप - सम्यक्त्व पामीने एकक्षण | मात्र पण, तमारे प्रमादवाळा न थ. फरीथी पण, संसारलुब्ध- जीवोनुं बीजुं दृष्टांत कहे छे: 'भंजगा' - वृक्षो पोते ठंड, ताप, धुजारो [कंपवु ] छेदन शाखा (डाळीओनुं) खेचबु; क्षोभ पमाडवो मरडवु ; भांगीनाखर्बु. एवां अनेक उपद्रवोने सहेवा; छतां पण, पोतानां स्थानने तेमां स्थिर बनीने ते छोडतां नथी. ते प्रमाणे साधुने बोध आपे छे के, सूत्रम् ॥६४७॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ACASSAGE ए वृक्षो प्रमाणे जेओ कर्मथी भारे छे, तेवा मोहांध-जीवो अनेक उंचनीच कुळमां उत्पन्न थइने धर्मचारित्रने योग्य पोते होवा छतां पण रुप विगेरेनी चक्षुइन्द्रियोनी अनुकुळतामां, अने तेज प्रमाणे मधुर अवाज विगेरे विषयोमा गृद्ध बनी शरीर मननां दुःख भोगआचा०. नववा छतां राजाना उपद्रवथी पीडावा छतां, अने अग्निदाहथी बधुं बळी गयेला जेवा बनवा छतां, अने जुदा जुदा निमित्तथी अ॥६४८॥ नेक आधि (चिंतावाळा) छतां पण सकळ (वधां) दुःखोना घरसमान -गृहवासद् कर्म छोडवा समर्थ थता नथी; पण, घरमां रही नेज तेवां दुःखो आवतां दीन स्वरे रडे छे, अने बोले छे के, "हे बाप! हे मा! हे दैव! आवा अवसरे तमने आबु दुःख देवू । योग्य नथी! तेज का छे के: किमिदम चिन्तित मसदृश, मनिष्ट मतिकष्टमनुपमं दुःखं ।। सहसैवोपनतं मे, नैरयिकस्येव सत्वस्य ॥१॥ न चितवेलु अजायबीवालं अनिष्ट, तथा अनुपम आq (भयंकर) दुःख जेम नारकीना जीवने आवे; तेम मने एकदम क्याथी आवी पडघु छे ! विगेरे, ते बोले छे. अथवा रुप विगेरेमां आसक्त थएला चीकणां कर्म बांधीने नरक विगेरेमां उत्पन्न थइ त्यां दुःख भोगवतां करुण स्वरे उपर मजब रडे छे, अने ते प्रमाणे करुण स्वरे रडवाथी पण ते रांकडो जीव ते दुःखथी मुकातो नथी, ते बतावे छे. दुःखनुं निदान ते उपादान कर्म छे, तेनावडे दुर्गतिमां उत्पन्न थएला दुःख भोगवतां रडवा छतां पण त्यांथी दुःखनी मुक्ति (छुटकारो) अथवा मोक्षनुं कारण जे संयम अनुष्ठान छे, ते पामी शकता नथी, अने दुःखना छुटकाराना अभावमां संसार उदरमा जुदी जुदी व्याधियोथी & घेरायला जीवो आम तेम भमे छे, ते बतावे जे (अथ शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे) हे शिष्य ! तुं जो! ते संसारी रखडता जीवो RDCबन Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई उच्च नीच कुळमां पोताना शुभ अशुभ कर्म भोगववाने गयेला (जन्म पामेला ) छे, अने ते कर्मना उदयथी आवी अवस्थाने आचा० IPIभोगवे छे, तेमां तेमने उत्पन्न थता सोळ रोग बतावनार अण श्लोको छे. तेमां (१) प्रथम रोग, वात, पित्त, श्लेष्म अने ते अन्न ॥६४९॥ त्रणेना भेगा थवाथी संनिपात एम चार प्रकारे गंड (कंठमाळ) छे, ते गंड जेने होय ते गंडी कहेवाय छे, एटले गंडमाळा नामनो , ६४९॥ रोग ते संसारी जीवने थाय छे, तेज प्रमाणे बीजा पण रोगो थाय छे, ते बतावे छे, ( अथवा शब्द दरेक रोग साथे जोडवो) अथवा राजांसी एटले अपस्मार (क्षयनो भेद ) विगेरेनो रोग थाय छे, अथवा अढार प्रकारना कोढ रोगवाळो कोढीयो थाय छे. तेमां सात मोटा कोढ छे, ते आ प्रमाणे , (१) अरुणो (२) दुम्बर (३) निश्यजीव्ह (४) कपाल (५) काकनाद (६) पौण्डरीक (७) दद्रु. ( लाल दादर) आ साते 81 M कारना कोदो बधी धातुमा प्रवेश थवाथी अने असाध्य यइ जवाथी ते साते भयंकर छे. . नीचला अगीआर कोढ क्षुद्र छे. (१) स्थूळआरुष्क (२) महाकुष्ट (३) एककुष्ट (४) चर्मदळ (५) परिसर्प [६] विसर्प [७] सिध्म [८] विचर्चिका 81 ८ (काळीदादर) [९] किटिभ (खरस) [१०] पामा (खस) [११] शतारुफ (घणी फोल्लीओ.) कुल नाना मोटा १८ छे, ते सामान्यथी जोतां, बधाए कोढ-रोगो संनिपातथी थाय छे. छतां पण, वात विगेरेना ऊत्कट दोपथी जुदा जुदा भेदवाळा गणाय P छे. तथा, राजांस रोग ते, राज्यक्ष्मा (क्षय) रोगवाळो, राजांसी (क्षयो) कहेवाय छे, अने ते क्षयरोग संनिपातथी चार कारणे थाय छे. कड्यु छे केः- । AKASEAN -वावर Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनव- व सूत्रम 11. शा त्रिदोष जायते यक्ष्मा, गदो हेतुचतुष्टयात् वेगरोधात् क्षयाच्चैव, साहसादविषमाशनात् ॥१॥ त्रण दोषवाळो यक्ष्मा (क्षय) नामनो रोग वीर्यना वेगना रोधथी वेगना क्षयथी, साहस करवाथी तथा विषम [ अयोग्य ] आचा० खोराकथी-एम चार कारणे थाय छे. तेज प्रमाणे अपस्मारनो रोग वात, पित्त अने कफना संनिपातथी चार प्रकारे छे, ते रोग॥६५०॥ वाळो सारा माठाना विवेकथी विकल होय छे, तथा भ्रम (चक्री) मर्छ विगेरेनी अवस्थाने ते रोगी भोगवे छे. का छे के. भ्रमावेशः ससंरम्भो, द्वेषोद्रको हृतस्मृतिः अपस्मार इति ज्ञेयो, गदो घोरश्चतुर्विधः ॥२॥ भमेळ चडे, मूर्छा विगेरे थाय, द्वेषनो उछाळो थाय, विसरी जवानी टेव थाय, एम चार प्रकारनो आ 'घोर' अपस्मार र रोग जाणवो. तेमां ब्रह्मरंध्र पर्यंत भ्रमण करनारो वायु छे, तेनुं मुख्य स्थान हृदयनो प्रदेश छे. तथा 'काणियंति' अक्षि [ आंख ] नो रोग बे प्रकारे छे, प्रथमनो गर्भमांज रोग थाय छे, अने बीजो जन्म्या पछी थाय छे, तेमां गर्भवाळाने दृष्टिनो भाग अपूर्ण होय छे, तेने तेज (प्रकाश) जन्मथी आंधळो बनावे. तेज प्रमाणे, एक आंखमाथी तेज जतां काणो बनावे छे. तेज प्रमाणे रक्तप णामां जतां, रक्तता-[लालाश आंखमां वधारो होय.] पित्तपणामां जतां, पिंगाक्ष [पीळी आंखवालो] अने श्लेष्मपणाने पामतां शुकलाक्ष (धोळी आंखवाळो ) बने छे, वातने पामतां विकृत आंखवाळो बने छे, अने जन्म्या पछी जे रोग थाय; ते वात विगेरेथी अभिष्यंद-(आंखमांथी पाणी झर) थाय छे. का छे के: वातात्पित्तात् कफाद्रक्ता, दभिष्यन्दश्चतुर्विधः प्रायेण जायते घोरः सर्व नेत्रामयाकरः॥१॥ वान, पित्त, कफ, अने रक्त-(लोही.) ए चारथी अभिष्यंद चार प्रकारे पाणी- झरवू थाय छे, अने मायेकरीने तेथीन नवास Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॐ आंखना बधा रोगोनो घोर आकर (समूह) थाय छे तथा 'जिमियंति' जाडयता-(चरबीन व अने लोहीन पाणी थq,), तेथी आचा० शरीरनां बधां अवयवोन परवशपणुं ( अवशित्व ) छे.[जेने लीधे जोइए; तेम, हाली-चाली शकाय के, फरी शकाय नहि 'कुणियंति' गर्भाधानगा दोषथी एक पग टुंको होय; अथवा, एक हाथ खोडवाळो होय ते कुणिरोग छे. 'खुज्जियंति' कुबडो. ॥६५२॥ तपीठ विगेरेमा कुबडाप' होय; ते, 'कुबजी छे.' मातपिताना लोही-वीर्यनो दोष होय; तो तेथी,गर्भमा रहेला दोपोथी कुब्ज-(कुबडो) Vवामन विगेरेनी खोडो शरीरमां थाय छे; कर्जा छे केः गर्ने वातप्रकोपेन, दौदे वाऽपमानिते ॥ भवेत् कुब्जः कुणिः पंगुर्मको मन्मन एवा वा ॥१॥ - गर्भनी अंदर वायुना प्रकोपथी अथवा दोदला न पूरावाथी गर्भमा रहेलो जीव कुबडो कुणिरोगवाळो पांगळो मुंगो के मन्मन #रोगवाळो थाय छे, आंमां 'मुंगो' अने मन्मन एकांतरित (पेटना रोग पछीना रोगमा) मुखदोषमां वतावे छे, तथा 'उदरिं च' ति ('च' समुच्चयना अर्थमां छे) वात, पित्त विगेरेना कारणे उत्पन्न थयेला आठ प्रकारना उदर रोग छे, ते रोगवाळो उदरी छे, तितेमां जलोदर रोग असाध्य छे, बाकीना तुर्त थएला दवा करतां मटे तेवा छे, तेना आ प्रमाणे भेदो छे. पृथक् समस्तैरपि चानिलाधैः प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव ॥ आगंतुकं सप्तममष्टमं तु जलोदरं चेति भवंति तानि ॥१॥ बधा अनिल [वायु] विगेरे एकेकथी के समुदायथी १ वायुनो ( वातोदर )२ पित्तनो [ पितोदर ] ३ कफनो (कफोदर) 18 तथा ४ संनिपात (कष्ठोदर) पालीह (बरोळनी गांठ) ५ उदर रोग (काचवी अकृत विगेरे) ६ वद्धगुद [अजीर्णाश] ७ आंगतुक लं! ताव साथे उदर रोग (जीर्णज्वर) ८ जलोदर ए आठ रोग पेटना छे, 525 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पासमूयंति' हे शिष्य ! तुं मुंगा अथवा मन्मन (बोबडे) बोलनाराने जो,! ते गर्भना दोषधी अथवा पछवाडेथी ६५ प्रकारना आचा० मुखनारोगो सात आयतन [स्थान]मां थाय छे, ते आयातन नीचे मुजब छे, १ होठ २ दांतनु मूळ ३ दांत ४ जीभ ५ ताळQ ६ कंठ ए' बां मळीने सात छे, तेमांवे होठना आठ रोग छे, दंतमूळमां १५, दांतना आठ छे, जीभना ५ छे, ताळवाना ९ छे, ॥६५२॥ ५ कंठमां १७ अने बधाना साथे मळीने त्रण छे. कुल ६५ छे, 'मूणियंति' शून्यपणुं श्वयथु [सोजानो] रोग वात पित्त श्लेष्म संनिपात रक्त अने अभिघात ( मार लागवाथी) थी छ प्रकारनो छे, का छे के शोफः स्यात् षड्विधो घोरो, दोपै रुषेध लक्षणः यस्तैः समस्तैश्चापीह तथा रक्ताभिघातजः शोफ नामनो छ प्रकारनो घोर रोग जुदा जुदा के, सामटा दोषथी शरीर फुलेलं देखाय; ते लोहीना बिगाडथी थाय छे. एटले, श्लोक पहेलां वताव्या प्रमाणे वात, पित्त, कफ, अने संनिपात, रक्त, अने अभिघातथी सोजानो रोग थाय छे, तथा 4 "गिलासणिति" ते भस्मक नामनो व्याधि छे. ऊष्णता, वात, अने पित्तना ऊत्कटपणाथी, अने कफना न्यूनपणाथी तथा गरमी , वधारे थवाथी थाय छे, तथा वेवइंति ते वायुथी उत्पन्न थयेल शरीरनां अवयवो कंपरूप छे. कयुं छे केः प्रकामं वेपते यस्तु, कंपमानश्च गच्छति, कलाप खंजं तं विद्या, न्मुक्त संधिनिबंधनम् ॥१॥ जे घणो कंपे, 'तथा कंपतो चाले, तेने संधि निबंधनथी मुकाएलो कलाप खंज (लकवानो रोग) जाणवो. तेज प्रमाणे है "पिढसप्पिं च ति" जीवने गर्भना दोषथी ते पीढ सर्पिपणे उत्पन्न थाय छे, अथवा जन्म्या पछी अशुभ कर्मना दोषथी थाय छे, ) GAO ॐवनावमा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६५३॥ आ रोगीने स्पर्श इंद्रिं भान रोगवाळी अग्याएथी नष्ट थाय छे, ते रोगवाळाने हाथमां पकडेलं लाकडं खसी जाय छे, अने सूइ घोंचे तो पण असर न थाय तथा 'सीलीवयं त्ति' श्लीपद ते पग विगेरेमां कंठण पर्णु होय छे, ते आ प्रमाणे- वात, पित्त, कफना | कोपथी छातीमा रोग उत्पन्न थइ जंयामां स्थिर थर धीरे धीरे काळांतरे पगोनो आश्रय करीने सोजो चडावे छे, ते रोगोने इलीपद कहे छे. पुराणोदक भूमिष्ठा:, सर्वर्तुषु च शीतलाः ये देशा स्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ जे देशमां पाणी भराइ रहेलुं होय, अने छए ऋतुमां शीतल (भेज) रहेतो होय, तेत्रा देशोमां विशेषे करीने श्लीपद रोग थाय छे यादयोर्हस्तयोश्चापि श्लीपदं जायते नृणां कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥ मां वे हाथां माणसोने ते रोग थाय छे, पण केटलाक विद्वानोनो एवो मत छे के ते रोग कान होठ अने नाकमा पंण थाय छे तथा 'मधुमेहणि' ति मधु मेह ते, 'वस्ति रोग' छे ते जेने होय ते मधुमेहि कद्देवाय छे, एटले मधना जेवो तेनो पेसाब होय छे, ते प्रमेह, (परमीओ) ना २ भेद छे, ते असाध्य पणे गणाय छे. तेमां बधाए प्रमेदो प्राये वधा दोपोथी थाय छे, तो पण वात विगेरे उत्कट थवाथी २० भेदो थाय छे, तेमां कफथी १० पित्तथी ६ अने वायुथी ४ थाय छे, अने ए वधा असाध्य अवस्थामां मधुमेहपणामां थाय छे. कां छे के: सर्वएव प्रमेहास्तु, कालेना प्रतिकारिणः मधुमेह त्वामायान्ति तदाऽसाध्या भवति ते ॥ १ ॥ सूमत्र ॥६५३॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम ॥६५४॥ बधा प्रमेहना रोगो योग्य समयमां दवा न करवाथी मधुमेहपणुं पाम्या पछी असाध्य बने छे. आचा०४ आ प्रमाणे उपर बतावेला सोळे रोगोनुं वर्णन अनुक्रमे कयु, ('अथ' अने 'ण' जे छे. ते 'अथ' नो अर्थ गुजरातीमां 'पछी' थाय छे. अने 'ण' तो फक्त शोभा माटे छे) उपर बतावेला रोगो संसारी जीवने थाय छे, तथा आतंक एटले शीघ्र जीव लेण रोग ॥६५४॥ जे शुळ विगेरे छे, तथा गाढ प्रहार (जोरथी लागेलो मार) विगेरे दुःख देनारा स्पर्शो का तो अनुक्रमे आवे अथवा साथे पण थाय. र एटले कंइ निमित्तथी आवे अथवा अनिमिचे आवे, अने ते रोगोथी पीडाय छे. आ रोगोथीज ते मुकातो नथी. बोजु पण ते संसारी जीवने अधिक दुःख थाय छे, ने बतावे छे, ते कर्म रोगथी भारे थयेला गृहवासमां आसक्त थएला मनवाळा असमंजस रोगथी | पीडा थतां अंते प्रणित्याग थाय छे. ते विचारीने अने पाछो तेमनो उपपात तथा च्यवन (देवता जन्म मरणने बदले उपपात च्य-8 वन कहेवाय छे.) ते कर्मनुं संचित जाणीने एवं करवू जोइए के जेथी उपर बतावेल गंड (गुमडां) विगेरे १६ रोग तथा मरणनो तथा उपपातनो संपूर्ण अभाव थाय, बळी मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योगथी मेळवेल कर्मनो 'अबाधा' काळनी मुदत पछी उदय थाय छे. त्यारे तेनो परिपाक (अनुभव) थाय छे. तेज शरीर तथा मन संबंधी दुःख उत्पन्न करे छे, ते विचारीने तेने जड मुळथी काढवा प्रयत्न करवो जोइए; ते दुःखीओ दीनस्वरे रडे छे. विगेरे ग्रंथ (सूत्र) वडे ऊपपात. तथा च्यवन सुधी बताव्या छतां " पण, तेनुं मोटापणुं बताववा जेनावडे माणीओने संसारमा निर्वेद (खेद) उत्पन्न थाय; माटे बोजु सूत्र कहे छे:R. तंभुणेह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तामेव सई असई अइअच्च उच्चावय SPRICENGERIKHABAR नवनववा बर Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्र ॥६५५॥ आचा०1४ फासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एवं पवेइयं संति पाणा वासगा रसगा उदए उदएचरा आगास गामिणो पाणा पोणे किलेसंति, पासलोए महब्भयं (सू० १७७) ॥६५५॥ (आचार्य शिष्यने कहे छे.) जे यथावस्थित (जेवो छे, तेवा) कर्मविपाकने मारी पासे तमे सांभळो. जेमके-नारकी, तिर्यच, नर, अमर, ए लक्षणवाळी चार गतिश्रो छे. तेमां नरकगतिमां, चारलाख योनियो, तथा २५ लाख कुल कोटिओ छे, अने ३३ सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति छे, त्यां परमाधार्मिक देवतानी करेली वेदना छे, तथा परस्पर त्यां रहेला नारकीना जीबो (कुतरा माफक) एक बीजाने दुःख दे छे, तथा स्वभाविक पीडा त्यां जे थाय छे, ते आपणाथी कही शकाय तेम नथी. जो के, थोडामां कहेवानी इच्छाथी कहेवाना विषयने पूरो न कहेवाय; तोपण, त्यांना कर्मविपाक कहेवाथी जेम, पाणीओने वैराग्य थाय; तेम श्लोकोवडे वर्णन करे छे. श्रवण लवनं नेत्रोद्धारं करक्रम पाटनं । ह्रदय दहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षण दारुणम् ।। कट विदहन तीक्ष्णापात त्रिशूल विभेदनम् । दहयवदनैः कर्पोरैः समन्त विभक्षणम् ॥१॥ कानने कापवा; आंखोना डोळा खेचीकाढवा, हाथपगने छेदवा; छातीने बाळवी; नाक छेदीनाखवू दरेकक्षणे भयंकर अवाज 10 करवो कटविदहन, तीक्ष्ण आपात, त्रिशुळथी भेदवू बळनां मोढांचाळा घोर-कक पक्षीपोथी वारंवार भक्षण करवू. आवी मोटी ४. वेदनाओ परमाधामीथी छे. %ERAवव 4-SC ACE Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ६५६॥ Da तीक्ष्णै रसिभिर्दिप्तैः कुन्तै विपमैः परश्वधै ; परशु त्रिशूलमुद्गरतामरे वासी मुदीभि ॥ २ ॥ वळी, देदीप्यमान तीक्ष्ण तलवारोथी तथा विषमभाला, परशुअध चक्रोवडे, तथा परशु त्रिशूळ मुद्गर, तोमरवासी मुपंढीथी दुःखदेछे. संभिन्नतालु शिरश्छिन्न भुजाश्छिन्न कर्णना सौष्ठाः भिन्नहृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षि पुटाः सुदुःखार्त्ता ॥ ३ ॥ एटले, ताळ - माथु जुदुं पाडे छे, तथा भुजा, कान, अने होठ छेदीनाखे; तथा छाती-पेट, आंतरडां भेदीनांखे; तथा आंखोना डोळा खेंची काढवाथी रांक नारकीना जीवो पीडायला छे. निपतन्त उत्पतन्तो विचेष्टमाना महीतले दीनाः नेक्षते त्रातारं नैरयिका कर्म्म पटलान्धाः ॥ ४ ॥ नीचे पडेला पाछा ऊछळता जुदी जुदी चेष्टा करता महीतळ (पृथ्वी) उपर दीन थइ रहेला कर्मना पडदाथी अंधा बनेला नारकीना जीवो कोइ रक्षकने जोइ शकता नथी. शार्दुल विक्रिडित, ॥५॥ छिन्द्यते कृपणाः कृतान्त, परशो स्वीक्षणे न धारासिना; क्रदन्तो विषवीचि (वच्छ ) भिः परिवृता संभक्षण व्यापृतैः ॥ पाटयन्ते क्रकचेन दारुवदसिन मच्छिन्न वाहुद्वयाः कुंभीषु त्रपुपान दग्धतनवों भूषासृ चान्तर्गताः जमराजा परशुनी नीक्ष्ण तलवार जेवी धारावडे ते रांकडा छेदाय छे, तथा विपना समूहथी भरेला . ( हडकायला कूतरा जेवा) करडवा माटे वींटायला पोकार करता रहे छे, तथा करवतीवडे जेम, लाकडं चीरे; तेम चीराय छे, तथा तलवारवडे सेना ने बाहु छेदी नाखे छे, तथा कुंभीमां राखीने गरम गरम तर पाय छे, तथा मूपमां (घालीने जेम सोनी सोनुं पीगळावे; तेम) घालीने सूत्रम , ॥६५६॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॐवन ॥६५७॥ शरीरमां वळता राखेला छे. - भृज्ज्यन्तेज्वलदम्बरीषहुतभुग ज्वालाभिराराविणो, दीप्तां गारनिभेषु वज्र भवनेष्वं गारके त्थिताः ॥ . दह्यन्ते विकृतोर्ध्व वाहुवदनाः दन्त आस्वनाः पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणा खाणायको नो भवेत् ॥ ६॥ ॥६५७॥ वळी, ते नारकीना जीवो वळता अंबरीय अग्निनी ज्वाळावडे पोकार कराता भुंजाय छे, तथा बळता अंगारावाळा बज्रभवन माफक अंगारामां ऊभा थयेला रांकडा मेवाळा ऊंचा हाथ करीने खोखरा अवाजवाळा रडता बळे छे. अने ते विचारा नारकीना जीवो शरणरहित थइने बधी दिशामां (आश्रय) आपनारने देखे छे, पण तेमने बचाववा कोइ समर्थ नथी; विगेरे, नारकीनां दुःख छे. तथा तियग्गतिमां पृथ्वीकायनी ७ लाख योनि छे, तथा बार लाख कुल कोटि छे. तेमने नीचली (पीडाओ) छे. स्वकाय-परकायनां शस्त्रोथी पीडा छे, तथा शीत-ऊष्णनी पीडा छे. तेज प्रमाणे अप्काय (पाणी) ना जीवोनी ७लाख | योनि, तथा कुल कोटि, तथा जुदी जुदी जातिनो वेदनाओ छे. अग्निकायनी ७ लाख योनि, तथा ३ लाख कुल कोटि, अने पूर्व माफक वेदना छे. वायुनी पण ७ लाख योनि, तथा ७ लाख कुल कोटि, अने ठंड-ऊष्णतानी जुदा जुदा प्रकारनी वेदना छे.181 प्रत्येक वनस्पतिनी दशलाख योनि, साधारण वनस्पतिनी १४ लाख योनि, अने बनेनी २८ लाख कुल कोटि छे. तेमां गयलो जीवदा | अनंतकाळ सुधी पण छेदन-भेदन मोटन विगेरेनी जुदी जुदी वेदनाने अनुभवे छे.' ' - विकळइंद्रिय, बेइंद्रिय, तीनइंद्रिय, 'चारइंद्रियनी बबे लाख योनि, तथा कुल कोटि ७-८-९ लाख अनुक्रमे छे, अने ते दरेकने भूख तरंस, ठंड-ताप, विगेरेथी थतुं दुःख आपणे प्रत्यक्ष जोइए छीए. तीर्यच-पंचेन्द्रियनी चारलाख योनि छे, अने जळचरनी कुल Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम PRECASSA ॥६५८॥ कोटि १२॥ लाख छे, पक्षीओनी कुल कोटि १२ लाख, अने चोपगांनी १० लाख, ऊर परि सर्वनी १० लाख, भुज-परिसर्पनी आचा०९ लाख छे, अने जुदी जुदी वेदना तिर्यचोनी जे छे, ते प्रत्यक्षज छे. का छे केः क्षुत्तड् हिमात्युप्ण भयार्दितानां, पराभि योगव्यसना तुराणां अहो ! तिरश्चामति दुःखिताना, सुखानु पंगः किलबार्तमेतद् ॥१॥ ॥६५८॥ भूख तरस, ठंड ताप तथा भयथी दुःखी थएला तथा पारकाना कयजामा रहेवाना दुःखथी सदा पीडायेला एवा तिर्यचो जे अति दुःखी छे, तेमनामां सुखनो अनुसंग शोधयो ने तो निश्चे एक वार्ता मात्र छे! (अर्थात् सुखतो लेश पण नथी) विगेरे छे. मनुष्य गतिमां पण १४ लाख योनि तथा १२ लाख कुल कोटि अने आवी रीतनी वेदनाओ छे. दुःखं स्त्री कुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां बालत्वेचापि दुःखं मललुलिततनुः स्त्रीपयः पानमिश्रं ॥ तारुण्येचापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोप्यसारः संसारे रे मनुष्या वदत यदिसुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ॥१॥ प्रथम मातानी कुखमां आ भवमा पहेलं दुःख मनुष्योने गर्भवासमा रहेवार्नु छे, अने जन्म्या पछी बालपणामां मलथी खरडायलं शरीर संबंधी तथा मान दूध पीवानुं दुःख छे, जुवानीमां पण (स्त्री पुरुष तथा दीकरा दीकरी मावाप सगांना) विरहनु दुःख छे, अने वृद्धावस्था तो असारज छे, (माटे डायो माणस मुग्ध जीवने पूछे छे के) हे मनुष्यो! जो तमने कयांय पण संसारमां थोडं पण सुख देखातुं होय तो बोलो! (अर्थात् संसार दुःख सागरज छे) बाल्यात प्रभृति चरोगै, दृष्टो भिभवश्च यावहिह मृत्युः शोक वियोगायोगै, दर्गत दोपैश्च नैकविधैः ॥२॥ बालपणमांथीज रोगोबडे डंखायलो, अने मृत्यु सुधी (मर्ण पर्यंत) शोक वियोग तथा कुयोग वडे तथा अनेक प्रकारना गरी वनवासस्वलन GAR Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६५९॥ बीना दोषो वढे पराभव रहेल छे. क्षुत्तृड् हिमोष्णानिल शीतदाह दारिद्र्य शोकप्रिय विप्रयोगेः दौर्भाग्य मौरून भिजात्यदास्य वैरुप्य रोगादि भिर स्वतंत्रः ॥३॥ भूख तरस ठंड ताप, पवन तथा ठंडो दाह तथा दरिद्रता शोक वहालांना वियोगथी, तथा दुर्भागीपणुं, मूर्खता, नीचजाति, तथा दासपणुं, कुरुप, तथा रोगोथी, आ मनुष्यदेह सदा परतंत्र छे. देवगतिमां पण चारलाख, योनि, २६ लाख कुल कोटि छे, तेमां पण अदेखाइ, विषाद, मत्सर च्यवनभय, शल्य विगेरेथी | पीडायला मनवाळाने दुःखनोज प्रसंग छे. सुखनुं अभिमान तो, आभास, मात्र छे. कां छे केः देवेषु च्यवन वियोगदुःखितेषु क्रोधेर्ष्या मदमदनाति तापितेषु आर्या नस्त दिह विचार्य सं गिरन्तु यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति देवो, च्यवन, तथा वहालांना वियोगथी दुःखी छे, क्रोध, इर्ष्या, अहंकार, कामदेवथी अति पीडायला छे. तेथी हे आर्य ! (उत्तम) पुरुषो! अहीं कंइपण सुख वर्णववायोग्य होय ते विचारीने कहो; (विगेरे समजवुं . ) तेथी, आ प्रमाणे चार गतिमां पडेला संसारी जीवो जुदा जुदा रुपे कर्मविपाकने भोगवे छे तेज सूत्रकार बतावे छे. 'संति' प्राणीओ विद्यमान छे, तेओ चक्षुइंद्रियथी विकळ ते द्रव्यअंधा छे, अने सारा-माठा विवेकथी रहित भावअंध पण छे. तेओ नरक| गति विगेरेना द्रव्य अंधकारमां तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय, विगेरेना कर्मविपाकथी मळेला भावअंधकारमां पण रहेला (शास्त्रका ) वर्णच्या छे. 'किं च' वळी, तेवी, कुष्ठ (कोढ) विगेरेनी अधम अवस्थामां, अथवा एकेंद्रियनी, अथवा अपर्याप्त अवस्थाने एकवार अनुभवीने पाछु कर्म ऊदय आवतां तेमज, अवस्थाने वारंवार अनुभवीने ऊच-नीच तीव्रमंद दुःख विशेषना स्पर्शाने सूत्रम् ॥६५९॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अनुभवे छे. आ बधुं तीर्थकरे कहेलुं छे. ते कहे छे.- आ वधुं तीर्थकरे प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी कहेलं छे, माटे प्रवेदित छे.. आचाप तथा हवे पठी, कहेवातुं पण तेमनु कहेलुं छे. 'संति' जीवो विद्यमान छे. एटले, (वास धातुनो अर्थ शब्द, तथा कुत्साना अर्थमा * छे. माटे,) जेओ वास करे छे, ते वास ना (बोलनारा) भाषा लब्धि पामेला बेइद्रिय विगेरे जीवो पण छे. तेज प्रमाणे रसने सूत्रम ॥६६०॥ 18 अनुसारे जनारा ते कडवो-तीखो कषायलो विगेरे रसने जाणनारा एटले, मनवाळा संज्ञी-जीवो पण छे. (आ प्रमाणे संसारी ॥६६०॥ जीवोनो कर्मविपाक विचारीने महाभय जाणवो;) तेमज ऊदक-(पाणी) रुप-एकेंद्रिय जीवो छे. पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्थामां, तथा अदकमां चरनारा ते पोरा, छेदनक, लोडणक विगेरे त्रस जीवो छे, तथा माछलां, काचवा विगेरे पण छे. तेमज, स्थळ उपर जन्मनारा, अने केटलाक जळने आश्रये रहेला महोरग तथा पक्षीओमांना केटलाक, ते पाणीमां पोतानुं जीवन गुजारनारा जाणवा; 8 अने बीजां पक्षीओ आकाशगामी छे. आ प्रमाणे बधा प्राणीओ (पोतानाथी बीजां नवळां) प्राणीने आहार विगेरे माटे, अथवा मत्सर विगेरे माटे दुःख आपे छे. तेथी शुं समजवु ? ते कहे छे:-(हे शिष्य !) तुं अवधार! के, आ चौद रज्जुप्रमाण-लोकमां & कर्मविपाकना कारणे जुदी जुदी गतिमां दुःख तथा क्लेशनां फळरूप-महाभय छे. (पण तेमां मुख तो, कहेवामात्र छे.) शामाटे & कर्मविपाकथी महाभय छे ? ते कहे छे: बहुदुक्खा हु जन्तबो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेणा वह गच्छंति सरीरेणं पभंगुरेण अट्टे से 6 बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वइ एए रोगा बहू नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तवेएहिं एयं CANALORERA- वववववववर MSARAL Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥६६१॥ - RSHARGEOG पास मुणी! महब्भयं नाइ वाइज कंचणं (सू० १७८) . (गुरु कहे छे हे शिष्यो!) कर्मना विपाकथी आवेलां बहु दुःखो जे जीवोने छे, जेथी ते जाणीने तमारे तेमां अप्रमादवाळा थ. प्र. वारंवार आवो उपदेश केम करो छो? उ-कारण के अनादि भवना अभ्यासथी न गणाय, तेटला उत्तर परिणामवाळा इच्छामदन विषयोमां गृद्ध थयेला पुरुषो छे. तेथी पुनरुक्ति दोष लागतो नथी, हवे काम (कुचेष्टा) मा जे जीवो आसक्त छे, ते शुं मेळ वे छे, ते कहे ठे-बलरहित (निःसार) तुप (डीगरनां फोतरां) नी मुही समान औदारिक शरीर जे पोतानी मेळे भंग नाश ना स्वभाववाढं छे, तेना बडे सुख मेळववा कर्मनो उपचय करीने अनेकवार वध (मरण घात) ने मेळवे छे; म–कयो माणस आवा कडवा विपाकवाली संसारी वासनामां रति (आनंद) माने? ते कहे छे' जे मोहना उदयथी आर्त थयेल छे. अने कार्य अकार्यना विवेकने गणनो नथी, ते प्राणी जेना वढे बहु दुःख पमाय तेवा काम विषयोमा गृद्ध थाय छे, अथवा प्राणीओने कलेशरुप कृत्यने पोते रागद्वेषथी आकुळ बनेल बाळजीव प्रकर्षथी करे छे. अने तेवां पाप करवाथी तेना कर्मना फळरुप विपाकथी अनेकवार पोते वध पामे छे, (बुरे हाले मरे छे) अथवा पूर्वे वतावेला रोगो आवतां हवे पछी कहेवातां अकृत्यने वाळ (मूर्ख) जीव करे छे, ते वतावे छे-गंडमाळा कोढ क्षय विगेरे रोग आवतां ते रोगोनी वेदनाथी गभराइने तेने दर करवा माटे वीजा पाणीओने संतापे छे, लावक विगेरे पक्षीनं मांस खातां क्षय रोग मटशे, आवा कुवा क्योने सांभळीने जीववानी पोते आशाए प्राणीओने महा दु.खरुप अकार्यमां पण वर्ते छे, पण आम विचारता नथी, के पोतानां ४ करेलां पापोनां फळ ऊदयमां आव्या विना रहे नहि, माटे उदयमां आवेल छे, तथा कर्म शांत थतां ते उपशम (शांत) थाय छे, AAA%लवबलटर Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम पण प्राणीओने दुःखरुप चिकित्सा (उपाय) करवाथी फक्त नवां पापोज बंधाय छे, ते कहे छे, के हे शिष्यो ! विमळ विवेकरुप आचाई ज्ञान चक्षुवडे धारीने जुओ ! के के रोगोने दूर करवा चिकित्सा विधिओ समर्थ नथी. प्र०-'जो एम छे तो शुं कर? ॥६६२॥ उ-'अलं' हे शिष्य तु सारा नरसानो विवेकवाळो छे; माटे तारे एवी पाप चिकित्सानी जरुर नथी! किंच-वळी पाणीने दुःख देवारुप कृत्य बहु भयरुप होवाथी महा भय तरीके हे मुनि! तुं तेने जाण-(त्रण जगतना स्वभावने जाणे, माने ते मुनि छे) प्र-जो एम छे तो शुं करवू? उ-कोइ पण प्राणीने तुं हणतो नहिं; कारण के एक पण प्राणीने हणतां आठे प्रकारनां कर्मो बंधाय छे, अने तेनो क्षय न कराय तो संसार भ्रमण करावे छे. माटे महाभय छे, अथवा उपर कहेला रोगो बहु प्रकारे जाणीने कुवासना ने आश्रयी ते जाणवा, अर्थात् कामो (कुचेष्टाओ) पोतेज रोगरुप छे, एवं अतिशे जाणीने जेम आतुर बनेला कामचेष्टामां अंधा थएला जीवो वीजा प्राणीओने दुःख दे छे, (तेम तमारे न देवू) ए प्रमाणे रोग अने काम चेष्टामां आकुळ थयेला सावध अनुष्ठानमा प्रवर्तेलाने उपदेश आपवारुप महा भयरुप जीव हिंसा बतावीने तेवी हिंसा न करनारा गुणवान (मुनिराजो) ना स्वरुपने बताववा प्रस्ताव रचीने वतावे छे: आयाण भो सुस्सूस! भो धूयवायं पवेयइस्लामि इह खल्लु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं आभसेएण अभिसंभूया अभिसंजाया। अभिनिव्वुडा अभिसंवुड्डा अभिसंबुद्धा अभिनिकता अणुपुव्वेण SHRECORECASS ॥६६२॥ BR-बलबलमा ADODE Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ||६६३॥ महामुनी ( सू० १७९ ) हे शिष्य ! [भो अव्यय आमंत्रणना अर्थमां छे] हुं तमने हवे पछी जे कडीश, ते बरोबर जाणो, अने सांभळवानी आकांक्षा राखो ! (बीजी वार भो शब्द आ विषय महत्वनो छे एम बतावे छे ) के तमारे अहीं प्रमाद न करवो, हुं धृतवादने कहु छु आठ प्रकारना कर्मने धोइ नांखवा, ते धूत छे अथवा ज्ञाति [सगांना मोह]नो त्याग करवो, ते धूत छे. तेनो वाद (कथन) कहीश, ते तमारे एक चित्ते सांभळवो आना संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे के, (घुतोववायं पवेति) एटले आठ प्रकारना कर्मने अथवा पोताने | धोवानो उपाय तीर्थंकर विगेरे कहे छे, ते उपाय कयो छे? ते कहे छे (इइ) आ संसारमां [खलु वाक्यनी शोभा माटे छे] आत्मानो भाव ते आत्मता [आत्मपणुं] ते जीवनुं अस्तित्व छे, अथवा पोतानां करेला कर्मनी परिणति छे, तेना वडे आ जीव समूह छे, पण | अन्य लोकना मानवा प्रमाणे पृथ्वी विगेरे भूतोना कायाकारे परिणमवाथी जीवो बन्या नथी, अथवा प्रजापति (ब्रह्मा) ए बनावेल | नथी एटले तेवा तेवा ऊंच नीच कुळमां पोताना पूर्वना कर्म संचयथी मेळवेला शुक्रशोणीत [वीर्य लोही माताना उदरमां] एकत्र थवाथी अनुक्रमे मनुष्यनी उत्पति छे, तेनो आ प्रमाणे क्रम छे. -- सप्ताहं कललं विन्द्या, ततः सप्ताहमर्बुदम् अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि घनं भवेत् ॥ १ ॥ ते वीर्य लोहीनुं सात दिवसे कलल थाय, पछी अर्बुद थाय छे, पछी पेशी थाय, त्यार पछी घन थाय छे. तेमां ज्यांसुधी कलल थाय त्यांसुधी अभिसंभूत कहेवाय छे, पेशी थतां सुधी अभिसंजात कहेवाय छे, त्यार पछी सांगोपांग स्नायु शिर रोम विगेरे अनुक्रमे थतां अभिनिवृत्त छे, त्यारथी प्रभूत थतां अभिसंवृद्ध छे, अने धर्म श्रवणनी अवस्थामां आवतां धर्मकथा विगेरे निमित्त सूत्रम् ||६६३॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६६४॥ मेळवीने मेळवेल पुण्य पापपणाथी अभिसंबुद्ध जाणवा, त्यार पछी सत् असत्नो विवेक जाणनारा होय ते अभिनिष्क्रांत छे, त्यार आचा० पछी आचारांग सूत्र भणेला तथा तेनो अर्थ समजीने चारित्र पाळनारा अनुक्रमे प्रथम शिक्षक (शिष्य) गीतार्थ पछी क्षपक (तपस्वी) पछी परिहारविशुद्धि चारित्रवाळो तथा एकलविहारी जिन कल्पिक सुधी ऊंचे चढनारा मुनिओ बने छे. अने कोइ अभिसंबुद्ध पुरुष 3 सूत्रम ॥६६४॥ ४ दीक्षा लेवा तैयार थयो होय तो तेन पोतानां सगां जे करे ते कहे छे. तं परिकमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति! छंदोवणीया अज्झोववन्ना अकंदकारी जणगा रुयंति, अतारिसे मुणि [णय] ओहं तरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रसइ ?, एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि तिबेमि(सू० १८०) धूताध्ययनोदेशकः ६-१ जे तत्व स्वरुप जाणीने गृहवासथी पराङमुख वनीने महा पुरुषोए आचरेला मार्गे जवा ( दीक्षा लेवा ) तैयार थयो होय तेने माता पिता पुत्र कलत्र विगेरे मळतां ते सगां तेने रोइने कहे छे, के अमने तुं न त्यज, एम दया उपजावतां बोले छे, तथा वीजें शुं बोले छे, ते कहे छे, ताराछंद (अभिप्राय) ने अमे अनुकुल छीए, तारा उपर अमारो पूर्ण विश्वास छे, तेथी अमने न छोड, एम आनंद करीने ते सगां रहे छे, वळी आ प्रमाणे बोले छे, के "तेवो मुनि संसार तरी शकतो नथी के जे पाखंड (मुनिना बोध) थी ठगाइने मावापने त्यजीने दीक्षा ले." आम कहे, तो पण जेणे संसारर्नु तत्व जाण्यु छे, तेवो जे करे, ते कहे छे, जो के आ सगां मारा उपर पूर्ण प्रेमी छे, छतां पण ते खरे वखते शरण आपतां नथी, अर्थात् तेमनु शरण स्वीकारतो नथी, शा माटे आ शरण नथी ? ते कहे छे, ते गृहवास बधा तिरस्कारने योग्य नरकना प्रतिनिधि समान अने शुभद्वारने परिघ समान छे, तेमां कोण नामावल-15 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥६६५॥ डाह्यो माणस रमणता करे? वळी गृहवास बधा द्वंद्व (रागद्वेष विगेरेनां जोडलां) रुप छे, तेमां जेनुं मोह 'कपाट' घटी [ओर्छ थइल K गयेल छे, ते रति करे? [अर्थात् तेमनो मोह न करें] आ बधानो उपसंहार करे छे, के पूर्व कहेलुं ज्ञान हमेशां आत्मानी अंदर सूत्रम् स्थापी राखजो, एबुं सुधर्मास्वामी शिष्यने कहे छे. धृतअध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. ॥६६५॥ बीजो ऊद्देशो. प्रथम उद्वेशो कह्यो, हवे, बीजो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबध छे. गया उद्देशामां सगांनो मोह छोडवा सूचव्यु. ते जो, कर्मनुं विधुनन थाय; तो, सफळ थयुं कहेवाय; माटे कर्मनुं विधुनन करवा आ उद्देशो कहेवाय छे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं सूत्र छे. आउरं लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणितु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला (सू० १८१) लोक ते, मातापिता, पुत्र, कलत्र विगेरे स्नेहना संबधथी वियोग थतां पीडाय छे, अथवा तेमनुं वगडतां पीडाय छे, अथवा त त संसारो-जीवोनो समूह कामरागमा पीडातो होय; तेने ज्ञानवडे ग्रहणकरीने (समजीने) तथा पोतानां मातापिता विगेरेनो सबंध छोडीने तथा, उपशम मेळवीने ब्रह्मचर्यमां वसीने उत्तम साधु केवो होय ? ते कहे छे:-वसु ते, द्रव्य छे. ते द्रव्यवाळो अर्थात् 51 कषायरूप-काळाश विगेरे मळने दूर करी पोते वीतराग बने छे, अने तेथी उलटो, अनुवस सराग छे. अथवा वसु , साधु छे. बार-बल्कबाब Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRECISHA555 18. अने अनुवसु ते, श्रावक छे. तेमज, कयुं छे केःआचा० वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा; सरागो ह्यऽनु वसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपिवा; सूत्रम वीतराग ते वसु जाणवो, पछी ते जिन होय अथवा संयत [साधु ] होय, अने सराग होय, ते अनुवमु कयो छे, अथवा ॥६६६॥ बुढो अथवा श्रावक पण होय छे. 15/॥६६६॥ । तथा श्रुतचारित्ररुप-धर्म जाणीने पछी यथायोग्यपणे स्वीकारीने पण पछी केटलाक जीवो प्रबळ मोहना उदयथी तेवी भवितव्यताना योगे तेवा उत्तम धर्मने पाळवा शक्तिवान थता नथी, ते केवा छे ? उत्तर-कुशीला एटले खराव शील (आचार) वाळा छे, एटले जेओ धर्म पाळवामां अशक्त छे, तेथीज तेओ कुशीलवाला छे, एवा वनीने शुं करे छे? ते कहे छे:6 वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा, अणुपुट्वेण अणहियासेमाणा परीप्तहे दुराहियासए कामे ममायमाणस्स इयाणि वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए (सू० ५८२) करोडो भवे पण दुःखेथी मेळवाय, तेवो मनुष्य जन्म पामीने पूर्वे कदीपण न मेळवेल एवी संसार समुद्रथी पार उतरवा समर्थ नाव समान बोधि (सम्यक्त्व) मेळवीने मोक्ष वृक्षना बीज समान सर्व विरति लक्षणवाळू चारित्र स्वीकारीने पाछा कामदेवनो मार दुःखेथी निवारण थाय तेवो होवाथी, मन ढील थवाथी, इंद्रियोनो समूह लालचु थवाथी अनेक भवना अभ्यासथी मेळवेली SGGISEGISCUS Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA ॐ विषयनी मधुरताथी पवळ मोहनीय कर्मना उदयथी, अशुभ वेदनीयनो भाव एकदम प्रकट थवाथी, अयश-कीर्ति उत्कटपणे थवाथी, आचा० आयति (भविष्यनुं हित) ने तरछोडीने कार्य अकार्यने विचार्या विना महादुःखनो सागर स्वीकारीने वर्तमान सुखने देखनारा सूत्रम् ॥६६७॥ 3 कुलमां वर्तातो आचार नीचे नांखीने (उत्तम रत्नरुप) चारित्रने त्यजे छे !!! अने तेनो त्याग धर्मोपकरण त्यागवाथी थाय छे, ते 8 ॥६६७॥ द बतावे छे. वस्त्र ए शब्दथी क्षौमिक [सूत्रनां] कल्प (वस्त्र) लीधो छे, तथा पात्रां अने उननी कांबळ अथवा पात्रांनो नियोग तथा छ। रजोहरण ए धर्मोपकरणोने बेदरकारीथी त्यजीने कोइ साधु फरीथी देशविरति [श्रावकनां व्रत] स्वीकारे छे, कोइ तो फक्त सम्यक्का दर्शनज राखे छे, कोइ तो तेनाथी पण भ्रष्ट थइ जाय छे, (बटली जाय छे.) प्र० आQ दुर्लभ चारित्र पामीने पाछ केम तजी दे छे! उ-परीषदो दुःखे करीने सहन थाय छे, तेथी क्रमेकरीने अथवा सामटा परिषहो आवतां सहन न करी शकवाथी परिपहथी P भागेला मोहना परवशपणाथी दुर्गतिने आगळ करीने मोक्षमार्ग (उत्तम चारित्र) ने त्यजे छे!!! ते रांकडाओ भोगो भोगवा माटे । त्यजे छे, छतां पापना उदयथी शुं थाय ? ते कहे छे. विरुप कामोने पोताने वहाला मानी स्वीकारतो भोगना अध्ययवसायवाळो बनवा छतां, पोतानां अंतरायकर्मना उदयथी तेज क्षणे प्रव्रज्या मुक्या पठी अथवा भोगो प्राप्त थया पछी, अंतर्मुहर्त्तमां, अथवा कंडरीक राजर्षिनी माफक्र चारित्र मुक्या पछी एक 8 रात दिवसमां अपरिमाण (वधारे खावाने) लीधे शरीर भेदाय छे, आ प्रमाणे दुराचारना अध्यवसायथी, अथवा कुकर्म सेवीने शीघ्र मरण पामताने पोताना आत्मा साथे चारित्र पाळवारूप धर्म देहनो भेद थतां तेवु शरीर अने पचेन्द्रियपणुं अनंताकाळे पण SHISIACT ॐनवन Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६६८ ।। मतुं नथी, (अर्थात् निगोदमां अनंतकाळ भ्रमण करे छे.) एज विषयनो उपसंहार करवा कहे छे. 'एवं' ए प्रमाणे भोगनो अभिलापी अंतरायवाळा काम भोगो जेमां अनेक प्रकारनां विघ्नो रहेलां छे, तेने चाहे छे, ते भोगो (न केवळ ते अकेवळ तेमांधी थाय ते.) अकेवळीक, (द्वंद्व - जोडकांवाळो छे. जेमनो प्रतिपक्ष पण छे, अथवा असंपूर्ण भोगो छे. जेने मेळवावा पाछा संसारमां पढे छे, अथवा (कामभोगने वीजीना बदले त्रीजीनो अर्थ लइए; तो) ते कामभोगोवडे भोगना अभिलाषीओ अतृप्त बनीनेज ( वधारे भोगसुख लेवा जतां ) शरीरनो नाश करे छे. ज्यारे, ते रांको आम मरण पामे छे त्यारे, वीजा उत्तम साधुओ जेमनो मोक्षसमीप छे, तेवा क्यांय पण, कोइपण रीते कोइपण वखत चरणनो परिणाम आवतां लघुकर्मनां कारणथी दरेकक्षणे चडताभाववाळा बने छे, ते बतावे छे. अगे धम्मायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिन्नाय, एस पणए महामुणी, अइअच्च सवओ संगं न महं अस्थित्ति इय एगो अहं, अस्सि जयमाणे इत्थविरए अणगारे सङ्घओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खड़ ओमोयरियाऐ, से आकुट्टे वा ए वा लुंचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा पकत्थ अतहेहिं सदफासेहिं इय संखाए एगरे अन्न अभिन्नाय तितिक्खमाणे परिवए जे य हिरी जेय अहिरीमाणा (सू० १८३) सूत्रम ॥ ६६८ ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६६९॥ GRESS43SHREGIOSEKSE उपर बतावेला चडता परिणामवाळा साधुए चारित्र लीधापछी विशुद्ध परिणामथी तेमनो मोक्ष जलदी थवानो होवाथी श्रुतचारित्ररुप-धर्म पामीने वस्त्र-पात्र विगेरे धर्मोपकरण स्वीकारीने धर्मकरणमां समाधिाळा बनी परिषद सहन करीने सर्वज्ञ-प्रभुए है। सूत्रम् कहेला धर्मने पाळे छे, अने पूर्व बतावेलां प्रमादनां सूत्रो अप्रमादना अभिप्राय प्रमाणे कहेवां(अर्थात् ते दरेक प्रकारे चारित्र निर्मळ 8॥६६९॥ पाळी ज्ञान भणीने सम्यक्त्वमा दृढ थइ अशुभकर्मने क्षय करी नाखे छे.) कहां छे केःयत्र प्रमादेन तिरोऽप्रमादः, स्याद्वाऽपि यत्नेन पुनः प्रमादः। विपर्ययेणापि पठंति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशाद् विधिज्ञाः ॥ १॥ ज्यां प्रमादवडे सूत्र कहेवायां होयः त्यां विरोधि अप्रमाद होवाथी अप्रमादना वर्णननां सूत्रो अधिकारना वशथी विधिने जाण| नारा विपर्ययवडे भणे छे (कहे छे.) अथवा, अप्रमादनां कही ते यत्नवडे पाछां प्रमादनां (मत्रों) कहे छे:-ते उत्तम साधुओ वळी केवा थइने धर्म आचरे छे? ते कहे छे:-कामभोगोमां अथवा मातपिता विगेरे लोकमां मोह न करनारा, अने धर्मचारित्रमा एटले | तपसंयम विगेरेमां दृढता राखनारा धर्म आचरे छे. वळी, बधा प्रकारनी भोगाकांक्षाने ज्ञ-परिज्ञावडे दुःखरुप जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्यागे छे, ते भोगाकांक्षा त्यागवाथी जे गुणो थाय; ते कहे छे:--'एप' ए काम पिपासानो त्यागनारो प्रकर्षथी नमेलो H'प्रह' प्रणमेलो संयममां, अथवा कर्म धोवामां (लीन थयेलो) महामुनि बने छे, पण तेवा गुणथी रहित होय; ते महामुनि वनतो नथी, 'किंच' वळी, सर्व प्रकारे पुत्रकलत्रादिनो संवध, अथवा विषयाभिलाषनो मोह उल्लंघी (त्यागीने) शुं भावना भावे? ते कहे छे-"आ संसारमा पडतां मारु अवलंबन (आधारभूत) थाय तेवू कंइपण नथी; अने तेना अभावथी उपर प्रमाणे हुँ संसार-उद करवववववनर Hd Vखनारा धर्म आचरे छे. वळाय, ते कहे छ। 'एप' ए कामायणा रहित होय; ते महामानव Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६७० ४ रमा एकलोज टुं. तेम, हुं पण कोइनो नथी. आ भावना भावनारो जे करे; ते कहे छे. 'अत्र' आ मौनींद्र (जिनेश्वरना) प्रवचनमां आचा० । सावध-अनुष्ठान त्यागीने दश प्रकारनी साधु-समाचारी पाळवामां यतनावाळो थाय. 'कोऽसौ ?' कोण थाय? ते कहे छे. अनगार-प्रवन्जित दीक्षा लीधेलो होय; ते एकत्वभावना भावतो रहे. [ते पछीना सूत्रमा कहे छे. एटले, आ क्रिया जोडला मूत्रमा सूत्रम ॥६७०॥ 15 पण लेवी.] 'किंच' वळी, ते सर्व प्रकारे द्रव्यथी अने भावथी मुंड वनीने 'रीयमाणः' संयमअनुष्ठानमां वर्ते छे. प्रा-केवो बनेलो? उ-जे अचेल ते अल्प वस्त्रवाळो अथवा जिनकल्पिक संयममा रही योग्य विहार करनारो अंतप्रांत आहार खानारो बने छे, ४ ते पण वधारे प्रमाणमां नहि, ते कहे छे, अवमोदरी (ओछु भोजन) करे, अने उनोदरी तप करतां कदाच प्रत्यनीक [जैनधर्मना । & विरोधीओ जेओ ग्राम कंटक छे तेमनाथी पीडाय, ते वतावे छे, 'स' ते मुनि कुवचनोथी आक्रोश करायलो, दंडा विगेरेथी मरातो, 12 वाळ खेंची काढवाथी लुंचित करेलो (दुःखी थया छतां) पोते पोताना पूर्वकर्मथीज आ उदयमां आव्यु छे, एम मानतो सम्यक् प्रकारे 8 सहन करतो विहार करे; तथा आवी भावना भावे, ४ "पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुब्बिच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेदयित्ता मुक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" पोते पूर्वे दुष्ट रीते जे कृत्यो आचर्या होय, अने दुष्ट कृत्य कर्यापछी तेने आलोचना के तपश्चर्याथी खेरव्यां न होय, ते दुष्ट x पापो कांतो भोगवतां छुटे, अथवा तपश्चर्या करवाथी दर थाय छे. PERCREARSHRES वरबाट Aॐ5 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६७१ ॥ प्र० - वचनो वडे केवी रीते आक्रोश करे छे ? उ – 'पलिये 'ति ते साधुए पोते गृहस्थावस्थामां वणकर विगेरेनुं नीच कृत्य ( धंधो) कर्यो होय तो ते याद करीने तेनी निंदा करे छे, ते आ प्रमाणे - कोलिक ! हे साधु बनेला ! तुं पण मारी सामे वोले छे! अथवा जकार चकार विगेरे शब्दोथी बीजी रीते बोलीने निंदे छे ! ते हवे बतावे छे. – 'अतथ्यैः' तद्दन जुठां कलंकना शब्दोवडे तिरस्कार करे जेमके "तुं चोर छे! तुं परदार लंपट छे, आवां असत्य आळो जे साधुने करवा योग्य नथी तेनो कानमां स्पर्श थतां (साधुने क्रोध चढे) तथा कलंक चडाववा साये हाथ पग छेदवा विगेरेथी [दुख थाय तेवा समये] आ मारा पोताना करेला दुष्ट कृत्योनुं फळ छे एम चितवीने विगेरे अथवा आबुं चितवे. पंचहिँ ठाणेहिं छउमत्थे उप्पन्ने उवसग्गे सहइ खमइ तितिक्खड़ अहियासेइ, तंजदा - जक्खाइ अयं पुरिसे १, उम्मापत्ते अयं पुरिसे २, दित्तचित्ते अयं पुरिसे ३, मम च णं तब्भवे अणीयाणि कम्माणि उदिन्नाणि भवंति जन्नं एस पुरिसे आउसइ बंधइ तिप्पर पिट्टइ परितावेइ ४, ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगं तसो कम्मणिज्जग हवइ ५, पंचहि ठाणेहिं | केवली उदिन्ने परीसह उवसग्गे जाव अहियासेज्जा, जाव ममं च णं अहियासेमाणस्स वहवे छउमत्था समणा निग्गंथा उदिन्ने | परिसहोवसग्गे सम्मं सहिस्सति जाव अहियामिस्संति इत्यादि ॥ पांच स्थानमां छद्मस्थ साधुओ उपसर्गाने सहन करे क्षमा राखे क्रोध न करे ह्रदयमां शांति राखे, तेओ विचारे के आ | अपमान करनारो पुरुष यक्षथी वेरायलो छे, आ पुरुष उन्माद पामेलो छे. आ पुरुष अहंकारी छे, मारे ते भवमां वेदवानां कर्म सूत्रम् ॥६७१॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६७२॥ | उदीरणामां आववानां छे तेथी आ पुरुष मने आक्रोश करे छे, वांधे छे तपे छे पीछे छे, संतापे छे, पण मने सारी रीते सहन करवाथी एकांतथी सकाम निर्जरा थाय छे, केवली भगवान तेज पांच स्थानमां आवेला परीसह उपसर्ग सहन करे तेओ जाणे छे. | के, केवली ज्यारे आवां दुःख सहन करे छे, त्यारे घणा छद्मस्थ साधुओ निर्ग्रथो आवेला परीसह उपसर्गोंने तेमना दृष्टांतथी सारी रीते सहन करशे अने आत्मामां शांति राखशे आ उपरथी साधुए सार ए लेवो के कोइ गांडो थयेलो बीजाने मारे तो तेना उपर दया आवे छे. तेज प्रमाणे साधुने दुःख देनार उपर साधुने दया लाववी जोइएं. आ प्रमाणे जे परीसहो आवे ते अनुकूल प्रतिकूल एम वे भेदे छे. ते वन्नेमां रागद्वेष कर्या विना शांति राखीने विचरे, अथवा वीजी रीते परीसह वे प्रकारना बतावे छे. जे सत्कार अने पुरस्कार साधुने आनंदकारी छे अने प्रतिकूल मनने अनिष्ट छे, अथवा लज्जारूप याचना करवी अने अचेल वगेरे छे, अने लज्जा विनाना ठंड ताप विगेरे छे, ए प्रमाणे वन्ने प्रकारना परीसहोने सम्यक् प्रकारे सहन करतो विचरे, बळी चिच्चा सर्व वित्तियं फासे समियदंसणे, एए भो णगिणा वृत्ता जे लोगंसि अणागमणधम्मणो आणाए मामगं धम्मं एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिजं परित्राय यरियाएण विचिइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसएसए से मेहावी परिवए सुबिंभ अदुवा दुबिंभ अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किले सूत्रम ॥६७२॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा०13 संति ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिज्जासि तिबेमि (सू० १८४) धृताध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥६-२॥ सूत्रम् ॥६७३॥ बधा परिसहोनी थती वेदनाने सहन करी दुःखने अनुभवतो छतां चित्तमां शांति राखे. प्रश्न. केवो बनीने ? उ० सम्यक्प्रकारे दर्शन पामेलो ते समित दर्शनवाळो अर्थात् सम्यग्दृष्टी बने. ते परिसहोने सहन करनार साधुओ केवा होय ते कहे छे, ते निष्किंचन ॥६७३॥ निग्रंथ (भावनग्र) जीनेश्वरे वतावेला छे. आ मनुष्य लोकमां आगमन धर्मरहित छे. अर्थात् घर छोडीने दीक्षा लीधा पछी पाछा घेर जवानो इच्छा करता नथी, पण पोतानी दीक्षामां लीधेली प्रतिज्ञा पूरीपाळी पंच महाव्रतनो भार वहन करे छे, बळी जेनावडे आज्ञा कराय ते जिनेश्वरनुं वचन तेज मारो धर्म छे. तेथी ने बरोबर पाळे. अथवा धर्मनुं अनुष्ठान पूरेपुरु करे, अने विचारे के धर्म तेज मारे सार छे, वाकी वर्षा पारकुं [असार] छे, एथी हुँ तीर्थकरना उपदेश वडे विधि अनुसारे बरोबर क्रिया करुं प्र-धर्म केवीरीते आज्ञाथी पळाय ? ते कहे छे, 'एप.' आ बतावेलो उत्तर (उत्कृष्ट) वाद अहिं मनुष्योने कहेलो छे. 'किंच' वळी आ कर्म दूर करवाना उपायरूप संयममां समीप (अंदर) रत (लीन) थइने आठ प्रकारना कर्मने झोपतो [ दूर करतो] धर्मने पाळे वळीला से बीजुं शुं करे? ते कहे छे. जेनावडे ग्रहण कराय ते आदानीय (कर्म) छे. तेने जाणीने मूळ उत्तर प्रकृति- विवेचन करे, अर्थात् साधुपणुं निर्मळ पाळीने | क्षय करे, अहीं संपूर्ण कर्म दूर करवामां असमर्थ जे वाह्यतप छे, तेने आश्रयी कहे छे, आ जैनसिद्धांतमा केटलाक शिथील [ओछां] | कर्मवाळाने एकचर्या एटले एकल विहारनी प्रतिमा अंगीकार करेली होय छे, तेमां जुदी जुदी जातीना अभिग्रहो तप तथा चारित्र । 5PENS- SECREAM A -CARE Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - ॐासंबंधी धारण करेला होय छे. तथी प्राभृतिकाने आश्रयी कहे छे, ते एकाकी विहारमा बोजा सामान्य साधुथी विशेष प्रकारे अंतआचा० मांत कुलोमां दश प्रकारनी एपणा दोपरहित आहार विगेरेनी शुद्ध एपणावडे तथा सर्व एपणा ते वधी एपणा. आहार विगेरे ल सूत्रम संबंधी उद्गम उत्पाद तथा ग्रास एपणा संबंधी परिशुद्ध विधिए संयममां वतै छे, बहुपणामां एक देशपणाने कहे छे, ते मर्यादामां ॥६७४॥ रहेलो मेधावी साधु संयममां वः वळी ते तेवां वीजां फुलोमां आहार सुगंधवाळो के दुर्गधवाळो होय, त्यां रागद्वेप न करे वळी ॥६७४॥ त्यां एकलविहार करतां मसाणमां प्रतिमा ए रहेतां यातुधान (राक्षस) विगेरेए करेला शब्दो भयकारक लागे; अथवा वीभत्स पाणीओ दीप्त जीभवाळां वाघ विगेरे] बीजा जीवोने पीडे; संतापे छे अने तेने पण संतापे तो, तुं तेवा विषय-दुःखना स्पर्शाने | सम्यक्प्रकारे धैर्य राखीने सहन कर; एबुं सुधर्मास्वामि जंबूस्वामिने कहे छे: बीजो ऊद्देशो समाप्त थयो. त्रीजो ऊद्देशो कहे छे. बीजो उद्देशो कही त्रीजो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. बीजामां कर्मधोवानुं बताव्यु; अने ते उपकरण शरीरना। विधूनन विना न थाय. माटे हवे, उपकरण विगेरेनुं विधूनन कहे छे. आवा संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं सूत्र छे. एवं खु मुणी आयाणं सया सुयक्खायधम्मे विहूयकप्पे निज्झोसइत्ता, जे अचेले परिसिए तस्स 18 णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुत्तं जाइस्सामि सूई जाइस्सामि 06-KUMAR Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६७५॥ संधिस्सामि सीविस्सामि उकसिस्सामि बुकसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ सूत्रम् परिक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसग हूँ ४॥६७५॥ फाप्ला फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ अचेले लाघवं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सवओ सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिररायं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाण पास अहियासियं (सू० १८५) आ उपर बतावेलुं अथवा हवे पछी, कहेवातुं (जे ग्रहण कराय ते आदान.) ते कर्मन उपादान छे, अने ते कर्म उपादान । थवान कारण साधुने जोइतां धर्मउपकरणथी अधिक प्रमाणमा हवे पछी कहेवातां वस्त्र विगेरे छे, ते वधारानां वस्त्र विगेरेने मुनिए त्याग करी देवा. प्र-ते मुनि केवो होय छे.-उ-ते सदाए सारी रीते वर्णवेला धर्मवाळो छे. एटले, तेने संसार-भ्रमणनो डर होवाथी पोताने अर्पण करेलां महाव्रतनो भारवाही छे, तथा विधृत (क्षुणण) एटले, सारी रीते जेणे कल्प-(साधुनो आचार ) आत्मामां 8 फरस्यो छे, तेवो मुनि आदान-(कर्मने) खेरवशे. 60%AROCHECOGEबावर Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE सूत्रम् प्रः-ते वस्त्र विगेरे आदान केवां होय; के ते दर करवां पडे? आचा० उ:-(अल्प -अर्थमां नकार छे. जेमके-आ साधु अज्ञान छे. एटले, अल्पज्ञानवाळो छे, ते प्रमाणे अर्थ लेता) साधु अचेल । एटले, अल्प वस्त्र राखनारो संयममा रहेलो छे, तेवा साधु (भिक्षु) ने आq विचार न कल्पे के, मारुं वस्त्र जीर्ण थइ गयुं छे..? ॥६७६॥ । हु अचेलक थइश. मने शरीरचं रक्षक वस्त्र नथी; तेथी, ठंड विगेरेथी मारुं रक्षण केम थशे? तेथी हुँ विना वस्त्रनो थयो छ. तेथी कोइ श्रावकने त्यां जइ वस्त्र याचीलावू; अथवा ते जीर्णवत्रने सांधवाने सोय-दोरो याचीश; अथवा ज्यारे सोय-दोरो मळशे; त्यारे, जीर्णवस्त्रना काणांने सांधीश; फाटेलांने सीवीश; अथवा टुकां वस्त्रने जोडी मोटुं बनावीश; अथवा, लांबानो टुकडो फाडी सरखं अथवा, नानु बनावीश. एम योग्य बनावीने हु पहेरीश; तथा, शरीर ढांकोश. विगेरे, आर्तध्यानथी हणायलो अंतःकरणनी वृत्ति धर्ममां एकचित्त राखनार आत्मार्थी साधुने वस्त्र जीर्ण थवा छतां, अथवा होय नहीं; तोपण भविष्य संबंधी (चिंता) न थाय. अथवा सूत्र जिनकल्पीओने आश्रयी कहेलं छे. एम व्याख्या करवी कारण के ते मुनिओ अचेल (वस्त्र रहित) होय छे. तथा तेमना हाथमांथी तेमनी तपोबळनी लब्धिने लोधे पाणीनु बिदु पण न गळतुं होवाथी तेओ पाणिपात्र कहेवाय छे, पाणि एटले, हाथ, अने हाथमाज भोजन लइने करे छे. तेमने पात्रां विगेरेनो सात प्रकारनो नियोग होतो नथी; [कारण के तेवो तेमनो अभिग्रह छ.] तथा, कल्पत्रय पण त्यागेल छे. फक्त, तेमने रजोहरण, तथा मुखवत्रिका (ओघो, अने मुहुपत्ति) मात्र होय छे तेवा अचेल जिन-कल्पीमुनिने उपर कहेल आध्यान वस्त्र फाटवा-सांधवा विगेरे संबंधी न होय. (कारण के, धर्मीवस्त्र OSHO Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६७७॥ P तेना अभावथी धर्म-फाटQ विगेरेनो अभाव छे. ज्यारे, धर्मी होय; त्यारे, धर्म शोधयो; ए न्यायनो उत्तम मार्ग छे. तथा जिन-कल्पी * मुनिने आवं पण न होय. के हुं बीजु नवु वस्त्र याचीश; ए बधुं पूर्वमाफक जाणवू. 18सूत्रम् वळी, जेने जिन-कल्पी जेवी लब्धि न होय; तेवो स्थविर कल्पि-साधु हाथमाथी पाणी विगेरेनू बिंदु नीचे पडे छे. तेथी,8॥६७७॥ ६ तेओ पात्रना नियोगयुक्त होय छे, अने वस्त्रनां कल्प प्रमाणे त्रणमांथी कोइपण एक वस्त्र होय; तेवो मुनि पण वस्त्र विगेरे जीर्ण है थवाथी के, नाश थवाथी नवु न मळे त्यां सुधी आर्तध्यान न करे; तथा, जे अल्पपरिकर्मी (निस्पृढी) होय; तेवाने सोय-दोरो है फाटेलाने सांधवा माटे पण शोधवान न होय, (जेने उपदेश माटे परोपकारनी विशेष लागणी करतां आत्मार्थ साधवा माटे एकातवास होय; तेवाने फाटेलु के, वस्त्र न होय; तेनी शुं परवाह छे ? जेमके: धैय यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्चिरंगेहिनी । सत्य सूनुरयं दया च भगीनी भ्राता मनः संयमः॥ शय्या भूमितल दिशोपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं । एते यस्य कुटुंविनो वद सखे कस्माद्भयं योगिनां ।। १ ।। धैर्य पिता, क्षमा माता, घणा काळनी शाति बहु, सत्य पुत्र, दया बेन, मन संयम भाइ छे, पथारी जमीनमा छे, दिशा वस्त्रो छे. ज्ञानअमृत भोजन छे, तेवा कुटुंबवाळा योगोने कोनो भय छे? एवं एक मित्र वीजा मित्रने पूछे छे. व अचेल अथवा वस्त्रवाळाने तृण (डाभना कांटा) वीगेरे लागतां शुं करे ते कहे छे. तेवो अचेलपणे रहेतां जीर्णवस्त्र आत-रौद्र [अप]ध्यान न थाय; अथवा आ थाय. ते अचेलपणे वर्तता; ते साधुने अचेलपणाना कारणथी कोइ गामडां विगेरेमा शरीरना रक्षणना अभावथी घासना संथारे मुतां घासना कांटानो कडवो अनुभव दुःख देनारो थाय; अथवा घास पोते खुचे तेवू होय; तो, बालवावलकर ARACTE Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम ॥६७८॥ ॥६७८॥ शरीरमां दुःख दे, तेवा समये साधु दीनतारहित मन राखीने तेने सहे. तेज प्रमाणे शियाळामां ठंडा देशमां वस्त्रविना ठंड सहेवी पडे; तथा, गरम देशमां उनाळामां वस्त्रविना तडको सहेवो पडे; तथा डांस-मच्छरोना डंख लागे. आ बधा परिसहो एकसाथे डांस-मच्छर, तथा घासना कडवा फरसनां दुःख साथे आवे छे. अथवा ठंड-ताप विगेरे परस्पर विरुद्ध दुःख छे. तेमांथी कोइएक अनुक्रमे आवे. (बहुवचननो सूत्रमा प्रयोग छे, तेथी जाण, के, | ते दरेक तीव्रमंद के, मध्यम अवस्थावाळो फरस छे.) ते हवे वतावे छे. विरुप [ बीभत्स ] ते, मनने दुःख देनार, अथवा जुदी जुदो जातना मंद विगेरे भेदना स्वरुपवाळा विरुपरुप जे फरसो छे, हूँ तेनाथी थतां दुःखो पडे; अथवा, ते दुःख आपनार घास विगेरेना स्पर्शी होय; ते वधांने चित्त स्थिर करीने दुर्ध्यान छोडीने सहन करे. मा-कोण सहन करे.-:-उपर बतावेल वस्त्ररहित अल्प-वस्त्रवाळो, अथवा अचलन-स्वरुपवाळो (प्रतिमाधारी) सम्यक्प्रकारे सहे. मा-शुं विचारीने सहे ? उ. जे लघु गुण छे तेनो भाव लघुता छे. ते द्रव्यथी अने भावथी वे प्रकारे लाघवपणुं छे. तेने जाणनारो समताथी परिसहो तथा उपसर्गाने सहे छे. आ संबंधे नागार्जुनीया कहे छे. “एवं खलु से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खय कारणं करेइ" ।। ए प्रमाणे उपकरणना लाघवपणाथी कर्मने क्षय करनारो तप निश्चयथी उत्तम साधु करे छे. ए प्रमाणे कहेला कर्म वढे भाव लाघव माटे उपकरण लाघवनो तप करे छे, ए कहेवानो सार छे. कब-ब-ब-नववार Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवा० ॥६७९ ॥ वळी ते उपकरणना लाघवथी कर्म ओछां थाय छे, अने कर्म ओछां थवाथी उपकरण लाघव मेळवतां तृण विगेरेना स्पर्शो सहेतां काय कलेशरूप बाह्य तप पण थाय छे. तेथी ते साधु सारी रीते सहे छे. आ मारुं कहेलं नथी, एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. के जे में कहां अने हवे पछी कहीश. ते वधुं भगवान महावीरे पोते प्रकर्षथी अथवा शरुआतमां कहेलुं छे. प्र - जो भगवान महावीरे कधुं छे. तेथी शुं समजबुं ? उ-- उपकरण लाघव अथवा आहार लाघव तपरूप छे. एवं जाणीने शुं करवुं ते कहे छे. द्रव्यथी क्षेत्रथी काळथी अने भावथी तेमां लघुता राखवी जेमके द्रव्यथी आहार उपकरणमां लाघवपणुं राखवु ( एटले जरूर जेटलांज खिवां) क्षेत्रथी वधां गाम विगेरेमां बोजारुप न थवं. काळथी दीवस अथवा रातमां अथवा दुकाळ विगेरे खराब वखतमां शांति | राखी तथा भावथी कृत्रिम अने मलिन विगेरे कुभाव त्यागवा ( अर्थात् पोते कष्ट सहन करीने मनमां कुभाव न करतां चारित्र | निर्मळ पाळवु तथा गृहस्थोने के बीजा जीवोने कोइपण रीते पीडाकारक न थबुं. ) सम्यक्त्व एटले प्रशस्त अथवा शोभन तत्व अथवा एक संगतवाळं (जेनाथी एकांत हित थाय तेवुं तत्व ते सम्यक्त्व छे. कं छे केः“ प्रशस्तः शोभनश्चैत्र, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुप सृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते " ॥ १ ॥ प्रशस्त शोभन एक संगतवाळो जे भाव धाय ते सम्यक्त्व छे (भावार्थ उपर आवेल छे.) आवुं सम्यक्त्वज अथवा समत्वज सारी रीते समजे विचारे, के पोते अचेल होय अने बीजो एक वस्त्र विगेरे राखनारो होय, तेने पोते निंदे नहि. कहां छे केः " जोsव दुवत्यतिवत्थो एगेण अचेलगो व संधरइ । ण हु ते हीलंति परं सव्वेऽवि य ते जिणाणार " ॥ १ ॥ सूत्रम् ॥६७९ ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६८०॥ SPECIRRECA+ जेथे वस्त्र धारण करे, त्रण वस्त्र धारण करे, अथवा एक वस्त्र राखे, अथवा अचेलक फरे, पण ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञामां छे, तेथी एक वीजाने निंदे नहीं. “जे खलु विसरसकप्पा संघयणधियादिकारणं पप्प । णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥२॥ जेओ जुदा जुदा कल्पवाळा छे, तेओ शरीर संघयण तथा ओछी वधती धैर्यताने लीधे छे तेथी एक बीजाने अपमान न करे,॥६८०॥ तेम ओछापण न माने, (एटले पोतानी शक्ति वधारे होय तो ओछां वस्त्रथी निभाव करे, पण वधारे राखनारने निंदे नहीं, तेम कारण पडतां वधारे वस्त्र राखवां पडे तो पोते दीनता न लावे के हुँ पतित छु. पण जरुर जेटली वारज मंदवाड विगेरेमां वधारे। वस्त्र वापरे.) सव्वेवि जिणाणाए, जहाविहिं कम्मखवणहाए; विरंति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं ॥३॥ ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां कर्मक्षय करवाने यथाविधि रहेला छे, पण तेओ योग्य विहार करता विचरे छे, एवं निश्चयथी पोते मनमा उत्तम साधु जाणे छे. अथवा तेज लाघवपणाने समजीने सर्व प्रकारे द्रव्यक्षेत्र काळ भाव विचारीने आत्मावडे सर्वथा नाम विगेरे (चार-निक्षेपाथी) सम्यक्त्वनेज सारी रीते जाणे. अर्थात् तीर्थकर गणधरोना उपदेशथी दरेक क्रिया बरोबर करे. आ वां अनुष्ठानो जेम तावने दूर करवा माटे तक्षक नागनां माथा उपर रहेल मणीरत्न लाववा रुप अशक्य उपदेश नथी; पण वीजा घणा उत्तम साधए. घणो काळ सुधी एवं उत्तम संयम पाळ्युं छे. ते बतावे छे के आ प्रमाणे ओछां वस्त्र अथवा बीलकुल वस्त्र विना रहीने घास CareCRECTURE 8 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥६८१॥ ६८१॥ 35 विगेरेना कठोर फरसोना दुःखोने सहन करनार महावीर ( बलवान योद्धा) पुरुषोए बधा लोकने चमत्कार पमाडनारा घणो काळ आखी जींदगी सुधी अनुष्ठान कर्य छे. तेज विशेपथी कहेछे. (चोराशी लाख, ने चोराशी लाखे गुणतां जे संख्या थाय; तेटलां वरसोर्नु पूर्व थाय छे.) तेवां घणां पूर्व सुधी संयम-अनुष्ठान पाळता मुनिओ विचर्या छे. पूर्वनी संरूखा ७०, ५६०००००००००० वर्षनी छे. आ वात रिखवदेव भगवानना वखतथी ते दशमा शीतळनाथ मुधी पूर्वेनां आउखा इतां; तेने आश्रयी छे. (आठ वर्ष उपरनी उमरना शिष्यने दीक्षा अपाय; अने तेनुं लांचे आयुष्य होय तेने आश्रयो छे.) त्यारपछी, श्रेयांसनाथ | भगवानथी वर्षनी संख्यानी प्रवृत्ति जाणवी; तथा भव्य जीवो जे मुक्ति जवाने योग्य छे, तेमने तुं जो, अने जे घासना कठोर फरसो विगेरे उपर वताव्या; ते तमारे सारी रीते सहेवा. जेम तेमणे सह्या; तेम, बीजा उत्तम साधुओ सहन करे छे. आ प्रमाणे जे उत्तम साधु सहन करे; तेने शु लाभ थाय ते कहे छे: आगयपन्नाणाणं किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कट्ट परिन्नाय, एस. तिण्णो मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि (सू० १८६) आगत ते मेळवेलं छे. प्रज्ञान जेमणे तेवा गीतार्थ साधुओ तप करीने तथा परीसहो सहीने कृश (पातळी) बाहु वाळा बने छे, अथवा महान् उपसर्ग तथा परीसह विगेरेमा तेओ ज्ञान मेळवेला होवाथी तेमने पीडा ओछी होय छे. कारण के कर्म खपाचवा ४ तैयार थयेल साधुने शरीर मात्रने पीडा करनारा परीसह उपसर्गों मने सहाय करनारा छे. एवं मानवाथी तेने मननी पीडा नथी कलर्स न Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम ॥६८२॥ 18 थती. तेज कर्जा छे के: "णिम्माणेइ परो चिय अप्पाण उण वेयणं सरीराणं । अप्पाणो चिअ हिअयस्स ण उण दुक्ख परो देइ ॥१॥ बोजो माणस आत्माने पीडा नथीज आपतो पण शरीरने दुःख आपे छे, पण आत्माना ह्रदयर्नु दुःख पोतार्नु मानेलं छे. पण ॥६८२॥ पारको ते दुःख आपतो नथी. शरीरनी पीडा तो थाय छेज ते वतावे छे. ज्यारे शरीर सुकाय अने पातळ थाय, त्यारे मांसने लोही सुकाय, तेवा उत्तम साधुने लुखो तथा अल्प आहार होवाथी पाये खलपणे परिणमे छे. पण रस पणे नहीं. कारणना अभावथीज थोडुज लोही अने तेज शरीरपणे होवाथी मांस पण थोडुज होय छे, तेज प्रमाणे मेद विगेरे पण ओछां होय छे. अथवा रुक्ष लुखं होय ते माये पातल (वायु करनार) होय छे. अने वायु प्रधान थवाथी मांस अने लोहीनुं प्रमाण ओछुज होय छे. तथा अचेलपणुं होवाथी शरीरने घासना कठोर फरस विगेरे थतां शरीरमां दुःख थवाथी पण मांस अने लोही ओछां थाय छे. संसारश्रेणी जे रागद्वेषरुप कषायनी संतति छे, तेने शांति विगेरे गुणो धारीने विश्रेणी [ नष्ट ] करीने तथा समत्व भावपणु जाणीने ते प्रमाणे वर्ते जेमके जिनकल्पी कोइ एक कल्प [वस्त्र धारी कोइ बे, अने कोइ त्रण पण धारण करे छे, अथवा स्थविर में कल्पी मुनि मास क्षपण होय, कोइ पंदर दिवसना उपवास करनारो होय, तथा कोइ विकृष्ट अने कोइ अविकृष्ट तप करनारो होय, अथवा कोइ क्रूरगडु जेवो रोजनो पण खानारो होय, तो ते बघाए तीर्थकरना वचन अनुसारे वर्ते छे, अने परस्पर निंदा करनारा न होवाथी समत्वदर्शी छे, कमु छे केः सलवालवल Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥६८३॥ A 31 जोवि दुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ नहुनेहिलेति, परं सव्वेवि हु ते जिणाणाएः ॥ १॥ जे चे, त्रण, एक अथवा वस्त्र रहित निभाव करे, जे बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी परस्पर निंदा करता नथी तथा जिनकल्पिक, अथवा प्रतिमा धारण करेल, कोइ मुनि कदाचित् छ महिना सुधी पण पोताना कल्पमा भिक्षा न मेळवे, 8 तेवो उत्कृप्ट तप करवा छतां पोते रोज खानार क्रूरगडु जेवा मुनिने एम न कहे के हे भात खावा माटे दीक्षा लेनारा मुंड! ते खावा माटेज मात्र दीक्षा लीधी छे ! [एवं कहीने अपमान न करे.] न तेथी आ प्रमाणे समत्व दृष्टिनी प्रज्ञावडे संसार भ्रमण रुप कषायने दूर करी समता धारण करीने ते मुनि संसार सागर तरेलो छे तेज सर्व संगथी मुक्त छे, तेज सर्व सावध अनुष्ठानथी छुटेल जिनेश्वरे वर्णव्यो छे, पण बीजो नहिं. एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. & H०-हवे ते प्रमाणे जे संसार श्रेणीने त्यागी संसारसागर तरेलो मुक्त वरणव्यो तेवा उत्तम साधुने अरति पराभव करे के नहि? उ-कर्मना अचित्य (विचित्र) सामर्थ्यथी परिभवे पण खरी! तेज कहे छे.विरयं भिक्खु रायंतं चिररासियं अरई तत्थ किं विधारए?, संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दावे असंदीण एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुटाणे जहा से दिया पोए एवंते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि (सू० १८७) धूताध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ ६-३ ॥ ICTICA डवल Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६८४॥ . असंयमथी बचेल भिक्षाथी निर्वाह करनार तथा अप्रशस्त स्थान रूप असंयमथी नीकळी गुणोने उत्कृष्टपणे प्राप्त करवाथी उपर उपरना प्रशस्त गुण स्थान रूप संयममां वर्त्तता साधुने शुं स्खलायमान करें ? अर्थात् तेवा उत्तम साधुने अरति मोक्षमां जतां जतां अटकावी शके के ? उ. हा दुर्बळ अने अविनय वाळी इंद्रियो छे. तेने अचित्य मोह शक्ति अने विचित्र कर्म परिणति शुं न करे ? (अर्थात् कुमार्गे लइ जायज ) कं छे केः “कम्माणि णूणं घणचिक्कणाइ गरुयाई वइरसाराई । णाणहिअंपि पुरिसं पंथाओ उप्पदं णिति " ।। १ ॥ निश्चे कर्म घणां चीकणां वधारे प्रमाणमां वज्रसार जेवां भारे होय; तो, ज्ञानथी भूषित होय; तेवा पुरुषने पण सारा मार्गथी कुमार्गेइ जाय छे. अथवा आक्षेपमां आ 'किम्' शब्द छे तेनो परमार्थ आ छे के, अरति तेवा उत्तम साधुने धारी शके के ? उ. नज धारी शके ? कारण के, आ उत्तम साधु क्षणे क्षणे वधारे वधारे निर्मळ चारित्रना परिणामथी मोहना उदयने रोकेलो होवाथी लघुकर्मवाळो छे, तेथी तेने अरति कुमार्गे न दोरी शके; ते बतावे छे. क्षणे क्षणे विनाविलंबे संयमस्थानना चडता चडता कंडकने धारण करतो सम्यग्प्रकारे चारित्र पाळतो रह्यो छे. अथवा, चडता चडता गुणस्थानने पहोंचतो यथाख्यात - चारित्रना संमुख जतो होवाथी तेने अरति केवी रीते अटकावी शके ? (न अटकावे.) अने आवो साधु पोताना आत्मानोज अरतिथी रक्षण करनार छे. एम नहीं पण, वीजाओनी पण अरति दूर करनार होवाथी रक्षक छे, ते बतावे छे. वन्ने वाजुए जेमां पाणी छे ते द्वीप छे; ते द्रव्य, अने भाव एम वे भेदे छे ते द्रव्यद्वीपमा आश्वास सूत्रम ॥ ६८४॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६८५ ॥ (विश्रांति ) ले छे. तेथी ते आश्वास लेवाने माटे जे द्वीप होय; ते आश्वासद्वीप छे, ते नदी समुद्रना घणा मध्यभागमां [ नदीनी पहोळाइ विशेष होय तेमां बन्ने बाजुए पाणी वहेतुं होय अने वचमां खाली जग्या होय; तो, बेट कद्देवाय छे. तेज प्रमाणे समुद्रमां जग्या उपसेली होय तो वरसाद लीधे ते उपसेली जग्याना मैदानमां फलद्रुप जग्या थाय छे, त्यां] वहाण कोइ पण कारणे नदी समुद्रमां भांगी जतां डूबतां माणसो आश्रय ले छे. आ वेट पण वे प्रकारे छे. जे पखवाडीए अथवा महीने पाणीथी भराइ जाय ते संदीन कवाय, अने तेवो बेट जो भरतीना पाणीथी भराइ न जाय तो असंदीन कहेवाय. जेमके सिंहलद्वीप विगेरे छे। अने चहाणवाळा ते द्वीपनो आश्रय ले छे. अने पाणी विगेरेना उपयोग करे छे. अने ते बेटथी तेमने आश्रय मळे छे. तेवीज रीते उत्तम रीने वर्तता साधुने जोइने भव्य जीवो तेनो आश्रय ले छे. अथवा द्वीपने बदले दीप [ दीवो] प्रकाश आपनार लइए तो ते प्रकाशने माटे होवाथी प्रकाश द्वीप छे. अने ते सूर्य चंद्रमणि विगेरे असंदीन छे. अने बीजो विजळी उल्कापात विगेरेनो संदीन छे. [सूर्य चंद्र प्रकाश आपे पण ते प्रकाश स्थायी अने उपकारक होवाथी लोको आश्रय ले छे. पण तेवा गुणथी रहित विजळीनो प्रकाश नकामो छे अथवा दुःखदायी छे तेवीज रीते | कुसाधु अस्थिर चारित्रवाळो लोकोने धर्मथी भ्रष्ट बनावे छे.] अथवा घणां लाकडां एकठां करी सळगाव्याथी इच्छित रसोइ विगेरे | नाववामां उपयोगी होवाथी असंदीन छे. अने घासना भडका जेवो अग्निनो प्रकाश संदीन छे. [तेज प्रमाणे सुसाधु अने कुसाधुना दृष्टांत समजवां.] जेम आ स्थपुट विगेरेना बताववाथी हेय उपादेयने छोडयुं, गृहण करवुं, एवा विवेकने वांच्छनारा भव्य जीवोने खुल्लु बताववाथी ते उत्तम साधु उपयोगी छे. ते प्रमाणे कोइ समुद्रना अंदर रहेला माणीओने विश्रांति आपनार छे. तेज | सूत्रम् ॥६८५ ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम - 25- प्रमाणे ज्ञान मेळववा उद्यत थयेलो परीसह उपसर्गमां दीनता न लाववाथी असंदीन छे. ते साधु विशेष प्रकारे उत्तम वोध आप-10 आचा० वाना कारणे वीजा जीवोने पण उपकार माटे थाय छे. बीजा आचार्यो भावद्वीप अथवा भावदीपने बीजी रीते वर्णवे छे ते आ प्रमाणे भावद्वीप ते सम्यक्त्व छे. अने ते पार्छ । ॥६८६॥ ॐ जवान बताववाथी औपशमिक अने क्षायोपशमिक संदीन भावद्वीप छे, अने क्षायिक सम्यक्त्वने मेळवीने ससार भ्रमणनी हद आवी| & जवाथी प्राणीओने धैर्य आवे छे (के हवे आ दुःख अमुक काळ सुधीमुंज छे.) पण संदीन भाव दीप तो श्रुतज्ञान छे, अने असंदीन ते केवळज्ञान छे, तेने मेळवीने पाणीओ अवश्ये धैर्य मेळवे छे, अथवा धर्मने सारी रीते धारण करी चारित्र पाळतो छतो अरतिना वशमां ते साधु जतो नथी एवं वर्णन करतां कोइ वादी पूछे केकेवो आ धर्म छे के जेना संधानने माटे आ साधु उठ्यो छे ? तेनो उत्तर जैनाचार्य आपे छे. ' जेम आ असंदीन द्वीप पाणीथी न भींजायलो भागेलां वहाणना माणसो तथा वीजा घणा जीवोने शरण आपवाथी विश्रांति 8 आपवा योग्य छे, नेम आ जिनेश्वरे कहेलो धर्म कप ताप छेद निर्घटित एम चार प्रकारे परीक्षा करतां असंदीन द्वीप समान 8 आश्रय आपनार छे, [सोनानी परीक्षा कप लेवाथी सारो कप आपे, तापमां नांखवाथी कालं न पडे, पण विशेष चळकाट आपे, छीणीथी कपाता अंदरथी पण उत्तम जाति ओळखावे, तथा घडवाथी भांगी न जतां चीकणाशथी हथोडीना घा पडवा छतां विशाळ थतुं चाले. तेम जैन धर्मी जीवने कोइ तिरस्कार करे, संतापे, हाथ पग छेदे, घाणीमां घालीने पीले, अथवा अणघटतो अतिशय 4 मार मारे, प्राण ले, तोपण उत्तम साधु पोताना आत्मधर्मथी विमुख थतो नथी.] 4- वालाAASATERISR - Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ६८७ SAARCISHASHARACTECASI .अथवा कुतर्कवडे पोते गभरातो नथी. पण योग्य उत्तर 'आपवाथी प्राणीओने रक्षण माटे आश्वास भूमि छे. प्र-ते धर्म आर्य पुरुषोए कहेलो होवाथी ते प्रमाणे वर्तनारा शं बरोबर अनुष्ठान करनारा छे ? उ-हा, अमे कहीए छीए, IN 18 सूत्रम् प्र०-जो ने होय तो ते केवा छे ? उ.-ते साधुओ निर्मळ भाव चालु राखबा संयममां अरतिना प्रणोदक (दूर करनार) छे.18|॥६८७॥ 8 मोक्षनी समीपमा रही भोगनी इच्छा छोडीने धर्ममां सारी रीते उद्यम करे छे. आ प्रमाणे बधे समजवु. के तेओ पाणीओने दृणता नथी. तेम बीजां महाव्रत पाळनारा जाणवा. तथा कुशळ अनुष्ठान करवाथी सर्व लोकोना दयित (रक्षका) छे. तथा मेधावी एटले साधुनी मर्यादामा रहेला छे, पापना कारणोने छोडवाथी सम्यग् रीते | Bा पदार्थने जाणनारा पंडित साधुओ धर्म चारित्र पाळवा माटे उठेला छे.. | पण जेओ तेवु निर्मळ ज्ञान धरावता नथी, तेओ सम्यग विवेकना अभावथी हजु सुधी पण तेओ तेवू चारित्र पाळवा तैयार नथी. तेवा ज्ञान रहित साधुओने पूर्व वतावेला निर्मळ बोधवाळा आचार्य विगेरेए मुबोध आपीने ज्यांसुधी तेओ ज्ञाने करीने विवेकबाळा थाय त्यांसुधी पाळवा जोइए, ते बतावे छे. उपर बतावेली विधिए ओछं ज्ञान मेळवेला अस्थिर मति वालाने भगवान महावीरना धर्ममां सारी रीते तेओ न जोडाया होय; तो, सुवोधनां उपदेश वडे तेमनुं पालन करीने स्थिरमति वाळा बनाववा - अहीं दृष्टांत कहे : जेमके-द्विज ते पक्षी छे, तेनुं पोत (वच्छं) ते द्वीजपोत छे, ते वच्चाने तेनी मा गर्भना प्रसवथी लइने इडं मुके, त्यार-18/ ४ पछी, अनेक अवस्थाओ आवे; ते बधामा ज्यांसुधी ते बच्चुं पुरुं उडवायोग्य मजबुत पांखोवाळु थाय; त्यांसुधी पाळे छे: तेज प्रमाणे TERROR Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० मत्रम ॥६८८॥ PHICISHALICICIRCRATRO आचार्य पण नवा चेलाने दीक्षा आपीने तेज दिवसथी साधुनी दश प्रकारनी समाचारीनो उपदेश, तथा अध्यापन (भणाववावडे) ज्यांसुधी ते गीतार्थ थाय; त्यांसुधी पाळे; पण जे चेलो आचार्यना उपदेशने उल्लंघोने पोतानी इच्छा प्रमाणे स्वतंत्र विचरी कंइपण । क्रिया करे; तो, ते (लाभ मेळववाने बदले) उज्यन नगरना राजकुमारनी माफक दुःख पामे ते वतावे छे. | उज्यन नामर्नु नगर छे. तेमां जीतशत्रु नामनो राजा छे तेने बे पुत्रो छे. मोटा पुत्र धर्मघोप आचार्य पासे संसारनी असारता ॥६८८॥ समजीने दीक्षा लीधी. अनुक्रमे आचारांग विगेरे शास्त्रो भणीने तेनो परमार्थ समजीने जिनकल्पने स्वीकारवानी इच्छाथी बीजी सत्वभाव नाने भावे छे, ते भावना पांच प्रकारनी छे. (१) उपाश्रयमां (२) तेनी बहार (३) त्रीजो तथा चोथो शून्यघरमां, तथा पांचमी भावना मसाणमां छे, ते पांचमी भावनाने भावतो हतो. में ते समये मोटाभाइना प्रेमथी नानोभाइ खंचाइने, आचार्य पासे आवीने बोल्यो केः-मारो मोटोभाइ कयां छे ? साधुए का तारे शुं काम छे? तेणे का केः-मारे दीक्षा लेवी छे. आचार्य कयु:-तुं प्रथम दीक्षा ले, पछी तारो भाइ देखीश. तेणे दीक्षा ६ लीधी; अने पूछ्यु. मोटो भाइ क्यां छे ? आचार्ये कयु:-देखवानी शुं जरुर छे ? कारण के, ते कोइथी बोलतो नथी, अने ते 51 जिनकल्प धारण करवा इच्छे छे. नानाभाइए का:-तोपण, हुं तेने जोइश, घणो आग्रह करवाथी मोटोभाइ बताव्यो, ते चूप बेठेलो नानाभाइए वांद्यो. पछी, मोटाभाइ उपर घणो प्रेम होवाथी आचार्य ना पाडी. उपाध्याये रोक्यो; साधुओए पकडी राख्योः अने ते नानाभाइने बोल्या:-- ५ के आ स्मशानमा रहेवानु, तारे अमुक समय सुधी थोभवानुं छे. कारण के, तारा, जेवाने ए कठण अने विचारमां पडवानुं छे. नवाबनवलाBAR Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् " ॥६८९॥ ॥६८९॥ ASHASAAMARCICIES आयु समजाव्या छतां पण, तेणे काः-पण, तेज बापथी जन्म्यो छ (मारामां पण तेटलोज हींमत छे.) एवं ओळु लइने 5 मोहथी ते पण, तेमज मसाणमां मोटाभाइ माफक बेठो. मोटाभाइने देवीए वांद्यो, पण नवा साधुने न वांद्यो, तेथी अस्थिर मतिना कारणे ते देवी उपर कोपायमान थयो. देवताए पण तेना अविधिना कृत्यथी कोपायमान थइने लात मारीने तेनी वे 8 आंखोना डोळा बहार काढी नारुया. तेथी मोटोभाइ हृदयथीज (प्रेमथी) देवताने कहेवा लाग्यो, के आ अज्ञान छे, तेने शा माटे दुःख दीधं तेनी आंखो नवी है. बनाव. देवीए का जीवना प्रदेशोथी जुदा पडेला आ डोळा जोडाय तेम नथी, साधुए का नवा बनाव, तेमनुं वचन ओलंघाय Pा तेवू नथी, एम विचारीने देवीए तेज क्षणे चंडाडे मारेला एल [वकरा]नी आंखोना बे डोळा लावीने तेनी आंखो नवी बनावी. आ प्रमाणे उपदेशथी वहार वर्तनारने दःख थाय छे, तेम विचारीने शिष्ये हमेशां आचार्थनी आज्ञामा वर्तवू. ___ आचार्ये पण हमेशां परोपकारनी वृत्ति राखीने पोताना शिष्यो यथोक्त विधिए पाळवा तेज बतावे छे, के जेम पक्षीना बच्चाने मायाप पाळे तेम आचार्ये पण रातदिवस शिष्योने पाळवा अनुक्रमे वाचना आपबी, शिखामण आपवी, वधा कार्यमा धैर्यतावाला करवा के जेथी तेओ ते प्रमाणे वर्तीने संसारथी पार उतरवा समर्थ थाय छे. एवु सुधर्मास्वामि कहे छे. त्रीजो उद्देशो समाप्त. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६९०॥ चोथो उद्देशो कहे छे. त्रीजो उद्देशो कह्या पछी चोथो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां शरीर उपकरणनो ममत्व त्याग बताव्यो अने ते त्रण गौरवने धारण करनारने संपूर्ण न होय, तेथी ते गौरव त्यागवा आ उद्देशो कहे छे. तेना आ संबंधथी आवेला उद्दे| शानुं पल सूत्र आ छे. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्नेहिं तेसिमंतिए पन्नाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं नोत्ति, मन्नमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामा पगे निक्खमंते असंभवंता विज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववन्ना समाहिमाधायमजोसयंता सत्यारमेत्र फरुसं वयंति ( सू० १८८ ) उपर बतावेल पक्षीना बच्चाना वधवाना क्रमयीज ते शिष्यो पोताने हाथे दीक्षा आपला अथवा वडी दीक्षा आपेला तथा भणवा आवेला साधुओने दीवस अने रात्रे क्रमथीज भणावेला होय. मां कालिक मूत्र दिवसनी पहेली तथा चोथी पोरसीमां भणावाय छे. पण जे उत्कालिक छे ते संध्यासनी काळ वेळा छोडीने आखो दिवस रात गमे त्यारे भणाय छे. तेनुं अध्यापन आचारांग विगेरे क्रमथी कराय छे, अने आचारांगसूत्र भणाववानुं सूत्रम ।।६९०॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६९९॥ |त्रण वरसना पर्यायवाळाने छे. विगेरे क्रमथी भणावेला चारित्र लीधेला साधुओ होय छे, तेमने उपदेश आपेलो छे के, युग मात्र दृष्टिए जर्बु. काचवा माफक अंगने संकोची राखवां आ प्रमाणे शिखामण आपेला, अने भणावी तैयार करेलां साधुओ होय छे. प्रः — कोणे भणावेला छे. उ:- ते तीर्थंकर गणधर - आचार्य विगेरे महावीर पुरुषोए भणाव्या छे. प्रः - ते भणावनार केवा छे? उः – ज्ञानीओ छे. कारण के, तेमनो कहेलो उपदेशज असर करे छे. ( माटे, ज्ञानीनुं विशेपण आपल छे.) अने ते शिष्यो बन्ने प्रकारे प्रेक्षा पूर्वकारी छे. तेओ आचार्य पासे रहीने (प्रकर्षथी जणाय ते प्रज्ञान. ) श्रुतज्ञान भणे छे. कारण के, ते श्रुतज्ञानना प्रतापथीज नवो नवो बोध थाय छे, तेथी ते बहु श्रुत वनीने प्रवळ मोहना उदयने लीचे आचा ना सद्उपदेशने उत्कट मदथी दूर करीने उपशम छोडीने दुःखी थाय छे ने उपशम द्रव्य, अने भाव एम वे भेदे छे. द्रव्यथी उपशम ते, कतक नामनी वनस्पति (एक जातनुं बीज आवे छे. ते) तेने चुरीने जो गारावाला पाणीमां नांखेल होय; तो, पाणी गारो नीचे बेसतां निर्मळ थाय छे, भाव उपश्म ते, ज्ञान विगेरेथी ऋण प्रकारनुं छे. (१) ज्ञानवडे जे क्रोध न करे; ते ज्ञानउपशम छे. ते आ प्रमाणे आक्षेपणी विगेरे कोइपण प्रकारनी धर्मकथावडे कोड जीव शांति धारण करे ते, ज्ञानउपशम छे. (२) शुद्ध शम्यग्दर्शनथी तेवा क्रोधीने शांति पमाडे, जमके — श्रेणिक राजाए जे देवता अश्रद्वावाळो हतो, तेने वोध करीने शांत पमाड्यो. (पोताना दृढ सम्यक्त्वथी ते देवता श्रद्धावाळो थयो ) अथवा आठ दर्शनप्रभाव कोथी कोइ जीव संमती विगेरेथी शांत पामे छे, अने चारित्र - उपशम तो क्रोध विगेरेनो उपशम छे, तेनामां विनयथी नम्रता होय छे. मां केटला क्षुद्र साधुओ ज्ञानसमुद्रमां अंदरनुं रहस्य न जाणवाथी समुद्रना उपरज डुबकी मारनारा होय छे. तेओ उपर सूत्रम् ।।६९९ ।। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5- आचा० सूत्रम ॥६९२॥ ॥६९२॥ 5-55-ACCA--- कहेल उपशम छोडीने ते ज्ञाननो लेश हाथमां आवतां अहंकारी बनीने कठोरता ग्रहण करे छे (अहंकारी बने छे,) ते वतावे छे. परस्पर सूत्र तथा गाथा गणतां; अथवा अर्थ विचारतां एक बीजाने कहे छे. “जे तें का, ते अर्थ आ शब्दनो नथी. तेथी तुं जाणतो नथी. वळी. बोले छे के-मारा जेवा शब्दना अर्थनो निर्णय करवामा समर्थ कोइकज होय छे, पण वधा नहीं, "पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चित पुनरिदम् नः ॥ वादिनि च मल्लमुख्ये च मागेवान्तरं गच्छेत् ॥१॥ गुरुओने पूछेल, अने पोते पण आ निश्चय करेलो छे एबुं अमारुं आ कथन छे. तथा वादिओमां विद्वान्, अने सुभटमां महारा जेवो कोइकन बीजो हशे. बीजो साधु कहे छे के, खरेखर, हशे (पण) अमारा आचार्य तो, आ प्रमाणे कहे छे. तेथी ते फरीथी वोले छे के, ते आचार्य वोलवामां कुंठ [बुटा] जेवो बुद्धिहीण शुं जाणे ? तुं पण, पोपटनी माफक भणावेलो विचार कर्या 8 विनानो छे, आ प्रमाणे बीजा केटलांक वाक्यो ते दुष्ट बुद्धिए ग्रहण करेल थोडा अक्षरनुं ज्ञान धरावनार साधु बोले छे, नेथी एम जाणवू के, महान् उपशमनुं कारण जे ज्ञान छे, तेने विपरीतपणे परिणामतां ते आq बोले छे. कधुं छे के: “अन्यैः स्वेच्छारवित्तानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्न वायमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण"॥१॥ वीजाऔए इच्छानुसार रचेला कोइपण अर्थने श्रमथी जाणीने पोते जाणे के, संपूर्ण सिद्धांतनो पारंगामि होय; नेम, अहंकारवडे अंगोने खाय छे. [वीजा अपमान करे छे.] "क्रोडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः । शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा क्षुल्लको नयति" ॥ २ ॥ श्रीमंतोनी क्रीडा समान वस्तुने कुकडाना लावक समान जेवो बनीने पवित्र शस्त्रोने पण, हास्य कथा जेबी लघुताने क्षुद्र साधु लालबालवावलम्बन Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६९३॥ पमाडे छे. (उत्तम जातीनुं मोती जे श्रीमंतोनुं मन रीझावे; तेवा मोतीने न समजनार कुकडानुं बच्चु जुवारनो दाणो समजी लेवा जतां; कदर न थवाथी फेंकी दे छे. तेज प्रमाणे क्षुद्र साधु गंभीर सूत्रना परमार्थने न समजवाथी हांसीना वाक्य तरीके मानी ले छे.) विगेरे. अथवा बीजी प्रतिमा 'हेच्चा उवसमं अहगे पारुसियं समारूइंति' पाठ छे, तेनो अर्थ आ छे के—उपशम छोडीने बहु श्रुत वनेला केटलाक (वधा नहीं) कठोरताने स्वीकारे छे, तेथी, तेमने बोलावतो, अथवा पूछवा जतां कां तो, चुप रहे छे. अ थवा हुंकार शब्द बोलीने माथु विगेरे हलावीने जवाब आपे छे. मां रही आ वळी, केटलाक ब्रह्मचर्य जे संयम रूप छे, तेमां रहीने अथवा, आचारांगसूत्र भणीने तेनो अर्थ ब्रह्मचर्य चारांगना विषयने अनुसार अनुष्ठान करवा छतां पण तेनो तिरस्कार करीने तीर्थकरना उपदेश रुप आज्ञाने कंइक माने कंडक न माने; परंतु, सातागौरवनां बाहुल्यपणाथी तीर्थकरना वचनने बहु मान आपता नथी; पण शरीरनी बकुशपणाने अवलंबे छे. (शरीरनी शोभा करवामां वीतरागनी आज्ञा उलंवे छे.) अथवा, अपवादने आलंबीने वर्ततां उत्सर्ग मार्गनो उपदेश आपतां तेओ एकांत पकडे छे के, 'ते उत्सर्ग मार्ग जिनेश्वरनो कहेलो नथी.' हवे, समजवा माटे अपवाद बतावे छे. कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहियं; निरोगी भिक्षु (साधु) मांदा साधुनी समाधि माटे योग्य रीठे वेयावच्च करे. जे कारणे (रोगे) साधु मांदो होय; ते रोग दूर करवा आधाकर्मी आहार विगेरे पण लावी आपे. सूत्रम् ॥ ६९३ ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६९४।। प्र० - ठीक तेम हशे; पण कुशील साधुओ जेओ तीर्थकरना वचननी आशातना करे तेमने दीर्घ संसार थाय छे, तेमने थवानां भविष्यमा दुःखो केम बताव्यां नथी ? उ० - एज अमे बताव्युं, के जे शरीर शोभा विगेरे माटे कुशीलता सेवे छे, तेमने थवाना कडवा विपाक विगेरे सूचव्या तेनुं हितशिक्षानुं वचन गुरु पासे सांभळीने ते कुशीलीया साधुओ ते गुरुनेज कडवां वचन संभळावे छे. प्र० -त्यारे कुशीलीआ साधु शा माटे गुरु पासे सिद्धांत सांभळता दशे ? उ०—समनोज्ञ ( लोकमां संमत ) वनीने मान मेळवी अमे जोवन गुजारीशुं, आवा हेतुथी सिद्धांतना गुढ रहस्यना प्रश्नांना खुलासा माटेज शब्द शास्त्रादि ( व्याकरण विगेरे ) शास्त्रो भणे छे. अथवा आ उपायवडे लोकमां मानीता थडने अमे जीवीशुं, एटला माटेज केटलाक दीक्षा लइने, पछवाडे कुशीलीया बने छे. अथवा समनोज्ञ ते प्रथम दीक्षा लेतां विचारे के अमे उद्युक्त बिहारी वनीने संयम जीवितवढे जीवीशुं, अने दीक्षा लइ पाछ|ळथी मोहना उदयथी चारित्र बरोबर न पाळे, तेओ गौरवत्रिक (ऋद्धि रस साता )ना कारणे अथवा तेमांथी. कोइपण एकना कारणे ज्ञानादिक मोक्षमार्गमां सारी रीते वर्त्तता नथी, तेम गुरुना उपदेशमां वर्त्तता नथी, अने जुदी जुदी जातनी इच्छाओथी गृद्ध थ चित्तमां वळता गौरवत्रिकमां ध्यान राखीने विषयोमां रक्त बनी इन्द्रियोने स्थिर करवा रुप जे तीर्थकर विगेरेए पांच यमो [महाव्रतो] बतावेला छे तेने बरोबर न पाळीने पोतानी भेळे पंडित मानी बनीने आचार्य विगेरेए वीतरागना शास्त्र प्रमाणे प्रेरणा कर्या | छतां ते कुसाधुओ ते गुरुने कडवां वचन संभळावे छे। अने बोले छे के 'आ विषयमा तमे शुं जाणो " . कारण के जेवीरीते सूत्रना अर्थने व्याकरणने गणितने अथवा निमित्तने हुं जाणुं छं. तेवी रीते वीजो कोण जाणे छे? आ सूत्रम ।।६९४ ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ९५॥ प्रमाणे आचार्य विगेरेने कुसाधु कडवां वचन कहे छे.. अथवा धर्मोपदेशक तीर्थकर विगेरे छे. तेमने पण कडवां वचन कहे छे. ते बतावे छे. कोइ वखत ते साधु भूल करे, त्यारे आचार्य ठपको आपे त्यारे कुसाधु कहे, के तीर्थङ्कर अमारुं गळं कापवाथी वधारे बीजुं शुं कहेनार छे ? विगेरे अनुचित वचन बोले छे. अने विद्याना खोटा मदना अवलेपथ मदांध बनीने शास्त्र रचनार गणधर भगवंताने पण दूषण आपे छे. वळी, आचार्यो दूषण आपे छे, एटलुंज नहि; पण, वीजा साधुओने पण कडवां म्हेणां संभळावे छे. सीलमंता उवसंता संखाए रोयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया ( सू० १८९ ) 1 शील ते अढार हजार भेदवाळं छे, अथवा महाव्रतो पाळवानुं छे, तथा पांच इन्द्रियोनो जय करवानुं छे. कषायनो निग्रह छे, त्रण गुप्ति पाळवानी छे. एवं निर्मळ शीळ पाळे ते शीळवंत छे, तथा कपायने शांत करवाथी उपशांत छे. शंका-शीळवान ग्रहण करवाथी उपशांत तेमां समाइ गया. त्यारे फरी केम का ? उत्तर – कषायना निग्रहनुं प्रधानपणुं वताववा माटे, सम्यक्रीते जेनावडे कद्देवाय ते संख्या अथवा प्रज्ञा छे, तेना वडे | संयम अनुष्ठानमां पराक्रम करनारा आचार्यो होय; छतां, कोइ साधुना नवळा भाग्यथी सदाचार रहित ए आचार्यो छे. एवी निंदा करनारा, अथवा पछवाडे निंदा करनारा, अथवा मिथ्या दृष्टि विगेरे बोले के तेओ कुशील छे, एवं कहेतां पासत्था विगेरेनी आ चार्यने खोटां वचन कहेवा रुप आ वीजी मूर्खता छे. एटले, कुसाधु प्रथम तो, पोते सारा चारित्रथी रहित छे, अने पोते सारा चारित्र पाळनार उयुक्त बिहारी उत्तम साधुने निंदे सूत्रम् | ॥ ६९५ ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ପ es. * छे. आ तेमनी वीजी मूर्खता छे. अथवा, जे शीळवन्तो छे ते उपशांत छे. एवं बीजाए कहे छते, ते कुसाधु चोले के " ए घणो Kउपकार करनारा आचार्य विगेरेमां तमारा कहेवा मुजब क्या शील अने उपशांतता छे ?" आ प्रमाणे बोलता दुराचारी साधुनी दा आचा० बीजी मूर्खता थाय छे. पण, वीजा केटलाक साधुओं वीर्यातराय कर्मना उदयथी जो के, पोते पुरु चारित्र न पाळता होय; छतां । ॥६९६॥ पण वीजा उत्तम साधुओनी प्रशंसा करता रहीने पोते पण वीजाने सारा आचार बतावे छे. ते कहे छे: नियमाणा वेगे आयारगोयर माइक्खंति, नाणभट्टा दसणलूसिणो (सू० १९०) अशुभ कर्मना उदयथी सयमथी दुर थाय, अथवा लिंग मुकी दे, अर्थात् केटलाक साधुओ मोहना उदयथी चारित्र न पाळी शके, त्यारे कोइ साधुनो वेष मुकी दे, अथव। वेप राखे तो पण पोते साधुनो जेवो आचार होय, तेवो लोकोने बतावे छे. अने पोतानी निंदा करता कहे छे, के तेवो उत्तम आचार पाळवाने अमे समर्थ नथी, आकारणथी चारित्र न पाळ्यु, तेज तेमनी मूर्खता छे. पण वचन साचुं बोलबाथी बीजी मूर्खता थती नथी, तेओ एवं खोटुं नथी बोलता, " के अमे जे करीए छीए तेवोज अमारो आचार छे ” (पोतानी भूल कबुल करे छे.) वळी आम न बोले के ' हवे आ दुःखम काळना अनुभावथी बळ विगेरे ओछु। थवाथी मध्यम वर्तन एज कल्याण, कारण छे. हमणा उत्सर्गनो अवसर नथी ( आq खोटुं न बोले ) कयु छे केः "नात्यायतं न शिथिलं, यथा युञ्जीत सारथिः । तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः ॥१॥" न जोरथी, न धीरे, एम सारो हाकनार घोडा विगेरेने हाके ते हाकनारो डाह्यो गणाय, तथा घोडा पण ते प्रमाणे मध्यम &चाले तो ते योग वधे माननीय थाय छे. वळी: **--- वायरलवकरवाना - - Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥६९७॥ - जो जत्थ होइ भग्गो, औवास सी परं अविदंतो । गंतु तत्यऽचयंतो, इम पहाणंति घोसेति आचा० ।। __जे ज्यां भांग्यो होय तो ते वीजा अवकाशने न जाणतो अने त्यां जवाने असमर्थ होवाथी पोते पोतानी कुटेवने पण प्रधान । ॥६९७ बतावे छे. (आq कुसाधुनुं वर्तन छे, ते तेनी बेवडी मूर्खता छे.) -तेओ शामाटे आवा कुशीळनुं समर्थन करता हशे? उ०-सारा माठाना विवेकन जे ज्ञान छे, तेनाथी तेओ भ्रष्ट Hथयेल छे, तथा सम्यक्दनथी दर रही असत (खोटुं) अनुष्ठान करवा वडे पोते नाश पामेला छे, अने 'शंका उत्पन्न करावीने तेओ बीजाने सारा मार्गथी भ्रष्ट करे छे. बळी बीजा केटलाक पोते बाह्य क्रिया करवा छतां पण (अंदरनी श्रद्धा विना) पोताना आत्मानु। अहित करे छे, ते बतावे छे. नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति पुट्ठा वेगे नियति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतंपि तेसिं दुन्निवतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा पुणो पुणो जाइं पकम्पिति अहे संभवंता विदायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति पलियं पकथे अदुवा पकथो अतहेहिं तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्म ( सू० १९१ ) ते कुसाधुओ आचार्य विगेरेने श्रुत ज्ञान मेळववा माटे द्रव्यथी देखवा मात्र ज्ञान विगेरेना भाव विनय शिवाय नमवा छतां पण, तेओमांना केटलाक अशुभ कर्मना उदयथी संयय जीवितने विराधे छे. अर्थात उत्तम चारित्रथी आत्माने दूर राखे छे. बळी SAECA-%AE Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजु शुं छे ? ते कहे छे:-चारित्रमा अस्थिर मतिवाला त्रण गौरवना बन्धायला बंनी परीषहोथी फरसातां संयम अथवा साधु आचा० वेपथी तेओ दुर थाय छे. प्र०-शा माटे ? उ.-असंयम नामना जीवितना निमित्तान अर्थात् हवे, अमे सुखेथी संसारमा जीवीY, एम वीचारीने सावध अनुष्ठान सूत्रम 18 करीने संयमथी दुर थाय छे, तेवा जीवातुं सुथाय छे ? ते कहे छे. ते कुसाधुओ घरवासथी नीकळ्या छतां ज्ञान दर्शन चारित्रना लि मूळ उत्तर गुणमां कंइ पण खामी आववाथी तेने दीक्षा पाळवी मुश्केल थाय छे, तेवा भ्रष्ट साधुओमुंजे थाय; ते कहे छे (हुप अव्यय हेतुना अर्थमां छे.) जेथी असम्यग्अनुष्ठानथी दीक्षा छोडेला साधु बाळ बुद्धिवाळ। जे सामान्य पुरुषा छे, तेमनाथी पण . निंदाय छे. (ज्यां होय; त्यां तिरस्कार पामे छे.) वळी, तेओ संयम मुकवाथी कुवाना अरहट्टना न्याये वारंवार नवी जाति [ जन्म ] मेळवे छे. P -तेओ केवा छे ? उ०-अधःसंयम स्थानमा वखते रहेला होय; अथवा अविद्याथी नीचे [कुमार्गे]. वर्तता होयः छतां PSI पोते पोताने विद्वान मानता लघुताथी आत्माने उंचे चडावे छे. ( पोताने हाथे पोतानी स्तुति करे छे.) वळी, पोते थोडं भणेला होय; तोपण, मानथी उंचो बनीने रस अने साता गौरवनी बहुलताथी माने छे. के, हुं बहुश्रुत छु, अने आचार्य जे जाणे छे ते में M तत्वने थोडाज काळमां जाणी लीधुं छे. एवं मानीने आत्माने अहंकारी बनावे छे. ते आत्मश्लाघाथीज संतोष पामतो नथी; पण, वीजा उत्तम साधुओनी निंदा करे छे ते बतावे छे. उदासीन ते रागद्वेष रहित मध्यस्थ साधुओ घणुं भणेला होवाथी शांत होय छे, तेवा आचार्य विगेरे ज्यारे ते साधुनी भूल नावावरूनर Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥६९९ ॥ सूत्रम् पढे, त्यारे कहे तो, तेमनी पण निंदा करे छे अने बोले छे के, तमे तो, प्रथम कृत्य अकृत्यने जाणो; अने पछी बीजाने उपदेश आपजो. वळी ते कडं बोले छे ते सूत्र वढे बतावे छे. 'पलियं' अनुष्ठान छे तेना वडे तृण हार विगेरेथी बोले, (तुं आ तणखला जेवो छे.) अथवा कुंट, मंट, विगेरे गुणोथी अथवा मुखना विकार वगेरेथी कुचेष्टा करीने गुरुनुं अपमान करे, तथा खोटां आळ ४ ॥ ६९९ ।। चडावीने गुरुनो तिरस्कार करे. हवे समाप्त करतां कहे छे, ते वाच्य अवाच्य अथवा श्रुत चारित्र नामनो धर्म उत्तम साधु जे गुरु आज्ञामां रहेल होय ते सारी रीते जाणे. अने जे असभ्यवादमां बाळ साधु वर्ततो होय तो गुरु विगेरे ए तेने शिखामण आपवो ते बतावे छे. अहम्मट्ठी तुमंस नाम वाले आरंभट्टी अणुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजायमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसन्ने वियदे वियाहिए तिबेमि ( सू० १९२ ) अर्थ जेने हाय, ते अर्थी अने ते अधर्मनेा अर्थी ते अधर्मार्थी छे, एवा अधर्मार्थीने पण शीखामण देवाय छे, प्र० - ते अधर्मार्थी केवी रीते छे, ? उ० – ते बाळ छे. १० - शा माटे बाळ छे ? उ०- सावध आरंभमां वर्त्ते छे. प्र० - केवी रीते आरंभमां वर्त्ते छे ? उ० - प्राणीओने दुःख देवारूप वादोने बोलतो आ प्रमाणे कहे छे. "जीवो ने हणो” ए प्रमाणे बीजा पासे हणावी अने हणताने अनुमोदतो त्रण गौरवथी बन्धायलो रंधवा रंधाववानी क्रियामां प्रवर्त्तेला गृहस्थीओ आगळ तेमना पिडनो वांछक बनीने आ. प्रमाणे कहे छे. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार उमललावा ॥७००॥ 'आमां शुं दोप छे! कारणके शरीर विना धर्म बनी शके नहीं; माटे धर्मना आधाररुप शरीरने यत्नाथी पाळ, जोइए' का छे के. शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धर्मो, यथा बोजात्सदंकुरः॥१॥ PI धर्मथी जोडायलं शरीर प्रयत्नथी वचावg; कारणके जेम वीज होय, तो सारो अंकुरो थाय, तेम शरीर ( सारु ) होय, तो धर्म थाय छे, (त्यारे आचार्य ने शीखामण - आपे के हे भव्य !) तुं शा माटे एवं बोले छे ? - सांभळ ! धर्म छे, ते घोर भयानक छे, कारण के वधा आश्रवोनो तेमां निरोध छे, अने तेथी ते दुरनुचर छे, एवं तीर्थकर विगेरेए उदीरित (कहेलं) छे, तेवा अध्यवसायवालो तुं वन, अने एवा उत्तम संयम अनुष्ठाननी अवगणना जे करे छे (णं वाक्यनी चोभा माटे छे) अने सावध अनुष्ठान करे, ते तीर्थकर गणधरना उपदेशथी बहार जइ स्वेच्छाथीं वर्ते छे. प्र०-कोण एवो होय ? उ०-उपर बतावेलो अधर्मार्थी वाळ आरंभनो अर्थी बनीने प्राणीओनो घात करे, करावे हणनारने अनुमोदनारो धर्मनी अवगणना करनारो, तथा काम भोगमां खेद पामेलो (कामांध) विविध प्रकारे तर्द (हिंसा) करनारो (तर्द धातुनो अर्थ हिंसा छे) अथवा सयममा प्रतिकूल ते वितर्द छे. एवा स्वरुपवाळो वाळ साधु जिनेश्वरे कहेलो छे. एवं सुधर्मास्वामी पोताना शिष्योने कहे छे. के तुं मेधावी छे. माटे धर्मने जाण, बळी हवे पछीतुं पण हुं कहुं छु; ते बतावे छे. किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ यपरिग्गरं वीरायमाणा समुहाए अविहिंसा सुवया दंता पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे . RECECAD Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता ,सूत्रम् विभते २ पासहेगे समन्नागएहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरएहिं अवि७०१॥ ॥७०१॥ रए दंविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठियह वीरे आगमेणं सया परिक्कमिज्जासि तिबेमि ( सू० १९३) इति धूताध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ ६-४॥ केटलाक साधुओ तत्व समजीने सम्यग उत्थानथी तैयार थइ वीर माफक वर्त्तता पाछळथी प्राणीनी हिंसा करनारा थाय छे. म०-ते केवी रीते तैयार थयेल हता ? उ०-ते विचारे छे के हे भाइ! मारे आ स्वार्थमां तत्पर एवा माता पिता पुत्र कलत्र ल (स्त्री) विगेरे जेओ परमार्थ द्रष्टिए जोता अनर्थ रुप छे. तेमनी जोडे हुं शुं करीश ? कारण के तेओ मारुं कांइपण कार्य कर के IP रोग दूर करवामां समर्थ नथी, तेथी तेनावडे हुं शुं करीश ? एम जाणीने दीक्षा ले छे. अथवा कोइ दीक्षा लेनारने कोइए कयु. के हे भाइ ! रेतीना कोळीआ खावाजेवी निःसार दीक्षा लेवा बडे करीश? पण पूर्वना भाग्ये मळेलुं भोजन विगेरे (सुखेथी) भोगव द एम कहेतां ते दीक्षा लेनार वैराग्यथी रंगायलो होवाथी बोले, के हे बन्धो ! हुं आ भोजन विगेरेथी हवे शुं करीश ? में आ सं सारमा भमतां अनेकवार भोगव्यु, तो पण तृप्ति न थइ, तो हमणां आ भवमा शुं थवानुं छे ? ए प्रमाणे विचारता केटलाक पुरुषो । संसार स्वभावने जाणनारा दीक्षा लेवा तैयार थइने मावाप तथा बीजां सगांने तथा धन धान्य हिरण्य वे पगवाळां दास दासी तथा । चार पगवाळां पशु विगेरेने छोडवामां (सिंह माफक) वीर माफक आचरण करनारा बनीने योग्य रीते संयम अनुष्ठानमा तत्पर AAAEमनाला ATE Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचं निर्म 18थयेला होय छे, अने हिंसा त्यागी विहिस [दयाळ] तथा शोभन व्रत धारण करीने सुव्रत वनेला छे, तथा इन्द्रियो दमीने दांत छे, 15 आचा० आचा० द आq निर्मळ वर्तन करनारा छे. आना संबन्धमा नागार्जुनीया कहे छे: सूत्रम् । समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसूया अविहिंसगा मुव्वया दंता परदत्तभोइणो पावं कम्मं न करेस्सामो समुहाए । ॥७०२॥ ___ अमे आगार (घर) रहित अणगार थइशं; तेम, अकिंचन अपुत्र अप्रसूत (स्त्री विनाना ) दयालु सारा व्रतवाळा, इन्द्रि दमन 8 ॥७०२। ल करनारा गोचरीथी निर्वाह करनारा बनीने पाप कर्म नहीं करशं. एम जाणीने दीक्षा ले छे. [सुगम सूत्र होवाथी टीका नथी.] आत प्रमाणे प्रथम सिंह जेवा बनी दीक्षा ले छे, अने पछी दीन (रांक) शीयाळीया जेवा विहार करवामां ढीला बनीने त्यागेला भोगोनेश पाछा ग्रहण करी पतित थयेलाने तुं जो. प्रथम तेओ दीक्षा ले छे, अने पछी पापना उदयथी दीक्षा मुकी दे छे. [गुरुए पोताना M शिष्यने स्थिर करवा शिथिळतानो आवो दृष्टांत आपेल छे. भ-तेओ शा माटे दीन थाय छे ? उ०-तेओ इन्द्रियोना विषयो तथा कपायोथी परवश थवाथी वशात छे, तेवा शिथि-2 लने कर्मनो बन्ध थाय छे. ते कहे छे:सोइंदियवसट्टेणं भंते ! कइ कम्म पगडीओ बन्धइ? गोयमा! आउअवजाओ सत्त कम्मपगडीओ जाव अणुएरिअट्टइ, कोह वसट्टेणं भंते ! जीवे एवं तं चेव ॥ - गौतमनो प्रश्न-हे भगवन् ! कानने वश थइने जीव केटली कर्म प्रकृतिओ बांधे ? उ०-आयु छोडीने सात. प्र०-क्रोधने 18 वश थइने केटली ? उ०-एज प्रमाणे. आ प्रमाणे मान विगेरेमां पण समजबु, बळी ते ढीला साधुओ परीसह उपसर्ग आवतां BREAMBEGIMES Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७०३ ॥ कातर बने छे, अथवा विषयना रसीआ कातर (वीकण) बने छे. प्र० -- तेओ कोण छे ? अने शुं करे छे ? उ० – तेओ ढीला मनवाळा बनीने व्रतोना विध्वंसक बने छे, आवुं अढार हजार शीलांगवाळु ब्रह्मचर्य कोण धारी शके ! आवुं विचारीने द्रव्य लिंग अथवा भावलिंग त्यजीने जीवोना विराधक बने छे, ते लिंग त्यजेलानुं पछी शुं थाय छे ते कहे छे. (अथनो अर्थ पछी छे) केटलाक व्रत लइने भांगी नांखे छे, तेमने (पापना उदयथी) वखते अंतर्मुहुर्त्तमांज मरण आवे छे, केटलाकनी पापरूप निंदा थाय छे, पोताना साधु के वीजा साधुओमां तेनी अपकीर्ति थाय छे, ते कहे छे, ते आ पतित साधु मसाणना लाकडा जेवो भोगनो अभिलाषी दीक्षा ले छे, अने मुकी दे छे माटे तेनो विश्वास न करवो कारण के तेने अकर्त्तव्यनुं भान नथी ? कहां छे केः परेलोक विरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ आत्मानं यो न सघत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात् कथं हितः ॥ १ ॥ जे परलोक विरुद्ध अकृत्य करे छे, तेने दूरथी त्यजवो, जे आत्माने चारित्रमां स्थिर नथी राखतो, ते वीजाने हितकारक केवी ते थाय ? विगेरे समजबु. अथवा सूत्र वडेज तेनी अश्लाघा बताववा कहे छे, ते आ साधु वनीने विविध रीते भमतो साधुपणाथी भ्रष्ट थयेलो छे. वीप्सा वडे अत्यंत जुगुप्सा ( निंदा) बतावे छे. वळी, (गुरु शिष्यने कहे छे.) तमे जुओ, कर्मनी प्रवळता केवी छे ? के, जेमनुं नशीब फुटेलुं छे, तेवा उद्युतविहारी (उत्तम साधु) साथै रहेवा छतां पण, हजु तेओ शिथिल विहार बनी रह्या छे, तथा संयम अ| नुष्ठान वढे विनयशील बनेला साथे रहीने तेओ निर्दय बनेला पाप अनुष्ठान करनारा छे, तथा विरत साथै अविरत, द्रव्य, भूत साथे सूत्रम् ॥७०३ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम अद्रव्य भूत पापनां कलंकथी अंकित थवाथी एवा उत्तम साधुओ साथे वसतां पण सुधरता नथी. (अर्थात् जगत्मां सारा साधुओ नजरे जोवा छतां पण, ढीला साधु सुधरता नथी) आवा ढीला साधुने जाणीने शुं करवू ? ते कहे छे:-हे साधु ! तुं पंडित छे. ज्ञाता ज्ञेय छे, मर्यादामा रहेल मेधावी छे, विपय सुखनी तृष्णा तें दूर करी छे, तथा तुं वीर होवाथी कर्म विदारण करवामां शक्तिवान् छे, तेथी सर्वज्ञप्रणीत उपदेशना अनुसारे सर्वदा संयम अनुष्ठानमां वर्सजे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे: धृत अध्ययननो चोथो उद्देशो समाप्त. ॥७०४॥ ॥७०४॥ CHECEBLSAGE धूत अध्ययन पंचम उद्देशो. चोथो कहीने पांचमो कहे छे. तेनो आ संबंध छे. गया उद्देशामां कर्म दूर करवा त्रण गौरव छोडवानुं बताव्यु, अने ते कर्म है विधनन उपसर्ग विधूनन विना संपूर्ण भावने अनुभवतुं नथी, तथा सत्कार पुरस्काररुप सन्मानना विधूनन विना गौरव त्रिकनी विधुनना संपूर्णताने न पामे; एथी उपसर्ग सन्मानने विधूनन करवा आ उद्देशो कहे छे. आ संवन्धे-आवेला उद्देशाने आ पहेलं सूत्र छे. अस्वलितादि गुण युक्त उच्चार ते कहे छे: से गिहेसु वा गिहतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जणवयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरचणवयंतरे वा संतेगइया R Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७०५॥ जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वीरो अहियासए, ओए समिय- सूत्रम् दंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से 18/७०५॥ उटिएसु वा अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणंसु पवेयए संतिं विरइं उवसमं निवाण सोयं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सवेसिं पाणाणं सवेमि भूयाणं सव्वेसिं सत्ताणं सव्वेसि जीवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा (सू. १९४) ते पंडित मेधावी निष्ठित अर्थवाळो वीर साधु सदा सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश प्रमाणे वर्तनारो गौरवत्रिकथी अप्रतिवद्ध निर्मम निकिचन निराश एकाकी विहारपणे जीनकल्पी जेवो] गाम गाम विचरतो क्षुद्र तीर्यच नर, देवे करेला उपसर्ग परिसहोथी दुःखना स्पर्शो भोगवतो छतां निर्जरानो अर्थी बनीने सारी रीते सहन करे. १०-कइ जग्याए तेने तेवा परिसह उपसर्गो दुःख दे ? ते कहे छे. आहार विगेरे माटे घरमा जतां (उंच नीच मध्यम जा-31 तिनां घरो होय माटे बहु वचन सूत्रमा छे) तथा घरोना वचमा जतां तथा (बुद्धि विगेरे गुणोने खाइ जाय ते गाम) गाममां गामा| तरमां तथा कर विनानां नगरोमां अथवा अंतराळे जता थाय छे, तथा ज्या लोकोने रहेवानां स्थान ते जनपद छे, ते अवति । उपलवल " . जलाल Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७०६ ।। ( माळवो ) विगेरे छे, ते देशो साधुने विहार योग्य २५ देश छे ( ते आर्य देश छे बाकीना ३१९७४ अनार्य छे. ) नीचे टीप - मां वीजा सूत्रनो पाठ मुक्यो छे. समये साधुओने विचरवा योग्य क्षेत्रनी बन्धायली हद नीचे प्रमाणे हती. पूर्व दिशामा साधु साध्वीने मगध देश सुधी विचरखुं कल्पे, दक्षिणमां कोशंबी, पश्चिममां थुणा देश सुधी अने उत्तरमां जाब कुणाला देश आर्य क्षेत्र छे, तेनी बहार जनुं साधु साध्वीने न कल्पे, उपर बतावेल हदमां आर्य भूमिमां २५ || देश छे, ते जिनेश्वरे धर्म क्षेत्र तरिके वर्णव्या छे. ते देशोनी वचमांना भागमां साधु विचरे, अथवा गाम नगरना अंतराले अथवा गाम देशना वचमां तेज प्रमाणे नगर देशना वचमां अथवा उद्यानमां अथवा तेना आंतरे विचरतां अथवा जतां भवतां अथवा ते भिक्षुने गाम विगेरेमां रहेतां कायोत्सर्ग विगेरे करतां केटलाक पापरूप काळाशथी मलिन अंतःकरणवाळा जे माणसो लूपक (हिंसक ) होय ते साधुने दु:ख दे छे. (चार गतिमां भमता जीवोमां ) साधुने नारकी दुःख देवाने अशक्त छे. तिर्येच अने देवतानो उपसर्ग कोइकज वार थाय; तेथी मनुष्योथीजाये साधु ने उपसर्ग थाय छे. माटे, जन [ माणस ] शब्द लीधो छे. अथवा, जेओ जन्मे; ते जन छे, अने तेथी जन शब्दनो अर्थ *'पुरच्छिभेणं कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा जाव मगहाओ एत्तर, दक्खिणेणं कप्पर निग्गंथीण वा निग्गंथीण वा जाव कोसंबीओ एत्त, पच्छिमेणं जाव धूणाविसभ उत्तरेणं जाव कुणालाविसभो, ताब आरिए खित्ते, नो कप्पद तो ब अस्यां च आर्यभूमिकायां सार्धपञ्चविंशतिर्जनपदा धर्मक्षेत्राण्यर्हद्भिरुक्तानि || सूत्रम ॥७०६। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यच नर, अने, अमर लीधो छे. एटले, साधुओने विहार विगेरेमां आ त्रणे अनुकूळ तथा प्रतिकूळ एक अथवा बन्ने प्रकारे उपआचा० सग करे छे, तेमां देवताना उपसर्ग चार प्रकारना छे. (१) हास्यथी. (२) द्वेषथी. (३) विमर्शथी. (४) प्रथक विमात्रथी छे. तेमां सूत्रम् ॥७०७॥ प्रथमनो क्रीडामा तत्पर कोइ व्यंतर देव हास्यथीज विविध उपसर्गाने करे. जेमके-भिक्षा माटे आवेला नाना साधुओए भिक्षाना ७०७॥ लाभने माटे पलल विकट तर्पण विगेरेथी याचता व्यंतरने मळ्या. पछी, भिक्षा प्राप्त थया पछी तेणे ते चीजो मागी; तेथी, तेल Mव्यतरने खुशी करवा क्यायथी ते चीज लावीने तेमणे आपी. ते व्यंतरे पण क्रीडामांज ते नाना साधुओ क्षीब। माफक वनव्या. I [२] द्वेपथी भगवान महावीरने महा महिनामा खरी ठंडमां तापसीनुं रुप धारीने व्यंतरीए पोताना चोटलामा झाडनी छालनु । वस्त्र पाणीथी भीजावीने तेना वडे पाणीनो ठंडो छंटकाव को. [३] विमर्शथी आ साधु धर्ममा दृढ छे के नहि ? ते जोवा अनुकूळ द & प्रतिकूळ उपसर्गोथी परीक्षा करे ते वतावे छे. जेमके-संविग्न साधुनी भक्त बनेली कोइ व्यंतरीए स्त्रीनो वेप धारीने उज्जड देव ळमां बेठेला साधुने अनुकूळ उपसर्गोथी चलायमान करवा धायु पण ते चलायमान न थवाथी आ दृढ धमीं छे. एम जाणीने भक्तिथी वांद्या. (४) जुदी जुदी रीते हास्यथी, द्वेषथी के, विमर्शथी कोइपण एकथी परिक्षा करे. जेमके-भगवान महावीरने संगम नामना एकज देवताए विमर्शथी शरु कर्या, अने द्वेषथी परिषद पुरा कर्या. एटले, आ उपसर्गमा प्रारंभ अने अंत जुदी जुदी रीते थाय छे. माणसथी पण साधुने चार प्रकारे उपसर्ग थाय छे. [१] हास्यथी (२) द्वेषथी, [३] विमर्शथी, (४) कुशीळताना सेवन माटे. तेमां हास्यथी देवसेनागणीकाये नाना युवक साधुने कुमार्गे दोरवा सताव्यो; त्यारे साधुए दांडाथी ताडना करी, वेश्याए राजा 8/ ५ पासे फरीयादी करी. नाना साधुने राजाए बोलाव्यो. युवके श्रीगृहनां दृष्टांतथी समजाव्यो.के हे राजन् ! तारो खजानो लुटे तो तुंल ASSASSAMACHAR REAKलाक - Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७०८ ॥ पण, शुं करे ? उत्तर - शिक्षा करूँ. साधुए कहुँ के:- तेवी रीते में घणी समजावी के, साधुओनुं धन निर्मळ शीळ छे. माटे, तुं दूर था. तेणे कोइ रीतेन मान्युं. माटे, जरा शिक्षा करवी पडि छे. (२) द्वेषथी सोमभूति ससराए गजसुकुमारने माथा उपर वळता अंगारा मर्या. [३] विमर्शथी चाणाक्य मंत्रीनी प्रेरणाथी चंद्रगुप्त राजाए धर्मनी परीक्षा करवा पोतानी राणोओ पासे धर्म संभळाबता साधुने उपसर्ग कराव्यो. साधुए पण बीजो कोइ उपाय छेवट सुधी न जोवाथी थोडी ताडनाथी दूर करी, राणीओए फरीयाद करी. साधुए राजना भंडारनो दाखलो आपी राजाने प्रतिबोध्यां [४] कोइ दुराचार माटे प्रार्थना करे. जेमके - इर्ष्यालु शेठना घरमा घणीना अभावमा कोइ पण संजोगोथी त्यां एक साधु रात रह्यो, तेमने चार जुवान स्त्रीओए घणीना अभावे वाराफरती तेमने आखी रात पजव्या; पण दरेक पहोरमां ते न लोभातां मेरु पर्वत माफक निश्चळ रह्यां तिर्यंचना पण भय, द्वेष, आहार अने वाळक रक्षणना माटे चार प्रकारेज उपसर्ग छे. (१) भयथी साप विगेरे चमकीने करडे छे. वेशथी भगवान महावीरने चंडकोशीए उपसर्ग कर्यो. आहारमाटे सिंह वाघ विगेरे मारे छे. अने अपत्य रक्षण माटे काकी [ ] विगेरे पीछे छे. उपर बताव्याप्रमाणे उपसर्ग करवाथी (उपर बतावेला अर्थ प्रमाणे जनो साधुओना लूपक ( दुःख देनारा ) छे. अथवा तेवा तेवा गाम विगेरे स्थानमां जतां दुःखना स्पर्शो आत्माने पीडनारा थाय छे. ते चार प्रकारना छे. जेमके आंखमां कणु विगेरे पडवाथी घट्टनता थाय छे। अने भमेलनी मूर्छा विगेरेथी पतनता [पडवुं] थाय छे. वायु विगेरेथी स्तंभनता ( रोकाण ) थाय छे अने ताळवा विगेरेमां अंगुळी विगेरे घालवाथी श्लेषणता ( ) थाय छे. अथवा वात पित्तश्लेष्म विगेरेना क्षोभथी कडवा स्पर्शो थाय छे. अथवा निष्किंचनपणाथी तृण स्पर्श डांस मच्छर तथा ठंड सूत्रम ॥७०८ | Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७०९।: ताप विगेरेना पीडारुप स्पर्शो कोइ वखत थाय छे. • तेवा कोइ पण परीसहो आवे तो तेना दुःखना स्पर्शोथी साधु पोते धीर बनीने सहन करे, मनमा चितवे, के आयी पण वधारे दुःखो नारकी विगेरेमां कर्मना अवंध्यपणाथी बांघेलां उदयमां आवतां पछी पण भोगववानां रहेशे, माटे हमणांज भोगवां ठीक छे, एम विचारी संहे. * केवो मुनि सहन करे ? उ०- कहे छे. अथवा उपर बतावेल साधु पोताना उत्तम गुणोथी परीसहो सहीने पोतानोज रक्षक छे. एम नहीं पण सुबोध वडे बीजाओनो पण रक्षक छे, ते बतावे छे. 'ओजः' एकलो राग विगेरेथी रहित सारी रीते दर्शनने पामेलो ते समित दर्शन छे अथवा सम्यग्दृष्टि छे, अथवा उपशमने पामेला दर्शनवाळो, अर्थात् दृष्टि ते ज्ञान छे. ते समित दर्शन छे. एटले उपशांत अध्यवसायवाळो जाणवो. 7 अथवा समताने पामेला दर्शनवाळो अर्थ दृष्टि लेतां समदृष्टि जाणवो एडले एवा उत्तम गुणोने धारण करनार साधु परीसहोने सहे अथवा (पछीना क्रीयापद साथै संबन्ध लेतां ) ते धर्मने कहे. म० शुं आलंबन लइने ? उ०- कहे छे. ते जंतुलोक ( जीवमात्र) उपर द्रव्यथी दया जाणीने धर्म कहे. [के ए जीवो को| पण रीते तरो] क्षेत्रथी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर तथा वीजी पण दीशाना विभागोमां (वधी जग्याए ) जोइने सर्वत्र दया करतो ते साधु धर्म उपदेश करे छे. काळथी आखी जींदगी सुधी दया पाळे छे. भावथी रागदूद्वेष त्यागीने मध्यस्थ पणे धर्म कहे छे, म० - केवी दीते कहे ? उ०- बधा जीवो दुःखना दुद्वेषी सुखना चाहनार पोताना आत्मानी माफक सदा जाणी लेवा कं छे के. सूत्रम् ॥७०९ ।। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1525- न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः ॥ एप सङ्ग्राहिको धर्मः, कामादन्यः प्रवर्तते ॥१॥ आचा० जे पोताने गमतुं नथी, तेवू वीजाने न कर. एज संग्राहिक (सार रुप) धर्म छे ते काम (इच्छाओ)थी जुदो प्रवर्त छे. (पोते दुःख भोगवीने पण बोजाने सुख आपy) विगेरे छे. ते प्रमाणे धर्मने कहेता पोते पण द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावना भेदोवडे अथवा 18 सूत्रम ॥७१०॥ आक्षेपणी विगेरे चार प्रकारनी कथाआ वढे पोते. पण जीव हिंसा जुठ चोरी कुसंग परिग्रह अने रात्री भोजन विगेरे अकार्यथी दूर ल रही धर्म पाळे. अथवा आ पुरुष कोण छे ? क्या देवने माने छे ? तेनो अभिप्राय केवा छे ? अथवा अभिप्राय विनानो छ ? एबुं P बधुं विचारीने सांभळनारनी योग्यता प्रमाणे व्रतो तथा संयम अनुष्ठानतुं फळ वतावे. -आवो धर्म कोण कहे ? उ०-वेद [जैन आगम] जाणनारो होय ते. आ संबंधां नागार्जुनीया आ प्रमाणे कहे छे. म जे खलु समणे बहुस्सुए वज्झागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालद्धिसम्पन्ने खेत्तं कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे कं वा. दरिसणमभिसम्पन्नो ? एवं गुणजाइए पभू धम्मस्स आघ वित्तए ॥ जे निश्चये साधु बहुश्रुत आगमनो जाण दृष्टांत हेतु वताववामां कुशळ धर्म कथानी लब्धिवाळो क्षेत्रकाळ पुरुष ए बधानो विचार करे के आ पुरुष कोण- छे. तेनुं मंतव्य शुं छे. ए प्रमाणे गुणोनी जातिए युक्त होय तेज धर्म कद्देवाने समर्थ छे. P ० -ते केवा निमित्तोमां धर्म कहे ? उ-ते आगमनो जाण पोताना तथा वीजा मतना सिद्धांतने जाणनारो,भावउत्थान वडे उठेला साधुओमां धर्म कहे. (वा शब्दनो संबंध बीजा पक्षनो प्रकाश करे छे.) एटले पार्श्वनाथ भगवानना मोक्ष गया पछी पण क्षी ३ तेमना साधुओ ते समयना रिवाज प्रमाणे चार महावत पाळता विचरे, तेमने समय बदलातां महावीर प्रभुना शासनमा रहेल गण GGEECHECON Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० लधरो पांच महाव्रतनो धर्म बतावे (जेम केशी गणधरना शिष्योने गौतमस्वामिना शिष्योनो मेळाप थयो,, अने वन्नेमा शंका थतां । बन्नेचा गुरुओ भेगा यतां गौतमस्वामिए केशीगणधरने पंच महाव्रतनो धर्म समजाव्यो. अने तेमणे स्वीकार्यो.) ॥७११॥ __अथवा पोताना शिष्यो जेओ विनयथी सांभळवा उभा थया होय तेमने नवु तत्व जाणवा माटे धर्म संभळावे, अथवा दीक्षा न 8/७११॥ प्रिलीधेला श्रावक विगेरे जेओ धर्म सांभळवानी इच्छावाळा बनी गुरु विगेरेनी सेवा (वैयावच्य ) करता होय; तेमने संसारथी पार M उतारवा गुरु धर्म कहे छे. मा-केवो धर्म कहे ? उ:-शमन [शांति अहिंसा] तेवा जीव दयाना धर्मने कहे; तथा जीव रक्षा करवा विरति समजावे. आ विरतिना सूचनथी जुठ विगेरेनी विरति जाणवी. एटले, पांचे महाव्रत समजावे; तथा उपशम क्रोधना जयतुं ४ स्वरूप वतावे; तेथी उत्तर गुणोनो पण उपदेश करे एम जाणवू; तथा निवृत्ति (निर्वाण) मोक्ष- स्वरुप बतावे. के, मूळ गुण अने &ो उत्तर गुण वरोवर पाळवाथी आ लोकमां बहु मान, अपूर्व शांति, अने पर भवमा स्वर्गनुं सुख, अने छेवटे मोक्ष मळे छे. तथा शोच एटले वधी उपाधीथी रहित पवित्र व्रतनुं धारवं, तथा मायानी वक्रता त्यागवाथी आर्जव छे, तथा पान स्तब्धपणुं| त्यागवाथी कोमळता छे, तथा बाह्य अभ्यंतर ग्रन्थ त्यागवाथी लाघव छे, ते केवी रीते कहे छे. ते बतावे छे यथावस्थित वस्तु जेवी रीते आगममां कही होय तेवी रीते ओलंध्या विना कहे छे. मा-कोने कहे छे ? उ:-दश प्रकारना पाणने धारनारा प्राणीओ ते सामान्यथी संझी पंचेन्द्रियोने कहे छे, तथा मुक्ति गमन योग्य जे भव्यपणे भूत रहेला छे, तेमने कहे छे. तथा संयम जीवितवडे जीवे छे. अने जीववानी इच्छावाला जीवो छे. तथा तिर्यच नर, अमर, जेओ संसारमा दुःख पामता रहेला छे. अने दयाने पात्र छे, तेवा बधा सत्वोने धर्म कहे छे, अथवा प्राणी भूत जीव सत्व ए चारे एक अर्थवाळा छे. तेवा जीवोने तेमनी योग्यता प्रमाणे R-CASHASTRA CREAKI Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम बा बलवान ॥७१२॥ - शांति विगेरे दश प्रकारनो धर्म पूर्वे बतावेलो छे, ते कहे छे. अने शांति विगेरे पदोमां बतावेल तत्वने विचारीने स्व अने परना उपकार माटे भिक्षु जेध कथानी लब्धिवाळो होय ते कहे छे. अने ते धर्म जेवी रीते कहे छे, ते बतावे छे. अणुवीइ भिवरखू धम्माइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइज्जा नो परं आसाइजा नो अन्नई। पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताइं आसाइजा, से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं 18/७१२॥ पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणं एवं से भवइ सरणं महामुणी एवं से उठ्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिवए संक्खाय पेसलं धम्म दिहिमं परिनिव्वुडे, तम्हा संगति पासह गंथेहि गढिया नरा विसन्ना कामकंता तम्हा लूहाओ नो । परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सवओ सवप्पयाए सुपरिन्नाया भवंति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, सेवंता कोहंच माणंय मायं च लोभं च एस तुट्टे वियाहिए तिबेमि (सू० १९५) ते मुमुक्षु भिक्षु-धर्मने पूर्वापर विचार करीने, अथवा सांभळनार पुरुषनी पूर्वा पर स्थिति विचारी जेने जे कथन योग्य होय, तेवो धर्म तेने कहे छे. (आ उपसर्ग मर्यादाना अर्थमा छे तेथी,) मर्यादावडे सम्यग् दर्शन विगेरेनुं जेवू अनुष्ठान होय, तेथी । ईशातना (विरुद्ध) करतां अशातना थाय छे माटे, तेवी अशातनाथी आत्माने दोषित न करे. अर्थात् जेम आशातना न थाय; तेम टू 5 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० धर्म कहे; अथवा आत्मानी अशातना बे प्रकारे छे. द्रव्यथी तथा भावथी, द्रव्यथी जेम, आहार उपकरण विगेरे द्रव्यनी काल अति पातादि संबंधी आशातना (बाधा) न थायः तेम कहे. (लोकोने जमवानो वखत होय; तेटली मोडी वार सुधी कथा कहेतो, लो सूत्रम् ॥७१३४ कोने शाम ४ कोने शरमथी न उठतां जमतां अंतराय थाय; अथवा शिष्योने गोचरी लावतां वहें वतां मोडं थतां, पोताने तथा बाळदृद्ध तपस्वी 8/७१३॥ समांदाने काळ उल्लंघतां बाधा थाय) ते आहार विगेरे द्रव्यमी बाधायी पोताना शरीरने पण पीडा थाय; तेथी भाव मलिन थतां भावाशातना पण थाय, अथवा कहेतां गात्र भंग रुप भाव आशातना न थाय तेम कहे; तथा सांभळनारनी हीलना (निंदा) न करे;1 51 के, सांभळनारने क्रोध चडतां आहार उपकरण अथवा साधुना शरीरनी कोइ पण रीते पीडा करवामां तत्पर थाय तेम कथा न करे, एथीज सांभळनारनी आशातना वर्जीने धर्म कहे, अथवा अन्य प्राणी भूत जीव सत्वोने वाधा न करे, ते मुनि पोतानी मेळे पोतानो रक्षक होवाथी अनाशातक छे. तेम बीजा क्रोधी न बनाववाथी पोते वीजानी आशातना करतो नथी. तेम कोइ आशातना करे तो तेनी अनुमोदना न करतो (बीजा) मराता पाणीओ भूतो जीवो सत्वोने पोताना तरफथी के पारका तरफथी पीडा न थायः | तेवो धर्म कहे. जेमके कोइ लौकिक कुमावचनीक पासत्था विगेरेने दान आपवानी प्रशंसा करे, अथवा कुत्रा तळाव बनाववानी प्र-- IC शंसा करे तो पृथ्वीफाय विगेरेने दुःख थाय, तेनो दोष साधुने लागे, तथा ते दाननी मिंदा करे तो ते बीना जीवोने दान न हो ID मलवाथी साधुने अंतराय कर्म बन्धावानो विपाक भोगववो पडे. का छे केः जे उदाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे उणं पडिसेहिति, वित्तिच्छे करिति ते ॥१॥ जेओ साधु थइने असाधुना दाननी प्रशंसा करे छे. ते सावध होवाथी साधुओने प्राणीओना वधनो दोष लागे छे. अने ते Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECERE दाननी निंदा करे तो दान लेनारनी वृत्तिनो छेद करे छे. आचार तेथी ते दान तथा कुवा तळाव संबंधी विधि निषेधमां मध्यस्थ भाव राखीने यथावस्थित शुद्ध दाननी प्ररुपणा करे, तथा 18 सूत्रम सावद्य अनुष्ठान- स्वरुप बतावे, (के आ पाप न करवां जोइए.) आ प्रमाणे उपयोग राखी बोलनारो साधु बन्ने दोषने त्यागनारो H ॥७ जीवोने आश्वास भूमि आपनारो थाय छे. आ बाबतने दृष्टांतथी समजावे छे. के पूर्व बतावेल असंदीन द्वीप (भरतीना पाणीथी न तु डुबतो) शरण रुप थाय छे. तेम आ महामुनी जीवोना रक्षणनो उपाय बताववाथी मारनारा जीवोनो रक्षा करनार तथा मरनार हिंस कने तेना पापी विचारथी बचाववाथी विशिष्ट गुण स्थान मेळववाथी शरण लेवा योग्य थाय छे. ते कहे छे.(पूर्वे कह्या प्रमाणे विधिए जे धर्म कथाने कहे, ते केटलाक जीवोने दीक्षा अपावे छे. केटलाकने श्रावको बनावे छे. केटलाकने सम्यग्दर्शनवाळा करे छे, अने केटलाकने मिथ्यात्वथी हठावी भद्र परिणामवाळा बनावे छे. -केवा गुणवाळो आ साधु द्विप माफक शरण योग्य थाय छे ? उ०-हवे पछी कडेवाता भाव उत्थानवढे संयम अनुष्ठान करतो उत्कृष्टथी तैयार होय; तथा ज्ञानादिकरुप मोक्षना मार्गमां स्थित होय तथा स्नेह रहित होय तथा रागद्वेष छोडवाथी अप्रतिबद्ध होय, तथा परिसह उपसर्गमां चलायमान न थाय, माटे अचळd छे. अने एक जग्याए पडी त रहेतां योग्य विहार करवाथी चल पण छे तथा संयमथी जेनी लेश्या [अध्यवसाय वहार न होय, ते अबहिर्लेश्यावाळो कहेवाय. एवो मुनी बनी रीते संयम अनुष्ठानमा वर्ते. पण कोइ जग्याए फसाय नहि, प्र. ते शा माटे संयम अनुधानमां वर्ते 'संरव्याय' एटले शोभन धर्मने विचारी अविपरीत दर्शन [दृष्टिवाळो थाय अथवा सदनुष्ठानरुप दृष्टिवाळो [दृष्टिमान] HTTECHERE बनावावर (ECGAR Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा बने, अने तेनुं कारण तेना कपायो कांतो शांत होय छे, कांतो क्षय होय छे, तेथी पोते परिनिवृत शीतीभूत (ठंडा स्वभावनो) छे, पण हूँ VI तेवा गुणवाळो न होय, ते मिथ्यान्टि जीव पेशल धर्मने पामतो नथी, ते बतावे छे, (इति अव्यय हेतुना अर्थमा छे) जेथी मिथ्या | SB सूत्रम् ॥७१५: | दृष्टिनुं विपरीत दर्शन होवाथी संग (मेम) वाळो मोक्षमां न जाय, तेथी तेना माता पिता पुत्र स्त्री संबंधी अथवा धन धान्य विगेरेथी 5॥७१५॥ थता संग विपाक ने तमे जुओ ! विवेकथी हृदयमां विचारो! सूत्रथीज संग कहे छे, ते संगवाळा नरो वाह्य अभ्यंतर ग्रन्थथी | गुंथायेला गृद्व थयेला ग्रन्थना संगमां इच्छित न यतां खेद पामता छता संग्रह निमग्न इच्छा मदन कामथी आकांत (अवष्टब्ध, खुचेला) बनेला मोक्षमा जता नथी. प्र-जो एम छे तो शुं करवं ? उ०-जे कामथी आसक्त (प्रेमी) चित्त थइने सगां तथ धन धान्य विगेरेमा मूर्छा पामेला काम संबधी शरीर मन विगेरेनां दुःखोथी पीडायेला छे, तेनाथी हे शिष्य ! तुं लुखा देखाता संग दूर करवा रुप संयमथी त्रास न पामांश, संयम अनुष्ठानथी कंटाळतो नहि, कारणके संयमना दुःख करतां प्रभूत (अतिशे) दुःख भोगवनारा संसार संगी जीवो छे. प्र०-क्या साधुने संयमथी न डरवानो सभव छे ? उ०-जे महामुनिए सारी रीते संसार मोक्षनां पूर्वे कहेलां कारणो जाण्यां छे, तेने आ संग रुप आरंभो अविगान (एक सरखा) पणे बधा माणसे आचरेल छे, अने ते प्रत्यक्ष होवाथी इदम् [आ) शब्दवढे बताच्या छे, ते आरंभो सर्वे प्रकारे जाणीता छे. H०-ते आरंभो केवा छे ? उ०-जेमां ग्रन्थना गुंथायेला विषण्ण चित्तवाला काम [इच्छा] ओना भारथी फसायेला मा-3 रणसो हिंसक बनेला अज्ञान मोहना उदयथी पाप करतां त्रास पामता नथी, पण जे उपर बतावेला आरंभोने ज्ञ परिज्ञावडे जाणीने ल. SAGECAPIERRECERE Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याक्यानपरिज्ञावडे त्यागे छे, तेणेज आरंभो सारीरीते जाणेला समजवा. आचा० -जे आरंभोनो परिज्ञाता छे, ते बीजुं शुं करे ? ते कहे छे. सूत्रम ते महा मुनी पूर्वे वतावेला उत्तम गुणवाळो छे, ते क्रोध मान माया लोभने त्यागीने मोहनीय कर्म तोडे; ('त्यागीने' ए अ॥७१६॥ 8 व्यय प्रथम लेवानुं कारण ए छे के ते क्रोध विगेरे चारे कपायो वधा भेद सहित त्यागवाना छे. अने क्रोधने प्रथम लेवानुं कारण, ॥७१६॥ है तेनो संबन्ध मान साथे छे. एरले मानीने क्रोध थाय छे. तथा लोभने माटे माया थाय, माटे प्रथम माया लीधी छे. अने बधा दोषांना आश्रय तथा सौथी मोटो अने छेवट सुधी रहेता होवाथी लोभने छेल्लो लीधों छे. अथवा क्षपणा ते कर्मनी निर्जरामां ते प्रमाणे क्रम छे. 'चकार' निश्चयथी जुदी जुदी अपेक्षा माटे समुच्य अर्थमां छे) तेथी ए प्रमाणे क्रोध विगेरे मोहने त्यागनारो संसार संतति (भवभ्रमण) थी तु? (छुटेलो) तीर्थकर विगेरेए वर्णव्यो छे. एवं सुधर्मास्वामि कहे छे. अथवा हवे पछीनुं पण तेओ कहे छे, ते वतावे छे. ____कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए सेहु पारंगमे मुणी, अविहम्माणे फलगावयही कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउत्तिबेमि धूताध्ययनम् (सू० १९६) ६-५॥ र औदारिक विगेरे त्रण शरीर अथवा चार घाति कर्मनो नाश करवा माटे ते मुनी संग्रामना मथाळे उभेलो वर्णव्यो छे. अथवा चि धातुनो अर्थ एकहुं करवानो छे ते एकठु थाय छे. ते कायने आयुष्यना क्षय सुधी घात करनारो बने, [कायानो ममत्व मूकीद RIESECRECAREES नार Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S आचा० ट्र कर्म तोडवा जींदगी सुधी प्रयास करे. तेज मुनि पारंगामी जाणवो.] सूत्रम् जेम संग्रामने मोखरे शत्रुना सैन्य सामे तिक्षण तलवारनी प्रभाथी उगता सुरजनी माफक विजळीना चमकारा माफक देखाव ॥७१७॥ करी जोनारनी आंखोमां चमत्कार करावनार अने पोतानुं कार्य करवा छतां पण,ते सुभट चित्तनो विकार (कोइ वखत) करे छे.तेज 5 प्रमाणे मरण समय आवे छते, स्थिर मनवाळो होय; तों पण, कोद वखत संजोगोने आधारे तेनो भाव वगडी पण जाय; तेथी कहे ५ छे के:-जे मरण काळे अनेक दुःख आवे छते पण मोह पामतो नथी. तेज मुनि संसारनो पारंगामी अथवा कर्मनो, अथवा पोते ८ हैलीधेला महाव्रतना भारनो पर्यंत पामी (छेवट सुधी पहोंचनारो विजयी) छे. वळी, जुदा जुदा परिषद उपसर्गो वडे हणयलो छतां, कंटाळो न खातां उचेथी पडीने अथवा गाईपृष्ठ (आपघात) अथवा बीजी कोइ पण रीते आपघात न करे. ___अथवा हणातां पण बाह्य अभ्यंतर तप तथा परिपह उपसर्गो वढे धैर्य राखी पाटीया माफक स्थिर रहे; पण, मरवाना भयथी| दीनता न लावे. तेज प्रमाणे काळे परवशता पमाडेलो (जीर्ण शरीर थतां) बार वरसनी संलेखना वडे आत्माने दुर्बळ करी पहाडनी है। गुफा विगेरेमा जग्या निरवद्य जोइने पादपोपगमन इंगित मरण अथवा भक्त परिज्ञा ए त्रणमांथी कोइ पण अवस्थावालं अणसण | करीने मरणनी अवस्था सुधी आयुनो क्षय थाय; अने शरीरथी जीव जुदो पडे; त्यां सुधी स्थिरता राखे आज खरी रीते मृत्युनो 8 समय छे. अथवा शरीरनो भेद छे. आज जीवनो विनाश छे. पण, सर्वथा जीवनो विनाश नथी; एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. EASURENCE .५२ ॐॐबर Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा आ प्रमाणे-पांचमो उद्देशो समाप्त थतां, धूतास्य नामर्नु छ? अध्ययन पण समाप्त थयु. (टीकाना श्लोक ८३५ छे.) छठं अध्ययन समाप्त छठा पछी सातमु अध्ययन कहेवू जोइए, पण ते विच्छेद जवाथी आठमुं विमोक्ष नामर्नु अध्ययन कहे छे. सूत्रम् ॥७१८ ॥७१८॥ अथाष्टमं विमोक्षाध्ययनम् सातमु अध्ययन महापरिज्ञा नामर्नु हतुं, ते विच्छेद जवाथी तेने मुकी छटा साथे आठमानो संबंध कहेवो जोइए, ते आ प्रमाणे छे. छठा अध्ययनमा पोतानां कर्म शरीर, उपकरण तथा गौरवत्रिक तथा उपसर्ग सन्मानना विधूनन वडे निःसंगता बतावी, पण जो है। अंतकाळे सम्यग निर्वाण थाय तोज ते सफलता पामे तेथी सम्यग निर्याण (समाधि मरण) बताववा माटे आ आरंभ करे छे. अधवा निःसंग विहारी साधुए अनेक प्रकारना परिसह उपसर्गो सहन करवा, एवं छट्ठामां बताव्यु, तेमां मारणांतिक उपसर्ग आवे छते अदीन मनवाला बनीने सम्यग् निर्याणज करवू, ए विषय बताववा आ आठमुं अध्ययन छे आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना उपक्रम विगेरे चार अनुयोग द्वार थाय छे, तेमां उपक्रम द्वारमा आवेलो अर्थ अधिकार के प्रकारनो छे, तेमां अध्ययननो पूर्वे कयो छे, अने उद्देशानो अर्थाधिकार नियुक्तिकार कहे छे. असमणुनस्स विमुक्खो, पढमे बिइए अकप्पियविमुक्खो; पडिसेहणा य रुटस्स, चेव सब्भावकहणा यः ॥२५३॥ तइयमि अंगचिट्ठाभासिय आसकिए य कहणा य%; सेसेसु अहीगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु ॥२५४॥ गलबालबखन Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P सूत्रम् आचा० उद्देसंमि चउत्ये, वेहाणसगिद्धपिटमरणं च । पंचमए गेलन्न, भत्तपरिना य बोधव्वा ॥२५५|| छटुंमि उ एगत्तं, इंगिणिमरणं च होइ बोधव्वं । सत्तमए पडिमाओ, पायवगपणं च नायब्वं ॥२५६॥ ॥७१९॥ अणुपुग्विविहारीणं, भत्तपरिना य इंगिणिमरणं । पायव गमणं च तहा अहिगारो होइ अट्ठपए ॥२५७|| ॥७१९॥ पहेला उद्देशामां आ प्रमाणे अर्थाधिकार छे: अ समनुज्ञा (पासत्था) वाळा असमनोज्ञ [स्वछंदाचारी] अथवा त्रणसो त्रेसठ अन्यवादीओनो विमोक्ष [परित्याग] करवो, तेज। प्रमाणे तेमनो आहार उपधि शय्या तथा तेमनुं मंतव्य त्यागवू, तेमां प्रथम भगवाननी आज्ञा बहार वर्ते ते पासत्या विगेरे छे, अने असंमनोन ते चारित्र तप अने विनयमां हीन तथा यथाच्छंद साधु ते ज्ञानविगेरे पांचे आचारमा हीन होय, तेवानी संगति न करवी [त्रणसेंबेसठ एकांत वादीनो पण त्याग करवो] बीजा उद्देशामां अकल्पनीय ते आधाकर्मो विगेरे दोषित वस्तुनो त्याग करवो, अथवा आधाकर्मी आहारवडे कोइ निमंत्रणा 13 करे, तो तेनो निषेध करवो अने तेनो निषेध करतां दान देनारने क्रोध चडे, तो तेने सिद्धांतनुं तत्व समजावq के आवा निर्दोष आहारवें अमने दान आपे तो तने तथा अमने गुणकारी छे. त्रीजा उद्देशानो अधिकार गोचरी गयेला साधुने ठंड विगेरेथी अंग धजतां गृहस्थने आवी शंका थाय के, इन्द्रियोनी उन्मत्तताथी पीडायेला अने शृंगार। भावमा रमेला चित्तवाळा आ साधुने कंपारो थाय छे, आq बोले, अथवा तेने शंका पडे, तो ते शंका दूर करवा खरी वात समजा ॐॐॐSARA Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐगरव-नाव- ६ वी (अने तेने शांत उरवो) आचा० बीजा पांचमा उद्देशानो अधिकार-उपकरण तथा शरीरनो मोक्ष (त्याग) करवो, ते संक्षेपथी तथा खुलासाथी कहे छेला एटले चोथा उद्देशामां आ अधिकार छे, के वैहानस ते उद्वन्धन (फांसो खावो) गार्द्ध पृष्ठ ते बीजाने मांस विगेरेना हृदयना सूत्रम ॥७२०॥ न्यासथी (बीजाने पोतानुं मांस अर्पण करवु ते) गृद्ध (गीध) विगेरेथी पोतानो नाश कराववो. D७२०॥ एबे प्रकारना मरण [आपघात] नुं वर्णन-पाचमा उद्देशामां-ग्लानता अने भक्त परिज्ञा समजवी, छठामा एकत्व भावना * तथा इंगित मरण जाणवू. सातमामां मास विगेरेनी भिक्षुकनी प्रतिमाओ बतावी छे तथा पादपोपगमननुं वर्णन छे, आठमामां अनु प्रर्व विहार करनारा दीर्घ संयम पाळनारा शास्त्रार्थ ग्रहणना स्वीकार पछी तेनाथी निवृत्ति लेवा संयम अध्ययन तथा अध्यापन द (शीखव) तथा निर्मक क्रिया करनारा साधुओ तैयार थया पछी (उत्कृष्ट तप वडे) कायाने दुर्बळ बनावीनी (आचार्य के गच्छनायक) भक्त परिज्ञा, इंगित मरण अथवा पादपउगमन ए त्रणमांथी कोइ पण स्वीकारे तेनुं वर्णन छे. आ प्रमाणे पांच गाथामो संक्षेपथी अर्थ कह्यो, अने विस्तारथी तो दरेक उद्देशामां कहेवाशे, निक्षेप त्रण प्रकारे छे, ओघ निष्पन्न नाम निष्पन्न अने सूत्रालापक निष्पन्न छे, ओघमां अध्ययन छे नाममां विमोक्ष छे, ते विमोक्षना निक्षेपा नियुक्तिकार कहे छे. नामठवणविमुक्खो, दवे खित्ते य काल भावे य; एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छन्धिहो होइ ॥२५८। नाय स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ अने भाव विमोक्ष एम छ प्रकारे छे, संक्षेपथी कह्या, अने विशेपथी कदेवा नाम स्थापना सुगट्रमने छोडी द्रव्यादि विमोक्ष बताववा कहे छे. CASEARCARECIPES वकस Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम् १२॥ आचा०४ दव्वविमुक्खो नियलाईएस खित्तंमि चारयाईसु; काले चेइयमहिमाइएस अणघायमाईओ । २५९॥ द्रव्य विमोक्ष आगम अने नो आगम एम चे भेदे छे, आगमथी ज्ञाता पण तेमां तेनो उपयोग न होय. ॥७२१ नो आगमथी ज्ञ शरीर भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त (जुदो) निगडादिक विषयभूत (वेडीमांथी) जे छुटकारो थाय ते द्रव्य विमोक्ष छे, (अथवा मागधीमा सातमी विभक्ति छे तेनो अर्थ पांचमी विभक्तिमां लइए तो) बेडी विगेरे द्रव्यथी छुटवु, ते द्रव्य विमोक्ष छे (अपर कारक वचननो संभवतो अर्थ भणेलाए पोतानी मेळे विचारीने योजवो ते बतावे छे जेमके) द्रव्य वडे, के द्रव्यथी, एटले सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्यथी मोक्ष ते द्रव्य विमोक्ष विगेरे समजवो. क्षेत्र विमोक्ष ते जे क्षेत्रमा पोते चारक विगेरेयी पकडाएलो होय, तेमांथी छुटकारो थाय, ते क्षेत्र विमोक्ष छे. अथवा क्षेत्रना दानथी अथवा जे क्षेत्रमा मोक्षतुं वर्णन चाले ते क्षेत्र विमोक्ष छे. अने काळ विमोक्ष चैत्य महिमा विगेरेमा जेPटलो काळ अमारी पटह बगडावे. अने आरंभ जीवहिंसा 'विगेरे वन्ध थाय ते अथवा जे काळे मोक्षन वर्णन चाले, तेने आश्रयी | 18 काळ मोक्ष छे.' आ गाथानो अर्थ छे. हवे भाव विमोक्ष बतवे छे.. दुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खो य सव्वमुक्खो य । देसविमुक्ना साहू सव्वविमुक्खा भवे सिद्धा ॥२६०॥ भाव विमोक्ष बे प्रकारे छे. आगमथी ज्ञाता अने उपयाग राखनार छे. अने नोआगमथी वे प्रकारे छे. देशथी तथा सर्वथी छे. 8 देशथी अविरत सम्यग् दृष्टि जीवोने अनंतानुबधीनी चोकडी क्षय उपशम थवाथी तथा देश विरतीने अनेतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानी लचोकडीओ क्षय उपशम थवाथी छे. अने साधुओने प्रथमना बार कपायो (संज्वलननी चोकडी सिवाय) क्षय उपशम थवाथी अने Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७२२ FECRECISRE मना-बन-मन- क्षपक श्रेणीमां जेने जेटलो काळ कषायो क्षीण थाय, तेने तेटलानो क्षय थवाथी देश विमुक्ति छे, तेथीसाधुओ देश विमुक्त छे. भवस्थ केवली साधुओ पण भव उपग्राहिक कर्मना सद्भावथी देश विमुक्तज छे, अने सर्वथा विमुक्त तो सिद्ध भगवतंज थाय छे. (गाथार्थ) 18 सत्रम शंका-मोक्षनी पूर्वे बंधपणुं होय छे, जेमके निगड (हेड) विगेरे बन्ध होय तो तेना मोक्षना संभव थाय, ते शंका दूर करवा माटे बन्ध अभिधान पूर्वक मोक्ष बतावे छे. ॥७२२॥ कम्मयदव्बेहिसम, संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो वन्धो नायव्यो, तस्स विगो भवे मुक्खो ॥२६॥ कर्म वर्गणाना द्रव्य (पुद्गलो) साथे जे जीवनो संयोग छे, ते प्रकृति स्थिति अनुभाव अने प्रदेश रुप बद्ध स्पृष्ट निधत्त निकाचन अवस्थाको बन्ध जाणवो. कारण के आत्मानो एकेक प्रदेश अनंत अनंत कर्म पुद्गलो वडे बन्धायली छे, अने अनंत अनंत नवा बन्धाइज रह्या छे, कारणके बाकीना अग्रहण योग्य छे. प्र०-आठ प्रकारनां कर्म केवी रीते बन्धाय छे ? उ०-मिथ्यात्वना उदयथी-कयुं छे, के. " कह णं भंते ! जीवा अट्ट कम्मपगडीओ बंधंति ?, गोअमा? णाणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज कम्मं निअच्छन्ति, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तणं उइनेणं एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बन्धइ" यदि, वा-" णेहतुप्पिअगत्तस्स; रेणुओ लग्गई जहा अंगे। तह रागदोसणेहालियस्स कम्मपि जीवस्स ॥१॥". म०-हे भगवन् जीवो आठ प्रकारन' कर्मो केवी रीते बांधे छे ? . बाबा-बार पर Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा० आठे कर्म प्रकृति बन्धाय छे. अचाट, ए आठे प्रकारना कर्मना आ ७२३॥ म छे. एनुं पुरुषना बधा अथामा माथी ! उ०-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्मना उदयथी दर्शनावरणीय कर्म बन्धाय छे, तेथी मिथ्यात्वनो उदय थाय छे अने तेथी आठे कर्म प्रकृति बन्धाय छे. अथवा स्नेह (घी तेल) यी चीकणा बनेला शरीरवाळाने जेम शरीरमां झीणी रेती चोंटे छे. तेवी रीते ॥७२३॥ रागद्वेषनी चीकणासथी जीवोने कर्म चोंटे छे, ए आठे प्रकारना कर्मना आसवना निरोधथी अथवा तप वडे अपूर्वकरण क्षपकश्रेणीना 18 अनुक्रमथी अथवा शैलेशी अवस्थामा जे कर्मनो वियोग थाय छे, तेज कर्मक्षय रुप मोक्ष छे. एनुं पुरुषना बधा अर्थोमा प्रधानपणुं | होवाथी प्रारंभेल तलवारनी धारा माफक महावतोना अनुष्ठाननु मुख्य फळ होवाथी तथा बीजा मतवाळानी सा तेनो भेद होवाथी जेवू मोक्षनु स्वरुप जिनेश्वरे साचुं बताव्यु छे. ते कहे छे. अथवा प्रथम कर्मना वियोगना उद्देश वडे मोक्षनुं स्वरुप बनाव्यु. हवे ! जीव वियोगना उद्देश वडे मोक्षन स्वरुप बतावे छे. जीवस्स अत्तजणिएहि चेव कम्मेहिं पुवबद्धस्स । सव्वविवेगो जो तेण तस्स अह इतिओ मुक्खो ॥२६२॥ . जीव असंख्यात प्रदेशवाळो छे. तेने पोतानी मेळे (पोतानुंज) अनंतुज्ञान स्वभावथीज छे, तेने पोतानो आत्मा जे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योगमा परिणत थवाथी जे कर्मों पोतानाथी बन्धाय छे, ते कर्मने पूर्व बांधेल होवाथी तेनो प्रवाह अनादि काळनी अपेक्षाथी चालु छे. ते कर्मनो सर्वथा अभाव रुप विवेक करवो, अर्थात् आत्माने नेनाथी निर्लेप करवो, तेज जीवने तेटलोज मोक्ष छे. पण बीजा निर्वाण प्रदीप (बुझाएला दीवा) माफक कल्पेलो मोक्ष नथी, भाव विमोक्ष कह्यो, अने जेने ते मोक्ष थाय छे, तेणे सर्वथा मोक्ष प्राप्त करवा अवश्ये भक्त परिक्षा विगेरे त्रण मरण (अणसण)मांथी काइपण स्वीकार जोइए. अने कार्यमां कारणनो उपचार करवाथी ते मरणज भावविमोक्ष छे. ते बतावे छे. सम REGA । अवश्ये भक्त परिक्षा माफक कल्पेलो मोक्ष नानाथी निर्लेप करयो, तबाह Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल. भत्त परिना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायब्वं । जी मरइ चरिममरणं भावविमुक्ख वियाणाहि ॥२६६।। आचा० भक्त (भोजन)नी परिज्ञा पच्चख्खाण) अणसण ते भक्त परिज्ञा छे, तेमांत्रण प्रकारनो आहार त्यागीने फक्त अचित्त पाणीनी छुट राखीने अणसण करे, पण ते शरीरनी वैयावच्य करवा दे, अने ते धैर्यता तथा मजबूत संघयणवाळो होय, ते जेम पोताने 15 सूत्रम ॥७२४॥ समाधि रहे तेम अणसण करे. ७२४॥ ___ तथा इंगित प्रदेशमा मरण पाम, ते इंगित मरण छे. ते चार प्रक्रारना आहारनी निवृत्ति रुप छे. अने ते जेनु संघयण मजबुत न होय, ते पोतानी मेळेज पासुं फेरवर्तु विगेरे क्रिया करे, एम जाणवू. ते प्रमाणे चारे प्रकारनो आहार छोडीने तथा वधी क्रियाओ 2 तथा चेष्टाओ छोडीने एकांतमां शरीरनी वैयावच्च कराव्या विना झाडनी माफक स्थिर शरीर करवं. ते पादप उपगमन जाणq. पण जे भव सिद्धिक जीव छे. ते छेल्ला अणसणने आश्रयीने मरे छे. अने तेथी उत्तम साधु जे मोक्षनी इच्छावाळो छे ते उपर बतावेला त्रण अणसणमांथी कोइ पण एक स्वीकारे छे, पण ते वैहानस विगेरे बाळ मरण (आपघात)थी मरतो नथी अने त्रण अण* सणमां थोडो भेद होवाथी त्रण प्रकारनुं भावमोक्ष एवं तुं जाण, हवे तेज मरणने सपराक्रम अने अपराक्रम एवा वे भेदे बतावे छे. सपरिक्कमे य अपरिक्कमए य वाघाय आणुपुवीए । सुत्तत्थजाणएणं समाहिमरणं तु कायव्वं ॥२६॥ पराक्रम [सामर्थ्य बळ] जेने होय ते सपराक्रमीं कहेवाय, अने तेवी रीते मरे तो सपराक्रम मरण छे, तेना उलटापणामां अपराक्रम छे. एटले जंघा बळ क्षीण थतां भक्तपरिज्ञा इंगित मरण अने पादप उपगमन एम त्रण भेदवाळु अणसण छे. छतां पण ते पराक्रम सहित अने पराक्रम रहित एम दरेक बे प्रकारर्नु छे. अने ते दरेक भेद पण व्याघात अने ते रहित छे. तेमां सिंह अने ECOGLE Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सूत्रम् ॥७२५॥ ल वाघ विगेरेथी जे नाश थाय ते व्याघात छे. अने ते सिवायनो अव्याघात छे. एटले दीक्षा लीधा पछा-सूत्र अर्थ ग्रहण करीने अभाचा० IA नुक्रमे विपकित्रम [मरण न आवेलु] एवी अवस्थाने भोगवतो जे छे. ते अव्याघात छे. ॥७२५. मा अहींया अनुपूर्वी शब्द छे तेनो परमार्थ बतावतां समाप्त करे छे. व्याघात बढे अनुक्रमे अथवा सपराक्रम अथवा अपराक्रमवाळो प्रसाधुने मरण आवे छते सूत्र अर्थना जाणनारे, काळ आवेलो जाणीने समाधि मरणे मरवू. भक्त परिज्ञा इङ्गित मरण पादप उपगमन एणमांथी कोइ पण एक मरण पोताने जेम समाधि रहे म करवू. पण बाळ मरण न कर. (गाथा अर्थ) तेमां संपराक्रम मरण दृष्टांत वढे, बतावे छे. . सपरकममाएसो जह मरणं होइ अज्जवइराणं पायवगमणं च तहा एयं सपरकम मरणं ॥२६५॥ पराक्रेम सहित ते सपराक्रम मरणनो आदेश आचार्यनी परंपरामां संभळातो आवेलो वृद्ध वाद आ प्रमाणे छे. ते कहे छे, ( यथा शब्द उदाहरणना उपन्यास माटे छे) एटले आ प्रमाणे ते आदेश जाणवो. आर्य वज्रस्वामिनुं मरण पादप उपगमन छे अने ते सपराक्रम मरण छे. ते प्रमाणे बीजे पण समजवु गाथा अर्थ] तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो, अने ते कथा प्रसिद्धज छे. GI जेम आर्य वज्रस्वामिए पोते दवा माटे सुंठनो गांगडो कानमा राखेलो, ते वापरवो भूली जवाथी पोते जाण्यु के आवो प्रमाद मने | थयो छे. तेथी तेमणे मरण नजीक आवेलं जाणीने सपराक्रमी बनीने स्थावर्त पर्वत उपर पादप उपगमन अणसण कयु. हवे अ. [४] पराक्रम मरण बतावे छे. . . अपरकममाएसो जह मरणं होइ उदहिनामाणं । पाओवगसेऽवि तहा एवं अपरकर्म मरणं ।।२६६॥ RRECECE HEA-CAववाछ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७२६।। ॥७२६॥ हवे व्याघातवालं अणसण क तोसलि महिसीइ हआ, पराक्रम न होय तो अपराक्रम कहेवाय तेवू मरणं जेने जंघावळ सर्वथा क्षीण थयेलं होय तेवा उदधि सागर नामना ते आर्य समुद्र मुनिनु मरण थयेलुं छे. तेनो वृद्धावाद आ प्रमाणे छे. ते प्रमाणे पादप उपगमन अणसण वडे तेमनु मरण थयेल छे. जेवी रीते आर्य समुद्रनु अपराक्रम मरण छे. तेवू बीजी जग्याए पण जाणवू. (गाथा अर्थ) तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो. आर्य समुद्र नामना आचार्य स्वभावथीज दुर्बळ हता, पछीथी जंघा बळे सर्वथा क्षीण थतां शरीरथी चीजो लाभ न जाणीने तेने तजवानी इच्छाथी पोताना गच्छमां रहीने उपाश्रयना एक भागमा आहार रहीत पादप उपके गमन अणसण कयु, हवे व्याघातवालु अणसण कहे छे.. वाघाइयमाएसो अवरद्धो हुन्ज अन्नतरएणं । तोसलि महिसीइ हओ, एयं वाघाइयं मरणं ॥२६७॥ । विशेषथी आघात ते सिंह विगेरेए करेलो व्याघात छे एटले शरीरनो नाश थाय छे. तेना वडे जे अणसण समाप्त थाय अथवा ॥ तेवू मरण थाय तो ते व्याघातिम अणसण छे. एटले कोइ साधुने सिंह विगेरेए प्यों होय, अने तेनाथी मरण थाय, ते व्याघातिम छे तेना माटे वृद्धवाद आ प्रमाणे छे. के तोसली नामना आचार्यने भेंसोए धेर्यो, अने मरण वखते तेमणे, चार प्रकारनो आहार | त्यागीने अणसण कयु ते व्याघातिम मरण छे. तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो ते कहे छे.. 4 ते देशमा भेसो घणी थाय छे. तोसली नामना आचार्यने जंगली भेंसोए घेर्यो, तेमणे पीडातां बीजो उपाय न जोइने चार | मकारना आहार त्यागवार्नु अणसण कर्यु हवे अव्याघातिम अणसण बताववा कहे छे.. अणुपुब्बिगमाएसो पव्वज्जासुत्तअत्थकरणं च । वीसजिओ (य) निन्तो, मुक्का तिवहस्स नीयस्स ॥२६८ नऊवामानावावर जे अणसण समाप्त थाय Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् AADH ॥७२७॥ अनुपूर्वी (क्रम) ने पामे, ते अनुपूर्वीग छे. आचा० म०-ते आ देश क्यो छे ? (आ देशनो अर्थ वृद्धवाद छे.) ते वृद्धवाद आ प्रमाणे छे. ॥७२७॥ “प्रथम आत्मार्थी जीवने दीक्षा आपवी, पछी सूत्र भणाववां छेवटे अर्थ आपवो. ते बन्नेमा प्रविण थयेलो अने गुरुए सुपात्र जोइने सूत्रार्थ भणाव्या पछी तेने आज्ञा आपे तो पोते कोइपण जातवें अगसण करवा तैयार थइने नीकळे. ते प्रथम आहार उपधि शय्या एम त्रणेनो त्याग करे छे. अने पोते प्रथम रोज भोगवतो तेनाथी पोते मुकाय छे. तेमां जो आचार्य होय तो तेवू अणसण करवा पहेलां शिष्योने तैयार करीने बीजो आचार्य स्थापीने पोते निवृत थइने बार वरसनी (उत्कृष्ट तपस्या) संलेखना बढे अनुभव करीने पोते गच्छनी अणुज्ञा [संमति लइने गच्छने छोडीने अथवा पोते नीमेला आचार्यनी समति लइने अणसण करवा बीजा ल आचार्यनी पासे जाय छे. तेज प्रमाणे उपाध्याय प्रवर्तक स्थविर गणावच्छेदक, अथवा सामान्य साधु हाय ते आचार्यनी रजा लइने संलेखना बडे परिकर्म करीने भक्त परिज्ञा विगेरे अणसण न स्वीकारे. तेमां पण, भाव संलेखना करे कारण के द्रव्य संलेखना जो, एकली होय; तो, दोषनो संभव छे. ते कहे छे: पडिचोइओ य कुविओ, रण्णो जह तिक्ख सीयला आणा । तंबोले य विवेगो घट्टणया जा पसाओ य ॥२६९|| । आचार्य प्रेरणा करेलो के तुं फरी संलेखना कर, एयूँ कहेवाथी क्रोधायमान थएला शिष्यने जेम राजानी आज्ञा तीक्ष्ण होय 18 छे. पछी शीतळ थाय छे. तेम आचार्य पण बीजाओना रक्षण माटे प्रथम त्याग करवो जोइए. वळी नागरवेलर्नु सडेलु पान जेम 18 बीजां पान बचाववा माटे दूर कर जोइए. तेम कुशिष्यने प्रथम शिक्षा करी पछी ते माफी मागे तो तेना उपर दया लावी राखवो ARGECORE - .. -- - ------- Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७२८॥ PRESENGAROOG+ जोइए. (गाथा अर्थ) भावार्थ कथाथी जाणवो. . . एक साधुए वार वरसनी उकृष्ट तपस्याथी संलेखना करी, अने आचार्य पासे अणसणनी याचना करी आचार्ये का, तुं हजुत पण संलेखना कर, तेथी आ शिष्ये कोपायमान थइने फक्त चामडी अने हाडकुं रहेल एवी मांस लोही विनानी आंगळी भांगीने । 15 सूत्रम् देखाडी, के हवे | अशुद्ध बाकी रह्यं छे ? आचार्ये पोनाना हृदयनो अभिमाय प्रगट कर्यो, के तुं क्रोधने लीधे अशुद्ध छे. के वंच- 5॥७२८॥ ननी कडवासथी शीघ्र तारी आंगळी तें.भांगीने भावनी अशुद्धता देखाडी छे. तेथी तेने वोध करवाने माटे दृष्टांत का, के कोइ राजानी चे आंखो रोज पाणीथी झरती हती, राजाना वैद्योए घणी दवा करी पण सारुं न थयु. एक वखत कोइ परदेशी वैद्य आ४ व्यो तेणे का, जो तुं एक मुहुर्त सुधी वेदना सहन करे, अने मने न मरावे, तो तने सारो करुं राजाए कबुल कयु. अंजन (सुरमो) द आंखमां नाख्या पछी उत्पन्न थयेली तीव्र वेदनाथी मारी आंखो गइ, एवी वाणी बोलीने राजाए मारवानी आज्ञा करी; तेथी राजानी आज्ञा तीक्ष्ण थइ; अने पूर्व न मास्वानुं वचन आपवाथी शीतळ आज्ञा करवी पडी; पण ज्यारे मुहुर्त पछी वेदना दूर थतां सारी आंखोवाळो थतां तेज राजाए खुश थइ वैद्यनी पूजा करी. ए प्रमाणे आचार्यनी आज्ञा पण तीक्ष्ण छे. एटले, शिष्यनी भूल देखतां वडवां वचननी आज्ञा करे; पण शिष्यनुं अंतरंग तपासी तेनां कार्यथी प्रसन्न थाय; एटले, परिणामे शिष्यने हितकर होवाथी ते आज्ञा शीतळ छे, आq समजाव्या छतां पण क्रोधथी शिष्य शांत न थाय; तो, बीजाओना रक्षण माटे सडेला पाननी | माफक तेने दूर करवो. , जो, गुरुनी आज्ञा शिष्य माने तो, गच्छमांज रहेवा दइने दुर्वचनथी तेनो तिरस्कार करी परीक्षा करवी. जो, तेम करतांना -- Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७२९॥ A%-ॐग्न हाइ विगिहें तबो कम्मं २० आणुपुच्चीए । गिरि & कोपे, तो ने शुद्ध छे, एम जाणीने तेने अणसणनी आज्ञ। आपे; तथा तेने आर्तध्यान विगेरे न थाय; माटे तेनी खबर, राखी गुरु K प्रसाद करे. प्र०-आ प्रमाणे केवो, अने केटलो काळ, अने केवी रीते आत्माने संलेखे? तेथी, हृदयमां विचारने कहे छे: 18 सूत्रम् निष्फाईया य सीसा सउणी जह अंडगं पयत्तणं । बारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेइ ।।२७०॥ ॥७२९॥ चत्तारि विचित्तांई विगई निजहियाइं चत्तारि । संवच्छरे य दुन्नि उ एगं तरियं तु आयामं ॥२७॥ नाइविगिट्ठो उ तवो, छम्मासे परिमियं तु आयाम । अन्नेऽवि य छम्मसे होइ विगिटुं तवो कम्मं ॥२७२।। वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुच्चीए । गिरिकंदरंमि गंतुं, पायवगमणं अह करेइ ॥२७३।। सूत्र अर्थ तथा बन्ने प्रकारे पोताना शिष्योने तथा भणवा आवेला बीजा साधुने भणावीने जेम शकुनी पक्षी इंडाने सेवीने तैयार करे, तेम प्रयत्नथी तैयार करवा जोइए. त्यारपछी आचार्य चार वरपनी संलेखना करे ते आ प्रमाणे. चार वरस सुधी जुदा जुदा तपना अनुष्ठान करे छे. एटले एक बेत्रण चार पांच उपवास विगेरे करीने पारणु करे छे. पारणामां वखते विगय वापरे. अने नपण वापरे, पांचमा वरसथी बीजां चार वरस तेवो तप करीने पारणामां वीगइ न वापरे नवमा दशमा वरसमां उपवासने पारणे आंबेल एम करे अग्यारमा वरसमा पहेला छ महीना सुधी अति विकृष्ट तप न करे अथवा एक वे उपवास करीने परिमित आंबेलथी पार| करे (उणोदरी तप करे) बीजा छ मासमां विकृष्ट तप अने पारणामां आंबेलमा उणोदरी तप करे बारमा वरसे कोटी सहित आंबेल करे एटले रोज आंबेलथी खाय. एटले आंबेलनी कोटी कोटी मळे माटे कोटी सहित कां छे चार मास बाकी रहे त्यारे तेलना कोगळा अस्खलित नमस्कार विगेरे शिखवा माटे वायु दूर करीने मुख यंत्रना प्रचार माटे तथा बन्ने प्रकारे पोज - Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० ३०॥ A वारंवार करे. आ प्रमाणे वार वरस सुधी अनुक्रमे वधुं करीने सामर्थ्य होय तो गुरुनी आज्ञा लइने पहाडनी गुफामां जइने निर्दोष जग्गा जोइने पादप उपगमन अणसण करे इङ्गित मरण अथवा भक्त प्रत्याख्यान जेम समाधि रहे तेम करे आ प्रमाणे वार वरसनी संलेखना कर्म बडे आहार ओछो करतां आहारनी अभिलापानो उच्छेद थाय छे ते बे गाथा वढे बतावे छे. कह नाम सो तवोकम्मपंडिओ जो निच्चुजुत्तप्पा | लहुवित्तीपरिक्खेव वच्चइ जे मंतओ चेव ? || २७४ || 'आहारेण विरद्दिओ, अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासतो हासतो, एवाहारं निरंभिज्जा ॥ २७५॥ केवी रीते ए साधु तप करवामां पंडित थाय ? जे नित्य उद्युक्त आत्मा वनीने बत्रिस कोळियाना परिणामवाळी वृत्ति न राखे ? एटले दिवसे दिवसे लघु वृत्तिनो परीक्षेप न करे; तो तप कर्ममां पंडित केवी रीते थाय (जो, गोचरीमां लोलुपता राखी वधारे | वधारे खाय; तो ते तप करवामां निपुण न थाय; ) तथा आहार वडे वे ऋण दिवस सुधी वियोग करे. अर्थात् वे त्रण पांच छ उपवास करी; पछी पारं करे तो, शा माटे अल्पाहारी न थाय ? ( थायज ) प्र० - शा माटे तप करे ? उ० - अणसण करवा माटे, आ प्रमाणे उपवास करतो तथा दरेक पारणामां अल्पआहारने | ओछो ओछो करतां टेव पडतां उपर बतावेली विचिए भक्त पच्चख्खाणनुं अणसण करे. नाम निक्षेपो कह्यो हवे सूत्र अनुगममां अस्खलित विगेरे गुणयुक्त सूत्र कहे. ते कहे छे: से बेमि समणुन्नस वा असमणुन्नस्स वा असण वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं सूत्रम ॥७३०॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ३१॥ वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंच्छणं वा नो पादेजा नों निमंतिजा नो कुज्जा. वेयावडियं. पर आदायमाणे तिबेमि ( सू० १९७ ) सुधर्मास्वामि कहे छे. जे - में भगवान पासे सांभळ्युं; ते कहुं हुँ, अने हवे कद्देवानुं पण भगवाननुं वचन छे. एटले समनोज्ञ, अथवा अमनोज्ञ होय; एटले, दृष्टि (सम्यग्दर्शन,) तथा लिंगथी समनोज्ञ एटले उत्तम श्रद्धावाळो होय; पण, भोजन विगेरेमां त्यागी न होय, अने अमनोज्ञ ते बौद्ध मत विगेरेना साधुने चार प्रकारना आहार विगेरेनी निमंत्रणा न करे; ते कहे छे. अशन [भोजन ] ते, भात विगेरेनुं छे, अने पाणी ते, द्राख विगेरेनुं छे, अने थोडा टेका रुप नाळीयेर (कोपरुं) विगेरे छे, अने स्वाद माटे कपुर, लवंग, विगेरे छे. तेज प्रमाणे वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, आ वधां पोतानां उपकरण कुसाधुने वापरवा न आपे. तेज प्रमाणे : तेमनी वैयावच्य न करे; अने घणां आदरवाळो बनीने तेमने तेवी वस्तुनुं आमंत्रण न करे; तेम थोडी घणी वैयावच्य पण न करे. हवे, पछीनुं पण हुं कहुं छं. धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुछणं वा लभिया नो लभिया भुंजिया नो भुंजिया पंथं वित्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्मं जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइज्जा वा निमंतिज वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि (सू० १९८) "ते बौद्ध विगेरे मतना कुशीळवाळा साधुओं अशन विगेरे बतावीने एवं बोले के, आ निश्चय जाणो के, अमारा मठमां रोज तमे सूत्रम् | ॥७३१ ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्रा - CEL भोजन विगेरे मेळवशो एटले बीजी जग्याए मळे न मळे अथवा खाइने अथवा विना खाधे अमारी धीरजने माटे तमारे अवश्य आचा आवq, जो न मळे तो लेवा माटे अने मळे तो वधारे खावा माटे वारंवार भोजन माते न खाधुं होय ते वखते सवारनो नास्तो क परवा अमारी धीरज माटे कोइ वखत पण आवq अथवा ज्यारे तमने जे कल्पे तेवु अमे तमने आपशुं वळी अमारो मठ तमारा रस्ता॥७३२। मांज छे कदाच तमे बीजे रस्ते जता हो तो थोडो फेरो खाइने पण आडा मार्गे बीजे घेरे जइने पण अमारे त्यां आवQ आ आगम नमा खेद मानवो नहीं (आ प्रमाणे प्रेम धरावी जैन साधुने बौद्ध विगेरेना साधु आमंत्रण करे.) म०-शा माटे आयु वौद्ध साधु करे छे ? उ.-ते कहे छे विभक्त (जुदा) धर्मने पाळता अने कदाच जैन साधुना उपाश्रयमां आवीने अथवा रस्तामा जतां निमंत्रण करे अथवा पोतानी पासेनुं भोजन विगेरे आपे अथवा भोजन आपवानी निमंत्रणा करे अथवा भक्त माफक वैयावच्च करे आ बधु जैन साधुने कुशील साधुनुं न कल्पे तेम तेनो परिचय पण न करे केवी रीते जैन साधु रहे ? उ०-ते कुशील साधु बहु मानथी साधु नो आदर करे तोपण पोते तेमां गृद्ध न थाय तोज दर्शनशुद्धि साधुनी रहे छे, (जो तेवा कुशीलनी सोवत करे तो जैन साधने पोनाना कठण संयममा अनादर थाय अने पोते पण तेवू कुशील आचरे.) अथवा हवे पछीन पण सुधर्मास्वामी कहे छे. इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठो अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिन्नमाययंति अदुवा वायाउ विउज्जति, तंजहा-अस्थि लोए नस्थि लोए धुवे लोए अधुचे लोए साइए लोए अणाइए लोए सप -स्वावलमऊ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७३३॥ ज्जवसिए लोए अपज्जवलिए लोए सुकडेन्ति वा दुक्कडेति वा कलाणेति वा पावेत्ति वा साहूत्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा निरएत्ति वा अनिरएति वा, जमिणं विपढिन्ना मामगं धम्मं पन्नवेमाणा इत्थवि जाणह अकस्मात् एवं तेर्सिनों सुथक्खाए धम्मे नो सुन्न धम्मे भवइ ( सू० १९९ ) आ मनुष्य लोकमां केटलाक पूर्वे करेल अशुभ कर्मनो विपाक जेमने छे. तेवा निर्भागी जीवोने मोक्ष माटे जे आचार छे, तेसारी रीते हृदयमां ठस्यो नथी, ते अपरिणत आचारवाळा जेवा होय, ते कहे छे: ते आचारनुं स्वरुप न जाणनारा गोचरीमां नाह्या बिना परसेवान । मेलना परिषदथी कंटाळेला जे साधुओ छे; तेमने सुख विहार करनारा बौद्ध मत विगेरेना साधुओए पोताना जेवा विचारवाळा बनावेला छे. तेथी, जैनसाधुओ पण, तेनी सोबतथी संय| ममां शिथिल थइ आरंभना अर्थी वने छे, अथवा ते शक्य विगेरेना साधु, अथवा जे कुशील छे, तेओ सावध आरंभना अर्थी छे. तेज प्रमाणे मठ, आराम, तळाव. कुवा बनाववा पोताने माटे रांधेलुं खानारा विगेरे साधुओ बोले छे के, प्राणीओने मारो, आ प्रमाणे बीजा पासे मरावता; अने मारनारनी अनुमोदना करता; अथवा वीजानुं द्रव्य लेवाथी कडवं फळ छे. तेने विसरीने, तथा जेना शुभ अध्यवसायो ढकाइ गया छे. तेओ चोरीनुं द्रव्य ले छे. वळी, पहेला त्रीजा व्रतमां थोडं कहेवानुं होवाथी तेने प्रथम कही बीजा- महाव्रतनुं वधारे कहेवानु' होवाथी वीजा व्रतनो उपन्यास हवे करे छे. [अथवा ए अव्यय बीजो पक्ष बतावे छे. ते कहे छे.] अनुष्ठान रूप सूत्रम् ॥७३३ ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ एटले, अदत्त ले छे. अथवा, नाना प्रकारनी युक्तिओ योजे छे. ते बतावे छे के, स्थावर जंगम स्वरूपवाळो लोक छे, तेमां नव आचा० खंडवाळी पृथ्वी छे अथवा सात द्वीपवाळी पृथ्वी छे. बीजा मतनां माने छे के, ब्रह्माना अंडामां पृथ्वी अंदर रहेली छे. वळी बीजा मतवाळा कहे छे के ब्रह्माना अंडा जेवी पाणीमा रहेली भींजाती एवी सेंकडो पृथ्वीओ पाणीमा रहे छे तथा जेओ पोताना कर्मना ७३४॥ फळने भोगवनारा छे परलोक छे बंध मोक्ष छे पांच महाभूत छे (आवा जुदा जुदा अनेक मत छे.) 18॥७३४॥ नास्तीको कहे छे के आ वधो लोक जे देखाय छे ते बधुं माया [जुठ नी इन्द्र जळ जेवु तथा स्वप्नमां देख्या जेवु छे अने अविचारीत रमणीयपणे भूतनो अभ्युगम [स्वीकार] करवा छतां परलोकनो अनुयायी जीव पण नथी, शुभ अशुभ फळ-नथी पण जेम किणु विगेरेमांथी जेम नसो उत्पन्न थाय छे, तेम भूतोमांथी चैतन्य थाय छे. आ बधुं मायाकार गंधर्व नगरना जेवं छे. कारण है के पून्य पाप विगेरे युक्तिथी सिद्ध थतां नथी. वळी चार्वाक कहे छे: ___ यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत्स्वयमर्थे भ्यो रोचते तत्र के वयम् । १॥ भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च । तथापि अन्दैरन्यस्य, तत्त्वं समुपदिश्यते ॥ २॥ जेम जेम अर्थी विचारीए तेनु विवेचन करीए तेम तेम जे जे अर्थ तरफ रुचे तेमां आपणे कइ गणत्रीमां (जेम जेम विचार करीये तेम तेम आ बधुं विषय तरफ रेखंचाइ जाय त्यारे आपणे विचार करवानी शुं जरुर.) आ शरीर तथा विषय अने इन्द्रियो बधु भूतमांथी वनेलं छे. तोपण मंद बुद्धिवाळाए बीजा जीवोने फसाववा तत्व तरिके ठसावी दीधं छे. वळी सांख्य विगेरे मतवाळा कहे छे, लोक नित्य छे. कारण के प्रकट थq, लय थq एटलुंज मात्र उत्पात अने विनाशस्वरुप -FAMISHREGe नलवरून Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७३५॥ छे. कारण के जे नथी तेनुं उत्पादन नथी. तथा जे 'छे तेनो नाश नथी. अथवा ध्रुव ते नदी समुद्र पृथ्वी पर्वत आकाश ए बधांतुं निश्चयपणुं होवथी ते ध्रुव छे (माटे तेमना मत प्रपाणे वधुं नित्य छे) बौद्ध विगेरे कहे छे लोक अनित्य छे कारण के दरेक क्षणे तेनो स्वभाव क्षय थवारुप छे. विनाशना हेतुना अभावथी अने | नित्य वस्तुना अनुक्रमथी के एक साथे अर्थ क्रियामां असामर्थ्यपणुं छे. (आ प्रमाणे तेमनुं मानवु छे के बधुं अनित्य छे.) अथवा अध्रुव ते चळ छे जेमके भूगोळ (पृथ्वीनो गोलो) केटलाक न कहेवा प्रमाणे नित्य चलायमान छे. (तेओ माने छे के पृथ्वी फरे छे) अने सूर्य स्थिर छे तेमां सूर्य मंडळ दूर होवाथी जेओ पूर्वमांथी जुए छे तेमने सूर्यनो उदय देखाय छे। अने सूर्यना मंडळना | निचे रहेलाने मध्यान्ह देखाय छे। अने जेओने सूर्य दूर थवाथी न देखाय तेओने आयमेलो जणाय छे. वळी बीजा मतवाळा एवं | माने छे के लोकनी आदि छे. तेओ कहे छे. आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसृप्तमिव सर्वतः ॥ १ ॥ आ वधुं पूर्वे अंधारारूप, अजाण्युं, लक्षण रहित विचाराय नहीं तेनुं, न जणाय तेनुं, बधी रीते सुतेला जेवुं हतुं. तस्मिनेकार्णवीभूते नष्टस्थावरजंगमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोरगराक्षसे ॥ २ ॥ ते एक समुद्ररूप बनेलुं स्थावर जंगमनो तथा देवता मनुष्यनो नाश हतो तेम नाग तथा राक्षसनो पण नाश हतो (त्यारे के हतुं ते कहे छे) केवलं गहरीभूते, महाभूत विवज्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृदं काञ्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ सूत्रम् ॥७३५॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७३६॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥ ५ ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिर सुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कद्रुः शरीरसृपाणां मुलसा मात तु नागजातीनाम् । सुरभिचतुष्पदानामिला पुनः सर्व बीजानाम् ॥ ७ ॥ फक्त गहवर (पोलाण) ना आकारवाळं महाभूतोथी रहित हतुं तेमां अचिंत्य आत्मा विश्व (इश्वर) पोते सुतेलो तप करे छे. ३ ते त्यां सुतेला विभुनी नाभीमांथी एक कमळ उत्पन्न थयुं ते उगता सूर्यना मंडळ जेवुं सोनानी कर्णिकावाळु रमणिक हतुं (४) पद्ममाथी भगवान दंड धारण करेल जनोइ पहेरेला ब्रह्मा उत्पन्न थयो तेणे जगननी माताओने रची छे. (५) देवताओना समूहनी माता अदिति छे, अने असूरोनी माता दिति छे. मनुष्यनो मनु छे. पक्षीओनी माता विनता छे. आम माणे विश्वना प्रकारोनी माताओ ब्रह्माए बनावी. (६) सरीसृपनी माता कद्रू छे. अने नागनी जातीओनी माता सुलसा छे. तेम वधां चोपगां प्राणीनी मा सुरभि छे। अने सर्व बीजोनी माता इला छे. [आ प्रमाणे पुराणवादीओ बोले छे, तेम बीजा धर्मवाळा पण पोतानी बुद्धि प्रमाणे कल्पना करे छे, तेम समज वीजा मवाळा केला अनादि लोक माननारा छे जेमकेशाक्य मतवाळा कहे छे हे भिक्षुओ ! अनव दग्र [अनादि] आ संसार छे तेनी पूर्व कोटी जणाती नथी, निवारण सत्वोने अविद्या नथी, तेम जीवोनो उत्पाद नथी, वळी अंतवाळो आ लोक छे जगतना प्रलयमां बधानो नाश थाय छे, तथा अंत विनानो लोक छे कारण के विद्यमान वस्तुनो सर्वथा नाशनो असंभव छे. कारण के एवं नथी [अर्थात् छेज ] केटलाक तो बन्नेने पण माने छे ते बतावे छे. सूत्रम ॥७३६॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमा सर्व भूतो छे. अने अपारसत्रम समान पण जुदी जुदी रीरालाक छे. विगेरे स्वीका आचा० द्वावेव पुरुषौ लोके, क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥ बेज पुरुषो लोकमां पूर्व दृता, एक क्षर (नाशवंत) बीजो अक्षर [अनाशवंत] तेमां क्षरमां सर्व भूतो छे. अने अक्षर ते कूटस्थ ॥७३७॥ कहेवाय छे. आ प्रमाणे परमार्थने नहीं जाणनारा लोक छे. विगेरे स्वीकारवा वडे विवाद करता जुदी जुदी वाणी काढे छे तेज8/७३७॥ प्रमाणे आत्माने पण जुदी जुदी रीते बतावे छे जेमके सारं कर्यु, ते सुकृत माने अथवा दुष्कृत माने एम क्रियावादीओ माने छे. ल एटले कोइ वोले के सर्व संगनो त्याग करवाथी महाव्रत ग्रहण कयु, ते सारं कर्यु. तथा बीजा बोले छे के हे भाइ ! आ सरळ मृग लोचनवाळी स्त्रीने पुत्र उत्पन्न कर्या विना तें त्यागी, ते खोटुं कर्यु. तथा जे दीक्षा लेवा तैयार थयो होय, तेने कहे, के आ कल्याण छे. तेनेज बीजो कहे के आ तो पाखंडीओना जाळमां फसाएलो कलीव छे! गृहाथम पाळवाने असमर्थ छे! विना पुत्र दीक्षा लीधी & तेथी पापरुप छे तथा आ साधु छे, असाधु छे एम पोतानी मतिए कल्पना करी इच्छानुसार बोले छे तथा सिद्धि छे अथवा सिद्धि । नथी, अथवा नरक छे अथवा नथी ए प्रमाणे वीजुं पण पोताना आग्रह प्रमाणे पकडी विवाद करे छे ते बतावे छे के आ पूर्व बनावेलुं लोक विगेरेने आश्रयी जुदं जुदं माननारा ते विप्रतिपन्न वादीओ छे ते कहे छे. इच्छंति कृत्रिमं सृष्टि-वादिनः सर्व मेव मितिलिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादि पर्यन्तम् ॥ १॥ सृष्टिना वादीओ माहेश्वर विगेरे बधंज मितिलिंग अने कृत्रिम माने छे, अने वधा लोकने सादि पर्यंत माने छे. नारीश्वरजं केचित, केचित् सोमानिसंभवलोकं । द्रव्यादि षइविकल्पं, जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ २॥ नारी तथा इश्वरथी उत्पन्न भएलं माने छे, केटलाक मतवाळा सोमानिथी लोक उत्पन्न थयेलं माने छे. तथा द्रव्यगुण विगेरे SECO सहसवाय Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥७३८॥ छ विकल्पवालं जगत् केटलाक माने छे. आचा० 5. ईश्वरप्रेरित केचित् , केचिद् ब्रह्मकृतं जगत् । अव्यक्त प्रभवं सर्वे, विश्वमिच्छंति कापिलाः ॥ ३ ॥ . . है केटलाक इश्वरनी प्रेरणाथी थएलुं माने छे, केटलाक ब्रह्माए जगत् करेलुं माने छे, एने कपिल मतवाला अव्यक्तथी । ॥७३८॥ बधुं विश्व थएलुं माने छे. यादृच्छिक मिदं सर्व, केचिद् भूत विकारजं । केचिच्चानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधाविताः ॥ ४ ॥ केटलाक यादृच्छिक (स्वभाविक) बधुं माने छे, केटलाक भूतोना विकारथी थएलुं माने छे, केटलाक मतवाळा अनेक रुपवाडं जगत् माने छे, आ प्रमाणे अनेक प्रकारे मतवादीओ पोताना विचार बताववा दोडेला छे. आ प्रमाणे जेमणे स्याद्वाद समुद्र अव-18 गाहन को नथी तेवा एकांश ग्रहण करी मतिना भेदवाळा बनेला परस्पर दोषित बनावे छे, तेज का छे: लोकक्रियाऽऽत्मतत्त्वे, विवदन्ते वादिनो विभिन्नार्थ । अविदित पूर्व येषां, स्याद्वाद विनिश्चितं तत्त्वं ॥१॥ लोक, क्रिया, आत्मा, तथा तत्त्व संबंधी जुदा जुदा विषयने बताववा तेज वादीओ झगडा करे छे के जेमणे स्याद्वादथी वि-६ दूशेष प्रकारे निश्चय कर्या विना तत्वानुं वर्णन करेलछे; पण जेमणे स्याद्वाद मतनो निश्चय कर्यो छे, तेओने अस्तित्व नास्तित्व विगेरे । 'अर्थनो नयना अभिप्राय प्रमाणे कथंचित् (कोइ अंशे) आश्रय करवाथी तेमने विवादनो अभावज छे, ग्रन्थ वधी जवाना भयथी अहीं बहु कहेवार्नु छे, छतां कहेता नथी, तथा तेनुं वर्णन सूत्रकृत विगेरे सूत्रमा विस्तारथी का छे. ते वधा परस्पर विवाद करता पोताना तत्वनो आग्रह करी तेनुं समर्थन करता पोते नाश पाम्या छे, अने बीजानो नाश करे R-CORRECRUPEECIRE RECIESAKASEACHESTERTAL Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा छे, ते बतावे छे:-केटलाक मुखथी धर्मने इच्छे छे, बीजा दुःखथी धर्म माने छे, केटलाक स्नानथी धर्म माने छे नथा मारोज धर्म | मोक्ष आपनार छे, बीजो बोलचा जेवोज नथी, एम बोलनारा अपुष्ट (तुच्छ) धर्मवाळा परमार्थ नहि जाणनारा (भोळा जीवो) ने PM सूत्रम् ॥७३९॥IPI फसावे छे. हवे तेमनो उत्तर जैनाचार्य आपे छे. लोक छे अथवा नथी विगेरेमां तमे जाणो.. . ॥७३९॥ । अकस्मात् (मागध) देशमां आ शब्द गोवाळणी सुधां पण संस्कृतमां बोले छे, तेथी तेजरुपे लीधो छे एटले कस्माद (ते हेतु 13 &छे अने अ साथे लेवाथी अकस्माद् ते अहेतु छे) तेमां ते हेतुना अभावथी बनतुं नथी, एम समजवु के दरेकमां हेतु रहेल छे, जो नेम न मानीने एकांतथीज " लोक छे," एवं मानीए तो ते अस्ति (छे), शब्द साथे समान अधिकरणपणे थवाथी जगतमा जे जे छे, ते बधुं लोक थशे, अने तेम मानतां तेनो प्रतिपक्ष पण 'अलोक' अस्ति (छे), तेथी लोकज अले थशे, अने व्याप्यना सद्भावमा व्यापकनो सद्भाव थतां अलोकनो अभाव थशे, अने तेना अभावमां तेना प्रति पक्ष लोकनो प्रथमज अभाव थशे. अथवा लोकनुं सर्व गतपणुं सिद्ध यशे. अथवा "लोक अस्ति" पण लोक न भवति नथी लोक पण नामज छे, अने लोक नथी लोकनो अभाव छे. ए प्रमाणे थशे, आ बधु अनिष्ट छे, अने अस्तिनुं व्यापकपणुं होवाथी लोक साथे अस्ति एकांत लागवाथी घट पट विगेरेमां पण लोकपणानी प्राप्ति | त यशे कारण के व्याप्यना व्यापकना सद्भाव साथे अंतरपणुं नथी वळी अस्ति लोक आ प्रतिज्ञा पण लोक एम मानवाथी हेतुनुं पण अस्तित्वपणुं छे, तेथी "प्रतिज्ञा अने हेतु" बन्नेमां एकत्व प्राप्ति थशे, अने ते एक धतां हेतुनो अभाव थशे, अने हेतुना अभावमां 8 कोण केनाथी सिद्ध थशे, अथवा एम मानीए के " अस्तित्वयी अन्य लोक छे, तो प्रथम करेली प्रतिज्ञानी हानि थशे, तेथी एल UPERHICKECEMit बाAA AAAA-%% Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रमाणे एकांतथीज लोक अस्तित्व मानतां हेतुनो अभाव बताव्यो, एज प्रमाणे नास्तित्वनी प्रतिज्ञामां पण समजवं, ते वतावे छे, कोइ8 आचालन एम कहे के " लोक नथी" आq वोलनारने पूछ, के तमे छो के नहि ? अने जो तमे छो तो लोकमां के लोक बहार जो लोकमां सत्रम - हो, तो लोक नथी एवं केम बोलो छो ? अने लोक बहार एम बोलशो तो खर, विषाण (गधेडातुं शींगडा) माफक असत्य सिद्ध ॥७४०॥ 5थया, तेथी मारे कोने उत्तर आपवो ? आ प्रमाणे दरेक विद्वाने पोतानी मेळे विचारीने एकांत वादीओनुं समाधान करवु. ॥७४०॥ एवं'-जेम अस्तित्व नास्तित्व वाद तेमने मानेलो आकस्मिक नियुक्तिक (युक्ति विनानो) छे, एज प्रमाणे ध्रुव अध्रुव विगेरे वादो पण नियुक्तिज छे, पण अमारा जैन स्यावाद वादीना जैनमतमां कथंचित् (कोइ अंशे) ना स्वीकारथी उपर बतावेला दोषनो Bा प्रसंग नथी, कारण के स्वपर सत्ताना उपादान व्युदासथी वस्तुनुं वस्तुपणुं उपाय छे, एथी व द्रव्य क्षेत्र काळ स्वभावथी वस्तुनु अस्तिपणुं छे, अने परद्रव्य क्षेत्र काळ स्वभावथी नास्तिपणुं छे, कां छे केः सदेव सर्व को नेच्छेत, स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान् न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥ स्वरूप विगेरे चार (द्रव्य क्षेत्र काळ भाव) थी वधा पदार्थोने सत् तरीके कोण न इच्छे ? अने तेथी उलटुं ते बीजाना द्रव्यादि चष्टतुयथी पोते असत् छे, जो तेम न मानीए तो वस्तुनी व्यवस्था रहे नहि. विगेरे जाणवं, कारण के सूत्रना संबंधना लीधे आ से प्रयास थोडमां समजाववा माटे कहेल छे, माटे वधारे कहेता नथी, ए प्रमाणे ध्रुव अध्रुव विगेरेमां पण पांच अवयव अथवा दश अवयव अथवा विजी रीते एकांत पक्ष साथे स्याद्वाद पक्ष सरखावी विचारीने योजवो. (आ पांच अवयव अने दश अवयवर्नु स्वरुप दशवकालिक प्रथम अध्ययनमां हरिभद्रमरि महाराजनी टीकमां बतावेल छे. गलव- बलवान Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७४१॥ हवे समाप्त करे छे – ए प्रमाणे उपर बतावेली नीतिए ते वधां एकांत वादीओनो धर्म. तेंओए योग्य रीते कह्यो नथी, तेम शास्त्र प्रणयनवडे सारी रीते प्रज्ञापित पण नथी, प्र ० - पोतानी बुद्धिए तमे आ केम कहो छो ? उ०- नहीं, अथवा वादी पूछे छे के जो ते वादीओनो एकांत पक्ष बरोबर' कहेलो नथी, तो केवो धर्म सुप्रज्ञापित थाय छे. तेथी जैनाचार्य ( गणधरो ) सूत्र कहे छे: से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपनेण जाणया पासया अदुवा गुप्ती वओगोयरस्स तिबेमिवत्थ समयं पावं, तमेव उवाइकम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामेवा अदुवा रपणे नेव गामे नेव रपणे धम्ममोयाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिन्नि उदाहिया जेसु इमे आयरिया बुझ माणासहिया, जे निव्वुया, पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया (सू० २००) वस्तुनु आ स्याद्वादरूप लक्षण वधा व्यवहारने अनुसरनारुं कोइपण वखत न हणानारुं ( सर्वत्र जय पामेलुं) भगवान महावीरे कहेलुं छे अथवा हवे पछीनु कद्देवानुं पण महावीर प्रभुए क छे. ते केवा छे उ० – केवलज्ञान होवाथी तेओ आशुमज्ञावाळा छे अर्थात् तेओ सदा उपयोगबाळा छे. प्र० – बन्ने उपयोग साथै छे के ? उ० – नहीं, कारण के ज्ञान उपयोगथी जाणता, तथा दर्शन उपयोगथी देखता महावीर प्रभुए कह्या छे. तेवो धर्म एकांतवादीओए कह्यो नथी. अथवा गुप्ति ते वाचानी छे. एटले भाषा समिति जाणवी ते भगवान महावीरे का के दरेके भाषा सूत्रम् ॥७४१॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति राखवी. (विचारीने बोलवू) अथवा अस्ति नास्ति ध्रुव अध्रुव विगेरे बोलनारा वादीओ वाद करवाने माटे तैयार थयेला आचा० जेओ त्रणसो तेसठनी संख्यावाळा छे. तेवा त्रणसो तेसठनी प्रतिज्ञा हेतु दृष्टांत उपन्यासना द्वारवडे भूलो बतावी तेमनुं गीतार्थ सुत्रम ९ साधुए समाधान करवू. अथवा वचननी गुप्ति साधुए राखवी तेनु स्वरुप हु कहुं छु. अने हवे पछी कहीश. ते वादीओ जे बाद क-II ॥७४२॥ रवा आवे तेमने आ प्रमाणे कहे. जेम तमारा वधामां पण पृथ्वी पाणी अग्नि वायु वनस्पतिनो आरंभ करवो, कराववो, अनुमोदवो ॥७४२।। ४ एम संमति आपी छे. एथी बधी जग्याए आ पाप अनुष्ठान छे. एम अमारो मत छे. अर्थात् तमे ते हिंसाने पाप मानता नथी, पण त जीवोने दुःखरुप होवाथी अमे तेमने जैनमत प्रमाणे पाप मानीए छीए. ते कहे छे. _ 'तदेव'-आ पाप अनुष्ठान छोडीने हुँ रह्यो छु एज मारो विवेक छे. [जे बीजाने दुःख देवान छोडे छे, तेज पोते पापथी ब-18 चेलो छे. अने तेज धर्म कहेवाने योग्य छ] तेथी हुँ वधाथी अप्रतिसिद्ध आस्रवद्वारोवाळा साथे केवी रीते भाषण करु. (जे जीवोने 6 बचावचा चाहे ते हिंसकोनी साथे केवी रीते वाद करी शके ?) तेथी वाद करवो दूर रहो. ए प्रमाणे असमनुज्ञ [ असंमति ] नो विवेक करे छे. प्र०--अन्य तीथिओ पापनी संमतिवाळा अज्ञानी मिथ्या दृष्टि चारित्र रहित अने अतपस्वी छे तेवु केवी रीते मानो छो ? कारण के तेओ न खेडाएली भूमि उपर जे वन छे तेमां वास करनारा छे. कंदमुळ खानारा छे. अने झाड विगेरेना आश्रये रहेनारा छे अहीं जैनाचार्य कहे छे. उ०-अरण्यवासथीज धर्म नथी पण जीव अजीवना संपूर्ण ज्ञानथी तया तेमनी रक्षानां अनुष्ठान करवाथी धर्म छे अने तेवो धर्म तेमनामां नथी, तेथी तेओ असमनोज्ञ छे (उत्तम साधु नथी) वळी सारा माठानो विवेक जेमा होय ते धर्म छे अने तेवो धर्म लाल बवानवाला Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७४३॥ SABHA गाममां पण थाय अने अरण्यमां पण थाय पण धर्मनु निमित्त के धर्मनो आधार गाम के अरण्य नथी, जेथी भगवाने रहेवासने || आश्रयी के बीजी रीतनो आश्रय लइने धर्म बताव्यो नथी, तेमनुं कहे, ए छे के प्रथम जीवादि तत्वनुं ज्ञान मेळवबुं अने सम्यग सूत्रम् अनुष्ठान करवां के सर्व जीवोने अभयदान मळे ते धर्म छे.] ते धर्मने तमे वरोबर जाणो एवं भगवान महावीरे का छे. प्र०-भग-18/॥७४३॥ वान केवा छे ? उ०-मनन ते बधा पदार्थोनं परिज्ञान छे तेज मति छे अने ते मतिवाळा (केवळज्ञानी) भगवाने का छे. प्र०-केवो धर्म कह्यो छे ? उ०-याम ते महावतो छे तेमांत्रण बताव्या छे. जीव हिंसा जुठ अने परिग्रह ते त्रणेनो त्याग ने याम छे. ते परिग्रहमा अदत्तादान अने मैथुन समाव्या छे माटे पांचने बदले त्रण संख्या कही छे. अथवा याम ते वय (उमर) नी अवस्था छे. जेमके आठ वरसथी त्रीस अने त्यारथी साठ सुधी बीजी अने त्यारपछी त्रीजी एमां दिक्षा लेवाने अयोग्य एवा तद्दन नाना आठ वरसनी अंदरना अने छेकज बुढानो समावेश न को. (जुदा काढ्या) अथवा जेनावढे संसार भ्रमण विगेरे दूर । थाय ते याम ते ज्ञानदर्शन चारित्र छे. एम यामनो त्रण प्रकारे त्रणनी संख्यानो अर्थ को. (एटले महाव्रत पाळवां त्रण अवस्थामां धर्म करवो. अने रत्नत्रय ज्ञान विगेरे प्राप्त करवां) जो आ प्रमाणे छे तो शुं करवं. ते त्रण अवस्थामां अथवा ज्ञान विगेरेमां आर्य देशमा उत्पन्न थयेला अथवा पाप धर्मो दूर । करनारा बोध पामेला चारित्र पाळवा तैयार थयेला साधुओ छे. तेओ केवा छे.? ते बतावे छे. जेओ क्रोध विगेरे दूर करीने शांत थयेला छे अने पाप कर्ममा जेओ वासना राखता नथी तेज उत्तम साधुओ (मोक्षना अधिका-18 रीओ) छे. प्र०-तेओ कइ जग्याए पाप कर्ममां वासना रहित छे.? ते बतावे छे.! SASREGAAAAAA Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकलना उ8 अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियकं जोवेहिं कम्मसमारम्भे गं तं आचा० परिन्नाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समा रभाविजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारम्भतेऽवि समणुजाणेजा जेवऽन्ने एएहिं काएहिं ॥७४४॥ दंड समारम्भति तेसिपि वय लज्जामो तं परिन्नाय मेहावी तं वा दंडं अन्नं वा नो दंडंभी दंडं समारमिजासि तिबेमि (स० २०१) विमोक्षाध्ययनोदेशकः ८-९ ॥ उंचे नाचे के तिरछी दिशामां वधा प्रकारे जे जे दिशामा छे अने च शब्दथी विदिशा [खुणा] छे, तेमां एकेन्द्रिय सूक्ष्म वादर विगेरेमा जे कर्मोनो समारंभ छे. अर्थात् जीवोने दुःख देवा रुप जे क्रियाओनो समारंभ (संसारो कृत्य) छे. ते वधा कर्म समारभने ज्ञ परिज्ञा बडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञा वडे त्याग करवा. म.---कोण त्याग करे.? उ०-मर्यादामा रहेलो बुद्धिमान साधु. प्र०-केवी रीते त्यागे ? उ०-पोते पोताना आत्माथीज चौद भूतग्राममा रहेला पृथ्वीकाय विगेरे जीवोने दुःख रुप आरंभ न करे. पण वीजा पासे पण आरंभ न करावे. तेम आरंभ करनानी अनुमोदना न करे. का (सूत्रमा छटी विभक्ति छे. तेनो अर्थ त्रीजीमां लइए तो) ते हिंसाना करनाराभोथी अमे शरमाइए छीए. एको उत्तम विचार 18 करीने साधु पोते मर्यादामा रहीने तथा कर्मनो समारंभ मोटा अनर्थ माटे छे, एम जाणीने पोते ते कर्म समारंभ छोडे. तथा जुठ/ AAAबाव-भावना EK Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७४५॥ विगेरे दंडथी पोते डरे. तेथी दंडभीवाळो साधु जीवोने दुःख रूप दंडनुं कंइ पण कार्य न करे अर्थात् कर कराव अनुमोदनुं ते त्रण करण अने मन वचन काया ए त्रण योग छे. तेना वडे त्यागे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे. पहेलो उद्देशो समाप्त. ॐ) बीजो उद्देशो, पहेलो उद्देशो कह्यो, हवे बीजो कहे छे तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां पाप रहित संयम पाळवा माटे कुशीलनो | परित्याग बताव्यो आ परित्याग अकल्पनीयना परित्याग विना संपूर्णपणाने न पामे. माटे साधुने अकल्पनीयना परित्यागनो विषय बतावनार आ उद्देशो कहे छे. एवा संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. से भिक्खू परिक्कमिज वा चिट्ठिज वा निसाइज वा तुयहिज्ज वा सुसाणंसि वा सुन्नागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कुमाराययणसि वा हुरत्था वा कहिंचि विहरमाण तं भिक्खु उaiकमि गाहावई बूया - आउसंतो समाण ! अहं खलु तव अट्ठा असणं वा पाणं वा खइमं वा सइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं अच्छिनं अणिसट्टे अभिहडं आ सूत्रम् ॥७४५ ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम १६ हटु चेएमि आवसहं वा समुस्सिणोमि से भुंजह वसह, आउसंतो समणा ! भिक्खू तं आचा० गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे-आउसंतो? गाहावई नो खल्लु ते वयणं आढामि नो खल्लु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्टाए असणं वा ४ वत्थं ४ पाणाई वा ४ ७४६॥ सणारम्भ समुदिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्ज अणिसह अभिहडं आहटु चेएसि आवसहं वा समुस्सिणासि, से बिरओ आउसो गाहावई ? एयस्स अकरणयाए (सू० २०२) सामायिक उच्चरेलो ते साधु सावध अनुष्ठान छोडवाथी मंदर [ मेरु ] पर्वते चढवा समान प्रतिज्ञा करेलो भिक्षाथी जीवन गुजारनार साधु-भिक्षा लेवा के बाजा कार्य माटे पराक्रम (विहार) करे, अथवा ध्यानमा लीन थइने उभी रहे, अथवा भणयु IN भणावयु, अथवा सांभळयु के संभळावq होय त्यारे वेसे, तथा कोइ जग्याए मार्गमां थाफतां आडो पडे (सुइ रहे) भ०-आ यधुं कइ जग्याए करे ? ते बतावे छे-मशाण एटले ज्यां मुडदा दाटे चाळे ते स्थान, (जेनुं बीजुं नाम पितृवन) छे तेमां मुवान संभवे 18 नहि, माटे यथायोग्य ज्यां घटे, ते लेचं, ते विचारतां गच्छ वासीओने ते मशाण विगेरे स्थान कल्पतां नी, कारण के तेवा स्था नमा रही प्रमाद थतां व्यंतर विगेरेनो उपद्रव थाय छे, तथा जिनकल्पी मुनि थवानी सत्व भावनाने भावगार स्थविर काल्पी मुनिने पण मशाणमां निवास करवानी संमति आपी नथी, पण प्रतिमाधारी मुनिने तो ज्यां सूर्य आथमे त्यांज रहेवानुं , तेवाने आश्रयी अथवा जिनकल्पी मुनिने आश्रयी मसाणचें स्थान सूत्र प्रमाणे समजवू, ए प्रमाणे ज्या जेनो संभव याय, त्यां ने योग. शून्यागार CRELESESERSINGER अरवालालाम्बर Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार (उज्जड घरमां) रहे; अथवा, पर्वतनी गुफामां अथवा झाड नीचे अथवा, कुंभारनां स्थानमा अथवा, गामनी बहार कोइ पण जग्याएल/ सूत्रम् ते साधु कोइ वखत विहार करे; तेने घरनो मालिक आवीने साधुनी जग्यामां जइने बोले. जे बोले ते बतावे छे. ॥৩৪৩৷ M मसाण विगेरे स्थानमा परिक्रमण निगेरे क्रियाने करता साधु पासे कोइ त्यां पहेला उभो रहेल कोइ माणम स्वभावथी भद्रक जीव अथवा समकीत वारी श्रावक गृहस्थ होय, ते साधुना आचारमा अजाण होय; ते साधुने उद्देशीने कहे. आ आपेलो आहार खानारा छे. आरंभ छोडेला छे. अनुकंपा लाववा योग्य छे अने एटलं छतां, तेओ सत्य शुचिवाळा (स्नान रहित) छे. माटे, एमने आपेलं अक्षय फळ आपनार छे माटे, हं तेमने दान आपोश. एम विचारीने साधु पासे आवे अने बोले. हे अयुष्मन् ! हे माधु ! हुं संसारसमुद्र तरवानी इच्छावाळो तमारे माटे भोजन, पाणी खादिम, तथा स्वादिम वस्तु लावू; अथवा वस्त्र, पात्रां, कांबळ, रजोहरण, विगेरे बनावीने लावं. अर्थात आम कहीने ते गृहस्थ शुं करे ? ते कहे छे. पंचेन्द्रिय जेओ श्वास ले छे, ते पाणीओ छे. तथा त्रणे काळमां थया, थाय छे अने थशे. ते भूत छे, तथा जीवता हता, जीवे छे, अने जीवशे; ते जीवो छे. तथा सुख दुःखमा सक्त छे ४ ते सत्वो छे. तेमनो आरंभ करीने लावे; तेमां भोजन विगेरेना आरंभमां प्राणीनुं उपमर्दन अवश्य थवानुं छे. आ गृहस्थोनुं कहेलं 51 बधु अथवा थोडु, कोइ साधु स्वीकारी ले. माटे खुलासो करे छे. आ अविशुद्धि कोटि लीधी छे ते बतावे छे. आहा कम्मुसिअ मीसज्जा वायरा य पाहुडिआ। पूइअ अज्झोयरगो उग्गमकोडी अ छब्भेआ॥१॥ अधाकर्मी उद्देशीक मिथ, अने बादर भाभृतिक पूति अने अध्व पूरक, उमद्कोटी आ छ भेदो ते, अविशुद्धि कोटि छे. (आ दशवकालिक मूत्रनी पांचमा अध्ययननी नियुक्तिनी गाथा छे. तेमां सूचव्यु के, जे कार्यमां जीवोने साक्षात् हणे; ते बE Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० R RECO सूत्रम ॥७४८॥ ॥७४८॥ साधु निमित्ते थवाथी अविसुद्धि कोटि छे.) हवे. विशुद्धि कोटि बतावे छे. मूल्यथी लीधेलु, उधारे लीधेलु, छीनवी लीधेलं. जेम कोइ राजा गृहस्थ पासेथी साधुने आपवा माटे छीनवी ले. तथा पारकानुं बदले लीधेलं आq कोइ साधुने दान देवा माटे करे; 2 तथा पोतानां घरथी साधुना सामे लावीने आपे; ते विशुद्ध कोटी छे. (आमां साक्षात् जीव हिंसा साधु माटे थती नथी. माटे, वि शुद्ध कोटी) आ प्रमाणे साधुने आपवा कोइ बोले; तथा हुँ तमारे माटे उपाय बनावीश; अथवा सुधरावीश. एवं बोले; अने ते गृहस्थ हाथ जोडीने माथु नमावीने आहार विगेरेनी निमंत्रणा करे अने बोले हे साधु ! आ भोजन वापरो मारां सुधारेलां घरमां में रहो; ते वखते साधु जे सूत्र अर्थनो भणेलो विद्वान होय; तेणे दीनतावालं मन न करतां तेने ना पाडवी; ते माटे गुरु शिष्यने ॐ कहे छे:-हे आयुष्मन् ! हे साधु ! हे भिक्षु! ते गृहस्थ बुद्धिमान होय; मित्र होय; अथवा बीजो कोइ होय तेने साधुए केवो उत्तर टू आपवो? ते वतावे छे, हे आयुष्मन् ! हे गृहस्थ ! तमारुं ए वचन हुं स्वीकारतो नथी. ('खलु' अपिना अर्थमां छे, अने ते समुच्च यना अर्थमां छे.) मारे साधुनो आचार जे पाळवानो छे, तेनुं ज्ञान मने होवाथी हुं स्वीकारुं नहीं. तुं मारे मारे जीवोने दुःख देवा 2 रुप भोजन विगेरे बनावे, अथवा उपाश्रय बनावे; तो मने ते कल्पे नहीं. कारण के, हे आयुष्मन् ! हे गृहपति ! तेवा आरंभ कराववा रूप अनुष्ठानथी हुँ मुक्त थयेल छु. माटे जाणी जोइने हुं केवी रीते स्वीकारूं? माटे हुं स्वीकारतो नथी. आ प्रमाणे भोजन विगेरेना संस्कारनो साधुए निषेध को. पण जो, कोइ गृहस्थ प्रथमथी तेवो साधुनो अभिमाय जाणीने छानुंज तेवु भोजन, विगेरे करे अने साधुने आपे; तो पण, साधुए बुद्धि बळथी कोइ पण रीते जाणीने तेनो निषेध करवो ते बतावे छे. ECE actGEGRAL Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० से भिक्खु परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गा सुत्रम् हावई आयगयाए पेहाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहटु चेएइ आवसहं वा समुस्सि॥७४९॥ णाइ भिक्खू परिघासेउ, तं च भिक्खू जाणिज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा ॥७४९॥ सुच्चा-अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थ वा ४ जाव आवसहं वा समुस्सिणाइ, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिबेमि (सू० २०३) ते साधुने मसाण विगेरेमां कोइ स्थाने विचरतां कोइ गृहस्थ मळतां ते हाथ जोडीने प्रकृतिथी भद्र होय; ते मनमां विचारे के & हुं आ साधुने गुप्त रीते आरंभ करीने गोचरी विगेरे आपीश. P H०-शा माटे ? उ०-ते साधुने आहार करवा माटे आपीश; अथवा, साधुओने रहेवा माटे मकान बनावी आपीश. ते साधु माटे बनावेल आहर विगेरे दोषित छे एम साध जाणी ले. प्र०-केवी रीते जाणे ? पोतानी ताक्ष्ण बुद्धिथी अथवा, तीर्थङ्करे बतावेला उपायोथी अथवा, बीजा माणसो एटले, तेना नोकर चाकर विगेरेने पूछीने जाणो ले के आ गृहस्थ मारे माटे आरंभ करीने आहार विगेरे अथवा, उपाश्रय आपे छे, आवु वीजा पासे साधु सांभळे तो, ते वातनी खात्री करीने ते साधु कहे के, आ अमारे माटे बनावेलुं छे तेथी कल्पतुं नथी; माटे, हुं नहीं ल. जो आq करनार श्रावक होय; तो, तेने टुंकाणमां पिंड नियुक्तिनुं स्वरुप सम-18/ | जावq. बीजो, भद्रक स्वभावनो होय तो, तेने निर्दोष भोजनना दाननुं फळ बतावे; तथा गोचरीना सोळ उद्गम विगेरे दोष बतावे; -%3A%AHISHAS हवल्कलकलर Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७५०॥ 5 तथा यथाशक्ति ते संबंधी धर्मकथा कहे छे: काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य चं दातव्यं दानं प्रयतात्मना सभ्यः ॥१॥ दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥२॥ ६. सूत्रम दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रापितेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सधानपात्रेण ॥३॥ ॥७५०॥ योग्य काळ देशमा साधुने कल्पे तेवू श्रद्धा सहित शुद्ध अनथी उद्यमवाळा थइने मासुक दान उत्तम साधुओने आपq (१) उत्तम पुरुषो जे गुणमां अधिक छे, तेमने विनय वडे थोडं पण, आपेलुं दान मोटुं फळ आपे छे. जेम-बडनी कणिका नानी * छतां, बडनुं झाड सांरां फळवाल बनावे छे. (२) तीक्ष्ण बुद्धिवाळा पात्रमा योग्य दान आपीने दुःख समुद्रने तरे छे. जेम-मगरनां स्थानवाळो मोटो समुद्र होय; तेने वेपारीओ नानां वहाण वडे तरी जाय छे. (३) आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे, अने हवे पछीनं पण तेओ कहे छे:भिक्खु च खलु पुट्टा वा अपुट्टा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकारेह विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया णमेणलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपु ता लवडा Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७५१॥ 5-CASS वेण संमं पडिलेहए आयतगुत्ते बुझेहिं एवं पवेइयं (सू० २०४) ('च' समुच्चयना अर्थमां छे. 'खलु' वाक्यनी शोभा माटे छे.) ते भिक्षाना आचारवाळा साधुने कोइ कहे:-हे साधु ! हुं तमारे। सूत्रम् माटे भोजन विगेरे अथवा उपाश्रय विगेरे तैयार करावीश: अथवा सुधरावीश. साधुए तेने संमति न आपी होय; तो पण, ते क-181 ॥७५१॥ रावे; अने मीठां वचन, अथवा बळात्कारथी हुँ साधु पासे ग्रहण करावीश एवं माने; अने बीजो कोइ गृहस्थ साधुना थोडा आचारने जाणतो होय; ते पूछया विनाज छान कार्य करे; अने विचारे के, हुं तेमने भोजन विगेरे आपीश. हवे ते न भोगववाथी श्रद्धानो | | भंग थवाथी अथवा, मधुर सेंकडो वचनना आग्रहथी, अथवा क्रोधना आवेशथी निश्चयथी सुख दुःख पणे अवलोक जाणनारो आ3 साधु छे. एम जाणीने पश्चाताप पूर्वक राजानी आज्ञा लइने न्यकार भावना पामेलो द्वेषी बनीने ते साधुने मारे पण खरो ते वतावे | छे, अने एक बताववथी घणानो आदेश छे तेथी जेओ आ पूछीने अथवा विना पूछे आहार विगेरे लाववामां घणुं द्रव्य खरचीने * साधुने अर्पण करे, अथवा द्रव्य खरची बनावेलुं भोजन विगेरे साधुओ न ले; तो मने ते गृहस्थ क्रोधी वनीने पीडा करे छे. प्र-केची रीते ? उ०-कहे छे. ते शेठ विगेरे क्रोधी वनीने पोते साधुने मारे छे. अथवा, मारवा माटे वीजाने प्रेरणा करे। छे, अने बोले छे के-आ साधुने दंडा विगेरेथी मारो तथा एना हाथ पग कापीने घायल करो तथा अग्नि विगेरेथी वोळो; तथा न तेमना साथळन मांस पकायो; तेनां वस्त्रो विगेरे लुटी ल्यो तथा तेनुं बधुं छीनवी ल्यो. एकदम बधु प्रहार वडे करावो शीघ्र पंचत्व (मरण) पमाडो; तथा, दुःख देवाना जुदा जुदा विचार करोः जुदी जुदी पीडाथी बाधा करो. आ प्रमाणे हुकम करवाथी ते साधुने 151 बीजाओ अनेक प्रकारे दुःखना स्पर्शो करे; तो पण, धीर बनीने ते फरसोने फरशी शांतिथी सहन करे. तथा वीजा भूख तरस C ORRE नहत Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम ॥७५५॥ विगेरेना परिपहो आवे; ते पण सहे; पण परिषह उपसर्ग आवेथी कंटाळीने विकलवता (खेद) पामीने तेनो उद्देशिक विगेरे दोपित आहारनी अभिलापा न करे; अथवा, सांत्ववाद (मीठां वचन) विगेरे अनुकुळ उपसर्गोथी ललचावतां पण, अशुद्ध आहार न ले. जिनकल्पी मुनि तो आचार पाळे; पण, तेनाथी जुदो स्थविरकल्पी साधु पण सामर्थ्य होय; तो, पोतानो निर्दोष संयम पाळे. ते । ॐ कहे:-जुदा जुदा उपसर्गोथी थती पीडाओने सहे; अथवा, साधुओना आचारनो विषय (अनुष्ठान) जे मूळ गुण उत्तरगुणना भेद 181 ॥७५२ संबंधी छे ते समजावे; पण, ते समये नयो वडे द्रव्य विचार समजाववा न बेसे, तेमां पण, मूळ गुणोनी स्थैर्यता माटे उत्तर गुणाने (विशेष प्रकारे) समजावे; अने तेमां पिंडैपणानी विशुद्धि समजावे;अने आ स्थळे पिंडेपणा सूत्रोने समजावां जोइए. वळी,कहेवूके. यत्स्वयमदुःखितं स्यान्न, न च परदुःखे निमित्त भूतमपि । केवलमुपग्रहकरं, धर्मकृतेतद् भवेद्देयम् ॥१॥ जेथी, पोते दुःखी न थाय; जेम. बोजानां दुःखमां पोते निमित्तभूत पण न थाय. फक्त धर्म करवा माटे आश्रय आपनारं निर्दोष भोजन विगेरे होय; तेज साधुओने आपवानुं छे. शुं बधा पुरुषोने आ वधुं कहेवू ? उ०-ना. आवनार पुरुष संबंधी विचार करीने कहेQ के-आ पुरुष कोण छे ? फोने माने छे ? आग्रहवाळो के, आग्रह रहित छे ? मध्यस्थ छे ? भद्रक छे ? एम बधुं विचारीने यथाशक्ति कहे अने शक्ति होय; तो, पांच अवयव अथवा, वीजी रीते ए प्रसिद्ध करे के, स्वपक्षनी स्थापना थाय; अने पर पक्षनी योग्य रीते भूलो बतावी तेने सुधारे. एवां अनन्य सदृश वचन कहे. पण साधु पोते सामर्थ्य रहित होय; अथवा, सामेनो माणस तत्वनी वात संभळावतां वधारे कोपे तेम होय, अथवा, अनुकूळनो प्रत्यनीक होय; तो वाक् गुप्ति (मौन) राखवी ते कहे छे. एटले, साधु बुद्धिमान होय; अने सांभळनार इच्छा बालकलन AGE Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा० राखे, तो, साधुनो निर्दोष संयम वतावबो; पण तेम न होय तो, मौन राखीने पोताना आत्मानुं हित विचारतो पिंड विशुद्धि विगेरे. | आचारना विषयने उद्गम दोष विगेरेथी दोपित छे के नहि ? एम बीजाथी पूछी लइने सम्यक् शुद्धि विचारे.'प्र०-केवो बनीने ? ॥७५३॥ उ.-आत्म गुप्त ते, सदा पोताना संयममां उपयोग राखनारों बनीने विचरे. आ में नथी का नेतुं सुधर्मास्वामि कहे छे. ॥७५३॥ 18 'बुद्धैः' ते कल्प्य अकल्प्यनी विधि जाणनारा तीर्थड्वर विगेरेए उपर बतावेलु कयु छे. तथा हवे पछीनु पण तेमनु कहेलं छे. से समणुन्ने असमणुनस्स असमणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिजा नो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू० २०५) फक्त, गृहस्थ अथवा कुशीलीया पासेथी अकल्प्य एम जाणीने आहार विगेरेन ले. तेमज, उत्तम साधु ढीला साधुने पूर्वे बतावेल आहार विगेरे पोते पण जे शुद्ध लावेलो होय ते न आपे; अथवा, तेवा पतितो बहु आदरपानथी आहार विगेरे आपे; अ-181 थवा बीजी रीते ललचावे; तो पण, तेमनी वैयावच्च न करे; त्यारे पोते केवो बने ? अने कोनी वैयावच्च करे ते कहे छे: धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुन्नस्स असणं वा जाव कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे (सू० २०६) त्तिबेमि ॥८-२॥ . सुरु कहे ठे-हे शिष्यो ! तमे केवळी वर्द्धमान स्वामिए कहेला दान धर्मने जाणो, समनोज्ञ साधु ते योग्य विहार करनारो होय ते अपर समनोज्ञ चारित्रधारी संविग्न होय, समाचारीमा रही साथे गोचरी करतो होव, तेवाने अशन विगेरे चार प्रकारनो AISE-RE । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० आहार, वस्त्र पात्र विगेरे चार प्रकारनुं द्रव्य आपे, तथा ते आपवा माटे निमंत्रणा करे, अथवा पेशल वैयावच्च करे अर्थात अंगमदैन (चोळq चांप) विगेरे पण करे, पण एथी विरुद्ध आचारवाळा जे गृहस्थो कुतीथिओ पासत्थाओ असंविग्न असमनोज्ञ साधुओ सूत्रम होय, तेमने आपे नहि, परंतु समनोज्ञनेज पोते आपे, तथा अतिशे आदर सत्कार करीने तथा ते वस्तु माटे सीदातो होय, अथवा । तपेलो होय, तो तेनी योग्य रीते वैयावच्च करे, आथी एम वताव्यु, के गृहस्थ तथा कुशीलीया साधुनी वैयावच्च न करवी, आहार 6 ॥७५४॥ विगेरे न आपवा. पण आटलुं विशेष छे, के गृहस्थ पासे जे कल्पनीय छे ते लेवु अने अकल्पनीयनोज निषेध छे, पण असमनोज्ञ साधु * पासेथी तो सर्वथा लेवानो निषेध कर्यो. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. विमोक्ष अध्ययनमां बीजो उद्देशो समाप्त थयो. ॥७५४॥ RECASECRECENT त्रीजो उद्देशो बीजो कह्या पछी श्रीजो उद्देशो कहे छे. जेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां अकल्पनीय आहार विगेरेनो निषेध कह्यो. तथा तेना निषेधथी अपमान मानीने कोइ कोप करीने मारवा तैयार थाय, तेने दान केवी रीते देवु ते यथावस्थित दान विधिनी प्ररूपणा साधुए करवी, तेम आ उद्देशामां पण आहार विगेरे निमित्त माटे घरमा पेठेला साधुनुं अंग ठंड विगेरेथी कंपतुं देखीने गृहस्थने उलटुं समजाय के आ साधु काम चेष्टादिना कारणे धजे छे, तेवा गृहस्थने यथावस्थित स्वरुप बतावीने गीतार्थ साधुए तेनी। खोटी शंका दूर करवी. आ प्रमाणे आवा संबंधे आवेला उद्देशानुं सूत्रानुगममां सूत्र उच्चार, जोइए ते कहे छे. मज्झिमेणां वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया . Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० समियाए धम्मे अरिएहिं पवेइए ते अणवकंखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो सूत्रम् ॥७५५॥ परिग्गहावंती सवाति चणं लोगंसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुबमाणे एस महंghar 18॥७५५॥ अंगथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयन्ने उववायं चवणं च नच्चा (सू० २०७) अहीं त्रण अवस्थाओ छे. जुवानी मध्यम वय, अने वृद्धावस्था छे, तेमां मध्यम वयवाळो परिपक्व (स्थिर) बुद्धिवाळो होवाथी धर्मने योग्य छे, ते प्रथम बतावे छे, केटलाक मध्यम वयमां बोधपामेला धर्म चरण माटे तैयार थएला ते समुत्थिन जाणवा. जो की युवावस्था के वृद्धावस्थामां दीक्षा लेनारा होय छे, छतां पण, वाहुल्यताथी तथा पाये मध्यम अवस्थामां भोग तथा कुतूहलनी इच्छा दुर थयेल होवाथी अविघ्नपणे धर्मनो अधिकारी थाय छे. माटे मध्यम वय लीधी छे. IF -केवी रीते बोध पामेला तैयार थया छे ? उ०-कहे छे. अहीं त्रण प्रकारना बोध पामनारा जाणवा. (१) स्वयं बुद्ध (२) प्रत्येक बुद्ध, (३) बुद्धबोधित. ते त्रणमां अहीं बुद्धबोधितनो अधिकार छे, ते कहे छे. 'मेघावी' ते मर्यादामा रहेल बुद्धिमान साधु पंडितो (तीर्थङ्कर) विगेरेनुं हित ग्रहण करवू, अहित छोडवू, ए वचन प्रथम सांभळीने पछी विचारीने समताने धारण करे. प्र०-शा माटे ? उ-कारण के समता एटले मध्यस्थपणुं धारीने आर्य तीर्थकर विगेरे ए प्रकर्षथी श्रुति चारित्ररुप धर्म कह्यो छे. अने मध्यम वयमां नेमणे धर्म सांभळीने बोध पामीने चारित्र लेवा तैयार थयेला छे. ते शुं करे ते कहे. छे. तेओ दीक्षा 18 लइने मोक्ष तरफ प्रयाण करी काम भोगोने त्यागी तथा जीवोने दुःख न दइने परिग्रहने धारण न करता विचरे. ( पहेलुं छेल्लुरू CEBHAGARAAT Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७५६॥ लेवाथी वचलां त्रण आवे छे. ) तेथी जुठ न बोलता चोरीने त्यागी ब्रह्मचर्य पाळता विचरे एवा साधुओ पोताना देहमां पण ममत्व त्यागे छे. एमज वधा लोकने विषे कोइपण जातनो परिग्रह तेओ राखता नथी. (च समुच्चयना अर्थमां छे. अने ते भिन्न क्रम बतावे छे. णं वाक्यनी शोभा माटे छे.) वळी प्राणीओने दंडे ते दंड छे, अने ते दंड बीजा जीवने परिताप करनार छे. ते दंडने प्राणी तरफ अथवा प्राणी विषे नांखवाथी पाप थाय कर्म वेधाय तेथी ते पाप रूप कर्म ते अढार प्रकारनुं छे. तेने पोते उत्तम साधु आचरतो नथी.तथा वाह्य अभ्यन्तर ग्रन्थ छे तेने त्यागवाथी तेवा साधुने तीर्थङ्कर गणधर विगेरेए अग्रंथ (निर्ग्रन्थ) कह्यो छे. प्र० - आवो कोण थाय ? उ०- 'ओजः ते अद्वितीय एटले रागद्वेष रहित होय छे. तथा द्युतिवाळो एटले संयम अथवा मोक्ष छेतेना खेदने जाणनारो छे. अने ते निपुण होवाथी देवलोकमां पण उपपात च्यवन छे. एम जाणीने विचारे छे के बधां संसारी स्थान अनित्य छे. एवी बुद्धिथी पोते पाप कर्मने वर्जनारो थाय छे. केटलाक पुरुषो तो मध्यम वयमां पण चारित्र लीवेला परिषद तथा इन्द्रियोथी ग्लानता पामे छे. ते बतावे छे. आहारोवचया देहा परीसहप भंगुरा पासह एगे सविदिएहिं परिगिलायमाणेहिं (सु० २०८) आहारथी उपचय थाय ते आहारोपचय छे. प्र० – ते कोण छे ? उ० – देहो छे. ते देहो आहारना अभावमां झांखाश लावे छे अथवा ते नाश पामे छे. ते प्रमाणे परषहो आवेथी भंगुर छे. तेथी आहारथी देहो पुष्ट थया छतां पण परिषदो आवतां अथवा वायु विगेरेना अटकावथी ग्लानी पामे छे. एटले गुरु शिष्य ने कहे छे. हे शिष्यो तमे जुओ के केटलाक बधी इन्द्रयो झांखी पडतां कलीबताने पाये छे. ते बतावे छे. भूखथी सूत्रम ॥७५६ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७५७॥ | पीडाएलो देखतो नथी, सांभळतो नथी, संघतो नथी, विगेरे जाणवुर तेमां आहार विना केवळीनुं पण शरीर ग्लान भाव पामे छे. तो ते सिवायना बीजा जे स्वभावथीज भंगुर शरीरवाळा छे तेनुं भुं कहेतुं ? म० - केवळी विनाना साधुओ अकृतार्थ छे, अने क्षुधा वेदनीयनो सद्भाव छे, तेथी तेओ आहार करे छे अने दया विगेरे महात्रतो पाळे छे ए मानवुं ठीक छे पण, केवळी तो नियमथी मोक्षमां जनार छे. त्यारे शा माटे शरीरने धारे छे ? अने ते धारण करवा शुं काम खाय छे ? उ०—तेने पण, चार अघाति कर्मनो सद्भाव छे. तेथी एकांतथी कृतार्थता नथी, अने तेनी खातर शरीर धारे छे ! अने आ| हार विना तेनुं धारण न थाय; तथा तेमने क्षुधावेदनीय कर्मनो सद्भाव छे माटे खाय छे. ते कहे छे:- वेदनीयना सद्भावथी तेना करेला ११ परिसहो पण, केवळी ने ओछा के वधा परिषदो उदयमां आवे छे तेथी केवळी पण खाय छे. ए सिद्ध थयुं; अने तेथीज आहार विना इन्द्रियोनी ग्लानता छे एम बतान्युं. आ प्रमाणे तत्त्वने जाणनारो परिसदथी पीडानो होय, छतां पण शुं करे ते कहे छे:भिक्खु कालन्ने बलन्ने मान्ने ख अपडिन्ने दुहओ छित्ता नियाई (सू० २०९) छते पण, दया (कृपा) पाळे ( धारण करे) पण परिषहथी लघुकर्मा होय ते. जेनावडे सम्यक् रीते नारकी विगेरे ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से विषयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुट्टाइ ओज – ते एकलो रागद्वेष रहित बनीने भूख तरसनो परिषह आवे पीडातां दया छोडी न दे. प्र० – क्यो पुरुष दयाने पाळे छे ? उ०- जे सूत्रम् ॥७५७॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमां रखाय ते) संनिधान कर्म छे, तेना स्वरूपने जणावनार शास्त्र छे, तेनो निपुण खेदज्ञ छे, अर्थवाँ संनिधान कर्म छे, तेनु आचा० सशस्त्र संयम छे, तेना खेदने जाणनारो छे. अर्थात् संम्यक् संयमनो जाणनारो छे अने जे संयमनी विधि जाणनारो छे, ते भिक्षु काळज्ञ ते उचित अनुचित अवसरनो जाण छे आ बां. सूत्रोनो अर्थ 'लोक विजय' नामना.बीजा अध्ययना पांचमा उद्देशामां बता । सूत्रम ॥७५८॥ वेल होवाथी त्यांथी जाणी लेवु तथा वलज्ञ, मात्रज्ञ क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, वधी वावतमां निपुण साधु परिग्रहनो ममत्व त्यागीने ॥७५८ कालमा उत्थायी तथा अप्रतिज्ञ (कदाग्रह रहित) वनीने उभयथी (द्रव्य भावथी) ममताने छेदनारो बनीने ते साधु संयम अनुष्ठानमा | निश्चयथी वर्ते; तेने संयमअनुष्ठानमां वर्त्ततां शुं थाय? ते कहे छे: तं भिक्खु सीयफासपरिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई ब्रूया आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा-उवाहंति? आउसंतो गाहावई! नो खल्लु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सीय फासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पड अगाणकायं उज्जालित्तएवा (पज्जालित्तए वा) कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ, सिया स . एवं वयंतस्स परोअगणिकाय उज्जालित्ता पज्जालित्ता कायं आयाविज वा, पायविज वा, तं च भिक्खू-पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिबेमि [सू० २१०] ॥ ८-३॥ अंतप्रांत आहारथी तेज रहित बनेला निष्किचन तथा भिक्षाथी निर्वाह करनारा साधुने गरम अवस्थानी युवानी जतां योग्य ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- 5 आचा० -4484 सुत्रम् ॥७५९॥ ॥७५९।। वस्त्र ठंड रोकवा जोइए; ते न मळवाथी ठंडथी कंपता शरीरवाळाने नजीक गृहस्थ मळतां शुं थाय ? ते कहे ते गृहस्थ ऐश्वर्यनी गरमीथी अहंकारी छे. कस्तुरीथी लेप को छे. उत्तम जातिना केसरना जाडा रसथी गात्र लींपेलुं छे. मीन मद आगुरु घन सार धूपित रल्लिकाथी लेपेला शरीरवाळो छे.अने जुवान सुंदरीओना संदोहथी वींटायेलो छे.अने शीत स्पर्शनो अनुभव जेने नाश पाम्यो छे तेवो शेठीयो तेवा कंपता मुनिने जोइ विचारे के आ मुनि मारी सुंदर स्त्रीओ जे देवांगनानी रुप संपदाने हसी काढे छे, तेने | जोइने सात्विक भावने पामेलो धूजे छे के ठंडना लीधे? आवी रीते शंकामां पडेलो शेठ बोले, के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! पोताना आत्मानी कुलीनताने प्रकट करतो प्रतिषेध द्वारवडे पूछे छे के तमने | इन्द्रियोनी उन्मत्तता दुःख दे छे ? आq गृहस्थ पूछे तो तेनो अभिप्राय जाणीने साधुए कहेवु, के आ गृहस्थने पोताना आत्माना अनुभव वडे अंगना (सी)ना अवलोकनना प्रकट करेल भावथी खोटी शंका थइ छे, तो हुँ तेनी शंका दूर करुं आq विचारी साधु बोले हे आयुष्मन् ! हे गृहस्थ ! मने इन्द्रियोनी उन्मत्तता नथीज बाधती; पण, तमे मारे शरीर जे, कंपतुं जोयुं छे, ते फक्त ठंडनुज कारण छे' पण ते कामदेवनो विकार नथी. अति टंडनो स्पर्श सहन करवाने हुँ शक्तिवान नथी. आ प्रमाणे साधु बोले त्यारे, ते गृहस्थ भक्ति अने करुणा रसथी भिजायला हृदयवाळो बनीने कहे केः-शीघ्र ठंड उडाइनार सारा बळेला अग्निने केम सेवतो नथी ? मुनि कहे:-मने अग्निकाय सेक्वो कल्पतो नथी; तथा सळगाववो पण कल्पतो नथी तथा कोइए सळगावेलो होय तो, त्यां थोडो घणो ताप लेवो पण मने कल्पतो तथी; तेम बीजनां वचनथी पण, एम करवू मने कल्पतुं नथी; अथवा वीजाने अनि बाळवायूँ कहे, पण मने कल्पतुं नथी. ते साधुने आq बोलतो जाणीने ते गृहस्थ कदाच आवं करे ते कहे छे:- ' &ा, - 45 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते गृहस्थ आवु मुनि पासे सांभळीने (पोतानी भक्तिथी) अग्नि सळगावीने भडको करीने साधुनी कायाने थोडी अथवा घणी आचाइ तपावे, ते अग्नि सळगाववो मुनि देखे, ते पोतानी सुबुद्धिथी अथवा तीर्थङ्करना वचनोथी अथवा बीजा पासे तत्त्व समजीने ते गृह-18 सत्रम * स्थने समजावे के आ अग्नि सेववो मने कल्पतो नथी, पण तमे साधु उपर भक्ति अने अनुकम्पाथी पुण्यनो समूह उपार्जन को छे. ॥७६०॥ ___आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. . ॥७६०॥ चोथो उद्देशो त्रीजो कह्या पछी चोथो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां गोचरी गयेला साधुने ठंडथी शरीर कंपतां गृहP स्थने खोटी शंका थाय, तो साधुए दूर करवी, पण जो गृहस्थना अभावमा जुवान स्त्रीने साधुना उपर काम चेष्टानी खोटी शंका 5थाय, अने कुचालनी इच्छाथी स्पर्श करवा आवे, तो गळे फांसो खाइने अथवा गार्ध पृष्ठ विगेरे आपघातर्नु मरण पण स्वीकार ६ (पण खोटु काम करवुनहि ) आq उपसर्गनुं कारण न होय तो आपघात न करवो, ते बताववा आ उद्देशो कहे आ संवन्धे आ| वेला उद्देशानुं आ पहेलं सूत्र छे. जे भिक्खू तिहिं वत्थेहि परिसिए पायचउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ-चउत्थं वत्थं जाइॐ स्सामि, से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइज्जा अपरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा; नो धोइज्जा नो Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७६१ ॥ धोयरता वत्थाई धारिजा, अपलिओमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ( सू० २९९ ) 1 पण, अहीं प्रतिमा धारी अथवा जिनकल्पी जे अछिद्र हाथ (लब्धि) वाळो मुनि जाणवो; कारणके, तेनेज पात्र निर्योग युक्त पात्र, तथा कल्पत्रय (वस्त्रनी) आवी ओघ उपधि होय छे, तेने औपग्रहिक (संथारीउं विगेरे) उपधि होती नथी; तेमां ठंडमां शिशिर विगेरे ऋतुमां क्षौमिक (सूत्रांचे कपडां (२||) हाथ लांबा पहोळां होय छे, अने त्रीजुं उननुं होय छे, तेवा मुनिने ठंड विशेष होय; तो साधु वीजुं कपहुं इच्छतो नथी ते बतावे छे. जे भिक्षु त्रण कपडांथी निर्वाह करनारो छे, ते ठंडमां एक कपड़े ओढे छे. जो उन्ड वधारे लागे; अने सहन न थाय तो, बीजुं ओढे, ते बन्नेथी पण, घणी उन्डना लीधे न सहाय तो, त्रीनुं उननुं कपड़े पण ते बन्ने उपर ओढे छे. उनना कपडाने बहारना भागमां सर्वथा राख; अंदर तो, सूत्रज राखबुं. ए त्रण वस्त्रो केवां छे? ते बतावे | छे. 'पात्र चतुर्थैः' पडता आहारने न पडवा दे ते पात्र छे, अने ते पात्र ना लेवाथी पात्रनो निर्योग सात प्रकारनो पण लीधो जा| वो कारण के तेना विना पात्र लेवाय नहीं. ते आ प्रमाणे छे: 'पत्तं पत्ताबन्धो, पायट्टवणं च पायकेसरिआ । पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो ॥ १ ॥ [१] पात्र [२] पात्रानुं बन्ध [३] पात्रानु स्थापन ( ४ ) पात्र केशरिका (पंजणी) (५) पडला (६) रज खाण [७] गुच्छो आ सात पात्रानो निर्योग छे. आ प्रमाणे सात प्रकारनो पात्र निर्योग तथा कल्प त्रण, तथा रजोहरण [ ओघो] मुखवस्त्रिका (मुहपत्ति ) अथवा घणी सूत्रम ॥७६१ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम ॥७६२॥ 15 ए पांच मेळवतां चार प्रकारनो उपधि छे. आ बार प्रकारनी उपधि धारण करनारने आवो विचार न थाय, के मने आ ठन्डी| आचा० रुतुमां त्रण वस्त्रोथी ठन्ड दूर थती नथी, माटे चो) वस्त्र हुँ याची लावू. आम अध्यवसायनो निषेध करवाथी याचवू तो दरथीज काढी नाख्यु. जो त्रण कल्प न होय, अने ठन्डी रुतु आवी पहोंची, तो आ जिन कल्पी विगेरे मुनि यथा एपणीय निर्दोष वस्त्रोनी ॥७६२॥ याचन करे. उत्कर्षण अपकर्षण रहित अपरि कर्मवाळां याचे तेमां [१] उद्दिछ, [२] पहे, (३) अंतर, [४] उज्झियधम्मा ए चार वस्त्रनी एपणा छे, तेमां पाछली वेनो अग्रह छे, बाकीनी चे लेवाय छे, तेमां कोइपण एकनो अभिग्रह होय छे..याचना करतां शुद्ध वस्रो मळे, तो ले अने जेवां लीधां तेवांज पहेरे, पण, तेने उत्कर्षण के धोवु विगेरे परिकर्म न करे तेज बतावे छे. अचित्त जळ वढे पण न धुए स्थविर कल्पीने तो वर्षाद आव्या पहेला अथवा मंदवाडमां अचित्त पाणीथी यतनाथी धोवानी अनुज्ञा (संमति) छे, पण जिनकल्पीने तेम धोवु न कल्पे, तेम प्रथम धोइने पछी रंगेलां कपडां होय ते पण न पहेरे, तथा वीजा गामे जतां वस्त्र संताड्या विना चाले, अर्थात् अंत प्रांत (तदन सादा जीर्ण जेवां) वस्त्र धारे; के तेने चोरावाना डरथी ढांको राखवां न पडे तेथीज जिनकल्पी मुनि अवम चेलिक छे; तेने चेल (वस्त्र) प्रमाणथी तथा मूळथी अवम [ओछी कीमतर्नु] होय; तेथी अवम चेलिक छे ('ख' अवधारणना अर्थमां छे,) आ प्रमाणे वस्त्रधारी जिनकल्पी मुनिने विकल्पवाळी अथवा बार प्रकारनी ओघ उपधिवाळी सामग्नी A होय छे. पण बीजी उपधि न होय; अने ठन्ड दुर थतां ते वस्रो पण त्यजी देवानां छे, ते बतावे छे. अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइकंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिट्ट 555555र Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥७६३॥ ॥७६३॥ विज्जा अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले (सू० २१५) .. जो, ते वस्त्रो बीजा शीयाळा सुधी चाले तेवां होय, तो बन्ने वखते पडिलेहणा करी धारण करे; अथवा, पासे राखे पण है जो जीर्ण जेवां थइ गयां होय तेवू जाणे तो, ते त्यजी दे ते आ सूत्र बडे बतावे छे. पछी ते साधु एम जाणे के, निश्चे हवे हेमंत ऋतु [शीयाळो] गयो; अने उनाळो आव्यो छे. ठंड पण दूर थइ छे, अने आ वस्त्रो पण जीर्ण थइ गयां छे. एवं जाणीने ते वस्त्रो | त्याग करे. जो बधां जीर्ण थयेलां न होय; तो जे जे जीर्ण होय ते परठवी दे, अने त्यागीने निःसंग थइने विचरे. पण जो शिशिर (पोष माघ) वीत्या पछी कोइ क्षेत्र काळ के पुरुषने आश्रयी शीत (ठन्डी) वधारे लागती होय तो शुं करवं?. ते कहे छे:-शीत जतां वस्त्रो त्यागवां अथवा क्षेत्रादिना गुणथी हिम पडनारो वायरो ठन्डो वाय तो, आत्मानी तुलना तथा ठन्डनी परीक्षा करवा सान्तर उत्तर वस्त्रवाळो थाय. अर्थात् तेमांथी कांइक तो ओढे; कांइक बाजुए राखे पण, ठन्डनी शंकाथी त्यजी न दे. अथवा अवम चेल [ओछां वस्त्रवाळो] ते एक कल्पना त्यागवाथी चे वस्त्र धारण करे, अने धीरे धीरे ठन्ड जतां बीजुं वस्त्र पण दूर करे, तेथी एक साडो (चादर) थी शरीर ढांकनारो बने, अथना तद्दन शीतनो अभाव थाय तो ते पण त्यजी दे, अने पोते अचेल (वस्त्र रहित) बने एटले तेनी पासे मात्र मुहपत्ति अने रजोहरण (ओघो) ए बेज मात्र उपधि रहे. म०-ए एक वस्त्र पण शा माटे त्यजी दे? ते कहे छे. लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ (सू० २१३) 435ॐॐॐॐॐॐ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम ॥७६४॥ uછટા लघुनो भाव लाघव जेने होय ते लाघविक छे, तेवी लाघविक (लघुता) में पोते धारण करवा एक पण वस्त्र त्यजी दे, अथवा शरीर अने उपकरणना कर्ममा लाघव पणाने पामीने वस्त्र त्याग करे, तेवा त्यागीने शुं थाय ? ते कहे छे. ते वस्त्रनो परित्याग करनार साधुने तपनी प्राप्ति थाय छे. कारण के कायाने क्लेश आपवो ते पण बाह्य तपनो भेद छे. का छे के:___“पंचहि ठाणेहि समणाणं निग्गंथाणं अचेल गत्ते पसत्थे भवति तंजहा, ! अप्पा पडिलेहा १ वेसासिए रूवे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्थे ४ विउले इन्दियनिग्गहे ५" पांच कारणे साधु निर्गथने अचेलकपणुं प्रशंसवा योग्य छे. [१] अल्पपडिलेहणा (२) विश्वासवाद्धं रुप. (३) तपनी अनुमति [४] प्रशस्त लाघव, [५] अतिशे इन्द्रियनो निग्रह आ जिनेश्वरे कर्जा छे ते बतावे छे:जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा । सबओ सवत्ताएसमत्तमेव सममि जाणिज्जा [सू० २१४] आ बधु वीर बर्द्धमान स्वामीए कहेलुं छे एम जाणीने बधा प्रकारोथी सर्व आत्माथी सम्यक्त्व अथवा समत्वपणुं धारे, अर्थात् सचेल अचेल अवस्थानी तुलनाने पोते जाणे, अने आ सेवन परिज्ञाथी पालन करे; पण जे साधुनी शक्ति तेवी न होय, तो ते प्रभुनो मार्ग बरोबर न जाणी शके, तो ते साधु हवे जे बतावे छे, तेवा अध्यवसायवाळो थाय ते कहे छे. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए,से वसुमं सबसमन्नागाय पन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे SSORS545 ॐरॐ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं सूत्रम् ॥७६५॥ हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि [सू० २१५] ८–४ ।विमोक्षाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः॥ 8/ P७६५॥ (णं वाक्यनी शोभा माटे छे) जे भिक्षुने मंद संहनना कारणे आवो अध्यवसाय थाय, के हु रोग आतंकथी अथवा ठन्ड विगेरेना कारणे अथवा स्त्री विगेरेना उपसर्गथी मारुं आ शरीर त्याग, ते श्रेय छे, पण ठन्ड विगेरेनु दुःख के भाव ठन्ड ते स्त्री विगे रेनो उपसर्ग सहन करवा हूँ शक्तिवान नथी; तेथी, मारे भक्तपरिज्ञा इंगित मरण अथवा पादप उपगमन उत्सर्गथी मरण करवा टू योग्य छे.पण,मारे आ अवसरे तेवु कर बनी शके तेवू नथी.कारण के,तेमां अमुक समय सुधी काळ क्षेप करवो जोइए.ते उपसर्ग MI माराथी सहन थाय तेम नथी; अथवा, रोगथी वेदना घणो काळ सहेवाने हुँ शक्तिमान नथी. तो मारे हमणा अपवादनु वेहानस || अथवा गार्द्धपृष्ठ मरण स्वीकारQ योग्य छे. पण, जे उपसर्गथी पीडायलोहोय ते पाप सेवq तेने योग्य नथी तेवू बताववा कहे छे:-12 ___'स' ते साधुने वसु-द्रव्य (संगम) छे, ते संयमवाळो होय ते वसुमान् छे. तेने अनुक्रमे सिद्धांतनुं ज्ञान प्राप्त थवा छतां, कोइ81 स्त्रीना कटाक्षनो उपसर्ग संभव यतां पण, ते न सेववाथी आवृतो' (आ समंतात व्यवस्थित चारे बाजुथी मर्यादामा रहेलो ते) आकृत छे, अथवा वायु विगेरेथी थयेल ठन्डो स्पर्श जे दुःख आपनार छे, तेनी चिकित्सा न करवाथी वसुमान् सिद्धांतथी प्राप्त करेल ज्ञानवाळा आत्मा बडे व्यवस्थित छे, तेवो उपसर्ग आवतां वायु विगेरेनी ठन्डी वेदनाने सहन न करी शकवाथी शुं करे ? ते कहे छे. ('हु' अव्यय हेतुना अर्थमां छे.) जेथी, घणो काळ वायु विगेरेनी ठन्डी वेदनाने सहन न करी शकवाथी अथवा, जे कारणथी , Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७६६॥ 5 युवा स्त्री उपसर्ग करवा आवेली छे, ते विष भक्षणथी के, फांसो खाइने मरवानुं बताच्या छतां पण न मुके; तेथी, ते सपस्वीए घणो 5 काळ जुदा जुदा उपायो वडे करेली तपस्याना धनवाळा साधुने मरवू तेज श्रेय छे, जेमके कोइ साधुने तेना सगांए स्त्रीवाळा ओर डामा प्रवेश कराव्यो, अने प्रेमवाळी पत्नीए घणीचार प्रार्थना कर्या छतां साधुए धैर्य राख्यु. पण अंते नीकळवानो बीजो उपाय न जोवाथी फांसो खाधो, तेम फांसो खावा माटे उंचे लटकवू, अथवा विष भक्षण करवु, अथवा उंचेथी पडवू, तेज प्रमाणे घणो काळ ठन्ड विगेरे सहन न थवाथी सुदर्शन माफक प्राण त्यागवा. शंका-फांसो खावो विगेरे बाळ मरण छे, अने ते अनर्थ माटे ४ छे, त्यारे तेनो केवी रीते तमे उपदेश कर्यो ? कारण के सिद्धांतमा कमु छे केः " इच्चेएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं चणं अणवयग्गं चाउरंतं संसारकतारं भुजो भुज्जो परियट्टइति" उ.-आ दोष अमारा अर्हत (जिनेश्वर) ना मतमा नथी, कारण के कंइपण एकांतथी निषेध कर्यो छे, के स्वीकार्य छे, तेवू नथी फक्त एक मैथुनमा जु९ छे अने सिवाय दरेकमां द्रव्य क्षेत्र काळ भावने आश्रयीने जे प्रथम निषेध को हतो, तेज स्वीकाराय छे, उत्सर्ग मार्ग पण कोइ वखत अगुण (नुकशान) माटे छे अने अपवाद पण गुणने माटे काळ [ समय ] जाणनारा साधुने थाय छे, तेज बतावे छे. दीर्घ काळ संयम पाळीने संलेखना विधि ए काळना पर्यायवडे भक्तपरिज्ञा विगेरेनु मरण गुणने माटे छे, अने स्त्री विगेरेना उपसर्गमां वेहानस गार्धपृष्ठ विगेरेथी मरण थाय तेमां काळ पर्यायज छे. अर्थात् जेवी रीते भक्त परिज्ञा विगेरेनु मरण गुणवाळु छे, तेम आ काळ पर्यायना मरण जेवु वेहानस विगेरे मरण लाभदायी छे. घणा काळ पर्यायमां जेटलं Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम् ॥७६७॥ आचा० द कर्म आसाधु खपावे छे, तेटलुंज आवा समयमां थोडा काळमां कर्म क्षय करी नाखे छे ते बतावे छे. 'सोऽपि वेहानस विगेरेथी मर *नारो पण फक्त भक्त परिज्ञा विगेरे करनारो नहि पण आ साधु वेहानस विगेरे मरणमां ('दिति कारएति') विशेष प्रकारे अन्त॥७६७॥12 क्रिया करनारो ते व्यन्तिकारक छे तेवाने तेवा समयमा वेहानसादि मरण उत्सर्गज मार्ग छे. कारणके, आयु अकाळ मरण जे 5 अपवाद रुप छे, तेना वडे मरेला अनन्ता सिद्धो पूर्वे थया अने थशे. उपसंहार करवा कहे छे के, आ उपर बतावेलु वेहानस विगेरे मरण मोह दूर थयेला साधुओनी कर्त्तव्यताथी आयतन [आश्रय छे अने अपाय दूर करतुं होवाथी हित छे. जन्मांतरमां पण सुख आपनार होवाथी सुख छे. तथा काळ आवेलो होवाथी क्षम (युक्त) छे. तथा, कर्म क्षय करनार होवाथी 3 निःश्रेयस छे. तथा, पुण्यनो अनुगम उपार्जन करवाथी आनुगमिक छे, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे: चोथो उद्देशो समाप्त. 15555555E पांचमो उद्देशो चोथो उद्देशो कहीने हवे पांचमो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे गया उद्देशामा गार्धपृष्ट विगेरे बाळमरण बताव्यु पण आ उद्देशामां तो तेथी उलटुं भक्तपरिज्ञानामनुं मरण ग्लान भाव पामेला साधुए स्वीकार, ते कहे छे. तेथी आ संबन्धे आवेला तू उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७६८।। जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाइ जाइज्जा जाव एवं खुतस्स भिक्खुस्ल सामग्गियं, अह पुण सूत्रम एवं जाणिजा-उवाइकते खल्लु हेमंते गिम्हे पडिवणे, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिदृविज्जा, अहापरिजुन्नाइं परिदृवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवाओमचेले अदुश एगसाडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सबओ सवत्ताए सम्मतमेव समभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अबलो अहमसि नालमहमंसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आह१ दलइज्जा, से पुवामेव आलोइज्जा-आउसंतो ? नो खलु मे कप्पइ अभिहडं असणं ४ भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे (सू० ६१६) तेमांत्रण कल्पमा रहेल स्थविरकल्पी अथवा जिनकल्पी मुनि होय, पण चे कल्प (वस्त्र) धारण करनार अवश्ये जिनकल्पीमा होय, अथवा परिहार विशुद्धिक अथवा यथालंदिक के प्रतिमाधारी तेमांनो कोइ पण होय, आ सूत्रमा बतावेल जे जिनकल्पी विगेरे बे वस्त्रो धारण करनारो होय, आमां वस्त्र शब्द सामान्यथी लीधो छे, माटे एक सूत्रनुं बीजं उननु एम बे वस्त्र धारण करी संय- & ॐॐॐॐॐ ॐॐॐ२ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७६९॥ ममां रहेल छे, केवां वे कल्प वस्त्र छे ? उ० - पात्र त्रीजुं धारण करेलो, साधु छे. ते बधुं पूर्वनाः सुत्रः प्रमाणे जाणघुं, ते उन्थी पीडाया सुधीनु जाणवुं, ते प्रमाणे अहीं कहे के हुं वायु विगेरेन । रोगथी पीडायेल निर्बळ होवाथी एक घरथी बीजे घेर जवा असमर्थ हुं तेथी भीक्षा माटे जवा हुं, अशक्त छं आएं बोलनार साधु पासे कोई गृहस्थ उभो होय, ते साधुनुं बोलवु सांभळीने अथवा बोल्या विना पण तेने अशक्त देखीने पर (बीजी) गृहस्थ विगेरे अनुकम्पा तथा भक्तिंना रसथी कमळ हृदयवालों बनीने अभिहत ते जीवोने दुःख दइ बनावेलं अशन पान खादिम स्वादिम लावीने ते साधुने आपे, ते समये ग्लान साधुए सूत्रार्थने अनुसारे जीवितने नहि वांछतां मरतुं बहेतर ! एम विचारीने तेणे शुं करवुं ते कहे छे, पूर्वे बतावेला जिन कल्पी विगेरे चारेमांथी कोइ पण एक साधुए प्रथम विचारखं, के उद्गम विगेरे क्या दोषथी आ दूषित छे ? तेमां अभ्याहत जाणीने तेनो निषेध करवो, ते आ प्रमाणे हे आयुष्मन् ! हे गृहपते ! आ मारा सामे आणेलं अशन खावाने, पाणी पीवाने अथवा तेनुं बीजुं - आधाकर्म विगेरे दोषथी दुष्ट अमने कल्पतुं नथी, आ प्रमाणे ते दान आपता गृहस्थने समजावे, बीजो प्रतिमां " तं भिक्खु कोइ गाहावई उवसंकमित्त बूया, आउसंतो समणा ! अहन्नं तत्र अट्ठार असणं वा ४ अभि दाम से पूव्वामेव जाणेज्जा आउसन्तो गाहावई ! जन्नं तुमं मम अट्ठा असणं वा ४ अभिडं चेतेसि गोय खलु मे कप्पर एयप्पगारं असणं या ४ भोत्तए वा पायए वा अन्ने वा तहप्पगारेति " आपण ते पाठ छे के कोइ गृहस्थ साधु पासे - आवीने कहे के हुं तमारे माटे चार प्रकारनो आहारमांथी कोइ पण सामे लावीने आएं ! ते साधुः प्रथमथी जाणे तो कहे के गृहस्थ ! तुं मारे माटे कंइ पण सामे लावीने आपे तो मने खावा पीवाने कल्पे सूत्रम् ॥७६९॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम D॥७७०॥ 15 नहि, तेम तेवू बीजुं पण न कल्पे. | आचा० आ प्रमाणे निषेध करेलो पण श्रावक सम्यग्दृष्टि प्रकृति भद्रक अथवा मिथ्यादृष्टिमांथी कोइ पण दयाल एवं चिंतवे, के आ ग्लान साधु भिक्षा लेवा जवाने अशक्त छे, तेम बीजाने लाववा पण कही शके नहि, माटे तेणे निषेध कर्या छतां पण हु कोइ ॥७७०॥ बहाने लावीने आपीश ए प्रमाणे विचारीने आहार विगेरे एम लावीने आपे, तो ते समये साधुए ते आहारने अनेषणीय (अयोग्य) छे, एम विचारीने ते गृहस्थने निषेध करवो. वळी जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिक्खं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि, अहं वावि खल्लु अपडिन्नतो पडिन्नत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा बेयावडियं करणाए आ- . हटु परिन्नं अणुक्खिंस्सामि आहडं च साइजिस्लामि १, अहट्ट परिन्नं आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि २, आहट्ट परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च सा इजिप्तामि ३, आहटु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, एवं से अहाकिहि- . यमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से . Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ७७१॥ ॥७७२॥ तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुह खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि (सू० २१७) ॥८-५॥ विमोक्षाध्ययने पंचम उद्देशकः ॥ (णं वाक्यनी शोभा माटे छे ) जे भिक्षु परिहार विशुद्धि चारित्रवाळो अथवा यथांलंदिक होय, तेने हवे पछी कहेवातो प्रकल्प ( आचार) छे, ते आ प्रमाणे ( खलु वाक्यनी शोभा माटे, च समुच्चयना अर्थमां छे) हुं बीजाए करेली वैयावच्चनी अभिलाषा राखीश, हु केवो छ ? प्रतिज्ञप्त वैयावच्च करवाने बीजाए कहेलो र्छ अर्थात् तेओ कहे छे, के अमे तमारी वैयावच्च यथा उचित करीए, ते बीजा केवा छे ! . . मा-अप्रतिज्ञप्त न कहेला हुँ केवो छ ? उ:-विकृष्ट तपवडे कर्तव्यतामा अशक्त छ अथवा वायु विगेरे रोकावाथी ग्लान छु बीजा कहेनारा केवा छे ? अग्लान छे, उचित कर्तव्य करवाने शक्तिवान छे, तेमां परिहार विशुद्धि चारित्रवाळा तप करनारनी अनुपारिहारिक (वैयावच्च करनार ) सेवा करे 'छे, ते वैयावच्च करनार कल्पमा रह्यो होय, अथवा बीजो पण होय, हवे जो ते सेवा करनार पण ग्लान (मांदा) होय, तो ते बीजानी वैयावच्च न करे, ए प्रमाणे यथालंदिक साधुनुं पण जाणवू, पण एटलं विशेष के स्थविरकल्पी साधु पण तेनी सेवा करी शके छे, ते बतावे छे. निर्जराने हृदयमां विचारीने सरखा कल्पवाळा साधर्मिक अथवा एक कल्पमा रहेला बीजा साधुओथी करायेली वैयावच्चने हुँ इच्छीश जेनो आ आचारछे, ते तेवा आचारने पाळतोभक्त परिक्षावडे पण जीवितने छोडे, पण आचारनुं खंडन न करे आ भावार्थछे ॐॐॐॐॐॐॐॐॐRSE Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Samiti W॥७७ तेज प्रमाणे अन्य सार्मिक वढे करायेलुं वैयावच्च अनुमति आपेल छे. हवे बीजानी वैयावच्च पाते करे ते बतावे छे' (च आचा० समुच्चयना अर्थमां अने अपि पुनःना अर्थमां छे अने ते पूर्वना कहेवाथी कंइ विशेष बतात्रवा माटे छे. खलु शब्द वाक्यनी शोभा सम * माटे छे) अने हुं अप्रतिज्ञप्त, कडेवायेलो छु अने जे बीजो भतिज्ञप्त वैयावच्च न करवाने माटे कहेवायेलो छे ते ग्लान साधुनी हुं ॥७७२॥ अग्लान (साजो) छु माटे निर्जराने उद्देशीने तेवा कल्पधारी साधार्मिक साधुनी वैयावच्च करूं; प्र०-शा माटे ? तेना उपकार [शांति] ने माटे तेथी आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने पण भक्त परिज्ञाए प्राणोने छोडे पण प्रति- 81 ज्ञानुं खंडन न करे, [आः सूत्रनो परमार्थ छे] हवे प्रतिज्ञा विशेषना द्वारवडे चोभंगी कहे छे. कोइ एक आवी प्रतिज्ञा करे छे के हुँ । बीजा ग्लान साधर्मिक साधुने आहार विगेरे लावी आपीश, तथा हुं वैयावच्च पण योग्य रीते करीश, तथा अपर [वीजा] सार्मिके आणेण आहार विगेरेने वापरीश, आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने वैयावच्च करे (१) तथा बीजो साधु आवी प्रतिज्ञा करे के हुं बीजा। माटे गोचरी विगेरे शोधीश, पण वीजानो आहार विगेरे लावेलो खाइश नहि, (२) त्रीजो आवी प्रतिज्ञा करे के हूं वीजाने निमिते आहार विगेरे शोधीश नहि पण बीजानो लावेलो खाइश,[३]चोथो आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करे, हुं बीजाने निमिते आहार विगेरे शोधीश नहि, तेम बीजान लावेलु खाइश पण नहि [४] आ प्रमाणे जुदी जुदी प्रतिज्ञाओ करीने कोइ जग्याए 'ग्लायमान (मांदो) पण थाय तो पण जीवितने त्याग करे, पण प्रतिज्ञानो भंग न करे..हवे आ.विषयने संपूर्ण करवा कहे छे. आ प्रमाणे कहेली विधि ए तत्वने जाणनारो ते साधु शरीर विगेरेनों मोह छोडनारो बनीने यथाकीर्तित धर्मनेज बरोबर जाणीने आसेवन परिज्ञावडे पालतो तथा लापविकने इच्छतो विगेरे चोथा उद्देशामां जे कडं, ते अहिं वधु-जाणी लेवू, तथा पोते कषायना उपशमथी शांत छे, अथवा अनादि JANA Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७७३॥ संसारमा पर्यटन करवाथी श्रांत छे, ते सावध अनुष्ठानथी विरत छे, शोभन लेश्या ते जेणे अंतःकरणनी निर्मळवृत्ति तेजोलेश्या । विगेरे धारण करवाथी तेसुसमाहृत लेश्यावाळो छे, आवो बनीने पूर्वे कहेली प्रतिज्ञा लइने पाळवामां समर्थ छे, ते तप अथवा रोग सूत्रम् ना कारणे ग्लान भावने पामेलो होय, छतां पण ते पोतानी प्रतिज्ञानो लोप न करतो शरीर त्यागवा भक्त प्रत्याख्यान करे, अने ॥७७३॥ ते भक्त परिज्ञामां-पण काळ पर्यायवडे अनागत् परिज्ञा (वार वर्षनी संलेखनानो समय नथी, तेमां पण काल पर्याय छे, जेणे | शिष्योने भणावी गणावी तैयार,कर्या होय, अने तप वडे संलिखित देहवाळो होय तेनो जे काळ पर्याय मृत्युनो अवसर प्रशंसवार योग्य छे, तेवो आ ग्लान थयेला कल्पधारीने पण एवोज अवसर छे. कारण के बन्नेमा कर्मनी निर्जरा समान छे, ते कल्पधारी भिक्षु ग्लानपणाथी अणशननां विधानमा व्यन्तिकारक कर्म क्षय करनारो छे बाकीनुं बधुं पूर्व माफक जाणवू पांचमो उद्देशो समाप्त.. छटो उद्देशो पांचमो कह्यो पछी छटो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामा बताव्यु, के ग्लान साधुए भक्त प्रत्या15 ख्यान करवू, अने आ उद्देशामां बतावशे के घृतिसंहनन विगेरेथी बळवाळो साधु एकत्व भावनाने भावीने इंगित मरण करे आमा संबंधे आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. __ जे भिक्खु एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइ ॐॐॐ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७७४॥ सामि, से अहेसणिज्जं वत्थं जाइज्जा अहापरिग्गहियं वत्थं धारिजा जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नं वत्थं परिविजा. २ त्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समत्तमेव समभिजाणिया (सू० २१८ ) जिनकल्पी विगेरे जे साधुने एवो अभिग्रह होय के मारे एक वस्त्र धारण कर अने बीजुं पात्र राखं तेवा उत्तम साधुने मनमां एम न आवे, के बीजुं वस्त्र याचं. ते पोताने जरुर पडतां फक्त उन्डी ऋतुमा एकज निर्दोष वस्त्र याची लावे, अने विधि प्रमणे लावी पहेरे, पण ज्यारे उनाको आवे, त्यारे जुनुं वस्त्र जीर्ण थवाथी तेने परठवी दे, पण बीजा शीयाळामां चाले तेवुं होय तो पोते ते एक साटक (चादर) ने धारण करे, अने जीर्ण वस्त्र परठवी दीधुं होय, तो पोते वस्त्र रहित थइने विचरे, ते स्थिर मतिवाळा साधुनुं आ लाघवपणुं आगम अनुसारे होवाथी सम्यक्त्व अथवा सर्व प्राणी उपर समभावपणुं के रागद्वेष रहित पशुं जाण तथा ते साधुने लघुता होवाथी तेने एकत्व भावनानो अध्यवसाय थाय ते बतावे छे. जणं भिक्खुस्त एवं भवइ - एगे अहमंमि न मे अस्थि कोइ न याहमवि, कस्सवि, एवं से गागिणमेव अप्पाणं सममिजाणिजा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जात्र समभिजाणिया ( सू० २१९ ) सूत्रम ॥७७४॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम् ७७५॥ (णं वाक्यनी शोभा माटे छे) जे साधुने आवो विचार थाय के "हुँ एकलो छु, संसारमा भ्रमण करतां परमार्थ दृष्टिए जोतां मने उपकार करनार बीजो कोइ नथी, अने हुं पण वीजा कोइना दुःखने दूर करवामां सहायक नथी, कारण के पोताना करेला कर्मनुं फळ भोगववामां सर्व जीवोने इश्वर समर्थ] पणुं छे" आ प्रमाणे आ साधु पोताना आत्माने अन्तरदृष्टिए सम्यग् रीते एकलो जाणे, अने आ आत्माने नरक विगेरेनां दुःखोथी बचावका शरण आपवा योग्य वीजो नथी, एवं मानतो होय ते पोताने जे जे रोग विगेरे दुःख देनारां कारणो आवे, त्यारे वीजाना शरणनी उपेक्षा करतो में कयु छे माटे मारेज भोगवq" आवो निश्चळ | विचार करीने सम्यग् रीते भोगवे छे. म०-ते केवी रीते एम समताथी सहन करे ? उ०-लापविय विगेरे चोथा उद्देशा २१५ मु०मां बताव्यु ते “ समत्वपणुं जाणवू" त्यांसुधी जाणवू, के आ साधुने कर्मनी लघुता थवाथी आ लोक परलोक बन्नेमां हित मुख निश्रेयस माटे थाय छे अने परंपराए मोक्ष फळ आपनार छे-तेथी तेणे एकत्वभावना भाववी आ अध्ययनना बीजा उद्देशामां उद्गम उत्पादन एषणा बतावी ते आ प्रमाणे "आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्टाए असणं वा ४" विगेरे सू० २०२मां बताव्यु ते प्रमाणे पांचमां उद्देशामा ग्रहण एषणा बतावी, "सीया य से एवं वयं तस्सवि परो अभिहडं असणं वा ४ आह९ दलएजा इत्यादि [सत्र २१६मां वचमां आ पाठ छे] आ सूत्रवडे ग्रास एपणा बतावी तेने हवे पछीना सूत्रमा विशेषथी बताववा सूत्र कहे छे. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा ४ आहारे माणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं 355252ॐॐॐॐॐ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७७६॥ हयं संचारिजा आसाएमाणे, दाहिणाओ वामं हणुयं नो संचारिजा आता एमाणे, से अ+ सायमाणे लाघवयं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सबओ सवत्ताए समत्तमेव अ (सम) भिजाणीया ( सू० २२० ) ते पूर्व बतावेलो साधु अथवा साध्वी अशन विगेरे आहार उद्गम उत्पादन एषणाथी शुद्ध अने प्रत्युत्पन्न ते ग्रहण एषणा शुद्ध एटले १६ गृहस्थ दान देनारना तथा सोळ लेनारना तथा दश वन्नेना भेगा मळी कुल ४२ दोपथी रहित आहार लावीने गोचरी करतां जे पांच दोष अंगार धूम विगेरे छे तेने वर्जीने आहार करे, ते अंगार अने धूम रागद्वेषना कारणे थाय छे, तेमां पण सरस नीरस आहार आवे तो रागद्वेष थाय छे, अने कारणनो अभाव थतां कार्यनो पण अभाव छे, एम जाणीने रसनी उपलब्धि [स्वाद]नुं निमित्त त्यजवानुं बतावे छे. ते साधु आहार करतां डावी बाजुथी जमणी बाजु स्वाद लेवा माटे भोजन विगेरे न लइ जाय तेज प्रमाणे स्वाद लेवा जमणी बाजुथी डावी बाजु न लइ जाय कारणके संसारना स्वादथी रसनी प्राप्तिमां रागद्वेषनुं निमित्त छे, अने तेथीज अंगार, तथा धूम दोष लागे छे, जेथी उत्तम साधु साध्वीए जे कंइ स्वादिष्ट होय तेनो स्वाद न करवो बीजी प्रतिमां "आढायमाणे" पाठ छे, तेनो अर्थ आ छे, के “आहारमां आदरवाळो मूर्च्छावाळो गृद्ध बनीने आहारने आम तेम न फेरवे" हनु (हडपची) मां आम तेम डाबी जमणीमां न फेरवनुं, तेम बीजे पण स्वाद लेवो नहि ते बतावे छे. 'स' ते साधु चारे | प्रकारना आहारने वापतो रागद्वेष छोडीने खाय, तेज प्रमाणे कोइ निमित्तथी डावी जमणी बाजु आहार फेरववो - पढे तो पण पोते सूत्रम ॥७७६॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम् ॥७७७॥ स्वाद कर्या विना फेरवे. मः-शा माटे! उ:-आहारनी लाघवताने स्वीकारतो आस्वाद न करे, आ प्रमाणे आस्वादना निषेधथी अंतमांत आहारनो स्वीकार पण कहेलो समजवो. आ प्रमाणे स्वाद न करवाथी ते साधुने कर्मनी बहोळी निर्जरा थाय छे, ते बधुं पूर्व माफक छे, समपणु समत्वने पामे अथवा सम्यक्त्व निश्चळ थाय ए बधुं पूर्व माफक समजवं. तेवा उत्तम साधु अथवा साध्वीने अंत प्रांत आहार खावाथी मांस लोही ओछा थवाथी जर्जरीत हाडकां थवाथी संयम अनुष्ठान शरीरथी बरोबर न थवाथी खेद थाय, तेवी कायचेष्टावाळाने शरीर त्यागवानी बुद्धि थाय, ते बतावे छे. - जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंमि समए इमं सरोरगं अणु पुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुत्वेणं आहारं संवहिज्जा, अणुपुठवेणं आहारं संवट्टिता, कसाए पयणुए किच्चा समाहियचे फलगावयट्रो उद्दाय भिक्ख अभिनिवडच्चे (स.२१) ___ एकत्वभावना भावनार जे साधुने आहार उपकरणमा लाघवपणुं प्राप्त थयु होय, तेने आवो अभिप्राय थाय छे, (से शब्दनो - अर्थ तत् छे अने ते वाक्यना उपन्यास माटे छे, च समुच्चयना अर्थमां छे, खलु अवधारणना अर्थमां छे) के हुं आ संयमना अव सरमां लुखा आहारथी अथवा रोग उत्पन्न थवाथी पीडाइने ग्लानि पामी अशक्त थयो छु, लूखा आहारथी के तपथी शरीर अशक्त । थवाथी अनुपूर्विए योग्य रीते आवश्यक क्रिया के प्रतिलेखना विगेरे क्रिया करवामां अशक्त बनी गयो छु. अने शरीर दरेक क्षणे है। नवळू पडतुं होवाथी एक बे उपवास के आंबील तप वडे आहारनो संक्षेप करे. अर्थात् साजा शरीरमां बार वर्ष सुधी अनुक्रमे थोडा 556455555 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७७८॥ घणा तपे संलेखना थती होय, ते अहीं ग्रहण न करें; पर्ण ग्लान सीधुने तेटलो काळ स्थिति न रहे, माटे तेवी टुंका काळनी अनुपूर्वी वाळी द्रव्य संलेखना माटे आहारने रोके, आवी द्रव्य संलेखना करीने बीजुं शुं करे ? ते कहे छे: सूत्रम बेत्रण चार पांच उपवास विगेरेनो अनुक्रमे तप करीने 'आहारनो संक्षेप करे, अने कषायोने ओछा करीने शरीरनो मोह छोडे. कपायो हमेशां ओछा करवा जोइए, पण आ संलेखनामां तो अवश्ये विशेष प्रकारे ओछा करवा. एथी तेमने विशेपथी ॥७७८॥ ओछा करी सम्यक्प्रकारे स्थापन कर्यु छे. शरीर (अर्चा) जेणे तेवो मुनि "समाहित अर्च" छे. ( नियमित कायना व्यापारवाळो छे,) अथवा अर्ध्या ते लेश्या छे, ते लेश्याने सम्यक् रीते स्थापी छे माटे अति विशुद्ध अध्यवसाय वाळो पोते बन्यो छे, अथवा अर्ध्या ते क्रोधादि अध्यवसाय रुप ज्वाळाने शांत करवाथी समाहित अर्ध्या वाळो छे, तेवा साधुए कर्म क्षय रुप फळं ( तेने का प्रत्यय लगाडवाथी फलक थयुं) ने संसार भ्रमण रुप आपदामां अर्थ (प्रयोजन वाळो छे माटे ते फळक आपदर्थी कहेवाय छे. अथवा फलक (पाटीया)ने बने बाजुथी वांसला विगेरेथी सरखं करवा छोले तेम अहीं बाह्य अभ्यंतर अवकृष्ट थवाथी [ आर्ष वचन प्रमाणे विग्रह करतां] 'फलगावयही 'छे, अथवा दुर्वचन [महेणां ] रुप वांसलाथी छोलवा छतां कषायना अभावथी फलक माफक रहे छे, तेचा स्वभावथी पोते 'फलकावस्थायी'छे, अर्थात् पोते “वासी चन्दन कल्प' जेवो छे, [ आ प्रमाणे मागधी का सूत्रना अर्थ कर्या, कर्म क्षय रुप फळनो अर्थी, ते संसार भ्रमणनी आपदामांथी छुटवानो अर्थी, तथा क्रोधादिना ओछा थवाथी | पाटीया जेवो मध्यस्थ रागद्वेष रहित बताव्यो ] आवो उत्तम साधु प्रतिदिन साकार भक्त प्रत्याख्यान वाळो छे अने घणो वळवान | 5. रोग आवतां शीघ्र मरण नो उद्यम करनार बनी अभि निवृत्त अर्चवाळो एटले शरीर संताप रहित बने, धैर्य तथा संघयण विगे Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७७९ ॥ रेथी मुक्त होय, ते महा पुरुषोए आचरेला इङ्गित मरण ने स्वीकारे म० केवी रोते ? ते कहे छे. अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइजा तणाई जाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अपोसे अप्पोद अप्पुतिंगपणगद्गमट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय २ पमजिथ २ ताई संथरिजा, ताई संथरिता इत्थ विसमए इत्तरियं कुज्जा, तं सच्च सच्त्रवाई ओएतिने छिन्न कह कहे आईयट्ठे अणाईए चिच्चाण भेउरं कायं संविहूय विरूवरूत्रे परीसहोवसग्गे अस्सिविस् मणयाए भेरव मणुचिन्ने तत्थावि तस्स काल परियाए जाव अणुगामियं तिबेमि (सू० २२२ ) ॥८- ६॥ विमोक्षोध्ययने षष्ठ उद्देशकः बुद्धि विगेरे गुणोनो ग्रास करे अथवा अढार करो ज्यां लेवाय ते गाम छे, (वधी जग्या एवा शब्दनो अर्थ गुजरातीमां अथवा लेवो) ज्यां कर न होय ते न कर (नगर) छे, धूळना ढगलाथी कोट वनाव्यो होय ते खेट (खेड) छे, नाना कोटथी वीटायेलं ते कर्बट छे, २॥ गाउने आंतरे गाम होय ते मडंब छे, पत्तन (पाटण) वे प्रकारे छे. जल पत्तन ते कानन द्वीप विगेरे छे, सूत्रम् ॥७७९ ॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थळ पत्तन ते मथुरा छे, द्रोण मुख ते जळ के स्थळ मार्गे नीकळवा तथा पेसवाना रस्ता होय जेमके भरुच खंभात [बंदर] छे आचा० सोना चांदी विगेरेनी खाणने अकर छे, तापस विगेरेनो मठ ते आश्रम [आश्रय छे, यात्रा निमित्ते मळेलां माणसोनो ज्या जमाव सत्रम थतो होय ते संनिवेश छे, घणा वाणीया [वेपारी] न रहेठाण ते "नैगम"छे, राजाने रदेवान नगर ते राज्यधानी छे. आमांथी ॥७८०॥15 कोइपण जग्याए जइने घासनी याचना करे. ॥७८०॥ ___०-शा माटे ? उ०-पोताने संथारो करवा माटे सुकुं निर्जीव घास दर्भ वीरण विगेरेने कोइ गाम विगेरेमा जइने तेना 8 मालिकनी आज्ञा लइने पोलुं सडेलु लील छोडीने मुकुं घास ले, ते लइने घास एकांत स्थळ पहाडनी गुफा विगेरेमा जइ महा र स्थंडिल शोधे ते कहे छे, जेमां कीडी विगेरेनां इन्डां न होय, जेमां बे इन्द्रिय जीवो न होय, तथा नीवार श्यामाक विगेरे बीजो न होय, तथा लीलु घास दरो विगेरे न होय, तथा उपर के अंदर ठारनं पाणी पडेलु न होय [अर्थात छांटा पडेला न होय,] तथा & वरसादन के नीचेनु पाणी तेमां पडेलं न होय, तेज प्रमाणे कीडीयारं, पांच वर्णनी सेवाळ, तुर्तनी पाणीथी पलाळेली माटी 10 करोळीयानां जाळां रहित निर्दोष जग्या होय, तेवा महा स्थंडिलमां घासने पाथरे. १०-केवी रीते ? ते कहे छे. ते.जग्याने 18 आंखथी बरोबर जोइनेपछी रजोहरणथी बरोबर पूंजीने दरेकमां वबे वार लेवार्नु कारण बरोबर जुए संथारो पाथरीने झाडा पेशा बनी जमिन बरोबर जोइने पूर्व दिशाना मोढे संथारा उपर बेसी हथेळी अने ललाटमां रजोहरण फसावीने सिद्ध भगवन्तने नम# स्कार करीने पञ्चपरमेष्ठिने याद करी (अपि शब्दनो अन्यत्र अर्थ छे) समयमां मुकरर करेला स्थानना इङ्गित मरण करे, (इत्वरी शब्दनो अर्थ पादपोपगमननी अपेक्षा माटे छे तेथी) पादपोपगमन अणसण अथवा करे, (पण इत्वरनो अर्थ साकार अमुक काळ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुधीनुएवो अर्थ न लेवो) कारण के जिन कल्पी विगेरे बुनिने वीजा काळमां पण साकार प्रत्याख्याननो संभव नथी, तो प्रत्याख्यान जेवा अंतिम वखते साकारनो संभव क्याथी होय? कारण के इखर ते अमुक काळनं पच्चक्खाण रोगी श्रवक करे, के जो आ मसूत्रम् ॥७८१ रोगथी पांच दीवसमां मुकाइश, तो पछी भोजन करीश, ते शिवाय नहीं करुं विगेरे इत्वर पच्चक्खाण छे, पण इङ्गित मरण तो 5७८१॥ सधैर्य संहनन विगेरेना वळवाळो पोतानी मेळेज पासु फेरववानी विगेरे क्रिया करनारो आखी जींदगी सुधी चारे आहारनो त्याग करे छे. कयु छे केः पच्चक्खइ आहार, चउन्विहं णियमओ गुरुसमीवे; इजियदेसंमि तहा, चिट्ठपि हु नियमओ कुणइ ॥१॥ उवत्तइ परिअत्तइ, काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ सव्वमिह अप्पणच्चिअ ण, अन्नजोगेण घितिबलिओ ॥२॥ चारे प्रकारना आहारनुं गुरु पासे नियमथी प्रत्याख्यान करे,अने इङ्गित(मुकरर करेलां)भागमां चेष्टा पण नियमथी करे छे,[१] P पासुं बदले, बाजुए जाय अथवा ठल्लो मातरं करे, ते पण जाते करे, ते धैर्य तथा बळवाळो पोताना सिवाय वीजा पासे न करावे. म.--इजित मरण के छ ? अने कोण करे ? ते कहे छे. संत पुरुषोनुं हित करे तेथी ते इंगित मरण सत्य छे. अने सुगति दिमागे लइ जवामां ते अविसंवादपणे होवाथी तथा सर्वाना उपदेशथी ते इंगित मरण सत्य तथ्य छे. तथा पोते पण सत्य बोलनार होवाथी सत्यवादी छे, कारण के आखी जोंदगी सुधी यथोक्त अनुष्ठान करवानी प्रतिज्ञा लीधेली ते भार उपाडवा समर्थ होवाथी । B अने तेमज पाळवाथी सत्यवादी छे, तथा 'ओज' पोते रागद्वेष रहित छे. तथा संसार सागरने तर्यो छे, अने भूतकाळ माफक भविष्यमां पण तरवा माटे तेवो उपचार करवाथी अवतीर्ण छे, तथा जेणे राग विगेरेनी विकथा कोइ पण रीते न करवानुं नक्की Page #571 --------------------------------------------------------------------------  Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सातमो उद्देशो 18 सूत्रम् ॥७८३॥ छठो कहीने हवे सातमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां एकत्व भावना भावनार धृति संहनन विगेरेथी युक्त साधुनुं इंगित मरण बताव्यु, अने अहीं तेज एकत्व भावना प्रतिमाओवडे बतावे छे, एथी अहीं ते प्रतिमाओ बतावे छे, तथा D७८३॥ वधारे विशिष्ट संघयणवाळो पादपोपगमन अणशण पण करे, आ संवन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. जे भिक्खु अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पेड कडिबंधणं धारित्तए (सू० २२३) जे साधु प्रतिमा धारण करेलो अने विशेष अभिग्रहथी अचेल (वस्त्ररहित) पणे सयममा रहेलो होय, ते भिक्षुने आवो अभिप्राय थाय छे, के हुं धृति संहनन विगेरे युक्त होवाथी वैराग्य भावनाथी भावित अंत:करणवाळो छु. अने आगम चक्षुवडे (चारे गतिनुं ज्ञान होवाथी) नारकतिर्यंचनुं दुःख जाणुं छ. अने मान छं के मारे मोक्ष जेवू मोटु फळ लेवान होवाथी तृणनो स्पर्श दा कंइ दुःख देतो नथी, तेज प्रमाणे ठन्ड, ताप, डांस, मच्छरनो स्पर्श सहन करवा शक्तिमान छ, तथा एक जातना के जुदी जुदी Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मखम ७८४॥ जातिना अनुकूळ के प्रतिकूल विरूपरूपवाळा फरशो सहन करवाने हुँ शक्तिवान छु,पण लज्जाने लीधे गुह्य प्रदेशने ढांकवानी जरुर आचा० IAI होवाथी ते छोडवा हुं चाहतो नथी. अने आ स्वभावथीन अथवा साधनना विकृत रुपपणाथी ते साधुने शरम लागे, तो तेने चोळ- - पट्टो पहेरवो कल्पे छे, अने ते पहोळाइमां एक हाथने चार आंगळनो होय, अने लंबाइमां केडना प्रमाणमां होय, तेवो गणतरीनो ॥७८४॥ एक राखे पण, जो तेवां कारणो न होय, तो अचेलपणेज विहार करे, अने अचेलपणेज ठन्ड विगेरे स्पर्श सारी रीते सहन करें, ए वताववा कहे छे. अदुवा तत्थ परकमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसगफाला फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लावियं आगममाणे जाव समभिजाणिया (सू० २२४) । एवु कारण तेने होय, तो ते साधु वस्त्र धारण करे, अथवा पोते लज्जा न पामतो होय, तो अचेल रही संयम पाळे, अने वस्त्ररहित संयम पाळतां तेने तृणना फरशो फरशे, तथा ठंड ताप डांस मच्छरना फरसो दुःख दे तेवा एक जातना के जुदी जुदी जातना भोगववा छतां पोते अचेल रही कर्मन लाघवपणुं माने, अने तेमांज समत्व माने, वळी प्रतिमाधारी साधुज विशेष अभिग्रह धारण करे, ते आ प्रमाणे के हुं बोजा प्रतिमाधारी मुनिओने किंचित् आपीश, अथवा तेमनी पासेथी लेइश एवो कोइ पण जातनो है अभिग्रह धारण करे, तेनी चोभंगी कहे छे, A%-55504545515ॐॐ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० सूत्रम ७८५॥ ७८५॥ जैस्स गं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा ४ आहटु दलइ. स्सामि आरडं च साइजिस्सामि १ जस्स गं भिक्स्खुस एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेप्ति भिक्खूणं असणं वा ४ आहट्ट दलइस्सामि आहडं चनो साइस्सामि २ जस्स णं भिक्रवस्त एवं भवइ अहं च खलु असणं वा ४ आहट्ट नो दलइस्लामि आहडं च साइजिस्सामि ३ जस्स णं मिक्खूस्स एवं भवइ अहंच खल्लु अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा ४ आहटु नो दलइस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, अहं च खलु तेण अहाइरितेण अहेसाणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अभिकंख साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए, अहं वावि तेण अहाइरित्तेण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा ४ अभि' कंख साहम्मितहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिसामिलापवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया ( सू० २२५) • आ बर्षा पूर्वे सू० २१७मां आवी गयुं छे, तेथी संस्कृत वडे कहे छे, जे भिक्षुने आवो अभिग्रह होय, के हुं बीजा साधुओ माटे Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार लावीने आपीश, तथा तेमनु लावेलु खाइश (१) बीजा साधुने आवो अभिग्रह होय के बीजा साधुओने आहार लादीने आचा आपीश पण बीजानो लावेलो खाइश नहि. (२) कोइने आवो अभिग्रह होय के बीजाने माटे आहार लावीने आपीश नहि, पण मन * तेमने लावेलो खाइश [३] बीजाने माटे लावीने आपीश नहि तेम लावेलो खाइश पण नहि. आचारमांनो कोइ पण अभिग्रह धारण ॥७८६॥ करे, अथवा प्रथमना त्रणमांनो एक पद वडेज कोइ अभिग्रह करे ते बतावे छे, जे साधुने आवो अभिग्रह होय, के हुं बीजा ए ॥७८६॥ 18 आहार करतां वधेला आहारर्नु भोजन करीश, कारण के ते प्रतिमा धारीओने तेवुज एषणीय [खावा योग्य] छे, ते आ प्रमाणे. पांच प्राभृतिकामां आग्रह छे, बेनो अभिग्रह छे, तेमज पोताने माटे लीधेला आहारमांथी सार्मिक साधुनी वैयावच्च निर्जराने उद्देशीने करे, जो, के तेमणे प्रतिमा धारण करेली होवाथी एक जग्याए भेगा थइने न खाय, पण तेमनो अभिग्रह एक सरखो होवाथी सांभोगिक छे, अने तेथी तेवा उत्तम साधुना उपकरण लाववा माटे हवे वैयावच्च करूं. आवो अभिग्रह कोइ ले, तथा बीजुं बतावे | न छे. [वा शब्दथी बीजो पक्ष बतावे छे अपि शब्द पुनःना अर्थमां छे] अथवा हुं तेमणे लीधेली गोचरीमांथी ४ निर्जराने उद्देशीने साधर्मिकाए करेली वैयावच्चने स्वीकारीश अथवा जे वीजानी वैयावच्च करे तेनी हुँ अनुमोदना करीश. के हे साधो ! तमे बहु सारं 15 कयु छे ! एवचन बोलीश, तथा काया वडे तथा प्रसन्न मनवाळा भाववडे अनुमोदना करीश, आ बधुं शा माटे करे ? कर्मनीका लघुता माटे. आ प्रमाणे कोइ पण अभिग्रह धारण करेलो अचेल के सचेल साधु शरीर पीडा होय अथवा न होय, पण पोतान आयु थोडं रहेलुं जाणीने उद्यत मरण स्वीकारे, ते बतावे छे: जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरोरगं अणु SRGB र Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् D॥७८७॥ ७८७॥ चा० पुव्वेणं परिवहितए, से अणुपुश्वेणं आहारं संवहिजा २ कसाए पयणुए किच्चा समाहियचे फलगावयट्ठो उहाय भिक्खु अभिनिव्वुडच्चे अणुपरिसित्ता गामं वा नगरं वा जाव राय हाणि वा तणाई जाइजा जाव संथरिजा, इत्थवि समए कायं च जोगं च ईरियं च पञ्चक्खाइजा, तं सच्चं सच्चाबाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आइय? अणाईए चिच्चाणं भेउरं कायं संविहणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्सभणाए भेरवमणुचिन्ने तत्ववि तस्स काल परियाए सेवि तत्थ वियन्तिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि (सू० २२६) ।। ८-७ ॥ " (णं वाक्यनी शोभा माटे छे) ते भिक्षुने आवो अभिप्राय थाय छे, के हुँ ग्लान थयो छु, एम जाणीने मू० २२२मां बताव्या प्रमाणे घास लावीने एकांत निर्दोष जग्यामां पाथरे अने त्यां बेसीने शुं करे ? ते कहे छे, आ अवसरमां पण बीजे स्थळे नहि पण तेज जग्याए संथारामां सीने सिद्धनी समक्ष पोतानी मेळेज पांच महाव्रतनो फरी आरोप करे [फरी चालवा गणी जाय] त्यार पछी चार आहारनु पञ्चक्खाण करे, पछी पादपोपगमन अणसण माटे शरीरने स्थिर करे, अने तेनो वेपार ते संकोचवू,लांवा करवू Fके आंख मींचवी उघाडवी ते पण रोके, तथा इरण ते इर्या ते सुक्ष्म,काय वचन संवन्धी तथा मन संवन्धी पण अप्रशस्तनुं पञ्चक्वाण ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ . - . . -- - 15 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा करे, अने ते पादपोपगमन अणसण सत्य सत्यवादी विगेरे वधुं गया उद्देशा प्रमाणे जाणवू, इति तथा ब्रवीमि शब्दो पण जाणीताछे __ सातमो उद्देशो समाप्त. ॥ इतिश्री आचाराङ्गसूत्रे चतुर्थो भागः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ सूत्रम् ॥७८८॥ ॥७८८॥ 5555555555 155555 1575555755-15% Page #578 --------------------------------------------------------------------------  Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O100%Sigisi318i81818181818181818.9919 oddddddddddddkdd000dddddddddddddddd 000000 ! Dulls !! :BIHE :Lelet le BE SEELELKE ENE 11 4000000 Αμμβριβίστριμμβριβέσβήστρεμμύριβερέβββββββάφφφ QB/3.3.0.0.XBX83338030800 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलु अने श्रीश्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित) ॥ आचाराङ्गसूत्रम् भाग पाञ्चमी ॥ • (मूळ अने शीलाकाचायें रचेली टीकाना भाषांतरसहित) SBOS000 जामनगरनिवासी स्व० पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मरणार्थ छपाची प्रसिद्ध करनार-पण्डित हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २-८-० द श्री जैन भास्करोदय प्रिन्टिग प्रेसमा छाप्यु: जामनगर पति २०० सर्वत् १९९१ OED0000000BEEEEEEEDO Page #581 --------------------------------------------------------------------------  Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम् ॥७८९॥ ॥७८९॥ ASCLASSROG-SCACASS ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीआचाराङ्गसूत्रम् ॥ (मूळ अने शिलाङ्काचार्य रचेली टीकार्नु भाषांतर) भाग पांचमो॥ छपावी प्रसिद्ध करनार-पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) आठमो उद्देशो. सातमो कहीने हवे आठमो कहे छे, तेनो संबंध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशाओमां का के रोगादि संभवमां काळपर्याये आवेलु भक्त परिज्ञा, इंगित,, के पादपोपगमन मरण करवू युक्त छे, अने अहीं तो अनुक्रमे विहार करता साधुओर्नु काळ पर्याये आवेलुं । मरण कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७९०॥ ७९०॥ अनुष्टुप् छंद. अणुपुत्रेण विमोहाई, जाई धोरा समासज्ज | वसुमन्तो, मइमन्तो, सवं नच्चा अणेलिसं ॥१॥ सूत्रम् दुविहपि विइत्ता णं; बुद्धा धम्मस्स पारगा ॥ अणुपुत्वीइ सङ्खाए, आरंभाओ (य) तिउद्दई ॥२॥ कसाए पयणू किन्च, अप्पाहारे तितिक्खए ॥ अहभिक्खू गिलाइजा, आहारस्सेव अन्तियं ॥३॥ जीवियं नाभिकंखिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओऽवि न सजिजा, जीविए मरणे तहा ॥४॥ __ अनुक्रमे दीक्षा लीधी. हित शिक्षा मळी, सूत्रार्थ मेळवी स्थिर मति थया पछी एकाकी विहार विगेरे प्रतिमा स्वीकारी होय, अथवा अनुपूर्वी ते चार वर्षनी संलेखना विधि जेमां चार वरस विकृष्ट तप विगेरे अनुक्रमे पूर्वे तप बताव्यो छे ते जाणवं, त्यारपछी मोह रहित ते जेमांथी के जेनाथी मोह दूर थयो, तेवाने भक्त परिज्ञा इंगित के पादपोपगमन अणसण अनुक्रमे करवानां छे, तेमां धीर ते, क्षोभायमान न थाय, तेवा वसु (संयम) वाळा तथा मनन, ते मति होय उपादेय छोडवू लेवू ते संबन्धी विचार करनार मतिमंत छे, तथा सर्वे कृत्य अकृत्य जाणीने जे साधुने भक्त परिज्ञा विगेरे कोइ मरण उचित लागे तथा पोतानी धैर्यता संघ-15 यण विगेरे विचारी अद्वितीय (उत्तम) रीते जाणीने तेवा मरणे समाधिनुं पालन करे, (१) बे प्रकारनी अवस्था तथा तपनी वाद्य अभ्यंतर अवस्थाने विचारी पालन करीने, अथवा मोक्षाधिकारमा बे प्रकारचं मुकाबु छे, तेमां पण बाह्य ते शरीर उपकरण विगेरे तथा अभ्यंतर रागादि छे तेने हेयपणे जाणे अने त्यागीने आरंभथी दूर थाय एटले, ज्ञानचें फळ हेयने त्यागवानुं छे, कोण त्यागे? Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् 18| बुद्धिमान पुरुषो, ते तखने जाणनारा श्रुत चारित्र नामनो धर्म छे, तेनी पार पहोंचनारा छे, अर्थात् सम्यग् जाणनारा छे, ते पंडितो 8 आचा० धर्म स्वरूपने जाणनारा प्रव्रज्याना अनुक्रमे संयम पाळीने जाणे के हवे मारा जीववाथी कई विशेष गुण नथी, एथी हवे मोक्षनो अवसर मळ्यो छे, एथी हुँ क्या मरणे मरवा योग्य छु एम विचारीने शरीर धारण करवामाटे अन्न पान विगेरे शोधवारुप आरं"भथी छुटे छे, (अहीं पांचमीनां अर्थमां चाथी विभक्ति छे,) तथा कोई प्रतिमां (कम्मुणाओ तिअट्टई) पाठ छे, एटले आठ भेदवाळा व कर्मथी पोते छुटे छे, (व्याकरणना नियम प्रमाणे वर्तमानना समीपमा वर्तमान माफक थाय छे) पा. ३-३-१३१ना नियम प्रमाणे भविष्यकाळना अर्थमा वर्तमान काळ छे, [२] 8 अने ते अभ्युदत मरण माटे संलेखना करतो प्रधान भूत (श्रेष्ट भावे संलेखना करे ते बतावे छे. एटले कष ते संसार छे. दि तेनो आय ते कषायो छे. ते क्रोध विगेरे चार छे, तेने पातळा [ओछा] करतो थोडं खाय, ते बतावे छे: ते पण वधारे प्रमाणमां नहि, ते बतावे छे, अल्पाहारी (थोडं खानारो) ते छठ अठम विगेरे संलेखनाना अनुक्रमे आवेला तपने करतो पारणामां पण अल्प खाय, अने अल्प आहार खावाथी क्रोधनो उद्भव थाय, तेनो उपशम करवो. ते बतावे छे-तुच्छ । 18 माणसथी पण तिरस्कारनां वचन सांभळे, तो पण सहन करे, अथवा रोग विगेरे पण बरोबर रीते सहन करे, ते प्रमाणे संलेखना ६ है करतो आहारने ओछा प्रमाणमा लेवाथी ते मुमुक्षु भिक्षु ग्लानता पामे, ते समये आहारनी अंत अवस्थाने स्वीकारे, एटले चार विकृष्ट विगेरे सलेखनाना क्रमनो तप छोडीने भोजन करे, अथवा ग्लानता पाम्याथी आहारनी समीपमां न जाय. ते आ प्रमाणे| हमणां थोडा दिवस खाइ लउ, अने पछी वाकीनी संलेखनानो तप करीश एवीआहार खावानी भावनामा न जाय. ॥३॥ वळी SSSSSSSSSSSSSS Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥७९२॥ पाण्डए ॥६॥ ते संलेखनामां रहेलो अथवा आखी जींदगी मुधी हमेशा ते साधु पाण धारवा रुप जीवितने न चाहे, तथा भूखनी वेदनाथी आचा० दा कंटाळी मरण पण न वांछे तथा जीवित तथा मरणमा संग [ध्यान] न राखे (४) त्यारे ते साधु केवो होय ? ते कहे छे:-- मज्झत्थो निजरापेही, समाहिमणुपालए ॥ अन्तो वंहिं विऊसिज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ॥५॥ ॥७९२॥ जं किंचुवक्कम जाणे, आऊखेमस्समप्पणो ॥ तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज पण्डिए ॥६॥ गामे वा अदुवा रपणे, थंडिलं पडिलेहिया । अप्पपाणं तु विनाय, तणाई संथरे मुणी ॥७॥ अणाहारो तुहिज्जा. पुट्टो तत्थऽहियासए ॥ नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहि विपुट्ठवं ॥८॥ रागद्वेपनी वचमां रहे ते मध्यस्थ छे, अथवा जीवित मरणनी आकांक्षा रहित ते मध्यस्थ छे, ते निर्जरानी अंपेक्षा राखनार ते | निर्जरापेक्षी छे. तेवो साधु जीवन मरणनी आ शंसा रहित समाधि जे अंत वखतनी छे, तेनु पालन करे, अर्थात् कालपर्यायवडे जे मरण आवे ते समाधिमा रही पाळे तथा अंदरना कपायोने तथा बहारना शरीर उपकरण विगेरेनो ममत्व छोडी दे, अने अध्यात्मा . 8 ते अंतःकरणने शुद्ध करे, एटले मनमां थता रागद्वेष विगेरेनां बधा जोडकां दूर थवाथी विस्रोतसिका (चंचळता) रहित अंत:करणने F वांछे, वळी उपक्रम ते उपक्रम उपाय छे, तेवा कोइ पण उपायने जाणे... ०-कोना उपक्रम ? आयुष्यन क्षेम ते सम्यक् प्रकारे पाळवू. प्र०-कोना संवन्धी ते आयु छे ? उ० ते आत्मानु-तेनो परमार्थ आ छे. के आत्मा पोताना आयुष्यनो क्षेमथी प्रतिपालन करवा जे उपायने जाणे ते तेने शीघ्र शीखवे, एटले बुद्धिमान Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० साधु ते प्रमाणे वर्त्ते, पण ते संलेखनाना काळमां बार वर्ष पूरा थता पहेलांज अधवचमां शरीरमां वायु विगेरेना रोकाणथी शीघ्र जीवले रोग उत्पन्न थाय तो समाधि मरणने वांछतो तेना उपशमना उपायने एषणीय विधिए तेल चोळवं विगेरे करे, अने फरी | पाछी संलेखना शरु करे, अथवा आत्मानुं आयु (जीवित) ने कंइ पण आयुना पुद्गलोनुं संवर्त्तन ( उपक्रमण) उत्पन्न थएलं जाणे तो ते संलेखखनाना तपमांज अनाकुल मतिवाळो बनीने शीघ्रज भक्त परिज्ञा विगेरेने बुद्धिमान साधु शीखवे [आदरे] (६) संलेखना ४९ ॥ ७९३॥ वढे शुद्ध कायवाह बनीने मरण काळ आवेलो जाणीने शुं करे ? ते कड़े छे. सूत्रम् ॥७९३ ॥ ग्राम-शब्द जाणीतो छे. पण तेनो अर्थ अद्दों प्रतिश्रय उपाश्रय बताव्यो छे, प्रतिश्रयज तेने स्थंडिल [संथारानी जग्या ] छे. तेने जोइने संथारो करे आवा अरण्य- एटले उपाश्रयनी बहार अर्थ बताव्यो, उद्यान अथवा पर्वतनी गुफामां संथारानी जग्या प्रथम निर्जीव जुए, अने गाम विगेरेथी याची लावेला दर्भ विगेरेना सुका घासमां यथा उचित काळनो जाणनारो साधु संथारो करे, घास पाथरीने शुं करे ? ते कहे छे आहार रहित ते अनाहारी बने, तेमां शक्ति अनुसारे त्रण अथवा चारे आहारतुं प्रत्याख्यान करी पंच महाव्रतनुं फरी स्वयं आरोपण करी वधा प्राणी समूहने खमावेलो बनी सुख दुःखमां समभाव राखी पूर्वे मेळवेला पुण्यना समूहवडे मरणथी न डरतो | संथारामांपासु फेरववु करे, परिसह उपसर्गो आवे तेने देह ममल छोडेल होवाथी सम्यक् प्रकारे सहन करे, तेमां मनुष्यना अनुकूल प्रतिकूल परीसद उपसर्ग आवतां मर्यादानु उलंघन न करे, तेम पुत्र स्त्री विगेरेना सम्बन्धथी आर्त ध्यानने वश न थाय तेमज प्रतिकूल परीसह उपसर्गोथी क्रोधथी हणायलो न थाय, तेज बतावे छे- Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् १७९४॥5 ॥७९॥ संसप्पगा य जे पाणा, जेय उडुमहाचरा । भुञ्जन्ति मंससोणियं न छणे न पमजए ॥९॥ पाणा देहं विहिंसन्ति,ठाणाओनवि उब्भमे ॥ आसवेहिं विवित्तेहि, तिप्पमाणोऽहियासए ॥१०॥ गन्थेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए ॥ पग्गहिय तरगं चेयं, दवियस्स वियाणओ ॥११॥ अयंसे अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए ॥ आयवज पडीयारं; विजहिज्जा तिहा तिहा ॥१२॥ संसर्पन करे, ते कीडी क्रोष्ट्र (शियाळ) विगेरे जे पाणीओ छे, तथा उंचे उडनार गीध विगेरे छे, तथा बीलमां नीचे रहेनारा साप विगेरे छे, तथा सिंह वाघ विगेरे आवीने मांस भक्षण करे, तथा डांस मच्छर विगेरे लोही पीए, ते समये ते जीवोने आहार 8 अर्थ आवेला जाणीने अवंति सुकुमार माफक तेमने हणे नहीं. तेम रजोहरण विगेरेथी उडाडीने खावामां अंतराय न करे (९) ₹ वळी आवेलां प्राणीओ मारी कायाने हणशे, पण मारां ज्ञानदर्शन चारित्रने नहीं हणे, तेम विचारी कायानो मोह छोडेल होवाथी तेने खातां अन्तरायना भयथी पोते न रोके, अने ते स्थानथी पोते भयना कारणे बीजे खसे नहि. १०-केवो बनीने ? उ०-प्राणातिपात विगेरे पांच आश्रवो अथवा विषय कषाय विगेरेथी दूर रहीने शुभ अध्यवसाय वाळो बनीने डांस मच्छर विगेरेथी लोही पीवातो पण अमृत विगेरेथी सिंचन थवा माफक तेओनी करेली पीडाने पोते तप्या छतां पण सहन करे; (१०) है. वळी बाह्य अभ्यंतर ग्रंथ तथा शरीरना प्रेम विगेरेथी पोते दूर रही तथा अंग उपांग विगेरे जैन आगमथी आत्माने भावतो शुक्ल ध्यान ने धर्म ध्यानमा रक्त वनी मृत्यु कालनो पारगामी बने एटले ज्यां सुधी छेवटना श्वासोश्वास होय त्यां मुधी तेवी समाधि Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥७९५ ॥ सूत्रम् . राखे, आ भक्त प्रत्याख्यान मरणथी मोक्षमां जाय, अथवा देवलोकमां जाय. भक्त परिज्ञा कहीने हवे इंगित मरण अडवा श्लोकथी कहे छे. प्रकर्षथी ग्रहित माटे प्रकर्ष ग्रहि छे, अने ते प्रकर्षथी लीधाथी मग्रहित तर छे. [अनेक, प्रत्यय लागत्राथी] प्रग्रहित तरक छे. हवे इंगित मरण कहे छे कारण के आ भक्त प्रत्याख्यानना नियमथीज चार आइरनुं प्रत्याख्यान छे तथा इंगित प्रदेशमां संथारानी जग्यामांज बिहार लेवाथी विशिष्टतर घृति संहनन विगेरेथी युक्त होय, ४ ॥ ७९५॥ तेज प्रकर्षथी ले छे, प्र० - आ कोने होय छे ? द्रव्य (संयम जेने होय ते द्रविक छे, अने ते गीतार्थनेज छे, अने ते जघन्यथी पण नत्र पूर्वनुं ज्ञान होय तेवाने छे. बीजाने नथी, अहीं इंगित मरणमां पण संलेखनामां कहेल तृण संथारो विगेरे समजवुं. (११) आ अपर विधि छे ? ते कहे छे. आ उपर बतावेलो विधि भक्त परिज्ञाथी जुदो इगित मरणनो विधि विशेष प्रकारे वीर वर्द्धमान स्वामीए सम्यक् प्रकारे प्राप्त कर्यो छे, आ बने जोडे कहेवाथी अने प्रत्यक्ष समान कहेवाथी ( इदं) 'आ' विशेषण मुक्युं छे, आ इङ्गित मरणमां पण मत्रज्या विगेरेनो विवि कहेवो, संलेखना पूर्व माफक जाणवी, तेज प्रमाणे उपकरण विगेरे त्यजीने संथारानी जंग्या बरोबर देखीने आलोचना करी पापथी पाछो हटीने पंच महाव्रत फरी उचरीने चार आहारनुं प्रत्याख्यान करीने संथारामां बेसे, अहीं आटलं विशेष छे. आत्माने छोडे एटले अंग संबन्धी वेपार विशेष अनुमोद विगेरे बधु आत्म वेपार शिवायनुं त्यागे प्रकारे त्यजे. त्रिविधि त्रिविधि ते त्रण मन वचन कायाथी करवु कराव जरुर पडतां पासु फेरववुं पडे हालवु पढे अथवा पेशाब विगेरे करवो होय Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECESSAGEMSk ७९६॥ तो जातेज करे [बीजानी मदद न ले] वळी वधी रीते प्राणीनु रक्षण वारंवार करवु ते वतावे छे. . आचा० हरिएसु न निवजिज्जा, थंडिलं मुणियासए ॥ विओसिज अणाहारो, पुट्टो तत्थऽहियाप्तए ॥१३॥ इंदिएहिं गिलायंतो, समियं आहरे मुणी ॥ तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥१४॥ सूत्रम् ॥७९६॥ अभिकमे पडिकमे, संकुचए पलारए ॥ काय साहारणहाए, इत्थं वावि अचेयणो ॥१६॥ परिकमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए ॥ ठाणे ण परिकिलन्ते, निसोइजा य अंतसो ॥१६॥ हरित ते द्रोना अकुरा विगेरेमा न सूए, पण निर्दोप जग्या जोइने मूए, तथा बाह्य अभ्यन्तर उपधि छोडीने अनाहारी बनीने परिसहो तथा उपसर्गथी फरसायलो पण संथारामां वेठेलो रही सम्यक् प्रकारे सहन करे, (१३) वळी आहारना अभावे मुनि इन्द्रि-18 है योथी ग्लान भाव पामे, तोपण आत्माने समाधिमा राखे एटले शर्मिनो भाव शमिता एटले समभावने धारण करी आर्तध्यान न * करे. तथा जेम समाधान रहे तेम वेसे. एटले संकोचथी खेद पामे तो हाथ विगेरे लांबा करे. तेनाथी पण खेद पामे तो स्थिर 5चित्ते बेसे. अथवा मुकरर जग्यामां फरे. तेमां पण आ पोते छुट राखेली होवाथी निंदवा जोग नथी ते केवी छे, ते कहे छे. अचळ 2 ते समाधिमा रहे ते इङ्गित प्रदेशमा पोतानी मेळे शरीर चलावे. पण खेदथी कंटाळी अभ्युदत्त मरणथी चलायमान न थाय. तेथी 28 4 ते अचळ छे. (शरीरथी हाले पण शुभ ध्यानीं चलायमान न थाय.) पोते धर्म ध्यान के शुक्लध्यानमां मन राखे. अने भावथी 181 निश्चळ रहीने इगित प्रदेशमा संक्रमण विगेरे करे. (१४) ते वतावे छे. ' Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापकनी अपेक्षाए संमुख ते अभिक्रमण छे. अर्थात संथाराथी दर जाय. तथा प्रतीप एटले पाछो संथारा तरफ आवे पोताना आचा० मुकरर भागमां जा आव करे तथा निष्पन्न अथवा निषन रहीने जेम समाधि रहे तेम भुजा विगेरेने संकोचे अथवा लांबा करे. सूत्रम् म०-शा माटे ? उ०–ते बतावे छे. शरीरनी प्रकृतिना कोमळपणाना साधारण कारणथी करवू पडे छे. अने कायने साधा॥७९७॥ रणपणुं होवाथी पीडा यतां आयना उपायना परिहार वडे पोतानो आयुनी स्थिति क्षय थवाथी मरण थाय. शिरीरनो तेवो खभाव ||॥७९७॥ होवाथी ते करवू पडे छे. पण तेमने महा सत्वप' होवाथी शरीरनी पीडा थवाथी चित्तमा खोटो भाव थाय तेम न जाणवु.] शंका-जेणे कायानो बधो व्यापार रोकेलो छे. ते मुका लाकडा माफक अचेतन पणे पडेलो होय. तेने पुन्यनो समूह घणो 8 एकठो थयेलो छे. तो शा माटे कायाने हलावे? . है उ-तेवो नियम मथी, शुद्ध अध्यवसायथी यथाशक्ति भारवहन करवा छतां तेनी बरोबरज कर्म क्षय छे. अहीं वा अव्यय " होवाथी जाणवू के, पादपोपगमनमा अचेतन अक्रिय माफक इजित मरणवाळो सक्रिय होय. तो पण बन्ने समाजन छे. (बन्नेनी भावमा | समानता छे. काया संबन्धि इङ्गित मरणमा सक्रिय छे. अने पादपोपगमनमां कायाने हलाववानी नथी. माटे अक्रिय छे. अथवा इंगित मरणमां अचेतन सुका लाकडा माफक सर्व क्रिया रहिन जेम पादपोपगमनवाळो होय तेम पोते शक्ति होय तो निश्चळ रहे. (१५) तेवु सामर्थ्य न होय तो आ प्रमाणे करे. ते कहे छे. जो बेठे अथवा न बेठे, गात्र भंग थाय तो त्यांथी उठीने * फरे ते समये सरळ गतिए नियमित भागमा आवजा करे अने थाकी जाय तो जेम समाधि रहे तेम बेसे अथवा उभो रहे. जो 18| स्थानमा खेद पामे तो बेसे, अथवा पलांठी मारीने अथवा अडधी पलांठी मारीने अथवा उत्कुटुक आसने बेसे अने थाके तो सीधो | Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOSSESS 5 वेसे तेमां पण उत्तानक ( सीधो उंचे मोडं राखीने ) सुवे अथवा पासु फेरवे अथवा सीधो सुवे अथवा लगंडशायी सुवे जेम समाधि आचा०8 | रहे तेम करे. (१६) वळीआसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए ॥ कोलावासं सभासज्ज, वितहं पाउरे सए ॥१७॥ । सूत्रम् ॥७९८॥ जओ वजं समुपजे, न तत्थ अवलम्बए ॥ तउ उकसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए ॥१८॥ ॥७९८॥ अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए ॥ सवगायनिरोहेऽवि, ठाणाओ नवि उब्भमे ॥१९॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुवठ्ठाणस्स पग्गहे ॥ अचिरं पडिलेहित्ता; विहरे चिट्ठ माहणे ॥२०॥ प्र०-शु आश्रयीने ? उ.--अपूर्व आ मरण छे. अने ते सामान्य माणसने विचार पण दुर्लभ छे. प्र०-तेवो बनीने शुं करे? ते कहे छे. इन्द्रियोना इष्ट अनिष्ट पोताना विषयोथी रागद्वेष न करतां तेने समभावे मेरे कोलापवास (घुणना कीडानुं स्थान) अथवा उधइनो समुह चोंटेलो देखीने जे चीज होय अथवा तेमां नवी जीवात उत्पन्न न थाय तेवु | S/जोइने खुल्लं देखातुं पोलाण रहित पोताने टेको ठेवा शोधे. (१७) 5 इंगित मरणने आश्रयी जे निषेध छे. ते कहे छे. आ अनुष्ठानथी अथवा टेका विगेरेथी वज्र माफक दूर रहे अर्थात् कीसेडाने थतुं दुःख साधुने वज्र लेप माफक त्यां दोप लागे माटे ते घुणवाळा लाकडानो टेको विगेरे ले नहीं, तया उंची निची कायाने करता अथवा खराब वचनथी अथवा आर्तध्यान विगेरे मनना योगथी पोताना आत्माने दोष लागतो जाणीने तेनाथी दूर रहे अर्थात् I UOSISAARISOSTOG Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप लागवा न दे अने तेमां धैर्य अने संहनन विगेरे मजबुत होय तो शरीरनी वैयावच्च न करे, अने चडता शुभ भावना कंडकवाको आचा० बनी अपूर्व भावनी धाराए चढीने सर्वज्ञना कहेला आगम अनुसारे पदार्थना खरुपना निरुपणमा पोतानी मति स्थिर करीने सत्रम् | आ शरीर आत्माथी जुद् छे. माटे त्यागवा जोग छे एवो विचार करीने वधा दुःखना स्पर्शोने तथा अनुकूळ प्रतिकूळ आवेला ॥७९९॥४ा उपसर्ग परीसहोने तथा वातपित्त कफना द्वंद्व अथवा जुदा रोगो आवे तो मारे कर्मक्षय करवानो होवाथी हुँ उठ्यो छ माटे मारेज ||॥७९९॥ | आ पूर्वे करेलां पापने भोगववा जोइए. आवो विचार करीने दुःख सहे. . कारण के में जे शरीरने त्याग्यु छे. एनेज उपद्रव करशे, पण जे धर्म आचरणने कर छे, तेने वाधा लगाडे तेम नथी. माटे तेवु विचारीने सहे. (१८) इङ्गित मरण कह्यं हवे पादपोपगमन अणसण कहे छे. ते जोडाजोड कहेल होवाथी आ विशेषणवडे | मरणनो विधि वताव्यो छे. आ आयत तर छे ते बतावे छे. मर्यादानी विधिमां आ उपसर्ग छे. ते संपूर्ण यत थतां आयत शब्द छे. अने उपरना बे अणसण करतां वधारे आयत छे, माटे आयत तर छे. ' अथवा उपरना बन्ने अणसणथी अतिशय आत्त छे. माटे आत्ततर छे अर्थात् यत्रयी अध्यवसायवाला छे. प्रथम कहेला वे 18 अणसण करतां पादपोपगमन वधारे दृढतर छे एमां पण इगित मरणमां कह्या मुजब मत्रज्या संलेखना विगेरे वधु जाणवु. म०-जो आ आयततर छे तो शुं करवु ? उ०--कहे छे. जे भिक्षुक आ कहेली विधिएज पादपोपगमन विधिने पाळे तथा 14 शरीरना बधा व्यापार छोडवाथी काया तपे अथवा मूर्छा पामे अथवा मरण समुद्घात आवे, अथवा लोही मांस शियाळीया गीध कीडीओ विगेरेथी खवाय, पीवाय, तो पण महा सखना कारणे पोते जाणे के आ इच्छित मोटुं फळ आव्यु छे तेथी ते स्नानथी 5555 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्र ॥८००॥ com - - द्रव्यथी, अने भावथी ते शुभ अध्यवसायथी चळायमान न थाय. न वीजा स्थाने जाय. (१९) वळी आ अंत:करणमा उत्पन्न थवाथी | प्रत्यक्ष मरण विधि छे. अने ते सौथी श्रेष्ठ होवाथी पादप उपगमन रुप मरणनो धर्म [विशेष] विधि छे. उत्तम पणाना कारणा वतावे छे. [सूत्रमा छट्ठी छे, तेनो पांचमीमां अर्थ लइए तो पूर्व स्थानथी एटले भक्त परिज्ञा तथा इंगित मरणना रुपथी आ प्रकर्षथी ग्रह छे; माटे पूर्व स्थान प्रग्रह छे. अर्थात् प्रग्रहिततर छे. ते प्रमाणे जे इङ्गित मरणमां कायाने हलाववानी छुट हती ते पण अहींया नथी. झाडर्नु मूळ जमीनमां होय, ते पोते वळातुं के छेदातुं स्थानथी खसतुं नथी. तेम पोते साधु झाड माफक चेष्टा क्रिया रहित ४ दुःखमां आवेलो होय तो पण चिलाती पुत्र माफक स्थानथी खसतो नथी. पण त्यांज स्थिर रहे छे ते बतावे छे. अचिर स्थान ते पोताना संथारानी जग्या प्रथमथी जोइने कहेली विधिए नेमां रहे. आ पादपउपगमनना अधिकारथी विहरणनो अर्थ विहार न लेतां | पोते विधिए पालण करे एम जाणवू. पण स्थानथीन खसे तेज बतावे छे. वधा गात्रना निरोधमां पण स्थिर रहे पण खसे नहीं. म०-आवो कोण छे ? उ.---माहण साधु छे. ते बेठो होय उभो होय तो पण शरीरनी खबर राख्या विना जेवी रीते पोते | प्रथम कायाने स्थापि होय तेमज अचेतन माफक रहे हाले नहीं (२०) आज वातने बीजी रीते कहे छे. अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सबसो कायं, न मे देहे परीसहा ॥२१॥ जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा इति सङ्ख्या ॥ संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥२२॥ भेउरेसु न रजिज्जा, कामेसु बहुतरेसुवि ॥ इच्छा लोभं न सेविजा, धुववन्नं सपेहिया ॥२३॥ k4SECASSESSACROSCORE - -- - Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासरहिं निमन्तिज्जा, दिवमायं न सहहे ॥ तं पडिवुज्झ माहणे, सत्वं नूमं विहणिया ॥२४॥ चित्त जेमां न होय ते अचेतन (जीव रहित) छे अने तेवी संथारानी जग्या अथवा पाटयं विगेरे मेळवीने तेना उपर समर्थ है। आचा० पुरुष बेसे अथवा कोई लाकडाउपर त्यां आत्माने स्थापन करे अने चार प्रकारनो आहार त्यागीने मेरु पर्वत माफक निश्पकंप रहे | प्रथम' गुरु पासे आलोचना विगेरे क्रिया करीने आत्माथी देहने दूर करे (मोह छोडे) ते समये जो कोइ परीसह उपसर्गो आवे / 1. सूत्रम् ॥८०१|| तो भावना भावे के आ मारी देह हवे नथी कारणके में तेने त्यागी छे तो परिसह मने केवी रीते लागे? अथवा मारा शरीरमा ८०१॥ परीसहो नथी, कारणके सारी रीते सहेवाथी ते संबन्धी पीडाना उद्वेगनो अभाव छे. एयो परीसहोने कर्म शत्रुने नजीवा माफक अपरीसहोज माने (शत्रने जीतवाथी आनंद माने तेम परीसहोने जीते) (२१) al म०-ते क्यां सुधी सहेवा ? आवी शंका दूर करवा कहे छे. आखी जींदगी सुधी परीसह अने उपसर्ग सहेवा एम जाणीने तेने सहन करे अथवा मने आखी जींदगी सुधी परिसह उपसर्गो नथी एम जाणीने सहे अथवा ज्यां सुधी जीवित छे त्यां सुधीर परिसह उपसर्गनी पीडा थाय छे. तो थोडा आंखना पलकारा सुधी आ अवस्थामा हुं रहेल छ तेवाने तो आ अल्प मात्र छ एम जा-2 Sणीने कायाने बरोबर संवरीने शरीर त्याग माटे उठेलो छ एम मानीने ते मुनि उचित विधानने जाणनारो कायाने पीडा करनाराम जे जे कष्ट आवे ते बरोबर सहे. (२२)। आवा साधुने जोइने [आश्चर्य पामीने] कोइ राजा विगेरे भोगोनी निमंत्रणा करे ते बतावे छे. एटले जे भेदावाना स्वभा-12 ववाळा छे ते भिदुर शब्द. विगेरे पांच काम गुणो छे. तेमां राग न करे (मुनि तेनाथी न ललचाय) अथवा बीजी प्रतिमां "कामेसु Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बहुलेसुवि" पाठ छे. एटले इच्छा मदनरुप जे काम छे. ते घणा प्रमाणमां होय तेमां न ललचाय अर्थात ते राजा पोतानी कन्याद्री आचा०दान पागा आपका लामाकता पण दान वीगेरे आपवा लोभावे. तो पण तेमां गृद्ध न थाय तथा इच्छा रुप लोभ ते इच्छा लोभ छे ते मुनी आ अणसणन फळ आवता भवमां मने चक्रवर्तीनु पद अथवा इन्द्रनी पदवी विगेरे मळो. तेवा अभिलापर्नु नियाj पोते निर्जरानी अपेक्षा राखीने सेवे नहीं सूत्रम् ॥८०२॥5(नियाणुं न करे.) जेम देवतानी रिद्धि समान सनत्कुमार चक्रवर्तीनी रिद्धि देखीने ब्रह्मदत्ते पूर्व भवमां निया| कर्यु तेम पोते ८०२॥ न करे ते प्रमाणे आगममां कयु छे. __ आ लोकनी आशंसा माटे तप न करे (१) तथा परलोकनी आशंसा माटे न करे (२) तथा जीवितनी आशंसा न करे. (३) मरणनी आशंसा (४) काम भोगनी आशंसा (५) माटे संलेखना तप न करे, विगेरे छे. वर्ण--संयम अथवा मोक्ष ते दुःखे करीने जणाय छे. अथवा पाठांतरमा धुववन्न पाठ छे तेनो अर्थ आ छे के अव्यभिचारी ते ध्रव छे ते ध्रुव वर्ण [संयम ने अथवा शाश्वती यशकीर्तिने विचारीने काम इच्छा लोभने दूर करे. [२३] वळी आखी जौंदगी सुधी क्षय न थवाथी शाश्वत छे अथवा प्रतिदिन दान देवाथी शाश्वत अर्थ छे. तेवा सारा विभववडे | कोइ ललचावे तो गुरु शिष्यने समजावे छे के तारे तेमां ललचावू नहीं पण विचार के आ धन शरीर माटे लेवाय पण ते नाशशवंत छे. माटे धन नका, छे. | तेज प्रमाणे कोइपण रीते देवतानी मायाथी न ललचाय ते कहे छे. जो कोइ देवता परीक्षा करवा अथवा शत्रपणाथी अथवा भक्तिथी अथवा कौतुक विगेरेथी जुदी जुदी रिद्धिओ बतावी ललचावे तो पण आ देव माया छे एम तुं जाण अने ललचाना नहीं. * * * Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८०३ ॥ कारण के जो ए माया न होय तो आ पुरुष एकदम क्यांथी आवे अने आटलं बधुं दुर्लभ द्रव्य आवा क्षेत्रमां काळमां के भावमां कोण आपे ? आ प्रमाणे देव मायाने तुं जाणी ले अथवा कोइ देवी दिव्यरूप धारण करीने ललचावे तो पण पोते न ललचाय. तेनुं तुं समज. हे साधु ! तुं आ बधी मायाने अथवा कर्म बन्धने जाणीने देव वीगेरेनी कपट जाळने समजीने ललचातो नहीं. (२४) सबहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए ॥ तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नरं हियं ॥ २५ ॥ तिमि विमोक्षाध्ययनमष्टमं समाप्तम् | उद्देशः ॥ ८-८ ॥ TET अर्थो, इन्द्रियोना विषयो पांच प्रकारना छे. ते काम गुण छे अथवा तेने प्राप्त करावनार द्रव्य समूह छे. तेमां तुं मूर्छा न पामतो एटले प्राप्त करावनार द्रव्य समूह छे तेमां पोते मूर्छा न पामतो आयु पहोंचे त्यां सुधी पोते स्थिर रहे. अने तेनो एटले क्षयं थाय त्यां सुधी रहे ते पारग छे एटले उपर बतावेली विधिए पादपउपगमन अणसणमां रहीने चढता शुभ भाव वडे पोताना आयुना काळनो पार पहचनारो थाय. आ प्रमाणे पादपउपगमननी विधि बतावीने समाप्त करवा भक्त परिज्ञा विगेरे त्रणे मरणोना | काळक्षेत्र पुरुषनी अवस्थाने वीचारीने योग्यता प्रमाणे करे ते छेल्ला वे पदमां बतान्युं छे. परीसह उपसर्गथी जे दुःख आवे ते बधुं सारी रीते सहन करवु ते त्रणे मरणमां मुख्य छे ते विचारीने मोह रहितनां जे मरणे भक्त परिज्ञा इंगित भरण पादपउपगमन | छे. ते त्रणेमां काळ क्षेत्र विगेरेने आश्रयी उत्तम भावे ते करवायी बधामां समान फळ छे. माटे अभिप्रेत अर्थ मळवाथी हित छे, | माटे यथाशक्ति त्रणमांनुं कोइ पण पोतानी शक्ति प्रमाणे ते अवसरे कर. [हाल तेव्रं संघयण न होवाथी धैर्य न रहे तेम आयुष्यनो सूत्रम् ||८०३ ॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळ बतावनार ज्ञानी साधुना अभावे तेवू अणसण थतु नथी-पण यथाशक्ति सागरिक एक चे उपवासर्नु अथवा कलाक वे कला-2 आचा०18 कर्नु अणसण वैयावच्च, करनार मांदा साधुनी स्थिरता जोइ करावे छे. अने तेमां निर्मळ भावनी प्रधानता होवाथी पूर्वना मरण जेवोज लाभ छे.] आ प्रमाणे सुधर्मास्वामिए कानय विचार विगेरे तेमां थोडं आवी गयुं छे. आठमा अध्ययननो आठमो उद्देशो ॥८०४॥ समाप्त थयो. अने अध्ययन पण समाप्त थयु [टीकाना श्लोक १०२०] आठमु अध्ययन समाप्त. सूत्रम् ८०४॥ उपधान श्रुत नामर्नु नवमुं अध्ययन. आठमुं अध्ययन का, हवे नवमुं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे. के पूर्व आठ अध्ययनोमा जे आचारनो विषय कह्यो । | हतो, तेवो श्री वीर वर्द्धमानखामिए पोते पाळेलो छे, तेथी ते नवमां अध्ययनमां कहे छे. तेनो आठमा साथे आ प्रमाणे संबन्ध | छे, के तेमां अभ्युद्यत मरण त्रण प्रकारनुं बताव्यु, तेवा कोइ पण अणसणमा रहेलो साधु आठमा अध्ययनमा बतावेल विधिए अति घोर परीसह उपसर्ग सहन करी अने सन्मार्गनो अवतार प्रकट करी चार घाति कर्मनो नाश करीने अनंनज्ञान विगेरे अतिशयोवालं 8 अप्रमेय महाविषयोन स्व तथा परनु प्रकाशक एवं केवळज्ञान मेळवनार श्री महावीर प्रभुने समोसरणमां बेठेला अने सखोना हित | माटे देशना करे छे तेमने पोते ध्यानमां ध्यावे, एटला माटे आ अध्ययन कहे छे. आवा संवन्धे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वार कहेवा, तेमां उपक्रमद्वारमा अर्थाधिकार के प्रकारे छे, अध्ययन अर्थाधिकार तथा उद्देशार्थ अधिकार तेमां अध्ययननों 15/ अर्थाधिकार टुंकाणमा पहेला अध्ययनमां कहेल छे, अने तेनेज खुलासावार नियुक्तिकार कहे छे Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जइया तित्थयरो, सो तइया अप्पणो य तित्थम्मि । वण्णेइ तबोकम्म, ओहाणमयंमि अज्झयणे ॥२७६॥', ' . जे समये जे तीर्थकर-उत्पन्न थाय छे, ते पोताना तीर्थमां आचरनो विषय कहेवाने छेवटना अध्ययनमा पोते करेला तपर्नु सत्रम् वर्णन करे छे, (के वीजा जीवोने पण तेम करवानी रुचि थाय) आ बधा तीर्थकरोनो कल्प छे, अहीं तो उपधान श्रुत नामर्नु छेलु ।।८०९॥ अध्ययन [ने विषय छे, तेथी तेने उपधान श्रुत कहे छे. कोइने शङ्का थाय के जेम वधा तीर्थकरनें केवळ ज्ञानं समान छे, तेम ४८०५॥ | तप अनुष्ठान समान छे, के ओछु वधतुं छे ? ते शङ्कान निवारण करवा कहे छे । सव्वेसि तवोकम्मं निरुवसगं तु वण्णिय जिणाणं; । नवरं तु वद्धमाणस्स, सोवसग्गं मुणेयध्वं ॥२७७|| तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियब्वय धुवम्मि; । अणिगृहियबलविरिओ, तवोविहाणमि उज्जमइ ॥२७८॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणासुविहिएहि । होइ न उजमियव्वं सपच्चवायंभि माणुस्से ? ॥२७९॥ . (त्रणे गाथानो अर्थ सरळ होवाथी टीका नथी तो पण टुंकामां लखीए छीए) बधा तीर्थङ्करोनो तप शास्त्रमा उपसर्ग रहित वताव्यो छे [पार्श्वनाथनो थोडो होवाथी गण्यो नथी] पण वर्द्धमानस्वामिनो तप | 18| उपसर्गवाळो जाणवो. (तेमने संगम देवता विगेरेना घणा उपसर्ग आवेला छे, (२७७) . तीर्थकर दीक्षा लीधा पछी तुरत मनःपर्यवज्ञान प्रकट थतां चार ज्ञानवाला याय छे, देवताओथी पूजाय छे, निश्चये मोक्षमा जनारा छे, तोपण पोतानुं वळ वीर्य न गोपवतां तप विधानमा उद्यम करेछे, (२७८) तो बीजा समान्य-गीतार्थ साधु विगेरे एक (तपनो फायदो जाण्या पछी) अने मनुष्यपणानुं जीवन सोपक्रम (विघ्न। वाळु होवाथी शा माटे तपमा यथाशक्ति उद्यम न करवो? ASISACANAISASSISESPOSANESS Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८०६॥ हवे अध्ययननो अर्थाधिकार बतावीने उद्देशानो अर्थाधिकार कहे छेआचा०॥ चरिया १ सिज्जा य २ परीसहाय ३, आयकिया (ए) चिगिच्छा (४) य ॥ तवचरणेणऽहिगारो, चउमुद्देसेसु नायव्यो २८० 'चरण' चराय ते चर्या, एटले 'वर्द्धमानस्वामिना विहारने आ पहेला उद्देशामां वर्णव्यो छे. ॥८०६॥ बीजा उद्देशामां शय्या ते वसति (रहेवावें स्थान) जेवू महावीरे वापर्यु छे तेनुं वर्णन छे. त्रीजा उद्देशामां परीसहो आवेथी निर्जरामाटे चारित्र मार्गथी भ्रष्ट न थतां साधुए तेने सहन करवा, अने तेना उपलक्षणथी अनुकूल तथा प्रतिकूल वर्द्धमानस्वामिने जे परीसहो थया ते बतावे छे. चोथा उद्देशामां भूखनी पीडामां विशिष्ट अभिग्रहनी प्राप्तिमा आहारवढे चिकित्सा उपाय करे, अने तप चरणनो अधिकार | तो चारे उद्देशामां चाले छे, (गाथार्थ) त्रण प्रकारे निक्षेपो छे, ओघनिष्पन्न, नाम, अने सूत्रालापक तेमां ओघमां अध्ययन, नाममां उपधानश्रुत एबुं वे पदनुं नाम छे, ते उपधान अने श्रुतना यथाक्रमे निक्षेपा करवा ए न्याये उपधान निक्षेपर्नु वर्णन करे छे. नामंठवणुबहाणं दवे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य सुत्तस्सवि निक्खेवो चउबिहो होइ ॥२८॥ नामस्थापना द्रव्य अमे भाव एम चार प्रकारे उपधानना निक्षेपा छे, तेज प्रमाणे श्रुतना पण चारज छे, तेमां द्रव्यश्रुत अनु* पयुक्त (उपयोग विना)नुं छे. अथवा द्रव्य मेळववा माटे जनेतग्नु छे. अने भावत ते अंग उपांगमा रहेलं जे श्रुत छे, तेमां उपयोग होय ते, हवे सुगमनामस्थापना छोडीने द्रव्य विगेरे उप. 5%555454562565-45255 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ६ धान बताववा कहे छे. आचा० दबुवहाणं सयणे भाववहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाणदसणतवचरणेहिं इहाहिगयं ॥२८२॥ समीपमा रहीने धारण कराय ते उपधान छे. द्रव्य संबन्धी होय ते द्रव्य उपधान छे. ते पथारी विगेरेमां मुखे मुवा माटे || ॥८०७॥ 18 माथा नीचे टेको लेवा औशीकुं विगेरे मुकाय छे. ते द्रव्य उपधान छे. 21८०७॥ अने भावनु उपधान ते भावोपधान छे, ते ज्ञानदर्शन चारित्र अथवा बाह्यअभ्यंतरतप छे. कारण के तेनावडे चारित्रमा परिणत थयेला भाववाळाने उपष्टभन [आधार कराय छे.जेथी ते प्रमाणे ज्ञान दर्शन तप अने चरणवडे अहींयां अधिकार छे. गाथायें | म०-शा माटे चारित्रना आधार माटे तपर्नु भाव उपधान कहे छे ? उ०-कहीए छीए. जह खलु मइलं वत्यं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहि । एवं भावुबहाणेण मुज्झए कम्ममट्टविहं ॥२८३॥ (यथा उदाहरणना उपन्यास माटे छे. जेमके आ छे. एम बीजु पण जाणवु. खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे.) जेम मेलु वस्त्र प्रथम पाणी विगेरेथी शुद्ध कराय छे, तेम जीवने पण भाव उपधानरुप बाह्य अभ्यन्तर तपवडे आठे कर्मथी शुद्ध कराय छे. अने अहीं या कर्मक्षयना हेतु माटे तपस्यानु उपधान श्रुतपणे लेवाथी पर्यायो लेवा जोइए. [तत्त्व भेद अने पर्यायोवडे व्याख्या थाय ४ 2.] माटे पर्यायो कहे छे. अथवा तप अनुष्ठानवडे अवधूनन विगेरे कर्म ओछां थवाना जे विशेष उपायो संभवे छे ते वतावे छे. ओधूणण धूणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं । छेयण भेयण फेडण, डहणं धुवणं च कम्माणं ॥२८४॥ तेमां अवधनन, ते अपूर्वकरणवढे कर्म ग्रन्थि भेदन उपादान जाणवं. अने ते तपना कोइ पण भेदना सामर्थ्यथी आ क्रिया Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ॥ 5थाय छे. एटले वाकीना अगीयार भेदमां पण आ जाणवु तथा 'धृनन' ते भिन्न ग्रन्धिवाळाने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यक्त्वमा रहे, आचा० द तथा 'नाशन' कर्म प्रकृतिन स्तिवुक सङ्क्रमणवडे एक प्रकृतिनु बीजी प्रकृतिमां सङ्क्रमण थq, 'विनाशन' शैलेशी अवस्थमा सम्पू-18 र्णताथी कर्मनो अभाव करवो, 'ध्यापन' उपशमश्रेणिमां कर्मन उदयमां न आवद्यु, क्षपण ते अप्रत्यख्यानादि क्रमवडे क्षपकश्रेणिमां॥८०८॥ मोह विगेरेनो अभाव करवो, शुद्धिकर-अनंतानुबन्धीना क्षयना प्रक्रमथी क्षायिक सम्यक्त्व मेळवq, 'छेदन' उत्तरोत्तर शुभ अध्यव-2 सायमां चडवाथी स्थितिनी ओछाश करवी, 'भेदन' ते चादर संपराय अवस्थामा संज्वलनना लोभना खंड खंड करी नाखवा, (फेडण) त्ति-चौठाणीआ रसवाळी अशुभ प्रकृतिने त्रण रसवाळी 'विगेरे बनाववी. 'दहन' ते केवलीसमुद्घातरुप ध्यान अनिवडे वेदनीयकर्मर्नु राखतुल्य बनावयु, अने बाकीना कर्मन वळेला दोरडा माफक बनाव, 'धावन' ते शुभ अध्यवसायथी| मिथ्यास पुद्गलोर्नु सम्यक्त्वभावे बनावबु, आ बधी कर्मनी अवस्थाओ माये उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी केवलि समुद्घात शैलेशी अदावस्था प्रकट करवाथी प्रभूत रीते प्रकट थाय छे, [आत्मा निर्मळ करवा कराय छे] एटला माटे प्रक्रमाय (आरंभाय) छे, तेमां उप शमश्रेणीमां प्रथमज अनंतानुवन्धीओनी उपशमनी कहेवाय छे, अहीं असंयतसम्यगृदृष्टि देशविरति प्रमत्त अप्रमत्तमांथी कोइ पण बीजा योगमां जतां आरंभक होय छे, तेमां दर्शन सप्तक एकवडे उपशमाय छे, ते कहे छे. अनंतानुवन्धी चोकडी, उपरनी त्रण लेश्यामां विशुद्ध होवाथी साकार उपयोगवाळो अंत:कोटीकोटी स्थितिनी सत्तावाळो परिवर्तन थती शुभ प्रकृतिओनेज बांधतो पति समये अशुभ प्रकृतिओना अनुभागने अनंतगुण हानीए ओछी करतो शुभ प्रकृतिओने से | अनन्त गुण वृदिए अनुभाग (रस) मा व्यवस्था करतो पल्योपमना असंख्य भाग हीन उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध करतो करणकालथी. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८०९ ॥ पण पहेला अन्तर्मुहुर्त्तमां विशुद्ध मान वनीने त्रण करण करे छे, ते प्रत्येक अंतर्मुहूर्त्तना छे. ते कहे छे- (१) यथा प्रवृत्त (२) अपूर्व (३) अनिवृत्तिकरण - अथवा चोथी उपशांतथी थाय छे. तेमां यथा प्रवृत्त करणमां दरेक समये अनंत गुण वृद्धिवाळी विशुद्धिने अनुभवे छे. तेमां स्थिति घात, रसघात, गुण श्रेणि, गुण सङ्क्रमण आमांथी कोइ पण होतुं नथी तेज प्रमाणे बीजा अपूर्वकरणमां छे. तेनो परमार्थ कहे छे के तेमां अपूर्व अपूर्व क्रियाने मेळवे छे. तेथी अपूर्व करण छे. तेमां प्रथम समयेज स्थिति घात रस | घात गुणश्रेणि गुण सङ्क्रमण अने अन्य स्थिति बन्ध ए पांच पण अधिकार साथै पूर्वे न होता, अने हवे छे, तेथी अपूर्व करण छे. ते प्रमाणे अनिवृत्तिकरणमा अन्य अन्यने परिणामो उल्लंघता नथी. माटे ते अनिवृत्ति करण छे. एनो सार आ छे के पहले सम जे जीवोए आकरण फरस्यो ते बधामां तुल्य परिणाम छे. ए प्रमाणे वीजा समयोमां पण जाणवुं. अहोंया पण पूर्वे बतावेला स्थितिघात | विगेरे पांचे पण अधिकार साथे वर्त्ते छे. तेथीज आ त्रण करणवडे उपर बतावेलां क्रमवडे अनंतानुबंधीना कषायोने उपशमावे छे. उपशमनुं वर्णन. – जेम धूळ पाणीथी छांटीने लाकडाना थाळावडे कुवो करतां चोंटी जवाथी वायु विगेरेथी उडाडवा छतां | ते धूळ उडती नथी, तेम कर्म धूळ पण विश्शुद्धि भावरुप पाणीवडे 'भिजावी अनिवृत्ति करण थाळावडे हणतां कर्मरज शांत थवाथी उदय उदीरण सङ्क्रम निधत निकाचनारूप करणाने अयोग्य थाय छे. (चीकणो कर्म बंध न थाय) तेमां पण प्रथम समये कर्मदलिक थोडु' उपशांत थाय. अने वीजा तीजा विगेरे समयमां असंख्येय गुण वृद्धिए उपशमता अंतर्मुहूर्त्तमां बधुं शांत थाय छे. आ प्रमाणे एक मतवडे अनन्तानुवन्धीनो उपशम बताव्यो. बीजा आचार्योनो मतभेद. - अनंतानुबन्धीन्री विसंयोजना बतावे छे, तेमां क्षायोपशमिक सम्यग्रदृष्टि जीवो चार गतिमा रहेला सूत्रम् ॥८०९॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 छे. तेमां पण अनंतानुबन्धीना विसंयोजको छे. तेमां नारक अने देव अविरत सम्यग्दृष्टिओ छे, तथा तिर्यंचो अविरत देशविरत छे. 3 आचा० मनुष्यो अविरत देश विरत प्रमत्त अप्रमत्त छे. ए वधा पण यथा संभव विशोधि विवेक बडे परिणत थयेला अनंतानुबन्धीनी विसंयोजना माटे पूर्व कहेल करण त्रण करे छे.. सूत्रम् ॥८१०॥15| तेमां पण अनंतानुबन्धीनी स्थितिने अपवर्तन करतो पल्योपमना असंख्येय भाग मात्र बनावे छे. अने पल्योपमना असंख्येय भाग १८१०॥ जेटली मोह प्रकृतिओ जे बन्धाय छे, तेने प्रति समये सङ्क्रमावे छे. तेमां पण प्रथम समये स्तोक अने त्यार पछीना समयोमा असंख्येय गुण सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे छेल्ला समयमां वधासमवडे आवलिका जेटलाने छोडी वाकोनी सर्व सङ्क्रमावे छे.अने पछी आ-0 वलिकामा रहेल पण स्तिबुक सङ्क्रमवडे वेदांती वीजी प्रकृतिओमां सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे अनंतानुबन्धी कपायो विसंयोजित थायछे. दर्शन त्रिकनी उपशमना.-तेमां मिथ्याखनो उपशमक मिथ्यादृष्टि छे, अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि छे पण सम्यक्त्व के सम्यग & मिथ्याखनो वेदक तेज उपशमक छे. तेमां भिथ्याखनो उपशम करतो तेनु अंतर करीने प्रथम स्थितिने विपाकबडे भोगवीने मिथ्याखनो उपशम करतो, उपशांत मिथ्याखी वने छे. अने उपशम सम्यग्दृष्टि थाय छे. हवे वेदक सम्यग्दृष्टि जीर उपशम श्रेणीने स्वीकारतो अनंतानुबन्धीने वीसं. योजीने संयममा रहेलो आ विधिए दर्शनत्रिकने उपशमावे छे तेमां यथा प्रवृत्त विगेरे पहेला बतावेल त्रण करणोने करीने अंतर-8 व करण करतो वेदक सम्यक्त्वनी पहेली स्थितिने अंतर्मुहर्तनी बनावे छे. अने बाकीनी आवलिका मात्र बनावे छे. त्यार पछी थोडी ओछी एवी मुहूर्त मात्रनी स्थिति खंड खंड करीने वध्यमान प्रकृतिओने स्थितिवन्ध मात्र काळवडे ते कर्मना दळियाने सम्यक्त्वनी MARACT Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61-56-05 प्रथम स्थितिमा प्रक्षेप करतो आ प्रक्रियावडे सम्यक्त्वना बन्धना अभावथी अंतर क्रियमाण करेल थाय छे. मिथ्योख सम्यक मिआचा० | थ्यात प्रथम स्थिति दलिकने आवलिकाना परिमाण मात्र सम्यक्त्वनी प्रथम स्थितिमां स्तिबुक सङ्कमवडे सङ्क्रमावे छे. तेमां पण सम्यक्त्वनी प्रथम स्थिति क्षीण थतां उपशांत दर्शनत्रिकवालो थाय छे. त्यार पछी चारित्रमोहनीयने उपशमावतो पूर्व माफक त्रण 18 करण करे छे. एमां विशेष आ छे.यथा प्रवृत्त करण अप्रमत्त गुणस्थानेज थाय छे. अने बीजु अपूर्वकरण तो आठमुं गुणस्थान छे. ॥८११॥ तेना प्रथम समयेज स्थितिघात, रसघात,गुणश्रेणि,गुणसङ्कम, अपूर्वस्थितिबंध, ए पांचे अधिकार साथे प्रवर्ते छे. तेमां अपूर्वकरणना संख्येय भाग जतां निंद्रा प्रचलाना बंधनो व्यवच्छेद थाय छे. तेमां पण घणां हजार स्थितिनां कंडको गये छते छल्ला समयमां 81 चीजा भवनी नाम प्रकृतिनी त्रीस प्रकृतिना बंधनो व्यवच्छेद करे ते आ प्रमाणे छे. (१) देवगति (२) अनुपूर्वी (३) पचेंद्रिय जाति, (४) वैक्रिय (५) आहारक शरीर अने ते (६-७) बमेना अंगोपांग, (८) तेजस (९) कार्मण शरीर (१०) समचतुरस्र संस्थान (११ थी १४) वर्ण गंध रस स्पर्श (१५) अगुरुलघु (१६) उपधात है। (१७) पराघात (१८) उच्छवास (१९) प्रशस्तविहायोगति (२०) त्रस (२१) बादर (२२) पर्याप्त (२३) प्रत्येक (२४) स्थिर ! - 8 (२५) शुभ (२६) सुभग (२७) सुखर (२८) आदेय (२९) निर्माण (३०) तीर्थङ्करनाम तेथी अपूर्व करणना छेल्ला समयमां हास्य रति भय जुगुप्साना वधनो व्यवच्छेद थाय छे. अने हास्यादि पटकना उदयनो व्यवच्छेद थाय छे. बधा कर्मनो अप्रशस्तनो उपशम निद्धत निकाचना करवानुं व्यवच्छेद थाय छे. (टीकाना काउसमां लख्युं छे के देशना उपशमनो व्यवच्छेद थाय छे) तेथी। ए प्रमाणे असंयत सम्यग्दृष्टि विगेरेथी अपूर्वकरणना अंत सुधी सात कर्मोनो उपशांत मेळवाय छे. त्यार पछी अनिवृत्तिकरण छे. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ८१२॥ अने ते नवमो गुण ( गुणस्थान ) तेमां रहेंलो एकवीस मोह प्रकृतिनो अंतर करीने नपुंसक वेदने उपशमाचे छे. त्यारपछी स्त्री वेद पछी हास्यादि पटक पछी पुरुष वेदना बन्ध उदयनो व्यवच्छेद थाय छे. त्यार पछी वे आवलिकामां एक समय ओछे पुं वेदनो उपशम धाय छे. त्यार पछी वे क्रोधनो अने पछी संज्वलन क्रोधनो, पछी एज प्रमाणे मानत्रिक अने मायात्रिकनो उपशम करे छे. त्यार पछी संज्वलन लोभना सूक्ष्म खंडो बनावे छे. अने ते करणना काळना चरम समयमां वचला वे लोभने उपशमावे छे. आ प्रमाणे अनिवृत्तिकरणना अंतमां सतावीस प्रकृति उपशांत थाय छे, त्यार पछी सूक्ष्म खंडोने अनुभवतो सूक्ष्मसंपरायवाळो थाय छे. (दश गुणस्थान फरसे छे.) तेना अंतमां ज्ञान अंतराय दशक दर्शनावर्ण चतुष्क यशकीर्त्ति अने उंच गोत्र एम सोळ प्रकृतिना बन्धनो व्यवच्छेद थाय छे. ए प्रमाणे मोहनीय कर्मनी २८ प्रकृति संज्वलन लोभ उपशमावतां उपशांत वीतराग थाय छे, (अगीयारमुं गुणस्थान फरसे छे.) 'अने ते जघन्यथी एक समय अने ते उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त्त छे अने ते गुणस्थानेथी पडवानुं कारण कांतो मनुष्य भव समाप्त थाय अथवा काळ क्षय थाय. अने ते जेम चढेलो छे अने वंधादि व्यवच्छेद करे छे, तेज प्रमाणे पाछो पडतां कर्म बंध बांधे छे. अने तेमांथी कोइ पडतां मिथ्यात्र नामना पहेला गुणस्थाने पण जाय छे। अने जे भवक्षयथी पडे छे, तेने पहेला समयमांज बधा करणो प्रवर्त्ते छे. कोइ तो एक भवमां पण बे वार उपशमश्रेणि करे छे. क्षपकश्रेणिनुं वर्णन. आ श्रेणी करनार मनुष्यज आठ वरसुनी उपरनो 'आरंभक' होय छे। अने ते प्रथमज - करणत्रय पूर्वक, अनंतानुबन्धी कषायोने सूत्रम् ॥८९२॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् विसंयोजे छे. (दूर करे छे.) पछी करण त्रण पूर्वकज मिथ्याखने अने तेमां बाकी रहेल भागने सम्यग् मिथ्याखमा नांखतो चा० खपावे छे. ए प्रमाणे सम्यग् मिथ्याखने पण खपावे पण विशेष एटलं छे के तेमां बाकी रहेलने सम्यक्त्वमा नांखे छे एज प्रमाणे सम्यक्त्वने खपावे छे. अने तेना छेल्ला समयमां वेदक (क्षयउपशम) सम्यग्र दृष्टि थाय छे त्यार पछी क्षायिक सम्यग् दृष्टि थाय छे. ॥८१३॥ 18 आ सात कर्म प्रकृतिओ असंयत सम्यग् दृष्टिथी लइने अप्रमत्त गुणस्थान सुधी खपावे छे अने आ सम्यक्त्व पाम्या पहेलां जो आयु बन्धायु होय तो श्रेणिक राजा माफक त्यांज टके छे. पण जेणे आयु बांध्यु नथी अने क्षायिक समक्ति मेळव्यु छे. तेवो कषाय अष्टकने खपाववा करणत्रय पूर्वक आरंभे छे. त्यां यथा प्रवृत्त करण अप्रमत्तनेज होय छे अपूर्व करणमां तो स्थितिघात विगेरे पूर्वनी माफक निद्राद्विक अने देवगति विगेरे वीस तथा हास्यादि चतुष्कनो यथाक्रम बंध व्यवच्छेद उपशमश्रेणिना क्रम माफक कहेवो अने अनिवृतिकरणमां तो थीणदि त्रिक नरक तिर्यच गति तेनी अनुपूर्वि एकेंद्रिय आदि चार जाति आतप उद्योत | स्थावर सूक्ष्म साधारण ए सोळ प्रकृतिनो क्षय थाय छे. पछी आठ कषायनो क्षय थाय छे. 8 वीजा आचार्य ने मते प्रथम कषाय अष्टकने खपावे छे. त्यारपछी उपर कहेली सोळ प्रकृति खपावे छे. त्यार पछी नपुंसक वेद त्यार पछी हास्यादि पटक पछी पुरुष वेद पछी स्त्री वेद खपावे छे. पछी अनुक्रमे क्रोधथी माया सुधी त्रण संज्वलन कपायने खपावे छे. अने संज्वलन लोभना खंड खंड करी तेमांना बादर खंडोने खपावतो अनिवृत्ति बादर गुणस्थानवाळो होय छे. अने सूक्ष्म खंडोने खपावतो सूक्ष्म संपराय होय छे. तेना अंतमा ज्ञानावरणीनी दर्शनावरणीनी अतरायनी तथा यशकीर्ति उच्च गोत्र मळी | सोळ प्रकृतिनो बंध व्यवच्छेद करे छे. पछी क्षीण मोही बनीने अंतर्मुहर्त रहीने तेना अन्तमा छेल्ला समयना पहेलामां वे निद्राने ॐॐॐ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ८१४ ॥ सूत्रम् खपावे छे.अन्त समयमां ज्ञान आवरण अने अंतराय पंचक तथा दर्शन आवरण चतुष्क खपावीने आवरण रहित ज्ञान दर्शनवाळो केवळी (सर्वज्ञ) बने छे. अने ते फक्त एकर्ज सातावेदनीय कर्मने सयोगी गुणस्थान सुधी बांधे छे. आ गुणस्थाने जघन्यथी केवळी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पूर्व कोडीमां थोडं ओछु आयु सुधी होय छे. त्यार पछी आ केवळी भगवानने मालम पढे के अंतर्मुहूर्त आयु बाकी छे. अने वेदनीय कर्म घणुं वधारे छे तो वन्नेनी स्थिति सरखी करवा केवळी समुद्घात अनुक्रमे करे छे. केवळी समुद्घातनुं वर्णन. ॥ ८१४॥ औदारिक कायना योगवाळो आ लोकना अंत सुधी उंचे नीचे पहोंचे त्यां सुधी शरीरना परीणाह (अवगाहनाना ) प्रमाणनो प्रथम समयमा दंड आकार बनावे छे. बीजा समयमां तीछ दिशामां लोकांत पुरवा माटे कपाट ( कमाड) माफक औदारिक कार्मण शरीरना योगमां रहीने बनावे छे. त्रीजा समयमां खुणाओ पुरवा माटे कार्मण शरीर योगमां रहीने मन्थान (मथणी) माफक बनावे छे. अने ते सम श्रेणि पछी श्रेणि लेवाथी लोकनो घणो भाग प्राये पुराय छे. अने चोथा समयमां कार्मण योगवडेज मंथानना वचमां रहेला आंतरा पुरवा माटे निष्कुटवडे पुरे छे तेज प्रमाणे उलटा क्रमे वीजा चार समयमां ते व्यापारने संकेलता ते ते योगवाळो थाय छे. फक्त 'छट्टा' समयमां मंथाननो उपसंहार करतां औदारिक मिश्रयोगी थाय छे. ते प्रमाणे केवळी भगवान समुदूधातने संहरीने पछी फलक विगेरे पोते जे गृहस्थ पासे लीधुं होय ते पाछु सोपीने योगनो निरोध करे छे. योग निरोध वर्णन: प्रथम बादर मन योगने रोके छे. पछी वचन योगने अने काय योग जे बादर होय तेने रोके छे पछी एज क्रमे सूक्ष्म मनो Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ८१५॥ योग रोके छे. पछी सूक्ष्मं वचनयोग रोके छे. त्यार पछी सुक्ष्म काय योगने रोकतो अप्रतिपाति नामना शुक्लध्याननात्रीजा | भेदने आरोहे छे अने सूक्ष्म क्रियाने रोकतो विशेषे करीने क्रिया रोकीने अनिवृत्ति नामना शुक्लध्यानना चोथा पायाने आरोहे छे. अने तेमां आरुढ थयेलो अयोगी केवळी भावने पामेलो अन्तर्मुहूर्त जघन्य उत्कृष्टथी रहे छे. तेमां जे जे कर्मनो उदय आवेल नथी ते ते कर्मोने स्थितिना क्षयवडे खपावतो अने वेदाति प्रकृतिने बीजी प्रकृतिमां संक्रमावतो खपावतो छेवटना पहेला समयमां आवे छे. ते वखते देवगति साथेनी कर्म प्रकृतिओ खपावे छे. देवगति अनुपूर्वी वैक्रिय आहारक शरीर वन्नेनां अंगोपांग अने वन्धन अने सङ्घात तथा बीजी प्रकृतिभ खपावे छे औदारिक तेजस कार्मण ए ऋण शरीर तेनां वन्धन अने सङ्घातन छ सस्थान छ सङ्घयण औदारिक शरीरना अंगोपांग वर्ण गंध रस फरस मनुष्य अनुपूत्रों अगुरु लघु उपघात पराघात उच्छवास प्रशस्त अमशस्त विहायोगति तथा अपर्याप्त प्रत्येक स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ सुभग दुर्भग सुस्वर दुःखर अनादेय, अयशकीर्ति निर्माण नीचगोत्र कोइ पण एक वेदनीय कर्म खपावे छे. अने छल्ला समयमां तो १ मनुष्य गति २ पचेन्द्रिय जाति ३ त्रस ४ बादर ५ पर्याप्त ६ सुभग ७ आदेय ८ मशः कीर्ति ९ तिर्थंकर नाम १० कोइ एक वेदनीय कर्म ११ आयु १२ उच गोत्र ए बार प्रकृतिओ तीर्थङ्कर खपावे छे, अने कोइ आचाने मते अनुपूर्वी सहित तेर प्रकृतिओ खपावे छे, अने तीर्थङ्कर न होय, ते प्रथम बतावेली बार अथवा अग्यार खपावे छे, संपूर्ण कर्म क्षय कर्या पछी तुरतज अस्पर्श गतिए एकांतिक अत्यंतिक अनावाध लक्षणवाळा मुखने अनुभवतो सिद्ध स्थान जे लोकना अग्र भागे छे, त्यां पहोंचे छे. 2156 सूत्रम् ||८१५॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ८१६॥ हवे उपसंहार करता तीर्थङ्करना आ सेवनथी बीजा जीवोने परोचनता थाय, ते बताववा कहे छे. आचा० एवं तु सभणुचिन्नं, वीरररेणं महाणु भावेणं । जे अणुचरित्तु धारा, सीवमचल जन्ति निव्वाण ॥२८४॥ ॥८१६॥ आ प्रमाणे कहेली विधिए ज्ञानादि भाव उपधान अथवा तपने वीरवर्द्धमान खामिए खयं आदर्यो छे, तो वीजा पण मोक्षाभिलाषीए आदरवो. (गाथार्थ) ब्रह्मचर्य अध्ययननी नियुक्ति समाप्त थइ. हवे सूत्रानुगममां सूत्र उच्चार, ते कहे छे-- अहासुयं वइस्सामि, जहा से समणे भगवं उठाए ॥ संखाए तसि हेमंते, अहुणो पवइए रीइत्था ॥१॥ आर्य सुधर्मास्वामीने पूछवाथी जंबूस्वामीने पोते कहे छे, यथाश्रुत अथवा यथा सूत्र हुँ कहीश, ते आ प्रमाणे ते श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उद्यत विहार स्वीकारीने सर्व अलंकार (भूपण) त्यागीने पांच मुठी लोच करीने इंद्रे आपेला एक देवदृष्य वस्त्र धारण करी सामायिकनी प्रतिज्ञा उच्चरीने मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थएला आठ प्रकारना कर्म क्षय करवा माटे 8 अने तीर्थ प्रवविवा माटे उद्यत विहारवाळा बनीने तखने जाणीने ते हेमंत रुतुमां मागशर (गुजराती कारतक) मासमां वद १०ना सरोज प्राचीनगामिनी छाया (आथमतो सूर्य) थतां दीक्षा लइने विहार को. अने कुंड ग्रामथी वे घडी दीवस वाकी रहे कर्मार गामे आव्या अने त्यां भगवान आव्या पछी अनेक प्रकारना अभिग्रह धारण करीने घोर परीसह सहन करता महासखपणे मलेच्छोने पण शांति पमाडता बार वर्षथी कांइक अधिक छद्मस्थपणे मौनव्रत लइ तप आदर्यो अहीयां भगवाने सामायक उपयु, त्यारपछी इद्रे Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ||८१७॥ 8 भगवान उपर देव दृष्य वस्त्र खभे मुक्यु तेथी भगवाने पण निःसंग अभिप्रायवडेज धर्मोपकरण विना बीजा मुमुक्षुओथी पण धर्म आचा० दथवो अशक्य छे. ए कारणनी अपेक्षाए मध्यस्थ वृत्तिए तेज प्रमाणे धारण कयु, पण तेना उपभोगनी इच्छा नथी, एम जाणवं ते बताववा कहे छे. ॥८१७॥ णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरुसियाणं तत्थ हिसिंसु ॥३॥ 18 संवच्छरं साहियं मासं जं न रिकासि वत्थगं भगवं । अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे ॥४॥ भगवान विचारे छे के इंद्रे आपेला आ वस्त्रवडे आ मारा शरीर आत्माने ढांकीश नहीं. अथवा हेमंत (शीयाळा) नी ऋतुमा ते वस्त्रवडे शरीरन रक्षण करीश नहीं अथवा लज्जा माटे वस्त्र धारण नहीं करूं. ते भगवान केवा छे ? ते बतावे छे.." ते भगवान प्रतिज्ञाने पुरी करे छे. अथवा परीपहो अथवा संसारथी पार जाय छे. -केटलो काळ ? ते कहे छे. आखी जींदगी सुधी. प्र०-शा माटे आम राखे छे ? उ-ते वस्त्र धारण करवाथी एम वताव्यु के पूर्वना तीर्थङ्करोए ते प्रमाणे वस्त्र धारण कयु छे. (खु अवधारणना अर्थमां छे. अने ते भिन्न क्रम बतावे छे) वीजा तीर्थङ्करोतुं वख धारण कर आगम पाठथी बतावे छे. " से बेमि जे य अया जे य पडुप्पन्ना जेय आगमेस्सा अरहता भगवन्तो जे य पन्धयन्ति जे अ पब्बइ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् स्सन्ति सम्वे ते सोवही धम्मो देसिअन्योतिकटु तित्थधम्मयाए एसाऽणुधम्मिगत्ति एंगं देवसमायाए आचा० पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइस्सन्ति व " ति, ते हुँ कहुं छु, पूर्वे जे अनन्ता तीर्थङ्करो थया जेओ हाल उत्पन्न याय छे. अने भविष्यमा थशे. जेमणे दीक्षा लीधी छे अने भविष्यमा लेशे. तेओ वधाए उपधिवाळो धर्म शिष्यो माटे बताववो एम विचारी पोते आ धर्मनो मारग छे एम जाणीने एक देव ઝિu૮૨૮ दृष्य इन्द्र पासे दीक्षामां लीधु छे. वर्तमानमाले छे अने भविष्यमा लेशे. वळी का छे के गरियस्त्वात्सचेलस्य, धर्मास्यान्यैस्तथागतैः । शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लज्जया ॥१॥ वस्त्र सहित साधुना धर्मनु विशेषपणु होवाथी बीजा तीर्थङ्करोए पण शिष्यना विश्वास माटे वस्त्र धारण कयु छे. पण लज्जाने माटे धारण कयु नथी. तथा भगवाने दीक्षा लीधा पछी जे देवता संबंधी सुगंध पट लागेल इतो (देवताए सुगंधीतुं विलेपन कयु | है हत) तेथी तेनी सुगंधीथी खेचाइ आवेला भमरा विरोरे भगवानना शरीरने दुःख आपता हता ते बतावे छे. चार महीनाथी पण वधारे घणा प्राणीओ भमरा विगेरे शरीरमां डंख मारता हता अने मांस लोहीना अर्थी बनीने करडीने आम तेम दुःख देता हता ( ते / 18| प्रभुए समभावे सद्यु.) ०-भगवान पासे क्यां मुधी ते देव दृष्य वस्त्र रघु. उ-ते इंद्रे आपेलुं वस्त्र एक वरसथी कांइक अधिक मास सुधी रा त्यां सुधी भगवान कल्पमा रह्याछे. माटे त्याग्यं नहीं. त्यार पछी वस्त्रने त्यागनारा यया अर्थात् भगवान वस्त्र त्यागीने अचेल थया, अने ते सुवर्ण वालुका नदीना पूरमां आवेला कांटामां भरायलं ब्राह्मणे लीधुं, वळी 55*552825ॐॐॐ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * ** * * * * % % अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति चक्खुमासज अन्तो सो झायइ । अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता आचा० बहवे कंदिसु ॥ ५॥ तयणेहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेइ य, 1 सूत्रम् ॥१९॥ से संयं पवेसिया झाइ ॥६॥ जे के इमे अगारत्था मीसीभा पहाय से झाई । पुट्ठोवि नाभिभा- ॥१९॥ सिंसु गच्छई नाइवत्तइ अंजू ॥ ७ ॥ णो सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुवे । तत्थ दण्डेहिं लूसियपुवे अप्पपुण्णेहिं ॥ ८॥ - पछी पुरुष प्रमाण पोरसी आत्म प्रमाण वीथी (मारग) जग्या शोधता विहार करे छे. अर्थात साधुने चालतां तेज,ध्यान छे के पोतानी उचाइ जेटली जग्या शोधीने चालवू. । प्र-केवी वीथी छे ? उ०-तीयंग भिति गाडानी धुंसरी प्रमाण मोढा आगळ सांकडी अने आगळ जतां पहोळी होय छे है ते प्रमाणे भगवान जुए छे. प्र०-केवी रीते जुए छे ? उ०-आंखे वरोवर ध्यान राखीने तेमां जुए छे. तेवी रीते चालनारने जोइने कोइ वखत कोइ वाळक कुमार विगेरे पीडा करे ते वतावे छे. (अहीं चक्षु शब्ददर्शननो पर्याय छे.) एटले तेमना दर्शनथीज डरेला एकठा थयेला घणां वाळक विगेरे धूळनी मुठी विगेरेथी हणी हणीने चाळा पाडवा लाग्या. अने वीजा बाळकोने बोलावीने का-जुओ! आ नागो मुंडीओ छे. तथा आ कोण छे ? 18 क्याथी आव्यो छे ? अने आ कोना संबन्धी छे ? आवी रीते कोलाहल को. (५) वळी जेनामां सुवाय ते शयन-ते रहेवार्नु स्थान - Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८२० ॥ छे. तेमां कोइ निमित्तथी भेगा मळेला गृहस्थ अथवा वीजा दर्शनवाळाओथी भेगो थतां तेंमने एकला जोइने कोइ वखत स्त्रीओ प्रार्थना करे छे. तेथी तेओ शुभ मार्गमां भुंगळ समान ज्ञ परिज्ञावडे तेमने जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्यागता मैथुनने सेवा नथी, अने ज्यारे पोते एकला पण शून्य घरमां होय त्यारे भाव मैथुन पण सेवता नथी. आ प्रमाणे ते भगवान पोताना आत्मावडे वैराग्य मार्गे आत्माने दोरीने धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान ध्याय छे. (६) तेज प्रमाणे केला घरमा रहेनार अगारस्थ जे गृहस्थो छे. तेओ साथे कारण पडतां एकमेक थतां पण द्रव्यथी अने भावथी मिश्र भाव छोडीने ते भगवान धर्मध्यान ध्याय छे. (तेमनी साथे कोइ पण जातनी वातचीत करता नथी. ) प्र० -- शा माटे भगवान बोलाव्याथी अथवा न बोलाव्याथी बोलता नथी. उ०- पोताना कार्य माटेज जाय छे. तेटला माटे तेओ बोलावे तो पण भगवान मोक्ष पंथने अथवा पोताना ध्यानने छोडता नथी. कारण के पोते संयम अनुष्ठानमां वर्त्तता होवाथी ऋजु (सरळ) छे आ संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे. व सो अपुट्टो व, णो अणुन्नाइ पावगं भगवं । कोइ ग्रहस्थ पूछे, अथवा न पण पूछे, तो पण भगवान पोते पापनी संमति आपता नथी प्र० - हवे कहेंवाती वात वीजाओने सुकर नथी ( पण दुष्कर छे ) तेथी अन्य प्राकृत पुरुषोथी पळाय तेम नथी, छतां पण भगवाने शा माटे ते आचर्युं ? ते बतावे छे बोलावनारा बोलावे तो पण प्रसन्न थइने बोलता नथी, अने जे नथी बोलावंता, तेमना उपर कोपता नथी, तेमज प्रतिकूल उपसर्ग करवाथी पण भगवान तेना उपर विरूप भाव करता नथी ते बतावे छे, भगवान ज्यारे सूत्रम् ॥८२०॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 अनार्य (जंगली) देश विगेरेमा विचर्या त्यारे भगवानने ते अनार्य पापीओए प्रथम दंडावडे मार्या, तेज प्रमाणे केश विगेरे खेंची 8 आंचा तोडीने दाखी कर्या वळीMean फरुसाइं दुत्तितिक्खाइ अइअञ्च मुणी परक्कममाणे । आधायनदृगीयाई दण्डजुद्धाई मुट्ठिजुद्धाई ॥९॥ परुष (कर्कश) वचनोथी बीजा पापीओ दुःख देतां, तेवा कठोर तिरस्कारने भगवाने न गणतां जगतना स्वभावने जाणता | भगवान चारित्रमा पराक्रम बतावी सहन करता तथा (कोइनां प्रेमभावना) गायेलां गीतो अने करेला नाचोथी पोते कौतक मानता नहोता. तथा दंड युद्ध तथा मुक्काबाजीनी कुस्ती यवानी सांभळी आश्चर्य मानीने खीलेला नेत्रवाळा तथा रोमराजी विकखरवाळा उत्सुक थता नहोता. गढिए मिहुकहासुसमयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु। एयाइसे उरालाइं गच्छइ नायपुत्ते असरणयाए ॥१०॥ अवि साहिए दुवे वासे सीओदं अभुच्चा निक्खन्ते। एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ॥११॥ ए प्रमाणे कोइ मांहोमाहे कथा करता होय. अथवा कोइ पोताना सिद्धांतमा कदाग्रही होय. अथवा चे स्त्रीओ पोतानी है कथामां रक्त होय. ते समये भगवान महावीर हर्ष शोक छोडीने ते बधानी कथामां मध्यस्थ रहीने जोता हता. अने ए तथा बीजा है अनुकूल प्रतिकूल परिपह उपसर्ग थतां उदार ( अतिशय) न सहन थाय तेवा दुःखो आवे तो पण पोते न गणतां संयमअनुष्ठानमा रहेला छे. तथा ज्ञात नामना जे क्षत्रीओ तेमना वंशमा जे जन्मेला छे ते ज्ञात पुत्र महावीर आ दुःखने स्मरणमा लावता RS545551 ८ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥२२॥ नथी. (पण चारित्र निर्मळ पाळे छे.) अथवा शरण ते घर छे. ते नथी माटे अशरण छे. अने ते संयम छे ते माटे पोते यत्न करे छे. ते बतावे छे. एमां आश्रय सूत्र शुं छे के भगवान अतिशय वळ पराक्रमवाळा महाव्रत पाळवानी प्रतिज्ञारूप मेरु पर्वते चढेला पराक्रम करे छे ? ते भगवान महावीरे ज्यारे दीक्षा नहोती लीधी त्यारे पण निर्दोष प्रासुक आहारथी निर्वाह करता हता ते संबंधी कथा कहे छे. ज्यारे भगरान 9/1८२२॥ महावीरना माता पिता देवलोकमां गयां त्यारे भगवान महावीरे मातानां गर्भमां जरा न हालवाथी माने अतिशय दुःख थयु हतुं अने ज्यारे पोते हाल्या त्यारेज माताने धीरज थइ हती, तेथी ते समये अवधिज्ञाने मातानो अभिप्राय जाणानार महावीरमभुए 8 अभिग्रह को हतो के मारा वियोगथी माता पिता कमोते न मरो, ते हेतुने ध्यानमा राखी 'मारे माता पिता जीवतां सुधी दीक्षा न लेवी.' अने ते प्रमाणे अठावीस वरसनी पोतानी उमर थतां माता पिता देवलोकमां गयां. त्यारे अभिग्रहनी प्रतिज्ञा पुरी थइ एम जाणीने दीक्षा लेवानी तैयारी करी ते समये नंदीवर्धन नामना मोटाभाइ तथा ज्ञाति बंधुओए प्रभुने प्रार्थना करी के हे प्रभु ! 'घा उपर खार छांटवा जेवु' माता पिताना वियोगना दुःखमां तमारो वियोग न करो. भगवान महावीरे आ सांभळीने अवधिज्ञाने जाण्यु के मारा आ दीक्षाना समयमा घणा मनुष्यो बेला थशे, अने मरी जशे, एवं विचारीने तेओने कयु के मारे केटलो काळ रोकावं पडशे ? तेओए कयु के अमने बे वरसमां शोक दूर थशे..प्रभुए कयु के ठीक छे, पण आहार विगेरे ले, ते मारी इच्छाए यशे पण ते इच्छा तोडवा तमारे न आवq. तेओए विचार्यु के कोइ पण रीते भगवान रहो एम मानीने तेमणे हा पाडी, त्यारपछी भगवान ते वचनने अनुसारे निर्दोष आहार लइने गृहस्थपणामां पण साधु वृत्तिए हता, पछी पोतानी दीक्षानो अवसर जाणीने Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२३॥ संसारनी असारता विशेष प्रकारे जाणीने तीर्थप्रवर्तन माटे उद्यम करे छे. ते वतावेछे. (१०) भगवान महावीर बे वरसयी काइक 18 आचा अधिक काळ सुधी काचुं पाणी त्यागीने पग धोवा विगेरे क्रिया पण प्रामुक जळवडेज करता जेवी रीते पहेलु व्रत जीवदयार्नु पाळ्यु | तेज प्रमाणे वीजां व्रतो पण पाळ्यां. तेज प्रयाणे एकल भावनावडे भावित अंतःकरणवाळा बनीने अर्चारुप क्रोध ज्वाळाने जेणे । ॥२३॥ अटकावी छे. अथवा पिहित अर्ध्व एटले शरीरने गुप्त राख्युं छे. (के कोइ पण जीवने पोतानी कायाथी पीडा थवा देता नथी.) व ते भगवान महावीर दीक्षा लीधा पछी छमस्थ काळमां सम्यक्त्वभावनावडे भावित हता, (तेमने धर्म उपर निर्मळ श्रद्धा हती) है तथा इंद्रियो अने मनवडे पोते शांत हता. (उन्मार्गे जवा देता नहोता) एवा भगवान गृहवासमां पण छेवटना बे वरसमा सावध आरंभना त्यागी हता तो पछी दीक्षा लीधा पछी चारित्रकाळमां शा माटे निःस्पृह न होय ? ते वतावे छे. पुढवि च आउकायं च तेउकायं च वाउकायं च । पणगाइं बीयहरियाई तसकायं च सवसो नच्चा ॥१२॥ एयाई सन्ति पडिलेहे, चित्तमन्ताइसे अभिन्नाय । परिवज्जिय विहरित्था इय सङ्खाय से महावीरे ॥१३॥ अदु थावरा य तसत्ताए तसा य थावरत्ताए । अदुवा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणाकप्पिया पुढो बाला ॥१४॥ आ भगवान् महावीर पृथ्वीकाय अप्काय वायुकाय विगेरे जीवोने सचित्त जाणीने तेनो आरंभ त्यागीने पोते विचरे छे. ते वतावे छे. पृथ्वीकाय सूक्ष्म अने वादर बे भेदे छे. ते सूक्ष्म सर्वत्र छे. अने बादर पण कोमळ अने कठण एम बे भेदे छे. तेमां 18| कोमळ माटी धोळा विगेरे पांच रंगनी छे. पण कठण पृथ्वी तो पृथ्वी शर्करा वालुका विगेरेथी छत्रीस भेदवाळी छे, ते प्रथम शस्त्र CAUSESSPEECRUSSROSROSREOSASUSA Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८२४॥ परिज्ञा नामना पहेला भागमां ( ) पाने छे. त्यांची समजवं. अपकाय पण सूक्ष्म चादर चे भेदे छे. तेमां सूक्ष्म सर्वत्र छे. पण बादर अग्नि अङ्गारा विगेरे पांच भेदे छे. सूत्रम् वायुनुं पण तेमज छे. फक्त वादर वायु काय उत्कालिक विगेरे पांच भेदे छे. वनस्पति पण सूक्ष्म वादर बे भेदे छे. सूक्ष्म | सर्वत्र छे. अने वादर अग्र मूळ स्कंध पर्व वीज संमूर्छन एम सामान्यथी छ भेदे छे.. 11८२४॥ वळी ते दरेक प्रत्येक अने साधारण एम वे भेदे छे. प्रत्येक वृक्ष गुच्छा वगेरे वार भेदे छे. अने साधारण तो अनेक प्रकारे छे. ते अनेक भेदवाळो छतां वनस्पतिकाय सूक्ष्म सर्वगत होवाथी अने अतींद्रिय होवाथी तेने छोडीने फक्त भेदोमां वादरकाय लीधो छे ते बतावे छे. पनक लेवाथी वीज अंकुर भाव रहित पनक विगेरे उल विगेरे अनंत काय लेवा अने बीजना ग्रहणथी अग्र 8 बीज विगेरे लेवां हरित शब्दथी वीजा भेद लेवा (१२) आ प्रमाणे पृथ्वी विगेरे भूतो छे. एम जाणीने तथा ते चेतनावाला छे एम जाणीने भगवान महावीर तेमनो आरंभ छोडीने विचर्या पृथ्वीकाय विगेरे जंतुना त्रस स्थावरपणे भेदो बतावीने हवे एमनामां परस्पर अनुगम पण छे, ते बतावे छे. (१३) स्थावर ते पृथ्वी पाणी अग्नि वायु बनस्पति छे. ते त्रसपणे एटले बेइंद्रिय विगेरे कर्म वशथी जाय छे. अने त्रस जीवो कृमि विगेरे पृथ्वी विगेरेमा कर्मने लीधे जाय छे. ते प्रमाणे वीजे पण का छे. " अयण्णं भन्ते ! जीवे पूढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुवे ?, हंता गोअमा ! असई अदुवा ऽणंतखुत्तो जाव उववण्ण पुन्वे" त्ति गौतमनो प्र०-हे भगवान ! आ जीव पृथ्वी काय पणेथी लइ त्रसकायपणे पूर्व उत्पन्न थयेल छे ? Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥८२५॥ IP२५॥ etc.CSC ___उ०-हा, अनेक वार अनंतवार पूर्व उत्पन्न थयेल छे, अथवा बधी योनिओ जे जीवोनां प्रति स्थान छे, ते सर्व योनिक जीव छे, अने जीवो वधी गतिमां जनारा छे, ते जीयो ( मंद बुद्धिथी) बाल छे, अने राग द्वेषयी व्याप्त थइ चीकणां कर्म बांधी पोताना करेला कर्मनां फळ जुदी जुदी रीते सर्व योनियोमा भोगववावडे कल्पित (व्यवस्था करायला) छे. कयुं छे के:___णत्थि किर सो पएसो, लोए वालग्गकोडिभित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता ॥१॥ आलोकमां वाळना अग्रभाग जेटलो प्रदेश मात्र पण एवो नथी,के ज्यां आ जीवे जन्म मरणनी बाधा अनेक वार प्राप्त करी नथी! वळी 8 रंगभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते । विचित्रः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सवैन नाटितं ॥२॥ तेवी शुद्ध रंगभूमि जगत्मा कोइ विद्यमान नथी,के ज्यां कर्मने पथ्य (शणगार) पहेरीने सर्व सखो नाच्या नथी! विगेरे छे.(१४) वळीभगवं च एवमन्नेसिं सोवहिए हु लुप्पई बाले; कम्मं च सवसो नचा, तं पडियाइक्खे पावगे भगवं ॥१५॥ दुविहं समिञ्च महावि किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी; आयाणसोयमइवायसोयं, जोगं च सवसो णच्चा ॥१६॥ भगवान महावीरे तेमज बीजी रीते जाण्यु के उपधि सहित ते द्रव्यथी तथा भावथी उपधि सहित जे वर्ते ते कर्मथी लेपाय, पछी ते बाळ अज्ञ साधु दुःखोने अनुभवे छे अथवा (हुनो हेतुमां अर्थ लइए तो) सोपधिक बाळ साधु कर्मथी लेपाय छे, तेथी बधी रीते कर्म बंधातुं जाणीने उपधिनुं कर्म त्यागी दीधुं. एटले अंदरथी अने बहारथी जे उपधिरूप पापकर्मर्नुअनुष्ठान हतुं ते भगवाने त्यागी दीg. ( जरुर होय त्यां मुधी शक्तिना अभावमा उपधि साधुए राखवी, अने पाछळथी शक्तिमान थतां त्यागी देवानो मार्ग Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 14/1८२६॥ भगवाने वतान्यो) (१५) वळी वे प्रकारवाळा ते द्विविध कर्म छे, इर्या प्रत्यय, अने सांपसयिक छे, ते वन्नेने पण सर्वज्ञ प्रभुए 8 जाणीने संयम अनुष्ठानरूप जे कर्म छेदवाने माटे अन्यत्र नथी, तेवी अनन्य सदृशी क्रिया बतावी. सूत्रम् । '०-भगवान केवा इता ? उ०-ज्ञानी, (केवळज्ञान प्राप्त थया पछी तेमणे आ क्रिया बतावी.) । ॥८२६॥ प्र०-वळी तेमणे बीजं शुं कां ? उ०-जेनावडे नवां कर्म लेवाय ते आंदान खोटुं ध्यान छे; तथा इंद्रियोना विकार संबंधी ते । स्रोत छे. माटे जे आदान स्रोत छे, तेने जाणीने तथा जीव हिंसारूप तथा तेना लक्षणथी मृषावाद विगेरे पापोने तथा मन वचन कायाना व्यापारवाळु दुर्ध्यान छे ते वधे प्रकारे कर्म बंधने माटे छे एम जाणीने तेमणे संयम लक्षणवाळी निर्दोष क्रिया बतावी. बळी1 अईवत्तियं अणाउसियमन्नेसिं अकरणयाए; जस्सिस्थिओ परिन्नाया, सबकम्मावहा उ स अदक्खु ॥१७॥ आकुट्टी (हिंसा) ने त्यागवाथी अहिंसा छे, ते पापथी अति क्रांत होवाथी निर्दोष छे, ते महावीर प्रभुए पोतेज प्रथम अहिंसा || स्वीकारीने वीजाओने पण हिंसानी प्रवृत्तिथी दर राख्या, तथा जेमने खीओ स्वरूपथी तथा विपाकथी कडवां फळ आपनारी छे,181 एवं ज्ञान छे, ते परिज्ञात भगवान छे, तथा तेज स्त्रीओ सर्व कर्म समूहो एटले सर्व पापोना उपादान भूत छे. ते पण एमणे जोयुत छे, तेथीज तेओ संसारनुं रूप जाणनारा थया तेनो भावार्थ ए छे केः-स्त्रीना स्वभावना आवा परिज्ञानथी तथा ते जाणीने | त्यागवाथीज भगवान परमार्थदर्शी थया छे मूळ गुणो वतावीने हवे उत्तर गुण प्रकट करवा कहे छे:3 अहाकडं न से सेवे सवसो कम्म अदक्खू; यं किंचि पावगं भगवं, तं अकुवं वियड भुंजित्था ॥१८॥8 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० कोइ गृहस्थे साधुने पूछीने अथवा विना पूछे (छान) आधा कर्मादि भोजन विगेरे कयु होय तो पोते ते लेता नथी. प्र०-शा माटे ? उ०-तेमणे जोयु के, ते लेवाथी बधी रीते आठे प्रकारना कर्मनो बंध थाय छे, तेवू दोषित बीजु पण सूत्रम् . ॥८२७॥] सेवता नथी, ते कहे छे, जे कंइ पापवाल्लं एटले जेनावडे भविष्यमा पापर्नु कारण थाय तेवु भगवाने न लीधुं, पण विकट (प्रामुक 8/11८२७॥ 18| निर्दोष) भोजन विगेरे लीधुं. (१८) वळी णो सेवइ य परवत्थं, परपाएवी से न भुञ्जित्था; परिवजि याण उमाणं, गच्छइ संखडिं असरणयाए ॥१९॥ | मायपणे असणपाणस्स, नाणुगिळे रसेसु अपडिन्ने; अच्छिपि नो पमजिज्जा, नोवि य कंट्टयए मुणी गाय । पोते प्रधान (पर) वस्त्र भोगवता नथी. तेम किंमती पात्रमा खाता नथी, तथा पोते अपमान छोडीने आहारने माटे (ज्यां । आहार रंधाय तेवी रसोडानी जग्या) संखंडीमा कोइर्नु पण शरण (आलंबन ) लीधा विना अदीन मनवाळा 'आ मारो कल्प' छे | 2 18/ एम जाणीने परीषहो 'जीतवा' माटे जाय छे. (१९) आहारनी मात्रा (माप) जाणे छे, माटे मात्र प्रभु छे, प्र०-क्यो आहार ? उ०-खवाय ते भात विगेरेनुं भोजन, पीवाय, ते पाणी, द्राखनुं धोवण विगेरे-तेमां पोते लोलूपी नथी, तेम रस [छवीगइ मां गृहस्थपणामां पण लोलूपी नहोता, तो पछी दीक्षा लीधा पछीजें तो शु कहेवु रस लेवाथी एम सूचव्यु, के पोते तेवा पदार्थमां अभिग्रह न धारे के आजे सिंह केसरीया लाडुज खावा! पण आवी प्रतिज्ञा राखे के आजे कुल्मास अडदना बाकळा विगेरे खावा; तथा आंखमां रज पडी होय, तो ते दूर करवा F%%%%%%%%ARA 2ॐॐॐॐॐ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे पण आंख मसळे नहीं ! तथा खणज आवे तो लाकडाना छांडा विगेरेथी पण खणे नहीं, (२०) वळीआचा० है अप्पं तिरियं पेहाए. अपि पिट्टओ पेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेहि चरे जयमाणे ॥२१॥ सूत्र ॥८२८॥ सिसिसि अद्धपडिवन्ने, तं वोसिज्ज वत्थमणगारे । पसारित्तु बाहुं परक्कमे, नो अवलंबियाण कंधमि ॥२२॥ ॥२८॥ एस विहि अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रियन्ति ॥२३॥ १ तिबेमि ॥ उपधानश्रुताध्ययनोदेशः ॥ १ ॥ ९ ॥ १ ॥ म (अल्प शब्द अभावना अर्थमां छे.) भगवान महावीर विहारमा तीरछी दिशामा जोता नथी तेम बने बाजुए जोता नथी.12 ॐ तेम मार्गमां चालतां कोई पूछे तो पण बोलता नथी. मौनज चाले छे. ते बतावे छे के पोते रस्तामां चालतां पग नीचे जीवोने पीडा न थाय तेज यतना राखता हता. (२१) वळी शियाळामां मार्गमां खरी ठंडमां पण देवष्य वस्त्र छोड्या पछी ये बाहु लांबी १ करीने चाले छे. पण ठंडथी पीडातां हाथने वांका वाळी संकोचता नथी. तेम पोताना खभा उपर पण हाथ राखीने उभा रहेता नयी.हवे समाप्त करवा कहे छे. (२२) आ विहारनो विधि वताव्यो ते भगवान महावीरस्वामी जेओ तखना जाणनारा छे. 2 अने कोइ जातवें नियाकयु नथी, तथा ऐश्वर्य विगेरे गुणोथी युक्त छे, तेमणे पोते आचर्यो छे. एज प्रमाणे बीजा मोक्षाभिलाषी साधुओ संपूर्ण कर्म क्षय करवा माटे आचरे छे. आई सुधर्मास्वामि कहे छे:--- उपधानश्रुतअध्ययननो पहेलो उद्देशो पुरो थयो. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥८२९॥ ॥८२९॥ | पहेलो कहीने जोडाजोडज वीजा उद्देशानी सूत्र गाथानी व्याख्या टीकाकार कहे छे. तेमां प्रथम संबन्ध कहे छे. पहेला उद्देशामां भगवाननी चर्या वतावी. अने तेमां कोइपण शय्या (वसति) मां रहे, पडे, तेथी आ बीजा उद्देशामां तेनुं वर्णन आवशे. आ संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. बोजा उद्देशानी सूत्र गाथाओ चरियासणाई सिज्जाओ एगइयाओ जाओ बुइयाओ।आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेवित्था से महावीरे ॥ आवेसणसभापवासु पणियप्तालासु एगया वासो । अदुवा पलियठाणेसुपला लपुलेसु एगया वासो ॥२॥ आगन्तारे आरामागारे तहय नगरे व एगया वासो। सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले व एगया वासो ॥३॥ एएहिं मुणी सयणेहि समणे आसि पतेरसवासे । राई दिपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ ॥४॥ चरिया (चर्या) मां जे जे शय्या आसन विगेरे जरुरनां होय ते शय्या फलक (पाटीयु) विगेरे सुधर्मास्वामिए जंबूस्वामिना हा पूछवाथी भगवान महावीरे जे प्रमाणे उपयोगमा लीधेल छे. ते बतावेल छे. ( आ टीकाकार लखे छे के तेना पहेलांनी टीकामां *आ गाथानो अधिकार वर्णव्यो नथी, तेनुं कारण ते सुगम छे के सूत्रमा नथी ते सूचन पुस्तकमां जणातुं नथी तेथी अमे पण तेमनो अभिमाय समजता नथी.) (१) जंबूस्वामिना प्रश्ननो उत्तर आपेछे.भगवान महावीरने आहारना अभिग्रह माफक प्रतिमा सिवाय पाये शय्यानो अभिग्रह नथी. Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८३०॥ | फक्त ज्यां छेलो पहोर (चरम पोरसी) थाय त्यांज मालीकनी आज्ञा लइने रहे ते बतावे छे. सर्वथा ज्यां रहेवाय ते आवेश छे. आवेशन - शून्यगृह तथा 'सभा' ते गाम नगर विगेरेमां त्यांना लोकोने माटे तथा आवेला नवा माणसोने सुवा माटे भोंतोवाळं मकान बनावे छे (गुजरातमां जेने चोरो कहे छे) प्रपाणी पावानी जग्या, (जेने परव कहे छे) ते आवेशन, सभा प्रपा तेमां भगवाने वास कर्यो, तथा पण्यशाळा ( दुकान) तथा पलिय एटले लोहार, सुतारनी ओसरीमां तथा पलालना ढगलामां अथवा मांचो उपर लटकाव्यो होय तेना नीचे रहे, पण तेना उपर न बेसे कारण के मांचो पोकळ होय छे. (२) वली प्रसङ्गे आवेला अथवा आवीने त्यां बेसे ते मुसाफरखानु के धर्मशाळा ते गाममां होय अथवा गाम बहार होय तथा आराम ते घर आराम तथा आगारमां कोइ वखत वास करे, तथा मसाणमां अथवा शून्य घरमां वास करे, (आवेशन तथा शून्य घरनो भेद ए छे के पेलानी भींत मजबुत होय पण वीजामां तेम नहीं कोइ वखत झाडना मूळ नीचे वास कर्यो. (३) उपर बतावेल शयन ते वसतिमां ऋण जगतने जाणनारा ऋतुबद्ध काळमां अथवा चोमासामां भगवान तपस्यामां उद्युक्त वनीने अथवा ध्यान राखनारा वनीने वास कर्यो. म० - केटलो काळ ? ते कहे छे. प्रकर्षथी तेरमा वरस सुधी एटले वार वरसथी कंक अधिक मुदत सुधी आखी रात अने दिवस संयम अनुष्ठानमां उद्यमवाळा बनीने अप्रमत्त एटले निद्रा विगेरे प्रमाद रहित तथा विस्रोतसिकारहित धर्म ध्यान अथवा शुक्ल ध्यान ध्याय छे वळी दिपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए । जग्गावइ य अप्पाणं इसिं साई य अपनेि ॥५॥ *% *% *%*% *% *% वर सूत्रम् ||८३०॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ाचा० १८३१॥ संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए । निक्खम्म एगया राओबहि चंकमिया मुहुत्तागं ॥६॥ सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगा य जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरन्ति ॥७॥ | अदु कुचरा उवचरन्ति गाम रक्खा यसत्तिहत्था य । अदु गामिया उवसग्गा इत्थी इगइया पुरिसाय ॥८॥ भगवान पोते प्रमाद रहित बनीने निद्रा पण वधारे लेता नथी. अने तेज प्रमाणे वार वरसमां अस्थिक गाममां व्यन्तरना उपसर्ग पछी कायोत्सर्गमां रहीने अन्तर्मुहूर्त सुधी स्वप्न देखतां सुधी एकवार निद्रा करी हती त्यारपछी उठीने आत्माने कुशळ अनुष्ठानमां प्रवर्तावे छे अहीँया पण पोते प्रतिज्ञा रहित छे. एटले पोते मनमां इच्छीने स्रुता नथी. (५) वळ ते वीर प्रभु जाणे छे के आ प्रमाद संसार भ्रमण माटे छे. एम जाणीने संयम उत्थानवडे उठीने विचरे छे. जो अन्दर रहेतां निद्रा प्रमाद थाय तो त्यांथी नीकळीने शियाळानी रात विगेरेमां खुल्ली जग्यामां मुहूर्त मात्र निद्रा प्रमाद दूर करवा ध्यानमां उभा रह्या. (६) वळी ज्यां आगळ उत्कुटुक आसन विगेरेथी आश्रय लेवाय तेवा स्थानमां अथवा ते स्थानोवडे ते भगवानने भय करावनारा अनेक जातिना ठन्ड ताप विगेरेथी अथवा अनुकूल प्रतिकूलरूपे परिषह उपसर्गो थया तथा शून्य घर विगेरेमां अहिं नकुळ (साप नोळीया) विगेरे भगवाननुं मांस विगेरे खाता हता, अथवा मसाण विगेरेमां गीध विगेरे पक्षीओ मांस खाता हता, (तो पण भगवान रागद्वेष करता नहोता.) (७) वळी कुचर ते चोर परदार लंपट विगेरे कोइ शून्य घर विगेरेमां भगवानने दुःख देता हता तथा गाम रक्षा करनारा कोटवाळ सूत्रम् ||८३१॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८३२॥ विगेरे त्रिक चोतरा विगेरे उपर उभेला भगवानने जोइने पूछतां जवाब न आपवाथी हाथमां शक्ति कुंत (भाला) विगेरे राखनारा भगवानने पीडा करता हता. तथा इन्द्रियोथी उन्मत्त थयेल स्त्रीओ भगवान पासे एकांतमा भोगनी याचना सुंदर रुप जोइने करती सूत्रम् हती. अथवा शरीर सुगंधी जोइने अथवा पोतानुं तेवू सुंदर शरीर वनाववा इच्छता पुरुषो भगवान पासे उपाय पूछता हता. जवाब न मळवाथी भगवानने दुःख पण देता हता. 'Iક રૂરી इहलोइयाई परलोइयाइं भीमाइं अणेगरूवाई । अवि सुब्भि दुब्भिगन्धाइं सद्दाइं अणेंगरूवाइं ॥९॥ अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाइं । अरइं रई अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाई ॥१०॥ स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरावि एगया राओ। अवाहिए कसाइत्था पेहमाणे सचाहिं अपडिन्ने ॥११॥ अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खुआहह । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाइ ॥१२॥ आ लोकमां एटले मनुष्ये करेला दुःखना स्पर्शी तथा देवताए करेला दिव्य स्पर्शी तथा तिर्यचोए करेला उपसर्गोनां दुःखो तथा पर भवे करेलां पापोथी उदयमां आवेलां दुःखोने पोते समताथी सहे छे. अथवा आज जनममा जे दंडाना प्रहार विगेरे दुःख दे छे. तथा ते शिवायना परलोक संबंधी भीम (भयंकर) जुदा जुदा उपसर्गो आवे छे. ते बतावे छे. एटले सुगंधीवाळा ते फुलनी |माळा तथा चंदन विगेरे छे. अने कोहेलां मुडदां विगेरे दुर्गधवाळा छे तेज प्रमाणे वीणा वेणुं मृदंग विगेरेथी मधुर अवाज तथा कमेलक (उंट) नु बराडवू विगेरे कानमां कठोर अवाज लागे छे. ते बन्नेमां भगवान रागद्वेष करता नथी. [९] RECSCRECENG-0-06- 0 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ८३३॥ आचा तथा बधो काळ पांचे समितिओथी युक्त छे अने जे कइ दुःखना स्पर्शो आवे तो संयममां अरति लावता नथी तेम सुंदर | भौगोमां रति लावता नथी एम बन्ने परिषहमा समभाव धारीने संयम अनुष्ठानमा वर्ते छे. पोते कोइ पण जीवने दुःख न देवं, एवा ॥८३३।। माइण बनेला जरुर पडतां एक बे उत्तर आपता विचरें छे. (१०) ते भगवान महावीर साहा बार पक्ष वधारे एवा बार वरस (बार वरस अने साडा वार पखवाडीयां ) सुधी एकला विचरता है। शुन्यगृह विगेरेमा रहेता लोकोथी पूछाता के तमो कोण छो ? केम अहीं उभा छो अथवा क्याथी आव्या छो. ते समये पोते मौन रहेता, तथा दुराचारीओ विगेरे एकला भटकता त्यां आ-18 18/वीने कोइ वखत रातमां अथवा दिवसमां पूछता. पण भगवाने उत्तर न आपवाथी क्रोधमां आवी भगवानने मौन देखी तेओ अज्ञा नथी दृष्टि छवाइ जतां दंड मुक्की विगेरेथी मारीने पोतानुं अनार्यपणुं आचरता हता. पण भगवान तो समाधिमा रही धर्म ध्यानमा चित्त राखीने सारी रीते सहेता हता. प्र०-भगवान केवा हता? उ-पतिज्ञा रहित एटले तेनुं वेर ले, एवी इच्छा राखता नहोता. प्र०-ते आवेलाओ केवी रीते पूछता हता? उ०-अत्र कोण रहेलुं छे ? एम संकेत करीने दुराचारीओ अथवा काम करनाराओ पोताना साथीओनी राह जोइ भगवानने पूछ्ता हता. वळी हमेशां त्यां रहेला दुष्ट ध्यानवाळा पूछे छे. पण भगवान मौन & रहेला हता. पण कोइ वखतघणोज दोष थतो होय तो टाळवाने माटे थोडं बोलता पण हता. प्र०-केवी रीते ? उ०-हुँ भिक्षु छु, आम बोलतां जो तेश्रो संमति आपे तो त्यां रहेता, पण ते आवेला दुष्टोनी इच्छामां विघ्न यतुं होय, तो क्रोधायमान थइने मोहांध | वनी वर्तमान लाभ देखनारा तुच्छ बुद्धिथी कहे के अमारा मुकामथी हमणां निफळ, तो भगवान आ अप्रीतिनुं स्थान छे, एम SANTOSHOGANASA Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विचारि तुर्त नीकळी जता. अथवा भगवान पोते प्रथमथी त्यांना मुख्य धणीनी आज्ञा लीधेली होवाथी नीकळता नहोता, अने आ5 आचा० |मारुं ध्यान उत्तम धर्म छे. मारो आचार छे, एम विचारी ते आवनार गृहस्थनां कडवां वचन विगेरे सहन करी मौन रही जे थवानं होय ते थाय, एम मानी दुःख सहन करे, पण ध्यानथी चलायमान थता नहोता. वळी शें करता ते कहे छे. ॥८३४॥ | जंसिप्पेगे पवियन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते । तसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति ॥१३॥ संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा। पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा ॥१४॥5 /तंसिभगवं अपडिन्ने अहे विगडे अहीयासए । दविए निक्खम्म एगया राओठाइए भगवं समियाए ॥१५॥ 8/एस विहि अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिपणेण भगवया एवं रोयन्ति ॥१६॥8 त्तिबेमि ॥ नवमस्य द्वितीय उद्देशकः ९-२॥ शियाळाथी ऋतुमा केटलाक माणसो कपडांना अभावे दांत वीणा विगेरे युक्त कंपता हता. अथवा ठंडीना दुःखनो अनुभव करी आर्त ध्यानमां पडता हता. तेवा हिम पडवाना समयमां ठंडो वा वातां केटलाक साधु जेओ पासत्था जेवा हता, तेओमांना ४ केटलाक तेवी घणी ठंड पडतां दुःखी, थइने ठंडने दूर करवा माटे भडको करता अथवा अङ्गारानी सगडी शोधता तथा भावार Cl(कामळो) विगेरे याचता अथवा अनगार ते पार्श्वनाथ भगवानना तिर्थमा रहेला गच्छवासी साधुओज ठंडथी पीडाइने ज्यां वायरो न आवे, तेवी शाळा विगेरे बंध जग्या शोधता इता. (१३) SEOSESAUSOSASTUSEOSESSO Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा० वळी (सङ्घाटी शब्दवडे ठंड दूर करनारांचे अथवा त्रण वस्त्र जाणवां.) ते सहाटी शोधवा माटे ठंडथी पीटाएला विचारता, के अमे क्यांयथी मागी लावीए. अने अन्य धर्मीओ तो एवा समिध बाळवानां लाकडां शोधता इता. के जेने बाळीने ठंड दूर ॥८३५॥ करवा शक्तिवान थइशं. तथा सङ्घाटीवडे एटले कामळो विगेरे ओढीने रहेता.. ॥३५॥ प्र०-शा माटे एवं करे छे ? उ०-कारण के आ हिमनो ठंडो पवन दुःखे करीने सहन थाय छे. है आवी सखत ठंडी ऋतुमां कोइ अन्य तापस विगेरे तापणु तापी ठंड दूर करता, कोइ आ जैन साधु कामळो ओढी निभावता, तेवे समये भगवान शुं करता ? ते कहे छे:-आवी ककडती ठंडी अने ठंडा पवनमां बधा शरीरने पीडा थवा छतां भगवान् जेओ 18/ ऐश्वर्य आदि गुण युक्त छे, तेओ सम्भावे ठंडने (तापणुं के कपडा विना) महे छे. प्र०-भगवान केवा छे ? उ०-प्रतिज्ञा रहित छे. एटले तेओ ज्यां ठंडी न आवे तेवं बंध कबजावालु मकान रहेवा विगेरे माटे याचता नथी. प्र०-तेओ कइ जग्याए ठंड सहे छे ? उ-बाजुनी भीतो रहित तथा उपरनुं ढांकण होय के नहीं, तेवा स्थानमा रहेता, तथा फरी भगवानना गुण कहे छे, राग द्वेष दूर थवाथी शुद्ध आत्मा द्रव्यवाळा अथवा कर्मग्रंथि दूर थवाथी द्रव्य संयम छे. ते द्रववाळा द्रविक (संयमी) छे, तेम मकानमा | | ठंडी सहेतां कदाच घणी सखत ठंडी पीडे, तो ते ढांकेला मकानथी बहार नीकळी कोइ वार रात्रीमां बे घडी सुधी त्यां रही ठंढी सहन करी पाछा तेज मकानमां आवीने समताथी खच्चरना दृष्टांतथी सहेवाने शक्तिवान थतां. बीजो उद्देशो समाप्त थयो. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८३६॥ जो उद्देशो कहे छे. जो उद्देशो कहीने हवे त्रीजो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां भगवाननी शय्या ( वसति) नुं वर्णन कर्यु. अने ते स्थानोमा जे उपसर्गो अने परीपहो सहन कर्या, ते बताववा आ उद्देशो कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानी आ सूत्र गाथाओ छे. तणफासे सीयफासे य तेउ फासे य समसगे य । अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई ॥१॥ अह दुच्चरलाढमचारी वजभूमिं च सुब्भभूमिं च । पंतं सिद्धं सेविंसु आसणगाणि चैव पंताणि ॥२॥ लाढेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लुसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरातत्थ हिंसिंसु निवसु || ३ || अप्पे जणे निवारेइलूसणए सुणए दसमाणे । छुच्छुकारिंति आहंसु समणं कुक्कुरो दसंतुति ॥४॥ कुश दर्भ विगेरे तृणना कठोर फरसो, तथा ठंडीना स्पर्शो तथा ग्रीष्म ऋतुमां उनाळा विगेरेनो ताप दुःखदायी हतो अथवा भगवानने चालतां तेज (अग्नि) कायज हतो, तथा डांसमच्छरो विगेरे हता, तेवा जुदी जुदी जातिना स्पर्शोने भगवान समताथी अथवा समितिवडे सहन करता. . वळी दुःखथी विहार थाय, तेवो दुश्कर देश लाढ छे, तेमां पण पोते विचर्या, तेना वे भाग छे, एक वज्र भूमि तथा बीजी शुभ्र भूमि छे, ते वने जग्याएं विचर्या छे, तथा मांत ते शून्य ग्रह विगेरे वसतिमां रहीने अनेक उपद्रवो भगवाने सहन कर्या, . सूत्रम् ||८३६॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८३७॥ तथा धूळना ढगला, जाडी रेती वेकर (वेळ) तथा माटीनां ढेफां विगेरेना प्रांत (तुच्छ) आसनो तथा लाकडां जेवां तेवां पटेलां | तेना उपर पोते बेसता, (१) तथा ते लाढा देशमां जे बे विभाग उपर बताव्या तेमां प्राये लोकोना आक्रोश तथा कूतरांना करडवा | विगेरेना घणा प्रतिकूल उपसर्गो थया, ते बतावे छे. जनपदते देश- अने तेमां उत्पन्न थयेला ते जानपद माणसो छे, ते अनार्य देश होवार्थी अनार्यो छे, तेथी ते दुष्टोए दांतथी करड, भारे दंडनो प्रहार विगेरेथी दुःख देवु ; ( अपि शब्दना अर्थमां अथ शब्द छे, तेथी एम जाणवु, के ) त्यां भोजन पण लुखु अंतप्रांत आपता, तथा अनार्यपणाथी स्वभावथीज क्रोधी हता अने रुना अभावे घासवडे शरीर ढांकता, तेओ भगवान उपर विरूप आचरता हता, अने शीकारी कूतराओ भगवान उपर करडवा आवता (३) अने ते देशमां भाग्येज हजारमां एक दयाळु जन हतो के जे करडवा आवेला कूतराने अटकावे, उलटा भगवानने लाकडी विगेरेथी मारीने कूतराने तेना उपर दोडाववा सीत्कार (छुछु) करता के कोइ रीते आ साधुने ते कूतराओ करडे ! आवा दुष्ट अने भयङ्कर देशमां पण भगवान् छ मास सुधी रह्या वळीएलिक्खए जणा भुज्जो बहवे बजभूमि फरुसासी । लट्ठि गहाय नालियं, समणा तत्थ य विहरिं ||५|| एवंपि तत्थ विहरंता, पुट्टपुवा अहेसिं सुणिएहिं । संलुच्चमाणा सुणएहिं दुच्चराणि तत्थ लाढेहिं ॥६॥ निहाय दंड पाणेहिं तं कायं वोसजमणगारे । अह गाम कंट्टए भगवंते, अहियासए अभिसमिच्चा || ७|| नागो संगामसीसे वा पारए, तत्थ से महावीरे । एवंपि तत्थ लाडेहिं अलद्धपूवोवि एगया गामो ||८|| ||८३७॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर बतावेल कष्ट आपनार ज्यां माणसो छे, तेवा देशमां भगवान वारंवार विचर्या, अने ते वज्र भूमिमां घणा माणतो आचा० लुखं खानारा होवाथी क्रोधी हता, अने तेथी साधुने देखीने कदर्थना करे छे, तेथी बीजा साधुओ बौद्ध विगेरेना इता, तेो में शरीर प्रमाण अथवा तेथी चार आंगळ वधारे लांची नळी (लाकडी) कुतरा हाकवा माटे हाथमा राखीने विचरता हता. (५) ॥८३८॥ Minese वळी लाकडी विगेरेनी सामग्री राखवाथी बुद्ध मतना साधुओ विचरी शकता, अने ते प्रमाणे कूनराओथी करडावानो डर | तथा तेमने निवारण करवानुं मुश्केल होवाथी अनार्य लोकना लाढ देशमां गाम विगेरेमां विचर, मुश्केल हतु.॥६॥ -आवा कठण देशमां भगवान् त्यारे केवी रीते विचर्याः ते कहे छे-माणीओ जेनावडे दंडाय ते दंड मन वचन | काया संबन्धी छे, ते दंडने भगवाने छोडी दीधो, तेज प्रमाणे कायानो मोह छोडीने ते अणगार (भगवाने) गाम कंटक ते गाम-3 | डाना नीच लोकोनां कठोर वाक्यो निर्जरानुं कारण मानीने समताथी सहन कर्या. (७) प्र०-केवी रीते सहन कर्या ? ते दृष्टांत बतावीने कहे छे. जेम हाथी संग्रामना मोखरे आगळ वधीने शत्रुना लश्करने भेदीने तेनी पार जाय छे, ते प्रमाणे भगवान महावीर ते लाद देशमां परीपहनी सेनाने जीतीने तेनाथी पार उता, तथा ते लाढ देशमा गामो थोडां होवाथी कोइवार कोइ स्थळे गाम वखते मळ पण नहोतुं (जंगलमां पण पडी रहेतां.) ६ उवसंकमन्तमपडिन्नं, गामंतियमि अप्पत्तं; । पडिनिक्खम्मित्तु लूसिंसु, एयाओ परं पलेहीत्ति ॥९॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 1 हयपुवो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्टिणा अदु कुंतफलेण; । अदु लेलुणा कवालेण, हंडा बहवे कंदिसु ॥१०॥ सत्रम ला गोचरी लेवा जतां अथवा मकानमा रहेवा जतां भगवान प्रतिज्ञा रहित हता, एटले गाम पासे आवेलु होय, अथवा गाम न ॥८३९॥ आव्यु होय, तो एम नहोता करता के हुं अहीं हमेशा रहीश, अथवा अहीं नहीं रहुं, तथा त्या अनार्य लोको भगवाननी पासे 21८३९॥ आवीने प्रथम मारता, अने कहेता के आ गामथी दूर जाओ. (९) तथा कदी गाम बहार रहेता तो त्यां पण अनार्य लोको आ-13 वीने प्रथम दंड (लाकडी) अथवा मुक्कीथी मारता, अथवा भालानी अणीथी माटीना ढेफाथी अथवा घडाना ठीकराथी मारी मारीने | है अनार्य लोको बीजाने बोलना के आवो आवो ! तमे जुओ तो खारा के ओं कोण छे ? ए प्रमाणे कलकल करता हता. (१०) R. मंसाणि छिन्नपुवाणि उट्ठभिया एगया कार्य; । परीसहाई लुचिंसु, अदुवा पंसुणा उवकारिंसु ॥११॥2 उमा लइय निहणिंसु, अदुवा आसणाउ खलइंसु । वोसहकायपयणाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपडिन्ने ॥१२॥ कोई वखत तो भगवान पासे आवीने तेमना शरीरने झालो राखीने तेमांथी मांस कापी काढता, तथा बीजा पण दुःख देनारा हा परीषहो आपता, अथवा धूळथी हेरान करता. (११) वळी कोइ वखत भगवानने उंचे उचकीने नीचे पटकता हता, अथवा गोदोहिक उत्कुटुक वीरासन विगेरेथी धक्को मारी पाडी देता, आबु दुःख थवा छतां पण भगवाने तो कायानो मोह मुकी दीधेलो होवाथी परिषह सहन करवामां लीन हता, अने मुश्केलीथी सा सहन थाय, तेवा परिपहोना दुःखने सहेता, पण ते दुःखने दर करवानी अथवा देवा करवानी इच्छा न धराववाथी अप्रतिज्ञावाला हता. ॐॐॐॐॐॐॐ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख सहेनारा भगवान केवी रीते हता ते दृष्टौतथी बतावे छे. आचा० 18 सूरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरुलाई; अचलें भगवं रीयित्था ॥१३॥ ॐ सूत्रम् ॥४०॥ एस विही अणुकतो, माहणेण मईमया । बहुलो अपडिन्नेण, भगवया एवं रियति ॥१४॥ ॥८४०॥ | जेम संग्रामना मोखरे शूरवीर पुरुष शत्रुना सैन्यना भाला विगेरेथी भेदावा छतां पण वखतर पहेरेलु होवाथी पाछो हठतो नथी, तेज प्रमाणे भगवान महावीर पण ते लाढ विगेरे देशोमां परिषहरुप शत्रुओए पीडा करवा छतां पण कठोर परीपहोना दुःखोने मेरु माफक निष्कंप बनीने धीरजवडे संवृत्त अंगवाला बनीने सहेता ज्ञान दर्शन चारित्ररुप मोक्ष मार्गमां विचरे छे. (१३) आज प्रमाणे गया उद्देशामां बतान्या प्रमाणे बुद्धिमान भगवान महावीर कदाग्रह विना दुःखो सहेता विचर्या नवमा अध्ययननो त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. चोथो उद्देशो कहे छे. त्रीजो उद्देशो कहीने हवे चोथो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे के त्रीजा उद्देशामां भगवाने सहेला उपसर्ग परीपहोनं वर्णन छे, अने आ उद्देशामां पण रोग आतंक पीडा आवतां पण तेनी चिकित्सा (उपाय) छोडी दइने भयंकर रोग उत्पन्न थया छतां पण बरोबर सहेता, अने एकांत तप चरणमा उद्यम करता, ते वतावशे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र : Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् * * * भाषा ४ ओमायरियं पाएइ, अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं; । पुढे वा अपुढे वा, नो से साइजई तेइच्छं ॥१॥ ॥८४१॥ संसोहणं च वमणंच,गायब्भंगणं च सिणाणं च । संवाहणं चन से कप्पे दंतपक्खालणं च परिन्नाए ॥२॥4/1८४१॥ XI उपर बतावेला शीतोष्ण दंशमशक आक्रोश ताडना विगेरे परिषहोमां थोडं दुःख होवाथी सहेवा शक्य हता, पण उणोदरी (ओर्छ खावू) ते शक्य न होतुं,पण भगवान महावीर तो वातादि क्षोभना अभावे रोगमां सपडायां न होता छतां, पण ओछु खावाने । शक्तिवान थया एटले लोको तो रोगमां सपडाया होय, त्यारे ते रोग दूर करवा ओछु खाता हता, पण भगवान तो ते रोगना अ-12 भावमां पण ममल ओछो करवा ओर्छ खाता, अथवा खांसी के दम विगेरेना द्रव्य रोगथी पीडाया नहोता, छतां पण भविष्यमा ला आववाना भावरोगरूप कर्मने दूर करवा माटे उणोदरी तप करता हता... म०-शुं भगवानने तेवा खांसी दम विगेरेना रोगो थता नहोता ? के भाव रोगो दूर करवाना कारणे उणोदरी तप कर्यो ? उ०-कहे छे भगवानने खांसी विगेरे रोगो स्वभावथीज काया साथे थता इता, अने नवा तो शस्त्रना घा विगेरे लागवाथी थता, ते बतावे छे. ते भगवान महावीर कुतरांना करडवाथी अथवा खांसी श्वास विगेरेना रोगोथी पीडाय, छतां पण ते चिकित्सा (रोगना-उपाय) ने करता नथी, अर्थात तेश्रो रोगनी शांति करवा औषध लेवानी इच्छा करता नहोता. (१) ते बतावे छे, शरीरन बरोबर रीते शोधवं ते निःसोत्र (निसोतर) सुवर्णमुखी विगेरेथी जुलाब लेता नहोता, तथा मदनफळ (मींदळ विगेरेथी उलटी (वमन) करता नहोता, तथा सहस्र पाक तेल विगेरेथी शरीरर्नु अभ्यंगन (चोळवू) फरता नहोता. तथा ४/ * * * * Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9806 SAGAR ॥४२॥ उद्वर्त्तन विगेरेथी स्नान करता नहोता. हाथ पग विगेरेनुं संवाधन (दवावयु) करावता नहोता. तथा आखू शरीर अशुचि (गंदकी) आचाल थी भरेलुं छे, एभ जाणीने दातण विगेरेथी दांत साफ करता नहोता. ॥८४२॥ विरए गामधम्महिं, रीयइ माहणे अबहुवाई । सिसिरांमि एगया भगवं, छायाए झाइ आसीय ॥३॥ | आयावइ य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभित्तावे । अदु जाव इत्थ लूहेणं, ओयणमंथुकुम्मासेणं ॥४॥ १ वळी पांचे इंद्रियोना विषयोमां शब्द विगेरेथी मोह न पामतां संयम अनपानमां तेने दोरे छे. तेथी तेओ विरत छे. तथा माहन (जीवोना रक्षक) प्रभु अबहु (थोडु) बोलनारा छे, (एक वार बोले तेथी अबहु शब्द लीधो छे, बाकी तो अवादी छे एवं बोलाय): तथा कोइ वखत शिशिर ऋतु (शीयाळा)मां भगवान धर्म ध्यान अथवा शुक्ल ध्यानमां स्थिर हता. (३) वळी (छट्ठी विभक्तिने सातमीना अर्थमां लेतां) ग्रीष्म ऋतुमां भगवान् (खुल्ला मेदानमां) आतापना लेता ते बतावे छे. उत्कुटुक आसने भगवान सूर्यना तडका सन्मुख बेसता, अने धर्मना आधाररूप देहने लुखा एवा कोदरा भातथी तथा बोरकूट विगेरेनो साथवो, तथा अडद (जे उत्तर दिशामां थाय छे) अथवा बाफेला वासी अडद अथवा सिद्ध मासा विगेरेथी कायानो निभाव करता. हवे ते काळ अवधि (मुदत)ना विशेषणवढे बतावे छे. एयाणि तिन्नि पडिसेवे, अट्ठ मासे अजावयं भगवं; । अपि इत्थ इगया भरावं अद्धमासं अदुवा मासंपि ॥५॥ अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विहरित्था; । राओवरायं अपडिन्ने अन्नगिलायमेगया भुंजे ॥६॥ 4 0*6* ** Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० कदाच कोइने एवी शंका याय के प्रथम पतावेला भात मंधु तथा अडद साथे मेळवी खाता दशे, तेथी ते दर करवा कहे छे.181 सूत्रम् सके ते त्रणे जो साथे मळे तो साथे लेइ खाता, अने त्रणेमांथी कोइ जुएं जुहूं मळे तो तेम लेता अथवा एकलं मळे तो तेम लेता ॥८४३॥ अर्थात त्रणमाथी जे मळे ते लेइ निर्वाह करता. P८४३॥ प्र०-आ केटली मुदत सुधी आम करता, ते कहे छे. (शीयाळा उनाळानी आठ मासनी ऋतुने ऋतुबद्ध काळ कहे छे. ते), आठे मास मुधी भगवाने तेवा लुखा भोजनथी निर्वाह को तथा तेज प्रमाणे पाणी पण अडधो मास के एक मास भगवाने Mते, ( साईं) पीधुं. (५) तथा चे मासथी अधिक अथवा छ मासथी पण वधारे भगवाने पाणी पण पीधा विना रात दिवस निर्वाह करी लीधो, हुं पाणी 'पीश' तेवी इच्छा (प्रतिज्ञा) पण न करी, तथा कोइवार वासी (खवाय तेवू ) मळ्यु होय तो कोइ | वार खाइ पण लेता. (६) छट्टेण एगया भुंजे अदुवा अहमेण दसमेणं, । दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥७॥ हैणचा से महावीरेनोऽविय पावगं सयमकासी, । अन्ने हिवाण कारित्था, कीरंतंपि नाणुजाणित्था ॥८ वळी कोइ वखत छनो तप करी पारणुं करे छे,एटले प्रथमना दिवसे एक वखत खाय. त्यारपछी बे दिवस उपवास करे,अने चोथे दिवते पार्छ एकवार खाय, एटले प्रथमनो एक वचला चार अने चोथादिवसनो एक टंक मळी छ बखत न खावाथी छठ भक्त । थाय छे. ए प्रमाणे बेबे टंक एकेक दिवसना वधारतां आठ भक्त त्यागवाथी अठम अने तेवी रीते दशम तथा बार भक्त पञ्चख्खाण -~-555554443 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयु. एटले वचमां पांच उपवास करे अने प्रथमनां दिवसे तथा सातमा दिवसे एक वार खायः आ बधो तप पोते शरीरमा समाधि आचा० राखीने करता पण मन मेलं करता नहोता, तथा नियाणु (पतिज्ञा) करता नहोता, (७) तथा हेय उपादेय वस्तु तत्वने महावीरे सूत्रम् ॥८४४॥ IN जाणीने ते महावीर प्रभुए कर्मनी प्रेरणा करवामां वीर बनीने पाप कर्म पोते जाते न कयु, न बीजा पासे कराव्यु, अने अन्य MAnsan पाप करनारने पोते प्रशंस्या नहीं, (८) 18 गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परछाए । सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयतज़ोगयांए सेवित्था ॥९॥ IS अदु वायसा दिगिच्छत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिट्ठति, सययं निवइए य पेहाए ॥१०॥ भगवान् महावीर गाम अथवा नगरमा पेसीने गोचरी शोधता, पण ते पर माटे बनावेलुं एटले उद्गम दोष रहित होय ते लेता, तथा सुविशुद्ध एटले उत्पाद दोष रहित लेता, आ प्रमाणे एपणा (गोचरी) ना दोष त्यागीने भगवान आयत ते संयम अने मन वचन कायाना योग (व्यापार) वाळा बनीने ज्ञान चतुष्ट्यवढे त्रणे गुप्ति पाळता आयत योगवाळो भाव (ते आयत योगता) छे, ते वडे शुद्ध आहार लावी गोचरी करतां पांच दोष थाय, ते टाळीने गोचरी करता [अहींयां पण ४२ दोष गोचरी लेतां अने'५ लगोचरी करतां एम ४७ दोप टाळवानुं जाणवू] [९] न हवे भगवान ज्यारे गोचरीए नीकळता. त्यारे मार्गमां भूखथी पीडायेला कागडा तथा बीजां रस पाणी] नी इच्छावाळां 5 कपोत कबुतर विगेरे सत्वो पाणीओ] तथा खावानुं शोधवा माटे जे पाणीओ रस्तामां बेठेलां होय, तेमने जमीन उपर बरोबर *SHRSS Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ८४५॥ जोइने तेमने खावा पीवामां अडचण न पडे तेवी रीते इमेशां पोते धीरे धीरे गोचरीने माटे.चाले छे. [१०] आचा० | अदुवा माहणं च समणं वागाम पिण्डोलगं च अतिहिं वा;। सोवागमूसियारिं वा कुक्कुरं वावि विट्टियं पुरओ वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो; । मंदं परकमे भगवं अहिंसमाणो धासमेसित्था ॥१२॥ __ अथवा ब्राह्मणने लाभ माटे उभेलो जाणीने तथा वौद्ध मतना साधु आजीविक [गोशाळाना मतना] साधु तथा परिबाट तापस 2 | अथवा पार्श्वनाथना अनुयायी जैन साधुमाथी कोइपण होय, अथवा गामना भीखारीओ जे होजरी भरवा माटे भटकता होय, अ थवा कोइ अतिथि [परोणा] मुसाफर होय, तथा चांडाळ के बीलाडी कूतरुं के कोइपण माणी मोढा आगळ उभेलं होय तो [११] 18 है तेमनी वृत्तिने छेदवा विना अने मनमाथी दुान काढीने तेमने जरा पण त्रास आप्या विना भगवान् मंद मंद चाले छे, तथा पर एवा कुंथुवा विगेरे नाना जंतुओने दुःख दीधा विना पोते गोचरीमा फरे छे. (१२) अवि सुइयं वा सुकं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा लछे पिंडे अलके दविए ॥१३॥ अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कए झाणं । उड़ अहेतिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने ॥१४॥ दहीं विगेरेथी भोजन भीजावेलुं होय, तेमज वालचणा विगेरे मुकुं होय, अथवा ठंड होय अथवा घणा दिवसना रांधेला जुना कुल्माष होय अथवा बुक्कस ते जुनुं धान्य के भात विगेरे होय' अथवा जुनो साथवो बोरकुट विगेरे होय, अथवा घणा | दिवसर्नु भरेलुं गोरस अने घउना मंडक (देवर) होय, तथा जवना निष्पाव विगेरे पुलाक होय, ए प्रमाणे ठंडो उनो सारो Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् 181८४६॥ 8/माठो रसिक अरसिक गमे तेवो पिंड मळे तो पण रागद्वेष छोडीने वापरता द्रविक (संयमवाळा) भगवान विचरे हे. एटले जो आचा० दिपुरी अथवा सारी गोचरी मळी होय तो अहंकारी थता नथी, तथा न मळतां ओछी मळतां खराव मळतां पोते पोतानी के आपनार ॥८४६॥ गृहस्थनी निंदा करता नथी, (१३) पण तेवो आहार मळतां खाइने अने न मळतां भूख्या रहीने पण सारुं ध्यान महावीर प्रभु करे छे केवी अवस्थामां रहीने ध्यान करे छे. ते बतावे छे. " उत्कुटुक गोदोहिक वीरासन विगेरे आसन धारीने मुख विगेरेनी चंचळ चेष्टाने छोडीने धर्म ध्यान के शुक्ल ध्यान ध्याये छे. म०-त्यां शुं ध्येयने भगवान धारे छे ? ते कहे छे. उंचे, नीचे तथा तीरच्छा लोकमां जे परमाणु तथा जीव विगेरे विद्यमान छे, तेने द्रव्य पर्याय नित्य अनित्य विगेरे रुपपणे ध्यावे छे. तथा अंतःकरणनी पवित्र समाधिने देखता प्रतिज्ञा रहित बनीने ध्यान करे छे. (१४) अकसाई विगयगेही य सदरूवेसु अमुच्छिए झाई । छउमत्थोऽवि परक्कममाणो; न पमायं सइंपि कुवित्था ॥१५॥ सयमेव अभिसमागम्म, आयएजोगमायसोहीए । अभिनिव्वुडे अमाइल्ले, आवकह भगवं समियासी ॥१६॥ एस विहि अणुकतो, माहणेण मईमया । बहुसो अपडिन्नेण, भगवया एवं रियति ॥१७॥ तिबेमि ९-४ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कंधे नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः कपाय रहित (क्रोध विगेरे पापण विगेरे चडाव्या विना) तथा गृद्ध पणुं दर करीने तथा शब्द विगेरेमां मूर्छा राख्या | Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० विना ध्यान करे छे, मनने अनुकलमां राग नथी तेम प्रतिकूलमां द्वेष नथी. तथा ज्ञानआवरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, ए४ चार कर्म विधमान होवाथी छमस्थ हता, तो पण तेमणे विविध संयमना अनुष्ठानमा पराक्रम बतावीने कषाय विगेरे प्रमादने सूत्रम् ॥८४७॥ एकवार पण न कर्यो, (१५) तथा पोते पोताना आत्माथी तत्वने जाणीने संसार स्वभाव जाणनारा भगवान स्वयंबुद्ध बनी तीर्थ |P८४७॥ ४ प्रवर्तन करवा उद्यम को. कबु छे के: आदित्यादिविबुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्या-मास्कन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच ॥ तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वे-त्येतद्वाक्य त्वदधिगतये नो किमु स्यान्नियोगः ॥१॥ आदित्य विगेरे विबुधोनो समूह ( नव लोकांकित देवो) छे, तेमणे तेमने का के हे नाथ ! आ त्रण लोकमां साररूप ४/ IM अनुपम जे शीघ्र भवोना भय छेदनार अने शिवपद आपनार तीर्थ (जैन शासन) छे. तेमने शीघ्र स्थापन करो! आ प्रमाणे आव वाक्य तमारी स्मृति माटे काने न पडधु होत, तो आ नियोग केवी रीते यात ? तथा तीर्थ प्रवर्तन माटे केवी रीते भगवाने है उद्यम कर्यो ते बतावे छे:हा आत्म शुद्धिवडे एटले पोतानां कर्मनो क्षय उपशम तथा क्षय करवावडे सुप्रणिहित मन वचन कायाना योगो जे आयत योग kk छे, तेमने निर्मळ करी तथा विश्य कषायो विगेरेने उपशम विगेरेथी दूर करवाथी ठंडी गुण प्राप्त करेला (शांत) भगवान छे. तया है। माया रहित तेज प्रमाणे क्रोध मान लोभ रहित बनी जीवतां मुधी पांच समितिए समित ( उपयोग राखी वर्तन करनारा) तथा । त्रण गुप्तिथी गुप्त बनीने स्ह्या हता. (१६) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥८८ SARGAGRO नयुक्ति सहित वर्षको एवंभूत ए S ..उद्देशो समाप्त करवा कहे छे. आ प्रमाणे शास्त्रमा बतावेली विधिए श्री वर्द्धमानस्वामी जेओ चार ज्ञान युक्त छे, तेमणे अनेक आचा ( प्रकारे नियणुं कर्या विना आचर्यो, कारण के ते प्रमाणे बीजो मुमुक्षु पण भगवानना दाखलाथी मोक्ष आफ्नार मार्गवडे आत्महितने ॥८४८॥ आचरतो विचरे, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबृस्वामीने कहे छे. ते हुं कहुं छु.जे वीर प्रभुना चरणनी सेवा करतां में सांभळ्युं छे. र आ प्रमाणे सूत्रानुगम तथा सत्रालापक निष्पन्न निक्षेप सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति सहित वर्णव्यो छे. हवे नयोन वर्णन करे छे. ॐ नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरुढ एवंभूत ए प्रमाणे सामान्यथी ७ नय छे. ते संमतितर्क विगेरेमां लक्षणथी * अने विधानथी विस्तारथी कह्या छे, माटे अहींया तेज नयोने ज्ञान क्रिया ए बने नयोमा समावीने समासथी कहीए छीए. है आ आचारांग सूत्रना अधिकारमा ज्ञान क्रिया एम बे नयोनो समावेश थाय छे, तेथी तथा ते ज्ञान क्रियाने आधिन मोक्ष होवाथी, अने मोक्ष माटे शास्त्रनी प्रवृत्ति छे, एम जाणवू, अने अहींआं ज्ञान तथा क्रिया परस्पर संबंध राखीनेज विवक्षित कार्य | सिद्धिमां समर्थ छे, पण एकलं ज्ञान के एकली क्रिया समर्थ नथी, माटे अहीं ते बे ज्ञान क्रिया नयने समजावीए छीए. ज्ञान नयवाळानो अभिप्राय. ज्ञान प्रधान छे, पण क्रिया नहीं, कारण के समस्त (वधा) हेय पदार्थने त्यागवा, उपादेयने स्वीकारवा,ए प्रवृत्ति ज्ञानने आधीन छे. तेज बतावे छे, के सारी रीते निश्चय करेला सम्य ज्ञानथी प्रवर्तन करनारो अर्थ क्रियानो अर्थी पोतार्नु कार्य बगाडतो नथी. का छे के. विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवत्तस्य, फलासंवाददर्शनाद् ॥१॥ छ, माटे अब RS Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४९॥ आचा० पुरुषोने जे शान छे, ते फळ देना छ, पण क्रिया फळदायी नथी. कारण के मिथ्या ज्ञानवाळो क्रिया करवा जाय तो तेनुं 13 अयोग्य फळ साक्षात् देखाय छे, अने सम्यग प्रकारे शानथीज पार पहोचाय छे, तथा विषय व्यवस्थितिनुं समाधान शान पूर्वक ॥८४९॥ थाय छ, तथा वधा दुःखोनो नाश ज्ञानथीज थाय छे, अने ज्ञानमुंज अन्वयव्यतिरेकपणुं छे. एटले ज्ञान होय तो फळनी सिद्धि अने सामान न होय तो फळनी असिद्धि माटे दरेकरीते ज्ञान प्रधानपणुं छे, ते बतावे छे. ज्ञानना अभावे अनर्थ दूर करवा माटे तैयारी करे तो पण करवा जतां अज्ञानताथी पतंगीया माफक अनर्थमां श्रीपलाइ जाय छे, अने ज्ञानना सद्भावे बधा अर्थाने अने | अनर्थना संशयोने विचारीने यथाशक्ति विघ्नोने दूर करे छे, तेमज आगम पण कहे छे, “पढमं नाणं तो दया" सूत्र छे. आ# बधुं क्षायोपशमिकज्ञान आश्रयी का, अने क्षायिकने आश्रयी पण तेज प्रधान छे, कारण के नमेला मुर असुर देवताना मुकुटोना| समुदायोनी वेदिकामां जेमना चरण युगलनी पीठ छे, तथा भव समुद्रना तटे पहोंच्या छे. तथा दीक्षा लीधी छे, प्रण लोकना बंधु छ, तप चारित्र सारीरीते आदरवा छतां पण ज्यां सुधी जीव अजीव विगेरे वधा है पदार्थोनुं परिच्छेद करनार घनघाति कर्म समूह क्षय थवारूप केवळज्ञान प्राप्त न थाय त्यां सुधी ते भगवानने मोक्ष माप्ति थती | नथी, माटे ज्ञानज युक्तिए युक्त आ लोक परलोक फळनी इच्छित प्राप्ति करनार सिद्ध थाय छे, क्रिया वादीनो नय (अमिमाय). क्रियाज आलोक परलोक इच्छित फळनी प्राप्तिन कारण छे. कारण के ते युक्तिए युक्त छे. जो तेम न होय तो ज्ञानवडे, देखवा छतां पण अर्थ क्रियाना समर्थन अर्थमा प्रमाता प्रेक्षा पूर्वकारी छतां पण जो छोडवा लेवारूप प्रवृत्ति क्रिया न करे तो तेनुं 8 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८५०॥ ज्ञान पण निष्फळ जाय छे, कारण के ते ज्ञाननें अर्थपणुं क्रिया साथे ठे, कारण के जेनी जे अर्थ माटे प्रवृत्ति होय, तेनुं प्रधानपणुं छे, अने ते सिवायर्नु अप्रधान' (गौण) छे, ए न्याय छे, संविद बढे विषय व्यवस्थाननुं पणे अर्थ क्रियापणाथी अर्थपणुं : क्रियानुं प्रधानपणुं बतावे छे, अन्वय व्यतिरेको पण क्रियामां सिद्ध थाय छे, कारण के सम्यक चिकित्सानी विधि जाणंनारो यथार्थ औषधनी प्राप्ति करे, तो पण उपयोग क्रिया रहित होय तो ते वैद रोगने दूर करी शकतो नथी. तेज का छे. के शास्त्राण्यधीत्यापि भवंति मूर्खा; । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ॥ संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि । किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥ शास्त्रोने भणीने पण केटलाक क्रिया न करनारामूर्खा होय छे; पण जे थोड़े भणेलो होय पण क्रिया करनारो होय ते विद्वान् । छे. कारण के औषध चिंतवो, पण ते चिंतवेलु औषध विना क्रिया करे शुं रोगीने निरोगी बनावी शकशे के ? वळी क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतं; यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् मुखितो भवेत् ॥१॥ पुरुषोने क्रियाज फलदायी छे. पण ज्ञान फलदायी नथी कारण के स्त्रीःखावाना पदार्थ, तथा भोगववानी वस्तुओनो जाणनार है। एकला ज्ञानथी सुखीओ थतो नथी! पण ते क्रियाथी युक्त होय ते माणस पोतानी इच्छा प्रमाणे अर्थ मेळवनारो थाय छे. . जो पूछता हो के केवी रीते ! तो कहं छं. के " निश्चयथी देखेलामां न उत्पन्न भएलुं नथी," अने ज्यां सकल (वा) लोकमां प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ होय त्यां बीजुं प्रमाण मागी शकाय नहीं. ! तथा परलोक सुख वांच्छतां होय, तेमणे पण तप चारित्रनी है क्रियाज करवी, जिनेश्वरनुं वचन पण तेज कहे छे. 1 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८५१ ॥ चेइयकुलगण संचे, आयरियाणं च पत्रणय सुए य । सव्वेसुऽवि तेण कथं, तवसंजममुज्जमन्तेणं ॥ १ ॥ चैत्य कुळ गण संघ आचार्य प्रवचनश्रुत, ए वधामां पण तेणे तप अने संयममां उद्यम करवायी कर्तुं जाणवु, माटे आ क्रियाज स्वीकारवी, कारण के तीर्थंकर विगेरेए पण क्रिया रहित ज्ञानने पण अफळ क छे वळीक छे के बहुं पि सुमधीतं, किं काहि चरण विप्पहूण ( मुक्क) स्स ? अंधस्स जह पलित्ता, दीवस सहस्सकोडिवि ॥१॥ घणाए सिद्धांत भण्यो होय, पण जो चारित्र रहित होय तो ते शुं करी शके ? जेमके घरमां लाखो करोडो दीवा कर्या होय तो पण अंधो केवी रीते कार्य सिद्ध करी शके ? अर्थात् देखवानी क्रियामां विफल होवाथी तेने दीवा नकामा छे. वळी क्षायोपशमिक ज्ञानथी क्रिया प्रधान छे, एम नहि, पण क्षायिक ज्ञानथी पण क्रिया प्रधान छे, जेमके जीव अजीव विगेरे संपूर्ण वस्तु | परिच्छेदक केवळज्ञान विद्यमान होय, पण ज्यां सुधी क्रिया समाप्त करनारुं अयोगी गुणस्थाननुं 'ध्यानरूप क्रियापणुं न फरसे, त्यां सुधी भवधारणीय कर्मनो उच्छेद थाय नही, अने तेनो उच्छेद न थवाथी मोक्ष प्राप्ति पण न थाय, माटे ज्ञान प्रधान नथी, पण चरणनी क्रियामां आलोक अने परलोकना इच्छित फळनी प्राप्ति छे, माटे ते क्रियाज प्रधान फळने अनुभवे छे. आ प्रमाणे ज्ञान विना सम्यक् क्रियानो अभाव छे. अने ते क्रियाना अभावथी अर्थ सिद्धि माटे ज्ञाननुं वैफल्य छे. आ प्रमाणे | बने नयवाळी पोताना नयनी सिद्धि करी तेथी सामान्य बुद्धिवाळो शिष्य व्याकुल मतिवाळो बनीने गुरुने पूछे छे के आमां सत्य | तत्व शुं छे ? आचार्यनो उत्तर - हे देवोने प्रिय भाइ ! अमे तो कां छेज ? पण तुं भूली गयो ! कारण के ज्ञान तथा क्रियाना अभिप्रायो बन्ने एक बीजाने आधारेज वधा कर्म कंदना उच्छेदरूप मोक्षनां कारणो के तेनुं दृष्टांत. सूत्रम् ॥८५९॥ f Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 आचा० ॥८५२॥ आखु नगर ज्यारे बळयुं, त्यारे अंदर रहेला आंधळो पांगळी बन्ने मळी जवाथी सुखेथी बहार नीकळ्या, तेज कनुं छे. संजोयसिद्धीऍ फलं वदन्तीति. कारण के एक पैडाथी रथ चालतो नथी, वन्नेनो संयोग थतां कार्यनी सिद्धि थाय छे. पण स्वतंत्र प्रवृत्तिमां तो विवक्षित कार्यनी सिद्धि थती नयी, ए प्रसिद्धज छे. वळी क्रिया विनानुं ज्ञान हणायुं छे, आगममां पण सर्व नयोना उपसंहारना द्वार वडे आज विषय को छे. जेमके सव्वेसिंपिणयाणं बहुविहवत्तवय णिसामेत्ता । तं सव्वणय विसृद्धं नं चरण गुणट्टिओ साहू ॥ १ ॥ बधा नयोनुं घणा प्रकारनुं वक्तव्य सांभळीने वधा नयथी विशुद्ध मंतव्यने चरण गुणमां स्थित साधु होय ते माने, तेथी आ आचारांगसूत्र ज्ञान क्रियारूप छे, तेने जाणेला सम्यग् मार्गवाळा साधुओ जेमणे कुश्रुत नदी कषाय माछलानां कुळथी आकुळ चनेल तथा प्रियनो वियोग अभियनो संयोग विगेरे अनेक दुःखथी मळेल महा आवर्त्तवाळं मिथ्याल पवननी प्रेरणानी उपस्थापित भय शोक हास्य रति अरति विगेरे तरंगवालुं विश्रसा वेलाथी चित थयेलुं सेंकडो व्याधि मगरना समूहना रहेवासवाळं महा मंभीर भय आपनार त्रास उत्पादक महा संसार अर्णव (समुद्र) ने साक्षात् देखेलो छे, तेवा साधुओ ते संसार समुद्रथी पार जवा इच्छता होय तेमने आ आचारांग सूत्रमां बतावेलुं ज्ञान तथा क्रिया अव्याहत (निर्विघ्न) यानपात्र (वहाण) छे, एटला माटे मुमुक्षुए आत्यं तिक, एकांतिक, अनावाध, शाश्वत, अनंत अजरामर, अक्षय, अव्याबाध तथा समस्त रागद्वेश विगेरे द्वंद्व रहित सम्यग | दर्शन, ज्ञान, व्रत, चरणक्रियाकलापथी युक्त परमार्थ श्रेष्ट कार्य जे सर्वोत्तम मोक्ष स्थान छे, तेनी इच्छावाळा बनीने ते आचारांग सुत्रनो आधार लेवो, तेज ब्रह्मचर्य नामना श्रुतस्कंधनी निर्वृत्ति कुलवाळा श्री शील आचार्ये "तत्त्वादीत्या" नामनी वाहरि साधुना सूत्रम् ॥८५२॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८५३॥ सहाथी आ टीका समाप्त करी छे, (श्लोक ग्रंथमान ९७६ ) छे. द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तम्स्रु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्याम् ॥१॥ ७७२ वर्ष गुप्त वंशवाळा राजाओना संवत्सरनां गये थके भादरवा महिनानी शुक्ल पंचमीए. शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा । सम्यगुपयुज्य शोध्यं, मात्सर्यविनाकृतैरायैः ॥२॥ शीलाचार्गे गंभूता (गांधु) मां रहीने आ टीका बनावी छे, तेने मात्सर्य [ अदेखाइ ] कर्या बिना उत्तम साधुओए शोधवी. कृत्वाऽऽचारस्य मया टीकां यत्किमपि संचितं पुण्यम् । तेनाप्नुयाज्जगदिदं निर्वृतिमतुलां सदाचारम् ||३|| अने में आ आचारांगनी टीका बनावीने तेथी जे कंइ पुण्य उपार्जन कर्तुं होय, तेनाथी आ जगत्ना जीवो अतुल मोक्ष तथा सदाचार प्राप्त करो. वर्णः पदमथ वाक्यं पद्यादि च यन्मया परित्यक्तम् । तच्छोधनीयमत्र च व्यामोहः कस्य जो भवति ? ॥४॥ वर्ण (अक्षर) पद वाक्य पथ विगेरे जे माराथी पूर्बनी टीका के सूत्रमांथी छुटी गयुं होय; तो ते विद्वाने सुधारी लेवं, कारण के व्यामोह (भूल) कोनी नथी थती ? तखादित्या जेनुं बीजुं नाम छे एवी आ आचारांगसूत्रनी वृत्ति ब्रह्मचर्यश्रुतस्कंधनी छे ते समाप्त थइ. आ प्रमाणे श्रीभद्रबाहुस्वामीए रचेल निर्युक्ति सहित आचारांगसूत्र प्रथम स्कंधनी श्रीवाहरिगणिए करेल सहायथी श्रीशीलांक आचार्ये तत्वादित्या एवा बीजा नामवाळी रचेली आवृत्ति संपूर्ण थइ. सूत्रम् ||८५३ ।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥८५४॥ ॥८५४॥ ΑφφφφφφφR ಔgggbgggggggggggggggggggggggggggggggggx इति श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंदृव्धनियुक्तिसंकलिताचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य घृत्तिः श्रीवाहरिगणिविहितसाहाय्यकेनं श्रीशीलाझाचार्येण तत्त्वा दित्यापराभिधानेन विहिताऽऽयाता संपूर्तिम् । πφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφής HODowMpps Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषा० सूत्रम् ॥८५५॥ Vill८५५॥ स्कंध २ जो (अध्ययन पांचमुं) जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत । न्यत्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थ तीर्थाधिपर्नुतम् ॥१॥ । अनादि, अनंत काळ रहेनालं, अनेक गुण रत्नोथी भरेलु, बधा मतवाळाने सीधे रस्ते लावनार अने नीर्थकरोए नमस्कार करेलु ए, तीर्थ (जैन शासन ) जयवंतु वर्ने छे, नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नाचितांइये ॥२॥ सदाचार बतावनाराअने नमेलाबधा देवताओना मुकुटना रनोथी जेना पग पूजीत छे. एवा श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार थाओ. आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः, । भवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम् ॥ आरिप्सितेऽर्थे गुणवान कृती सदा । जायेत निःशेषमशेषितक्रियः॥३॥ आचारांग सूत्ररूप मेरुपर्वतनी चूलिका समान आ चूलिकामा जे थोडो विषय आवेल छे, तेने थोडामां कहुं छ कारण कारण के हमेशा कृत्य करनारो गुणवान पुरुष आरंभेला इच्छित अर्थमां वाकी रहेली क्रिया करवाधीज संपूर्णपणा(नी अर्थसिद्धि)ने पामे छे. नव ब्रह्मचर्यअध्ययनरूप आचार प्रथम श्रुतस्कंध कह्यो, हवे अग्रश्रुतस्कंध आरंभे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. पूर्व आचारना परिमाणने बतावतां कह्यु के-- नववंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयग्गेणं ॥१॥ नव ब्रह्मचर्यवाळो, अढार हजार पदवाळो पंच चूला सहित पदोना अग्रवडे घणो.घणो आ वेद (जैनागाम)आचारांग थाय छे. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८५६॥ ॥८५६॥ तेमां प्रथम स्कंधमां नव ब्रह्मचर्य अध्ययनोने कह्यां, अने तेमां पण समस्त विवक्षित अर्थ कयो नथी अने कहेलो विषय पण ५ संक्षेपथी कह्यो छे, जेथी न कहेवायेला विषयनो कहेवा माटे तथा संक्षेपमा कहेला विषयने विस्तारथी कद्देवा तेना अग्रभूत (मुख्य) चार चुडाओ पूर्वे कहेला विषयनो संग्राहिकज अर्थ बतावे छे, तेथी ते अर्थवाळो आ बीजो अग्रश्रुत स्कंध छेः एथी आवा संबंधे है आवेला आ स्कंधनी ब्वाख्या कहेवाय छे. नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्य अग्रना निक्षेपा बतायवा नियुक्तिकार कहे छे. सवध दव्यो(१) गाहण(२) आएस(३) काल(४) कम(५) गणण(६) संचए(७) भावे(८)। अग्गं भावे उ पहाण(१) बहुय(२) उवगारओ(३) तिविहं ।। नियुक्ति गाथा, ।। २८५ ।। द्रव्य अग्र बे प्रकारे छे, आगम अने नोआगम विगेरे छे. ते सिवाय व्यतिरिक्तमां द्रव्याग्र सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्यना वृक्ष (झाड) कुंत [भाला] विगेरेनो जे अग्रभाग छे ते लेवो. अवगाहना अग्र जे जे द्रव्यनो नीचलो भाग अवगाहना करे ते अवगाहना अग्र छे. जेमके मनुष्य क्षेत्रमा मेरु छोडीने वीजा पर्वतोनी उंचाइनो चोथो भाग जमीनमा दटायेलो छे अने मेरु पर्वतनो एकद*जार जोजन भाग दटायेलो छे. आदेश अग्र-आदेश कराय ते आदेश छे अने ते व्यापारनी नियोजना छे. अहीं अग्र शब्द परिमाण वाची तेथी ज्यां परिमित पदार्थोनो आदेश देवाय ते आदेश अग्र छे. ते आ प्रमाणे-त्रण पुरुषोवडे जे कृत्य कराय छे अथवा तेमने जमाडे छे. कालाग्र-अधिकमास छे. अथवा अग्र शब्द परिमाणवाचक छे, तेमां अतीतकाल अनादि छे, अनागत [आवनारो] भविष्य है काळ अनंत छे अथवा सर्वद्धा-संपूर्ण काळ छे. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥८५७॥ आचा क्रमाग्र-परिपाटीवडे अग्र ते क्रमाय छे. आद्रव्यादि चार प्रकारनुं छे, तेमां द्रव्याग्र ते एक अणुथी बे अणु अने बे अणुथी है |त्रण अणु विगेरे छे. क्षेत्राग्र-एक प्रदेशना अवगाढथी बे प्रदेशना अवगाढ सुधी, चे प्रदेशना अवगाढथीत्रण प्रदेश अवगाढ विगेरे छे.. ॥८५७॥ कालाग्र-एक समयनी स्थितिथी बे समयनी स्थिति सुधी, वे समयनी स्थितिथी त्रण समयनी स्थिति सुधी. भावान-एक गुण काळाशथी वे गुण-काठगश, वे गुण काळाशथी त्रण गुण काळाश विगेरे छे. गणना अग्र-सख्या धर्म स्थान ते, एक स्थानथी वीजा दश स्थान सुधी ते दश गुणो जेम एक-दश-सो-हजार. . संचय अग्र-संचित द्रव्यना उपर जे छे, ते ताम्र उपस्कर सचित्तना उपर शंख छे. भावाग्रना प्रण प्रकार-१ प्रधान अग्र, २ प्रभूत अग्र, ३ उपकार अग्र, तेमां प्रधान अग्र सचित्त, अचित्त, मिश्र-एम दत्रण प्रकारे छे. सचित्त पण चे पगवाळां चार पगवाळां अपद विगेरे त्रण भेदें छे, तेमां द्विपदमां तीर्थङ्कर, चोपदमां सिंह, अपदमा कल्पवृक्ष छे. अचित्तमां बैडुर्य विगेरे, मिश्रमां तीर्थरज दागीनाथीज अलंकृत होय ते, प्रभूत अग्र ते अपेक्षा राखनार छे. जेमके “जीवा पोग्गल समया दव्य पएसा य पज्जवा चेव । थोवाऽणताणता विसेसमहिया दुवे पंता ॥१॥" १ जीव, २ पुद्गलो, ३त्रणे कालना समयो, ४ द्रव्यो, ५ प्रदेशो, ६ पर्यवो. १ स्तोक [थोडा], २ अनंत गुणा, ३ अनंत गुणा, ४ विशेषअधिका बे' अनंता [अनंत अनंत गुणाः] आ बधामां एक पछी एक अमछे, अने पर्याय अन तो सौथी अनछे, उपकार अन तो पूर्वे कहेला विस्तारथी अने न कहेला बताववाथी उपकारमा वर्ते छे, जेमके Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्रमा जे विषय कहेवानो बाकी रह्यो होय ते चुडामां कद्देवाय-एवी चे चुडा दशवकालिकमा छे. अथवा उप-13 आचा०६ फार अग्र ते आ आचार श्रुतस्कंधनी चुडानो विषय छे अने तेथी उपकार अग्रनुज अही प्रयोजन छे, अने ते नियुक्तिकार कहे छे. आचा० सूत्रम् उवयारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाई तु । रुक्खस्स य पन्चयस्स य जह अग्गाई तहेयाइं ॥ २८६॥ ॥८५८॥ ॥८५८॥ आपणे अहींया उपकार अग्रथी अधिकार [भयोजन] छे. कारण के आ चूडाओ आचारागसूत्रना उपर वर्ते छे, एटले आचाराङ्गना विषयनेज विशेष खुलासाथी कहेवा आ चूडाओ गोठवायेली छे,जेमके वृक्षने अग्र टोच होय छे,तथा पहाडने टोच (शीखर)होय &छे अने बाकीना अग्रना निक्षेपार्नु वर्णन तो शिष्यनी मति खीलववा माटे छे तथा तेने लीधे उपकार अग्र सुखेथी समजी शकाय.कयुछेके उच्चारिअस्स सरिसं, जं केणइ तं परूवए विहिणा। जेणऽहिगारो तमि उ, परूविए होइ सुहगेझं ॥१॥ म जे कहेवान होय तेना जेवा पदार्थो विधिए कहेवाथी जेनावडे अधिकार छे तेमां पण बीजा सरखा पदार्थो सांभळवाथी कहे वानो मुख्य पदार्थ पण सुखेथी ग्रहण कराय छे. तेमां हमणां आ कहे, जोइए के आ चूलाओ [अग्रभागो कोणे रची छे ? शा माटे ? अथवा क्याथी उद्धरी ते त्रणनो खुलासो करे छे: थेरेहिऽणुग्गहट्टा सीसहि होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्यो आयारंगेसु पविभत्तो ॥ २८७॥ श्रुतज्ञानना पारंगामी वृद्ध पुरुषो जे चौद पूर्वी छे तेमणे आरची छे, तथा शिष्यना उपर अनुग्रह लावीने के एओ सहेलथी समजे. तथा अप्रकट (गुह्य) अर्थ खुल्लो थाय 'माटे आचारांग सुत्रमाथी आ वधा विषयोने विस्तारथी कह्यो छे. हवे जे अध्ययनमांथी जे अधिकार लीयो छे. ते विभाग पाडीने कहे छे, 12555555555 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८५९॥ बिइअस्सय पंचमए अट्टमगस्स विइयंमि उसे । भणिओ पिंडो सिज्जा वत्थं पाउग्गहो चैवं ॥ २८८ ॥ पंचमगस्स चत्थे इरिया वणिज्जई समासेणं । छट्टस्स य पंचमए भासज्जायं वियाणाहि ॥ २८९ ॥ ब्रह्मचर्यनां नवे अध्ययनोमांथी बीजुं लोकविजय अध्ययन छे. तेना पांचमां उद्देशामां आ सूत्र छे, “ सव्वाम गंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए. " तेमां आम शब्दधी हणवु हणाववु, हणताने अनुमोदवु ए त्रण कोटी लीधी छे. गंध शब्द लेवाथी बीजी प्रण लीधी छे. आ छए अविशुद्ध कोटी छे ते नीचे प्रमाणे छे. हणे हणावे हणताने, हणताने अनुमोदे, रांधे रंधावे रांधताने अनुमोदे ते छ छे. तथा ते अध्ययनमांज आ सूत्र छे. " अदिस्समाणो कयविकरहिं " आ सूत्रथी त्रण विशोधि कोटी लीधी छे. खरीद करे, खरीद करेरावे अने खरीद करनारने अनुमोदे ते त्रण छे, तथा आठमा विमोह (विमोक्ष) अध्ययनना वीजा उद्देशामां आ सूत्र छे भिक्खू परकमेज्जा चिट्ठेज्जवा निसीएज्ज वा तुयट्टिज्ज वा सुसाणंसि वा " इत्यादि थी लइने “वडिया विहरिज्जा तं भिक्खु गाहावती उवसंकमितु वएज्जा अहमाउसंतो समणा ! तुब्भट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताईं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामीचं" इत्यादि, आ बधांने आश्रयीने ११ पिंडेषणाओ रची छे, तथा तेज बीजा अध्ययनमां पांचमा उद्देशामां आ सूत्र छे, से वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कडासणं ” इति, तेमां वस्त्र कांबळ पादपुंछन लेवाथी वस्त्र ऐषणा लीधी. पात्रां |लेवाथी पात्रेपणा लीघी छे, अवग्रह शब्दथी अवग्रह (इंद्र विगेरेनो पांच प्रकारनो) छे ते लोधी कटाशन लेवाथी शय्या लीधी, सूत्रम् ॥८५९ ॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८६०॥ * तेज प्रमाणे पांचमुं अध्ययन आवंति' नामन छे, नेना चोथा उद्देशामां आ सूत्र छे, "गामाणुगाम दुइज्जमाणस्त दूजाय दुप्परिकंत 13 | इत्यादि" आ सूत्रथी 'इर्या.' समिति संक्षेपथी वर्णवी. तेथी इर्या अध्ययन रच्यु छे. तथा छठा अध्ययनना पांचमा उद्देशामां आ सूत्रम् सूत्र छे, “आ इक्खइ विहयइ किट्टई धम्मकामी" आथी भाषा जात अध्ययन रच्युं छे तेम तुं जाण.॥२८९।। ॥८६०॥ सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जुदाई महापरिनाओ। सत्थपरिन्ना भावण निज्जूढा उ धुय विमुति ॥ २९॥ 'आयारपकप्पो पुण पञ्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधिज्जा वीसइमा पाहुडच्छेया ॥ २९१ ॥ तथा महापरिज्ञा नामना-सातमा अध्ययनमा सात उद्देशा हता, तेमांथी एकेक लेवाथी सात लीधा छे. तथा शस्त्र परिज्ञामांथी भावना अधिकार लीधो छे, तथा धुतअध्ययनना वीजा चोथा उद्देशामांथी विमुक्ति अध्यपन लीधुं छे. ॥९॥ तथा आचार प्रकल्प ते निशीथसूत्र छे अने ते प्रत्याख्यान पूर्वनी त्रीजी वस्तु छे तेमां २० मुं पाहुइ आचार नामनुं छे &ा तेमांथी लीधेल छे. (आ पांचमी चूडा जुदी पाडी छे.) ब्रह्मचर्यनां नव' अध्ययनोथी आचार अग्र (चूलिकाओ) रचेल छे. एथी नियुहन [रचवा] ना अधिकारथीज ते शखपरिक्षा अध्ययनथीज ते आचार अग्र (चूला) रची छे, ते वतावे ." - अन्बोगडो उ भणिओ सत्यपरिन्नाय दंडनिक्खयो। सो पुण विभज्जमाणो तहा तहा होइ नायन्यो । २९२॥ अव्यक्त दंड निक्षेपो हतो ते वताव्यो छे, एटले प्राणीओने पीधारूप जे दंड छे, तेनो निक्षेप (परित्याग ) छे, अर्थात संयम छे, ते शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमा गुप्त रीते को हतो, नेथी ते संयमनेज जुदा जुदा भाग पाडीने आठे अध्यनमा अनेक ॐ*-*-35ॐ " ALIG मारकर Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८६१॥ आचापकारे वर्णव्यो छे, एम जाणवू. सूत्रम् -आ संयम संक्षेपथी कहेलो छे, ते केवी रीते विस्तारथी कहेवाय छे ? ते कहे छे. .. एगविहो पुण सो संजमुत्ति अज्झत्थ बाहिरो य दुहा । मणवयणकाय तिविहो चउन्विहो चाउनामो उ ॥२९३॥ 11८६१॥ __ अविरतिनो त्यागरूप एक प्रकारनो संयम छे अने तेज आध्यात्मिक [अभ्यंतर] अने बाह्य एम वे भेद-थाय छ, भने मन वचन कायाना योगना भेदथी त्रण प्रकारनो छे, तथा चार महाव्रतना भेदथी चार प्रकारनो छे, पंच य महब्बयाईतु पंचहा राइभोभणे छट्ठा । सीलंगसहस्साणि य आयारस्सप्पवीभागा ।। २९४ ॥ । पांच महाव्रतना भेदथी पांच प्रकारनो अने रात्रिभोजन विरमण मेळवता छ प्रकारे छे, ए प्रमाणे अनेक प्रक्रियाथी भेद पाडेला १८ हजार शीलांगना भेद सुधी परिमाणवाळो संयम थाय छे. .. म०-पण आ संयम केवो छ ? उ-ते प्रवचनमां पांच महाव्रतना भेद तरीके वर्णवाय छे ते कहे छे. . आइक्खिउं विभइ विनाऊं चेव सुहतर होइ । एएण कारणेणं महन्बया पच पन्नत्ता ।। २९५ ॥ पंच महाव्रतरूपे व्यवस्थापेलो होय, तो सुखेथी कहेवाय अने शिष्यने सुखेथीज समजाय, ए कारणथीज पांच महावतो बतावेछे, अने ए पांच महावतो अस्खलित (संपूर्ण होय तोज फलवाळा (सिद्धि आपनार) थाय छे, तेयी तेनी रक्षामां यत्र करवो,ते कहे छे. तेसिं च रक्खणट्टा य भावणा पंच पंच इक्केि । ता सत्यपरित्रए, एसो अन्भितरो होई ॥ २९३॥ ते महाव्रतोनी दरेकनी पांच पांच वृत्ति समान भावनाओ छे, ते वधी आ बीजा अग्रश्रुत स्कंधा कहेवाय छे, एथी आ४ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ८६२॥ 15 शत्रपरिक्षा अध्ययनमां अभ्यंतर थाय छे ., जा भाषा हवे चूडाओनुं यथास्व (पोतान) परिमाण कहे छे. . . .जावोग्गहपडिमाओ पढमा सत्तिकगा विइअचूला । भावण विमुत्ति आयारपक्कप्पा तिन्नि इअ पंच ॥ २९७ ॥ 'n८६२॥ 18 पिढेपणा अध्ययनथी आरंभीने अवग्रह प्रतिमा अध्ययन सुधीमां सात अध्ययनोनी पहेली चूडा छे, सात सातनी एकेक ए बीजी चूडा छे, भावना नामनी त्रीजी छे, अने विमुक्ति नामनी चोथी चुडा छे. आचार प्रकल्प निशीथ छे, ते पांचमी चुडा छ, ते चुडानो नाम विगेरे निक्षेपो छ प्रकारनो छे. नाम स्थापना सुगम छे, द्रव्य चुडा व्यतिरिक्तमां-सचित्तमां कुकडानी, अचित्तमां मुकुटना चुडानी मणि छे. मिश्रमां मयूरनी छे, क्षेत्र चुडामा लोक निष्कुट रुप छे, काल चुडामा अधिक मासना स्वभाववाळी, अने प्रभाव चुडामां आज चुडा छे. कारण के ते क्षायोपशमिक (श्रुनज्ञान) मां वर्ते छे. आ सात अध्ययन रूप छे, तेमां प्रथम अध्ययन 31 पिढेपणा छे, तेना चार अनुयोगद्वार छे. नामनिष्पन्न निक्षेपामां पिंडेपणा अध्ययन छे, तेना निक्षेपद्वारे सर्वे पिंड नियुक्तिओ अहीं कहेवी, हवे सूत्रानुगममा अस्खलित विगेरे गुण युक्त मूत्र उच्चारलु जोइए, ते कहे छे. से मिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविटे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहि वा वीएहिं वा हरिएहि वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएणवा : ओसित्तं रयसा वा परिघासियं वा तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा परहत्यसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिजति मन्त्रमाणे लाभेवि सं नो पटिग्गाहिज्जा ।। से य आहच्च पडिग्गहे सिया से तं आयाय RECORDER-RHok * * * * Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंबा० १८६३ ॥ एतमवकमिज्जा एगतमयकमित्ता आहे आरामंसि वा अहे उवस्पयंसि वा अप्पंडे अप्पपाने अप्पत्रीए अप्पहरिए अपोसे अदर अर्त्तिगपण गदगमट्टियम कडासंताणए विर्गिचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तभ संजयामेव - जिज्ज वा पीइज्ज वा, जं च नो-संचाइज्जा अत्तए वा पायएवा से तमायाय एगतमवकमिज्जा, अहे झामथंडिलंसि वा अहिरासिंसि वा हिरासिंसि वा तुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा अम्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि • पडिलेंहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव परिद्वविज्जा ।। (मू० १) ( से शब्द मगध देशमां पहेली विभक्तिना निर्देशमां वपराय छे. तेथी) जे कोइ भिक्षाथी निर्वाह करनार भावभिक्षु मूळ उच्चरगुण धारना विविध अभिग्रह (तपविशेष ) करनारो उत्तम साधु होय अथवा साध्वी होय, ते भावभिक्षु के साध्वी अशाता वेद-' नीय - विगेरेना कारणोथी आहार ग्रहण करे छे, ते बतावे छे. अण १ वेआवच्चे २ इरियट्टाए य ३ संजमठ्ठाए ४ तह पाणवत्तियाए ५ छ पुण धम्मचिंताए । १ ॥ ܙܕ १ अशाता वेदनिय कर्मदुर करवा. २ वीजा साधुओनी वेआवच्च करवा ३ इर्या समिति पाळवा माटे, ४ संयम पाळवा माटे ५ जीवित धारण करवा ६ अने धर्मचिंतन करवा माटे आहार ठेवाय छे, उपर बतावेला कारणोमांथी कोइपण कारणे आहारनो अर्थी बनीने गृहस्थना घरे जाय, म. शामाटे ? उ० 'पिंडवाय पडियाए ' भीक्षा ( नो लाभ तेनी प्रतिज्ञा ते ) अहीं मने मळशे, तेथी त्यां पेसीने अशन विगेरे जाणे, केवी रीते? ते कहे छे. माणि ते '२ सजा ' (वासी पाणीवाळा रांधेला अनाजमां बेइंद्रिय विगेरे शीष्णा जीव उत्पन्न थाय छे ते) देखीने ते जीवो होय तो गोचरी न लेवी, तेज प्रमाणे पनक (उल आवे छे ते) -सूत्रम ॥८६३ ॥ 1 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८६॥ भोवी, तथा घना दाणा विगेरे अदकेल होय, इरिन ते दरो जुन्दार विगेरे अंकुरावाडं लीलं घास होय, तेनी साथे मिश्र थइ गयु _ . होय, तथा काचा पाणीथी भींजायलं होय, अथवा सचिच रजथी परिएंटित (खरडायेलं.) भोजन पाणी खादिम के खादिम होय रस ते पारे भकारनो आहार देनारना हाथमां होय के गृहस्थना वासणमां होय, ते सचित्त अथवा आधाकर्म विगेरे दोपथी अनेपणीय (दोपित) होय एy जाणे तो ते भावभिक्षु मळतुं होय, तो पण न ले, आ उत्सर्गनी विधि छे, हवे अपवादनी विधि कहे छे. के द्रव्यादि एटहे द्रव्य क्षेत्र काळ भाव विचारीने जरुर पढतां लेबु पढे तो ले पण खरो ते बतावे छे, द्रव्यथी ते द्रव्य जरुरनु हो । * अने पीजे मळवू दुर्लभ होय, तथा क्षेत्रथी ते बधा साधुने साधारण गोचरी मळे तेम न होय एटले लोको दृष्टि रागी होय विशेषथी अन्यदर्शनीना रागी होय ? कालथी दुकाल विगेरे होय. अने भावथी ग्लान मिंदवाड] विगेरे होय, विगेरे कारण सो गीतार्थ साधु लाभ विशेप होय अने दोप ओछो लागतो होय तो ते ले. * पळी कोइ वखत अजाणपणे जीवातवालं अथवा जीव उत्पन्न थाय (तेवु विदळ विगेरे) उन्मिश्र भोजन विरे र तो तेनी परव्यवानी विधि कहे छे." से अहच इत्यादि " एटले कोइवार उपयोग राखवा छतां पण भूलथी ओचिं विगेरे भोजन लेवायु होय तो, ते 'अनाभोग' देनार, लेनार ए येना भेदथी चार प्रकारनो थाय छे, [जेमके (१) साधुनो उप-५ योग होय गृहस्थनो न होय, [२] ग्रहस्थनो उपयोग होय साधुनो न होय, [३] वन्नेनो उपयोग न होय; (४) वन्नेनो उपयोग : होय. आयो आहार अशुद्ध आवेलो जणाय तो ते आहार लइने एकांतमा जाय, एटळे ज्यां गृहस्थ लोक.देखे नहि, तेम आवे । पण नदि, ते एकांत स्थळ अनेक भकारनुं होय छे. ते बताये छे. :14 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८६५॥ * आराम, उपाश्रय ( अथ शब्द लोक आवता न होय तेवो विशिष्ट प्रदेशना संग्रह माटे छे.) अथवा शुन्यगृह विगेरे स्थळ होय ते स्थळ के होय, ते कहे छे. ( अल्पशब्द अभाववाचक छे.) ज्यां इंडा न होय, बीज, हरित, ठार. काचं पाणी, तथा उतिंग, सूत्रम् | घासना अग्र भागे पाणीनां बिंद होय ते, पनक लीलण फुलण होय, वधारे पाणीथी भींजायेली माटी होय, मर्कट ते सूक्ष्म जीव | Inc६५|| अथवा करोलीयानां जाळां जेमां तेना वच्चा होय छे, ते दरेक जीवथी रहित आराम विगेरे स्थळे जइने पूर्व लीधेला आहारमा जे जीव मिश्रित होय ते देखीदेखीने अशुद्ध आहारने त्यागवो, अथवा भविष्यमां जीव थाय तेवू साथवो विगेरे होय तेमां जीवो जोइजोइने तेनुं भोजन दूर करीने खावा जेवु वाकी शुद्ध रधु होय ते बरोबर जाणीने पोते रागद्वेष छोडीने खाय अथवा पीए कड्यु छे के वायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! ण हु छलिओ । इण्डिं जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥ वेताळीस दोष गोचरीना छे. तेना संकटमां हे जीव ! तुं प्रथम ठगायो नथी, तेम हवे पण गोचरी करतां रागद्वेष वडे ठगातो नहीं।। रागेण सइंगालं दोसेण सधमगं वियाणाहि । रागद्दोसविमुको भुंजेजा निजरापेही ॥२॥ 'रागथी अंगार दोष थाय छे, उपवडे धुम्र दोष लागे छे, माटे रागद्वेषथी रहित बनी सकामनिर्जरानी इच्छा राखी गोचरी करजे! अने जे आहार विगेरे खावामां के पीवामां वधारे होय ते न खवाय, अथवा अशुद्ध पृथक् करवू अशक्य होय तो परठवबुं & जोइए, तेथी ते भिक्षु तेवा वधेला के अशुद्ध आहारने लेइने एकांतमा जाय, एकांतमा जइने ते आहारने परठवे, हवे ज्यां परठवे, ते बतावे छे ( अथनो अर्थ पछी छे, वा नो अर्थ अथवा छे) [ झामेति ] बळेलुं स्थान, [इंटना निभाडानी जग्या ] अथवा अस्थि अचित्त ठनीयाना ढगलामां कीट, (लोदानो काट )ना ढगलामां, अथवा तुपना ढगलामा मूका अढायां, के तेवा कोइपण ढगलामां * * * * * Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० पूर्वे वतावेल फासु जग्यामां जइने त्यां वारंवार आंखे जोइने रजोहरण विगेरेथी पुंजीपुंजीने परठवे. प्रत्युपेक्षण अने प्रमार्जनने । आश्रयी भांगा थाय छे.. द सूत्रम् (१) अप्रत्युपेक्षित अममार्जित, (२) अमत्युपेक्षित प्रमार्जित (३) प्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित. तेमां पण देख्या विना प्रमार्जन करतो ॥८६६॥ 5 एक स्थानथी वीजा स्थाने जतां त्रस जीवोने विराधे छे. अने देखीने पूज्या विना आवता पृथ्वीकाय विगेरेने विराधे छे, बाकीना ॥८६॥ ५ चार भांगा नीचे मुजब छे. (४) खराब रीते देखेखें अने पुंजेलं [५] खराव रीते देखेलुं बरोबर पुजेलं (६) सारी रीते देखेलं खराब रीते पुजेल (७) सारी रीते देखेखें, सारी रीते पुंजेल. तेथी आ सातमा भांगामां बतावेली रीतिए स्थंडिल जोइने उत्तम साधु उपयोग राखीनेज है। शुद्ध अशुद्ध पुंजना भागो परिकल्पीने त्यजे [परठवे] हवे औषधिनी विधि कहे छे. ‘से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ० जाव पवि? समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अवुच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडिं अणभिकंतभज्जियं पेहाए अफासुयं अणेसणिज्जति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ॥ से भिक्खू वा० जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा-अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवार्डि अभिकंतं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिजति मन्त्रमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा ॥ (मू०२) GROUGRAHASRHADRs Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P4% %% आचा० ते भावभिक्षु गृहस्थना घरमां गयेलो होय, त्यां शालीबीज विगेरे औषधि होय तेने आ प्रमाणे जाणे के आ वधी हणायेली सूत्रम् & नथी [सचित्त छे] आमां पण चोभंगी छे, तेमां द्रव्यकृत्स्ना ते अशस्त्र उपहत [शस्त्रथी हणायेली नथी,] भावकृत्स्ना ते सचित्त | ॥८६७॥ छे. तेमां कृत्स्ना आ पदबडे चार भांगामांना पहेला त्रण लेवा, एटले द्रव्यथी तथा भावथी बन्ने प्रकारे अचित्त थयेली होय ते ||11८६७॥ चोथो भांगो लेवो कल्पे. बाकीना त्रण भांगावाळी न कल्पे. & "सासियाओ" ति-जीवन स्वपणुं ते उपजवानुं स्थान प्रत्याश्रय जेमां छे, ते स्वाश्रय छे. अर्थात् अविनष्टयोनिवाल्लं अनाज & छे, अने आगममां पण केटलीक औषधि (अनाज) नो अविनष्ट योनिकाल बताव्यो छे, ते आ प्रमाणे-"एतेसिणं भंते ! सालीणं के बइअं कालं जोणी संचिटई" ? एवा सूत्र पाठो छे, गौतमस्वामी प्रछे छे के हे भगवन् आ कमोदनी योनि केटलो काळ सचित्त । IFI (उपजवा योग्य) छे. विगेरे 'अविदल कडाओ' शि-ज्यांमुधी बे फाडचां उपरथी नीचे सुधी सरखां न कर्या होय अर्थात् दाळ न बनावी होय. [कठोळनी पाये दाळ सर्वत्र बने छे] 'अतिरिच्छच्छिन्नाओ' चि-कंदली करेली न होय ते. ए द्रव्यथी कृत्स्न हा (आखी) छे अने भावथी सचित्त होय के न होय. तेज प्रमाणे “अवोच्छिनाओ" ति-जीव रहित न थइ होय, ते अर्थात् भावथी कृत्स्न (आखी सचित्त) होय, तथा 'तरुणियं | लावा छिचार्डि' त्ति-अपरिपक्व मग विगेरेनी शींग फळी] तेनुंज विशेष कहे छे. 'अणभिकंत भज्जिय' चि-जीवितथी अभिक्रान्त टा न होय अर्थात् सचिच होय तथा 'अभजिय' अमर्दित 'अविराधित' होय आ प्रमाणे आवो आहार खावायोग्य होय, पण ते अमासुक अथवा अनेषणीय पोते देखीने सचिच जाणतो होय तो, गृहस्थ आपे तो पण पोते सचिनने ग्रहण करे नहि, हवे तेथी उलटुं ॐCRee Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ૧૮દ્રા KOSTOGOST5650-499X सूत्र कहे छे. ते भावभिक्षु तेवी औषधिने असंपूर्ण टुकडा थएली अने अचित्त थयेली विनष्टयोनिवाळी दाळ बनावेली कंदली करेली तथा फळी अचित्त थयेली अने भांगेली होय अने ते मासुक अने एपणीय (लेवायोग्य) होय अने गृहस्थ आपे तो कारण होय तो सूत्रम् साधु तेने ले, लेवायोग्य अनें न लेवा योग्यना अधिकारवाळा आहार विशेषमुंज कहे छे: | i૮૬૮ से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सइ संभज्जियं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ।। से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भजियं दुक्खुतो वा तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिज्जं जाव पडिगाहिज्जा।[मृ०३] ते भावभिक्षु गृहस्थने घेर गयेलो पृथुक शाली तथा वरीने शेकीने धाणी बनावे, तेमां तुप विगेरेनी बहु रज होय, तथा घउं| विगेरेने भुंजेला (अडधा शेकेला) होय एटले एक वाजुथी के छेडा नरफथी शेक्या होय, अथवा तल, घउं विगेरे शेक्या होय || तथा घर विगेरे चूर्ण बनावी शेकेल होय अथवा शालीत्रीहीना तांदळा, अथवा तेनीज कणकी (चाउल पलंब) होय आq कोइपण जातनुं अनाज विगेरे एकवार थोडु शेक्युं होय, थोडं बीजा शस्त्रवडे मरडेलुं कुटेलं होय पण ते जो अमासुक अने अनेषणीय पोते BI मानतो होय तो तेवू अन्न ले नहि एथी विपरीत होय तो ते लेवु एटले अग्नि विगेरेथी वारंवार शेक्यु होय, अथवा पूरेपुरुं कुटयु | होय, अने अधकाचु विगेरे दोषवाळु नहोय; अने मासुक होय तेवी खात्री थाय तो लाभ थतां जरुर होय तो साधु ग्रहण करे. हवे गृहस्थना घरमा पेसवानी विधि कहेछे.से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविसिउकामे नो अन्नउथिएण वा गारथिएण वा परिहारिआ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॐ ॥८६९॥ ॐSHRSHASHRS वा अपरिहारिएणं सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा ॥ से भिक्खू वा० वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा नो अनउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धि बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमिज वा पविसिज वा ।। से भिक्खू वा० " . गामाणुगाम दूइज्जमाणे नो अन्नउत्थिएण वा जाव गामाणुगामं दृइजिजा (मू०४) . ते साधुए मृहस्थना घरमा प्रवेश करवो होय तो 'आटला माणसो साथे न जवू, अथवा पूर्वे ते पेठो होय तो, तेनी साथे न नीकळवू, तेमनां नाम बतावे छे. (१) अन्य तीर्थिक ते लाल कपडा राखनारा बावा विगेरे. गृहस्थो-भीखना पिंड उपर जोवनारा ब्राह्मण विगेरे. तेमनी साथे पेसतां नीचला दोषो थाय छे, जो पाछळ चाले तो तेओनी करेली इर्या प्रत्ययनो कर्मबंध लागे-जी वरक्षा न थाय, तथा जैनशासननी निंदा थाय, तथा तेओनी जातिमा अहंकार थाय के आवा साधुओ पण अमारी पाछळ चाले ४ "छे! ते प्रमाणे कदाच साधु आगळ चाले तो तेओने द्वेष 'उत्पन्न थाय, अथवा देनार असरल स्वभावी होय तो तेने द्वेष थाय, M अने वस्तु बहेंचीने आपेतो खराब बखतमां पूरो आहार न मळतां जीवननिर्वाह न थइ शके, तेज प्रमाणे परिहरण ने परिहार छे, ते परिहार सहित चाले, ते 'पारिहारिक' एटले पिंडदोप त्यागवाथी उद्युक्तविहारी (उत्तम) साधु छे, तेवा उत्तम गुणवाळा साधुए पासत्या, अवसन्न कुशील, संसक्त, यथाछंद एवा पांच प्रकारना कुसाधु साये गोचरी न जवू, तेमनी साथे जतां अनेषणीय गोचरी आवे, अग्रहण दोष लागे एटले जो पासत्थो 'अनेषगीय' ले, तेवु साधु पण ले, तो तेनी' प्रवृत्तिनी प्रशंसानो दोष लागे, | अने जो न ले तो असंखड विगेरे' दोषो याय, तेQ जाणीने गोचरी'लेवा माटे गृहस्थना घरमा तेवा साथे पेसे नहीं, तेम नीकळे ॥ RS * * Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण नहीं, तेवीज रीते तेमनी साथे बीजे पण जवानो निषेध करे छे. एटले साधुने स्थंडिल (विचार) भूमिए जq होय, अथवा आचा० व विहार (भणवा) ना स्थळे जq होय, तो अन्य तीथि विगेरे साथे दोषोनो संभव होवाथी न जवू, ते कहे छे स्थडिल साथे जता सूत्रम् प्रामुक जल स्वच्छ होय, अस्वच्छ होय, घणु के थोडं होय, तो तेनाथी जग्या स्वच्छ करतां उपघातनो संभव धाय, अथवा जोडे ॥८७०॥ भणवा जतां सिद्धांतना आलावा गणतां ते पतित साधुने तेवू न रुचवाथी विकथा करी विघ्न करे, ते भय छे अथवा सेह (नवा ॥८७०॥ शिष्य) आदिने असहिष्णुपणाथी क्लेशनो संभव थाय छे, माटे तेवा साथे साधुए तेवा स्थळमां जq-आवq नहि, तेज प्रमाणे ते भिक्षए एक गामथी बीजे गाम जतां के नगरथी बीजे नगर विगेरे स्थळे जतां उपर बतावेल अन्य तीथिओ विगेरे साथे दोषोनो & संभव होवाथी जवं नहि-कारण के मात्रुस्थडिल विगेरे रोकवाथी रोग थतां आत्मविराधन थाय, अने मात्रुस्थंडिल करवा जतां । मासुक, अप्रासुक ग्रहण विगेरेमां उपघात अने संयमविराधनानो संभव छे, एज प्रमाणे भोजन [ गोचरी] करतां पण दोषोनो | संभव समजवा, सेहादि विप्रतारण (शिष्यने कुमार्गे दोरववा) विगेरेनो दोष पण थाय. हवे तेमना दाननो निषेध करे छे. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा० जाव पविठू समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियंस्स असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपइज्जा वा ॥ [सू०५] ते साध गृहस्थीनाघरमा पेठेल होय, अथवा ते साधु उपाश्रयमांरहेल होय, तो ते साधुए अन्य तीथिओ विगेरेने दोपनो संभव होवाथी आहार पाणी विगेरे पोते आपq नहि, तेम गृहस्थ पासे पोते अपावq नहि, जो आपतां देखे तो लोको एवं माने के आ साध आवा अन्यदर्शनीओनी पण दाक्षिण्यतां (शरम) राखनारा छे. वळी तेमने टेको आपवाथी असंयममा प्रवर्तन विगेरेना दोषो थाय छे. करॐॐ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सूत्रम् ७१॥ आचा० पिंडना अधिकारथीज 'अनेषणीय' दोष संबंधी निषेध करवा कहे छे. से भिक्खू वा० जाव समाणे असणं वा ४ अस्सिपडियाए एगं साइम्मियं समुस्सि पाणाई भूयाई जीवाई ॥८७१॥ . सत्ताई समारब्भ समुदिस्स कीयं पामिञ्चं अच्छिज्ज अणिसष्टं अभिहडं आहे? चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा ४ पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा बहिया नीहडं वा अनीहडं वा अत्तहियं वा अणचहियं वा परिभुत्तं वा अप- ' रिभुत्तं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफामुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स चत्तारि आलावगा भाणियव्वा ॥ (मु०६). ते साधु गृहस्थने घेर गोचरी गयेलो होय ते नीचे बतावेला दोषोवालं अशन विगेरे न ले, 'असंपडियाए' ति--जेनी पासे | ख (द्रव्य) नथी ते अस्व (निग्रंथ) छे, एवा निग्रंथने कोइ भद्रक गृहस्थ जोइने विचार के आ निग्रंथ छे, माटे तेने माटे सचित्त * अनाज विगेरे आरंभ समारंभ करीने वहोरावीश, संरंभ, समारंभ ने आरंभर्नु स्वरूप आ प्रमाणे छे. संकप्पो संरंभो परियावकरो भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सम्वेसि ॥१॥ - संकल्प करवो ते संरंभ छे, परिताप करनारो समारंभ छे. अने उपद्रव करीने कराय ते वधा शुद्ध नयोमां आरंभ मुख्य छे, आ प्रमाणे समारंभ विगेरेने आचरीने आधाकर्म [साधु माटे रसोइ] बनावे, एनाथी बधी अशुद्ध कोटी लीधी तथा क्रीत-ते मूल्य है। Wआपीने लेवू; पामिच-ते उछीतुं लेबु, आछेद्य-ते बलजबरीथी छीनवी लेवू, अनिसृष्ट-ते तेना बधा मालीके मळीने न आपेलं चोलक' विगेरे छे; अभ्याइत गृहस्थे दुरथी लावी आपेलं, आq वेचातुं विगेरे लावीने आपे, आ वाक्यथी वधी विशुध्धकोटी Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** 3 लीधेली छे, ते आहार चारे प्रकारनो होय, ते आधाकर्म विगेरे दोपथी दोषित होय ते जो गृहस्थ आफे, ते वीजाए करेलु पोते ७ आचा० द आपे, अथवा पोते जाते करीने आपे, तथा घरथी नीकळेलु,' अथवा न नीकळ्यु होय अथवा ते दाताएज स्वीकार्यु होय, अथवा सूत्रम् न स्वीकार्य होय, अथवा ते दाताए घणु खाधुं होय अथवा न खाई होय अथवा थोडे चाख्यु होय अथवा न चाख्यु होय, आq । ॥८७२॥ ॥८७२॥ बधुं होय छतां जो ते अप्रासुक अनेषणीय पोताने मालुम पडे तो मळतुं होय छतां पण लेवु नहीं आ पहेला भने छेल्ला तीर्थकरना 18 साधुओने (अकल्पनीय) छे, पण २२ तीर्थकरोना साधुओने तो जेने उद्देशीने कर्यु होय तो तेने न कल्पे, वाकी बीजाने कल्पे, आ| प्रमाणे घणा साधुओने आश्री उद्देशीने बनावेलुं होय तो ते लेवु कल्पे नहीं, तेज प्रमाणे साध्वीओने आश्रयीपण चे मुत्रनी एकख बहुख योजना करवी. . हवे बीजा प्रकारे अविशुद्ध कोटीने आश्रयी कहे छे. .. से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहि किवणवणीमए पगणिय २ समुहिस्स पाणाई वा ४ समारब्भ जाव नो पडिग्गाहिज्जा ।। (मू०७) ते भावसाधु गृहस्थने घेर गोचरी गयेल होय त्यां एवं जाणे के आ घणुं भोजन विगेरे घणा श्रमणोने माटे बनाव्युं छे, ते ४ श्रमणो निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीविक ए पांच छे, तेमने माटे बनावेल होय, ब्राह्मण माटे अथवा भोजनना समय पहेलां जे मुसइफर आवे ते अतिथि माटे अथवा कृपण (दरिद्री) माटे वणीमक [भाट विगेरें] माटे उद्देशीने बनावेलुं होय, एटले बेत्रण श्रमण पांच छ ब्राह्मण, एम संख्या गणोने सचित्त वस्तुना आरंभवडे अचित्त रसोइ बनावी होय तो ते भोजन संस्कारवालं Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० खाधेलु के खाधा पछी बचेलं अथवा अप्रामक अनेषणीय आधाकर्मी भोजन मळत होय तीपणे जाणीने ले नहीं.. हवे विशोधि कोटी आश्रयी कहे छे. सूत्रम् ॥८७३॥ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा० जाव पवि? समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ वहवे समणा माहणा ॥८७३॥ अतिहिं किवणवणीमए समुदिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं वा. अबहियानीहडं अणत्तट्टियं अपरिभुत्तं अणासेविय अफासुयं अणेसणिज्ज जाव नो पडिग्गाहिज्जा अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं बहियानीहडं अत्तट्टियं परिभुत्तं आसेवियं फामुयं एसणिज्ज जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ (मू०८) ते साधु भोजन विगेरे आवा प्रकारनं जाणे के-घणाश्रमण ब्राह्मण अतिथि कृपण वणीमकने माटे उद्देशीने बनावेलुं छे, अने 21 कोइ गृहस्थ रसोद तैयार थया पछी आपे छे, तेवु भोजन तेज पुरुष त्यांज उभो रहीने पोताना कबजामा राखेखें, खाधाविनानु, वापर्याविनानु, अमासुक, अनेषणीय आपतो होय तो त्यां गयेला जैन साधुए तेवू जाण्या पछी ते न ले, ते “जावंतिया भिक्ख" सूत्रथी उलटुं हवे कहे छे, (अथ शब्द पूर्वनी अपेक्षाए 'पण' ना अर्थमां छे, पुनःशब्द विशेषणना अर्थमां छे,) पण ते भिक्षु एम जाणे के ते भोजन वोजा माटे करेलु छे, बहार आवेलुं छे, तेणे पोतार्नु करेलुं छे, तेणे खाधुं छे, वापर्यु छे, मासुक छे, एपणीय छे. आq जाणीने मळे तो ते भोजन साधुए लेवु, तेनो भावार्थ आ छे, के अविशोधि कोटीवाल्लं भोजन जेम तेम कर्यु होय तो ते न कल्पे, पण विशोधि कोटीवाल्लं पुरुषान्तर करेलु होय, अने तेणे पोतार्नु करेलु होय तो ते 'साधुने लेबु कल्पे छे, विशोधि18 कोटीनो अधिकार कहे छे. 5-4551255551 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥८७४॥ ॥८७४॥ से मिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिजा-इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिजइ अग्गपिंडे दिज्जइ नियए भाए दिज्जइ नियए अवभाए दिज्जइ. तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निइउमाणाई नो भत्ताण वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज वा ॥ एवं खलु तस्स भिम्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबहिं समिए सया जए [मू०९] तिबेमि ॥ पिण्डैपणाध्ययन आद्यांद्देशकः ॥ १-१-१॥ ते भिक्षुक गृहस्थीना घरमा जवानी इच्छावाळो आवां कुळो जाणे के, आ कुळोमां नित्य पिंड (पोष) अपाय ठे, तथा अग्रपिंड कमोदनो भात विगेरे प्रथमथी भिक्षामाटे स्थापीने अपाय छे, ते अग्रपिंड नित्य भाग अर्धपोष अपाय छे, तथा पोषनो चोथो है भाग अपाय छे, तेवा नित्य दानयुक्त कुल, नित्य दान देवाथी स्वपक्ष तथा परपक्षना साधुओ जाय छे. तेनो भावार्थ आ छे के, ॐ स्वपक्ष ते सयंत, परपक्ष वाकीना भिक्षुको ते बधा भिक्षामाटे जना होय, अने ते दानदेनारा एम समजे के घणा भिक्षुकोवे आपीए ४ | एथी घणो आरंभ करी तेओ छए कायनो आरंभ करे, अने थोडं रांधे तो बधाने अंतराय थाय माटे वधारे रांधे एवा स्थानमां | उत्तम साधु गोचरी माटे के पाणी माटे त्यां न जाय, हवे बधानो उपसंहार करे छे. प्रथमथी छेवटसुथी ते भिक्षुने समग्र जे उद्गम, उत्पादन ग्रहण एषणा संयोजना [प्रमाणथी वधारे] अंगार धुमकारणोवडे 13 समजीने सुपरिशुद्ध पिंड साधुओए लेवो, तेज ज्ञानाचार समग्रता दर्शन चारित्र तप अने वीर्याचार संपन्नता छे. अथवा आ सूत्रवडे समग्रता देखाढे छे, के जे सरस विरस विगेरे आहार मळे छे, तेनाथी अथवा रूप रस गंध स्पर्शवडे साधु समित छे. अर्थात, समभाव राखनार संयत छे, अथवा पांच समितिथी समित छे, शुभ- अशुभमां रागद्वेष रहित छे, आवो साधु हित साधवाथी सहित Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ८७५॥ छे, अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र सहित छे, आवो संयम युक्त साधु यतना करे (संयम पाळे) आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे के में भगवान पासे सांभळ्युं ते तमने कहुं, पोतानी मतिकल्पनाथी कां नथी. बाकी बधुं पूर्वमाफक जाणं. fister अध्यreat पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. पहेलो कहीने हवे बीजो उद्देशो कहे ते संबंधी विशुद्धकोटिने आश्रयी कहे छे. 2 बीजो उद्देशो. तेनोआ प्रमाणे संबंध छे. के प्रथम उद्देशामां पिंडनुं स्वरूप बतान्युं, अने अहीं पण सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ अहमपोसfree वा अद्धमासिएस वा मासिएस वा दोमासिएस वा तेमासिएस वा चाउम्मासिएस वा पचमासिएमु वा छम्मसिए वा उऊसु वा उउसंधीसु वा उउपरियट्टेसु वा बहवे समणमाहणअतिडि किवणवणीमगे गाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए तिहिं उक्खाहिं परिए सिज्जमाणे हा कुंभीमुहाओ वा कलोवाइओ वा सनिहिसंनिचयाओ वा परिए सिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव अणा सेवियं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं जाव सेवियं फायं पाहिज्जा ॥ ( मृ० १० ). सूत्रम् 1130411 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते भावभिक्षु आवा प्रकार भोजन विगेरे जाणे के, आठमनो पापध उपवास विगेरे ते अष्टमीपोषध ते जेमां होय ते अष्टआचा० हमीपौषध उत्सव छे, तेज प्रमाणे पंदर दिवसे आवनारो ठेठ ऋतुना छेडे आवनारो, विगेरे महिने बे महिने त्रण महिने चार महिने ५ सूत्रम् ॥८७६॥ छ महिने रुतुमां रुतुसंधिमां अथवा रुतु बदलाता कोइपण निमित्ताने उद्देशीने घणाश्रमण माहण अतिथि कृपणवनीमगोने एक पिठ-* एक पिठ- ॥८७६॥ रक (तपेलामां) थी भात विगेरे “परिएसिज्जमाण" आपेलाने खातां देखीने अथवा बेत्रण पिठरकथी अपातुं होय विगेरे जाणवं." आ 'पिठरक' ते सांकडा मोढानी होय तो कुंभी (चरु) छे, अने 'कलोवाइ' पिच्छी पिटक (देघडो) छे, तेमांथी कोइपणमांथी अपाय, अथवा संनिधि ते गोरस विगेरेनो संचय होय, तेमांथी अपातुं होय, ["तओ एवविहं जावंतियं पिंडं समणादीणं परिएसि जमाणं पेहाए"] त्ति आवो पिंड अपातो जाणीने तेज पुरुष साधु विगेरेने उद्देशीने बनावीने आपतो होय तो अप्रासक अपसणीय मानतो, मळतुं होय तो पण ते ले नहि, हवे अमुक विशेषणवाडं लेवा योग्य बतावे छे, एटले ते भिक्षु एवू जाणे के पुरुषांतर थयुं छे. एटले वीजा गृहस्थने तेनी महेनत बदल अथवा बीजा कारणे मळ्यु होय, अने ते पोते तेमांथी पोतार्नु थया पछी वहोरावे, तो एपणीय मासुक जाणीने पोते ले. हवे जे कुळोमां गोचरी माटे जq कल्पे तेनो अधिकार कहे छे से भिक्खु वा २ जाव समाणे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा, तं जहा-उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइनकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडागकलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा वुकासकुलाणि वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेस । *55554 । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् आचा० अदुगुछिएसु अगरदिएसु असणं वा ४ फासुय जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ (मु० ११) ते भिक्षु गोचरी जवा चाहे तो आंवां कुळो जाणीने तेमा प्रवेश करे, उग्रकुळ ते आरक्षिक [कोटवाकर्नु काम ते वखते कर-31 ॥८७७॥ नारा] भोगकुळ ते राजाने पूजवायोग्य होय, राजन्यकुळ ते राजाना मित्रतरीके हता, क्षत्रियकुळ राष्ट्रकुट विगेरेमा रहेनार, इक्ष्वाक ८७७॥ ते ऋषभदेवना वंशमां जन्मेला, हरिवंश ते नेमिनाथना वंशना, 'एसिगोष्ठ वैश्य (वणिज) गंडक ते नापित छे, जे गाममां उद्घोपणानुं काम करे छे, कोट्टाग (मुतार) बोकशालिय तंतुवाय (कपडां वणनारा) हवे क्यांसुधी कहेशे. ते खुलासो करे छे. के तेवां है कुलोमां गोचरी जq के ज्यां जवाथी लोकोमा निंदा न थाय, जुदा जुदा देशना दीक्षा लीधेला शिष्योने सहेलथी समजाय तेटला है ममाटे तेवा कुळोनां विशेषणो कहे छे, के न निंदवायोग्य कुळमां गोचरी जाय, एटले चामडातुं काम करनार मोची, चामडीया 2 दासदासी विगेरेना कुळमां गोचरी न जचु, पण तेनाथी उलटां सारां धर्मी कुळोमां ज्यां गोचरी निर्दोष प्रामुक मळे ते ले. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इदमहेस वा । खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुंदमद्देसु चा भूयमहेसु वा जक्खमहेसु वा नागमहेसु. वा थूभमहेसु वा चेदयमहेसु वा रुक्खमहेसु गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहणअतिदिकिवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज़माणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अवुरिसंतरकडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा ॥ अह पुण एवं जाणिज्जा Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनं जं तेसिं दायव्वं, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणि वा गाहावइपुत्तं वा धुर्य आचा० वा सुण्डं वा धाई वा दास वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरि वा से पुवामेव आलोइज्जा-आउसित्ति वा सूत्रम् भगिणित्रीि वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयण जायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ आहटु दलइज्जा ॥८७८॥ तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा पुण जा इज्जा परो वा से दिज्जा फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ (स० १२) ૮૭૮મા ते भिक्षु आ प्रमाणे वळी आहार विगेरे ४ प्रकारनो जाणे के आ वीजा पुरुषने अपायो नथी तो अनेषणीय अमासुक जाहीणीने पोते न ले, ते केवो आहार ते कहे छे. समवाय (मेळो) शंखच्छेदश्रेणी विगेरेनो पिंड निकर मरेलानी पाछळ पिंड अपाय छे. (गुजरातमां श्राद्ध कहेवाय छे) ते ॐ तथा इंद्रउत्सव [प्रथम कार्निकी पूर्णीमाए थतो] स्कंद ते कार्तिकस्वामीनो महोत्सव पूर्वे करातो रुद्र (महादेव) विगेरे जाणीता छे. | मुकुंद (वळदेव) एटले इन्द्र, स्कंद, रुद्र, मुकुंद, भूत, जक्ष, नाग, स्तुप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, दरि, अगड, तलाग, द्रह, नदी, सरोवर, सागर, आगर अथवा तेवा कोइ देव विगेरेने उद्देशीने कोइ महोत्सव करे त्यां जे कोइ श्रमण ब्राह्मण अतिथि कृपण वणीमग विगेरे आवे तेने आपवा माटे भोजन बनावे, तेवू जो कोइ जैनसाधु जाणे के ते रसोइ बनावनारना कबजामां छे, तो ते अशुध्धाय जाणीने न ले, जोके त्यां वधाने दान देवातुं न होय, तो पण त्यां घणा माणसो एकठा थयां होय, तेथी त्यां संखडी (रसोइखाना) आगळ आहार लेवा न जवं, तेज विशेषण सहित कहें छे वळी आवो आहार जाणे के जे श्रमण विगेरेने आपवर्नु होय तेने अपायुं छे, अने गृहस्थलोकोने त्यां खातां जुए, तो त्यां Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ८७९ ॥ जरुर होय तो आहार माटे जाय, ते गृहस्थोनां नाम कहे छे, जेमके गृहस्थोनी भार्या विगेरेने पूर्वे खातां जुए, अथवा मालिकने जुए, तो मालिकने उद्देशीने साधु बोले के हे आयुष्यमति ! हे बेन ! मने जे कंइ भोजन तैयार होय ते आप, आधुं साधु वोले छते कोइ गृहस्थ भोजन विगेरे लावीने आपे, अने त्यां घणो जनसमूह एकठो थवाथी अथवा तेवां वीजां कारण होय तो साधु पोतानी मेळे याचे, अथवा याच्याविना पण गृहस्थ आपे, अने ते मामुक एषणीय अन्न विगेरे जाणे तो ले. साधु हवे अन्य गामनी चिंता (विचार) ने आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा २ परं अध्यजोयणमेराए संखडिं नच्चा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए || से मिक्खू वा २ पाईणं संखर्डिनच्चा पडीणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखडि नच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखडि नच्चा उदीणं गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखर्डि नच्चा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे, जत्थेव सा संखडि सिया, तंजहा - गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडवंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा जाव रायद्दार्णिसि वा संखठिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिया गमणाए, केवली वूया - आयाणमेयं संखर्डि संखडिपडियाए अभिघारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीस'जायं वा कीयगडं वा पामिचं वा अच्छि वा अणिसिद्धं वा अभिहर्डवा आहटु दिज्जमाणं भुजिज्जा (मृ० १३) ते भिक्षु वधारेमा वधारे अर्ध योजनसुधी क्षेत्रमां जमणनुं ज्यां रसोडुं होय, त्यां जवानो विचार करे नहि, पण पोताना गाममां अनुक्रमे गोचरी जतां तेधुं जमण होय ते जाणीने शुं करवुं ते कहे छे एटले पूर्वदिशामां जमण जाणे, तो तेथी उलटी सूत्रम् ॥ ८७९ ॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पश्चिमदिशामां गोचरी जाय, अने पश्चिमदिशामा जमण होय तो पूर्वदिशामां गोचरी जाय, एम बीजी पण दिशामां-जाणवं, एटले आचा० जमणनी जग्याए जवानो अनादर करे. ज्यां जमण होय त्यां न जवं, हवे जमण क्या क्या होय ते कहे छे, गाम ज्यां इंद्रियोनी पुष्टि थाय अथवा ज्यां करो लागु पडे ते हे, तेज प्रमाणे नगर, खेर कर्बट मडंब पतन (पाटण). आकर द्रोणमुख नैगम आश्रम ॥८८०॥ राज्यधानी संनिवेश [आ बधा शब्दोनो अर्थ आचारांगना अगाउना भागमां पा० अपायेल छे] आवा. स्थानमां संखडि (जमण) जाणीने जवु नहि, केवळीप्रभु कहे छे के, ते जमण कर्मोना उपादानवें स्थान छे, अथवा वीजी पतिपां आदानने बदले आयतन | शब्द छे. तेनो अर्थ आ छे के संखडिमां जq ते दोपोनुं स्थान छे. प्र०-संखडीमां जq ते दोषोनुं आयतन केवीरीते छे ? ते कहे छे “संखडिं संखडि पडियाएत्ति"-जे जे संखडिने उद्देशीने पोते जाय, तो ते जग्याए आमांना कोइपण दोष अवश्ये लागु पडे ते बतावे छे. आधाकर्म, औदेशिक, मिश्र, क्रीत, उद्यतक, आ-४ &च्छेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत आमांथी कोइपण दोपथी दोपित पोते भोजन वापरे, कारण के जमणनो करनारो एवुन मनमा धारे है के, आ आवनारो साधु मारा जमणने उद्देशीने आव्यो छे, माटे मारे कोइपण व्हाने एने आपQ एम विचारी आधाकर्म दोषवाळं | भोजन विगेरे बनावी आपे, अथवा जे साधु लोलुपी थइने जमणनी बुधिए त्यां जाय, ते मूढ बनीने आधाकर्म विगेरेनुं भोजन वापरे. वळी संखडि निमिते आवेला साधुने उद्देशीने ग्रहस्थ वसति (उतरवार्नु स्थान) आ प्रमाणे करे ते कहे छे. अस्संजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ महल्लिय दुवारियांओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियदुवारियाभो कुज्जा, समाओ सिजाओ विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ 'कुज्जा, पवायाओ सिजओ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % सूत्रम् % % % % आचा० 'निवायाओ कुज्जा, निवायाश्रो सिज्जाओ पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बर्हि वाउवस्सयस्स हरियाणि छिदिय छिदिय दालिय दालिय संथारगं संथारिजा, एस विलंगयाओ सिज्जाए, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि ॥८८१॥ वा पच्छासंखडि वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणांए, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स जाव सया जए (सू०१३) तिबेमि । पिण्डैपणाध्ययने द्वितीयः १-१-२ . ___ असंयत ते गृहस्थ छे, अने ते श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य दर्शनीय होय, ते साधुओने आवता जाणीने नेमने माटे | सांकडा दरवाजा जे घरने होय ते साधुनिमित्ते मोटा करावे, अथवा घणा मोटा होय ते जरुर जेटला सांकडा करावे, अथवा सरखी जग्या होय ते स्त्रीओने आववाना भयथी विषम करावे, अथवा विषम होय ते साधुओना समाधान माटे सरखी बनावे छे, तथा घणी हवावाळी जग्याने शीयालो होय तो पवन न आवे तेची बनाववा आरंभ करे. अने उनाळो होय अने पवन विनानी जग्या #होय तो हवावाळी चनाववा प्रयत्न करे, तथा उपाश्रयना चोकमां लील घास होय तो छेदी छेदी-उखेडी उखेडीने उपाश्रय रहेवायोग्य संस्कारवाळो बनावे, अथवा मुवानी जग्या संस्तारकने सुधारे. अने ते मनमां एवो उद्देश राखे केसाधुनी शय्याना संस्कारमा आपणुं ४ कर्त्तव्य छे. माटे आपणे करवु जोइए, कारण के तेओ निग्रंथ-अकिंचन छे, वळी गृहस्थ तेम न करे तो कारण आवे साधु पोते ४ (निघृण थइने) करीले. तेटला माटे अनेक दोपथी दुष्ट एवं संखडि (जमण) जाणीने लग्न विगेरेनी प्रथम अने मरण पाछळनी पछीनी संखडीमां जमणने उद्देशीने साधु न जाय, अथवा आगळ संखडि थवानी छे, माटे प्रथम साधु जाय, अथवा गृहस्थ जग्याने सुधारी राखे, अथवा संखडि पूरी थइ, माटे हवे वधेलु भोजन (मिष्टान्न) खाइशें एवी बुद्धिथी पछीथी साधुओ जाय, * Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८८२॥ माटे तेवी संखडिना जमणने उद्देशीने तेवा स्थानमां विहार नकरवो, आज सोधुनी संपूर्ण संयमशुध्धि छे, के संखडिमां सर्वथा जवानुं मांडीवाळं. -साधुए त्रीजो उद्देशो. बीजो उद्देशो कहने जो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां बतान्युं छे के संखडिमां दोपो जाणीने त्यां जवानो निषेध कर्यो, हवे बीजे प्रकारे तेमां रहेला दोषोने बतावे छे. से एगइओ अन्नरं संखर्डि आसित्ता पवित्ता छडिज्ज वा वमिज्ज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमिज्जा अन्नरेवा से दुक्खे रोगा के समुप्पज्जिज्जा केवली बूया आयाणमेयं || ( मू० १४ ) इह खलु भिक्खू गाहावईटिं वा गाावईणीहिं वा परिवायएहिं वा परिवाईयाहि वा एगज्जं सधि सुंडं पाउं भो वइमिस्सं हुरत्था वा उवस्सय पडिले हेमाणो नोलभिज्जा तमेव उवस्तयं संमिस्सीभावमावज्जिज्जा, अन्नमाणे वा से मत्ते विप्परियासियभूए stefore afraid वा तं भिक्खु उवसंकमित्त वृया आउसंतो समण ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्ससि ओवा विद्याले वा गामधम्मनियंतियं कट्टु रद्दस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो, तं चेवेगईओ सातिज्जिज्जा - अकर णिज्जं चेयं संखाए एए आयाणा [ आयतणाणि ] संति संविज्जमाणा पच्चवाया भवति, तम्हा से संजए नियंठे तहष्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाएं (मृ० १५) सूत्र ॥८८२ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ३॥ आचा ते भिक्षु कोइ वखत एक चर (एकलो फरनारो) होय, अने ते आगळ-पाछळ संखडिन भोजन खाइने तथा शीखंड के द्ध विगेरे अति लोलुपीपणाधी रसनो स्वादीयो बनीने घणुं खाय, तो विशेष झाडा थाय, अथवा वमन थाय. अथवा अंजीरणधी ॥८८३॥ कोढ विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त जीव लेनारो आतंक शूळ विगेरे रोग थाय, माटे केवळी सर्वज्ञप्रभु कहें छे के ते संखडिनुं जमण कर्मोनु उपादान छे, ते आदान केवी रीते थाय छे, ते बतावे छे. आ संखडिना स्थानमां आ अपायो (पीडाओ) थाय छे, अथवा जीभनो स्वाद करी इंद्रियो उन्मत्त थतां दुर्गति गमन विगेरे परलोकना अपायो छे, [खलु शब्द वाग्यनी शोभा माटे छे] | ते भिक्षु गृहस्थ अथवा तेना घरनी स्त्रीओ साथे अथवा परिव्राजक (वावां) साथे अथवा बावीओ साथे कोई दिवस एक वाक्य | (एक चित्त थवा) थी प्रेमी बनीने तेभोनी साथे ते साधु लोलुपपणे कोइ पण जातनुं नसो चडावनारुपी' पण पीए, अने नसो चडतां रहेवान स्थान याचे, पण जो तेवो शीलरक्षणनो उपाश्रय न मळे तो ते संखडि नजीकनाज मकान (धर्मशाळा विगेरे) मां | गृहस्थ अथवा बावी विगेरे ज्यां उतर्या होय तेमनी साथे उतरीने एकमेकपणे वर्ते, त्यां नसो चडेलो होवाथी कांतो गृहस्थ पो ताने भूली जाय अथवा साधु पोताने साधुपणाथी भूले, अने तेथी आq चिंतवे, के हुँ गृहस्थज छु ! अथवा (इंद्रियो पुष्ट थयेल मा होवाथी) स्त्रीना शरीरमां मोहित थयेलो अथवा नपुंसक साथे कुचालथी साधुपणुं गुमावे, अथवा तेने उन्मच जोइ कोइ रखडती स्त्री अथवा नपुंसक तेनी पासे आवीने बोले के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! हुं तारीसाथे एकांतमा मळवा इच्छु छु, आराममा अAथवा उपाश्रयमा रात्रे अथवा संध्याकाळे ते साधुने इन्द्रियोथी परवश बनेलाने कहे के तमारे त्यां आवद्, अने तमारे अमारी इच्छाथी विपरीत न करवू, पण मारी साथे तमारे हमेशां अमुक स्थळमां आवg, आ प्रमाणे परवंश बनावीने गामनी सीममां अथवा Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ૮૮જા | ॥८८४॥ कोइ एकांत स्थळमां जइने स्त्रीसंग अथवा कुचेष्टानी विज्ञप्ति करे, अने दुराचारथी भ्रष्ट थवा वखत आवे, माटे संखडिमां जवु अ-18 योग्य छे, एम मानीने संखडि (जमण) मां जवु नहि, कारण के आ जमणो कर्मोपादननां कारणो छे, तेमां कर्म दरेक क्षणे एकठां थाय छे, एटले त्यां जवाथी बीजां पण अशुभ कर्मबंधनां कारणो मळी आवे छे, उपर बतावेला त्यां आलोक-संबंधी रोगना दुराचारना अपायो छे. तेमज परलोक संबंधी दुर्गतिगमनना प्रत्यवायो छे, माटे संखडीने उद्देशीने त्यां पहेलां के पठी साधुए जवू नहीं. से भिक्खू वा २ अन्नयरिं संखर्डि सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी, नो संचाएइनत्य इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करिज्जा ॥ से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा ॥ [मू० १६] ते भिक्षु आगळ-पाछळनी कोइपण 'संखडी' वीजा पासे के जाते सांभळीने निश्चय करे के त्यां अवश्ये जमण छे, तो त्यां उत्सुकपणाथी अवश्य दोडे के मने अद्भूत भोजन मळशे. तो त्यां गया पछी जुदा जुदा घरोथी समुदायनी एपणीय गोचरी आधाकर्मादि दोष रहित फक्तं रजोदरण विगेरेना वेपथी मळे ते उत्पादन दोष रहित लेवी, ते तेनाथी बनी शके नहि, अने कपट पण करे, प्र०-केवी रीते ? पोते गुरु पासेथी 'प्रतिज्ञा' करीने जाय, के जुदा जुदा घेरेथी गोचरी लइश, पण उपर बतावेली रीते तेम लेवा शक्तिवान न थाय. अने संखडिमांज जाय. माटे आलोक परलोकना अपायोना भयने जाणीने संखडि तरफ न जाय. केवी रीते करे. ते कहे छे. ते भिक्षु कारण विशेषे त्यां जाय तो पण योग्य समये जुदा जुदा घरोमां जइने सामुदायिक Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८८५॥ आहार- पाणी प्रासुक वेषमात्रथी मळे ते पात्रीपिंड विगेरे दोषथी रहित लइने आहार करे. सेभिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गांमंसि वा जाव रायहाणिंसि संखडी सिया पिय गामं वा जाव रायहाणि वा संखार्ड संखडि पडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए ॥ केवल वूया आयाणमेयं अन्नाऽवमां णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा वाए अकंतपुव्वे भवइ, इत्थेण वाहत्थे संचालिपुव्वे भवेइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवइ, कारण वा का संखोभियyoवे भवइ, दंडेण वा अट्टीण वा मुट्टीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुव्वेण वा भवइ,सीओदण वा उत्तिgoवे भवइ, रयसा वा परिघासियपुव्वे भवइ, अणेस णिज्जे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ, अन्नेसिं वा दिजमाणे पडिग्गाहियपुव्वे भवइ, तम्हा से संजए नियंठे तदप्यगारं आइनावमाणं संखार्ड संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए || ( मू० १७ ) ळी ते भिक्षु जो आ प्रमाणे जाणे के गाममां, नगरमां अथवा राजधानीमां कोइपण स्थळे संखडि (जमण) थवानी छे त्यां चरक विगेरे अनेक भिक्षाचरो हशे त्यां जमणनी बुद्धिए साधु विहार न करे. त्यां जवाथी थता दोषोने सूत्रवडे कहे छे, के केवळी (सर्वज्ञ) प्रभु तेने कर्म उपादान छे. एज बतावे छे. ते संखडि चरक विगेरेथी व्याप्त हशे एटले १०० नी रसोइ होय त्यां पांचसो भेगा थशे. त्यां थोडी रसोइने लीधे आवा दोषो थाय छे. धक्काधक्कीमां एकना पग बीजाने लागशे. हाथथी हाथ अथडाशे. पात्रां साथै पात्रां अथडाशे. अथवा माथासाथे माथु भटकाशे. साधुनी काय साथे चरक विगेरेनी काया अथड शे. ते वखते धको लागत सूत्रम् ॥ २८५॥ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥८८६॥ फरफरॐSHASH ते वावो कोपायमान थतां झगडी करशे. पछी ते रीसमा आवी ने दंड (लाकडी) थी करीना गोटला विगेरेथी मुक्काथी माटीना ढेफाथी कपाल घडाना ठीकरा] थी साधुने घायल करशे, अथवा ठंडा पाणीथी सिंचशे, धुळथी कपडा बगाडशे, आ दोषो तो जगाना संकोचने लीधे थाय छे, पण ओछी रसोइने लीधे आवा दोपो थाय छे. अशुद्ध आहार खावानो वखत आवशे, कारण के थोडं रांधेलुं अने भिक्षु वधारे होय छे, त्यारे घरधणी एम समजे के मारुं नाम सांभळीने आ लोको आव्या छे, माटे मारे कोइपण रीते पण तेमने आप जोइए, एवं विचारीने साधुने रांधीने पण आपशे, तेथी दोषित आहार खावानो प्रसंग आवे, अथवा कोइ वखत दानदेनारने वीजा बावा विगेरेने आपवानी इच्छा होय अने वचमां साधु आवीने ले, तेथी घरधणीने तथा बावा विगेरेने खोटं लागे, माटे आवा दोपोने जाणीने उत्तम साधुए आवी संखडिमां घणा लोको भरायेला होय, त्यां भोजननी तंगीने लीधे अथवा : | धक्कामुक्कीना कारणे संखडिनी बुद्धिए त्यां जवु नहि, हवे सामान्यथी पिंडनी शंकाने आश्रयी कहें छे. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ एसणिज्जे सिया अणेसणिज्जे सिया वितिगिंछसमावन्नेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहण्पगारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ॥ (सू०१८] ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गये लो एपणीय आहरने पण शंकावाडं जाणे, के आ उद्गमादि दोपोथी दुष्ट छे. तो साधुए तेवी | शंका थया पछी तेवं लेबु नहि, कारणके "जं संके तं समावज्जे," ज्यां शंका थाय त्यां ते भोजन लेवु नहि, (आ सूत्रमा एपणीय | अथवा अनेषणीय चार प्रकारनो आहार होय, पण पोताने केटलांक कारणोथी मालुम पडे के ते उद्गम दोष विगेरेथी युक्त छे. आवी ज्यां पोतानी लेश्या थइ तो उत्तम साधुए ते लेवु नहि.) हवे गच्छमांथी नीळेकला साधुओने आश्रयी सूत्र कहे छे. DARSHASHA Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८८७॥ से भिक्खु गाहाइकुलं पविसिंडकामे सव्वं भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा ॥ से भिक्खू वा २ वहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंडगमाया बहिया विहारभूमिं वा विद्यारभूमिं वा निक्खमिज्ज वा प्रविसिज्ज वा ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दुज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ॥ ( मू० १९) ते भिक्षु गच्छमांथी जिनकल्पी विगेरे मुनि नीकळ्यो होय, ते गृहस्थने घेर गोचरी लेवा जाय, तो पोतानां वधां धर्मोपकरण | साथै लइने गृहस्थना घरमां पेसे, अथवा नीकळे, तेवा मुनीनां उपकरण अनेक प्रकारे छे. "दुगतीग चक्क पंचग नव दस एकारसेव वारसह " इत्यादि-ते जिनकल्पी वे प्रकारना छे, हाथमांथी पाणी टपके तेवा, तथा जे लब्धिवाळा होय तेने पाणीनुं बिंदु टपके नहि, तेवा मुनिने शक्ति अनुसार विशेष अभिग्रह होवाथी फक्त वेज उपकरण रजोहरण अने मुखवत्रिका छे, अने कोइने शरीरना रक्षण माटे एक सूत्रनुं कपड़े होवाथी त्रण उपकरण थया, पण तेवा साधुने वधारे ठंडीना कारणे उननुं वस्त्र वधारे राखवाथी चार उपकरण थयां, तेथी पण ठंडी न सहन थाय तो वे सूत्रनां वस्त्र राखवाथी पांच थयां. पण लब्धिविनाना जिनकल्पीने सात प्रकारनां पात्रानो निर्योग थवाथी १२ उपकरण थाय छे. “१ पत्तं २ पत्तावधी ३ पाय|वणं च ४ पायकेसरिया ॥ ५ पडलाइ ६ स्यत्ताणं ७ च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ १ ॥ " १ पात्र २ पात्रानो बंध ३ पात्रस्थापन ४ पात्र केसरिका (पुंजणी) ५ पडला ६ रजस्त्राण ७ गोच्छो. उपरनां पांच तेमां मळतां | बार उपकरण वधारेमां वधारे जिनकल्पीने होय, ते गोचरीमां जाय, त्यारे साथे लेइ जाय तेम वीजे स्थळे पण जतां साथै लेइ जाय, सूत्रम् ॥२८७॥ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते कहे छे, एटले गाम विगेरेनी बहार स्वाध्याय करवा अथवा स्थडील जवा जाय तो पण बधां उपकरण लेइ जाय, आ बीजु मूत्र आचा० छे, तेज प्रमाणे बीजे गाम जाय तो पण लेइने जांय, ए त्रीजुं सूत्र छे. हवे गमनना अभावनां निमित्त कहे छे. है। सूत्रम् से भिक्खू० अह पुण एवं जाणिज्जा-तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचलमाणं ॥८८८॥ ॥८८८॥ पेहाए महवाएण वा रयं समुध्धुयं पेहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नच्चा नो सव्वं भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पर्विसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा गामाणुगामं दृइन्जिज्जा ॥ (मू० २०) ते भिक्षु कदी आईं जाणे के अहीं लंबाण क्षेत्रमा झाकळ पडे छे, अथवा धुमस पडे छे, अथवा वंटोळीयो वाइने धुळ घणी उडे छे, अथवा तीरछां-पतंगीयां विगेरे झीणां जंतुओ उडीने शरीर साथे आथडे छे, तो ते साधु पूर्व त्रण सूत्रमा बतावेल उपधि | लइने जाय आवे नहि, तेनो परमार्थ आ छे, के जिनकल्पीनो आ कल्प छे के ज्यारे बहार नीकळे त्यारे प्रथम उपयोग दे के वर्षाद झाकळ के धुमस वरसे छे के वरसवानो छे ? जो प्रथम जाणे तो न नीकळे. कारण के तेनी शक्ति एवी छे के छमास सुधी पण साठल्लोमात्र (झाडो पेशाब) रोकी शके, अने स्थविरकल्पी पण उपयोग दे, अने जाण्या पछी कारण होय तो नीकळे खरो. पण पोतानी बिधो उपधि लेइने न नीकळे, प्रथम बतावी गया के अधम कुलोमांगोचरी विगेरे माटे जQ आवq नहि. पण हवे अनिंदनीक कुलोमां पण दोषोना देखवाथी त्यां जवानो निषेध छे, ते बतावे छे. से भिक्खू वा २ से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा तंजहाखतियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा राय RRESSES 25-25-25654564545453 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOSAR ॥८८ आचा सठियाण वा अंतो वा. वाहिं वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं । : 5 . वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा (सू०२१) ॥१-१-३ ॥ पिण्डैषणायां तृतीय उद्देशकः ॥' ' . सूत्रम ॥८८९॥ ते भिक्षु एवां कुलो जाणे के, चक्रवर्ती, वासुदेव, बळदेव विगेरे क्षत्रियोनां आ छे, अथवा क्षत्रियोथी अन्य राजाओनां कुळो 18 , कुराज, ते नानां रजवाडा ( नाना ठाकरडा विगेरे) ना कुळो छे, राजना प्रेष्य ते दंडपाशिक [हवालदार फोजदार] नां कुळो || तथा राजवंशमां रहेला ते राजाना मामा तथा भाणेजो विगेरेनां कुळोमां संतापना भयथी पेसवु नहि, त्यां जतां आवतां अंदर रहेला माणसोथी अथवा बहार रहेला माणसोथी अथवा जता आवता माणसोथी साधुओने नुकशान थाय, माटे कोइ गोचरीनुं निमंत्रण ? 18| करे, अथवा भोजन, मळतुं होय तोपण त्यां गोचरी लेवा जवू नहि. ... ... ... .. । ... . .. .. , त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. .. .. .. . . . . . . . ... .. .... .. चोथो उद्देशो. त्रीजो कहीने चोयो उद्देशो कहे छे, 'तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामा संखडी संबंधी विधि कही, अहीं पण तेनी ६ बाकीनी विधि कहे छे.. ... से भिक्खू वा० जाव समाणे सेज पूण जाणेज्जा मसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा आहेण वा पहेणं वा हिंगोल वा समेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुवीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउध्या बहुउतिंगपणगदगमट्टीयमकडासंतयाणा वहवे तत्य समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्सति ( उवाग 35555% ES Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् च्छति ) तत्थाइन्ना विची नो पन्नस्म निक्खमणपवेसाए नो पन्नस्स बायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंआचा० ताए, से एवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडिआए-नो अभिसंधारिजा गम णाए ॥ से भिक्खू.वा० से जे पुण जाणिज्जा मंसाइयं वा. मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से ॥८९०॥ मग्गा अप्मा पाणा जाच संताणगा नो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पन्नस्स निक्ख ॥८९०॥ मणपवेसाए; पन्नस्स वायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखड़ि वा० अभि सरिज गमणाए ॥ (मू० २२) ते साधु कोइ गाम विगेरेमा भिक्षा माटे गयो होय, त्यां संखडि आवा प्रकारनी जाणेतो त्यां गोचरी जवु नहि, जेमां मांस विगेरे प्रधान छे. मांसना श्वादुओ माटे मुख्य तेज वस्तु होय, एटले प्रथम तेने वधारे रांधे. अथवा वोजी रसोइ पूरो थया पछी & ते तेना स्वादुओ माटे रांधे, त्यां कोइ सगो विगेरे तेवू अभक्ष्य भोजन घेर लइ जाय, तेवू देखीने त्यां साधु जाय नहि, तेना दोपो हवे पछी कहेशे, तेज प्रमाणे माछलांथी वधारे प्रधान होय, तेज प्रमाणे मांसखल आश्रयी पण जाणवू. ज्यां संखडि माटे मांसा ४छेदीने तेने मुकावे, अथवा सुकवेलु, - ढगलो करेलु होय, तेज प्रमाणे माछलासंबंधी पण जाणवू, अथवा विवाह पछी वह घेर & आवतां वरना घरे भोजन थाय छे, अथवा बहुने लइ जतां सासरे भोजन थाय छे, हिंगोल, ते मरेलानु भोजन छे, अथवा यक्षनी यात्रा विगेरे माटे भोजन छे, 'संमेल' ते परिवारना सन्माननु भोजन, अथवा गोठीयाओगें भोजन, आq कोइपण प्रकारनुं जमण जाणीने त्यां कोइ सगां-वहालांथी ते निमित्ते कंइपण लइ जवातुं देखीने त्यां भिक्षामाटे जवु नहि, त्यां जवाथी थता दोषोने वतावे | RSS Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० छे, त्यां रस्तामा जतां बहु पतंग विगेरे पाणीओ होय छे, तथा.. बहु वीज, बहु हरित, बहु अवश्याय घणु पाणी बहु उत्तिंग पनक भींजवेली माटी करोळीयानां ज़ाळां होय छे, तथा त्यां जमण जाणीने घणा श्रमण ब्राह्मण अतिथि कृमण वणीमग आव्या, आवशे सूत्रम् अने आवे छे, ते चरक विगेरेथी व्याप्त होय छे, तेथी बुद्धिमान साधुने त्यां जq आवकल्पे नहि, तेम त्यां जनारने गीतवाजीत्रना संभवथी भणबु भणाववं अर्थचिंतयन विगेरे थइ शके नहि, तेथी ते साधुने आवतां जतां घणो काळ लागे, तेथी बहु LA८९१॥ दोषवाळी संखडिमां ज्यां मांस विगेरे मुख्य छे, तेवा प्रथमना. जमणमां के पाछळना जमणमां तेने उद्देशीने साधुए जवु नहि, हवे अपवाद मार्ग कहे छे.. ते भिक्षु मार्गमा विहार करतां दुर्वळ थाय, मंदवाडमाथी उठ्यो होय, तपचरणथी दुर्बळ थयो होय, अथवा बीजे कंइ आहार मळे तेवू स्थान न होय, अथवा त्यांज वानी चीज मळे तेम होय, तो तेवा जमणमां कारण प्रसंगे जवु पडे तो जे रस्ते सूक्ष्म * जीवो घास वीज के वचमां कांइ न पडधु होय, तो ते रस्ते मांस विगेरेना दोषो दूर करवा समर्थ होय तो कारणे जाय, अने पोताने खपनी भक्ष्य वस्तु लइ आवे. (जैनोमा दश विकृति विगइ छे. घी, दूध, दही, तेल, गोळ, कडाइ एटले एकल घी, के दूध, दही, तेल, गोळ अने कडाइमां घी, तेल पुष्कळ नांखीने तळेल होय ते कडाइ विगय कहेवाय, आ पदार्थो जरुर पडे तो लेवाय & छे, पण मांस मदिरा मांखण अने माखी वीगेरेनु मध ए अभक्ष्य छे. कारणके तेमां जीवोनी उत्पत्ति छे. अने ते खानारने इंद्रियो दमन करवी तथा मुबुद्धि राखवी दुर्लभ छे, माटे जैन साधु के श्रावकने वर्जवा योग्य छे, माटे बने त्यांसुधी तेवा रस्ते पण जवानो ॐ निषेध छे, वखते खराब वस्तुनी दुर्गधी आवे तो पण बुद्धि भ्रष्ट थाय छे. SCRIDESCATASPASCASASPADAIRESCRIG ॐ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८९२॥ ॥८९२॥ . . चालता पिंडना अधिकारमा भिक्षा संबंधि खुलासावार कहे छे, ___. से भिक्खूवा २ जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिज्जा खीरिणियाओ गावीओ खीरिजमाणीओ पहाए असणं वा ४ उवसंखडिज्जमाण पेहाए पुरा अप्पजूहिए सेवं नचानो गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा ॥ से : तमादाय एंगंतमवक्कभिज्जा अणावायमसलोए चिहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जाखीरिणियाओ गावीओ खीरियाओपेहाए असणं वा ४ उवक्खडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं नचा तभो । संजयामेव गाहा० निक्खमिज्ज वा ॥ (सू० २३) ते भिक्षु गृहस्थना. घरमां पेसतो आप्रमाणे जाणे के अहीं तुर्तनी प्रसुतिवाळी गायो दोहवाय छे, तो त्यां गायो। दोहवाती देखीने चारे प्रकारनो आहार रंधातो' जोइने अथवा भात विगेरे रांधेलो तैयार देखीने पण प्रथम बीजाने न आपेलो होय तो पण प्रवर्त्तमान अधिकरणनी अपेक्षावाळो प्रकृतिभद्रक विगेरे कोइ गृहस्थ साधुने देखीने श्रद्धावाळो वनीने धणुं दध का तेमने आएं, आवी. बुद्धिथी वाछडाने पीडा करे, दोहवाती गायोने त्रास पमाडे, ते कारणथी साधुने परपीडाना कारणे संयम ६ तथा आत्मांनी विराधना धाय, अने अडघा रंधायेल भात विगेरेने जलदी रांधवा माटे प्रयत्न करे तेथी पण संयम विराधना छे. | माटे तेवू जाणीने साधु गोचरी माटे त्यां न जाय, न नीकळे तेवा स्थळे शृं करते कहे छे, .. ते भिक्षु ते गायनु दोहवं, विगेरे जाणीने एक बाजुए ज्यां गृहस्थ न आवे, न देखे त्यां उभो रहे, त्यां उभा रहेतां आ प्रमाणे पछी जाणे के 'गायो दोहवाइ गइ छे, त्यारपछी गोचरीनी जरुर होय तो शुद्ध आहार लेवा योग्य होय ते लेवा जाय अनेनीकळे. उनऊ5455ॐॐॐॐ माते . . . . Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥८९३॥ ॥८९३॥ . पिंडना अधिकारीज आ कहे छे. " भिक्खागा नामे गे एवमाइंसु-समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे खुड्डाए खुलु अयं गामे संनिरुद्धा ए नो महालए से इंता भयंतारो वाहिरगाजि गामाणि भिक्खायरियाए वयह. संति तत्येगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा-गाहावइ वा गाहावइणीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावइधुयाओ वा गाहावइसुण्हाओ वा धाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराई कुलाई पुरेसंथुयाणिवा पच्छासंथुयाणि वा पुत्वामेव भिक्खायरियाएं अणुपविसिस्सामि, अविय इत्थ लभिस्सामि पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दहि वा नवणीय वा धयं वा गुल्लं वा तिलं वा महुँ वा मज्ज वा मंसं वा सक्कृलिं वा वा फाणियं वा पूयं वां सिहिरिणं वा, तं पुनामेवं भुच्चा पच्चि पडिग्गहं च संलिहिय संमजिय तो पच्छा भिक्खूहिं सद्धि गाहा. पविसिस्सामि वा निक्खमिस्सामि वा, माइटाणं संफासे. तं नो एवं करिजा ॥ से तत्थ भिक्खूर्हि सद्धिं कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयपरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिज्जा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खूस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं० (सू०२४)॥ १-१-४॥ पिण्डैपणायां चतुर्थ उद्देशकः॥ केटलाक साधुओ जे एक स्थळे जंघावळ क्षीण थवाथी एक.जग्याए रवा होय, तथा मासकल्पनो विहारकरनारा कोइ जग्याए मासकल्प रह्या होय ते समये वीजा विहार करनारा परोणा साधु त्यां आवीने उतर्या होय, तेमने पूर्व स्थिर रहेला Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८९४॥ अथवा मासकल्पी उa हाय, तेओ कहे के, आ गाम क्षुल्लक ( नानुं ) छे, अथवा गोचरी आपवामां तुच्छ छे, तथा सूतक विगेरेथी घर अटक्यां छे, माटे घणुंज तुच्छ छे, तेथी हे पूज्य ! आप बने त्यांसुधी नजीकना गाममां गोचरी माटे जजो, तो ते प्रमाणे कर. हवे रहेला साधुनो दोप बतावे छे, अथवा त्यां रहेनार साधुना पूर्वना सगां भत्रीजा विगेरे होय, अथवा पछवाडेना सगां. सासरीयांनां समां विगेरे होय, ते बतावेछे. जेम के गृहस्थ, तेनी स्त्री तेना पुत्रो, दीकरीओ, दीकरांनी बहुओ, धावमाता दासदासी नोकर. नोकरडी तेवां संसारी संबंधवाळां पूर्वनां के पछीना सगां-संबंधी होय. तो त्यां पूर्वगोचरी जाउँ, तो त्यां सारुं भोजनशालिना चोखा विगेरे तथा दूध, दहीं, मांखण, घी, गोळ तेल मध, दारु, मांस सक्कुली ( तलसांकळी), गोळनीपेत, पूडा, शीखंड विगेरे गोचरीना वखत पहेलां लावीने खाउं, आ सूत्रमां भक्ष्य अभक्ष्य वस्तुओनो विवेक मू. २२ मां बतान्गो छे, ते आधारे अपवाद समजवो, अथवा कोइ साधु दुष्ट बुद्धिथी, रसगृधीथी पोताना हिंसक सगां जे पूर्वनां संबंधी होय तो त्यांथी लावीने बारोबार खाय. ( ते माटे आ सूत्रमां तेनो निषेध कर्यो के तेणे त्यां जनुं नहि, ) तेम अविवेकथी वस्तुओ लावीने खाय, पीणुं पीए पछी पातरां त्रणा करीने पछी गोचरीना समये डाह्या (शांत ) मनवाळो बनीने हुं नवा आवेला परोणा साथे गोचरी जइ आवीश, आक कोइ करे तो,ते साधुनुं रसना लोलुपपणाथी साधुपणुं नष्ट थाय छे, माटे विजा साधुए तेम न कर. त्यारे साधुए शुं करबु ते कहे छे. फ आवेला परोणा साथे त्यां रहेला साधुए गोचरीना वखते जुदाजुदा कुलोमाथी थोडी थोडी सामुदायिक एषणीय (उदगम ) दोष रहित ) तथा वैषिक ते फक्त साधुना वेपथी मेळवेल ( धात्री पिड विगेरे उत्पादन दोष रहित ) गोचरी मेळवीने लेवी आज सूत्रम् ॥८९४॥ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ste- 5 चा० 5 18 साधुनी संपूर्णता छे, ( आ सूत्रमा मांस-मदिरावाळां कुटुंचमांथी कोइए दीक्षा लीधी होय, तो तेवाए सगांने घेर गोचरी जुदा / सूत्रम् ८९५॥ न जवु, तेज श्रेयस्कर छे, कारणके कुबुदि केवी खराब छे, अने तेनुं जैन धर्ममां के मायश्चित छे ते नीचेनु बनेल - दृष्टांत वांचवा जेवु छे.. ८९५॥ (कुमारपाळ राजाए जैनधर्म स्वीकार्या पहेलां मांसभक्षण करेलुं अने पाछळथी त्याग कर्यु हतुं, तेने एक समये घेवर खातां | मांसनो स्वाद आव्यो, तेथी श्रीमान हेमचंद्र आचार्य पासे आवीने पूछयु, के मने घेवरखावू कल्पे के नहि ? गुरुए कह्यं के नहि. || म-शामाटे ? उ-पूर्वनो दुष्ट स्वभाव मांसभक्षणनो याद आवे. कुमारपाळे कडं के त्यारे जो तेवु स्मरण थयुं होय तो तेनुं मने & मायश्चित शुं आवे ? उ-चत्रीश दांत पाडी नांखवान. तेज समये लुहारने वोलावी दांत खेची काढवा का, त्यारे हेमचंद्राचार्य ते । राजानी दृढता जोइ चीजु प्रायश्चित आप्यु आथी समजवान ए छे के 'तेवा' मांसभक्षणवाळां कुटुंबोमां जतां कुमारपाळ माफक खराब चीज याद आवी जायतो साधुपणुं भ्रष्ट थाय, पण वीजा साधु साथे होय तो तेनी शरमथी त्यां रहेनारो साधु पण ली बचे, अने सगांने पण मांस भक्षण न करवा बोध मळवाथी पापथी बचे. चोथो उद्देशो समाप्त. % Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचमो उद्देशो. .... आचा चोथो कह्यो, हवे पांचमो उद्देशो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां निर्दोष पिंड लेवानी विधि कही | */ सूत्रम् अने अहीं पण तेज कहे छे. ॥८९६॥ से भिक्खू वा २ जाव पवि? समाणे से जं पुण जाणिज्जा-अग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंड निक्खप्प माणं पेहाए अग्गपिडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिंड परिभाइज्जमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभुजमाण पेहाए अग्गपिंडं पेहाए अग्गपिंड परिदृविज्जमाज पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थऽण्णे समण वणीमगा खद्धं २ उवसंकर्मति से इंता अमहवि खद्धं २ उवसंकमामि, माइहाणं संफासे नो एवं करेजा ।। (मू० २५) ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गयेलो एम जाणे के देवता माटे तैयार करेलो भात विगेरेनो आहार छे, तेमाथी थोडो थोडो ४ al काढे छे. अने वीजा वासणमां नाखे छे, तेवु देखीने अथवा कोइ देवना मंदिरमा लइ जवातुं जोइने अथवा थोडं थोडं वीजाने | अपातुं जोइने तथा वीजाथी खवातुं अथवा देवळनी चारे दिशामां वळि तरीके उछाळातुं अथवा पूर्व बीजा ब्राह्मण विगेरेए त्यांथी ? 18 एकवार जमी आवीने घेर लइ जता होय, अथवा एकवार जमीआवीने श्रमण विगेरे एम माने के बीजीवार पण आपणने त्यां मळशे, एम धारीने पाछा त्व राथी जता होय, आ देखीने कोइ भोळो साधु के लालचु साधु ते भोजनना स्वादथी ललचाइने तेम विचारे के हुपण त्यां जइने गोचरी लावु, आम करवू साधुने कल्पे नहि कारणके आयु करतां तेने पण वीजा माफक कपट करवू पडे. 549-545 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥८९७॥ 0 हवे भिक्षामा फरवानी विधि कहे छे. से भिक्खू वा० जाव समाणेअंत रा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अलपासगाणि वा सति परकमे जयांमेव परिकमिज्जा; नो उज्जुयंगच्छिज्जा, केवली वूया आयाणमेयं 'तत्थ परकममाणे पयलिज्ज वा पक्खलेज्ज वा पवडिज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पक्खलेज्जमाणे वा पत्र डमाणे ना, तत्थ सेकाएं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूण्य वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया, तहप्पगारं कार्यं नो अनंतरहियाए पुढवीए नो ससिणिद्धाए पुढवीए नो चित्ता सिलाएनो चित्तमंताए लेऌए कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्टिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा संलिहिज्ज वा निलिहिज्ज वा उब्वलेज्ज वा उन्वट्टिज्ज वा आयाविज्ज वा पायाविज्ज वा, से पुवामेव अप्पससरक्खं वर्ण वा पत्त वा कटं वा सकरं वा साइज्जा, जाइत्ता से तमायाय एतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिल सिवा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय ओ संजयामेव आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा । ( सू० २६ ) ते साधु गृहस्थने घेर गोचरी जवा माटे जतां पाडो ( महेल्लो), शेरी, के ग्राम विगेरेमां पेसतां मार्ग जुए, त्यां रस्तामां जतां वचमां समान भूभागमां अथवा वे गामना वचमां कयारा बनावेल जुए, अथवा घरने के नगरने खाइ के कोट हाय, अथवा तोरण अर्गला ( अडगलो ) अथवा अर्गलपाशक ( जेमां अर्गलानो अंकोडो नांखे छे, ते जुए, तो ते कारण के लइने ते सीधे सूत्रम् ॥८९७ ॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० માના मार्गे न जाय; कारणके त्यां जतां केवळीमधु कहे छे के कर्मबंधननुं ते कारण छे, वखते संयम, विरोधता अथवा आत्म विराग्ना थायछे ते बतावे छे. तेथे मार्गे जतां मार्गमां वमना कारणे विषमपणांथी कोई बखत धूजे, कोइ वखत ठोकर खाय, कोइ वखत पडीजाय तो छकायमांथी कोइपण कायने विराधे, तेमज त्यां शरीरना मळथी, पिशावथी वळखा, लींट, वमन, पित्त, परु, वीर्य, लोहीथी खरडाय माटे तेवे मार्गे न जब पढे तो ठोकरखातां गारामां पडीने खरडाब विगेरे कारणयी आ न करे, ते कहे छे. ते साधु तेवा अशुचि गारा विगेरेमां पडतां वचमां वस्त्र राख्या विना खुल्ला शरीरे पृथ्वी साथै स्पर्श न करे, अथवा भीनी जमीन साथे के धुळवाळी पृथ्वी साथे तथा सचित्त पत्थर साथे तथा सचित्त माटीना ढेफासाथे अथवा घुणना कीडाथी सडेल aras जेमां अनेक नानां इंडां होय तेनी साथे अथवा करोळीयाना जाळांवाळी जग्या साथे एकवार न स्पर्श करे, न वारंवार स्पर्श करे, तेनाथी गारो दूर न करे, तेम त्यां बेसीने कादव दूर करवा खोतरे नहि, तेम त्यां वेसीने उद्दवर्तन ( चोळवु ) न करे, ते सुकायला पण त्यां न खोतरे, तेम त्यां उभो रहीने सूर्यने तडके एकवार न तापे, अथवा वारंवार न तापे, शुं करे, ते कहे छे ते भिक्षु त्यांथी नीकळी अल्प रजवाळु तृण विगेरे याचे, अने अचित्त जग्याए निभाडा विगेरे एकांतमां जोड़ने त्यां बेसीने शरीरनो कादव दूर करे, अथवा तडके तपावे. अने पछी दूर करे. अने स्वच्छ करे, वळी शुं करे ? ते कछे. से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा गोणं वियालं पडिप पेहाए महिसं वियालं पडिप पेहाए एवं मणुसं आसं हथि सीहं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं बिरालं गुणयं कोलसुण यंकोक तियं चिताचिल्ल सूत्रम् ॥८९८॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥८९९ डयं वियालं पडिपहे पेहाए सइ परकमे संजयामेव परक्कमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छिज्जा । से भिक्खू वा० समाणे सूत्रम् अंतरा से उवाओ वा खाणुए वा कंटए चा घसी वा भिलुगा वा विसमे वा विज्जले वा परियागजिज्जा, सह परकमे संजयामेव, नो उज्जुयं गच्छिज्जा ।। ('सू० २७) R८९९ ते भिक्षु रस्तामा जतां ध्यान राखे. अने जो त्यां एवं जाणे के रस्तामां गाय, गोधो विगेरे छे, अने ते मारकणो होवाथी रस्तो बंध ठे, अथवा झेरी साप छे, जंगली मेंस के पाडो छे, दुष्ट मनुष्य छे, घोडो हाथी, सिंह, वाघ, वृक (वरगहुँ ), चित्रो, बळद सरभ, जंगली डुक्कर, कोकंतिक, शीयाळना आकारनुं लोमडी जेवू जनावर छे, जे रातमां कोको एम आरडे है 8 छे, चित्ता, चिल्लडय के जंगली जानवर छे. तेवू कोइपण दुःखदायी पाणी रस्तामां मालूम पडे तो प्रथम उपयोग दइने खात्री ६ करे, अने बीजो रस्तो होय तो ते सीधे रस्ते न जतां भय विनाना रस्ते जाय, तेज प्रमाणे मार्गमा खाडो होय ठं? होय || कांटा होय, ढोळाव होय, काळी फाटेली माटी होय, उंचानीचा टेकरा होय, कादव होय. तेवी जग्याए बीजो मार्ग होय तो है चक्रावोखाइने पण ते रस्ते जवू पण टुका सीधा रस्ते न जq. कारणके त्यां जवाथी संयमनी तथा पोतानी विराधनानो संभव छे. से भिक्खू वा० गाहावइकुल्लस दुवारवाहं कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुवामेव उग्गहं अणणुनविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय नो अवंगुणिज्ज वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्जवा, तेर्सि पुन्नामेव उग्गइं अणुनविय पटिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तो संजयामेव 'अवगुणिज्ज वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।। (मू०२८) ते साधु गृहस्थने धेर गोचरी जतां ते घरनुं बार[ दीधेलं जोइने ते घणीनी रजा लीधा विना, आंखथी जोइने रजो Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ॥९००॥ हरण विगेरेथी पूंज्या विना उघाडवु नहि, उघाडीने पेसे नहि, अने नीकळे पण नहि, तेना दोषो बतावे छे. गृहस्थने पे थाय ते में आचा० ६ घरमांथी वस्तु खोपाय तो साधुना उपर शंका आवे अने उघाडेला द्वारथी पशु विगेरे घरमा पेसी जाय, तेथी संयम अने में आत्मविराधना थाय, हवे जो कारण होय, तो अपवादमार्ग कहे छे. ॥९००॥ ते घरमा जावानी जरुर होय तो तेना धणीनी रजा लइने आंखे देखीने ओघाथी पुंजीने बारणुं विगेरे उघाडे तेनो भावार्थ आछे. पोते दरवाजो उघाडीने पेसवं नहि, जो मांदा आचार्य विगेरे माटे त्यां औपध विगेरे मळतुं होय, अथवा वैद्य त्यां रहेतो होय, अथवा दुर्लभ द्रव्य त्यां मळशे, अथवा ओछी गोचरी मळेली होय, एवां खास कारणो आवेथी दीधेला पारणा आगळ । उभो रहीने शब्द करे (वोलावे ) अथवा पोते संभाळथी पुजीपमार्जीने उघाडीने जवं. त्यां प्रवेश थया पछीनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंटोलगं वा अतिर्हि वा पुबपवि पेहाए नो तेसि संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिज्जा, से तमायाय एगंतमनकमिज्जा २ अणावायमसंलोए चिटिज्जा, से से परी अणावायमसंलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा ४ आटु दलइज्जा, से य एवं वइज्जा-आउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निस? तं भुंजह वाणं परिभाएह वा णं, तं चेगइओ पडिगाहित्ता तुसिणीओ उवेहिज्जा, अवियाई एयं मममेव सिया, माइट्टाणं संफासे नो एवं करिजा से तमायाए तत्य गच्छिज्जा २ से पुवामेव आलोइआ-आउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निसिढे तं भुजह वा णं 'जाव Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाएह वाणं,सेणमेवं वयं परा वइज्जा-आउसंतो समणा ! तुम चेवणं परिभाएदि, से तत्थ परिभाएमाणे आचा नो अपणो खधं २ डायं २ ऊसदं २ रसिय २ मणुनं २ निधं २ लुक्खं २, से तत्व अमुच्छिए अगिध्धे अंग (ना) दिए अणज्ज्ञोववन्ने बहुसममेव परिभाइजा, से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! माणं ॥९०१॥ तु परिभाएहि सव्वे वेगइ ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो वा, से तत्थ भुंजमाणे नो अप्पणा खद्धं खद्धजाव लुक्ख, से तत्थ अमुच्छि ए ४ बहुसममेव भुजिज्जा वा पाइज्जा वा ॥ (मू० २९) ते साधु गाम विगेरेमां भिक्षा माटे पेठेलो एम जाणे, के आ घरमा प्रथम श्रमण विगेरे पेठेल छे. तो तेने पहेलां पेठेलो | हा जोइने दान देनार नथा लेनारने अप्रीति न थाय, तथा अतरायर्कर्म न बंधाय, माटे ते बंने देखे, त्यां उभा न रहेवं, तेमन नीकळवाना दरवाजा आगळ पण बनेनी अप्रीति टाळवा विगेरे माटे उभा न रहे, पण ते साधु एकांतमा जइ कोइ न आवे न' देखे, त्यां उभो रहे, त्यां उभा रहेता पण जैन साधुने गृहस्थ जाते आहार आपीने आ प्रमाणे कहे के " तमे भिक्षा माटे बहुत आवेला छो, अने हुँ एकलो याकुलपणाथी आहार वहेंची आपवाने शक्तिवान नथी, हे श्रमणो ! में तमने वधा साधुओने चारे | 8 प्रकारनो आहार आप्यो छे. तेथी हवे तमे पोतानी इच्छा प्रमाणे ते आहारने एकठा बेसीने खाओ, वापरो, अथवा व्हेंचीने लो, आ प्रमाणे गृहस्थ आपे, तो उत्सर्गयी जैन साधुए ते आहार भागमां न लेवो, पण दुकाळ होय, अथवा लांबा पंथमां गोचरीनी तंगी. होय तो अपवादथी कारणपडे ले पण खरो, पण ते आहार लेइने एg'न करे, के ते आहारने छानोमानो लेइ एकांतमा पोताने मळेलो माटे थोडो होवाथी हु कोइने न आपुं, एकलो खाउं तेवू कपट न करे, त्यारे शु-करवू ते कद्दे छे. - . Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९०२॥ ते भिक्षु आहारने लइने त्यां वीजा श्रमण विगेरे पासे जइने ते आहार तेमने देखाडे, अने वोले के हे आयुष्यमानो ! हे श्रमणो आ आहार विगेरे आपण वधाने गृहस्थे वर्हेच्या विना सामटो आपेल छे, तेथी तमे बधा एकत्र बेसीने खाओ, वापरो आ आ प्रमाणे साधुने बोलतो सांभळीने कोइ श्रमण विगेरे आ प्रमाणे कहे, हे साधो ! तमेज अमने वधाने वर्हेची आपो, तेव्रं साधुए न कर पण कारणे करवु पढे तो आ प्रमाणे करवुं, के पोते वर्हेचतां घणुं उंचु शाक विगेरे पोते न ले, तेम लुखुं पण न ले, पण ते भिक्षु आहारमां मूर्छित थया विना अगृद्धपणे ममता रहित थइने बधाने सरखं वर्हेची आपे, कंइपण दाणो विगेरे सहेज वधारे रहे. (कारण तोळीने आप्युं नथी) तो पण वने त्यांसुधी वधाने सरखं बहेंची आपे, पण ते वर्हेचतां कोइ श्रमण (अन्यदर्शनी ) एम बोले, के वहेंचो नहि, पण आपणे वधा साथै बेसीने जमीए, पीए, तो साथे न जमवु, पण पोताना साधुओ होय, पासत्था विगेरे होय के संभोगिक ( साथे गोचरी करे तेवा ) होय, ते बधाने साथै आलोचना आपीने साथ जमवानी आ विधि छे. एटले पोते वधाने सरखु वहेंची आपे, अने बधा त्यां साथे बेसीने खाय पीए, गया सूत्रमां बहारनं आलोकस्थान निषेध्य, हवे त्यां प्रवेशना प्रतिषेधनी विधि कहे छे. सेभिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपविद्धं पेहाए नो ते उवाइकम्म पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा, से तमायाय एगंतमवक्कभिज्जा २ अणावायमसंलोए चिट्टिज्जा, अह पुणे जाणिज्जा पडिसेहिए वा दिन्ने वा, तओ तंमि निर्यात्तिए संजयामेव पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा एयं० सामग्गियं ० ( ० ३०) |२-१-१-५॥ पिण्डैषणायां पञ्चम उद्देशकः ॥ सूत्रम् ॥ ९०२ ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा०18 ते भिक्षु गोचरी माटे गाम विगेरेमी पेठेलो एवु' जाणे के आ घरमा प्रथम श्रमण विगेरे पेठेलो छे, तो ते पूर्व पेठेला श्रमण / सूत्रम् दविगेरेने देखीने तेने ओळंगीने पोते अंदर न जाय, तेम त्या उभो रहीने गृहस्थ पासे भिक्षा पण न मागे, पण तेने पेठेलो ॥९०३॥ जाणीने पोते एकांतमां धणी न देखे तेम उभो रहे, पछी ते अंदरना भिक्षुने आपे अथवा ना पाडे. त्यारे ते त्यांथी पाछो नीकळे ॥९०३॥ त्यारपछी जैन साधु अंदर जाय अने आहारनी याचना करे, आज साधुनुं साधुपणुं संपूर्ण रीते छे. पांचमो उद्देशो समाप्त थयो. R -5 छट्टो उद्देशो पांचमां पछी छठ्ठो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां श्रमण विगेरेने अंतरायना भयथी गृहप्रवेश | निषेध्यो, तेज प्रमाणे अहीं अपर प्राणीओना अंतरायना निषेध माटे कहे छे. से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा-रसेसिणो वहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तंजहा-कुक्कड जाइयं वा सूपर जाइयं वा अग्गपिंडसि वा वायसा संथडा संनिवइया पेहाए सइ परक्कमे संजया नो उज्जुयं गच्छिज्जा (मू० ३१) ते भिक्षु गोचरी माटे गाम विगेरेमा जतां एम जाणे के आ मार्गमां घणां पाणीओ रसनां इच्छुओ होयने पाछळथी ४ 5555 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥९०४॥ ॥९०४॥ दाणा चुंगवा शेरी विगेरेमां घणा एकठां थइने जमीन उपर पडेलां छे, तेमने ते साधुए जोइने ते तरफ तेणे न.जवू, ते पाणी-12 ओनां नाम बतावे छे, कुकडां. विगेरे लीधाथी उडता पक्षीओ जाणवा. तेज प्रमाणे सूवरजाति लीधाथी चोपगां ढोर विगेरे चरता होय अथवा अग्रपिंडी (बली) वहार फेंकेल होय तेमां कागडा खाता होय तेमने देखीने शरीरमां शक्ति होय त्यांसुधि सम्यक् उपयोग राखीने साधु ते रस्ते न जाय कारणके त्यां जतां अनेक प्राणीने अंतराय थाय छे. अने तेने उडतां के बीजे खसतां | तेमनो वध पण वखते थाय. हवे गृहस्थना घरमा पेठेल साधुने गोचरीनी विधि कहे छे.. से भिक्खू वा २ जाव नो गाहावदकुल्लस्स वा दुवारसाहं अवलंबिय २ चिटिज्जा, नो गा० दगच्छडणमत्तए चिहिज्जा, नो गा. चंदणिउयए चिट्ठिज्जा, नो गा०सिणाणस्स वा वच्चस्सा वा संलोए सपडिदुवारे चिहिज्जा, नो० आलोयं वा थिग्गलं बा संधि वा दगभवणं वा बाहाओ पगिज्झिय २ अंगुलिआए वा उदिसिय २ उण्णमिय २ अवनमिय २ निज्झाइज्जा, नो गाहावइअंगुलियाए उद्दिसिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० चालिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० तज्जिय २ जाइज्जा, नो गा० अं० उक्खुलंपिय (उक्खुलुदिय) २ जाइज्जा, नो गाहावई वैदिय '२ जाइज्जा नो क्यणं फरुसं वइज्जा ॥ (सू० ३२) ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गोचरी पेठेलो नीचली बावतो न करे, तेना वारणानी शाखाने वारंवार अवलंबीने उभो, न रहे,1% जो ते पकडे, तो वखते जीर्ण होय तो पडी जाय अथवा बरोबर न जामेल होय तो खसी जाय. तेथी संयमनी विराधना थाय तथा धोवानी ( चोकडी) तथा उदक ( पाणी.) मुकवानी जग्या (पाणीयारा) तरफ तथा आचमन करे त्यां अथवा टांका Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा. ॥९०५॥ RSSCCESSOCISESS करे, टट्टी जइने पग धुवे, ए जग्या तरफ पोते उभो न रहे, के तेवा घरवाळा तरफ पोतानी दृष्टि पडे, तेमां आ दोष छे के, त्यां देखबाथी स्त्री विगेरेना संबंधीओने शंका थाय अने त्यां लज्जाइने बरोबर शरीर स्वच्छ न थवाथी तेने द्वेष थाय, तेज सत्रम प्रमाणे गृहस्थना गोख झरुखा तरफ दृष्टि न करे, तथा फाट पडेली ते दुरस्त करी होय त्यां न जुए, अथवा चोरे खातर पाडेलुं] होय, अथवा भीतने सांधो को होय, अथवा उदकगृह (पाणीनें स्थान ) होय, आ बधां स्थानो वारंवार हाथ लांवो करीने ४॥९०५॥ | अथवा आंगुळी उंची करीने तथा माथु उंचुं करीने नमावीने अथवा काया नीची नमावीने देखे नहि, बीजाने वतावे पण नहि, (सूत्रमा वेवार ते पाठ बतास्वानुं कारण भार देवानुं छे ) जो वारंवार त्यां देखे के वीजाने देखाडे, तो घरमां कंइ चोराय के 8 नाश पामे तो शंका उत्पन्न थाय, वली ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो गृहस्थने आंगळी वडे उद्देशीने, तथा अंगुली चलावीने अथवा आंगळीथी भय वतावीने तथा खरज खणीने तेमज वचनथी (भाट माफक ) स्तुति करीने याच, नदि, तथा कोइ वखत | गृहस्थ न आपे तो तेने कडवां वचन न कहे, के तुं जक्ष माफक पारकार्नु घर रक्षे छे ! तारा नशीवमा दान क्याथी होय ! IN तारी वातज सारी छे, पण कृत्य सारां नथी ! बळी अक्षरद्वयमेतद्धि, नास्ति नास्ति यदुच्यते तदिदं देहिदेहीति, विपरीतं भविष्यति ॥ १॥ तु 'नथी नथी' एवा वे अक्षर बोले छे, तेने बदले तुं आप आप' एबे अक्षर घरवाळाने कहे, के तेथी विपरीत थशे ! अर्थात् तारुं कल्याण यशे ! (आq पण कटाक्ष वचन साधु न बोले) अह तत्थ कंचि भुंजमाणं पेहाए गाहावई वा. जाव कम्मकरि वा से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति -৬ফেকেস্টেনেশফ৬৭৬৭ শ9ে Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥९०६॥ 1968-%CANCER-E & ॥९०६॥ वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयणजायं ? से सेवं वयंतस्स परों हत्यं वा मत्तं वा दनि वा भायणं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोइज्ज वा, से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा एयं तु म हत्थवा ४ सी ओदगवियड़ेण वा २ उच्छोलेहि वा २, अभिकखसी मे दाउं एवमेव दलयाहिसे सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा० सीओ० उसी. उच्छोलित्ता पहोइत्ता आहढ दलइज्जा, तहप्पमारेणं पुरेकम्मकएणं हत्थेण वा असणं वा ४ अफासुयं जाव वो पडिगाहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा नो पुरेकम्मकएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्येण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जावं नो पडिगाहिज्जा। अह पुणेवं जाणिज्जा-नो उदउल्लेण ससिणिर्तण सेसं तं चेव एवं-ससरक्खे उदउल्ले, ससिणिद्धे मट्टिया ऊसे । हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥१॥ गेश्य बनिक सेडिय सोरहिय पिट्ट कुकुस । उक्कुटुसंसष्टेण । अह पुणेव जाणिज्जा नो असंसह संस? तहप्पगारेण संसट्टेण * हत्थेण वा ४ असणं वा ४ फासुयं जाव मडिगाहिज्जा [ मू० ३३] । गृहस्थना घरमा पेठेलो ते भिक्षु कोइ गृहस्थ विगेरेने खातां जुए, तेने खातां देखीने साधु प्रथम आq विचारे के आ गृहस्थ, पोते अथवा तेनी स्त्री अथवा तेनी नोकरडी विगेरे कोइ पण खाय छे, एवं विचारीने तेनु नाम लेइ . याचना करे, के आयुष्मन् ! के अमुक गृहस्थ अमुक बाइ ! अथवा योग्य बीजुं वचन बोलीने कहे के तमारा घरमा जे रंधायुं होय तेमांथी अमने आपो ! एम याचना करे, ते तेम आपवाने हाजर न होय; अथवा कारण आवे आ प्रमाणे बोले, पछी तेना घरमांथी याचता| भिक्षुने धींजो गृहस्थ कोइ वखत हाथ डोइ के बीजं वासण काचा पाणीथी के बरोबर न उना थयेला पाणीथी अथवा उनु -RECORECRes Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESSAGASC+ करेलुं पार्छ कालं पहेंचितां' सचित्त धयेल होय तेना वडे धुए, अथवा वारंवार धुए, आ प्रमाणे धोवानी चेष्टा करतां पहेलां| आचा० | साधु जोइने विचारे [अर्थात् ध्यान राखे, अने पछी तेम देखीने तेनुं नाम लेइने निवारे, के तमे काचा पाणी विगेरेथी न घुओ सूत्रम् पण पहेलो गृहस्थ सचित्त विगेरे धोइनेज आपे तो अप्रामुक जाणीने साधु ले नहि. . ॥९०७॥ । 'वळी ते साधु गृहस्थनां घरमा पेठेलो जो एम जाणे के क्षाधु माटे नहिं, पण तेणे कोइ पण कारणे प्रथम काचा पाणीए ४॥९०७॥ दहाथ के वासण धोयुं छे, अने तेनां टपकां पडे छे, एवं देखे तो चारे प्रकारनो आहार अप्रामुक जाणीने लेबो नहि, कदाच पाणीनां टपकां न पडतां होय, पण काचा पाणीथी खरडेला हाथ के वासण होय तोपण ते आपतां साधुए न लेवू, एज पूर्व 3 कह्या-प्रमाणे न्याय छे, जेम काचा पाणीथी खरडेला हाथे न लेवु, तेम सचित्त रज होय; माटीथी खरडेल होय, तेमां उप ते 8 दखारवाळी माटी. इंडताळ, हिंगळोक, मणशिल, अंजन, 'लवण, गेरु, आ बधी पृथ्वीकायनी खाणमांथी नीकळेली सचित्त वस्तुओ साधुने न कल्पे, [ वर्णिका ते पीली माटी मेट छे, सेटिका खडी छे, सौराष्टि ते तुवरिका छे, पिष्ट ते छड्याविनाना तंदूल चूरण [ भूको ] छे, कुकसा उपरनां कूटेलां छोतरां [ उक्कुठ ] पीलु पर्णिका विगेरेनी खांडणीमां खांडेल चुरो अथवा लीलां पांदडानो चुरो, विगेरे खरडेला होथ विगेरेथी आपे तो ले नहि. ए प्रमाणे जो खरडेल न होय तो साधु गोचरी ले. पण एम जाणे के खरडायेल छे, पण ते जातिना आहारथी हाथ विगेरे खरडेल छे, तेमां आठ भांगा छे. - . .. "असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मते निरवसेसे दन्वे" । आमों एकेक पद वदलवाथी आथी आठ भांगा थाय-तेमा संमृष्ट हाथ, संमृष्ट वासण अने शेष द्रव्य वाकी रहेल होय ते ४ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥९०८॥ ॥९०८॥ APER 5. आठमो भांगो सर्वोत्तम छे, पण एवं जाणे के, काचा पाणी विगेरेथी असंपृष्ट हाथ विगेरे छे, तो ते लेवू, अथवा ते जातिना डू द्रव्यवडे (भक्ष्य वस्तुथी) हाथ विगेरे खरडेल होय ते आहारने प्रासुक जाणीने साधुए लेवो, वळी सूत्रम् से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंय वा असंजए मिक्खुपडियाए चितमंताए सिलाए जाव संताणाए कुहिसु वा कुट्टिति वा कुहिस्संति वा, उफ्फणिसु वा ३ तहप्पगारं पिहुयं वा० अष्फासुयं नो पडिगाहिज्जा ।। (सू० ३४) ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो जो एq जाणे, के चोखा विगेरेना कुरमुरा (ममरा) घणी रेतीथी भरेला छे, अथवा अडधा । शेकेल चोखा विगेरेना कण विगेरे होय, तेने साधुने उद्देशीनेज सचित्त शिला उपर अथवा बीजवाळी, हरितवाळी अथवा नाना । अंतना इंडावाळी अथवा करोळीयाना जाळावळी शिला उपर ते ममरा के कणोने फुटेल होय फुटे अथवा फुटशे, (सूत्रमा एकवचन क्रियापदनु छे ते आर्षवचन होवाथी बहुवचनमा लेवु अथवा जातिमा एकवचन पण लेवाय) आम करीने पछी ते धाणी, पव्वा विगेरे सचित मिश्र होय. तेने सचित शिलामां कुटीने साधु माटे झाटके अने मछी आपे, के आपशे, तेवू जाणीने तेवो पृथक् । विगेरे आहार आपे तोपण ले नहि. से भिक्ख वा २ जाव समाणे से ज. विलं वा लोणं उभियं वा लोणं अस्संजए जाच संताणाए भिदिसु ३ रुचिमु वा ३ विलं वा लोणं उब्भिमं वा लोणं अफासुयं० नो दडिगाहिज्जा ॥ (सू० ३५) जो ते भिक्षु एवं जाणे, के आ खाण- मीठं (विल वीड) छे, अथवा सिंघव, संजल विगेरे वधी मीठानी जाति होय, तथा OGRESSAREARE wజలలోలు. Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् ROSROCESSA ॥९०९॥ उदभिज (समुद्रना किनारे मूकावेलु.मीलु,) ते प्रमाणे रुमक विगेरे वीजुं मीठं पण लेवू, आवं मीठं जे. काचं छे, तेने उपर बतावेल आचा० शिला उपर कूटीने आपे. अटले साधु माटे भेदे, भेदशे, अथवा वधारे झीणु करवा चूरीने आपे तो लेवं नहि. वळी ॥९०९॥ से भिक्खू वा० से जं. असणं वा ४ अगणिनिकिक्खत्तं तहप्पगारं असणं वा ४ अफायं नो०, केवली व्या आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए उस्सिंचमाणे वा निस्सिंचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमज्जमाणे वा ओयारेमाणे वा उव्वत्तमाणे वा अगणिजीबे हिंसिज्जा, अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्टा एस पइन्ना एस हेऊ एस कारणे एसुवएसे जं नहप्पगारं असणं वा ४ अगणिगिक्खित्तं अफासयं नो० पडि. एयं० सामग्गियं ।। (सू०३६)॥ पिण्डैषणायां षष्ठ उद्देशकः २-१-१-६॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गोचरी गयेल होय, त्यां चारे प्रकारनो अहार अग्नि उपर वळता साथे लागेल होय तो आहार आपे ६ नो पण लेवो नहि, त्यां केवली प्रभु कहे छे के, आ कर्मा दान छे, तेज प्रमाणे गृहस्थ भिक्षुने उदेशीने त्यां अग्नि उपर रहेल है & आहारने वीजा वासणमां नाखतो तेमांथी प्रथम आपेल होय ते बधेलामां बीजं नाखे अथवा हाथथी मसळीने शोधे, तथा प्रकर्षथी शोधे, तथा निचे उतारीने अथवा अग्निने तीरछी करीने जीवोने पीडे. 8 आ वधी बात समजावीने कहे छे के उपर बतावेली साधुनी आ प्रतिज्ञा छे के अग्नि साथे लागेलं भोजन विगेरे अप्रामुक छे, अने ते अनेपणीय छे, एम जाणीने आहार मळतो होय, तो पण ले नदि, आज साधुनुं सर्वथा साधुपणुं छे, पहेला अध्ययननो छट्टो उद्दशो समाप्त थयो. CRECTOR P Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९२०॥ २२-२-0 सातमो उद्देशो छठो उद्देशो कहीने सातमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां संयम विराधना वतावी, अने अहीं संयमनी आत्मानी दानदेनारनी विराधना बतावशे अने ते विराधनाथी जैनशासननी हीलना थाय, ते आ उदेशामां बतावशे. से भिक्खू वा २ से जं. असणं वा ४ खंसि वा थंभसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उवनिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालोहडं असणं वा ४ अफासुयं नो० केवली व्या आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उद्दल वा आहटु उस्सविय दुरूहिज्जा, सेताथ दुरुहमाणे पयलिज्ज वा पवडिज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा बाहुं वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं अन्नयरं वा कार्यसि इंदिजालं लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज्ज वा वित्तासिज्ज वा लेसिज्ज वा संघसिज्ज वा संघट्टिज वा परियाविज वा किलमिज्ज वा ठाणाओ ठाणं संकामिज्ज वा, तं तहप्पगारं मालोहड असणं वा ४ लाभे संते ना पडिगाहिज्जा, से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं. असणं वा ४ कुट्टियाओ वा कोलेज्जाउ वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अवउज्जिय ओहरिय आहुट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा ४ लामे संते नो पडिगाहिज्जा ।। (सू० ३७) ।। ते भिक्षु गोचरीमां गयेलो जो आ प्रमाणे चारे प्रकारनो आहार जाणे, स्कंध (ते अर्धभाकार-उंची भीत जेवो होय) लाकडो के पत्थरनो थंभो होय, तथा मांचडो बांधेलो होय अथवा शीका उपर होय, महेलमां, के हवेलीमां के कोइपण अंतरीक्ष (अधर) Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ९११॥ स्थानमा आहार राखेल होय तो तेवा उपरथी आहार लइने वहोरावे तो पण मालापत हृदोष लागतो जाणीने न लेवो, केवळीद प्रभु तेमां आ प्रमाणे दोष बतावे छे, एटले त्यां उंचे वस्तु राखी होय ते लेवा गृहस्थ जाय तो हाथ पहोंचवा माटे साधु माटेज मांची, पाटीयू, नीसरणी, उधी उखणी अथवा बीजु कंइ पण अधर टेकवीने तेना उपर चडीने लेवा जाय तो चडतां पडी जाय, ४/ अने खसीने पडतां हाथ, पग भांगतां अथवा इंद्रिय के शरीरमा लागी जाय, तेज प्रमाणे. पडतां बीजा जीवोने, प्राणीओने हणे, त्रास पमाडे, अथवा धुळवडे ढांके, घसारो आपे, संघटन करे आ प्रमाणे थतां ते जीवोने परिताप करे, थकवे, एकस्थानथी बीजा है २ स्थानमा खसेडे, आवा दोषो जाणीने शीका के मेडा उपरथी लावीने आपे तो मळती वस्तु पण साधुए न लेवी _ अथवा ते साधु आहार लेतां आ प्रमाणे जाणे, के माटीनी कोठीमांथी अथवा जमीनमां खोदेल अर्ध गोळाकार खाणमांथी 8 द साधुने उद्देशीने कायाने उंचीनीची करीने कुबडी थइने काढे, तथा खाणमां नीची नमीने अथवा तीरछी पडीने आहार लावीने * आपे, तो साधुए अधोमालाहुत (नीचे पडीने लीधेल) आहार गृहस्थ पासेथी मळतो होय तो पण लेवो नहि, हवे पृथ्वीकायने । आश्रयी कहे छे. से भिक्खू वा० से ० असणं वा ४ मट्टियाउलित्तं तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे सं०, केवली०, अस्संज्जए भि० मट्टिओलिचं असणं वा० उभिदमाणं पुढविकाथं समारंभिज्जा तह तेउवाउवणस्सइतसकायं समारंभिज्जा पुणरवि उल्लिपमाणे पच्छाकम्म करिज्जा, अह भिक्खूणं पुयो० ज तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा लाभे० । से भिक्खू० सेनं असणं वा ४ पुढाविकायपइडियं तहप्पगारं असणं वा० अफासुयं० । से भिक्खू० जं असणं वा ४ आउकायइडियं चेव, एवं SINESS RESENTER+---SER-RH Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९९२॥ अगणिकायपइट्टियं लाभे० केवली०, अस्संज० भि० अगणि उस्सकिय निस्सकिय ओहरिय आहछु दलइज्जा अह भिक्खूणं० जाव नो प्रडि० ॥ ( सू० ३८ ) ते भिक्षु गोचरीमां गयेलो आ प्रमाणे जाणे, के पिठरक ( माटीना गोळा ) विगेरेमां माटीथी प्रथम लींपीने चोडेल होय, मांथी काढीने चार प्रकारना आहारमांथी कांइपण आपे तो पश्चात्कर्मना दोषथी मळतो आहार पण न ले, म० - शामाटे ? उ० केवळ प्रभु तेने कर्म उपादान कहे छे, के ते गृहस्थ भिक्षुकनी निश्राए माटीथी लींपेलुं वासण होय, तेमांथी काढीने कांइपण आहार आपे, तो ते वासण खोलतां पृथ्वीकायनो आरंभ करे, तेज़ केवळी प्रभु कहे छे, तथा अग्नि वायुनो तेमज वनस्पति तथा त्रसकायनो पण आरंभ करे, अने साधुने आप्या पछी बाकी रहेल. मालना रक्षण माटे ते वासणने पाछु लोपे माटे साधुने पूर्व कहेली आ प्रतिज्ञा होवाथी अने तेज हेतु तेज कारण होवाथी आ उपदेश छे के, तेनुं माटीथी लींपेलं वासण उघडावीने मळतुं भोजन के वस्तु कंइपण लेबुं नहि. वळ ते भिक्षुक गृहस्थना घरमां पेसतां वळी आवुं भोजन विगेरे जाणे, तो नले, एटले पृथ्वीकाय उपर स्थापेल आहारने | जाणीने पृथ्वीकायना संघट्टन विगेरेना भयथी अमासुक जाणाने मळतुं होय तो पण नले, एज प्रमाणे पाणी उपर अग्निकायमा स्थापेल होय तो पोते ले नहि, कारण के केवळी तेमां आदान कहे छे, तेज बतावे छे, 'असंयत' गृहस्थ भिक्षु माटे अग्नि उपर स्थापेल वासने आमतेम फेरवी आहार आपे तेथी ते जीवोने पीडा थाय माटे साधुओनी आ प्रतिज्ञा छे के तेवो आहार लेवो नहि. सेभिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ अच्चुसिणं अस्संए भि० सुप्पेण वा विहुणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए सूत्रमू ॥९९२॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९९३॥ वा साहाभ्रंगेल वा पिणेण वा पिहृणहत्येण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज्ज वा बीइज्ज वा, से पुन्त्रामेव आलोइज्जा - आउसोत्ति वा भणित्ति वा ! मा एतं तुमं असणं वा अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमा हि वा वीयाहि वा अभिकखसि मे दाउं, एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीहत्ता आहहु दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुग्रं वा नो पडी० ॥ ( सू० ३९ ) ॥ · ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो जो आ प्रमाणे जाणे के आं घणो उनो भात विगेरे साधुने उद्दशीनेज गृहस्थ ठंडो करवा माटे सूपड़ाथी, बींजणाथी, मोरना पोंछाना पंखायी अथवा शाखाथी के शाखाना भंगवडे अथवा पोंछाथी अथवा पोंछाना समूहवडे, वस्त्रथी के वस्त्रना छेडाथी, हाथथी, मोढेथी अथवा तेवा कंइपण ओजारथी फुंकीने ठंडो करे, अथवा वस्त्रथी बींजे, आ प्रमाणे करवा पहेलां साधु लक्ष्य राखीने तेनुं गृहस्थ करे, ते पहेलां तेने नाम दइने बोले के हे भाइ ! हे बहेन ! आबुं तमे करीने मने आपवानी इच्छा धरावो छो, तो तेम फुंकया विनाज अमने आपो, आवुं साधु कहे तो पण गृहस्थ हठथी सूपडेथी के मुखना वायुवडे फुंकीने आपे तो तेने अनेषणीय ( दोषित) आहार जाणीने लेवो नहि. fuser अधिकारी एषणा दोषोने उद्देशीने कहे छे. से भिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ वणस्सइकार्यपइट्टियं तहप्पगारं असणं वा ४ वण० लाभे संते नो पडि० । एवं तसकाएवि || (सू० ४० ) ॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गयेलो एवं जाणे, के वनस्पतिकायमां चारे प्रकारनो आहार छे, तो ते जाणीने ले नहि, ए प्रमाणे " 1 सूत्रम् ॥९९३॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९१४॥ (५) वासणमाथी तुष विग होय, (३) पृथ्वीकाय विग/॥९१४॥ । विगेरेयी जे आप, 5 त्रसकायतुं सूत्र पण जाणवू, अहीं ( वनस्पतिकायमा रहेलुं ) आ सूत्र वडे निक्षिप्त नामनो एषणादोष लेनार आपनार बनेनो भेगो |5| बताव्यो, तेज प्रमाणे बीजा पण एषणादोष यथासंभव सूत्रोमां योजवा ते आ प्रमाणे छे. सूत्रमू संकीय मक्खिय निक्खित पिहिन साहरियदा यगुम्मीसे; अपरिणय लित्त छड्डिय, एसण दोसा दस हवंति ॥१॥ (१) अधाकर्म विगेरेथी शंकित आहार विगेरे न लेवू, (२) पाणी विगेरेथी मृक्षित [लींपायेल] होय, (३) पृथ्वीकाय विगेरेमा स्थापन करेलं होय, (४) बीजोरा विगेरे फळथी ढांकेलं होय (५) वासणमाथी तुष विगेरे न आपवा योग वस्तु बीजी र सचित्त पृथ्वी विगेरे उपर नांखीने ते वासण विगेरेथी जे आपे, ते संहृत दोष छे. (६) बाल वृद्ध विगेरे दान देनार 'शुद्धि तथा के र शक्ति विनानो होय, (७) सचित्त विगेरे पदार्थथी मिश्रित वस्तु होय, (८) देवनी वास्तु बरोबर अचित्त न थइ होय, अथवा देनार लेनारना भावविनानी होय ते अपरिणत कहेवाय, (९) चरवी विगेरे निदानीक पदार्थथी लिप्त होय (१०) छांटा पाडती वहोरावे.8 आ दस दोष एसणाना कह्या, ते टाळवा जोइए. हवे पीवाना आश्रयी कहे छे• से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-उस्सेइमं वा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणं विलंअव्वुकंतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा। अह पुण एवं जणिज्जा चिराधोयं अंविलं वुक्तं परिणयं विद्वत्थं फासुयं पडिगाहिज्ज । से भिक्खू वा० से जंपुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा-तिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदगं वा ६ आयाम वा ७ सोवीर वा ८ सुद्धवियर्ड वा ९ अन्नयरं वा तह पगारं वा पाणगजायं पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! दाहिसि मे इचो अन्नयरं पाणग USESSASSACROSSESSIEन Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायं.? से सेवं वयतस्स परो वइज्जा-आउस्सं नो समाणा! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिचिया णं आचा० उयत्तियां णं गिण्हाहि, तहप्पगारं पाणगजायं सयं वा गिहिज्जा परो वा से दिज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिज्जा ॥ सूत्रम् (सू०४१) ॥९१५॥ ते साधु गृहस्थना घरमां पाणी माटे गयेल होय. त्यां एवु जाणे के आटोगुंदळवान आ पाणी छे, ते उस्सोइम छे, तथा तलने |8| ॥९१५॥ | धोवानं पाणी छे, ते संसेइम छे, अथवा अरणिका विगेरे धोवानुं पाणी छे, तेमां प्रथमनां वे तो प्रासुक छेज; पण त्रीजा चोथा है नंबरना पाणी मिश्र छे, ते अमुक काळे परणित [ फासु] थोय छे, ते चावल [चोखा] नुं धोवण छे, तेमां त्रण अनादेश छे, 8 परपोटा थता होय, पाणीनां विदुओ वासणने लागेलां शोपाइ गयां होय, अथवा तंदुलरंधाइ गयां होय, पण तेनो खरो आदेश आ3 | छे, के पाणी स्वच्छ, थइ गपुं होय, [परपोटा बेसीने स्वच्छ थयु होय तेज लेवाय ]-अनाम्ल ते पोताना स्वादथी अचलित अव्यु-1 तत्क्रांत अपरिणत अविध्वस्त अप्रासुक मालुम पडे ते साधुए लेवू नहि, अने तेथी विपरित होय तो गृहण करवू, फरी पाणीना न अधिकारथीज विशेषे कहे छे. 8 ते भिक्षु गृहस्थना घरमा पेठेलो आq पाणी जाणे, के [४] तलनुं धोवण कोइपण प्रकारे मासुक करेलुं पाणी, गृहस्थना | दि घरमा छे, ए प्रमाणे [५-६] तुपथी, जवथी, अचित्त थयुं होय, [७] आचाम्ल [ ओसामण ] [८] आरनाल सोवीर [९] बरोबर उनुं पाणी शुद्ध विकट अथवा तेवू द्राक्षन धोवण विगेरे अचित्त पाणी जुए, तो गृहस्थ ने कहे, के हे भाइ ! हे वाइ ! जे कंइ आq | अचित्त पाणी होय, ते मने आपो! ते वखते गृहस्थ बोले, के हे साधु ! तमेज आ पाणी पोताना पानरा बढे के काचलीवडे के Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९९६ ॥ कडायुं उंचकीने के वांकुवाळीने वासणमांथी लो, ते प्रमाणे कहे तो साधु पोते ग्रहण करे, अथवा गृहस्थ तेने आपे, तो प्रामुक पाणी साधुए लेवु. वळी सेभिक्खु वा ० से. जं पुण पाणगं जाणिज्जा - अणंतर हियाए पुढवीए जाव संताणए उद्धट्टु २ निक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खूपडियाए उदउल्लेण वा ससिणिध्येण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीओदेगेण वा संभोत्ता आहडु दलइज्जा, तहपगारं पाणगजायं अफामुयं० एयं खलु समाग्गियं० ॥ ( सू० ४२ ) ॥ पिण्डैपणायां सप्तमः २-१-१-७ । ते भिक्षु जो आ जाणे के ते अचित पाणी, सचित पृथ्वीकाय विगेरेमां आंतरा विना मुकेलं छे, अथवा करोळीयाना जाळा विगेरेमां वीजा वासणमांथी लइ लइने तेमां वासण मुकेलुं छे, अथवा ते गृहस्थ भिक्षुने उद्देशीनेज काचा पाणीना गलतां टपकांवडे अथवा सचिव पृथ्वी विगेरेना अवयवथी खरडायेलुं भाजन होय, अथवा ठंडा पाणीथी मिश्र करीने-भेगुं करीने आपे, ते पाणी 'अनेषणीय' जाणीने लेबुं नहि, आ भिक्षुनी संपूर्ण साधुता छे. सातमो उद्देशो समाप्त. आठमो उद्देशो. सातमो कहीने आठमो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां पाणीनो विचार बताव्यो, अहिं, पण तेज पाणी संबंधी विशेष कहे छे सूत्रम् ॥९९६ ॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमू से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपाणग वा १० अंबाडगपाणगं वा ११ कविट्ठपाण: १२ आचा० माउलिंगपा० १३ मुद्दियापा० १४ दालिमपा० १५ खजूरपा० १६ नालियेरपा० १७ करीरपा० १८ कोलपा० १९ आमलपा० २० चिंचापा० २२ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं 'सअट्टियं सकणुयं सबीयगं अस्संजए भिक्खूपडियाए ॥९१७॥ छब्वेण वा दुसेण वा वालगेण वा आविलियाण परिवीलियाण परिसावियाण आटु दलइज्जा तहप्पगारं पाणगजायं अफा० लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ।। (मू०४३)॥ . . ते साधु गृहस्थना घरमां गयेल आवा प्रकारचें पाणी जाणे, के केरीनुं तथा अंबाडान धोवण (१०-११) छे, तथा कोठ (१२) नु धोवण छे, बीजोरुं (१३) मुद्रिका (द्राक्ष) नुं धोवण (१४) छे, दाडम (१५) नु, खजुर (१६) नु, नाळियेर (१७) केर (१८) कोल (बोर) नुं (१९) आमणां (२०) चिंचा आंवली (२१) तथा तेवां बीजां बधां पाणी-एटले द्राक्ष, बोर, आंवली विगेरे कोइ पण पाणीने ते क्षणेज चूरीने कराय छे, तथा अंबाडा विगेरेनुं पाणी वेत्रण दिवस साथे राखीने पलाळे आq पाणी होय अथवा ID तेवी जातनुं बीजुं होय, ते ठळियासाथे वर्ते, अथवा कणुक (छाल विगेरे अवयव ) साये होय, तथा वीज सहित वर्ते, ठळीयो 8 तथा बीज़ आमणां विगेरेमा जुदापणुं प्रीतीत छे, आबु पाणी गृहस्थ साधुने उद्देशीने द्राक्ष विगेरे चुरीने अथवा वांसनी छालथी बनावेल छाबडी विगेरे पलाळीने अथवा गाय विगेरेनां छडाना पूवाळना बनावेल चालणावडे अथवा सुगृहीपक्षीना माळा वडे. ठळियो विगेरे दूर करवा एकवार मसळोने के वारंवार चोळीने नथा परिस्रवण करीने-गाळीने साधु पासे लावीने आपे, आQ पाणी उदगमदोपथी दुष्ट जाणीने मळतुं होय, तो पण ले नहि, उदगमदोषथी नीचे प्रमाणे छे, AEGSEGRERIREKESPARREIRA Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्र R-CARRIER- ॥९१८॥ SCRECENCEMESHRESCOR-CHAR आहाकम्मुद्देशोस्सिय पूतीकम्मे अंमीसजाएं अ॥ठवाणा पाहुडियाएं पाओअर कीय पामिच्चे ॥१॥ परिट्टिए अभिहडे, उब्भिन्ने मालोहडे इअ अच्छेज्जे अणिसह, अज्झोअरए अ सोलसमे ॥ २ ॥ (१) साधुना माटे जे सचित्तनु अचित्त करे, अथवा अचित्त रांधे ते आधाकर्म दोष छे (२) जे पोताना माटे तैयार रसोइ, थइ होय ते लाडुना चूर्ण विगेरे गोळ विगेरेथी साधुने उद्देशीने वधारे संस्कारवाळ बनावे, आ समान्यथी छे, (पण विशेषथी जा-2 णवा इच्छनारे विशेष सूत्रथी जाण, (३) आधाकर्मना भागथी मिश्र करे ते पूतीकर्म छे, (४) साधु तथा गृहस्थने आश्रयी प्रथमथी आहार भेगो रंधाय ते मिश्र छे. (५) साधुने माटे खीर विगेरे जुदी काढी राखे ते स्थापना दोष छे, (६) घरमां लग्न विगेरेना। अवसर आववानो होय ते साधुने आवेला जाणोने के आववाना जाणी तेमने ते मिष्टान्न विगेरे आपवा माटे आगळ पाछळ करे, ते प्राभृतिकादोप छे, (७) साधुने उद्देशीने झरुखा बारी विगेरे उघाडवी, अथवा अंधारामांथी लावीने अजवाळामां मुकवू ते प्रादकरण छे, (८) द्व्य विगेरे आपीने खरीद करे ते क्रीतदोष छे साधु माटे कोइनें उछीकुं-उछीन ले ते 'पामिच्च' दोष छे (१०)। कोदरा विगेरे आपीने पाडोशीना घरमांथी शालि विगेरेनाचोखा बदले लावे. ते परिवर्तितदोप छे, (५१) घर विगेरेथी साधना 5 उपाश्रयमा लावीने आपे ते अभ्यातदोष छे, (१२) छाण विगेरेथी लींपेलं वासण खोलीने आपे, ते उद्भिन्न दोष छे, (१३) माळा उपर विगेरेथी-निसरणी वडे लावीने आपे ते मालहत दोष छे, (१४) नोकर विगेरेथी छीनवी लइने आपे ते आ छेद्य दोष छे, है (१५) समुदाय आश्रयी रंधायेलं, बधानी रजा लीधा सिवाय एकलो आपे ते अनिसृष्ट दोष छे, (१६) पोताना माटे रंधाता अन्न मां पाछळथी तांदुल विगेरे साधुने आवता सांभळीने रांधतां उमेरे ते 'अध्यवपूरक' दोष छे, आवा कोइपण दोपथी दोपित आहार USEUSROSREOSPRUSEHOLX Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 सूत्रम् SSC-RESEA ॥९१९॥ होय तो साधुए ते आहार लेवो नहि. पा; पण भोजन पाणी विगेरे आश्रयी कहे छे. आचा० से भिक्खू वा०.२ आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावई गिहेसु वा परियावसहेसु वा अन्नगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरभिगंधाणि वा आघाय २ से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए' गिद्धे गढिए अज्झो चवन्ने अहो गंधो २ नो . ॥९१९॥ गंधमाघाइज्जा (सू० ४४), ते साधु आगंतार ते शहेरनी बहार मुसाफरो आवीने उतरे तेवी धर्मशाळा के मुशाफरखानामां अथवा आराम घरो [बगीचा|नी अंदरना मकान] मां अथवा गृहस्थना घरोमां पूजाना घरोमां अथवा भिक्षुकना मठमां ज्यां अन्न-पाणीनी सुगंधीना गंधोने मुंघी IN | सुंघीने तेना स्वादनी प्रतिज्ञाथी मूर्छित गृद्ध घेलो बनेलो अहाहा ! शुं सुगंध छे ! एवो प्रेमी वनीने ते गंधने सुंघे नहि. फरी पण आहारने आश्रयी कहे छे से भिक्खू वा २ से जं० सालुयं वा बिरालियं वा सासवनालियं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमगं असन्थपरिणयं अफासु० । से भिक्खू वा० से जं पुण० पिप्पलिं वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं वा आमगं वा असत्य प० । से भिक्खू वा० से जं पुण पलंबजायं जाणिज्जा, जहा-अंबपलंबं वा अंबाडगपलंब वा तालप० ज्ञिज्झिरिप० सुरहि० सल्लरप० अन्नयरं तहप्पगारं पलंबजायं आमंग असत्यप० । से भिक्खू ५ से जं पुण पवालजायं जाणिज्जा, तंजहा-आसोपवालं वा निग्गोहप० पिलुंखुप० निपूरप० सल्लइप० अन्नयरं वा तहप्पगारं पवालजायं आमगं असत्यपरिणयं० । से भि० से जं पुण० सरडुयजायं जाणिज्जा, तंजहा-सरडुयं वा SSAC-SSk Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रमू ॥९२०॥ ॥९२०॥ कविसर० दाडिमसर० बिल्लस० अन्नयरं वा वहप्पगारं सरडुयजायं आमं असत्य परिणयं० । से भिक्खू वा० से जं . पु० तंजहा-उबरमंथु वा नग्गोहमं० पिलुखुम० आसात्थमं० अन्नमरं वा तहप्पगारं वा मंथुजायं आमयं दुरुकं साणुवीयं अफासुयं० ॥ (सू० ४५) ते भिक्षु सालक (पाणीमां थनारुं कंद) बिरालिय (स्थळमां थनारुं कंद) सरसवनी कंदलीओ तेवू कंइपण काचुं कंद कांदळ | विगेरे शस्त्रोथी परिणत थयेलं नहोय, तेमज ते भिक्षु पीपर, पीपरनुं चुरण, मरचां मरचान चुरण सींगोडा सींगोडार्नु चुरण अथवा तेवू कंइपण काचुं शस्त्र फरस्सीया विनानु अप्रामुक होय ते, आंबाना फळ (केरीओ) अंबाडानां फळ, ताडनां फळ झिझि ते | वल्लीपलास सुरभि ते शतद्र छे सल्लर छे. आ प्रमाणे जे कंइ काचुं फळ होय, अने ते शस्त्रथी परिणत न होय तो सचित्त जाणीने लेवु नहि. वळी ते भिक्षु कोइपण जातिनुं प्रवाळ ते पीपळा; वडनुं पिलुंखु (पीपरी) निपुर (नंदोक्ष ) शल्लकी अथवा ते, वीजें | कांइपण प्रवाळ होय तो, काचुं सचित्त होय तो लेवु नहि, तेज प्रमाणे ते साधु कोइपण जातिनु 'सरडुअ' ते ठळीयो बंधाया विनानुं फळ होय, ते कोठ, दाडम, विल्लु अथवा तेवु कोइपण जातिनुं फळ होय ते, शस्त्रथी परिणत नहोय ते साधुए लेवु नहि, तेज प्रमाणे साधु उंबरनुं मंथु (चुरण) होय, वडनु, पिलंखु, पीपळो अथवा तेवू बीजानु चुरण होय तो, शस्त्रथी परिणत थया ती विनानं होय तो लेवु नहि, आमंथु थोडं पीसेलं होय ते दुरुक्क कहेवाय छे, साणुवीय ते तेनां बीज वां कायम रह्यां होय, तो ते काचं जाणवू. ते न कल्पे. . . . . . कार-CREASE Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POSROGRESCAR ...से भिक्खू वा० से जं पुण. आमडागं वा पूइपिन्नागं वा महुँ वा मजं वा सपि वा खालं वा पुराणगं वा इत्थ पाण अणुप्पआचा० सूयाई जायाई संवुढाई अव्वुकताई अपरिणया इत्थ पाणा अविद्धन्था.नो पड़िगाहिज्जा ।। (मू०४६)॥ 1 सूत्रम् .. वळी ते साधु एम जाणे के काचां पान ते अरणीक तंदुलीय (तांदळजा) विगेरेनां पांदळां अर्ध काचां अथवा तदन काचा ॥२१॥४/छे, अथवा तेनो खल. को छे, मध मांस जाणीतां छे, तथा घी तथा खोल दारुना नीचेनो कचरो आ वधा घणा वरसनां जुनां 8 ॥९२१॥ | होय तो लेवां नहि, कारणके तेमां जीवो उत्पन्न थइ जाय छे, अने तेथी ते अचित्त होता नथी, सूतमा संवृद्धा विगेरे एक अर्थवाळा है। छतां जुदा जुदा देशना शिष्योने समजाववा सूत्रकारे लीधा छे अथवा तेमां किंचित् भेद छे. (आमां मध अने दारु अभक्ष्य छतां शास्त्र-18 कारे चोपडवा माटे कारण विशेष छूट एटला माटे आपी छे के हाथ पग उतरी गयो होय तो तेनो उपयोग करचो पडे, ते संबंधे साधुने महान् प्रायश्चित छे, माटे वर्तमानकाळमां पण बने त्यां सुधी चोळवा चोपडवामां तेवी चीज न वापरवी. पण वीजो उपायज न होय तो कदाच वापरवी पडे तो पण तेनुं छेदमूत्र.प्रमाणे महान प्रायश्चित लेबु के दुर्गति न थाय.) से भिक्खू वा से जं. उच्छुमेरगं, वा अंकरेलुग वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूइआलुगं वा अन्नयरं वा० । सेभिक्खू वा० से जं० उपलं वा उप्पलनालं वा भिसं वा भिस- मुणालं वा पुक्खलं वा पुक्खलविभंग वा अन्नयरं वा तहप्पगारं० ॥ (सू० ४७) ।। उच्छुमेरंग ते छोलेली शेरडीना,टुकडा, अंके करेलु कसेरुग सींगाडां पूइआलूग अथवा तेवू वीजें कंइ काचुं शस्त्रथी हणाया न होय, तो साधुए लेवु नहि. तेज प्रमाणे लीढं कमळ, तेनी नाल, अथवा पदमर्नु कद तेनी नाळ, पोकखल, पदमना C -% Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ९२२ ॥ केसरा अथवा तेनुं कंद अथवा तेवुं कोइपण कंद शस्त्रथी हणायाविनानुं काचं होय तो कल्पे नहि. सेभिक्खू वा २ से जं पु० अग्गवीयाणि वा गूलवीयाणि वा खंधवीयाणि वा पोरवी० अग्गजायाणि वा भूलजा० खंधजा० पोरजा० नन्नत्थ तक्कलिमत्थए ण वा तक्कलिसीसे ण वा नालियेरमत्थएण वा खज्जूरिमत्थएण वा तालम० अन्नयरं वा तह० । से भिक्खू वा २ से जं० उच्छु वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्सं विगदूमियं वित (त्त) ग्गगं वा कंदलीकसुगं अन्नयरं वा तदप्पगा० । से भिक्खू वा० से जं० लसुणं लसुणपत्तं वा ल० नालं वा लसुणकंदं वा ल० चोयगं अन्नयरं वा० । से भिक्खू वा० से जं० अच्छियं वा कुंभिपक्कं र्तिदुगं वा वेलुगं वा कासवनालियं वा अन्नयरं वा तहगारं आमं असत्थप० । से भिक्खू वा० से जं० कणं वा कणकुंडगं वा कणपूयलिय वा चाडलं वा चाडलपि वा तिलं वा तिलपिष्ठं वा तिलपप्पगडगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप लाभे संते नो प०, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्रियं ॥ (०४८ ) २-१-१-८ ॥ पिण्डैषणायामष्टम उद्देशकः || ते भिक्षु आ जाणे, के जवा कुसुम विगेरे अग्रवीज छे, जाइ विगेरेनां मूळबीज छे, सलकी विगेरे स्कंधबीज छे, अथवा इक्षु (शेरडी) विगेरेनां पर्ववीज छे, तेज प्रमाणे अग्रजात, मूळजात, स्कंधजात, पर्वजात ते तेमांथीज जन्मे छे, पण वीजेथी नहि., तक्कली (कंदली ) नुं मस्तक ( वचलो गर्भ ) अने कंदलीशीर्ष ते तेनो स्तबक ए प्रमाणे नाळियेर विगेरेमां पण समजवु, अथवा कंदली विगेरेना मस्तक समान जे कंइ छेदवाथी तुर्तज ध्वंस पामे छे, तेवुं बीजुं पण काचुं अशस्त्र परिणत होय ते लेवुं नहि, तथा भिक्षु एवं जाणे के शेरडी, रोग विगेरेथी छिद्रवाळी थाय अंगारहित ( रंगे बगडी गयेल) होय, तथा छाल छेदाइ गयेली होय, सूत्रम् ॥९२२॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगमिय, ते वरगडे अथवा शियाळिए थोडी खाधेल होय, आवा छिद्र विगेरेथी ते शेरडी विगेरे अचित्त थती नथी तथा वेत्राग्र आचा द तथा 'कंदली ऊस्सुर्य' ते कंदलिनो मध्य भाग एवं वीजु पण काचु अपरिणत होय तो लेवु नहि, आ प्रमाणे लसण संबंधी पण / सूत्रमू ॥९२३॥ जाणवू के अपरणित होय ते न लेबु, आमां 'चोयग' नो अर्य कोशिकाना आकारे लसणने बहार छाल होय, छे. ते ज्यांसुधी लीली || ॥९२३॥ | होय त्यांसुधी सचित्त जाणवी, अच्छियं ते कोइ वृक्षतुं फळ छे, तथा टोंबरु, बीलु कासवनालियं ते श्रीपर्णीनुं फळ छे, आ काचां फळोने एकदम पकववा खाडामां नाखीने पकवे ते पाकेला पण सचित्त जाणवां, ते साधुने न् कल्पे. (आम जे पकवे ते कुंभीपाक कहेवाय छे.) ____तथा शालि विगेरेना कण ते कणिका छे, तेमां कोइ नाभि (सचित्तयोनि ) होय, कणिककुंड ते कणकीमिश्रित कुकसा तथा 8 18 कणपूयलिय ते कणकीथी मिश्रित पूपलिक कहेवाय छे. आमां पण थोडंक पकवेल होय तो नाभि (सचित्त योनि ) संभवे छे. (वाकी तेमा तल, तलनो पीठ, तलनो पापड विगेरेमा वखते सचित्त योनि होय माटे काचु ले, नहि, आवी चीज मळे तोपण लेवी नहि,) आज साधुनी संपूर्णता साधुता छे, आठमो उद्देशो समाप्त थयो. . Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९२४॥ ॥९२४॥ __ नवमो उद्देशो. आठमो कहीने नवमो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अनेषणीय पिंडनो त्याग वताव्यो, अहीं ते पण बीजे प्रकारे तेज बतावे छे. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड्ढा भवंति, गाहावई वा जाव काम्मकरी वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइजे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संवुडा बंभयोरी उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए.वा पायए वा, से जं पुण इमं अम्हं अप्णो अटाए निट्टियं तं असणं ४ सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्टाए असणं वा ४ चेइस्सामो, पयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म तहप्पगारं असणं वा अफासुयं० ॥ (भू० ४९) 'इह' शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे, अथवा प्रज्ञापकना क्षेत्र आश्रयी छे. खलु शब्द वाक्यनो शोभा माटे छे.) प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशाओ छे, अर्थात गुरु-शिष्यने कहे छे, के-पुरुषोमां केटलाक एवा श्रद्धालुओ श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक 2 अन्य पुरुपो होय छे, ते गृहस्थ अथवा कर्म करी (काम करनारा) होय छे, तेमने मालीक कहे के, आ गाममां आ आवेला साधु भगवंतो १८००० भेदे शीलवन पाळनारा छे, तथा पांच महाव्रत तथा छटुं रात्रिभोजन विरमणव्रत धारनारा, तथा पिंडविशुद्धि । विगेरे उतरगुणयुक्त इंद्रिय मनने दमन करवाथी संयत छे, तथा आस्नवद्वार (पापस्थान) रोकवाथी संवृत छे, नवविध 'ब्रह्मचर्य। र गुत्पि पाळवाथी ब्रह्मचारी छे, मैथुन (कुसंग) थी दूर छे, १८ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पाळनारा छे, आवा साधुओने आंधांकर्मी विगेरे, RECRECOREOGR-COLORogBRUARY Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९२५॥ दोषित भोजन विगेरे कल्पतुं नथी, माटे आपणे आपणुं रांधेलं वधुं तेमने वोहरावी दइए, आपणा माटे पछवाडे रांधी लइशृं. तेथी तेओ आq करे, तेम साधु पोते साक्षात् सांभळे अथवा बीजा पासे सांभळीने जाणीने तेवू भोजन विगेरे अनेषणीय जाणीने मळवा | सूत्रम् छतां पोते ले नहि. . । से भिक्खू वा० वसमाणे वा गामाणुगाम वा दुइज्जमाणे से जं. गाम वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा ६॥९२५॥ -रायहाणिसि वा संतेगइस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्म० तहप्पगाराई कुलाई नो पुवामेव भत्ताए वा निक्खमिज्ज वा पविसेज वा २, केवली व्या-आयाणमेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अट्टाए असणं वा ४ उकरिज वा उवक्खडिज्ज वा, अह भिक्खूणं पुब्बोवइट्ठा ४ जं नो तहप्पगाराई कुलाई पुब्वामेव भचाए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खभिज्ज २, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा वा २ अणावायमसंलोए चिडिज्जा, से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा २ तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिजा सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा उवकरीज्ज वा उवक्खडिज्जा वा तं गइओ तुसिळीओ - उवेहेज्जा, आहडमेव पञ्चाइक्खिस्सामि, माइहाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुवामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणि त्ति वा ! नो खलु मे कप्पइ आहाकम्मियं असणं वा ४ भुत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि मा उवक्खडेहि, से सेवं वयंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडाबित्ता आहुए दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा अफासुयं० ॥ SEARCA-- -- - Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥९२६॥ ते भिक्षु आ जाणे के गामथी लइने राजधानी सुधीनी आ स्थानोमां अमुक साधुना पूर्वनां सगां ते काका विगेरे छे अने पछवाडेथी थएला सगां सासरीयां विगेरे छे, ते त्यां घरवास करीने रहेला छे, तेमां गृहस्थथी लइने काम करनार नोकर वाइ सुधां छे, तेवां कुळी जे सगां-संबंधीना छे तेमां न जवू, न आवq, सुधर्मास्वामी कहे छे के. तेवु केवली मभु कहे छे, के तेमां अशुभकर्म बंधाय छे, प्र०-शामाटे दोष छे ? उ.-ते घरमां साधुने माटे प्रथमथी विचार करी राखे, एटले प्रथमथी गृहस्थ ते साधु माटे उपकरण र तैयार करावी राखें, तथा रसोइ विगेरे रंधावी तैयार करावे, तेथी साधुनो माटे आ प्रतिज्ञा विगेरे प्रथमथी कहेल छे, केतेवां सगां संबंधीनां कुलोमां भिक्षाकाळथी पहेलां जवु आवq नहि, त्यारे शुं करवू ? ते कहे छे, ते आत्मार्थी साधुए ते गाममा पोतातुं कुळी 8 जाणीने सगां न जाणे तेवी रीते पोते जाय अने त्यां घळवाळां न आवे, न देखे त्यां एकांतमा रहे, अने गोचरीनां वखते जुदा ४ जुदां कुळमांथी एपणीय आहार बधेथी एटले सगां के बीजांनो भेद राख्या विना वेषमात्रथी मेळवे, एटले उत्पादन दोप विगेरे लागवा न दे. ते उत्पादन दोषो नीचे मुजब छे. धाई दुइ निमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया, लोभे य इवन्ति दस एए ॥१॥ पुविपच्छासंथव-विज्जा मंते अचुण्णु जोगे य । उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥ गोचरी माटे गृहस्थनां छोकरां रमाडवा विगेरेनुं कृत्य करे, ते (१) धात्रीपिंड छे, (२) दृतीपिंड गोचरी माटे गृहस्थनो संदेशो । दूतनी माफक लइ जाय (३) अंगुठो तथा प्रश्न रेखा विगेरेन फळ बतावी आहार ले ते निमित्तपिंड छे. (४) आजीवपिंट ते पोतानी RecieKESR-Roceaseskoseksi Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९२७॥ पूर्वनी उत्तमजाति विगेरे बतावी पिंड ले ते, (५) वणीमगपिंड ते गृहस्थ जेनो धर्म पाळतो होय तेनी प्रशंसा करी गोचरी ले, (६) चिकित्सा पिंड ते, गृहस्थने नानी मोटी दवा बतावी गोचरी ले ते, (७) क्रोधथी, (८) अहंकारथी, (९) कपट करीने, (१०) लोभथी वेष विगेरे बदलीने गोचरी ले, (११) पूर्व पश्चात् संस्तवपिंड, ते गृहस्थ दान आपे ते पहेलां तेना संबंधीनी प्रशंसा करे के तमे अवा कुळमां जन्म्याछो, आवा कुळमां परण्याछो-इत्यादि वोलीने गोचरी ले, (१२) विद्यापिंड, ते विद्या बतावी छोकरां भणावीने पिडले, (१३) मंत्रपिंड, मंत्रनो जाप बतावीने गोचरी ले (१४) चुर्णपिंड, वशीकरण विगेरे माटे द्रव्य ( सुगंधी ) चुर्ण मंत्रीने आपीने गोचरी ले, (१५) योगपिंड - ते अंजन विगेरे आपीने गोचरो ले, (१६) जे अनुष्ठानथी गर्भपात विगेरे थाय तेयुं करीने गोचरी ले, आ सोळे दोषो साधुथी उत्पन्न थाय छे माटे उत्पादन कहेवाय छे. ( ते न लगाडवा जोइए ) ग्रास एपणाना दोषो नीचे मुजब छे. १ संजोअणा २ पमाणे ३ इंगाले ४ धूम कारणे चेव (१) आहारना लोलुपपणाथी दहिं, गोळ, (साकर ) मेळवीने शीखंड बनावीने खाय, ते संयोजना दोष छे, वत्रीश कोळीयाथी वधारे प्रमाणमां आहार खाय तो प्रमाण अतिरिक्त (वंधारे) दोष कद्देवाय, (३) सारी गोचरी राग करीने खाय तो चारित्रने अंगारा माफक वळवाथी अंगार दोप तथा (४) अंत प्रांत आहार मळतां आहार तथा आहार आपनारनी निंदा करतो खाय तो चारित्रने काळं करवायी धुम्र दोष छे, (५) वेदना विगेरे कारण विना आहार करे तो कारण अभाव दोष छे. के गृह आ प्रमाणे साधुना वेपमात्रथी प्राप्त करेल ग्राप एषणा विगेरे दोष रहित आहार लेइने वापरवो, कदाच एम थाय स्थ गोचरीना समये साधु जाय तो पण आधाकर्मी अशन विगेरे बनावे, ते वखते साधु उपेक्षा करे, शामाटे ? के ते लेतांज हुँ सूत्रम् ॥ ९२७ ॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चखाण करीश, अने हुं ते नहीं लडं एवं धारे अने स्वादथी पछी कपट करे, अने ले, पण आQ प्रथमज न करचु, केवी रीते आचा० | करवं ? ते कहे छे, प्रथम गोचरी लेतां उपयोग राखे, अने तेवू जाणे तो कहे, के हे शेठ ! हे बाइ ! अमने अमारा माटे बनावेलो सूत्रमू आहार विगेरे खावापीवाने (आधाकर्मी) कल्पतो नथी ! माटे तेने माटे तमारे यत्न न करवो! आवं कहेवा छतां पण गृहस्थ है ॥९२८॥ आधाकर्मी आहार करे तो मळे छतां पण लेवो नहि. । ॥९२८॥ __ से भिक्खू वा से जं० मंसं वा मच्छं वा भजिज्जमाणं पेहाए तिलपुयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए नो खद्धं २ उवसंकमित्तु ओभासिज्जा, नन्नत्य गिलाणणीसाए ॥ (सू० ५१.) ते साधु जो आq जाणे के मांस अथवा माछलां अथवा तेलना पूडाओ ते गृहस्थना घरमा मेमान आववाना छे, तेथी तेवो, ६ आहार वनतो त्यां जुए, तो जीभनी लालचथी दोडतो दोडतो शीघ्र न जाय अथवा त्यां जइने याचना करे नहि, पण पूर्व वताव्या प्रमाणे त्यां दवा विगेरे कारणसर मांदा माटे जवु पडे तोपण संभाळथी जाय.. से भिक्खु वा० अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता मुभि सुभि भुच्चा दुभि २ परिहवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा । सुभि वा दुभि वा सव्वं अँजिज्जा नो किंचिवि परिहविज्जा, ॥ (सू० ५२) ते भिक्षु कोइपण जातर्नु भोजन लइने सारं सारं खाइ जाय, खराब खराब त्यजी दे, ते कपट छे, माटे तेवू कृत्य साधुए न करवू पण सारु माटु जेवू आवे तेवू संतोषथी समभावे खाइ लेवू पण परठवq नहि. 1 से भिक्खू वा २ अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फ आविइत्ता कसायं २ परिवेइ, माइहाणं संफासे, नोएवं करिज्जा RRESCRECAUSESSSS Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९२९॥ || पुष्फ पुप्फेइ वा कसायं कसाइ वा सव्वमेयं इंजिज्जा, नो किंचिवि परि० ।। (मू० ५३) आ प्रमाणे पाणीनुं पण समजबु, सारा रंगनुं सारी गंध, होय तो पुष्प कहेवाय अने तेथी विपरीत ते कषाय; एटले सुगंधी || सूत्रम् पी' पीए, अने बीजुं फेंकी दे, तेवू कपट न करवं. कारण के आहारना गृद्धपणाथी सूत्रार्थनी हानि थाय अने कर्मबंध थाय से भिक्खू वा० बहुपरियावन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्य वसंति संभोइया समणुना अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणालोइया अणामंते परिवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करेज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा, २ से पुब्बोमेव आलोइज्जा-आउसंतो समाणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा. ४ बहुपरियावन्ने तं भुंजह णं, से सेवं वयंत परो वइज्जा-आउसंतो समाणा ! आहारमेयं असणं वा.४ जावइयं २ सरइ तावइयं २ भुक्खामो वा पाहामो वा सव्वमेयं परिसडइ सव्वमेयं भुक्खामो वा पाहामो वा ॥ (सू०५४) ते साधु कोइ वखत घणुं भोजन विगेरे आचार्य तथा मांदा तथा परोणा विगेरे माटे आणेलु बधाने आपतां घणुं वधी जवायी न खवाय, तो पोताना साधर्मिक गोचरीना वहेवारवाळा संविज्ञ साधुओ जोडे होय, अथवा घणे दूर न होय, तेवा साधुने पूछ्या विना फक्त जवाना प्रमादथी परठवोदे, तो साधुपणाने दोष लागे, माटे शुं करवु ? ते कहे छे, ते वधेलो आहार लइने ते साधु वीजा साधुभो पासे जइने वतावे अने कहे, के हे श्रमण ! आ मारे वधी गयुं छे, ते हुँ खाइ शकतो नथी, जेथी तमे किंचित् ।। खाओ, त्यारे तेओ कहे, के अमाराथी वने तेटलुं खाइशें, देखीशुं, अथवा बघु खाइशु, देखीY. से भिक्खू वा २ से जं. असणं वा ४ परं समुहिस्स चहिया नीहडं जं परेहिं असमणुन्नायं अणिसिटुं अफा०' जाव नो SOSORROCESCRE-SSCSCRECRe* Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE R- सूत्रमू ॥९३०॥ पडिगाहिज्जा जं परेहिं समणुण्णायं सम्मं णिसिटुं फामुयं जाव पडिंगाहिज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा आचा० सामग्गियं (मू०५५)॥२-१-१-९॥ पिण्डैषणायां नवम उद्देशकः। ॥९३०॥ ते साधु आवो आहार जाणे के, चार भट विगेरेने उद्देशीने घरमांधी काढेल छे, पण ते आहारने चार भट विगेरेए स्वीकार्यो नथी तो ते बहु दोषवाळो जाणीने लेवो नहि, पण जो ते आहार ते धणीए स्वीकारी पोतानो को होय, अने ते आपे तो लेनो, आ साधुनी सर्व साधुता छे. ___ नवमो उद्देशो समाप्त. दशमो उद्देशो. नवमो कह्यो, हवे दशमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, नवममां पिंड ग्रहणविधि कह्यो, अहींया साधारण विगेरे पिंड V मेळवीने वसतिमां गयेल साधुप शुं करवू, ते कहे छे. __से एगइओ साहरणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलई, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा । से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा २ एवं वइज्जा-आउसंतो समाणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छा० तंजहा-आयरिए वा १ उवज्झाए वा २ पवित्तीवा ३ थेरे वा ४ गणी वा ५ गणहरे वा ६ गणावच्छेइए वा ७ अवियाई एएसिं खद्धं खद्धं दाहामि, सेणेवं वयंत परो बइज्जा-कामं खलु आउसो । अहापज्जत्तं निसि terse060OSASTOSSASSZA SERESCASSESSACRE Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा SOCTOCOCCAECCAE ॥९३१॥ राहि, जावइयं २.परो वदइ तावइयं २ निसिरिजा सव्वमेवं परो क्यइ सबमेयं निसिरिज्जा ।-(मृ०.५६.) .. ते भिक्षुने,बधा साधुओ माटे सामान्य आहार आपेल होय, ते लइने ते बधा साधुओने पूछया विना जेने जे रुचे, तेवू पोतानी बुद्धिथी शीघ्र शीघ्र आपे तो दोष लागे, माटे तेवू न करवू, असाधारण पिंड मळतां पण जे करवू ते कहे छे.. ते साधु वेषमात्रथी मेळवेलो पिंड मेळवीने आचार्य विगेरे पासे जाय, · अने आ प्रमाणे कहे, हे आयुष्मन् ! हे श्रमण में 8/॥९३१॥ * अहीं जेनी पासे दीक्षा लीधी छे, तेना सगां छे, तथा जेनी पासे सिद्धांत भण्यो, तेनां संबंधीओ अन्यत्र रह्या छे, तेमनां नाम से बतावे छे, आचार्य अनुयोग धर (१) उपाध्यायअध्यापक (२) वेयावच्च विगेरेमा यथायोग साधुओने प्रवर्तीवे ते प्रर्वत्तक (३) छे. 8 संयम विगेरेमां सीदाता साधुओने स्थिर करवाथी स्थविर (४) छे, गच्छन अधिप ते गणी (५) छे, आचार्य जेवो साधु गुरुनी ६ आज्ञाथी साधुना समुदायने लइने जुदो विचरे ते गणधर (६) छे, गणनो अवच्छेदक ते गच्छना निर्वाहनी चिंता करनार (७) छे, * आ प्रमाणे आवा साधुओने उद्देशीने बोले, के हुँ तेमने तमारी आज्ञाथी शीघ्र शीघ्र आ, आ प्रमाणे साधुनी विज्ञप्तिथी मोटा साधु तेने आज्ञा आपेथी जेने जोइए तेटलुं दरेकने आपे, अथवा बधानी आज्ञा आपे तो बधुं आपे, (आ सूत्रमा पोताना सगां ६ आश्रयी छे, अने टीकामां आचार्यदिना सगांने आश्रयी छे, तेथी रहस्यमां भेद पडतो नथी.) से एगइओ मणुन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ मा मेयं दाइयं संत दट्टणं सयमाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सइ किंचि दायव्वं सिया, माइटाणं संफासे, नो एवं करिजा। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुत्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिवि णिगृहिज्जा । से एगइओ अन्न +REAK Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० २२ ॥९३२॥ ॥९३२॥ यरं भोयणजायं पडिगाहिती भयंर भुचा विवन्नं विरसमाहरइ, माइ० नो एवं० (सू० ५७) ते साधु कोइ जग्याए गोचरी गयो होय, त्यां सारुं मिष्टान्न विगेरे भोजन मळ्यु होय, ते लेइने तेना उपर तुच्छ लुखं भोजन | विगेरे ढांकी दे, के, मारुं आ सारुं भोजन आचार्य विगेरे देख तो लेइ लेशे, अने मारे तो आ थोडुं सारं भोजन कोइने आपq नथी, एम धारी छुपावे तो कपट कहेवाय, माटे तेवू न करवू, त्यारे शें करवू ? ते कई छे. . ते वधो आहार लइने छुपाच्या विना सारो माठो बतावी देवो, हवे गोचरी जतां कपट स्थान न करवातुं बतावे छे, के रस्तामां बीजे गाम गोचरी जतां सारं सारं भोजन मळे, तो त्यां खाइ जइने नवळू नबलु त्यां लइ जg ए कपट स्थान छे, ते न करवू, वळी से भिक्खू वा० से ० अंतरुच्छियं वा उच्छु गंडियं वा उच्छु चोयगं वा उच्छुमेरग वा उच्छु सालगं वा उच्छुडालगं वा सिंबलिं वा सिंबलयालगं वा अस्सि खलु पडिग्गाहियसि अप्पे भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्छुयं वा० अफा० ॥ से भिक्खू वा २ से जं० बहुअट्टियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटयं अस्सि खलु० तहप्पगारं बहुअहिथं वा मंसं० लाभे संतो० । से भिक्खू वा० सिया णं परो बहुहिएणं मंसेण, वा मच्छेण वा उवनिमंतिजा-आउसंतो समाणा ! अभिकखसि बहुअद्वियं मतं पडिगाहित्तए ? एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म से पुवामेव आलोइज्जा-आउसीति वा २ नो खलु मे कप्पइ बहु० पडिगा०, अभिकखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाई, से सेवं वयंतस्स परो अभिहट्ट अंतो पडिगाहिगंसि बहु० परिभाइत्ता निहु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थसि वा परपायसि वा अफा० नो० । से आदच्च पडिगाहिए सिया तं नोहित्ति वइज्जा नो अणिहित्ति वइज्जा, से तमायाय एग Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९३३॥ तमवकमिज्जा २ अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छगं भुच्चा अट्टियाई कंटए गहाय से मायाय. एंगतमवक्कमिज्जा, २ अहे झामथंडिलंसि वा जाव पमज्जिय पमज्जिय परटूविज्जा | ( सु० ५८.) गोचरी गयेलो साधु आवा प्रकारनो आहार जाणे के शेरडीना गांठोना वचला टुकडा, अथवा गांठोवाळा टुकडा अथवा पीलेला शेरडीना छोदिकां ( छोतरा ) मेरुक (त्यग्र) शेरटीना सालग ते दीर्घ शाखा (सांठी ) डालग ते एक टुकडो सिंबली मग चोळा विगेरेनी अचित्त थपली सींग (फळी) 'सिंवली थालग' वालपापडीनी थाळी अथवा फलीओ रांधेली होय, आवी वस्तु जो साधुए खावा मादे लीधी होय तो शेरडी विगेरेना कुचा घणा नीकळे, खावानुं थोडं, अने कुचामां कीडीओ विगेरे संख्याबंध जीवो बुरा | हाले मरे, माटे अमासुक होय तो पण न लेवी, अने प्रासुक होय तो पण न लेवा, तेज प्रमाणे कोइ जग्याए ठळीया वाळां फळ ते फणस विगेरे अने कांटावाळां ते अननास विगेरे फळ पाकेलां टुकडा कर्या होय, अने कोइ गृहस्थ ते साधुने आपे तो पण साधुए लेवा नहि. हवे कोइ गृहस्थ घणो भक्तिमान होय अने बहु आग्रह करे अने पूछे के आप लेशो के ? आ प्रमाणे तेनी प्रार्थना सांभळीने साधु कहे के हे आयुष्यमन ! मने ते लेवं कल्पतुं नथी, पण जो तारो, खास आग्रह होय तो उळीया रहित कांटा रहित एवो जे वचलो फळनो गर्भ छे, ते आप, पण ध्यान राखजे के ठळीया के कांटा न आवे. आ प्रमाणे सांभळीने पेलो गृहस्थ ठळीया विनानुं कांटा विनानुं शोधी शोधीने साधुने आपे, पण ते वखते सचित्त भाग तेना हाथमांथी के तेना वासणमांथी आवे तो पोते न ले, ते प्रमाणे अचित्त फळनो गर्भ आपे तो पोते नोहि बोले, तेम अणिहि पण न बोले, सूत्रम् ॥९३३॥ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आचा० ॥९३४॥ पछी ते लेइने ते बगीचामां कोई झाड नीचे अथवा मकानना छापरा नीचे बेसीने ज्यां जीव जंतु एकेंद्रियथी पंचेंद्रिय सुधा न होय त्यां पोने शांतिथी वेसीने फळनो गर्भ लीधेलो होय तेने फरीथी जोइले, अने पोताना के गृहस्थना प्रमादथी ठळीयो के कांटो रही गयो होय, तो तेने खातां बाजुए राखीने खाइ रह्या पछी एकांतमा जइने अचित्त जग्या कुंभारनो निभाडो विगेरे होय, "G॥९३४॥ स्यां जग्या पुंजी पुंजीने परठवे. आ जग्याए केटलाक आचार्यनो एवो अभिप्राय छे के आगळ गळत कोढ विगेरेमां ते साधुने अधिक पोडा थती होय, अने तेने संसारी न करी शकवाथी तेनी उमर जुवान होय, अने वैद एम सलाह आपे के आ रोगनी शांति माटे मरेला जनावर के माछलानो वचलो गर्भ तेना उपर बांधवो, आवा अपवादना कारणे छेदसूत्रना अभिमाय प्रमाणे कदाच पेला साधुना रक्षण माटे लीधुं होय तो पण तेमा रहेल हाडकुं अथग कांटो संभाळथी एकांतमां लइ जइ परठवो अहीं 'भुज' धातुनो अर्थ भोगववानो छे, पण खावा माटे नहि, जेम पदाति (पायदळ सेना) नो राजा भोग करे छे, अथवा साधु पाट पाटलाने भोगवे छे. , से भिक्खू० सिया से परो अभिहहु अंतो पडिग्गहे बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं परिभाइत्ता नीहहु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्यसि वा २ अफासुयं नो पडि०, से आहच्च पडिगाहिए सिधा तं च नाइदूरगए जाणिज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुवामेव आलोइज्जा-आउसोति वा २ इमं किं ते जाणया दिन्नं, उयाहु अजाणया? से य भणिज्जा-नो खलु मे जाणया दिन्न, अजाणया दिन्नं, काम खलु आउसो | इयाणि निसिरामि, तं भुजह वा णं परिभाएह वा णं तं परेहिं समणुनायं समणुसह. तओ संजयामेव अँजिज्ज वा पीइज्ज वा, नंच नो संचाएइ भोत्तए वा पायए RECONOR-CHARCHARGREER) Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥९३५॥ वा साइम्पिया तत्थ वसंत्ति संभोइया समणुना अपरिहारिया अदरगया, तेसिं अणुप्पयायध्वं सिया, नो जत्य साहम्मिया जहेव बहुपरियावन कीरइ तहेव कायव्वं सिया, एवं खलु० ॥ (०५९)॥२-११-१-१०॥ पिण्डेपणायां सूत्रम् दशम उद्दशकः ॥ .. ते भिक्षु घर विगेरेमां गोचरी जतां कदाच गृहस्थ पासे मांदा विगेरे माटे खांड विगेरे मांगतां विड लवण खाणमां उत्पन्न ॥९३५॥ थएल मीठं तथा उद्भिज ते समुद्रन मीटुं भूलथी आपे, ते वखते साधुएं तेना हाथमां के वासणमाथी तपासीने लेबु के भूलथी। खांडने बदले मीठं न आवे, पण कदाच बनेने उतावळ होवाथी साधुना पात्रमा आवी गयु होय अने थोडे दूर गया पछी साधुने खबर पडे तो पाछो आवीने ते गृहस्थने कहे के, आ तमे खांडने बदले मीठं आपेल छे ते जाणमां के अजाणमां ? जो अजाणमां 8 आप्यान कहे अने पछी एम कहे के तमने जो खप होय तो वापरजो, आ प्रमाणे गृहस्थ जो रजा आपे तो मासुक होय तो साधुए | बहेंचीने खावू, कदाच अप्रामुक आवे अने गृहस्थ पार्छ न ले तो परठववानो महान दोष जाणीने पोते खाय पीये, वधारे होय नो नजीक रहेला उत्तम साधुओने वडेंची आपे, तेवा साधर्मिक न होय तो पोतानी शक्ति प्रमाणे वापरे, (बाकीनु परठवी दे.) आ साधुनुं सर्वथा साधुपणुं छे. ( एटला माटे बने त्यां लगी गोचरी जनारे गोचरीमांज पुरतुं लक्ष्य राखीने वस्तु लेवी के पछवाडे 8 | आवी तकलीफ न परे.). दसमो उद्देशो समाप्त. SAECTESCCCCC Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ९३६ ॥ अग्यारमो उद्देश. दशमो उद्देशो कह्यो, हवे अग्यारमो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां मळेला पिंडनो (लेवा न लेवा तथा परवा परववा संबंधी ) विधि कह्यो, तेनेज अहीं विशेषथी कहे छे. भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दुइज्जमाणे मणुन्नं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू गिलाइ, से हंदइ णं तस्साहरह, से य भिक्खू नो भुंज़िज्जा तुमं चेत्र णं भुंजिज्जासि, से एगइओ भोक्खामित्तिक पलिउंचिय २ आलोइज्जा, जहा - इमे पिंडे इमे लोए इमे तित्ते इमे कडुयए इमे कसाए इमे अंबिले इमे महुरे, नो खलु इत्तो. किंचि गिलाणस्स सयइत्ति माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, तहाठियं आलोइज्जा तहाठियं गिलाणस्स सयइति, तं तित्तयं तितत्ति वा कडुयं कसायं कसायं अंबिलं अंबिलं महुरं महुरं० ( सू० ६० ) ( भिक्षा माटे विहार करे शुद्ध गोचरी ले माटे भिक्षण शीला ) ते साधुओ समान आचार विचार व्यवहारवाळा एकज जग्याए रह्या होय; अथवा बहार गामथी विहार करता आव्या होय, ( वा शब्दथी असमान आचारवळा पण भेळा समजवा ) तेमां - कोइ | साधु मांदो पडे, तो भिक्षामां फरनारा साधुओ गोचरीमां मनोज्ञ भोजननो लाभ थतां बीजा सोबती साधुने कहे के आ सारं भोजन तमे लेइने मांदा साधुने आपो, अने जो ते न खाय, तो तमेज़ खाइ ले जो, आ प्रमाणे मांदानी वेयावच्य करनार ने कहेतां ते साधु मांदा माटे आहार लेइने विचार करे के, आ सारं मिष्टान विगेरे स्वादिष्ट वस्तु हुं खाइश; पछी ते मांदा पासे जइने सारो सूत्रम् ॥९३६॥ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार छुपावीने मांदाने कहे के आ आहार तमने आपतां वायु विगेरे वधी जशे माटे तमारे खावा. योग्य नथी, कारण के आ आचा० | अपथ्य छे. एटले तेना आगळ आहारन पात्र मुकी कहे के तमारे माटे साधुए आहार आप्यो छे, पण आ तो लूखो छ, तीखो छ, IP कडवो छे, कषायेलो खाटो मधुर छे. ते अमुक रोग उत्पन्न करे तेवो छे. माटे तमने तेनाथी उपकार थाय तेम नथी, आ प्रमाणे | ॥९३७॥ 18| कही मांदाने डरावीने–ठगीने पोते खाइ जाय ते माटे कपट कर्ये कहेवाय, तेवु पाप साधुए न करवं, त्यारे तेणे शुं करवू ? 8 62-% जे होय ते, मांदाने देखाडवु, अर्थात् कपट कर्याविना तने अनुकुळ होय ते बधो आहार समजावीने आपी देवो. भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे वा मणुन्नं भोयणजाय लभित्ता से य भिक्खू गिलाइ से हदइ णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुजिज्जा आहारिजा, से णं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाई आइतणाई उराकम्म ।। (मू०६१) ते साधुओ सुंदर आहार लावीने पोताने त्यां रहेला अथवा नवा परोणा आवेला साधुओने मांदाने उद्दशीने कहे के, आमां४ थी मांदाने योग्य सारं सारुं भोजन लो अने ते न खाय तो पार्छ लावजो, पछी लेवा वाळो कई के हु तेने अंतराय पाडया विना 6 नेने योग्य आपीने वाकीनुं वधेलु पार्छ लावीश. पछो आहार लइने मांदाने आहार गया मूत्रमा वताच्या प्रमाणे खोटुं समजावी तेने ठगी ते पोते बधुं खाइ ले, अने आहार आपनार साधुओने मोडेथी जइने कहे के, ते साधुए कंइ लीधुं नहि. तो ते पार्छ । लावता मने वेयावच्च करतां गोचरी योग्य समये न वापरवाथी शूळ उठी, तेथी तमारी पासे पाछो आहार न लान्यो, (पण में SAE%e0-0017 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आचा० ॥९३८॥ जेम तेम दुःखेथी खाइ लीधो ! ) आ कपट न कर. माटे शुं कर 3 ते कई छे. बुं कपट कर्या विना मांदाने वधो आहार बतावी सत्य समजावीने ते जेटलो आहार ले; ते आपवो, अने न ले ते बीजा | साधुओने पाछो आपी आवत्रो. पिंडना अधिकारथीज सातपिंडेषणाने आश्रयी सूत्र कहे छे. अह भिक्खु जाणिज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेपणा - असंस हत्ये असं म तहपगारेण असंसण हन्थेण वा मत्तेण वा असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिज्जा फासूयं पंडिगाहिज्जा, पढमा पिंडेसणा १ ॥ अहावरा दुच्चा पिंडेसणा-संसदे हत्थे संसठ्ठे मत्ते, तहेव दुच्चा पिंडेपणा २ || अहावरा तथा पिंडेसणा - इह खलु पाईणं वा ४ संतेगयाइ सङ्का भवंति - गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं अन्नयरे विरुवरुवेसु भाणजाए व निक्खित्तपुब्वे सिया, तंजा थालंसि वा पढरंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा - असं हत्थे संसट्टे मत्ते, संसट्टे वा हत्ये असंसट्टे मत्ते से य पडिग्गहधारी सिया पाणिप डिग्गहिए वा, से पुव्वामेव० - अउसोत्ति वा ! २ एएण तुमं असंसट्टेण हत्येण संसद्वेण मत्तेणं संसद्वेण वा हत्थेण असंसण मत्तेण अस्स पडिग्गहगंसि वा पार्णिसि वा निहट्टु उचित्तु दलयाहि तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा २ फासूयं ० पडिगाहिज्जा, तुझ्या पिंडेसणा ३ || अहावरा चउत्था पिंडेरणा से भिक्खू वा० से नं० पिहूयं वा जाव चाउलपलंबं वा अस्सि खलु पड़िग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जबजाए, तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाडलपलंबं वासयं वाणं जाव सूत्रमू ॥९३८ ॥ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिौ० सूत्रमू ॥९३९॥ पडि०, चउत्था पिंडेसणा ४॥ अहावरा पंचमा पिडेसणा-से भिक्खू वा २ उग्गहियमेव भोयणजाय जाणिज्जा, तंजहा सारावंसि वा डिडिमंसि वा कोसगंसि वा, अह पुणेवं. जाणिज्जा बहुपरियावन्ने पाणी दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा ४ सयं० जाव. पडिगाहि०, पंचमा पिंडेसणा.५ ॥ अहावरा छट्ठा पिंडेसणा-से भिक्खु वा २ पग्गहिमेव भोयणजायं जाणिज्जा, न च सयटाए पग्गहियं, तं पायपरियावन्नं तं पापिपरियावन्नं फासुयं जं च परहाण पग्गहियं पंडि०, छहा पिंडेसणा ६ ।। अहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से भिक्खूि वा. बहुउज्झियधम्मिय भोयण जायं जाणिज्जा, जं चऽन्ने बहवे दुपयचउप्पयसमणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा नावकखंति, तहप्पगारं उझियधम्मियं भोयणजायं सर्यवाणं जाइज्जा परो वा से दिज्जा जाव पडि०, सत्तमा पिंडेसणा ७ ॥ इच्चेयाओ सत्त पिंडेसणाओ, अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा-असंसह हत्थे असंसट्टे मत्ते, तं चेव भाणियव्वं, नवरं चउत्थाए नाणत्तं । से भिक्खू वा० से जं पुण० पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-तिलोदगं वा ६, अस्सि खलु पडिग्गहियसि अप्प पच्छाकम्मे तहेव पडिगाहिज्जा ॥ (मु० ६२) अथ शब्द अधिकारना अंतरमां आवे छे. प्र०-अधिकार बतावे छे ?.उ०-सातपिंडेपणा. अने पान (पाणी) नी एसणा अर्थात् भिक्षु एम जाणे के नीचे बतावेली पिंड एसणा तथा पान एसणा छे, १ असंसट्ठा २ संसट्टा ३ उद्धडा ४ अप्पेलवा ५ उम्गहिया ६ पग्गहिया ७ उज्ज्ञधम्मा. . साधुओना बे भेदो छे, गच्छमा रहेल. स्थविर कल्पी अने गन्छ थी नीकळेला जिनकल्पी, उपरनी साते पिंडएवणः स्थविर M3M. NP Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पीने लेवाय. पण जिनकल्पीने प्रथमनी बे छोडीने पाछळनी पांचलेवाय छे. आचा प्रथमनी पिंड एषणानुं स्वरुप सूत्रमू ॥९४०' ____ अससंष्ट हाथ, असमंष्ट वासण, अने बहोराव्या पछी वासणमां द्रव्य रहे अथवा न रहे, तेमां जो बीलकुल द्रव्य न रहे तो तुर्त । वासण धोवानो पश्चात् कर्मनो दोष लागे, छतां पण गच्छमां बालक, बूढो, तपस्वी विगेरेना आकुळपणाना कारणे निषेध नथी, F॥९४०॥ तेथीज सूत्रमा तेनी चिंता करी नथी, न खरडेलो हाथ, न खरडेलुं वासण, तेथी असन विगेरे चार प्रकारनो आहार याचे, अथवा गृहस्थ पोते याच्या विना पण आपे, तो खप होय ते प्रमाणे फासु आहार ग्रहण करे. बीजी पिंडएषणा. खरडेलो हाथ, खरडेलु वासण, गृहस्थ पोताना माटे ते वस्तु लेवा हाथ अने वासण खरडे त्रीजी पिंडएसणा. प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशामा केटलाक श्रद्धालु श्रावको के भद्र गृहस्था रहेता होय, ते शेठथी लइने नोकरडी सुधी होय छे, तेमना घरमां अनेक जातिना वा गोमां अन्न विगेरे प्रथम नांखेलं होय छे, ते थालमां पिठर सरग ते शारिका (सरकीया) 3 ६ना घासन बनावेलुं सूपडं विगेरे परग ते वांसनी बनावेली छापडी विगेरे छे, 'वरग' ते मणि विगेरे रत्नो जडीने बनावेलुं किंमती वासण होय, तेमां कोई चीज काढीने मुफी होय, तो हाथ न खरडेलो होय अने वासण खरडेलु होय, तो पातरां धारण करनार स्थविर कल्पी अथवां पात्रां छोडीने हाथमां खानार जिनकल्पी होय, तो गृहस्थने प्रथमज कहे हे आयुष्मन् ! अथवा हे बाइ! SCRECORRECRecoCRE CRECREOGRECREGRECRUSEORGARH Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HUNDRECA 5 तमे न खरडेला हाथे, खरडेला वासणे अथवा खरडेला हाथे, खरडेला वासणे ओ पातरामां के आ हाथमां संभाळयी लइने आपो| आचा० अथवा पोते जे वस्तु जोइती होय, तेनुं नाम कहीने याचे अने ते गृहस्थ आपे "तों फांसु आहार ले. * सूत्रम् P अहीं खरडेलो हाथ, खरडेलुं वासण अने थोडं द्रव्य पछ्वाडे रहे ऐवो आठमो भांगो जिनकल्पीने कल्पे, स्थविर कल्पीने तो ॥९४१॥ सूत्र अर्थनी 'हानि विगेरेना कारणोने लइने बंधा भांगा कल्पे छे ॥९४१॥ अल्पलेपा नामनी चोधी पिंडेषणा. कुरमुरा ममरा पृथुक विगेरे चोखा शेकीने बनावेला होय, तो ते लेतो वासण हाथने लेप लागतो नथी तथा अल्प ते चोखानी कणकी विगेरेना बनावेल होय तो अल्पपर्यय कहेवायो ते वनेने लेवाय छे. तेम वाल, चणा विगेरे पण कल्पे. | अवगृहिता (५)-एटले गृहस्थे पोताने खावा माटे वासण धोयुं होय के हाथ धोया होय, तेवा वासणमा जो पाणीनो लेप देखातो होय तो लेबु न कल्पे. पण बहु सुकाइ गयु होय तेवा शरावला, डिडिम (कांसातुं वासग) तथा कोशक मां खावातुं काढेलु हाय तो साधुने लेबु कल्पे 18| प्रगृहीता-गृहस्थे स्वार्थ माटे के बीजा माटे चरु, हांडी विगेरे रांधवाना वासणमांधी चाटवा विगेरेथी लइने बीजाने वस्तु आपी A होय ते वीजाए न लीधी होय, अथवा साधुने अपावी होय तो प्रगृहीता' कहेवाय, ते गृहस्थंना वामणमां के हाथमां वस्तु होय तो फासु होय ते ले. उझिीत धर्मा-ते घरनी अंदर घणा नोकर चोपगां के अन्य साधु व्रमण अतिथि मागण इच्छे नहि तेवी लूखी सादी रसोइ REAR-CRO-3 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमू ॥९४२॥ ६] होय ते परठववा योग्य होय तेवू भोजन पोते याचे अथवा गृहस्थ आपे तो ले... आचा० हवे सात पाणीनी एषणाओ कहे छे.-तेमां प्रथमनी त्रण तो भोजन माफक छे अने चोथीमां भेद छे, कारण के ते पाणी स्वच्छ होवाथी तेमां अल्प लेपपणुं छे, तेथी संमृष्ट वीगेरेनो अभाव छे, आ पछीनी त्रण पाणीनी एपणाओ वधारे वधारे विशुद्ध ॥९४२॥ होवाथी एवोज क्रम छे. ( अन्न माफक पाणीनुं पण जाणवू ). . २ हवे आ बतावेला अथवा पूर्वे बतावेला सूत्र वढे शुं करवं ते कहे छे. इच्चेयासि सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वइज्जा-मिच्छापडिवन्ना खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयंतारो-एयाओ पडिमामो पडिवज्जित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एयं . पडिमं पडिवज्जत्ताणं विहरामि सव्वेऽवि ते उ जिणाणाए उवठिया अन्नुन्नसमाहीए, एवं च णं विहरंति, एयं खलु तस्स तस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ।। (मू० ६३),२-१-१-११ पिण्डैषणायामेकादश उद्देशकः ॥ आ सात पिंडेषणा अथवा पान एषणामांनी कोइपण प्रतिमाने साधु स्वीकारीने आq पछीथी न बोले, के-"वीजा साधु | भगवंतो सारी रीते. पिंडेषणा विगेरे अभिग्रहो पाळता नथी, हुंज एम्लो बरोबर पाल्छं छु." तेथी भेज विशुद्ध अभिग्रह लीधो छे, पण बीजाओए नथी लीधो, आ उपरथी गच्छमाथी नीकळे लाए के ग छमा रहेलाएं परस्पर समदृष्टिथी देखवा, पण उत्तम रीते 6 से पिंडेपणा पाळनारा चडती अवस्थाए पहोंचेला गच्छमां रहेला साधुए पण पोतानाथी नीचा साधु जेभी प्रथमनी पिडएषणामां रद्या होय तेमने पण दोष देवो नहि. प्र०-त्यारे शुं करवू ? ते कहे छे. POGRUPICE testes Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रमू A. आजे साधु भगवंतो पिडेषणा विगेरे विशेष अभिग्रहोने धारण करीने गाम गाम विचरे छे, अने हुँ जे प्रतिमाने धारण करीने है। से विचरुं छ. तेथी अमे बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां छीर, अथवा जिनाझाए विचरे छे, तेथो अभ्युद्यत विहार करनार संवरवाळा छे, तेओ वधा एक बीजाने समाधिवढे जे गच्छमां जेने जे समाधि बताची होय तेने' 'ते' कारणके गच्छवासिओने उपर बतावी ते | साते यथाशक्ति पाळ्वानी छे. गच्छथी नीकळेलाओने पाछळनी पांचनो अभिग्रह छे, ते वडे तेओ प्रयत्न करे, ते प्रमाणे ते ॥९४३॥ पाळीने विचरता होय ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञा उलंघता नथी, ते संबंधमां पूर्वे बतावेली गाथा कहे छे. जोऽवि दुवथ निवत्यो, बहुवत्थ अचेल मोवि थरइ, न हु ते हीलंति परं, सव्वेविअ ते जिणाणाए ॥१॥ कोइ बे कोइ प्रण कोइ वधारे कोइ बीलकुल वस्त्र न पहेरे, तो पण ते परस्पर निंदा न करे, कारण के ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञामां छे. आज ते साधुनुं समग्र साधुपणुं छे, (आ ठेवटना मूत्रनो परमार्थ ए छे के स्व परने दुःख न थाय, तेम विचारपूर्वक गोचरी विगेरे लेवु वापर, पण ते प्रमाणे निर्वाह न थाय, तो बने तेटलुं निर्मळ भावथी पाळ्या प्रयत्न करवो. पण वधारे उत्कृष्ट मार्ग पाळनारे पण पोते अहंकार करीने बीजानी निंदा न करवी, तेम पोतानी शक्ति वधतां समान्य पाळनारे पण उत्कृष्ट पाळवा प्रयत्न करवो.) . शय्याएषणा नामर्नु यीजें अध्ययन-बीजा श्रुत स्कंधनुं प्रथम अध्ययन कडीने हवे बीजूं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया अध्ययनमा धर्मना आधार रुप शरीरनी प्रतिपालना माटे प्रथमज पिंड ग्रहणनो विधि बताव्यो अने ते पिड (आहार पाणी) XIमरने ज्यां ग्रहस्थो न होय तेवा स्थानमां वापर. तेथी ते स्थानना गुण दोष बतावना आ बीजुं अध्ययन कहे छे. आ संबंधे. - -- - Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९४४॥ आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वारो कहेवा, तेथी नाम निष्पन्न निक्षेपामां "शय्य एवणा" नांम छे, तेना निक्षेपा करवामां "पिंडेपणा निर्युक्ति" ज्यां संभवे त्यां टुंकाणमां प्रथम गाथा वडे अने बीजी एवणाओनी नियुक्तिओने यथायोगं संभवता बीजी गाथा वडे प्रकट करीने त्रीजी गाथा वडे " शय्या" शब्दना 'छ निक्षेपा' ना विचारमां नाम स्थापना छोडीने निर्बुक्तिकार कहे छे. दवे खित्ते का भावे, सिज्जाय जा तईि पगयं के रिसियासिज्जा खलु संजय जोगत्ति नायव्वा ? ॥ २९८ ॥ द्रव्य शय्या क्षेत्र शय्या काळा शय्या अने भाव शय्या ए चार प्रकारे शय्या छे, तेमां द्रव्य शय्यानी जरुर छे, तेथी संयतोने केवी शय्या योग्य छे. तेज हवे बतात्रशे. द्रव्य शय्यानी हवे व्याख्या करे छे. तिविहाय दव्वसिज्जा सचित्ताऽचित्त मीसंगा चैव । खित्तंभि जंमि खित्ते काले जा जंमि कालंमि ॥ २९९ ॥ or कारनी द्रव्य शय्या छे, सचित्त अवित्त अने मिश्र तेमां सचित्त ते पृथ्वीकाय विगेरे उपर, अने अचित्त ते प्रामुक पृथ्वी विगेरे उपर, अने मिश्र ते जे अर्धपरिणत पृथ्वी विगेरे उपर जे शय्या होय ते अथवा सचित्त शय्यानुं वर्णन नियुक्तिकार ed पछीनी गाथामा पोतेज कहे छे, क्षेत्र शय्या ते जे गाम विगेरे क्षेत्र (स्थान) मां शय्या कराय ते. कालशय्या ते जे ऋतुबद्धकाळ विगेरेमां जे शय्या कराय, ते काळ शय्या छे, तेमां सचित्त द्रव्य शय्यानुं दृष्टांत बतावे छे. कल कलिंग गोअम वग्गुमई चेव होइ नायव्वा । एयं तु उदाहरणं: नायव्वं दव्वसिज्जाए ॥ ३०० ॥ आ गाथानो भावार्थ कथाथी जाणवो. एक अटवीमां बे भाइओ उत्कल अने कलिंग नामना विषम (विकट) प्रदेशमां पल्लि बनावीने चोरी करे छे. तेमनी बेन सूत्रमू ॥२४४ ॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९४५॥ वल्गुमती नामनी हे त्यां गौतम नामनो निमिचिओ आव्यो, वे भइओए तेनो सत्कार कर्यो, पण वल्गुमतीए खानगीमां कहां के आ आपणुं भलं करनार भद्रक नथी, आ अहीं रहीने आपणी पल्लीनो विनास करशे, माटे तेने काढवो जोइए, तेथी ते बे भाइओए तेना वचनथी तेने काढ्यो, पेला निमितिआए पण तेना उपर द्वेषी बनीने आ प्रतिज्ञा करी के "जो हुं वल्गुमतीना उदरने चीरीने तेमां न सुउ तो मारुं नाम गौतम नहि." बोजा आचार्यों कहे के छे के ते समये तेने बाळको नाना होवाथी वल्गुमती पोतेज पल्लीनी मालीक हती, अने त्यां उत्कल अने कलिंग नामना वे नवा निमित्तिया आवेल हता, तेथी पूर्वे आवेल गौतम निमित्तियाने पोते काढयो, तेथी गौतमे देवथी प्रतिज्ञा करीने मार्गमां सरसव वावतो गयो, चोमासामां सरसवो उम्या. ते उगेल। सरसवोने | आधारे बीजा राजानो प्रवेश करावी ते वधी पल्लीने लुंटावीने बाळी नांखी, गौतमे पण वल्गुमतीने केद पकडी तेनुं पेट चीरावीने थोडी जीवती तरफडती हती, ते समये तेना पेट उपर मूतो, आ सचित्त द्रव्यशय्या जाणवी. भावशय्यानुं वर्णन. य भावंमि । भावे जो जत्थ जया सहदुहगभाइ सिज्जानु || ३०१ ॥ संबंधी अने छ भाव संबंधी तेमां जे जीव औदयिक विगेरे भावमां जे काळे शयन ते शय्या स्थिति छे, तेज प्रमाणे जे जीव स्त्री विगेरेनी काय (उदर) मां भावशय्या छे. कारण के स्त्री विगेरेनी कायमां सुखमां दुःखमां सुता उठतां दरेक वखते ते जीव तेनी अंदर रहेली बधी अवस्थावाळो थाय छे, माटे ते काय संबंधी भावशय्या छे, दुविहाय भावसिज्जा कायगए छवि वे प्रकारनी भावशय्या छे. (१) काय विषय वर्ते, ते तेनी छ भावरूप भावशय्या छे, कारण गर्भपणे रहेलो होय, ते जीवने स्त्री विगेरेनी काया सूत्रम् ॥९४५॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥९४६॥ आ अध्यननो बधो अर्थाधिकार शय्या विषय संबंधी छे, अने हवे उद्देशानो अर्थाधिकार बतावा नियुक्तिकार कहे. छे. सव्वे वि य सिजविसोहिकारगा तहवि. अत्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्दसे वुच्छामि समासो किंचि ॥ ३०२ ॥ | सूत्रमू आ वधा एटले त्रणे उद्देशा जो के शय्या विशुद्धि करनारा छे; तोपण तेमां दुरेकमां कांइक विशेष छे, तेने हुँ ९काणमा MRO कहीश, ते कहे छे " ॥९४६॥ उगमदोसा पढमिल्लुमि संसत्त पच्चवाया य १ । वियंमि सोअवाई बहुविहसिज्जाविवेगो २ य ॥ ३०३ ॥ तेमा प्रथम उद्देशामां वसतिना उद्गम दोषा आधा कर्म विगेरे छे, तथा गृहस्थ विगेरेना संसर्गथी अपायो चिंतवेला छे, तथा । वीजा उद्देशामां शौचवादि (गृहस्थो) ना बहु प्रकारना दोषो तथा शय्यानो विवेक (त्याग) बतावे छे. आ अर्थाधिकार छे. तइए जयंतछलणा सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयव्यं । समविसमाईएमु य समणेणं निज्जरटाए ३ ॥ ३०४ ॥ त्रीजा उद्देशामां जयणा पाळनार उद्गम विगेरे दोषो त्यजनार साधुने जे छलना थाय, ते दूर करवा प्रयत्न करवो, तथा । स्वाध्यायने अनुकूळ ए समविषम विगेरे उपाश्रयमा निराना अर्थी साधुए रहेवं, ए विषय छे, नियुक्ति' अनुगम कह्यो हवे मूत्रानुगममां मूत्र कहे छे. से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणि वा, से जं पुण उवस्तयं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उपस्सए नो ठाणं वा सिजं वा निसीइियं वा चेइज्जा ।। से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सय जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उत्स्सए पडिलेहिता पमज्जित्ता तो संजयामेव ठाणं वा osteo* -*IRO Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९४७॥ १.३ चेज्जा ॥ से नं पुण उवसस्यं जाणिज्जा अस्सि पडिआए एवं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई ४ समरंभ इसमुद्दिस्स. hi पामि अच्छिनं अणिसद्वं अभिहडं आहहु चेएइ, तहपगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वानो ठाणं वा ३ चेइज्जा । एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि वहवे साहम्मिणीओ ॥ से भिक्खू वा० से जं पुण उ० हवे समणवणीमए पगणिय २ समुद्दिस्स तं चैष भाणियन्वं ॥ से भिक्खू वा० से जं० बढवे समण० समुद्दिस्स पाणाई ४. जाव चेएति, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा. ३. चेइज्जा ३, अह पुणेत्रं जाणिज्जा । पुरिसंतरकडे जात्र सेविए पडिलेहित्ता २ तओ संजयामेत्र चेइज्जा | से भिक्खु वा० से जं पुण अस्संजए भिक्खुपडि - arraise वा कंfिar वा छन्ने वा लित्ते वा घट्टे वा मट्टे वा समट्टे वा सेपधूमिए वा तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेत्रिए नो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहिं वा चेइज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जात्र आसेविए पडिले हित्ता २ तभ चेइज्ज्जा | ( सू० ६४ ) ते भिक्षु उपाश्रयमां रहेवाने जो इच्छतो होय तो गाम विगेरेमां जाय, त्यां जइने साधुने योग्य वसति शोधे, त्यां जो इंडां विगेरे, जंतु युक्त मकान होय, त्यां वास विगेरे न करवो, ते बतावे छे स्थान ते काउस्सग शय्या ते संथारो करवो. निपीधिका ते स्वाध्याय ( भणवानुं ) आ त्रण न करवां, ( अर्थात् जीव जंतुवाळा मकानमां उतरखुं नहि.) पण जेमां जतु न होय त्यां उतरी ते काउसग्ग विगेरे करवो हवे उपाश्रय संबंधी उद्गम विगेरे दोषो बतावे छे. ते भिक्षु एवं जाणे के कोइ श्रावके आ उपाश्रय कराव्यो छे, पण ते एक साधु जे जिनेश्वरनी आशा प्रमाणे अनुष्ठान करे छे, सूत्रम् ॥९४७॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२- ॥९४८॥ | तेने उद्देशीने जीवोनो आरंभ करीने बनावेलो छे, अथवा ते साधुने उद्देशीने वेचातो लीधो छे, अथवा अन्य पासेथी उछीको लीधो 8 आचा० छे, अथवा नोकर विगेरे पासेथी वळ-जवरीयी लीधो छे, वधानो सामटो होय, तेमां वधानी रजा लीधा विना लीधो होय अथ वा तैयार थयेलुं मकान के तंबु विगेरे वीजी जग्याथी लावेल होय, आवा स्थानने श्रावक साधुनी पासे आवीने आपे, तो तेवा । ॥९४८॥ आप, ता तवा | उपाश्रयमा ज्यां सुधी चीजो पुरुष तेवा मकानने न वापरे, त्यां सुधी पोते तेमां काउसम्ग विगेरे के रहेवास न करे, आ एक साधु आश्रयी का. ते प्रमाणे घणा साधु एक साध्वी के घणी साध्वीने उद्देशीने ते आश्रयी पण समजवू, वो त्यारपछी श्रमण वणीहै मगाश्रयी मृत्रमा पण पिंडेपणा मूत्र प्रमाणे जाणवू, एरले ते मूत्रमा समजवू के प्रथम पोते न उतरवू पण साधु सिवाय बीजो कोइ गृहस्थ उतरे, त्यारपछी पोते उतरे तथा साधु जाणे के आ उपाश्रय साधुने माटे गृहस्थे बांसनी कांवी (खापटो) विगेरेथी। वांधेल छे, दर्भ विगेरेथी छायेल छे, छाण विगेरेथी लीप्यो छे, खडो विगेरे खडबचड पदार्थथी घस्यो छे, अने तेने कळि विगेरेना ल लेपथी कोमळ वनाव्यो छे, तथा जमीन साफ करी संस्कार्यों छे, दुर्गधी दूर करवा धुप विगेरेथी धुपाव्यो छे, आq जो साधु | माटे करेलुं होय तो ज्यां सुधी कोइ गृहस्थ न वापरे, त्यां सुधी ते मकानमा पोते काउ सग्ग विगेरे न करे, पण ज्यारे वोजो वापरे, 18| तेवू जाणे त्यार पछी ते मकान पडिलेही प्रमार्जीने काउसग विगेरे करे. से भिक्खू वा० से जं० पुण उवस्सयं जा० अस्संजए भिक्खुपडियाए खुडियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, जहा पिंढेसणाए जाव संथारगं संथारिज्जा बहिया वा निनक्खु तहप्पगारे उबस्सए अपु० नो टाणं ३ अह पुणेवं० पुरिसंतरकडे आसेविए पढिलेहित्ता २ तओ संजयामेव आव चेहज्जा ॥ से भिक्खू वा० से जं. अस्संजए भिक्खुपडियाए उदग्गप्प SCASSESSESSESSROSTEL Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ॥९४९॥ सूर्याणि कंदाणि वां मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्काणि वो फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठोणाओ ठाणं साहरइ या वा निण्णक् त अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसंतरकडं चेइज्जा | से भिक्खू वा से जं० अस्संज भ० पीढ़ वा फल वा निस्सेर्णि वा उद्खलुं वा ठाणोओ ठाणं साहरह बहिया वा निण्णक्खू तहपगारे उ० अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसं० चेइज्जा, ॥ ( ० ६५ ) 'ते भिक्षु आवा प्रकारनो उपाश्रय जाणे के ते गृहस्थ साधुने उद्देशीने नानी बारीनुं मोढुं वारणं कर्तुं छे, तेवा मकानमां ज्यां सुधी गृहस्थ व बीजो पुरुष ते मकान, न वापर त्यां सुधी साधु तेने न वापरे. आ बने सूत्रमां पण उत्तर गुणो वर्णव्या छे, ते पूर्वे चतावेला दोषी दुष्ट शय्या होय तो पण वीजा पुरुषे स्वीकार्या पछी कल्पे छे, पण मूळ गुणथी दुष्ट होय तो वीजा पुरुष स्त्रीकार्या पछी पण कल्पती नथी, मूळ गुगना दोषो नीचे मुजव छे, “पट्टी वंसोदो धारणा उचतारि मूलवेलीओ” एटले प्रष्ट वां विगेरेथी साधु विगेरे माटे जे वसति तैयार करावाय, ते मूळ गुणथी दुष्ट छे. पीठो वांडो, बे धारण करनारा, तथा चार मूळ वेलीओ होय - ( साधु माटे वांसडा उभा करीने मकान बनावे ते साधु कल्पे नहि ) वळी ते साधु आवो उपाश्रय जाणे के गृहस्थ साधुने उद्देशीने पाणीथी तैयार थयेलां कंद विगेरे वीजा मकानमा (ते खाली करवा माटे ) लइ जाय छे, अथवा तेनो बहार ढगलो करे छे, तेवा मकानमां ज्यां सुधी वीजो माणस आवीने न रहे त्यां सुधी साधु तेमां न उतरे, पण बीजाए वापर्या पछी साधु तेमां रहे, तेज प्रमाणे अचित वस्तु पण घरमांथी बहार काढे तोपण, पुरुषांतर था पछी साधु ते मकान वापर; कारण के तेमां पंण फेरफार करतां त्रस जीवनो वध थवानो सभंव छे. वेळी सूत्रम् ॥९४९॥ * Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९५०॥ ॥९५०॥ से भिक्खू वा० से जं० तंजहा-खंधसि वा मंचंसि वा.भालंसि वा पासा. हम्मि० अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, नन्नत्थ आगाढाणागादेहि कारणेहिं ठाणं वा नो चेइज्जा ॥ से आहच्च चेइए सिया नो तत्थ सीओदगवियडेण वा २ हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलिज्ज वा, पहोहज वा, नो तत्थ ऊसद पकरेज्जा, तंजहा-उच्चारं वा पा० खे० सिं० वैत वा पित्तं वा पूर्व वा सोणिय वा अन्नयरं वा सरीरावयव वः, केवली बृया आयाणमेयं, से तत्थ ऊसद पगरेमाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाले वा पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अन्नयरं वा कार्यसि इंदियजालं लूसिज्ज वा पाणिं ४ अभिहणिज्ज वा जाव ववरोविज्ज वा, अथ भिक्खूणं पुव्योवइटा. ४ नं तहप्पगारं उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा ३ चेइज्जा ।। (मू०६६) ते भिक्षु आवो उपाश्रय जाणे, के ते एक थांभाना उपर वनावेलुं मकान छे, अथवा मांचडा उपर छे, अथवा माळा उपर छे, प्रासाद ते बीजे मजले मकान आप्यु छे, (प्रासाद ते सारं पाकुं मकान बांध्यु होय ते छे)-हय॑तल ते भोयरावाल्लं मकान छे, | आवा मकानमा वने त्यांसुधी साधुए निवास न करवा, पण बीजा मकानना अभावे तेवू मकान वापरतुं पडे तो शुं करवू ते कहे छे. | त्यां ठंडा पाणी विगेरेथी हाथ धुवे नहि, तथा त्यां रहीने टट्टी जवा विगेरेनी क्रिया न करे, कारण के केवळी प्रभु तेमां कर्म बंध 51 अने संयमनी विराधना बतावे छे, त्यां त्याग करतो पडी जाप, अने पडता हाथ पग विगेरे शरीरना अवयवने नुकशान थाय तथा | पोते पडतां वीजा जीवोने पीडे, अथवा जीवथी हणे, आ. प्रमाणे नुकशान जाणीने साधुए कांतो तेवा अधरना के भोयराना स्थानमा उतरवू नहि, ( अथवा उतरवू पडे तो संभाळीने चडवु-उतरवू के जग्या वापरवी.) वळी *% 24CESSAIRESSEISUSTUSESZERES Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम् ॥९५१॥ ॥९५१॥ CARELUGUSARAN से भिक्खू वा० से जं० सइथिय सखई सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा । आयाणमेयं भिक्खूस्स गाहाइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसइया वा छडी वा उब्वाहिज्जा अन्नयरे वा से दुक्खे । रोगायके समुपज्जिज्जा, अस्संजप कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा अभंगिज्जा वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा कण वा लुद्धेण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघंसिज्ज वा पघंसिज्ज वा उन्बलिज्ज वा उध्वहिज्ज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पक्खालिज्ज वा सिणाविज वा सिंचिज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कटु अगणिकायं उज्जालिज्ज चा पज्जालिज्ज वा उज्जालित्ता कार्य आयाविजा वा प० अह भिक्खूणं पुन्वोवइटा जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ।। (मू० ६७) ते भिक्षु वळी आवो उपाश्रय जाणे के तेमां स्त्रीभो रहेली छे, अथवा ते वाळकोवालु छे, अथवा ते मकान सिंह कुतरो विलाडी विगेरे क्षुद्र पाणीथी रोकायेलुं छे, पशुओ रखाय छे, तथा भोजन पाणी छे, अथवा पशुभोने चारो पाणी आपवामां आवे छे, आवा । | गृहस्थथी आकुळ उपाश्रयमा साधुए स्थान विगेरे न करवं, कारणके तेमां नीचे मुजब दोषो छे, तथा अ। 'कर्म' बंधननां कारणो 8 छे. (१)गृहस्थना कुटुंब साथे वसता त्यां शंका रहित भोजन विगेरेनी क्रिया न थाय, अथता कोइ पण जातनो व्याधि थाय, ते ५ बतावे छे, 'अलसग' ते हाथपग विगेरेनो अटकाव, अथवा श्वयथु ते लकरानो रोग थाय, विशूचिका (शूळ) छर्दी नो रोग थाय। आवी व्याधिओ साधुने उत्पन्न थाय अथवा तेवा बीजो ताव विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त प्राण लेनारो शूळ विगेरे रोग । थाय, तेवा रोगथी पीडायेला साधने देखीने कारुण्यथी अथवा भक्तिथी गृहस्थ ते भिक्षना शरीरने तेल विगेरेथी चोळे, अथवा REACIRCLEAR-OREIGe Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमू ॥९५२॥ थोडं मसळे, पछी सुगंधी द्रव्यथी उबटण करे, कल्क ते कपाय द्रव्यनो कांथ (नाशक जील्लामां शीखाखाइ विगेरे पाणीमां आचा० | उकाळी नाहावामा उपयोग करे छे,) लोध्र ते सुगंधी द्रव्य छे, वर्णक ते कपीलो विगेरे छे, जव विगेरेनु चूर्ण-पदमक जाणीतुं छे, विगेरे द्रव्य वडे थोडं थोडं घसे अने चोळीने तेनुं उद्वर्तन करे, पछी ठंडा के उंना पाणीथी थोडं स्नान करावे, अथवा वारं॥९५२॥ 15वार स्नान करावे, अथवा माथा विगेरेमां के नाभिना उपरना अंगमां पाणी सींचे अथवा लाकडाथी अथवा लाकडां मांहोमांहे घसीने अग्नि बाळे, भडको करे, तेम करीने पछी साधुना शरीरने एकवार तपावे, के वारंवार तपावे, आवा दोषो जाणीने साधुने आ प्रतिज्ञा विगेरे छे. के तेवा गृहस्थना रहेवासवाला मकानमा काउसग्ग विगेरे न करवू, ( तेम निवास पण न करवा.) आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अक्कोसंतो वा पचंति वा रुंभंति वा उद्दविति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अन्नमन्नं अक्कोसंतु वा मा वा अकोसंतु जाव आ वा उद्दविंतु, अह भिवखणं पुब्ब० जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ।' (मृ०६८) गृहस्थना रहेवासवाळा घरमां उतरतां साधुने कर्मर्नु उपादान छे, तेथी त्यां बहु दोषो छे, तेज बतावे छे, के आवा घरमां 18| गृहस्थ माहोमांहे आक्रोश विगेरे करे, ते कलेश करतां देखीने साधु कदाच उंचुं नीचं मन करे, (उचुं मन ते आq न करे तो ठीक, अने अवच ते भले करे,) तेवीज रीते माहोमांहे गृहस्थना घरमां घरवाळां परस्पर कलेश उपद्रव विगेरे करे तो पण साधुने असमाधि थाय, माटे त्यां न उतर. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावई हिं सद्धिं संवसमागस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्टाए अगणिकायं उऽजालिज्जा वा SUCCURRCASER- ROCESSORIESSOCIAL 05 Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जालिज्ज वा विज्झविज वा, अह भिक्ख उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अगणिकार्य उ० वा २ मा वा उ० आचा पज्जा लितु वा मा वा प०, विज्झवितु वा गा वा वि०, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ सूत्रम् (मू० ६९) . ॥९५३॥ गृहस्थ माथे एक मकानमा रहेतां गृहस्थ निश्चयथी पोताना माटे अग्निकाय वाळशे, भडको करशे, अथवा बुज्ञावशे, ते समये ६॥९५३॥ 18 साधुना मनमां गया मूत्रमा कह्या प्रमाणे उंचा निचा भाव प्रगट थशे अने व्यर्थ कर्म बंध थशे, माटे तेवा स्थानमा साधुए उतरवू नहि, ___आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए वा हिरण्णेसु.वा सुवण्णेसु वा कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसराणि पालंबाणि वा हारे वा अद्भहारे वा एगावली ग कण. गावली वा मुत्तावली वा रायणावली वा तरुणीयं वा कुमारि अलंकिविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चाव परिसिया वो सा नो वा एरिसिया इय त्राणं व्या इय वा णं मणं साइज्जा, अह भिक्खूण पु०४ जं तहप्पगारे उवस्सए नो० ..ठा० ।। ('मू०७०) वळी गृहस्थ साथे वसतां नीचला दोपो छे, घरमां गृहस्थने माटे बनावेला दागीना कुंडल, सोनानो दोरो, मणी, मोती चांदी | सोनानां फडां वौजुबंध त्रणसेर वाळो हार झुमखां हार अर्धहार एकावलि कनकावलि मुक्तावलि रत्नावलि विगेरे जुए, अथवा तेवा | दागीना पहेरेली सुंदर कुमारिकाने जुए, तेने देखीने ते साधु उंचा नीचां वचन बोले के आ सारो दागीनो के सुंदर कन्या छे, 18 अथवा आ खामीवाळो दागीनो के कन्या छे, तेज प्रमाणे मनमा रागद्वेष करे, 4640SRO Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा०. ॥ ९५४ ॥ आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धि संवसमाणस्स, इह खलु गाहावरणीओ वा गाद्यावइधूयाओ वा गा० सुण्हाओ वा गा० धाईओ वा गा० दासीओ वा गा० कम्मकरीओ वा तासिं चणं एवं वृत्तपुत्रं भवइ - जे इमे भवंतिममणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पड़ मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्मं परिपारणाए आउट्टाविज्जा पुत्तं खलु सा लभिज्जा उयसि तेयसि वच्चसि जसस्सि संपराइथं आलोयणदरसणिज्जं, एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तासि च णं अन्नयरी सङ्घातं तत्रस्सि भिक्खु मेहुणधम्म पडियारणाए आ उट्टाविज्जा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगारे सा० उ० नो ठा ३ चेइज्जा एयं खलु तस्स || ( सू० ७१ ) पढमा सिज्जा सम्मता २-१-२-१ ॥ वळी गृहस्थ साथै वसतां आ दोषो छे, गृहस्थनी स्त्री, दीकरी, दीकरानी बहु, धावमाता, दासी, नोकरडी वोले अथवा तेमना आगळ पूर्वे कोइ बोल्युं होय, के जे आ जैनना साधु भगवंतो महाव्रत पाळनारा मैथुन (संसार संग ) थी विरत थरला छे, | तेमने निश्चयथी मैथुन सेवन करवुं कल्पतुं नथी, अने तेथी जे कोइ स्त्री तेमनी साथ संबंध करे, अने पुत्र संपादन करे तो ते पुत्र | बळवान दीप्तिमान रुपवान कीर्तिवाको थाय, आवुं सांभळीने तेओ विचारीने कोइ पुत्र वांछक (वांझणी ) स्त्री साधुने कुसंग करवा | प्रार्थना करे, आवा दोषो जाणीने साधुओने तेवा मकानमां उतरवानी मना करेली छे, आज भिक्षुनुं सर्वथा साधुपणुं छे. सूत्रमू ६ ।। ९५४ ॥ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॥९५५॥ बीजो उद्देशो. (प्रकरण) । पहेलो उद्देशा कहीने बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, के गया उद्देशामां गृहस्थना घरमां वास करतां थता दोषो । सूत्रम् बताव्या, अहींया पण तेवा विशेष दोषो वसति संबंधी बतावे छे. गाहावई नामेगे मुइसमायारा भवंति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, नं पुवं कम्मं तं पच्छा कम्मं जं पच्छा कम्म, तं पुरे कम्म, तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करिज्जा.वा नो करिजा वा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं ॥ (मू० ७२) केटलाक गृहस्थो शुचि समाचारवाळा भागवत विगेरेना भक्त अथवा भोगीओ ( वारंवार स्नान करनारा अथवा सुगंधी चंदन | अगर केसर कर्पूर विगेरे वस्तुनो लेप करनार शोखीनो ) होय छे, अने साधुओ तेवी रीते वारंवार के एकवार खास कारण विना ? | फासु पाणीथी पण ब्रह्मचर्यना भंगना दोपने लीधे स्नान करनारा नथी, तथा कारण प्रसंगे मोया (पेशाब) नो पण, उपयोग करनारा छे. (ज्यारे जंगलमां उतर्या होय अथवा उजड जग्यामां उतर्या होय, त्यां ओचीतो साप करडे तो तेना झेरथी बचवा रातना वैदनी खटपट न वनी शके, माटे पेशावनो उपयोग पूर्व थतो, सांभळवा प्रमाणे ओचीतो खीलो के ठोकर लागी लोही पुष्कळ नीकळ्तुं होय, तो पेशाबनी धारा करवाथी बंध पडे छे, तेवा कोइ पण कारणे वखते कोइ साधुए उपयोग कर्यो होय तो वारंवार स्नान करनारा गृहस्थने दुर्गच्छा थाय) माटे भिक्षु तेनी गंधवाळा छे, तथा कोइनो पेशाब गंधातो होय, परसेवो वास मारतो होय, OSAROSEOCEDASRESCRECR-SCry Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ते गृहस्थने खोटं लागे, अने गृहस्थने ते गमे नहि. (वनेना रस्ता उलटा छे.) माटे फावे नहि. ( सूत्रमा पडिकूल पडिलोमा 5 आचा० एक अर्थवाला छतां बने मुंकवानुं कारण फकत अतिशय विरुद्धता वतावी छे.) तथा ते गृहस्थ साधुना कारणेज भोजन तथा जमवाना स्थानमा तेमने स्नान पूर्वे करवू होय, ते पछीथी करे छे, अने पाछळ करवान होय ते पहेलुं करे एम आगळ पाछळ घरमां कार्य ॥९५६॥ 5थतां साधुओने अधिकरण दोप थाय छे, अथवा ते गृहस्थोने जमवानो काल थयो होय तो पण साधुने लीधे न खाय, तेथी अंतराय कर्म बंधाय, मननी पीडा विगेरेनो संभव थाय, अथवा ते साधुओ गृहस्थनी शरमथी पूर्वे पडीलेहणा करवानी ते पछी करे, अथवा काळ वीती गया पछी करे, अथवा न पण करे, माटे साधुओनी आ प्रतिज्ञा छे, के तेवा गृहस्थना वापरता घरमां निवास न करवो. आयाणमेयं भिकूखुस्स गाहावईहिं सद्धि सं०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयहाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा४ उवक्खडिज्ज वा उवकरिज वा उवकरिज्ज वा, तं च भिक्खू अभिकंखिज्जा भुतए वा पायए वा वियट्टित्तए वा, अह भि. जनो तह० ॥ (सू०७३ ) आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावदणा सद्धि संव. इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्टाए विख्वरूवाई दारुयाई भिन्नपुवाई भवंति, अद्द पच्छा भिक्खुपडियाए विरुवरुवाई दारुयाई भिदिज्ज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकायं उ० प०, तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहप्पगारे० ॥ (मू० ७४) वळी जो गृहस्थ साथे साधु उतरे ता तेने आवां पण कर्म बंधन छे, के गृहस्थ प्रथम पोताना माटे जुदी जुदी जातनुं रांधे, अने पाछळथी साधु माटे अशन विगेरे चारे प्रकारनो आहार रांधे, अथवा भोजनन वासण आगळ मूके ते देखीने भिक्षुक तेने DESCRESSESKRESERECASSESECRECOR बहOCESSESSESSAGERSORBA Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषा०. ॥९५७॥ खावा पीवानी इच्छा करे, आथवा त्यां वेसेवांनी साधु इच्छा करे, नेटला माटे रहेवाना घरमां न उतरनुं (७३) सूत्रम् एज प्रमाणे गृहस्थ पोताना माटे जुदी जुदी जातिनां लाकडां चीरीने मुक्यां होय छे, अने पाछळथी साधु माटे जुदां जुदां लाकडां चीरावे, खरीद करे, बदलो करे, अथवा ठंडीना दिवस होय तो तापणा माटे अग्निकाय सळगावे, भडको करे, त्यांसुधी तापवांनी एकवार इच्छा करें, वारंवार तापवानी इच्छा करे, अथवा त्यां जइने बेसे, माटे तेवा स्थानमा कर्मबंधेनुं कारण जाणीने ७ ॥ ९५७ ॥ साधुए उतर नहि. (सू-७४) वळी सेभिक्खु वा॰ उच्चारपासेवणेग उच्चादिज्जमाणे राओ वा वियाले वा गाहावईकुलस्स दुवारवाई अवगुणिज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसिंज्जा, तस्स भिक्खुस्स नों कप्पर एवं वइत्तएं - अयं तेगो पत्रिसर वा नो वा पविसर उबल्लिय वा नो वा० आवयइ वा नो वा० वयइ वा नो वा० तेण दृढं अनेण दृडं तस्स हडं अन्नस्य हढं अयं तेणे अयं उवचरए अयं हंता अयं इत्थमकासी तं तत्रस्सि भिक्खु अतेणं तेणंति संकर, अह भिक्खूणं पु० जाव नो ठा० ॥ ( मू०७५ ) ते भिक्षु मृहस्थना घरमा साथे रहेलो स्थंडील विगेरेना कारणे रात्रे के परोडीये उपाश्रयनुं द्वार उघाडे, त्यां छिद्र शोधना चोर पेसी जाय, ते देखीने साधुने आवुं बोलवु न कल्पे, के आ चोर घरमां पेसे छे, तथा चोर पेसतो नथी, ते प्रमाणे छुपी जाय छे के छुपातो नथी, अथवा कुदी आवे छे, अथवा नंथी आवतो, ते बोले छे, अथवा नधी बोलतो, ते अमुक माणसे चोर्यु, अथवा बीजे चोर्यु, तेनुं चोर्यु, के बीजानुं चोर्यु, आ चोर छे अथवा तेने सहायता करवा पाछळ चालनारो छे, आ शस्त्र धारक छे, आ मारनारो घातक छे, एणे आ अहों कर्तुं छे, विगेरे न बोलकं कारण के तेथी चोरने पीडा थाय, अथवा ते चोर साधु उपर द्वेष Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९५८॥ ॥९५८॥ करीने तेनेज-मारशे, विगेरे दोपो छे, अने जो साधु तेप्रमाणे चोरी करनारा चोरने न बतावे तो ते घरवाळांने आ' साधु नथी पण चोर छे एवी शंका थाय माटे आवा दोषो जाणीने साधुए गृहस्थने रहेवाना घरमां न उतरवू. फरीथी वसतिना दोपो बतावे छे. से भिक्खू वा से जं० तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा० ॥३॥ से भिक्खू वा० से जं० तणपुं पलाल० अप्पंडे जाव चेइज्जा ॥ (मु० ७६.) ते साधु घासनो ढगलो होय, पराळनो पुंज होय, पण त्यां इंडां पडेलां होय, तेवा मकानमा साधु न रहे, पण' उपर बतावेला . घास के पराळमां इंडो न होय तेवा मकानमा उतरवू, ( अल्प शब्दनो अर्थ अभाववाचो छे.) हवे वसतिना परित्यागना उद्देशानो अर्थाधिकार कहे छे-. से आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खण साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं नो उवइज्जा ।। (मू० ७७), लोकोने उतरवानां मुसाफरखानां के बगीचानी अंदरनां घरो के मठो अथवा ज्यां पोताना सरखी समाचारीवाळा साधुओ वारंवार आवीने उतरता होय, तेवा स्थानमा मासकल्प विगेरे न करवो. ( के वोजाने उतरतां संकोच न थाय) हवे. कालातिक्रांत वसतिना दोपो कहे छेसे आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडुबद्रियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थव- भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइकंतकिरियावि भवति १ ।। (मू० ७८.) . .'. . 1SCR-CROCESSRESSESSGEOGREHLOCAEX Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९५९॥ जे साधु भगवंतो ते मुसण्फरखाना विगेरेमा शीतोष्ण रुतुमा मासकल्प करीने पाछा चोमासुं ते मकानमां करीने फरीधी | कारण विना रहे, तो (गुरु शिष्यने कहे छे) हे आयुष्मन् ! काल अतिक्रम दोष संभवे छे, तेज प्रमाणे स्त्री विगेरेनो प्रतिबंध अथवा स्नेहथी उद्गम विगेरे दोषोनो संभव थाय छे, माटे तेवू स्थान साधुने न कल्पे.. हवे उपस्थानं दोषने बनावे छे से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारी उडु वासा० कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणा दु (ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव' भुज्जो० अयमाउसो ! उवट्ठाणकि० २ ॥ (सू० ७९) जे साधुओ मुसाफरखाना विगेरेमां शीयाळा उनाळामा मासकल्प करीने अथवा चोमासु करीने अथवा बीजे एक मास रहीने बमणो त्रणगणो कल्पवडे न छोडीने अर्थात् में त्रण मास सुधी ते मकानमां न वसवू तेवो कल्प उलंघीने पाछा त्यांज वसे छे, माटे आवों उपाश्रय उपस्थान क्रिया दोषथी दुष्ट थाय छे, माटे तेवाउपाश्रयमां साधुने उतरवू कल्पतुं नथी. हवे अभिक्रांत वसति बताववा कहे छेइह खलु पाईणं वा ४'संतेगइया सट्टाःभवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे नो मुनिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं पत्तियमाणेहि. गेयमाणे िबहवे समण माहण अतिहिकिवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहामो वा पवाणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मंनाणि वा दम्भकम्मंताणि वा बद्धकंवा वक्यक० इंगालकम्म० कढक सुसाणक० मुष्णागारगिरिकंदरसंतिसेलोवद्याणकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा, Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा०८ ॥९६०॥ (अहीं मा जे भयंतारो तहप्पगाराई एसगाणि वा जाप गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अभिकंतकिरिया यावि भवइ ३॥ (सू०८०) सूत्रमू ( अहीं प्रज्ञापक विगेरेनी अपेक्षाए) पूर्व विगेरें दिशामां श्रावको अथवा प्रकृतिमद्रक अन्य गृहस्थो नोकरडी सुधी होय, तेओने साधुनो “आवो उपाश्रय कल्पे" एवी खबर न होय पण उपाश्रय आपवाथी स्वर्ग विगेरेनु फळ प्राप्त थाय, तेवू क्यायथी ॥९६०॥ जाणीने श्रद्धा करीने हृदयमां ते मचवाथी घणा साधु विगेरेने उद्देशीने त्यां आराम विगेरेमां यानशाला विगेरे पोताना माटे करतां साधु विगेरेने जग्या आपवा माटे ते मकानो मोटा कराव्यां होय, ते मकानोनां नाम कहे छे, आदेशन ( लुबारनी शाळा ) आयतन (देवकुलनी जोडे बनावेल ओरडाओ) देवकुल (देवळ) सभा (चारवेदने भगवानी पाठशाळा ) परख पुण्य (दुकानो) पुण्यशाळा (घंघशाळा) यान ग्रह (रथ विगेरे राखवाk स्थान ) यानशाळा ( रथ विगेरे बनाववान स्थान ) सुधाकर्म ते (ज्यां खडीन परिकर्म थाय) आ प्रमाणे दर्भ वधं वल्कन अंगार काष्ठ कर्म विगेरे छे, पटले जेमां घास चामडां झाडनी छाल के कोयला के * लाकडांना कामर्नु कारखार्नु होय, मसाण होय, शून्य घर होय, शांतिकर्मन घर होय, पर्वत उपरखें घर होय, सुधारेली पहाडनी 8 गुफा होय, शैल उपस्थान ( पाषाणनो मंडप ) होय, आवां घरो चरक ब्राह्मणो विगेरेथी पूर्व वपरायां होय, पछी खाली पडेलां 15 होय, तो पछबाडे साधु तेमां उतरे, तो तेमां अल्प दोष (निर्दोष) होय, छे, आबु गुरु 'शिष्यने कहे छे, ( अर्थात् तेवा मकानमां उतराय छे.) ____ इह खलु पाईणं वा जाव रोयमागेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमए समुदिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई SRECROSSESAMARELUG Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचा० सूत्रम् ॥९६१॥ चेझ्याई भवंति, तं०-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंताणो तहप्प० आएसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अणभिकंतकिरिया यावि भवई ॥ (सू० ८१) . उपरना सूत्र प्रमाणे पूर्व विगेरे दिशामा गृहस्थथी ते कर्म करी सुधीनां माणसोए साधुने मकान उतरवा आपवानुं विशेष 2 पुण्य फळ जाणीने श्रमण ब्राह्मण अतिथि विगेरेने आश्रयी आदेशन घर विगेरे बनाव्यां होय, तेमां पूर्व श्रमण ब्राह्मणो विगेरे न उतर्या होय, तेमां साधु उतरे, तो ते दोषवाळी जग्या छे, माटे ते उतरवा योग्य नथी. . हवे न उतरवा योग्य वसति कहे छेइह खलु पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं वुत्तषुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि भयंतारणंकप्पइ आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अह अप्पणो सहढाए चेइयाइं भवंति, त०-आएसणाणि वा जावगिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो सयठाए चेइस्सामो, तं०-आएसणाणि वा जाव०, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छांति इयराइयरेहिं पाहुडेहि वस॒ति, अयमाउसो ! बज्जकिरियावि भवति ५ ।। (मू० ८२) आ पूर्व विगेरे दिशामां गृहस्थ अथवा नोकरडी होय, अने तेओने पूर्वे एयूँ कहेवामां आव्यु होय, के आ साधु भगवंतो पोते || ब्रह्मचर्य पाळनार छे, तेओने साधु माटे बनावेलु मकान उतरवाने कल्पतुं नथी, एटला माटे आपणे आपणा माटे बनावेलुं घर छे, Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९६२॥ ते रहेवा आपी दइए, अने आपणे माटे नधुं बनावी लइशुं, आवी रीते गृहस्थे 'बनावेलुं मकान सूत्र ८० मां बतावेल विगतवालुं होय, ते सुंदर के मध्यम होय, तो पण साधुओने रहेवा आपे, तो ते वर्ज्य क्रियावाळं ( त्याज्य मकान ) होवाथी तेमां उतर नहि. हवे महावर्ज्या नामी वसतिनुं वर्णन करे छे. जे इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइआ सङ्का भवंति तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बढवे समणमाहण जाव वणी पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगारई चेइयाई भवति, तं० - आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, भयंता तहष्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं०, अयमाउसो ! महावज्जकिरियाव भवइ ६ || (सू० ८३ ) आ वधुं सुगम छे, के श्रावके श्रमणमाहण वणीमग माटे मकान बंधाव्यं होय, तेमां जो साधुओ स्थान करे, तो महावर्ज्य नामनी वसति थाय छे, माटे आ विशुद्ध कोटी अकल्प्य छे, तेमां उतरवुं नहि, ६ ॥ हवे सावध अभिधान ( नामनी ) वसति कहे के. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकवणवणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ २ आगाराई चेहयाई भवंति तं - आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहष्पगाराणि आसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं, अयमाउसो ! सावज्जकिरिया यावि भवइ ७ ॥ ( सू० ८४ ) सूत्रम् ॥९६२॥ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च० ॥ ९६३॥ आ प्राये सुगम फक्त विशेष आ छे के, पांच प्रकारना निर्ग्रथो शाक्य तापस गैरीक अने आजीविकएवा श्रमणो माटे कल्पीने बनावेल वसति होय, तो ते सावध अभिधान वसनि धाय, छे, आ अकल्पनीय छे, पण विशुद्ध कोटी छे, आमां स्थान करतां सावध क्रिया थाय छे. 'हवे महांसावद्य वसतिनुं वर्णन करे छे. इह खलु पाईणं वा ४ जाव तं रोयमाणेहिं एवं समणजायं समुद्दिस्स' तत्थ २ अगांरीहिं अंगाराई चेइयाई भवन्ति, तं० आएसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तंसकायसमारंभेणं महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहि, तंजा—छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ सीसोदए वा परहृवियपुव्वे भवइ अगणिकाये वा उज्जालिपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तह० आसणाणि वा० उंवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्ख ते कम्मं सेवंति, अयमांसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवइ ८ ॥ ( सू० ८५ ) अहीं एक साधर्मिक (साधु) ने उद्देशीने कोई गृहपति विगेरेए पृथ्वीकाय विगेरेनो संरंभ समारंभ आरंभ विगेरे कई पण महान आरंभ करीने जुदा जुदा पाप कृत्योवडे एंटले छापरुं ढांक, लोंपाववु, संथारा माठे वारणुं ढांकवा माटे, विगेरे प्रयोजनने उद्देशीने प्रथम काचु पाणी नांखे, अथवा अग्नि प्रथम बाळे, विगेरेथी आरंभ करेला मकानमां स्थान विगेरे करतां वे पक्षनुं कर्म सेवन करे छे. ते आ प्रमाणे - आधाकर्मी वसतिना सेवनथी गृहस्थपणुं अने तेमां ममत्वना कारणे राग द्वेषपणुं छे, तेथी तथा इर्यापथ अने सांपरायिक इत्यादि दोषो छे. तेथी ते महासावद्य क्रियां अभिधान वसति छे." 2 " Pare सूत्रम् ॥९६३॥ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० R- ॥९६४॥ USEUR REGROGRESCRECRECREGREEGALECRECORE हवे अल्प क्रियावाली वसति कहे छे. इह खलु पाईणं वा० रोयमाणेहि अप्पणो सयहाए तत्थ २ अंगारीहिं जाव उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्प सूत्रमू आएसणाणि वा. उवागछंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवइ ९ ।। एवं खलु तस्स० (सू० ८६) ।। २-१-१-२-२ ॥ शय्यैपणायां द्वितीयोद्देशकः ॥ ८॥९६४॥ प्रथम बतान्या प्रमाणे ते घरमां गृहस्थोए पोताना माटे ते घरमां कंइ पण सावध क्रिया करी होय, तेवा मकानमां पाछळ्थी साधओ आवी उतरे तो ते एक पक्षनु कर्म सेवन करे छ, आवा मकानमा उतरतां साधुओने अल्प (दोप विनानी) क्रिया छे. अर्थात ते मकानमां उतरतां दोष नथी. आज साधुन सर्वस्व छे. "कालइकंतु १ वठाण २ अभिकंता ३ चेव अणभिकंता ४ य । वज्जा य ५ महावज्जा ६ सावज ७ महं८ऽप्पकिरिआ.९ य ॥१॥" १काल अतिक्रांत २ उपास्थान ३ अभिक्रांत ४ अनभिक्रांत ५ वज्ये ६ महावज्य सावध ८ महासावद्य ९ अल्पक्रिया. एम नव प्रकारे नव सूत्रोमां वसति वतावी. तेमां अभिक्रांत अने अल्पक्रिया ए बे वसति योग्य छे, वाकीनी अयोग्य छे. आ प्रमाणे बीजा अध्यननो बीजो उद्देशो पूरो थयो. R EGRANGRESANGAL Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रीजो उद्देशो.. . । चिा सूत्रम् ॥९६५॥ ॥९६५॥ USUGUSAREERUSTORE बीजो कह्या पछी त्रीजो उद्देशो को छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अल्पक्रियावाळी शुद्ध वसति बताची. अहीं पण प्रथम सूत्रथी तेथी विपरीत शय्या बतावे छे. से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहि, तंजहा-छायणओ लेवणओ संधारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए ठाणरहे निसीहियारए सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खूणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवन्ना अमायं कुव्वाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्वित्तपुब्बा भवइ, एवं निक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुब्बा भवइ परिदृवियपुवा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ ?, हंता भवइ ।। (सू०८७) : । 'अहिं कोइ वखत कोइ साधु वसति शोधवा माटे अथवा भिक्षा लेवा माटे गृहस्थने घरे जतां कोइ श्रद्धालु श्रावक आ प्रमाणे कहे, के आ गाममां घणुं अन्न पाणी मळे छे, माटे अहियां आपे वसति याचीने रहेg योग्य छे, आ प्रमाणे कहेवाथी साधु कहे, के हे श्रावक !पिंड ( अन्न पाणी) पामुक (निर्दोष) दुर्लभ'नथी पण ते मळवा छतां ज्यां। बेसीने गोचरी करीए ते आधाकर्मादि दोष रहित उपाश्रय मळयो दुर्लभ छे, तेम 'उं छ' एटले छादन विगेरे उत्तर गुणना दोपथी | पण रहित होय ( ते मळवो दर्लभ छे) तेज बतावे - Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' 'अहेमणिज्ज' एटले. मूळ उत्तर गुणोमां दोष न लगाडे ते एषणीय उपाश्रय होय छे, तेवो मळवो दुर्लभ छे. ते मूळ उत्तर भाचा० । गुणो आ प्रमा । सूत्रमू -RRECR १९६६॥ " AC--CASE पट्टी वसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ। मलगुणेणिं विसुद्धा एसा आहागडा वसही ॥१॥ पीठनो वांस बे धारण चार मृळवेलीओ आई कांइ पण स्थान गृहस्थे पोताना माटे बनावेलुं होय, तो मूळ गुण विशुद्ध 8 वसति जाणवी. वंसगकडणोकंपण छायण लेवण दुवारभूमीओ परिकम्मविष्पमुक्का एसा मूलुत्तरगुणेसु ॥२॥ वांसने कपाववा, ठोकठाक करवी, बारणांनी भूमिने आच्छादन करवू, लेपन करवू, आ परिकर्मथी विमुक्तमूळ ' उत्तर ६ गुणो वडे विशुद्ध छे. मिअधुमिअवासिअउज्जोवियवलिकडा अ वत्ता य । सिता सम्मट्टावि अविसोहिकोंडीगया वसही ॥३॥ धोळेली, धुप करेली, सुगंधीवाली बनावेली, उद्योत करेली, बलिपूजन करेली खुल्लो मुकेली, पाणीथी सिंचेली, संमृष्ट | करेली, आ विशोधी कोटीमां गयेली वसति 'छे. ____ आ जग्याए प्राये उत्तर गुणोनो संभव होवाथी तेनेज' बतावे छे, अने आ वसति आ कर्मना उपादान कर्मोवडे शुद्ध थती नथी ते बतावे छे.___दर्भ विगेरेथी छायेल होय, छाण विगेरेथी लींपेल होय, अपवर्तक ने आश्रयी संस्तारक को होय, तथा बार| नानुं मोठं GAGROGRESOURANGARH Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र/ कर्यु होय, तथा कमाउने आश्रयी दाकवू, उघावं विगेरे छे. बळी- पिंडपात एषणाने आश्रयी दोषो कहे छे. आचा० कोइ स्थानमा साधु रहेला होय तो तेमने ते घरनो मालिक शय्यातर पोताना घरमां आहार लेवा प्रार्थना करे, तेना घरमां सूत्रम् JP आहार लेवो न कल्पे. तेथी ना पास्वाथी तेने द्वेष थाय, विगेरे कारणे उत्तर गुणो युक्त उपाश्रय मळवो दुलर्भ छे, माटे बने 18/ त्यां सुधी 'साधुए शुद्ध उपाश्रय जोइने 'उतरवु तेथी का छे के, ॥९६७॥ मूल्लुत्तरगुणसुदं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं । सेवेज सव्वकालं विवज्जए हंति दोसा उ॥१॥ मुळ उत्तर गुणथी शुद तथा खी पशु नपुंसकथी वर्जित मकान सर्व काळ सेवे, अने दोषोने दर करे. मूळ उत्तर गुण शुद्ध मळवा छतां भणवा विगेरेनी सगवडता युक्त तथा खाली मळवो मुंश्केल छे, ते कहे छे-तेमां भिक्षाच-8 चर्यामां रक्त, निरोधना असहिष्णुंपवायी संक्रमणना स्वभाववाळा (योग्य विहार करनारा.) तथा स्यानरतते कायोत्सर्ग कस्नासत निपीधिकारत ते स्वाध्याय करनारा, शय्याने सर्वांग वडे सुखथी सुवाय, ते संस्तारक २॥ हाथ प्रमाणवाळो, अथवा शयन ते शय्या । छे, तेने माटे संस्थारक (संथारो) ते शय्या संस्तारक रत ते मंदवाड विगेरेना कारणे सूता होय, तथा गोचरी मळेथी ग्रास एप-5 णारत छे, आ प्रमाणे केटलाक साधुओ यथास्थित वसतिना 'गुण दोपों बतावनारा थाय छे, तेओ ऋजु छे, तथा नियागते संयम 8 के मोक्ष छे, तेने पामेला छे, तथा तेओ माया (कपट) रहित होवाथी उत्तम गुणवाळा साधुओ छे. आ प्रमाणे गृहस्थोने वसतिना, गुण तथा दोपो बतावीने साधुओ जाय, त्यारपछी निर्दोष वसति साधुओने आपवा योग्य न होय, तो श्रावको साधु माटे वसति अथवा पूर्वे करेली अपूर्ण होय तो छादन विगेरेथी रहेवा योग्य बनावे, पछी उपदेश आपनारा अथवा बीजा साधुओ8 SSOCII-% Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IR- आचा० ॥९६८॥ SERASACAR आवेथी केटलाक श्रावको छळ करे छे, अने कहे के (प्राभृतिकानी पेठे'माभृतिक वसति होय तेनो अर्थ आ छे के, दानने माटे 81 कल्पेली राखेल छे.) वसति तेवी वसति पूर्व साधुओने वतावेली होय, के तमे ज्यारे आवो त्यारे अहिं उतरजो, ते उत्क्षिप्त पूर्वा सूत्रमू वसति छे, तथा एम कहे के अमे पूर्वे आ मारे रहेवा माटे बनावी छे, ते निक्षिप्त प्रपूर्वा छे, तथा "परिभाइ यपुत्व" ते अमे आ वसति पहेलांथो अभारा भत्रिजा विगेरे माटे कल्पेली छे, तथा वीजा गृहस्थोए पण आ रहेवान मकान वापर्यु छे, तथा ते H९६८॥ गृहस्थ कहे छे के अमे एने प्रथमथी पाडी नांखवा राखेल छे, जो तमारे आ उपयोगमा न आवे तो अमे एने पाडी नाखीशुं, आ प्रमाणे भक्तिथी कोइ गृहस्थ छलना करे तो साधुए ठगवानुं नहि; पण दोपोने दूर करवा प्रयत्न करवो. H०-आ प्रमाणे छलनाना संभवमां पण यथावस्थित वसतिना गुण दोपो गृहस्थे पूछतां साधु कहे तो शुं सम्यकज प्रकट करशे? अथवा एवं प्रकट करतो साधु शुं सम्यक् प्रकट कहेनारो थशे? आचार्य कहे हा! ( हंत! अव्यय शिष्यना आमंत्रणमा छे ) ते सम्यकज कहेनारो थाय छे. हवे तेवा कार्यना वशथी चरक कार्पटिक विगेरे साथे उतरवु पडे तो तेनी विधि कई छे. से भिक्खू वा० से जं.पुण उवस्सयं जाणिज्जा खुड्डियाआ खुड्ड दुवारियाओ निययाभो संनिरुद्धाओ भवन्ति, तहप्पगा० उचस्सए राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा प० पुरा हत्थेण वा पच्छ। पाएण वा तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा २, केवली व्या आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए दंडए वा लडिया वा भिसिया वा नालिया वा चेल वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुबद्धे दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खु य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे-वा २ पयलिज्ज वा २; से तत्थ पयलमाणे वा० हत्थं वा० लूसिज्ज वा ४ जाच CHOREOGRESCRACCIAनाल EER-CA Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९६९॥ R ववरोविज वा, अहमिक्खूणं पुच्चोवाट जं तहवस्सए पुरा इत्येण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संजयामेव नि० पविसिज वा ते भिक्षु आवो उपाश्रय जाणे, के नानी वसति छ, अथवा दरवाजा नाना छे, अथवा ते नीची छे, अथवा गृहस्थथी भराइ गइ छ, अने ते वसतिमां-साधुने उतरवानी जग्यामां शय्यातरे बीजा केटलाक दिवस रहेनार चरक विगेरेना साधुने उतरवा आपेल छे, अथवा साधुना आव्या पहेला ते जग्यामां चरक विगेरे उतरेला छे, अने पाछळथी साधुने तेमां जग्या आपेल छे, तो | रात्रे के परोडीए कारण वशे बहार जतां आवतां जेम चरक विगेरेना साधुना उपकरणने उपघात न थाय, अथवा तेना शरीरना अवयवनो उपधात न थाय, तेम प्रथम हाथ फेरवताजवू अने यतनाथी जवा आववानी क्रिया करवी, जो तेम न करतां अयतनाथी चाले तो केवळी तेमां कर्म आदन बतावे छे. एटले त्यां श्रमण ब्राह्मणोना छत्रने मात्राने दंडने लाकडीने भिसिका नालिका वस्त्रने |चिलिमिली ( यमनिका-पडदो) ने चामडाने चर्मकोश पगमां तलीये पहेरवानी चामडानी खल्लक विगेरे चर्मछेदनक दुर्बद्ध दुनिक्षिप्त वस्तु पडी होय, त्यां अनिष्कंप होय ते चलाचल थतां दोष लागे तेथी पोते न अथडाय तेम साधुए चालवू, नहि तो तेना उपकरणने नुकशान थाय अथवा सेना हाथ पगने नुकशान थाय, माटे-संभाळीने जवु आवq, . . से आगंतारे ग अणुवीय उवस्सयं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए ते उपस्सयं अणुनविज्जा-कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरित्रायं वसिस्सामोजाव आउसंतो! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव. साहम्मियाई ततो उवस्सयं "गिण्डिस्सामो तेण परं विहरिस्सामोः ॥ (मू०८९) हवे वसतिनी याचनानी विधि कहे छे. ते भिक्षु पूर्वे वतावेला आगंतार विगेरे स्वरुपवाळा रहेवा योग्य मकानमा प्रवेश करीने अने विचार करीने आ उपाश्रय CE +C+SCROS Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् 8 केवो छे? एनो मालिक कोण छे? विगेरे पूछीने उपाश्रयने याचे. हवे जे. घरनो स्वामी छे, अथवा घरना मालिके तेनी रक्षा माटे जेने सोंप्यु होय, तेनी पासे उपाश्रयनी याचना करे, ते आ| आचा० * प्रमाणे हे आयुष्मन्! तारी इच्छाथी तुं आज्ञा आपे तो अमुक दिवस आटला भागमां अमे रही . त्यारे ते वखते गृहस्थ कहे, के है तमने केटला दिवस जरुर पडशे? त्यारे साधुएं कहे, के शीयाळे, उनाळे खास कारण विना एक मास अने चोमासु होय तो चार मासनी जरूर छे, एम याचना करवी, त्यारे कदाच गृहस्थ कहे, के मारे तेटलो काळ अहीं रहे, नथी, अथवा तेटलो काळ वसति अपाय तेम नथी, त्यारे साधुए ते मकान लेवा, कांइ खास कारण होय तो कहेवू के ज्यां सुधी आप रहो त्यां सुधी अथवा आपना कवजामां होय त्यां सुधी अमे एमां रहीशुं, त्यार पछी अमे विहार करी जहशुं, पण गृहस्थ पूछे, के साधुनी संख्या केटली छे? तो/2 ६ कहेg, के अमारा आचार्य समुद्र जेवा छे, तेथी परिमाण नकी नथी, कारण के कार्यना अर्थीओ केटलाक आवे, अने भणवा विगे-18 रेतुं कृत्य थइ रहेतां केटलाक जाय छे, तेथी जेटला हाजर हशे, तेटला माटे याचना छे, अर्थात् साधुए घरधणी साथे साधुन परिमाण नकी न करवू, वळी से भिक्खू वा० जस्सुवस्सए सबसिज्जा तस्स पुवामेव नामगुत्तं जाणिज्जा, तो पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहेज्जा ॥ (मु०९०) ते साधु जेमा घरमां निवास करे तेनुं प्रथम नाम गोत्र जाणी ले, त्यार पछी तेना घरमां निमंत्रणा करे, अथवा न करे तो पण चारे प्रकारनो अमामुक आहार ग्रहण न करे (नाम-गोत्र पूछ्वानुं कारण ए छे के आवेला साधु परोणाओ सुखेथी घर पूछता आवी शके.)15 SROGRECR-COLORROREASTI .ि . . Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भिक्खू वा० से जं. ससागारियं सागनियं सउदयं नो पनस्स निक्खमणपवेसाए जावऽणुचिंताए, तहप्पगारे उवस्सए.नो ठा०. आचा ते भिक्षु एवू जाणे के आउपाश्रयमा गृहस्थ रहे छे. अथवा अग्नि बळे छे, अथवा पाणी (सचित) रहे छे, त्यां आगळ प्रज्ञसाधुए काउसग्ग करवा के ध्यान करवा के भणवा रहे नहि. (त्यां निवास न करवो) ॥९७१॥ ५ से भिक्खू वा० से जं० गाहावइकलस्स मज्झमज्झेणं गंतु पंथए पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव चिंत्ताए तह उ० नो ठा०॥(सू०९२ । जे उपाश्रयमा उतर्या होय त्यां गृहस्थना घर मध्येनो मुख्य रस्तो होय त्यां बहु अपायनो संभव होवाथी तेवी जग्याए न रहेQ से भिक्खू वा० से जं०, इह खलु गाहावई वा० कम्मकरीओ वा अत्रमन्नं अकोसंति वा जाव उद्दवंति वा नो पन्नस्स०, सेवं नच्चा तहप्पगारे उ० नो ठा०॥ (मू०.९३) 8 ते बुद्धिमान साधु एम जाणे, के आ जग्यामां गृहस्थ अथव नेना घरमां काइपण नोकर विगेरे परस्पर लडे छे. एक बीजाने * उपद्रव करे छे, तेवू जाणीने ते घरमां साधुए निवास न करवो, कारण के त्यां रहेतां गणवामां के समाधिमां विघ्न थाय छे. से भिक्खू वा० से ज. पुण० इह खलु गाहावई वा कम्मकरीओ वा अन्नमन्नस्स गायं तिल्लेण वा नव० घ० वसाए वा अभंगेति वा मक्खेंति वा नो पण्णस्स जाव तहप्प. उव० नो ठा. (मू० ९४) ते साधु एम जाणे के आ घरमा गृहस्थ अथवा नोकरडी विगेरे कोइपण परस्पर एक बीजाना शरीरने तेस, माखण, धी के चरवीथी चोळे छे, अथवा कल्क विगेरेयी उवर्तन करे छे, त्यां प्रज्ञसाधुने निवास करवो न कल्पे. से भिक्खू वा० से जं पुण०-इह खलु गाहावई वा नाव कम्मकरीओ अन्नमन्नस्स गायं सिणाणेण वा क० लु० चु० CHECRECESCRE Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ९७२ ॥ प० आर्धसंति वा पसंति वा उव्वलंत वा उच्चर्हिति वा नो पन्नस्स० ॥ ( सु० ९५ ) भिक्षु मजा के आ घरमां गृहस्थो के घरनी माणसोः परस्पर स्नान करे छे, अथवा शरीरे सुगंधी पदार्थो तेल चूर्ण विगेरे एकवार घसे छे, अथवा वारंवार घसे हे, तेवा मकानमां बुद्धिमान् साधुएं न उतर. सें भिक्खू० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खलु गाहावती वा जात्र कम्मकरी वा अणमण्णस्स गायं सिओदग० सिणो० उच्छो ? होयंति सिंचति सिणावंति वा नो पन्नस्स जात्र नो ठाणं० ॥ ( सू० ९६ ) तें भिक्षु एम मालूम पडे के आ उपाश्रयमां गृहस्थना घरनां माणसो ठंडा पाणीथी के उना पाणीथी परस्पर छांटे छे, धुए छे, सिंचे छे, स्नान करावे छे, तेवा स्थानमां बुद्धिमान् साधुने उतरवुं न कल्पे. से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणां ठिया निगिणा उल्लीणा मेहुणधम्मं विन्नर्विति रहस्सियं वा मंत मंतंति नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा ३. चेइज्जा ॥ ( सू० ९७ जे घरमा स्त्रीओ कपडा काढीने बेमर्याद पणे बेसे, अथवा संसारसंग संबंधी कइ पण छानी वात एक वीजाने रात्रि संबंधी कहे अथवा कांइपण खानगी वात अकार्य संबंधी चिंतवे, तेवा स्थानमां साधुएं निवास न करवो, कारण के त्यां रहेवाथी स्वाध्यायमां विघ्न थाय, अने चित्तमां कुवासना विगेरेना दोषो थाय छे. बळी से भिक्खु वा शे जं पुण उ० आइन्नसंलिक्खं नो पन्नस्स० ॥ ( सू० ९८ ) , ते भिक्षु एम जाणे के आ घरमां उत्तम शृंगाररसनां चित्रो छे, त्यां मझसाधुएं न उतरखुं, कारण के त्यां उतरवायी भींतोनां सूत्रमू १ ॥ ९७२ ॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO । ३08 + चित्रो जोवाथी भणवामां विघ्न याय, तथा तेवां स्त्री संबंधी चित्रो जोवाथी पूर्वे भोगवेला संसार भोगों याद आवे, तथा न भोगवेला नवा साधुने कौतुक विगेरेनो संभव थाय छे. हये फलहक विगेरे संस्तारक संबधी कहे छे: सूत्रम् . से.भिक्खू वा. अभिकंखिज्जा. संथारंग एसित्तए, से जं. संथारंग जागिजा सअंडं जांव ससंताणय, तहप्पगार मंथारं : लाभे संते नो पडि०१॥ से भिक्ख वा से जं. अप्पट जाव संताणगरुय तहप्पगारं नो प०२॥ से भिक्खू वा० ।। ॥९७३॥ अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं तह० नोप० ३॥ से भिक्खू वा० अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुअंपाडिहारियं नो अहावद्धं .. तहप्पगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण संथारगं जाणिज्जा- अप्पट जाव-संताणगं लहुअं" - पाडिहारिअं अहाबद्धं, तहप्पगारं संथारग लाभे संते पडिगाहिज्जा ५ ॥ (मू०९९) . . ते साधुने सुवा माटे पाटीउ जोइए ते संबंधी आ सूत्रमा पांचभांगा बताव्या छे. (१) जो ते पाटीयामां घुण विगेरेना किंडानां इंडा जाणवामां आवे, अर्थात ते सडेलं होय, काणां पडेलां होय, काणा पडेलां | होय तेमां 'जीवात' ना कारणे संयम विराधनाथी ते न कल्पे, (२) जो ते पाटीयु घणुं भारे होय तो वजनना लीधे उंचुं नीचुं करतां पोतानी आत्मबिराधना थायं तेथी ते पण न कल्पे (1) ते पाटीयाने प्रतिहार (गृहस्थ पार्छ राखवा तैयार) न होय तो लेवु-मुक, 8 नकल्पे, कारणके परठवतां दोष लागे, (४) सांधा बरोबर न जोड्या होय तो तेना सांधा नीकळी जवाथी पडी जवाय के अंगने नुकशान थाय. आ चारे भांगावा पाटीउ दोषित होवाथी बुद्धिमान् साधुए लेवु नहि, पण पांचमां भांगामां बतावेल तथा काणा विनानु घणुं भारे नहि, पार्छ राखवा हा पाडे, तथा पाटीयांना के लाकडाना टुकंडा जडेला होय, सांधा मजबुत कर्या होय तेवू दोष8 10664 Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R- म चिा० सुत्रमू १७४॥ ॥९७४॥ SCREEKAR 'विनानु पाटीयु मळे तो साधुए लेवू.' हवे संथाराने उद्देशीने अभिग्रहोर्नु विशेष कहे छ । . इच्चेयाइं आयतणाई उवाइक्कम-अह भिक्खू जाणिज्जा इमाई चउहि पडिमाहिं संथारगं एसित्तए, तत्थ खल इमा पढमा पढिमा-से भिक्खू वा २ उद्दिसिय २ संथारंग जाइज्जा, जहाइक्कडं वा कढिणं वा जंतुयं वा परगं वा मोरंग वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं वा पिप्पलगं वा पलालगं वा, से पुवामेव आलीइज्जा-आउसोति वा भ० दाहिसि है.. मे इत्तो अन्नयरं संथारगं? तह० संथारंग सयं वा वाणं जाइजा परोवा देज्जा फासुयं एसणिजं जाव पडि० पढमा पडिमा सू०१०० पूर्वे वतावेला घरोना दोषो तथा संथाराना दोषो दूर करीने तथा हवे पछीना पण संथाराना दोषो टाळीने संथारो लेवो. ते कहे छे ते भिक्षु एम जाणे, के आचार अभिग्रहनी प्रतिमाओ बडे संथारो शोधवानो छे, बतावे. ६ (१) उदिष्ट २ प्रेक्ष्य ३ तेना घरनोज ४ यथासंस्तृत छे. तेमां उद्दिष्टमां फलहक विगेरेमांथी कोइ पण एक लइश, पण बीजो नहि. आ प्रथम प्रतिमा छे, (२) जेवी मनमा पूर्वे धारी छे, तेवी आंखे देखीश तोज लइश पण बीजी नहि. 5 .(३) ते पण ते शय्यातरना घरमां तैयार हशे तोज लइश; पण बीजेथी लावीने सुइश नहि, (४) ते पण संस्तारक फलहक विगेरे जेवो हशे तेवोज वापरीश. आ चार प्रतिमाओमां गच्छमांथी निकळेला जिन कल्पी विगेरेने प्रथमनी चे कल्पती नथी, पाछली बेमांथी कोइपण कल्पे छे, पण स्थविर कल्पीने चारे कल्पे छे, ते सूत्र वडे बतावे छे, ॐ तेमांनी पहेलीने उद्देशी उद्देशीने इक्कड विगेरे कोइपण लड़श, तेने ते मल्या पछीथी बीजुं मळतुं होय तो प्रण ले नहि, इकड तथा SkOSREOSlessREOS257e4-0 GRECE Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा १५॥ नीचलां पाथरणां घणी शरदी (भीनाश) वाळां देशमा साधु साध्वीओने पाथरवानी आजा छे. ते इकड, कढिण (सादडी) जंतुक ने 4 | एक जातना घासनुं पाथरपुं छे, परक जेनावडे फुलो गुंथाय तेनुं बनावेलु अथवा मोरना पीछां गुंथीने बनावेल, तथा घासनु, तथा / सूत्रम् * शरना सांठगर्नु, दर्भना घासन, कूचडाना रेसान, पीपळाना पान, तथा पराळना घासर्नु होय, तेवू कोइ पण पाथरणु याचे, तेमार्नु कोइ पण पाथरपुं आपे. तो ते लेइने वापरे. ॥९७५॥ अहावरा दुच्चा पडिमा-से भिक्खू वा० पेहाए संथारगं जाइज्जा, तंजहा-गाहावई वा कम्मकरि वा से पुवामेव आलोइज्जा-आउ० भइ०! दाहिसि मे? जाव पडिगाहिज्जा, दुच्चा पडिमा २ ॥ अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा० जस्सुवस्सए संवसिज्जा जे तत्य अहासमन्नागए, तंजहा-इक्कडे इ वा जाव पलाले इ वा तस्स लाभे संबसिज्जा तस्सालाभे 'उक्कुड्डए वा नेसज्जिए वा विहरिजा तच्चा पडिमा ॥ ३ (मू० १०१) प्रथमनी प्रतिमा करता आ बीजीमां आटलं विशेष छे, के आ संस्तारक नजरे देखे, तोज मागे, ते गृहस्थ स्वयं आपे, अथवा | साधु याचना करे, अने आपे तो लइने वापरे. त्रीजी प्रतिमा-जेने त्यां उतो होय, तेना घरमांज ते, कंइ आसन मळे तो लेइने वापरे, पण जो न मळे तो ते गच्छमां ल अथवा जिनकल्पी विगेरे होय ते उत्कटुक आसने बेसीने अथवा पद्मासन (पलांठी वारीने) विगेरेथी रात्री पूरी करे अहावरा चउत्या पडिमा-से भिक्खू वा अहासंथडमेव संथारगं जाइज्जा, तंजहा-पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संबसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कडए वा.२ विहरिज्जा, चउत्था पडिमा ४ ॥ (म० १०२) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९७६॥ आ प्रतिमा-धारी साधु ज्यां उतयों होय, त्यां पत्थरनी शिला अथवा लाकडानुं सुवा योग्य पाटीडं विगेरे मळे अने गृहस्थ पासे याचतां मळे तो वापरतुं, नहि तो उत्कटुक' अथवा पलांठी वारीने रात पूरी करवी. .. इच्छेया णं चउण्हं परिमाणं अन्नयरं पडिनं पडिवज्जमाणे तं चैव जाव अन्नोऽन्नसमाहीए एवं च णं विहरति । (सू० १०३) आ चारे प्रतिमाओमांनी कोइ पण प्रतिमाने स्वीकारनारी साधु होय ते बीजी प्रतिमा स्वीकारनारने निंदे नहि, कारण के ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञाने अवलंबीने समाधिथी रहे छे. से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारंगं पच्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव संसंताणयं तप्प० संथारगं नो पच्चपिणिज्जा | ( सू० १०४ ) हवे संथारो पाछो आपवानी विधि कहे छे. मिक्षु पाछो आपवानो संथारो ज्यारे पाछो आपका चाहे न्यारे तेमां देखे के गरोळी विगेरेनां इंडांथी व्याप्त होय अने पडिलेहण करवा योग्य न होय तो ते पाछु आपे नहि. से भिक्खू० अभिकंखिज्जा सं० से ० अप्पंडं० तहपगारं० संथारगं पडिलेहिय २५० २ आयात्रिय २ विहुणिय २ 'तओ संजयामेच प्रच्चपि णिज्जा ।। ( सू० १०५ ) पछी ते अमुक वखत पछी जाणे के ते संस्थारमांनुं हुं जीव रहित थयुं छे तेवा संथारानी प्रतिलेखना करीने पुंजीने तडके 'तपावीने सेज साज. जयणाथी झाटकीने गृहस्थने पाछो आपे. वे वसतिमां वसवनी विधि कहे छे, से भिक्खू वा० समाणे वा समाणे वा गामानुगामं दृइज्जमाणे वा पुव्वामेव पन्नस्स उच्चारपासवण भूमिं पडिले हिज्जा, सूत्रम् ॥ ९७६ ॥ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAKASHess केवली व्या आयाणमेयं-अपडिलेहियाए,' उच्चारपासवणभूमीप से भिक्खू वा० राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणं आचा !'परिबेमाणे प्रयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्यं वा पायं वा जाव लूसेज्ज व पाणाणि चा ४ ववरोविज्जा, IP अह मिक्खू णं. पु० जं पुवामेव पन्नस्स उ० भूमि पडिले हिज्जा ।। (मू० १०६) ॥९७७॥ ते साधु-साध्वीए एक जग्याए.रहेतां के विहार करतां प्रथमथी स्थंडिल मात्रानी जग्या जोइ लेवी, जो दिवस छतां जोइन 8 व राखे तो केवळी प्रभु तेमां दोष बतावे छे, कारण के ते भिक्षु के साध्वी गो के विकाले तेवा स्थानमा स्थंडिल-मात्र परठबतां पग 61 खसी जतां तेना हाथ पग भांगे, अथवा इंद्रियोने नुकशान थाय अथवा अन्य माणीना माण पण ले, एटला माटे साधु-साध्वीए | प्रथमथी ठल्ला मात्रानी जग्या दिवस छतां जोइ लेवी.. से भिक्खू वा २ अभिकसिज्जा सिज्जासंथारगभूमि पडिले हित्तए नन्नत्थ आयरिएण वा उ० जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा बुट्टेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवारण वा निवाणए वा, तओ संजयामेव पडिलेहिय २ पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहुफासुयं सिज्जासंथारगं संथरिज्जा(मू १०७) ते साधुए प्रथमथी आचार्य उपाध्याय विगेरेथी गणावच्छेदक सुधीना अथवा बाळ वृद्ध नवा शिष्य, मांदा अथवा परोणानी 8. जग्या छोडी दइने छेडेनी 'जग्या अथवा मध्यमां अथवा सम के विषम (खडबचडी) जग्या होय; पवन आवे न आवे, तो पण तेमां। संतोष राखी पडिलेहणा प्रमार्जन करीने संथारो पाथरवो.' हवे शयननी विधि कहे छे. . से भिकरबू वा० बहु संथरित्ता अभिकंखिज्जा बहुफामुए सिज्जासंथारए दुहित्तए ।। से भिक्खू, बहु० दुरूडमाणे पुष्वामेव REC464 4-4 562 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ***२ ॥९७८॥ ससीसोबरियं काय पाए य पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहु० दुरूहित्ता तओ संजयामेव, बहु० सइज्जा॥ (मू० १०८) ते साधु-साध्वीए बहु पामुक (निर्दोष) जग्यामा संधारो पाथरीने तेमांज पोते यतनाथी शयन करवू पण ते साधु-साध्वी प्रथमथी ते शय्यामां सुवा पहेलां पगथी माथा सुधीनी जग्या पूंजीवी तथा पोतार्नु आलुं शरीर तथा पग प्रमार्जीने बहु संभाळीने है यतनाथी सु. हवे सुतेलानी विधि कहे छे, ॥९५ से भिक्खू वा बहु० सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्थेण हत्थं पाएण पायं कारण कायं आसाइज्जा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइज्जा ॥ से भिक्खु वा उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे.पुब्बामेव आसयं वा पोसियं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजियामेव ऊससिज्ज वा जाव वायनिसग्गं वा करेजा।। (सू० १०९) ते साधु विगेरेए पोते संथारामां सुता एक बीजा साधुने हाथ पगथी के कायाथी अडकवू नहिं. ते प्रमाने अडक्या विना सुq ( आमां सूचव्यु के साधुए बनेना हाथ न पहोंचे तेटले दूर संथारो करवो) तथा साधुए श्वासोश्वासलेतां, खांसी आवतां, 8 छींक खातां, बगासु आवतां, ओडकार आवतो अथवा वायु संचार थतां प्रथम पोताना हाथ वडे यतनाथी मोई के ते जग्याने सहेज || ढांकीने करवू ( आ सूत्रमा मोडं उघार्यु राखी बगाj खातां उडतां जंतु घुसी जवावाथी उलटी थाय, अथवा पोतानो खराव वास जोरथी नीकळतां बीजाने कलेश थाय, नीवली जग्या ढांकवानुं कारण जोरथी वा संचार थतां रोगादि कारणे कपडां खराव थतां अटके,) . हवे'समान्यथी शय्याने आश्रयी कहे छे. .. 57 Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९७९॥ से भिक्खू वा० समां वेगया सिज्जा भविज्जा विसमा वेगया सि० पवाया वे० निवाया वे० ससरक्खा वे० 'अप्पससक्खा वे० 'सदसमसंगा वेगया अप्पदंसमसगा० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा० सउवसग्गा वे० निरुत्रसग्गा वे० तहप्पगाराहि सिज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्ग हियतरागं विहारं विहरिज्जा तो किंचिवि गिलाइज्जा, एवं खलु० जं सव्वहेहिं सहिए सया जत्तिबे ( ० ११०) २-१-२-२ ॥ ते साधुने संथारा माटे कोइ वखते सरखी कोइ वखते खरचचडी कोइ वखते पवनवाळी कोइ वखते हवा विनानी कोइ वखते धूळंवाळी कोइ वखते विना धूळनी डांस मच्छरवाळी के डांस मच्छर विनानी अथवा रहेवाने उचित अथवा अनुचित उपसर्गवाळी के विना भयनी एवी विचित्र जातिनी जग्या मळे तो पण तेमां समभाव धारण करीने रहे, पण ग्लानि के दीनताभाव के अहंकार लाववो नहि. आज साधुनुं सर्वस्त्र छे, माटे तेमां जयणाथी सदाए वर्त्ते. शय्या नामनुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. ईर्यानामनुं त्रीजुं अध्ययन. बीजुं अध्ययन कहीने त्रीजुं कहे छे, तेनो जा प्रमाणे संबंध छे, प्रथम अध्ययनमां धर्म शरीरतुं पालन करवा पिंड बताव्यो,' ते पिंड आ लोक परलोकना अपायना रक्षण माटे अवश्ये वसति ( मकान ) मां वापरवो, तेथी बीजा अध्ययनमां वसतिनुं स्वरूप सूत्रम ॥९७९ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाल ॥९८०॥ ॥९८०॥ ७ बताव्यु, हवे ते पिंड.' तथा वसतिने शोधवा माटे गमन करवू, ते आ प्रमाणे करवू, आ प्रमाणे न करवू, ते अहीं बतावयानुं छे, आ संबंधे. आवेला आ. अध्ययनना चार अनुगममा नाम निक्षेपण माटे नियुक्तिकार कहे छे. ___ नाम १ ठवणाइरिया २ दब्वे ३ खित्ते ४ य काल ५ भावे ६ य । एसो खलु इरियाए निक्खेवो छव्विहो होइ ॥३०५॥ नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ अने भाव एम छ प्रकारे इर्यानो निक्षेपो छे, तेमां नाम स्थापना सुगम छोडीने द्रव्य इर्या बताववा माटे कहे छे. दव्वइरियाओ तिविहा सचित्ताचितमीसगा चेव । खितमि मि खित्ते काले कालो जहिं होइ ॥ ३०६॥ तेमां द्रव्य इर्या सचित्त अतित्त मिश्र एम त्रण भेदे छे, अर्थात् इर्या, इरण, गमन त्रणे एक अर्थमां छे, तेमां सचित्त एवो वायु अथवा पुरुष होय तेनुं गमन ते सचित्त इर्या जाणवी, एज प्रमाणे परमाणु आदि द्रव्यनुं गमन ते अचित्त गमन छे. तथा ५ मिश्र द्रव्य इर्या ते स्थादि (जेमां अचित्त रथ सचित्त बळध के माणस) नुं गमन जाणवू, क्षेत्रइर्या ते जे क्षेत्रमा गमन कराय, अथवा इर्यानं वर्णन कराय ते क्षेत्रइर्या, तेज प्रमाणे जे काळमां गमन थाय, अथवा इर्यानुं वर्णन थाय ते काळइर्या जाणवी. . हवे भाव इयां बताववा कहे छे. भावइरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य । समणस्स कहं गमणं निदोसं होइ परिसुद्धं ॥३०७ ।। भाव विषयनी इर्या बे प्रकारनी छे, चरण इर्या, अने संयम इर्या तेमां संयम इर्या १७ प्रकारर्नु संयम अनुष्ठान छे, अथवा * असंख्य संयम स्थानमा एक संयम स्थानथी बीजा संयम स्थानमा जतां संयम इर्या थाय छे, पण चरण इर्या तो "अभ्र वम्र मभ्र -RESCRECORRECRUGREGORIGANGREGIRL Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० 1186811 चर" धातुनो गति अर्थ छे, चरतिनो भाव ल्युट रुप चरण तेज रुपे इर्या ते वरण इर्या छे. अर्थात् चरणनो अर्थ गति अथवा गमन वे. अने ते श्रमणनुं चरण कया प्रकारे भावरूप (निर्दोष) गमन थाय ? ते कड़े छे. 11 आलंबणे यं काले मग्गे जयणाइ चेव परिमुद्धं । भंगेहिं सोलसविहं जं परिमुद्धं पसत्थं तु ।। ३०८ ॥ प्रवचन संघ गच्छ आचार्य विगेरेना माटे प्रयोजन आवतां साधु गमन करे, ते आलंबन छे, तथा साधुने विहरण योग्य अवसर छे, ते काळ छे, तथा जनो (माणसो) ए पगवडे खुंदेला मार्गे यतना ते युगमात्र दृष्टि राखत्री तेज आलंबन काळमार्ग यतनानां पदोवड़े एकेक पद व्यभिचारथी जे भंगो थाय ते प्रमाणे गणतां १६ भांगा थाय, तेमां जे परिशुद्ध होय तेज प्रशस्त छे, अने हवे ते बतावे छे. कारण परिसृद्धं अहवावि (हु) होज्ज कारणज्जाए । आलंबणजयणाए काले मग्गे य जश्यव्वं ।। ३०९ ।। चार कारणोए साधुनुं गमन शुद्ध थाय छे, आलंबन वडे दिवसे मार्गवडे यतनाथी जाय | विगेरेना आलंबने यतनाथी जतां शुद्ध गमन होय छे, अने आवे मार्गे साधुए यत्न करवो, नामनिष्पन्न निक्षेपो कह्यो, हवे उद्देश अर्थाधिकारने आश्रयी कहे छे, अथवा अकालमां पण ग्लान सव्वेवि ईरिय विसोहि कारगा तहवि अत्थि उ विसेसो । उद्देसे उसे वृच्छामि जहकमं किंचि ॥ ३१० ।। आणे.पण जो के इर्या विशुद्धकारक छे, तो पण त्रणे उद्देशामां कांइक विशेष छे, ते दरेकने यथाक्रमे किंचित् | कही हवे प्रतिज्ञा प्रमाणे कहे छे.. सर्वे सूत्रम् ॥ ९८९ ॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमू २-२२-CA ॥९८२॥ पढमे उवागमण निग्गमो य अद्धाण नावजयणा या विइए आरूढ छलणं जंघासंतार पुच्छा य ॥ ३११ ॥ आचा० . पहेला उद्देशामां वर्पाकाळ विगेरेमा उपागमन ते स्थान लेवु, तथा निर्गम ते शरत्काळ विगेरेमा विहार जेगो होय, तेवो अत्रे " कहेवाय छे, अने यतनाथी मार्गमां चालवू आ त्रणे वातो पहेला उद्देशामा छे, बीजा उद्देशामां नाव विगेरेमा चडनारनु छलन ॥९८२॥ २ (प्रक्षेपण) वर्णवशे, अने जघासंतार पाणीमां यतना राखवी, तथा जुदा जुदा प्रश्नमां साधुए शुं काई ते अहीं कहे छे, तइयमि अदायणया अप्पडिबंधो य होइ उवहिमि । बजे यव्वं च सया संसारियरायगिहगमणं ।। ३१२ ।। * त्रीजा उद्देशमां जो कोइ पाणी वगेरे संबंधी पूछे, ते जाणतो होय छतां न जाणवापणुं बतावq ते अधिकार छे, तथा उपाधिमां 2 अप्रतिबंधपणुं राख, ते कदाच चोराइ जाय तो पण स्वजन पासे अथवा राजग्रहमां फरीयाद करवा न जवं, हवे सूत्रानुगममा ॐ अस्खलित विगेरे गुणोवाळ सूत्र उच्चार ते आ प्रमाणे छे. अब्भुवगए खलु वासघासे अभिपवुट्टे बहवे पणा अभिसंभूया बहवे बीया अहुणाभिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अभिकता पंथा नो विन्नाया मग्गा सेवं नच्चा नो गामणुंगामं दुइजि ज्जा, तओ संजयामेव वासावासं उचलिइज्जा ॥ (मू०१११) मुख्यत्वे वर्षारुतु आवे छते अने वरसाद वरसे छते साधुए शुं करवू, ते कहे छे. अहीं वर्षाकाळ अने दृष्टि आश्रयी चार भांगा * थाय छे, तेमां साधुओने आज समाचारी छे. एटले निर्व्याघात ते अषाढ चोमासु आव्या पहेलांज घास, फलक, डगल, भस्म |¥ मात्रकादिनो परिग्रह करवो, अर्थात् चोमासु बेसतां पहेलां पण वारे वरसाद पडतां घगां नाना प्राणीओ इंद्रगोपक बीयावक गर्द Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० रे (संभूछिम जंतुओ) उत्पन्न थाय छे, तथा घणा नवा घासना अंकुरा प्रकट थाय छे. तेथी तेवे मार्गे जतां ते पाणीओ वासना अंकुराथी ते करोळीयाना समूह.सुधी मार्गमा पथरायेला होय, तेथी रस्तो शोधमो मुश्केले पढे. तेथी ते जीवोना सूत्रम् रक्षण माटे एक गामथी बीजे गाम न जाय, तेथी संयत (साधु) पोतेज समय जोइने अवसर आवतां चोमा करी ले. ( आने माटे कल्पमूत्रमा खुलासो करे छे के अपाड चोमासा पहेलां बरसाद आवी जाय तो एक मास प्रथमथी पण चोमासु करे, पण असाडमां तो अवश्ये स्थिरता करवी) हवे अपवाद मार्ग कहे छे. से भिक्खू वा० सेज गामं वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय नो महई विहारभूमी नो महई वियारभूमी नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे जत्य बहवे समण० वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं गाम वा नगरं वा जाव रायहाणि वा नो वासावासं उवल्लिइज्जा ॥ भि० से जं गाम वा जाव राय० इमंसि खलु गामंसि वा जाव महई विहारभूमी महई वियार० सुलभे जत्थ पीढ ४ सुलभे फा० नो जत्थ बहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जाव रायहाणि वा तओ संजयामेव वासावासं उवलिज्जा ।। (मू० ५१२) ते भिक्षु तेवी राजधानी विगेरे कोइपण स्थानमां आव्या, पछी एम जाणे के विहार (स्वाध्याय) भूमी तथा विचार (स्थंडिल) चित्त मळे तेवी नथी, तथा साधुने योग्य पीठ फलक शया संथारो विगेरे चोमासामा खास वापरवा योग्य उपकरणो के ॐ वस्तुओ मळवी दुर्लभ छे, तथा प्रामुक गोचरी मळवी दुर्लभ छे, तथा एपणीय आहार न मळे, तेज कहे छे-एटले साधुने उद्गम 81 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRORECRC ९८४॥ POREIALOGH040640FOTORE**ORE दोपरहित गोचरी लेवानी.छे, ते न मळे, तथा ते नगर विगेरेमां घणा श्रमण, ब्राह्मणो, कृपण, वणीमग विगेरे आवीने | भरायेला छे, अने वीजा आववाना छे, तेथी, घणा मागण भरावाथी आकीर्ण वृत्ति छे, एटले भिक्षा माटे अटन तथा स्वाध्याय सूत्रम् ध्यान करवा बहा जतां आवतां ते घणां भिक्षुक माणसोना भरावाथी ते गाम विगेरे संकोचायेल छे, त्यां जैनसाधुने जQ आवq तथा धर्म चितवन विगेरे क्रिया उपद्रव रहित न थाय. जो आवी अगवडो होय, तो तेवा क्षेत्रमा चोमासुं न करे, पण जो उपर || ॥९८४॥ टू बतावेली अगवडो न होय एटले भणवानी अने स्थंडिलनी जग्या होय, उचित उपकरण मळतां होय, पिंड शुद्ध मळतो होय, अन्य र भिक्षुको सामान्य प्रमाणमा होय, जतां आवतां घणो समय न लागतो होय, तो. त्यां चोमासुं करवू. हवे. वर्षाकाळ पुरो थये क्यारे विहार न करवो ते कहे छे. अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्वंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव ससंताणगा नो जत्थ बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नचा नो गामणुगामं दूइजिज्जा । अह पुणेवं जाणिज्जा चत्तारि मासा० कप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव.ससंताणगा बहवे जत्थ समण० उवागमिस्संति सेवं नचा - तओ संजयामेव० दुइजिज्ज ॥ (सू० ११३) . हवे आ प्रमाणे साधुओ जाणे, के चोमासा संबंधी, चारमास पूरा थाय छे, अर्थात् कार्तिकी चोमासुं पूरु थयुं छे, त्यां जो * उत्सर्गथी वृष्टि न होय, तो एक मेज बीजे स्थळे जइने पारणुं करवू, पण जो दृष्टि चालु होय तो हेमंत रुतुना पांच-दस दीवस गये। यके विहार करवो, तेमां पण जो बीजे गाम जतां मार्गमां नानां जंतुनां इंडां पड्यां होय, गारो होय, करोळीयाना जाळां बाझी -CRACTERS Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० CROSAGACCA ॥९८५॥ 18/॥९८५॥ गयेलां होय, अने ब्राह्मण श्रमण विगेरे मागण न आवेला होय, अथवा थोडा बखतमा आववाना न होय तो मागसर शुद १५8| सुधी त्यां रहेQ. त्यारपछी गमे तेम होय तोपण 'त्यां रहेवु नहि, पण जो दृष्टि न होय, कादव न होय, मार्ग इंडां विनानो होय, सूत्रम् श्रमण ब्राह्मण आव्या होय, आववाना होय, तो कार्तिको पुर्णिमा पछी तुर्त विहार करवो. हवे मार्गनी यतना कहे छे से भिक्खू वा० गामणुगाम दुइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दहण तसे पाणे उद्धट्ट पादं रीइज्जा साह पायं रीइज्जावितिरिच्छे वा कट्ट पायं रीइजा, सई परकमे संजयामेव परिकमिज्जा नो उज्जुयं गच्छि जा, तओ संजियामेव गामणुगाम दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा बी० हरि० उदए वा मट्टिा वा अविद्वत्थे सइ परकप्रे-जावं नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजया० गामा० दृइन्जिज्जा ॥ (मू० ११४) . ते भिक्षु बीजे गाम जतां मोढा आगळ युगमात्र (चार हाथ प्रमाण) गाडाना उद्धिं (घसारा) ना आझारे भूभाग (जमीन)। देखतो चाले, त्यां मार्गमां त्रस जीवो जे पतंग विगेरे छे, ते पगने अडकीने नीकळे, अथवा पगना तळीयां नीचे अडकीने नीकळे तो ते जीवोनी रक्षा खातर शरीरमा शक्ति 'होय त्यां सुधी वीजे मार्गे जर्बु, पण बीजो रस्तों के जवानी शक्ति न होय, तो ते रस्ते जतां| ज्यारे तेवां जंतुओ पग पासे आवे त्यारे ते त्यां पग संभाळीने मुकवो के ते चगदाइ न जाय, एटले ज्यारे सामे आवे त्यारे तेने & पग पग.साथे अथडावा देवां नहीं, पण जो पग नीचे दबाइ जायं तेम होयतो नीचे देखीने ते जग्याए पग न मुकवा, अथवा पगनी | एडी मुकीने चालवू, अथवा पग वांको करीने चालवू, आंप्रमाणे एक गामथी बीजे गाम जीव जंतुनी रक्षा करतां जq. वळी साधुने एक गामथी बीजे गाम जतां मार्गमां नाना जीव जंतु वीज हरियाणी (लीळं घास) पाणी, माटी अथवा रस्तो| - K Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥९८६॥ torreARGEORGROGRADERS न पड्यो होय, तो तेवा सीधा मार्गे न जवू, पर्ण जीव-जंतु विनोना तथा कादव माटी पाणी विनाना मार्गे चक्रावो खाइने ज्यांथी लोको जतां होय तेवा रस्ते साधुए जवु, पण वीजो रस्तो न होय, अथवा जवानी शक्ति न होय, तो ते मार्गे यतनाथी चालवू. वळी से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा से विरूबरूवाणि पचंतिगाणि दसुगाययाणि मिलक्खूणि अणायरियाणि दुसनप्पाणि दुप्पन्नवणिज्जाणि अकालालपडिवोहीणि अकालपरि भोईणि सह लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारवडियाए पवज्जिज्जा गमणाए, केवलो व्या आयाणमेय, तेणं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अय ततो आगएतिकहूं तं भिक्खु अकोसिज्ज वा जाव उद्दविज वा वत्यं प० कं० पाय० अच्छिदिज्ज वा भिंदिज्ज अवहरिज्ज वाप रिहविज्ज वा, अह भिक्खूणं पु० ज तहप्पगाराई विरू० पञ्चंतियाणि दस्तुगा. जाव विहारवत्तियाए नो पवज्जिज्ज वा गमणाए तओ संजया गा० दू० ।। (मू० ११५) ते भिक्षने बीजे गाम जतां एम मालुम पडे, के आ मार्ग जतां वचमां विरुप रुपवाळा महादुष्ट एवा चोरोनां स्थान छे. तथा बर्वर शबर पुलिंद विगेरे म्लेच्छथी प्रधान एवा अनार्य लोको जे गंगा सिंधुनी वचमाना २५॥ आर्य देश छोडीने बोजा देशोमां रहेला छे, तेओ दुःखेथी आर्योनी संज्ञा समजे छे, तथा महा कष्टी आर्य धर्मने समजे अने अनार्य संकल्पने छोडे, तथा 1 अकाळमां पण भटकनारा छे. कारणके अडयोर.त्रे पण शिकार विगेरे माटे जाय छे, तथा अकाले (वखत विना) भोजन करनारा # छे, माटे ज्यां सुधी बीजा देशोना सारां गामो विचरवाना होय त्यां सुधी तेवा अनार्य देशोना क्षेत्रमा हुँ जइश, एवी प्रतिज्ञा साधुए न करवी, (अर्थात् त्यां जq नहि ) त्यां जवाथी केवलीप्रभु तेमां दोष बतावे छे, कारण के त्यो जवाथी संयमनी विराधना थाय, Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६॥९८७॥ छे, तथा त्यां आत्मानी विराधनामां संयमनी विराधना पण थाय छे, ते वतावे छे, ते म्लेच्छ विगेरे अनार्यों आ प्रमाणे बोले छे, 18 आचा०६" आ चोर छे ! आ शत्रुओं चर तेना गामथी आवेलो दूत छे ! एम कहीने वचनथी तिरस्कार करे, दंडनी ताडना करे, अने छेबटे है। सूत्रम् * जीव पण ले, तथा वस्रो विगेरे पण खंचवी ले, पछी साधुने काढी मुके, माटे साधुओने आ शीखामण छे, के तेमणे तेवा मार्गे | ॥९८७॥ जवु नहि, पण तेवा मार्गने छोडीने संयत सारे मार्गे विहार करी ने बीजे गाम जाय. से भिक्खू० दुइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दोरजाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा सइ लाढे विहाराए संथ० जण नो विहारवडियाए० केवली व्या आयाणमेयं, तेणं वाला तं चेव जाव गमणाए तओ सं० गा० दृ०॥ (मू० ११६) ते भिक्षुने विहार करता एम मालुम पडे के ते मार्ग राजा मरीगयो छे, सामंतोए राज्य ते वर्डची लीधु , अथवा युवराजने * गादी मळी नथी, वे राज्य धयां होय, वैर वध्यां होय, विरुद्ध (शत्रु) गजानुं जोर होय, तो तेवा लडाइ तोफाननां उपद्रववाळा मार्गे बीजो सारो देश अथवा गामो विचरवानां होय तो तेवा मार्गे विहार न करवो, केवळीप्रभु तेमां कर्मादान बतावे छे, त्यां। ४ जतां ते विरुद्ध पक्षना माणसो ते साधुने चोर के जासुस मानीने पूर्वना मूत्रमा कह्या मुजब पीडा पमाडशे, उपद्रव करशे अथवा | है जीवथी पण हणशे, कपडां खुचवी बुरा हाले काढी मुकशे, माटे तेवा मार्गे न जवू, से भिक्खू वा गा. दुइज्जमाणे अंतरा से विह सिया, से जं पूण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज्ज वा नो पाउणिज्ज वा तहप्पगार विह अणेगाहगमणिज्ज सइ लाढे जाव गमणाए, Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1960% आचा० ॥९८८॥ RECRECCESS केवली व्या आयाणमेयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु पणएसु वा बीएसु वा हरि० उद० मट्टियाए वा अविद्धत्थाए, अह भिक्खू जं तह० अणेगाह० जाव नो पव० तओ सं० गा० दृ० ॥ (मू० ११७) ते भिक्षु ग्रामांतर जतां एम जाणे के ते मार्गमां जतां मेदान उलंघवामा केटलाक दिवसो लागशे, एटले एक आखो दिवस 15 सूत्रम् अथवा बेत्रण चार पांच दिवसे ते मार्ग उलंघासे, तेवा मार्गे बीजो टुंको मार्ग मळनो होय तो तेवा उजड रस्ते जवू नहि. कार- ॥९८८॥ णके तेवा मार्गे जतां केवळी ज्ञानीए अनेक दोषो बताव्या छे, जेमके वखते वरसाद आवे, तो पागी भराइ जाय, लोलग फूलण इथ जाय, लीलाघासनां बीज अंकुरा फुटी नीकळे, रस्तो कादवथी (गाराथी) भराइ जाय, मार्ग सूझे नहि, माटे तेवा अनेक दिवसना मेदानवाळा मार्ग जवु नहि. हवे नावने आश्रयी कहे छे से भि० वा गामा० दुइज्जिज्जा. अंतरा से नावासंतारिमे उदए सिया, से जं पृण नावं जाणिज्जा असंजए अभिक्खुपर्टियाए किणिज्ज वा पामिच्चेज वा नावाए वा नावं परिणाम कटु थालाओ वा नावं जलंसि ओगाहिज्जा जलाओ वा नावं थलंसि उक्कसिज्जा पुण्णं वां नावं उस्तिचिज्जा सन्नं वा नावं उप्पीलाविज्जा तहप्पगारं नावं उगामिणि वा अहेगा. तिरियगामि० परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए अप्पतरे वा भुज्जतरे वा नो दूरुहिज्जा गमणाए ॥ से भिक्खू वा० पुवामेव तिरिच्छसंपाइमं नावं जाणिज्जा, जाणित्ता से तमयाए एगंतमवक्कमिज्जा २ भण्डग पडिलेहिज्जा २ एगओ भोयणभंडगं करिज्जा २ ससीसोवरीय कार्य पाए पमजिजा सागारं भत्तं पञ्चाक्खइज्जा, एग पाय जले किचा एगं पायं घले किच्चा तओ सं० नावं दूहिज्जा ॥ (सू० ११८) ACESCRCESTEGORY * Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAUSUCCA ते मिक्षु ग्रामान्तर जतां मार्गमां एमजाणे के आ वचमा आवेली नदी नाव विना उतराय तेम नथी तो नाव संबंधी तपास आचार संपास करे के गृहस्थ खास भिक्षुक माटें नाव खरीद करे अथवा उछीती ले, अथवा अदलो बदलो करे, अथवा स्थळथी जळमां के है सत्रम IP जळथी स्थळमा लावे, भरेला वहाणने खाली करे, अथवा हुंची गयुं. होय, तो . साधु माटेज बहार कढावे, तेवी नावने उंचे लइ ।९८९॥ जवा नीचे लइ जवा अथवा तीरछी दिशामा अथवा कोइपण दिशामां लइ जवी पडे तो एक जोजन मर्यादा माटे अदधा जोजन ॥९८९॥ है (बे गाउ) माटे अथवा थोडे धणे दूर जवा माटे,साधुएं तेवी नावमा बेसवु नहि, पण साधु एम जाणे के नाव तेना मालिके पोतान 12 प्रयोजनने तीरछी दिशामां हंकारी छे, तो ते वहाणमा जतां पहेलां पोताना उपकरणोने एकांतमा जइने पडिलेहवां गोचरीनां 8 पात्रां तपासी लेवां तथा पोताना शरीरने पगथी माथा सुधी पुंजवू, तथा सागारी अणसण करवु ( एटले आ जळथी बहार नीकडं तो मने आहार पाणी वापर, कल्पे, नहितो नहि.) पछी एक पग जळमां एक पग यळमां (पाणीनी उपर) मुकी साधुए नाव * उपर चढवू (आ मूत्रमा साधु माटे जो नाव पेलेपार लइ जाय तो बने त्यांसुधी तेवी नावमा न बेसवं. पण गृहस्थोने माटे जवा आववा माटे नाव चालु थइ होय तेमां बेस ) हवे कारण पडे नावमा बेसबुं पडे तो नावमां चढवानी विधि कहे छे.' से भिक्खू वा० नावं दुरुहमाणे नो नावाओ पुरओ दुरुहिज्जा नो नावाओ मग्गओ दुरुहिज्जा नो नावाआ मज्झओ दुरूहिज्जा नो बाहओ पगिझिय २ अंगुलियाए, उदिसिय २ ओणमिय २ उन्नमिय २ निझाइज्जा । से णं परो नावागओ नावागयं वइज्जा-आउसंतो! समणा एयं ता तुम नावं उक्कसाहिज्जा वा वुक्कसाहि वा खिवाहि वा रज्जूयाए वा गहाय आकासाहि, नो से.तं परिनं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ.उवेडिज्जा । सेणं परो नावागओ नावाग० वइ०-उसंनो Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 004- आचा० ॥९९०॥ SROCESCRROSCHECAUSESCAR संचाएसि तुभं नावं उकसित्तए वा ३ रज्जूयाए वा गहाय आकसितए वा आहार एयं नावाए रज्जूयं संयं चेवणं वयं नावं उकसिस्सामो वा जाव रज्जूए वा गहाय आकासिस्सामो, नो से तं प० तुसि० । से णं प० आउसं० एअं ता तुम नावं आलित्तेण वा पीढएण वा वसेण वा बलएण वा अवलुएण वा वाएहि, नो से तं प० तुसि० । सेणं परो एयं ता तुम नावाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मत्तेण वा पडिग्गहेण वा नावास्तिवणेण वा उस्सिचाहि नो से तं से णं परो० समणा ! एयं तुमं नावाए उत्तिंग हत्थेण वा पाएंण वा बाहुणा वा अरुणा वा उदरेण वा सीसेग वा काएण वा उस्सिचणेण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविंदएण वा पिहेहि, नो से तं० ॥ से भिक्खू वा २ नावाए . उत्तिंगेण उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि नावं कज्जलावेमाणिं पेहाए नो परं उपसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो! गहाबइ एयं ते नावाए उदयं उत्तिगण आसवइ उवरुवरि नावा वा कजलावेइ, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कटु विहरिज्जा अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे एगंतगएण अप्पाणं विउसेज्जा समाहीए, तओ सं० नावासंतारिमे व्यउदए आहारियं रीइज्जा, एयं खलु सया जइज्जासि तिबेमि ।। इरियाए पढमो उद्देशो (सू० ११९) २-१-३-१॥ ते साधुए नावमां बेसतां नावना अग्र भागे बेसवु नहि, कारण के तेथी निर्यामक (खलासी) ने पोताना कार्यमां हरकत थाय: 15 | तथा बीजा लोकोने चडवा पहेला पोते चढी न बेसे; कारण के वहाणने चालववाना अधिकरणनो दोप लागे, तेम नावना बरोबर मध्य भागमा चडी न बेसे, तेम वहाणनां (पडखां) पकडीने आंगळीओवडे ताकी ताकीने उंचा नीचा थइने जोवू नहि. नावमा चढेला साधुने नाववाळो कहे, के हे साधुओ! आ नावने तमे खेंचो, आ दिशा तरफ वळी, अमुक वस्तु दरियामां 06-OROSCOSUGASCESSORIES पडेलां पोते चढी न बेसे; कारण ताकी ताकीने उंचा नीचा थइन नाह. दरियामा Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम AAR फेंको, अथवा दोरडेथी पकळ ने खेचो, ते प्रमाणे कहे तोपण साधुए तेम न करवू, पण चूप बेसी रहे. आचा० बळी ते नाविक साधुने कहे, के हे साधुओ ! जो तमे नाव न खेंची शको, के समान न फेंकी शको, तो दोरहूं लावीने 5 अमने आपो, एटले दोरडं हाथमां आवतां अमे नावने खेंचीy, ते वचन पण मुनिए स्वीकार नहि, पण चूप रहे. ॥९९१॥ ते नावमा चडेला साधुने नाविक कहे के हे साधु ! तमे नावने आलित्त बढे पीढ हलेसांवडे वांसवडे वळावडे अवल्लकवडे 18| ॥९९१॥ * आगळ चलावो, ते वात पण साधुए स्वीकारवी नहि, पण चूप बेसी रहेg. ते नावमा चडेला साधुने नाविक एम कहे, के-आ नावमां भराएला पाणीने हाथवडे पगवडे वासणथी के पांतरांथी अथवा नावना हथीआरथी काढी नांखो, पण ते साधुए करवं नहि, पण मौन धारण करीने बेसवु. 6 ते नावमां बेठेला साधुने नाविक कहे, के हे साधुओ! तमे नावमा पढेला नांणाने हाथ, पग, बाहु, जांघ, उरु, पेट, Pमाथा के कायावडे अथवा वहाणमां रहेला उस्सिंचणवडे अथवा वस्त्र, माटी, कमळपत्र के कुरुविंद नामना घासवडे ढांकी, पण. ते स्वीकारवु नहि, मौन बेसी रहे ते भिक्षुए अथवा साध्वीए नावमां छिद्र पडतां पाणी भरातुं देखीने-उपर उपर नावमां पाणी चडतुं देखीने वीजा माणसोने एम कहेवू नहि के हे गृहस्थ ! आ वहाणमां पाणी भराय छे, अने नाव डुवी जशे, आ प्रमाणे मनथी अने वचनथी संकल्प-विकल्प न करतां वरडा न पाडतां शांत रहे, शरीर उपकरणनी उत्सुक्ता तथा बहारनुं ध्यान छोडीने एकांतमा आत्माने समाधिमा राखवो, अने जे प्रमाणे नाव पाणीमां चाले तेम चालवा देइ किनारे पहोंचवू, आ प्रमाणे सदा यत्न Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥९९२॥ CAASAREER RA करतो अर्थात् नावना उपर ध्यान न राखतां आत्ममसाधिए वर्तव॑ आज भिक्षुनी सर्व सामग्री छे. बोजा अध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बीजो उद्देशो. पहेलो उद्देशो कहीने हवे बीजो उदेशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां नावमां बेठेला साधुनी विधि कहो, है अहीं पण तेज कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानु आ प्रथम सूत्र छे. से णं परो णावा. आउसंतो ! संमणा एवं ता तुमं छत्तगं वा जाव चम्मयणगं वा गिण्हादि, एयाणि तुम विरूवरूवाणि सत्यजायाणि धारेदि एयं ता तुमं दारगं वा पज्जेहि, नो से तं०॥ (मू०१२०) ते नावमां बेठेला साधुने नाविक विगेरे गृहस्थ कहे; के तमे मारा छत्रने पकडो, अथवा चामडं छेदवानुं हथीआर अथवा बीजा। हथीआर पकडो, अथक् आ मारा वाळकने पाणी पीवडावो; आवी प्रार्थना नाविक विगेरे करे तो तें स्वीकारवी नहि, पण मौन रहे, उपर प्रमाणे नाविकनुं कहेवू न करवाथी ते क्रोधी थइने साधुने नावमाथी फेंकी दे तो शुं करवू ते कहे छे:से णं परो नावागए नावगयं वएज्जा-आउसंतो! एस णं समणे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाहाए गहाय नावाओ . उदगंसि पक्खिविज्जा, एयणारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उज्वेदिज्जा का निवे, लज्ज का उप्फेस वा करीज्जा; अह. अभिकत रकम्मा खलु वाला बाहाहि गहाय, ना० पक्खिविज्जा से पुब्बामेव वइज्जा ।' GREEGAODOGGEOGANGRAPHOREOG Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAM 5 .. 'आउसंतो! गाहावईमा मत्तो बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवह, सयं चेवणं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिआचा सामि, से वं वयंत परो सहसा बलसा वाहाहिं ग पक्खिविज्जातं नो मुमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उच्चावयं सुत्रम् - मणं नियंछिज्जा नो तेसिं चालणं घायाए वहाए सद्विज्जा, अप्पुस्तुए जाव समाहीए तो सं० उदगंसि 18 परिज्जा ॥ (मू० १२१). ॥९९३॥ ते साधुने उद्देशीने नाविक वीजा माणसोने कहे, के आ साधु काम कर्या विना बहाणमा मात्र भांड अथवा उपकरणवरे बीजा रुप घेठो छे, माटे तेने बाहुथी पकडीने नदीमां फेंकी दो, आ प्रमाणे तेमनी पासे सांभळे, अथवा वीजा पासेथी ते वात || जाणीने जिनकल्पी के स्थवीरकल्पी मुनि होय, तेमां स्थविरकल्पी मुनिए तुर्त पोतानी पासे बोजाबाळां नकामां कपडां उतारीने जरुर जोगां हलकां वस्त्र उपधि विगेरेने शरीरे वींटी लेवां, अथवा माथे, बांधी लेवां, आ प्रमाणे उपकरण वींटी लीधेलो साधु निर्व्याकुलताथी सुखे पाणीमां तरे छे, पछी तैयार थइ तेमने धर्मोपदेश आपे, साधुनो आचार समजावे, छतां एम नक्की जाणे के आ दुष्टो मने बाहुथी पकडीने पाणीमां नांखवानांज छे, तो नांखे ते पहेलां मुनिए कहेवू के तमारे गने बाहुथी पकडीने पाणीमां नांखवानी जरूर नथी.हुँ जातेज पाणीमां अंपला, छं आq बोलवा छतां पण ते दुष्टो बाहुधी पकडीने साधुने पाणीमां नाखी दे, तो मुनिए मनमां रागद्वेष न करवो, तथा दीनता के संकल्प-विकल्प पण न करवा, तेम तेमने मारवा के दुःख देवा तैयार न Hथवं, पण उत्सुकता रहित. पाणीमां पडq. हवे उदकमां पडेलानी विधि कहे छे. से मिक्खू वा० उदगंसि पत्रामाणे नो हत्थेण हत्यं पाएण पायं कारण कार्य इना, से अणासायणाए आणासाय ROSURRORIES +16+%C4%+SACROCCA Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० +RASA- ॥९९४॥ AT-C40- माणे तओ सं० उदगंसि पविज्जा ।। से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिज्जा, मामेयं उदगं कन्नेसु वा अच्छीसु वा नक्कसि वा मुहंसि वा परियाव जिजा, तो० संजयामेव उदगंसि पविजा ॥ से भिक्खू वा उदगंसि. पवमाणे दुबलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विगिचिज्ज वा विसोहिज्ज वा, ना चेव णं साइज्जिज्जा, अह । सूत्रम् ... पु० पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तो संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणरेण वा कारण उदगतीरे चिहिज्जा ।। ॥९९४॥ 8. से भिक्खु वा० उदउल्लं वा २ कायं नो आमज्जिज्जा वा णो पमज्जिज्जा वा संलिहिज्जा वा निलिहिज्जा वा उबलिज्जा वा उवट्टिजा वा आयाविज्ज वा पया०, अह पु० विगओदओ मे काए छिन्नसिणेहे काए तहप्पगारं कायं आमज्जिज्ज वा पयाविज्ज वा तओ सं० गामा० दुइज्जिाज्जा ।। (मू० १२२) ते मुनिए पाणीमां पड्या पछी हाथ साथे हाथ, पग साथे पग के शरीरवडे कोइ पण भागमां अपकाय विगेरेनी रक्षा माटे स्पर्श फरवो नहि, तथा पाणीमां तणातां डुबकीओ मारवी नहि, कारण के डुबकी न मारवाथी कान आंख नाक मोढा विगेरेमां पाणी न भराय तेम पोते डुबी जाय नहि, पण ज्यारे पोताने डुबवा वखत आवे अने थाकी गयो होय, तो उपाधिनो मोह छाडी देवो, अथवा भारवाळी उपाधि छोडी देवी, पछी पोते जाणे के हुँ किनारे जवा समर्थ छु, त्यारे किनारे नीकळी आवे, अने पाणी टपकता शरीरे कीनारा उपर उभो रहे, अने इर्यावही पडिक्कमे. # पण ते मुनिए भिना शरीरने पाणी रहित करवा आमळवू घसवु दाबवु छांटq के तपाबवु नहि, पण पाणीने पोतानी मेळे | नीतरवा दे, पण ज्यारे जाणे के पाणी नीतरी गयुं छे, भीनाश ओछी थइ गइ छे, त्यारपछी कायाने शरदी. रहित करवा तडके S-MOLASSESSURESOURC 45 Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mo ९५॥ तपाववी, अने त्यां सुधी किनारेज उभा रहेवुं, अने शरीर सुकाया पछीज बीजा गाम तरफ विहार करवो, पण त्यां उभो रहेवाथी चोरनो भय लागतो होय तो तुर्त कायाने स्पर्श कर्या विनाज हाथ लांबा राखी गाम तरफ चाल्या जनुं. से भिक्खू वा गामनुंगामं दूइज्जमाणे नो परेहिं सद्धिं परिजविय २ गामा० दुइ०, तभ० सं० गामा० दुइ० || (सू० १२३) सुनिए विहार करतां मळेला गृहस्थो साथै बहु बकबकाट करता जनुं नहि, पण शांतिधी चालवुं, हवे जंघा सुधीना पाणीमां उतरवानी विधि कहे छे. से भिक्खु वा गामा० दृ० अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुव्वामेव ससीसोवरियं कार्य पाए य पमज्जिज्जा २ एग पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा तथ सं० उदगंसि आदारियं रीएजा ॥ से मि० आहारियं रीयमाणे नो हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणे तत्र संजयामेव जंघासंतारिमे उदए आहरियं रीइज्जा | से मिक्खू वा जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीयमाणे नो साथावडियाए नो परिदाहपडियाए महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, तभ संजियामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तभ संजयामेव उदउल्लेण वा २ कारण दगतीरए चिट्टिज्जा ।। से भि० उदउलं वा कार्य ससि० कार्य नो आमज्जिज्ज वा नो० अह पु० विगओदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं कार्य आमज्जिज्ज वा० पायविज्ज वा तओ सं० गामा० दुइ० साधु विहार करी बीजे गाम जतां मार्गमां जांघ दुबे तेटलु पाणी होय. तो उपरनुं शरीर मुहुपत्तिथी तथा नाभी निचेनुं अदधुं शरीर ओघाथी पुंजीने पाणीमां प्रवेश करे, अने पाणीमा पेठा पछी एक जलमां मुकावो, बीजो पग उंचो करीने जनुं, पण सूत्रम् ॥ ९९५ ॥ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपकायनी रक्षा माटे लगा छाती सुधीना पाणीमां जो उपकरण सहित 18.के. पग बहे पाणी डोळतो जq नहि, पण जयणाथी पाणी उतरवू, जेम सरलताथी जवाय तेम जाय, पण विकार करतो आम तेम जोतो न चाले.' आचा० ते भिक्षु जंघासुधीना पाणीमां उतरी जतां हाथ साथे हाथ पग साथे पग विगेरे, अपकायनी रक्षा माटे लगाडवां नहि, तेज ४ सुत्रम् ॥९९६॥ प्रमाणे सुख मेळववा दाह मटाडवा. उंडापाणीमां-छाती सुधीना पाणीमां उतरवू नहि, फकत जंघा सुधीना पाणीमांज उतरवं, पण ॥९९६॥ पाणीमां उतर्या पछी उपकरण सहित चालवा पोताने असमर्थ जुए अने डुबवानो वखत आवे तो बोजावाळा उपकरण त्यजी देवा. हैपण शक्तिवान होय तो उपकरण सहित उतरे, पछी किनारे जइने इर्यावहि करी पाणी नीतरी गया पछी कायानी भीनाश ओछी थाय पछी शरीर तपावीने विहार करे. हवे पणीमांथी नीकळ्या पछीनी गमन विधि कहे छे. से भिक्खू वा. गामा० दुइज्जमाणे नो.मट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिदिय २ विकुन्जिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण हरियवहाए गच्छिज्जा, जमेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु, माइहाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुवामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहिज्जा तओ० सं० गामा० ।। से भिक्खू वा २ गामणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फ.पा. तो० अ० अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सइ परकमे संजयामेव परिकमिज्जा नो उज्जु०, केवली, से तत्थ परकममाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ रुक्खाणि वा.गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा . 6 बल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरिजा, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छति ते पाणी । जाइज्जा २, तओ सं० अवलंबीय.२ उत्तरिज्जा तओ सं० गामा० दू० ।। से भिक्खू वा० गा० दुइज्जमाणे अंतरा से :२६%२०७२-७२७२७ 115445 Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A SROGRESC जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा मवकाणि वा परचक्काणि वा से णं वा विरूवरूवं सनिरुद्धं पेहाए सइ परकमे सं० नो० उ० से णं परो सणागओ वइज्जा आउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, से णं बाहाहे गहाए सूत्रम् - आगसह, से णं परो बाहादि गहाय आगसिज्जा, तं नो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ० सं० गामा० दुइ० ॥ (मू० १२५) ते भिक्षु नदीना पाणीमांधी नीकळेलो होय, ते वखते जो उन्मार्गे जइने गाराथी खरडेला पगे लीला घासने छेदीने के ॥९९७॥ वांकुं वाळीने तथा खेंची काढीने पोताना पग साफ करवाना इरादाथी वनस्पतिने दुःख दे तो ए कपटर्नु निंदित कार्य छे, माटे तेम न करवू, पण प्रथमथी तद्दन ओछा घासवाळो मार्ग जोवो, अचित्त जग्यामां जइ प्रथम बतांब्या प्रमाणे गारो दूर करवो पछी बीजे गाम विहार करवो. दि साधुने विहार करतां मार्गमा वम (किल्लो) फलिह (खाइ) प्राकार (कोट) तोरण अगल अर्गलपासक खोडा गुफा (कोतर) ओळंगवाना आवे तो छती शक्तिए तेवा सीधा मार्गे न जवू; पण दूरना खाडा विनाना रस्ते जर्बु, कारण के त्यां जतां खाडा विगेरेमा । पडतां सचित्त झाड विगेरेने पकडे, तो केवळी प्रभुए तेमां दोषो बताच्या छे, पण वीजो रस्तो न होय अने खास कारणे ते मार्गे जवू पडे अने पग खसे तेवू होय, तो झाड गुच्छा गुल्मलता वेला घास छोडवा अथवा जे पकडवा जोग हाथमां आवे, ते लइने 8 | उतरवू, अथवा रस्तामा जता मुसाफरनी मदद मागीने हाथ पकडीने उतरवू, पछी गाराथी के खाडाथी बहार आवी संभाळथी बीजे गाम विहार करवो. . ते भिक्षुने विहार करतां मार्गमां घउं जवना खेतर आवे, गाडां रथ होय, के ते गामना राजानुं के बीजा राजानुं लश्कर RREARS -SCI Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ ९९८ ॥ पडेलं होय, तो वीजो रस्तो मळतां ते रस्ते न जवुं, कारण के त्यां 'जतां बहु अपायो छे, पण बीजो रस्तो न होय, शक्ति न होय, तो ते मार्गे जतां सेनानो अजाण्यो माणस साधुने न ओळखवाथी बीजा माणसोने कहे के "आ जासुस आवेलो छे, माटे धक्को मारीने बाहुमांथी पकडीने बहार काढो" अने ते प्रमाणे कदाच करे, तो पण तेमना उपर क्रोध न लावतां समाधि विहार करे, सेभिक्खू वा० गामां दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवडिया उवागच्छिज्जा ते णं पडिवहिया एवं वइज्जा आउ० समणा ! hare एस गावा जाव रायहाणी वा केवईया इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परि वसंति ! बहुभत्ते बहुउद बहुजणे बहुजनसे से अपभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अध्यजवसे ? एयपगाराणि परिणाणि पुच्छिज्जा, एयप्प० पुट्टो वा अपुट्ठो वा नो वागरिज्जा, एवं ख ३० जं० सव्वटठेहिं० ( सू० १२६ ) ।। २-१-३-२ साधु साध्वी मार्गे चालतां मुसाफरो मळे, तेओ आ प्रमाणे पूछे के हे साधुओ ! तमारा विहारमां आवेलुं गाम के राज्यधानी केवी मोटी छे ! तथा अहीं केटला घोडा हाथी गामना भीखारीओ के माणसो वसे छे, अथावा घणुं रांधेलं अन्न प्राणी के | अनाज मळे छे ? के ओछे भोजन पाणी के अनाज मळे छे ? एवा प्रकारना प्रश्नो पूछे, अथवा न पण पूछे, तो पण पोते बोलधुं नहि, (भाषातर वाळा आचारांगसूत्रमां पाठ विशेष छे. एतप्पा गाराणि परिणाणि णो पुच्छेज्जा आवा प्रश्नो सुनिए पण मुसाफरने पूछवा नहि, ) आज साधुनुं सर्व साधुपणु छे. सूत्रम् ॥९९८॥ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA आचा० 2RMSECRE ॥९९९॥ ASRAE+SARSURE ..त्रीजो उद्देशो. बीजो उद्देशो कहीने हवे बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गयामां गमनविधि बतावी, अहीं पण तेज कहे छे. आ|8| सूत्रम् संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे.. से भिक्खू वा गामा० दुइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा जाव दरीओ वा जाव कडागाराणि वा पासायाणि वा नुमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि या पब्बयगि० रुक्खं वा चेइयकडं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा नो बाहाओ पगिज्झिय २ अंगुलिआए उद्दिसिय २ ओणमिय २ उन्नमिय २ निज्झाइज्जा, तओ सं० गामा०॥ से मिक्खू वा. गामा० दृ० माणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नुमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वणाणि वा वणवि. पव्वयाणि वा पन्धयवि० अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा वावीओ वा पुक्खरिणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा नो वहाओ पगिज्झिय २ जाव निज्झाइज्जा, केवली०, जे तत्य मिगा वा पमू वा पंखी वा वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा सहचरा वा सत्ता से उत्तसिज्ज वा वित्तसिज्ज वा वाडं वा सरणं वा कंखिज्जा, चारिति मे अयं समणे, अह भिक्खू णं पु० ज नो वाहाओ पगिज्झय २ निज्माइज्जा, तो संजयामेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगाम दुइजिजा ।। (मु० १२७) ते भिक्षु बीजे गाम जतां वचमा जुए के खाइ, कोट, मेडावाळां घर, पर्वत उपरनां घर, भायरां, वृक्षथी प्रधान घर, अथवा C R-NCR-4 -4 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाड उपरनां निवासस्थान, गुफाओ, झाडना नीचे व्यतरनां स्थळ, व्यंतर माटे करेली देरडीयो, मठो, भवनगृह विगेरे जे कंइ. रमआचा० दणीय स्थान होय, ते हाथ उंचा करी करीने अंगुलीथी उद्देशी उद्देशीने उंचा नीचा थइने जोबां नहि, तेम बीजाने बतायवां पण नहि, तेमा दोषो आ छे के, ते स्थानमा आग लागे के चोरी थाय तो ते साधु उपर शंका आवे, तथा गृहस्थो एम जाणे के, आ उपरथी ६ सूत्रम् ॥१०००। त्यागी छतां अंदरथी इंद्रियोथी परवश छे, तथा त्यां बेठेलो पक्षीनो समुदाय त्रास पामे, माटे साधु तेवू न करतां शांतिथी विहार ॥१०००। ६ करे, तथा मार्गे विहारमां नीचली बाबतो होय, नदीना नीचाण भागमा वसेला (कच्छ) देशो अथवा मूळा वालोळनी वाडीओ, दवियाणि (वीड) जेमां राजा तरफथी घास माटे जमीन रोकेली होय छे ते, तथा नीचाणना खाडा (खीण) वलयो ( नदीए वींटेला भूमीभागो) गहन उजाड प्रदेशे, अथवा पाणी विनानुं रण अथवा उजाड पहाळी किल्ला वन मोटां वन पर्वत पर्वतसमूह होय, तथा से कुवा तळाव कुंड नदीओ चावडीओ कमळवाली तथा लांबी वावडीओ गुंजालिका वांकी वावडीओ सरोवर सरोवरनी श्रेणि होय, जोडे जोडे तळावो होय, आ बधुं देखवा योग्य होय, छतां पण हाथ उंचा करीने के आंगळीथी इशारत करीने वतावq नहि, तथा देख नहि, केवळी प्रभु तेमां नीचला दोपो बतावे छे, कारण के तेमां रहेला मृगो बीजां पशु पक्षी साप सोंह जलचर थलचर खेचर विगेरे जीवो होय, ते त्रास पामे, भडके, अथवा शरण लेवा आम तेम दोडे, तेथी तेनी नजीकमा रहेनार लोकोने साधु उपर शक आवे माटे साधुए मार्गमां चालतां तेम न करवू, माटे. शास्त्र.जाणनारा एवा आचार्य उपाध्याय विगेरे गीतार्थ साधुओ साथे , ४ पोते विचरे. हवे आचार्य विगेरे साथे चालतां साधुनी विधि कहे छे. से भिक्खू वा २ आयरिउवज्झा० गामा० नो आयरियउवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तो संजयामेव MSREGCRECCASEACOCAREECHORS ॐॐॐॐ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र , आयरिउ० सदि जाव द्वइजिजा ॥ से भिवत्रा आय.सद्धि दइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया वागछि जा, तेणं आचा० त्ता एवं वइज्जा-आउसंतो! समणा! के तुन्भे? को वा एह? कहिं वा गच्छितिह?, जे तत्य आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज वा, आयरिउवझायस्त भासमाणस वा विद्यागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं फरिज्जा, ॥१००१॥ तओ० सं० अहाराईणिए वा. इज्जिजा ॥ से भिक्खू वा अहाराइणियं गामा०. दू० नो राईणियस्स इत्येण हत्थं जाव अणासायमाणे तओ सं० अहाराइणियं गामा० दू० ॥ से भिखू वा २ अहाराइणिभं गामाणुगाम दुइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया वागच्छिज्जा, ते पां पाडिपहिया एवं वइज्जा-आउसतो! समणा! के तुम्भे? जे तत्थ सव्वराइणिए से भसिज्जा वा वागरिज वा, राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणसस वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं दुइजिज्जा ।। (मू० १२८) ते भिक्षु आचार्य विगेरेनी साथे विहार करतां गुरु विगेरेथी एटलो दूर उभी रहे, के हाथ विगेरेनो स्पर्श न थाय, तथा ते भिक्षु आचार्य विगेरेनी साथे जतां मुसाफरो पूछे के हे साधुओ! तमे कोण छो? क्याथी आवो छो? क्या जवाना छो? ते समये जे || 8 आचार्य उपाध्याय विगेरे जे मोटा होय, ते उत्तर आपे, अथवा खुलासा समजावे, पण आचार्यादि उत्तर आपे, तेमां पोते वचमां & कंइ पण न बोले, तेमज जे रत्नाधिक (चारित्रपर्याये के ज्ञाने मोटा होय ते) आगळ चाले, पोते पछवाडे चाले, अने चार हाथनी ष्टि राखी चाले, ते भिक्षु वळी जे आचार्यने बदले रत्नाधिक साथे चालतो. होय, तेमने पण हाथ विगेरेथी स्पर्श न करे, अने रस्तामां मुसाफरो मळतां ते पूछे तो रत्नाधिके उत्तर आपको, एटले सौथी मोटाए उत्तर आफ्वो, पण ते मोटा साधु बोलता होय, ४ +AAAAE SEARC-RRCRA. Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमू ॥१००२॥ त्यारे वचमां अन्य साधुए बोलवू नहि, तेज प्रमाणे संयतोए मोटा रत्नाधिक साधुने आगळ करीने विहार करवो. वळी:आचा०8 से भिक्खू वा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पा० एवं वइज्जा-आउ० स०! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह, तं०-मणुस्सं वा गोणं वा मदिसं वा पसु वा पक्खि वा सिरोसिवं वा जलयरं वा से आइक्खह दंसेह, तं ॥१००२॥ नो आइक्खिज्जा नो देसिज्जा, नो तस्स तं० परिन्नं परिजाणिज्जा, तुसिणिए उवेहिज्ज, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा, तओ स० गामा० दू० ॥ से भिक्खू वा. गा० दू० अंतरा से पाडि० उवा०, ते णं पा० एवं वइज्जा-आउ० स०! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तया पत्ता पुप्फा फला बीया हरिया उदगं वा संनिहियं अगणिं वा सनिखित्तं से आइक्खह जाव दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा से पाडि० उवा०, ते णं पाडि० एवं आउ० स० अवियाई इत्तो पडिवहे पासह जवसाणि वा जाव से णं वा विरूवरूवं संनिविट से आइक्खह जाव दुइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दुइज्जमाणे अंतरा पा० जाव आउ० स० केवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणिं वा से आइक्खह जाव दुइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगाम दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपहिया आउसंतो समणा! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेव जाव दुइज्जिजा(मू० १२९) ते साधुने मार्गमा जतां कोई मुसाफर पूछे के, हे साधु! तमे रस्तामां आवतां कोइ माणस जोयो? वळध भेस पशु पंखी सरीसृप जलचर जे कंइ देख्यु होय ते कहो, अथवा बतावो, तो ते समये साधुए कंइ पण बोलवू नहि, तेम बताव, नहि, तेनी ते वात । साधुए कबुल राखवी नहि, मौन रहेवू, अथवा जाणतो होय. तो पण नथी जाणतो, एम कहे, तेज प्रमाणे समाधिथी विहार करवो.। Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् तेज प्रमाणे साधुने मार्गमां पूछे, के जळमां धनारां कंद मूळ छाल पांदडां फूल फळ बीज हरित (भाजी) पाणी अथवा स्थापेला | आचा० अग्नि होय. तो बतावो, ते समये पण मौन रहेg, जाणवा छतां, 'नथी जाणतो' एम कहेवं, अथवा पूछे के मार्गमा जव घउंनां खेतर । ॥१००३॥ | अथवा जुडुं जुएं जे जोयु होय ते कहो, तोपण मौन रहे, तेज प्रमाणे पूछे के अहींथी गाम अथवा राजधानी केटली दूर छे? तो . पण मौन रहेवू, अथवा अमुक गाम अथवा नगर के राज्यधानीए क्यो रस्तो जाय छे? विगेरे पूछे तो मौन रहे, पण ते संबंधी ॥१००३॥ उत्तर आपबो नहि. से भिक्खू० गा० दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चिलचिल्लडं वियालं प० पेहाए नो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिज्जा नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिज्जा नो रुक्खंसि दूरुहिज्जा नो महइमहालयंसि उदयसि कायं विउसिज्जा नो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्यं वा कंखिज्जा अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दृइज्जिज्जा ।। से भिक्खू० गामाणुगाम दुइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विह सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे अमोसगा। उवगरणपडियाए संपिंडिया गच्छिज्जा, नो तेर्सि भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा जाव समाहोए तओ संजयामेव गामणुगामं दूइज्जेज्जा ॥ (मृ० १३०) ते भिक्षुने विहार करतां मार्गमां बळध के साप उन्मत्त थएलो जुए, सिंह चीतरो अथवा तेनुं बच्चु जुए, तो तेना भयथी IN डरीने उन्मार्गे जचुं नहि, तेम उज्जड अरण्यमांघुसवू नहि, तेम झाड उपर पण चडवू नहि, तेम पाणीमां पण पेसवु नहि, तेम | वाडामां पेसवु नहि, वीजानुं शरण चाहवू नहीं, पण उत्मुकता राख्या विना शांतिथी जवू आ मूत्र जिनकल्पी आश्रयी छे, पण | - SURUS Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খা ॥१००४॥ 8 स्थविर कल्पीए तो साप विगेरेने बाजुए टाळी नीकळवू, वळी ते मार्ग चालतां लांबी उजाड अटवी आवे, अने तेमां चोरो रहेता होय, अने ते चोरो उपधि लेवा आवता होय, तो पण तेना डरथी उन्मार्गे जवू नहि, पण सीधे रस्ते शांतिथी विहार करता जवू. से भिक्खू वा० गा. दू० अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छिज्जा ते णं आ० एवं वइज्जा-आउ० सं० ! आहार | सूत्रमू एवं वत्थं वा०४ देहि निक्खिवाहि, तं नो दिज्जा निक्खिविज्जा, नो वंदिय २ जाइज्जा, नो अंजलि कटु जाइज्जा, नो 16॥१००४॥ कलुणपडियाए जाइज्जा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, मुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सयं करणिज्जतिकटु अक्कोसंति वा जाव उद्दविति वा वत्थं वा ४ अछिदिज्ज वा जाव परिदृविज्ज वा, तं नो गामसंसारणियं कुज्जा, नो रायसंसारियं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो ! गाहावई एए खलु भामोसगा उवगरणपडियाए सर्यकरणिज्जतिकटु अक्कोसंति वा नाव परिदृवंति वा एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कटु विहरिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामा० दुइ० ॥ एय खलु० सया जइ. (मू० १३१) तिबेमि ।। समाप्तमीर्याख्यं तृतीयमध्ययनम् ।। भिक्षुने विहार करतां चोरो भेगा थइने उपकरण याचे, तो तेमने हाथमा अर्पण करवा नदि, बलथी ग्रहण करें तो जमीन उपर नांवी देवां, अने चोरे लीधा पछी तेने वंदन करीने याचवां नहि, तेम हाथ जोडीने दीनताथी पण याचवो नहि, पण धर्म 81 समजावीमे याचवां अथवा चुप रहीने उपेक्षा करवी, तथा ते चोरो पोताना कर्तव्य प्रमाणे आक्रोश करे, दंडथी मारे अथवा जीव है ले, तो पण तेना सामे य नदि, पण तेओ माल विनानां समजी पाछां फेंकी दे, फाही नांखे तो पण तेमनी चेष्टा गाममां के राजकूळमां कडेवी, नहि, अथवा बीजा गृहस्थने पण एम न कहे, के आ चोरोए आ प्रमाणे कयु छे. तथा मनथी के वचनथी तेना CROCOLAGES-OCESCAR . Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर दुर्भाव बतावबो नहि, पण उत्सुकता छोडी समाधिथी विहार करी बीजे गाम जq. आज साधुनी साधुता छे. ' ' आचा० सूत्रम् ... ... ... त्रार्जु अध्ययन समाप्त थयं.' ११००५॥ ॥१००५॥ अध्ययन भाषा जातम् (अध्ययन का, हवे चोधुं कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध.छे, त्रीजा अध्ययनमां पिंडविशुद्ध माटे गमनविधि कही त्यां 18 गयेलाए मार्गमां आ प्रमाणे बोलq आम न बोलवू, ते वतावशे, आ संबंधे आवेला आ भाषा जात अध्ययनना चार अनुयोगद्वारा | थाय छे, तेमां निक्षेपनियुक्ति अनुगममां भापाजात शब्दोना निक्षेपा माटे नियुक्तिकार कहे छे. . जह. वकं तह भासा जाए छकं च होइ नायव्वं । उप्पत्तीए ? तह पजवं २ तरे ३ जायगहणे ४ य ।। ३१३ . वाक्य शुद्धि नामना अध्ययनमा जेम वाक्यनो पूर्वे निक्षेप को छे, ते प्रमाणे भाषानो पण करवो. . ... . जात शब्दना निक्षेपार्नु वर्णन. . .. पण जात शन्दनो छ प्रकारे निक्षेपो करवो, नाम स्थापना क्षेत्र काळ अने भाव छे, एमां नाम स्थापना सुगम छे, द्रव्य जात भागमथी अने नो आगमथी छे, तेमां व्यतिरिरिक्तमा नियुक्तिकार पाछळनी अडधी गाथाथी कहे छे, ते चार प्रकारे उत्पत्तिजात, 15/पर्यवजात, अंतरजात, अने ग्रहण जात छे. (१) तेमा उत्पत्तिज़ात ते जे द्रव्यो भाषा वर्गणानी अंदर पडेला काययोगथी ग्रहण करेलां 8/ SEARकक Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१००६ ॥ ते वायोगवडे निसृष्ट थयेलां भाषा पणे उत्पन्न धाय, ते उत्पत्तिजात छे, अर्थात् जे द्रव्य भाषापणे उत्पन्न याय ते. (२) तेज 'वाचाथी निसृष्ट भाषा द्रव्योवडे जे विश्रेणीमा रहेला भाषा वर्गणानी अंदर रहेलां निसृष्ट द्रव्यना पसंघात वडे भाषा पर्यायपणे जे उत्पन्न थाय छे, ते द्रव्योपर्यवजात कहेवाय छे, (३) जे द्रव्यो अंतराले समश्रेणिमांज निसृष्ट द्रव्यनी साथै मिश्रित भाषा परिणाम ने भजे, ते अंतरजात छें. (४) वळी जे द्रव्यो समंश्रेणिमां रहेला भाषापणे परिणमेलां कर्ण शष्कुली ( काननी अंदर ) ना काणामां पेठेला ग्रहण कराय छे, ते अनंत प्रदेशवाळां द्रव्यथी छे, तथा असंख्य देशवाळा अवकाशमां अवगाढेलां क्षेत्रथी छे, काळथी एक वेणी मांडीने असंख्यात समय सुधीनी स्थितिवाळां छे, भावथी वर्ण गंध रस स्पर्शवाळां छे, ते आवां द्रव्यो 'ग्रहणजात' छे, द्रव्यजात कं, क्षेत्रादिजात तो स्पष्ट होवाथी नियुक्तिकारे कह्यां नथी, ते आ प्रमाणे छे, जे क्षेत्रमां भाषाजातनुं वर्णन चाले, अथवा जेटलं, क्षेत्र स्पर्श करे, ते क्षेत्र जात छे, एज प्रमाणे जे काळमां वर्णन चाले ते कालजात छे, भावजात तो तेज उत्पत्ति पर्यव अंतर ग्रहण द्रव्य सांभळनारना कानगां जणाय, के "आ शब्द" छे, एवी बुद्धि उत्पन्न करे, पण अहं अधिकार द्रव्य भाषाजात वढे छे कारण के द्रव्यनी प्रधान विवक्षा छे, द्रव्यनो विशिष्ट अवस्था भाव हे, ते मांटे भाव भाषा जात वडे पण अधिकार छे, उद्देशाना अर्थाधिकार मटि कहे छे: सव्य वयणविसोहि कारगा तहवि अत्थि उ विसेसो । वयणविभत्ती पढमे उप्पत्ती वंज्जणा बीए ॥ ३९४ ॥ 1 सूत्रमू ॥१००६ ॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो के ये उद्देशा पण वचन विशुद्धि करनारा छे, तो पण ते दरेकमां विशेष छे, ते आ छे, प्रथमना उद्देशामां वचननी विभक्ति आचा०18 छे, एटले एकवचनथी लइने सोळ प्रकारना वचननो विभाग छे. तथा आव॒ वचन बोलवू, आq नहि, तेनुं वर्णन छे बीजा उद्देशामा | सूत्रम् क्रोध विगेरेनी उत्पत्ति जेम न थाय, तेम बोलवू, हवे मूत्र अनुगममा अस्खलितादि गुणयुक्त सूत्र छे, ते आ प्रमाणे छ:॥१००७॥ से भिक्खू वा २ इमाई वयायाराई सुच्चा निसम्म इमाई अगायाराई 'अणारियपुव्वाई जाणिज्जा-जे कोहा वा वायं 8॥१००७॥ । विगंजंति जे माणा वा० जे मायाए वा. जे लोभा वा वायं विउति जाणओ पा फरुसं वयंति अजाणओ वा फ० सव्वं ' - चेयं सावज वज्जिज्जा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिज्जा अधुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा ४ लभिय नो लभिय भुंजिय । नो भुंजिय अदुवा आगो अदुवा नो आगो अदुवा एइ अदुवा नो एइ अदुवा एहिइ अदुवा नो एहिइ इत्यवि आगए। इत्यवि नो आगइ इत्थवि एइ इत्यवि नो एति इस्थवि एहिति इत्यवि'नो एहिति ।। अणुवीइ निट्ठाभासी समियाए । संजए भासं भासिज्जा, तंजहा-एगवयणं १ दुवयणं २ बहुव० ३ इत्थि० ४ पुरि० ५ नपुंसगवयणं ६ अज्झत्थव०७ , उवणीयवयणं ८ अवणीयवयणं ९ उवणीयअवणीयव० १० अत्रणीयउवणीयव० ११ तीयव० १२ पडुप्पन्नव० १३ अणागयव०१४ पच्चक्खवयणं १५ परुक्खव० १६ से एगवयणं वईस्सामीति एगवयणं वइज्जा जाव परक्खवयणं वइस्सामीति परुक्खवयणं वइज्जा, इत्थी वेस पुरि सोवेस नपुंसगं वेस एयं वा चेयं अन्न वा चेयं अणुवीइ निहाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इच्चेयाई आययणाई उचातिकम्म ।। अह भिक्खू जाणिज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तंजहासच्चमेगं पदमं भासज्जाय १ बीयं मोसं २ तईयं सचामोसं ३ जं नेव सच्चं नेव मोसं नेव सच्चामोसं असञ्चामोसं नाम SRESSR-4-%A Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ०८॥ ॥१००८॥ RECAGRICAIGARGIN-COLORS चउत्थं भासजायं ४ ।। से घेमि जे अईया जे य पडुप्पना जे अणागया अरहंता भगवंतो' सव्वे ते एयाणि चेव चत्तारि भासज्जायाई भासिमु वा भासंति वा भासिस्संति वा पन्नविसु वा ३, सब्बाई च णं. एयाई अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विप्परिणामधम्माई भवंतीति अक्खायाई । मू० १३२)' साधुने आ अंतःकरणमां उत्पन्न यएला ( इदम् आ प्रत्यक्ष समीप वाची शब्द वडे वतावेल होवाथी.) तथा जोडाजोड वाणी I * संबंधी आचार ते वागाचार (वाणीना आचार) सूत्रकार बतावे छे, ते सांभळीने तथाहृदयमां जाणीने भाषा समिति वडे ते साधुए वचन वोलचु. ते हवे विगतः कार कहे छे. तेमां प्रथम आवी भाषा न बोलवी, ते अनाचरित भाषानुं वर्णन करे छे, ते न बोलवा योग्य अनाचार कहे छे, एटले, जे क्रोधथी वाचा बोले छे, जेमके तुं चोर छे दास छे ! तथा केटलाक मानथी बोले छे, जेमके हुँ उत्तम जातिनो छु तुं अधम जातिनो छे, तथा मायाथी बोले छे 'जेमके हुं मांदो. छ. (पण मांदो होय नहि) अथवा बीजानो सावध (पापवालो) संदेशो कोइ उपाय वडे * कहीने पछी मिथ्यादुष्कृत करे छे, आ तो माराथी सहसा. (उतावळथी) बोलाइ.गयु छे! तथा कोइ लोभी बोले के आ वचन बोल१ वाथी हुँ कंइक मेळवीश. तथा कोइनो दोष जाणता होय, तेनो,दोष उघाडवा वडे कठोर वचन बोले छे, अथका अजाण पणे बोले छे, आ वधु उपर कहेलुं सघल्लू क्रोधादिनुं वचन पाप सहित होवाथी (सावध छे माटे.) ते वर्जवू, अर्थात् विवेकी बनीने साधुए तेवू वचन न बोलवू. तथा कोइ साथे साधुए बोलतां निश्चायात्मक वाचा न बोलबी के “ अमुक वरसाद विगेरे बनशेज" तेवीज रीते अध्रुव पण. SPRECHEESECESARIOS Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सत्रम ॥१००९॥ ॥ जाणवू, (के आम नहिज बनें) अथवा कोई साधुने भिक्षा माटे कोइ ज्ञाति के कुलमा प्रवेश करतो जोइने तेने उद्देशीने बीजा साधुओ आयु बोले के आपणे खाइ लो, ते लइनेज आवशे, अथवा तेने माटे राखी मुको ते कद पण लीधा विनाज आवशे | अथवा त्यांज खाइने अथवा खाधा विनोन आवशे, तेवु निश्चयात्मक वचन पण न बोलवू, तथा आवी वाणी न बोलवी, के राजा विगेरे आव्यो छेजं, तथा ते नथीज आव्यो, अथवा आवेळेज, आववानो नथीज, तथा ते आवशेज, अथवा आवशेज नहि, ए प्रमाणे पत्तन मठेविगेरे आश्रयी पण भूत विगेरे त्रणे काळ आश्रयी योजq, ते बधानो सार आ छे केजे अर्थने पोते बरोबर न जाणे त्यां आगळ आ 'एमज छे'.एम ने वोलg, .. । (सामान्यथी साधुने क्धी जग्याए लागु पडतो आ उपदेश छे के विचारीने, सम्यग रीते निश्चय करीने अथवा श्रुत उपदेश वडे प्रयोजन वडे साधारण 'निश्चय आत्मक' बनीने भाषा समिति वडे अथवा रागद्वेष छोडीने सोळ वचननी विधि जाणीने भाषा बोले, जेवी भाषा बोलवी ते सोळ प्रकारना वचननी विधिवाळी भाषा बतावे छे. सोळ प्रकारनी भाषा. . (१) एक वचन जेमके 'वृक्षः' (२) द्विवचन 'वृक्षौ' (३) बहु वचन 'वृक्षाः' आ ण वचन थया. त्रण प्रकारना लिंग' आश्रयी कहे छे. • (४) स्त्री वचन वीणा, कन्या, (५) पुंवचन घटा, पदः (६) नपुंसक वचन पीठं, देवकुलं (देवळ) अध्यात्म वचन. ' (७) आत्मामा रहेलं ते अध्यात्म (हृदयमा रहेल) तेना परिहार 'करवावडे अन्य' बोलवा जतां वीजुंज (खरुं) सहसात्कारे बोलाइ जाय. (८) उपनीत वचन ते प्रशंसानुं वचन जेम सुंदर स्त्री (९) तेथी उलटुं अपनीत निंदावालु वचन कुरुपवाळी स्त्री. (१०) Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०१०॥ छे. (११) ऊपनीत अपनीत' वचन कंइक प्रशंसा योग्य गुण 'वतावी निंदा आत्मकगुण बतावे जेमके आ स्त्री सुंदर छे, पण कुलटा अपनीत उपनीत वचन ते प्रथमथी उलढुं छे, जेमके आ स्त्री कुरुपा छे पण शीलत्रत पाळनारी सती छे. (१२) अतीत वचन कृतवान् क. (१३) वर्त्तमान वचन करे छे, (१४) अनागत वचन 'करशे' (१५) प्रत्यक्ष वचन आ देवदत्त छे. (१६) परोक्षवचन ते देवदत्त छे, आ प्रमाणे सोळ वचनो छे, आ सोळ वचनोमां साधुने जरूर पडे, त्यारे एक वचननी विविक्षामां एक वचन बोले, ते परोक्ष वचन सुधीमां ज्यां जनुं योग्य होय त्यां तेनुं बोले, तथा स्त्री विगेरे देखे छते आ स्त्रीज छे, अथवा पुरुष अथवा नपुंसक छे, जेधुं होय ते बोले, आ प्रमाणे विचारी निश्चय करीने सत्य बोलनारो समितिवढे अथवा समपणे संयत भाषा बोले, तथा पूर्वे कलां अथवा हवे पछी कदेवाता दोषोनां स्थान छोडीने भाषा बोले, ते भिक्षु चार प्रकारनी भाषाओ जाणे; ते आ प्रमाणे (१) सत्यभाषाजात ते यथार्थ वचन अवितथ (खरेख) बोलवु गाय होय तो गाय अश्व होय तो अश्व कहेवो. (२) एथी विपरीत ते मृषा ( जूठ) बोलं - एटले गायने अश्व कहेवो, अश्वने गाय कहेवी. (३) सत्यमृषा-जेमां थोडुं सत्य थोर्ड असत्य. जेमके - देवदत्त घोडा उपर बेसीने जतो होय तो उंट उपर : बेसीने देवदत्त जाय छे एम कहे. (४) बोलायेली भाषामां सत्य, जुठ के मिश्रपणुं न होय, ते आमंत्रण आज्ञापन विगेरेमां सत्य जुठ नथी ते असत्यामृपा चोथी भाषा छे, आधुं सुधर्मास्वामीए पोतानी बुद्धिथी नथी कह्युं तेथी कहे छे, के जे पूर्वे तीर्थंकर 'थाय, वर्तमानमां छे अने भविष्यमा थशे ते वधा तीर्थंकरोंए कं छे, हमणां कहे छे अने कहेशे, के आ वर्षाए भाषाद्रव्य अचित्त छे, वर्ण गंध रस फरस सूत्रमू ॥१०१० Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०११॥ वाळां चर्य, उपचय विगेरे विविध परिणाम धर्मवाळां छे, एवं तीर्थकरे कहेल छे, अहीं वर्ण विगेरे गुणो बताववाथी शब्दनुं मूर्त्त पशुं वतव्यं, पण अन्यलोक एवं माने छे, के 'शब्द' आकाशनो 'गुण' छे, ते आकाशने वर्ण विगेरे नथी माटे शब्द रुपी नहि पण अरुपी छे, तेम जैनो मानता नथी, तथा चय — उपचय धर्म बताववाथी शब्दनुं अनित्यपशुं बताव्यं; कारण के शब्दद्रव्योनुं विचित्रपणुं सिद्ध थाय छे. हवे शब्दोनं कृतत्त्व प्रकट करवा कहे छे. सेभिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा पुत्रि भासा अभासा भामिज्जमांणी भासा भासा भासा समयवीइकंता च णं भासिया भासा अभासा ।। से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सच्चा १ जा य भासा मोसा २ जा य भासा सच्चामोसा ३ जाय भाषा असच्चऽमोसा ४, तपगारं भासं सावज्जं सकिरियं कक्कसं कडुयं निठुरं फरुसं अण्हगकरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परियावणकरिं उद्दवणकरं भूओवघाइयं अभिकख नो भासिज्जा | से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से 'जं पुण जाणिज्जा, जा य भासा सच्चा सहुमा जा य भासा असच्चामोसा तहष्पगारं भासं असावज्जं जाव अभूओवघाइयं अभिकख भासं भासिज्जा ।। (मृ० १३३ ) ते भिक्षु आ प्रमाणे शब्दने जाणे, के भाषा द्रव्य वर्गणाओनो वाक्योग निसरवार्थ पूर्वे जे आ भाषा हती, ते वाक्योगवडे निसरवाथीज भाषा कहेवाय छे, आ कहेवाथी तालबुं ओट विगेरेना व्यापारथी पूर्वे जे शब्द नहोता, ते ते उत्पन्न करवाथी खुलेखुलुं (प्रकट) कृतक (वनाववा) पशुं सूचन्युं छे. जेम माटीना पिंडमां प्रथम घडो नहातो, ते कुंभारे प्रयोजन भवतां दंडचक्रवडे घडाने वनाव्यो, तेम ते भाषा बोलाया पछी नाश पामती होवाथी शब्दोनुं बोलाया पछीना-काळमां अभाषापणुं छे, जेमके घडो फुटवाथी सूत्रम् ॥१०११ ॥ 7 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीकरां थयां, त्यारे ते कपाळ (ठीकलं-ठीच) नीअवस्थामां घडो ते अघडो थयो छे, आ वाक्योवढे शब्दोनो पूर्व अभाव तथा आचा०प्रध्वंस (नाश थवाथी ) अभाव बताव्यो छे, हवे चारे भाषामांथी न बोलवा योग्य भाषाने कहे छे, ते भिक्षु आ प्रमाणे जाणे के 8 १ सत्य २ मृषा ३ सत्यामृषा ४ असत्यामृषा एम भाषा चार भेदे छे. तेमां मृषा सत्यामृपा तो बोलवा योग्य नथी, पण सत्य है । सूत्रमू ॥१०१२॥ वचन पण कर्कश विगेरे दुर्गुणवाळु न बोलवू, ते बताचे छे. . ॥१०१२॥ (१) अवध (पाप) सहित वर्ने, ते 'सावध भाषा' सत्य होय तो पण न बोलवी, (२) सक्रिय-ते जेमा अनर्थ दंडनी क्रिया || प्रवर्ते, ते पण भाषा साधुए न बोलवी (३) कर्कश ते चावेला अक्षरवाळी (४) कटुक-ते चित्तने उद्वेग करनारी (4) निष्ठुर ते | हक्क प्रधान (उपका रूप).(६) परुषा ते पारकाना मर्म उघाडवा रुप (७) कर्मास्त्रव करनारी, तेज प्रमाणे छेदन भेदन ते ठेठ अपद्रावण करनारी सुधी जे जीवोने उपताप करनारी होय, ते मनथी विचारीने सत्य होय तो पण न बोलवी, हवे बोलवानी भाषा कहे छे. ते भिक्षु आ प्रमाणे जाणे, के जे भाषा सत्य छे, तथा कोमळ विगेरे गुणोवाळी जीवोने उपताप न करनारी भाषा छे, ते बोलवी, तथा कुशाग्रहबुद्धिवढे विचारीने जे सुक्ष्म भाषा बोलाय, ते वखते मृपा पण सत्य जेवी 'गुणकारी थाय, जेम के मृग देख्यु होय, छतां शिकारी आगळ ते मृगनी रक्षा खातर 'न देख्यु' कहे, तो सत्य जेवुज गुणकारी छे, का छे के. अलिअं न भासिअव्वं अत्थि हु सच्चंपि जन वत्तव्वं । सच्चंपि होइ अलिअं जं परपीडाकर वयणं ॥१॥ जेम जूठ न बोलवू, तेम सत्य पण जे परने पीडाकारक वचन होय ते जूठा जेवू जाणीने बोलवु नहि, तथा जे असत्यामृपा से छे ते आमंत्रणी (आवो) आज्ञापकनी (आम करो) विगेरे पण जे असावध अक्रिय अफठोर जीवने दुख न देनारी होय, ते मनथी २-०LSCREGASCIENCESSOSESAR Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारीने हमेशां साधुए बोलवीआचा० से भिक्खू वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणे नो एवं वइजा-होलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा सुत्रम् कुपक्खेत्ति वा घडदासित्ति वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति का माईति वा मुसावाइचि वा, एयाई तुम ते जणगा ॥१०१३॥ वा, एअप्पगारं भासं सावजं सकिरियं जाव भूआवघाइयं अभिकंख नो भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा० पुमं आमंतेमाणे ॥१०१३॥ आमंतिए वा अप्पडिमुणेमाणे एवं वइज्जा-अमुगे इ वा आउसोति वा आउसंतारोति वा सावगेति वा उवासग्गेत्ति वा धम्मिएचि चा धम्मपिएतिवा, एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिज्जा ।। से मिक्खु वा २ इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणे नो एवं वइज्जा-होली इ वा गोलिनि वा इत्थीगमेणुं नेयत्वं ॥ से भिक्खू वा २ इत्थं आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणी एवं वइज्जा-अउसोत्ति वा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावजं जाव अभिकंख भासिज्जा ।। (मू० १३४) ते साधु जरुर पडतां कोइ माणसने बोलावे, अथवा पूर्वे बोलाव्यो होय, पण ते माणसे लक्ष्य न आप्यु होय, तो तेने आवा| ४ कठोर शब्दो न कहेवा, के तुं होल, गोल (आ बंने शब्दो वीजा देशमा अपमान रुपे छे,) तथा वृषल अथवा कजात घटदास 12 . कुचो चोर, अथवा चारिकमायी मृपावादी अथवा तुं : आवो अथवा तारां मावाप आवां छे ! आ भाषा कठोर होवाथी साधुए न बोलवी, पण तेथी विपरीत ते अकठोर भाषा बोलवी, एटले आमंत्रण कर्या छतां पेला पुरुषतुं लक्ष्य न होय, तो शांतिथी कहेवू | के हे भाइ ! आयुष्पन् ! अथवा बहु आयुष्मन्त श्रावक धर्म पिय-अर्थात् तेने प्रिय लागे, तेवू वचन कहेवं, तेज प्रमाणे स्त्रीने 8/. SSC-CRENCES-SER Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०१४ ॥ 'श्री.पण होली गोली विगेरे कठोर वचन न कहेव, पण तेनुं लक्ष्य खेचवा आयुष्मती, बाइ भोगी भगवती श्राविका उपासिका धार्मिका धर्म प्रिया इत्यादि असावध वचन विचारीने बोलवु एज प्रमाणे अभाषणीय भाषाना वीजा प्रकारो बतावे छे. से. मि० नो एवं वइज्जा - नभोदेवित्ति वा गज्जदेवित्ति वा विज्जुदेवित्ति वा पट्टदे० निबुद्धदेवित्तिए वा पड वा वासं मा वा पडउ निष्फज्जउ वा सस्सं मा वा नि० विभाउ वा रयणी मा वा विभाउ उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ सो वा राया जयउ वा मा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जा || पन्नवं से भिक्खू वा २ अंतलिक्खेति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा समुच्छिए वा निवइए वा पओ वइज्जा वुट्ठबलाहगेति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं सबहिं समिए सहिए सया जाइज्जासि तिबेमि २-१-४-१ ।। भाषाध्ययनस्य प्रथमः । ( सू० १३५ ) वळी ते साधु असंतने योग्य आवी जे भाषा छे तेने न बोले, जेमके नभोदेव, गर्जतोदेव, विजळोदेव दृष्टदेव निष्टदेव ( आमां वर्षाद बीजळी विगेरेने देव न कहेवो ते सूचव्युं छे. ) तथा वर्षाद पडो अथवा न पडो, सूर्य उगो, अथवा न उगो, आ राजा जीतो अथवा न जीतो, आवी भाषा पण न बोले, पण कारण पढे वरसादने अंगे बोलवु पढे, तो संगत भाषाए आ प्रमाणे बोलधुं के अंतरीक्षमांथी वरसाद पड़े छे. अथवा गुहयानुं चरित छे, संमूर्छिम छे अथवा वादळां वरसे छे, आ प्रमाणे साधु साध्वीए खुशामत विनानुं सादु वचन बोलबुं, तेज सांधुनी साधुता छे, ते सर्व अथवडे समजीने समिति सहितपणे बोलवामां प्रयत्न करवो. चोथो अध्ययननो १ लो उद्देशो पूरो थयो . ' सूत्रमू ॥१०९४॥ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा १०१५॥ CARRORIES बीजो उद्देशो. पहेलो कहीने बीजो कहे छे, तेनो आं प्रमाणे संबंध छे. गेया उद्देशामां वाच्य अघाच्यनुं विशेषपणुं वताव्युं, अहीं पण तेज है। सूत्रम् वाकीनु कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम मूत्र छे, से भिक्खू वा जहा वेगईयाई रूवाई. पासिज्जा तहावि ताई नो एवं वइजी, तंजहा-गंडी गंडीति वा कुट्टी कुट्टीति वा ॥१०१५॥ जाब मेहुमेहुणीति हत्थच्छिन्नं वा हत्यच्छिन्नेत्ति वा एवं पायछिन्नेत्ति वा नकछिण्णेइ वा कण्णछिन्नेइ वा उछिन्नेति वा, जेयावन्ने तहप्पगारा एयप्पगाराहि भासाहि बुइया कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगाराहि भासाहिं अभिकंख नो भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा तहावि ताई एवं वइज्जा-तंजहा-ओयसी ओयंसित्ति वा तेयसि तेयंसीति वा जसंसी जसंसीइ वा वच्चसी वच्चंसीइ वा अभिरूयंसी २ पडिख्वंसी २ पासाइयं २ दरिसणिज्जं दरिसणीयत्ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाई बुझ्या २ नो कुप्पंति माणवा तेयावि तहप्पगारा एयप्पगाराहि भासाहिं अभिकंख भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा, तंजहा-चप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहावि ताई नो एवं बइज्जा, तंजहा-मुक्कडे इ वा मुटुकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिज्जे इ वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० जहा वेगईयाई रूवाई पासिज्जा, तंजहा-बप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि ताई एवं वइज्जा, तंजहा-आरंभकडे ई वा सावज्जकडे इ वा पयत्तकडे इ वा पासाइयं पासाइए वा दरीसगीयं दरसणीयंति वा अभिरूवं अभिरूवंति वा पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासिज्जा ।। (मू० १३६) CHOREOGROCESS-CI-०८ -ca , Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ।। १०९६ ॥ ते भिक्षु कोइ पण रूपो जुए, तो पण तेवां रूपो वोले नहि, जेमके कोइने गंडमाळनो रोग थयो होय गंडीपद (गुमडांवाळा) तथा कोढीया अथवा पूर्वे बताव्या प्रमाणे १६ रोगवाळाने ते रोगवाळो कही चीडाववो नहि, ते छेवटे मधु मेही सुधी छे. आ रोगीओ सिवाय कोइने पाछळथी अंगमां खोड आवी होय, हाथ छेदायेलो होय, तेम पग नाक कान होठ विगेरे छेदायला होय, तथा काणो होय कुंट होय, तेवाने तेवा शब्दोए बोलाववाथी तेओ कोपायमान थाय छे, माटे तेवाने तेवां वचनथी बोलावको नहि, तेवाने जरुर पडतां केवी रीते बोलावावा ते कहे छे, ते भिक्षु कदाच गंडीपद विगेरे व्याधिवाळा माणसने जुए, अने तेने बोलाववो होय, तो तेनो कोइपण सारो गुण जोइने तेने उद्देशीने हे ओजस्वी ! हे तेजस्त्री ! इत्यादि आमंत्रणे बोलायचो. आ संबंधमां कृष्णावासुदेवनुं दृष्टांत छे. एक सडेलो कुतरो राजमार्गमां पडेलो तेनी दुर्गंधथी कृष्णना माणसो आठे रस्ते उतर्या, पण कृष्णे पोते तेज रस्ते जइ तेनी दुर्गंधीनी उपेक्षा करी फक्त तेना मोढामां सुंदर दांतनी श्रेणी जोइ तेनी प्रशंशा करी, तेज प्रमाणे साधुए तेवा रोगामांथी कोइपण गुण शोधी तेने बोलाववो, एटले पराक्रमी तेजस्वी वक्ता यशस्वी सुरूप मनोहर रमणीय देखवा योग्य अथवा तेवो जे गुण होय, तेने उद्देशीने बोलाववो, के तेनाथी ते नाखुश न थाय. तथा मुनिए कोट किल्ला घर विगेरे जोड़ने एम न कहेनुं के आ रुडा बनावेला छे, खुब बनाव्या छे, फायदाकारक छे, अथवा | तमारे आवा करवा लायक छे, एवा प्रकारनी बीजी पण अधिकरणने अनुमोदनारी सावध भाषा बोलवी नहि. छतां जरुर पढे, तो कहें, के महा आरंभथी आ करेल छे, तथा बहु महेनते करेल छे, तथा मासाद विगेरे रमणिक देखावा । सूत्रमू ॥१०१६ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥१०१७॥ G॥१०१७॥ योग्य छे, सरखी बांधणीवाळा शोभीता छे. विगेरे निरवद्य भाषा बोलवी. से मिक्खू वा २:असणं वा० उवक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेति वा मुहकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिज्जे इ वा, एयप्पगारं भास सावज्जं जाब नो भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा २ असंणं वा ४ उवक्खडियं पेहाप एवं वइज्जा, तं०-आरंभकडेत्ति वो सावज्जकडेत्ति वा पयत्तकंडे इ वा भदयं भत्ति वा ऊसद ऊसढे इ वा रसियं २ मणुनं २. एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ।। (मू०१३७) साधुए कोइ जग्याए रस्सोइ तैयार थएली जोइ होय तो एम न कहेवू के पकवान सारां : कर्या छे, सारां तळ्यां छे, सुंदर | बनाव्यां छे, कल्याण करनारां छे, बीजाए आवां करवा योग्य छे, आवु सावध वचन साधुए बोलवु नहि. | पण जरुर पडतां तेवु चारे प्रकारर्नु अशन विगेरे जोइने कहेवू के आरंभथी सावध प्रयासे बनावेलुं छे, तथा सारां होय तो सारां ताजा होय तो ताजां रमवाळां मनोज्ञ एम निर्दोष भाषा बोलबी.' फरीथी अभाषणीय बतावे छे से मिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खि वा सरीसिवं वा जलचरं वा से तं। परिवूढकायं पेहाए नो एवं वइज्जा-धूले इ वा पामेइले इ वा वटे इ वा वझे इ वा पाइमे इ वा, एयप्पगारं भासं सावज्नं जाव नो भासिज्जा ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयरं वा सेत्तं परिवृढकार्य पेहाए एवं वइज्जा परिवूढकाएत्ति वा उवचियकाएत्ति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुन्नइंदिइएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ॥ से भिक्खु वा २ विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं वइज्जा, तंजहा-गाओ दुज्झाओत्ति 6 RA Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० । सूत्रम् ॥१०१८॥ ॥१०१८॥ वा दम्मेत्ति वा-गोरहत्ति वा वाहिमति वा रहजोग्गति वा, एयप्पगार भासं सावज जाव'नो भासिज्जा ।। से भि. विख्वरूबाओ गाओ पेहाए एवं बइज्जा, तंजहा-जुवंगविचि वा घेणुत्ति वा रसवइत्ति वा हस्से इ वा महल्ले इ वा महब्बए इ वा संवहणित्ति वा, एअप्पगारं भासं असावज जाव अभिफंख भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० तहेव गंतुमुज्जाणाई पन्चयाई वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए नो एवं वदज्जा, तं०-पासायजोग्गाति वा तारणजोग्गाइ वा गिहजोग्गाइ वा फलिहजो० अग्गलजो० नावाजो० उदग० दोणजो० पीढचंगबेरनंगलकुलियजंतलठ्ठीनाभिगंडीआसणजो० सयणजाणत्रस्सयजोगाई वा, एयप्पगारं० नो भासिज्जा ॥ से भिक्खु वा० तहेव गंतु० एवं वइज्जा तंजहा-जाइमंता इ वा दीहवट्टा इ वा महालया इ वा पाययसाला इ वा विडिमसाला इ वा पासाइया इ वा जाव पडिरूवाति बग एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ॥ से भि. बहुसंभूया वणफला पेहाए तदावि ते नो एवं वइज्जा, तंजहा-पक्का इ वा पायखज्जा इवा वेलोइया इ वा टाला इ वा वेहिया इवा, एयप्पगारं भासं सावज्ज जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू० बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं वइज्जा; तं०-असंथडा इ वा बहुनिवट्टिमफला इ वा बहुसंभूयां इ वा भूयरुचित्ति वा, एयप्पगारं भा० असा० ।। से० वहुसंभूया ओसही पेहाए. नहावि. ताओ न एवं वइज्जा, तंजहा-पक्का इ वा नीलीया इ वा छवीइया इ वा लाइमा इ वा भज्जिमा इ वा बहुखज्जा इ वा, एयप्पगा० नो भासिज्जा ॥ से बहु० पेहाए तहावि एवं वइज्जा, तं०-रुढा इ वा बहुसंभूया इ वा थिरा इ वा ऊसंढाइ वा गम्भिया इ वा पमूया इ वा. ससारा इ वा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासि० ॥ (१३८) SCER-CIEOSAROGRESSESSAGERS Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रम् SCHACCP 205464004 ते साधु के साध्वी रस्तामां माणश चळद मृग पशु पक्षी सरीसृप जलचर कोइ पण पुष्ट शरीरवाळु देखें तो आबुं न बोलवू, 18 के "आ, स्थुल प्रमेदुर वृत्त अथवा वध करवा योग्य अथवा वहन करवा योग्य छे, अथवा मारीने संधवा योग्य छे, अथवा देवताने बळी आपवा योग्य छे." . .. ॥१०१९ . पण माणसथी लइने जलचर सुधीन कोइ पण पशु पंखी के जंतु परिबद्ध (जाडा) शरीरवाल्लं देखीने जरुर पडतां आवी रीते 14 बोलवू के आ जाडा शरीरनो छे, उपचित (पुष्ट) कायवाळो छे, स्थिर संघयणवाळो छे, अथवा लोही मांसे पुष्ट छे, अथवा पांच | इंद्रयो पुरी छे, आवी निर्दोप भाषा बोले. तेज प्रमाणे जुदा जुदा रुपवाळी गायोने साधु देखे, तो तेणे आवु न कहेवू, के आ गायो दोहवा योग्य छे, अथवा दोहवानो वखत छे, अथवा आ गोधलो (जुवान बन्द ) वाहन करवा जेवो छे, अथवा रथने योग्य छे, आवी सवाथ भाषा न बोलवी, पण IM जरूर पडतां जुदी जुदी गायोने जोइ आ प्रमाणे बोलवू के आ युवान गाय छे, अथवा रसवती धेनु छे, आ नानो बळद छे, आ| मोटो छे, अथवा महाव्यय (मूल्य) वाळो छे, संवहन छे, आवो निरवध भाषा बोले. 8 तेज प्रमाणे साधु उद्यनमा जतां पर्वत वन विगेरेमां मोटां झाड देखीने आबुं न बोले के, आ महेल बनाववा योग्य, तोरण योग्य छे, घर योग्य, फलिहाने योग्य, अर्गला नाव के पाणी लाववाने परनाळ वनववा, योग्य अथवा द्रोण वनाववा योग्य पीढ चंगबेर हळ कुलिकयंत्रनी लाकळी (घाणी) नाभि गडि असाण विगेरे ओजारनी वस्तुओ बनाववा योग्य छे, तथा सुवानां पाटी गाडी गाड़ां उपाश्रय बनाववा योग्य छे. अथवा तेवू कंइ पण बीजुं सावध वचन न बोले. ॥१०१२॥ CRO SCREAca Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥ १०२० ॥ पण जरुर पडतां तेवां वृक्षो बतावत्रां पडे, तो आ उत्तम जातिनां वृक्षो छे, जाडा थडवाळा छे, मोटां झाड विशाळ शाखावाळां 'विस्तीर्ण शाखावाळा देखावा योग्य रमणीय छे, आवी निरवद्य भाषा बोले. साधु मार्गमां घणां फळवाळां झाडो देखे, तो आबुं न बोले के आ पाकां फळ छे, गोटली बंधायेळां फळ छे. ते खाळामां नाखीने कोद्रव के पराळना घासथी पकावीने खावा योग्य छे. ताथ बरोवर पाकेलां होवाथी झाड उपरथी तोडी लेवा योग्य छे, कारण के हवे वधारे वखत उपर रही शके तेम नथी. 'टाल' ते गोटली बंधाया विनानां कोमल फळ छे, तथा आ फळोए पेशी संपादन करवाथी चीरवा योग्य छे, आवी फळ संबंधी सावध भाषा साधुए न वोलवी, पण जरुर पडतां नीचे प्रमाणे बोलवु आ फळना भारथी असमर्थ झाडो छे, घणां फळवाळां छे, बहु संभूत छे, तथा भूतरुप ते कोमळ फळो छे, आवां आंवानां झाड प्रधान होवाथी तेनो दृष्टांत आपल छे, आवी निरवद्य भाषा साधुए बोलवी. तथा पाकेली औषधि देखीने एम न बोलवु के आ पाकी छे, अथवा नीली आर्द्रा पाणीवाळी छालवाळी घाणी बनावा योग्य रोपवा योग्य, आ रांधवा योग्य भंजन करवा योग्य बहु खावा योग्य अथवा पुंख बनाववा योग्य छे. पण जरुर पडतां आम बोले के भा रुढा औषधि छे, आवी निरवद्य भाषा बोलवी. वळी सेभिक्खू वा० तहष्पगाराई सद्दाई सुणिज्जा तहावि एयाई नो एवं वइज्जा, तंजा-सुसदेत्ति वा दुसदेत्ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं नो भासिज्जा ॥ से भि० तहावि ताई एवं वइज्जा, तंजा - मुलद सुसद्दित्ति वा दुसदं दुसदित्ति वा, एयप्पगारं असावज्जं जाव भासिज्जा, एवं रुवाई किण्णहेति वा गंधाई सुरभिगंधित्ति वा २ रसाई- वित्ताणि वा ५ फसाई - सूत्रम् ॥१०२०॥ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०२९॥ | लेतां कहेवुं के हुं ते वस्त्रने वधे जोड़ लडं, पण तेनी समक्ष एक छेडाथी वीजा छेडा सुधी - जोया बिना लेबुं नहि, कारण के जाया विना लेतां केवळी प्रभु तेम दोष बतावे छे, कारण के तेमां कांइ पण कुंडळ, दोरो, चांदी, सोनुं, मणी, रत्नावळी विगेरे आभावस्त्र देखीने लें रण बांध्युं होय, अथवा सचित्त वस्तु, जंतु, वीज, भाजी होय तो दोष लागे, माटे साधुनी आ प्रतिज्ञा छे, से भि० से जं० सअंडं० ससंताणं नहप्प० वत्थं अफा० नो प० ॥ से भि० से जं अप्पंडं जाव संताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जत न रुच्चाइ तह अफा० नो प० ॥ से भि० से जं अप्पंड जाव संताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्वंतं रुच्चाइ, तह० वत्थं फासु० पडि० ॥ से भि० नो नवए मे वत्थेत्तिकट्टु नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पसिज्जा ॥ से भि० नो नवए मे वत्थेत्तिकटु नो बहुदे० सीओदगवियढेण वा २ जाव पहोइज्जा | से भिक्खू वा २ gori मे वत्यत्ति नो बहु० सिणाणेण तहेव बहुसीओ० उस्सि० आलावओ ॥ ( सू० १४७ ) ते भिक्षु लेवाना वने नाना जंतुनां इंडावाळु समजे, अथवा करोळीयाना जाळावाळु समजे तो मळवा छतां पण ले नहि, ' कदाच इंडा विनानुं होय, पण घृणुं हीन ( नानुं ) होय तो काम पुरतुं न थाय, माटे अनल कहेवाय ते लेवुं नहि. तथा अस्थिर (जीर्ण) होय, अथवा अध्रुव ते स्वल्पकाळ्नी अनुज्ञापना होय, तथा अप्रशस्त प्रदेशवाळं होय, अथवा खंजर विगेरे कलंकवाळं होय तो लेबुं नहि, तेज बतावे छे. चत्तारि देविया भागा, दो य भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, मज्झे देवीएसुत्तमो लाभो, माणुसेसु अ मज्झिमो । आसुरेस अ गेलनं मरणं वत्थस्स रक्खसो ॥ १ ॥ जाण रक्खसे ॥ २ ॥ सूत्रम् ||१०२९॥ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रमू चार देवता संबंधी भाग छे, अने घे भाग मनुष्य संबंधी छे, वे भाग असुर संबंधी छे, वखना मध्य भागमा राक्षसना भागो| ६ छे. (१) देविकमां उत्तम लाभ छे, मनुष्यमां मध्यम छे, आसुर भागमा मांदापणुं छे, अने राक्षस भागमा मृत्यु छे, एवं जाण-तेनी। " स्थापना आ प्रमाणे छे. लक्खण हीणो उवही, उवहणई नाणदंसण चरितं । ॥१०३०॥ लक्षणथी हीन जे उपधि छे, ते ज्ञान, दर्शन अने चारित्रने हणे छे, तेथी हीन होय ते लेवू नहि, तथा प्रशस्य मानवालं होय, + पण ते आपतां दाता [देनार] नु मन नाराज थतुं होय, तो ते साधुने कल्पे नहि. है आ प्रमाणे अनल अथिर अध्रुव अधारणीय ए चार पदोथी सोळ भागा थाय छे, तेमां प्रथमना पंदर अशुद्ध छे, पण चारे 8 2 भांगे शुद्ध एवो सोळमो भांगोज काम लागे. माटे सूत्रमा अलं (समर्थ) स्थिर, ध्रुव धारणीय ए चार गुणवाल्लं वस्त्र मळे तो लेबु का छे. हवे ते भिक्षु एम जाणे के मारु वस्त्र नवु नथी, माटे थोडा घणा पाणीथी सुगंधी द्रव्यथी थोडु मसळीने के घणु मसळीने सुगंधीवाळु बनावे, अथवा मारु वस्त्र नवु न होवायी थोडा पाणीथी धोइ लडे, एवू पण न करे. अर्थात् आ वंने पाटो जिनकल्पीने आश्रयी छे. के भिक्षुने कपडं मेलना लीधे गंधा होय तो पण ते मेल दूर करवा सुगंधी द्रव्यवडे के पाणीवडे धुवे नहि, पण 5 स्थविरकल्पीने एटलं विशेष छे के सुगंधीवाळु बनाववा माटे नहि, पण लोकोनी निंद दूर करवा तथा रोगादिना कारणो दूर करवा मासुक पाणी विगेरेथी मेल दूर करवा यतनार्थी धुवे पण खरो. हवे धोयेलां कपडांने यतनाथी सुकाववानी विधि कहे छे. . . . से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा प०, तहप्पगारं वत्थं नो अणंतरहियाए जाव पुढवीए संतणए आया OCEROCESC+CASGROGR5R-GUST Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ज वा प० ॥ से मि० अभि० वत्थं आ० ५० त० वत्थं धूणसि वा गिहेलगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा आचा० अनयरे तहप्पगारे अंतलिवखजाए दुन्बद्ध दुनिक्खित्ते अणिकंपे' चलाचले नो आ० नो प० ॥ सेक्खू वा० अभि० सूत्रम् आयावित्तए वा तह. बत्थं कुकियसि वा भित्तसि वा सिलंसि वा लेलुसि वा अन्नयरे वा तह० अंतलि. जाव नो ११०३१॥ आयाविज्ज वा प०॥ से भि० वयं आया०प०प० तह० वत्थं खंधसि वा मं० मा० पासा. ह. अन्नयरे वा तह. ॥१०३१॥ अंतलि० नो आयाविज्ज वा०प०॥ से० तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा २ अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि पडिलेहिय २ पमजिय २ तओ सं० वत्थं आयविज्ज वा पया०, एवं खलु. सया जइज्जासि (सू० १४८) चिबेमि ।। २-१-५-१ वत्येसणस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥ ते भिक्षु अव्यवहित जग्यामां वस्त्र न सुकवे, वळी सुकरवा इच्छे, तो थांभा उपर. उंबरा उपर, ऊखळी उपर तथा स्नान पीठ (नावाहना ओटला) उपर न सुकवे, तथा कुक्यि भिंत, शिला, लेलु अथवा तेवा अधर स्थान उपर पडवाना भयथी सुकवे नहि, तथा स्कंध मांचो प्रासाद हवेली अथवा तेवा बीजा कोइ अधर भागमां पडवाना भयथी सुकावे नहि, पण जो मुकाववानी खास 8 जरुर हो तो, एकांतमा जइने अचिच जग्या जोइने ओघाथी पुंजीने आतापना विगेरे करे, आज भिक्षुनी सर्व सामग्री छे. (आमां द कपडां मुकंववानुं स्थान अचित्त जग्या बतावी, तथा अधर लटकतां राखवानी ना पाडी, तथा जमीन पर पडतां यतना न रहे, माटे । जग्या पुंजीने एकांतमां सुकववां वधारे सारुं छे.) पहेलो उद्देशो कहीने बीजो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां वस्त्र लेवानी विधि बतावी, अने आ उद्देशामां Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25-2567 आचा० ॥१०३२॥ . पहेरवानी विधि कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशाने आप्रथम मूत्र छे, से भिक्खू वा० अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा नो धोइज्जा नो रएज्जा नो धोयर ताई वत्थाई धारिजा अपलिउंचमाणो गामंतरेसु० ओमचेलिए, एवं खलु वत्थंधारिस्स 'सामग्गिय ।। से भि० गाहावइकुलं 18 सूत्रम् पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा, एवं बहिय विहारभूमि वा वियारभूमि वा गामणुगाम वा दुइज्जिाज्जा, अह पु० तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सव्वं चीवरमायाए। ते साधु साधुपणाने योग्य कपडां याचे अने जेवां लीधां होय तेवांज पहेरे, पण तेमां कइ पण शोभा करे नहि, ते कहे छे, लीधेला वस्त्रने धुए नहि, रंगे नहि तथा वकुशपणुं धारण करोने धोइने रंगेला कपडां काइ आपे तो पण लेइने पहेरे नहि तथा तेवां साधुने योग्य कपडां पहेरीने वीजे गाम जतां वस्त्रोने छुपाव्या विना सुखथीज विहार करे, कारणके प्राये आ असार वस्त्रनो धारण करनारो छे, आज साधुनुं संपूर्ण साधुपणुं छे, के आवां सादां कल्पनीय वस्त्र पहेरवां. . वळी ते भिक्षु गोचरी जाय तो वस्रो बधां साथे लेइ जाय तेज प्रमाणे स्थंडिल जाय अथवा अभ्यास करवा बहार जाय तो 5 पण लेइने जाय, पण एटलं ध्यान राखवू के पिंडएपणामां कह्या मुजब वरसाद के धुमस वरसतां होय तो जिनकल्पी बहार न8/ जाय अने स्थविरकल्पी जोइए तेटलांज वस्त्र बहार लइ जाय, ( आ सूत्रो जिनकल्पी आश्रयी छे, तेम वस्त्रधारीतुं विशेषण होवाथी । स्थविरकल्पीने पण लागु पडे, तो तेमां विरुद्ध नथी, पिंडैपणामां उपधिने लेइ जवानुं कयु. आ सूत्रमा वस्त्रोने आश्रयी कयु छे, )। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE / सूत्रम् ॥१०३३॥ . .हवे वापरवा लीधेलं वस्त्र, बगळतां शुं करवू ते. कहे छे. , . . आचा० से एगइओ मुहुराग २ पाडिहारिय वत्थं जाइज्जा जाव एगाहेण वा दु० ति० च० पंचाहेण वा विप्पवसिय २ उवाग च्छिज्जा, नो तह वत्थं अप्पणो गिहिज्जा नो अन्नमन्नस्स दिज्जा, नो पामिचं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थपरिणामं करिज्जा, ॥१०३३॥ नो. परं उवसंकमिचा एवं वइज्जा-आउ० समणा ! अभिकंखसि बत्थं धारितए वा परिदरित्तए वा ?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २,परहविज्जा, तहप्पगारं उत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिज्जा नो णं साइज्जिज्जा ।। से पगइओ. एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा नि० जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तगं २ जाव एगाहेण वा०५विप्पबसिय २ उवागच्छंति, नह० वत्याणि नो अप्पणा गिण्हंति नो अन्नमनस्स दलयंति तं चेव जाव नो साइज्जति, बहुवयणेण वा भाणियन्वं, से हंता अहमपि मुहुत्तंग पाडिहारियं वत्थं जाइला जाव एगाहेण वा ५ विप्पवसिय २ उवागच्छिस्सामि, अवियाई एयं ममेव सिया, माइहाणं संफासे नो एवं करिज्जा ॥ (सू० १५०) कोइ साधु बीजा साधु पासे वे घडी वापरवा माटे वस्त्र मागेतो अने मागीने कारण प्रसंगे बीजे गाम विगेरे स्थळे गयो त्यां द एकथी पांच दिवस सुधी रह्यो अने त्यां एकलो होवाथी सुवामां ते वस्त्र बगडी गयु, पाछळथी ते वस्त्र लावीने जेर्नु हतु तेने तेवू वस्त्र पार्छ आपे, तो तेना पूर्वना स्वामीए लेवु नहि, लइने वीजाने पण आपवु नहि, तेम कोइने उछीनु पण आप, नहि, के 18 तुं आ हमणां. ले अने थोडा दिवस पछी वीजुं मने पार्छ आपजे. तथा ते वस्त्रनो ते समये पण बदलो न करे, तेम बीजा साधु पासे जइने आचं वोलवू पण नहि-के हे आयुष्यमन् ! श्रमण ! तुं आवा वस्त्रने पहेरवा के वापरवा इच्छे छे के ? पण ते वस्त्र जो कोइ क Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चीजो साधु कारण प्रसंगे एकलो जवा इच्छतो होय तो तेने ते वस्त्र आपy, कदाच ते वस्त्र जो जीर्ण थइ गयेलं होय, तो तेना आचा०६झीणा झीणा टुकळा करीने परठवी देवू, पण फाटेला वस्त्रने तेनो पूर्वनो स्वामी पहेरे नहि, पण ते बगाळनार साधुनेज पार्छ आपी 8 सत्रम देवू अथवा कोई एकलो जतो होय तो तेने आपी देवू, आ प्रमाणे घणां वस्त्र आश्रयी (बहुवचनमां पण) जाणी लेवु. ॥१०३४॥ वळी ते साधुने आवीरीते बस्त्र पार्छ मळ जोइ बीजो साधु तेवो लालचथी उपरनो विषय समजीने हुँ पण बीजार्नु वस्त्र ॥१०३४॥ ६ मुहूर्त माटे याचीने पांच दिवस सुधी वहार जइ वापरी आवीने बगाडी आयु के ते वस्त्र पछी मारुंज थइ जाय ! आ कपट छे, ४ + माटे साधुए तेवू न करवू. से भि० नो वण्णमंताई वत्थाई विवष्णाई करिज्जा विवण्णाईन वण्णमंताई करिज्जा, अन्न वा वत्थं लभिस्सामितिकटु नो अन्नम बस्स दिज्जा, नो पामिचं कुज्जा नो वत्थेण वत्थपरिणामं कुज्जा, नो परं उवसंकमितु एवं वदेज्जा-आउसो० ! समभिकंखसि मे वयं धारित्तए वा परिहरित्तए. वा ?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिदृविज्जा, जहा मेयं वत्थं पाचगं परो मन्नइ, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वथस्स नियाणाय नो तेर्सि भीओ उम्मग्गेणं, गच्छिज्जा, जाव अप्पुसमुए, तओ संजियामेव गामाणुगाम इज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा. गामणुगामं दृइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे अमोसगा वत्थपडिवाए सर्पिडिया गच्छेज्जा, णो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा जाव गामा० दुइज्जेज्जा ॥ से भि० दुइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं ' वदेज्जा-आउस ! अहारेयं वत्यं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए णाणत्तं वत्थपडियाए, एयं खलु० सया जइज्जासि CSCREOGRESSROSROSESSESSES Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R 9CC आचा ECRC p ॥१०३५॥ ॥१०३५॥ n --- - (मू०१५१)त्तिबेमि वत्थेसणा.समना ।।.२-१-५-२' . ते भिक्षु रंगवाला वस्त्र कारण विशेषथी लीधां होप, तो चोर विगेरेना भयथी रंग विनानां न बनावे, उत्सर्गथी तो एज अधिकार छे के तेवां बस्त्र लेवांज नहि अने लीधां होय तो. तेने. रंग उतरवाप्रयत्न न करवो, अथवा वर्ण (खराब रंगनां) होय तो सारा रंगवाळां बनाववां नहि. अथवा आ सादा वस्त्रने बदले सारु मेळवीश, एवी इच्छाथी बीजाने आपी देवु नहि, तेम प्रामित्य करवु नहि, तथा वस्त्रथी वस्त्रनु परिणाम करवू नहि, तेम बीजा पासे जइने एवं बोलवू नहि, के हे आयुष्यमन् ! आ मारुं वस्त्र ओढवा पहेरवाने तुं इच्छे छे ? अथवा सारु होय तो टुकडा करीने फेंको देवू नहि, के जेथी मारु वस्त्र वीजो गृहस्थ एम जाणे के ए खराब हतुं (माटे फेकी दीधुं छे) वळी मार्गमां चोरना भयथी वस्त्रना रक्षण माटे उन्मार्गे डरीने न जाय तथा दोडवानी उत्सुकता राखवा विना इर्यासमिति | पाळतो जाय अने गाम गाम विहार करे. वळी रस्तामा जतां उजड मेदान जाणे, ज्या वस्त्र लुटनारा बहु चोरो वसता होय, तो तेमना डरथी पण उन्मार्गे न जाय, पण यतनाथी विहार करे, कदाच ते रस्ते जतां चोरो आवे. अने वस्त्र मागे, अथवा लुटी ले, तो शांतिथी उपदेश आपको. न माने तो बाजुए परठवी देवु अने फरी उपदेश देतां आपे तो लेवं, पण कोइने कहेवू नहि, तेम चोरने पकडवा नहि, वगेरे वर्षा पूर्व माफक जाणवु पांचमुं अध्ययन समाप्त थयुं. - - - - -- -- Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०३६॥ पात्राएषणा नामर्नु छटुं अध्ययन. पांचमुं कहीने हवे छठे अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. प्रथम अध्ययनमां पिंडविधि बतावी, ते आगममां कहेल सूत्रम् विधिए वसतिमा आवीने वापर, माटे वीजामां वसतिनी विधि बतावी, ते शोधवा माटे त्रीजामा इर्यासमिति कही, पिंडैपणाम नीकळेलाए केवी भाषा वापरवी, तेथी भाषामिति कही, अने ते पडेला विना पिंड न लेवाय माटे पांचमामां वस्त्रएपणा कही, ते । ॥१०३६॥ पिंडने पात्र विना लेवाय नहि, माटे आ संबंधवडे पात्र एवणा अध्ययन आव्यु, एना चार अनुयोगद्वारा थाय छे, तेमां नाम निष्पन्न निक्षेपामां पात्रएपणा अध्ययन छे, एनो निक्षेपो अर्थाधिकार एना पूर्वना अध्ययनमांज टुंकाणमां बताववा माटे नियुक्तिकारे कहेलो छे, सूत्रानुगममा अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र उच्चार, जोइए ते आ छे. से भिक्खू वा अभिकंखिज्जा पायं एसित्तए, से जं पुण पादं जाणिज्जा, तजहा-अलाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे जाव थिरसघयणे से एगं पायं धारिज्जा नो विइयं ॥ से भि० परं अद्धजोयणमेराए पायपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए ॥ से भि० से जं अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुदिस्स पाणाई ४ जहा पिंडेषणाए चत्वारि आलावगा, पंचमे बहवे समण पगणिय २ तहेव ॥ से भिक्खू वा०. अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे समणमाहणे० वत्थेसणाऽऽलावओ ॥ से भिक्खू वा० से जाइं पुण पायाइं जाणिज्जा विरुवरुवाई महद्धणमुल्लाई, त०अयपा याणि वा तउपाया० तंबपाया० सीसगपा० हिण्णपा० सुवण्णपा० रीरिअपाया हारपुडपा० मणिकायकंसपाया० Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঘি १०३७॥ सूत्रम् १०३७॥ संखसिंगपा० दंतपा० चेलपा० सेलपा० चम्मपा० अभयराई वा नह० विरुवरुवाई महदणमुल्लाई पायाई अफामुयाई नो० ॥ से भि० से जाई पुण पाया० विरूव. महद्धणबंधणाई, तं०-अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अन्नयराई तहप्प० महद्धणबंधणाई अफानो प० । इच्चेयाई आयतणाई उवाइ कम्म अह भिक्खू जाणिज्जा' चउहि पडिमाहि पायं एसित्तए तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खु० उद्दिसिय २ पायं जाइजाः तंजहा-अलाउयपायं वा ३ तहक पायं सयं वा णं जाइज्जा जाव पडि० पढमा पडिमा १। अहावरा० से० पेहाए पायं जाइज्जा, तं०-गाहावई वा कम्मकरौं वा से पुवामेव आलोइजा, आउ० भ० ! दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं पादं तं०-लाउपायं वा ३, तह० पायं सयं वा पडि०, दुच्चा पडिमा २ । अहा० से भि० से जं पुण पायं जाणिज्जा संगइयं वा वेजइयंतियं वा तहप्प० पायं संयं वा जाव पडि०, तच्चा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा-से भि० उज्झियधम्मियं जाएजा जावऽन्ने बहवे समणा जाव नावकखंति तह० जाएज्जा जाव पडि०, चउत्था पडिमा ४ । इच्चेझ्याणं चउण्हं पडिमाणं अनयरं पडिम जहा पिंडेसणाए से णं एयाए एसणाए एसमाणं पामित्ता परो वइज्जा, आउ० स० ! एज्जासि तुमं मासेण वा जहा. वत्सणाए से णं परो नेता व०-आ० भ० ! आहारेयं पाय तिल्लेण वा०प० । नव० वसाए वा अन्भंगित्ता वा तहेव सीओदगाई कंदाई तहेव ॥ से णं परो ने०-आउ० स० ! मुहुत्तगं २ जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उवकरेसु वा उवक्खडेसु वा, तो ते वयं आउसो० ! सपाणं सभोयणं पडिग्गरं दाहामो तुच्छए पडिग्गहे दिने समणस्स नो मुह साहु भवइ, से पुवामेव आलोइज्जा- आउ० भइ० ! नो खलु मे कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा०, मा उपकरेहि मा FORSE0%ARSA Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्खडेहि, अभिकखसि मे दाउ एमेव दलयाहि से सेवं वयंतस्स परो असणं वा.४ उपकरिता उवक्खडित्ता सपाणं आचा सभोयणं पडिग्गहगं दलइज्जा तह. पडिग्गहगं अफासु जाव नो पड़िगाहिज्जा ।। सिया से परो उपणिचा. पडिग्गहगं निसिरिज्जा, से पुव्यामे० आउ० भ० ! तुमं चेत्रणं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिलेहिस्सामि, केवली. आयाण, । सूत्रम् ॥१०३८॥ अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बीया० हरि०, अह भिक्खूणं पु० जं पुवामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडि० सअंडाई सब्वे ॥१०३८॥ आलावगा माणियव्या जहा बत्थेसणाए, नाणचं तिल्लेण वा घय० नव० वसाए वा मिणाणादि जाव अनयरंसि वा तहप्पगा. थंडिलसि पडिलेहिय २ पम०२ तओ. संज२ आमज्ज़िज्जा, एवं खलु० सया जएज्जा (मू० १५२) त्तिबेमि ।। २-१-६-१ ते भिक्षु पात्र शोधवानी इच्छा करे, तो आ प्रमाणे प्रथम जाणे, के आ प्रमाणे पात्रां छे, तुंबडानां पात्र छे, लाकडाना पात्र छे, माटीनां पात्र छे, आमांथी कोइपण जातिनां पात्रां ( मुख्यत्वे लाकडानां) होय, तो तरुण अने स्थिर संघयवाळो बळवान साधु होय तो एक पात्र धारण करे, पण बे नहि, आ जिनकल्पी विगेरेने माटे छे, पण स्थविरकल्पी. जुवान विगेरे शक्तिवान होय तोपण 18. मात्र क सहित चीजें पात्रं धारण करे, तेमां संघाळामा रहेला साधुने एकमां आहार अने चीजामां पाणी लेवा काम लागे, अथवा आचार्य विगेरे माटे अशुद्ध वस्तु (मात्रु विगेरे) लेवा काम लागे. पोताना रहेवाना स्थानथी जरुर पडतां वे गाउ सुधो पात्रां लेवा। * जाय, पण वधारे नहि हवे ते गृहस्थ एक साधु घगी साध्वी एक साधु एक साध्वी, घणा साधु एक साध्वी, घणा साधु घणी। साध्वीने उद्देशीने आरंभ करीने जो पात्रां तैगर कर्या होय ते साधु साध्वीने सदोष होवाथी न कल्पे, पण जो श्रमण, माहण, 3 CANC%C4-AR.C+984%CE%252- कल्पी विगेरेना ) होय, तोतुंबडानां पार . . ' Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०३९ ॥ | गामना भिखारी विगेरेने उद्देशीने बनावेलां होय तो पुरुषांतर थया पछी कल्पे, आ वधुं पिंडेपणामां बताव्या प्रमाणे जाणी लेखूं, - वळी ते भिक्षु एवी जातिनां जुदाजुदा रंगनां भारे मूल्यनां पात्रा जागे ते न ले, ते बतावे छे. लोहानां तथा तृपु (कलाइना जेवी धातु ) नां पात्रां, तांबाना पातरां, सीसानां, हिरण्य (चांदी) नां, सोनानां पातरां रीरिय हापुड़ (वीजी जातिना लोढां ) नां, मणिरत्ननां जडेलां के कांसानां प्रातरां संखसिंग हाथीदांत चेल सेल चामडानां तेवां वीजां कोइ पण जातिनां भारे मूल्यंनां पातरां शोभीतां होय तो ते अपामुक जाणीने लेवां नहि. तेज प्रमाणे पातरानां बंधन उपर बताव्या प्रमाणे भारे मूल्यनां लोढाथी ते चामडा सुधीनां होय ते न लेवां, (प्रासुक होय छतां पण भारे मूल्यनां होवाथी ममत्व थाय छे. > तथा चोरवाना कारणे असमाधि थाय, माटे साधुने तेवां पात्र तथा पात्र बंधननी मना " आ प्रमाणे पापस्थान निवारीने चार प्रतिमाओथी पात्रां शोधे. (१) अमुक पाठुंज तुंबानुं, लाकडानुं के माटीनुं लइश, (२) देखेलुंज पातरुं याचीस (३) सगतिक ते पोते ते पात्राने वापर होय तथा वेज्जयंतियं-ते वे ऋण पात्रामां पर्यायवडे वापर्य होय ते. | याचे (४) कोइ पण तेने न चाहे, ते पोते ले. आ प्रमाणे चार प्रतिज्ञामांनी कोइ पण प्रतिज्ञाए साधु पातरां शोधवा जाय त्यारे गृहस्थ कहे के हे साधु ! तमे पातरां लेवा एकमास पछी आवजो, पातरां तमने आपीश त्यारे साधुए कहेतुं के तेवु मुदत करेलां पात्रां न कल्पे, त्यारे वस्त्र एषणामां बता व्या प्रमाणे ओछी मुदतनो वायदो करे, त्यारे पण तेज उत्तर आपको, ते वे घडीनी मुदत सुधीनो पण वायदोन स्वीकारवी, त्यारे कहे, 'के आपणे आपणा माटे नवां बनावी तैयार तेमने आपी दो, आवुं घणी पोते पोताना घरना माणसोने-वेन दीकरीने' सूत्रम् |॥१०३९॥ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कहे त्यारे पण साधुए ना पाडवी., आचा० बळी गृहस्थ पोतानी वेन विगेरेने कहे के कोरुं पातरुं न ओप, पण ते पात्राने तेल घी माखण छासवडे घसीने आप, तथा * पाणीथी धोइने अथवा काचु पणी के कंद विगेरे खाली करीने आप, अथवा कहे के हे साधु ! तमे बे घडी पछी फरीने आवो, तो 2 73/ सूत्रमू ॥१०४०॥ अमे अशनपान खादिम स्वादिम तैयार करीए छीए, अथवा संस्कारवाळु बनावीए छीए, तेथी हे आयुष्मन् ! हे साधु ! तमने / ॥१०४०॥ ६ भोजन पाणी सहित पातरां आपीशुं, एकला खाली पात्रां साधुने आपवाथी शोभा न वधे. आ सांभळीने साधुए कहेवु के हे भव्या। त्मन ! अमने अमारा माटे बनावेलु के वधारे रांधेलं भोजन पाणी खावा पीवाने काम लागतुं नथी, माटे तैयार न करो, न संस्कार रवाळु बनावो, जो पात्रां आपवानी इच्छा होय, तो एमने एमज आपो. ४ आq कहेवा छतां गृहस्थ हठ करी साधु माटे रांधीने के संस्कारी बनावीने पात्रां भरी आपवा मांडे तो अप्रासुक जाणीने 8 साधुए लेवां नहि, कदाच एमने एम पात्रां बहार लावीने मुके, तो तेने कहेवू के हे गृहस्थ ! हुं तमारा देखतांज आ पात्रां देखी है। लउं के तेनी अंदर नानां जंतुओ के बीज के वनस्पति होय तो केवळो प्रभु तेमां दोष बतावे छे, माटे साधुए प्रथम जोइ लेवां, अने जंतु विगेरेथी संयुक्त होय तो ते जीवो दूर करी शकाय तेम न होय तो अमासुक जाणीने पात्रां लेवां नहि, पण जो तेवां जंतु विगेरे न होय तो लेवां, (ते बधुं वस्त्रएषणा माफक जाणी लेवू ) आमां विशेष एटलं छे के तेल घी नवनीत के वसा (छाश) थी धोइने ते चीकटवाळु पात्रांनुं धोवण कोइ अचीच जग्या जोइने पडिलेही प्रमार्जीने परठवे, आज साधुनी साधुता छे के जयणाथी दरेक कार्य करे. CRECROCCASCARROCCA-00PMCE Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा १०४१॥ बीजो उद्देशो. पहेला उद्देशा साथे आनो संबंध आ छे, के गया सूत्रमा पात्रांनुं जो, बताव्यु, अने अहीं पण तेनुज बाकी- बनावे छे, सूत्रम् आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं मूत्र छे. ॥१०४१॥ से भिक्खू वा २ गाहावइकुलं पिंड० पविढे समाणे पुवामेव पेहाए पडिग्गहगं अव? पाणे पमज्जिय रयं तओ सं० गाहावई० पिंड निक्ख० ५० ५०, केवली०, आउ० ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरि० परियावज्जिज्जा, अह भिक्खूणं पु० पुवामेव पेहाए पडिग्गहं अवद्ध पाणे पमज्जिय रय तो सं० गाहावइ. निक्खमिज्ज वा २॥ ते भिक्षु गृहस्थना घरमां गोचरी लेवां जतां पहेलां बरोबर रीते पात्रां तपासे, अने गोचरी लेतां पहेलां पण तपासे, अनेक कीडी विगेरे प्राणी चडेलु जोए तो तेने संभाळीने वाजुए मुके, तथा रज पूंजीने साधु गृहस्थना घरमा पेसे, अथवा नीकळे, तेथी। आपणा पात्रांनीज विधि छे, कारण के अहीं पण प्रथम पात्रां वरावर तपासीने पूंजीने पिंड लेवो, तेथी ते पण पात्रां संबंधीज 8 विचार छे, प्र०-पात्रां शामाटे पंजीने गोचरी लेवी ? उ-केवळी प्रभु पात्रां पूंज्या विना गोचरी लेतां कर्मबंध बतावे छे, ते । आ प्रमाणे छे. पात्रामां बेइंद्रिय विगेरे जीवो चडी जाय छे, अथवा बीजो अथवा रज होय तेवां पात्रामां गोचरी लेतां कर्मर्नु उपादान थाय छे, माटेज साधुओने आ प्रतिज्ञा विगेरे पूर्व बतावेल छे के, प्रथम पात्रां देखीने जीव जंतु के रज होय तो दूर करीने गृहस्थना AAAA-% 87 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 घरमां जवु आवg. बळी- . आचा०४ से भि. जोव समणे सिया से परो आहई अंतो, पडिग्ग्रहगंसि सीओदगं परिभाइत्ता नीही दलइज्जा, तहप्प० पडिग्गहगं सूत्रम परहत्थंसि वा परिपायंसि वा अफासुय जाव नो प०, से य आहच पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिज्जा, ॥१०४२॥ से पडिग्गहमायाए पाणं परिदृविज्जा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिज्जा । से० उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा पडिग्गई नो १०४२॥ आमज्जिज्ज वा २अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहें तह० पडिग्गहं तओ० सं०. आमज्जिज्ज वा जाव पायाविज वा से मि० गाहा. पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा. पिंड. पविसिज्ज वा नि० एवं बहिया विहाभूरमी वा गामा० दुइज्जिज्जा, तिव्वदेसीयाए जहा विइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिग्गहे, एवं एलु तस्स० नं सबढेहि सहिए सया जएजासि (सू० १५४ ) तिबेमि ॥ पाएसणा सम्मत्ता ॥२-१-६-२। ज्यारे ते भिक्षु गृहस्थना घरमा गोचरी पाणी.माटे गयेलो होय, ते समये पाणी यांचतां कदाच ते गृहस्थ भूलथी अथवा द्वेष | * बुद्धिथी अथवा भक्तिना कारणे अथवा विमर्प पाणाथी घरमां रहीने बीजा पात्रांमां के पोताना वासणा थंडं पाणी जुदु लइने बहार काढीने वहोरावे, ते समये ते, काचं पाणी पारका (गृहस्थ) ना हाथमां के वासणमां जाणे तो अप्रासुक जाणीने न ले, पण कदाच भूलथी के ओचीतु गृहस्थे नांखी दी, होय तो तेज समये पाणी आपनार गृहस्थना वासणमांज पार्छ नांखी देवू, पण कदाच ते न ले तो, कुवा विगेरेमा ज्यां ते जातीनुं पाणी होय त्यां परठववानी विधिए परठवचं, पण तेवा पाणीनो अभाव होय 2 अथवा दूर होय तो ज्यां छाया होय के खाडो होय त्यां परठवg अथवा जो बीजो घडो होय, तो ते घडो के पाणीनुं वासण कोइने || Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाज्यां बाधा न थाय त्यां- ते घडो पाणी सुधांज मकी दे. पण पाणी पछि आप्या पछी के खाली कर्या पछी तेने जलदी मुकाववा | आचालूसवो नहि, पण पाणी नीतर्या पछी थोडो सुकांतां तडके मुकंवों के लूंछी 'नांखवो.. सूत्रम् ।१०४३॥ वळी गृहस्थना घरमां गोचरी पाणी लेवा जतां पोतानां बीजां पात्रों साथे लइ जा, तेज प्रमाणे परगाम विहार करतां भणवा ] ॥१०४३॥ जता स्थंडिल जतां पोतानां पात्रां साथे लइ जवां ए वधु वस्त्र एसणा माफक जाणवू, पण फक्त अहीं पात्रां संबंधी जाणवू. विशेष ए ध्यानमा राखवं, के वरसाद के झाकळ पडतुं होय तो पात्रां साथें न जवू. आज साधुनी सर्व सामग्री छे के हमेशा यतनाथी वर्तवू. इति पात्र एषणा. छटुं अध्ययन समाप्त थयु. 58064080-4624 ROSASESSACROST-9 * : सातमुं अध्ययन अवग्रह प्रतिमा.. छठं अध्ययन कहीने सातमु कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, पिंड शय्या वस्त्र पात्र विगेरेनी एपणाओ अवग्रहने आश्रयी थाय छे, तेथी आवा संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोग द्वारा कहेवा जोइये, तेमां उपक्रमनी अंदर रहेल अर्थाधिकार आ छे, के साधुए आ प्रमाणे विशुद्ध अवग्रह लेवो, नामनिष्पन्न नियेपामां 'अवग्रह प्रतिमा' एवं नाम छे, तेमां अवग्रहना नाम स्थापना निक्षेपा सुगम होवाथी छोडीने द्रव्य विगेरे चार प्रकारनो निक्षेपो नियुक्तिकार बतावे हे. ** NER Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् १०४॥ दव्वे खित्ते काले भावेऽवि य उग्गहो चउद्धा उ । देविंद १ रायउग्गह २ गिहवइ ३ सागरिय ४ साहम्मी ॥ ३१६ ।। आचा०४ . द्रव्य अवग्रह क्षेत्र अवग्रह काळ अवग्रह अने भाव अवग्रह एम चार प्रकारनो अवग्रह छे. अवग्रहनुं वर्णन ॥१०४४॥ • अथवा सामान्यथी पांच प्रकारनो अवग्रह छे. (१) देवेंद्रनो अवग्रह-ते लोकना मध्य भागमा रहेल मेरु पर्वतना रुचक प्रदेशथी दक्षिणना अर्ध भागमा रहेल जग्यानो. ६ (२) राजा-ते चक्रवर्ती महाराजा के बादशाहनो भरत विगेरे क्षेत्र आश्रयी जे जग्या तेना वंशमां होय तेमां साधु विचरे ते. (३) गृहपति-ते गामडामा रहेनार महत्तर (पटेल) विगेरेनी पासे गामना महेल्ला विगेरेनो अवग्रह. (४) शय्यातर (घरधणी) नो 5 तेनी खाली पडेली घंधशाळा विगेरेमां ज्यां साधु उतरे छे, ते (५) साधर्मिक ते साधुओ-जेओ मास कल्पवडे त्यां रह्या होय 8 ६ तेओनी पासे तेमनी मागेली जग्यामा उतरवू ते वसति विगेरेनो अवग्रह । जोजन छे, (बने दिशामा २-२॥ गाउ जतां) चारे । है दिशामां जाय, आ प्रमाणे पांच प्रकारनो अवग्रह वसति विगेरे लेतां यशवसरे अनुज्ञा लेवा योग्य छे. हवे प्रथम बतावेल . द्रव्यादि अवग्रह बताववा कहे - . दव्वुग्गहो उ तिविहो सचित्ताचित्तमीसओ वेव । खित्तु गहोवि तिविहो दुविहो कालुग्गहो होइ ॥ ३१७॥ है द्रव्यनो अवग्रह त्रण प्रकारनो छे. शिष्य विगेरेनो सचित्त छे, रजोधरण विगेरेनो अचित्त अने शिष्य रजोहरण विगेरे साथे में र स्वीकारतां मिश्र अवग्रह छे, क्षेत्र अवग्रह पण सचित्त विगेरे त्रण प्रकारनोज छे,अथवा गाम नगर अरण्य भेदथी त्रण प्रकारनो छे, ACANCE Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल अवग्रह ऋतुबद्ध (आठमास) तथा वर्षाकाळ (चारमास) नो अवग्रह एम बे भेदे छेआचा० हवे भाव 'अवग्रह बतावें छे सूत्रम् • मइउग्गहो य गहणुग्गहो य भावुग्गहो दुहा होइ । इंदिय नोइंदिय अत्थवंजणे उग्गहो दसहा ॥ ३१८ ॥ ॥१०४५॥ भाव अवग्रह चे प्रकारनो छे, मति अवग्रह अने ग्रहण अवग्रह छे, तेमां मति अवग्रह पण बे पकारनो छे, अर्थावग्रह अने 6॥१०४५॥ व्यंजन अवग्रह छे, तेमां अर्थावग्रह इंद्रिय तथा नोइंद्रिय (मन) ना भेदथी छ प्रकारनो छे, अने व्यंजन अवग्रह चक्षु इंद्रिय अने मन छोडीने बाकी चार इंद्रियोनो अवग्रह छे, ते बधाए भेदवाळो दस प्रकारनो मतिभाव अपग्रह ( मतिवडे पदार्थोनो जे समान्य वोध || समजाय ते ) छे, हवे ग्रहण अवग्रह बतावे छे गहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणाभो । कह पाडिहारियाऽपाडिहारिए होइ ? जइयव्वं ॥ ३१९ ॥ ___अपरिग्रहवाळो ते मुनि छे, तेने ज्यारे पिंड गोचरी वसति [स्थान] वस्त्र पातरां लेवानो विचार थाय, त्यारे ते ग्रहण भाव अवग्रह छे. ते वखते साधुने एवी बुद्धि होवी जोइए के केवी रीते ते वसति विगेरे मने शुद्ध मळी शके ? तथा प्रातिहारिक पार्छ अपाय ते पाट पाटला विगेरे अप्रतिहारक ( पार्छ न अपाय ते गोचरी विगेरे ) मने शुद्ध मळे तेमां यत्न करवो, अने प्रथम 4. Real पांच प्रकारनो इंद्र विगेरेनो अवग्रह बताव्यो ते आ ग्रहण अवग्रहमां समजवो. आ प्रमाणे नाम निष्पन्न निक्षेपो थयो, हवे सूत्रानुगममां मूत्र कहे छे समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते ! अपमू परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुहाए सव्वं भंते ! SSSSSSSSSS DRESECRECRA-NCR-7-x Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार- अदिनादाणं पचक्खामि, से अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहागि वा नेव मयं अदिन्नं गिण्डिज्जा नेवऽन्नेहिं अदिन्नं आचा० गिण्हाविज्जा अदिन्नं गिहंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जेहिचि सद्धि संपन्चइए तेसिपि जाई छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा तेसिं पुवामेव उग्गहं अणणुनविय अपडिलेहिय २ अपमज्जिय २ नो उग्गिण्हिज्जा वा परिगिण्हिज्ज वा, तेर्सि | सूत्रमू ॥१०४६॥ पुवामेव उग्गहं जाइज्जा अणुनविय पडिलेहिय पमज्जिय तओ सं० उग्गिहिज्ज वा प०॥ (मू०१५५) . ॥१०४६॥ श्रम सहन करे ते श्रमण [तपस्वी छे, ते हं आवी रीते चन, एम साधु विचारे ते कहे छे, 'अनगार' अग ते वृक्ष के, है तेनाथी जे बेने ते अगार [घर] छे, ते जेने न होय ते अनंगार अर्थात घरनो फांसो (ममत्व) जेणे छोड्यो होय, ते छे, 'अकिंचन' जेनी पासे कइपण न होय ते अर्थात् निष्परिग्रह छे तथा 'अपुत्र' ते स्वजन बंधु रहित अर्थात् निर्मम छे एज प्रमाणे 'अपुश' ते 2 वे पगवाळां चार पगवानां विगेरेथी रहिन छे, तथा परदत्तभोजी (गोचरी लावी खानारो) हुँ बनीने पाप कर्म करीश नहि, आ प्रमाणे दीक्षा लइने पछी आवी प्रतिज्ञावाळो थाय ते बतावे छे, शिष्य गुरुने कहे छे. हे गुरु ! हुं सर्वथा अदनादाननुं पञ्चक्खण है करुं छु. अर्थात् दांत शोधवा [खोतरवा] माटे जोइती सळी के तणखलं पण पारकाए नहि आपेलं नहि लढ18 अवां विशेषणो श्रमणनां लेवाथी बौध बावा विगेरेमी श्रमणपणु बहारथी नाम मात्र होवा छतां गुणोना अभावे तेमनामां8 श्रमणपणुं ली, नथी, पण उपर बतावेल अदत्तादा न त्याग करनार जैन साधुज श्रमण छे. + एवो अकिंचण साधु गाम अथवा राजधानीमा जइने पोते अदत्त ग्रहण न करे, न बीजा पासे लेवडावे, अने बीजा ग्रहण करनारनी प्रशंसा न करे, वळी जे साधुओ साथे पोते दीक्षा लीधी होय अथवा उतरेल होय तेओनां उपकरण पण तेमनी आज्ञा TECTESGROSSAGESK Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FRORS विना ले नहि ते बतावे छे,. . आचा० . छत्र ते माथा- ढांकणुं वरसादमा स्थंडिल जती माथा उपर वर्षाकल्प (कोबळी) विगेरे नांखे ते छत्रक छे, अथवा कुंकण । देश विगेरेमां घणो वरसाद पडे छे, तेवा देशमां कारण प्रसंगे छत्री वापरवांनी आज्ञा छे, ते छत्र ले, होय अथवा चर्म छेदनक ॥१०४७॥ विगेरे कोइ पण चीज विना पूछे ले नहि, एक वार पण न ले, अनेकवार पण ले नहि. ॥१०४७॥ । साथेना साधुओनी वस्तुं लेवानी विधिप्रथम जेनी वस्तु होय तेने पूछी लेवु, अने पछी आँखेयी जोइने अने रजोहरण विगेरेथी पूंजीने एकबार के अनेकवार ले | से भि० आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गहं जाईज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तथं समट्टिए ते उग्गई अणुनविजा-काम खलु आउसो० ! अहालंदं अहापरिन्नायं वसामो जांव आउसों ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइतावं उग्गई , उग्गिण्डिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामों ।। से किं पुणं तत्वोंग्गहंसि एवोग्गहियसि जें तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना उवागच्छिना जे तेण ' सयमेसित्तए असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उवनिमंतिजा, नो चेव णं परवडियाए ओगिज्मय २ उवनि०॥ (मू० १५६) ' ' ते मुनि मुसाफरखानामा प्रवेश करीने अने विचार करीने यतिने योग्य क्षेत्र जोइने साधुभोने जोइए तेटली वसति विगेरेनो | " . ' अवग्रह याचे, कोनी पासे याचq ते कहे छे, जे घरनो मालिक होय अथवा मालिके जेने त्यां काम करवा राख्यो होय तेमनी पासे | ४ जइने क्षेत्र अवग्रह याचे, केवी रीते ? ते वतावे छे, साधु मालिंक होयं अथवा नेना गुमास्ता विगेरेने उद्देशीने कहे, हे आयुग्मन् ! ACESSE SISSE Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तमारी इच्छा प्रमाणे तमे जेटलो काळ आज्ञा, आपो, जेटली जग्या वापरवा आपो, ते प्रमाणे अमे अहीं रहीए, एटले हे गृहस्थ तमे जेटली जग्या वापग्वा आपशो, तेटलो समय अमे तथा अमारा साधुओ आ जग्या वापरशुं, तेथी आगळ (पछी) विहार करीशुं, आचा० म पछी मालिके ते मकानमा उतरवानी जग्या आप्या पछी साधुएं शुं कर, ते कहे छे. ते जग्याए केटलाएक परोणा साधुओ ॥१०४८॥ एक समाचारी आचरनारा उद्युक्त विहारी आवे, तेमने पूर्वना मोक्षाभिलाषी साधुए उतरवा देवा, तथा विहार करता पोतानी ॥१०४८॥ ₹ मेळे त्यां तेवा उत्तम साधुओ आव्या होय तेमने अशन पान विगेरे चारे आहार लावीने तेमनी इच्छानुसार लेवा पार्थाना करवी || के आ हु आहार विगेरे लाव्यो छु, आपनी इच्छा प्रमाणे लइने मारा उपर अनुग्रह करो. पण बीजा साधुना लावेला आहारनी | परभारी निमंत्रणा पोते न करे, पण पोते जाते लावीने तेमनी इच्छानुसार आपे. से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिा अन्नसंभोइआ समणुन्ना उवाग- ' च्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उवनिमंतिज्जा नो चेवणं परवडियाए ओगिज्झिय उवनिमंतिज्जा ॥ से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्थुग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहा० पुत्ताणं वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अन्नमन्नस्स दिज्ज वा अणुपइज्ज वा, सयंकरणिज्जतिकटु, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कह भूमीए वा ठवित्ता इमं खलु २ ति आलोइज्जा, नो चेवणं सयं पाणिणा परपाणिसि पञ्चप्पिणिज्जा ।। (सू० १५७) -CICROCROREOGRUECRECARE Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To ROSTEOSEA G॥१०४९॥ टीकाकारे आ सूत्रनो. अर्थ पूर्व माफक होवाथी विशेष लख्यो नथी. ते साध मुसाफरखाना विगेरेमां उतरेलो होय त्यां बीजा उत्तम साधुओ आवे. पण जो तेमनी समाचारी जुदी.होय तो..गोचरीनो बहेवार न होवाथी फक्त पीठ फलक विगेरेनी निमंत्रणा करे, वळी ते घरमांथी घरधणी पासे के तेना पुत्र पासेथी कारण विशेषे मुइ अस्रो'कान खोतरणी अथवा नयणी पोताना 18 माटे याची होय, तो एके बीजाने आपवी नहि, तेम लेवी नहि, पण ज्यारे पोतानुं कार्य पूरूं थाय, त्यारे पोते जाते जइगे पोताना हाथमां हथेळीमां राखीने कहे के आ तमारी वस्तु सूइ विगेरे लो..पण जो ते स्त्री विगेरे होय तो जमीन उपर मुकीने कहेवू के आ तमारी वस्तु लो, पण साधुए गृहस्थ के स्त्रीने हाथोहाथ आपवी नहि (वखते लागी जाय) से भि० से जं० उग्गहं जाणिज्जा अणंतरहियाए पुढवी जाव “संताणए तह० उग्गई नो गिव्हिज्जा वा २ ॥ से मि० से ज पुण उग्गहं घृणंसि वा ४ तह. अंतलिक्खजाए दुवढे जाव नो उगिहिज्जा वा २॥ से भि० से ० कुलियसि वा ४ जाव नो उगिण्डिज्ज वा २॥ से मि० खंसि वा ४ अन्नयरे वा तह० जाव नो उग्गई उगिण्हिज्ज वा २। से भि० से जं. पुण० ससागारियं० सखुडुपसुभत्तपाणं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसे जाव धम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तह० उबस्सए ससागारिए० नो उवग्गई उगिहिज्जा वा २ ॥ से मि० से जं० गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेणं गतुं पंथें पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव सेवं न०॥ से भि० से जं. इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमनं अक्कोसंति . वा तहेव तिल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि निगिणाइ वा जहा सिज्जाए ओलावगा, नवरं उग्गहवतन्वया ॥ से भि० से जं. आइन्नसलिक्खे नो पन्नस्स. उगिहिज वा २, एयं खलु० ॥ (मू० १५८) उग्गहपडिमाए पढमो उद्देशो R C Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हा सूत्रमू साधुए अवग्रह लेता जो के ते सचित्त जंग्या न होय, तथा अधर जग्यो होय त्यां न उतरे, बाळक तथा पशुओने खावा पीवातुं अपातुं होय, तेवी जग्यामां धर्म ध्यान विगेरे पंडित पुरुषने न थाय, माटे तेवु मकान न याचवू तेमज ते मकानमा 'थइने जवानो रस्ता होय, अथवा घरनां माणसो नोकर-चाकर विगेरे त्यां लडतां होय तथा तेल मसळतां होय, तथा स्नान विगेरे ठंडा ॥१०५०॥ उना पाणीथी करतां होय, त्यां न उतरवू. आ वधु पूर्वे शय्याना अंगे कडं छे, ते प्रमाणे जाणवं, पण अहीं विषय वसति अवग्रह 8/ संबंधी जाणवो. इति प्रथम उद्देशः ॥१०५०॥ - CG-864-6 बीजो उद्देशो. पहेलो उद्देशो कहो, इवे बीजो कहे छे, नेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां अवग्रह बताव्यो अने अही पण तेज 18 बाकी रहेल कहे छे. तेनु आ मूत्र'छे. से आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गहं जारज्जा, जे तत्थ ईसरे० ते उग्गहं अणुनविज्जा काम खलु आउसो ! अहालंद 'अहापरिन्नायं वसामो जाव आउसो ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिाए ताव उम्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण ग वि० से कि पूण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण' वा माह० छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा तं नो Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ५१॥ अंतोहिंतो वाहि नीणिज्जा' वहियाओ वा नो अंतो पबिसिज्जा, सुत्तं वा नो' पडिवोहिज्जा, नो तेसिं किंचिवि अप्पत्तियं पणीयं करिज्जा | ( सू० १५९ ) ते साधु धर्मशाळा विगेरेमां उतरेलो होय, त्यां पूर्वे ब्राह्मण विगेरे ते गृहस्थनी रजा लड़ उतर्थो होय, तेज स्थानमां बीजी जग्याना अभावे उतर पडे, तो ते स्थानमां उतरेला ब्राह्मण विगेरेतुं छत्र विगेरे जे कंइ उपकरण होय, ते मकाननी अंदर पड होय तो बहार लइ जवुं नहि तेम बहारथी अंदर लावुं नहि, तेम सुतेला ब्राह्मग विगेरेने जगाडवा नहि, तेमज तेमना मनमां पण अमीति थाय तेम न करवुं तथा तेमनी साथै विरोधभाव पण न करवो. से भि० अभिकंखिज्जा अंवत्रणं उवागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे २ ते उग्गहं अणुजाणाविज्जा - कानं खलु जाव विहरिस्तामो, से किं पुण० एवोग्गद्दियंसि अह विक्खू इच्छिज्जा अंवं भुत्तए वा से जं पुण अंवं जाणिज्जा सअंडं ससंताणं तह० अंब अफा० नो प० ॥ से भि० से जं० अखंड अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिन्नं अन्वोच्छिन्नं अफामुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ॥ से भि० से जं० अप्पंडं वा जाव संताणगं तिरिच्छछिन्नं वुच्छिन्नं फा० पड़ि० ॥ से भि० अबभित्तंग वा अंबपेसियं वा अंवचोयगं वा अंबसालगं वा अंबडाल वा भुत्तर वा पायए वा, से ज० अंबभित्तगं वा ५ सअंडं भफा० नो पडि० || से भिक्खू वा २ से जं० अं वा अंबभित्तगं वा अप्पंडं० अतिरिच्छछिन्नं २ अफा० नो प० ॥ से जं० अंवडालगं वा अप्पंडे ५ तिरिच्छच्छिन्न बुच्छिन्नं फासूयं पडि० || से भि० अभिकंखिज्जा उच्छुवणं उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि० || अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छ्रं भुतए वा पा०. से जं० उच्छु जाणिज्जा सअंडं जाव नो L सूत्रम् ॥ १०५ ॥ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०, अतिरिच्छछिन्नं तहेव. तिरिच्छछिन्नेऽवि तहेव ॥ से भि. अभिकंखि० अंतरुच्छ्य चा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं आचा० वा उच्छुसा० उच्छुडा० भुत्तए वा पाय०, से जं० पु. अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा सअंडं नो प० ।। से भि० से जं० अंतरुच्छुयं वा० अप्पंडं वा० जाव पडि० अतिरिच्छच्छिन्न तहेव ॥ से भि० रहसणवणं उवागच्छिराए, तहेव तिन्निवि 15 सूत्रम् ॥१०५२॥ आलावगा, नवरं ल्हसुणं ॥ से भि० ल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्ह० चोयगं वा हसुणनालगं वा भुत्तए वा २ से जं० ॥१०५२॥ लसुणं वा जाव लसुणबीयं वा सअंडं जाव नो प० एवं अतिरिच्छच्छिन्नेऽवि तिरिच्छछिन्ने जाव प० ॥ (मु० १६०) ते भिक्षु कदाचित आम्र वनमां गृहस्थ पासे अवग्रह याचे, त्यां उतरीने कारण पडे आंबा (केरी) खावाने इच्छे, तो सडेला के कीडावाळा के करोळीयाना जाळांवाळा अमासुक होय ते लेवा नहि. तण आंवा इंडां विनाना अने सड्या विनाना' होय, पण जो तिरछा न छेधा होय तथा अखंडित होय, तो तेने अमासुक जाणीने लेवा नहि, पण जो कीडा विनाना तीरछा चीरेला अने प्रामुक (अचित्त) होय तो कारण पडे ले, तेज प्रमाणे (अंवभित्ति) अळयां फाडीयां, (अंबपेसी) आंबानां नानां फाडीयां (अंबचोयग) # आम्रछाल [सालग] रस, (डालग) केरीना. झीणा टुकडा होय ते अचित्त होय तो लेवा. . आ प्रमाणे इक्षु सूत्रना त्रणे आलावा लेवा तथा अंतरुच्छु पर्वना मध्य भाग लेवा, आ प्रमाणे लसणनां त्रणे सूत्र लेवां, आमां प्रजे वातो न समजाय ते निशीथ सूत्रना सोळमा उद्देशाथी जाणवी. . हवे अवग्रहना अभिग्रह संबंधी विशेष कहे छे. भि. आगंतारेसु वा ४ जावोग्गहियंसि जे तत्थ गाहबईण वा गाहा० पुत्ताण वा इच्चेयाई आयतणाई उवाइकम्म अह 4--4-CASE-CRECTC-% GENCCESCASSESSESSMESSREOSHESARIL AR Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSAGROCE सूत्रम् १०५३॥ भिक्खू जाणिज्जा, इमाहि सत्तहिं पडिमाहि उग्गहं उग्गिण्हित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से आगंतारेसु वा ४ आचा अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा जाव विहरिस्सामो पढमा पडिमा १। अहावरा जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसि भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अएणेसि भिक्खूणं उग्गहे उग्गहिए, उवल्लिसामि, दुच्चा पडिमा २। अहा॥१०५३॥ वरा० जस्स णं भि. अहं च. उग्गिहिस्सामि अन्नेसिं च उग्गहे उग्गहिए नो उवल्लिस्सामि, तच्चा पडिमा ३॥ अहावरा० जस्स णं भि० अहं च. ना उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अन्नेसिं च उग्गहे उग्गहिए उवल्लिस्सामि, चउत्था पडिमा ४। अहावरा० जस्स णं अहं च खलु अप्पणो अट्टाए उग्गहं च उ०, नो दुहं नो तिण्हं नो चउण्हं नो पंचण्हं पंचमा पडिमा ५/ अहावरा से भि० जस्स-एव उग्गहे उवल्लिइज्जा जे तत्थ अहासमन्नागए इकडे वा जाव पलाले तस्स लाभे संवसिज्जा तस्स अलाभे उकडुओ वा-नेसजिओ वा विहरिज्जा, छट्ठा पडिमा ६। अहावरा स० जे भि. अहासंथडमेव व उग्गह जाइज्जा, तंजहा-पुढविसिलं वा कसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे संते०, तस्स अलाभे उ० ने० विहरिज्जा, सत्तमा पडिमा ७ । इच्चेयासि सत्तण्हं पडिमाणं अन्नयरं जहा पिंडेसणाए ॥ (मू० १६१) ते साधु धर्मशाळा विगेरेमां अवग्रह मागीने उतर्या पछी त्यां रहेनारा गृहस्थो विगेरेना पूर्वे बतावेला दोषो त्यजीने तथा हवे पछी जे कर्म उपादानना कारणो बतावसे ते छोडीने अवग्रह लेवाने समजे. ते भिक्षु सात प्रतिमा [ अभिग्रह विशेष ] वडे अवग्रह ले, तेमां पहेली पडिमा आ छे के ते साधु धर्मशाळा विगेरेमा उतरवा 18/ पहेलां चितवी राखे के मारे आवो उपाश्रय मळे तोज उतरवq ते सिवाय नहि. .. S SE Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सूत्रम् "बीजा साधुने आवो अभिग्रह होय छे के हुं वीजा साधुओ माटे अवग्रह याचीश अथवा बीजाए याचेला अवग्रहमां रहीश. आचा० प्रथमनी प्रतिमामा सामान्य छे अने आ प्रतिमा तो गच्छमा रहेला उद्युक्त विहारीने होय, तेओ साथे गोचरी करता हाय है अथवा न पण करता होय-तो पण साथे उतरता होवाथी एक वीजा माटे वसति याचे छे. ॥१०५४॥ त्रीजी प्रतिमावाळो साधु एमो विचार करे के हुं पोते बीजाने माटे अवग्रह याचीश, पण वीजाना याचेलामां रहोश नहि. 5॥१०५४। आ प्रतिमा आहालंदिक साधुओने माटे छे. कारण के तेओ गच्छवासी आचार्य पासे सूत्र अर्थ भगता होवाथी आचार्य माटे में मकान याचे छे. . चोथी प्रतिमामां ए अभिग्रह छे. के हुं बीजाने माटे अवग्रह याचीश नहि. पण बीजाए मागेला अवग्रहमा रहोश, आ अभिग्रह 8 गच्छमां रहेला अभ्युदत विहारी गच्छमां रहीने जिनकल्ली थवाने माटेज अभ्यास करता होय नेमने माटे छे. पांचमी प्रतिमा आ प्रमाणे छे के हुँ पोतेना माटे अवग्रह याचीश, पण वीजा त्रण, चार, पांच माटे अवग्रह नहि याचु, आ जिनकल्पी थवाने माटे अभिग्रह छे. अवग्रह याचीश पण त्यांज उत्कट विगेरे संथारो लइश; नहि तो उत्कुटुक अथवा बेठेलो के उभेलो आखी रात पुरी करीश. आ छट्ठी प्रतिमा जिनकल्पी विगेरेने छे. * सातमी पनिमा उपर प्रमाणे छे के हुँ उपर बतावेल संथारो करवा शिलादिक विगेरे तैयार हशे तेज लइश. आमा विशेष एटलं छे के तैयार होय तोज ले, नहि तो बेठे बेठे के उभे उभे रात्री पुरी करे. आ पण जिनकल्पी विगेरेनी छे. . २.०८SC-CRENCELSSSSSR -55 Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवा० ॥१०५५॥ आसां प्रतिमा व नारा साधुओ जिनकल्पी विगेरे जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी यथाशक्ति पाळता' होवाथी वधारे पाळनारो होय ते पोताने उंचो न माने तेम बीजानी निंदा न करे. ए वधुं पिंडऐषणा माफक जाणवुं. सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं - इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे पन्नेत्ते, तं०- देविंद उग्गहे १ राय उग्गहे २ गाहावइउग्गहे ३ सागारियउग्गहे ४ साहम्मिय उग० ५ एवं खलु तस्सा भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ( सू० १६२ ) उग्गहपडिमा सम्मत्ता | अध्ययनं समाप्तं सप्तमम् ।। २-१-७-२ ॥ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे के भगवान महावीरे आ उद्देशामां बतावेलो देवेंद्र विगेरेनो अवग्रह सारी रीते ममजीने साधुए पाळवो. (ए साधुनी साधुता हे) अवग्रह प्रतिमा नामनुं सातनुं अध्ययन समाप्त थयुं तथा आचारांगनी पहेली चूला समाप्त थर. सप्तसप्तकाख्या द्वितीया चूला । V पहेली चूलिकानां सात अध्ययन कह्यां हवे बीजी चूलिका कहे छे तेनो पहेली साथै आ प्रमाणे संबंध छे. गइ चूलामां वसतिनो अवग्रह बताव्यो, ते स्थानमां रहीने केवा स्थानमां कार्योत्सर्ग तथा स्वाध्याय उच्चार पेसाव विगेरे करवो ते अहींआ बतावे छे. आ चूलामां सात अध्ययन छे एवं निर्युक्तिकार बतावे छे. सत्तिक्कगाणि इक्कस्सरगाणि पुन्व भणियं तर्हि ठाणं । उद्धट्टाणे पगयं निसीहियाए तहिं छकं ॥ ३२० ॥ सात अध्ययनोमां बीजा उद्देशा नथी, माटे एक सरवाळा छे. तेमां पहेलुं अध्ययन स्थान नामनुं छे. तेनी व्याख्या अहीं करे छे. आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वार थाय छे, [ए पूर्वे बतावेल छे ] उपक्रममां अध्ययननो अर्थाधिकार आ छे, सूत्रम् ॥१०५५ ॥ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - के साधुए केवा स्थानमा आश्रय लेवो, नाम निप्पन्न निक्षेपामा स्थान ए नाम छे. 'एना नाम विगेरे चार निक्षेपा थाय छे, तेमां 81 आचा० अहीं द्रव्यने आश्रयी उद्धर्वस्थानवडे अधिकार छे. ते नियुक्तिकार कहे छे. उद्धर्वस्थानमा प्रस्ताव छे. बीर्जु अध्ययन निशीथिका । छे. तेनो छ प्रकारे निक्षेप छे, ते तेना 'स्थानमां' कहीशुं. हवे सूत्र कई छे. . ॥१०५६॥ से भिक्खू वा० अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसिज्जा गाम वा जाव रायहाणि वा, से जं पुण ठाणं जाणिज्जा ॥१०५६॥ सअंडं जाव मक्कडासंताणयं तं तह० ठाणं अफामुयं अणेस० लाभे संते नो १०, एवं सिज्जागमेण- नेयव्वं जाव उदयपमूयाइति ।। इच्चेयाई आयतणाई उवाइकम्म २ अह भिक्खू इच्छिज्जा चाहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा-अचिचं खलु उवसज्जिज्जा अवलंबिज्जा काएण विप्परिकम्माइ सवियारं ठाणं ठाइस्सामि पढमा पडिमा । अहावरा दुच्चा पडिमा- अचित्तं खलु उवसिज्जजेज्जा अवलंबिज्जा कारण विष्परिकम्माइ नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि । दुच्चा पडिमा। अहावरा तच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवस्सज्जेज्जा अवलंबिज्जा नो कारण विपरिकम्माईनो सवियारं ठाणं ठाइस्सामिति तच्चा पडिमा । अहावरा चउत्था पडिमा-अचित्रं खलु उवसज्जेजा नो अवलंबिज्जा कारण नो परकम्माई नो सवियारं ठाण ठाइस्सामित्ति वोसट्टकाए वोसहकेसमंसुलोमनहे संनिरुद्धं वा ठाणं दाइस्सामित्ति चउत्था पडिमा, इच्चेयासिं चउण्हं पडिमाणं जाव पग्गहियतरायं विहरिज्जा, नो किंचिवी वइज्जा, एवं खलु-तस्स०जावं जइजासि तिबेमि (सू० १६३) । ठाणासत्तिकयं सम्म ॥२-२-८॥ पूर्ववतावेलो साधु जो स्थानमा रहेवाने इच्छे, तो गाम विगेरेमा प्रवेश करे. त्यां इंडावाळं तथा करोळीयांना जाळावालं - - Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० १०५७॥ मकान जो अप्राकमळे, तो मळतुं होय तो पण न ले, तेज प्रमाणे बीजां सूत्रौ पण शय्या माफक समजी लेवां, ते ज्यां सुधी पाणी तथा कंदी व्याप्त होय तो पण ते लेवां नहिं, हवे प्रतिमाना उद्देशने आश्रयी कहे छे, एटले पूर्वे बतावेला दोपोवाळां तथा हवे पछी कहेवाता दोषोवाळां पण स्थानो छोडीने चार प्रतिमाओ वडे साधु रहेवा इच्छे, ते कारणभूत अभिग्रह विशेष चार प्रतिमाओ छे तेनुं स्वरुप अनुक्रमे बतावे छे. (१) कोई साधुने आवोज अभिग्रह होय के हुं अचित्त उपाश्रयनुं स्थान याचीश, तेज प्रमाणे कोइ अचित्त भींत विगेरेने कायावडे टेको लइश, वळी परिस्पंद करीश, एटले हाथपग विगेरेथी आकुंचन विगेरे करीश, [ लांबा पडोळा करीश, ] (२) बीजी प्रतिमामां विशेष आ छे, के आकुंचन प्रसारण तथा भींतनो टेको विगेरे लइश, पण पांद विहरण ( पगेथी चालवानुं ) मकानमां पण नहि करूं. (३) त्रीजीमां आकुंचन प्रसारण करे, पण पाद विहरण के टेको लेवानुं न करे. (४) लांबा पोळा हाथ विगेरे न वरे, तेम न चाले, न 'टेको' ले, पण ते कायानो मोह सर्वथा मुकनारो थाय, तथा वाळ दादी मूछ लो नख विगेरे पणं न हलावे. आवी रीते संपूर्ण कायोत्सर्ग करनारो मेरु पर्वत माफक निष्प्रकंप रहे, ते वखते जो कोइ आवीने तेना केश विगेरे खेंचे, तो पण स्थानथी चलायमान थाय नहि; आ चारमांनी कोइ पण प्रतिमा धारण करेलो बीजी प्रतिमा धारेलाने हलको न माने, तेम पोते अहंकारी न बने तेम एवं वचन पण न बोले, के हुं श्रेष्ट छु, बीजो उतरतो छे. आ प्रमाणे प्रथम अध्ययन समाप्त धयुं. सूत्रम् ॥१०५७॥ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० १०५८॥ निषीथिका - 'बीजुं अध्ययन' पहेलुं अध्ययन कहीने बीजुं कहे छे, तेनो सबंध आ छे के गया अध्ययनमां स्थान वतान्युं, ते केवुं दोय तो भगवाने योग्य थाय, अने ते स्वाध्याय भूमिमां शुं करनुं, शुं न करखूं, ते अहीं कहेशे. आ संबंधे आ अध्ययन आव्युं छे. एना चार अनुयोगद्वार थाय छे, नाम निष्पन्न निक्षेपमां "निपीथिका " एवं नाम छे, आ निपीथिकानो नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ भाव छ प्रकारे निक्षेपो छे, नाम स्थापना पूर्व माफक छे, द्रव्य निषीथनो आगमथी ज्ञशरीर भव्यशरीर छोडीने जे द्रव्य प्रच्छन्न (छानुं) होय ते छे, [टीकाना संशोधके टीपणामां लख्युं छे के निशीथ निपीध वंजेनुं प्राकृतमां एक 'निसीह' शब्द वडे बोलतं होवाथी एज प्रमाणे निक्षेपानुं वर्णन छे, तेज प्रमाणे निषीधिका निशीथिका वने नामनुं एकपणुं छे. क्षेत्र निपीथ ते 'ब्रह्मलोक' नामना देवलोकमां रिष्ट विमाननी पासे 'कृष्ण राजाओ' जे क्षेत्रमां छे, ते तथा जे क्षेत्रमां निपीयनुं वर्णन चाले ते काळनिषीय ते कृष्ण [ काळी अंधारी ] रात्रिओ अथवा जे काळे निपीयनुं वर्णन चाले, भावनिपीथ 'नो आगमथी' आ कहेवातुं सूत्र अध्ययनज छे, कारण के ते आगमनो एक देश छे, नाम निष्पन्न निक्षेपों पुरो थयो, इवे सूत्रानुगममां सूत्र कहे छे, ' सेभिक्खू वा २ अभि० निसीहिये फासूयं गमणाए, से पुण निसीहियं जाणिज्जा - सअंडं तह॰ अफा० नो चेइस्सामि ॥ से भिक्खू० अभिकंखेज्जा निसीडिय गमणाए, से पुण नि० अप्पपाणं अप्पचीयं जाव संताणयं तह० निसीहियं फासूयं . चेइस्सामि, एवं सिज्जागमेणं नेयन्त्रं जाव उदयप्पसूया ॥ जे तत्थ दुवरगा तिवग्गा चत्रग्गा पंचवरगा वा अभिसंधा सूत्रम् ॥१०५८॥ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -SAMACACCOR रिति निसीहिय गामणाए ते नो अन्नमनिस्स कायं आलिंगिज्ज वा विलिंगिज्ज वा छुविज्ज वा दंतेहिं वा नहेहि वा अच्छिदिज्ज वा वुच्छि०, एयं खलु० ज सव्वहिं सहिए समिए सया जएज्जा, सेयमिणं मभिज्जासि तिमि ।। सत्रम (सू० १६४) निसीहियासत्तिक्यं ॥२-२-९॥ । . ते उत्तम साधु रहेला स्थानमां अयोग्यताना कारणे बीजे स्थळे भणवानी जग्याए जवा इच्छे, तो त्यां इंडां वगेरे पड्यां ॥१०५९॥ "होय तो अप्रासुक जाणीने न जाय, पण इंडां विनानी फासु जग्या होय ते ग्रहण करे, आ प्रमाणे बीजां सूत्रो पण शय्या माफक समजवां ते पाणीथी उत्पन्न थयेलां कंद विगेरे पड्यां होय तो ते जग्याए पण भणवा न बेसे. त्या गया पछीनी विधि कहे छे-त्यां। गयेला बेत्रण के वधारे साधु होय तो परस्पर एकेकनी कायानो स्पर्श न करे, तेम जेनाथी मोहनो उद्य थाय तेम वळंगे पण नहि, 18 तथा कंदर्प प्रधान जेमा छे एवं मुख चुंबन विगेरे न करे, (मोढाने मोढुं न लगाडे) आज वर्तन साधुनुं सर्वस्थ छे, अने तेथीज वधां परलोकना प्रयोजनवडे युक्त ले, तथा ते प्रमाणे वर्तनार पांच समिति पाळतो जींदगी सुधी संयम अनुष्ठान आचरे, अने आज परम कल्याण छे, एवं उत्तम साधु माने. . निषीधिका नाममुं बीजुं अध्ययन समाप्त थयु R उच्चार प्रश्रवण-त्रीजुं अध्ययन. हवे त्रीजु सप्तकक अध्ययन कहे छे, तेनो पूर्वना अध्ययन साथे आ प्रमाणे संबंध छे, ते गया अध्ययनमा निपीधिका कही ESCRI-SS Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ४०५८॥ निषीथिका - 'बोर्जु अध्ययन' पहेलुं अध्ययन कहींने बीजें कहे छे, तेनो सबंध आ. छे. के गया अध्ययनमां स्थान वतान्युं, ते केवुं दोय तो भगवाने योग्य थाय, अने ते स्वाध्याय भूमिमां शुं करवुं, शुं न करयुं, ते अहीं कहेशे. आ-संबंधे आ अध्ययन आव्युं छे. एना चार अनुयोगद्वार थाय छे, तेनुं नाम निष्पन्ननिक्षेपामां "निपीथिका" एवं नाम छे, आ निपीथिकानो नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ भाव छ प्रकारे निक्षेपो छे, नाम स्थापना पूर्व माफक छे, द्रव्य निषीथनो आगमथी ज्ञशरीर भव्यशरीर छोडीने जे द्रव्य प्रच्छन्न (छानुं) होय ते छे, [टीकाना संशोधके टीपणामां लख्युं छे के निशीथ निषीध बनेनुं प्राकृतमां एक 'निसीह' शब्द वडे बोलतं होवाथी एज प्रमाणे निक्षेपानुं वर्णन छे, तेज प्रमाणे निषीधिका निशीथिका बने नामनुं एकपणुं छे. क्षेत्र निषीय ते 'ब्रह्मलोक' नामना देवलोकमां रिष्ट विमाननी पासे 'कृष्ण राजाओ' जे क्षेत्रमां छे, ते तथा जे क्षेत्रमां निपीयनुं वर्णन चाले ते — काळनिषीय ते कृष्ण [ काळी अंधारी ] रात्रिओ अथवा जे काळे निषीथनुं वर्णन चाले, भावनिषीथ 'नो आगमथी' आ कहेवातुं सूत्र अध्ययनज छे, कारण के ते आगमनो एक देश छे, नाम निष्पन्न निक्षेपों पुरो थयो, वे सूत्रानुगममां सूत्र कहे छे, सेभिक्खु वा २ अभिकं निसीहियं फासूयं गमणाए, से पुण निसीहियं जाणिज्जा - सअंडं तह० अफा० नो चेइस्सामि - || से भिक्खू० अभिकं खेज्जा निसीहियं गमणाए, से पुण नि० अप्पपाणं अव्यवीयं जाव संताणयं तह० निसीहियं फासूयं इस्लामि, एवं सिज्जागमेणं नेयव्वं जाव उदयसूया ॥ जे तत्थ दुवरगा तित्रग्गा चडवरगा- पंचवरगा वा अभिसंधा सूत्रम् ॥१०५८ ॥ Ka Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #4499696 रिति निसीहियं गामणाए ते नो अन्नमन्नस्स कार्य आलिंगिज्ज वा. विलिंगिज्ज वा. चुंबिज़्ज वा दंतेहिं वा नहेहि वा अच्छिदिज्ज वा वुच्छि०, एयं खलु० जं सबढेहि सहिए समिए सया. जएज्जा, सेयमिणं' ममिज्जासि. तिबेमि ।। सूत्रम् - (मू० १६४) निसीडियासत्तिक्यं ॥२-२-९॥ । ते उत्तम साधु रहेला स्थानमां अयोग्यताना कारणे बीजे स्थळे भणवानी जग्याए जवा इच्छे, तो त्यां इंडां वगेरे पड्यां ॥१०५९॥ होय तो अप्रामुक जाणीने न जाय, पण इंडां विनानी फासु जग्या होय ते ग्रहण करे, आ प्रमाणे बीजां सूत्रो पण शय्या माफक समजवां ते पाणीथी उत्पन्न थयेलां कंद विगेरे पड्यां होय तो ते जग्याए पण भणवा न बेसे. त्या गया पछीनी विधि कहे छे-त्यां गयेला बे त्रण के वधारे साधु होय तो परस्पर एकेकनी कायानो स्पर्श न करे, तेम जेनाथी मोहनो उध थाय तेम वळगे पण नहि, ४ ६ तथा कंदर्प प्रधान जेमा छे एबुं मुख चुंबन विगेरे न करे, (मोढाने मोढुं न लगाडे) आज वर्जन साधुनुं सर्वस्थ छे, अने तेथीज है बधां परलोकना प्रयोजनवडे युक्त छे, तथा ते प्रमाणे वर्तनार पांच समिति पाळतो जींदगी सुधी संयम अनुष्ठान आचरे, अने। ॐ आज परम कल्याण छे, एवं उत्तम साधु माने. . निषीधिका नामर्नु बीजं अध्ययन समाप्त थयु CECECSECS 0 उच्चार प्रश्रवण-त्रीजं अध्ययन. हवे त्रीजु सप्तकक अध्ययन कहे छे, तेनो पूर्वना अध्ययन साथे आ प्रमाणे संबंध छे, ते गया अध्ययनमां निषीधिका कही 6 Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, त्यां केवी जमीन उपर स्थंडील मात्रं (झाडो पेसोब) करवं ते बतावे छे, एना नाम निष्पन्न निक्षेपामां उच्चार- प्रश्रवण आचार एयु नाम छ, तेनी निरुक्तिने माटे नियुक्तिकार कहे छे सुत्रमू उच्चावइ सरीराओ उच्चारो पसवइत्ति पासवणं । तं कह आयरमाणस्स होइ सोही न अइयारो ? ।। ३१२ ।। ॥१०६०॥ शरीरमांथी जोरथी दूर करे, अथवा मेल साफ करे चिरे] ते उच्चार (विष्ठा) छे, तथा प्रकर्षथी श्रवे (नीकळे) ते पेसाब ॥१०६ ६ एकिका (आ शब्द केटली जग्याए तेज रुपे चपराय छे, एटले निशाळमां छोकराने पेशाब करवा जर्व होय तो मास्टरने कहे के मास्टर एकी जाउं ?) आ स्थंडिल तथा मात्रु केवी रीते करे तो अतिचार न लागे ते पछीनी गाथामां बतावे छे, मुणिणा छक्कायदयावरेण मुत्तभणियंमि आगासे । उच्चारविउसग्गो, कायनो अप्पमत्तेणं ।। ३१२ ॥ ६ छ जीव निकायना रक्षणमा प्रयत्न करनार साधुए हवे पछी कहेवाता सूत्र प्रमाणे स्थंडिलमा उच्चार प्रश्रवण अप्रमत्तपणे 8 करवां नियुक्ति अनुगम पछी सूत्र अनुगम कहे छे, से भि० उच्चारपासवणकिरियाए उब्वाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइज्जा ।। से मि० से ज पु० थंडिल्लं जाणिज्जा सअंडं. तह पंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा ॥ से भि० 'जं पुण थं० अप्पपाणं जाव.संतणयं तह. थं. उच्चा० वोसिरिजा ॥ से भि० से जं० अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुधिस्स वा अस्सि. बहवे साहम्मिया स० अस्सि प० एगं साइम्मिणि स० अस्सिप० बहवे साहम्मिणीओ स० अस्सि बद्दचे समण पगणिय २ समु० पाणाई ४ जाव उद्देसियं चेएइ, तह. थंडिल्लं -पुरिसंतरकड जाव चहियानीहडं वा अनी. अन्नयरंसि वा USESTROGRESS4-534 Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०६१॥ तहप्पगारंसि थं" उच्चारं नो बोसि• ॥ से भि से जं०' बहवे समणमा' कि० व० अतिही समुद्दिस्म पांणाई भूयाई जीवाई सत्ताई जांब उद्देसियं चेएइ, तह० थंडिलं पुरिसंतरगड जांव बहियाअनीहर्ड अन्नयरंसि वा तह० थंडिलंसि नो उच्चारपासंवर्ण०, अद पुण एवं जाणिजा - अपुरिसंतरगडं जात्र बडिया नीहडं अन्नयरंसि तहप्पगारं० थं० उच्चार० बोसि० ॥ षे० जं० अस्सिपडियाए कयं वा कारियं वा पामिखियं वा छन्नं वाघ वा मठ्ठे वा लित्तं वा संमहं वा संपधृवियं वा अन्नयरंसि वा तह० थंडि० नो उ० ॥ से भि० से जं पुण थं० जाणेज्जा, इह खलु गाहावर वा गाहा० पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतराओ वा वाहिनीहरंति बहियाओ वा अंती साहरंति वा अन्नयरंसि वा नह० थं० नो उच्चा० ।। से भि ं से जं पुण० जाणेज्जा — खंधंसि वा पीढंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा अहंसि वा पासायास वा अन्नयरंसि वा० थं० नो उ० ॥ से भि० से जं पुण० अनंतर हियाए पुढवीए ससिणिद्धार पु० ससरक्खाए पु० मट्टियाए मकडाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपइद्वियंसि वा जाब मक्का संताणयसि अन्न० तह० थं० नो उ० ॥ ( सू० १६५ ) कोड साधु कोइ वखते टट्टी पेसाव करवानी ताकीदे पीडातो' होय अने रस्तामां तेवी छुटनी जग्या न मळे तो तेणे कुंडी अथवा ते योग्य साधनं समाधि माटे मेळवी तेमां स्थंडिल जइ परठवी आवकुं. पण जो पोनानी पासे हाज़र न होय तो बीजा' 'साधु पासे याच अने तेनी प्रतिलेखना विगेरे करीने ने उपयोगमां लें, आथी एम सूचत्र्युं के स्थंडिल पेसावने रोकवा नहि,, बळी शंका याय पहेलांज वने त्यां लगी साधुए नीकळवु, अने ज्यां स्थंडिल जाय त्यां प्रथम देखे के इंडा के नानाजंतु कीडीओ सूत्रम् ॥ १०६१ ॥ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के करोळीयानां जाळ वगेरे नथी, जो इंडां विगेरे होय तो त्यां टट्टी न जाय, हवे ते साधु एम जाणे के कोइ माणसे एक अथवा आचा०४ घणा साधु साध्वीने आश्रयी स्थंडिलनी जग्या बनावी होय, अथवा श्रमण माहण विगेरेने उद्देशीने बनावी होय, तो ते जग्याने वीजा पुरुषे स्वीकारी होय के न स्वीकारी होय तो पण मूल गुणी दोपित होवाथी तेमां उच्चार प्रश्रवण न कर. 15 सूत्रमू ॥१०६२॥ ते साधुए यावंतिक स्थंडिलमा अपुरुषांतर कृतमा स्थंडिल न जाय; पण वीजाए वावर्या पछी तेनो उपयोग पोते पण करे, 5॥१०६२॥ ६ वळी उत्तर गुण अशुद्ध ते खरीद करी होय, बदले लीधी होय विगेरे कारणे दोपित होवाथी तेमां स्थंडिल न जाय, अथवा स्थढि लनी जग्यामाथी कंद विगेरेने छोकरां विगेरे बहार काढे, अथवा, ते जग्यामां कंद विगेरे नांखे तो तेमां साधुए स्थंडिल न जq है तथा स्कंध पीढ माचडो माळो अट्टमासाद विगेरेनी अधर जग्या के उंची जग्या के नीची जग्या ज्या समाधिथी न बेसाय तेवी जग्याए स्थंडिल न जचु, तेज प्रमाणे सचित्त पृथ्वी विगेरे उपर स्थंडिल नज, भिनी होय, सचित्त रजवाळी होय, माटो ८ करोळीयानां जाळां, सचित पत्थरनी शिला, माटोनां ढेफां, धुळना कीडावाळू लाकडं के नानां जतुंथी व्याप्त करोळीयाना जाळानां * समुदायथी व्याप्त होय के तेवू कंइ पण अप्रामुक स्थान होय त्या स्थडिल न जवू. ' से भि० से जं० जाणे०-इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्त वा कंदाणि वा जाव बोयाणि वा परिसाडिंसु वा परिसाहिंति वा परिसाडिस्संति वा अन्न तह० नो उ० ॥ से भि० से जं. इह खलु- गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुगाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पदरिंसु वा.पइरिति वा पइरिस्संति वा अन्नयरंसि वा तह० थडि० नो उ० ॥ से भि० २ जं. आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा विज्जुलयाणि वा Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०६३ ।। ) खाणुयाणि वा कडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा २ अन्नयरंसि तह० नो उ० ॥ से भिक्खु ० से जं० पुण थंडिल्लं जाणिज्जा माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा सहक० अस्सक० कुंकुंडक० मकडक० इयक० लावयक वयक तित्तिरक० कवोयक० कविजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० जाणे० 'वैाणसट्टासु वा गिद्धपट्टा वा तरुपडणट्टासु वा मेरुपडणठा० विसभक्खणयठा० अगणिपडणट्टा० ' अम्नयरंसि वा तह नो उ० ॥ से मि० से जं० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वादे वकुंलाणि वा सभाणि वा पत्राणि वा अन्न० तह० नो उ० ॥ से भिक्खू० से जं पुण जा० अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नयरंसि वा तद्द० थं० नो उ० ॥ से भि० से जं० जाणे० " तिगाणि वा चउकाणि वा चचराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ।। से भि० से जं० जाणे० इंगालदाहेसु खारदाहेसु वा मडयदासु वा मडयधूभियामु वा मडचेइएस वा अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उ० । से जं जाणे० नइयायतणेसु वा पंकाययणेस वा ओघाययणेसु वा सेयणवहंसि वा अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उ० ॥ से भि० से जं जाणे० नत्रियासु वा महियखाणि भासु नत्रियासु गोप्पहेलियासु वा गवाणीसु वा खाणीसु वा अन्नयरंसि वा तइ० थं० नो उ० ॥ से जं जा० डागवचंसि वा सागव० मूलग० इत्थंकरवचंसि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० वो० ॥ सेभ से जं असणवणसि वा सणव धायइव० केयइवणंसि वा अंत्रव० असोगव० नावग० पुन्नागव० चुलगव० अन्नयरेसु तद० पत्तोवेएस वा पुप्फोवेएस वा फलोवेएसृ वीओवेसु वा हरिओ वेएस वा नो उ० वो० ॥ ( मृ० १६६ ) सूत्रम् ॥ १०६३ । Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६२-६२-६८. २२ कालयी जबा जबजब है सुत्रमू ___ साधु साध्वीए नीचली जग्याए स्थंडिल न जवू-ते बतावे छे-जे जग्यामां गृहस्था अथवा तेना पुत्रो विगेरे कंद बीज 8 आचा० विगेरे त्रणे काळमां नाखता होय, तथा गृहस्थलोक अथवा तेना पुत्रो विगेरेए शाली चोखा वीही मग अडद कलथी जब जवजव वाव्यां होय, वावता होय अथवा वाववाना होय; अथवा ज्यां आमोक ते कचराना ढगला (उकरडा) मां घास भूमिराजीआ-भिलुक में ॥१०६४॥ सूक्ष्मभूमिराजीओ विज्जल स्थाणु तथा कडय प्रगर्ता-मोटाखाडा, तथा दरीमदुर्ग भीतो तथा कोल्ला बुरुज आ बतावेला स्थान 5॥१०६४॥ दूध वखते सम होय कोइ जग्याए विपम होय (माटो विगेरे पडवानो डर होय) तेथी तेवी जग्याए स्थंडिल जतां पोते पडी जाय , तो आत्मविराधना थाय, अने वीजा जीवो नीचे चगदाइ जतां संयम विराधना थाय तथा माणसोने माटे रांधवानी जग्या (चूला) होय, अथवा भेंस बळध घोडा कुकडां माकडां (वांदरा) हय लावक वट्टय तितर कबुतर कपिंजल विगेरे पशु पक्षो माटे खावा पीवान 8 अथवा शीखवान के तेथु बोजु कंइ पण कार्य थतुं होय तथा ते स्थानमा तेमने रखातां होय ते जग्याए स्थंडिल जवाथी. लोक विरुद्ध प्रवचननो उपघात विगेरे थाय माटे त्यां न जवू, वळी आपघात करवानां स्थान जेमां झाडे फांसो खाय लोक मरतां होय, गीध विगेरे पक्षीओ पासे काया चुंथावी मरवा लोही चोपडी मुतां होय, झाड उपरथी नीचे कुदीने मरतां होय, अथवा झाड माफक स्थिर थइ अनशन वडे मरतां होय, मेरु (पर्वत) उपरथी पडीने मरतां होय, तथा विषभक्षण करी मरतां होय, अग्निमां बळी मरतां होय, अथवा तेवां बीजां मरवांनां स्थान होय, त्यां साधुए स्थंडिल न जवू, तेज प्रमाणे आराम [जेमां काळा विशेष हाय] उद्यान वन वनखंड देवल सभा परब विगेरेनी जग्यामां स्थंडिल न जाय, अट्टालक चरिय दरवाजा गोपुर अथवा तेवा गाम शहेरना कोट कील्लानां स्थान होय त्यां स्थंडिल न जg, तेज प्रमाणे त्रिकोण चतुष्क [ज्यां त्रण के चार रस्ता मळतां हाय ] के चौतारो । Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होप तेबा स्थानमांपण स्थंडिल न जवं, तेज प्रमाणे अंगारा पाळवानी जग्या, खारो तैयार करवानी जग्या अथवा मळदां वाळवानी 8 जग्या, ज्यां मळदानां पगलां होय, देरीओ होय, अथवा कवरो होय अथवा तेवा बीजा कोइ पण स्थानमा स्थंडिल न जवू, तथा सूत्रम् जे जग्याए पाणी पवित्र मानी लोक नहातां होय तेबा लौकिक तीर्थ स्थानमां, तथा पंकायतन ज्यां माटी पवित्र मानी लोक आळो- ०६५॥ टतां होय, ओघायतन एटले परंपराथी ज्यां लोको पवित्र स्थान मानता होय अथवा जे रस्तेथी तळावमां पाणीनी नीको होय त्यां४/०९०६५॥ ॐ स्थंडिल न जवं, तथा माटी खोदवानी नवी खाण होय, अथवा गायोनी पहेलो अथवा खबड़ाववान स्थान होय, अथवा चीजो Vखाणो होय त्यां स्थंडिल न ज तथा डाग (पांदडांवालं शाख,) तथा बीजा शाख तथा मळा थवानी जग्यामां हत्थंकरनी जग्यामा | स्थंडिल न जवू, तथा अशन बन शणनुं वन धावडीनुं वन केतकीनुं वन आंबानु, अशोकनुं नाग पुन्नाग चुल्लक विगेरेनुं वन होय, 31 तथा पांदडां फूल फळ बीज भाजी विगेरेथी युक्त स्थान होय त्यं साधुए स्थंडिल न जq । प्रत्यारे केवी रीते स्थंडिल जq ? ते कहे छेसे भि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमायाए एगतमवक्कमे अणावायंसि असंलोयंसि अप्पपाणंसि जाव मकडासंताणयंसि अहारामंसि वा उबस्सयसि तओ संजयामेव उच्चारपारवणं वोसरिज्जा, से तमायाए एगंतमवक्कमे अणाबाहंसि जाव संताणयसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तह. थंडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, एवं खलु तस्स० सया जइजासि (मू० १६७) तिवेभि ।। उच्चारपासवणमत्तिक्कओ. सम्मत्तो ।। ते साधु पोतान के कारण प्रसंगे वीजानु पात्रं ( तृपणी के तुबडी पहोला मोढानी) लइ जाप अने ज्या लोको न जुए अथवा SASURENCERCORNCHOKES MORCAMEERष्ट Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5न आवे तथा जीवात न होय, तेवा आगम के रहेवाना मकानमां एकांतमा बेसी माटीनी कुंडी विगेरेमा टट्टी के पेसाब करीने ते 5 जाना आचा० कुंडी विगेरेने लइ ज्यां निर्जीव स्थान होय त्यां परठवे, आज साधुनुं सर्वस्थ अने समाधि छे के स्वपरने पीडा न थाय, 'तेम' "मत्रम P स्थंडिल जg. ॥१०६६॥ "शब्द सप्तक"-चोथु अध्ययन. ॥१०६६॥ त्रीजा साथे चोथानो आ प्रमाणे संबंध छे, के पहेलामा स्थान, बीजामा स्वाध्याय, त्रीजामा स्थंडिल विगेरेनी विधि बतावी. ते त्रणेमा रहेला माधुने अनुकूल के पतिकूल शब्दो संभकाय तो ते सांभळीने साधुए राग द्वेष न करवो, आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना चार अनुयोग्यद्वारमा नाम निष्पन्न निक्षेपामां "शब्द सप्तक" एवं नाम छे, एना नाम स्थापना सुगम निक्षेपाने छोडी,, से द्रव्य निक्षेपो नियुक्तिकार पाछली अब्धी गाथावढे बतावे छे. [दव्वं संठाणाई भावो वनकसिगं स भावो य] । दवं सद्दपरिणयं भावो उ गुण य कित्ती य ॥ ३२३ ॥ नो आगमथी द्रव्य व्यतिरिक्तमा शब्द पणे जे भाषा द्रव्यो परिणत थाय छे, ते अहिआं लेवां, भावशब्द तो आगमथी जेन Hशब्दोमा उपयोग होय, अने नो आगमथी अहिंसादि लक्षणवाळा गुणो समजवा, कारण के आ हिंसा जुठ विगेरेथी दूर रहेg, * ते गुणोथी प्रशंसा पामे छे अने कीर्ति तो जे तीर्थकर प्रभुने चोत्रीश अतिशय प्रकट धता बोजा करतां अधिक रुप संपदायुक्त। 15. पोते थवाथी लोकमां आ अहन देव छे, एम प्रसिद्ध थाय ते कीर्ति छे. 4-CO-COACHAR Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S नियुक्ति अनुगम. पछी तुत्त सूत्र आ अनुगममा सूत्र कहे, ते छे. से भि० मुइंगसदाणि वा नंदीस. अल्लरीस० अनयराणि वा तहविरूवरूवाई सहाई वितताई कन्नसोयणपटियाए सूत्रम् .." नो अभिसंधारिजा गमणाए ॥ से भि० अहावेगइयाई सघाई सुणेइ, तं-वीणासहाणी वा विपंचीसं० पिप्पी (बद्धी) सगस० तूणयपदा० वणयस० तुंवत्रीणियसद्दाणि वा हुंकुणसहाई अनयराई तह० विरूवरूवाई० सहाई वितताई कण्णसो- ॥१०६७॥ यपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भि० अहावेगइयाई सदाइं सुणेइ, तं-तालसद्दाणि वा कंसतालसदाणि वा लत्तियसद्दा० गोधियस९ किरिकिरियास. अन्नयरा० तह.विरूव सद्दणि कण्ण. गमणाए । से भि. अहावेग० तं० ' 'संखसदाणि-वा वेणु० वंसस९ खरमुहिस० परिपिरियास० अन्नय तह० विरूव० सदाई झुसिराई कन्न० ॥ (सू० १६८) पूर्वे वतावेलो भिक्षु जो वितत, तत, घन पोकळ, एवा बाजींना चार भेदवाळा मधुर शब्दोने सांभळे, (तो तेने राग थाय) # ते सांभळवानी इच्छाथी पोते ते तरफ न जाय. वितत एटले मृदंग नन्दी झालर विगेरे छे तथा वीणा विपंची बद्धीसक (सरणाइ) विगेरे तंबीनां वाजां छे. वीणा विगेरेनो ६ भेद तंत्रीनी संख्याथी जाणवो.. घन एटले हस्तताल कांसी विगेरे छे. लत्तिकानो अर्थ कांसी छे अने गोहिका एटले काख अने हाथमा राखीने वगाळवान वाजु छे. । किरिकिरिया ते वांस विगेरेनी कांबीन वाजें छे, शुपिर ते शंख, वेणु विगेरे पोकल वाजां छे. पण खरमुही ते तोहाडिक छे 8 अने पिरिपिरिचय ते कोलियकना पुटथी जडेली वांस विगेरेनी नळी छे. आवां कोइ पण वाजींत्र वागतां होय तो साधुए ते तरफ +4-445CROCOCCEPS-964 KRIGES .. Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० । सूत्रम् ॥१०६८॥ ABSECREG-SCAROLOGGRESS 8/न जq. वळी. से भि. अहावेग० त० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरतियाणि वा अन्न तहक विरूव० सद्दाई कण्ण ॥ से भि० अहावे २० कच्छाणि वा प्रमाणि वा गहणाणि वा वणाणि वा वणदुग्गाणि पब्वयाणि वा पब्वयदुग्गाणि वा अन्नः। अहा० त० गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा र.यहाणाणि वा आसमपट्ट णसंनिवेसाणि १०६८॥ वा अन्न तह० नो अभि० ॥ से भि० अहावे. आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्नय तहा०सद्दाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे. अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्न तह० सहाई नो अभि० ॥ से भि० अहवे. तंजहा-तियाणि वा चउक्काणि वा चच्चरराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्न तह० सद्दाई नो अभि०॥ से भि. अहावे. तंजा-महिसकरणट्टाणाणि वा वसभक अस्सक० हत्थिक० जाव कविंजलकरणट्टा अन्न तह० नो अभि०।। से भि० अहावे. तंज० महिसजुद्धाणि वा जाव कविजलजु० अन्न तह० नो ॥ से भि० अहावे० सं० जूहियठाणाणि वा हयजू० गयजू० अन्न तह० नो अभि०॥ (सू० १६९) ते साधु कदाच कोइपण जातना शब्दोने खांभळे के वप ते क्यारा छे एटले तेनी सुंदरतानुं वर्णन सांभळे अथवा ते खेतरना। क्यारा विगेरेमा मधुर गायन विगेरे यतुं होय तो ते साभळवानी इच्छाथी त्यां न जाय वप्रथी जाणQ के तेज प्रमाणे फलिह सरोवर। सागर तलावडीओ जोवा साधुए न जq तथा त्यां वाजींत्र वागतुं होय तो पण सांभळवा न जq. तेज प्रमाणे कच्छ,राम गहन वन अथवा वनमांना पर्वतों अथवा पर्वतनाकिल्ला किल्ला पण जोवा न जवू तथा गाम नगर निगम राजधानी आश्रम पाटण सनिवेश Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥१०६९॥ REOSROSORR विगेरेमां मधुर शब्दो सांभळवा न जq तथा आराम उघन वन वनखंड देरां सभा परव विगेरेमा वाजां सांभळवा न जवु तथा अट्ट अट्टालक चरित दरवाजा तथा नगरना दरवाजे शब्द सांभळवा न जq तथा त्रिक चोक चोतरो चोमुख स्थानमा न जवं तथा पाडा बळद घोडा हाथी विगेरेनां. ते कपिजल सुधीनां कळा शीखववाना स्थानमा जोवा न जवू तथा ज्यां तेमन मैथुन थां होय त्यां न जवं, तेम तेमर्नु युद्ध थतुं होय अथवा तेमनी क्रिया थती होय ते जोवा न जg से भि० जाव सुणेइ, तंजहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणियहाणाणि वा महताऽऽहयनगीयवाईयत्तीतलतालतुडियपडुप्पवाइयटाणाणि वा अन्न तह सद्दाई नो अभिसं० ।। से भि० जाव सुणेइ, तं०-कलहाणि वा डिवाणि वा डमराणि वारज्जाणि वा वेर० विरुद्धर० अन्न तह० सद्दाई नो० ॥ से भि० जाव सुणेइ खुड्डियं दारियं परिभुत्तमंडियं अलंकियं निवुज्झमाणि पेहाए एगं वा पुरिसं वहाए नीणिजमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तह० नो अभि० ।। से मि० अन्नयराई विरूवा महासवाई एवं जाणेज्जा तंजहा-बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपच्चंताणि वा अन्न तह. विरूव० महासवाई कन्नसोपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए ॥ से भि० अन्नयराई विरूव० महस्सवाई एवं जाणिज्जा तंजहा-इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वामज्झिमाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गार्यताणि वा वायंताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंनाणि वा परिभायंताणि वा विछट्टियमाणाणि वा विगोवयमाणाणि वा अन्नय० नह० विरूव० महु० कन्नसोय० ॥ से भि० नो इहलोइएहिं C - R -C Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द ॥१०७०॥ सद्देहिं नो परलोइएहि स० नो सुएहिं स० नो असुएहि स० नो दिटेहिं सद्देहिं नो अदिट्टेहिं स० नो कंतेहिं सद्देहि आचा० सजिज्जा नो गझिज्जा नो मुज्झिज्जा नो अज्झाववज्जिज्जा, एयं खलु० जाव० नएज्जासि (मू० १७०) तिबेमि ॥ & सूत्रम् सद्दसत्तिको ॥२-२-४॥ तेज प्रमाणे ज्यां कथाओ कहेवाती होय, मापा तोल विगेरे यतुं होय अथवा तेनुं वर्णन यतुं होय त्यां न जवू तथा मोटा 5॥१०७०॥ अवाजे नाटक गीत वाजींत्र तंत्री त्रीतल ताल त्रुटेतथी थतुं होय त्यां सांभळवा न जq तथा कजीआ बालकोना खेल डमर अथवा बे राज्योनी लडाइ होय अथवा वहारवटीया राज्य विरुद्ध फरता होय, तेवू सांभळे तो त्यां न जाय. P अथवा ते साधु एम सांभळे, के कोइ सुंदर बालिकाने आखा शरीरे स्नान करावी वस्त्राभूषणथी शणगारी घोडा उपर बेसाडेली 8/छे तो त्यां न जg. अथवा कोइ पुरुपने वध करवा लइ जता होय तेवू अथवा दुःख देवा संबंधी बीजं कंइ सांभळवा मळे त्यां न जाय, अथवा ते साधु महा पाप आश्रवनां स्थान ते घणां गाडां रथो विगेरेथी युक्त म्लेच्छो अथवा हलका प्रकारना माणसो युक्त जा होय, त्यां कानने आनंद पमाडनार सांभळवानुमळशे तेवी बुद्धिए न जाय, ६ तेज प्रमाणे ज्यां महोत्सवो होय के जेनी अंदर स्त्री पुरुष बुढा वाळक अथवा मध्यम वयनां माणसो सुंदर वस्त्रालंकार पहेरीने । है गायनो विगेरेनी क्रिया करे छे, त्यां सांभळवानी बुद्धिर्थी न जाय. . हवे वधा परमार्थ टुंकमां समजावे छे. ते साधु आलोक अने परलोकना महा दुःखना भयथी डरेलो एटले आ लोकमां सांभळवाना रसमां मनुष्य विगेरेथी भय छे, RECER-CAR-SCRECARRORE 1-4-ORG Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०७९॥ अने परलोक परमाधामी (जमडा) ना मार खावा पडशे एम विचारीने मोड छोटे, अथवा आ लोक के परलोकना, खीना के देवीना शब्दोमां न ललचाय, तथा तेवा शब्दो सांभळ्या होय, के नहि, अथवा साक्षात् मळ्या होय के नहि, तो पण मांग न करे, तेमां गृद्धता न करे, तेमां मुंझाय नहि, न तल्लीन थाय, अर्थात् जे कानने कबजामां राखी मधुरमां आनंद न माने, हितना छे. | कडवा शब्दोमां खेद न माने. तेज तेनुं पूर्ण साधुपणं . जो तेम इंद्रियोने कबजामां न राखी शब्द सांभळवा जाय, तो भणवुं गणवुं न थाय, तथा राग द्वेष थाय, ए प्रमाणे वीज़ा पण आ लोक परलोक संबंधी दुःखो जाणीने विचारवा. रुप सप्तक नामनुं पांचमुं अध्ययन चोथुं सप्तक कहीने हवे रूप सप्तक कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां श्रवण इंद्रिय आश्रयी रागद्वेपनी उत्पत्ति निषेधी. तेम अहीं आंखने आश्रयी निषेधशे, आ संबंधे ' आवेला अध्ययनना नाम नि- निक्षेपामां (रूप सप्तक एकक) नाम छे. रुपना चार प्रकारे निक्षेपा छे नाम स्थापना सुगम छोडीने द्रव्यभाव निक्षेपा कहेवा नियुक्तिकार गाथा कहे छे. ठाणाई भावो वन्न कसिणं सभावो य । [ दव्वं सद (रूव) परिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य ] ॥ ३२४ ॥ नो आगमथी द्रव्य व्यतिरिक्तमां पांचे स्थानो परिमंडळ (पूर्ण गोळा) विगेरे आकारी छे, अने भावरूप वे प्रकारे वर्णथी तथा स्वभावथी छे, तेमां वर्णथी वधा (पांचे) वर्णो छे अने स्वभाव रूप ते अंदरमां रहेला क्रोध विगेरेथी भाषण चढावी कपाळमां सळ सूत्रम् ॥१०७१ ॥ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०७२॥ SACRACKERACHA-CONGRES पाडीने आंख लाल करीने अनुचित वचन बोलवां, एथी विपरीत प्रसन्न थइने रागनां वचन बोलवां, का छे के रुहस्स खरा दिट्ठी उप्पलधवला. पसन्नचित्तस्स । दुड़ियास ओमिलायइ गंतुमणस्सुस्मुआ होइ ॥१॥ । क्रोधीने आंख लाल होय, अने प्रसन्न थएलानी कमळ जेवी धोळी होय, दुःखी जीवनी मींचायला जेवी होय, अने जवा सुत्रमू इच्छनारनी खांख उत्सुक होय.' 5॥१०७२॥ से भि. अहावेगइयाई रूवाई पासइ, तं० गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा कटकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तक० मणिकम्माणि वा दंतक पत्तछिज्जकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अन्नयराई विरू० चक्खुदसणपडियाए नो अभिसंधारिज गमणाए, एवं नायव वा जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमावि ॥ (मू० १७१) पञ्चमं सत्तिकयं ॥ २-२-५॥ ते भाव साधु गोचरी विगेरेना कारणे बहार फरतां जुदी जुदी जातिनां रुपो जुए, तेमां मोह न करे, हवे ते रुपांनी विगन | बतावे छे. फुलो विगेरेथी साथीओ विगेरे गुंथीने बनाव्यो होय, तथा वस्त्र विगेरे वींटीने पुतळी विगेरे बनावेल होय, तथा अमुक चीजो पुरीने पुरुष विगेरेनो आकार बनाव्यो होय, तथा कपडांना ककडा शीवीने कांचळी विगेरे बनावे-ते संघातिम छे, लाकडानां 15 स्थ विगेरे काष्ट कर्म छे. तथा पुस्तको, लेपर्नु काम, चित्रो, तथा जुदां जुदां मणि रत्नोवडे साथीआ विगेरे बनावेल होय, हाथीदांतनी पुतळी विगेरे होय, पांदडां छेदीने आकार बनाव्यो होय, आ प्रमाणे अनेक मनोहर वस्तुओ देखीने आंखने प्रसन्न करवानी इच्छाथी न जाय, अर्थात् जq तो दूर रहो पण मनमां अभिलाषा पण देखवानी न करे, तथा पूर्वे शब्दोना अधिकारमा बताव्युं ते Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे, अहीं पण योजQ के आलोक संबंधी के परलोक संबंधी सांभळ्युं होय के न सांभळयु होय, देख्यु होय के नहि देख्यु होय, आचारतो ते ते दरेक. जातिना रुपमा राग गृद्धता, मोह के तल्लीनता न करवी, जो रुपमा राग विगेरे करशे तो आ लोकमां मनुष्य सूत्रम् विगेरेथी अने परलोकमां परमाधामीना मार पडशे. ॥१०७३॥ परक्रिया नामर्नु छटुं अध्ययन. ॥१०७३॥ रुप अध्ययन कहीने परक्रिया नामर्नु छठे अध्ययन कहे छे, तेनो. आ प्रमाणे संबंध छे. , गयां बे अध्ययनमां रागद्वेपनी उत्पत्तिनां निमित्त मधुर शब्द अने रुपनो निषेध बताव्यो, तेनेज अहीं बीजे प्रकारे कहेशे, आवे संबंधे आवेला अध्ययनना नाम निष्पन्न निक्षेपामां परक्रिया एवू आदान पदवडे नाम छे, तेमां प्रथम पर शब्दनो छ प्रकारनो दनिक्षेप अडधी गाथावडे कहे छे. . छक्कं परइकिक त १ दन्न २ माएस ३ कम ४ बहु ५ पहाणे ६। __'पर' शब्दनो छ प्रकारे निक्षेपो छे, नाम स्थापना सुगम छे, अने द्रव्यादि पर पण एकेक छ प्रकारे छे. ४ १ तत्पर २ अन्यपर ३ आदेशपर ४ क्रमपर ५ बहुपर ६ प्रधानपर छे. तेमां प्रथम द्रव्यपर तेजरुपे वर्तमानमा विद्यमान ल होय, जेमके एक परमाणुथी गेजो परमाणु जुदो छे अन्यपर ते अन्यरुपे पर छे, जेमके एक बे अणुवाळो, त्रण अणुवाळो तेमन | बे अणुवाळो एक अणुवाळो के त्रण अणुवाळो छे, आदेशपर ते आदेश (आज्ञा) अपाय छे ते, जेमके कोइ कार्यमा मजुर विगेरेने 18 स्खाय छे ते आदेशपर छे, पण 'क्रमपर' तो चार प्रकारे छे, तेमां द्रव्यथी क्रम पर ते एक प्रदेशिक द्रव्यथी चे प्रदेशिक द्रव्य छे 8 -RSSCR-4-SCRECER-S-600-SCRIBE Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रम १०७४॥ 18/ए प्रमाणे वे अणुकथीत्रण अणुक विगेरे छे. क्षेत्रना एक प्रदेशमा रहेल तेनाथी वे पृदेश अवगाहमा रहेलुं छे, तथा काळथी एक | समयनी स्थितिवाळाथी बे समयनी स्थितिवाद्धं विगेरे छे, भावथी क्रम पर ते एक गुण. काळ्थी चे गणुं कालू विगेरे छे. ए आचा० प्रमाणे वधा रंगमा जाणवू. ॥१०७४। "बहु पर" ते बहुपणे पर एटले एकथी बीजु बहु होय ते जाण जेमके ___. जीवा पुग्गल समया दन पएसा य पजवा चेव । थोवाणंनाणंता विसेसअहिया दुबेणऽता ॥१॥ जीव सौथी थोडा छे तेवी पुद्गलो अनंतगुणा छे, तेनाथी समयो द्रव्यना प्रदेशो अने तेनां पर्यायो अनंत तथा विशेष अधिक छे. फक्त वेभां अंनंतगणा छे.. 8 प्रधानपर ते वे पगवाळामां तीर्थकर छे तथा चोपगामा सिंह विगेरे अने अपदमा अर्जुन, ‘सुवर्ण, फणस विगेरे झाडो छ, ए प्रमाणे क्षेत्रकाळ भाव पर विगेरेने पण तत्पर विगेरे छ प्रकारे क्षेत्र विगेरे प्रधानपणाथी पहेलांनी माफक पोतानी बुद्धिए. योजवां सामान्यथी तो जंबूद्वीपक्षेत्रथी पुष्कर विगेरे क्षेत्रो पर छे तथा काळ पर ते वरसादनी रुतुथी शरद रुतु छे, भावपर औंदयि15/ कथी औपशमिक विगेरे छे. हवे सूत्रानुगममां सूत्र उच्चार, जोइए ते आ छे. परकिरियं अज्झत्थिय संसेसियं नो तं सायए नो तं नियमे, सिया से परो पाए आमजिज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं सायए नो त नियमे । से सिया परो पाया: संवाहिज्ज वा पलिमदिज्ज वा नो तं सायए नो त नियमे । से सिया परो पायाई कुसिज्ज वा रइज्ज वा नो तं सायए नो त नियमे । से सिया परो पायाई तिल्लेण वाय० वसाए वा वा मक्खिज़ . PATROCCORRENCEO-ORG Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रम् ॥१०७५॥ ॥१०७५॥ ACCARRAA वा अभिगिज्ज वा नो तं २। से सियः परो पायाई लुद्धेण वा कक्केण वा चुन्नेण का वण्णेण वा अल्लोटिज्ज वा उव्वलिज्ज वा नो तं २ । से सिया परो-पायाई सीओदगवि यडेण वा २. उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं० । से सिया परो पायाई अन्नयरेण विलेवण जाएण आलिंपिज्ज वा विलिंपिज्ज वा नो तं । से सिया परो पायाई अन्नयरेण धृवणजाएण धृविज्ज वा पधृ० नो तं २ । से सिया परो पायाभो आणुयं वा कंटयं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं. २। से सिया परो पायाओ पूर्व वा सोणियं वा नीहरिज्ज वा विसो० नो तं० २। से. सिया परो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे । से सिया परो कार्य लोट्टेण वा संवाहिज्ज वां पलिमदिज्ज वा नो तं०.२। से सिया परो कार्य तिल्लेण वा घ. वसो० मक्खिज्ज वा अभंगज्ज वा नो तं० २। से सिया पसे कार्य लुढेण वा ४ उल्लोढिज्ज वा उन्बलिज्ज वा नो तं० २। से सिया परो कार्य सीओ० उसिणो० उच्छोलिज्ज वा प० नो तं०२। से सिया परो कार्य अन्नयरेण विलेवणजाएग आलिपिज्ज वा २ नो तं० २ । से० कार्य अन्नयरेण धृवणजाएण धुविन वा प० नो तं० २ । से कार्यसि वणं आमजिज वा २ नो तं २ । से० वर्ण संवाहिज वा पलि० नो तं० । से० वर्ण तिल्लेण वा घ०२ मक्खिज्ज वा अभं० नो तं० २.। से० वणं लुद्धण वा. ४,उल्लोटिज्ज वा उबलेज वा नो तं० २। से सिया परो कार्यसि वणं सीओ० उ० उच्छोलिज्ज वा १० नो तं० २। से० सि वर्ण वा गंडं वा अरई वा पुलयं वा भगंदलं वा अन्नयरेण सत्यजाएणं अच्छिदिज्ज वा विच्छिदिज्ज वा नो तं० २ । से सिया परो अन्न० जाएण आच्छि___ दित्ता वा विञ्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नीरिज वा वि० नो, तं० २ । से० कायंसि गंडं वा अरई का पुलयं Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० CATEGORNSTA ॥१०७६॥ R- वा भगंदलं वां आमज्जिज्ज वा २ नो तं०२। से० गंडं वा ४..संवाहिज वा पलि० नो तं० २। से० काय गंड वा ४ तिल्लेण वा ३ मक्खिज्ज वा २ नो तं० २ । से० गडं वा लुद्धेण वा ४ उल्लोढिज्ज वा उ० नो तं०२। से गंडं 18 सूत्रम् वा ४ सीओदग २ उच्छोलिज्ज वा प० नो तं०२। से गंडं वा ४ अन्नयरेणं सत्यनाएणं अच्छिदिज्ज वा वि० अन्न सत्य. अच्छिदित्ता वा २ पूर्व वा २ सोणियं वा नीह. विसो० नो तं सायए २। से सिया परो कार्यसि सेयं वा जल्लं १०७६॥ चा नीहरिज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहम०, नीहरिज वा नो २ नो तं० २ से सिया परो दीहाई वालई दीहाई वा रोमाई दीहाई भमुहाई दीहाई कक्खरोमाई दीहाई वत्थिरोमाई कप्पिज्ज वा संठविज्ज वा नो तं २ । से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा नीहरिज्ज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अंकंसि वा पलियकसि वा तुयथावित्ता वा पायाई आमज्जिज्ज वा पम०, एवं हिडिमो गामो पायाइ भाणियव्यो । से सिया पगे अंकसि वा २ तुयट्टावित्ता हारं वा अद्धहार वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउड वा पालंबं वा सुवन्नसुत्तं वा आविहिज्ज वा पिणहिज्ज वा नो तं० २। से० परो आरामंसि वा उज्जाणंसि वा नीहरित्ता वा पविसित्ता वा पायाई आमज्जिज्ज वा प० नो तं साइए । एवं नेयव्या अन्नमकिरियावि ।। (सू० १७२)॥ . अहीं साधुधी पर कोइपण गृहस्थ होय, ते कंदपण क्रिया साधुना अंग उपर करे, तो ते समये साधुए ते क्रियाने कर्मबंधन कारण जाणीने तेने मनथी पण इच्छे नहि. तेम वचनथी के कायाथी पण, न करवा दे. ___ आ पर क्रियाने खुलासाथी समजावे छे, कोइ अन्य श्रावक धर्म श्रद्धायो साधुना पग उपर लागेली धुळने कर्पट विगेरेथी दूर SA- AX Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ करे अथवा तेवू चीजें कंइ प्रमार्जन विगेरे करे तेने साधु मन, वचन, कायाथी सारुं न जाणे, तेम चोळे. मसळे, तो पण सारुं न जाणे ।। भाचा नेम तेल विगेरेथी के बीणा पदार्थथी अभ्यंगन करे अथवा लोधर विगेरेथी उदवर्तन करे तथा ठंडापाणी विगेरेथी छंटकाव करें Ham तेम कोइ सुगंधी द्रव्यथी लेप करे तेम विशिष्ट धुपथी शरीर सुगंधी वनावे अथवा पगमा लागेलो कांटो काढे अथवा पगमाथी ॥१०७७॥ 13 खराब परु के लोही काढे तो तेने सारु मन वचन कायाथी न जाणे जेवी रीते पगर्नु का, ते प्रमाणे अंगनां पण कृत्य जाणी ॥10.05 लेवां. तेज़ प्रमाणे, गुमडॉ आश्री पण जाणवू तथा शरीरमां नस्तर विगेरे मारीने के मलम विगेरे लगाडीने गुमडां विगेरे सारां है। IN करे तो ने मन वचन,कायाथी अनुमोदे नहि. . म अथवा शरीर उपरथी परसेवो के मेल दूर करे तो पण सारुं न माने तथा आंखनो काननों दांतनो के नखनो मेल दूर करे तो सारं न माने, तेम माथाना के शरीरना वाळ रोम के भांपणाना के कारखना वाळ के गुप्तभागना वाळ कापे के सरखा करे तो सारं न माने वळी ते साधुने अंकमां अथवा पल्यंकमां तेज प्रमाणे हार अर्धदार कंठी गळचवो पहेरावे अथवा मुकुट के झुमखा पहेरावे. कंदोरो पहेरावे. तेने सारं न जाणे, ते वखते साधु आराम अथवा उद्यानमां होय त्यां गृहस्थ आीने उपरनी क्रिया करे | तो साधु तेने सारुं न जाणे.. . . से सिया पर। सुद्धणं असुदेणं वा वइवलेण वा तेइच्छं आउट्टे से० असुद्धेण बइवलेणं तेइच्छं आउट्टे ।। सेसिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्त कत्ति वाकडावित्त वा तेइन्छ आउट्टाविज्ज नो तं सा. बडुवेयणा पाणझ्यजीवसत्ता वेयण वेइंति, एयं खलु० समिए सया जए सेयमिणं मन्निजासि ब- क - 2 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ।। १०७८ ॥ ( सू० १७३ ) तिमि ||छट्टओ सत्तिक्कओ ।। २-२-६ ।। साधु को मास शुद्ध अथवा अंशुद्ध वचनवळ ते मंत्र विगेरेथी रोग समावे ( विछु विगेरे :उतारे ) तो पोते सारु जाणे नहि तथा वीजो मांदा साधुनी देवा माटे कंदमूळ विगेरे खोदीने खोदावीने लावीने दवा करे तो तेने सारुं न जाणे बनी शके तो दुःख भोगवतां आवी भावना भाववी के पूर्वे जीवे कर्म कर्यो छे अने तेनां फळ भोगवे छे माटे बीजा कंदमूळ विगेरेने दुःख दइने तथा बीजा प्राणीओने शरीर मन संबंधी पीडा आपीने पोते फरीथी दुःख भोगवशे, कारणके प्राणी भूत जोव सत्त्वो ते हाल दरेक पोताना पूर्वे करेला कृत्यना विपाकने भोगवे छे क छे के छ, पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तत्रायें न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् । इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ? ॥ १ ॥ हे साधु! तारे आ दुःखनो विपाक सहेवो जोइए; कारण के पूर्वे करेला कर्मोनो संचय करेलो छे ते समजीने हवे पछी जे जे सुख दुःख आवे ते समभावे सहन कर, ए सिवाय बीजे तारो विवेक क्यांथी होय? आ ममाणे छट्टाथी तेरमा सुबी सात अध्ययन समाप्त छे. पूर्वे का प्रमाणे बीजाए करेली क्रिया अनुमोदवी नहि. तेम अहीं सातमा अध्ययनमां अन्य अन्य क्रिया पण करवानी निषेध: करे छे. आ प्रमाणे छट्ठा सातमा अध्ययननो संबंध छे, नाम नि. निक्षेपामा अन्यो अन्य क्रिया एवं नाम छे तेनी बाकी रहेली अधी गाथाने नियुक्तिकार कहे छे. अन्ने छकं तं पुण तदन्नमाएसओ चेत्र ।। ३२५ ।। सूत्रम् ॥१०७८ ॥ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०७९ ॥ अन्यना छ प्रकारे निक्षेपा, छे. नाम-स्थापना सुगम छे. द्रव्य अन्य निक्षेपामां पर शब्दमां जे खुलासो कर्यो छे तेम अहीं पण जाणवुं. अहीं परक्रिया के अन्य क्रिया कारण प्रसंगे गच्छवासीने करवी पड़े तेमां जयणा राखवी, गच्छमांथी नीकळेलाने औषध विगेरे क्रियानुं प्रयोजन नथी, तें निर्युक्तिकार बतावे छे. 4 जयमाणस्स परो जं करेइ जयंणाए नत्य अहिंगांरो । निप्पडिकम्मस्स उ अन्नमन करणं अजुत्तं तु ॥ ३२६ ॥ .. सत्तिकाणं निज्जुत्ती समत्ता ॥ 1 साधुए जयणाथी कामकरं करावं रागद्वेष न करवा, पण जीनेकल्पीने ते घटतुं नथी, तेओ दवा विगेरेथी, दूर छे, से भिक्खू वा २ अन्नमन्न किरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए २ ॥ "पाए आमज्जिज्ज वा० नो तं०, सेसं 'अन्नननं र्त चैत्र, एयं खलु० जइज्जासि (मृ० १७४ ) तिबेमि ॥ सप्तमम् ॥ २-२-७ ॥ अन्यो अन्य एटले. परस्पर क्रिया ते साधुए मांहो मांहे पण खास कारण विना चोळवु चांप दावयुं विगेरे न कर. जरुर पडे करतां राग द्वेष न करो. आप्रमाणे बीजी चलिका, समाप्त थइ. भावना नामनी श्रीजी चूलिका. बीजी कहीने हवे त्रीजी चूलिका कहे छे, तेनों आ प्रमाणे संबंध छे, के आ आचारांग सूत्रनो विषय प्रथम वर्धमान स्वामिए कयों, ते उपकारी होवाथी तेनी वक्तव्यता खुलासाथी कहेवा तथा पंचमहाव्रत लीवेला साधुएं पिंड शय्या विगेरे ( संयम शरीर सूत्रम् ॥१०७९॥ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०८० ॥ रक्षार्थे ) लेवा, ते बे चूलिकामां बतान्युं तेज प्रमाणे महावतीने बरोबर पाळवा माटे भावना भाववी, ते आ त्रीजी चूलिकामां कहेंगे. तेथी आवा संबंधे आवेली आ चूलिका (चूडा) ना चार अनुयोग द्वार कहेवा, तेमां उपक्रम द्वारमा रहेलो आ अर्थाधिकार छे, के अप्रशस्त भावना त्यागीने प्रशस्त भावना भाववी, नामनि-निक्षेपामा 'भावना' ए नाम छे, तेना नाम स्थापना विगेरे चार कारनो निक्षेप छे, नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्यादि निक्षेपो नियुक्तिकार कहे छे. दव्वं गंधंगतिलाइए सीउण्हविसहणाईसु । भावमि होइ दुविधा पसत्थ तह अप्पसत्या य ।। ३२७ ॥ नो आगमथी, द्रव्य भावना व्यतिरिक्तमां ज़ोइ वगेरेना फूलो विगेरे गंधवाळा द्रव्यथी जे तेल वगेरे द्रव्य (पदार्थ) मां जे वासना (सुगंधी) लावे, ते द्रव्य वासना, छे, तथा शीतमां उछरेलो माणस शीत (ठंड) सहे, उष्ण देशमां उछरेलो ताप सहे, तथा कसरत करना अनेक कायकष्ट सहे, तेज प्रमाणे बीजा कोइ पण पदार्थ बडे अथवा पदार्थनी जे भावना (धर्म समज्या विनानी) होय ते द्रव्य भावना छे, अने भाव संबंधी जे प्रशस्त अ प्रशस्त भेद वंडे वे प्रकारनी भावना छे, तेमां प्रथम अमशस्तं कहे छे, पाणिहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिरंगहे चेत्र । कोहे माणे माया लोभे य हवति अपसत्था ॥ ३२८ ॥ जीवहिंसा जूठ चोरी मैथुन परिग्रह क्रोध मान माया अने लोभ ए नव पापोमां प्रथम शंकाधी अने पछी वारंवार निठुर थइने निःशंकपणे वर्त्ते, ते अमशस्त भावना कहीं छे के: करोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्य च कुरुते । तृतीयं निःशङ्को विगतघृणमन्यत्प्रकुरुते, ततः पापाभ्यासात्सततमशुभेषु परमते ॥ १ ॥ fus सूत्रमू ।। १०८० ॥ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHASHG6-*** R 8सृजपुरुषो भव्यात्माओने बचाववा उपदेश आपे छ के जीवहिंसा विगेरे पापो बालक 'बुद्धिना माणसो' प्रथम हरीने छुपा है आचा, करे छे. के रखेने मारी लोकमां निंदा यशे, पण त्यां कुटेव न छुटे तो पछी अपेक्षा विचारी कुयुक्ति लगाडीने जाहेर पाप करे। सूत्रम् छे, त्यार पछी निःशंक थइने लज्जा दयाने छोडी नत्रांनवां पाप करे छे, अने छेवटे पापना अभ्यासथी हमेशां पापमांज रमे छे. ॥१०८१॥ 113/- ".... .. .... प्रशस्त भावना.... ॥१०८१॥ .. दसणनाणचरित्ते तववेग्गे न होइ उ पसत्था । जाय जहा ता य नहा लक्खण वुच्छं सलक्खणओ ॥ ३२९ ।। दर्शन ज्ञान चारित्र तप वैराग्य विगेरेमा जे, प्रशस्त भावना होय छे, ते प्रत्यकने लक्षणथी कहीशः' । . . :. दर्शन भावना. .... . तित्थगराणं भगवओ पवयणपावयणिअइसइड्डाणं । अभिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूश्रणाथुणणा ॥ ३३० ॥ तीर्थकर प्रभु बार अंग (जैन सिद्धांत) जेनुं बीजुं नाम गणिपिटक (भगवंतना वचन रुप रत्नोने राखवानो पेटारो) तथा मावचनि ते गणधरो तथा महान् प्रभाविक आचार्यो युग प्रधानो तथा अतिशय ऋद्धिवाळा केवळज्ञानी मनःपर्यव तथा अवधिज्ञानी 18/ तथा क़दपूर्वी तथा आमर्श औषधि लब्धिधारक मुनिओ विगेरेनुं बहु मान करवा सामे जइने दर्शन करवू तेमना उत्तम गुणोने || |प्रशंसवा. सुगंधथी पूजन स्तोत्र वढे स्नवन करवू, ( आमां देव मनुष्यने जे उचित होय ते करवु ) आ प्रमाणे हमेशां करवाथी दर्शन 'शुद्धि थाय छे, . . . जम्माभिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निव्वाणे । दियलोअभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसुं ॥ ३३१ ।। - -RE - २-64-8C ! Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० / सूत्रम् ॥१०८२॥ ॥१०८२॥ ROCRACKGRAAGRAAS अट्ठावयमुजिते गयग्गपयग्गपयए य धमचके य । पासरहावतनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३३२ ।। तीर्थंकरोनी जन्मभूमि, दीक्षा लेवाना वरघोडामां, चारित्र लीधुं ते जग्या, तथा केवळ ज्ञान तथा निर्वाण भूमि, तथा देवलोकमां मेरु पर्वत, नंदीश्वर द्वीप विगेरे तथा पाताळनां भवनोमां जे शाश्वता जिनेश्वरनां विधो छे, तथा अष्टापद गिरनार दशाणर्णकूटमां तथा तक्षशिलामां धर्म चक्रना स्थानमां, तथा अहिछत्रा नगरीमा ज्यां धरणेंद्रे पार्श्वनाथ प्रभुनो महिमा को छे, तथा रथावत | पर्वत्त ज्यां वज्र स्वामिए पादपोपगमन अणशण कर्यु छे, तथ ज्यां वर्धमान स्वामीने आश्रयी चमरेंद्रे उत्पतन कयु छे, आ बधा स्थानोमां जइने यथायोग्यपणे वंदन पूजन स्तवन ध्यान करवाथी दर्शन शुद्धि'थाय छे.. गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्टी अवितहं इमं नाणं । इय एगामुवगया गुणपञ्चइया इमे अत्था ।। ३३३ ॥ गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया या पोराणचेइयाणि य इय एसा दसणे होइ ।। ३३४ ॥ जैन सिद्धांतने जाणनारा जे महान साधुपुरुपो छे. तेमनामां गुणने आश्रयी आ वावतो छे, जेमके बीजगणित विगेरेमां कोई पार पामेलो होय तथा ज्योतिपना आठे अंगमा प्रवीण होय तथा दृष्टिवाद नामना बारमां अंगमां बतावेल तमाम दर्शनोनी बतावेली 8 जुदी जुदी युक्निओने पोते जाणे अथवा द्रव्यना संयोगोने अथवा हेतुओने जाणे. ____ तथा सम्यग ("अविपरीत") दृष्टि होय के जेथी देवताओथी पण पोते चलयमान् न थाय. तथा अवितथ जेनुं ज्ञान होय आवा पवित्र आचार्य विगेरेना गुणोनी प्रशंसा करतां पोताना आत्मानी श्रद्धा निर्मळ थाय छे तेज प्रमाणे कोइ पण गुणर्नु वर्णन करतां ते पवित्र पुरुषना गुणो मळे छे, तथा मंदबुद्धिवाळाने तेवा' गुणो कीर्तन.न थाय. तो AGRAM Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवा पूर्व महर्षिनां नामो लेवाथी पण धर्ममां श्रद्धा थाय हे, अथवा तेवा 'पुरुषने सुरनरना' स्वामिओए पूज्या ते कथा सांभळतां अथवा पुराणां चैत्योने पूजवाथी के तेवी पीजी क्रिया करवाथी तेओने गुणोनी वासना मळवाथी दर्शन शुद्धि थाय छे, ते दर्शननी । प्रशस्त भावना छे.. ., 'ज्ञान भावना.. । । १०.३॥ ' तत्तं जीवाजीवा' नायव्वा जाणणा इहं दिट्ठा । इह कन्जकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य ॥ ३३५॥ ॥१०८३॥ - बद्धो य बंधहेउ बंधणबंधप्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचोऽवि य इयं कहिओ जिणवरेहिं ॥३३६॥ ' ' नाणं भविस्सई एवमाडया बायणाइयाओ या सज्झाए आउत्तो गुरुकुलवाप्तो य इय नाणे ।। ३३७॥ जीनेश्वरनुं वचन जेवी रीते पदार्थो के तेवी रीते संपूर्ण पदार्थोनुं वर्णन करे छे, तेथी ते प्राचन कहेवाय छे. अने ते ज्ञान भणवाथी मोक्षतुं प्रधान अंग सम्यकदर्शन प्रगट करे छे. कारण के तत्त्वोनुं स्वरुप 'जाणीने तेमां श्रद्धा करवी तेज सम्यग * दर्शन छे. जीव, अजीव, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर बंध, निर्जरा अने मोक्ष ए नव तत्त्वो छे, ते नव पदार्थोने नवतत्त्व ज्ञानना अर्थीए । बरोबर जाणवा जोइए अने ते जाणवानुं साधन जिनेश्वरना वचनमांज छे. . , वळी आ जिनवचनमाज परमार्थ रुप छेवटचें कार्य मोक्ष छे ते मोक्ष मेळववानी क्रिया करवामां महान उपकारक सम्यगदर्शन दज्ञान-चारित्र मुख्यपणे छे, BI कारक (क्रिया करनारो) साधु सभ्यग दर्शन विगेरेनुं अनुष्ठान बरोबर करनार छे अने ते प्रमाणे क्रिया करवाथी आज जैन दर्शनमा छेवटे मोक्षनी प्राप्ति छे तेज क्रियासिद्धि जाणवी तेने बतावे छे.. ARCHSC CROSANCTACLEX HARGod Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०८४ ॥ - प्रथम कर्मबंधननुं स्वरूप जाणयुं अने तेमां विरक्त थधुं तेथी कर्मक्षय थतां मोक्ष प्राप्ति थाय, आवी क्रिया बौद्ध विगेरे दर्शनमां न होवाथी मोक्षनी क्रियासिद्धि पण अशक्य छे. . आ प्रमाणे प्रथम ज्ञान भणवाथी अने ते प्रमाणे वर्त्तवाथी ज्ञान भावना थाय छे तथा आठ प्रकारना कर्मना पुद्गलोथी जीव दरेक प्रदेशे बंधा लो छे, तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय अने योगो कर्म बंधनना हेतुओं छे अने आठ प्रकारना कर्मवणानं रुप पूर्वे का प्रमाणे बंधन छे अने ते उदय आवतां एनुं फळ चार गतिवाळा संसारमां भ्रमण करीने सुख दुःखने भोगववानुं छे. आ वधुं जिनवचमांज कहेलुं छे. ''1 अथवा दुनियामां जे कं सुभाषित हितकारक वचन छे ते अहीं प्रवचनमां कहेलं छे ते ज्ञानभावना छे. वळा आ जिनवचनमां आ संसारनुं जे विचित्र स्वरूप छे ते विस्तारथी कां छे. " " तथा हुं निर्मळ भावे भणीश तो मारुं ज्ञान वधारे निर्मळ धशे एवी ज्ञानभावना भाववी अर्थात् रोज़ रोज नवें नंबुं ज्ञान संपादन कर, आदि शब्दथी एकाग्रचित्त विगेरे गुणो आ ज्ञानथी थाय छे. वळी अज्ञानी जे कर्म करोडी वरसे खपावे छे तेने ज्ञानी एक श्वासोश्वासमां खपावे छे. आवां कारणोथी ज्ञान भणवं, एटले ज्ञाननो संग्रह थाय. कर्मनी निर्जरा थाय भूली न जवाय अने स्वाध्याय करतां चित्तमां आनंद रहे आ कारणोथी ज्ञानभावना बढे दरेक साधुने गुरुकुळवास थाय छे ते बतावनारी गाथा कहे छे. ' " णाणस्स होइ भागी थिरयर ओ दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ।। १ ।। सूत्रमू ||१०८४ ॥ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2315251959- ०८५॥ - ज्ञाननो भागी थाय, श्रद्धा अने.चारीत्रमा स्थिर चित्तवाळो थाय, आवां कारणोथी जेओ गुरुकुळवास नथी मुक्ता, तेवा चिा० पुरुषोने धन्य छे. आवी ज्ञाननी भावना जाणवी.' ' . हवे चारित्रनी भावना कहे ... साहुमहिंसाधम्मो सच्चमदत्तविरई य बंभ च । साहु परिग्गडविरई साहु तो बारसंगो य ।। ३३८॥ । 15 वेरग्गमप्पमाओं एगत्ता (ग्गे) भावणा य परिसंग । इय चरणमणुगयाओ भणिया इत्तो तवो वुच्छं ।। ३३९॥ . ॥१०८५॥ ६ अहिंसादि लक्षणवाळो जैनधर्म श्रेष्ठ छे. आ पहेला व्रतनी भावना छे तथा आ जिनेश्वर वचनमा निर्मळ सत्य छे तेवू बीजे नथी. आ वीजा महाव्रतनी भावना छे, त्रीजा व्रतनी भावनामां अहीं पारको माल न लेवातुं बरोबर बतान्यु छे, चोथा महाव्रतनी भावनामा ब्रह्मचर्यनी नववाडो पाळवा- अहीं वताव्यु छे, पांचमां महाव्रतनी भावनामां जरुरनां उपकरण सिवाय परिग्रहन त्यागपणुं 8 सर्वोत्तम जिन वचनमां वताव्यु छे बार प्रकारनो तप पण अहीं इंद्रियोना विजय माटे तथा कर्मो खपाववा माटे अहीं वताब्यो छे. वैराग्य भावनामा संसारनां देखीतां सुखो परिणामे तथा अंतरदृष्टिए जोतां दुःखरुप छे माटे विष्टा समान जाणीने दूरथी| 18/त्यागवा योग्य छे एम भावq. ___अप्रमाद भावनामां जाणवू के जे जीवो दारु विगेरेना व्यसनमां के क्रोधादि करीने के इंद्रियोने वश था केवां दुःख भोगवे || छे ते विचारी पांचे प्रमादोने छोडवानुं अहीं छे. एकाग्रभावनामां आ गाथा विचारवी. " एक्को मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुभो । सेसा मे बहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" - -- --कवाद Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०८६ ॥ जे कोइ संसारी जीव के साधु देखीता मनोहर विषयोथी मुझाइने विलयाय अथवा तेवा सुंदर विषयोना वियोगमां घेलो थाय तेवा पुरुषने चित्तामां अपूर्व शान्ति माप्त करवा आ उपदेश छे के तुं तारा हृदयमां आ प्रमाणे विचार के मारो आत्मा निरंतर रहेनारा जन्म मरणथी मुक्न ज्ञान दर्शनना लक्षणबाळो छे, बाकी जे कंद शरीर विगेरे चलायमान देखाय छे ते कर्मना संयोगथी मने मळेलुं छे, हुं तेनाथी जुदो हुं मारुं स्वरूप चेतन छे अने शरीर विगेरे जड छे. (आ निश्चय नयनी भावना जाणवी . ) आ भावनाओ रुपिनुं अंग छे अने चारित्रने आश्रयी (टेको आपनार ) छे. ( हवे तपनी भाव कहे छे. ) किह मे हचिज्जवंशो दिवसो ? किं वा पहू तवं काउं ? । को इह दब्वे जोगो खित्ते काले समयभावे ? || ३४० ॥ साधुए निर्मळ चारित्र पाळवा हंमेशां चितवनकर के विगइओ विगेरे त्यागीने मारो दिवस हंमेशां क्यारे सफळ थशे ? तथा हुँ क्यो तप करवाने शक्तिवान छु ? तथा क्या द्रव्य विगेरेमां मारो निर्वाह थशे ? आवुं चिंतत्र, तेमां बने त्यांसुधी साधु द्रव्यमां उत्सर्गथी वाल चणा विगेरे वापरवा, क्षेत्रमां ज्यां घी दुध मळे के लुखा रोटला मळे तो पण संतोषथी विहार करवो, काळमां ठंडी मां के उनाळामां विहार करवो तथा भवमां हुं सानो होवाथी आ तप करवाने शक्तिवान हुं आवी रीते द्रव्य क्षेत्र काळ भावथी विचारी यथाशक्ति उपकरण विगेरे जोइतांज राखीने परिसहो सहेवा तप करवो. तत्त्वार्थमूत्रना छठा अध्यायमा २३ मी सूत्रमां कंछे के यथाशक्ति त्याग अने तप करवो. उच्छाहपाल इति (एव) तवे संजमे य संत्रयणे । वेरोऽणिच्चाई होइ चरित्ते इहें पगयं ॥ ३४९ ॥ सूत्रमू ॥१०८६ ॥ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा ॐॐ ।१०८७॥ तथा अणसर विगेरे तपस्यामा पोतानुं बळ अने वीर्य न गोपवतां उत्साह राखवो अने लीधेला तपने पुरो पाळवो. "तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झिअन्वयधुवम्मि । अणिमूहिअबलविरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥१॥ - सूत्रम् कि पुण अवसेसेहिं ‘दुक्खक्खयकारणा सुविहि एहि । होइ न उज्जमिअव्वं सपच्चवायंमि माणुस्से ? ॥२॥" तीर्थकर दिक्षा लेतांज चार ज्ञानी थाय छे, देवता पूजे हे, निश्चमोक्षमा जवाना छे, आटलुं छतां. पण पोतार्नु घातीकर्म खपाववा बळ वीर्यने न गोपावतां अघोर तपश्चर्या करे छे. तो ते सिवायना वीजा सारा साधुभो दुःखनो क्षय करना अने मनुष्य जीवन | अनेक विघ्नोवाळ ळे तो तेमणे शामाटे पुरो उद्यम न करवो जोइए ? आवी तपनी भावना भाववी, संयम भावना इंद्रियो अने मनने वश राखवा माटे छे तथा संघयण ते वर्ज रुपम विगेरेमा तपनो निर्वाह थइ शके तेवी भावना भाववी. आ प्रमाणे वार भावनाओ भाववाथी आत्म निर्मळ थाय छे, एम भावनार्नु स्वरुप अनेक प्रकारे थाय छे ते शि योने जाणवा * माटे लख्यु छे. पण चालु वातमां तो चारित्र भावना साथे प्रयोजन छे, माटे वीर प्रभुनुचरित्र नियुक्तिनो अनुगम कहीने मूत्रन । उच्चारण करतां कहे छे. महावीर प्रभुनु चरित्र. तेणं कालेणं तेणं समएण समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि हुत्था, तंजड़ा-इत्युत्तराई चुए चइता गम्भं वकंते हत्थुचराहिं गब्भाओ गन्भं साहिरए हत्थुत्तराहि जाए इत्युत्तराहि मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पब्बइए हत्युत्तराहिं कसिणे पडिपुन्ने अव्वाघाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पने, साइणा भगवं परिव्वुए (मू० १७५) , ते काळ ते समय एटले विक्रम संवतना ४७० वरस पहेला महावीर प्रभुनो जन्म थयो एवी हालनी गणतरी छे अने नव COLOCA- A ब- ब- RRES ब- र Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥। १०८८ ॥ महिना अने साडासात दिवस पहेलां महावीर स्वामि माताना उदरमां आव्या हता तेने जैनमतमां प्रभुनुं पवन थयुं विगेरे चाचतो कहे छे. जैनोमां दरेक तीर्थकरनां पांच कल्याणक छे एटले च्यवन जन्म दिक्षा केवळज्ञान अने मोक्ष छें महावीर प्रभुने एक माताना गर्भमांथी बीजी माताना गर्भमां मुक्या तेने गर्भापहार कहे छे हुंकाणमां समजावा प्रथम चंद्रनक्षत्र कहे छे. महावीर प्रभुने च्यवन गर्भामहार "जन्म दिक्षा केवळज्ञान एं उत्तराफाल्गुनीमां थयां छे अने भगवाननो मोक्ष स्वाति नक्षत्रमां थयो छे. ते विस्तारथी पछीना सूत्रमां छे. AADLA समजे भगवं महावीरे इमार ओसप्पिणीए सुसम सुसमाए समाए बीइकंताए समाए वीकंताए सुसमदुस्समाए समाए वी - कंताएं दूसमसुसम ए समाए बहु विताए पनिहतरीए वासेहिं मासेंहि व अद्वनमेहिं सेसेदिं जे से गिम्दाणं उत्थे मासे अह पक्खे आसाढमुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स द्वीपक्खेण हन्युतराहिं नक्खत्तेणं जोगमुत्रा गएणं महाविजयसि - द्धत्थपुप्फुत्तरवरपुंडरी य दिसासावत्थिपत्रद्धमाणाओं महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउयं पाळईशा आउक्खणं टिक्खणं भवक्खणं चुए चइता इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे दाहिणमाहकुंड पुर संनिवे संमि उसभदत्तस्स महाणस्स को डालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए सीहुमंत्रभूएणं अप्पाणेण कुच्छिसि गर्भ वक्कते; समणे, भगवं महावीरे तिन्नःणो गए या त्रि हुत्था, चइस्लामिति जाणऱ चुएमिचि जाणा चयमाणे न याणे, मुहुमे णं से काले पन्नत्ते तत्रो णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकेपणं देवेयं जीयमेय तिकट्टु जे से वासागं तच्चे मासें पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसी पक्खेणं इत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं वासोहि सूत्रमू ૫૮૮ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०८९ ॥ -राईदिएडिं वइकंतेहिं तेसीइमस्स राईदियस्स- परियाए बट्टमाणे दाहिणमाहण कुंदपुर संनिवेसाओ उत्तरखचियकुंड पुरसं नि5. वे संसि नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खचियस्स कासवगुत्तस्स तिमलाए खत्तियाणीए चासिह सताएः अनुभाणं पुग्गलाणं हारं करिता सुभाणं पुग्गलाण पक्खेवं करिता कुच्छिसि गन्धं साहरइ, जेवि य से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गढ़ तंपि य दाहिण माणकुंडपुर संनिवेसंसि उस० को ० : देवा० जालंधरायणगुत्ताए कुच्छिसि गन्धं साहरइ, समणे भगवं महावीरे गए यात्रि होत्था - साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ साहरिजमाणे न याणड़ साहरिएमित्ति जाणइ समणाउसो ! | तेणं समएणं तिमलाए खत्तियाणीए अहडनया कयाई नवहं मासाणं बहुपडिपुत्राणं अट्टमाण-राई दियाणं वीकंताणं जे से मिन्हाण पढमे मासे दुच्चे पक्खे चित्तमुद्धे तस्स णं चित्रमुद्धस्स तेरसी पक्खेणं हत्थु जोग० समणं भगवं महावीरं' अरोग्गा अरोग्गं पमृया | जष्णं राई तिसलाख स्मणं० महावीरं अरोया अरोयं पयात णं राई भवणवडवाणमंतर जोइसियविमाणवासिदेवेहिं देवीहि य उवयंतेहिं उप्पयंने िय एगे महं दिव्वे देवज्जोए देवसन्निवाए देवकहकर अपिलगभूए यात्रि हुत्या । जण्णं स्यणि० तिसलाख० समणं० पमूया तष्णं स्यणि बहवे देवा य देवीओ य एवं महं अमयवासं च १ गंधवासं चचुन्नवासं च ३पुप्फबा० ४ हिरन्नवासं च ५ रयणवासं च ६ वार्सिस, जण्णं रयणि तिसलाख० समण पसूया तरणं स्यणिं भवण वइवाणमंत रजोइसियविमाणवासिणो देवा य य देवीओ य समणस्स rai antaire कम्माई तित्थयराभिसेयं च करिंसु, जओ णं पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए ख० कुच्छिसि गन्धं आगए . पति कुलं विपुलेणं हिरणं सुवन्नेणं धनेणं माणिकेणं मुत्तिएण संखसिलप्पवाले अई २ सूत्रम् ||१०८९॥ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥१०९०॥ परिवड्डा३; तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमढे जाणिना निबतदसाहसि वुकंतसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाविति २.चा मित्तनाइसयणसंबंधिवरगं उवनिमंतंति मित्त० उवनिमंतित्ता बहवे 16 सूत्रम् समणमाहणकिवणवणीमगाहिं भिन्छुडगपडरगाईण विच्छउँति विग्गोविति विस्साणिति दायारेसु , पजभाइति विच्छडित्ता विग्गो० विसाणिशा दाया- पज्जभाइला मित्तनाइ० भुंजाविति मित्त० भुंजावित्ता मित्त० वग्गेण इममेयारूवं नाम- 18॥१०९०॥ धिज्जं कारवितिजओ णं पभिइ इसे कुमारे ति० ख० कुच्छिसि गड्भे आहूए तो णं पभिर इमं कुल विपुलेणं हिरनेण. संखसिलप्पवालेण अतीव २ परिचढाइ ता होउ णं कुमारे वद्रमाणे, तो णं समणे भगवं महावीरे.पंचधाइपरिबुढे, तखीरधाईए १ मज्जणधाईए २ मंडणधाईए ३खेलावणधाइए ४ अंकघा०५ अंकाओ अंकं साहरिजमाणे रम्मे मणिकुट्टि मतले गिरिकंदरसमुल्लीणेविव चंपयपायवे अहाणुपुब्बीए संबइ, तओणं समणे भगवं० विनायपरिणय (मित्ते) - विणियवत्तालभावे अप्पुत्सुयाई उरालाई माणुसगाई पंचलक्खाणाई कामभोगाइं सद्दफरिसरसरूवगंधाई परियारेमाणे एवं च विदरइ ।। (सू० १७६), . .. ..... .... ... . 'श्रमण भगवान महावीर आ अवसर्पिणीना चाथा आराने छेडे पंचोतेर चरसने साडाआठ महिना बाकी रहे छे, ते ग्रीष्मस्तुना 8 चोथे महिने आठमे पखवाडीए अषाढ शुद छठने दिवसे महाविज्य सिद्धार्थ पुष्पोपत्तर वर पुंडरिकदिशा सौवस्तिक वर्धमान नामना | महाविमानमाथी.देवता संबंधी बीस सागरोपमर्नु आयु पुरं करीने भव तथा, स्थितिनो क्षय थतां. चवीने आ जंबूद्वीपना भरत , क्षेत्रना दक्षिण अर्धभरतमां दक्षिण ब्राह्मणकुंडस्थानमां कोडालगोत्री रुषभदत्त ब्राह्मणना घरमां जालंधर गोपनी देवानंदा ब्राह्मणीनी %A4%AA%%% Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चिा० - सूत्रम् RECCANAONG Hu - x कुरखमां सिंहना बच्चानी माफक अवतर्या. 'ते समये श्रमण भगवान महावीर त्रण ज्ञान सहित हता तेथी देवलोकम च्यवीश गर्भमां अवतर्या पछी जाणे के है 'चव्यो; पण चषवानो काळ थोडो' होवाथी तेनुं ज्ञान यतुं नथी के हुँचबुं छु. . । त्यार पछी महावीर प्रभुने खरी भक्तिथी देवताए पोताना ईमेशना चार प्रमाणे ८२ दिवस, थया पछी आसो (गुजराती १०९१॥ भादरवो) तेरसना ते ब्राह्मणीना कुख मांथी त्यांथी थोडे दूर आवेला: क्षत्रियकुंड नगरमां ज्ञातवंशीयः काश्यप गोत्रना सिद्धार्थ | क्षत्रिय राजानी भार्या वाशिष्ट गोत्रनी त्रिशला क्षत्रियाणीनी कुखमां अशुभ पुद्गलो दर करीने शुभ पुद्गलो. मुकीने भगवामने आ गर्भमा मुक्या अने त्रिशला क्षत्रियाणीनो गर्भ देवानंदानी कुखमा मुक्यो.. , . . . . . . . . . ६- प्रभुने ज्यारे एक गर्भमाथी बीजे मुकवाना हता त्यारे त्रण ज्ञानवाळा होवाथी पोते जाणे के भने लइ जशे तेम लइ जतां न जाणे के लइ जाय छे. अने त्यां लइ गया पछी मुके ते पण जाणे.के मने मुक्यो ( अवधि ज्ञानीने आज जणाय . के आH प्रमाणे अमुक देवता करे छे, करशे के कयु.) बळी गणधरो पोताना शिष्योने कहे रे, हे. आयुष्यमन् श्रमण !, ते काळ ते समयने विषे ९ मास ने साडासात दिवसनी बने गर्भ स्थानमा गर्भ:स्थिति पुरी करीने ग्रीष्मस्तुमा पहेलो मास बीजु पखवाडीयु चैत्र शुद. | १३ ना दिवसे निरोगी त्रिशला माताए निरोगी पुत्र श्रमण भगवान् महावीग्ने जन्म आप्यो. अभुना जन्म समये 'मधरात पछी भुवनपति वानव्यंतर जयोतिषी वैमानिक देवदेवीओना आववाथी आकाशमां एक महान् । द्रव्य प्रकाश अने कोलाहळ 'थयो. '। ____ अने ते समये देवदेवीओए आवीने सुगंधी 'जल, सुगंधी वस्तु, चुर्ण फुल सोनारुपानी अने रत्ननी वृष्टि करी. -% - - - 8-47-48 - Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे रात्रीए भगवान जन्म्या ते समये देवदेवीए महावीर प्रभुनु जन्म संबंधी सूतिकर्म विगेरे कर्यु अने मेरु पर्वत उपर , प्रभुने 3/ आचा०६ लइ जइने जन्माभिषेक कर्यो. सुत्रमू वळी प्रभू माताना.गर्भमां हता ते समये प्रभुना पुन्योदयथी देवताए तेमना मातापिताना घरमां नवारसीयु धन लावीने नाख्यु । ॥१०९२॥ तथा बीजी दरेक रीते मातपितानुं धन, सोनुं चांदी रत्न शंख माणेक मोती परवाला बधी रीते वध्यां तेथी पूर्व करेला विचार ॥१०९२॥ ४ प्रमाते..पुत्र जन्मनुं दस दिवसनुं मृति कार्य कर्या पछी बारमे दिवसे चार प्रकारनो आहार तैयार करावीने मित्र ज्ञाति स्वजन तथा k| संबंधी वर्गने बोलावीने तथा श्रमण ब्राह्मण भिक्षुक विगेरेने तथा आंधळां पांगळां विगेरे दरदीओने बोलावी तेमने इच्छित आपीने || मन संतुष्ट करीने मातापिता ए बधांनी समक्ष पोताना पुनर्नु नाम तेना गुण. प्रमाणे एटले आ पुत्र वृद्धि करनार छे एवं अनुभवेलु अने विचार करी राख्या प्रमाणे जाहेर करीने वर्धमान राख्यु, त्यार पछो महावीर प्रभु माटे दुध धवरावनार स्नान करावनार शखगार करावनार खेलावनार खोळामां बेसाडनार एवी पांच धावमाताओ राखी अने ए पांच माताओ उपरात तेमना पुन्योदयथी मनोहर शान्त मुद्राबाळा, प्रभुने जोइने प्रसन्न थइने अनेक स्त्रीओ पोताना खोळामा रमाइवा लेती आ प्रमाणे लोकोने आनंद पमाडता| ॐ मणीरत्नोथी विभूषित घरमां जेम पर्वतनी गुफामां चंपकतुं झाड उछरे तेम मोटा थाय. ...... .. . प्रभुनी युवावस्था. ' है... धीरे धीरे बाळ अवस्था दूर थतां विशेष ज्ञान पामीने अनुभववाळा प्रभु उत्सुकता छोडीने मनुष्य संबंधी पांचे इंद्रियोनां सुंदर P कामभोगने भोगवतां शब्द स्पर्श रस रुत गंध विगेरेने अनुभवे के अने काळ मुखे निर्गमन करे छे.... .. R-GENERALA Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा० ९३॥ समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते तस्स णं इमे तिन्नि, नामधिज्जा एवमाहिज्जेति; तंत्रहा - अम्मापि संति बुद्धमाणे १ सहसमुइए समणे २ भीमं भयभैरवं उरालं अवेलयं परीसह — सह चिकटु देवेहिं से नाम कार्य समणे भगर्व महावीरे - ३, समणस्स णं भगवओं महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं तस्स णं तिन्नि नाम० तं० - सिद्धत्ये इ वा सिज्जसे इ वा जसे . इवा, समणस्स णं० अम्मा वासिहस्सगुत्ता तीसे णं तिनि ना० नं० - तिसलाइ वा विदेहदिन्ना इ वा पियकारिणि इ वासमणस्स भ० पित्तिअए सुपासे कासवगुत्तेणं, समण० जिट्टे भाया नंदिवद्धणे. कासवगुत्तेणं, समणस्स णं जेहा भरणी सुदंसणा कासवगुणं, समणस्स णं भग० भज्जा जसोया कोडिन्नागुत्तेणं, समणस्स णं० धूया कासवगो तेणं ''तीसें णं दो नामधिज्जा एवमा० - अणुज्जा इ वा पियदंसणा इवा, समणस्स णं भ० नत्तूइ कोसीया गुत्तेणं तीसे णं दो नाम तं सेवई इ वा जसवई इवा, ( मू० १७७ ) प्रभुना अने तेमना कुटुंबना नामो काश्यप गोत्रीय प्रभुनुं मातापिताए वर्धमान नाम पाढयुं, स्वभावीक गुणोथी श्रमण नाम पाइयुं अने भयंकर भूत विगेरेना तथा बीजा देवं मनुष्योना बधाएं परिसहो सह्या माटे देवोए श्रमण भगवान माहावीर एवं नाम पाढयुं. भगवान महावीरना पिता काश्यप गोत्रना तेमनां त्रण नाम हतां - सिद्धार्थ, श्रेयांस, यशस्वी. भगवाननी माता वशिष्ट गोत्रनी; तेना त्रण नाम छे, त्रिशला, विदेहदिन्ना प्रियकारिणि. 'भगवानना काका सुपार्श्व. मोटा भाइ नंदिवर्धन, मोटी बेहेन सुदर्शना ए बधा काश्यप गोत्रीय हता. भगवाननी भार्या यशोदा सूत्रम् ॥१०९३ ॥ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + आमा १०९४॥ AGROGRORSCORRECRUCHCHOCH कौडिन्य गोत्रनी हती. भगवातनी पुत्री काष्यप-गोचीनी तेना चे नाम छे-अनवद्या, प्रियदर्शना. भगवाननी दौहित्री कौशिक गोत्रनी,तेना वे नाम-शेपवती, यशोमती. .. समणस्स णं. ३ अम्मापियरो पासवच्चिज्जा समणोवासगा यावि हुत्या, ते णं बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पालइत्ता सूत्रम् छहं. जीवनिकायाण सारक्खनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरिहित्ता पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छिचाई पडिव- ॥१०९४॥ जित्ता कुससंथारगं वा दुरूहिता भत्तं पञ्चक्खायंति २ अपच्छिमाए मारणं तियाए संलेहणासरीरए झुसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा त सरीरं विष्वजहिता अच्चुए कप्पे देवचाए उववन्ना, तभी णं आउक्खएण भव० ठि० चुए चइत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिन्झिस्संति बुझिसति मुच्चिसंति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणभंतं करिस्तति (मू० १७८) भगवान्ना.मा बाप पार्थ परंपराना श्रमणोना उपासक हता, तेओ घणां वर्ष श्रमणोपासकपणुं पाणी छ कायना जीवनी रक्षणार्थे (पापनी) आलोचना करी निंदी गहीं पडिकमी यथायोग्य प्रायश्चित लइ दर्भ संस्तारक उपर बेसी भक्त प्रत्याख्यान करी छेल्ली मरण पर्यतना शरीर-संलेखना बडे शरीर शोषी काल समये काल करी ते शरीर छोडी अच्युत कल्पमाः देवपणे उप्तन्न। थयां. त्यांथी आयु क्षय थतां चवीनेमहाविदेह क्षेत्रमा छल्ले ऊसासे सिद्धबुद्ध मुक्त धइ निर्वाण पामी सर्व दुःखनो, अंत करशे. तेणं कालेणं २ समणे भ० नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहजच्चे विदेहमुमाले तीसं वासाई विदेहंसित्तिक? अगारमज्झे वसिमा अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपदि समत्तपइन्ने चिच्चा हिरन्नं चिच्चा सुवन्नं चिच्चा बलं चिच्चा वाहणं चिचा धणकणगरयणसंतसारसावइज्जं बिच्छड्डित्ता विग्गोवित्ता विसाणित्ता. दायारेसु णं दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छरं -CXCAKCARSCIESCOR REC Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 है। सूत्रम् ०९५॥ ॥१०९५॥ -स्व- 44-4UCKSECRE दलइत्ता जे से..हेमंताण-पदमे मासे पदमे पक्खे मग्गसिस्वहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं इत्युत्तरा० जोग. अमिनिकखमणाभिष्पाए यावि हुत्या, संवच्छरेण होहिइ अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स। तो अत्यसंपयाणं पवत्तई पुचमूराओ ॥१.एगा हिरनकोडी अट्टेव अणूणगा संयसहस्सा । मूरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरामुति ॥ २॥ त्तिन्नेव य कोडिसया अढासीइंच हुति कोडीओ। असिई च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥३ वेसमणकुंडधारी देवा लोगतिया महिडीया। बोडिति य तित्ययरं पनरसमु. कम्मभूमीसु ॥ ४॥ ममि य कप्पमी. बोद्धव्वा कज्हराइणो मझे । लोगंतिया विमाणा अट्टस-वत्या असंखिज्जा ॥ ५॥ एए देवनिकाया भगवं बोर्हिति जिणवरं वीरं । सबजगजीवहियं अरिहं ! तित्थं पवत्तेहि ॥ ६ ॥ तो णं समणस्स भ० म० अभिनिक्खमणाभिप्यायं जाणित्ता भवणवइवा० जो विमाणवासिणो देवा. य देवीभो य सरहिं २ रूवेहिं सएहि २ नेवत्थेहि सए २ चिधेहिं सन्चिाए सव्वजुईए सव्वबलसमुद्गएणं सयाई.२ जाणविमाणाई दुरुहंति सया० दुरूहित्ता अहाबायराई पुग्गलाई परिसाउंति २ अहासुहमाई पुग्गलाई परियाइंति २ उउप्पयति उ उप्पइत्ता ताए उकिटाए सिग्याए चबलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहे णं ओव यमाणा २ तिरिएणं असंखिजाइंदीवसमुद्दा वीइक्कममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छति, २ जेणेव उत्तरखत्तिय कुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति उत्तरखत्तियकुडपुरसंनिवेस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तेणेव झति वेगेण ओवइया, तओ. णं सके देविदे देवराया सणियं २ जाणविमाणं पट्टवेति सणियं २ जाणविमाणं पट्टवेत्ता सणिय २ जाणविमर्माणाओ पञ्चोरुहइ सणियं २ एगतमवकमइ एगंतमवक्कमित्ता महया: वेउचिएणं समुग्याएण समोहणइ २ एर्ग मई नाणामणिकणग-. कार-व-%EX Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा सूत्रम् ||॥१०९६॥ ॥१०९६॥ ESSAYASRA रयणभत्तिचित्तं मुभं चारु कतरुवं देवच्छंदयं विउव्वइ, तस्सणं- देवच्छंदयस्स बहुमझदेसभाए. एगं महं सपायपीढं नाणामणिकणयरयणचिचि सुमं चारुकंतरूवं सीहासगं विउबइ, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २.समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पायाहिणं करेइ २ समणं, भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ समणं भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदइ, तेणेव उवागच्छइ सणियं २ पुरत्याभिमुहं सीहासणे निसीयावेइ सणियं २ निसीयावित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिब्भंगेइ गंधकासाईएहिं उल्लोलेइ २ सुद्धोदएण मज्जावेद २ जस्त णं मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएगं साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेगं अणुलिंपइ २ इसि निस्सासवायवोज्झं वरनयरपट्टणुग्गयं कुसलनरपसंसियं अस्सलालापेलवं छेयारियकणगखइयतकम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं नियंसावेइ, २ हारं अद्भहारं उरत्यं नेवत्वं एगावलि पालंबसुत्तं पट्टमउडरयणमालाउ आविधावेइ आविधावित्ता गंथिमबेढिमपूरि मसंघाइमेणं, मल्लेणं कप्परुक्खमिव समलंकरेइ २ चा दुच्चपि महया वेउन्चियसमुग्धाएणं समोइणइ २ एग महं चंदप्पहं सिवियं सहस्सवाणियं विउब्वति, तंजहाईहामिगउसभतुरनरमकरविहगवानरकुंजररुरुसरभचमरसदलसीहवणलयभत्तिचित्तलयविजाहरमिहुणजुयलजंतजोगजुत्तं अचीमहस्समालिणीय मुनिरूविय मिसिमिसिंतरूवगसहस्सकलिय ईसि मिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं मुत्ताहलाताजालंतरोवियं तवणीयपवरलंबूसंपलंयतमुतदाग हारहारभूसणसमोणय अहियपिच्छणिज्जं पउमलयभचिचिर्स असोगलयभत्तिचित कुंदलयभत्तिचित्तं नाणालयभत्ति विरइयं सुभं चारुकतारूवं नाणामणिपंचवन्नघटापडायपडिमंडियग्गसिहरं पासाइयं दरिसणिज्ज सुरूवं-सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स । ओसत्तमल्लदामा जलथलयदिव्बकुसुमेहि Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सुत्रम् ॥१०९७॥ ॥१०९७॥ RECOR ॥१॥ सिवियाइ मज्झयारे दिव्वं वररयणरूवचिंचइयं । सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवररस ॥२॥ आलइय मालमउडो भासुरबुंदी वराभरणधारी। खोमियवत्थ नियत्यो जस्स य मुलं सयसहस्सं ॥ ३॥ छ?ण उ. भरोणं अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो । लेसाहिं विसुझंतो. आरुहई उत्तमं सीयं ॥ ४॥ सीहासणे निविट्टो सकीसाणा य दोहि पासेहि । वीयंति चामराहि मणिरयणविचित्तदंडाहिं ।। ५ ।। पुन्वि उक्खित्ता माणुसेहि साहटु रोमकवेहिं । पच्छा वहंति देवा सुरअसुरा गरुलनागिंदा ॥ ६॥ पुरओ सुरा बहती असुरा पुण दाहिणमि संमि । अवरे वहति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे ॥ ७॥ वणसंडं व कुसुमियं परमसरो वा जहा सरयकाले सोहइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ॥८॥ सिद्धत्यवणं व जहा काणायारवण व चंपयवणं वा । सोहइ कु०॥९॥ वरपडहभेरिझल्लरिसंखसयसहस्सिएहि तूरेडिं । गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥ १० ॥ ततविततं घणझुसिरं आउज्जं चउन्विहं बहुविहीयं वाइंति तत्य देवा बहुहिं आनट्टगसएहि ॥ ११ ॥ तेण कालेणं तेणं समएणं जे से हेमताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्म णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुरोणं इत्युत्तरानक्खणं जोगोवगएणं पाईणगाभिणीए छायाए विइयाए पोरिसीए छोणं भरेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणियाए सदेवमणुयामुराए परिसाए समणिज्जामाणे उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स मज्झमज्ञणं निगच्छइ २ जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणे व उवागच्छइ २ इसि रयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभाएणं, सणिय २ चंदप्पमं सिबियं सहस्सवाहिणि ठवेइ २ सणियं २ चंदप्पभाओ सीयाओ सहस्सवाहिणिओ पच्चोयरइ.२.सणिय २पुरत्याभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकारं CSSIA-%AC-ब-टक-पर CHESTOST Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० सूत्रमू :04-C-A-SC ॥१०९८॥ ॥१०९८॥ ओमुअद, तओ ण चेसमणे देवे भत्तव्यायपडिओ भगवओ महावीरस्स हसलवखणेणं पटेणं आभरणालंकार पडिच्छइ, तभोणं समणे भगव महावीरेदाहिणेणं दाहिगं वामेणं वाम पंचमुट्टियं लोय करेइ, तोणं सके देविदे देवराया समणस्स भगबओ महावीरस्स जन्नवायपडिए वइरामएणं थालेण केसाई पडिच्छइ २ अणुजाणेसि भतेत्तिकटु खीरोयसागरं साहरइ, तो णं समणे जाव लोयंकरिता सिद्धाणं नमुक्कारं करेइ २ सव्वं मे अकरणिज्नं पावकम्मंतिकटु सामाइयं चरित्रं पडिवजइ २ देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलिकखचित्तभूयमिव ठवेइ-दिव्यो मणुस्सघोसो तुरियनिनाओ य सकवयणेणं । खिप्पासेव निलुको जाहे पडिवजइ चरितं ॥१॥ पडिवजितुं चरित्र अहोनिसं सधपाणभूयहियं । साहटु लोमपुलाया सब्वे देवा निसाभिति ॥ २॥ तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइय खोवसमियं चरितं पडिवनस्स .. मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने अडूइज्जेहिं दीवहिं दोहि य समुद्देहि सन्नीणं पचिंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाई भावाई जाणेइ । तो णं समणे भगवं महावीरे पव्वइए समाणे मिरान्नाई सयणसंबंधिवर्ग पडिविसज्जेइ, २ इमं एयारूवं अभिग्गई अभिगिण्डइ-चारस वासाई वोसटुकाए चियत्तदेहे जे केइ उपसग्गा समुप्पजंति, तंजहा-दिव्वा वा. माणुस्सा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्म सहिस्सःमि खमिस्सामि अहिभासहस्सामि, तो गंस. भ. महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गई अभिगिदित्ता बोसिट्टचत्तदेहे दिवसे मुद्दत्तसेसे कुम्मारगाम समणुपत्ते, तओ णं स० भ० म० बोसिट्टचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएगं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिईए गुत्तीए तुट्टीएठाणेणं क्रमेणं सुचरियफलनिव्वाणुमुत्तिमग्गेण अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, एवं वा K-CRACRECR-CARSC-SCI- A CAA- C+ A Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा 9ROSAG MS-C4-04-C- सूत्रम् ॥१०९९५ - - ES विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुप्पजति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाजले अव्वहिए, अद्दीणमाणमे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहिआसेइ, तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वीइकना तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे, चउत्थे पक्खे बइसाहसुद्धे तस्स णं वेसासुद्धस्स दसमीपक्खेंणं सुव्वएग दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहि नक्षत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छयाए वियनाए पोरीसीए नंभियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकले. सामागस्त गाहावइस्स कट्टकरणंसि उडुंजाणूअहोसिरस्प्त झाणकोहोवगर्यस्स वेयावतस्स चेइयस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सालरुक्खस्स अदूरसामंते उकुडुयस्स गोदाहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छ?ण भत्तेणं अपाणएणं सुकज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्म निव्वाणे कमिणे पडिपुन्ने अव्वाहए निरावरणे अणंते अणुसरें केवलबरनाणदसणे समुप्पन्ने, से भगवं अरह जिणे केवली सधन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पजाए जाणइ, तंआगाई गई ठिई चयणं उबवायं भुवं पीयं कड पडिसेवियं आविक्रम्मं रहोकम्भं लवियं कहियं मणोमाणसियं सचलोए सचजीवाणं मन्चभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ, जण दिवसं समणस भगवो महावीरस्स निवाणे कसिणे जाव समुप्पन्ने तण्णं दिवसं भवयवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेदिय देवीहि य उवयतेहिं जाव उप्पिजलग भूए.यावि हुत्था; तो णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्नवरनाणदंसणधरें अपाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुब्बं देवाणं धम्ममाइक्खर, तनो. पच्छा मणुस्तणं, तभो. णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदसणधरे गोयमाणं समणाण पंच महब्ब - - -NCC-% .. . Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा० ॥११००॥ . याई सभावणाई छज्जीवनिकाय आंतिक्खतिं भासाइ परूबेड़, तं पुढवीकार जात्र तसकाए, पढमं भंते ! महव्त्रयं पचक्खामि सव्वं पाणावायं से सहुभ वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेत्र सयं पाणाइवायं करिज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविणं मणसा वयप्ता कायसा तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति, तत्थिमा पंढमा भावणा ते का ते समये जगवख्यात, ज्ञात (सिद्धार्थ ) पुत्र, ज्ञातवंशोत्पन्न, विशिष्ट देहधारी, (त्रीशला ) पुत्र, कंदर्पजेता, गृहवासथी उदास एवा श्रमण भगवान् महावीरे त्रीश वर्ष घरवासमा बसी, मात्रांप कालगत थइ देवलोक पहोंचतां 'पोतानी प्रतिज्ञा समाप्त थइ जाणी सोनुं, रुपुं, सेनावाहन, धनधान्य, कनकरत्न, तथा दरेक कीमती द्रव्य छोडी (दानार्थे) अर्पण करी, दान दर, शीयाळाना पेला मासमा पेले पक्षे मागसर वदि १०ना दिने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रना योगे दीक्षा लेवानो अभिप्राय कर्यो. ते पछी भगवाननो निष्क्रमणाभिप्राय जाणीने चारे 'निकायना देवो पोतपोताना रूप, वेष तथा चिन्हो धारण करी सघळी रुद्धि, श्रुति, तथा वळ साथै पोतपोताना विमानोपर चडी बादर पुद्गलो पलटावी सुक्ष्म पुद्गलोमां परणभावी उंचे उपडी अत्यंत शीघ्रता अने चपकतावाळी दिव्य' देवगतिथी नीचे उतरता तिर्यक्लोकमां असंख्याता द्वीप समुद्र उल्लंघीने ज्यां जंबूद्वीप छे, त्यां आवी क्षत्रियकुंड, नगरना इशान कोणमां उतावळ । भवी पहोंच्या. k त्यारवाद शक नामे देवना इंद्रे धीमे धीमे विमानने त्यां थापी, धीमे धीमे तेमांथी उतरी, एकांतें जइ मोहोटो वैक्रिय समु दात करी एक महान मणि -- सुवर्ण तथा रत्नजडित, शुभः मनोहर रूपवाएं देवच्छेदक (ओरडो) विकु (चना) सूत्रम् ।।११००॥ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारस्स भगवओ चउत्थ-चूलाइ एस निज्जुत्ती । पंचमचूलनिसीहं तस्स य उवरि भणीहामि ॥ ३४४॥ । सत्तर्हि, छहि.चउचउहि य पंचहि अट चउहि नायव्वा । उद्देसएहि पढमे सुयखंधे नव य अज्झयणा । ३४५ ॥ 1.. इक्कारस तिति दोदो दोदो उद्देसएहिं नायन्वा । सत्तय अट्टयनवमा इक्कसरा हुति अज्झयणा ॥ ३४६ ॥ तथा महापरिज्ञा नामनुं अध्ययन विच्छेद जवाथी तेनी नियुक्तिनुं विवरण टीकाकारे न करवाथी नीचे मुकी छे' पाहण्णे महसदो परिमाणे चेव 'होइ नायबो। पाहण्णे परिमाणे य छविहो होइ निक्खेवो ॥॥ दव्वे खित्ते काले भावमि य होती या पहाणा उ । तेसि महासदो खलु पाहण्णेणं तु निप्फनो ॥२॥ ..:दब्वे खेत्ते काले भावमि य जे भवे महंता उ । तेसु महासदों खलु पमाणओ होति निष्फनो ॥३॥ , दव्वे खेचे काले भावपरिण्णा य होइ बोद्धव्वा । जाणणओववखणओ य दुविहा पुणेकेका ॥४॥ ..' भावपरिण्णा दुविहा.मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहदुहाविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥५॥ पाहण्णेण उ पगय परिणाएय तहय दुविहाए । परिणाणेसु पहाणे महापरिण्णा तो होइ॥ ६॥ । . । देवीणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं । तिविहेण परिचाओ.महापरिणाए निज्जुत्ती ॥७॥ sunn-0INDIBINDI __... - आचाराङ्गसूत्र. समाप्त थयु. .... ..... anaisinomamausindia . .. '... Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aptoperaterpiec इति श्रीआचारांगसूत्रं समाप्तम् 00000000000000000 Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोदय समितिना ग्रंथो. -- श्रीमज्जनसिध्धान्तवाचनाप्रकाशनकारिका नदीमूत्र 2-4-0 अनुयोगद्धार 2-4-0 श्रीमती आगमोदयसमितिः स्थानांग उत्तरार्ध स्थापना:-श्रीमल्लीतीर्थे वोर सं० 2441 माघ शुक्ल दशम्याम् / भगवतिमूत्र तृतीयभाग..... 3-4-0 विचारसार प्रकरण . 0-8-0 निरयावलो सूत्र . 0-12-0 विशेषावश्यक गाथा / 0-5-0 विषयाकारादि क्रम / गच्छाचार पयन्नो .. 0-6-0 धर्मबिंदु प्रकरण 0-12-0 विशेषावश्यक भाष्य मूल) स्था टिकानु गुजराती 2-0-0 भाषान्तर भा. 1 को. रायपसेणी.... 1-8-0 पात्तिस्थान:जैन फीलोसोफी... 1-0-0 मास्तर विजयचंद मोहनलाल. योग----- 0-12-0 ठे० दे० ला० धर्मशाळा, गोपीपुरा-मुरत. पति 6000 सं. 1982 शेठ दे० ला० जै० पु० फडना ग्रंथो. आनंद काव्य म० मौ० 4 थु 0-12-0 , 5 मुं०-१०-० ६टुं०-१२-० श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र २-०सेन प्रश्न ( प्रश्नोत्तर रत्नाकर) 1-0-0 , आवश्यक टीप्पण 1-12-0 जैबुद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक उत्तराध 2-0-0 श्रीपालचरित्र संस्कृत 0-14-0... मूक्त मुक्तावली प्रवचन सारोद्धार सटीक पूर्वार्थ 3-0-0 . तंदुल वैयालीय पयन्नो सटीक 1-8-... विशति स्थानक चरित पद्यबद्ध 1-0-0 कल्पमूत्र सुबोधिका 2-0-0 सुबोधा समाचारो श्रीपाल-चरित्र-पाकृत साक्चूर्णिक 1-4-0 ..