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सूत्रम्
॥६०१॥
फरतां प्रमार्जन करतां कोइपण अवस्थामां पोतानी कायाना समागममां आवेला संपातिम (उडता) केटलाक जंतुओ परिताप पामे, आचा०
# केटलाक ग्लानी पामे, कोइनो अवयव नाश पामे, अने अंतअवस्था तो सूत्रकारज बतावे छे के, केटलाक पाणथी पण दूर थाय छे, ॥६०१॥
आमां कर्म संबन्धी विचित्रता छे, शैलेशी अवस्थामा रहेला साधुने मशक विगेरेना कायनो स्पर्श थतां कोई जंतु मरण पामे, तो पण वन्धना उपादान कारण योगना अभावथी बन्ध नथी. उपशांत तथा क्षीणमोह तथा संयोगी केवलिने स्थिति निमित्त 'कषायो' ना अभावथी एक समयनोज बन्ध छे. अप्रमत्त साधुने जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी कोडाकोडी सागरोपमनी अंदरनो बन्ध छे, पण प्रमत्त साधुने अनाकुट्टीना कारणे तथा विना देखे वर्तन करवाथी कोइ प्राणीनो पोताना पग विगेरेथी स्पर्श थतां तेने उपतापना |
विगेरे थतां जघन्यथी तथा उत्कृष्टथी अप्रमत्त माफक छे, पण प्रमादना कारणे काइक विशेष बन्ध छे. अने ते तेज भवे क्षेपाय | 4 (दुर थइ शके) छे, ते सूत्र वडेज बतावे छे. आ जन्ममांज भोगवq, ते आलोकवेदन छे, तेनावडे भोगव, ते आलोकवेदनवेद्य छे, ।
| तेथी आवी पडेलुं वे आलोकवेदनवेद्य आपतित छे, तेनो भावार्थ आ छे, प्रमत्त यतिए पण जे विना इच्छाए भूल करी ते कायना। * संघटन विगेरेथी कर्म वन्ध थयो, ते आ भवना अनुवन्धरूपे छे, ते भवे खेरवी शकाय तेम छे, आकुट्टीथी करेला कृत्यमां शुं करवू
ते कहे छे, आगममां कहेल कारण विना (फक्त भुलथी) पाणीने दुःख दीधुं होय, तो ज्ञ परिवाए जाणीने विवेक करवो, प्रायश्चित
लेवु, ते दश प्रकारनुं छे, (ते गुरु पासे लेवू) अथवा तेनो अभाव करे, अर्थात् एवं कृत्य करे के तेनो अभाव थाय, कर्मनो जेम 18 अभाव थाय, ते वतावे छे, 'एव'-हवे वतावे ते उपाय प्रमाणे ते क्रोधादिथी करेला कृत्यना विवेक माटे वेदविद् (ज्ञाता) साधु
प्रमादने दूर करी दश प्रकारमाथी कोइ पण प्रकारनु जे योग्य होय, ते सम्यग् अनुष्ठानवडे करीने अभाव करे अथवा तीर्थकर