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आचा० ॥७५६॥
लेवाथी वचलां त्रण आवे छे. ) तेथी जुठ न बोलता चोरीने त्यागी ब्रह्मचर्य पाळता विचरे एवा साधुओ पोताना देहमां पण ममत्व त्यागे छे. एमज वधा लोकने विषे कोइपण जातनो परिग्रह तेओ राखता नथी. (च समुच्चयना अर्थमां छे. अने ते भिन्न क्रम बतावे छे. णं वाक्यनी शोभा माटे छे.) वळी प्राणीओने दंडे ते दंड छे, अने ते दंड बीजा जीवने परिताप करनार छे. ते दंडने प्राणी तरफ अथवा प्राणी विषे नांखवाथी पाप थाय कर्म वेधाय तेथी ते पाप रूप कर्म ते अढार प्रकारनुं छे. तेने पोते उत्तम साधु आचरतो नथी.तथा वाह्य अभ्यन्तर ग्रन्थ छे तेने त्यागवाथी तेवा साधुने तीर्थङ्कर गणधर विगेरेए अग्रंथ (निर्ग्रन्थ) कह्यो छे.
प्र० - आवो कोण थाय ? उ०- 'ओजः ते अद्वितीय एटले रागद्वेष रहित होय छे. तथा द्युतिवाळो एटले संयम अथवा मोक्ष छेतेना खेदने जाणनारो छे. अने ते निपुण होवाथी देवलोकमां पण उपपात च्यवन छे. एम जाणीने विचारे छे के बधां संसारी स्थान अनित्य छे. एवी बुद्धिथी पोते पाप कर्मने वर्जनारो थाय छे. केटलाक पुरुषो तो मध्यम वयमां पण चारित्र लीवेला परिषद तथा इन्द्रियोथी ग्लानता पामे छे. ते बतावे छे.
आहारोवचया देहा परीसहप भंगुरा पासह एगे सविदिएहिं परिगिलायमाणेहिं (सु० २०८) आहारथी उपचय थाय ते आहारोपचय छे.
प्र० – ते कोण छे ? उ० – देहो छे. ते देहो आहारना अभावमां झांखाश लावे छे अथवा ते नाश पामे छे. ते प्रमाणे परषहो आवेथी भंगुर छे. तेथी आहारथी देहो पुष्ट थया छतां पण परिषदो आवतां अथवा वायु विगेरेना अटकावथी ग्लानी पामे छे. एटले गुरु शिष्य ने कहे छे. हे शिष्यो तमे जुओ के केटलाक बधी इन्द्रयो झांखी पडतां कलीबताने पाये छे. ते बतावे छे. भूखथी
सूत्रम
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