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सूत्रम् ६००॥
8 वर्णन छे.) वळी कोइ पण कार्यमां गुरुए मोकल्यो होय, तो. प्राणीओने साडात्रण हाथनी जग्यामां शोधतो तेने दुःख न थाय,
तेम यतनाथी चाले वली:आचा०.8
में से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवमाणे संपलिज्जमाणे एगया गुण॥६००॥ समियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविजावडियं,
जं आउट्टिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेइ', एवं से अप्पमाएण विवेगं किदृइ वेयवी ॥ सू० १५८॥ 15
ते साधु सदा गुरुनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो होय छे, ते अभिक्रम जतो के पाछो फरतो, के हाथ पगने संकोचतो; हाथ विगेरे अवयवने पसारतो, बधा अशुभ वेपारथी पाछो हटतो, होय त्यारे बरोबर रीते बधी बाजुए हाथ पग विगेरे
शरीरना अवयवोने तथा तेना स्थानोने रजोहरण विगेरेथी पूंजीने गुरुकुलवासमां बसे, त्यां रहेनारनी विधि कहे छे. * जमीन उपर एक उरु (जांघ) स्थापीने बीजो उचो राखीने बेसे, निश्चळ स्थाने तेम न बेसाय तो भूमि देखीने जीने कुकडीना 1. बेसवा प्रमाणे संकोचे, अथवा जरुर पढे लांबा पहोळा पण करे सुबुं होय; तो पण मोरनी माफक सुवे. कारणके ते मोरने बीजा
पाणीनो भय होवाथी एक पासे सुवे, तथा हमेशा सचेतन सुवे, तेज प्रमाणे साधुने पासुं फेरवq होय तो पण देखीने पूंजीने ४ फेरवे एज प्रमाणे वधी क्रियाओ पुंजी प्रमार्जीने यतनाथी करे; आ प्रमाणे अप्रमादीपणे क्रिया करतां छतां अवश्य बनवाकाळने ४
लीधे शुं थाय, ते कहे छे, कदाच ते गुणयुक्त साधुने अप्रमत्तपणे वर्धा अनुष्ठान करवा छतां, जतां आवतां संकोचतां पसारता पाछा |
AACHAR