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आचा०
सूत्रम्
॥६६१॥
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पास मुणी! महब्भयं नाइ वाइज कंचणं (सू० १७८) .
(गुरु कहे छे हे शिष्यो!) कर्मना विपाकथी आवेलां बहु दुःखो जे जीवोने छे, जेथी ते जाणीने तमारे तेमां अप्रमादवाळा थ. प्र. वारंवार आवो उपदेश केम करो छो? उ-कारण के अनादि भवना अभ्यासथी न गणाय, तेटला उत्तर परिणामवाळा इच्छामदन विषयोमां गृद्ध थयेला पुरुषो छे. तेथी पुनरुक्ति दोष लागतो नथी, हवे काम (कुचेष्टा) मा जे जीवो आसक्त छे, ते शुं मेळ वे छे, ते कहे ठे-बलरहित (निःसार) तुप (डीगरनां फोतरां) नी मुही समान औदारिक शरीर जे पोतानी मेळे भंग नाश ना स्वभाववाढं छे, तेना बडे सुख मेळववा कर्मनो उपचय करीने अनेकवार वध (मरण घात) ने मेळवे छे;
म–कयो माणस आवा कडवा विपाकवाली संसारी वासनामां रति (आनंद) माने? ते कहे छे' जे मोहना उदयथी आर्त थयेल छे. अने कार्य अकार्यना विवेकने गणनो नथी, ते प्राणी जेना वढे बहु दुःख पमाय तेवा काम विषयोमा गृद्ध थाय छे, अथवा प्राणीओने कलेशरुप कृत्यने पोते रागद्वेषथी आकुळ बनेल बाळजीव प्रकर्षथी करे छे. अने तेवां पाप करवाथी तेना कर्मना फळरुप विपाकथी अनेकवार पोते वध पामे छे, (बुरे हाले मरे छे) अथवा पूर्वे वतावेला रोगो आवतां हवे पछी कहेवातां अकृत्यने वाळ (मूर्ख) जीव करे छे, ते वतावे छे-गंडमाळा कोढ क्षय विगेरे रोग आवतां ते रोगोनी वेदनाथी गभराइने तेने दर करवा माटे वीजा पाणीओने संतापे छे, लावक विगेरे पक्षीनं मांस खातां क्षय रोग मटशे, आवा कुवा
क्योने सांभळीने जीववानी पोते आशाए प्राणीओने महा दु.खरुप अकार्यमां पण वर्ते छे, पण आम विचारता नथी, के पोतानां ४ करेलां पापोनां फळ ऊदयमां आव्या विना रहे नहि, माटे उदयमां आवेल छे, तथा कर्म शांत थतां ते उपशम (शांत) थाय छे,
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